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दिवाली(दीपावली) का शुभ दिन बीत गया-आलेख (hindi article on diwali festival


होश संभालने के बाद शायद जिंदगी में यह पहली दिवाली थी जिसमें मिठाई नहीं खाई। कभी इसलिये मिठाई नहीं खाते थे कि बस अब दिवाली आयेगी तो जमकर खायेंगे।  हमें मिठाई खाने का शौक शुरु से रहा है और कुछ लोग मानते हैं कि मिठाई के शौकीन झगड़ा कम करते हैं क्योंकि उनकी वाणी में मधुरता आ जाती है। हम भी इस बात को मानते हैं पर वजह दूसरी है। दरअसल अधिक मीठा खाने वाले मोटे हो जाते हैं इसलिये उनके झगड़ा करने की ताकत कम होती है।  अगर कहीं शारीरिक श्रम  की बात आ जाये तो हांफने लगते हैं। हमारे साथ भी यही होता रहा है, अलबत्ता हमने शारीरिक श्रम खूब किया है और साइकिल तो आज भी चलाते हैं।  हां, यह सच है कि मोटे अपने खाने की चिंता अधिक करते हैं क्योंकि उनके खाली पेट में जमा गैस उनको सताने लगती है जिसे हम भूख भी कहते हैं।  इसके बावजूद हम मानते हैं कि मोटे लोग शांतिप्रिय होते हैं-कहने वाले कहते रहें कि डरपोक होते हैं पर यह सच है कि कोई उन पर आसानी से हाथ डालने की भी कोई नहीं सोचता। 
दिवाली के अगली  सुबह बाजार में निकले तो देखा कि  बाजार में मिठाईयां बिक रही थीं। बिकने की जगह देखकर ही मन दुःखी हो रहा था।  इधर हम घर पर ही जब कभी खाने की कोई सामग्री देखने को मिलती है तो उसे हम स्वतः ही प्लेट से ढंकने लगते हैं।  मंगलवार हनुमान जी का प्रसाद ले आये और अगर कभी उसका लिफाफा खुला छूट गया तो फिर हम न तो खाते हैं न किसी को खाने देते हैं।  मालुम है कि आजकल पर्यावरण प्रदूषण की वजह से अनेक प्रकार की खतरनाक गैसें और कीड़े हवा में उड़कर उसे विषाक्त कर देते हैं।  ऐसे में बाजार में खुली जगह पर रखी चीज-जिसके बारे में हमें ही नहीं पता होता कि कितनी देर से खुले में पड़ी है-कैसे खा सकते हैं।  पिछले सात वर्षों से योग साधना करते हुए अब खान पान की तरह अधिक ही ध्यान देने लगे हैं तब जब तक किसी चीज की शुद्धता का विश्वास न हो उसे ग्रहण नहीं करते।  यही कारण है कि बीमार कम ही पड़ते हैं और जब पड़ते हैं तो दवाई नहीं लेते क्योंकि हमें पता होता है कि हम क्या खाने से बीमार हुए हैं? उसका प्रभाव कम होते ही फिर हमारी भी वापसी भी हो जाती है।
बाजार में सस्ती मिठाईयां गंदी जगहों के बिकते देखकर हम सोच रहे थे कि कैसे लोग इसे खा रहे होंगे।  कई जगह डाक्टरों की बंद दुकानें भी दिखीं तब तसल्ली हो जाती थी कि चलो आज इनका अवकाश है कल यह उन लोगों की मदद करेंगी जो इनसे परेशान होंगे।  वैसे मिठाई के भाव देखकर इस बात पर यकीन कम ही था कि वह पूरी तरह से शुद्ध होंगी।
ज्यादा मीठा खाना ठीक नहीं है अगर आप शारीरिक श्रम नहीं करते तो।  शारीरिक श्रम खाने वाले के लिये मीठा हजम करना संभव है मगर इसमें मुश्किल यह है कि उनकी आय अधिक नहीं होती और वह ऐसी सस्ती मिठाई खाने के लिये लालायित होते हैं।  संभवतः सभी बीमार इसलिये नहीं पड़ते क्योंकि उनमें कुछ अधिक परिश्रमी होते हैं और थोड़ा बहुत खराब पदार्थ पचा जाते हैं पर बाकी के लिये वह नुक्सानदेह होता है।  वैसे इस बार अनेक हलवाईयों ने तो खोये की मिठाई बनाई हीं नहीं क्योंकि वह नकली खोए के चक्कर में फंसना नहीं चाहते थे। इसलिये बेसन जैसे दूध न बनने वाले पदार्थ उन्होंने बनाये तो कुछ लोगों ने पहले से ही तय कर रखा था कि जिस प्रकार के मीठे में मिलावट की संभावना है उसे खरीदा ही न जाये।
पटाखों ने पूरी तरह से वातावरण को विषाक्त किया। अब इसका प्रभाव कुछ दिन तो रहेगा।  अलबत्ता एक बात है कि हमने इस बार घर पर पटाखों की दुर्गंध अनुभव नहीं की। कुछ लोगों ने शगुन के लिये पटाखे जलाये पर उनकी मात्रा इतनी नहीं रही कि वह आसपास का वातावरण अधिक प्रदूषित करते। महंगाई का जमाना है फिर अब आज की पीढ़ी-कहीं पुरानी भी- लोग टीवी और कंप्यूटर से चिपक जाती है इसलिये परंपरागत ढंग से दिवाली मनाने का तरीका अब बदल रहा है।
अपनी पुरानी आदत से हम  बाज नहीं आये। घर पर बनी मिठाई का सेवन तो किया साथ ही बाजार से आयी सोहन पपड़ी भी खायी।  अपने पुराने दिनों की याद कभी नहीं भूलते।  अगर हमसे पूछें तो हम एक ही संदेश देंगे कि शारीरिक श्रम को छोटा न समझो। दूसरा जो कर रहा है उसका ख्याल करो।  उपभोग करने से सुख की पूर्ण अनुभूति नहीं होती बल्कि उसे मिल बांटकर खाने में ही मजा है।  इस देश में गरीबी और बेबसी उन लोगों की समस्या तो है जो इसे झेल रहे हैं पर हमें भी उनकी मदद करने के साथ सम्मान करना चाहिए।  ‘समाजवाद’ तो एक नारा भर है हमारे पूरे अध्यात्मिक दर्शन में परोपकार और दया को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है ताकि समाज स्वतः नियंत्रित रहे। यह तभी संभव है जब अधिक धन वाले अल्प धन वालों की मदद बिना प्रचार के करें।  कहते हैं कि दान देते समय लेने वाले से आंखें तक नहीं मिलाना चाहिए।  इसके विपरीत हम देख रहे हैं कि हमारे यहां के नये बुद्धिजीवी डंडे और नियम कें जोर पर ऐसा करना चाहते हैं।  इसके लिये वह राज्य को मध्यस्थ की भूमिका निभाने का आग्रह करते हैं। इसका प्रभाव यह हुआ है कि समाज के धनी वर्ग ने सभी समाज कल्याण अब राज्य का जिम्मा मानकर गरीबों की मदद से मूंह फेर लिया है और हमारे सामाजिक विघटन का यही एक बड़ा कारण है।
खैर, इस दीपावली के निकल जाने पर मौसम में बदलाव आयेगा। सर्दी बढ़ेगी तो हो सकता है कि मौसम बदलने से भी बीमारी का प्रभाव बढ़े।  ऐसे में यह जरूरी है कि सतर्कता बरती जाये।  बदलते मौसम में सावधानी न बरतने से बुखार, खांसी तथा सर दर्द जैसी परेशानियां  आती हैं
इधर ब्लाग पर अनेक टिप्पणीकर्ता लिखते हैं कि आप अपना फोटो क्यों नहीं लगाते? या लिखते हैं कि आप अपना फोन नंबर दीजिये तो कभी आपके शहर आकर आपके दीदार कर ले। हम दोनों से इसलिये बच रहे हैं कि कंप्यूटर पर लिखने की वजह से हमारा पैदल चलने का कार्यक्रम कम हो गया है इसलिये पेट अधिक बाहरं निकल आया है। फोटो भी अच्छा नहीं खिंच रहा।  इसलिये सोचा है कि कल से योगासन का समय बढ़ाकर अपना चेहरा मोहरा ठीक करें तो फोटो खिंचवाकर लगायेंगे और नंबर भी ब्लाग पर लिखेंगे।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://dpkraj.blogspot.com
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मोहब्बत का पैगाम होते हैं धोखा-हिन्दी शायरी


दौलत के खिलाड़ी, दूसरों के जज़्बातों समझते नहीं,
जहां मौका मिलता है, गेंद समझकर खेलते हैं वहीं।
उनके मोहब्बत का पैगाम, होते हैं हमेशा एक धोखा,
फायदे के लिये नफरत उगलते उनको देर लगती नहीं।
कुछ पेट कम भर लेना, चीथड़े भी ओढ़ना अच्छा है,
अपने जज़्बातों का जनाज़ा निकलने कभी देना नहीं।।
थोड़ी हंसी की खातिर, जिदंगी का रोना भी मिलता है
दौलत के खिलाड़ी, दिल की दलाली भी करते हैं कहीं।
उनको अपने आसमानों का बोझ उठाये रहने दो
तुम्हारी हमदर्दी को भी, मजाक न समझ बैठें कहीं।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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उजड़े रिश्ते-हिन्दी शायरी (rishtey-hindi comic poem)


अपनी दर्द भरी बातें
किसी को क्या सुनायें,
रोते लोगों क्या रुलायें,
सभी अपने गम छिपाने के लिये
दूसरों के घावों पर हंसने का
मौका ढूंढ रहे हैं।
अपने साथ हुए हादसों के किस्से
किसको सुनायें,
आखिर लोग उनको मुफ्त में क्यों भुनायें,
अपनी जिंदगी में थके हारे लोग
जज़्बातों के सौदागर बनकर
दूसरों के घरों के उजड़े रिश्तों की कहानी
बेचने के लिये घूम रहे हैं।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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प्यार की आज़ादी-हिंदी हास्य कविता/हिन्दी शायरी


समाज के ठेकेदार से

उसके दोस्त ने पूछा

‘यार, तुम वेलंटाइन डे पर

प्यार की आजादी की जंग लड़ते हो,

जो आधा शरीर ढके वस्त्र पहने

उनके साथ देने का दंभ भरते हो,

क्यों नहीं वस्त्रहीन घूमने पर लगी

रोक ही खत्म करवा देते,

श्लीलता और अश्लीलता का भेद मिटा लेते।’

प्रश्न सुनकर समाज का ठेकेदार

घबड़ा गया और बोला

‘क्या बकवास करते हो,

अर्द्ध नग्न और वस्त्रहीन में

फर्क नहीं समझते हो,

अरे, मूर्ख मित्र

अगर वस्त्रहीन घूमने की

छूट लोगों को मिल गयी,

तो समझो अपनी ठेकेदारी हिल गयी,

बना रहे यह भेद अच्छा है

जहां तक हम कहें वहीं तक

रह पाती है श्लीलता,

विरोधी को निपटाने में

बहाना बनती है उसकी  अश्लीलता.

इसलिये वस्त्रहीन घूमने की

लोगों को छूट नहीं दिलवाते

मौका पड़ते ही बयानों में अपना नाम लिखवाते

फिर किसकी आजादी के लिये लड़ेंगे

वस्त्रहीनों से तो सर्वशक्तिमान भी डरता है

फिर वह क्यों किसी से डरेंगे।

जब तक वस्त्र छिन जाने का डर है

तभी तक ही तो लोग हमारा आसरा लेते।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नयी पीढ़ी को आगे लाने के वास्ते-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं


कभी शिकायत नहीं की अपने दर्द की

शायद इसलिये उन्होंने बेकद्री का रुख दिखाया,

इशारों को कभी समझा नहीं

काम निकलते ही अपनों  से अलग परायों में बिठाया,

जब अपने मसले रखे उनके सामने

बागी कहकर, हमलावरों में नाम लिखाया

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नयी पीढ़ी को आगे लाने के वास्ते,

खोल रहे हैं सभी अपने रास्ते।

पुरानों को बरगलाना मुश्किल है

उनकी जेबें हैं खाली, बुझे दिल हैं

खून जल चुका है जिन बेदर्दो की तोहीन से

वही ताजे खून के लिये, ढूंढ रहे गुमाश्ते।

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वह देश और समाज का भविंष्य

सुधारने के लिये उठाते हैं कसम,

जबकि अपनी आने वाले सात पुश्तों का

खाना जुटाने के लिये लगाते दम।

उनके काम पर क्या उठायें उंगली

आखें खुली है

पर अक्ल के पर्दै मिराये बैठे हम।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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मारते हैं अपने ही जज़्बात को लात-हिन्दी शायरी


प्यार मांगने की चीज होती तो

किसी से भी मांग लेते,

इज्जत छीनने की चीज होती तो

किसी से भी छीन लेते।

लोग नहीं सुनते अपने ही दिल की बात,

मारते हैं अपने ही जज़्बात को लात,

दिमाग को ही अपना मालिक समझते,

बड़े अक्लमंद दिखने को सभी हैं तैयार

पर लुटती होती कहीं अक्ल तो सभी लूट लेते।

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कुछ पल का साथ मांगा था

वह सीना तानकर सामने खड़े हो गये।

गोया अपनी सांसे उधार दे रहे हों

हमें अपनी जिंदगी को ढोने के लिये

जो ऊपर वाले ने बख्शी है,

फरिश्ता होने के ख्याल में

वह फूलकर कुप्पा हो गये।

———-

ताली दोनों हाथ से बजती है,

दिल की बात दिल से ही  जमती है,

हाथ तो दो है

चाहे जब बजा लेंगे,

पर दिल तो एक है क्या करेंगे?


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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महानायकों के झुंड के बीचआम आदमी-व्यंग्य कविता


महानायकों के झुंड के बीच
खड़ा है आम आदमी
हैरान होता  यह सोचकर कि
किसकी आरती वह पहले करे।
सुबह छाया पर्दे पर फिल्म का नायक
दोपहर को गा रहा है भजन गायक
शाम को नजर आ रहा है
आतंक का खलनायक
किसे करे प्रेम
किस पर दिखाये गुस्सा
पहले नज़रों में उसके चेहरा तो तो भरे।
मगर पर्दे पर हर पल
दृश्य बदल रहा है
कभी हंसी आती है तो
कभी दिल दहल रहा है
इतने नायक और खलनायकों को
देखने से तो पहले फुरसत तो मिले
तब वह कुछ वह सोचने की पहल करे।

पुतले कहलाते शहंशाह-हिन्दी शायरी (putle kahlate shanshah-hindi shayri)


जिसके सिर पर ताज का बोझ नहीं है,

काम करने का जिम्मा रोज नहीं है,

कान नहीं खड़े होते हमेशा

किसी का हुक्म सुनने के लिये,

जिसके हाथ नहीं मोहताज

किसी का जुर्म बुनने के लिये,

जिसकी आंखें नहीं ताकती

मदद के लिये किसी दूसरे की राह,

खुशदिल आदमी बोले हर समय ‘वाह’।

वही है असली शहंशाह।

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झुकते हैं वही सिर

जिन पर होता है ताज,

तलवार का वार झेलती  वही गर्दन

जो अकड़ जाती हैं करते राज

सफेल मलमल के सिंहासन के पीछे

डर और अहंकार का रंग है काला स्याह।

दौलत कमाने वाले नटों के

हाथ में डोर है

पुतले राज करते हुए कहलाते शहंशाह।


कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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मौसम भी ब्रेकिंग न्यूज होता है-हिन्दी व्यंग्य (weather is breking news-hindi hasya kavita)


टीवी चैनलों वाले भी क्या करें? उनको हमेशा ही सनसनीखेज की जरूरत है, वह न मिलें तो उसका एक ही उपाय है कि होता है कि हर खबर को सनसनीखेज खबर बनाया जाये। जब हर दस मिनट में ‘ब्रेकिंग न्यूज’ देना है तो फिर चाहे जो खबर पहली बार मिले उसे ही चला दो।
कोहरा कोई खास खबर नहीं है। कम से कम सर्दी में तो नहीं है। अगर सर्दी में मावठ की वर्षा न हो पड़े तो फिर फसलों के लिये परेशानी तो है ही आने वाली गर्मियों में जमीन का जलस्तर बहुत जल्दी कम हो जाने की आशंका हो जाती है।
कोहरे में रेलगाड़ियों के लिये क्या आदमी के लिये भी घर से निकलना परेशानी का कारण हो जाता है।
इधर घर में रजाई में बैठकर सर्दी से ठिठुर रहे हैं और उधर टीवी सुना रहा है कि ‘नई दिल्ली में हवाई जहाज की उड़ाने रद्द’, ‘उड़ाने रद्द होने से यात्री परेशान’, ‘नई दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर अनेक गाड़ियां कोहरे के कारण लेट’ और वही पुराना राग ‘सही जानकारी न मिलने से यात्री परेशान’। लगातार ब्रेकिंग न्यूज चल रही है। यात्रा करने वालों के लिये अनेक कारण यात्रा के हो सकते हैं। अजी, इस मौसम में ही शादियां अधिक होती हैं तो गमियां भी! आदमी को जाना पड़ता है। फिर इधर नया साल आया। यह अपना परंपरागत भारतीय पर्व नहीं हैं। इस मौसम में कोई भी भारतीय पर्व नहीं पड़ता। शायद इसलिये अनेक विशेषज्ञ कहते हैं कि त्यौहारों का मौसम स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार उसी समय होता है जब मौसम ठीकठाक हो और इसी कारण वह परंपरा भी बन जाते हैं। मगर अपने यहां खिचड़ी संस्कृति है सो लोग इसकी परवाह नहीं करते।
जिस दिन नया साल आ रहा था। सर्दी के मारे हम तो सो गये। रात को फटाके जलने की आवाज से हमारी निद्रा टूटी। बहुत देर तक हम सोच रहे थे कि ‘शायद कोई बारात आयी होगी।’ जब लगातार फटाखे जलने की आवाज आयी- साथ में हमारी नियमित स्मृति भी-तब याद आया कि नया वर्ष आया है।
ऐसे फटाखे शायद पूरे भारत में जल होंगे और शायद इससे पर्यावरण प्रदूषित नहीं हुआ होगा शायद इसने इसलिये नहीं लिखा। दिवाली पर तो बहुत रोना रोते हैं लोग कि ‘बड़ा खराब त्यौहार है, जिस पर जलने वाले फटाखों से पर्यावरण प्रदूषित होता है।’
शायद यह अंग्रेजी त्यौहार है इस पर ऐसी बातें लिखना पुरातनपंथी व्यवहार का प्रमाण होगा। सर्दी ने नया साल वगैरह सब भुला दिया है पर इस मौके पर शादी और गमी के अलावा अन्य आवश्यक कार्य से यात्रा पर जाने वालों से अधिक संख्या उन लोगों की होगी जो नववर्ष मनाने के लिये कही सैरसपाटे करने जा रहे होंगे या लौटते होंगे। ऐसे में सर्दी में अपने कमरे के अंदर रजाई में बैठे एक सज्जन ने हमसे कहा-‘यार, लोग इतनी सर्दी में अपने घर से बाहर क्यों निकलते हैं?’
हमें अपने आप पर ही शर्मिंदगी महसूस होने लगी क्योंकि हम भी तो उनके यह अपने ही घर से निकल कर आये थे।’
हमने कहा-‘ब्रेकिंग न्यूज बनाने के लिये।’
वह सज्जन बोले-‘हां, यह बात कुछ जमी! तुम्हारा हमारे यहां आना ब्रेकिंग न्यूज से कम नहीं है। तुम्हारा काफी पीने का हक बनता है। इतने दिनों बाद तुम्हें हमारी याद आयी।’
हमने कहा-‘इससे बड़ी बात यह है कि हम सर्दी में घर से बाहर निकले। पता लगा कि तुम बीमार हो! दोस्त यारों ने हम पर दबाव डाला कि हम तुम्हें देखने आयें।’
वह सज्जन बोले-‘तब तो तुम्हें पांच दिन पहले आना था। अब तो हम ठीक हैं। इस तरह तो तुम्हारा यहां आना भी सार्थक न रहा।’
हमने काफी का कप उठाते हुए कहा-‘यार, तुमने काफी पिलाकर कुछ दर्द हल्का कर दिया। वैसे सर्दी में घर से निकलने का अफसोस तुम्हारी तबियत देखने के कारण नहीं था पर तुमने ऐसी बात कर दी कि लगने लगा कि हमने गलती की।’
वह सज्जन रजाई में बैठे ही उचकते हुए बोले-‘यानि, मेरी तबियत अच्छी देखकर तुम्हें खुशी नहीं हुई। अपने सर्दी में बाहर निकलने का दर्द तुमको अब इसी कारण हो रहा है।’
हमने कहा-‘नहीं यार, तुम्हारी बात से हमें ऐसा लगा कि सैर सपाटा करने निकले हैं।
यह एक सामान्य बातचीत थी। वाकई इस बार सर्दी अधिक पड़ रही है पर ऐसा हमेशा होता है। इसमें ब्रेकिंग न्यूज जैसा कुछ हो सकता है या इससे सनसनी फैल सकती है, ऐसा नहीं लगता। बरसात में बाढ़ आने की खबरें सुनते हुए बरसों हो गये। कहते हैं कि दर्द झेलते हुए एसा समय भी आता है जब आदमी संवेदनायें मर जाती हैं और कहीं वह दर्द चला जाये तो आदमी को अजीब सा लगता है। यह कोहरा तथा उससे विमानों की उड़ाने और रेल यातायात का बाधित होना अब कोई प्रतिक्रिया पैदा नहीं करता। मगर खबर देने वाले भी क्या करें? लोग घर से निकलते कम हैं तो उनके लिये खबरें भी कम हो जाती हैं। फिर इतना बड़ा देश है तो लोग मजबूरी में यात्रायें तो करेंगे और चाहे जो भी मौसम हो तो हवाई अड्डों और स्टेशनों पर भीड़ होगी ही। अगर वह दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता या अन्य बड़ा शहर हुआ तो फिर कहना ही क्या? तब तो खबरें लिखने वालों को बाहर निकलते ही खबर मिल जाती है। बाकी देश में कहां ढूंढते फिरें! ऐसे में सर्दी में अपने दिनों की याद को हम अकेले में ही याद कर उसे अपने ब्लाग/पत्रिका पर लिख सकते हैं।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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रास्ता जाम-हिन्दी व्यंग लेख (trafic trouble-hindi satire)


मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंसना कोई बड़ी बात नहीं है। इस देश के करोड़ों लोग रोज फंसते हैं। उनकी कोई खबर नहीं बन सकती। खबर के लिये सनसनी होना जरूरी है। यह सनसन असामान्य लोगों के उठने, बैठने, चलने, फिरने और छींकने पर बनती है। मैंढकी को जुकाम हो जाये तो क्या फर्क पड़ता है, अगर किसी फिल्मी मेम को हो जाये तभी सनसनीखेज खबर बनती है क्योंकि उसके किये गये विज्ञापनों पर सारे टीवी चैनल और रोडियो चल रहे हैं। उसके लगाये ठुमकों पर जमाने भर के लड़को दिल जलते हैं। उसको जुकाम होने की खबर हो तो उनके दिल भी बैठ जाते हैं और यही काम खबरों से किया जाता हैं। दरअसल जिन खबरों से दिल उठे बैठे उससे ही सनसनी फैलती है।
ऐसे में मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) होने की खबर भी तभी सनसनी फैलाती है जब उसमें कोई खास हस्ती हो और अगर अंतराष्ट्रीय हो तो फिर कहना ही क्या? फिर एक दो नहीं बल्कि अनेक हों तब तो वह मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) अंतर्राष्ट्रीय स्तर का होता है और सनसनी अधिक ही फैल जाती है। अलबत्ता कोपेनहेगन में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के काफिले की वजह से अन्य राष्ट्रों के प्रमुखों के काफिले मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंस गये। यह खबर सुन और पढ़कर भी इस देश के बहुत कम लोगों पर उसकी प्रतिक्रिया दिखाई दे रही है। किसी से कहो तो वही यह कहता है कि‘यार, ऐसा क्या है इस खबर में! हम तो यहां दिन में गंतव्य तक पहुंचने में चार चार बार मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंसते हैं।’
यह बताये जाने पर कि यह मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) अमेरिकी राष्ट्रपति की वजह से हुआ तो लोग कहते हैं कि‘ इससे क्या फर्क पड़ता है कि उनकी वजह से हुआ। अगर वह उनके खास आदमी होने की वजह से हुआ तो भी क्या? यहां तो आम आदमी की वजह से भी मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) हो जाता है!
हमें तो ऐसी आदत हो गयी है कि अगर किसी दिन अगर मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) का सामना नहीं किया तो लगता है कि जैसे यात्रा ही नहीं की हो। इतना ही नहीं अगर किसी कार्यक्रम या गंतव्य पर विलंब से पहुंचते हैं और उसकी सफाई मांगी जाती है तो भले ही मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) का सामना नहीं किया हो बहाना उसी का बना देते हैं।
कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये गैस उत्सर्जन कम करने के प्रयासों पर बैठक हो रही थी। पता नहीं उसका क्या हुआ? बहरहाल इस तरह के गैस उत्सर्जन में मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) होने का भी कम योगदान नहीं है। मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) हो गया तो गाड़ियां चालू हालत में ही गैस छोड़ती रहती हैं। कई गाड़ियों में पैट्रोल में धासलेट भरा होता है जिसके जलने पर निकलने वाली दुर्गंध बता देती है। उसका धुआं जब सांस में घुसता है तो तकलीफ कम नहीं होती। कई बार तो ऐसा लगता है कि इन जामों में जितना पैट्रोल खर्च होता है अगर उससे रोका जाये तो न केवल देश का पैसा और पर्यावरण दोनों बचेगा। कितना, यह हमें पता नहीं। अलबत्ता, ऐसे जामों में हम अपनी गाड़ी बंद कर देते हैं-गैस उत्सर्जन से बचने के लिये नहीं पैसा बचाने के लिये।
वैसे हम सोच रहे थे कि कोई मोबाईल के लिये कोई ऐसा धुन बन जाये जिसमें ‘ओबामा…ओबामा… मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंस गये रामा रामा’ जैसे शब्द हों तो मजा आ जाये। अगर इस पर कोई गीत फिल्म वाले बनाकर दिखायें तो शायद वह हिट भी जाये। ऐसे में उसे मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) होने पर लोगा गुनगुनाकर दिल हल्का कर लेंगे। उसे हम अपने मोबाइल पर लोड कर लेंगे और जब कहीं फंस जायें तो उसे सुनेंगे। धुन पाश्चात्य संगीत पर आधारित होना चाहिये या फिर शास्त्रीय संगीत पर। भारतीय फिल्म संगीत के आधार पर तो बिल्कुल नहीं क्योंकि वह अब हमें प्रभावित नहीं करती। ओबामा का नाम इसलिये लिया क्योंकि जिस तरह कोपेनहेगन की खबर पढ़ी उससे तो यही लगता है कि इस समय वह दुनियां के इकलौते आदमी हैं जिनको कहीं मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) फंसना नहीं पड़ेगा! आखिर अमेरिका के राष्ट्रपति जो हैं। यह अलग बात है कि उनकी वजह से मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) हुआ और उसमें फंसी गाड़ियों में ईंधन जलने से विषाक्त गैस वातावरण में फैली।
इधर भारत ने भी तय किया कि वह गैस उत्सर्जन कम करेगा। हमारा मानना है कि हमारे राष्ट्र के प्रबंधक इस मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) से बचना चाहते हैं तो वह सड़कों का सुधार करें। इससे मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) होने की समस्या से तो निजात मिलेगी और साथ मेें गाड़ियों की गति कम होने से ईंधन की खपत कम होगी जिससे गैस का विसर्जन कम ही होगा। हालांकि यह एक सुझाव ही है। हमें पता है कि इस पर अमल शायद ही हो क्योंकि विकास कभी बिना विनाश के नहीं होता। अगर आपको सड़कें बनानी हैं तो टूटी पाईप लाईन भी बनानी है। फिर टेलीफोन लाईन लगानी है तो सड़क खोदनी है। खोदने, बनाने और लगाने में कमीशन का जुगाड़ का होना भी जरूरी है। जिस पर सड़क बनाने या बनवाने का जिम्मा है उसे भी उसी सड़क से गुजरना है पर वह बिना कमीशन के मानेगा नहीं भले ही सड़क के खस्तहाल से जूझेगा। विकास में कमीशन का मामला फिट होता है। लोगों को अपने बैंक खाते भरते दिखना चाहिये सड़क कौन देखता है? अरे, धक्के खाते हुए आफिस या घर पहुंच ही जाते हैं कौन उस पर रहना है?
किसी से मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) की बात कहो तो यही कहेगा कि ‘यार, इसमें तो केवल ओबामा ही नहीं फंसेंगे? तुम क्या ओबामा हो जो इससे बचना चाहते हो?’
इधर भारत ने गैस उत्सर्जन में कटौती की घोषणा की है तो अनेक बड़े धनिकों ने उस पर आपत्तियां की हैं। उनको देश का विकास अवरुद्ध होता नजर आ रहा है पर मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) की समस्या देखते तो उनको लगता कि यह कठिन काम नहीं है पर बात वही है कि कौन उनको ऐसी सड़कों पर चलना है। हम तो मार्ग अवरुद्ध होने पर अपनी ही यह एक पंक्ति ‘ओबामा…ओबामा… मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंस गये रामा रामा’ दोहरायेंगे। पूरा गीत लिखना वैसे भी अपनी बौद्धिक क्षमता के बाहर की बात है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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इस ब्लाग ने पाठक संख्या एक लाख पार की-संपादकीय (vews of it blog-hindi editorial)


 आज यह ब्लाग एक लाख की संख्या पार गया।  देश में हिन्दी भाषी क्षेत्रों में इंटरनेट  कनेक्शनों की संख्या को देखते हुए किसी हिन्दी भाषी ब्लाग पर दो वर्ष में यह संख्या अधिक नहीं है, मगर दूसरा पक्ष यह है कि आम हिन्दी भाषी लोगों में इंटरनेट पर हिन्दी लिखे जाने का ज्ञान और उसके पढ़ने के संबंध में होने वाली तकनीकी जानकारी के अभाव के चलते यह संख्या ठीक ही कही जा सकती है।
आज भी ऐसे अनेक लोग हैं जिनको इस बात का पता नहीं है कि इंटरनेट पर हिन्दी भाषा में न केवल साहित्य बल्कि समसामयिक विषयों पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। फिर जिनको पढ़ने का शौक है उनको यह पता ही नहीं कि हिन्दी में लिखा सर्च इंजिन में कैसे ढूंढा जाये।  जिनको तकनीकी ज्ञान है उनमें फिर यह अहंकार है कि हिन्दी में तो सभी कचड़ा है असली तो अंग्रेजी में लिखा जा रहा है।  दूसरा यह है कि लोग इंटरनेट का उपयोग टीवी के विकल्प के रूप में कर रहे हैं, जिस दिन वह अखबार या किताब के  रूप में इसे पढ़ना चाहेंगे तब शायद हिन्दी का अंतर्जाल पर बोलबाला होगा।  वैसे बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि इस ब्लाग लेखक के विदेशों में अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद टूलों के माध्यम से पढ़ा जा रहा है। मतलब यह है कि अंतर्जाल पर आप किसी भाषा में न लिखकर वरन् अपने अंदर चल रही हलचल या भाव को अभिव्यक्त कर रहे हैं उसे अपनी भाषा में पढ़ने की पाठक को बहुत सुविधा है।  सच तो यह है कि जो लोग सोच रहे हैं कि हिन्दी में लिखने से कोई लाभ नहीं है वह संकीर्णता के भाव मन में लिये हुए हैं-यही ब्लाग एक रैकिंग बताने वाल वेबसाईट पर अंग्रेजी के ब्लागों पर बढ़त बनाये हुए है।  गूगल पेज रैंक में भी इसे चार का अंक प्राप्त है जो अंग्रेजी ब्लागों की तुलना में किसी तरह कम नहीं है। अधिकतर लोगों को यह लगता है कि  अंग्र्रेजी ब्लाग आगे हैं तो उनकी गलतफहमी है।  दूसरी बात यह है कि अंतर्जाल पर सामग्री की गुणवता तथा भावनात्मकता के साथ उसके व्यापक प्रभाव का बहुत महत्व है। अगर यह शर्तें कोई हिन्दी ब्लाग पूरी करता है तो उसे दुनियां भर में लोकप्रियता मिल सकती है।
आखिरी बात यह है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से सराबोर भारत के हिन्दी समाज में से ही भावनात्मक, आदर्श तथा अध्यात्मिक संदेश से भरी रचनायें आनी अपेक्षित हैं इसलिये हिन्दी को भविष्य में इंटरनेट पर एक आकर्षक रूप प्राप्त होगा इसकी पूरी संभावना है। इस अवसर पर पाठकों, ब्लाग लेखक मित्रों तथा तकनीकी रूप से इस ब्लाग को अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग कर रहे लोगों का आभार। भविष्य में भी ऐसे ही सहयोग की आशा है।

लेखक तथा संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर 
 
 

हास्य पैदा करने वाला शोक-हिन्दी व्यंग्य (hasya aur shok-hindi vyangya


आप कितने भी ज्ञानी ध्यानी क्यों न हों, एक समय ऐसा आता है जब आपको कहना भी पड़ता है कि ‘भगवान ही जानता है’। जब किसी विषय पर तर्क रखना आपकी शक्ति से बाहर हो जाये या आपको लगे कि तर्क देना ही बेकार है तब यह कहकर ही जान छुड़ाना पड़ती है कि ‘भगवान ही जानता है।’

अब कल कुछ लोगों ने छ दिसंबर पर काला दिवस मनाया। दरअसल यह किसी शहर में कोई विवादित ढांचा गिरने की याद में था। अब यह ढांचा कितना पुराना था और सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में इसका नाम क्या था, ऐसे प्रश्न विवादों में फंसे है और उनका निष्कर्ष निकालना हमारे बूते का नहीं है।
दरअसल इस तरह के सामूहिक विवाद खड़े इसलिये किये जाते हैं जिससे समाज के बुद्धिमान लोगों को उन पर बहस कर व्यस्त रखा जा सकें। इससे बाजार समाज में चल रही हेराफेरी पर उनका ध्यान न जाये। कभी कभी तो लगता है कि इस पूरे विश्व में धरती पर कोई एक ऐसा समूह है जो बाजार का अनेक तरह से प्रबंध करता है जिसमें लोगों को दिमागी रूप से व्यस्त रखने के लिये हादसे और समागम दोनों ही कराता है। इतना ही नहीं वह बहसें चलाने के लिये बकायदा प्रचार माध्यमों में भी अपने लोग सक्रिय रखता है। जब वह ढांचा गिरा था तब प्रकाशन से जुड़े प्रचार माध्यमों का बोलाबाला था और दृष्यव्य और श्रवण माध्यमों की उपस्थिति नगण्य थी । अब तो टीवी चैनल और एफ. एम. रेडियो भी जबरदस्त रूप से सक्रिय है। उनमें इस तरह की बहसे चल रही थीं जैसे कि कोई बड़ी घटना हुई हो।
अब तो पांच दिसंबर को ही यह अनुमान लग जाता है कि कल किसको सुनेंगे और देखेंगे। अखबारों में क्या पढ़ने को मिलेगा। उंगलियों पर गिनने लायक कुछ विद्वान हैं जो इस अवसर नये मेकअप के साथ दिखते हैं। विवादित ढांचा गिराने की घटना इस तरह 17 वर्ष तक प्रचारित हो सकती है यह अपने आप में आश्चर्य की बात है। बाजार और प्रचार का रिश्ता सभी जानते हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि ऐसे प्रचार का कोई आर्थिक लाभ न हो। उत्पादकों को अपनी चीजें बेचने के लिये विज्ञापन देने हैं। केवल विज्ञापन के नाम पर न तो कोई अखबार छप सकता है और न ही टीवी चैनल चल सकता है सो कोई कार्यक्रम होना चाहये। वह भी सनसनीखेज और जज़्बातों से भरा हुआ। इसके लिये विषय चाहिये। इसलिये कोई अज्ञात समूह शायद ऐसे विषयों की रचना करने के लिये सक्रिय रहता होगा कि बाजार और प्रचार दोनों का काम चले।
बहरहाल काला दिवस अधिक शोर के साथ मना। कुछ लोगों ने इसे शौर्य दिवस के रूप में भी मनाया पर उनकी संख्या अधिक नहीं थी। वैसे भी शौर्य दिवस मनाने जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि वह तो किसी नवीन निर्माण या उपलब्धि पर मनता है और ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता काला दिवस वालों का स्यापा बहुत देखने लायक था। हम इसका सामाजिक पक्ष देखें तो जिन समूहों को इस विवाद में घसीटा जाता है उनके सामान्य सदस्यों को अपनी दाल रोटी और शादी विवाह की फिक्र से ही फुरसत नहीं है पर वह अंततः एक उपभोक्ता है और उसका मनोरंजन कर उसका ध्यान भटकाना जरूरी है इसलिये बकायदा इस पर बहसें हुईं।
राजनीतिक लोगों ने क्या किया यह अलग विषय है पर समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों पर हिन्दी के लेखकों और चिंतकों को इस अवसर पर सुनकर हैरानी होती है। खासतौर से उन लेखको और चिंतकों की बातें सुनकर दिमाग में अनेक प्रश्न खड़े होते हैं जो साम्प्रदायिक एकता की बात करते हैं। उनकी बात पर गुस्सा कम हंसी आती है और अगर आप थोड़ा भी अध्यात्मिक ज्ञान रखते हैं तो केवल हंसिये। गुस्सा कर अपना खूना जलाना ठीक नहीं है।
वैसे ऐसे विकासवादी लेखक और चिंतक भारतीय अध्यात्मिक की एक छोटी पर संपूर्ण ज्ञान से युक्त ‘श्रीमद्भागवत गीता’ पढ़ें तो शायद स्यापा कभी न करें। कहने को तो भारतीय अध्यात्मिक ग्रथों से नारियों को दोयम दर्जे के बताने तथा जातिवाद से संबंधित सूत्र उठाकर यह बताते हैं कि भारतीय धर्म ही साम्प्रदायिक और नारी विरोधी है। जब भी अवसर मिलता है वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान पर वह उंगली उठाते है। हम उनसे यह आग्रह नहीं कर रहे कि वह ऐसा न करें क्योंकि फिर हम कहां से उनकी बातों का जवाब देते हुए अपनी बात कह पायेंगे। अलबत्ता उन्हें यह बताना चाहते हैं कि वह कभी कभी आत्ममंथन भी कर लिया करें।
पहली बात तो यह कि यह जन्मतिथि तथा पुण्यतिथि उसी पश्चिम की देन है जिसका वह विरोध करते हैं। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि न आत्मा पैदा होता न मरता है। यहां तक कि कुछ धार्मिक विद्वान तो श्राद्ध तक की परंपरा का भी विरोध करते हैं। अतः भारतीय अध्यात्मिक को प्राचीन मानकर अवहेलना तो की ही नहीं जा सकती। फिर यह विकासवादी तो हर प्रकार की रूढ़िवादिता का विरोध करते हैं कभी पुण्यतिथि तो कभी काला दिवस क्यों मनाते हैं?

सांप्रदायिक एकता लाने का तो उनका ढोंग तो उनके बयानों से ही सामने आ जाता है। उस विवादित ढांचे को दो संप्रदाय अपनी अपनी भाषा में सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में अलग अलग नाम से जानते हैं पर विकासवादियों ने उसका नाम क्या रखा? तय बात है कि भारतीय अध्यात्म से जुड़ा नाम तो वह रख ही नहीं सकते थे क्योंकि उसके विरोध का ही तो उनका रास्ता है। अपने आपको निष्पक्ष कहने वाले लोग एक तरफ साफ झुके हुए हैं और इसको लेकर उनका तर्क भी हास्यप्रद है कि वह अल्प संख्या वाले लोगों का पक्ष ले रहे है क्योंकि बहुसंख्या वालों ने आक्रामक कार्य किया है। एक मजे की बात यह है कि अधिकतर ऐसा करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के ही हैं।
इस संसार में जितने भी धर्म हैं उनके लोग किसी की मौत का गम कुछ दिन ही मनाते हैं। जितने भी धर्मो के आचार्य हैं वह मौत के कार्यक्रमों का विस्तार करने के पक्षधर नहीं होते। कोई एक मर जाता है तो उसका शोक एक ही जगह मनाया जाता है भले ही उसके सगे कितने भी हों। आप कभी यह नहीं सुनेंगे कि किसी की उठावनी या तेरहवीं अलग अलग जगह पर रखी जाती हो। कम से कम इतना तो तय है कि सभी धर्मों के आम लोग इतने तो समझदार हैं कि मौत का विस्तार नहीं करते। मगर उनको संचालित करने वाले यह लेखक और चिंतक देश और शहरों में हुए हादसों का विस्तार कर अपने अज्ञान का ही परिचय ही देते हैं। । इससे यह साफ लगता है कि उनका उद्देश्य केवल आत्मप्रचार होता है।
आखिरी बात ऐसे ही बुद्धिजीवियों के लिये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से दूर होकर लिखने में शान समझते हैं। उनको यह जानकर कष्ट होगा कि श्रीगीता में अदृश्य परमात्मा और आत्मा को ही अमर बताया गया है पर शेष सभी भौतिक वस्तुऐं नष्ट होती हैं। उनके लिये शोक कैसा? यह प्रथ्वी भी कभी नष्ट होगी तो सूर्य भी नहीं बचेगा। आज जहां रेगिस्तान था वहां कभी हरियाली थी और जहां आज जल है वहां कभी पत्थर था। यह ताजमहल, कुतुबमीनार, लालाकिला और इंडिया गेट सदियों तक बने रहेंगे पर हमेशा नहीं। यह प्रथवी करोड़ों साल से जीवन जी रही है और कोई नहीं जानता कि कितने कुतुबमीनार और ताज महल बने और बिखर गये। अरे, तुमने मोहनजो दड़ो का नाम सुना है कि नहीं। पता नहीं कितनी सभ्यतायें समय लील गया और आगे भी यही करेगा। अरे लोग तो नश्वर देह का इतना शोक रहीं करते आप लोग तो पत्थर के ढांचे का शोक ढो रहे हो। यह धरती करोड़ों साल से जीवन की सांसें ले रही है और पता नहीं सर्वशक्तिमान के नाम पर पता नहीं कितने दरबादर बने और ढह गये पर उसका नाम कभी नहीं टूटा। बाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि भगवान श्रीरामचंद्र जी के पहले भी अनेक राम हुए और आगे भी होंगे। मतलब यह कि राम का नाम तो आदमी के हृदय में हमेशा से था और रहेगा। उनके समकालीनों में परशुराम का नाम भी राम था पर फरसे के उपयोग के कारण उनको परशुराम कहा गया। भारत का आध्यात्मिक ज्ञान किसी की धरोहर नहीं है। लोग उसकी समय समय पर अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। जो ठीक है समाज उनको आत्मसात कर लेता है। यही कारण है कि शोक के कुछ समय बाद आदमी अपने काम पर लग जाता है। यह हर साल काला दिवस या बरसी मनाना आम आदमी को भी सहज नहीं ल्रगता। मुश्किल यह है कि उसकी अभिव्यक्ति को शब्दों का रूप देने के लिये कोई बुद्धिजीवी नहीं मिलता। जहां तक सहजयोगियों का प्रश्न है उनके लिये तो यह व्यंग्य का ही विषय होता है क्योंकि जब चिंतन अधिक गंभीर हो जाये तो दिमाग के लिये ऐसा होना स्वाभाविक ही है
सबसे बड़ी खुशी तो अपने देश के आम लोगों को देखकर होती है जो अब इस तरह के प्रचार पर अधिक ध्यान नहीं देते भले ही टीवी चैनल, अखबार और रेडियो कितना भी इस पर बहस कर लें। यह सभी समझ गये हैं कि देश, समाज, तथा अन्य ऐसे मुद्दों से उनका ध्यान हटाया जा रहा है जिनका हल करना किसी के बूते का नहीं है। यही कारण है कि लोग इससे परे होकर आपस में सौहार्द बनाये रखते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि इसी में ही उनका हित है। वैसे तो यह कथित बुद्धिजीवी जिन अशिक्षितों पर तरस खाते हैं वह इनसे अधिक समझदार है जो देह को नश्वर जानकर उस पर कुछ दिन शोक मनाकर चुप हो जाते हैं। ऐसे में उनसे यही कहना पड़ता है कि ‘भई, नश्वर निर्जीव वस्तु के लिये इतना शोक क्यों? वह भी 17 साल तक!
हां, चाहें तो कुछ लोग उनकी हमदर्दी जताने की अक्षुण्ण क्षमता की प्रशंसा भी कर सकते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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बन जायेगा तमाशा-हिंदी शायरी (ban jayega tamasha-hindi shayri)


 अपने दर्द का बयां न

कभी न करना

बन जायेगा तमाशा।

अपनी ही गमों ने लोग हैरान हैं

अपनों की करतूतों से परेशान है

कर नहीं सकते किसी की

पूरी आशा।

किसी इंसान को

कुदरत हीरे की तरह तराश दे

अलग बात है

इंसानों ने कभी नहीं तराशा।

———–

सर्वशक्तिमान से मोहब्बत नहीं होती

पर उसकी इबादत की जाती।

पीरों ने बनाये कई कलाम

गाने के लिये

तमाशा जमाने के लिये

पर सच यह है कि

दिल में है जिसकी जगह

उसकी असलियत

जुबान से बयान नहीं की जाती।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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समाचार हिन्दी में-व्यंग्य कविता (news in hindi-satire poem)


समाचार भी अब फिल्म की तरह

टीवी पर चलते हैं।

हास्य पैदा करने वाले विज्ञापनों के बीच

दृश्यों में हिंसा के शिकार लोगों की याद में

करुणामय चिराग जलते हैं।

——–

समाचार भी खिचड़ी की तरह

परदे पर सजाये जाते हैं।

ध्यान रखते हैं कि 

हर रस वाला समाचार

लोगों को सुनाया जाये

किसी को हास्य तो किसी को वीर रस

अच्छा लगता है

कुछ लोग करुणारस पर

मंत्र मुग्ध हो जाते हैं।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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बदतमीज बात पर नजर-हिंदी व्यंग्य (badtamij bat par nazar-hindi vyangya)


एक टीवी चैनल को उसके मनोरंजक कार्यक्रम में अभद्र और अश्लील शब्दों के प्रयोग पर आखिर नोटिस थमा दिया गया है। हो सकता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कुछ समर्थक इस पर नाराज हों पर यह एक जरूरी कदम है। दरअसल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई रोक नहीं होना चाहिये पर अभद्र और अश्लील शब्दों के सार्वजनिक प्रयोग पर रोक तो लगानी होगी। स्वतंत्रता समर्थक पश्चिम की तरफ देख कर यहां की बात करते हैं पर उनको भाषाओं के जमीनी स्वरूप का अधिक ज्ञान नहीं है। अंग्रेजी में मंकी शब्द नस्लवाद का प्रतीक है पर भारतीय भाषाओं में इसे इतना बुरा नहीं समझा जाता। इसके अलावा हिंदी भाषा में कई ऐसे शब्द और संकेत हैं जो बड़े भयावह हैं और संभवतः वह अंग्रेजी में तो हो ही नहीं सकते। ऐसे में भारतीय भाषाओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खुलेपन के वैसे मायने भी नहीं हो सकते जैसे पश्चिम में है।
दूसरी भी एक वजह है। यह पता नहीं पश्चिम के लोगों पर की मनस्थिति पर टीवी और फिल्मों में प्रस्तुत सामग्री का कितना प्रभाव पड़ता है ं पर भारत में बहुत पड़ता है। यहां बच्चे बच्चे को टीवी और फिल्मों में दिखाये गये वाक्य और गीत याद रहते हैं। अनेक बार अखबार भी अनेक बार लिखते हैं कि अमुक अपराध अमुक फिल्म को देखकर किया गया। भले ही टीवी और फिल्म वाले कहते हैं कि जो समाज में चल रहा है उसे हम दिखाते हैं पर हम उसका उल्टा देखते हैं। महिलाओं के प्रति अपराध पहले इतने नहीं थे जितने फिल्मों में दिखाने के बाद बड़े हैं। इसके अलावा आशिकों और सिरफिरों के टंकी पर चढ़ने के किस्से भी पहले नहीं सुने गये थे। इनका प्रचलन शोले के बाद ही शुरु हुआ वह भी बहुत समय बाद! एक तरह से इस फिल्म के प्रदर्शित होते समय जो बच्चे थे बड़े होने के बाद इस तरह की हरकत करते नजर आने लगे।
मनोरंजन में भारतीय समाज अपने लिये अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के संदेश ढूंढता है। सीधे शब्दों में लिखी गयी गीता कौन पढ़ता अगर उसके साथ महाभारत की फंतासी या नाटकीयता जुड़ी नहीं होती। हमारे अध्यात्मिक महर्षियों ने महान अध्यात्मिक ज्ञान के रूप में वेदों में सृजन किया पर उसे पढ़ने वाले कितने रहे। यही ज्ञान श्री रामायण, श्रीमद्भागवत, और महाभारत (श्रीगीता उसी का ही एक हिस्सा है) में भी व्यक्त हुआ। उनके साथ अधिक फंतासी या नाटकीयता जैसी सामग्री जुड़ी है इसलिये उनको खूब सुना और सुनाया जाता है, पर उसमें जो अध्यात्मिक संदेश है उसे कौन ध्यान में रखना चाहता है?
कहते हैं कि कमल कीचड़ में और गुलाब कांटों में खिलता है अगर हम भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान को कमल या गुलाब माने तो हमें अपने समाज को मनोवृत्ति को कीचड़ या कांटे की तरह मानना ही होगा। यह सत्य की खोज की गयी क्योंकि लोग असत्य का शिकार बहुत जल्दी हो जाते हैं। उन्हें चैमासा ही मनोरंजन चाहिये पर इसलिये उनकी अध्यात्मिक शांति की आवश्यकतायें भी अधिक है। जिस तरह ठंडा खाने के बाद गर्म पदार्थ की आवश्यकता अनुभव होती है वही स्थिति मनोरंजन के बाद मन की शांति पाने की इच्छा चाहत के रूप में प्रकट होती है।
अब ऐसे में यह मनोरंजक चैनल अगर इस तरह अभद्र शब्द या अश्लील शब्द सार्वजनिक रूप से सुनाये तो हो सकता है कि बच्चों पर ही क्या बड़ों पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़े। यह तो गनीमत है कि सच का सामना जल्दी बंद हो गया वरना अगर एक दो साल चल पड़ता तो जगह जगह लोग एक दूसरे से सच जानते हुए लड़ते नजर आते। मनोरंजक कार्यक्रमों में शुद्ध रूप से मनोरंजन है पर कोई संदेश नहीं है। उनके कार्यक्रमों में अगर गंदे वाक्य शामिल होंगे तो उनका सार्वजनिक प्रचनल बढ़ेगा। ऐसे में उन पर नियंत्रण रखना चाहिये। अगर इन पर नियंत्रण नहीं रखा गया तो हो सकता है कि परिवारों में छोटे बच्चे ऐसे शब्दों का उपयोग करने लगें जिससे बड़े शर्मिंदगी झेलने को बाध्य हों।

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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सेल के रोग का इलाज नहीं-हास्य व्यंग्य कविता (sel rog ka ilaj-hasya vyangyakavita)


अपने साथ फंदेबाज एक पर्चा लेकर आया
और हाथ में देते हुए बोला-
‘दीपक बापू,
बूढ़े आदमियों के लिये
तैयार कपड़ों की एक सेल लगी है
चलो तुम्हें वहां से
टोपी, कुर्ता धोती और स्वेटर दिलवायें
बहुत पुराने लगते हैं तुम्हारी तरह
तुम्हारें कपड़े भी सजायें।
यह ठीक है अभी तक फ्लाप हो
चिंता की बात नहीं
पर कल हिट हो जाओगे
तो कैसे सम्मेलनों में अपना चेहरा दिखाओगे
सेल में एक चीज पर एक मुफ्त है
एक रख लेना रोज पहनने के लिये
दूसरा बाहर के लिये रख लेना
चलो तो मौके का पूरा फायदा उठायें।’

सुनते ही भड़के फिर
अपनी पुरानी टोपी की तरफ
निहारते हुए बोले दीपक बापू
‘कमबख्त, हमारे फ्लाप होने का ताना
देने के लिये कोई बहाना ढूंढ जरूर लेना
अरे, इस टोपी, धोती और स्वेटर के
पुराने होने पर तुम्हें तरस आ रहा है
पर कोई दूसरा तो नहीं गा रहा है
एक के साथ एक फ्री ले आये थे
पहले इसी इरादे से
पर दोनों ही घिस गये
अंतर्जाल पर टाईप करते
पर हमारे ब्लाग अभी आहें भरते
पैकिंग में धोती, कुर्ता, टोपी और स्वेटर
बहुत अच्छे दिखे
पर घर लाये तो सभी में छेद दिखे
फिर तुम सभी जगह हमारे
फ्लाप होने की कथा सुना रहे हो
आपने हिट दोस्त होने का अच्छा साथ भुना रहे हो
हम किस हाल में है
भला कौन पाठक जानता है
इतना ही ठीक है
इस ‘एक के साथ एक फ्री’ में
पगला गये हैं कई लोग
जिसका इलाज नहीं है
ऐसा बन गया है यह सेल का रोग
हम तो मुफ्त में ब्लाग लिखने के साथ
यह दूसरा फ्री का रोग नहीं पाल सकते
रुपये भला कैसे लगायें।
दो रोग पालना एक साथ मूर्खता है
यह तुम्हें कैसे समझायें’’
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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खाली ज़ेब का रुआब-हास्य व्यंग्य कविता (khali zeb ka ruaab-hindi hasya kavita)


सूखी मन गयी दिवाली
क्योंकि जेब थी खाली,
ज़माने में अपना रुआब दिखाने के
लिए सबसे कह रहे हैं”हैप्पी दीवाली”.

जेब खाली हो तो
अपना चेहरा आईने में देखते हुए भी
बहुत डर लगता है
अपने ही खालीपन का अक्स
सताने लगता है।

क्यों न इतरायें दौलतमंद
जब पूरा जमाना ही
आंख जमाये है उन पर
और अपने ही गरीब रिश्ते से
मूंह फेरे रहता है।

अपना हाथ ही जगन्नाथ
फिर भी लगाये हैं उन लोगों से आस
जिनके घरों मे रुपया उगा है जैसे घास
घोड़ों की तरह हिनहिना रहे सभी
शायद मिल जाये कुछ कभी
मिले हमेशा दुत्कार
फिर भी आशा रखे कि मिलेगा पुरस्कार
इसलिये दौलतमंदों के लिये
मुफ्त की इज्जत और शौहरत का दरिया
कमअक्लों की भीड़ के घेरे में ही बहता है।

……………………………

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लहरें देखकर खेलने का मन करता है-हिंदी कविता(lahren aur man-hindi kavita)


जिंदगी की इस धारा में
किस किसकी नाव पार लगाओगे।
समंदर से गहरी है इसकी धारा
लहरे इतनी ऊंची कि
आकाश का भी तोड़ दे तारा
अपनी सोच को इस किनारे से
उस किनारे तक ले जाते हुए
स्वयं ही ख्यालों में डूब जाओगे।
दूसरे को मझधार से तभी तो निकाल सकते हो
जब पहले अपनी नाव संभाल पाओगे।
दूर उठती लहरें देखकर
खेलने का मन करता है
पर उनकी ताकत तभी समझ आयेगी
जब उनसे लड़ने जाओगे।

……………………………..

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खेल और हवा-हिंदी व्यंग्य लघुकथा (khel aur hava-hindu laghu katha)


उसने एक फुटबाल ली और उस पर लिख दिया धर्म। वह उस फुटबाल के साथ एक डंडा लेकर उस मैदान में पहुंच गया जहां गोल पोस्ट बना हुआ था। तमाम लोग वहां तफरी करने आते थे इसलिये वह पहले जोर से चिल्लाया और बोला-‘है कोई जो सामने आकर मुझे गोल करने से रोक सके।’
उसने अपनी आंखों पर चश्मा लगा लिया था। उसका डीलडौल और हाथ में डंडा देखकर लोग डर गये और फिर वह शुरु हो गया उसके गोल करने का सिलसिला। एक के बाद एक गोल कर वह चिल्लाता रहा-है कोई जो मेरा सामना कर सके। देखों धर्म को मैं कैसे लात मारकर गोल कर रहा हूं।’
लोग देखते और चुप रहते। कुछ बच्चे शोर बचाते तो कुछ बड़े कराहते हुए आपस में एक दूसरे का सांत्वना देते कि कोई तो माई का लाल आयेगा जो उसका गोल रोकेगा।’
उसी समय एक ज्ञानी वहां से निकला। उसने यह दृश्य देखा और फिर उसके पास जाकर बोला-‘क्या बात है? सामने कोई गोल पर तो है नहीं जो गोल किये जा रहे हो।’
वह बोला-‘तुम सामने आओ। मेरा गोल रोककर दिखाओ। यह फुटबाल मैंने एक कबाड़ी से खरीदी है और मैं चाहता हूं कि कोई मेरे से गोल गोल खेले।

ज्ञानी ने कहा-‘ यह होता ही है। अगर फुटबाल है तो खेलने का मन होगा। डंडा है तो उसे भी किसी को मारने का मन आयेगा। ऐसे में तुम्हारे साथ कोई नहीं खेलने आयेगा।’
उसने कहा-‘तुम ही खेल लो। दम है तो आ जाओ सामने।’
ज्ञानी ने उससे फुटबाल हाथ में ली और उसकी हवा भरने के मूंह पर जाकर उसका ढक्कन खोल दिया। वह पूरी हवा निकल गयी।
वह चिल्लाने लगा और बोला-‘अरे, डरपोक हवा निकाल दी। अभी डंडा मारता हूं।’
ज्ञानी ने कहा-‘फंस जाओगे। यहां बहुत सारे लोग हैं। फुटबाल पर तुमने धर्म लिखकर लोगों की भावनाओं को संशकित कर दिया था पर अब वह यहीं आयेंगे। देखो वह आ रहे हैं।’
उसने देखा कि लोग उसकी तरफ आ रहे हैं। ज्ञानी ने कहा-‘तुम अब घर जाओ। यह तुम नहीं फुटबाल थी जो तुमसे खेल रही थी। फुटबाल में हवा भरी थी जो उसके साथ तुम्हें भी उड़ा रही थी। वैसे तुम्हारी देह भी हवा से चल रही है पर यह हवा तुम्हारे दिमाग को भी चला रही थी। अब न यह फुटबाल चलेगी न डंडा।’
वह ज्ञानी ऐसा कहकर चल दिये तो तफरी करने आये एक सज्जन ने पूछा-‘पर आपने सब क्यों और कैसे किया?’
ज्ञानी ने कहा-‘मैंने कुछ नहीं किया। यह तो हवा ने किया है। उसे फुटबाल में भरी हवा ने बौखला दिया था। वह निकल गयी तो उसके लिये अपना यह नाटक जारी रखना कठिन था। मुझे करना ही क्या था? उसके कहने पर उसके साथ फुटबाल खेलने से अच्छा है कि उसकी हवा निकाल कर मामला ठंडा कर दो। फुटबाल खेलता तो वह गोल रोकने को लेकर विवाद करता। मेरे गोल पर आपत्तियां जताता। उसको छोड़ कर जाता तो वह यहां भीड़ के लोगों को बेकार में डराता। इससे अच्छा है कि धर्म नाम लिखकर झगड़ा बढ़ाने की उसकी योजना को फुटबाल में से हवा निकाल कर बेकार कर दिया जाये।’
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पसंद कि नापसंद-हास्य व्यंग (hindi comedy satire)


एक सज्जन ने मन्नत मांगी थी कि अगर उनको कभी कहीं से कोई सम्मान प्राप्त होगा तो वह किसी नये कवि का सम्मेलन करायेंगे। इससे तो उनका सम्मान का प्रचार तो होगा ही साहित्य में नयी पीढ़ी को आगे लाने के लिये भी प्रसिद्धि मिलेगी। दरअसल उन्होंने अपने बेकारी के दिनों में अनेक कवितायें लिखी थी जिनका एक किताब के रूप में प्रकाशन कराया। उन्होंने अपने मित्र को वह कविता दिखाई तो उसने कहा-‘‘चुपचाप इनको रख लो। यह कवितायें तुम्हारी मजाक बनवायेंगी। अलबत्ता जब तुम्हारे सपंर्क बन जायें तो इस किताब के सहारे कोई सम्मान वगैरह जुगाड़ लेना क्योंकि तुम जिस तरह अपने व्यवसाय में आगे जा रहे हो तुम्हारे लिये अच्छे अवसर हैं।’’
वह सज्जन अनेक तरह के ठेके लिया करते थे। ढेर सारी किताबें रखने के लिये उन्होंने एक अलमारी बनवायी थी जिस पर रोज अगरबत्ती जलाकर घुमाते।
इधर समय के साथ उनके व्यवसाय के साथ बड़े और प्रतिष्ठित लोगों से संपर्क बढ़ रहे थे। एक कारखाने में निर्माण का ठेका उनको मिला। वह कंपनी अवार्ड वगैरह भी बांटा करती थी। दरअसल उसका यह समाज कल्याण अभियान बड़े लोगों से संपर्क बढ़ाने के लिये था और वह अपने को फायदा देने वालों को सम्मानित भी कर चुकी थी। ठेकेदार सज्जन की उसी कंपनी के प्रबंधक से बातचीत हुई। ठेकेदार सज्जन को मालुम था कि यह कंपनी अवार्ड वगैरह बांटती है इसलिये वह प्रबंधक से अधिक प्रगाढ़ संबंध बनाने लगे। एक दिन उन्होंने प्रबंधक से कहा-‘आप हमें साहित्य के लिये अपना अवार्ड दिलवा दीजिये। आपका कमीशन दुगना कर देता हूं।’
प्रबंधक ने कहा-‘पहले वह किताब दिखाओ। नहीं दिखाना है तो कमीशन तीन गुना करो।’
ठेकेदार सज्जन बहुत खुश हो गये। मन ही मन कहने लगे कि‘यह बेवकूफ है, अगर चार गुना भी कहता तो देता।’
उन्होंने अपनी सहमति दी। इस तरह यह इनाम उनको मिल गया। वह भी साहित्यकार के रूप में। शहर भर के साहित्यकारों को तो मानो सांप सूंध गया। हरेक कोई एक दूसरे से पूछा रहा था कि ‘यह कौन महाकवि इस शहर में रहता है जो हमारी नजर से नहीं गुजरा। कभी किसी मंच पर नही देखा। उसका अखबार में नहीं पढ़ा।’
सम्मान मिलना तो सो मिल गया। एक दो आलोचक उनके घर पहुंच गये और कविता के शीर्षकों से ही समीक्षा अखबारों में लिखकर छाप दी। ठेकेदार सज्जन ने बकायदा आलोचकों की खातिर की। इधर उनके मन में बस एक ही बात थी कि किसी नये लेखक का एकल पाठ कराकर अपनी वह मिन्नत पूरी करूं जो किसी दिन मन में आ गयी थी। भले ही दस वर्ष बाद यह पूरी हुई पर मिन्नत का मान रखना भी जरूरी था। मुश्किल यह थी कि पहले उन्होंने नये कवि को अच्छी खासी रकम देने का विचार रखा था पर इधर खर्चा इतना हो गया कि वह सोच रहे थे कि सस्ते में निपट जाये। इसी चिंता में रहते थे। घर से बाहर एक दिन एक लड़का उनको मिल गया जिसके बारे में उनको पता लगा कि उसकी कोई कविता कहीं छपी थी-यह दावा वह मोहल्ले में करता फिर रहा था।

उन्होंने उससे पूछा-‘‘क्यों गंजू उस्ताद, कैसी चल रही है तुम्हारी कवितागिरी।’’
गंजू उस्ताद ने कहा-‘आपसे तो अच्छी नहीं चल रही। अब सोच रहा हूं कि मैं भी ठेकेदारी शुरु करूं। बहुत दिनों से काम तलाश रहा हूं। सोच रहा हूं कि आपको गुरु बना लूं। हो सकता है एक दो अवार्ड अपने किस्मत में भी आ जाये।’
ठेकेदार सज्जन ने कहा-‘अरे, कहां ठेकेदारी के चक्कर में पड़े हो। तुम तो अपनी कविता सविता के साथ आनंद करो।’
गंजू उस्ताद बीच में ही बोल पड़ा-‘‘छि…छि………चुप हो जाईये। अभी अभी तो मेरी शादी हुई है। किसी ने सुना लिया कि सविता से मेरा चक्कर था तो गड़बड़ हो जायेगी।’’
ठेकेदार ने कहा-‘‘कविता के साथ मैंने तो ऐसे ही सविता जोड़ दिया। इधर मैं सोच रहा हूं कि तुम्हारा काव्य पाठ करवा दूं। इससे तुम्हें प्रचार मिलेगा और मुझे भी तसल्ली होगी कि साहित्य की सेवा की।’’
गंजू उस्ताद बोला-‘‘हां, पर अब आप मुझे उस्ताद न कहकर कवि नाम से पुकारें। आप अवसर दे रहे हैं तो अच्छी बात है। आप तैयारी करिये मैं अपनी नयी नवेली पत्नी के पास जाकर उसे यह खबर देता हूं। वह मुझे निठल्ला कहने के साथ ही कवितायें जलाने की धमकी देती है। इधर पिताजी भी कह रहे हैं कि अब तेरी शादी हो गयी तो कुछ कमाई करो। आप कितना पैसे देंगे।’’
ठेकेदार ने कहा-‘‘अरे, तुम्हें एक कवि सम्मेलन मिल गया तो फिर रास्ता खुल जायेगा। यही क्या कम है?’’
गंजू उस्ताद मान गया। वह गया तो ठेकेदार सोचने लगा कि ‘कितना बेवकूफ है कि अगर पांच सात सौ रुपये भी मांगता तो मैं देता।’
एक पार्क में बने बनाये मंच पर गंजू उस्ताद का एकल कविता पाठ प्रारंभ हुआ। मगर वह नया था उसे क्या मालुम कि कवितायें ठेली जाती हैं श्रोताओं की परवाह किये बिना। वह हर कविता पर श्रोताओं से पूछता-‘‘आप बताईये कि यह कविता आपको पसंद आयी।’’
लोग चिल्लाये -‘‘नापसंद नापसंद’’।
इस तरह उसने दस कवितायें सुनायी। अब तो हर कविता की समाप्ति पर लोग चिल्लाते-‘‘नापसंद नापसंद।’’
गंजू उस्ताद के बारे में यह कहा जाता है कि जब वह घर में अपने माता पिता से नाराज होता तो अपने कपड़े फाड़ने और बाल नौचने लगता था। इतना ही नहीं फिर घर से बाहर आकर ऐसे ही पत्थर उड़ाने लगता। यह बचपन की बात थी पर जब लोगों ने उसे इस तरह प्रताड़ित किया तो खिसियाहट में अपने बाल्यकाल में चला गया। वह अपने कपड़े फाड़ने लगा। उधर से लोग चिल्लाये ‘‘पसंद पसंद’’।
वह बाल नौचने लगा। लोग चिल्लाये-‘‘पसंद पसंद’’।
वह मंच से उतर गया और पत्थर उछालने लगा। लोग चिल्लाने लगे ‘‘पसंद पसंद।’’
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे ठेकेदार सज्जन भाग निकले। उनके पीछे गंजू उस्ताद भी भाग निकला। पीछे से लोग भी चिल्लाते हुए भागे-‘पसंद पसंद’
बाद में वह ठेकेदार सज्जन से मिला-‘‘और कुछ नहीं तो मेरे कपड़े फट गये उसके पैसे दे दो। आपको पता है कि वह शादी में मुझे ससुराल से मिले थे। आपके कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये मैंने उनको फाड़ डाला। तभी तो लोग चिल्ला रहे थे ‘पसंद पसंद’। वरना तो ‘नापसंद नापसंद’ कर पूरा कार्यक्रम ही बरबाद किये दे रहे थे।’’
ठेकेदार सज्जन बोले-‘बेशरम आदमी! तुम्हारी वजह से मेरी बदनामी हुई है। मैंने तुम्हार काव्य पाठ सुनने के लिये कार्यक्रम करवाया था या लोगों की पसंद नापसंद जानने के लिये। अरे, यह भीड़ है इस पर चाहे जितना अपनी कवितायें या कहानी थोप दो चुपचाप झेलती है। अगर बोलने का अवसर दो तो फिर यही करती है जो तुम्हारे साथ किया।’
गंजू उस्ताद उदास होकर चला गया। इधर ठेकेदार सज्जन सोचने लगे कि‘अगर जिद्द करता तो एक दो हजार मैं दे ही देता। चलो अच्छा है चला गया। मुझे तो अपना प्रचार मिल ही गया न!
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रावण ने राम का नाम जपा-हास्य व्यंग्य कविता (mukh men ram, pas me ravan-hasya vyangya kavita)


सुनते हैं मरते समय
रावण ने राम का नाम जपा
इसलिये पुण्य कमाने के साथ
स्वर्ग और अमरत्व का वरदान पाया।
उसके भक्त भी लेते
राम का नाम पुण्य कमाने के वास्ते,
हृदय में तो बसा है सभी के
सुंदर नारियों को पाने का सपना
चाहते सभी मायावी हो महल अपना
चलते दौलत के साथ शौहरत पाने के रास्ते,
मुख से लेते राम का नाम
हृदय में रावण का वैभव बसता
बगल में चलता उसका साया।
…………………….
गरीब और लाचार से
हमदर्दी तो सभी दिखाते हैं
इसलिये ही बनवासी राम भी
सभी को भाते हैं।
उनके नायक होने के गीत गाते हैं।
पर वैभव रावण जैसा हो
इसलिये उसकी राह पर भी जाते हैं।

………………………………
पूरा जमाना बस यही चाहे
दूसरे की बेटी सीता जैसी हो
जो राजपाट पति के साथ छोड़कर वन को जाये।
मगर अपनी बेटी कैकयी की तरह राज करे
चाहे दुनियां इधर से उधर हो जाये।
सीता का चरित्र सभी गाते
बहू ऐसी हो हर कोई यही समझाये
पर बेटी को राज करने के गुर भी
हर कोई बताये।
………………..

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हिंदी ब्लाग अंग्रेजी से आगे निकल सकते हैं-आलेख (hindi blog, inglish blog-hindi article)


अंतर्जाल पर कौन कितना सफल है यह तो कहना कठिन है क्योंकि यहां अनेक तरह के फर्जीवाड़े हैं जिनको समझना एक कठिन काम है। चाहे किसी भी भाषा के ब्लाग हैं उनको लेकर अनेक तरह के भ्रम बने ही रहते हैं। अनेक दिलचस्प बातें सामने आती हैं। लोग तमाम तरह की वेबसाईटों पर अपने ब्लाग की रेटिंग दिखाकर अपने को सबसे सफल ब्लाग या वेबसाईट लेखक होने का दावा भी करते हैं। अनेक लोगों को तो यह लगता है कि हम तो अच्छा लिख नहीं रहे इसलिये सफल नहीं है।
अनेक समझदार ब्लाग लेखक ऐसी बातें लिख जाते हैं उनके आशय कुछ भी लिये जा सकते हैं। अभी कुछ दिनों पहले एक समाचार था कि अंतर्जाल पर लिखे जा रहे ब्लागों को एक ही आदमी पढ़ता है। इसका आशय यह भी हो सकता है कि लेखक स्वयं ही पढ़ता है या यह भी हो सकता है कि जिन वेबसाईटों पर ब्लाग बने हैं वहीं से उनकी सामग्री देखी जा सकती है या कहीं उनके द्वारा कुछ लोग इसके लिये नियुक्त हैं जिन्हें रोज ब्लाग पर व्यूज भेजने के लिये रखा गया है।
एक कमाने वाले ब्लाग लेखक ने लिखा था कि ‘हजारों ऐसे पाठक लेकर क्या करूंगा जिनसे मुझे एक पैसा भी न मिले। मुझे तो दस ऐसे ही पाठक काफी हैं जो मेरे विज्ञापनों से मुझे आय अर्जित करायें।’
अब सच क्या है कोई नहीं जानता। अलबत्ता इतना तय है कि अनेक तरह के फर्जीवाड़े संभावित हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि कौन कितना सफल है? यह बात केवल ब्लाग लेखकों तक नहीं बड़ी बड़ी वेबसाईटों पर भी लागू होती है। अलबत्ता आॅनलाईन से जनता का काम करने वाली व्यवसायिक वेबसाईटें जरूर अधिक देखी जाती हैं पर वह सफलता और असफलता के दायरे से बाहर हैं। संभव है कोई ऐसा ब्लाग या वेबसाईट लेखक हो जिसको एक हजार पाठक रोज देखते हों और वह कमाता भी हो तो उसे सफल मान लिया जाये और जिसे सौ पाठक देखते हों और वह न कमाता हो उसे असफल मान लिया जाये। इसमें एक पैंच ही फंसता है कि जिसके पास सौ पाठक हों संभव है वह पूरी तरह से सौ हों और जिसके पास हजार हों उसके लिये केवल बीस ही सक्रिय हों। जो ब्लागर कमा रहे हैं उनकी इस बात के लिये प्रशंसा करना चाहिए कि वह आय अर्जित करने का गुर सीख गये हैं और नये लोगों को उनसे प्रेरणा भी लेना चाहिए। मुश्किल यह है कि जिनके लिये अंगूर खट्टे हैं वह कैसे संतोष करें। न पैसा मिले न प्रतिष्ठा उनके लिये क्या है यहां पर? ऐसे में उनके पास एक ही चारा है कि वह अपने पास ऐसे कांउटर लगायें जिससे पता लगे कि उनको कितने लोग पढ़ रहे हैं और कहीं मित्र लोग ही तो केवल फर्जी व्यूज नहीं दे रहे क्योंकि सफलता का भ्रम तो असफलता से भी अधिक बुरा होता है।
इधर हमने शिनी का स्टेट कांउटर लगाकर देखा। यह कांउटर केवल वर्डप्रेस के ब्लाग पर लगाया यह देखने के लिये कि आखिर देखें तो सही कि हमारे ब्लाग किस दिशा में जा रहे हैं। इस कांउटर के साथ अच्छी बात यह है कि इसने ब्लाग के वर्गीकरण कर दिये हैं। पंजीकृत समझ में अधिक नहीं आया पर जो उचित लगा वह वर्ग ले लिया। इसमें मनोरंजन और साहित्य के अलग अलग वर्ग लिये।
इसका अवलोकन करने के बाद करने पर पता चला कि अंग्रेजी के ब्लागों पर भी अब हिंदी ब्लाग की बढ़त बन सकती है। इतना ही नहीं यौन सामग्री से सुसंज्जित सामग्री के मुकाबले भी साहित्य का स्थान बन सकता है। इस कांउटर पर अभी अन्य ब्लाग अधिक पंजीकृत नहीं है इसलिये यह कहना कठिन है कि उनके मुकाबले इस लेखक के ब्लाग का क्या स्तर है? अलबत्ता प्रारंभ में ही हिंदी ब्लागों को पचास में 10 से 13 तक अंक और समाज में ई पत्रिका और दीपक बापू कहिन को साहित्य वर्ग मे 22, 23 स्थान मिलना अच्छा संकेत है। वैसे हिंदी पत्रिका को मनोरंजन के अन्य वर्ग में 82 वां स्थान मिला है पर वहां उसके सामने अंग्रेजी ब्लाग हैं जो शायद अधिक पढ़े जाते है। यह ब्लाग दो दिन पहले तक 92 वें स्थान पर था। यह आंकड़े ऊपर नीचे होंगे। यह कोई बड़ी सफलता का प्रमाण भी नहीं है पर इससे एक बात साफ है कि अंतर्जाल पर हिंदी की पाठक संख्या ठीक ठाक है और भविष्य में हिंदी ब्लाग अंग्रेजी को जरूर चुनौती देंगे। वैसे ब्लाग स्पाट के ब्लाग की सफलता का सबसे अच्छा आंकलन गूगल विश्लेषण प्रस्तुत करता है जिसका दावा है कि वह आपको फर्जी व्यूज से भ्रमित होने से बचाता है। इसके बावजूद अन्य वेबसाईटों पर भी ब्लाग की स्थिति देखी जा सकती है पर उनके साफ्टवेयरों पर अनेक लोग संदेह जाहिर करते हैं। अलबत्ता शिनी ने जो अलग वर्ग बनाये हैं वह एक अच्छी बात है। हमने यह कांउटर एक किसी हिंदी ब्लाग लेखक के ब्लाग से दो सप्ताह पहले ही लिया था पर यह पता नहीं वह किस श्रेणी में पंजीकृत हैं क्योंकि हमने अपनी श्रेणियों में उनको देखने का प्रयास किया था पर दिखाई नहीं दिया। यहां यह भी याद रखने लायक है कि अनेक वेबसाईटें ऐसी हैं जो वहां पंजीकरण कराने पर रैकिंग देती हैं इसलिये उनको लेकर अपना यह दावा करना ठीक नहीं लगता कि हम सफल हैं, क्योंकि संभव है कि अन्य अपंजीकृत ब्लाग हमसे भी श्रेष्ठ हो सकते हैं।

हां, एक मजेदार बात सामने आई। कहा जाता है कि अधिकतर ब्लाग को एक आदमी पढ़ता है। लेखक समेत हम दो मान लें तो सफलता का एक पैमाना यह भी होता है कि आपके ब्लाग को तीसरा आदमी भी पढ़ता दिखे। इस काउंटर पर हमने अपने ब्लाग पर आनलाईन पाठक की संख्या पांच से सात तक देखी है। इसका आशय यह है कि हमारे ब्लाग उस दायरे से तो बाहर निकल गये हैं जो उसे एक या दो पाठक तक ही सीमित रहते हैं।
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दीवारों के पीछे से प्रहार-व्यंग्य कविताएं (deevar ke piche se prahar-vyangya kavitaen)


चेहरे पर रोज नया मुखौटा लगाकर
वह सामने चले आते
उनकी बहादुरी पर क्या भरोसा करें
जो अपने पहचाने जाने का खौफ
हमेशा अपने साथ लाते।
………………
दीवारों के पीछे छिपकर
वह पत्थर हम पर उछालते हैं
भीड़ हंसती है
हम भी बदले का इरादा पालते हैं।
दीवारों के पीछे हम नहीं जा सकते
अपनी पहचान छिपाते
डर के साये में जीते वह लोग
मर मर कर जीते होंगे
अपने ही प्रति प्रहार वापस हमारी तरफ लौट आयें
जमाने को मुफ्त में फिर क्यों हंसायें
यही सोचकर चुप रह जाते हैं।

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मुर्दाखानों में रौशनी की तलाश-हिंदी साहित्य कविता (The search of light of life in dead mines – Hindi literature, poetry)


जमींदौज या राख हो चुके इंसानों के
राहों पर छपे कदमों को चूम कर
उसके निशान जमाने को दिखाते हैं।
गुजरते समय के साथ
बदलते जमाने को अपने ही
नजरिये से चलाने की कोशिश करते
वह लोग
मुर्दाखानों में जिंदगी की रौशनी जलाते हैं।
जितनी जिंदगियां चलती हैं
उतनी ही कहानियां पलती हैं
इस रंगबिरंगी दुनियां में
बस एक सूरज की रौशनी ही जलती है
बाकी चिराग तो
उधार पर अपना काम निभाते हैं।
हर चैहरे पर नाक और कान अलग अलग
सभी के अलग हैं शरीर
सबकी अपनी तकदीर और तब्दीर
पैरों और हाथों के निशान एक नहीं होते
यह सच जानने और समझने वाले ही
जिंदगी में अमन से रह पाते हैं।

………………………….

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सविता भाभी ने किया सच का सामना-हिन्दी हास्य कविता (savita bhabhi ne kiya sach ka samana-hasya kavita)


नाम कुछ दूसरा था पर
नायिका सविता भाभी रखकर वह
सच का सामना प्रतियागिता में पहुंची
और एक करोड़ कमाया।
प्रतिबंधित वेबसाईट की कल्पित नायिका को
अपने में असली दर्शाया।
यह देखकर उसका रचयिता
छद्म नाम लेखक कसमसाया।
पीसने लगा दांत
भींचने लगा मुट्ठी और
गुस्से में आकर एक जाम बनाया।
पास में बैठे दूसरे
पियक्कड़ ब्लाग लेखक से बोला
‘‘यार, कैसी है यह अंतर्जाल की माया।
अपनी नायिका तो कल्पित थी
यह असल रूप किसने बनाया।
हम जितना कमाने की सोच न सके
उससे ज्यादा इसने कमाया।
हमने इतनी मेहनत की
पर टुकड़ों के अलावा कुछ हाथ नहीं आया।’

दूसरे पियक्कड़ ब्लाग लेखक ने
अपने मेहमान के पैग का हक
अदा करते हुए उसे समझाया
‘यार, अच्छा होता हम असल नाम से लिखते
अपने कल्पित पात्र के मालिक तो दिखते
हम तो सोचते थे कि
यौन विषय पर लिखना बुरा काम है
पर देखो हमारे से प्रेरणा ले गये
यह टीवी चैनल
कर दिया सच का सामना का प्रसारण
जिसमें ऐसी वैसी बातें होती खुलेआम हैं
हम तो हिंदी भाषा के लिये रास्ता बना रहे थे
यह हिंदी टीवी चैनल अंग्रेजी का खा रहे थे
हमारी हिंदी की कल्पित पात्र
सविता भाभी को असली बताकर
अपना कार्यक्रम उन्होंने सजाया,
पर हम भी कुछ नहीं कर सकते
क्योंकि अपना नाम छद्म बताया।
जब लग गया प्रतिबंध तो
हम ही नहीं गये उसे रोकने तो
कोई दूसरा भी साथ न आया।
हमारी कल्पित नायिका ने
हमको नहीं दिया कमाकर जितना
उससे ज्यादा टीवी चैनल वालों ने कमाया।
यह टीवी वाले उस्ताद है
ख्यालों को सच बनाते
और सच को छिपाते
नकली को असली बताने की
जानते हैं कला
इसलिये सविता भाभी का भी पकड़ लिया गला
अपने हाथ तो बस अपना छद्म नाम आया।

…………………………
नोट-यह हास्य कविता एक काल्पनिक रचना है और किसी भी घटना या व्यक्ति से इसका लेनादेना नहीं है। अगर संयोग से किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।
………………………….
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दिल का दिमाग से रिश्ता-हिंदी कविता (dil aur dimag-hindi sahityak kavita)


दिल में कुछ
दिमाग में कुछ
जुबां से दूसरे बोल ही निकल आते हैं।
दिल का दिमाग से
दिमाग का जुबां से रिश्ता
भला कितने लोग जान पाते हैं।
दूसरों से संवाद क्या करेंगे
अपने ही भाव नहीं पढ़ पाते हैं।
……………….
अर्थहीन शब्द
औपचारिक संवाद
सुनने की आदत हो गयी है।
दोस्ती और रिश्तों की भीड़ में
आत्मीयता ढूंढती थक चुकीं
मन की आंखें, अब सो गयी हैं।

…………………….

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हुकुम मेरे आका-हास्य व्यंग्य कविता(hukum mere aka-hasya hindi kavita


शराब की बोतल से जिन्न निकला
और उस पियक्कड़ से बोला
-“हुकुम मेरे आका!
आप जो भी मुझसे मंगवाओगे
वह ले आउंगा
बस शराब की बोतल नहीं मंगवाना
वरना मुझसे हाथ धोकर पछताओगे.


सुनकर पियक्कड़ बोला
-“मेरे पास बाकी सब है
उनसे भागता हुआ ही शराब के नशे में
घुस जाता हूँ
दिल को छु ले, ऐसा कोई प्यार नहीं देता
देने से पहले प्यार, अपनी कीमत लेता
तुम भी दुनिया की तमाम चीजें लेकर
मेरा दिल बहलाओगे
मैं तो शराब ही मांगूंगा
मुझे मालूम है तुम छोड़ जाओगे.
जाओ जिन्न किसी जरूरतमंद के पास
मुझे नहीं खुश कर पाओगे..
————————-
रिश्ते और समय की धारा-हिंदी कविता
हम दोनों तूफान में फंसे थे
उनको सोने की दीवारों का
सहारा मिला
हम ताश के पतों की तरह ढह गये।

अब गुजरते हैं जब उस राह से
यादें सामने आ जाती हैं
कभी अपनो की तरह देखने वाली आंखें
परायों की तरह ताकती हैं
रिश्ते समय की धारा में यूं ही बह गये।
जुबां से निकलते नहीं शब्द उनके
पर इशारे हमेशा बहुत कुछ कह गये।

……………………………..

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आती जाती बिजली-हास्य कविता (bijli par hasya kavita)


अच्छे विषय पर सोचकर
कविता लिखने बैठा युवा कवि
कि बिजली गुल हो गयी।
कागज पर हाथ था उसका
कलम अंधेरे में हुई लापता
जो सोचा था विषय
उसका भी नहीं था अतापता
अब वह बिजली पर पंक्तियां सोचने लगा
‘कब आती और जाती है
यह तो बहुत सताती है
इसका आसरा लेकर जीना खराब है
इससे तो अच्छा
तेल से जलने वाला चिराग है
जिंदगी की कृत्रिम चीजें अपनाने में
पूरे जमाने से भूल हो गई।’

कुछ देर बाद बिजली वापस आई
कवि की सोच में भी
बीभत्स रस की जगह श्रृंगार ने जगह पाई
उसकी याद में
अपने साथ पढ़ने वाली
बिजली नाम की लड़की
पहले ही थी समाई
बिजली आने पर भूल गया वह दर्द अपना
अब उसने लिखा
‘मैं उसका नाम नहीं जानता
उसकी अदाओं को देखकर
बिजली ही मानता
जब भी जिंदगी अंधेरे से बोझिल हो जाती
उसकी याद मेरे अंदर रौशनी जैसे आती
उसका चेहरा देखकर दिल का बल्ब जल उठता है
कोई दूसरा उसे देखे तो
करंट जैसा चुभता है
मेरी कविताओं के हर शब्द की
ट्यूबलाईट उसकी याद के बटन से जलती है
उसके आंखों की चमक बिजली जैसी
चारों तरफ मरकरी जैसी रौशनी दिखती
जब वह चलती है
उसकी याद में मेरे दिल का मीटर तो
बहुत तेजी से चलता है
पर वह बेपरवाह
मुझे समझने में भूल करती है।

……………………………

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नकली खून और डाक्टर-हास्य व्यंग्य (nakle khoon aur dactor-hindi hasya vyangya)


डाक्टर साहब बाहर ही मिल गये। उस समय वह एक किराने वाले से सामान खरीद रहे थे और हम पहले लेचुके सामान का पैसा उसे देने गये थे। दुपहिया से जैसे ही उतरे डाक्टर साहब से नमस्कार किया और पैसा देकर जैसे ही वापस मुड़े तो डाक्टर साहब ने पूछा-‘कहीं बाजार जा रहे हैं।’
हमने कहा-‘हां, आज अवकाश का दिन है सोच रहे हैं कि बाजार जाकर घूमे और सामान खरीद लायेें।’
डाक्टर साहब बोले-हां, सप्ताह में एक बार बाजार जाना स्वास्थ्य के लिये अच्छा होता है। आदमी रोज घर का खाना खाते हुए उकता जाता है, इसलिये कभी बाजार में खाना बुरा नहीं है।’
हम रुक गये और उनकी तरफ घूर कर देखा और कहा-‘पर एक बार जब हम बीमार पड़े थे तब आपने कहा था कि बाजार का खाना ठीक नहीं होता। तब से लगभग हमने यह कार्य बंद ही कर दिया है।’
वह बोले-‘हां, पर यह छह वर्ष पहले की बात है। वैसे आजकल आप सुबह योग कर लेते हैं इसलिये अब आपको इतनी परेशानी नहीं आयेगी। वैसे क्या आपने वाकई बाजार का खाना पूरी तरह बंद कर दिया है।’
हमने कहा-‘अधूरी तरह किया था पर अब तो टीवी वगैरह ने नकली घी, तेल, दूध, चाय तथा खोये का ऐसा खौफ भर दिया है कि बाजार में खाने के सामान की खुशबू नाक को कितना भी परेशान करे पर उस पर अपना ध्यान नहीं जाने देते।’
डाक्टर साहब बोल-‘हां, यह तो सही है पर सभी जगह थोड़े ही नकली सामान मिल रहा है।’
हमने कहा-‘आपकी बात सही है पर हम करें क्या? आधा आपने डराया और आधा इन टीवी वालोें ने। जैसे आपकी सलाह के बाद हमने योग साधना शुरु की वैसे ही बाहर का खाना भी बंद कर दिया है।’
डाक्टर साहब बोले-‘ आप अपने स्वास्थ्य के प्रति आप सजग है, यह अच्छी बात है। वैसे आप बहुत दिनों से घर नहीं आये।’
हमने हंसते हुए कहा-‘डाक्टर साहब, आपके घर आने से बचने के लिये तो रोज सुबह इतनी मेहनत करते हैं। पहले आपकी और अब टीवी वालों की चेतावनी को इसलिये ही याद रखते हैं क्योंकि हमें आपके घर आने से डर लगता है। अनेक बार तो बुखार और जुकान की बीमारियों से स्वतः ही निपटते हैं क्योंकि सोचते हैं कि हमने जो खराब खाना खाया है उसका दुष्प्रभाव कम होते ही सब ठीक हो जायेगा।’
डाक्टर साहब हंस पड़े-हां, वैसे भी हम छोटी मोटी बीमारियों का इलाज करते हैं पर बड़ी बीमारी के लिये तो बड़े डाक्टर के पास मरीज को भेजना ही पड़ता है।’
हमने बातों ही बातों में उनसे पूछा-‘डाक्टर साहब आप नकली खून की पहचान कर सकते हैं।’
वह एकदम बोले-‘हम तो होम्योपैथी के डाक्टर हैं। इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते अलबत्ता टीवी पर देखा तो हैरान रह गये।’
हमने कहा-‘मतलब यह है कि कभी किसी को बड़ी बीमारी हो और उसमें दूसरे का खून शरीर में देना जरूरी हो तो आपके पास न आयें। आपने तो हमारी उम्मीद ही तोड़ दी।’
डाक्टर साहब बोले-‘आपकी बात सुनकर मेरा ध्यान अपने चचेरे भाई की तरफ चला गया है। एक किडनी खराब होने के कारण वह एक अस्पताल में भर्ती है और उसे निकाला जाने वाला है। उसके लिये भी खून की जरूरत है। मैं अभी जाकर अपने दूसरे चचेरे भाई को फोन कर कहता हूं कि जरा देखभाल कर खून ले आये।’
डाक्टर साहब के चेहरे पर चिंता के भाव आ गये और वह शीघ्र वहां से चले गये। एक डाक्टर की आंखों में ऐसे चिंता के भाव देखकर हमें हैरानी हुई साथ ही यह चिंता भी होने लगी कि कहीं हमें अपने या किसी अन्य के लिये खून की जरूरत हुई तो क्या करेंगे? ऐसे में हमें सिवाय इसके कुछ नहीं सूझता तो फिर योग साधना का विचार आता है। सोचने लगे कि थोड़ी योग साधना से छोटी बीमारियों को ठीक कर लेते हैं तो क्यों न कल से अधिक अधिक कर बड़ी बीमारियों को अपने से दूर रखने का प्रयास करें। हालांकि कभी कभी लगता है कि इनसे अच्छा तो टीवी देखना ही बंद कर दें। वह बहुत सारी चिंतायें देने लगता है। कहा भी गया है कि ‘चिंता सम नास्ति शरीरं शोषणम्।’
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hindi aritcle, hindi laghu katha, hindi vyangya, खून, डाक्टर, बीमारी, मनोरंजन, हिंदी साहित्य

वह कौनसी तराजू है-हिन्दी व्यंग्य कविता (taraju-hasya kavita)


कामयाबी की कीमत
मुद्रा में आंकी जाने लगी है।
इज्जत और दिल के चैन का
मोल लोग भूल गये हैं
ढेर सारी दौलत एकत्रित कर
प्रतिष्ठा का भ्रम पाले
अपने पांव तले
दूसरे इंसान को कुचलने की चाहत
हर इंसान में जगी है।
…………………………
वह कौनसी तराजू हैं
जिसमें इंसान की इज्जत
और दिल का चैन तुल जाये।
दौलत के ढेर कितने भी बड़े हों
फिर भी उनमें कोई द्रव्य नहीं है
जिसमें दिल का अहसास उसमें घुल जाये।
………………………..

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पर्दे के पीछे देखने की चाहत-हिंदी हास्य व्यंग्य (Behind the scenes-Hindi comedy satire)


पर्दे के पीछे से आशय फिल्म या नाटक से नहीं है बल्कि भीड़ के अलग हटकर किये जा रहे विरोधाभासी व्यवहार से है। दरअसल लोगों की आदत है कि वह भीड़ में बैठकर सामने किसी विशिष्ट व्यक्ति को देखते हैं तो उसे पास जानने की इच्छा प्रबल हो उठती है। कुछ लोग भीड़ में चमकने वाले अभिनेताओं और संतों को अपना इष्ट बना लेते हैं। उसका स्वरूप उनके हृदय में इस तरह स्थापित हो जाता है कि ऐसे समझने लगते हैं जैसे कि वह व्यक्ति उनका आत्मीय हो। भले ही वह उसके पास नहीं जा पाते पर उनके अंतर्मन में वह रचा बसा होता है।
समझदार लोग जानते हैं कि यह उनका भ्रम है इसलिये केवल विचारों को आता जाता देखकर काम चला लेते हैं पर कुछ संवेदनशील लोग विशिष्ट हस्तियों के निकट तक पहुंचना चाहते हैं। सच कहें तो वह पर्दे के पीछे जाकर उनसे मिलना चाहते हैं। यह एक खतरनाक काम है क्योंकि भीड़ के सामने और पर्दे के पीछे व्यवहार में बहुत अंतर होता है।
एक संत कथा कर रहे थे। उनके प्रवचनों में भी वही बातें थी-‘मोह माया छोड़ दो’, ’लोगों का भला करो’, वगैरह वगैरह। पैसे के प्रति उनका मोह सर्वज्ञात था पर फिर भी अपने देश के लोग तत्वज्ञान होने के बावजूद भ्रम में रहना पसंद करते हैं इसलिये उनको सुनने भीड़ आती थी। एक प्रवचन कार्यक्रम खत्म होते ही वह पर्दे के पीछे पहुंचे गये। वहां अपने शिष्य से बोलो-‘आज कितना चढ़ावा आया। कल तो बहुत कम आया था। ऐसा प्रतीत होता है कि लोग मु्फ्त में प्रवचन सुनना चाहते हैं।’
वह शिष्य बोला-‘बाबा, आज तो छुट्टी का दिन है। भीड़ ज्यादा है। आज बाहर चंदे की पेटियां भी बढ़ा दी हैं। इसलिये कल से अच्छा चढ़ावा आयेगा।’
महाराज खुश नहीं हुए और बोले-‘तुमने परले शहर फोन किया। वहां के आयोजक से कहो कि कथा करने के हम इतने कम पैसे नहीं लेंगे।’
वह शिष्य बोला-‘मैंने उससे कहा था। वह आज आपको फोन करेगा।’
कथित संत बोले-‘मुझे उसने सुबह फोन किया था। उस समय तुम मेरे पास नहीं थे। मैंने उससे कहा कि इतने कम पैसे में कथा करने नहीं आऊंगा। तुम फिर एक बार फिर फोन करना। देखो राजी हो जायेगा। यहां चढ़ावा बहुत कम आया है। मेरे लिये यह हैरानी की बात है।’
इस बातचीत को एक अन्य श्रद्धालु सुन रहा था। दरअसल प्रवचन खत्म होते ही वह संत जी के शिष्यों को चकमा देते हुए वहां उनके करीब से दर्शन करने पहुंच गया था। शिष्य की नजर उस पर गयी और वह बोला-‘कौन हो भई, यहां कैसे आये।’
तब तक वह श्रद्धालू संतजी के पास पहुंच गया था और चरण पकड़ कर बोला-‘महाराज आपके पास से दर्शन किये।जीवन धन्य हो गया।’
प्रवचन के दौरान बात बात पर हंसने वाले उन संत जी का मूंह सूझा हुआ था। वह आशीर्वाद देते हुए बोले-‘ठीक है भई, पर इस तरह मत आया करो। हम भी आखिर इंसान है थक जाते हैं और हमें भी विश्राम की आवश्यकता होती है। अब तुम जाओ।’
उसने अपनी जेब से सौ का नोट निकालकर उनके पांव पर रख दिया और बोला-‘महाराज, यह लीजिये इस तुच्छ प्राणी की यह तुच्छ भेंट।’
शिष्य ने कहा-‘उठाओ यह नोट! महाराज को क्या भिखारी समझ रखा है। बाहर जाकर पेटी में डाल दो।’
महाराज ने कहा-‘अब ले लो।’
उन्होंने वह नोट स्वयं ही उठा लिया और उससे कहा-‘अब जाओ! हमारी आज्ञा का पालन करो।’
वह जाते हुए कुछ शमियाने के बाहर दरवाजे पर रुक गया यह जानने के लिये कि पर्दे के पीछे महाराज दूसरी कौनसी बातें करते हैं। उसने महाराज को कहते हुए सुना-‘लक्ष्मी को मत ठुकराया करो। क्या पता, बाहर जाकर उसका विचार बदल जाता। वैसे इस सौ के नोट से क्या होता है पर कम चढ़ावा आ रहा है तो जहां से जितना आ रहा है ले लो।’
संत शिष्य की बात जो भी हुई उससे उस श्रद्धालू का मन टूट गया। वह इस बात पर नहीं पछता रहा था कि उसके इष्टदेव की असलियत सामने आयी बल्कि परेशान वह बात को लेकर था कि वह पर्दे के पीछे गया क्यों? कम से कम उसका भ्रम तो बना रहता। जब सच कड़वे हों तो भ्रम में रहना भी आदमी को अच्छा लगता है। यह भ्रम तभी तक सत्य लगता है कि जब तक आदमी अपने आदरणीय का पीछा करते हुए पर्दे के पीछे नहीं चला जाता।
सच तो यह है कि पर्दे के पीछे न जाना चाहिये। पर्दे के पीछे बड़े बड़े खेल होते हैं।
एक विवाह समारोह में एक सज्जन पर्दे के पीछे किसी काम से चले गये। वहां से लौटे तो एक मित्र ने पूछा-‘क्या पर्दे के पीछे शराब पीने गये थे?’
‘नहीं-’उन सज्जन ने कहा-‘पर यह तुम क्यों पूछ रहे हो।’
मित्र ने कहा-‘ऐसे ही! शादी विवाह में लोग पर्दे के पीछे ऐसे ही शराब पीने जाते हैं।’
ऐसा हो सकता है कि कई जगह आपको शराब या सिगरेट का सेवन न करने के लिये जागरुकता उत्पन्न करने वाले सेमीनार होते दिखें। उनकी समाप्ति पर उसमें शामिल लोगों को अगर पर्दे के पीछे उन्हीं वस्तुओं का सेवन करते देखें तो हैरान न हो। सामने और पर्दे के पीछे आचरण करने के लोगा इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि उनको अपने कथन और कर्म के विरोधाभास दिखाई नहीं देते। इन विरोधाभासों को देखकर दिलोदिमाग में तनाव पैदा न हो इसलिये पर्दे के पीछे जाने का प्रयास ही नहीं करना चाहिये।
……………………………….

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हंसी के खजाने की तलाश-हिंदी शायरी (hansi ka khazana-hindi shayri)


अपने पर ही यूं हंस लेता हूं।
कोई मेरी इस हंसी से
अपना दर्द मिटा ले
कुछ लम्हें इसलिये उधार देता हूं।
मसखरा समझ ले जमाना तो क्या
अपनी ही मसखरी में
अपनी जिंदगी जी लेता हूं।
रोती सूरतें लिये लोग
खुश दिखने की कोशिश में
जिंदगी गुजार देते हैं
फिर भी किसी से हंसी
उधार नहीं लेते हैं
अपने घमंड में जी रहे लोग
दूसरे के दर्द पर सभी को हंसना आता है
उनकी हालतों पर रोने के लिये
मेरे पास भी दर्द कहां रह जाता है
जमाने के पास कहां है हंसी का खजाना
इसलिये अपनी अंदर ही
उसकी तलाश कर लेता हूं।

…………………………….

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दिखावे की दोस्ती -हिंदी शायरी (dikhave ki dosti-hindi shayri)



बेसुरा वह गाने लगे।
किसी के समझ न आये
ऐसे शब्द गुनगनाने लगे।
फिर भी बजी जोरदार तालियां
मन में लोग बक रहे थे गालियां
आकाओं ने जुटाई थी किराये की भीड़
अपनी महफिल सजाने के लिये
इसलिये लोगों ने अपने मूंह सिल लिये
पहले हाथों से चुकाई ताली बजाकर कीमत
दाम में पाया खाना फिर खाने लगे।
………………………
कमअक्ल दोस्त से
अक्लमंद दुश्मन भला
ऐसे ही नहीं कहा जाता है।
दुश्मन पर रहती है नजर हमेशा
दोस्त का पीठ पर वार करना
ऐसे ही नहीं सहा जाता है।
जमाने में खंजर लिये घूम रहा है हर कोई
अकेले भी तो रहा नहीं जाता है
इसलिये दिखाने के लिये
बहुत से लोगों को दोस्त कहा जाता है।

……………………………..

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कल्पित भाभी, कामयाबी की चाभी,-व्यंग्य कविता kalpit bhabhi, kamyabi ki chabhi-vyangya kavita


कवि देवर ने लिखी
अपनी प्यारी भाभी पर कविता
‘बहुत सुंदर और सुशील हैं मेरी भाभी
मेरी कामयाबी की है चाभी।
जब कहीं जाता था साक्षात्कार के लिये
वही मेरा सामान बनाती
अटैची में कपड़े सजाती
मेरी कामयाबी के लिये
सर्वशक्तिमान की मूर्ति के सामने
दिल लगाकर आरती गाती
भाई के साथ फेरे लगाकर आई
जैसे मैने नई मां पाई
दिल करता है मां संबोधित करूं न कि भाभी।’
लेकर पहुंचा वह मित्र के पास
राय मांगने तो उसने कहा
‘किस जमाने को कवि हो
उगते नहीं जैसे डूबते रवि हो
भला आज के जमाने में ऐसी
पुरातनपंथी कवितायें को लिखता है
इसलिये तू फ्लाप दिखता है
अगर जमाने में वाह वाह चाहिये
तो पात्र बना अपनी कविता में
असली नहीं बल्कि कल्पित भाभी।
उसे रोज होटलों में भेज
जहां सजे उसकी अय्याशी की सेज
नाम देशी रखना
पर लगाना अंग्रेजी टखना
हो जायेगी हिट, तेरी भी भाभी।
कामयाबी की इमारत में
घुसने के लिये यही है तेरे लिए चाभी।’
…………………………………….

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मिलावट और नकल का आतंक-हास्य व्यंग्य(nakal aur milavat par hindi vyangya)


आतंक कोई बाहर विचरने वाला पशु नहीं बल्कि मानव के मन में रहने वाला भाव है जो उसके सामने तब उपस्थित होता है जब वह अपने लिये कठिन हालत पाता है। पूरे विश्व के साथ भारत में भी आंतक फैले होने की बात की जाती है पर अन्य से हमारी स्थिति थोड़ी अलग है। दूसरे देश कुछ लोगों द्वारा उठायी गयी बंदूकों के कारण आतंक से ग्रसित हैं पर भारत में तो यह आतंक का एक हिस्सा भर है। यह अलग बात है कि हमारे देश के बुद्धिमान बस उसी बंदूक वाले आतंक पर ही लिखते हैं।
बहुत दिन से हम देख रहे हैं कि हम सारे जमाने के आतंक पर लिख रहे हैं पर अपने मन में जिनका आंतक है उसकी भी चर्चा कर लें। सच बात तो यह है हम नकली नोटों और मिलावटी सामान से बहुत आतंकित हैं।
बाजार में जब किसी को पांच सौ का नोट देते हैं तो वह ऐसे देखता है कि जैसे कि किसी अपराधी ने उसे अपने चरित्र का प्रमाणपत्र देखने के लिये दिया हो। जब तक वह दुकानदार लेकर अपनी पेटी में वह नोट डालकर सौदा और बचे हुए पैसे वापस नहीं करता तब तक मन में जो उथल पुथल होती है उसमें हम कितनी बार घायल होते हैं यह पता ही नहीं-याद रहे पश्चिमी चिकित्सा शास्त्र यह कहता है कि तनाव से जो मनुष्य के दिमाग को क्षति पहुंचती है उसका पता उसे तत्काल नही चलता।
हमने अनेक दुकानदारों के सामने ताल ठौंकी-अरे, भईया हम यह नोट ए.टी.एम से ताजा ताजा निकाल कर लाये हैं।’
वह कहते हैं कि ‘साहब, आजकल तो ए़.टी.एम. से भी नकली नोट निकल आते हैं और वह सभी ताजा ही होते हैं।’
उस समय सारा आत्मविश्वास ध्वस्त नजर आता है। ऐसा लगता है कि जैसे बम फटा हो और हम अपनी किस्मत से साबित निकल गये।
यही मिलावटी सामान का हाल है। बाजार में खाने के नाम पर दिन-ब-दिन डरपोक होते जा रहे हैं। इधर टीवी पर सुना कि मिलावटी दूध में ऐसा सामान मिलाया जा रहा है जिसमें एक फीसदी भी शरीर के लिये पाचक नहीं हैं। मतलब यह कि पूरा का पूरा कचड़ा है जो पेट में जमा होता है और समय आने पर अपना दुष्प्रभाव दिखाता है। अभी उस दिन समाचार सुना कि एक तेरहवीं में विषाक्त खोये की मिठाई खाकर 1200 लोग एक साथ बीमार पड़ गये। उस समय हमारी सांसें उखड़ रही थी। उसी दौरान एक मित्र का फोन आया और उसने पूछा-‘क्या हालचाल हैं? तुम्हारे ब्लाग हिट हुए कि नहीं। अगर हो गये हों तो मिठाई खिला देना। हम अंधेरे में बैठे हैं और आज तुम्हारा ब्लाग नहीं देख पा रहे।’
हमने कहा-‘अच्छा है बैठे रहो। अगर लाईट आ गयी तो तुम टीवी समाचार भी जरूर देखोगे। वहां जब मिठाई खाकर बीमार पड़ने वालों की खबर सुनोगे तो फिर मिठाई नहीं मांगोगे बल्कि मिठाई खाना ही भूल जाओगे।’
मित्र ने कहा-‘’तुम चिंता मत करो। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। तुम कभी हिट नहीं बनोगे इसलिये मिठाई भी नहीं मिलेगी सो खतरा कम है। पर यार, वाकई बाहर खाने में हम दिमाग तनाव मे आ जाता है कि कहीं गलत चीज तो नहीं खा ली। उस दिन एक जगह चाय पी और बीच में छोड़ कर दुकानदार को पैसे दिये और उससे कहा‘यह हमारी इंसानियत ही समझना कि हमने पैसे दिये वरना तुम्हारा दूध खराब है उसमें बदबू आ रही है।’ उसने भी हमसे पैसे ले लिये। हैरानी की बात यह है कि लोग उसी चाय को पी रहे थे किसी ने उससे कुछ कहा नहीं।’’
पिछली दो दीवाली हमने बिना खोये की मिठाई खाये बिना ही मनाई हैं। कहां हमें उस दिन मिठाई खाने का शौक रहता था पर मिलावट के आतंक ने उसे छीन लिया। वजह यह है कि इधर दीवाली के दिन शुरु हुए उधर टीवी पर मिलावटी दूध के समाचार शुरु हो जाते हैं कहते हैं कि
1-शहरों में खोवा आ कहां से रहा है जबकि उस क्षेत्र में इतनी भैंसे ही नहीं्र है।
2-खोये में तमाम ऐसे रसायन मिले होते हैं जो पेट की आंतों में भारी हानि पहुंचाते हैं।
3-घी भी पूरी तरह से नकली बन रहा है।’
ऐसे समाचार जो दिमाग में आंतक फैलाते हैं वह बारूद के आतंक से कहीं कम नहीं होते। आप ही बताईये खोय की विषाक्त मिठाई खाकर 1200 लोग एक साथ बीमार हों तो उसे भला छोटी घटना माना जा सकता है? क्या जरूरी है कि दुनियां के किसी हिस्से में बारूद से लोग मरे उसे ही आतंकवादी घटना माना जायेगा?
समस्या यह नहीं है कि दूध, घी या खोवा मिलावटी सामान बन रहा है बल्कि हल्दी, मिर्ची और शक्कर में मिलावट की बात भी सामने आती है। इतना ही नहीं अब तो यह भी कहने लगे है कि सब्जियों और फलों में भी दवाईयां मिलाकर उन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है और वह भी कम मनुष्य देह के लिये कम खतरनाक नहीं है।

जब बारूदी आतंक का समाचार चारों तरफ गूंज रहा होता है तब कुछ देर उस पर ध्यान अधिक रहता है पर जब अपने जीवन में कदम कदम पर नकली और खतरनाक सामान से सरोकार होने की आशंका है तो वह भी अब कम आतंकित नहीं करती। मतलब यह है कि चारों तरफ आंतक है पर हमारे देश के बुद्धिमान लोगों की आदत है कि विदेश के बताये रास्ते पर ही अपने विषय चुंनते हैं। हम इससे थोड़ा अलग हैं और हर विषय को एक आईना बनाकर अपने आसपास देखते हैं तब लगता है कि इस विश्व में बारूदी आतंक खत्म वैसे ही न होने वाला पर जो यह नकल और मिलावट का यह अप्रत्यक्ष आतंक है उसके परिणाम उससे कहीं अधिक गंभीर हैं। सोचने का अपना अपना तरीका है कोई सहमत न हो यह अलग बात है।
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शराबी ईमेल-हास्य व्यंग्य (hasya vyangya)


उस ईमेल में सबसे ऊपर लगे फोटो में शराब की बोतलें सजी थीं। नीचे संदेश में लिखा था कि ‘कृपया इस ईमेल को ध्वस्त न करें। इसे पढ़ें और अपने अन्य मित्रों को भेजें। इस ईमेल को पढ़कर एक आदमी ने इसे ध्वस्त कर दिया तो अगले दिन ही सुबह उसके घर में रखी शराब की बोतल अपने आप ही गिर कर टूट गयी।
एक आदमी ने यह ईमेल पांच लोगों को भेजा तो उसे सुबह ही मुफ्त पांच बोतलों का पार्सल मिला।
एक आदमी ने इसे दस लोगों को भेजा तो उसे उसके मित्र ने एक बढ़िया काकटेल पार्टी दी।
एक अधिकारी ने इसे पंद्रह लोगों को भेजा तो अगले दिन ही उसे प्रमोशन मिल गया।’
यह एक मित्र ने भेजा था और साथ में लिखा था कि इसे मजाक न समझें। हम बहुत गंभीर हो गये। इस बात को लेकर कि हम जैसे व्यक्ति के साथ इस तरह का मजाक करना खतरनाक भी हो सकता था। छहः वर्ष पहले छूटी लत वापस भी आ सकती थी पर लिखने का यह नशा जो बचपन से लगा है उसकी वजह से बचने की संभावना थी पर फ्री में शराब की बोतल का मोह छोड़ना मुश्किल था।
अगले दिन हम एक शराब की दुकान के पास से गुजर रहे थे तो ईमेल की याद आ गयी तो वहीं खड़े हो गये। दरअसल हमें उस फोटो की याद आ गयी। पीछे से एक मित्र ने टोककर कहा-‘चले जाओ, खरीद लो बोतल। डरते किसलिये हो। कोई नहीं देख रहा सिवाय हमारे। हां अगर घर बुलाकर एकाध पैग पिला दो तो हम किसी से नहीं कहेंगे। वैसे तुम कवि हो और इसका सेवन तुम्हारे लिये फायदेमंद है। अच्छी कवितायें लिख लोगे।
हमने कहा-‘क्या इस शराब वाले ने तुम्हें कोई कमीशन दिया है जो प्रचार कर रहे हो? हम तो बस बोतलें देख रहे थे। वैसे ही सजी थीं जैसे कि हमारे ईमेल पर। हमने पांच लोगों को ईमेल भेजा है और सोच रहे थे कि शायद यह शराब वाला हमें मुफ्त में दो चार शराब की बोतलें देगा। सुबह से कोई पार्सल तो मिला नहीं।’
वह मित्र घूरकर हमें देखने लगा और बोला-‘यह क्या कह रहे हो?’
हमने कहा-‘सच कह रहे हैं हमने पांच लोगों को ईमेल किया है। हमें एक ईमेल मिला था जिसमें लिखा था कि यही ईमेल अगर मित्रों को भेजोगे तो कुछ न कुछ मिलेगा। हमने सोचा कि ब्लाग तो हमारे हिट होने से रहे तो हो सकता है कि शराब की एकाध बोतल ही फ्री में मिल जाये।’
उसे हमने पूरी कथा सुनाई तो वह एकदम चीख पड़ा-‘क्या बात है शराब के नाम पर अभी भी तुम बहकने लगते हो। कहते हो कि छोड़ दी है फिर यह कैसा स्वांग रचा है। लगता है कि इंटरनेट ने तुम्हारे दिमाग के सारे बल्ब फ्यूज कर दिये हैं।’
हमने कहा-‘सच कह रहे हैं हमने पांच लोगों को ईमेल भेजा है।’
’’अच्छा-‘’वह घूरकर बोला-‘आज से बीस साल पहले हमने तुम्हें एक सर्वशक्तिमान की एक दरबार के लिये एक पर्चा दिया था कि इसे छपवाकर सौ लोगों को दो तो फायदा होगा तब तुमने कहा था कि यह सब ढकोसला है और आज ईमेल पर शराब का संदेश भेजने की बात आ गयी तो सब भूल गये। क्या जमाना आया गया। आदमी सर्वशक्तिमान के संदेश छपवाता नहीं है पर शराब के ईमेल भेजने को तैयार है।’
तब हमें याद आया कि इस तरह के पर्चे पहले छपते थे कि अमुक जगह सर्वशक्तिमान के अमुक रूप की तस्वीर प्रकट हुई है। उसके बारे में यह पर्चा छपवाकर सौ लोगों को भेजो तो सारी समस्या हल हो जायेगी। दरअसल यह सर्वशक्तिमानों के दरबारों का प्रचार होता था। उसमें यह भी बताया जाता था कि अमुक जगह अमुक तस्वीर मिली तो जिसने प्रचार किया उसको लाभ हुआ जिसने वह पर्चे छपवाने की बजाय फैंक दिया तो उसे हानि हुई। हमने सतर्कता से मित्र को जवाब दिया-‘वह पर्चे छपवाने में पैसे खर्च होते हैं जबकि हमारा इंटरनेट कनेक्शन ब्राडबैंड वाला है इसलिये कोई अलग से पैसा नहीं देना पड़ता। इसलिये प्रयास करने में क्या बुराई है।’
मित्र बोला-‘हां, इससे इंटरनेट के कनेक्शन बने रहेंगे यह क्या कम है? उनकी कमाई नहीं होगी। फिर यह पूरब और पश्चिम का मेल कैसे हो रहा है? कहां अध्यात्म की बातें करते हो और कहां यह शराब की दुकान पर झांक रहे हो। निकल लो। किसी चाहने वाले ने देख लिया तो उसके सामने तुम्हारी पोल खुल जायेगी।’
हम सहम गये। हमारे दिमाग से ईमेल वाली बात निकल ही नहीं रही थी। पांच लोगों को ईमेल किया था पर कहीं से कोई पार्सल आदि नहीं मिला। फिर सोचा कि-‘यार, यह इंटरनेट पर पूरब पश्चिम का मेल कुछ इस तरह ही होगा। प्रचार का तरीका पुराना पर इष्ट तो नया होगा। कहां सर्वशक्तिमान के स्वरूप आदमी को प्रिय थे अब तो यह शराब ही प्रिय है।’

हमने गलत नहीं सोचा। टीवी, कूलर,फ्रिज, और गाड़ियों का अविष्कार इस देश में नहीं हुआ पर उपलब्ध सभी को हैं। हां, उनके उपयोग का तरीका जरूर पश्चिमी देशों से नहीं मिलता। कारें तो एक से एक सुंदर आ रही हैं पर रोड पुरानी और खटारा है। फ्र्रिज है पर लाईट की उठक बैठक उसके साथ लगी हुई है। टीवी आया पर विदेश के लोग उसका आनंद उठाते हैं जबकि हम लोग चिपक जाते हैं। फिर यह सभी चीजें चाहिये पर दहेज के रूप में। मतलब यह कि हम अपने चलने फिरने का ढर्रा नहीं बदल सकते पर इस्तेमाल करने वाली चीजों का बदल देते हैं। यही हाल उस शराब की ईमेल का है। पहले सर्वशक्तिमान की दरबारें कमाई का जरिया होती थी तो अब शराब की दुकानें हो गयी हैं इसलिये प्रचार के लिये उनका ही तो फोटा लगेगा न!
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श्रीगीता संदेश-गैर धर्म गुणवान होने पर भी दु:खदायी (shri gita sandesh)


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।
हिंदी में भावार्थ-
श्रीगीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि अपने धर्म से पराया धर्म श्रेष्ठ लगता है तब उसको कभी श्रेय न प्रदान करें। अपना धर्म संपन्न नहीं दिखता पर दूसरे का धर्म तो हमेशा भयावह परिणाम देने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग धर्म को लेकर बहस करते हैं पर उसका मतलब नहीं समझते। हर टीवी चैनल, अखबार और पत्रिका को उठाकर देख लें धर्म को लेकर तमाम सतही बातें लिखी मिल जायेंगी जिनका सार तो विषय सामग्री प्रस्तुत करने वाले स्वयं नहीं जानते न ही पाठक या दर्शक समझने का प्रयास करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि धर्म बिकने, खरीदने, और लाभ हानि वाली व्यापारिक वस्तु हो गयी है। अनेक प्रचार माध्यम बकायदा धर्मपरिवर्तित कर जिंदगी में भौतिक उपलब्धि प्राप्त करने वाले लोगों का प्रचार करते हैं। इतना ही नहीं धर्म परिवर्तित कर विवाह करने पर लड़कियों को वीरांगना करार दिया जाता है। यह केवल प्रचार है जिससे बुद्धिमान भारतीय तत्व ज्ञान से दिखने वाले कटु सत्यों से भागते हुए करते हैं क्योंकि भारतीय अध्यात्म ज्ञान जीवन के ऐसे रहस्यों को उद्घाटित करने के सत्यों से भरा पड़ा है जिसको जानने वाला धर्म न पकड़ता है न छोड़ता है।
हमारे भारतीय अध्यात्म में स्पष्ट रूप से धर्म को कर्म से जोड़ा गया न कि कर्मकांडों से। कर्मकांडों और रूढ़ियों को लेकर भारतीय धर्मों की आलोचना करने वाले मायावी लोग उस तत्व ज्ञान को जानते नहीं है पर उनको यह पता है कि अगर उसका प्रचार हो गया तो फिर उनकी माया धरी की धरी रह जायेगी।
एक मजे की बात है कि धर्म परिवर्तित दूसरा धर्म अपनाने वाली युवतियां विवाह कर लेती हैं इसमें बुराई नहीं है पर उसके बाद उनको जब दूसरे धर्म के संस्कार अपनाने पड़ते हैं तब उन पर क्या गुजरती है इस पर कोई प्रकाश नहीं डालता। दरअसल फिल्मों की कहानियों को केवल विवाह तक ही सीमित देखने वाले बुद्धिजीवी उससे आगे कभी सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि विवाह के बाद जब पराये धर्म के कर्मकांडों को मन मारकर अपनाना पड़ता है तब उन युवतियों की क्या कहानी होती है इस पर कोई भी आज का महापुरुष नहीं लिखता।
दरअसल धर्म दिखाने या छूने की वस्तु नहीं बल्कि हृदय में की जाने वाली अनुभूति है। बचपन से जिस धर्म के संस्कार पड़ गये उनसे पीछा नहीं छूटता विवाह या अन्य किसी भौतिक प्राप्ति के लिये धर्म परिवर्तन तो लोग कर लेते हैं उसके बाद जो उनपर तनाव आता है उसकी चर्चा भी गाहे बगाहे करते हैं। एक मजे की बात है कि कथित आधुनिक लोग धर्म परिवर्तन करते हैं पर उसके साथ अपना नाम और इष्ट भी परिवर्तित कर लेते हैं। मतलब वह दूसरे धर्म के के बंधन को ओढ़ते है और दावा आजादी का करते हैं। सच बात तो यह है कि धर्म का आशय सही मायने में भारतीय अध्यात्म में ही है जिसका आशय है कि बिना लोभ लालच और कामना के भगवान की भक्ति करते हुए जीवन व्यतीत करना न कि उनके वशीभूत होकर धर्म मानना। दूसरी बात यह है कि धर्म परिवर्तित करने वाले अपनी पहचान गुम होने के भय से अपना पुराना नाम भी साथ लगाते हैं। दूसरे के धर्म के क्या कर्मकांड हैं किसी को पता नहीं होता? इसलिये उस धर्म के लोग मजाक उड़ाते हैं जिसे अपनाया गया है।

संत कबीरदास और चाणक्य भी कहते हैं कि दूसरे धर्म या समुदाय का आसरा लेना हमेशा दुःख का कारण होता है। किसी भी व्यक्ति या समाज को बाहर से देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि उसका धर्म कैसा है या वह उसे कितना मानता है। वह तो जब कोई नया आदमी धर्म परिवर्तन कर उस धर्म में जाता है तब उसे पता लगता है कि सच क्या है? इसके बावजूद यह सच है कि दूसरा धर्म नहीं अपनाना चाहिये क्योंकि उससे तनाव बढ़ता है। हालांकि आजकल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षा लाभों के लिये अनेक लोग धर्म बदल लेते हैं। वह भले ही दावा करें कि उनको ज्ञान प्राप्त हुआ है पर यह झूठ है। जिसे ज्ञान प्राप्त होता है वह धर्म से परे होकर योग साधना, ध्यान और भक्ति में रहते हुए निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया करता है न कि धर्म छोड़ने या पकड़ने के चक्कर में पड़ता है।
हां एक बात महत्वपूर्ण है कि भारतीय धर्म व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं क्योंकि इसमें किसी प्रकार की भाषा या उस पर आधारित नाम या कर्मकांड की बाध्यता नहीं होती। हमारा श्रीगीता ग्रंथ दुनिया का अकेला ऐसा धर्म ग्रंथ है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की भी चर्चा है। इसमें निरंकार परमात्मा की निष्काम भक्ति के साथ ही अन्य जीवों पर निष्प्रयोजन दया करने का भी संदेश है। यह मनुष्य को विकास की तरफ जाने के लिये प्रेरित करने के साथ विनाश से भी रोकता है।
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बरसात के साथ धार्मिक चालाकी-हिंदी व्यंग्य (hindi vyangya)


अध्यात्म नितांत एक निजी विषय है पर जब उसकी चौराहे पर चर्चा होने लगे तो समझ लो कि कहीं न कहीं उसकी आड़ में कोई अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ा रहा है तो कोई अपना व्यवसाय कर रहा है। जब कहीं सार्वजनिक रूप से प्रार्थनायें सभायें होती हैं तब यह लगता है कि लोग दिखावा अधिक कर रहे हैं। आज के संचार युग में तो यह कहना कठिन है कि धर्म का बाजार लग रहा है या बाजार ही धर्म बना रहा है। ऐसा लगता है कि पहले लोगों के पास मनोरंजन के अधिक साधन नहीं थे इसलिये धार्मिक पात्रों की व्याख्या करना ही धर्म प्रचार मान लिया गया। इस आड़ में तमाम तरह के कर्मकांड और अंधविश्वास सृजित किये गये ताकि उनकी आड़ में धरती पर उत्पन्न अनावश्यक भौतिक साधान बिक सकें जिसके माध्यम से आदमी की जेब से पैसा निकाला जाये।
अब तो प्रचार युग आ गया है और लोग अध्यात्मिक आधार पर इसलिये अपना अस्तित्व बनाये रखना चाहते है ताकि सामाजिक, आर्थिक तथा वैचारिक संगठनों में अपनी छबि बनाकर पुजते रहें। वह आधुनिक बाजार में आधुनिक अध्यात्मिक व्यापारी बनकर चलना चाहते हैं पर उनकी दुकान सामान उनका बरसो पुराना ही है जिसमें केवल धार्मिक प्रतीक और कर्मकांड ही हैं। जब कहीं हिंसा हो तो वहां लोग शांति के लिये सामूहिक प्रार्थनायें करने के लिये एकत्रित होते हैं। उनको प्रचार माध्यमों में बहुत दिखाया जाता है। जब यह कहना कठिन हो जाता है कि बाजार को ऐसी खबरें चाहिये इसलिये यह सब हो रहा है या सभी विचारधारा के ज्ञानियों को प्रचार चाहिये इसलिये वह इस तरह की सामूहिक प्रार्थनायें करते हैं।
हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि पूजा, भक्ति या साधना तो एकांत में ही परिणाम देने वाली होती है।’ इसलिये जब इस तरह के सामूहिक कार्यक्रम होते हैं तो वह दिखावा लगते हैं। आजकल अनेक स्थानों पर बरसात बुलाने के लिये प्रार्थना सभायें हो रही हैं। हर तरह की धार्मिक विचाराधारा के स्वयंभू ज्ञानी लोगों से बरसात के लिये सामूहिक प्रार्थनाऐं आयोजित कर रहे हैं। प्रचार भी उनको खूब मिल रहा है। हमें इस पर आपत्ति नहीं है पर अपने जैसे लोगों से अपनी बात करने का एक अलग ही मजा है। कुछ लोग है जो इसमें हो रही चालाकियों को देखते हैं।
हम जरा इस बरसात के मौसम पर विचार करें तो लगेगा कि उसका आना तय है। देश के कुछ इलाकों में उसका प्रवेश हो चुका है और अन्य तरफ मानसून बढ़ रहा है।

उस दिन मई की एक शाम बाजार में तेज बरसात से बचने के लिये हम एक मंदिर में बैठ गये। उस समय तेज अंाधी के साथ बरसात हो रही थी। हालांकि गर्मी कम नहीं थी और बरसात से राहत मिली पर एक शंका मन में थी कि यह मानसून के लिये संकट का कारण बन सकता है। प्रकृत्ति का अपना खेल है और उस पर किसी का नियंत्रण नहीं है। मनुष्य यह चाहता है कि प्रकृति उसके अनुरूप चले पर पर उसके साथ खिलवाड़ भी करता है। मई में उस दिन हुई बरसात के अगले कुछ दिनों में ही अखबारों में हमने पढ़ा कि बरसात देर से आयेगी। विशेषज्ञों ने बरसात कम होने की भविष्यवाणी की है-औसत से सात प्रतिशत कम यानि 93 प्रतिशत होने का अनुमान है।

ऐसा नहीं है कि बरसात हमेशा समय पर आती हो-कभी विलंब से तो कभी जल्दी भी आती है-पिछली बार कीर्तिमान भंजक वर्षा हुई थी। बरसात जब तक नहीं आती तब आदमी व्यग्र रहता है। ऐसे में उसके जज्बातों से खेलना बहुत सहज होता है। उसका ध्यान गर्मी पर है तो उसे भुनाओ। कहने के लिये तो कह रहे हैं कि हम सर्वशक्तिमान को बरसात भेजने के लिये पुकार रहे हैं। पर उसका समय पर चर्चा नहीं करते। जब बरसात आने के संकेत हो चुके हैं तब ऐसी प्रार्थनाओं के समाचार खूब आ रहे हैं। वैसे तो फरवरी के आसपास भी ऐसे समाचार आ गये थे कि इस बार बरसात देर से आयेगी और कम होगी। तब ऐसी प्रार्थना सभायें क्यों नहीं की गयी। उस समय नहीं तो मई में ही कर लेते।
सर्वशक्तिमान के सभी रूपों के चेले चालाक हैं। उस समय करते तो कौन लोग उनको याद रखते। जब एक दो दिन या सप्ताह में बरसात आने वाली तब ऐसी प्रार्थना सभायें इसलिये कर रहे हैं ताकि जब हों तो लोग माने कि उनके ‘ज्ञानियों’ को कितनी सिद्धि प्राप्त है। बहरहाल हम देख रहे हैं कि बाजार के प्रबंधक और सर्वशक्तिमान के यह आधुनिक दूत एक जैसे चालाक हैं। टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकाऐं तो व्यवसायिक हैं पर सर्वशक्तिमान के सभी रूपों के यह ज्ञानी चेले भी क्या व्यवसायी है? उनकी इस तरह की चालाकियों से तो यही लगता है?
प्रसंगवश याद आया एक पाठक ने अपनी टिप्पणी में पूछा था कि ‘आपके लेखों से यह पता ही नहीं लगता कि आप किस धर्म या भगवान की बात कर रहे हैं?
दरअसल इसका कारण यह है कि हम सभी तरह की विचारधाराओं पर अपने विचार रखते हैं। किसी एक का तयशुदा नाम लेने पर लोग कहते हैं कि तुम उनके नाम पर लिखो तो जाने। जहां तक हमारी जानकारी सर्वशक्तिमान शब्द किसी भी खास विचारधारा से नहीं जुड़ा यही स्थिति उसके ठेकेदार शब्द ं की भी है। इसलिये कोई यह नहीं कह सकता कि हमारी बात करते हो उनकी करके देखो तो जानो।
अगर सभी विरोध करने लगें तो हम भी कह सकते हैं कि तुम सर्वशक्तिमान और ठेकेदार शब्द से अपने को क्यों जोड़ते हो? दरअसल हमने देखा कि यह समाजों के ठेकेदारो का काम ही चालाकी पर चल रहा है और लोगों को जज्बात से भड़काने और बहलाने के काम में यह सब सक्षम होते हैं। हम इसलिये अपनी बात व्यंजना विधा में कहते हैं। हां, बरसात की पहली बूंदों का इंतजार हमें भी है। अब यह गर्मी सहना कठिन हो गया है। कभी कभी आकाश में बिना बरसते बादल देखते हैं तो भी गुस्सा आता है कि यह हमारी धरती की गर्मी नष्ट कर रहे हैं जो कि बरसात को खींचती है।
……………………….

यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

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गर्मी पर लिखी कविता बरसात धो गयी-व्यंग्य कविता


गर्मी पर लिखने बैठे कविता
बिजली गुल हो गयी।
बाहर चलती आंधी ने
मचाया शोर
गरज कर बरसा पानी
बरसात के इंतजार में रचे थे शब्द
बहते पसीने का दिखाया था दर्द
मानसून की पहली बरसात
सब धो गयी।
गर्मी पर लिखी कविता बस यूं खो गयी।
…………………
गर्मी पर लिखकर पहुंचा
वह कवि सम्मेलन में
बीच में बरसात हो गयी।
मंच पर आकर बोला वह
‘मेरे गुरु ने कहा था कि
कभी मौसम पर मत लिखना
चाहे जब बदल जाता है
कभी चुभोता है नश्तर
कभी सहलाता है
लिखकर निकला था घर से
गर्मी पर ताजा कविता
बीच रास्ते में पड़ी बरसात
लिखा कागज अब मेरी समझ में नहीं आता
धूप और पसीने से
पैदा हुए जज्बात
सुनाने का मन था
पर मानसून की पहली बरसात ने
इतना आनंदित किया कि
मेरी अक्ल सो गयी।
फिर सुनाऊंगा कभी फिर कविता
अभी तो मेरी कविता बरसात धो गयी।

…………………………..

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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विदुर नीति-कम ताकत के होते गुस्सा करना तकलीफदेह


द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी कहते हैं कि जो अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। गृहस्थ होकर अकर्मण्यता और सन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है।

द्वाविमौ कपटकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणी।
यश्चाधनः कामयते पश्च कुप्यत्यनीश्वरः।।
हिंदी में भावार्थ-
अल्पमात्रा में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन होते हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और कांटों के समान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -किसी भी कार्य को प्रारंभ करने पहले यह आत्ममंथन करना चाहिए कि हम उसके लिये या वह हमारे लिये उपयुक्त है कि नहीं। अपनी शक्ति से अधिक का कार्य और कोई वस्तु पाने की कामना करना स्वयं के लिये ही कष्टदायी होता है।
न केवल अपनी शक्ति का बल्कि अपने स्वभाव का भी अवलोकन करना चाहिये। अनेक लोग क्रोध करने पर स्वतः ही कांपने लगते हैं तो अनेक लोग निराशा होने पर मानसिक संताप का शिकार होते हैं। अतः इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि हमारे जिस मानसिक भाव का बोझ हमारी यह देह नहीं उठा पाती उसे अपने मन में ही न आने दें।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब हम कोई काम या कामना करते हैं तो उस समय हमें अपनी आर्थिक, मानसिक और सामाजिक स्थिति का भी अवलोकन करना चाहिये। कभी कभी गुस्से या प्रसन्नता के कारण हमारा रक्त प्रवाह तीव्र हो जाता है और हम अपने मूल स्वभाव के विपरीत कोई कार्य करने के लिये तैयार हो जाते हैं और जिसका हमें बाद में दुःख भी होता है। अतः इसलिये विशेष अवसरों पर आत्ममुग्ध होने की बजाय आत्म चिंतन करते हुए कार्य करना चाहिए।
…………………………….

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ख़ुद भटके,द्रूसरे को देते रास्ते का पता-व्यंग्य कविता


अपनी मंजिल पर
कभी वह पहुंचे नहीं।
चले कहीं के लिये थे
पहुंचे गये कहीं।
भटकाव सोच का था
कभी रास्ते से वह उतर जाते
कभी खो जाता रास्ता कहीं।
……………………..
अपने रास्ते से वह भटके
अपने ही गम में वह लटके
कोई उपाय न देखकर
बूढ़े बरगद के नीचे धूनि रमाई।

दूसरे को रास्ता बताने लगे
यूं भीड़ का काफिला बढ़ता गया
जमाना ही उनके जाल में फंसता गया
फिर भी चल रहा है उनका धंधा
कभी आता नहीं मंदा
जब तक लोग भटकते रहेंगे
रास्ते पूछने की कीमत सहेंगे
मंजिल पर पहुंच जायेगा राही
बन नहीं हो जायेगी कमाई।
भ्रम वह सिंहासन है
जिसे सिर पर बिठाया तो
बन गये प्रजा
उस पर बैठे तो बने राजा
सच है सर्वशक्तिमान ने
खूब यह दुनियां बनाई

……………………………
नोट-यह व्यंग्य काल्पनिक तथा इसका किसी व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है और किसी से इसका विषय मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।

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बरसात के लिये प्रार्थना-हिंदी व्यंग्य (hindi vyangya)


अध्यात्म नितांत एक निजी विषय है पर जब उसकी चौराहे पर चर्चा होने लगे तो समझ लो कि कहीं न कहीं उसकी आड़ में कोई अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ा रहा है तो कोई अपना व्यवसाय कर रहा है। जब कहीं सार्वजनिक रूप से प्रार्थनायें सभायें होती हैं तब यह लगता है कि लोग दिखावा अधिक कर रहे हैं। आज के संचार युग में तो यह कहना कठिन है कि धर्म का बाजार लग रहा है या बाजार ही धर्म बना रहा है। ऐसा लगता है कि पहले लोगों के पास मनोरंजन के अधिक साधन नहीं थे इसलिये धार्मिक पात्रों की व्याख्या करना ही धर्म प्रचार मान लिया गया। इस आड़ में तमाम तरह के कर्मकांड और अंधविश्वास सृजित किये गये ताकि उनकी आड़ में धरती पर उत्पन्न अनावश्यक भौतिक साधान बिक सकें जिसके माध्यम से आदमी की जेब से पैसा निकाला जाये।
अब तो प्रचार युग आ गया है और लोग अध्यात्मिक आधार पर इसलिये अपना अस्तित्व बनाये रखना चाहते है ताकि सामाजिक, आर्थिक तथा वैचारिक संगठनों में अपनी छबि बनाकर पुजते रहें। वह आधुनिक बाजार में आधुनिक अध्यात्मिक व्यापारी बनकर चलना चाहते हैं पर उनकी दुकान सामान उनका बरसो पुराना ही है जिसमें केवल धार्मिक प्रतीक और कर्मकांड ही हैं। जब कहीं हिंसा हो तो वहां लोग शांति के लिये सामूहिक प्रार्थनायें करने के लिये एकत्रित होते हैं। उनको प्रचार माध्यमों में बहुत दिखाया जाता है। जब यह कहना कठिन हो जाता है कि बाजार को ऐसी खबरें चाहिये इसलिये यह सब हो रहा है या सभी विचारधारा के ज्ञानियों को प्रचार चाहिये इसलिये वह इस तरह की सामूहिक प्रार्थनायें करते हैं।
हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि पूजा, भक्ति या साधना तो एकांत में ही परिणाम देने वाली होती है।’ इसलिये जब इस तरह के सामूहिक कार्यक्रम होते हैं तो वह दिखावा लगते हैं। आजकल अनेक स्थानों पर बरसात बुलाने के लिये प्रार्थना सभायें हो रही हैं। हर तरह की धार्मिक विचाराधारा के स्वयंभू ज्ञानी लोगों से बरसात के लिये सामूहिक प्रार्थनाऐं आयोजित कर रहे हैं। प्रचार भी उनको खूब मिल रहा है। हमें इस पर आपत्ति नहीं है पर अपने जैसे लोगों से अपनी बात करने का एक अलग ही मजा है। कुछ लोग है जो इसमें हो रही चालाकियों को देखते हैं।
हम जरा इस बरसात के मौसम पर विचार करें तो लगेगा कि उसका आना तय है। देश के कुछ इलाकों में उसका प्रवेश हो चुका है और अन्य तरफ मानसून बढ़ रहा है।

उस दिन मई की एक शाम बाजार में तेज बरसात से बचने के लिये हम एक मंदिर में बैठ गये। उस समय तेज अंाधी के साथ बरसात हो रही थी। हालांकि गर्मी कम नहीं थी और बरसात से राहत मिली पर एक शंका मन में थी कि यह मानसून के लिये संकट का कारण बन सकता है। प्रकृत्ति का अपना खेल है और उस पर किसी का नियंत्रण नहीं है। मनुष्य यह चाहता है कि प्रकृति उसके अनुरूप चले पर पर उसके साथ खिलवाड़ भी करता है। मई में उस दिन हुई बरसात के अगले कुछ दिनों में ही अखबारों में हमने पढ़ा कि बरसात देर से आयेगी। विशेषज्ञों ने बरसात कम होने की भविष्यवाणी की है-औसत से सात प्रतिशत कम यानि 93 प्रतिशत होने का अनुमान है।

ऐसा नहीं है कि बरसात हमेशा समय पर आती हो-कभी विलंब से तो कभी जल्दी भी आती है-पिछली बार कीर्तिमान भंजक वर्षा हुई थी। बरसात जब तक नहीं आती तब आदमी व्यग्र रहता है। ऐसे में उसके जज्बातों से खेलना बहुत सहज होता है। उसका ध्यान गर्मी पर है तो उसे भुनाओ। कहने के लिये तो कह रहे हैं कि हम सर्वशक्तिमान को बरसात भेजने के लिये पुकार रहे हैं। पर उसका समय पर चर्चा नहीं करते। जब बरसात आने के संकेत हो चुके हैं तब ऐसी प्रार्थनाओं के समाचार खूब आ रहे हैं। वैसे तो फरवरी के आसपास भी ऐसे समाचार आ गये थे कि इस बार बरसात देर से आयेगी और कम होगी। तब ऐसी प्रार्थना सभायें क्यों नहीं की गयी। उस समय नहीं तो मई में ही कर लेते।
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प्रसंगवश याद आया एक पाठक ने अपनी टिप्पणी में पूछा था कि ‘आपके लेखों से यह पता ही नहीं लगता कि आप किस धर्म या भगवान की बात कर रहे हैं?
दरअसल इसका कारण यह है कि हम सभी तरह की विचारधाराओं पर अपने विचार रखते हैं। किसी एक का तयशुदा नाम लेने पर लोग कहते हैं कि तुम उनके नाम पर लिखो तो जाने। जहां तक हमारी जानकारी सर्वशक्तिमान शब्द किसी भी खास विचारधारा से नहीं जुड़ा यही स्थिति उसके ठेकेदार शब्द ं की भी है। इसलिये कोई यह नहीं कह सकता कि हमारी बात करते हो उनकी करके देखो तो जानो।
अगर सभी विरोध करने लगें तो हम भी कह सकते हैं कि तुम सर्वशक्तिमान और ठेकेदार शब्द से अपने को क्यों जोड़ते हो? दरअसल हमने देखा कि यह समाजों के ठेकेदारो का काम ही चालाकी पर चल रहा है और लोगों को जज्बात से भड़काने और बहलाने के काम में यह सब सक्षम होते हैं। हम इसलिये अपनी बात व्यंजना विधा में कहते हैं। हां, बरसात की पहली बूंदों का इंतजार हमें भी है। अब यह गर्मी सहना कठिन हो गया है। कभी कभी आकाश में बिना बरसते बादल देखते हैं तो भी गुस्सा आता है कि यह हमारी धरती की गर्मी नष्ट कर रहे हैं जो कि बरसात को खींचती है।
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पतंग और क्रिकेट-हास्य कविता hindi vyangya kavita


बेटे ने कहा बाप से
‘पापा मुझे पतंग उड़ाना सिखा दो
कैसे पैच लड़ाते हैं यह दिखा दो
तो बड़ा मजा आयेगा।’

बाप ने कहा बेटे से
‘पतंग उड़ाना है बेकार
इससे गेंद और बल्ला पकड़ ले
तो खेल का खेल
भविष्य का व्यापार हो जायेगा।
मैंने व्यापार में बहुत की तरक्की
पर पतंग उड़ाकर किया
बचपन का वक्त
यह हमेशा याद आयेगा।
बड़ा चोखा धंधा है यह
जीतने पर जमाना उठा लेता सिर पर
हार जाओ तो भी कोई बात नहीं
सम्मान भले न मिले
पर पैसा उससे ज्यादा आयेगा।
दुनियां के किसी देश के
खिलाड़ी को जीतने पर भी
नहीं कोई उसके देश में पूछता
यहां तो हारने पर भी
हर कोई गेंद बल्ले के खिलाड़ी को पूजता
विज्ञापनों के नायक बन जाओ
फिर चाहे कितना भी खराब खेल आओ
बिकता है जिस बाजार में खेल
वह अपने आप टीम में रहने का
बोझ उठायेगा।
हारने पर थकने का बहाना कर लो
फिर भी यह वह खेल है
जो हवाई यात्रा का टिकट दिलायेगा।
जीत हार की चिंता से मुक्त रहो
क्योंकि यह मैदान से बाहर तय हो जायेगा।
भला ऐसा दूसरा खेल कौनसा है
जो व्यापार जैसा मजा दिलायेगा।

…………………….
नोट-यह व्यंग्य काल्पनिक तथा इसका किसी व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है और किसी से इसका विषय मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।

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विदुर नीति-शक्ति से बड़ी इच्छा करना मूर्खता


द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी कहते हैं कि जो अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। गृहस्थ होकर अकर्मण्यता और सन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है।
द्वाविमौ कपटकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणी।
यश्चाधनः कामयते पश्च कुप्यत्यनीश्वरः।।
हिंदी में भावार्थ-
अल्पमात्रा में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन होते हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और कांटों के समान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -किसी भी कार्य को प्रारंभ करने पहले यह आत्ममंथन करना चाहिए कि हम उसके लिये या वह हमारे लिये उपयुक्त है कि नहीं। अपनी शक्ति से अधिक का कार्य और कोई वस्तु पाने की कामना करना स्वयं के लिये ही कष्टदायी होता है।
न केवल अपनी शक्ति का बल्कि अपने स्वभाव का भी अवलोकन करना चाहिये। अनेक लोग क्रोध करने पर स्वतः ही कांपने लगते हैं तो अनेक लोग निराशा होने पर मानसिक संताप का शिकार होते हैं। अतः इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि हमारे जिस मानसिक भाव का बोझ हमारी यह देह नहीं उठा पाती उसे अपने मन में ही न आने दें।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब हम कोई काम या कामना करते हैं तो उस समय हमें अपनी आर्थिक, मानसिक और सामाजिक स्थिति का भी अवलोकन करना चाहिये। कभी कभी गुस्से या प्रसन्नता के कारण हमारा रक्त प्रवाह तीव्र हो जाता है और हम अपने मूल स्वभाव के विपरीत कोई कार्य करने के लिये तैयार हो जाते हैं और जिसका हमें बाद में दुःख भी होता है। अतः इसलिये विशेष अवसरों पर आत्ममुग्ध होने की बजाय आत्म चिंतन करते हुए कार्य करना चाहिए।
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क्रिकेट में हार-मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र


बीसीसीआई की क्रिकेट टीम बीस ओवरीय एक दिवसीय प्रतियोगिता में हार गयी और अब पता लगा कि उसमें पांच खिलाड़ी अनफिट थे। टीम जिस तरह अपने मैच खेल रही थी उससे लग तो नहीं रहा था कि वह कप जीत पायेगी पर इस कदर पिटेगी यह आभास भी नहीं था। इससे पहले एक क्लब स्तर की प्रतियोगिता हुई थी। उसमें बीसीसीआई के यह सभी खिलाड़ी बड़े शहरों के नाम पर बनी टीमों के लिये खेले।

कहने वाले तो शुरुआती दौर में ही कह रहे थे कि खिलाड़ी थक गये होंगे इसलिये शायद उनका प्रदर्शन प्रभावित होगा। हुआ भी यही पर इस दलील का विरोध करने वाले कहते हैं कि अन्य देशों के खिलाड़ी भी तो इसमें खेले थे फिर उनका प्रदर्शन प्रभावित क्यों नहीं हुआ? यानि हर तरह से इस हार को स्वाभाविक बताने का प्रयास किया जा रहा है। क्रिकेट अनिश्चताओं का खेल है पर इस आड़ में ऐसी हार के कारण छिप नहीं सकते। हारना एक अलग बात है और खराब खेलना अलग। यहां मुद्दा यह नहीं है कि बीसीसीआई की टीम बीस ओवरीय प्रतियोगता में हारी बल्कि उसका प्रदर्शन इतना खराब रहा कि लोग को रहे हैं कि भारत के किसी भी शहर से कोई टीम उठाकर भेज देते तो वह भी इनसे अच्छा खेलते। नये होने के कारण वह उत्साह से खेलते तो पता लगता कि बीस ओवरीय प्रतियोगता का विश्व कप ही जीत लाये। भारत में खिलाड़ियों की कमी नहीं है। फिर बीस ओवरीय प्रतियोगता तो ऐसी है जिसमें अनुभव वगैरह की तो जरूरत ही नहीं है-इसे तो केवल मनोबल के आधार पर ही जीता जा सकता है।
एक पुराने खिलाड़ी ने बढ़िया टिप्पणी की। उसने कहा कि हम भारतीयों में पैसा पचाने की क्षमता बहुत कम हैं। वर्तमान भारतीय खिलाड़ी इतना पैसा कमा चुके हैं कि वह फिर भूल गये कि वह इसी खेल की दम पर हैं।
वह खिलाड़ी चूंकि पेशवर है इसलिये अन्य सच नहीं कह पाया। जिन खिलाड़ियों को बीस ओवरीय मैचों का स्टार माना जाता था वह इस तरह खेले जैसे कि पचास ओवरों वाला मैच खेल रहे हैं। कहने को तो सभी कह रहे हैं कि हम चुस्त दुरस्त थे और क्लब स्तर की प्रतियोगिता में खेलने की वजह से हमारा खेल प्रभावित नहीं हुआ। दरअसल यह उसी क्लब स्तरीय प्रतियोगिता के दोबारा आयोजन में बाधा न पड़े इसलिये ही कहा जा रहा है। फिर वह उसी प्रतियोगिता में अपनी सदस्यता बनाये रखना चाह रहे हैं। यह खिलाड़ी सभी तरह की गेंदें खेलने में माहिर हैं चाहे शार्टपिच हो या स्पिन पर अब बिचारे शार्टपिच गेंदों का तोड़ ढूंढ रहे हैं। सच बात तो यह है कि चाहे खेल कोई भी हो अगर खिलाड़ी का मन नहीं है तो विपक्षी के दांव पैंच उसके लिये पहाड़ हो जाते हैं। भारतीय खिलाड़ी इतना पैसा कमा चुके थे कि अब उनको अपने परिवारों के लिये समय चाहिये था। इंकार इसलिये नहीं कर सकते थे कि कहीं उनकी जगह शामिल नया खिलाड़ी उसमें छा गया तो इससे भी जायेंगे। खेलना है इसलिये खेले। कह सकते हैं कि हाजिरी देने के लिये खेले। जीतने की खुशी या हारने के गम से परे होकर वह निर्विकार भाव से खेलते दिख रहे थे। मगर यह कोई उच्च स्थिति नहीं थी बल्कि उनके चेहरे पर खेलने की बाध्यता के भाव भी थे जो इस बात को दर्शा रहे थे कि वह न खुश हैं न उत्साहित बल्कि टालू खेल दिखा रहे हैं।
अन्य देशों के खिलाड़ी क्लब स्तर में खेलने के बावजूद यहां भी खेले तो इसलिये कि उनको इतना पैसा नहीं मिलता जितना भारत के खिलाड़ियों को मिलता है। भारतीय खिलाड़ी विज्ञापनों और रैम्पों पर इतना पैसा कमा चुके हैं कि उनका बोझ उठाना अब संभव नहीं था। वह खेल की थकवाट से नहीं बल्कि अपनी आर्थिक परिलब्धियेां का उपयोग न कर पाने की गम का बोझ उठाये हुए थे। सच कहें तो ऐसा लगता है कि इस विश्व में शायद उनके लिये मिलने वाली धनराशि इतनी उपयोगी नहीं थी जितनी क्लब स्तर की प्रतियोगिता से मिली होगी। अन्य देशों के खिलाड़ियों के लिये यह रकम भी बहुत बड़ी होगी इसलिये खेल रहे हैं।
क्रिकेट से देश के लोगों ने अपने जज्बात ख्वामख्वाह जोड़ रखे हैं पर उसके लिये यहां कोई जवाबदेह नहीं है। हार गये तो क्या कर लोगे? हां, लोगों का गुस्सा कम करने के लिये तमाम तरह की सफाई दी जा रही है वह इसलिये कि कहीं वह लोग फिर विरक्त न हो जायें और क्रिकेट का व्यापार कहीं ठप न हो जाये।
अगर खिलाड़ी अनफिट हैं तो फिर अभी बाहर जाने वाली टीम के के लिये उनको कैसे चुन लिया गया। वही कप्तान वही खिलाड़ी!
प्रबंधन के मामले में हमारा देश अप्रतिभाशाली माना जाता है। यह हमारी कमजोरी है। कोई नया बदलाव कहीं करना ही नहीं चाहता। दरअसल क्रिकेट अब बाजार का खेल है-कम से कम भारत में तो यही लगता है। खिलाड़ियों ने विज्ञापन कर रखे होते हैं जो ऐसी प्रतियोगिताओं में समय अधिक दिखाई देते हैं। इसलिये उसमें अभिनय करने वाले खिलाड़ियों का होना जरूरी है अतः अप्रत्यक्ष रूप से कहीं न कहीं यह बात भी देखी जाती है कि बाजार का ध्यान अधिक रखा जाता है फोकटिया दर्शक का कम। एक खिलाड़ी इस टीम में शामिल नहीं हुआ तो वह दर्शक दीर्घा में अन्य खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने पहुंच गया। दरअसल उसके विज्ञापन भी दिख रहे थे और वह यकीनन उनकी वजह से ही अपनी सूरत दिखाने वहां पहुंचा होगा ताकि विज्ञापन दाता उससे खुश रहें। टीवी कैमरा हर मैच में उसका चेहरा अनेक बार दिखाता था। कितनी अच्छी बात लगती है यह बात सुनकर कि इतना बड़ा खिलाड़ी मनोबल बढ़ाने पहुंचा मगर इसके पीछे का सच कौन पढ़ पाता है। यह सब बुरा नहीं है क्योंकि सभी को कमाने का हक है पर आम लोगों को यही सच समझते हुए यह देखना चाहिये। क्रिकेट टीम का खेलना एक व्यवसाय है और उसे बाजार प्रभावित कर सकता है-इससे मान लेना चाहिये। किसी को क्या दोष देना? क्रिकेट वालों को पूरा पैसा मिल रहा है टीम हारे या जीते-तब उनसे यह आशा करना बेकार है कि वह नये और तरोताजा खिलाड़ी भेजकर प्रतियोगिता जीतने का प्रयास कर अपने प्रबंध कौशल का प्रमाण दें। अपने देश में पैसा कमाना महत्वपूर्ण है कि प्रबंध कौशल!
सो टीम हार गयी तो कोई बात नहीं। जिस कप्तान को सिर पर उठाये रखा है उसने कहा है कि कुछ महीने बाद फिर प्रतियोगिता है। उसमें दमखम दिखायेंगे। वहां यह आश्वासन देना ठीक है क्योंकि अगली बार तक लोग इंतजार कर अपना पैसा खर्च कर सकते हैं।
पिछली बीस ओवरीय प्रतियोगिता बीसीसीआई की टीम ने जीती थी। उससे पहले विश्व में हारने की वजह से पूरी टीम की जो किरकिरी हुई वह लोग भूल गये। बीस ओवरीय प्रतियोगिता में बीसीसीआई टीम की पिछली जीत की दो वजहें थी एक तो दूसरी टीमें गंभीरता से नहीं खेली दूसरा भारतीयों पर जीत का कोई दबाव नहीं था। कुछ लोग तो उस समय मान रहे थे कि इस आड़ में भारत में क्रिकेट को दोबारा प्रतिष्ठा दिलाने का योजनाबद्ध प्रयास किया गया है। यह योजना वैसे ही सफल हुई जैसे कि 1983 में एक दिवसीय विश्व क्रिकेट कप में बीसीसीआई की टीम के जीतने पर क्रिकेट का वह प्रारूप भारत में लोकप्रिय हो गया। मतलब पच्चीस साल तक बाजार उस जीत को भुनाता रहा। अब हमारे लिये यह देखने का विषय है कि पिछली बीस ओवरीय प्रतियोगता की जीत को बाजार कब तक भुनाता रहेगा। इस बात तो टीम पिट गयी इसलिये निश्चित रूप से क्रिकेट के इस व्यापर पर बुरा प्रभाव पड़ेगा-चाहे वह एक नंबर को हो या दो नंबर का। देखना है कि इस हार का मनौवैज्ञानिक और आर्थिक रूप से बाजार पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है?
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जहर और अमृत -लघुकथा


वह कोई गेहुंआ वस्त्र पहने साधु या संत नहीं बल्कि कोई शिक्षित और सज्जन पुरुष थे। कहीं बैठकर लोगों से ज्ञान चर्चा कर रहे थे। उनके सामने तीन लोग श्रोता के रूप में बैठ कर उनकी बातें सुन रहे थे। उन सज्जन ज्ञानी पुरुष ने पुराने शास्त्रों से अनेक उद्धरण देते हुए कुछ महापुरुषों के संदेश भी सुनाये।
उनके पीछे एक अन्य व्यक्ति भी बैठा यह सब सुन रहा था। उसे यह चर्चा बेकार की लग रही थी। अचानक वह उठा और उन सज्जन पुरुष के पास आकर उनसे बोला- तुम यह क्या बकवास कर रहे हो? इस ज्ञान चर्चा से क्या होगा,? तुम इतना सब सुना रहे हो वह सब मैंने भी किताबों में पढ़ा है पर तुम्हारी तरह इधर उधर ज्ञान नहीं बघारता। तुम इतना ज्ञान बघार रहे हो पर क्या उस पर चलते भी हो?‘
उस सज्जन ने कहा-‘कोशिश बहुत करता हूं कि उस राह पर चलूं। अब यह तो लोग ही बता सकते हैं कि मेरा व्यवहार किस तरह का है? बाकी रहा ज्ञान बघारने का सवाल तो भई, फालतू की बातें सोचने अैार कहने से अच्छा है तो इसी तरह की बातें की जाये। अच्छा, हम जब यह ज्ञान चर्चा कर रहे थे तब तुम्हारे मन में क्या विचार आ रहे थे।
उस आदमी ने कहा-‘मेरे को इस तरह की ज्ञान चर्चा पर गुस्सा आ रहा था। मैं तुम जैसे ढोंगियों को देखकर क्रोध में भर जाता हूं। पता नहीं यह तीनों तुम्हें कैसे झेल रहे थे?’
उन सज्जन ने कहा-‘मुझे बहुत दुःख है कि मेरी ज्ञान चर्चा से तुम्हें बहुत गुस्सा आया पर मैं भी अनेक ढोंगियों को देखता हूं पर गुस्सा बिल्कुल नहीं होता। उनकी ज्ञान की बातें सुनता हूं पर उनके आचरण पर ध्यान देकर अपना मन खराब नहीं करता। वैसे तुम इन श्रोताओं से पूछो कि आखिर हम दोनों में वह किसे पसंद करेंगे?’
उन्होंने तीनों श्रोताओं की तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा तब एक श्रोता उस बीच में बोलने वाले आदमी से बोला-‘हम इन सज्जन पुरुष की बातें सुन रहे थे तो मन को शांति मिल रही थी। हमें इससे क्या मतलब कि यह कहां से आये है और क्या करते हैं? बस इनकी बातें सुनकर आनंद आ रहा था। यह सब बातें हमने भी सुनी है पर इनके मुख से सुनकर भी अच्छा लगा रहा था। हां, तुम्हारे बीच में आने से जरूर हमें दुःख पहुंचा है।’
दूसरा श्रोता ने कहा-‘तुमने बताया कि तुमने यह सब पढ़ा है तो हमने भी सुना है। इन सज्जन की वाणी से हमें सुख मिल रहा था पर तुम्हारे आने से ऐसा लग रहा है कि जैसे यज्ञ में किसी राक्षस ने बाधा डाली हो!
तीसरे कहा-‘तुम्हारी अंतदृष्टि में यह सज्जन ढोंगी हैं पर हमारी नजर में ज्ञानी हैं क्योंकि इनकी बात से हमें आत्मिक सुख मिल रहा था भले ही यह पुरानी बातें दोहरा रहे हैं मगर तुम शिक्षित और ज्ञानी होते हुए भी भटक रहे हो क्योंकि ज्ञान धारण न भी किया हो पर उसकी चर्चा कर अच्छा वातावरण तो बनाया जा सकता है और तुमने इसे विषाक्त बना दिया।’
बीच में बोलने वाले सज्जन का मूंह उतर गया। वह पैर पटकता हुआ वहां से चला गया तो एक श्रोता ने उस सज्जन से कहा-‘आखिर यह आपकी बात पर गुस्सा क्यों हुआ?’
सज्जन ने कहा-‘भई, एक तो यह अपने घर से परेशान होगा दूसरे यह कि इस समाज में ज्ञान चर्चा केवल गेहूंए वस्त्र पहनने वाले ही कर सकते हैं। उन्होंने इतनी सामाजिक और राजनीतिक शक्ति एकत्रित कर ली होती है कि किसी की हिम्मत नहीं होती कि सामने जाकर कोई उनको ढोंगी कह सके इसलिये उनकी कुंठायें ऐसे लोगों के सामने निकालते हैं जो सादा वस्त्र पहनकर ज्ञान चर्चा करते हैं। सभी सुविधायें जुटाकर सन्यासी होने का ढोंग करने वालों से कहना कठिन है पर कोई सद्गृहस्थ ज्ञान चर्चा करे तो उस पर उंगली उठाकर अपनी कुंठा निकालना अधिक आसान है। शायद इसलिये उसने जमाने भर का गुस्सा यहां निकाल दिया। बहरहाल तुम उसकी बात भूल जाना क्योंकि इससे तुम्हारे अंदर उसका फैलाया विष असर दिखाने लगेगा और अगर मेरी बात से कुछ बूँद अमृत बना है तो वह भी दवा कर का नहीं कर पायेगा।
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इस ब्लाग/पत्रिका ने पार की पाठक संख्या पचास हजार-संपादकीय


पाठ पठन/पाठक संख्या पचास हजार पार करने वाला ईपत्रिका इस लेखक का तीसरा ब्लाग/पत्रिका है। इसने हाल ही मैं गूगल के पैज रैंक में चौथा स्थान प्राप्त किया-जो कि इसकी बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसे लेखक के पचास हजार की पाठ पठन/पाठक संख्या पार करने वाले अब तीन ब्लाग हैं-
1. हिंदी पत्रिका
2.शब्द पत्रिका
3.ईपत्रिका
गूगल के पैज रैंक में चार अंक प्राप्त करने वाले अब चार ब्लाग/पत्रिका इस प्रकार हैं-
1. शब्दलेख सारथी
2. हिंदी पत्रिका
3. शब्दलेख पत्रिका
4. ईपत्रिका
आंकड़ों का खेल हमेशा ही दिलचस्प होता है। शब्द पत्रिका ने भी पचास हजार पाठ पठन/पाठक संख्या पार की है पर उसे गूगल की पैज रैंक में तीन अंक प्राप्त हैं जबकि शब्दलेख पत्रिका ने गूगल पैज रैंक में दस में से चार अंक प्राप्त किये हैं पर उसकी संख्या अभी पचास हजार से दूर है। गूगल का पैज रैंक किसी भी ब्लाग की लोकप्रियता को प्रमाणित करने वाला अकेला प्रमाणिक टूल है। हालांकि अन्य कुछ वेबसाईट भी ब्लाग की लोकप्रियता का आंकलन करती हैं पर अनेक ब्लाग लेखक मानते हैं कि उनके साफ्टवेयर अधिक प्रमाणिक नहीं है।
जब ब्लाग लेखन की यात्रा प्रारंभ की थी तब यह लेखक अकेला था पर अंतर्जाल पर बहुत सारे मित्र मिले और जो पहले ही मित्र थे वह अब पाठक भी हो गये हैं। वर्डप्रेस की पाठक संख्या पर वह हमेशा नजर लगाये रहते हैं और यह बताते हैं कि तुम्हारा वह ब्लाग आज पचास हजार पार सकता है। आज तो अच्छा संपादकीय लिखना। मना करने पर कहते हैं कि-नहीं, आजकल वह समय नहीं है कि चुपचाप बैठकर लिखते जाओ। लोगों को यह बताना जरूरी है कि हम भी है नंबर वन की दौड़ में।’
तब बरबस हंसी आती है। सच तो हम जानते हैं कि हिंदी में लेखन कभी आसान नहीं रहा। अपने काम की व्यसततओं से समय निकालकर लिखने में मजा आता है पर समस्या उसके प्रकाशन की आती है।
प्रसंगवश आज एक लेख पर नजर पड़ गयी। उस लेख में बताया गया कि अनेक लेखकों द्वारा अपना पैसा लगाकर पुस्तकें प्रकाशित कराने की प्रवृत्ति से अनेक प्रकाशक जमकर पैसा कमा रहे है।
उस लेख में कहा गया कि आज हिंदी के लेखक की वह छबि नहीं है कि वह रद्दी दिखता हो या गरीब हो। उस पाठ में लिखा गया था कि अनेक अप्रवासी भारतीय भारत आते हैं और अपने पैसे से किताब छपवाकर आकर्षक कार्यक्रम में उसका विमोचन करते हुए चले जाते हैं। उस पाठ के लेखक का मानना था कि ऐसी किताबों की विषय सामग्री कूड़ा हो यह जरूरी नहीं है। आखिर धनी मानी लोगों को भी लिखने का अधिकार है। उसने कुछ पुराने लेखकों के नाम भी गिनाये जो अमीर परिवारों से आये। इसलिये यह जरूरी नहीं कि हिंदी लेखक गरीब हो या जो गरीब है वही अच्छा लिख सकता है।
उस लेखक की बात ठीक थी पर कुछ सवाल हमारे सामने थे। जिन धनी मानी परिवारों में पैदा पुराने हिंदी लेखकों की उसने बात की उन्होंने अपने पैसे से किताब छपवाकर विमोचन नहीं किया। दूसरा यह है कि जो धनीमानी लोग किताबें छपवाते हैं उनमें होता क्या है? उनके जीवन के अनुभव जिनमें झूठ के अलावा कुछ भी नहीं होता। उनमें वह यह साबित करने का प्रयास किया जाता है वह वह धनी, उच्च पदस्थ और प्रसिद्ध होने के साथ संवेदनशील लेखक भी हैं। फिर सवाल यह नहीं है कि अमीर आदमी को लिखने या छपने का अधिकार नहीं हैं। हां, उनमें भी बहुत अच्छे लेखक हो सकते हैं। पर अनवरत चलने वाली बहस का निष्कर्ष यह है कि अपना पैसा खर्च किये बिना कोई लेखक प्रसिद्ध नहीं हो सकता। इसे हम यह भी कह सकते हैं कोई भी आदमी अपने लिखने के दम पर प्रसिद्ध नहीं हो सकता।
दूसरा यह है कि जो धनीमानी हैं उनका समय अधिकतर अपने व्यवसायों पर ही रहता है। समाज के उतार चढ़ाव में वह बहते हैं पर वह किस तरह आते हैं और इसके लिये कौनसी प्रवृत्तियां जिम्मेदार हैं यह देखने के पास उनके पास इतना समय नहीं होता जितना अल्प धनिक के पास रहता है। अल्प धनिक के पास ही वह समय होता है कि वह जमीन पर चलते हुए अनेक यथार्थ घटनाओं को एक स्वपनदृष्टा की तरह प्रस्तुत करता है। मुख्य बात यह है कि हिंदी में लिखने की बात आज वही सोच सकता है जिसके पास अपने रोजगार का कोई साधन हो। इससे रोटी पाने की कोई आशा नहीं कर सकता। हिंदी भाषी समाज की यह प्रवृत्ति है कि वह शुद्ध लेखक को पाल नहीं सकता।
ऐसे में यह अंतर्जाल ही एक आशा की किरण है। उसमें भी शर्त यही है कि इंटरनेट कनेक्शन व्यय करने की शक्ति होना चाहिए। इस लेखक ने लिखना तब शुरु किया था जब वह कमाने की सोच भी नहीं सकता था। जीवन संघर्ष के दौरान लिखते हुए कभी यह नहीं लगा कि उसक सहारे धन या प्रतिष्ठा मिलेगी। बस, एक आनंद आता है। इंटरनेट कनेक्शन लेते समय यह विचार भी था कि जब अवसर मिलेगा अपनी रचनायें प्रतिष्ठत समाचार पत्रों में भेज दिया जायेगा। कुछ समय बाद अध्ययन किया तो इस बात का आभास हो गया कि हर क्षेत्र में शिखर पर बैठे लोग कंप्यूटर पर काम करने से इसलिये कतराते हैं क्योंकि उनको लगता है कि यह काम टाईपिस्ट या लिपिक’ का है। इंटरनेट से भेजी गयी रचनाओं का भी वही हाल रहा जो डाक से भेजी गयी रचनाओं का था। ऐसे में स्वतंत्र लेखन के लिये ब्लाग मिला तो लिखना शुरु किया। इस लेखक की कवितायें, व्यंग्य, आलेख और कहानियां अच्छी है या बुरी इस स्वयं कभी नहीं सोचता। लिखते समय इस बात का ध्यान रहता है कि उसका सामाजिक सरोकार और संबंध जरूर होना चाहिये। अपनी कहानी लिखना आसान है पर वह तभी प्रभावी होती है जब उसकी प्रस्तुति ऐसी होना चाहिये कि वह सभी को अपनी लगे।
इधर इंटरनेट पर अच्छे लेखक भी आ गये हैं। उनका पढ़कर आनंद आता है और उनसे भी लिखने की प्रेरणा मिलती है। सच बात तो यह है कि कई ऐसे स्तरीय पाठ भी सामने आये जो व्यवसायिक पत्र पत्रिकाओं में नहीं दिखते। साहित्य, फिल्म, व्यापार, कला तथा प्रचार माध्यमों में एक परंपरागत ढांचा है जो परिवार, जाति, भाषा और धर्म में ही अपने रचनाकार तथा पात्र ढूंढता है। नयी व्यवस्था के आने की आशंका से यथास्थितिवादी खौफ खाते हैं और इसलिये वह ऐसी योजना बनाते हैं कि वह बदलाव आये ही नहीं और आये तो उसमें उसके मोहरे ही फिट हों। इसका पता तो पहले से ही था पर अंतर्जाल लिखते हुए इसका आभास अच्छी तरह होता जा रहा है।
एक ब्लाग मित्र-उसकी और इस लेखक की मित्रता ब्लाग लिखने के पहले से ही है- से उसी दिन बात हो रही थी। उसकी इंटरनेट पर अनेक ब्लाग लेखकों से चर्चा भी होती है। उसने कहा-’‘वह लोग तुम्हें पंसद करें या नहीं पर जानते सभी हैं। यह तय बात है। वह लोग कहते हैं कि ‘उसके कुछ ब्लाग बहुत अच्छे हैं और कुछ ऐसे ही हैं। मतलब यह कि तुम्हारी पहचान है और इसे कोई मिटा नहीं सकता। सबसे बड़ी बात यह है कि मुझे भी तुम्हारा वह ब्लाग पसंद हैं जो सभी की पसंद है।’
इशारा समझ में आया। मगर यह यात्रा बहुत लंबी है। कोई जल्दी नहीं है। आशा से अधिक जिज्ञासा है कि देखें यथास्थितिवादी किस तरह बदलाव लाने के लिये जूझ रहे लेखकों के सामने प्रतिरोध कर रहे हैं। जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र और परिवार के दायरों से मुक्त रहने का संदेश वाले छद्म लोग वास्तव में यथास्थितिवादी है और बदलाव लाने वाले तो केवल अपने कर्म में लिप्त रहते हैं। इसमें एक दृष्टा की तरह शामिल होकर देखने का अलग ही मजा है। खुद मैदान में उतरने का अर्थ है अपने लिये अधिक से अधिक विरोधी बनाना। ऐसे अवसरों पर लिखने का केवल एक ही मतलब होता है कि जिन लोगों की हिंदी ब्लाग का विश्लेषण करने वाले ब्लाग लेखकों के लिये अगर कुछ हो तो वह समझ लें। पूर्व में ऐसे ही आलेखों का प्रभाव क्या हुआ है यह इस लेखक ने देखा है। ब्लाग लेखक मित्रों से जो पाया है उनको ही कुछ लौटाया जा सकता है तो वह इसी तरह ताकि वह अगर इससे कोई लाभ उठा सकें तो ठीक, नहीं भी तो पाठकों में यह प्रेरणा तो आ ही सकती है कि अंतर्जाल पर हिंदी में लिखना उतना बुरा नहीं है जितना लगता है।
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भर्तृहरि शतक-बुरे संस्कार बुढ़ापे तक साथ रहते हैं


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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तानींद्रियाण्यविकलानि तदेव नाम सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव।
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः क्षपोन सोऽष्यन्य एव भवतीति विचित्रमेतत्।।

हिंदी में भावार्थ-मनुष्य की इंद्रिया नाम,बुद्धि तथा अन्य सभी गुण वही होते हैं पर धन की उष्मा से रहित हो जाने पर पुरुष क्षणमात्र में क्या रह जाता है? धन की महिमा विचित्र है।
वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या- इस सृष्टि को परमात्मा ने बनाया है पर माया की भी अपनी लीला है जिस पर शायद किसी का भी बस नहीं है। माया या धन के पीछे सामान्य मनुष्य हमेशा पड़ा रहता है। चाहे कितना भी किसी के पास आध्यत्मिक ज्ञान या कोई दूसरा कौशल हो पर पंच तत्वों से बनी इस देह को पालने के लिये रोटी कपड़ा और मकान की आवश्यकता होती है। अब तो वैसे ही वस्तु विनिमय का समय नहीं रहा। सारा लेनदेन धन के रूप में ही होता है इसलिये साधु हो या गृहस्थ दोनों को ही धन तो चाहिये वरना किसी का काम नहीं चल सकता। हालांकि आदमी का गुणों की वजह से सम्मान होता है पर तब तक ही जब तक वह किसी से उसकी कीमत नहीं मांगता। वह सम्मान भी उसको तब तक ही मिलता है जब तक उसके पास अपनी रोजी रोटी होती है वरना अगर वह किसी से अपना पेट भरने के लिये धन भिक्षा या उधार के रूप में मांगे तो फिर वह समाप्त हो जाता है।
वैसे भी सामान्य लोग धनी आदमी का ही सम्मान करते है। कुछ धनी लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि वह अपने गुणों की वजह से पुज रहे हैं। इसी चक्कर में कुछ लोग दान और धर्म का दिखावा भी करते हैं। अगर धनी आदमी हो तो उसकी कला,लेखन तथा आध्यात्मिक ज्ञान-भले ही वह केवल सुनाने के लिये हो-की प्रशंसा सभी करते हैं। मगर जैसे ही उनके पास से धन चला जाये उनका सम्मान खत्म होते होते क्षीण हो जाता है।

इसके बावजूद यह नहीं समझना चाहिये कि धन ही सभी कुछ है। अगर अपने पास धन अल्प मात्रा में है तो अपने अंदर कुंठा नहीं पालना चाहिये। बस मन में शांति होना चाहिये। दूसरे लोगों का समाज में सम्मान देखकर अपने अंदर कोई कुंठा नहीं पालना चाहिये। यह स्वीकार करना चाहिये कि यह धन की महिमा है कि दूसरे को सम्मान मिल रहा है उसके गुणों के कारण नहीं। इसलिये अपने गुणों का संरक्षण करना चाहिये। वैसे यह सच है कि धन का कोई महत्व नहीं है पर वह इंसान में आत्मविश्वास बनाये रखने वाला एक बहुत बड़ा स्त्रोत है।
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पैसे के साथ इश्क में भी आ सकता है मंदी का दौर – हास्य व्यंग्य


क्वीसलैंड यूनिवर्सटी आफ टैक्लनालाजी के प्रोफेसर कि अनुसार इस मंदी के दौर में लोगों के दाम्पत्य जीवन पर कुप्रभाव पड़ रहा है। उनके अनुसार पैसा प्यार को मजबूत रखता है और उसकी कमी तनाव को जन्म देती है।
यह एक सच्चाई है। फिल्मों,साहित्यक कहानियों और हिंदी उर्दू शायरियों में जिस इश्क, प्यार या मोहब्बत का गुणगान किया जाता है वह केवल भौतिक साधनों के सहारे ही परवान चढ़ता है। फिल्मों की काल्पनिक कथायें देखते हुए हमारे देश के युवक युवतियां क्षणिक प्यार में जाने क्या क्या करने को तैयार हो जाते हैं और फिर न केवल अपने लिये संकट बुलाते हैं बल्कि परिवार को भी उसमें फंसाते हैं।

हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यही कहता है कि प्रेम केवल सर्वशक्तिमान से हो सकता है पर अपने देश में एसी भी विचारधारायें भी प्रचलन में हैं जिनके अनुसार प्रियतम अपनी प्रेयसी को तो कहीं प्रेयसी को उसकी जगह बिठाकर आदमी को प्यार और मोहब्बत के लिये प्रेरित करती हैं। आपने फिल्मों में ऐसे गीत देखे होंगे जिसमें काल्पनिक प्रियतम की याद प्रेयसी और उसकी याद में प्रियतम ऐसे गीत गा रहा होता है जैसे कि भजन गा रहा हो। हम न तो ऐसे प्रेम का विरोध कर रहे हैं न उसका गुणगान कर रहे हैं बल्कि यह बता रहे हैं कि प्रेमी जब गृहस्थ के रूप में बदल जाते हैं तक अपनी दैहिक आवश्यकताओं के लिये धन की जरूरत होती है और तभी तय होता है कि वह कथित प्रेम किस राह चलेगा।

वैसे हमने अपने जीवन में देखा है कि जब को लड़का किसी लडकी की तरफ आकर्षित होता है तो उसे प्रेम पत्र लिखकर या वाणी से बोलकर किसी ऐसी जगह ही आमंत्रित करता है जहां खाने पीने के लिये एकांत वाली जगह हो। वहां डोसा,सांभर बड़ा या समौसे कचैड़ी खाते हुए प्रेम परवान चढ़ता है। वैसे आजकल पब सिस्टम भी शुरु हो गया है। यह बात पहले पता नहीं थी पर आजकल कुछ घटनायें ऐसी हो गयी हैं उससे यह जानकारी मिली है।

यह स्त्री पुरुष का दैहिक प्रेम पश्चिमी विचारधारा पर आयातित है तो तय है कि उसके लिये मार्ग भी वैसे ही बनेंगे जैसे वहां बने हैं। वैसे इस दैहिक प्रेम का विरोध तो सदियों से हर जगह होता आया है पुराने समय में इक्का दुक्का घटनायें होती थीं और प्यार के विरोध में केवल परिवार और रिश्तेदार ही खलनायक की भूमिका अदा करते थे। अब तो सब लोग खुलेआम प्रेम करने लगे हैं और हालत यह है कि परिवार के लोग विरोध करें या नहीं पर बाहर के लोग सामूहिक रूप से इसका प्रतिकार कर उसे प्रचार देते हैं। यह भी होना ही था पहले प्यार एकांत में होता था अब भीड़ में होने लगा है तो फिर विरोध भी वैसा होता है। इस दैहिक प्यार की महिमा जितनी बखान की जाती है उतनी है नहीं पर जब कोई खास दिन होता है तो उसकी चर्चा सारे दिन सुनने को मिलती है।

वैसे तो देखा जाये कोई किससे प्यार करने या न करे उसका संबंध बाहर के लोगों से कतई नहीं है। पर रखने वाले रखते हैं और कहते हैं कि यह संस्कृति के खिलाफ है? आज तक हम उस संस्कृति का नाम नहीं जान पाये जो इसके खिलाफ है। हमारे अनेक सांस्कृतिक प्रतीक पुरुषों ने प्यार किया और अपनी प्रेयसियों से विवाह रचाया। अब यह जरूरी नहीं है कि उनकी विवाह पूर्व की प्रेमलीला कोई लंबी खिंचती या वह गाने गाते हुए इधर उधर फिरते। चूंकि यह व्यंग्य है इसलिये हम उनके नाम नहीं लिखेंगे पर जानते सभी हैं। सच बात तो यह है कि दैहिक प्रेम में आत्मिक भाव तभी ढूंढा जाता है दोनों प्रेमियो का मिलन सामाजिक नियमों के अनुसार हो जाता है। मगर आजकल हालत अजीब है कि कहीं विवाह पूर्व प्रेम ढूंढा जा रहा है तो कही विवाह के पश्चात् सनसनी के कारण से प्रेम पर चर्चा होती है।

बहरहाल हमारा मानना है कि चाहे जो भी हो जो लोग सावैजनिक जगहों पर प्रेम करने पर आमदा होते हैं उनकी तरफ अधिक ध्यान देना ही नहीं चाहिये। पिछले कुछ वर्षों से समाज में कामकाजी महिलाओंं की संख्या बढ़ती जा रही है-यह अलग बात है कि उसके बावजूद गृहस्थ महिलाओं की संख्या बहुत अधिक हैं। ऐसे में अगर वह अविवाहित हैं तो उनके संपर्क अपने कार्यस्थल पर काम कर रहे या कार्य के कारण पासं आने वाले युवकों से हो जाते हैं। लड़कियां क्योंकि कामाकाजी होती हैं इसलिये वह विवाह से पहले अपने मित्रों को पूरी तरह परखना चाहती हैं। ऐसे में कुंछ युवतियां अपने परिवार में संकोच के कारण नहीं बताती क्योंकि उनको लगता है कि इससे माता पिता और भाई नाराज हो जायेंगे। फिर क्या पता लड़का हमें ही न जमें। कुछ मामलों में तो देखा गया है कि कामकाजी लड़कियों के माता पिता पहले कहीं अपनी कामकाजी लड़की के रिश्ते की बात चलाते हैं फिर लड़की से कहा जाता है कि वह लड़का देख कर अपना विचार बताये-तय बात है कि यह मिलने लड़की और लड़के का अकेले ही होता है और उस समय कोई उनका परिचित देख ले तो यही कहेगा कि कोई चक्कर है।

बहरहाल संस्कृति और संस्कार के रक्षकों के सामने अपने विचारों का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता बस नारे लगाते हुए चले जाते हैं। उनको लगता है कि सार्वजनिक जगहों पर अविवाहित युवक युवतियों का उठना बैठना संस्कृति को नष्ट कर देगा। यह हास्यास्पद है। हम बात कर रहे थे मंदी से प्रेम के बाजार में मंदी आने की। इस समय रोजगार के अवसरों में कमी हो रही है और ऐसे में इस समय जो कामकाजी जोड़े हैं वह प्यार कर कभी न कभी विवाह में बंधन में बंध जायेंगे। नये जोड़ों के सामने तो केवल नौकरी ढूंढने का ही संकट बना रहने वाला है। उनको अपना वक्त नौकरी ढूंढने में ही नष्ट करना होगा तो प्यार क्या खाक करेंगे? यह संकट निम्न मध्यम वर्ग के लोगों में ही अधिक है और इस वर्ग के सामने रोजगार के नये अवसरों का संकट आता दिख रहा है। कुछ अर्थशास्त्रियेां का मानना है कि अगले चार साल तक यह मंदी रहने वाली है और इसमें ऐसे अनेक व्यवसायिक स्थान संकट में फंस सकते हैं जो जोड़ों को मिलने मिलाने के सुगम और एकांत अवसर प्रदान करते हैंं। फिर रोजगार के संकट के साथ कम वेतन भी एक कारण हो सकता है जो प्रेम के अवसर कम ही प्रदान करे।

अपने देश में देशी विद्वानों की बात तो मानी नहीं जाती। इसलिये यह स्पष्ट करना जरूरी है कि यह कथन एक विदेशी विद्वान का ही है कि पैसे से ही प्यार मजबूत होता है और मंदी का यही हाल रहा तो प्यार का असर कम हो जो जायेगा। यह अलग बात है कि प्रचार बनाये रखने के लिये कुछ प्रेम कहानियंा फिक्स कर दिखायी जायें पर जब मंदी की मार प्रचार माध्यमों पर पड़ेगी तो वह कितनी ऐसी कहानियां बनवायेंगे? सो संस्कार और संस्कृति रक्षकों को चादर तानकर सो जाना चाहिये। आज नहीं तो कल दैहिक प्रेम-जो कि पैसे के कारण ही परवान चढ़ता है-अपना अस्तित्व खो बैठेगा। तब उनके विचारों के कल्पित समाज अपनी राह पर फिर संस्कारों और संस्कृति के सााि चलेगा।
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संत कबीर के दोहे: भक्ति और ध्यान एकांत में करें


चर्चा करु तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय
ध्यान करो तब एकिला, और न दूजा कोय

संत श्री कबीरदास जी का कथन है जब ज्ञान चर्चा चौराहै पर करो पर जब उसका अध्ययन करना हो तो दो लोगों की बीच में ही ठीक है। ज्ञान के बारे में जब ध्यान, चिंतन और मनन करना हो तो उसे एकांत में ही रहे जहां कोई दूसरा व्यक्ति न हो।
अष्ट सिद्धि नव निधि लौं, सबही मोह की खान
त्याग मोह की वासना, कहैं कबीर सुजान

संत श्री कबीरदास का कथन है कि आठों सिद्धियां और नवों निधियां तो मोह की खान है। अतः इस मोह को त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम लोग अक्सर यह कहते हैं कि अमुक संत सिद्ध है और उसकी शरण लेना चाहिए या वह तो बहुत पहुंचे हुए हैं। कई कथित संत और साधु अपने लिये बकायदा विज्ञापन करते हैं जैसे कि बहुत बड़े सिद्ध हों। यह सब ढोंग हैं। अनेक लोग मंत्रों आदि के द्वारा काम सिद्ध करने का दावा करते हैं। यह सब मोह से उपजा भ्रम है। सिद्धियां और निधियों की आड़ में अनेक लोग धंधा कर रहे हैं। सिद्धि केवल मन की शांति के रूप में ही है बाकी तो दुनियां चलती है। माया का भंडार पास में हो पर अगर मन अशांत हो तो वह भी व्यर्थ नजर आता है। इस प्रकार की मानसिक शांति लिये तत्व ज्ञान होना चाहिये। वैसे तो इसके लिये गुरु का होना जरूरी है पर न मिले तो किसी समक+क्ष व्यक्ति के साथ बैठकर स्वाध्याय करना चाहिये। उसके बाद अकेले ध्यान में बैठकर अपने द्वारा ग्रहण तत्व पर विचार करना ही ठीक है। हां, उसकी चर्चा चार लोगों के करने में कोई बुराई नहीं है। इस चर्चा से न केवल अपने दिमाग में मौजूद ज्ञान का पूर्नस्मरण हो जाता है और वह पुष्ट भी होता है।

हम जो ज्ञान प्राप्त करें उससे अपने आपको सिद्ध मान लेना मूर्खता है क्योंकि तत्व ज्ञान का रूप अत्यंत सूक्ष्म है पर उसका विस्तार इतना दिया जाता है कि लोग उसका लाभ व्यवसायिक रूप से उठाते हैं। अनेक सिद्धियों और निधियों का प्रचार इस तरह किया जाता है जैसे वह दुनियां में रह मर्ज की दवा हैं। इनसे दूर होकर अपने स्वाध्याय, ध्यान और ज्ञान से अपने मन के विकार दूर करते रहना चाहिये।
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चाणक्य नीति-बुरे संस्कार वालों के साथ बैठकर खाना भी न खाएं


नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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अर्थार्थीतांश्चय ये शूद्रन्नभोजिनः।
त द्विजः कि करिष्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः।।

हिंदी में भावार्थ- नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि अर्थोपासक विद्वान समाज के लिये किसी काम के नहीं है। वह विद्वान जो असंस्कारी लोगों के साथ भोजन करते हैं उनको यश नहीं मिल पता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- इस देश का अध्यात्मिक ज्ञान सदेशों के अनमोल खजाने से भरा पड़ा है। उसका कारण यह है कि प्राचीन विद्वान अर्थ के नहीं बल्कि ज्ञान के उपासक थे। उन्होंने अपनी तपस्या से सत्य के तत्व का पता लगाया और इस समाज में प्रचारित किया। आज भी विद्वानों की कमी नहीं है पर प्रचार में उन विद्वानों को ही नाम चमकता है जो कि अर्थोपासक हैं। यही कारण है कि हम कहीं भी जाते हैं तो सतही प्रवचन सुनने को मिलते हैं। कथित साधु संत सकाम भक्ति का प्रचार कर अपने भोले भक्तों को स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं। यह साधु लोग न केवल धन के लिये कार्य करते हैं बल्कि असंस्कारी लोगों से आर्थिक लेनदेने भी करते हैं। कई बार तो देखा गया है कि समाज के असंस्कारी लोग इनके स्वयं दर्शन करते हैं और उनके दर्शन करवाने का भक्तों से ठेका भी लेते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में अध्यात्मिक चर्चा तो बहुत होती है पर ज्ञान के मामले में हम सभी पैदल हैं।
समाज के लिये निष्काम भाव से कार्य करते हुए जो विद्वान सात्विक लोगों के उठते बैठते हैं वही ऐसी रचनायें कर पाते हैं जो समाज में बदलाव लाती हैं। असंस्कारी लोगों को ज्ञान दिया जाये तो उनमें अहंकार आ जाता है और वह अपने धन बल के सहारे भीड़ जुटाकर वहां अपनी शेखी बघारते हैं। इसलिये कहा जाता है कि अध्यात्म और ज्ञान चर्चा केवल ऐसे लोगों के बीच की जानी चाहिये जो सात्विक हों पर कथित साधु संत तो सार्वजनिक रूप से ज्ञान चर्चा कर व्यवसाय कर रहे हैं। वह अपने प्रवचनों में ही यह दावा करते नजर आते हैं कि हमने अमुक आदमी को ठीक कर दिया, अमुक को ज्ञानी बना दिया।
अतः हमेशा ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लये ऐसे लोगों को गुरु बनाना चाहिये जो एकांत साधना करते हों और अर्थोपासक न हों। उनका उद्देश्य निष्काम भाव से समाज में सामंजस्य स्थापित करना हो।
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मुस्कराहट का मुखौटा-व्यंग्य कविता


बेकद्रों की महफिल में मत जाना
बहस के नाम पर वहां बस कोहराम मचेगा
पर कौन, किसकी कद्र करेगा।
मुस्कराहट का मुखौटा लगाये सभी
हर शहर में घूम रहे हैं
जो मिल नहीं पाती खुशी उसे
ढूंढते हुए झूम रहे हैं
दूसरे के पसीने में तलाश रहे हैं
अपने लिये चैन की जिंदगी
उनके लिये अपना खून अमृत है
दूसरे का है गंदगी
तुम बेकद्रों को दूर से देखते रहकर
उनकी हंसी के पीछे के कड़वे सच को देखना
दिल से टूटे बिखरे लोग
अपने आपसे भागते नजर आते हैं
शोर मचाकर उसे छिपाते हैं
उनकी मजाक पर सहम मत जाना
अपने शरीर से बहते पसीने को सहलाना
दूसरा कोई इज्जत से उसकी कीमत
कभी तय नहीं करेगा।

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बाजार की आस्था या आस्था का बाजार-हास्य व्यंग्य


कहीं न्यूजीलैंड में इस बात को लेकर लोग नाराज है कि ‘हनुमान जी पर कंप्यूटर गेम बना दिया गया है और बच्चे उनकी गति को नियंत्रित करने का खेल कर रहे हैं।’ इससे उनकी धार्मिक आस्थायें आहत हो रही हैं। तमाम तरह के आक्षेप किये जा रहे हैं।
एक बात समझ में नहीं आती कि लोग अपने धार्मिक प्रतीकों को लेकर इस तरह के विवाद खड़ा कर आखिर स्वयं प्रचार में आना चाहते हैं या उनका उद्देश्य कंपनियों के उत्पाद का प्रचार करना होता है। कहीं किसी अभिनेत्री ने माता का मेकअप कर किसी रैंप में प्रस्तुति दी तो उस पर भी बवाल बचा दिया। टीवी चैनलों ने अपने यहां उसे दिखाया तो अखबारों ने भी इस समाचार का छापा। प्रचार किसे मिला? निश्चित रूप से अभिनेत्री को प्रचार मिला। अगर कथित धार्मिक आस्थावान ऐसा नहीं करते तो शायद उस अभिनेत्री का नाम कोई इस देश में नहीं सुन सकता था।
कई बार ऐसा हुआ कि अन्य धार्मिक विचाराधारा के लोगों ने अपने धार्मिक प्रतीकों के उपयोग पर बवाल मचाये हैं पर उनकी देखादेखी भारतीय आस्थाओं के मानने वाले भी ऐसा करने लगे तो समझ से परे है। कहने को भारतीय आस्थाओं के समर्थक कहते हैं कि ‘जब दूसरे लोगों के प्रतीकों पर कुछ ऐसा वैसा बनने पर बवाल मचता है तो हम क्यों खामोश रहे?’
यह तर्क समझ से परे है। इसका मतलब यह है कि भारतीय आस्थाओं को मानने वाले अपने अध्यात्मिक दर्शन का मतलब बिल्कुल नहीं समझते। नीति विशारद चाणक्य ने कहा है कि ‘हृदय में भक्ति हो तो पत्थर में भगवान हैं।’
यानि अगर हृदय में नहीं है तो वह पत्थर ही है जिसे दुनियां को दिखाने के लिये पूज लो-वैसे अधिकतर लोग अपने दिल को तसल्ली देने के लिये पत्थर की पूजा करते हैं कि हमने कर ली और हमारा काम पूरा हो गया। हमारा अध्यात्मिक दर्शन स्पष्ट कहता है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा का कोई रूप नहीं है। उसके स्वरूप की कल्पना दिमाग में स्थापित कर उसका स्मरण करने का संदेश है पर अंततः निराकार में जाने का आदेश भी है।
अब अगर कोई कंप्यूटर पर हनुमान जी पर गेम बनाता है या कोई अभिनेत्री माता का चेहरा बनाकर रैंप पर अपनी प्रस्तुति देती है तो उसमें क्या आप सर्वशक्तिमान परमात्मा का रूप देख रहे हैं जो ऐसी आपत्ति करते हैं। अनेक प्रकार की भौतिक चीजों से बना कंप्यूटर अगर खराब हो जाये तो उस कोई आकृति नहीं दिख सकती। मतलब यह आकृतियां तो पत्थर की मूर्ति से भी अधिक छलावा है। उसमें अपनी अपने आस्थाओं की मजाक उड़ते देखने का अहसास ही सबसे बड़ा अज्ञान है-बल्कि कहा जाये कि उसे मजाक कहकर हम अपनी भद्द पिटवा रहे हैं। आस्था या भक्ति एक भाव है जिनको भौतिक रूप से फुटबाल मैच की तरह नहीं खेला जाता कि वह हम पर गोल कर रहा है तो उसे हमें गोलकीपर बनकर रोकना होगा या दूसरे ने गोल कर दिया है तो वह हमें उसी तरह उतारना है।
फिर आजकल यह मुद्दे ज्यादा ही आ रहे हैं। जहां तक मजाक का सवाल है तो अनेक ऐसी हिंदी फिल्में बन चुकी हैं जिसमें भारतीय संस्कृति से जुड़े अनेक पात्रों पर व्यंग्यात्मक प्रस्तुति हो चुकी है और उस पर किसी ने आपत्ति नहीं की। अब इसका एक मतलब यह है कि हम अपने धार्मिक प्रतीकों का सम्मान करना दूसरों से सीख रहे हैं। यह एक भारी गलती है। होना तो यह चाहिये कि हम दूसरों को सिखायें कि इस तरह धार्मिक प्रतीकों पर जो कार्यक्रम बनते हैं या प्रस्तुतियां होती हैं उससे मूंह फेर कर उपेक्षासन करें क्योंकि सर्वशक्तिमान के स्वरूप का कोई आकार नहीं है। अगर हमारे हृदय में हमारी आस्था दृढ है तो उसका कोई मजाक उड़ा ही नहीं सकता। अगर धार्मिक भाव से आस्था दृढ़ नहीं होती और वह ऐसी जरा जरा सी बातों पर हिलने लगती हैं तो इसका मतलब यह है कि हमारे हृदय में स्वच्छता का अभाव है। धार्मिक आस्था अगर ज्ञान की जननी नहीं है तो फिर उसका कोई आधार नहीं है।

दूसरा मतलब यह है कि उस कंप्यूटर गेम को शायद भारतीय बाजार में प्रचार दिलाने के लिये यह एक तरीका है। इससे यह संदेह होता है कि विरोध करने वाले अपनी आस्था का दिखावा कर रहे हैं। अब अगर कंप्यूटर पर कोई आकृति हनुमान जी की तरह बनी है तो हनुमान जी मान लेने का मतलब यह है कि वह आपके आंखों में ही बसते हैं, दिल में नहीं। दिल में बसे होते तो चाहे कितने प्रकार की आकृतियां बनाओ आपको वह स्वीकार्य नहीं हो सकती। बात इससे भी आगे कि अगर वह आपके इष्ट है तो आप भी उनके गेम को खेलिए-इससे वह रुष्ट नहीं हो जायेंगे। बस जरूरत है कि वह गेम भी आस्था और विश्वास से खेलें। अगर अपने इष्ट के स्वरूप में हमारी अटूट श्रद्धा है तो वह कभी इस तरह खेलने में नाराज नहीं होंगे और फिर हमसे परे भी कितना होंगे? जो पास होता है उसी के साथ तो खेला जाता है न!
वाल्मीकी ऋषि का नाम तो सभी ने सुना होगा। ‘मरा’ ‘मरा’ कहते हुए राम को ऐसा पा गये कि उन पर इतना बड़ा ग्रंथ रच डाला कि उनके समकक्ष हो गये। ऐसा कौन है जो भगवान श्रीराम को जाने पर वाल्मीकि को भूल जाये? आशय यह है कि आस्था और भक्ति दिखावे की चीज नहीं होती और न भौतिक रूप से इस जमीन पर बसती है कि वह टूटें और बिखरें।
इस तरह जिनकी आस्था हिलती है या टूटती है उनके दिल लगता है कांच के कप की तरह ही होती है। एक कप टूट गया दूसरा ले आओ। एक इष्ट की मूर्ति से बात नहीं बनती दूसरे के पास जाओ। उसके बाद भी बात नहीं बनती तो किसी सिद्ध के पास जाओ। इससे भी बात न बने तो अपनी भक्ति का शोर मचाओ ताकि लोग देखें कि भक्त परेशान है उसकी मदद करो। एक तरह से प्रचार की भूख के अलावा ऐसी घटनायें कुछ नहीं है। उनके लिये आस्था का हिलने का मतलब है सनसनी फैलाने का अवसर मिलना।
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चाणक्य नीतिः अपने घर के अन्दर की बात बाहर न कहें


नीति विशारद चाणक्य महाराज कहते हैं कि
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धन-धान्यप्रयोगेषु विद्य-संग्रहणेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्।

हिंदी में भावार्थ-धन धान्य के व्यवहार, ज्ञान विद्या के संग्रह और खाने पीने में जो व्यक्ति संकोच या लज्जा नहीं करते वही जीवन में सुखी रहते हैं।

अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च।
वंचनं चाऽपमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत्।।

हिंदी में भावार्थ-अपने धन का नाश, मन का दुःख, स्त्री की चरित्रहीनता और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा वचनों के द्वारा कष्ट देने की बात सभी के सामने प्रकाशित नहीं करना चाहियै
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कुछ बातों सभी से कहना चाहिये और कुछ नहीं। अक्सर हम व्यग्र होने पर ऐसी बातें लोगों से कह जाते हैं जो नहीं कहना चाहिये। कभी व्यग्रता इतनी बढ़ जाती है कि कह ही नहीं पाते। नीति विशारद चाणक्य के अनुसार जिस बात से अपना अपमान होता हो या अपमान हो चुका हो वह बात किसी को नहीं बताना चाहिये। खासतौर से जब हमारे धन का नाश हमारी गलती से हो गया हो।
इसके अलावा कुछ बातें छिपानी भी नहीं चाहिये। अगर हमारे पास धन या खाद्यान्न नहीं है तो स्पष्टतः उस आदमी को बता देना चाहिये जिससे हमें मदद अपेक्षित है। किसी से कोई बात सीखने के लिये उसके सामने अपने अज्ञान को छिपाना ठीक नहीं है। अगर पेट में भूख हो कहीं अपने खाने का जुगाड़ नहीं हो पाता और कोई अन्य हमें भोजन का आग्रह करता है तो उसे अस्वीकार करना मूर्खता का काम है। कहने का तात्पर्य है कि जहां सम्मान की बात है तो ऐसी बात लोगों को नहीं बताना चाहिये जिससे हमारे अपमान का विस्तार हो साथ ही अपनी दैहिक और मानसिक आवश्यकताओं को दूसरों से छिपाना भी नहीं चाहिये।
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कबीर के दोहे: मधुमक्खी की तरह सुगंध ग्रहण करें


जो तूं सेवा गुरुन का, निंदा की तज बान
निंदक नेरे आय जब कर आदर सनमान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर सद्गुरु के सच्चे भक्त हो तो निंदा को त्याग दो और कोई अपना निंदा करता है तो निकट आने पर उसका भी सम्मान करो।
माखी गहै कुबास को, फूल बास नहिं लेय
मधुमाखी है साधुजन, गुनहि बास चित देय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मक्खी हमेशा दुर्गंध ग्रहण करती है कि न फूलों की सुगंध, परंतु मधुमक्खी साधुजनों की तरह है जो कि सद्गण रूपी सुगंध का ही अपने चित्त में स्थान देती है।

तिनका कबहूं न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़ै, पीर धनेरी होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कभी पांव के नीच आने वाले तिनके की भी उपेक्षा नहीं करना चाहिए पता नहीं कब हवा के सहारे उड़कर आंखों में घुसकर पीड़ा देने लगे।

जो तूं सेवा गुरुन का, निंदा की तज बान
निंदक नेरे आय जब कर आदर सनमान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर सद्गुरु के सच्चे भक्त हो तो निंदा को त्याग दो और कोई अपना निंदा करता है तो निकट आने पर उसका भी सम्मान करो।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-यह सच्चे भक्त की पहचान है कि वह किसी की निंदा नहीं करते न ही किसी में दोष देखते हैं। जो नित प्रतिदिन भक्ति करते हैं और फिर परनिंदा में लग जाते हैं उनकी भक्ति में दोष है यही समझना चाहिये। वैसे आम आदमी की बात ही क्या कथित संत और साधु भी एक दूसरे की निंदा करते हैं। निंदा करना आदमी के अंदर मौजूद नकारात्मक सोच का परिणाम है। जिनके मन में परमात्मा के प्रति सत्य में भक्ति का भाव है उनका सोच सकारात्मक रहता है और वह दूसरों की अच्छाईयों पर ही विचार कर उनको ग्रहण करते हैंं।

दूसरों के दोष देखकर उसकी चर्चा करने से वह दोष हमारे अंदर स्वतः आ जाता है। कहते हैं कि आलोचक को अपने से दूर नहीं रखना चाहिये क्योंकि उसके श्रीमुख से अपने दोष सुनने से हमें वह अपने अंदर से निकालने का अवसर मिल जाता है। यह दोष निकलकर उसके अंदर से जाता कहां है? तय बात है कि वह आलोचक के अंदर ही जाता है। जिस तरह भगवान की भक्ति करने से उनका सानिध्य मिलता है उसी तरह दूसरे की निंदा करना या दोष देखने से वह भी हमें प्राप्त होता है। यह दुनियां वैसी ही जैसी हमारी नीयत है अतः अच्छा देखें तो वह अच्छी लगेगी और अगर खराब देखेंगे तो वैसा ही बुरा भी लगेगा।
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चाणक्य नीतिः ‘जस के साथ तस’ नीति में दोष नहीं


संसार विषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे।
सुभाषितं च सुस्वादु संगतिः सुजने जनै।।

हिन्दी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य जी कहते हैं कि इस विषरूपी संसार में दो तरह के फल अमृत की तरह लगते हैं। एक तो सज्जन लोगों की संगत और दूसरा अच्छी वाणी सुनना।
कृते प्रतिकृतं कुर्याद् हिंसने प्रतिहिसंनम्।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टे सामचरेत्
हिंदी में भावार्थ-
अपने प्रति अपराध और हिंसा करने वाले के विरुद्ध प्रतिकार और प्रतिहिंसा का भाव रखने में कोई दोष नहीं है। उसी तरह दुष्ट व्यक्ति के साथ वैसे ही व्यवहार करना कोई अपराध नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में वैसे तो दुःख और विष के अलावा अन्य कुछ नहीं दिखता पर दो तरह के फल अवश्य हैं जिनका मनुष्य अगर सेवन करे तो उसका जीवन संतोष के साथ व्यतीत किया जा सकता है। इसमें एक तो है ऐसे स्थानो पर जाना जहां भगवत्चर्चा होती हो। दूसरा है सज्जन और गुणी लोगों से संगत करना। दरअसल इस स्वार्थी दुनियां में निष्काम भाव से कुछ समय व्यतीत करने पर ही शांति मिलती है और यह तभी संभव है जब हम स्वार्थ की वजह से बने रिश्तों से अलग ऐसे संतों और सत्पुरुषों की संगत करें जिनका हम में और हमारा उनमें स्वार्थ न हो। इसके अलावा आत्मा को प्रसन्न करने वाली कहीं कोई बात सुनने को मिले तो वह अवश्य सुनना चाहिये।
कहते हैं कि मन में बुरा भाव नहीं रखना चाहिये पर अगर कोई हमारे साथ बुरा बर्ताव करता है तो उससे चिढ़ हो ही जाती है। पंच तत्व से बनी इस देह में बुद्धि, मन और अहंकार ऐसी प्रकृतियां हैं जिन पर चाहे जितना प्रयास करो पर नियंत्रण हो नहीं पाता। सज्जन लोग किसी अन्य द्वारा बुरा बर्ताव करने पर उससे मन में चिढ़ जाते हैं पर बाद में वह इस बात से पछताते हैं कि उनके मन में बुरी बात आई क्यों? अगर किसी बुरे व्यक्ति के बर्ताव से गुस्सा आता है तो उससे विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। वैसे जीवन में सतर्कता और सक्रियता आवश्यक है। कोई व्यक्ति हमारे अहित के लिये तत्पर है तो उसका वैसा ही प्रतिकार करने में कोई बुराई नहीं है। बस! इतना ध्यान रखना चाहिये कि उससे हम बाद में स्वयं मानसिक रूप से स्वयं प्रताड़ित न हों।
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सम्मान और अपमान-हिन्दी शायरी


उन्हें और क्या चाहिये
जिनका दौलत करती हो सम्मान।
तलवे चाटने के लिये
कुछ पल मिल उनके पांव मिलने पर
लोग मानते है सम्मान।
चाहे कितने भी प्रशस्ति पत्र
उनके इर्दगिर्द सजा लो
जिन पर हाथ रखेंगे
उसी का ही होगा सम्मान।
दौलत और शौहरत कर देती है
कई लोगों को जमाने से परे
जिसके हाथ से लें सम्मान
वही सम्मानित हो जाता
जिसको ठुकरा दें उसका
होता अपमान
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मान करें या अपमान
कहां जायें उनके बिना
मिलता नहीं कोई दूसरा ठौर।
कान से सुने नहीं
मूंह से बोले नहीं
नजरें सीधी न हो तो
टेढ़ी भी चलेंगी
इस बात पर ही तसल्ली
करे लेंगे कि उन्होंने किया
हमारी तरफ गौर।
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यह जिंदगी शब्दों का खेल है-हिंदी शायरी


महलों में रहने वाले भी ज्यादा पेट नहीं भर पाते-हिन्दी शायरी
आकाश से टपकेगी उम्मीद
ताकते हुए क्यों अपनी आंखें थकाते हो।
कोई दूसरा जलाकर चिराग
तुम्हारी जिंदगी का दूर कर देगा अंधेरा
यह सोचते हुए
क्यों नाउम्मीदी का भय ठहराते हो।।

खड़े हो जिन महलों के नीचे
कचड़ा ही उनकी खिड़कियों से
नीचे फैंका जायेगा
सोने के जेवर हो जायेंगे अलमारी में बंद
कागज का लिफाफा ही
जमीन पर आयेगा
निहारते हुए ऊपर
क्यों अपने आपको थकाते हो।

उधार की रौशनी से
घर को सजाकर
क्यों कर्ज के अंधेरे को बढ़ाते हो
जितना हिस्से में आया है तेल
उसमें ही खेलो अपना खेल
देखकर दूसरों के घर
खुश होना सीख लो
सच यह है कि महलों में रहने वाले लोग भी
झौंपड़ी में रहने वालों
से ज्यादा पेट नहीं भर पाते
तुम उनकी खोखली हंसी पर
क्यों अपना ही खून जलाते हो।

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शब्दों के चिराग-हिंदी शायरी
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यह जिंदगी शब्दों का खेल है
जो समझे वह पास
जो न समझे वही फेल है।
कहीं तीरों की तरह चलते हैं
कहीं वीरों की तरह मचलते हैं
लहु नहीं बहता किसी को लग जाने से
जिसे लगे उसे भी
घाव का पता नहीं लगता
दूसरों को ठगने वाले
को अपने ठगे जाने का
पता देर से लगता
कई बार अर्थ बदलकर
शब्द वार कर जाते हैं
जिसके असर देर से नजर आते हैं
जला पाते हैं वही शब्दों के चिराग
जिनमें अपनी रचना के प्रति समर्पण का तेल है।

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वही नायक बनेगा-हास्य व्यंग्य कविताएँ


रीढ़हीन हो तो भी चलेगा।
चरित्र कैसा हो भी
पर चित्र में चमकदार दिखाई दे
ऐसा चेहरा ही नायक की तरह ढलेगा।

शब्द ज्ञान की उपाधि होते हुए भी
नहीं जानता हो दिमाग से सोचना
तब भी वह जमाने के लिये
लड़ता हुआ नायक बनेगा।
कोई और लिखेगा संवाद
बस वह जुबान से बोलेगा
तुतलाता हो तो भी कोई बात नहीं
कोई दूसरा उसकी आवाज भरेगा।

बाजार के सौदागर खेलते हैं
दौलत के सहारे
चंद सिक्के खर्च कर
नायक और खलनायक खरीद
रोज नाटक सजा लेते हैं
खुली आंख से देखते है लोग
पर अक्ल पर पड़ जाता है
उनकी अदाओं से ऐसा पर्दा पड़ जाता
कि ख्वाब को भी सच समझ पचा लेते हैं
धरती पर देखें तो
सौदागर नकली मोती के लिये लपका देते हैं
आकाश की तरफ नजर डालें
तो कोई फरिश्ता टपका देते हैं
अपनी नजरों की दायरे में कैद
इंसान सोच देखने बाहर नहीं आता
बाजार में इसलिये लुट जाता
ख्वाबों का सच
ख्यालों की हकीकत
और फकीरों की नसीहत के सहारे
जो नजरों के आगे भी देखता है
वही इंसान से ग्राहक होने से बचेगा।

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बादशाह बनने की चाहत-हिंदी शायरी
हीरे जवाहरात और रत्नों से सजा सिंहासन
और संगमरमर का महल देखकर
बादशाह बनने की चाहत मन में चली ही आती है।
पर जमीन पर बिछी चटाई के आसन
कोई क्या कम होता है
जिस पर बैठकर चैन की बंसी
बजाई जाती है।

देखने का अपना नजरिया है
चलने का अपना अपना अंदाज
पसीने में नहाकर भी मजे लेते रहते कुछ लोग
वह बैचेनी की कैद में टहलते हैं
जिनको मिला है राज
संतोष सबसे बड़ा धन है
यह बात किसी किसी को समझ में आती है।
लोहे, पत्थर और रंगीन कागज की मुद्रा में
अपने अरमान ढूंढने निकले आदमी को
उसकी ख्वाहिश ही बेचैन बनाती है।

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मर्द की असलियत और नारी मुक्ति-व्यंग्य क्षणिकाएं


पीता जाए चुपचाप दर्द.
घर की नारी करें हैरान
ससुराल वाले धमकाकर करें परेशान
पर खामोश रहे वही है असली मर्द.

पसीना बहाकर कितना भी थक जाता हो
फिर भी नींद पर उसका हक़ नहीं हैं
अगर नारी का हक़ भूल जाता हो
घर में भीगी बिल्ली की तरह रहे
भले ही बाहर शेर नज़र आता हो
मुश्किलों में पानी पानी हो जाए
भले ही हवाएं चल रही हों सर्द.
तभी कहलाएगा मर्द.
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मर्द को हैरान करे
पल पल परेशान करे
ऐसी हो युक्ति.
उसी से होती है नारी मुक्ति.
डंडे के सहारे ही चलेगा समाज
प्यार से घर चलते हैं
पड़ गयी हैं यह पुरानी उक्ति.

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बंदर, चिंपौजी और इंसान का नैतिक आधार-व्यंग्य


अब यह भला क्या बात हुई कि बंदर तथा चिंपौजी में भी नैतिकता होती है। कुछ पश्चिमी विशेषज्ञों ने अपने प्रयोग से बात यह बात अब जाकर जानी है कि बंदर और चिंपौजी में भी वैसे ही नैतिक भावना होती है जैसे कि इंसानों (?) में होती है। बंदर और चिपौजी भी अपने साथ किये अच्छे व्यवहार की स्मृतियां संजोये रखते हैं और समय आने पर उसे निभाते है। वैसे देखा जाये तो बंदरों को हमारे देश में अब भी पशुओं की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। अनेक विशेषज्ञ तो बंदरों और चिंपौजी को मनुष्य की श्रेणी का ही मानते हैं।
पश्चिमी जीव विज्ञान के अनुसार आदमी भी पहले बंदर ही था पर कालांतर में वह मनुष्य बनता गया। आज भी जब बंदर या चिंपौजी को देखते हैं तो उनकी अदायें मनुष्य से ही मेल खाती हैं सिवाय बोलने के। जो बातें पश्चिमी विशेषज्ञ अब कह रहे हैं भारत में पहले से ही उसे जाना जाता है। क्योंकि यहां अपने प्राचीनतम ज्ञान और लोककथाओं से लोग अनभिज्ञ हैं इसलिये यहां अब पश्चिम के अनुसंधानों और प्रयोगों की जानकारी नये रूप में दिखाई देती हैं। सच बात तो यह है कि पश्चिमी ज्ञान एक तरह से नयी बोतल में पुरानी शराब की तरह है। हमारे यहां लोककथाओं में अनेक कहानियों में बंदरों को पात्र बनाकर बहुत पहले ही सुनाया जाता है। इतना ही नहीं इस देश मेें ऐसे अनेक लोग है जो बंदरों के निकट संपर्क में रहते हैं और वह उन्हें मनुष्यों से कम नहीं मानते।
वैसे अपने यहां रामायण कालीन समय में वानर जाति की चर्चा यहां बच्चे बच्चे की जुबान पर रही है। कहा जाता है कि बस्तर के आसपास उस समय ऐसे मनुष्य रहते थे जिनकी जाति का नाम वानर था। बहरहाल उस समय राक्षसों के विरुद्ध युद्ध में वानर जाति के योगदान की वजह से बंदरों को लेकर अनेक लोक कथायें और कहानियां प्रचलन में रहीं हैं। कुल मिलाकर उनको मनुष्य जातीय प्राणी ही माना जाता है।

जहां तक उनमें मनुष्यों जैसी नैतिक भावना होने का प्रश्न है उसमें संदेह नहीं है पर अब वह मनुष्यों में बची है कि नहीं कोई बात नहीं जानता। सच बात तो यह है कि मनुष्य को भ्रमित कर एक तरह से गुलाम बना लिया गया है। कहते हैं कि मनुष्य अब बंदरों जैसा इसलिये नहीं दिखता क्योंकि उसने धीरे धीरे कपड़े पहनना शुरू किया-नैतिकता का पहला पाठ भी यही है-और उससे उसके शरीर के बाल और पूंछ धीरे धीरे लुप्त हो गये। मतलब उसने जैसे सांसरिक नैतिकता की तरफ कदम बढ़ाये वह अपनी मूल नैतिकता को भूलता गया। जैसे शर्म आंखों में होती है, धूंघट में नहीं। प्रेंम तो स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है उसका प्रदर्शन करना संभव नहीं है। मगर जिन लोगों ने नैतिकता का पाठ पढ़ाया उन्होंने स्त्रियों पर बंधन लगाये तो पुरुषों को अपना गुलाम बनाने के लिये उसे स्वर्ग और दैहिक प्रेम का मार्ग बताया। बंदर किसी के गुलाम नहीं होते। वह आजादी से घूमते हैं। उनको किसी शिक्षा की आवश्कता नहीं होती। जहां तब परिवार का प्रश्न है कि बंदर भी परिवार के साथ ही विचरण करते हैं। उनकी पत्नियां अपने बच्चों को संभालने में कोई कम मेहनत नहीं करती। बस इतना कि वह किसी के गुलाम नहीं है।
मनुष्यों में भी कुछ मनुष्य ऐसे रहे हैं जिन्होंने नैतिकता स्थापित करने का ठेका लिया है। मनुष्यों में उनको उस्ताद ही कहा जाता है। यह उस्ताद लोग तमाम तरह की पुस्तकों को अपने साथ संभाल कर रखते हैंं और बताते हैं कि अमुक विचारधारा प्रेम और नैतिकता का उपदेश देती है। मनुष्य सिहर का हां हां करता जाता है। न करे तो साथ वाले टोकते हैं कि तू आस्तिक है कि नास्तिक! उस्तादों ने अपने आसपास झुंड बनाकर रखे हैं और कोई एक आदमी उनसे अलग होकर नहीं चल सकता। भक्ति और सत्संग पर किसी उस्ताद के दर पर जाना तथा कर्मकांड करना धार्मिक होने का प्रमाण माना जाता है। आदमी पूरी जिंदगी शादी,गमी,और प्रतिष्ठा के लिये अन्य कार्यक्रमों में अपना समय नष्ट कर देता है। बंदर इससे दूर हैं। बंदरों में शादी विवाह की परंपरा नहीं लगती। लिविंग टुगेदर के आधार पर उनके संबंध जीवन भर चलते है।

आदमी जैसे जैसे नैतिक होता जा रहा है बंदरों के जंगल खाता जा रहा है। जहां कहीं बंदरों का झुंड रहता था वहां अब आदमी के महल खड़े हैं। आदमी सहअस्तित्व के सिद्धांत को भूल गया है। इस सृष्टि के अन्य प्राणियोें की रक्षा करने का अपना दायित्व भूलकर वह उनको नष्ट करने लगा है। धर्म, जाति,भाषा और क्षेत्र के नाम पहले इन उस्तादों ने समाज को बांटा फिर एकता के नारे लगाते हैं-सभी उस्ताद अपनी पुस्तकें बगल में दबाये हुए कहते हैं कि ‘हमारी पुस्तक तो सभी इंसानों को एकसाथ रहना सिखाती है।’
इसका मतलब यह है कि उस्तादों के चंगुल में फंसकर बंदर पहले आदमी हो गया अब उसे बंदर बनने को कहा जा रहा है। बंदर अपने समाज के साथ बिना किसी पुस्तक पढ़े ही एकता बनाये रखते हैं।
हमें याद आ रहा एक किस्सा। हम कोटा गये थे। मंगलवार होने के कारण चंबल गार्डन के पास ही बने एक हनुमान जी के मंदिर गये। वहां प्रसाद चढ़ाने के बाद हम उसे हाथ में लेकर परिक्रमा करने लगे। वही एक बंदर आया और हमारे हाथ से प्रसाद ऐसे ले गया जैसे उसके लिये ही प्रसाद लाये थे। वह प्रसाद लेकर गया और बड़े आराम से थोड़ी दूर बैठे अपने साथियों के साथ उसे बांटकर खाने लगा। यह काम लगता तो इंसानी लुटेरों जैसा था पर फिर भी हमें उसकी अदा बहुत भायी। पांच रुपये के प्रसाद से अधिक उसने हमसे क्या लिया था? फिर उसने वह कर्तव्य पूरा किया जो हमें करना चाहिये था। उनको प्रसाद खाते देखकर हमें बहुत आनंद आया। सच बात तो यह है कि मनुष्यों से भी कोई श्रेष्ठ प्राणी है उस दिन हमने माना था।

बंदर और आदमी में फर्क है पर नैतिकता का सवाल थोड़ा पेचीदा हैं। बंदर न तो किसी उस्ताद की बात मानते हैं न वह पढ़ते हैं। मंदिरों आदि पर वह प्रसाद की लालच में आते हैं। फिर भी उनमें नैतिकता पूरी तरह से है पर आदमी को संचय की प्रवृति और स्वर्ग में जाकर स्थान बनाने के लिये कर्मकांडों की लिप्तता ने सब भूल जाता है। आपने सुना ही होगा ‘दुनियां में कोई धर्म नहीं सिखाता झगड़ा करना‘, या सभी धर्म प्रेम करना सिखाते हैं या फिर सभी नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं। सीधी सी बात है कि आदमी में कमी है इसलिये उसे नैतिकता सिखानी पढ़ती है। बंदरों में भी कुछ उस्ताद होते हैं पर वह अपनी जाति वालों को एैसी वैसी शिक्षा नहीं देते शायद कहीं वह इंसान न बना जाये। जो बंदर बचे हैं उनके उस्ताद शायद पहले ही इंसान बने जीवों की हालत जानते हैं इसलिये ही यह तय कर चुके हैं कि मिट जायेंगे पर इंसान नहीं बनेंगे। जो इंसान बन गये हैं वह भी भला क्या जाने? सदियों पहले ही उनके पूर्वजों ने इंसान बनने की राह पकड़ी। इसलिये अब तो सभी भूल गये है कि बंदर ही हमारे पूर्वज थे। आशय यह है कि जो आज भी बंदर हैं वह मूल रूप से ही नैतिक मार्ग पर चलने वाले हैं इसलिये शादी पर नाचते नहीं हैं और गमी पर रोने का स्वांग नहीं करते। अपने प्राकृतिक आशियानों में रहते हैं इसलिये मकान बनाने के लिये लोन लेने की न तो उनको आवश्यकता होती है न दूसरे दंदफंद करने की। इसलिये उनमें नैतिकता अधिक ही होगी कम नहीं । हां, इसकी जानकारी नहीं मिलती कि आदमी ने धर्म बदलकर इंसान बनना कब और कैसे शुरु किया जो उसे अब नैतिकता,प्रेम,अहिंसा और सदाचार की शिक्षा के लिये पुस्तकों पर निर्भर रहना पड़ता है।
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शराब पीना बन गयी है आज़ादी का पैमाना -हिंदी व्यंग्य कविता


अब खूब पीना शराब
नहीं कहेगा कोई खराब
क्योंकि वह आजादी का पैमाना बन गयी है
कदम बहकने की फिक्र मत करना
इंसानी हकों के के नाम पर लड़ने वाले
तुम्हें संभाल लेंगे
इंतजार में खड़े हैं मयखानों के बाहर
कोई लड़खड़ाता हुआ आये तो
उसे सजा सकें अपनी महफिल में
हमदर्दी के व्यापार के लिये
उनके ठिकानों पर दर्द लेकर आने वालों की
भीड़ कम हो गयी है
………………………….
अपनी अक्ल का इस्तेमाल करोगे
तो दुश्मन बहुत बन जायेंगे
क्योंकि दूसरों पर
अपनी समझ लादने वालों की भीड़ बढ़ गयी है
जो ढूंढते हैं कलम और तलवार
अपने हाथों में लेकर
जो सच में तुम आजाद दिखे तो
डर जायेंगे
आजादी की बात कर
वह तुम्हें गुलाम बनायेंगे
नहीं माने तो विरोधी बन जायेंगे

…………………………….

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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बहु ने लिखी कविताएँ-व्यंग्य शायरी


नयी बहू कवियित्री है
जब सास को पता लगी
तो उसकी परीक्षा लेने की बात दिमाग में आयी
उसने उससे अपने ऊपर कविता लिखने को कहा
तो बहू ने बड़ी खुशी से सुनाई
‘मेरी सास दुनियां में सबसे अच्छी
जैसे मैंने अपनी मां पायी
बोलना है कोयल की तरह
चेहरा है लगता है किसी देवी जैसा
क्यों न सराहूं अपना भाग्य ऐसा
चरण धोकर पीयूं
ऐसी सास मैंने पायी’

सास खुश होकर बोली
‘अच्छी कविता करती हो
लिखती रहना
मेरी भाग्य जो ऐसी बहू पाई’

दो साल बाद जब वह
कवि सम्मेलन जाने को थी तैयार
सास जोर से चिल्लाई
‘क्या समझ रखा है
घर या धर्मशाला
मुझसे इजाजत लिये बिना
जब जाती और आती हो
भूल जाओं कवि सम्मेलन में जाना
हमें तुम्हारी यह आदत नहीं समझ मंें आयी’

गुस्से में बहू ने अपनी यह कविता सुनाई
‘कौन कहता है कि सास भी
मां की तरह होती है
चाहे कितनी भी शुरू में प्यारी लगे
बाद में कसाई जैसी होती है
हर बात में कांव कांव करेगी
खलनायिका जैसा रूप धरेगी
समझ लो यह मेरी आखिरी कविता
जो पहली सुनाई थी उसके ठीक उलट
अब मत रोकना कभी
वरना कैसिट बनाकर रोज
सुनाऊंगी सभी लोगों को
तुम भूल जाओ अपना रुतवा
मैं नहीं छोड़ सकती कविताई’

सास सिर पीटकर पछताई
‘वह कौनसा मुहूर्त था जो
इससे कविता सुनी थी
और आगे लिखने को कहा था
अब तो मेरी मुसीबत बन आई
अब कहना है इससे बेकार
कहीं सभी को न सुनाने लगे
क्या कहेगा जब सुनेगा जमाई
वैसे ही नाराज रहता है
करने न लगे कहीं वह ऐसी कविताई

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भ्रष्ट पात्र किसी कहानी में में केन्द्रीय पात्र क्यों नहीं होता -आलेख


स्वतंत्रता के बाद देश का बौद्धिक वर्ग दो भागों में बंट गया हैं। एक तो वह जो प्रगतिशील है दूसरा वह जो नहीं प्रगतिशील नहीं है। कुछ लोग सांस्कृतिक और धर्मवादियों को भी गैर प्रगतिशील कहते हैं। दोनों प्रकार के लेखक और बुद्धिजीवी आपस में अनेक विषयों पर वाद विवाद करते हैं और देश की हर समस्या पर उनका नजरिया अपनी विचारधारा के अनुसार तय होता है। देश में बेरोजगारी,भुखमरी तथा अन्य संकटों पर पर ढेर सारी कहानियां लिखी जाती हैं पर उनके पैदा करने वाले कारणों पर कोई नहीं लिखता। अर्थशास्त्र के अंतर्गत भारत की मुख्य समस्याओं में ‘धन का असमान वितरण’ और कुप्रबंध भी पढ़ाया जाता है। बेरोजगारी,भुखमरी तथा अन्य संकट कोई समस्या नहीं बल्कि इन दोनों समस्याओं से उपजी बिमारियां हैं। जिसे हम भ्रष्टाचार कहते हैं वह कुप्रबंध का ही पर्यायवाची शब्द है। मगर भ्रष्टाचार पर समाचार होते हैं उन पर कोई कहानी लिखी नहीं जाती। भ्रष्टाचारी को नाटकों और पर्दे पर दिखाया जाता है पर सतही तौर पर।

अनेक बार व्यक्तियों के आचरण और कृतित्व पर दोनों प्रकार के बुद्धिजीवी आपस में बहस करते है। अपनी विचारधाराओं के अनुसार वह समय समय गरीबों और निराश्रितों के मसीहाओं को निर्माण करते हैं। एक मसीहा का निर्माण करता है दूसरा उसके दोष गिनाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सतही बहसें होती हैं पर देश की समस्याओं के मूल में कोई झांककर नहीं देखता। फिल्म,पत्रकारिता,नाटक और समाजसेवा में सक्र्रिय बुद्धिजीवियों तंग दायरों में लिखने और बोलने के आदी हो चुके हैं। लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया जिसमें स्वयं की चिंतन क्षमता तो किसी मेें विकसित हो ही नहीं सकती और उसमें शिक्षित बुद्धिजीवी अपने कल्पित मसीहाओं की राह पर चलते हुए नारे लगाते और ‘वाद’गढ़ते जाते हैं।

साहित्य,नाटक और फिल्मों की पटकथाओं में भुखमरी और बेरोजगारी का चित्रण कर अनेक लोग सम्मानित हो चुके हैं। विदेशों में भी कई लोग पुरस्कार और सम्मान पाया है। भुखमरी, बेरोजगारी,और गरीबी के विरुद्ध एक अघोषित आंदोलन प्रचार माध्यमों में चलता तो दिखता है पर देश के भ्रष्टाचार पर कहीं कोई सामूहिक प्रहार होता हो यह नजर नहंी आता। आखिर इसका कारण क्या है? किसी कहानी का मुख्य पात्र भ्रष्टाचारी क्यों नहीं हेाता? क्या इसलिये कि लोगों की उससे सहानुभूति नहीं मिलती? भूखे,गरीब और बेरोजगार से नायक बन जाने की कथा लोगों को बहुत अच्छी लगती है मगर सब कुछ होते हुए भी लालच लोभ के कारण अतिरिक्त आय की चाहत में आदमी किस तरह भ्रष्ट हो जाता है इस पर लिखी गयी कहानी या फिल्म से शायद ही कोई प्रभावित हो।
भ्रष्टाचार या कुप्रबंध इस देश को खोखला किये दे रहा है। इस बारे में ढेर सारे समाचार आते हैं पर कोई पात्र इस पर नहीं गढ़ा गया जो प्रसिद्ध हो सके। भ्रष्टाचार पर साहित्य,नाटक या फिल्म में कहानी लिखने का अर्थ है कि थोड़ा अधिक गंभीरता से सोचना और लोग इससे बचना चाहते हैं। सुखांत कहानियों के आदी हो चुके लेखक डरते हैं कोई ऐसी दुखांत कहानी लिखने से जिसमें कोई आदमी सच्चाई से भ्रष्टाचार की तरफ जाता है। फिर भ्रष्टाचार पर कहानियां लिखते हुए कुछ ऐसी सच्चाईयां भी लिखनी पड़ेंगी जिससे उनकी विचारधारा आहत होगी। अभी कुछ दिन पहले एक समाचार में मुंबई की एक ऐसी औरत का जिक्र आया था जो अपने पति को भ्रष्टाचार के लिये प्रेरित करती थी। जब भ्र्रष्टाचार पर लिखेंगे तो ऐसी कई कहानियां आयेंगी जिससे महिलाओं के खल पात्रों का सृजन भी करना पड़ेगा। दोनों विचारधाराओं के लेखक तो महिलाओं के कल्याण का नारा लगाते हैं फिर भला वह ऐसी किसी महिला पात्र पर कहानी कहां से लिखेंगे जो अपने पति को भ्रष्टाचार के लिये प्रेरित करती हो।
फिल्म बनाने वाले भी भला ऐसी कहानियां क्यों विदेश में दिखायेंगे जिसमें देश की बदनामी होती हो। सच है गरीब,भुखमरी और गरीबी दिखाकर तो कर्ज और सम्मान दोनों ही मिल जाते हैं और भ्रष्टाचार को केंदीय पात्र बनाया तो भला कौन सम्मान देगा।
देश में विचारधाराओं के प्रवर्तकों ने समाज को टुकड़ों में बांटकर देखने का जो क्रम चलाया है वह अभी भी जारी है। देश की अनेक व्यवस्थायें पश्चिम के विचारों पर आधारित हैं और अंग्रेज लेखक जार्ज बर्नाड शा ने कहा था कि ‘दो नंबर का काम किये बिना कोई अमीर नहीं बन सकता।’ ऐसे में अनेक लेखक एक नंबर से लोगों के अमीर होने की कहानियां बनाते हैं और वह सफल हो जाते हैं तब उनके साहित्य की सच्चाई पर प्रश्न तो उठते ही हैं और यह भी लगता है कि लोगा ख्वाबों में जी रहे। अपने आसपास के कटु सत्यों को वह उस समय भुला देते हैं जब वह कहानियां पढ़ते और फिल्म देखते हैं। भ्रष्टाचार कोई सरकारी नहीं बल्कि गैरसरकारी क्षेत्र में भी कम नहीं है-हाल ही में एक कंपनी द्वारा किये घोटाले से यह जाहिर भी हो गया है।

आखिर आदमी क्या स्वेच्छा से ही भ्रष्टाचार के लिये प्रेरित होता है? सब जानते हैं कि इसके लिये कई कारण हैं। घर में पैसा आ जाये तो कोई नहीं पूछता कि कहां से आया? घर के मुखिया पर हमेशा दबाव डाला जाता है कि वह कहीं से पैसा लाये? ऐसे में सरकारी हो या गैरसरकारी क्षेत्र लोगों के मन में हमेशा अपनी तय आय से अधिक पैसे का लोभ बना रहता है और जहां उसे अवसर मिला वह अपना हाथ बढ़ा देता है। अगर वह कोई चोरी किया गया धन भी घर लाये तो शायद ही कोई सदस्य उसे उसके लिये उलाहना दे। शादी विवाहों के अवसर पर अनेक लोग जिस तरह खर्चा करते हैं उसे देखा जाये तो पता लग जाता है कि किस तरह उनके पास अनाप शनाप पैसा है।
कहने का तात्पर्य है कि हर आदमी पर धनार्जन करने का दबाव है और वह उसे गलत मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है। जैसे जैसे निजी क्षेत्र का विस्तार हो रहा है उसमें भी भ्रष्टाचार का बोलबाला है। नकली दूध और घी बनाना भला क्या भ्रष्टाचार नहीं है। अनेक प्रकार का मिलावटी और नकली सामान बाजार में बिकता है और वह भी सामाजिक भ्रष्टाचार का ही एक हिस्सा है। ऐसे में भ्रष्टाचार को लक्ष्य कर उस पर कितना लिखा जाता है यह भी देखने की बात है? यह देखकर निराशा होती है कि विचारधाराओं के प्रवर्तकों ने ऐसा कोई मत नहीं बनाया जिसमें भ्रष्टाचार को लक्ष्य कर लिखा जाये और यही कारण है कि समाज में उसके विरुद्ध कोई वातावरण नहीं बन पाया। इन विचाराधाराओं और समूहों से अलग होकर लिखने वालों का अस्तित्व कोई विस्तार रूप नहीं लेता इसलिये उनके लिखे का प्रभाव भी अधिक नहीं होता। यही कारण है कि भ्रष्टाचार अमरत्व प्राप्त करता दिख रहा है और उससे होने वाली बीमारियों गरीबी,बेरोजगारी और भुखमरी पर कहानियां भी लोकप्रिय हो रही हैं। शेष फिर कभी
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कंपनी कभी देवता तो कभी दानव -आलेख


कंपनियों का सच यही है कि वह आम निवेशक और उपभोक्ता और अपने कर्मचारी का शोषण करने के लिये बनायी जाती हैं। प्राचीन व्यापार में सेठ साहूकार यही काम करते थे पर जैसे लोगों के जागृति बढ़ने लगी उनके चेहरे स्याह दिखने लगे। तब कंपनी नाम का एक ऐसा दैत्य खड़ा किया जिसमें शोषक और अनाचारी व्यक्ति का चेहरा नहीं दिखता क्योंकि वह एक बोर्ड या तख्ती दिखाई देती है। पहले भी बोर्ड या तख्ती दिखती थी पर सेठ साहूकार की साख ही उसके साथ जुड़ी होती थी। तब यह भी निश्चित था कि आदमी के व्यापार के साथ उसका मालिक भी बदनाम होता था।
वैसे तो भारत में भी कंपनियों का प्रचलन बहुत समय से है पर पिछले बीस वर्षों से कंपनी शब्द भी आम जनता में प्रचलित हो गया है।

अमेरिका के नये राष्ट्रपति ओबामा ने अपने देश की कंपनियों के कामकाज के रवैये पर तीखी नाराजगी प्रकट की है। इसका कारण यह है कि वह एक तरफ मंदी की वजह से अपनी आय कम होने के संकट का प्रचार कर रही हैं दूसरी ओर अपने ही उच्चाधिकारियों को बोनस बांटने में लगी हैं-जी हां, यही कंपनियां सामान्य कर्मचारी को भी निकालने पर तुली हैंं। एक तरफ अपने संकट से उबरने के लिये सरकार से राहत की मांग और दूसरी तरफ अपने उच्चाधिकारियों को बोनस देना विरोधाभासी है। दरअसल कंपनी के उच्चाधिकारी भी अपने आपको सेवक के रूप में प्रस्तुत करते हैं, पर वह होते तो पुराने सेठ साहुकारों की तरह हैं। अंतर केवल यह है कि सुठ साहुकार अपनी जेब से भी पैसा लगाते थे पर यह आजकल के कंपनी प्रमुख सारे मजे सामान्य कर्मचारी के परिश्रम, आमभोक्ता के शोषण और निवेशक के धन से करना चाहते हैं। कंपनी बनाने वाले शायद ही कभी अपनी जेब से पैसा लगाते हों पर उनके ठाठ ऐसे होते हैं जैसे कि उनका खुद का धन हों। कंपनी नाम के देवता ने कई लोगों के जमीन से उठाकर आसमान में पहुंचा दिया पर इसी कंपनी नाम के दानव ने उनको आम आदमी के कर्मचारी,श्रमिक, और अपभोक्ता के शोषण का वरदान भी प्रदान किया।
समय बदल रहा है। वैश्वीकरण ने जहां बाजार को व्यापक आधार प्रदान किया है वहीं लोगों को प्रचार के शक्तिशाली माध्यम भी प्रदान किये हैं। अभी तक कंपनियां एक अंधेरे कुुएं की तरह थी पर मंदी के सूरज ने उन पर ऐसी रोशनी डाली है कि उनकी पोल पूरी दुनियों को दिखाई दे रही है।
पूरे विश्व के अनेक देशों में अनेक कंपनियों ने किसी न किसी तरह सरकारी खजाने पर अपना हाथ साफ किया है-हालांकि कई प्रसिद्ध कंपनियां इसका अपवाद भी हैं। इन्हीं कपंनी संगठनों ने इतनी शक्ति अर्जिकत कर ली कि वह सरकार बनाने और बिगाड़ने तक के काम अपनी इच्छानुसार सफलता पूर्वक कर लेती हैं। अब इस मंदी ने उनको पिचका दिया है। कहते हैं कि अमेरिका में पहली बार कोई अश्वेत व्यक्ति राष्ट्रपति बना और यह विश्व में बदलाव का संकेत है। अमेरिका में कंपनियों पर भी श्वेतों का वर्चस्व रहा और राष्ट्रपति पद पर भी। अब कंपनियों की पकड़ मंदी से संघर्ष के कारण कमजोर हो गयी है तो क्या यह बदलाव इसी कारण स्वाभाविक रूप से आ गया या कंपनियों ऐसा कुछ करने का समय नहीं निकाल सकंीं। इसका प्रमाण है कि अभी तक अमेरिका के राष्ट्रपति कभी अपने देश की कंपनियों के विरुद्ध नहीं बोलते थे पर नये अश्वेत राष्ट्रपति ने उनकी आलोचना कर यह साबित कर दिया कि कंपनी नाम के संगठन अब इतने मजबूत नहीं रहने वाले। कंपनियों में पैसा अनेक लोगों का होता है और उसके अनेक सामान्य कर्मचारी कार्यरत होते हैं पर उच्च अधिकारी-एक तरह से कहा जाये आजकल के सेठ-अपने हिसाब से मनमाने निर्णय लेते हैं। आपने सुना होगा कि अनेक कंपनियां प्रसिद्ध फिल्मी, खेल तथा समाज सेवा के क्षेत्र में कार्यरत हस्तियों को सम्मानित करने के साथ महंगे उपहार भी देती हैं। बाहर से सामान्य दिखने वाली इस बात पर अनेक लोग संशय अपने संशय भी भी व्यकत करते हैं। एक तो ऐसे सम्मानों और उपहारों का कंपनी के व्यापार से कोई संबंध नहीं होता दूसरा उसमें आम निवेशक की कोई भूमिका नहीं होती। हां, कथित उच्चाधिकारी इससे अपना नाम कमाने के साथ कंपनी से अलग अपनी भूमिका और छबि बनाने के लिये इसी तरह पैसा व्यय करते हैं। यही स्थिति कंपनियों के उत्पादों के विज्ञापनों के साथ भी है। कई कंपनियां बहुत प्रसिद्ध हैं और वह अपनी उत्पादों का विज्ञापन न भी करें तो भी उनकी बिक्री पर अंतर नहीं पड़े पर उसके उच्चाधिकारी प्रचार माध्यमों से अच्छे संबंध बनाने के लिये महंगी दरों पर विज्ञापन देकर अपने लिये एक सामाजिक सुरक्षा प्राप्त करते हैं जिससे उनके एक व दो नंबर दोनों प्रकार की गतिविधियां जान सामान्य के परिदृश्य में न आये। बहरहाल कंपनी संगठन आधुनिक व्यवस्था में आर्थिक और सामाजिक से बहुत शक्ति प्राप्त कर लेते हैं और उसके उच्चाधिकारी अपने विवेक के अनुसार उसका सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों ही करने में समर्थ होते हैं। वैसे उदारीकरण के प्रांरम्भिक दौर में कई कंपनियां कुकुरमुतों की तरह उगे आयीं थीं और उसमें लोगों ने विनिवेश कर अपने पैसे गंवाये। अनेक कंपनियों के तो अब नाम भी नहीं आते। हां, कुछ पुरानी और प्रतिष्ठित कंपनियां आज भी लोगों के लिये बहुत बेहतर हैं और उसमें वह विनिवेश करते हैं। आजकल लोग कंपनियों के प्रबंधकों का नाम देखकर ही उस पर विश्वास या अविश्वास करते हैं। यह अलग बात है कि कभी कभी प्रसिद्ध और ईमानदार नाम जुड़े होने के बावजूद भी धोखे की गुंजायश तो रहती ही है।

इसमें भी कोई संशय नहीं है कि यह कंपनी संगठन ही है जिन्होंने पूरे विश्व में तकनीकी,सूचना,इंटरनेट तथा अन्य प्रचार माध्यमों को व्यापक आधार प्रदान किया पर अब उनका काला पक्ष भी लोगों के सामने आने लगा है। ऐसे में वही कंपनियां अपनी साख बचा सकेंगे जिनके प्रमुख वाकई प्रबंध कौशल में दक्ष होने के साथ नैतिकता और ईमानदारी के आधारों पर भी काम करेंगे। हालांकि कंपनी एक ऐसा व्यवसायिक स्वरूप है जिसमें देवत्व और दानवता दोनों साथ ही विद्यमान रहते हैं।
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खाकपति से बने करोड़पति पर कहानी-हास्य व्यंग्य कविताएँ


फिल्मों की कहानी में
गंदी बस्ती का लड़का
करोड़पति बन जाता है
पर हकीकत में भला कहां
कोई ऐसा पात्र नजर आता है
यह तो है बाजार के प्रचार का खेल
जो पहले करोड़पति बनने वाले
सवाल जवाब का कार्यक्रम बनाता है
उठते हैं उसकी सच्चाई पर सवाल
पर भला झूठ और ख्वाब के सौदागर
पर उसका असर कहां आता है
फिर बाजार रचता है
गंदी बस्ती का एक काल्पनिक पात्र
जो करोड़पति का इनाम जीत जाता है
प्रचार फिर उस काल्पनिक पात्र पर जाता है
सच कहते हैं एक झूठ सच बोलो
तो वह सच नजर आता है
……………………………….
अमीरों में कभी भेद नहीं होता
पर गरीबों में बना दिये
जाति,भाषा और धर्म के कई भेद
करते हैं बाजार के सौदागर
समय पर अपना शासन चलाने के लिये
उसमें बहुत छेद
जिसका तूती बोलती है
उसी वर्ग के गरीब की तूती बजाते
भले ही उनके काम भी नहीं आते
पर दूसरे को तकलीफ पहुंचाते हुए
उनके मन में नहीं होता खेद
…………………..
एक गरीब ने कहा दूसरे से
चलता है करोड़पति देखने
सुना है फिल्म में बहुत मजा आता है’
दूसरे ने कहा
‘पहले पता करूंगा कि
उसमें नायक के फिल्मी नाम की जाति कौनसी है
फिर चलूंगा
अगर तेरी जाति का नाम हुआ तो
मुझे गुस्सा आ जायेगा
करोड़पति बने या रहे खाकपति
मुझे तो अपनी जाति के नायक के फिल्मी नाम पर बनी
फिल्म देखने में ही मजा आता है

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पब में पीने से शराब कोई अमृत नहीं हो जाती -हास्य कविता


नयी धोती, कुरता और टोपी पहनकर
बाहर जाने को तैयार हुए
कि आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू
अच्छा हुआ तैयार हुए मिल गये
समय बच जायेगा
चलो आज अपने भतीजे के पब के
उदघाटन कार्यक्रम में तुम्हें भी ले जाता।
वहां तुम्हें पांचवें नंबर का अतिथि बनाता।
किसी ने नहीं दिया होगा ऐसा सम्मान
जो मैं तुम्हें दिलाता
खाने के साथ जाम भी पिलाता’।

सुनकर क्रोध में भर गये
फिर लाल लाल आंखें करते हुए बोले
दीपक बापू
‘कमबख्त जब भी मेरे यहां आना
प्यार में हो या गुस्से में जरूर देना ताना
पब में पीने से
शराब का कोई अमृत नहीं बन जाता।
पीने वाला पीकर तामस
प्रवृत्ति का ही हो जाता ।
झगड़े पीने वाला शुरु करे या दूसरा कोई
बदनाम तो दोनों का नाम हो जाता।
शराब कोई अच्छी चीज नहीं
इसलिये घर में सभी को पीने में लज्जा आती
बाहर पियें दोस्तों के साथ महफिल में
तो कभी झगड़ों की खबर आती
शराब-खाने के नाम पर कान नहीं देंगे लोग
इसलिये पब के नाम से खबर दी आती
शराब का नाम नहीं होता
इसलिये वह सनसनी बन जाती
शराब पीने पर फसाद तो हो ही जाते हैं
शराब की बात कहें तो असर नहीं होता
इसलिये खाली पब के नाम खबर में दिये जाते हैं
पिटा आदमी शराबी है
इसे नहीं बताया जाता
क्योंकि उसके लिये जज्बात पैदा कर
सनसनी फैलाने के ख्वाब मिट जाते हैं
पब नाम रखा जाता है इसलिये कि
शराब का नाम देने में सभी शरमाते हैं
वहां हुए झगड़ों में भी
अब ढूंढने लगे जाति,धर्म,भाषा और लिंग के भेद
ताकि शराब पीकर पिटने वालों के लिये
लोगों में पैदा कर सकें खेद
रखो तुम अपने पास ही उदघाटन का सम्मान
कभी पब पर कुछ हुआ तो
हम भी हो जायेंगे बदनाम
वैसे भी हम नहीं पीते अब जाम
अंतर्जाल पर हास्य कवितायें लिखकर ही
कर लेते हैं नशा
हमें तो अपना कंप्यूटर ही पब नजर आता है

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दर्द बयां करते हुए हो जाता है भुलावा-व्यंग्य कविताएँ


चेहरे हैं उनके सजे हुए
अपने घर पर उन्होंने
पत्थर और प्लास्टिक के फूल सजाये हैं
अपनी जुबान से बात करते हैं
वह ईमान और वफा की
पर अपने करते नहीं वह धंधे जो
उन्होंने सभी को बताये हैं
नाम तो हैं बड़े आकर्षक पर
काम का कोई भरोसा नहीं है
कौन बिक जाये यहां
पता नहीं लगता
आजाद तो सभी दिखते हैं
चाल और चरित्र में ‘सत्य’ लिखते हैं
पर सवाल उठता है
फिर इतने सारे इंसान
गुलामों के बाजार में
बिकने कहां से आये हैं
फूल तो है सभी के एक हाथ में
पर दूसरे हाथ में पीठ पीछे
सभी खंजर सजाये हैं

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पुरानी इबारतें-हिंदी शायरी
जब भी अपने दिल का हाल
दूसरें को हम सुनाते हैं
तब उस पर हंसने वालों को
भेजते है बुलावा
दर्द बयां करते हुए हो जाता है भुलावा
जिनके सहारे लेकर दोस्त भी दुश्मन बनकर
कमजोर जगहों पर वार कर जाते हैं
पुरानी इबारतों को पढ़ना हमेशा
बुरा नहीं होता
जिन में धोखे और गद्दारी पर
ढेर सारे किस्से हैं दर्ज
जिनमें इंसानी रिश्ते
वफा की तरफ कम
बेवफाई की तरफ अधिक जाते हैं।

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जिंदगी क्या जंग से कम है-लघुकथा


उसकी मां आई.सी.यू में भर्ती थी। वह और उसका चाचा बाहर टहल रहे थे। उसने चाचा से पूछा-‘चाचाजी, आपको क्या लगता है कि पाकिस्तान से भारत की जंग होगी।’

चाचा ने कहा-‘पता नहीं! अभी तो हम दोनों यह जंग लड़ ही रहे हैं।’

इतने में नर्स बाहर आयी और बोली-‘तीन नंबर के मरीज को देखने वाले आप ही लोग हैं न! जाकर यह दवायें ले आईये।’

युवक ने पूछा-‘‘आप ने अंदर कोई दवाई दी है क्या?’

नर्स ने कहा-‘ नहीं! अभी तो चेकअप कर रहे हैं। उनके कुछ और चेकअप होने हैं जो आप जाकर बाहर करायें। हमारी मशीनें खराब पड़ीं हैं। अभी यह दवायें आप ले आयें।

लड़का दवा लेने चला गया। रास्ते में एक फलों का ठेला देखा और अपनी मां के लिये पपीता खरीदने के लिये वहां रुक गया। उसी समय दो लड़के वहां आये और उस ठेले से कुछ सेव उठाकर चलते बने।

ठेले वाला चिल्लाया-‘अरे, पैसे तो देते जाओ।’

उन लड़कों में एक लड़के ने कहा-‘अबे ओए, तू हमें जानता नहीं। अभी हाल जाकर ढेर सारे दोस्त ले आयेंगे तो पूरा ठेला लूट लेंगे।’

ठेले वाले ने कहा-‘ढंग से बात करो। मैं भी पढ़ा लिखा हूं। इधर आकर पैसे दो।’

उनमें एक लड़का आया और उसके गाल पर थप्पड़ जड़ दिया। वह ठेले वाला सकते में आया और लड़के वहां से चलते बने।’

ठेले वाला गालियां देता रहा। फिर पपीता तौलकर उस युवक से बोला-‘साहब, क्या लड़ेगा यह देश किसी से। आतंक आतंक की बात करते हैं तो पर यह घर का आतंक कौन खत्म करेगा? गरीब और कमजोर आदमी का इज्जत से जीना मुश्किल हो गया है और बात करते हैं कि बाहर से आतंक आ रहा है।

वह दवायें लेकर वापस लौटा। उसने अपनी दवायें नर्स को दी। वह अंदर चली गयी तो उसने अपने चाचा को बताया कि एक हजार की दवायें आयीं हैं। उसने चाचा से कहा-‘चाचाजी, यहां आते आते पंद्रह सौ रुपये खर्च हो गये हैं। अगर कुछ पैसे जरूरत पड़ी तो आप दे देंगे न! बाद में मैं आपको दे दूंगा।’

चाचा ने हंसकर कहा-‘अगर मुझे मूंह फेरना होता तो यहां खड़ा ही क्यों रहता? तुम चाहो तो अभी पैसे ले लो। बाद में देना। तुम्हारी मां ने मुझे देवर नहीं बेटे की तरह पाला है। उसकी मेरे ऊपर भी उतनी ही जिम्मेदारी है जितनी तुम्हारी।’

इतने में वही नर्स वहां आयी और एक पर्चा उसके हाथ में थमाते हुए बोली-‘डाक्टर साहब बोल रहे हैं यह इंजेक्शन जल्दी ले आओ।’

युवक वह इंजेक्शन ले आया और फिर चाचा से बोला-‘मेडीकल वाले में बताया कि यह इंजेक्शन तो अक्सर मरीजों को लगता है। वह यह भी बता रहा था कि इन अस्पताल वालों को ऐसे ही इंजेक्शन मिलते हैं पर यह कभी मरीज को नहीं लगाते बल्कि बाजार में बेचकर पैसा बचाते हैं।’

चाचा ने कहा-‘हां, यह तो आम बात है। सार्वजनिक अस्पताल तो अब नाम को रह गये हैं। वह दवाईयां क्या डाक्टर ही देखने वाला मिल जाये वही बहुत है।’

वह कम से कम तीन बार दवाईयां ले आया। धीरे धीरे उसकी मां ठीक होती गयी। एक दिन उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गयी। बाद में वह युवक बाजार में अपने सड़क पर सामान बेचने के ठिकाने पर पहुंचा। उसने अभी अपना सामान लगाया ही था कि हफ्ता लेने वाला आ गया। युवक ने उससे कहा-‘यार, मां की तबियत खराब थी। कल ही उनको आई.सी.यू. से वापस ले आया। तुम कल आकर अपना पैसा ले जाना।’

हफ्ता वसूलने वाले ने कहा-‘ओए, हमारा तेरी समस्या से कोई मतलब नहीं है। हम कोई उधार नहीं वसूल नहीं कर रहे। हमारी वजह से तो तू यहां यह अपनी गुमटी लगा पाता है।’

युवक ने हंसकर कहा-‘भाई, जमीन तो सरकारी है।’

हफ््ता वसूलने वाले ने कहा-‘फिर दिखाऊं कि कैसे यह जमीन सरकारी है।’

युवक ने कहा-‘अच्छा बाद में ले जाना। कम से कम इतना तो लिहाज करो कि मैंने अपनी मां की सेवा की और इस कारण यहां मेरी कमाई चली गयी।’

हफ्ता वसूली करने वाले ने कहा-‘इससे हमें क्या? हमें तो बस अपने पैसे से काम है? ठीक है मैं कल आऊंगा। याद रखना हमें पैसे से मतलब हैं तेरी समस्या से नहीं। ’

वह हफ्तावसूली वाला मुड़ा तो उसी समय एक जूलूस आ रहा था। जुलूस में लोग देश भक्ति जाग्रत करने के लिये आतंक विरोधी तख्तियां लिये हुए थे। उसमें उसे वह दो लड़के भी दिखाई दिये जिन्होंने फल वाले के सेव लूटकर उसको थप्पड़ भी मारी थी। उन्होंने हफ्तावसूल करने वाले को देखा तो बाहर निकल आये और उससे हाथ मिलाया।’

उसके निकलने पर युवक के पास गुमटी लगाने वाले दूसरे युवक ने कहा-‘यार, तेरे को क्या लगता है जंग होगी?’

पहले युवक ने आसमान की तरफ देखा और कहा-‘अभी हम लोगों के लिये यह जिंदगी क्या जंग से कम है?’

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मैंने कुछ सुधार कर दिया है अगर आप मेरे ब्लॉग का और मेरा पूरा नाम दें तो अच्छा रहेगा. मेरी आपको शुभकामनाएं

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यह प्यार है बाजार का खेल-व्यंग्य कविता


खूब करो क्योंकि हर जगह
लग रहे हैं मोहब्बत के नारे
बाजार में बिक सकें
उसमें करना ऐसे ही इशारे
उसमें ईमान,बोली,जाति और भाषा के भी
रंग भरे हों सारे
जमाने के जज्बात बनने और बिगड़ने के
अहसास भी उसमें दिखते हांे
ऐसा नाटक भी रचानां
किसी एकता की कहानी लिखते हों
भले ही झूठ पर
देश दुनियां की तरक्की भी दिखाना
परवाह नहीं करना किसी बंधन की
चाहे भले ही किसी के
टूटकर बिखर जायें सपने
रूठ जायें अपने
भले ही किसी के अरमानों को कुचल जाना
चंद पल की हो मोहब्बत कोई बात नहीं
देखने चले आयेंगे लोग सारे
हो सकती है
केवल जिस सर्वशक्तिमान से मोहब्बत
बैठे है सभी उसे बिसारे

……………………………
जगह-जगह नारे लगेंगे
आज प्यार के नारे
बाहर ढूंढेंगे प्यार घर के दुलारे
प्यार का दिवस वही मनाते
जो प्यार का अर्थ संक्षिप्त ही समझ पाते
एक कोई साथी मिल जाये जो
बस हमारा दिल बहलाए
इसी तलाश में वह चले जाते

बदहवास से दौड़ रहे हैं
पार्क, होटल और सड़क पर
चीख रहे हैं
बधाई हो प्रेम दिवस की
पर लगता नहीं शब्दों का
दिल की जुबान से कोई हो वास्ता
बसता है जो खून में प्यार
भला क्या वह सड़क पर नाचता
अगर करे भी कोई प्यार तो
भला होश खो चुके लोग
क्या उसे समझ पाते
प्यार चाहिऐ और दिलदार चाहिए के
नारे लगा रहे
पर अक्ल हो गयी है भीड़ की साथी
कैसे होगी दोस्त और दुश्मन की पहचान
जब बंद है दिमाग से दिल की तरफ
जाने का रास्ता
अँधेरे में वासना का नृत्य करने के लिए
प्यार का ढोंग रचाते
यह प्यार है बाजार का खेल
शाश्वत प्रेम का मतलब
क्या वाह जानेंगे जो
विज्ञापनों के खेल में बहक जाते

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समाज, संस्कार और संस्कृति की रक्षा का प्रश्न-आलेख


हम अक्सर अपने संस्कार और संस्कृति के संपन्न होने की बात करते हैं। कई बार आधुनिकता से अपने संस्कार और संस्कृति पर संकट आने या उसके नष्ट होने का भय सताने लगता है। आखिर वह संस्कृति है क्या? वह कौनसे संस्कार है जिनके समाप्त होने का भय हमें सताता है? इतना ही नहीं धार्मिक आस्था या विश्वास के नाम पर भी बहस नहीं की जाती। कोई प्रतिकूल बात लगती है तो हाल आस्था और विश्वास पर चोट पहुंचने की बात कहकर लोग उत्तेजित हो जाते हैे।

कभी किसी ने इसका विश्लेषण नहीं किया। कहते हैं कि हमारे यहां आपसी संबंधों का बड़ा महत्व है, पर यह इसका तो विदेशी संस्कृतियों में भी पूरा स्थान प्राप्त है। छोटी आयु के लोगों को बड़े लोगों का सम्मान करना चाहिये। यह भी सभी जगह होता है। ऐसे बहुत विषय है जिनके बारे में हम कहते हैं कि यह सभी हमारे यहां है बाकी अन्य कहीं नहीं है-यह हमारा भ्रम या पाखंड ही कहा जा सकता है।

स्वतंत्रता के बाद कई विषय बहुत आकर्षक ढंग से केवल ‘शीर्षक’ देकर सजाये गये जिसमें देशभक्ति,आजादी,भाषा प्रेम,देश के संस्कार और आचार विचार संस्कृति शामिल हैं। धार्मिक आजादी के नाम पर तो किसी भी प्रकार की बहस करना ही कठिन लगता है क्योंकि धर्म पर चोट के नाम पर कोई भी पंगा ले सकता है। देश में एक समाज की बात की गयी पर जाति,भाषा,धर्म और क्षेत्र के आधार पर बने समाजों और समूहों के अस्तित्व की लड़ाई भी योजनापूर्वक शुरु की गयी। बोलने की आजादी दी गयी पर शर्तों के साथ। ऐसे में कहीं भी सोच और विचारों की गहराई नहीं दिखती।

कभी कभी यह देखकर ऊब होने लगती है कि लोगों सोच नहीं रहे बल्कि एक निश्चित किये मानचित्र में घूम कर अपने विचारक,दार्शनिक,लेखक और रचनाकार होने की औपचारिकता भर निभा रहे हैं। नये के नाम एक नारे या वाद का मुकाबला करने के लिये दूसरा नारा या वाद लाया जाता है। फिल्म, पत्रकारिता,समाजसेवा या अन्य आकर्षक और सार्वजनिक क्षेत्रों में नयी पीढ़ी के नाम पर पुराने लोगों के परिवार के युवा लोगा ही आगे बढ़ते आ रहे हैं। ऐसा लगता है कि समाज जड़ हो गया है। अमीर गरीब, पूंजीपति मजदूर और उच्च और निम्न खानदान के नाम पर स्थाई विभाजन हो गया है। परिवर्तन की सीमा अब उत्तराधिकार के दायरे में बंध गयी है। कार्ल माक्र्स से अनेक लोग सहमत नहीं होते पर कम से कम उनके इस सिद्धांत को कोईै चुनौती नहीं दे सकता कि इस दुनियां में दो ही जातियां शेष रह गयीं हैं अमीर गरीब या पूंजीपति और मजदूर।

भारतीय समाज वैसे ही विश्व में अपनी रूढ़ता के कारण बदनाम है पर देखा जाये तो अब समाज उससे अधिक रूढ़ दिखाई देता हैं। पहले कम से कम रूढ़ता के विरुद्ध संघर्ष करते कुछ लोग दिखाई देते थे पर अब तो सभी ं ने यह मान लिया है कि परिवर्तन या विकास केवल सरकार का काम है। यहा तक कि समाज का विकास और कल्याण भी सरकार के जिम्मे छोड़ दिया गया है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भगतसिंह,चंद्रशेखर आजाद और अशफाकुल्ला के प्रशंसक तो बहुत मिल जायेंगे पर कोई नहीं चाहेगा कि उनके घर का लाल इस तरह बने। यह सही है कि अब कोई आजादी की लड़ाई शेष नहीं है पर समाज के लिये अहिंसक और बौद्धिक प्रयास करने के लिये जिस साहस की आवश्यकता है वह कोई स्वतंत्रता संग्राम से कम नहीं है।
अब कभी यहां राज राममोहन राय,कबीर,विवेकानेद,रहीम और महर्षि दयानंद जैसे महापुरुष होंगे इसकी संभावना ही नहीं लगती क्योंकि अब लोग समाज में सुधार नहीं बल्कि उसका दोहन करना चाहते हैं। वह चाहे दहेज के रूप में हो या किसी धार्मिक कार्यक्रम के लिये चंदा लेना के।

कभी कभी निराशा लगती है पर जब अंतर्जाल पर लिखने वाले लोगों को देखते हैं तो लगता है कि ऐसा नहीं है कि सोचने वालों की कमी है पर हां समय लग सकता है। अभी तक तो संचार और प्रचार माध्यमों पर सशक्त और धनी लोगोंं का कब्जा इस तरह रहा है कि वह अपने हिसाब से बहस और विचार के मुद्दे तय करते हैं। अंतर्जाल पर यह वैचारिक गुलामी नहीं चलती दिख रही है। मुश्किल यह है कि रूढ़ हो चुके समाज में बौद्धिक वर्ग के अधिकतर सदस्य कंप्यूटर और इंटरनेट से कतरा रहे हैं। उनको अभी भी इसकी ताकत का अंदाजा नहीं है समय के साथ जब इसको लोकप्रियता प्राप्त होगी तो परिवर्तन की सोच को महत्व मिलेगा। वैसे जिन लोगों की समाज के विचारकों, चिंतकों और बुद्धिजीवियों को गुलाम बनाने की इच्छा है वह लगातार इस पर नजर रख रहे है कि कहीं यह आजाद माध्यम लोकप्रिय तो नहंी हो रहा है। जब यह लोकप्रिय हो जायेगा तो वह यहां भी अपना वर्चस्व कायम करने का प्रयास करेंगे।

मुख्य बात यह नहीं कि विषय क्या है? अब तो इस बात का प्रश्न है कि क्या लोगों की सोच नारे और वाद की सीमाओं से बाहर निकल पायेगी क्योंकि उसे दायरों में बांधे रखने का काम समाज के ताकतवर वर्ग ने ही किया है। जब हम किसी विषय पर सोचे तो उसक हर पहलू पर सोचें। नया सोचें। देश की कथित संस्कृति या सस्कारों पर भय की आशंकाओं से मुक्त होकर इस बात पर विचार करें कि लोगोंं के आचरण में जो दोहरापन उसे दूर करें। हमारे समाज की कथनी और करनी में अंतर साफ दिखाई देता है और इसी कारण समाज के संस्कार और संस्कृति की रक्षा करने का विषय उठाया जाता है वह अच्छा लगता है पर नीयत भी देखना होगी जो केवल उसका दोहन करने तक ही सीमित रह जाती है। इसी कथनी करनी के कारण भारतीय समाज के प्रति लोगों के मन में देश तथ विदेश दोनों ही जगह संशय की स्थिति है। शेष किसी अगले अंक में
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डुप्लीकेट खाने के आतंक के साये में-हास्य व्यंग्य


देश में आतंकवाद को लेकर तमाम तरह की चर्चा चल रही है। अनेक तरह की संस्थायें शपथ लेने के लिये कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। अनेक जगह छात्र और शिक्षक सामूहिक रूप से शपथ ले रहे हैं तो कई कलाकार और लेखक भी इसी तरह ही योगदान कर रहे हैं। सवाल यह है कि क्या आतंकवाद से आशय केवल बम रखकर या बंदूक चलाकर सामूहिक हिंसा करने तक ही सीमित है? टीवी पर ऐसे डरावने समाचार आते हैं भले ही वह उसमें आंतक जैसा कोई रंग नहीं देखते पर आदमी के दिमाग में वैसे ही खौफ छा जाता है जैसे कि कहीं बम या बंदूक की घटना से होता है। उस समय बम और बंदूक की हिंसा का परिदृश्य भी फीका नजर आता है।
हुआ यूं कि उस दिन कविराज बहुत सहमे हुए से एक डाक्टर के पास जा रहे थे। अपने सिर पर उन्होंने टोपी पहन ली और मुंह में नाक तक रुमाल बांध लिया। हुआ यूं कि उनकी कुछ कवितायें किसी पत्रिका में छपी थीं। जो संभवतः फ्लाप हो गयी क्योंकि जिन लोगों ने उसे पढ़ा वह उसके कविता के रचयिता कवि से उनका अर्थ पूछने के लिये ढूंढ रहे थे। पत्रिका कोई मशहूर नहीं थी इसलिये कुछ लोगों को फ्री में भी भेजी जाती थी। उनमें कविराज की कवितायें कई लोगों को समझ में नही आयी और फिर वह उनसे वैसे ही असंतुष्ट थे और अब बेतुकी कविता ने उनका दिमाग खराब कर दिया था। वह कवि से वाक्युद्ध करने का अवसर ढूंढ रहे थे। कविराज उस दिन घर से इलाज के लिये यह सोचकर ही निकले कि कहीं किसी से सामना न हो जाये और इसलिये अपना चेहरा छिपा लिया था।

मन में भगवान का नाम लेते हुए वह आगे बढ़ते जा रहे थे डाक्टर का अस्पताल कुछ ही कदम की दूरी पर था तब उन्होंने चैन की सांस ली कि चल अब अपनी मंजिल तक आ गये। पर यह क्या? डाक्टर के अस्पताल से आलोचक महाराज निकल रहे थे। वह उनके घोर विरोधी थै। वैसे उन्होंने कविराज की कविताओं पर कभी कोई आलोचना नहीं लिखी थी क्योंकि वह उनको थर्ड क्लास का कवि मानते थे। दोनों एक ही बाजार में रहते थे इसलिये जब दोनेां का जब भी आमना सामना होता तब बहस हो जाती थी।

दोनों की आंखें चार हुईं। आलोचक महाराज शायद कविराज को नहीं पहचान पाते पर चूंकि वह घूर कर देख रहे थे तो पहचान लिये गये। आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम कविराज हो न! हां, पहचान लिया। देख ली तुम्हारी सूरत अब तो वापस डाक्टर के पास जाता हूं कि कोई ऐसी गोली दे जिससे किसी नापसंद आदमी की शक्ल देखने पर जो तनाव होता है वह कम हो जाये।’

कविराज के लिये यह मुलाकात हादसे से कम नहीं थी। अपनी छपी कविताओं की चर्चा न हो इसलिये कविराज ने सहमते हुए कहा-‘क्या यार, बीमारी में भी तुम बाज नहीं आते।
आलोचक महाराज ने कहा-‘हां, यही तो मैं कह राह हूं। मैं जुकाम की वजह से परेशान हूं और तुम अपना थोबड़ा सामने लेकर आ गये। शर्म नहीं आती। यहां क्यों आये हो?’
कविराज ने बड़ी धीमी आवाज में कहा-‘ डाक्टर के पास कोई आदमी क्यों जाता हैं? यकीनन कोई कविता सुनाने तो जाता नहीं।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘मगर हुआ क्या? बुखार,जुकाम,खांसी या सिरदर्द? कोई बडी बीमार तो हुई नहीं हुई क्योंकि खुद ही चलकर आये हो।’
कविराज ने कहा-‘तुम्हें क्यों अपनी बीमारी बताऊं? तुम मेरी कविता पर तो आलोचना लिखोगे नहीं पर बीमारी पर कुछ ऐसा वैसा लिखकर मजाक उड़ाओगे।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘मैं तुम्हारी तरह नहीं हूं जो इस बीमारी में भी मेरे को शक्ल दिखाने आ गये। बताने में क्या जाता है? हो सकता है कि मैं इससे कोई अच्छा डाक्टर बता दूं। यह डाक्टर अपना दोस्त है पर इतना जानकार नहीं है।’
कविराज ने कहा-‘बीमारी तो नहीं है पर हो सकती है। मैं सावधानी के तौर पर दवाई लेने आया हूं।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘ कर दी अपने बेतुकी कविता जैसी बात। मैं तो सोचता था कि बेतुकी कविता ही लिखते हो पर तुम बेतुके ढंग से बीमार भी होते हो यह पहली बात पता लगा।’

कविराज ने कहा-‘‘ बात यह हुई कि आज मैंने घर पर देशी घी से बना खाना बना था। पत्नी के मायके वाले आये तो उसने जमकर देशी धी का उपयोग किया। जब टीवी देख रहे थे तो उसमें ‘देशी धी के जहरीले होने के संबंध में कार्यक्रम आ रहा था। पता लगा कि उसमें तो साबुन में डाले जाने वाला तेल भी डाला जाता है। वह बहुत जहरीला होता है। उसमें उस ब्रांड का नाम भी था जिसका इस्तेमाल हमारे घर पर होता है। यार, मेरे मन में तो आतंक छा गया। मैंने सोचा कि बाकी लोग तो मेरा मजाक उड़ायेंगे क्योंकि वह तो उस खबर को देखना ही नहीं चाहते थे। इसलिये अकेला ही चला आया।’

आलोचक महाराज ने कहा-‘डरपोक कहीं के! तुम्हारा चेहरा तो ऐसा लग रहा है कि जैसे कि गोली खाकर आये हो। अरे, यार घी खाया है तो अब मत खाना! ऐसा कोई धी नहीं है जो गोली या बम की तरह एक साथ चित कर दे।’

कविराज ने कहा-‘पर आदमी टीन लेकर रखेगा तो यह जहर धीरे धीरे अपने पेट में जाकर अपना काम तो करेगा न! गोली या बम की मार तो दिखती है पर इसकी कौन देखता है। यह जहर कितनों को मार रहा है कौन देख रहा है? सच तो यह है कि मुझे इसका भी आतंक कम दिखाई नहीं देता। यार उस दिन एक मित्र बता रहा था कि हर खाने वाली चीज की डुप्लीकेट बन सकती है। तब से लेकर मैं तो आतंकित रहता हूं। जो चीज भी खाता हूं उसके डुप्लीकेट होने का डर लगता है।’

आलोचक महाराज ने कहा-‘तो क्या डर का इलाज कराने आये हो?’
कविराज ने कहा -‘‘नहीं डाक्टर से ऐसी गोली लिखवाने आया हूं जो रोज ऐसा जहर निकाल सके। जिंदा रहने के लिये खाना तो जरूरी है पर असली या नकली है इसका पता लगता नहीं है इसलिये कोई ऐसी गोली मिल जाये तो कुछ सहारा हो जायेगा। गोली से भले ही रोज का जहर नहीं निकले पर अपने को तसल्ली तो हो जायेगी कि हमने गोली ली है कुछ नहीं होगा। नकली खाने के आतंक में तो नहीं जिंदा रहना पड़ेगा।

दोनों की बात उनका डाक्टर मित्र सुन रहा था और वह बाहर आया और कविराज से बोला-‘इस नकली खाने के आतंक से बचने का कोई इलाज नहीं है। वह जो बीमारियां पैदा करता है उनका इलाज तो संभव है पर उसके आतंक से बचने का कोई इलाज नहीं है। वह तो जब बीमारी सामने आये तभी मेरे पास आना।’

कविराज का मूंह उतर गया। वह बोले-ठीक है यार, कम से कम यह तसल्ली तो हो गयी कि ऐसी कोई गोली नहीं है जो नकली खाने के आतंक का इलाज कर सके। तसल्ली हो गयी वरना सोचा कि कहीं हम पीछे न रह जायें इसलिये चला आया।’

कविराज वापस जाने लगे तो आलोचक महाराज ने कहा-‘इस पर कोई कविता मत लिख देना क्योंकि मैं तब लिख दूंगा कि तुम कितने डरपोक हो। कितनी बेतुकी बात की है‘नकली खाने का आतंक’। कहीं लिख मत देना वरना लोग हंसेंगे और मैं तो तुम्हें अपना दोसत कहना ही बंद कर दूंगा। मेरी सलाह है कि तुम टीवी कम देखा करो क्योंकि तुम अब आतंक के कई चेहरे बना डालोगे जैसे चैनल वाले रोज बनाते हैं।’
कविराज ने कहा-‘‘यार, मैं तो नकली खाने के आतंक ने इतना डरा दिया है कि इस पर कविता लिखने के नाम से ही मेरे होश फाख्ता हो जाते हैं।
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मौका पड़े तो अपने लिए शैतान खड़ा कर लो-व्यंग्य


शैतान कभी इस जहां में मर ही नहीं सकता। वजह! उसके मरने से फरिश्तों की कदर कम हो जायेगी। इसलिये जिसे अपने के फरिश्ता साबित करना होता है वह अपने लिये पहले एक शैतान जुटाता है। अगर कोई कालोनी का फरिश्ता बनना चाहता है तो पहले वह दूसरी कालोनी की जांच करेगा। वहां किसी व्यक्ति का-जिससे लोग डरते हैं- उसका भय अपनी कालोनी में पैदा करेगा। साथ ही बतायेगा कि वह उस पर नियंत्रण रख सकता है। शहर का फरिश्ता बनने वाला दूसरे शहर का और प्रदेश का है तो दूसरे प्रदेश का शैतान अपने लिये चुनता है। यह मजाक नहीं है। आप और हम सब यही करते हैं।

घर में किसी चीज की कमी है और अपने पास उसके लिये लाने का कोई उपाय नहीं है तो परिवार के सदस्यों को समझाने के लिये यह भी एक रास्ता है कि किसी ऐसे शैतान को खड़ा कर दो जिससे वह डर जायें। सबसे बड़ा शैतान हो सकता है वह जो हमारा रोजगार छीन सकता है। परिवार के लोग अधिक कमाने का दबाव डालें तो उनको बताओं कि उधर एक एसा आदमी है जिससे मूंह फेरा तो वह वर्तमान रोजगार भी तबाह कर देगा। नौकरी कर रहे हो तो बास का और निजी व्यवसाय कर रहे हों तो पड़ौसी व्यवसायी का भय पैदा करो। उनको समझाओं कि ‘अगर अधिक कमाने के चक्कर में पड़े तो इधर उधर दौड़ना पड़ा तो इस रोजी से भी जायेंगे। यह काल्पनिक शैतान हमको बचाता है।
नौकरी करने वालों के लिये तो आजकल वैसे भी बहुत तनाव हैं। एक तो लोग अब अपने काम के लिये झगड़ने लगे हैं दूसरी तरफ मीडिया स्टिंग आपरेशन करता है ऐसे में उपरी कमाई सोच समझ कर करनी पड़ती है। फिर सभी जगह उपरी कमाई नहीं होती। ऐसे में परिवार के लोग कहते हैं‘देखो वह भी नौकरी कर रहा है और तुम भी! उसके पास घर में सारा सामान है। तुम हो कि पूरा घर ही फटीचर घूम रहा है।
ऐसे में जबरदस्ती ईमानदारी का जीवन गुजार रहे नौकरपेशा आदमी को अपनी सफाई में यह बताना पड़ता है कि उससे कोई शैतान नाराज चल रहा है जो उसको ईमानदारी वाली जगह पर काम करना पड़ रहा है। जब कोई फरिश्ता आयेगा तब हो सकता है कि कमाई वाली जगह पर उसकी पोस्टिंग हो जायेगी।’
खिलाड़ी हारते हैं तो कभी मैदान को तो कभी मौसम को शैतान बताते हैं। किसी की फिल्म पिटती है तो वह दर्शकों की कम बुद्धि को शैताना मानता है जिसकी वजह से फिल्म उनको समझ में नहीं आयी। टीवी वालों को तो आजकल हर दिन किसी शैतान की जरूरत पड़ती है। पहले बाप को बेटी का कत्ल करने वाला शैतान बताते हैं। महीने भर बाद वह जब निर्दोष बाहर आता है तब उसे फरिश्ता बताते हैं। यानि अगर उसे पहले शैतान नहीं बनाते तो फिर दिखाने के लिये फरिश्ता आता कहां से? जादू, तंत्र और मंत्र वाले तो शैतान का रूप दिखाकर ही अपना धंध चलाते हैं। ‘अरे, अमुक व्यक्ति बीमारी में मर गया उस पर किसी शैतान का साया पड़ा था। किसी ने उस पर जादू कर दिया था।’‘उसका कोई काम नहीं बनता उस पर किसी ने जादू कर दिया है!’यही हाल सभी का है। अगर आपको कहीं अपने समूह में इमेज बनानी है तो किसी दूसरे समूह का भय पैदा कर दो और ऐसी हालत पैदा कर दो कि आपकी अनुपस्थिति बहुत खले और लोग भयभीत हो कि दूसरा समूह पूरा का पूरा या उसके लोग उन पर हमला न कर दें।’
अगर कहीं पेड़ लगाने के लिये चार लोग एकत्रित करना चाहो तो नहीं आयेंगे पर उनको सूचना दो कि अमुक संकट है और अगर नहीं मिले भविष्य में विकट हो जायेगता तो चार क्या चालीस चले आयेंगे। अपनी नाकामी और नकारापन छिपाने के लिये शैतान एक चादर का काम करता है। आप भले ही किसी व्यक्ति को प्यार करते हैं। उसके साथ उठते बैैठते हैं। पेैसे का लेनदेन करते हैं पर अगर वह आपके परिवार में आता जाता नहीं है मगर समय आने पर आप उसे अपने परिवार में शैतान बना सकते हैं कि उसने मेरा काम बिगाड़ दिया। इतिहास उठाकर देख लीजिये जितने भी पूज्यनीय लोग हुए हैं सबके सामने कोई शैतान था। अगर वह शैतान नहीं होता तो क्या वह पूज्यनीय बनते। वैसे इतिहास में सब सच है इस पर यकीन नहीं होता क्योंकि आज के आधुनिक युग में जब सब कुछ पास ही दिखता है तब भी लिखने वाले कुछ का कुछ लिख जाते हैं और उनकी समझ पर तरस आता है तब लगता है कि पहले भी लिखने वाले तो ऐसे ही रहे होंगे।
एक कवि लगातार फ्लाप हो रहा था। जब वह कविता करता तो कोई ताली नहीं बजाता। कई बार तो उसे कवि सम्मेलनों में बुलाया तक नहीं जाता। तब उसने चार चेले तैयार किये और एक कवि सम्मेलन में अपने काव्य पाठ के दौरान उसने अपने ऊपर ही सड़े अंडे और टमाटर फिंकवा दिये। बाद में उसने यह खबर अखबार में छपवाई जिसमें उसके द्वारा शरीर में खून का आखिरी कतरा होने तक कविता लिखने की शपथ भी शामिल थी । हो गया वह हिट। उसके वही चेले चपाटे भी उससे पुरस्कृत होते रहे।
जिन लड़कों को जुआ आदि खेलने की आदत होती है वह इस मामले में बहुत उस्ताद होते हैं। पैसे घर से चोरी कर सट्टा और जुआ में बरबाद करते हैं पर जब उसका अवसर नहीं मिलता या घर वाले चैकस हो जाते हैं तब वह घर पर आकर वह बताते हैं कि अमुक आदमी से कर्ज लिया है अगर नहीं चुकाया तो वह मार डालेंगे। उससे भी काम न बने तो चार मित्र ही कर्जदार बनाकर घर बुलवा लेंगे जो जान से मारने की धमकी दे जायेंगे। ऐसे में मां तो एक लाचार औरत होती है जो अपने लाल को पैसे निकाल कर देती है। जुआरी लोग तो एक तरह से हमेशा ही भले बने रहते हैं। उनका व्यवहार भी इतना अच्छा होता है कि लोग कहते हैं‘आदमी ठीक है एक तरह से फरिश्ता है, बस जुआ की आदत है।’
जुआरी हमेशा अपने लिये पैसे जुटाने के लिये शैतान का इंतजाम किये रहते हैं पर दिखाई देते हैं। उनका शैतान भी दिखाई देता है पर वह होता नहीं उनके अपने ही फरिश्ते मित्र होते हैं। वह अपने परिवार के लोगों से यह कहकर पैसा एंठते हैं कि उन पर ऐसे लोगों का कर्जा है जिनको वापस नहीं लौटाया तो मार डालेंगे। परिवार के लोगो को यकीन नहीं हो तो अपने मित्रों को ही वह शैतान बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है। आशय यह है कि शैतान अस्तित्व में होता नहीं है पर दिखाना पड़ता है। अगर आपको परिवार, समाज या अपने समूह में शासन करना है तो हमेशा कोई शैतान उसके सामने खड़ा करो। यह समस्या के रूप में भी हो सकता है और व्यक्ति के रूप में भी। समस्या न हो तो खड़ी करो और उसे ही शैतान जैसा ताकतवर बना दो। शैतान तो बिना देह का जीव है कहीं भी प्रकट कर लो। किसी भी भेष में शैतान हो वह आपके काम का है पर याद रखो कोई और खड़ा करे तो उसकी बातों में न आओ। यकीन करो इस दुनियां में शैतान है ही नहीं बल्कि वह आदमी के अंदर ही है जिसे शातिर लोग समय के हिसाब से बनाते और बिगाड़ते रहते हैं।
एक आदमी ने अपने सोफे के किनारे ही चाय का कप पीकर रखा और वह उसके हाथ से गिर गया। वह उठ कर दूसरी जगह बैठ गया पत्नी आयी तो उसने पूछा-‘यह कप कैसे टूटा?’उसी समय उस आदमी को एक चूहा दिखाई दिया।
उसने उसकी तरफ इशारा करते हुए कहा-‘उसने तोड़ा!
’पत्नी ने कहा-‘आजकल चूहे भी बहुत परेशान करने लगे हैं। देखो कितना ताकतवर है उसकी टक्कर से इतना बड़ा कप गिर गया। चूहा है कि उसके रूप में शेतान?”
वह चूहा बहुत मोटा था इसलिये उसकी पत्नी को लगा कि हो सकता है कि उसने गिराया हो और आदमी अपने मन में सर्वशक्तिमान का शुक्रिया अदा कर रहा कि उसने समय पर एक शैतान-भले ही चूहे के रूप में-भेज दिया।
’याद रखो कोई दूसरा व्यक्ति भी आपको शैतान बना सकता है। इसलिये सतर्क रहो। किसी प्रकार के वाद-विवाद में मत पड़ो। कम से कम ऐसी हरकत मत करो जिससे दूसरा आपको शैतान साबित करे। वैसे जीवन में दृढ़निश्चयी और स्पष्टवादी लोगों को कोई शैतान नहीं गढ़ना चाहिए, पर कोई अवसर दे तो उसे छोड़ना भी नहीं चाहिए। जैसे कोई आपको अनावश्यक रूप से अपमानित करे या काम बिगाड़े और आपको व्यापक जनसमर्थन मिल रहा हो तो उस आदमी के विरुद्ध अभियान छेड़ दो ताकि लोगों की दृष्टि में आपकी फरिश्ते की छबि बन जाये। सर्वतशक्तिमान की कृपा से फरिश्ते तो यहां कई मनुष्य बन ही जाते हैं पर शैतान इंसान का ही ईजाद किया हुआ है इसलिये वह बहुत चमकदार या भयावह हो सकता है पर ताकतवर नहीं। जो लोग नकारा, मतलबी और धोखेबाज हैं वही शैतान को खड़ा करते हैं क्योंकि अच्छे काम कर लोगों के दिल जीतने की उनकी औकात नहीं होती।
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आतंक के विरुद्ध कार्रवाई आवश्यक-आलेख


भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की प्रत्यक्ष रूप से युद्ध की संभावना नहीं है पर इस बात से इंकार करना भी कठिन है कि कोई सैन्य कार्यवाही नहीं होगी। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने स्पष्ट रूप से 20 आतंकवादी भारत को सौंपने से इंकार कर दिया पर उन्होंने यह नहीं कहा कि वह उनके यहां नहीं है। स्पष्टतः उन्होंने दोनों पक्षों के बीच अपने आप को बचा लिया या कहें कि एकदम बेईमानी वाली बात नहीं की। हालांकि इससे यह आशा करना बेकार है कि वह कोई भारत के साथ तत्काल अपना दोस्ताना निभाने वाले हैं जिसकी चर्चा वह हमेशा कर रहे हैंं।

जरदारी आतंकवादियों का वह दंश झेल चुके हैं जिसका दर्द वही जानते हैं। अगर वह सोचते हैं कि आतंकवादियों का कोई क्षेत्र या धर्म होता है तो गलती पर हैंं। भारत के आतंकवादी उनके मित्र हैं तो उन्हें यह भ्रम भी नहीं पालना चाहिये क्योंकि यही आतंकवादी उनके भी मित्र हैं जो पाकिस्तान के लिये आतंकवादी है। आशय यह है कि आतंकवादी उसी तरह की राजनीति भी कर रहे हैं जैसे कि सामान्य राजनीति करने वाले करते हैं। राजनीति करने वाले लोग समाज को धर्म, जाति,भाषा, और क्षेत्र के नाम बांटते हैं और यही काम आतंकी अपराध करने वाले समूह सरकारो में बैठे लोगों के साथ कर रहे हैं। वह उनको बांटकर यह भ्रम पैदा करते हैं कि वह तो सभी के मित्र हैं। अगर आम आदमी की तरह शीर्षस्थ वर्ग के लोग भी अगर इसी तरह आतंकी अपराध करने वाले समूहों की चाल में आ जायेंगे तो फिर फर्क ही क्या रह जायेगा? आसिफ जरदारी किस तरह के नेता हैं पता नहीं? वह परिवक्व हैं या अपरिपक्व इस बात के प्रमाण अब मिल जायेंगे। एक बात तय रही कि जब तक भारत का आतंकवाद समाप्त नहीं होगा तब तक पाकिस्तान में अमन चैन नहीं होगा यह बात जरदारी को समझ लेना चाहिये।

कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि बेनजीर के शासनकाल में ही भारत के विरुद्ध आतंकवाद की शुरुआत हुई थी। अगर जरदारी अपनी स्वर्गीय पत्नी को सच में श्रद्धांजलि देना चाहते हैं तो वह चुपचाप इन आतंकवादियों को भारत को सौंप दें पर अगर वह अभी ऐसा करने में असमर्थ अनुभव करते हैं तो फिर उन्हें राजनीतिक चालें चलनी पड़ेंगी। इसमें उनको अमेरिका और भारत से बौद्धिक सहायता की आवश्यकता है पर सवाल यह है कि क्या अमेरिका अभी भी ढुलमुल नीति अपनाएगा। हालांकि उसके लिये अब ऐसा करना कठिन होगा क्योंकि रक्षा विशेषज्ञ उसे हमेशा चेताते हैं कि आतंकवादी भारत में अभ्यास कर फिर उसे अमेरिका में अजमाते हैं। अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफ.बी.आई. ने ऐसे ही नहीं भारत में अपना पड़ाव डाला है। भारत की खुफिया ऐजेंसियेां के उनके संपर्क पुराने हैं और जिसके तहत एक दूसरे को सूचनाओं का आदान प्रदान होता है-यह बात अनेक बार प्रचार माध्यमों में आ चुकी है।

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव वान कहते हैं कि यह अकेले भारत पर नहीं बल्कि पूरे विश्व पर हमला है। इजरायल भी स्वयं अपने पर यह हमला बताता है। पाकिस्तान इस समय दुनियां में अकेला पड़ चुका है। ऐसे में अगर वहां लोकतांत्रिक सरकार नहीं होती तो शायद उसे और मुश्किल होती पर इस पर भी विशेषज्ञ एक अन्य राय रखते हैं वह यह कि जब वहां लोकतांत्रिक सरकार होती है तब वहां की सेना दूसरे देशों में आतंकवाद फैलाने के लिये बड़ी वारदात करती है पर जब वहां सैन्य शासन होता है तब वह कम स्तर पर यह प्रयास करती है। वह किसी तरह अपने लेाकतांत्रिक शासन का नकारा साबित कर अपना शासन स्थापित करना चाहती है।

अनेक विदेश और र+क्षा मामलों में विशेषज्ञ वहां किसी तरह सीधे आक्रमण करने के प+क्ष में हैंं। यह कूटनीति के अलावा सैन्य कार्यवाही के भी पक्षधर हैं। एक बात जो महत्वपूर्ण है। वह यह कि पाकिस्तान की सीमा अफगानिस्तान से लगी अपनी सीमा पर उन तालिबानों ने को तबाह करने में वहां की सेना अक्षम साबित हुई है और इसलिये वहां से भागना चाहती है और अब भारत के तनाव के चलते ही वह भारतीय सीमा पर भागती आ रही है। हो सकता है कि यह उसकी चाल हो। मुंबई में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. और सेना के हाथ होने के प्रमाण को विशेषज्ञ इसी बात का द्योतक मानते हैंं।

इस समय पाकिस्तान पूरे विश्व की नजरों में है और भारत जो भी कार्यवाही करेगा उसके लिये वह अन्य देशों को पहले विश्वास में लेगा तभी सफलता मिल पायेगी। भारत अकेला युद्ध करेगा पर उसके लिये उसे विश्व का समर्थन चाहिये। लोग सीधे कह रहे हैं कि अकेले ही तैश में आकर युद्ध करना ठीक नहीं होगा। पाकिस्तान की सेना का वहां अभी पूरी तरह नियंत्रण है और फिलहाल वहां के लोकतांत्रिक नेताओं का उनकी पकड़ से बाहर तत्काल निकलना संभव नहीं है। ऐसे में कुटनीतिक चालों के बाद ही कोई कार्यवाही होगी तब ही कोई परिणाम निकल पायेगा। अगर भारत ने कहीं विश्व की अनदेखी की तो उसके लिये भविष्य में परेशानी हो सकती है। जिन्होंने 1971 का युद्ध देखा है वह यह बता सकते हैं कि युद्ध कितनी बड़ी परेशानी का कारण बनता है। यही कारण है कि प्रबुद्ध वर्ग वैसी आक्रामक प्रतिक्रिया नहीं दे रहा जैसी कि प्रचार माध्यम चाहते हैं। यह प्रचार माध्यम अपनी व्यवसायिक प्रतिबद्धताओं के चलते देश भक्ति के जो नारे लगा रहे हैं वह इस बात का जवाब नहीं दे सकता कि क्या उसे इससे कोई आय नहीं हो रही है। एस.एम..एस. करने पर जनता का खर्च तो आता ही है।

पाकिस्तान के प्रचार माध्यम भी भारत के प्रचार माध्यमों की राह पर चलते हुए अपने देश में कथित रूप से भारत के बारे में दुष्प्रचार कर रहे हैं पर वह उस तरह का सच अपने लोगों का नहीं बता रहे जैसा कि भारतीय प्रचार माध्यम करते हैं। भले ही भारतीय प्रचार माध्यम अपने लिये ही कार्यक्रम बनाते हैं पर कभी कभार सच तो बता देते हैं पर पाकिस्तान के प्रचार माध्यम उससे अभी दूर हैंं। उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि यह आंतकी अपराधी उनके देश के ही दुश्मन हैं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी और प्रधानमंत्री गिलानी मोहरे हैं पर उन पर यह जिम्मेदारी आन पड़ी है जिस पर पाकिस्ताने के भविष्य का इतिहास निर्भर है। भारत के दुष्प्रचार में लगे पाक मीडिया को ऐसा करने की बजाय ऐसी सामग्री का प्रकाशन करना चाहिये जिससे कि वहां की जनता के मन में भारत के प्रति वैमनस्य न पैदा हो।
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दर्द से लड़ते आंसू सूख गये-हिंदी शायरी


जब हकीकतें होती बहुत कड़वी
वह मीठे सपनों के टूटने की
चिंता किसी को नहीं सताती
जहां आंखें देखती हैं
हादसे दर हादसे
वहां खूबसूरत ख्वाब देखने की
सोच भला दिमाग में कहा आती

दर्द से लड़ते आंसू सूख गये है जिसके
हादसों पर उसकी हंसी को मजाक नहीं कहना
उसकी बेरुखी को जज्बातों से परे नही समझना
कई लोग रोकर इतना थक जाते
कि हंसकर ही दर्द से दूर हो पाते
जिक्र नहीं करते वह लोग अपनी कहानी
क्योंकि वह हो जाती उनके लिये पुरानी
रोकर भी जमाना ने क्या पाता है
जो लोग जान जाते हैं
अपने दिल में बहने वाले आंसू वह छिपाते हैं
इसलिये उनकी कशकमश
शायरी बन जाती
शब्दों में खूबसूरती या दर्द न भी हो तो क्या
एक कड़वे सच का बयान तो बन जाती
……………………………………………
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पड़ौस पर हमला न करो यह तो डाइन भी सिखाती-व्यंग्य कविता


डाइन भी सात घर छोड़कर
कहर बरपाती
अपने पडौस से निभाओ यह तो वह भी सिखाती

उसकी राह पर चलने वाले असली भक्त
आज भी अपने देश और पडौस को
कहर से बचाने के लिए
दूसरी जगह कहर बरपाते
पर खुद न जाकर
वहीँ के बाशिंदों को लगाते
जो पडौस नहीं अपने ही घर को ही
अपने हाथ से आग लगाकर कर देते राख
खुद को बहादुर समझने वाले
नहीं जानते कि
उनकी करतूत डाइन को भी लजाती
वह भी उनकी करतूत पर शर्माती
——————————-

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सहमा शब्द -हिन्दी शायरी


जब बमों की आवाज से
शहर काँप जाते हैं
बाज़ार में सड़कों पर
फैले खून के दृश्य
आखों के सामने आते हैं
तब बैठने लगता है दिल
लड़खडाने लगती है जुबान
हाथ रुक जाते हैं
तब अपने शब्द लडखडाते नजर आते हैं

लगता है कि कोई
मुस्करा रहा है यह बेबसी देखकर
क्योंकि बुलंद आवाज और
बोलते शब्द उसे पसंद नहीं आते हैं
उसके चेहरे पर है कुटिलता का भाव
लगता है उसी ने दिया है घाव
आजादी देने के बहाने
अपने पास बुलाकर
मन में खौफ भरकर
लोगों को गुलाम बनाने के बहाने उसे खूब आते हैं

क्या बाँटें दर्द अपना
किससे कहें हाल दिल का
लोगों के खून के साथ होली खेलने वाले
चुपके से निकल जाते हैं
अपना उदास चेहरा किसे दिखाएँ
कही अपने कदम न लडखडायें
यहाँ खंजर लिए है कौन
पता नहीं चलता
पीठ में घोंपने के लिए सब तैयार नजर आते हैं

ज़माने में अमन और चैन बेचने का भी
व्यापार होता है
भले ही मिल नहीं पाते हैं
पर दहशत के सौदागर फलते हैं इसलिए
क्योंकि दाम लेकर खून का
सौदा हाथों हाथ किये जाते हैं
इंसानी रिश्तों को वह क्या समझेंगे
जो इसका मोल नहीं जान पाते हैं
बुलंद आवाज़ और शब्दों की ताकत क्या समझेंगे
वह बम धमाकों में ही
अपने को कामयाब समझ पाते हैं
उनकी आवाज से खून बहता है सड़क पर
तकलीफों के कारवाँ
लोगों के घर पहुँच जाते हैं
पर सहमा शब्द
लडखडाते हुए चलते हुए भी
लम्बी दूरी तय कर जाते हैं
मिटते नहीं कभी
समय की मार से मरने वाले बचे ही कहाँ
पर मारने वाले भी कब बच पाते हैं
दहशत से शब्द कभी न कभी तो उबार आते हैं
भले ही धमाको से शब्द उदास हो जाते हैं

—————————————

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दिवाली की मिठाई के बारे में लोगों को बताएंगे-हास्य कवित


दीपावली मेले में दुकान से
घर सजाने के लिये मिट्टी के बने
कुछ खिलौने खरीदने पर
उनका मिठाई का ध्यान आया तो बोले
‘भईया, तुम्हारे मिट्टी के फल तो
असली लगते हैं
हम इसे अपने ड्रांइग रूम में सजायेंगे
ऐसे ही मिठाई के भी दिखाओ
आजकल विषैले खोये की वजह
से मिठाई खरीदने की हिम्मत नहीं होती
अगर मिल जायें मिठाई के खिलौने तो बहुत अच्छा
उसे भी इनके साथ सजायेंगे
हमने भी दीपावली पर जमकर
मिठाई खाई लोगों को बतायेंगे

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भलाई करने वाला फ़रिश्ता-लघु व्यंग्य


भरी दोपहर में वह इंसान सड़क पर जा रहा था। उसने देखा दूसरा इंसान बिजली के खंबे के नीचे अपने कुछ कागज उल्टे पुल्टे कर रहा था। अचानक वह बड़बड़ा उठा-‘यह बिजली वाले एकदम नकारा हैं। देखों बल्ब भी नहीं जलाकर रखा। खैर, कोई बात नहीं मैं अपने कागज ऐसे ही पढ़कर देखता हूं ताकि वक्त पड़ने पर इन्हें देखने में कोई समस्या न हो।’

पहला इंसान रुक गया और उसने दूसरे इंसान से पूछा-‘क्या बात है भई? भरी दोपहरियो में बल्ब न जलाने पर इन बिजली वालों को क्यों कोस रहे हो। अपने कागज तो तुम ऐसे ही पढ़ सकते हो। अभी तो सूरज की तेज रोशनी पड़ रही है जब रात हो जोयगी तब लाईट जल जायेगी।’

उस दूसरे इंसान ने कहा-‘ओए, तू भला कहां से आ टपका। तुझे पता नहीं मैं मोहब्बत और अमन का फरिश्ता हूं और जिनकों कागज कह रहा है इसमें मोहब्बत और अमन की कहानियां हैं। यह तेरे समझ के परे है क्योंकि तेरे साथ कभी को हादसा नहीं हुआ न! यह पीडि़त लोगों को सुनाने के लिये है इससे उनको राहत मिलती है। तू फूट यहां से।

फरिश्ते की बात सुनकर वहा इंसान आगे बढ़ने को हुआ तो अचानक एक लड़का चिल्लाता हुआ उसके पीछे आया और बोला-चाचा, जल्दी वापस चलो अपने चाय के ठेले में आग लग गयी है।’

वह इंसान भागने को हुआ तो पीछे से फरिश्ता चिल्लाया-‘रुक तेरे साथ हादसा हुआ है। अब सुन मेरे मोहब्बत और अमन का पैगाम। यह कहानी है और यह कविता!’

वह इंसान चिल्लाया-‘भाड़ में जाये तुम्हारी कविता और कहानी। मैं जा रहा हूं अपना ठेला बचाने।’

वह भागा तो फरिश्ता भी उसके पीछे ‘सुनो सुनो’ कहता हुआ भागा।

वह इंसान ठेले के पास पहुंचा तो उसने देखा कि कुछ लोग पास की टंकी से पानी लेकर आग बुझाने का प्रयास कर रहे हैं। वह स्वयं भी इसमें जुट गया। वह बाल्टी भरकर ठेले पर डालता तो इधर फरिश्ता कहता-‘सुन अगर यह आग गैस से लगी है तो कोई बात नहीं है। गैस वैसे तो हमेशा हमारे बहुत काम आती है पर अगर एक बार धोखा हो गया तो उस पर गुस्सा मत होना। इस संबंध में एक विद्वान का कहना है कि……………’’
वह इंसान चिल्लाया-‘तुम दूर हटो। मुझे तुम्हारी इस कहानी से कोई मतलब नहीं है।’

वह दूसरी बाल्टी भरकर लाया तो वह फरिश्ता बोला-‘अगर यह किसी माचिस की दियासलाई से लगी है तो कोई बात नहीं वह अगर सिगरेट जलाने के काम आती है तो सिगड़ी को प्रज्जवलित करने के काम भी आती है। यह कविता…………………’’

वह आदमी चिल्लाया-’दूर हटो। मुझे अपनी रोजी रोटी बचानी है।’

मगर फरिश्ता कुछ न कुछ सुनाता रहा। आखिर उस इंसान ने ठेले की आग बुझा ली। वह उसके ठेले के नीचे रखे कागजों में लगी थी और अभी ऊपर नहीं पहुंची थी। उसका कामकाज चल सकता था। आग बुझाकर उसने उस फरिश्ते से कहा-‘अब सुनाओं अपनी कहानियां और कवितायें। मेरे दिल को ठंडक हो गयी। कोई खास नुक्सान नहीं हुआ।’
फरिश्ते ने अपने कागज अपने बस्तें में डाल दिये और चलने लगा। उस इंसान ने कहा-‘जब मै सुनना नहीं चाहता तब सुनाते हो और जब सुनना चाहता हुं तो मूंह फेरे जाते हो।’

उस फरिश्ते ने कहा-‘आग खत्म तो मेरी कहानी खत्म। मेरी कहानी और कवितायें अमन और मोहब्बत की हैं जो केवल वारदात के बाद तब तक सुनायी जाती हैं जब तक उसका असर खत्म न हो। अब तुम्हें मेरी कहानी और कविता की जरूरत नहीं है।’
वह इंसान हैरानी से उसे देखने लगा
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इतिहास में सीखने लायक क्या है-हास्य व्यंग्य


लोग कहते हैं कि इतिहास से सीखना चाहिये। किसी को कोई नया काम सीखना होता है तो उससे कहा जाता है पीछे देख आगे बढ़। यह शायद अंग्रेजों द्वारा बताया गया कोई तर्क होगा वरना समझदार आदमी तो आज वर्तमान को देखकर न केवल भूतकाल का बल्कि भविष्य का भी अनुमान कर लेता है और जो पीछे देख आगे बढ़ के नियम पर चलते हैं वह जीवन में कोई नया काम नहीं कर सकता।

इतिहास किसी न किसी के द्वारा लिखा जाता और लिखने वाला निश्चित रूप से अपने पूर्वाग्रहों के साथ लिखता है। इसलिये जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है वह एक तरह का कूड़ेदान होता है। उससे सीखने का मतलब है कि अपनी बौद्धिक क्षमता से दुश्मनी करना। जिनकी चिंतन, मनन और अध्ययन की क्षमता कमजोर होती है पर वही इतिहास पढ़कर अपना विचार व्यक्त करते हैं। तय बात है जिसने अपनी शिक्षा के दौरान ही अपनी चिंतन,मनन और अध्ययन की जड़ें मजबूत कर ली तो फिर उसे इतिहास की आवश्यकता ही नहीं हैं। न ही उसे किसी दूसरे के लिखे पर आगे बढ़ने की जरूरत है।

आये दिन अनेक लेखक और विद्वान इतिहास की बातें उठाकर अपनी बातें लिखते हैंं। ऐसा हुआ था और वैसा हुआ था। एतिहासिक व्यक्तियों के चरित्र की मीमांसा ऐसा करेंगेे जैसे कि वह भोजन नहीं करते थे या और कपड़े कोई सामान्य नहीं बल्कि दैवीय प्रकार के पहनते थे। उनमें कोई दोष नहीं था या वह सर्वगुण संपन्न थे। कभी कभी लोग कहते हैं कि साहब पहले का जमाना सही था और हमारे शीर्षस्थ लोग बहुत सज्जन थे। अब तो सब स्वार्थी हो गये हैं। कुछ अनुमान और तो कुछ दूसरे को लिखे के आधार पर इतिहास की व्याख्या करने वाले लोग केवल कूड़ेदान से उठायी गयी चीजों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं जैसे वह अब भी नयी हों।

बात जमाने की करें। कबीर और रहीम को पढ़ने के बाद कौन कह सकता है कि पहले समाज ऐसा नहीं था। जब समाज ऐसा था तो तय है कि उसके नियंत्रणकर्ता भी ऐसे ही होंगे। फिर देश में विदेशी आक्रमणकारियों की होती है। कहा जाता है कि वह यहंा लूटने आये। सही बात है पर वह यहां सफल कैसे हुए? तत्कालीन शासकों, सामंतों और साहूकारों की कमियां गिनाने की बजाय विभक्त समाज और राष्ट्र की बात की जाती है। इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता कि आखिर विदेशी शासकों ने इतने वर्ष तक राज्य कैसे किया? यहां के आमजन क्यों उनके खिलाफ होकर लड़ने को तैयार नहीं हुए।

इतिहास से कोई बात उठायी जाये तो इस पर फिर अपनी राय भी रखी जाये। हम यहां उठाते हैं महात्मा गांधी द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध प्रारंभ किये आंदोलन की घटना। दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों को जमीन दिखाने के बाद जब वह भारत लौटे तो उनसे यहां स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व प्रारंभ करने का आग्रह किया गया। उन्होंने इस आंदोलन से पहले अपने देश को समझने की लिये दो वर्ष का समय मांगा और फिर शुरु की अपनी यात्रा। उसके बाद उन्होंने आंदोलन प्रारंभ किया। दरअसल वह जानते थे कि आम आदमी के समर्थन के बिना यह आंदोलन सफल नहीं होगा। अंग्रेजों की छत्रछाया में पल रही राजशाही और अफसरशाही का मुकाबला बिना आम आदमी के संभव नहीं था। आज भी भारत में गांधीजी को याद इसलिये किया जाता है कि उन्होंने आम आदमी की चिंता की। यह पता नहीं कि उन्होंने इतिहास पढ़ा था या नहीं पर यह तय है कि उन्होंनें इसकी परवाह नहीं की और इतिहास पुरुष बन गये। यह पूरा देश उनके पीछे खड़ा हुआ।

गांधीजी का नाम जपने वाले बहुत हैं और उनके चरित्र की चर्चा गाहे बगाहे उनके साथी करते हैं पर आम आदमी को संगठित करने के उनके तरीके के बारे में शायद ही कोई सोच पाता है। अपने अभियानों और आंदोलनों को जो सफल करना चाहते हैं उनको गांधीजी द्वारा कथनी और करनी के भेद को मिटा देने की रणनीति पर अमल करना चाहिये। हो रहा है इसका उल्टा।
गांधीजी के नारे सभी ने ले लिये पर कार्यशैली तो अंग्रेजों वाली ही रखी। इसलिये हालत यह है कि आम आदमी किसी अभियान या आंदोलन से नहीं जुड़ता।

बड़े बड़े सूरमाओं से इतिहास भरा पड़ा है पर वह हारे क्यों? सीधा जवाब है कि आम आदमी की परवाह नहीं की इसलिये युद्ध हारे। आखिर विदेशी आक्रमणकारी सफल कैसे हुए? क्या जरूरत है इसे पढ़ने की? आजकल के आम आदमी में व्याप्त निराशा और हताशा को देखकर ही समझा जा सकता है। पद, पैसे और प्रतिष्ठा में मदांध हो रहे समाज के शीर्षस्थ लोगों को भले ही कथित रूप से सम्मान अवश्य मिल रहा है पर समाज में उनके प्रति जो आक्रोश है उसको वह समझ नहीं पा रहे। महंगी गाड़ी को शराब पीकर चलाते हुए सड़क पर आदमी को रौंदने की घटना का कानून से प्रतिकार तो होता है पर इससे समाज में जो संदेश जाता है उसे पढ़ने का प्रयास कौन करता है। बड़े लोगों की यह मदांधता उन्हें समाज से मिलने वाली सहानुभूति खत्म किये दे रही है। देश की बड़ी अदालत ने शराब पीकर इस तरह गाड़ी चलाने वाले की तुलना आत्मघाती आतंकी से की तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिये। यह माननीय अदालतें इसी समाज का हिस्सा है और उनके संदेशों को व्यापक रूप में लेना चाहिये।

आखिर धन और वैभव से संपन्न लोग उसका प्रदर्शन कर साबित क्या करना चाहते हैं। शादी और विवाहों के अवसर पर बड़े आदमी और छोटे आदमी का यह भेद सरेआम दिखाई देता है। आजकल तो प्रचार माध्यम सशक्त हैं और जितना वह इन बड़े लोगों को प्रसन्न करने के लिये प्रचार करते हैं आम आदमी के मन में उनके प्रति उतना ही वैमनस्य बढ़ता हैं।

इतिहास में दर्ज अनेक घटनाओं के विश्लेषण की अब कोई आवश्यकता नहीं है। कई ऐसी घटनायें हो रही हैं जो इतिहास की पुनरावृति हैंं। एक मजे की बात है कि विदेशियों के विचारों की प्रशंसा करने वाले कहते हैं कि इस देश के लोग रूढि़वादी, अंधविश्वासी और अज्ञानी थे पर देखा जाये तो भले ही ऐसे लोगों ने विदेशी ज्ञान की किताबें पढ़ ली हों पर वह भी कोई उपयोगी नहीं रहा। कोई कार्ल माक्र्स की बात करता है तो कोई स्टालिन की बात करता और कोई माओ की बात करता जबकि उनके विचारों को उनके देश ही छोड़ चुके हैं। ऐसे विदेशी लोगों के संदेश यहां केवल आम आदमी को भरमाने के लिये लाये गये पर चला कोई नहीं। यही कारण है कि आम आदमी की आज किसी से सहानुभूति नहीं है। लोग नारे लगा रहे हैं पर सुनता कौन है? हर आदमी अपनी हालतों से जूझता हुआ जी रहा है पर किसी से आसरा नहीं करता। यह निराशा का चरम बिंदू देखना कोई नहीं चाहता और जो देखेगा वह कहेगा कि इतिहास तो कूड़ेदान की तरह है। टूटे बिखरे समाज की कहानी बताने की आवश्यकता क्या है? वहा तो सामने ही दिख रहा है।
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व्ही.आई.पी. कहलाने की चाहत-हास्य व्यंग्य


वैसे तो अपने देख के लोगों की यह पूरानी आदत है कि वह हर तरफ अपने को श्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं और अब एक नयी आदत और पाल ली है। वह यह कि कहीं भी अपने को व्ही.आई.पी साबित करो। भले ही झूठमूठ पर यह बताओ कि हमें अमुक स्थान पर हमें व्ही.आई.पी. ट्रीटमेंट मिला।
अपने जीवन के सफर में हमें प्रसिद्धि पाने का मोह तो कभी नहीं रहा पर कुछ हमारे काम ऐसे रहे हैं कि वह बदनाम जरूर करा देते हैं और तब लगता है कि यह मिली प्रसिद्धि के कारण हो रहा है। पढ़ने का मजा खूब लिया तो लिखने के मजे लेने का ख्याल भी आया। लिखते रहे। जो मन मेंे आया लिखा मगर भाषा की दृष्टि से कभी सराहे जायेंगे यह तो ख्याल नहीं किया पर अव्यवस्थित लेखन की वजह से बदनाम जरूर हुए। यही हाल हर क्षेत्र में रहा है।

अध्यात्म में झुकाव है पर भक्ति के नाम पर पाखंड कभी नहीं किया। कहीं कोई कहता है कि यहां मत्था टेको या अमुक गुरू के दर्शन करो तो हम मना कर देते हैं। कहते हैं कि भईया हम तो सीधे नारायण में मन लगाते हैं इन बिचैलियों से मार्ग का पता पूछें यह संभव नहीं हैं।

जिनके गुरु है वह अपने गुरु को मानने की प्रेरणा देते हैं। ना करते हैं तो वह लोग कहते हैं कि गुरु के बिना उद्धार नहीं होता। हम पूछते हैं कि ‘क्या गुरु पाकर आपका उद्धार हो गया है तो जवाब देते हैं कि ‘तुम्हें अहंकार है, अरे इतनी जल्दी थोड़ा उद्धार होता है।’

हम कहते हैं कि हमारा उद्धार तो हो गया है क्येांकि परमात्मा ने मनुष्य योनि देकर दुनिया को समझने का अवसर दिया क्या कम है?

बात दरअसल यह कहना चाहते थे कि हम भारत के लोगों की मनोवृत्ति बहुत खराब है। हर मामले में व्ही.आई.पी. ट्रीटमेंट चाहते हैं और इसके लिये हम कुछ भी करना चाहते हैं। उनमें यह भी एक बात शामिल है कि जिस भगवान या गूुरु को हम माने उसे दूसरे भी माने। इसलिये अपने गुरुओंं और भगवानों को लेकर दूसरे पर दबाव बनाने लगते हैं। इसके अलावा कहीं अगर आश्रम या मंदिर जाते हैं तो वहां भी अपने को व्ही. आई.पी. के रूप में देखना चाहते हैं।

उस दिन एक आश्रम में गये तो पता लगा कि उनके गुरु आये हैं। हमने दूर से गुरुजी को देखा और वहीं उनके प्रवचन प्रारंभ हो गये। इसी दौरान पंक्ति लगाकर उनके दर्शन करने का सिलसिला भी चला। वहां कुछ लोग पंक्ति से अलग दूसरी पंक्ति लगाकर उनके दर्शन कर रहे थे जो यकीनन खास भक्तों के खास भक्त थे।

सत्संग समाप्त हुआ पर दर्शन करने वालों का तांता अभी लगा हुआ था। हम बाहर निकल आये तो एक परिचित मिल गये। हमसे पूछा कि‘क्या गुरु महाराज के दर्शन किये।’
हमने न में सिर हिलाया तो वह कहने लगे कि‘हमने तो व्ही.आई.पी. लाईन में जाकर उनके दर्शन किये। उनका एक खास भक्त मेरी दुकान पर सामान खरीदने आता है।’

हमने समझ लिया कि वह व्ही.आई.पी. भक्त साबित करने का प्रयास कर रहा है।

एक अन्य आश्रम में गये तो वहां देखा कि बरसों पहले खुला रहने वाला ध्यान केंद्र अब बंद कर दिया गया है। वहां सामान्य भक्तों का प्रवेश बंद कर दिया गया है केवल चंदा की रसीद कटाने और सामान लेकर जाने वालों को वहां ध्यान करने की इजाजत है।

हमने वहां मंदिर में दर्शन किये और उसके साथ लगे परिसर के पार्क में जाने लगे तो पता लगा कि वहां से आने वाला कम दूरी वाला रास्ता भी बंद कर दिया गया है। घूमकर फिर वहां पार्क में गये। पार्क के साथ ही धर्मशाला भी लगी हुई है। बाहर से आये भक्तजन वहां रहते हैं और ध्यानादि कार्यक्रम में शामिल होते हैं। वहां पार्क में अन्य लोग भी बैठे थे कोई अपने साथ भोजनादि लाया था तो को वहीं बैठे ध्यान लगा रहा था तो कोई अपनी चादर बिछाकर आराम कर रहा था। हमने देखा कि ध्यान केंद्र से कम दूरी वाले मार्ग का दरवाजा जो बंद था वह बार बार खुलता और बंद हो जाता। कुछ व्ही.आई.पी वहीं से ध्यान कक्ष से आते जाते। जब वह आते तो खुल जाता और फिर बंद। हमने देखा कि वहां खड़ा एक लड़का इस दरवाजे को खोल और बंद कर रहा था।

एक महिला धर्मशाला से निकलकर अपने दो बच्चों के साथ उसी रास्ते ध्यान कक्ष की तरफ जा रही थी । उसके आगे एक व्ही.आई.पी. भक्त तो निकल गया पर उस लड़के ने उस महिला और उसके बच्चों को नहीं जाने दिया। कारण बताया ‘सुरक्षा’। अब सुरक्षा के नाम आश्रम और मंदिरों में हो रहा है उस तो कहना ही क्या? देखा जाये तो व्ही.आई.पी भक्तों और उनको दर्शन कराने वालों को अवसर मिल गया है।

उस महिला ने लंबे रास्ते से निकलने के लिये मूंह फेरा तो एक व्ही.आई.पी. भक्त वहां से लौट रहा था उसके लिये दरवाजा खुला तो वह पलट कर फिर जाने को तत्पर हुई पर उस लड़के ने मना कर दिया। यह एकदम अपमानजनक था क्योंकि उस दरवाजे के उस पार तक तो मैं भी होकर आया था। मतलब वहां से अगर कोई आये जाये तो कोई दिक्कत नहीं थी सिवाय इसके कि किसी को विशिष्ट भक्त प्रमाणित नहीं किया जा सकता था।

यह प्रकरण हमसे कुछ दूर बैठे दंपत्ति भी देख रहे थे। महिला ने पति से कहा-‘आप देखो। कैसे उस बिचारी के साथ उस लड़के ने बदतमीजी की। धार्मिक स्थानों पर यह बदतमीजी करना ठीक नहीं है।’

पति ने कहा-‘अरे, इन चीजों को मत देखा करो। हम तो भगवान में अपनी भक्ति रखते हैं। यह तो बीच के लोग हैं न इनके मन में न भक्ति है न सेवा भाव। यह सब विशिष्ट दिखने के लिये ही ऐसा करते हैं। देखा हमारे साथ यहां कितने लोग बैठे हैं उनको इनकी परवाह नहीं है। पर यह जो विशिष्ट दिखने और दिखाने का मोह जो लोग पाल बैठते हैं उनको कोई समझा नहीं सकता। यह मान कर चलो कि जहां भगवान है तो वहां शैतान भी होगा।’
हमने देखा कि वहां अनेक लोग बैठे थे। सब दूर दूर से आये थे और उनको इन घटनाओं से केाई लेना देना नहीं था।

सच तो यह है कि धर्म के नाम पर जो लोग व्ही.आई.पी. दिखना चाहते हैं उनको ही धर्म संकट में दिखता है क्योंकि ऐसा कर ही वह अपने को धार्मिक साबित करना चाहते हैं। मंदिरों और आश्रमों में जो भ्रष्टाचार है उस पर कोई प्रहार होता है तो धर्म पर संकट बताकर आम भक्त को पुकारा जाता है जबकि इन्हीं आश्रमों में उसकी कोई कदर नहीं है वहां तो को केवल विशिष्ट लोगों का ही सम्मान है। हालांकि हम जानते हैं कि यह सब होता है पर जब कहीं ध्यान लगाने जाते हैं तो इस बात की परवाह नहीं करते कि भगवान के मध्यस्थ क्या व्यवहार करते हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि उसके हृदय में भगवान नहीं विशिष्ट मेहमान बसे हुऐ हैं सो उनसे कोई अपेक्षा भी नहीं करते।
………………………………………….

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खुद सज जाते हैं हमेशा दूल्हों की तरह-व्यंग्य कविता


लोगों को आपस में
मिलाने के लिये किया हुआ है
उन्होंने शामियानों का इंतजाम
बताते हैं जमाने के लिये उसे
भलाई का काम
खुद सज जाते हैं हमेशा दूल्हों की तरह
अपना नाम लेकर
पढ़वाते हैं कसीदे
उनके मातहत बन जाते सिपहसालार
वह बन जाते बादशाह
बाहर से आया हर इंसान हो जाता आम

जिनको प्यारी है अपनी इज्जत
करते नहीं वहा हुज्जत
जो करते वहां विरोध, हो जाते बदनाम
मजलिसों के शिरकत का ख्याल
उनको इसलिये नहीं भाता
जिनको भरोसा है अपनी शख्यिसत पर
शायद इसलिये ही बदलाव का बीज
पनपता है कहीं एक जगह दुबक कर
मजलिसों में तो बस शोर ही नजर आता
ओ! अपने ख्याल और शायरी पर
भरोसा करने वालोंे
मजलिसों और महफिलों में नहीं तुम्हारा काम
बेतुके और बेहूदों क्यों न हो
इंतजाम करने वाले ही मालिक
सजते हैं वहां शायरों की तरह
बाहर निकल कर फीकी पड़ जायेगी चमक
इसलिये दुबके अपने शामियानों के पीछे
कायरों की तरह
वहां नहीं असली शायर का काम

…………………………

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कहीं शय तो कहीं आदमी बिक जाता है-व्यंग्य कविता


दिन के उजाले में

लगता है बाजार

कहीं शय तो कहीं आदमी

बिक जाता है

पैसा हो जेब में तो

आदमी ही खरीददार हो जाता है

चारों तरफ फैला शोर

कोई किसकी सुन पाता है

कोई खड़ा बाजार में खरीददार बनकर

कोई बिकने के इंतजार में बेसब्र हो जाता है

भीड़ में आदमी ढूंढता है सुख

सौदे में अपना देखता अस्त्तिव

भ्रम से भला कौन मुक्त हो पाता है

रात की खामोशी में भी डरता है

वह आदमी जो

दिन में बिकता है

या खरीदकर आता है सौदे में किसी का ईमान

दिन के दृश्य रात को भी सताते हैं

अपने पाप से रंगे हाथ

अंधेरे में भी चमकते नजर आते है

मयस्सर होती है जिंदगी उन्हीं को

जो न खरीददार हैं न बिकाऊ

सौदे से पर आजाद होकर जीना

जिसके नसीब में है

वह जिंदगी का मतलब समझ पाता है
…………………………..
दीपक भारतदीप

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रोटी का इंसान से बहुत गहरा है रिश्ता-हिंदी शायरी


पापी पेट का है सवाल
इसलिये रोटी पर मचा रहता है
इस दुनियां में हमेशा बवाल
थाली में रोटी सजती हैं
तो फिर चाहिये मक्खनी दाल
नाक तक रोटी भर जाये
फिर उठता है अगले वक्त की रोटी का सवाल
पेट भरकर फिर खाली हो जाता है
रोटी का थाल फिर सजकर आता है
पर रोटी से इंसान का दिल कभी नहीं भरा
यही है एक कमाल
………………………
रोटी का इंसान से
बहुत गहरा है रिश्ता
जीवन भर रोटी की जुगाड़ में
घर से काम
और काम से घर की
दौड़ में हमेशा पिसता
हर सांस में बसी है उसके ख्वाहिशों
से जकड़ जाता है
जैसे चुंबक की तरफ
लोहा खिंचता

…………………………………..

यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

सड़क ने प्यार से जुदा करा दिया-हास्य व्यंग्य कविता


बहुत दिन बाद प्रेमी आया
अपने शहर
और उसने अपनी प्रेमिका से की भेंट
मोटर साइकिल पर बैठाकर किक लगाई
चल पड़े दोनों सैर सपाटे पर
फिर बरसात के मौसम में सड़क
अपनी जगह से नदारत पाई

कभी ऊपर तो कभी नीचे
बल खाती हुई चल रही गाड़ी ने
दोनों से खूब ठुमके लगवाये
प्रेमिका की कमर में पीड़ा उभर आई
परेशान होते ही उसने
आगे चलने में असमर्थता अपने प्रेमी को जताई

कई दिन तक ऐसा होता रहा
रोज वह उसे ले जाता
कमर दर्द के कारण वापस ले आता
प्रेमिका की मां ने कहा दोनों से
‘क्यों परेशान होते हो
बहुत हो गया बहुत रोमांस
अब करो शादी की तैयारी
पहले कर लो सगाई
फिर एक ही घर में बैठकर
खूब प्रेम करना
बेटी के रोज के कमर दर्द से
मैं तो बाज आई’

प्रेमिका ने कहा
‘रहने दो अभी शादी की बात
पहले शहर की सड़के बन जायें
फिर सोचेंगे
इस शहर की नहीं सारे शहरों में यही हाल है
टीवी पर देखती हूं सब जगह सड़कें बदहाल हैं
शादी के हनीमून भी कहां मनायेंगे
सभी जगह कमर दर्द को सहलायेंगे
फिर शादी के बाद सड़क के खराब होने के बहाने
यह कहीं मुझे बाहर नहीं ले जायेगा
घर में ही बैठाकर बना देगा बाई
इसलिये पहले सड़कें बन जाने तो
फिर सोचना
अभी तो प्यार से करती हूं गुडबाई’

………………………….

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

लोगों के मन का सहारा है परनिंदा करना-व्यंग्य आलेख


हमारे देश के लोगों का सबसे बड़ा दोष है-परनिंदा करना। बहुत कम लोग हैं जो इसके कीटाणुओं से मुक्त रह पाते हैं। देखने में भक्त और साधु किस्म के लोग भी इस बीमारी से उतने ही ग्रस्त होते हैं जितने सामान्य लोग। अगर कहीं चार लोगों के बीच चर्चा करो तो वहां अनुपस्थित व्यक्ति की निंदा हाल शुरू हो जाती है।

कई बार तो विचित्र स्थिति भी सामने आ जाती है। जब एक आदमी किसी दूसरे से अन्य के बारे में चर्चा करते हुए उसके दोष गिनाता है और श्रोता व्यक्ति यह सोचकर हंसता है कि यह दोष तो कहने वाले में भी है पर वह नहीं समझता। उसे लगता है कि दूसरा आदमी उसकी बात से सहमत है।
लोग परनिंदा में लिप्त तो होते हैं पर उससे घबड़ाते बहुत हैं। यही कारण है कि कई तरह के मानसिक बोझ व्यर्थ गधे की तरह ढोकर अपना जीवन नरक बनाते हैं यह अलग बात है कि वह मरणोपरांत स्वर्ग की कल्पना करना नहीं छोड़ते। ‘लोग क्या कहेंगे’, और ‘लोग क्या सोचेंगे’।

एक सज्जन दूसरे से अपने ही एक मित्र के बारे में कह रहे थे-‘वह तो दिखने का ही भला आदमी है। मैं तो उसे ऐसे ही अपना मित्र कहता हूं क्योंकि उससे काम निकालना होता है। वह तो अपने बाप का नहीं हुआ तो मेरा क्या होगा? उसक मां बाप अलग रहते हैं। दोनों बीमार हैं पर वह उनके पास जाता तक नहीं है। न ही पैसा देता है। बिचारे रोते रहते हैं। ऐसा आदमी इस दुनियां मेंे किस काम का जो मां बाप की सेवा नहीं करता।’

दूसरे ने कहा-‘भई, किसी के परिवार के विवादों को सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं करो तो अच्छा! आज तुम उनके बारे में कह रहे हो कल कोइ्र्र तुम्हारे बारे में भी कह सकता है। उसके मां बाप तो उसके घर से दूर रहते हैं हो सकता है वह अपने कार्य की व्यस्तता के कारण नहीं जा पाता हो। तुम्हारे मां बाप तो एकदम पास ही रहते हैं पर वह भी तुम्हारे बारे में ऐसी ही बातें करते हैं। यह तो घर घर की कहानी है।’

पहले वाले सज्जन एकदम तैश में आ गये और बोले-‘वह तो बुजुर्गों की आदत होती है। वैसे मैने तो अपने दम पर ही अपना मकान और सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित की है। अपने मां बाप से एक भी पैसा नहीं लिया। उन्होंने सब छोटे भाई को दे दिया है। उससे तो मेरी तुलना हो ही नहीं सकती।’

बहरहाल दोनों में बातचीत से तनाव बढ़ा और फिर दोनों में बातचीत ही बंद हो गयी। अपने दोष कोई सुन नहीं सकता पर दूसरे का प्रचार हर कोई ऐसे करता है जैसे कि वह सर्वगुण संपन्न हो।

किसी सात्विक विषय पर चर्चा करने की बजाय हर पल अपने लिये समाज के खलपात्र ढूंढने लगते हैं। नहीं मिलें तो फिल्मी सितारों और खलपात्रों की ही बात करेंगे। कहीं भी जाओ तो बस यही जुमले सुनाई देंगे‘अमुक आदमी ने अपने मां बाप को जीवन भर पूछा ही नहीं पर मर गया तो तेरहवीं पर पानी की तरह पैसा बहाया ताकि समाज के लोग खापीकर उसकी प्रशंसा करें’ या फिर ‘अमुक का लड़का नकारा है इसलिये ही उसकी बहुत भाग गयी आदि आदि।

तमाम तरह के संत और साधु अपने भक्तों के सामने प्रवचन में कहते हैं कि ‘परनिंदा मत करो‘ कार्यक्रम खत्म होते ही अपने निजी सेवकों और भक्तों के समक्ष दूसरे संतों की निंदा करने लग जाते हैं। उन पर आश्रित सेवक या भक्त उनके सामने कैसे कह सकता है कि कि ‘महाराज अभी तो आप परनिंदा की लिये मना कर रहे थे और आप जो कह रहे हैं क्या वह परंनिदा नहीं है।’
जैसे वक्ता वैसे ही श्रोता। श्रोता ऐसे बहरे कि उनको लगता है कि वक्ता जैसे गूंगा हो।

पंडाल में प्रवचन करते हुए वक्ता कह रहा है ‘परनिंदा मत करो’, पर वहां बैठे श्रोता तो व्यस्त रहते हैं अपने घर परिवार की चिंताओं में या अपने साथ आये लोगों के साथ वार्ताओं में। कोई अपने दामाद से खुश है तो कोई नाखुश। बहू से तो कोई सास कभी खुश हो ही नहीं सकती। उसी तरह बहुत कम बहूऐं ऐसी मिलेंगी जो सास की प्रशंसा करेंगी। लोग इधर उधर निंदा में ही अपना समय व्यतीत करते हैं और जिनको सुनने वाले लोग नहीं मिलते वह ऐसे सत्संग कार्यक्रमों की सूचना का इंतजार करते हैं कि वहां कोई पुराना साथी मिल जाये तो जाकर दिल की भड़ास निकालें।

ऐसा लगता है कि इसे देश में मौजूद लोगों परनिंदा करने की भूख को शांत करने के लिये ही ऐसे पारंपरिक मिलन समारोह बनाये गये हैं जहां आकर सब अपने को छोड़कर बाकी सभी की निंदा कर सकें। कई तो व्यवसाय ही इसलिये फल रहे हैं। फिल्म में एक नायक और एक खलनायक इसलिये ही रखा जाता है ताकि लोग नायक में अपनी छबि देखें और खलनायक में किसी दूसरे की। बातचीत मेंं लोग जिससे नाखुश होते हैं उसके लिये किसी फिल्मी खलनायक की छबि ढूंढते हैं।

आजकल के प्रचार माध्यम तो टिके ही परनिंदा के आसरे हैं। वह अपने लिये समाज के ऐसे खलपात्रों का ही प्रचार करते हैं जो अपराध तो करते हैं पर आसपास दिखाई नहीं देते। उन पर ढेर सारे शब्द और समय व्यय किया जाता है। लोग एकरसता से ऊबे नहीं इसलिये बीच बीच में भले लोगों के रचनात्मक काम का प्रदर्शन भी कर देते हैं। अखबार हों या टीवी चैनल ऐसी खबरों को ही महत्वपूर्ण स्थान देते हैं जिनमें दूसरों का दोष लोगों को अधिक दिखाई दे। कहीं बहू खराब तो कहीं सास, कहीं जमाई तो कही ससुर खूंखार और कही भाई तो कहीं साला अपराधी। लोग बड़े चाव से देखते हैं खराब व्यक्ति को। तब उनको आत्मतुष्टि मिलती हैं कि हम तो ऐसे नहीं हैं।

इसी कारण कहा भी जाता है कि ‘बदनाम हुए तो क्या नाम तो है’। रचनात्मक काम के परिश्रम अधिक लगता है कि नाम पाने के लिये मरणोपरांत ही संभावना रहती है जबकि विध्वंस में तत्काल चर्चा हो जाती है। अखबार और टीवी में नाम आ जाता हैं। भले लोग को अपना यह जुमला दोहराने का अवसर निरंतर मिलता है‘आजकल जमाना बहुत खराब है’। यह सुनते हुए बरसों हो गये हैं। यह पता हीं लगता कि जमाना सही था कब? एक भला आदमी दूसरे से संबंध रखने की बजाय दादा टाईप के आदमी से संबंध रखता है कि कब उससे काम पड़ जाये। हर किसी को दादा टाईप लोगों में ही दिलचस्पी रहती है।

कुल मिलाकर परनिंदा पर ही यह भौतिक संसार टिका हुआ है। अनेक लोगों की रोजी रोटी तो केवल इसलिये चलती है कि वह परनिंदा करते हैं तो कुछ कथित महान लोगों को इसलिये मक्खन खाने की अवसर मिलता है क्योंकि वह लोगों का संदेश देते हैं कि परनिंदा मत करो। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि सारा संसार ही परंनिंदा पर टिका है।

सारा संसार परनिंद पर टिका है-व्यंग्य आलेख

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सौदा होता है सब जगह-व्यंग्य कविता


दिन के उजाले में

लगता है बाजार

कहीं शय तो कहीं आदमी

बिक जाता है

पैसा हो जेब में तो

आदमी ही खरीददार हो जाता है

चारों तरफ फैला शोर

कोई किसकी सुन पाता है

कोई खड़ा बाजार में खरीददार बनकर

कोई बिकने के इंतजार में बेसब्र हो जाता है

भीड़ में आदमी ढूंढता है सुख

सौदे में अपना देखता अपना अस्त्तिव

भ्रम से भला कौन मुक्त हो पाता है

रात की खामोशी में भी डरता है

वह आदमी जो

दिन में बिकता है

या खरीदकर आता है सौदे में किसी का ईमान

दिन के दृश्य रात को भी सताते हैं

अपने पाप से रंगे हाथ

अंधेरे में भी चमकते नजर आते है

मयस्सर होती है जिंदगी उन्हीं को

जो न खरीददार हैं न बिकाऊ

सौदे से पर आजाद होकर जीना

जिसके नसीब में है

वह जिंदगी का मतलब समझ पाता है
…………………………..
दीपक भारतदीप

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क्या सामान्य ब्लाग लेखकों का कोई धणीसांईं नहीं हैं-संपादकीय


आज यह ब्लाग बीस हजार की पाठक संख्या पार कर गया। यह संख्या पार करने वाला यह चैथा ब्लाग है। अगर वर्डप्रेस के ब्लागों की कुल संख्या को ही देखा जाये तो वह 135000 के करीब है और मेरा मानना है कि ब्लाग स्पाट के ब्लाग भी करीब 40-50 हजार के पाठक तो जुटा ही चुके होंगे-उस पर मैंने काउंटर देर से ही लगाया था और वर्तमान में ही उन पर 30 हजार पाठक संख्या का आंकड़ा दर्ज है जो छहः महीने से अधिक का नहीं है।

एक बात तय है कि वर्डप्रेस के ब्लाग ब्लागस्पाट के ब्लागों से अधिक सक्रिय रहते हैं इसलिये यहां लिखते रहने को मन सदैव तत्पर रहता है। इस ब्लाग से जो आत्म विश्वास मिलता है वह नया लिखने को प्रेरित करता है।
हां, आज मुझे इस हिंदी ब्लाग जगत के एक मित्र उन्मुक्त जी का नाम लेने का मन है। अक्सर वह ऐसे मौके पर टिप्पणी करते हैं जब प्रसन्न्ता का अवसर होता है। अभी जब मैंने एक पाठ पर कुछ ब्लागरो द्वारा पैसे लेकर लिखने का मामला उठाया था तो उन्होंने बताया कि उनको कोई पैसा नहीं मिलता वह तो अपने विचार लोगों तक पहंुंचाने के लिये लिखते हैं।

उन्मुक्त जी के पाठ ही यह बता देते हैं कि उनका यह काम निष्काम भाव से किया जा रहा है और यही कारण है कि उनके लिये मेरे मन में मैत्रीभाव है वह यह भी कहते हैं कि आप तो लिखते रहें किसी की परवाह न करें। यह तो मैं करता हूं पर कुछ मामले ऐसे मेरे सामने आ रहे हैं जो मेरे अंदर ब्लाग लेखकों के हितों की रक्षा का प्रश्न उठा देते हैं।
आज ही एक वेबवाइट@ब्लाग प्रकट हुआ है जहां मेरा ब्लाग लिंक हो गया है। उसे चोरी कहें या चालाकी! चोरी कहना इसलिये ठीक नहीं होगा क्योकि
1.वहां ब्लाग में पाठ के नीचे जो मैं अपने लिंक लगाता हूं वह दिखाई दे रहे हैं।
2.ब्लाग का नाम दिखाई नहीं दे रहा पर लेखक के रूप में मेरा नाम दिखाई दे रहा है।
3.मैं एक टैग नहीं लगाता तो यह ब्लाग वहां नहीं जाता।
यह चालाकी है
1.उसने वर्डप्रेस के टैग को इस तरह सैट कर दिया है कि जिस ब्लाग पर वह टैग होगा वहां चला जायेगा।
2.उस पर विज्ञापन है और वहां किसी का मौलिक लेखन नहीं है।
3.वह आराम से बैठकर कमाने के लिये बनाया गया है।

एक प्रश्न मेरे दिमाग में आया था कि आखिर एक ब्लागर ने वर्डप्रेस के ब्लाग पर ही अंसबद्ध टैग लगाने का मामला क्यों उठाया? कुछ लोगों का अगर यह लग रहा है कि यह उनके और मेरी बीच का मामला है तो वह गलती कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि कोई दो व्यवसायिक गुट सक्रिय हैं और यह द्वंद्व उनके बीच का है। इन दोनों गुटों का नेतृत्व करने वाले लिखना नहीं जानते इसलिये ब्लागरों से ही लिखवा रहे हैं और यह द्वंद्व ब्लाग जगत का लग रहा है। इन गुटों को रहस्य इसलिये पूरी तरह यहां उजागर नहीं हो पा रहा क्योंकि वह एक दूसरे के विरुद्ध वहीं तक ही हमले करवा रहे हैं जहां तक उनका स्वयं का व्यवसायिक अस्तित्व समाप्त न हो । एक दूसरे के अस्तित्व की पोल वह नहीं खोल रहे।
जिस दिन मेरे ब्लाग पर असंबद्ध टैग लगाने की की आलोचना करता हुआ पाठ आया तो उसके प्रतिवाद स्वरूप मैंने भी लिखा। दोनों के पाठ हिट हो गये। उसी शाम एक ब्लागर का एक ब्लाग भी आया जिसमें इस बात का उल्लेख था कि वर्डप्रेस के टैगों के सहारे कुछ वेबसाइटें अपना काम चला रही हैं। उसने यह भी बताया कि ब्लागसपाट के लेबल उस तरह ब्लाग को नहीं ले जाते जैसे वर्डप्रेस के। पहले मुझे लगा कि वह मेरे आलोचक ब्लागर के समर्थन में लिखा गया है पर आज लग रहा है कि ऐसा लिखने वाला ब्लागर ऐसे किसी गुट का जानता है पर उसका रहस्य उसने नहीं खोला? पक्का नहीं कह सकता पर ऐसा लगता है कि वह दूसरे गुट के प्रतिनिधि के रूप में ही उसका पाठ लग रहा था।

मुख्य बात यह है कि हिंदी ब्लाग जगत का धणीसांईं कौन है? हिंदी ब्लाग जगत के कुछ लोग ऐसे हैं जो केवल हिंदी टैग लगाने की वकालत करते हैं और दूसरे वह हैं जो पाठक संख्या बढ़ाने के लिये अंग्रेजी टैग की वकालत करते हैं। सच कोई क्यों नही बताता? क्या इन व्यवसायिक गुटो के सदस्य ही ब्लाग लिख रहे हैं और हम जैसे कुछ शौकिया लोग उनके लिये भीड़ की भेड़ की तरह हैं।

मेरा लक्ष्य साफ है। मुझे पैसा मिले या नहीं यह महत्वपूर्ण नहीं हैं पर आम ब्लाग लेखक के हित और आत्मसम्मान की रक्षा होना चाहिये। मैं चाहता हूं कि यह कुछ लोगों के लिये रोजगार का अवसर बने। ऐसा न हो कि उन बिचारों को बुलाकर लिखवाया जाये और फिर वह बोर होकर छोड़ जायें तो दूसरे आयें। इस देश में लिखने वाले बहुत मिल जायेंगे और ऐसे में व्यवसायिक गुटों का काम चलता रहेगा। क्या व्यवसायिक कौशल ने अनजान लेखकों को ऐसे ही घसीट कर काम चलाया जायेगा। इससे लिखा जरूर जायेगा पर अंतर्जाल पर हिंदी को वह सम्मान नहीं मिल पायेगा जिसकी आशा कुछ लोग कर रहे हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि गूगल का एडसेंस खाता केवल डोमेन बिकवाने के लिये बनाया गया है। क्या ऐसे इंतजाम किये गये हैं कि जो डोमेन पर पैसा खर्च न करे उसे एक भी पैसा कमाने का अवसर न मिले। ‘डोमेन माफिया’वह शब्द है जो वर्डप्रेस पर लिखने वाले एक ब्लागर ने उपयोग किया था। क्या यह डोमेन माफिया और ब्लागर माफिया मिलकर यहां इसी तरह कमाने की योजना बना चुके हैं?’
सच बात तो यह है कि इस विषय में मैं जो पाठ लिखता हूं वह किसी को पढ़ाने के लिये नहीं बल्कि उन रहस्यों को पढ़ने के लिये करता हूं जो छिपाये जा रहे हैं। सच तो यह है कि बहुत मन करता है कि अच्छे पाठ लिखूं पर समयाभाव के कारण छोटी रचनायें लिखता हूं क्योंकि यहां चोरी चकारी के डर तो है ही दादागिरी से भी जूझना है। आखिर कोई मुझसे पूछे बगैर मेरे ब्लाग लिंक कर सकता है? यह डोमेन वालों के साथ क्यों नहीं है। लोग यह क्यों कहते हैं कि अपने ब्लाग की सुरक्षा के लिये डोमेन लो। अगर कोई ब्लाग लेखक नहीं चाहता कि उसका ब्लाग लिंक हो तो क्या कोई जबरदस्ती लिंक कर सकता है? इस दादागिरी से मुकाबला करने का कोई उपाय तो होगा? क्या अधिक टैगों का विरोध करने वाले अपने प्रतिद्वंदी गुट के हाथ मेरे पाठ जाने से बचाना चाहते हैं? ब्लागरों के हितों की रक्षा पर कानूनविदों को के विषय में अवश्य सोचना चाहिए।

जहां तक टैग विवाद पर मेरे द्वारा लिखे गये पाठों की बात है। मुझे आश्चर्य इस बात का है कि किसी ने मेरी बात का खंडन नहीं किया। इससे यह तो लगता है कि अंतर्जाल पर हिंदी के लेखकों के शोषण की पूरी तैयारी की है और लिखने से अधिक चाटुकारिता में ही आर्थिक फायदा मिलता नजर आ रहा है। ऐसे में उन्मुक्त जी जैसे ब्लाग लेखकों से सहारे की आशा की जा सकती है। डोमेन और ब्लाग माफिया मेरे द्वारा लिये जा रहे शब्द नहीं है यह उन्हीं ब्लागरों ने लिखे हैं जो शायद अपने से हुई किसी बेईमानी से क्षुब्ध थे। यह अलग बात है कि उन्होंने अपने नाम छिपाये। अभी तक छद्म नाम से ही लोग लिखते जा रहे हैं। ऐसे में असली नाम से लिखने वालों को भ्रम तो रहता ही है। कभी कभी रौद्र रूप से लिखने के लिये मुझे इसलिये भी तैयार रहना पड़ता है क्योंकि लोग अपने को सम्मनित कराने के लिये मेरे ब्लाग को नीचा दिखाना चाहते हैं। दीपक भारतदीप को दो कुछ नहीं पर उसे ऐसे खेल में पराजित दिखाओं जो वह खेला ही नहीं। उनके इन्हीं प्रयासोंं को नाकाम करने की ताकत मेरे शब्दों में है जो मैंने अपने गुरूओं से प्राप्त की है और अब उन्मुक्त जी जैसे मित्रों के विश्वास के सहारे लिख रहा हूं।
अभी बस इतना ही। ऐसे अवसर पर अपने साथ ब्लाग मित्रों और पाठकों का आभारी हूं। आशा करता हूं कि आम ब्लाग लेखकों के हितों की रक्षा में उनका यही प्यार काम आयेगा। वही मेरे धणीसांईं हैं।

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पाठक संख्या बीस हजार पार करने की पूर्व संध्या पर कविता


मैं अंतर्जाल को एक मायाजाल ही मानता हूं। इसमें मेरे अनुभव अजीब तरह के हैं। अनेक लोग मुझसे मेरे बारे में जानना चाहते हैं पर मेरी दिलचस्पी केवल अपने शब्द लेखन तक ही सीमित है। कल मेरा यह ब्लाग बीस हजार की पाठक संख्या पार कर सकता है। दरअसल लोगों का प्यार इतना है कि मैं लिखता चला जाता हूं। कभी कभी मैं हिंदी ब्लाग जगत के विषय पर लिखता हूं तो पाठक कहते हैं कि आप तो अपनी बात लिखते रहें। जिस गति से यह ब्लाग बढ़ रहा है मुझे लगता है कि यह हिंदी पत्रिका की तरह हिट हो जायेगा। यह दोनों ब्लाग मैं बहुत लापरवाह होकर मनमर्जी से लिखता हूं। कमाल है जिन ब्लाग पर मैंने परवाह कर लिखा वह उतने हिट नहीं ले पाये जितना इन दोनों ने लिया। आज दरअसल इस पर मैं एक व्यंग्य लिखना चाहता था पर उसे शब्द ज्ञान पत्रिका पर प्रयोग के लिये डाल दिया।

वर्डप्रेस के ब्लाग पर अधिक टैग और श्रेणियां बनाने की सुविधा है इसलिये यहां पाठक के पास पहुंचने का व्यापक दायरा हो जाता है। एक तरह से इस पर लिखना अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर होना है, पर अंततः आपको लिखना तो अच्छा पड़ता ही है। आज पूर्व संध्या पर पंक्तियां लिखने का मन है।
—————
जब सूरज डूब जाता है
तब रौशनी करता है चिराग
जहां चिंगारी काम करती हो
वहां क्या करेगी आग
चलें हैं हम इस पथ पर
मंजिल का पता नहीं
चले जा रहे हैं आगे रास्ता
जाता तो होगा कहीं
कहीं तो मिलेगा उम्मीद का बाग

सुनते है सबकी
करते हैं मन की
न काहू से दोस्ती न काहू से बैर
सबकी मांगें भगवान सै खैर
तारीफ तो करते हैं दोस्तों की
आलोचकों से भी नहीं है नफरत
अपनी जिंदगी है अपना राग

………………………………………………………….

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अकेलापन-हिंदी शायरी


जब याद आती है अकेले में किसी की
खत्म हो जाता है एकांत
जिन्हें भूलने की कोशिश करो
उतना ही मन होता क्लांत
धीमे-धीमे चलती शीतल पवन
लहराते हुए पेड़ के पतों से खिलता चमन
पर अकेलेपन की चाहत में
बैठे होते उसका आनंद
जब किसी का चेहरा मन में घुमड़ता
हो जाता अशांत

अकेले में मौसम का मजा लेने के लिये
मन ही मन किलकारियां भरने के लिये
आंखे बंद कर लेता हूं
बहुत कोशिश करता हूं
मन की आंखें बंद करने की
पर खुली रहतीं हैं वह हमेशा
कोई साथ होता तो अकेले होने की चाहत पैदा
अकेले में भी यादें खत्म कर देतीं एकांत
……………………………
दीपक भारतदीप

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शब्दों के फूल कभी नहीं मुरझाये-हिंदी शायरी


कुछ पाने के लिये

दौड़ता है आदमी इधर से उधर

देने का ख्याल कभी उसके

अंदर नहीं आता

भरता है जमाने का सामान अपने घर में

पर दिल से खाली हो जाता

दूसरे के दिलों में ढूंढता प्यार

अपना तो खाली कर आता

कोई बताये कौन लायेगा

इस धरती पर हमदर्दी का दरिया

नहाने को सभी तैयार खड़े हैं

दिल से बहने वाली गंगा में

पर किसी को खुद भागीरथ
बनने का ख्याल नहीं आता
……………………………….
अपने नाम खुदवाते हुए

कितने इंसानों ने पत्थर लगवाये

पर फिर भी अमर नहीं बन पाये

जिन्होंने रचे शब्द

बहते रहे वह समय के दरिया में

गाते हैं लोग आज भी उनका नाम

कुछ पत्थरों पर धूल जमी

कुछ टूट कर कंकड़ हो गये

पर


……………………….

दीपक भारतदीप

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दूसरे के दर्द में अपनी तसल्ली ढूंढता आदमी-हिंदी शायरी


शहर-दर-शहर घूमता रहा

इंसानों में इंसान का रूप ढूंढता रहा
चेहरे और पहनावे एक जैसे

पर करते हैं फर्क एक दूसरे को देखते

आपस में ही एक दूसरे से

अपने बदन को रबड़ की तरह खींचते

हर पल अपनी मुट्ठियां भींचते

अपने फायदे के लिये सब जागते मिले

नहीं तो हर शख्स ऊंघता रहा

अपनी दौलत और शौहरत का

नशा है

इतराते भी उस बहुत

पर भी अपने चैन और अमन के लिये

दूसरे के दर्द से मिले सुगंध तो हो दिल को तसल्ली

हर इंसान इसलिये अपनी

नाक इधर उधर घुमाकर सूंघता रहा
……………………………
दीपक भारतदीप

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आओ लिखें-छटांक भर कविता


सागर की लहरे कितनी पास हों
किसी की प्यास नहीं बुझती
गागर की बूंदें ही काम आयें
दस दिशाऐं हैं धरती पर
जब चलें पांव एक ही दिशा में जायें
हाथी बड़ा बहुत है
महावत उस पर अंकुश की नौक से काबू पायें
बड़ा होने से क्या होता है
अगर कोई जमाने के का काम का न हो
छोटा है मजदूर तो क्या
उसी हाथ से बड़े-बड़े महल बन जायें
इतिहास में दर्ज है
बड़ों-बड़ों के पतन की कहानी
पढ़कर लोग भूल जाते
पर कवियों की छोटी छोटी
दिल को सहलाने वाले शब्द
कभी लोग भूल न पायें
बड़े बड़े ग्रंथ लिखकर भी
अगर जमाने को खुश न कर सके तो क्या फायदा
लिखे का असर दूर तो हो यही है कायदा
किलो की किताब लिखने से अच्छा है
आओ लिखें छटांक भर कवितायें
लोगों के दिमाग से उतरकर वापस न लौटें
उनके दिल में उतर जायें
बड़ी न हो, भले छोटी हो रचनायें

………………………………

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ख्वाहिश है कि जमाना उनको सलाम करे- हिन्दी शायरी


जिंदगी जीने का उनको बिल्कुल सलीका नहीं है
उनके पास वफा बेचने का कोई एक तरीका नहीं है
भीड़ में मचायें शोर अपनी जिंदगी के तजूर्बे का
पर उससे कभी कुछ खुद सीखा नही है
ख्वाहिश है कि जमाना उनको सलाम करे
आवाजें हैं उनकी बहुत तेज,पर शब्द तीखा नहीं है
बेअसर बोलते हैं पर जमाना फिर भी मानता है
उनको परखने का खांका किसी ने खींचा नहीं है
ईमानदार के ईमान को ही देते हैं चुनौती
खुद कभी उसका इस्तेमाल करना सीखा नही है
फिर भी नाम चमक रहा है इसलिये आकाश में
जमीन पर लोगों ने अपनी अक्ल से चलना सीख नहीं है
………………………………….

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दिल के मचे तूफानों का कौन पता लगा सकता ह-हिन्दी शायरी



मोहब्बत में साथ चलते हुए
सफर हो जाते आसान
नहीं होता पांव में पड़े
छालों के दर्द का भान
पर समय भी होता है बलवान
दिल के मचे तूफानों का
कौन पता लगा सकता है
जो वहां रखी हमदर्द की तस्वीर भी
उड़ा ले जाते हैं
खाली पड़ी जगह पर जवाब नहीं होते
जो सवालों को दिये जायें
वहां रह जाते हैं बस जख्मों के निशान
……………………………
जब तक प्यार नहीं था
उनसे हम अनजान थे
जो किया तो जाना
वह कई दर्द साथ लेकर आये
जो अब हमारी बने पहचान थे
…………………………..
दीपक भारतदीप

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उनके लिये जज्बात ही होते व्यापार-हिन्दी शायरी


कुछ लोग कुछ दिखाने के लिये बन जाते लाचार
अपनी वेदना का प्रदर्शन करते हैं सरेआम
लुटते हैं लोगों की संवेदना और प्यार
छद्म आंसू बहाते
कभी कभी दर्द से दिखते मुस्कराते
डाल दे झोली में कोई तोहफा
तो पलट कर फिर नहीं देखते
उनके लिये जज्बात ही होते व्यापार

घर हो या बाहर
अपनी ताकत और पराक्रम पर
इस जहां में जीने से कतराते
सजा लेते हैं आंखों में आंसु
और चेहरे पर झूठी उदासी
जैसे अपनी जिंदगी से आती हो उबासी
खाली झोला लेकर आते हैं बाजार
लौटते लेकर घर दानों भरा अनार

गम तो यहां सभी को होते हैं
पर बाजार में बेचकर खुशी खरीद लें
इस फन में होता नहीं हर कोई माहिर
कामयाबी आती है उनके चेहरे पर
जो दिल में गम न हो फिर भी कर लेते हैं
सबके सामने खुद को गमगीन जाहिर
कदम पर झेलते हैं लोग वेदना
पर बाहर कहने की सोच नहीं पाते
जिनको चाहिए लोगों से संवेदना
वह नाम की ही वेदना पैदा कर जाते
कोई वास्ता नहीं किसी के दर्द से जिनका
वही बाजार में करते वेदना बेचने और
संवेदना खरीदने का व्यापार
…………………………………………………

हिट की परवाह की तो ब्लाग पर लिखना कठिन होगा-संपादकीय


अंतर्जाल वाकई एक बहुत बड़ा मायाजाल है। हिंदी के समस्त ब्लाग एक जगह दिखाये जाने वाले फोरमों पर आपस में संपर्क रखने की जो सुविधा है वह एक अनूठी है। जिन लोगोंे ने नारद फोरम के साथ अपने ब्लाग जीवन की शुरुआत की है वह उसे भूल नहीं सकते। वहां पर दूसरों को हिट और स्वयं को फ्लाप ब्लागर देखकर कुछ लेखकों को अपनी तौहीन लगती थी क्योंकि ऐसा लगता कि हिंदी के अंतर्जाल की दुनियां यहीं सिमटी हुई है। अनेक लोग यहां हिट प्राप्त करते रहे इसी कारण उन विषयों पर लिखने के आदी हो गये जिससे ब्लाग लेखकों में हिट मिलें। इनमें तो कई गजब के लेखक हैं और आज भी उनको जमकर हिट मिलते हैं। उनको पढ़ना बुरा नहीं है क्योंकि उनसे ही यही सीखा जा सकता है कि आपको क्या पसंद नहीं है और जो आपको पंसद नहीं है वह आम पाठक को भी पसंद नहीं आयेगा। ऐसे में अपने अंदर कुछ अलग लिखने के प्रेरणा पैदा होती है।
पहले ब्लाग लेखकों को यह पता ही नहीं था कि आखिर उनके ब्लाग की पहुंच कहां तक है? धीरेधीरे यह स्पष्ट हो गया है कि एच.टी.एम.एल से लिखी गयी सामग्री ही ब्लाग की ताकत होती है। इन फोरमों पर फ्लाप रहने के बावजूद कई लोग लिख रहे हैं क्योंकि वह जानते हैं कि अंततः उनके लिखे पाठों का महत्व ही उनको प्रचार दिला सकता है। सच तो यह है कि ब्लाग लेखकों में हिट दिलाने वाली सामग्री केवल उसी दिन के लिये महत्वपूर्ण है जिस दिन लिखी गयी है। उसके बाद उसका कोई महत्व नहीं रह जाता। ब्लाग लेखकों से लेखक ब्लागरों का सामंजस्य बैठ पाना कठिन है। मेरे कई ब्लाग लेखक मित्र है और उनकी सदाशयता ने मुझे प्रेरित किया है उनकी हिंदी ब्लाग जगत के प्रति निष्ठा भी असंदिग्ध है पर यहां कुछ ऐ से लोग भी हैं जो लिखने के बावजूद गंभीर नहीं हैं। बंदरों की तरह उछलकूद कर वह यह जताते हैं कि वह यहां के श्रेष्ठ ब्लागर हैं पर उनका लेखन एक ब्लागर लेखक के रूप में मुझे पसंद आता है पाठक के रूप में नहीं। इन फोरमों पर हिट और फ्लाप का खेल नकली है इस बात को समझ लेना चाहिए। कभी तो ऐसा लगता है कि यहां कुछ लोगों को हिट इतने न मिलें तो वह लिखना ही बंद कर देंगे। संभवतः यही कारण है ऐसे लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है पर दूसरे लोग हतोत्साहित न हों इसलिये मैं प्रतिवाद स्वरूप अपने कुछ पाठ लिख देता हूं जो मेरे मित्र ब्लागरों को पसंद नहीं आते। जिन लोगों को गंभीर और सोद्देश्य लेखक करना है उन्हें यहंा हिट का मोह त्यागना होगा। यहां अपनी सुविधा और विचार से पसंद और हिट हैं पर किसी भी तरह से आम पाठक का प्रतिनिधित्व यहां नहीं है। यहां कुछ ऐसे ब्लाग लेखक जबरदस्त हिट पा रहे हैं जिनके लेखन को आम पाठक के लिये तो कभी भी मतलब का नहीं माना जा सकता। जिन लोगों ने अपने आपको यहां का नेता समझा है वह बड़े शहरों रहते हैं और प्रचार माध्यमों में अपनी पहुंच का लाभ उठाकर कर अपने ऐसे ब्लाग लेखकों को प्रचार दिलवाते हैं जिनका लेखक आम पाठक के रूप में प्रभावित नहीं करता। हालांकि मैं उनको स्वयं बहुत दिलचस्पी से पढ़ता हूं। एक दिलचस्प बात यह है कि जिन ब्लाग लेखकों को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया जा रहा है उनमें अधिकांशतः ब्लाग स्पाट पर ही लिखते हैं जिनको प्रोत्साहित करने की आवश्यकता होती है। ब्लागस्पाट के ब्लाग तकनीकी कारणों से अधिक पाठक नहीं जुटा पाते। जिस दिन पाठ लिखो उस दिन हिट आते हैं पर फिर शांति छा जाती है। इसके विपरीत वर्डप्रेस के ब्लाग अधिक पाठक जुटाते हैं। यही कारण है कि यहां लिखते हुए कभी ऐसा नहीं लगता कि किसी की परवाह की जाये। ब्लाग स्पाट पर लिखते हुए मुझे ऐसा लगता है कि जैसे अपनी डायरी में लिख रहा हूं। यहां से उठाकर वर्डप्रेस पर रखे गयी कम से कम दस पाठ ऐसे हैं जो पांच सौ से अधिक बार पढ़े जा चुके हैं जबकि यहां उनको बीस से अधिक लोग नहीं पढ़ पाये। ऐसे में मेरा हौसला बढ़ता है। इसके पीछे तकनीकी कारण है जिसका अनुसंधान मैं कर उसका निष्कर्ष भी प्रस्तुत करूंगा। वैसे जिस तरह ब्लाग स्पाट तेजी से अपने स्वरूप में बदलाव ला रहा है उससे अनेक लाभ भी होना है।

ब्लाग लेखकों का एक समूह हिंदी ब्लाग जगत को अपनी जागीर समझ रहा है। यह लोग अपने को मिली सुविधाओं का उपयोग इस तरह कर रहे हैं जैसे कि वह बहुत बड़े लेखक हैं। अगर उनके हिट की लेखक ब्लागर परवाह करेंगे तो फिर वह उस भीड़ में खो जायेंगे जिसकी पहचान कभी नहीं बनती। मैं उन कवि और लेखक ब्लागरों की तारीफ करूंगा जो इन ब्लाग लेखकों के हिट की परवाह किये बिना लिख रहे हैं। सच तो यह है कि लेखक ब्लागरों में ही वह ताकत है जो वह अंतर्जाल में प्रतिष्ठा प्राप्त करेंगे। पिछले कई दिनों से वर्डप्रेस पर लिखी गयी हास्य और गंभीर कविताओं, चिंतन और आलेखों की बढ़ते पाठकों की संख्या देखकर मुझे ऐसा लगता है कि उनमें और अधिक वृद्धि होगी। यह एक दिलचस्प तथ्य है कि ब्लाग के विषय में लिखे गये विषयों को इन फोरमों पर ठीकठाक हिट मिले पर फिर बाद में उनका कोई पाठक नहीं मिला। कई हास्य गंभीर कवितायें तो इतने हिट जुटा लेती हैं कि मुझे स्वयं पर ही यकीन नहीं होता जबकि कहा जाता है कि लोग कविताएं पढ़ना नहीं चाहते। ईपत्रिका ने एक दिन में 253 पाठक जुटाये जो जबकि मेरे एक दूसरे ब्लाग पर सर्वाधिक 215 पाठकों की संख्या थी।
एक बात तय है कि अंतर्जाल पर बेहतर साहित्य लिखने वालों का भविष्य उज्जवल है पर उसके लिये उनको धैर्य धारण करना होगा। इन फोरमों पर अपने ब्लाग अवश्य पंजीकृत करवायें पर हिट के लिये आम पाठक की दृष्टि से ही लिखने का विचार करें। ब्लाग लेखकों से संपर्क रखना आवश्यक है क्योंकि इनमें कई लोग तकनीकी रूप से बहुत कुछ सीख गये हैं और उनके ब्लाग पढ़ते रहना चाहिए। अभी मैंने एक ब्लाग लेखक का पाठ पढ़कर ही अपने ब्लागस्पाट के पाठ में सुधार किया और उससे वह आकर्षक बन गया। इसके बावजूद इन ब्लाग लेखकों के हिट की परवाह की तो आम पाठक के लिये लिखना कठिन हो जायेगा। इस ब्लाग के एक दिन में 250 से अधिक पाठक जुटाने पर बस इतना ही। यह ब्लाग बीस हजार की संख्या की तरफ बढ़ रहा है और उस समय शेष बात लिखी जायेगी।

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इश्क पर लिखते हैं, मुश्क कसते हैं शायर-हास्य व्यंग्य कविता


अपने साथ भतीजे को भी
फंदेबाज घर लाया और बोला
‘दीपक बापू, इसकी सगाई हुई है
मंगेतर से रोज होती मोबाइल पर बात
पर अब बात लगी है बिगड़ने
उसने कहा है इससे कि एक ‘प्रेमपत्र लिख कर भेजो
तो जानूं कि तुम पढ़े लिखे
नहीं भेजा तो समझूंगी गंवार हो
तो पर सकता है रिश्ते में खटास’
अब आप ही से हम लोगों को आस
इसे लिखवा दो कोई प्रेम पत्र
जिसमें हिंदी के साथ उर्दू के भी शब्द हों
यह बिचारा सो नहीं पाया पूरी रात
मैं खूब घूमा इधर उधर
किसी हिट लेखक के पास फुरसत नहीं है
फिर मुझे ध्यान आया तुम्हारा
सोचा जरूर बन जायेगी बात’

सुनकर बोले दीपक बापू
‘कमबख्त यह कौनसी शर्त लगा दी
कि उर्दू में भी शब्द हों जरूरी
हमारे समझ में नहीं आयी बात
वैसे ही हम भाषा के झगड़े में
फंसा देते हैं अपनी टांग ऐसी कि
निकालना मुश्किल हो जाता
चाहे कितना भी जज्बात हो अंदर
नुक्ता लगाना भूल जाता
या कंप्यूटर घात कर जाता
फिर हम हैं तो आजाद ख्याल के
तय कर लिया है कि नुक्ता लगे या न लगे
लिखते जायेंगे
हिंदी वालों को क्या मतलब वह तो पढ़ते जायेंगे
उर्दू वाले चिल्लाते रहें
हम जो शब्द बोले उसे
हिंदी की संपत्ति बतायेंगे
पर देख लो भईया
कहीं नुक्ते के चक्कर में कहीं यह
फंस न जाये
इसके मंगेतर के पास कोई
उर्दू वाला न पहूंच जाये
हो सकता है गड़बड़
हिंदी वाले सहजता से नहीं लिखें
इसलिये जिन्हें फारसी लिपि नहीं आती
वह उर्दू वाले ही करते हैं
नुक्ताचीनी और बड़बड़
प्रेम से आजकल कोई प्यार की भाषा नहीं समझता
इश्क पर लिखते हैं
पब्लिक में हिट दिखते हैं
इसलिये मुश्क कसते हैं शायर
फारसी का देवनागरी लिपि से जोड़ते हैं वायर
इसलिये हमें माफ करो
कोई और ढूंढ लो
नहीं बनेगी हम से तुम्हारी बात
……………………………………………………………….

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भला कहां हमें कच्चे धागों का बंधन निभाना है-हास्य कविता


उसने घर में घुसते ही
अपने चारों मोबाइल का स्विच आफ कर
अल्मारी में रख दिये
फिर अपनी टांगें सोफे पर फैलाई
पास ही बैठा देख रहा था छोटा भाई

उसने बड़े भाई से पूछा
‘यह क्या किया
जान से प्यारे
मोबाइलों का स्विच आफ किया
सभी को अल्मारी की कैद में डाल दिया
अब वह चारों जानूं जानूं कहकर
किसे पुकारेंगी
बैठे तुम्हारे नंबरों को निहारेंगी
क्या उन सबसे बोर हो गये हो
यह इश्क से परेशान घोर हो गये हो
या कोई पांचवीं पर दिल आ गया है
तुम मोबाइल भी साथ रखकर सोते हो
उसकी घंटी और तुम्हारी आवाजें सुनकर
तो लगता नहीं कि कभी नींद तुम्हें आई
ऐसा क्या हो गया
कहीं तुमने इश्क से सन्यास की कसम तो नहीं खाई’

बड़ा भाई बोला
‘आज तो था आजादी की दिन
खूब जमकर बनाया
मैं तो निकला था घर से खरीदने का किराना
वह भी चारों अलग अलग आई
कोई निकली थी कालिज में फंक्शन का
कोई सहेली के साथ पिकनिक का
कोई निकली थी स्पेशल क्लास का बनाकर बहाना
लक्ष्य एक ही था इश्क करते हुए
मोटर सायकिल पर घूमते हुए
इस बरसात में नहाना
सभी के परिवार वाले घर में बंद थे
अपने कामों के पाबंद थे
इसलिये कहीं किसी का डर नहीं था
सचमुच हमने आजादी मनाई
पर कमबख्त यह राखी भी कल आई
भाईयों को राखी बांधकर वह
फिर मोबाइल पर देंगी आवाज
हो जायेगा में मेरे लिये मुसीबत का आगाज
फिर तो मुझे जाना पड़ेगा
नहीं तो पछताना पड़ेगा
कल अगर गया तो फिर
आज जैसे ही घुमाना पड़ेगा
मेरे दोस्त भी बहुत है
किसी कि बहिन है इधर
तो किसी की उधर
सभी कल चहलकदमी सड़कों पर करेंगे
मेरे साथ किसी को देख लिया तो
माशुका की जगह बहिन समझेंगे
चारों में से किसी के साथ तो
परमानेंट टांका भिड़ेगा
पर बाद में दोस्तों की फब्तियों से
कौन घिरेगा
आज तो सभी की आंख
वैसे ही पवित्र देखने लग जाती हैं
अक्ल माशुका को भी बहिन समझ पाती है
ऐसे में अच्छा है बाद के लफड़ों से
एक दिन के लिये इश्क से दूर हो जाऊं
क्यों मैं किसी के भाई की उपाधि पाऊं
किसी को जिंदगी का हमसफर तो बनाना है
भला कहां हमें कच्चे धागों का बंधन निभाना है
इसलिये मैंने राखी के दिन को ही
पूर्ण आजादी की तरह मनाने की अक्ल पाई
………………………………………..
नोट-यह कविता पूरी तरह काल्पनिक है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा
भला कहां कच्चे धागों का बंधन निभाना है-हास्य कविता

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किताबों में लिखे शब्दों की पंक्तियां उनके पांव में बेड़ियाँ नजर आ रही हैं-हिंदी शायरी


किताब में लिखे शब्दों की पंक्तियां
सलाखों की तरह नजर आ रही हैं
कुछ चेहरे छिपे हैं उसके पीछे
जिनकी आंखें बुझी जा रही हैं

पाठ है आजादी का
जिसमें कई कहानियां हैं
लोग उन्हें सुनाये जा रहे हैं
पर उससे आगे नहीं जा पा रहे ं
क्योंकि किताब एक कैद की तरह हो गयी है
कोई दूसरी मिल जाये तो
शायद वह उससे निकल पायें
पर वह भी एक दूसरी कैद होगी
जिसमें वह फिर बंद हो जायें
संभव है उसी में लिखा पढ़कर सभी को सुनायें
अपनी सोच बंद है आलस्य के पिंजरे में कैद
दूसरों के ख्याल पर जली मोमबत्तियों पर
पढ़ने वाले कैदी रौशनी पा रहे हैं
आजादी के गीत गा रहे हैं
पुरानी कहानियों के दायरों से बाहर
कौन बाहर आयेगा
शब्दों का पहरेदार फिर
उनको अंदर भगायेगा
शहीदों के समाधि पर लगाकर
हर वर्ष मेले
नयी सूरतें अपना मूंह छिपा रहीं हैं
किताब में लिखी शब्दों की पंक्तियों
उनके पांव बेड़ी की तरह तरह नजर आ रही हैं
…………………………………………………….
……………………………………………………..

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जुबान अंदाज हालातों का नहीं करती-हिंदी शायरी


सपने सजाता है
उनको बिखरता देख
टूट जाता है मन
कहीं लगाने के लिये ढूंढो जगह
वहीं शोर बच जाता है
जैसे जल रहा हो चमन

भला आस्तीन में सांप कहां पलते हैं
इंसानों करते हैं धोखा
नाम लेकर का खुद ही जलते हैं
क्या दोष दें आग को
जब अपने चिराग से घर जलते हैं
वही सिर पर चढ़ आता है
जिसे करो पहले नमन
जब बोलने को मचलती है जुबान
हालातों अंदाज का नहीं करती
चंद प्यार भरे अल्फाज भी
नहीं दिला पाते वह कामयाबी
जो खामोशी दिला देती है
सपनों में जीना अच्छा लगता है
पर हकीकत वैसी नहीं होती अमूनन
…………………………………..

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क्योंकि कोई किसी का नहीं हुआ-हिंदी शायरी


हमने देखा था उगता सूरज
उन्होने देखा डूबता हुआ
वह कर रहे थे चंद्रमा की रौशनी में
जश्न मनाने की तैयारी
पर हमने बिताया था पूरा दिन
सूरज की तपती किरणों में
अपने पसीने में नहाते
हमारा मन भी था डूबा हुआ

वह आसमान में टिमटिमाते तारों की
बात करते रहे
उनकी रात
खुशियों की कहानी कह रही थी
जबकि हमारे बदन से पसीने की
बदबू बह रही थी
सबकी जमीन और आसमान
अलग-अलग होते हैं
किसी को रात डराती है तो किसी को दिन
किसी को भूख नहीं लगती किसी को सताती है
इसलिए सब होते हैं अकेले
क्योंकि कोई किसी का नहीं हुआ
—————————–

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चमन की बागडोर है जिसके हाथ वही दुश्मन हो जाता-हिंदी शायरी


लुट जाने का खतरा अब
गैरो से नहीं सताता
अपनों को ही यह काम
अच्छी तरह अब करना आता

पहरेदारी अपने घर की किसे सौेपे
यकीन किसी पर नहीं आता
जहां भी देखा है लुटते हुए लोगों को
अपनों का हाथ नजर आता
कई बाग उजड़ गये हैं
माली के हाथों जब
जोअब फूल नहीं लगाता
इंतजार रहता है उसे
कोई आकर लगा जाये पेड़ तो
वह उसे बेच आये बाजार में
इस तरह अपना घर सजाता
नाम के लिये करते हैं मोहब्बत
बेईमानी से उनकी है सोहबत
जमाने के भलाई का लगाते जो लोग नारा
लूट में उनको ही मजा आता
कहें महाकवि दीपक बापू
मन में है उथलपुथल तो
अमन कहां से आयेगा यहां
जिनके हाथ में बागडोर होती चमन की
किसी और से क्या खतरा होगा
वही उसका दुश्मन हो जाता

…………………………….

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कौन करे सच का इजहार-हिंदी शायरी


आँख के अंधे अगर हाथी को
पकड कर उसके अंगों को
अंगों का देखें अपनी अंतदृष्टि से
अपनी बुद्धि के अनुसार
करें उसके अंगों का बयान
कुछ का कुछ कर लें
तो चल भी सकता है
पर अगर अक्ल के अंधे
रबड़ के हाथी को पकड़ कर
असल समझने लगें तो
कैसे हजम हो सकता है

कभी सोचा भी नहीं था कि
नकल इतना असल हो जायेगा
आदमी की अक्ल पर
विज्ञापन का राज हो जायेगा
हीरा तो हो जायेगा नजरों से दूर
पत्थर उसके भाव में बिकता नजर आएगा
कौन कहता है कि
झूठ से सच हमेशा जीत सकता है
छिपा हो परदे में तो ठीक
यहाँ तो भीड़ भरे बाजार में
सच तन्हाँ लगता है
इस रंग-बिरंगी दुनिया का हर रंग भी
नकली हो गया है
काले रंग से भी काला हो गया सौदागरों का मन
अपनी खुली आंखों से देखने से
कतराता आदमी उनके
चश्में से दुनियां देखने लगता है
………………………………………………..

आंखें से देखता है दृश्य आदमी
पर हर शय की पहचान के लिये
होता है उसे किसी के इशारे का इंतजार
अक्ल पर परदा किसी एक पर पड़ा हो तो
कोई गम नहीं होता
यहां तो जमाना ही गूंगा हो गया लगता है
सच कौन बताये और करे इजहार

…………………………………………………………

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नहीं मिलते उनकी करतूतों के निशान-हिंदी शायरी


कई किताबें पढ़कर बेचते है ज्ञान
अपने व्यापार को नाम देते अभियान
चार दिशाओं के चौराहे पर खड़े होकर
देते हैं हांका
समाज की भीड़ भागती है भेड़ों की तरह
नाम लेते हैं शांति का
पहले कराते हैं सिद्धांतों के नाम पर झगड़ा
बह जाता है खून सड़कों पर
उनका नहीं होता बाल बांका
कोई तनाव से कट जाता
कोई गोली से उड़ जाता
पर किसी ने उनके घर में नहीं झांका
कहीं नहीं मिलते उनकी करतूतों के निशान
…………………………………………….

हमें मंजिल का पता बताकर
खुद वह जंगल में अटके हैं
कहने वाले सच कह गये
जो सबको बताते हैं
नदिया के पार जाने का रास्ता
वह स्वयं कभी पार नहीं हुए हैं
कहैं महाकवि दीपक बापू
उन्मुक्त भाव से जीते हैं जो लोग
मुक्त कहां हो पाते हैं स्वयं
दुनियां भर के झंझट उनके मन के बाहर लटके हैं
………………………………………….

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तब तक अधूरा है अभिव्यक्ति का सृजन-हिंदी शायरी


जो सरल और सहज हैं
जिन के दिल में हैं नेकनीयति
करते हैं वही रचना का सृजन
जिन पर खुद की ख्वाहिशों और
अरमानों को पूरा करने का बोझ है
समाज में तनाव का करते हैं वही विसर्जन

दूसरे के दर्द को अपने दिल की
आंखों से देखकर जो करते हैं विचार
सृजक वही बन पाते हैं
जो सतह पर तैरते हुए केवल
दिखाने के लिए बनते हैं हमदर्द
वह तो शब्द के सौदागर हैं
बेच लें बाजार में ढेर सारी रचनाएं
पर फिर भी सृजक नहीं कहलाते हैं
प्रसिद्धि और प्रशंसा के ढेर सारे शब्द
अपने खजाने में जमा करते लेते
पर सृजन की उपाधि का नहीं कर पाते अर्जन

कहने से कोई सृजक नहीं हो जाता
चंद शब्द लिखने से कोई सृजन नहीं हो पाता
आखों से पढ़कर
कानों से सुनकर
हाथों से स्पर्श कर
जब तक अपनी अनुभूतियों को
दिल में डुबोया न जाए
तब तक रस और श्रृंगार के बिना
अधूरा है अभिव्यक्ति का सृजन
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एक टुकड़ा बरफी-हास्य कविता


एक पड़ौसन ने दूसरी से कहा
‘तुम्हें बधाई हो बधाई
तुम्हारे पतिदेव जहां करते हैं
मदद का काम
वहां आई जमकर भारी बाढ़
वहां बरसात हुई है जाम
अब तो तुम्हारे घर लक्ष्मी बरसेगी
सारी दुनियां तुम्हें देखकर
अपने अच्छे भाग्य को तरसेगी
यह खबर आज अखबार में आई
तुम हमें खिलाना अब अच्छी मिठाई‘

सुनकर दूसरी पड़ौसन भड़की और बोली
‘मैं क्यों खिलाऊं तुम्हें मिठाई
तुम्हारे जहां करते हैं
लोगों की सेवा का काम
वहां भी तो पड़ा था भारी सूखा
तुम्हारे घर में यहां बन रहे थे पकवान
वहां खाने को तरसे थे लोग रूखा सूखा
तब तो तुमने किसी को यह
खबर तक नहीं बताई
मिठाई मांगने के लिये तो
बिना टिकट चली आई
पर जब आ रहा था सूखे के समय
रोज घर में नया सामान
तब तुमने एक टुकड़ा बरफी भी नहीं भिजवाई
इसलिये तुम भूल जाओ मिठाई
………………………………………………..

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भीड़ की भेड़ नहीं शेर बनो-हिदी शायरी


भीड़ में सबको भेड़ की तरह
हांकने कि कोशिश में हैं सब
चलते जाते हैं आगे ही आगे
सीना तानकर अपना चलते
पर कोई शेर आ जाये सामने
तो कायरता का भाव उनमें जागे

भेड़ों की तरह भीड़ में चलते
अब में थक गया हूँ
सोचता हूँ कि अब बची जिन्दगी
शेरों की तरह लड़ते हुए गुजारूं
कर देते हैं वह शिकार होने के लिए भेड़ों को आगे
सियारों का ही खेल चल रहा है सब जगह
जो कभी सामने नहीं आते
भेडो को शिकार के लिए सामने लाते
खुद चढ़ जाते अट्टालिकाओं पर भागे-भागे

मन नहीं चाहता किसी को
अपने पंजों से आहत करूं
पर फिर सोचता हूँ कि
मैं किसी की भेड़ भी क्यों बनूँ
चल पडा हूँ
जिन्दगी की उस दौर में
जहाँ शेर ही चल सकते हैं आगे
——————————————

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अमीरी का यहां बसेरा बसाया-लघुकथा


एक धनी परिवार के लोगों ने अपने मुखिया की स्मृति में कार्यक्रम आयोजन करना चाहते थे। आमंत्रण पर कविता छपवानेे के लिये उन्होंने एक हास्य कवि से संपर्क किया और उसे अपने मुखिया के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए एक कविता लिखने का आग्रह किया। बदले में कार्यक्रम के दौरानं उसको सम्मानित करने का लोभ भी दिया। वह कवि तैयार हो गया। उसने कविता लिखी और देने पहुंच गया। उस कविता मे कुछ इस तरह भी था।

पहले उन्होंने गरीबों के पुराने
घरों के येनकेन प्रकरेण हथियाया
जो नहीं हट रहे थे उनको
अपनी ताकत से हटवाया
अपना निजी बुलडोजर चलाया
जमकर बरपाया कहर
पर लगन से किसी भी तरह
अपनी कल्पानाओं का नया शहर बसाया
इतने महान थे वह कि
एक गरीब जो अपने मकान से
निकलने के बाद बीमारी में मर गया
उसके नाम पर नये शहर का
नामकरण करवाया
शहर के लिये देखा था जो सपना
उन्होंने पूरा कर दिखाया

उसकी कविता पढ़कर परिवार वाले हास्य कवि पर बहुत बिफरे और उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया। जब उसके प्रतिद्वंद्वी कवि को यह पता लगी तो उनके पास अपनी कविता बेचने को पहुंच गया। उसने जो कविता लिखी उसमे कुछ सामग्री इस तरह थी।

शहर से गरीबी हटाने का
उनका एक ख्वाब था
जो उन्होंने पूरा कर बताया
कैसे अपनी सोच को जमीन पर
लायें यह उन्होंने बताया
कभी यहां फटेहाल और कंगाल लोगों की
बस्ती हुआ करती थी
चारों तरफ गंदगी और बीमारी
बसेरा करती थी
उस पर जो डाली उन्होंने अपनी तीक्ष्ण दृष्टि
सब साफ हो गयी
उनके तेज का यह परिणाम था कि
गरीबी की रेखा यहां आफ हो गयी
आज खड़े हैं यहां महल और कारखाने
पेड़ पौधो के थे यहां कभी जमाने
आज पत्थरों और ईंट के बुत खड़े हैं
उनके विकास की धारा का परिणाम है
अब यहां आदमी नहीं मिलता
लोग देते हैं घर के नौकरों के लिये विज्ञापन
देखो अब यहां कितना काम है
उन्होंने इस तरह गरीबी को भगाकर
अमीरी का यहां बसेरा बसाया

उसकी कविता से उस धनी परिवार के सदस्य प्रसन्न हो गये और उसे स्मृति कार्यक्रम में सर्वश्रेष्ठ कवि का सम्मान दिया।
………………………

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वफा मुफ्त में नहीं मिलती-हिंदी शायरी


वफा अब मुफ्त में नहीं मिलती
अगर दाम देने की ताकत हो पास तो
बेचने वाले सौदागरो की भीड़ दिखती
ओ बाजार में खड़े इंसान
अपने मन में कोई खुशफहमी में आकर
किसी से बिना मतलब वफा की
उम्मीद कभी न करना
वफा के सौदागर तरक्की में लगे हैं
उन्हें भी यह कभी मुफ्त में नहीं मिलती
कौड़ी के भाव भले ही खरीद लें वह
पर आम इंसान को सोने के भाव मिलती
……………………………………………………………

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पहले एक कौवा दिखा दो-व्यंग्य कविता


एक श्रोता ने कवि से कहा
‘अपने को बहुत बड़ा कवि समझते हो तो
कौवे पर कोई व्यंग्य कविता लिख कर दिखा दो’
कवि ने उदास होते हुए कहा
‘कौवे पर कविता लिख सकता हूं
पर वीभत्स रस से सराबोर हो जायेगी
सुन लोगे तो तुम्हें रात भर
नींद नहीं आयेगी
कौवे की तस्वीर भी तुम्हें सतायेगी
जिसकी नस्ल ही लुप्त हो रही हो
अब पहले की तरह कांव-कांव कर
कहां नजर आते
दिख जायें तो इंसानों की
बुरी नजर का शिकार हो जाते
उस पर व्यंग्य कविता कैसे लिखें
तुम कहीं चलकर पहले एक कौवा दिखा दो’
…………………………………………………………….

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भिखारी से साक्षात्कार-लघुकथा (intervew with bagger-hindi laghu kahani)


            वह लेखक मंदिर के अंदर गया और वहां से बाहर लौटा तो गेहूंआ कुर्ता और सफेद धोती पहले और माथे पर लाल तिलक लगाये एक भिखारी ने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया और बोला-‘बाबूजी जरा चाय के लिये दो रुपये दे दो।’
लेखक ने मंदिर के अंदर करते हुए देखा था कि कोई दानी व्यक्ति भिखारियों के बीच खाने का सामान बांट रहा था और उसे लेकर वही भिखारी भी खा रहा था।
          लेखक ने उसे घूर कर देखा तो वह बोला-‘‘आज खाना तो मिला नहीं। अब चाय पीकर ही काम चलाऊंगा।”

         वह हाथ फैलाये उसके सामने खड़ा होकर झूठ बोल रहा था। लेखक ने उससे कहा-“मैं तुम्हें दस रुपये दूंगा, पर इससे पहले तुम्हं साक्षात्कार देना होगा। आओ मेरे साथ!”

         थोड़ी दूर जाकर उस लेखक ने उससे पूछा-“तुम्हारे घर में क्या तुम अकेले हो?”

          भिखारी-“नही! मुझे दो लड़के हैं और दो लडकियां हैं। सबका ब्याह हो गया है?”

           लेखक-“फिर तुम भीख क्यों मांगते हो? क्या तुम्हारे लड़के कमाते नहीं हैं या फिर तुम्हें पालनेको तैयार नहीं है?।”

           भिखारी-“बहुत अच्छा कमाते हैं, पर आजकल बाप को कौन पूछता है? वैसे वह मेरे को घर पर मेरे को सूखी रोटी देते हैं क्योंकि उनको लगता है कि मैं बीमार न हो जाऊँ। मैं चिकनी चुपड़ी और माल खाने वाला आदमी हूं,इसलिए भीख मांगकर मजे ही करता हूँ।”

        लेखक-“इस उमर में वैसे भी कम चिकनाई खाना चाहिए। गरिष्ठ भोजन नहीं करने से अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं। डाक्टर लोग यही कहते हैं।”

         भिखारी-“यह काड़ा तो वह तो सेठों के लिये कहते हैं जो सारा दिन एक जगह बैठे रहते हैं। हम भिखारियों के लिये नहीं जो सारा दिन यहाँ से वहाँ चलते रहते हैं।”

         लेखक-“मंदिर में अंदर जाते हो।”

भिखारी-“मंदिर के अंदर हमें आने भी नहीं देते और न हम जाते। हम तो बाहर भक्तों के दर्शन ही कर लेते हैं। भगवान ने कहा भी है कि मेरे से बड़े तो मेरे भक्त हैं। भक्तों का दान हमारे लिए भगवान का प्रसाद है भले ही लोग इसे भीख कहते हैं।”

    लेखक-“रहते कहां हो?”

       भिखारी-“एक दयालू सज्जन ने हम भिखारियों के लिये एक मकान किराये पर ले रखा है। उसमें वही किराया भरता है।”

        लेखक-“तुम्हारे लड़के तुम्हें अपने घर नहीं रखते या तुम उनके साथ रहना नहीं चाहते?”

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

         भिखारी-“वह तो मिन्नतें करते हैं पर इसलिए नहीं कि मुझसे  कोई उनको प्रेम करते हैं बल्कि इसलिए कि उनको मारे भीख मांगने से इज्ज़त खराब होती दिखती है इसलिए अपने यहाँ रहने के लिए कहते हैं।   वहां कौन उनकी चिकचिक सुनेगा इसलिए भीख मांगना अच्छा लगता है।  मैं तो बचपन से ही आजाद रहने वाला आदमी हूं। पूरी ज़िंदगी भीख के सहारे गुजर दी, अब क्या पवाह करना? वह बच्चा मुझे  क्या खिलायेंगे मैंने ही अपनी भीख से उनको बड़ा किया है।  मैंने खाने के मामले में बाप की परवाह नहीं की। वह भी सूखी खिलाता था पर बाहर मुझे भीख मांगने पर जो खाने का मिलता था वह बहुत अच्छा होता था।”

         लेखक-“बचपन से भीख मांग रहे हो। बच्चों की शादी भी भीख मांगते हुए करवाई होगी?”

        भिखारी-“नहीं! पहले तो मेरा बाप ही मेरे परिवार को पालता रहा। उसने मेरी  बीबी  को किराने  कि दुकान खुलवा दी कुछ दिन उससे काम चला  फिर बच्चे थोड़े बड़े हो गये तो नौकरी कर वही काम चलाते रहे। मैं अपनी बीबी के लिये ही कुछ सामान घर ले जाता हूं। वह बच्चों के पास ही रहती है। आजकल की औलादें ऐसी हैं उसकी बिल्कुल इज्जत नहीं करतीं। मैं सहन नहीं कर सकता।’

       लेखक-तुम्हें भीख मांगते हुए शर्म नहीं आती।’

         भिखारी ने कहा-‘जिसने की शर्म उसकी फूटे कर्म।’

        लेखक उसको घूर कर देख रहा था! अचानक उसने पीछे से आवाज आई-‘बाबूजी, इससे क्या बहस कर रहे हो। भीख मांगना एक आदत है जिसे लग जाये तो फिर नहीं छूटती। कोई मजबूरी में भीख नहीं मांगता। जुबान का चस्का ही भिखारी बना देता है।’

       लेखक ने देखा कि थोड़ी दूर ही एक बुढ़िया  भिखारिन पुरानी चादर बिछाये बैठी थी। उसके पास एक लाठी रखी थी और सामने एक कटोरी । उसके पास रखी पन्नी में कुछ खाने का सामान रखा हुआ था जो शायद दानी भक्त दे गये थे और वह अभी खा नहीं रही थी।

         लेखक ने उस भिखारी को दस रुपये दिये और फिर जाने लगा तो वह भिखारिन बोली-‘बाबूजी! कुछ हमको भी दे जाओ। भगवान के नाम पर हमें भी कुछ दे जाओ।’

          लेखक ने पांच रुपये उसके हाथ में दे दिये और अपने होठों में बुदबुदाने लगा-‘भीख मांगना मजबूरी नहीं आदत होती हैं।

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
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ख्यालों का बंधन-हिंदी शायरी


ख्यालों के बंधन में फंसकर
उनके इशारों पर नाचते रहे
जिंदगी मेंं इसलिये हर कदम पर हारते रहे
जो आजाद होकर सोचा
तो सामने हमारे यह बात आई
क्यों हमने उनको अपना सबकुछ माना
जब हमेशा की उन्होंने बेवफाई
दिल की गुलामी से
अच्छा है आजाद ख्याल से जीना
हम क्यों अपना जिस्म
इतने समये से अपने हाथों ही मारते रहे
……………………….

स्वयं पढ़ा कुछ नहीं, दूसरों को लिखना सिखाते हैं-हास्य कविता


आया फंदेबाज और एक
किताब हाथ में थमाते हुए बोला
‘दीपक बापू, लो पकड़ लो यह किताब
‘लिखने के नुस्खें सीखें’
एक दोस्त के घर से उठायी
इसे देखकर तुम्हारी याद आयी
हमारा तो न पढ़ने से वास्ता
न लिखने का जाने रास्ता
तुम ही अंतर्जाल पर लिखते
थक गये लगते हो
फ्लाप की जमात में बैठे
हिट होने की जगह तकते हो
तुम पर तरस आया
इसलिये ले आया
इसे पढ़कर कुछ सीख लो
शायद लेखक की सलाह काम कर जाये
तुम्हारा नाम भी चमक जाये
यही इच्छा हमारी अभी पूरी नहीं हो पायी’

आपनी टोपी उतारकर गंजी खोपड़ी पर
हाथ फेरते हुए
कुछ देर किताब देखी
फिर उठाकर जोर से फैंकी और
कहैं महाकवि दीपक बापू
‘कमबख्त तुम हमारी अक्ल भी हर लेते हो
कभी कभी करारा झटका देते हो
हमने थोड़ी पढ़ी तो
लेखक का नाम पढ़ने का विचार आया
यह कभी हमारे सुनने में नहीं आया
यहां जो कुछ नहीं सीखता वही
दूसरों को सिखाने में जुट जाता है
जो पड़े उनके चक्कर में
कुछ मिलना तो दूर
गांठ से और लुट जाता है
यह लिखता है ऐसा मत लिखो
और ऐसे मत दिखो
खुद ही अभी लिखना शुरू किया लगता है
अगर इसका लिखा देखें तो
अभी पढ़ना शुरू किया ऐसा भी लगता है
यहां जमाने का उसूल है
कुछ सीखे बिना ही
दूसरों को सिखाना शुरू कर दो
शिष्य हुए बिना गुरू का आवेदन कर दो
लिखना हो जिंदगी में
या दिखना हो
हर विषय पर वही लोग
बोलते हैं पहले
जो कुछ सीखने से पहले ही दहले
कोई उनकी अक्ल पर शक न करे
प्रसिद्धि के शिखर पर पहला हक न करे
तमाम गुर उठाकर बाजार में बेचने आ जाते हैं
शक्ल के हों आकर्षक
ख्याल से हों ढीठ
चाल मस्त और मतवाली हों
अदायें दिल बहलाने वाली हों
अपनी तरफ खींचते हैं पहले लोगों का ध्यान
फिर शब्दों का बघारते हैं ज्ञान
ऐसे लोग लिखना सिखाते हैं
भीड़ में दिखने के बहाने जिनको आते हैं
कई लोगों को पढ़ते हैं हम भी
पर वह कुछ पढ़ते हैं भी कि नहीं
हमें यह बात समझ में नहीं आयी
हिट और फ्लाप का खेल तो है निराला
अपने गुरु के आदेश पर हमने कभी मोह नहीं पाला
अब कोई दूसरा गुरु कुछ सिखा दे
ऐसा नजर नहीं आता भ्
उठा लो किताब यह हमें नहीं चाहिये
जो सीखा है वह भी भूल जायेंगे भाई’
…………………………………

अब रास्ते से निकलने के लिये तरसे-हास्य कविता


बरसों से कभी ऐसे मेघ नहीं बरसे
हमेशा रहा जल का अकाल
हम पानी की बूंद बूंद को तरसे
बहुत सारी शायरी प्यास पर लिखी
तो कई कवितायें गर्र्मी पर रच डाली
पसीने में नहाते हुए मेघों पर
अपने व्यंग्य शब्दों से हम अधिक बरसे

इस बार राशन पानी लेकर आसमान में मेघ आये
लगता है ढूंढ रहे थे हमको
अपनी बरसात से नहलाने को
घर लौटने से ऐसे बरस जाते हैं
कि तालाब बनी सड़कों से
घर पहुंचने का रास्ता निकालने के लिये
अब तो रोज तरसे

उस दिन साइकिल समेत
मझधार में फंसे थे
आगे कार तो पीछे टूसीटर अड़े थे
आसमान से बरसते मेघों को देखकर
हमें अपने पर ही रहम आया
एक मेघ अपना कोटा पूरा कर
हमारे सामने आया
और बोला
‘और गर्मी पर कविता लिख
हमारी मजाक उड़ाता दिख
जब भी देख गर्मी में नहाते हुए ही
अपनी कविता लिखता है
सारे जमाने को कार की बजाय
साइकिल पर चलता दिखता है
भला! इसमे हमारा क्या दोष
जो हम पर दिखाता है रोष
कार और पैट्रोल का खर्च बचाता है
इसलिये साइकिल में तेरा तेल निकल जाता है
पिछली बार गर्मी पर कविता लिखकर
अपने ब्लाग पर हिट हुआ था
हास्य कविता के रूप में फिट हुआ था
अब हम पर हास्य कविता लिख
पर हमारे संदेश के साथ खड़ा दिख
सुन हम क्यों नहीं बरसों से, जो अब ऐसे बरसे
सारे नाले और नालियां बंद कर
हमारे जल का मार्ग अवरुद्ध कर दिया
तुम इंसानों ने
धरती पुत्र पेड़ पौद्यों का कत्ल किया
तुम्हारे बीच बरसे शैतानों ने
एक तरफ बरसी दौलत तो
दूसरी और हरियाली को लोग तरसे
अपने विनाश का खुद ही किया इंतजाम
इसलिये कई बरसों ऐसे नहीं बरसे

इस बार जमकर बरस कर बता दिया
जमकर बरसते हुए पग-पग पर
सड़कों और पंगडंडियों को
जलमग्न बना दिया
प्रकृति से छेडछाड़ का नतीजा दिखा दिया
अगर चाहते हो कि हर बरस बरसें तो
हास्य कविता पर हम लिख
प्रकृति को प्यार करने का
इंसानों को संदेश देता दिख
लोगों को बता दे कि
अपने ही भूलों से जो किया विनाश इस धरती का
इसलिये ही पहले पानी को
अब रास्ते से निकलने के लिये तरसे
…………………………………………..

खबरों की खबर देने वाले-व्यंग्य कविता


खबरों की खबर वह रखते हैं
अपनी खबर हमेशा ढंकते हैं
दुनियां भर के दर्द को अपनी
खबर बनाने वाले
अपने वास्ते बेदर्द होते हैं

आंखों पर चश्मा चढ़ाये
कमीज की जेब पर पेन लटकाये
कभी कभी हाथों में माइक थमाये
चहूं ओर देखते हैं अपने लिये खबर
स्वयं से होते बेखबर
कभी खाने को तो कभी पानी को तरसे
कभी जलाती धूप तो कभी पानी बरसे
दूसरों की खबर पर फिर लपक जाते हैं
मुश्किल से अपना छिपाते दर्द होते हैं

लाख चाहे कहो
आदमी से जमाना होता है
खबरची भी होता है आदमी
जिसे पेट के लिये कमाना होता है
दूसरों के दर्द की खबर देने के लिये
खुद का पी जाना होता है
भले ही वह एक क्यों न हो
उसका पिया दर्द भी
जमाने के लिए गरल होता
खबरों से अपने महल सजाने वाले
बादशाह चाहे
अपनी खबरों से जमाने को
जगाने की बात भले ही करते हों
पर बेखबर अपने मातहतों के दर्द से होते हैं

कभी कभी अपना खून पसीना बहाने वाले खबरची
खोलते हैं धीमी आवाज में अपने बादशाहों की पोल
पर फिर भी नहीं देते खबर
अपने प्रति वह बेदर्द होते हैं
—————————-
दीपक भारतदीप

क्या फायदा विषय का पहाड़ खोदने से-हास्य कविता



समाज के शिखर पर बैठे लोग
हांकते हैं ऐसे आदमी को
जैसे भेड़-बकरी हों
जो न बोले
न कहे
न देखे
उनके काले कारनामें दिन के उजाले में भी
अपने डंडे के जोर पर चलता उनका फरमान
टूट जाये चाहे किसी का भी अरमान
उन पर कोई नहीं उठाता उंगली
फिर भी समाज की गलियों में
गोल-गोल घूमता है
चाहे वह कितनी भी संकरी हों
………………………………………………..

अब तो मुद्दे जमीन पर नहीं बनते
हवा में लहराये जाते
राई से विषय पहाड़ बताये जाते
मसले अंदर कमरे में कुछ और होते
बाहर कुछ और बताये जाते
चर्चा होती रहे पब्लिक में
पर समझ में न आये किसी के
ऐसे ही विषय उड़ाये जाते

कहें महाकवि दीपक बापू
‘कई बार विषयों का पहाड़ खोदा
कविता जैसी निकली चुहिया
भाई लोग उस पर हंसी उड़ाये जाते
बहुत ढूंढा पढ़ने को मिला नहीं
होती कहीं कोई व्यापार की डील
करता कोई तो कोई और लगाता सील
कुछ को होता गुड फील
तो किसी को लगती पांव में कील है
कोई समझा देता तो
न लिखने का होता गिला नहीं
कोई खोजी पत्रकार नहीं
जैसा मिला वैसा ही चाप (छाप) दें
हम तो खोदी ब्लागर ठहरे
विषयों का पहाड़ खोदते पाताल तक पहुंच जाते
कोई जोरदार पाठ बनाये जाते
पर पहले कुछ बताता
या फिर हमारे समझ में आता
तो कुछ लिख पाते
इसलिये केवल हास्य कविता ही लिखते जाते
क्या फायदा विषय का पहाड़ खोदने से
जब केवल निकले चुहिया
उसे भी हम पकड़ नहीं पाते
………………………………
दीपक भारतदीप

गीत संगीत की महफिल की बजाय महायुद्ध सजाते-हास्य कविता


गीत और संगीत से
दिल मिल जाते हैं पर
अब तो उसकी परख के लिये
प्रतियोगितायें को अब वह
महायुद्ध कहकर जमकर प्रचार कराते
वाद्ययंत्र हथियारों की तरह सजाये जाते
जिन सुरों से खिलना चाहिये मन
उससे हमले कराये जाते
मद्धिम संगीत और गीत से
तन्मय होने की चाहत है जिनके ख्याल में
उन पर शोर के बादल बरसाये जाते

कहें महाकवि दीपक बापू
‘अब गीत और संगीत
में लयताल कहां ढूंढे
बाजार में तो ताल ठोंककर बजाये जाते
महफिलें तो बस नाम है
श्रोता तो वहां भाड़े के सैनिक की
तरह सजाये जाते
जो हर लय पर तालियों का शोर मचाते
देखने वाले भी कान बंद कर
आंखों से देखने की बजाय
उससे लेते हैं सुनने का काम
गायकों को सैनिक की तरह लड़ते देख
फिल्म का आनंद उठाये जाते
किसे समझायें कि
भक्ति हो या संगीत
एकांत में ही देते हैं आनंद
शोर में तो अपने लिये ही
जुटाते हैं तनाव
जिनसे बचने के लिये संगीत का जन्म हुआ
क्या उठाओगे गीत और संगीत का आंनद
जैसे हम उठाते
लगाकर रेडियो पर विविध भारती पर
अपनी अंतर्जाल की पत्रिका पर लिखते जाते
यारों, संगीत सुनने की शय है देखने की नहीं
गीत वह जिसके शब्द दिल को भाते हैं
सुरों के महायुद्ध में जीत हार होते ही
सब कुछ खत्म हो जाता है
पर तन्हाई में लेते जब आनंद तब
वह दिल में बस जाते
बाजार में दिल के मजे नहीं बिकते
अकेले में ही उसके सुर पैदा किये जाते
……………………………

दीपक भारतदीप

चिंतन शिविर-हास्य कविता


अपने संगठन का चिंतन शिविर
उन्होंने किसी मैदान की बजाय
अब एक होटल में लगाया
जहां सभी ने मिलकर
अपना समय अपने संगठन के लिये
धन जुटाने की योजनायें बनाने में बिताया
खत्म होने पर एक समाज को सुधारने का
एक आदर्श बयान आया
तब एक सदस्य ने कहा
-‘कितना आराम है यहां
खुले में बैठकर
खाली पीली सिद्धांतों की बात करनी पड़ती थी
कभी सर्दी तो गर्मी हमला करती थी
यहां केवल मतलब की बात पर विचार हुआ
सिर्फ अपने बारे में चिंतन कर समय बिताया’
……………………………

दीपक भारतदीप

हर रोज जंग का माडल, हर समय होता-व्यंग्य कविता


हर इंसान के दिल की पसंद अमन है
पर दुनियां के सौदागरों के लिये
इंसान भी एक शय होता
जिसके जज्बातों पर कब्जा
होने पर ही सौदा कोई तय होता
बिकता है इंसान तभी बाजार में
जब उसके ख्याल दफन होते
अपने ही दिमाग की मजार में
जब खुश होता तो भला कौन किसको पूछता
सब होते ताकतवर तो कौन किसको लूटता
ढूंढता है आदमी तभी कोई सहारा
जब उसके दिल में कभी भय होता
उसके जज्बातों पर कब्जो करने का यही समय होता

चाहते हैं अपने लिये सभी अमन
पर जंग देखकर मन बहलाते हैं
इसलिये ही सौदागर रोज
किसी भी नाम पर जंग का नया माडल
बेचने बाजार आते हैं
खौफ में आदमी हो जाये उनके साथ
कर दे जिंदगी का सौदा उनके हाथ
सब जगह खुशहाली होती
तो सौदागरों की बदहाली होती
इसलिये जंग बेचने के लिये बाजार में
हमेशा खौफ का समय होता

बंद कर दो जंग पर बहलना
शुरू कर दो अमन की पगडंडी पर टहलना
मत देखो उनके जंग के माडलों की तरफ
वह भी बाकी चीजों की तरह
पुराने हो जायेंगे
नहीं तो तमाम तरह की सोचों के नाम पर
रोज चले आयेंगे
पर ऐसा सभी नहीं कर सकते
आदमी में हर आदमी से बड़े बनने की ख्वाहिश
जो कभी उसे जंग से दूर नहीं रहने देगी
क्योंकि उसे हमेशा अपने छोटे होने का भय होता
सदियां गुजर गयी, जंगों के इतिहास लिखे गये
अमन का वास्ता देने वाले हाशिये पर दिखे गये
इसलिये यहां हर रोज जंग का माडल हर समय होता
………………………………..

ख्याल तो हैं जलचर की तरह-हिंदी शायरी



मन का समंदर है गहरा
जहां ख्याल तैरते हैं जलचर की तरह
कुछ मछलियां सुंदर लगती हैं
कुछ लगते हैं खौफनाक मगरमच्छ की तरह

देखने का अपना अपना नजरिया है
मोहब्बत हर शय को खूबसूरत बना देती है
नफरत से फूल भी चुभते हैं कांटे की तरह
इस चमन में बहती है कभी ठंडी तो कभी गर्म हवा
मन जैसा चाहे नाचे या चीखे
नहीं उसके दर्द की दवा
न एक जगह ठहरते
न एक जैसा रूप धरते
ख्याल तो हैं बहते जलचर की तरह
…………………………..

दीपक भारतदीप

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मैं नहीं हूं कोई सिकंदर-हिंदी शायरी


किसे मित्र कहें किसे शत्रू
आदमी बंटा हुआ है अपने अंदर
सिमट जाता है अपने ख्यालों में
एक तालाब की तरह
जब मिलती है जिंदगी जीने के लिये जैसे एक समंदर

दोस्ती के लिये फैले हैं इतने लोग
पर दायरों मेंे ही वह निभाता
जिनको जानता है उनसे करता सलाम
अजनबियों से मूंह फेर जाता
दोस्तों में भी अपने और गैर का करता भेद
कीड़े की तरह बहुत से नाम वाले समूह में
अपने लिये ढूंढता छेद
नाचता ऐसे है जैसे बंदर

देखा है अकेले में लोगों को अपना कहते हुए
अपने मिलते ही दूर होते हुए
फिर अपनी हालातों पर अपनों की
बेवफाई पर रोते हुए
फिर भी निकल नहीं पाते दायरों से
लगते हैं कायरों से
फिर भी नहीं तोड़ता भरोसा उनका
वह तोड़ जायें अलग बात है
मजबूर और लाचार हैं
दायरों में कैद रहने की आदत है उनकी
भला मैं उनको कैसे निकाल पाऊंगा
जो जन्म से उनको बांधे हैं
मैं नहीं हूं कोई सिकंदर
……………………………………………
दीपक भारतदीप

पाठ का इतना हिट होना मेरे लिये विस्मय का विषय-आलेख


मुझे विस्मय इस बात का है कि कबीरदास जी के मात्र दोहे और उनका अनुवाद प्रस्तुत करने वाले उस पाठ पर पाठकों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। कल उस पर चालीस व्यूज थे। मैंने पाठकों के आने का मार्ग देखा तो पाया कि गूगल के अनुवाद टूल पर अंग्रेजी में पढ़ी गयी थी। दोहे उसमें सही नहीं आ रहे थे। यह पाठ मात्र चार दिनों में ही ढाई सौ से अधिक व्यूज जुटा चुका है।

मैंने कबीरदास के इतने दोहे अनुवाद कर प्रकाशित किये कुछ पर अपनी सीमित बुद्धि से व्याख्याएं लिखी हैं कि उनकी संख्या का अनुमान मुझे भी नहीं है। यह पाठ मैंने उन दिनों लिखा था जब मैं यूनिकोड में रोमन लिपि में लिखता था और इस कारण सुबह अपनी व्याख्या लिखने का मेरे पास समय नहीं होता था। इस बात का उल्लेख करना ठीक रहेगा कि आजकल इस ब्लाग/पत्रिका पर मैं सामान्य आलेख और कवितायें ही लिखता हूं पर यह पाठ जिस तरह पढ़ा जा रहा है उससे मुझे हैरानी है। एक ने तो नारे में रूप में लिखा है कि हम तो कबीर के दोहे पढ़ना चाहते हैं। हालत यह है कि मेरे नये पाठ जितने व्यूज जुटाते हैं उससे तीन गुना तो यही पाठक जुटा रहा है।

लगता है कि कहीं हिंदी अंग्रेजी टूल के प्रयोग के लिये इसका चयन तो नहीं किया गया कि जिससे सभी प्रकार के दोहे भी अंग्रेजी में अनुवाद हो सकें और इसे देखा जा रहा हो। वैसे इस बीच मुझे यह लग रहा है कि शायद हिंदी अंग्रेजी टूल हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद करने में थोड़ा सुधार लिया गया है। आजकल वर्डप्रेस के शीर्षक में अंग्रेजी टूल से अनुवाद कर देखता हूं तो ठीकठाक दिखते हैं। मैंने एक अंग्रेजी के जानकार से इसकी पुष्टि भी करवाई थी। हां, अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद ठीक नहीं लगा रहा पर एक बार अगर हिंदी अनुवाद देखकर अंग्रेजी को पढ़ा जाये तो समझने में सुविधा तो होती है।
जिस पाठ की मैं चर्चा कर रहा हूं एक सामान्य पाठ है और कबीरदास जी के दोहों से तो मेरे अनेक ब्लाग भरे पड़े हैं। ऐसे में इस पाठ के लिये इतना आकर्षण क्यों दिखाई दे रहा है? हालांकि यह दोनों दोहे जीवन के रहस्य को समेटे हुए हैं पर कबीरदास जी के तो अनेक दोहे इसी प्रकार के हैं। कभी कभी तो लगता है कि अब मुझे अन्य कुछ लिखने की आवश्यकता ही नहीं या दोहे ही शायद मुझे वह ख्याति दिलवा देंगे जिसकी कल्पना मैंने नहीं की है। हालांकि यह मजाक लगता है पर जिस तरह यह पाठ पढ़ा जा रहा है उससे देखकर कोई भी यह कह सकता है। यह क्रम चल रहा है देखना है कब तक चलता है और इसका रहस्य क्या है? यह मेरे लिये दिलचस्पी का विषय बना हुआ है। यह पाठ अभी तक 1115 बार पढ़ा जा चुका है

इंसान कभी चिराग नहीं हो सकते-हिन्दी शायरी


यूं तो चमकता चाँद देखकर
अपना दिल बहला लेते
पर जब आकाश में नहीं दिखता वह
छोटा चिराग जला लेते हैं
जिन्दगी में अपने
रौशनी के लिए क्यों
किसी एक के आसरे रहें
इसलिए कई इंतजाम कर लेते हैं
इंसानों का भी क्या भरोसा
उजियाले में करते हैं
हमेशा साथ निभाने का
अँधेरा ही होते मुहँ फेर लेते हैं
—————————————
मांगी थी उनसे कुछ पल के लिए रौशनी उधार
उन्होंने अपना चिराग ही बुझा दिया
हमारा रौशनी में रहना
उनको कबूल नहीं था
अँधेरे को अपने पास इसलिए बुला लिया
इंसान कभी चिराग नहीं हो सकते यह बता दिया
————————
दीपक भारतदीप

कबीर साहित्य के पाठ की पाठक संख्या एक हजार के पार


मेरे इस ब्लाग/पत्रिका पर संत शिरोमणि कबीरदास के दोहों वाला एक पाठ आज एक हजार की पाठक संख्या पार गया। इसको मैं पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं और मूल पाठ को पढ़ने के लिये यहां क्लिक भी कर कर सकते हैं। जिस समय में इस पाठ को लिख रहा हूं तब उस पर पाठक संख्या 1029 है।

मुझे जैसे अस्त पस्त लेखक के लिये यह बहुत महत्वपूर्ण बात है क्योंकि कोई काम व्यवस्थित ढंग से न करने की वजह से मुझे अधिकतर सफलता इतनी आसानी से नहीं मिल जाती। इस पाठ के एक हजार पाठक संख्या पार करने में कोई विशेष बात नहीं है पर इस छोटे पाठ की इस सफलता में जो संदेश मेरे को मिलते हैं उसकी चर्चा करना जरूरी लगता है। इस हिंदी ब्लाग जगत पर तमाम तरह के विश्लेषण करने वाले लोग उसमें रुचि लेंगे इसकी मुझे पूरी जानकारी है और जो संदेश मिल रहे हैं वह कई धारणाओं का बदलाव का संकेत हैं वह समाज शास्त्र के विद्वानों के लिये भी दिलचस्पी का विषय हो सकते हैं कि आखिर अंतर्जाल पर भी आधुनिक युग में लोग कबीर साहित्य के रुचि ले रहे हैं।

सबसे पहली बात तो यह कि दो दोहों और उनका भावार्थ प्रस्तुत करना मेरे लिये इस समय आसान है क्योंकि मैं अब पहले देवनागरी फोंट कृतिदेव में टाइप कर उस पर अपनी कभी छोटी तो कभी बड़ी व्याख्या भी प्रस्तुत करता हूं पर जब यह पाठ लिखा गया था तब मुझे अंग्रेजी टाईप से यूनिकोड में टाईप करना पड़ता था। यह काम मेरे लिये कठिन ही नहीं अस्वाभाविक भी था। सुबह इतना संक्षिप्त पाठ लिखना ही बहुत बड़ी उपलब्धि होता था-आज भले ही मुझे भी लगता है कि इतने छोटे पाठ- जिसमें मेरा टंकक से अधिक योगदान नहीं है- की सफलता पर क्या इतना बड़ा आलेख लिखना।

कुछ पाठक कहते थे कि आप अपनी व्याख्या भी दीजिये क्योंकि उन्होंने कुछ जगह मेरी ऐसी व्याख्यायें देखीं थीं जो मैं एक दिन पहले ही टाईप कर रखता था। संत शिरोमणि कबीरदास के दोहे वैसे अपने आप ही कई गूढ रहस्यों को प्रकट कर देते हैं पर लोग यह भी चाहते हैं कि जो इनको प्रस्तुत कर रहा है वह भी अपनी बात कहे। इस ब्लाग को मैंने पहले अध्यात्मिक विषयों के रखा था पर बाद में ब्लागस्पाट पर अंतर्जाल पत्रिका पर यही विषय लिखने के कारण मैंने इसे अन्य विषयों के लिये सुरक्षित कर दिया। वर्डप्रेस का शब्दलेख पत्रिका इस समय अध्यात्म विषयों के लिये है और उसी पर ही लिख रहा हूं। इसके अलावा ब्लागस्पाट का शब्दलेख सारथी है जो अध्यात्मिक विषयों से संबंधित है। अब सोच रहा हूं कि इस ब्लाग को भी अध्यात्मिक विषयों के लिये रख दूं।

सभी ब्लाग एक जैसे दिखते हैं पर मेरे लिये सभी के परिणाम एक जैसे नहीं हैं। वर्डप्रेस में विविध श्रेणियां पाठ के लिए अधिक पाठक जुटातीं हैं इसलिये अब मैं ब्लागस्पाट के अच्छे पाठ यहां लाने वाला हूं। मुझे ब्लाग स्पाट और वर्डप्रेस के ब्लाग दो अलग अलग स्थान दिखते हैं। हिंदी के सभी ब्लाग एक जगह दिखाने वाले फोरमो पर उनको एक जैसा देखा जाता है पर मेरे लिये स्थिति वैसी नहीं है।
मैंने शुरूआती दिनों में कई लोगों को ब्लाग लिखने के बारे में अनेक भ्रांत धारणायें फैलाते देखा था जिसमें यह बताया गया था कि आप ढाई सौ अक्षर अवश्य लिखें वरना लोग आपके बारे में यह कहेंगे कि यह लिख नहीं रहा बल्कि मेहनत बचा रहा है। इसके प्रत्युत्तर में मैंने हमेशा ही लिखा है कि मुख्य विषय है आपका कथ्य न कि शब्दों की संख्या। हालांकि मैने हमेशा बड़े ही पाठ लिखे हैं पर दूसरों को इस बात के लिये प्रेरित किया है कि वह अपने मन के अनुसार लिखें पर प्रभावी विषय और शब्दों का चयन इस तरह करें कि गागर में सागर भर जाये। संत कबीरदास और रहीम के दोहों पर तो ऐसी कोई शर्त लागू हो भी नहीं सकती।

एक जो महत्वपूर्ण बात कि आज भी संत कबीर और रहीम इतने प्रासंगिक हैं कि उनका लिखा अपने आप पाठक जुटा लेता है-यह बात मुझे बहुत अचंभित कर देती है। हिंदी के भक्ति काल को स्वर्णिम काल कहा जाता है जिसे वर्तमान में अनेक कथित संत आज भी भुना रहे हैं और मैं अनजाने मेंे ही वह कर बैठा जिसके लिये में उन पर आरोप लगाता हूं कि वह ज्ञान का व्यापार कर रहे हैं। हां, इतना अंतर है कि वह लोग अपने भक्तों को कथित ज्ञान देकर दान-दक्षिणा वसूल करते हैं और मैं इंटरनेट के साढ़े छहः सौ रुपये व्यय करने के साथ ही अपना पसीना भी लिखने में बहाता हूं। इसमें कोई संशय नहीं है कि ऐसे प्रयासों से मेरी लोकप्रियता बनी होगी। लोग कह नहीं पाते पर जिस तरह पाठक अध्यात्मिक विषयों को पढ़ रहे हैं वह मुझे अचंम्भित कर देता है। सुबह लिखते समय मेरे मन में कोई भाव नहीं होता। न तो मुझे पाठ के हिट या फ्लाप होने की चिंता होती है और न कमेंट की परवाह। मैंने आध्यात्मिक विषय पर तो पहले ही दिन से लिखना आरंभ किया और हिंदी में दिखाये जाने वाले फोरमों पर तो मेरे ब्लाग बाद में दिखने के लिये आये अगर उन्मुक्त और सागरचंद नाहर मुझे प्रेरित नहीं करते तो ब्लाग लेखक मेरे मित्र नहीं बनते और आज की तारीख में जिस तरह मेरे ब्लाग कुछ वेबसाईट लिंक कर रहीं हैं उस पर झगड़ा और कर बैठता। नारद फोरम पर मैं उन दिनों भी प्रतिदिन जाता था पर मुझे अपना ब्लाग पंजीकृत कराना नहीं आ रहा था। मतलब यह है कि मैंने कई चीजें अपने ब्लाग मित्रों से सीखीं हैं और वह नहीं सीखता तो अल्पज्ञानी रहता और सब जानते हैं कि जिस विषय में कम जानता है वहां उसमें अहंकार आ जाता है। प्रसंगवश इस पोस्ट को इतने पाठक इसलिये भी मिले कि मैंने ब्लाग पर नवीनतम पाठों और पाठकों की पसंद के स्तंभ स्थापित किये और वहां यह पाठ लंबे समय से बना हुआ है और इतने सारे पाठक मिलने के पीछे यह भी एक वजह हो सकती है। इसका श्रेय श्री सागरचंद नाहर जी को जाता है जिनकी एक पाठ से मैंने यह बात सीखी थी। मैं अगर किसी से कुछ सीखता हूं तो उसका दस बार नाम लेता हूं क्योंकि ऐसा न करने वाला कृतघ्न होता है।

इस पाठ पर किसी ब्लाग लेखक की कमेंट नहीं है और किसी पाठक ने कल ही इस पर अपनी टिप्पणी लिखी। 18 जनवरी 2008 को यह पोस्ट उस समय लिखी गयी थी जब हिंदी ब्लाग जगत में मैं हास्य कविताओं की बरसात कर रहा था और उस समय लोगों ने शायद इस पर कम ही ध्यान दिया कि मैं प्रातः अध्यात्मिक विषयों पर लिखने के बाद चला जाता हूं और शाम को होता है वह समय जब मैं अन्य विषयों पर लिखता हूं। इसलिये लोग सुबह के लिखे इस पाठ पर ध्यान नहीं दे पाये और उनको इंतजार करते होंगे उस दिन शाम को मेरी हास्य कविताओं का जो आज किसी भी मतलब की नहीं है। एक बात मैंने अनुभव की है कि अब मैं पिछले कई दिनों से शाम को भी लिखते समय संयम बरतने का विचार करता हूं क्योकि अध्यात्मिक विषय पर लिखने से लोग थोड़ा सम्मान की दृष्टि से देखते हैं और मुझे यह सोचना चाहिये कि इस कारण कोई मेरी गुस्से में कही बात का प्रतिकार न करते हों। वैसे सच यह है कि मैंने अपने महापुरुषों का संदेश लिखते समय कुछ भी विचार नहीं किया और न मेरे को ऐसा लगता था कि इससे मेरे ब्लाग@पत्रिकाओं को लोकप्रियता मिलेगी। अन्य विषयों में हास्य कविता भी मेरे लिये कोई प्रिय विषय नहीं रही पर ताज्जुब है कि उससे भी अनेक पाठकों तक पहुंचने में सहायता की। सुबह लिखते समय मैं अपने को लेखक नहीं बल्कि एक टंकक की तरह देखता हूं पर कहते हैं कि आप आपके परिश्रम का कोई न कोई अच्छा परिणाम निकलता है।
कुल मिलाकर साफ संदेश यही है कि आम पाठकों के लिये रुचिकर लिखकर ही उन्हें अपने ब्लाग पर आने के लिये बाध्य किया जा सकता है। इसके लिये त्वरित हिट और टिप्पणियों का मोह तो त्यागना ही होता है किसी सम्मान आदि से वंचित होने की आशंका भी साथ लेकर चलनी पड़ती है और मुझे अधिक से अधिक आम पाठकों तक पहुंचना है इसलिये ऐसे विषयों पर लिखने का प्रयास करता हूं जो सार्वजनिक महत्व के हों। फोरमों पर अपने चार-पांच हिट देखकर अगर विचलित हो जाता तो शायद इतना नहीं लिख पाता। मेरी स्मृति में यह बात आज तक है कि उस दिन इस पाठ पर सभी तरफ से केवल 19 हिट थे जिसमें वर्डप्रेस के डेशबोडे से ही अधिक थे। विभिन्न फोरमों से संभवतः 8 हिट थे। वहां अधिक हिट न लेने वाला यह पाठ 1000 से अधिक पाठकों तक पहुंच गया क्या यह विश्लेषण करने का विषय नहीं है। कबीर साहित्य पर एक अन्य ब्लाग एक अन्य पाठ भी हजार की संख्या के पास पहुंच रहा है और यह जानकारी चर्चा का विषय हो सकती है।
आज मुझे भी लगता है कि मैंने कोई मेहनत नहीं की है पर उस समय इतनी पोस्ट लिखने में ही मुझे बहुत समय लग जाता था। इसलिये मैं अपने उन सभी ब्लाग लेखक मित्रों का आभारी हूं जिन्होंने हमेशा मुझे नये नयी जानकारियां और टूल देकर आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया है और इस पाठ की सफलता के लिये उनको श्रेय देने में मुझे कोई संकोच भी नहीं है। हां, मुझे अपने को श्रेय लेने में संकोच बना हुआ है।

अकेले होने के गम में इसलिये रोते रहे-कविता


भीड़ में हमेशा खोते रहे
अपने से न मिलने के गम में रोते रहे
नहीं ढूंढा अपने को अंदर
आदमी होकर भी रहा बंदर
लोगों के शोर को सुनकर ही बहलाया दिल
अपनी अक्ल की आंख बंद कर सोते रहे

जमाने भर का बेजान सामान
जुटाते हुए सभी पल गंवा दिये
दिल का चैन फिर नहीं मिला
जो आज आया था घर में
उसी से ही कल हो गया गिला
उठाये रहे अपने ऊपर भ्रम का बोझ
सच समझ कर उसे ढोते रहे
कब आराम मिले इस पर रोते रहे
झांका नहीं अपने अंदर
मिले नहीं अपने अंदर बैठे शख्स से
अकेले होने के गम में इसलिये रोते रहे
………………………….
दीपक भारतदीप

बरसात की पहली फुहार-हास्य कविता


वर्षा ऋतु का की पहली फुहार
प्रेमी को मिली मोबाइल पर प्रेमिका की पुकार
‘चले आओ,
घर पर अकेली हूं
चंद लम्हे सुनाओ अपनी बात
आज से शुरू हो गयी बरसात
मन में जल रही है तन्हाई की ज्वाला
आओ अपने मन भावन शब्दों से
इस मौसम में बैठकर करें कुछ अच्छी बात
अगर वक्त निकल गया तो
तुम्हें दिल से निकालते हुए दूंगी दुत्कार’

प्रेमी पहुंचा मोटर सायकिल पर
दनादनाता हुआ उसके घर के बाहर
चंद लोग खड़े थे वहां
बरसात से बचने के लिये
प्रेमिका के घर की छत का छाता बनाकर
जिसमें था उसका चाचा भी था शामिल
जिसने भतीजे को रुकते देखकर कहा
‘तुम हो लायक भतीजे जो
चाचा को देखकर रुक गये
लेकर चलना मुझे अपने साथ
जब थम जाये बरसात
आजकल इस कलियुग में ऐसे भतीजे
कहां मिलते हैं
मुझे आ रहा है तुम पर दुलार’

प्रेमी का दिल बैठ गया
अब नहीं हो सकता था प्यार
जिसने उकसाया था वही बाधक बनी
पहली बरसात की फुहार
उधर से मोबाइल पर आई प्रेमिका की फिर पुकार
प्रेमी बोला
‘भले ही मौसम सुहाना हो गया
पर इस तरह मिलने का फैशन भी पुराना हो गया है
करेंगे अब नया सिलसिला शुरू
तुम होटल में पहुंच जाओ यार
इस समय तो तुम तो घर में हो
मैं नीचे छत को ही छाता बनाकर
अपने चाचा के साथ खड़ा हूं
बीच धारा में अड़ा हूूं
जब होगी बरसात मुझे भी जाना होगा
फिर लौटकर आना होगा
करना होगा तुम्हें इंतजार’

प्रेमिका इशारे में समझ गयी और बोली
‘जब तक चाचा को छोड़कर आओगे
मुझे अपने से दूर पाओगे
कहीं मेरे परिवार वाले भी इसी तरह फंसे है
करती हूं मैं अपने वेटिंग में पड़े
नंबर एक को पुकार
तुम मत करना अब मेरे को दुलार’

थोड़ी देर में देखा प्रेमी ने
वेटिंग में नंबर वन पर खड़ा उसका विरोधी
कंफर्म होने की खुशी में कार पर आया
और सीना तानकर दरवाजे से प्रवेश पाया
उदास प्रेमी ने चाचा को देखकर कहा
‘आप भी कहां आकर खड़े हुए
नहीं ले सकते थे भीगने का मजा
इस छत के नीचे खड़े होने पर
ऐसा लग रहा है जैसे पा रहे हों सजा
झेलना चाहिए थी आपको
बरसात की पहली फुहार’

चाचा ने कहा
‘ठीक है दोनों ही चलते हैं
मोटर सायकिल पर जल्दी पहुंच जायेंगे
कुछ भीगने का मजा भी उठायेंगे
आखिर है बरसात की पहली फुहार’

प्रेमी भतीजे ने मोटर साइकिल
चालू करते हुए आसमान में देखा
और कहा-
‘ऊपर वाले बरसात बनानी तो
मकानों की छत बड़ी नहीं बनाना था
जो बनती हैं किसी का छाता
तो किसी की छाती पर आग बरसाती हैं
चाहे होती हो बरसात की पहली फुहार
……………………….

कभी कभी आंखों में आंसू आ जाते हैं-हिन्दी शायरी


अपने दर्द से भला कहां
हमारे आंखों में आसू आते हैं
दूसरों के दर्द से ही जलता है मन
उसी में सब सूख जाते हैं

अगर दर्द अपना हो तो
बदन का जर्रा जरौ
जंग में लड् जाता है
तब भला आंखों से आंसु बहाने का
ख्याल भी कब आता है
जो बहते भी हैं आंखों के कभी तो
वह दूसरों के दर्द का इलाज न कर पाने की
मजबूरी के कारण बह आते हैं

कोई नहीं आया इस पर
कभी रोना नहीं आता
कोई नापसंद शख्स भी आया
तो भी कोई बुरा ख्याल नहीं आता
कोइ वादा कर मुकर गया
इसकी कब की हमने परवाह
हम वादा पूरा नहीं कर पाये
कभी कभी इस पर आंखों से आंसू आ जाते हैं
…………………………….
दीपक भारतदीप

फिर भी तुम बरसते रहना-कविता


सूरज की गर्मी में झुलसते हुए
पानी में नहा गया था बदन
जलती हवाओं में
गर्म मोम की तरह पिघल रहा था मन
चारों तरफ फैला था क्रंदन
ऐसे में जो आये आकाश पर बादल
बिछ गयी पानी की चादर
जैसे स्वर्ग का अनुभव हुआ जमीन पर
लहराने लगा जलती धूप से त्रस्त लोगों का बदन

कहैं महाकवि दीपक बापू
तुम सभी जगह बरसते जाना
जल से जीवन बहाते जाना
किसी के भरोसे मत छोड़ना
इस धरती पर विचरने वाले जीवों को
बड़े बांध बनवाये या तालाब
पर किसी की प्यास बुझाये
यह विचार इंसान नहीं करता
ढूंढता है अपनी चाहत के लिये
सोने, चांदी और संगमरमर के पत्थर जैसे निर्जीवों को
अमीरों के आसरे तो बहुत हैं
एक ढूंढें हजार पानी पिलाने वाले जायेंगे
पर गरीब का आसरा हो तुम बादल
शायद इसलिये कहलाते हो पागल
फिर भी तुम बरसते रहना
नहीं तो हमें रहेगा पानी के लिये तरसते रहना
तुम हो आत्मा इस धरा के
जो है हम सबका बदन
………………..

दीपक भारतदीप

बिना पूछे रास्ता बताने लगे-कविता


लिखे उन्होंने चंद शब्द
और दूसरों को लिखना सिखाने लगे
मुश्किल है कि बिना समझे लिखा था
पर दूसरों में समझ के दीप जलाने लगे

खरीद ली चंद किताबें और रट लिये कुछ शब्द
अब दूसरों को पढ़ाने लगे
खुद कुछ नहीं समझा था अर्थ
दूसरों का जीवन का मार्ग बताने लगे

जो भटके हैं अपने रास्ते
अपने लक्ष्य का पता नहीं
पर चले जा रहे सीना तानकर
सूरज की रोशनी में मशाल वह जलाने लगे
ज्ञानी रहते हैं खामोश
इसलिये अल्पज्ञानी
शब्दों का मायाजाल बनाने लगे

कहें दीपक बापू
समझदार भटक जाता है
तो पूछते पूछते लक्ष्य तक
पहुंच ही जाता है
पर नासमझ भटके तो
पूछने की बजाय रास्ता बताने लग जाता है
अपनी समझदारी दिखाने के लिये
तमाम नाम लेता है रास्तों का
शायद कोई बिना पूछे रास्ता बताने लगे
नहीं भी बताया तो
अपने जैसा ही रास्ता वह भी भटकने लगे
………………………….

hasya kavita-प्यार कोई कारखाने में बनने वाली चीज नहीं है-कविता


मन में प्यास थी प्यार की
एक बूंद भी मिल जाती तो
अमृत पीने जैसा आनंद आता
पर लोग खुद ही तरसे हैं
तो हमें कौन पिलाता

स्वार्थों की वजह से सूख गयी है
लोगों के हृदय में बहने वाली
प्यार की नदी
जज्बातों से परे होती सोच में
मतलब की रेत बसे बीत गईं कई सदी
कहानियों और किस्सों में
प्यार की बहती है काल्पनिक नदी
कई गीत और शायरी कही जातीं
कई नाठकों का मंचन किया जाता
पर जमीन पर प्यार का अस्तित्व नजर नहीं आता

गागर भर कर कभी हमने नहीं चाहा प्यार
एक बूंद प्यार की ख्वाहिश लिये
चलते रहे जीवन पथ पर
पर कहीं मन भर नहीं पाता

जमीन से आकाश भी फतह
कर लिया इंसान
प्यार के लिये लिख दिये कही
कुछ पवित्र और कुछ अपवित्र किताबों
जिनका करते उनको पढ़ने वाले बखान
पर पढ़ने सुनने में सब है मग्न
पर सच्चे प्यार की मूर्ति सभी जगह भग्न
लेकर प्यार का नाम सब झूमते
सूखी आंखों से ढूंढते
पर उनकी प्यास का अंत नजर नहीं आता
प्यार कोई जमीन पर उगने वाली फसल नहीं
कारखाने में बन जाये वह चीज भी नहीं
मन में ख्यालों से बनते हैं प्यार के जज्बात
बना सके तो एक बूंद क्या सागर बन जाता
पर किसी को खुश कोई नहीं कर सकता
इसलिये हर कोई प्यार की एक बूंद के
हर कोई तरसता नजर नहीं आता
………………………………..

दो क्षणिकाएं


आसमान से जो देखा धरती पर
तो इंसान चींटियों की तरह
सड़क पर रेंगता नजर आया
वैसे भी धरती पर इंसान
कब इंसान की तरह चल पाया
चींटियों की रानी लेती है
अपनी प्रजा से सेवा
पर इंसान ढूंढता है
अपने आराम से रहने के लिये कोई राजा
जो उसे खिलाये मुफ्त में मेवा
दौड़ सकता है अपनी टांगो के सहारे
पर फिर भी रैंगना उसे पसंद है
करता है पहाड़ जैसी बातें पर
इंसान का चरित्र हमेशा बौना नजर आया
…………………………………………..

शिखर पर पहुंचे हैं वह लोग
जिनके चरित्र बौने हैं
बांस की टांगों के सहारे
वह दिखते हैं बहुत लंबे
पर जब हट जाती हैं वह
तो लगते वह रोने हैं
बांसों के सहारे हो रहा है शासन
बांस भी रूप बदलता है
कहीं पद तो कहीं बनता है आसन
एक बार लग जाये तो
फिर आदमी सलामत हो जाता
हर कोई उसे सलाम ठोकने द्वार पर आता
मिल जाये एक बांस
तो मिल जाती है प्रसिद्धि की सांस
जिसके हाथ में आया, वह तो हो गया राजा
अपना लिखा हुक्म ही समझ में न आये
पर बांस के जोर पर
उसके पाप तो प्रजा को ढोने हैं

……………………………………

तीन क्षणिकाऐं



किसी को खुश देखकर ही
जब मजा आता हो तब
कही तारीफें झूठ में भी
लोग कर जाते हैं
सच से फरेब करने में नहीं सकुचाते हैं
…………………….

सांप से नेवले से पूछा
‘क्या तुम मुझसे दोस्ती करोगे?’
नेवले ने कहा
‘हां, क्यों नहीं
हम दोनों ही जंगली हैं
जंग का मैदान बन चुके
शहर में अपने लिए
कोई जगह बची नहीं
कुछ जगह मालिक अड़े
तो कहीं मजदूर खड़े
दोनों में दोस्ती कभी संभव नहीं
पर हम दोनों में कोई
शोषक या शोषित नहीं
इसलिये खूब जमेगी जब
मिलकर बैठेंगे दो यार
करेंगे एक दूसरे के लिए शिकार
फिर तुमसे क्यों घबड़ाऊंगा
तुम मुझसे क्यों डरोगे‘
………………….

संवेदनहीन हो चुके समाज में
अपनी जिंदगी किसी
दूसरे की दया पर मत छोड़ना
अवसर पाते ही सांप छोड़ दे
पर इंसान नहीं चाहते डसना छोड़ना
……………………..

उसे भी समाज कहते हैं-कविता


आदमी से ही डरा आदमी
अपने लिये एक झुंड बना लेता है
जिसे समाज कहते हैं
अकेले होने की सोच से घबड़ाया आदमी
उस झुंड के कायदे कानून
अक्ल के दरवाजे बंद कर
मानता इस उम्मीद में
कभी संकट में उसके काम आयेगा
पर संकट में जो हंसता है आदमी पर
उसे भी समाज कहते हैं
…………………………………………..

समाज के शिखर पर बैठे लोग
हांकते हैं ऐसे आदमी को
जैसे भेड़-बकरी हों
जो न बोले
न कहे
न देखे
उनके काले कारनामें दिन के उजाले में भी
अपने डंडे के जोर पर चलता उनका फरमान
टूट जाये चाहे किसी का भी अरमान
उन पर कोई नहीं उठाता उंगली
फिर भी समाज की गलियों में
गोल-गोल घूमता है
चाहे वह कितनी भी संकरी हों
………………………….

दीपक भारतदीप

अपने ददे को बाहर आने दो-कविता


कुछ नहीं कह सकते तो कविता ही कह दो
कुछ नहीं लिख सकते तो कविता ही लिख दो
कुछ पढ़ नहीं सकते तो कविता ही पढ़ लो
कुछ और करने से अच्छा अपने कवित्व का जगा लो
पूजे जाते हैं यहां बैमौसम राग अलापने वाले भी
क्योंकि सुनने वालों को शऊर नहीं होता
कुछ कहना है पर कह नहीं पाते
अपनी अभिव्यक्ति को बाहर लाने में
सकपकाते लोग
अपने दर्द को हटाने शोर की महफिल में चले जाते
जो सुन लिया
उसे समझने का अहसास दिलाने के लिये ही
तालियां जोर-जोर से बजाते
बाहर से हंसते पर
अंदर से रोते दिल ही वापस लाते
तुम ऐसे रास्तों पर जाने से बचना
जहां बेदिल लोग चलते हों
समझ से परे चीजों पर भी
दिखाने के लिए मचलते हों
खड़े होकर भीड़ में देखो
कैसे गूंगे चिल्ला रहे हैं
दृष्टिहीन देखे जा रहे हैं
बहरे गीत सुनते जा रहे है
साबुत आदमी दिखता जरूर है
पर अपने अंगों से काम नहीं ले पाता
सभी लाचारी में वाह-वाह किये जा रहे हैं
सत्य से परे होते लोगों पर
लिखने के लिए बहुत कुछ है
कुछ न लिखो तो कविता ही लिख दो
कोई सुने नहीं
पढ़े नहीं
दाद दे नहीं
इससे बेपरवाह होकर
अपने ददे को बाहर आने दो
और एक कविता लिख दो
……………………………………………….

समीर लाल जी, आपकी कविताएं पढ़ी। अच्छा लगा। मेरे मन में भी कुछ शब्द आये जो कह डाले।
दीपक भारतदीप

बस नजर आता है अपना साया-कविता


धूप में पसीने से नहाते हुए
जब देखता हूं अपना साया
दिल भर आता है
वह जमीन पर गिरा होता है
मैं ढोकर चल रहा हूं आग में अपनी काया
कहीं राह में फूल की खुशबू आती है
मैं देखता हूं सड़क किनारे
कहीं फूलो का पेड़ है
जो बिखेर रहा है सुगंध की माया

रात में चांद की रोशनी में भी मेरे साथ
चलता आ रहा है मेरा साया
मैं उसे देख रहा हूं वह अब भी
जमीन पर गिरा हुआ है
शीतल पवन छू रही मेरे बदन को
पर उठ कर खड़ा नहीं होता मेरा साया
उसे कभी कभी ही देख पाता हूं
अपने ख्यालों में ही गुम हो जाता हूं
खामोश रहता है मेरा साया

कई लोग मिले इस राह पर
बिछड़ गये अपनी मंजिल आते ही
दिल में बसा रहा उनका साया
चंद मुलाकातों में रिश्ता गहरा होता लगा
पर जो बिछड़े तो फिर
उनका चेहरा कभी नजर नहीं आया
तन्हाई में जब खड़ा होकर
इधर-उधर देखता हूं
बस नजर आता है अपना साया
………………………
दीपक भारतदीप

कभी खिलता हूं, कभी मुरझा जाता हूं-कविता


अपने घर पर रखे गमलों में
पौधों को लगाते हुए देखकर माली को
बहुत खुश होता हूं
उनमें कुछ मुरझा जाते हैं
कुछ खिलकर फूलों के झुंड बन जाते है
फिर वह भी मुरझा जाते हैं
अपना जीवन जीते हैं
फिर साथ छोड़ जाते हैं
फिर लगवाता हूं नये पौधे
इस तरह वह मेरे जीवन को
कभी महकाते हैं
तो कभी मुरझाकर दर्द दे जाते हैं
घर के बाहर खड़ा पेड़
जिसे पशुओं से बचाने के लिये
लगा गया था एक मजदूर बबूल के कांटे चारो ओर
खड़ा है दस बरस से
कई बार वही मजदूर काटकर
उसकी बड़ी डालियां ले जाता है
मैं उससे पेड़ को जीवन बनाये
रखने का आग्रह करता हूं
तो वह मुस्कराता है
कुछ दिन पेड़ उतना ही बड़ा हो जाता है
इस तरह प्रकृति का यह खेल देखकर
कई बार मैं मंद मंद मुस्कराता हूं
कभी खिलता हूं कभी मुरझा जाता हूं
…………………………………..

दीपक भारतदीप

भ्रम का सिंहासन-व्यंग्य कविता


एक सपना लेकर
सभी लोग आते हैं सामने
दूर कहीं दिखाते हैं सोने-चांदी से बना सिंहासन

कहते हैं
‘तुम उस पर बैठ सकते हो
और कर सकते हो दुनियां पर शासन

उठाकर देखता हूं दृष्टि
दिखती है सुनसार सारी सृष्टि
न कहीं सिंहासन दिखता है
न शासन होने के आसार
कहने वाले का कहना ही है व्यापार
वह दिखाते हैं एक सपना
‘तुम हमारी बात मान लो
हमार उद्देश्य पूरा करने का ठान लो
देखो वह जगह जहां हम तुम्हें बिठायेंगे
वह बना है सोने चांदी का सिंहासन’

उनको देता हूं अपने पसीने का दान
उनके दिखाये भ्रमों का नहीं
रहने देता अपने मन में निशान
मतलब निकल जाने के बाद
वह मुझसे नजरें फेरें
मैं पहले ही पीठ दिखा देता हूं
मुझे पता है
अब नहीं दिखाई देगा भ्रम का सिंहासन
जिस पर बैठा हूं वही रहेगा मेरा आसन

सभी की सोच मतलब के घर में बंद है-हिंदी शायरी



कोई लिखकर कहे या
अपनी जुबां से बोले
कोई ऐसे शब्द कान में अमृत घोले
मन में छा जाये प्रसन्नता की सरिता
इसी चाहत में उम्र गुजार दी

पर प्यासे रहे हमेशा
कोई नहीं बोल पाया
नहीं लिख पाया कुछ मीठे शब्द
हमने बोले कुछ प्यार के
तो लिखे भी बहुत
पर जमाना ही है लाचार और बेबस
जूझता है अपने दर्द और गमों से
कोई नहीं समझता
प्यार के शब्दों की असलियत
सभी ढूंढते हैं खुशी उधार की
………………………..
मैं कहां तलाश करूं प्यार से
सराबोर शब्दों की
सभी दरवाजे बंद हैं

अपने दिल के दर्द से टूटे लोग
ढूंढ रहे हैं खुशियां
रौशनी के पीछे अंधेरे में
अपने शब्दों से जला सकें
किसी के दिल में उम्मीद का चिराग
कोई ख्याल में भी नहीं लाता
सभी की सोच
अपने मतलब के घर में बंद है
………………………..

जैसी अभिव्यक्ति वैसी ही अनुभूति-हिन्दी शायरी


राह पर चलते हुए जो
मैंने देखी जोर से चिल्लाते लोगों की भीड़
वहां एक खड़े एक आदमी से पूछा
‘यहां क्या हो रहा है’
उसने कहा-‘झगड़ा हो रहा है’

मैं कुछ दूर चला तो जोर जोर से
लोगों को स्तुतिगान गाते सुना
मैंने एक आदमी से पूछा
‘यह इतना शोर क्यों हो रहा है’
उसने गुस्से से कहा

पाठक रूपी सारथि ही बनाता है लेखक महारथी-आलेख


सभी पाठक लेखक हों यह आवश्यक नहीं है पर सभी लेखकों को पाठक अवश्य होना चाहिए। एक लेखक को कभी किसी अन्य की रचना एक लेखक के रूप में नही बल्कि एक पाठके के रूप में पढ़ना चाहिए। एक लेखक में बैठा उसका पाठक ही उसकी रचना रूपी रथ का सारथि हो सकता है। कभी कभी किसी का पाठक ऐसा अमरत्व भी प्राप्त कर लेता है जब वह किसी अन्य लेखक का की रचना को पढ़ने के बाद फिर उसे अपने रचनाकर्म के लिये किसी अन्य की पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं पढ़ती। हमारे धर्मग्रंथ कुछ इसी प्रकार की अमर सामग्री से परिपूर्ण हैं जिनको पढ़ने वाले फिर कोई अन्य पुस्तक या रचना न भी पढ़ें तो भी अच्छे लेखक हो सकते हैं।

पाठक की दृष्टि से पढ़ते हुए हर व्यक्ति विषय सामग्री को पढ़ता है और उसके अंतर्मन में उतार चढ़ाव आते हैं और उनके साथ एक धारणा उसके मस्तिष्क में स्थापित होती है। जो लेखक होते हैं उन धारणाओं के आधार पर अपनी रचनाआंें का सृजन हुए अपनी एक अलग पहचान बनाते हैं। कुछ तो लेखक महानता की श्रेणी में आ जाते हैं। जिस तरह सारथि समरांगण में अपने रथ पर बैठे महाराथी के लिए वहां स्थितियों को देखते हुए रथ का संचालन करता है। समरांगण में सारथि वहां की स्थितियों का अवलोकर संचालन करते हैं कि ‘कहां उसकी युद्ध में किस स्थान पर आवश्यकता है जहां वह अपने महाराथी को ले जाये’, ‘कहां उसके महाराथी के लिए प्रतिकूल स्थितियां है और वहां से वह उसे हटा ले और ‘ कहीं उसका महारथी कहीं युद्ध लडते लड़ते घायल तो नहीं हो गया ताकि उसे वहां से दूर ले जाये।’ ऐसे अनेक निर्णय होते हैं जब सारथि अपने महारथी की रक्षा करने के उद्देश्य से अपने विवेक के अनुसार लेते हैं। महारथी का कार्य केवल युद्ध में अपना ध्यान रणनीतिक कौशल के साथ अपने अस्त्रों शस्त्रों का उपयोग करते हुए युद्ध जीतना होता है। यही स्थिति लेखक के अर्तमन में पाठक की है।

एक लेखक को किसी अन्य लेखक की रचना पढ़ते हुए अपने पाठक को एक सारथि की तरह विचरण करने देना चाहिए। एक पाठक के रूप में ही रचना का प्रभाव को ग्रहण किया जा सकता हैं। अगर किसी अन्य लेखक की कहानी पढ़ें तो उसके पात्रों के साथ जुड़ जायें और किसी की कविता पढ़े तो उसके भावों को सहजता से अंदर जाने दें। कोई आलेख या निबंध पढ़े तो उसकी विषय वस्तु को आत्मसात करना उसके लिए बेहद आवश्यक है।

एक महारथी को आक्रामक होना पड़ता है तभी वह युद्ध जीत सकता है। वैसे ही लेखक को अपनी रचना लिखते समय अपने अंदर आत्मविश्वास स्थापित करना चाहिए कि वह अच्छा लिख रहा है। यह तभी संभव है जब उसके अंदर अपने विचार और विषय सामग्री में प्रति दृढ़ता और प्रतिबद्धता होने के साथ अपना मौलिक भाव होगा। यह तभी संभव है जब उसने उस विषय का गहन अध्ययन किया हो जो कि दूसरे लेखकों की रचनाओं से प्राप्त होता है। यह तभी संभव होता है जब उन रचनाओं को एक पाठक की तरह पढ़ा होगा।

अक

मौसम पर कविता नहीं लिखेंगे-हास्य कविता


आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू, गर्मी में हो रही बरसात
जहां रुलाता पसीना, वहां करती बहार अपनी बात
लिखो कोई जोरदार कविता
बहने लगे श्रृंगार रस की सरिता
शायद तुम्हारे नाम से फ्लाप का लेबल हट जाये
हिट होकर तुम्हारा नाम आकाश पर चमक जाये
कोई कुछ भी कहे तुम करो
अपनी पत्रिका पर मौसम पर कविता की बरसात’

जाने को तैयार खड़े थे
बांध रहे थे धोती
सिर पर रख रहे टोपी
सुनकर पहले देखा फंदेबाज को घूरकर
फिर कहैं दीपक बापू
‘दो दिन पहले गर्मी पर
लिखने को कह रहे थे हास्य कविता
अब प्रवाहित करवाना चाहते हो
श्रृंगार रस की सरिता
बहुत लिख चुके तुम्हारे विषयों पर
नहीं बनी हमारी पत्रिका के हिट होने की बात
मौसम का कोई भरोसा नहीं
सर्दी के मौसम में सुबह लिख रहे थे
कंपाकंपाते हुए उस पर गर्म कविता
दोपहर तक निकलने लगा गर्मी में पसीना
गर्मी में लिखने बैठते हैं शाम को
रात तक पानी बरसता है बनकर नगीना
हवा बंद पर लिखने बैठते हैं तो
आंधी चली आती है
मौसम का कोई भरोसा नहीं
यह अंतर्जाल है मेरे मित्र
सारी दुनियां में एक जैसा मौसम नहीं रहता
कहीं कोई बहार में नहाता
तो कोई धूप में गर्मी में सहता
अब पहले जैसा माहौल नहीं है
जो लिखेंगे यहीं पढ़ा जायेगा
अब तो लिखो अपने शहर में
वह विदेश में भी दिखने में आयेगा
इसलिये समझ में नहीं आती
मौसम पर लिखकर हिट होने की बात
यहां हमेशा ही होने लगी है
बेमौसम गर्मी, सर्दी, और बरसात
हमें नहीं जमी तुम्हारी मौसम पर
हास्य कविता लिखने की बात
…………………………….

अपनी असली पहचान खोते जाते-कविता


प्रसिद्ध होने के लिए
चले जाते है उस राह पर
जहां बुरे नाम वाले हो जाते हैं
अगर नाम चमका आकाश में तो
जमीन पर गिरकर चकनाचूर
होने के खतरे भी बढ़ जाते हैं

पत्थरों पर नाम लिखवाने से
लोगों के हृदय में जगह नहीं मिल जाती
हंसी की करतूतों पर लोगों के ताली बजाने से
कुछ पल अच्छा लगता है
पर कोई इज्जत नहीं बढ़ जाती
कुछ पलों की प्रशंसा से
क्यों फूल कर कुप्पा हो जाते हैं
आकाश में उड़ने की ख्वाहिश रखने वालों
पहले जमीन पर चलना सीख लो
जहां खड़े रहने से ही
तुम्हारे पांव लड़खड़ने लग जाते हैं
दूसरे की आंखों में पहचान ढूंढने की
निरर्थक कोशिश में
अपनी असली पहचान खोते चले जाते हैं
………………………..

दिल बहलाने के लिए देख लो सुंदर तस्वीरें कहीं-कविता


हंसते चेहरे देखकर हंसता हूं
दिल बहलाने के लिये दूसरों की
हंसी भी सहारा बन जाती है
किसी के दर्द पर हंसने वाले बहुत हैं
दूसरों को हंसा दें ऐसी सूरतें
कभी कभी नजर आती हैं
नहीं मिलता तो देख लेता हूं
हंसते हुए लोगों तस्वीरें
दर्द से परे जो ले जातीं हैं
………………………………………………

आंखों से देखने का उम्र से
कभी कोई वास्ता नहीं
अगर बहलता हो मन तस्वीरों से
तो कोई हर्ज नहीं
अपनी उम्र देखकर शर्माने से
भला समय कट पाता है
राह चलते किसी का सौंदर्य देखने पर
अगर घबड़ाते हो तो
देख लो सुंदर तस्वीरें कहीं
…………………………………..

सदियों से धोखा देता आया चांद-कविता


 

आज महक जी  के ब्लाग पर एक फोटो और अच्छी गजल देखी। ऐसे में मेरा कवित्व मन जाग उठा। कुछ पंक्तियां मेरे हृदय में इस तरह आईं-

समंदर किनारे खड़े होकर
चंद्रमा को देखते हुए मत बहक जाना
अपने हृदय का समंदर भी कम गहरा नहीं
उसमें ही डूब कर आनंद उठाओ
वहां  से फिर भी निकल सकते हो
अपनी सोच के दायरे से निकलकर
आगे  चलते-चलते कहीं समंदर में डूब न जाना
अभी कई गीतों और गजलों के फूल
इस इस जहां* में  तुम्हें है महकाना

वहां मैंने “अंतर्जाल” लिखा था पर जहां लिख दिया

कभी कभी अंतर्जाल पर ऐसे पाठ आ जाते हैं जिन पर लिखने का मन करता है। तब वहां लिखने के विचार से जब अपना विंडो खोलता हूं और सहजता पूर्वक जो विचार आते हैं लिखता हूं। मैं हमेशा यही सोचता हूं कि अंतर्जाल पर अब मनोरंजक और ज्ञानवद्र्धक मिल जाता है तब उसके लिये कहीं और हाथ पांव क्यों मारे जायें?

इसी कविता पर एक फिर कुछ और विचार आये

समंदर के किनारे
चमकता चांद पुकारे
ऊपर निहारते हुए
एक कदम उठाए खड़े हो
जैसे तुम उसे पकड़ लोगे
पर अपना दूसरा कदम
तुम आगे मत बढ़ाना
सदियों से धोखा देता आया है चांद
किसी के हाथ नहीं आया
इसने कई प्रेमियों को ललचाया
शायरों को रिझाया
पर कोई उसे छू नहीं पाया
उसकी चमक एक भ्रम है
जो पाता है वह सूर्य से
यह हमारी बात पहले सुनते जाना

महक जी अपने ब्लाग पर कई बार ऐसा पाठ प्रकाशित करतीं है कि मन प्रसन्न हो जाता है। हां, मुझे याद आया एक बार उन्होंने अपने पाठ चोरी होने की शिकायत की थी और मुझे तब बहुत गुस्सा आया और उनके बताये पते जब गया था तो वहां उन्होंने अपनी प्यार भरी टिप्पणी रखी थी जिसमें कहीं गुस्सा नहीं बल्कि स्नेहपूर्ण उलाहना थी। तब लगा कि वह बहुत भावुक होकर लिखतीं हैं। यही कारण है कि उनके लिखे से जहां आनंद प्राप्त होता है वही लिखने की भी प्रेरणा मिलती है।
……………………………………….

 

 

विचारों की धारा-कविता


विचारों की धारा मस्तिष्क में
बहती चली जाती है
जब तक बहती है
अच्छा लगता है
जब एक विचार अटक जाता है
रुकी धारा से दुर्गंध आती है
प्रसन्न्ता का समय
बहता जाता हे
पर दुःख के पल में
घड़ी बंद नजर आती है

एकांत से हटकर भीड़ में जाकर
भला कहां मिलती है शांति
अकेले में भी अपनों के दर्द की
याद आकर सताती है

मन में जगह होती है बहुत
देते हैं किराये पर देते चिंताओं को
खौफ लगता है जमाने का
जो खुद लंगड़ाते चल रहा है
किताबों में लिखी लकीरों को
अपनी लाठी बनाकर
उसमें बदनाम होने का भय
अपने अंदर  लाकर
भला कैसे करते हैं उन चिंताओं से
चैन की आशा
जो अपने साथ बैचेनी ले आती है

शब्द अपनी दुनियां स्वयं बसाते है-आलेख और कविता


मैने कई ब्लाग पर हाइकु के रूप में कविताएं पढ़ीं, पर मेरे समझ में नही आता था कि वह होता क्या है। आज मीनाक्षी जी  के ब्लाग पर पढ़ा कि उसे त्रिपदम कहा जाता है। हिंदी में इस विधा के बारे में कहीं लिख गया है तो मुझे पता नहीं पर मुझे लगा कि यह एक मुक्त कविता की तरह ही है। शायद इस विधा को अंग्रेजी से लिया गया होगा और मैं इस आधार पर कोई विरोध करने वाला नहीं हूं। मुख्य बात है कि हम अपनी बात कहना चाहते है और उसके लिये हम गद्य या पद्य किसी में भी लिख सकते हैं।

त्रिपदम(हाइकु) पढ़कर मेरे मन में विचार आया कि आज अपने कुछ विचारों को इस विधा में  लिख कर देखें। कभी-कभी मुझे लगता है कि लोग अपने मन की हलचल को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाते या कभी वह कुछ कहना चाहते है पर कुछ और कह जाते है। हमारा मन बहुत गहरा होता है और हम उसमें डुबकी तो सभी लगा लेते हैं पर वहां से कितने मोती उठा पाते हैं यह एक विचार का विषय है। हम कई बार कहते हैं कि अमुक व्यक्ति बहुत गहराई से लिखता या विचार करता है। इसका यह आशय  यह कदापि नहीं हैं कि कि हम ऐसा नहीं कर सकते हैं। दरअसल जो लोग लिखने या विचार करने मेंे गहराई का संकेत देते हैं वह अपने अंदर से बाहर आ रहे विचार और शब्दों को रोकने का प्रयास नहीं करते। दृष्टा की तरह उनको बाहर लोगों के पास जाते देखते हैं। हां, यह मुझे लगता है। कई बार मेरे साथ ऐसा होता है। जब शब्द और और विचारों के बाह्य प्रवाह के बीच मैं स्वयं खड़ा होने का प्रयास करता हूं तो लगता है कि वह अवरुद्ध हो गया।

मुझे पता नहीं कि मैं अच्छा लिखता हूं कि बुरा? पर कुछ मित्र मेरी कुछ रचनाओं पर फिदा हो जाते हैं और कुछ पर कह देते हैं कि यह क्या लिखा है हमारे समझ में नहीं आया।’ तब मुझे इस बात की अनुभुति होती है कि मैंने खराब कही जा रही रचनाओं के समय अपने विचारों और शब्दों के प्रवाह में अपनी टांग अड़ाई थी। आज जब मेरे मन में हाइकू (त्रिपदम) लिखने का विचार आया तो मैं अपने अ्र्रंर्तमन पर दृष्टिपात कर रहा हूं कि क्या वहां कोई विचार या शब्द हैं जो बाहर आना चाहते है।

मन में उठती कुछ उमंगें
विचारों की बहती तरंगें
आशाओं की उड़ती पतंगें

मौसम के खुशनुमा होने का अहसास
किसी का हमदर्द बनने का विश्वास
प्यार में वफादारी की आस

अनुभूतियों से भरा तन
अभिव्यक्त होना चाहता मन
शब्द चहक रहे खिलाने को चमन

जब तलाशता हूं उनका रास्ता
संदर्भों से जोड़ता हूं उनका वास्ता
सोचता हूं परोसूं जैसे नाश्ता

तब असहज हो जाता हूं
अपने को भटका पाता हूं
नयी तलाश में पुराना भूल जाता हूं

जब हट जाता हूं उनके पास से
रचना होने की आस से
अपने अस्तित्व के आभास से

तब वह कोई कविता बन जाते हैं
या कोई कहानी सजाते हैं
शब्द अपनी दुनिया स्वयं बसाते है

यह मेरा त्रिपदम(हाइकु) लिखने का एक प्रयास है। मुझे इसे लिखना बहुत अच्छा लगा। यह अलग बात है कि पढ़ने वाले इस पर क्या सोचते है। मेरा प्रयास अपने को अभिव्यक्त करना होता है और प्रयास यही करता हूं कि अपने आपसे दिखावा नहीं करूं। हमेशा ऐसा नहीं कर पाता यह अलग बात है।

कभी किसी का कड़वा सच उसके सामने नहीं कहना चाहिए-आलेख


सच बहुत कड़वा होता है और अगर आप किसी के बारे में कोई विचार अपने मस्तिष्क में  हैं और आपको लगता है कि उसमें कड़वाहट का अश है तो वह उसके समक्ष कभी व्यक्त मत करिये। ऐसा कर आप न  केवल उसे बल्कि उसके चाहने वालों को भी अपना विरोधी बना लेते हैं। हां, मैं इसी नीति पर चलता रहा हूं। केवल एक बार मैंने ऐसी गलती की और उसका आज तक मुझे पछतावा होता है।

कई वर्ष पहले की बात है तब मेरा विवाह हुए अधिक समय नहीं हुआ था। ससुराल पक्ष का एक युवक मेरे घर आया। उसके बारे में तमाम तरह के किस्से मैंने सुने थे। वह अपने परिवार के लिये ही आये दिन संकट खड़े करता था। वह सट्टा आदि में अपने पैसे बर्बाद करता था। उसने अपनी युवावस्था में कदम रखते ही ऐसे काम शुरू किये जो उसके माता पिता  के लिए संकट का कारण बनते थे। एक बार उसने सभी लोगों के बिजली और पानी के बिल भरने का जिम्मा लिया। वह सबसे पैसे ले गया और फिर नकली सील लगाकर उसने सबको बिल थमा दिये और उनका पूरा पैसा उसने ऐसे जुआ और सट्टे के  कामों में बर्बाद कर दिया। उसके जेल जाने की नौबत आ सकती थी पर उसके पिताजी ने सबको पैसा देकर उसे बचा लिया। उसके पिताजी के कुछ लोगों पर उधार हुआ करते और वह उनको वसूल कर लाता और घर पर कुछ नहीं बताता। ऐसे बहुत सारे किस्से मुझे पता थे पर उसका मेरे और मेरी पत्नी के प्रति ठीक था।

घर पर खाने के दौरान मैंने पता नहीं किस संदर्भ में कहा था-‘पिताजी के पैसो पर सब मजे करते हैं। जब अपना पैसा होता है तब पता चलता है कि कैसे कमाया और व्यय किया जाता है। मैंने  भी पिताजी के पैसे पर खूब मजे किये  और अब पता लग रहा है। अभी तुम कर रहे हो और तुम्हें भी अपना कमाने और विवाह करने के बाद पता लग जायेगां’।

मेरी पत्नी ने भी यह बात सुनी थी और यह एक   सामान्य बात  थी। इसमेें कोई नयी चीज नहीं थी। जब वह अपने घर गया तब उसकी प्रतिक्रिया ने मुझे और मेरी पत्नी को हैरान कर दिया। उसकी मां ने मेरी पत्नी की मां से कहा-‘‘मेरा लड़का अपने पिताजी के पैसे पर मजे कर रहा है कोई उसे दे थोड़े ही जाता है।’

लड़के के बाप की भी ऐसी टिप्पणी हम तक पहुंची। हमें बहुत अफसोस हुआ। वह अफसोस  आज तक है क्योंकि हमारे उनसे अब भी रिश्ते हैं उस लड़के के माता पिता दोनों ही उसी की चिंता मेंं स्वर्ग सिधार गये। लड़का आज भी वैसा ही है जैसे पहले था। चालीस की उम्र पार कर चुकने के बाद उसका विवाह हुआ और पत्नी ने विवाह के छह माह बाद ही उसको छोड़ दिया। कहते हैं कि उसके हाथ में जो रकम आती है वह सट्टे में लगा आता है। उसके जेब में कभी दस रुपये भी नहीं होते। हां, उसके बाप ने जो पैसा छोड़ा उस पर बहुत दिनों तक उसका काम चला। उसका बड़ा भाई जैसे तैसे कर अभी तक उसे बचाये हुए है।
मेरा उसका कई बार आमना सामना होता है पर मैं बहुत सतर्क रहता हूं कि कोई ऐसी बात न निकल जाये जो उसे गलत लगे।

उसके माता पिता की याद आती है तब लगता है कि लोग दूसरों की कड़वी सच्चाई देखकर उसे बोलना चाहते हैं पर अपनी सच्चाई से मूंह फेर लेते हैं। मेरी बात उसने घर पर इस तरह बताई ताकि उसे वहां पर लोगों की सहानुभूति मिल सके। वह उसमें सफल रहा पर अब वह इस हालत में है कि कोई उसका अपने घर आना भी पसंद नहीं करता। उसकी गलत आदतें अब भी बनीं हुईं हैं। कहने वाले तो यह भी  कहते हैं कि वह जब वह अपना वेतन ले आता है तो उसे एक दिन में ही उड़ा देता है।

पिताजी के पैसे पर मजे करने के मुझे ं भी ऐसे ताने मिलते थे पर  विचलित नहीं होता था पर चूंकि किसी गलत काम में अपव्यय नहीं करता था इसलिये कोई गुस्सा नहीं आता था। फिर वह विचलित क्यों हुआ? मेरा विचार है कि वह अपने पिता के पैसे जिस तरह पापकर्म पर खर्च कर रहा था वही उस समय उसके हृदय में घाव करने  लगे, जब मैने यह बात उसके सामने कही थी।
लोग अपने बच्चों को किस तरह बिगाड़ देते हैं यह उसे देखकर समझा जा सकता है। घर में  अपने बच्चों द्वारा पैसे के गबन के मामले  को अक्सर लोग ढंक लेते हैं-जो कि स्वाभाविक भी है-पर बाहर अगर कोई ऐसा करता है तो उसे छिपाना कठिन होता है। अगर अन्य लोगों की बात पर यकीन करें तो उनका कहना है कि ‘आपने जब उससे कहा था तब अगर उसके माता पिता उसे समर्थन नहीं देते तो वह शायद सुधर जाता। क्योंकि आपकी बात सुनने के बाद चार पांच दिन तक वह गलत आदतों से दूर रहा पर जब माता पिता से समर्थन मिला तो वह फिर उसी कुमार्ग पर चला पड़ा।’

हमारे अंतर्मन में अपनी छवि एक स्वच्छ व्यक्ति की होती है पर बाहर हमें लोग इसी दृष्टि से देख रहे हैं यह सोचना मूर्खतापूर्ण है। हर आदमी में गुण दोष होते हैं और दूसरे को दिखाई देते हैं। कोई आदमी  सामने ही हमारा दोष प्रकट करता है तो हम उतेजित होते हैं जबकि उस समय हमें आत्ममंथन करना चाहिए। खासतौर से बच्चों के मामले में लोग संवेदनशील होते हैं। अगर कोई कहता है कि आपका लड़का या लड़की कुमार्ग पर जा रहे हैं तो उतेजित हो जाते हैं और अपने अपने लड़के और लड़की के झूठे स्पष्टीकरण पर संतुष्ट होकर कहने वाले की निंदा करते हैं। एक बार उन्हें अपने बच्चे की गतिविधि पर निरीक्षण करना चाहिए। जिस व्यक्ति ने कहा है उसका आपके बच्चे से कोई लाभ नहीं है पर आपका पूरा जीवन उससे जुड़ा है। हां, संभव है कुछ लोग आपके बच्चे की निंदा कर आपको मानसिक रूप से आहत करना चाहते हों और उसमें झूठ भी हो सकता है पर इसके बावजूद आपको सतर्क होना चाहिए। 

ईमानदारी का न्यूनतम स्तर-व्यंग्य चिंतन


कल सुबह बिजली न होने के कारण मैं घर से अपने किसी भी ब्लाग पर कोई भी पाठ प्रकाशित किये बिना ही चला गया। वैसे भी परसों रात मेरे सारे पाठ हिंदी के सभी ब्लाग एक जगह दिखाने वाले फोरमों पर फ्लाप हो गये थे तो मैं और आधा घंटा बिजली का इंतजार कर कोई पाठ प्रकाशित  करने की  मनस्थिति में नहीं था। मेरी पत्नी से मुझसे  कहा-‘‘गेहूं का आटा पिसवाना है। शाम के आप पिसवा कर आयेंगे या मैं ही पिसवा का आऊं?‘‘

यह काम कई वर्षों से मैं करता रहा था पर अब आटे की चक्की घर से थोड़ी दूरी पर ही खुल गयी है और हमारी पत्नी झोले में गेहूं डालकर पिसवा लाती है। कभी-कभार मैं साइकिल पर रखकर पिसवा लाता हूं। जब से ब्लाग लिखना शुरू किया है मेरी पत्नी इस तरह घर के प्रति लापरवाह होने की बात कहती हैं। हकीकत यह है कि हम अपने टीवी और फालतू काम से घूमने का समय ही इसमे ंलगाते हैं। वह चाहतीं थीं कि मैं कहूं कि ‘तुम ही पिसवा  आओ‘ पर नहीं कहा क्योंकि फिर ब्लाग लिखने का ताना मिलना था। इसलिये कह दिया-‘‘शाम को आते ही गेहूं पिसवा लाऊंगा।’

शाम को घर आने के बाद थोड़ा विश्राम कर चाय पी और साइकिल पर गेहूं से भरा झोला रखकर जैसे ही बाहर निकलने को हुआ बिजली चली गयी। मैंने सड़क पर देखा तो चारों तरफ अंधेरा दिख रहा था। यदि उस समय मैं  आटा पिसवाने जाता तो वहां से वैसे ही लौटना था जैसे मेरे अधिकतर  ब्लाग आजकल बिना सफलता के विभिन्न फोरमों से लौट रहे हैं।

थोड़ी देर बार लाईट आई तो फिर हम गेहूं पिसवाने के लिए निकला तो हमारी पत्नी बोली-‘वहां गेहूं पिसवाते हुए जरा घ्यान रखने किसी से अपने ब्लाग की चर्चा में ध्यान मत लगा देना। हो सकता है चक्की वाला गेहूं बदल दे या बदले हुए गेहूं का आटा दे। वहां से बिल्कुल मत हटना। हमारा गेहूं अच्छा होता है और गेहूं पीसने वाले उसे बदल देते हैं।’

हमने मान लिया । आटा वापस लेकर लौटै तो मेरी श्रीमती ने पूछा-‘‘अपने सामने ही पिसवाया न?’
हमने कहा-‘हां।’
आज सुबह जब अपने काम पर जा रहे थे तो वह भोजन का डिब्बा हमारे हाथ में देते हुए बोलीं-‘आपने शायद कल आटा पिसवाते समय  ध्यान नहीं दिया ऐसा लगता है कि उसमें मिट्टी भरी हुई है।’

मैने कहा-‘कल कितनी आंधी आई थी और उसकी वजह से पानी के पंपों में पानी घुस गया। देखा नहीं आज कैसे गंदा पानी आ रहा है। उसकी चक्की में भी मिट्टी घुस गयी होगी।’

मेरा  उत्तर उसको शायद जंच गया क्योंकि कल आंधी ने जो हालत इस शहर की उसके बाद मेरी दिमाग में भी यही बात घर कर गयी थी। फिर मैंने कहा-‘‘आजकल पूरी तरह ईमानदारी से व्यवहार की आशा तो किसी व्यक्ति से नहीं करो। जब इस विश्व में मनुष्य की जीवन लीला प्रारंभ हुई   तो सबसे पहली चोट ईमानादारी पर ही हुई होगी और शतप्रतिशत ईमानदारी की अपेक्षा करने की  बात तो उसी समय ही समाप्त हो गई होगी। फिर अभी तक तो अधिकतम ईमानदारी की बात ही सोची जा सकती है पर अब तो न्यूनतम के स्तर पर ही देखना होगा। सब्जी, दूध, कपड़ा या अन्य सामान खरीदते समय तुम यह देखा करो कि लोग न्यूनतम ईमानदारी के साथ व्यवहार कर रहे हैं या नहीं।

मेरी पत्नी हंसने लगी और कहा-‘बोली अपनी यह बात शाम को आकर अपने ब्लाग पर लिखना। जब से ब्लाग लिखना शुरू किया है दूसरे उसको पढ़ते हो या नहीं तुम जरूरी ज्ञानी होते जा रहे हो। ’

मैंनं कहा-‘‘ तुमने उस दिन टीवी पर नहीं देखा था कि अपने आसपास किस तरह सिंथेटिक का दूध बन रहा है। तुम अब  शुद्ध दूध की बात तो छोड़ो और  पानी मिले दूध से ही संतुष्ट होना सीख लो। यह देखा करो कि दूध में कितना कम पानी मिला  है और कहीं ऐसा तो  नहीं कि वह दूध न हो बल्कि कहीं नकलीे बनाया गया हो। शून्य प्रतिशत ईमानदारी स्वीकार्य नहीं करना। दूध असली हो भले ही उसमें पानी नब्बे प्रतिशत हो उससे कोई हानि नहीं होगी पर नकली दूध तो बीमार कर देता है।’

मैं काम पर चला गया और रास्ते में सोचता रहा कि  ईमानदारी का न्यूनतम स्तर शब्द बोलते समय  से मेरे दिमाग में क्या रहा होगा? कई बार दिमाग कंप्यूटर की तरह अपनी बात तेजी से कह देता है और मैं उसे देर से पकड़ पाता है।  थोड़ी देर बाद याद आया कि कोई दस तो कोई पंद्रह या उससे अधिक बीस प्रतिशत ईमानदारी से व्यवहार  है। उसमें हमें बीस प्रतिशत वाले से व्यवहार करना चाहिए क्योंकि उसकी न्यूनतम ईमानदारी का यही न्यूनतम पैमाना होता है तो स्वीकार करना ही होगा। यह कुछ लोग कह सकते हैं कि तुलना में इसे ईमानदारी का अधिकतम व्यवहार क्यों नहीं कहते। साहब, मैं ऐसे अवसरों पर  ईमानदारी का ही न्यूनतम स्तर देखता हूं तब उसे ईमानदारी का अधिकतम स्तर कैसे मान सकता हूं?

प्रसंगवश कल भी फोरमों पर मेरे तीन पाठ  फ्लाप । कल रात को जब मैंने देखा कि वह फ्लाप हो रहीं हैं तो अनुमान किया कि उस समय कोई क्रिकेट मैच हो रहा होगा। आज अखबार में देखा तो श्रीलंका के सनत जयसूर्या ने कल जोरदार बैटिंग की थी शायद इसी वजह से लोग उधर ध्यान दे रहे होंगे। वैसे जब इस तरह पाठ पिटते हैं तो मेरे अंदर एक नया जज्बा पैदा होता है सोचता हूं चाहे जो लिखो कौन इसको तत्काल पढ़कर  बताने वाला है। 
आजकल कभी अंग्रेजी ब्लाग देखता हूं और उन पर रुचिकर सामग्री की तलाश करना अच्छा लगता है। इधर एक चर्चा और है कि कोई ऐसा टूल आया है जिससे हिंदी से उर्दू तो अच्छी हो जाती है पर उर्दू से हिंदी में नहीं हो पाता। उन हिंदी भाषी पाठकों के लिए यह दूसरा झटका है जो हिंदी में लिखे को अच्छा नहीं समझते। इससे पहले अंग्रेजी के टूल में भी ऐसा ही हुआ था। दोनों मामलों में हिंदी के लेखक फायदे में है क्योंकि दोनों में उनका लिखा 90 प्रतिशत सही हो जाता है। हालांकि इसका लाभ तभी वह उठा सकते हैं जब वह दिल खोलकर अपनी बात लिखें और अपने अंदर अंग्रेजी या उर्दू न आने की कुठा से परे रहें।
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जैसी दी शिक्षा वैसा ही शिष्य पाया-हास्य कविता


गुरू चेले थे बरसों से साथ
पर उस दिन गुरू को गुस्सा आया
लग चेले पर बरसने
‘मैने कई बरस तक दी तुझे सीख
पर तू मेरे किसी काम न आया
देश की प्राचीन गुरू-परंपरा पर
तू ने बहुत बड़ा कलंक लगाया’

अभी तक कभी जवाब न देने वाले
शिष्य को भी उस दिन ताव आया
और पलटकर बोला
‘साथ-साथ रहे पर बड़े होने से
तुमकों ऐसे ही गुरू कहकर मैने भरमाया
इसलिये सब सहता आया
वैसे भी इस घोर कलियुग में
तुम्हें सतयुग का प्रसंग कैसे याद आया
उस युग में देते गुरू सात्विक शिक्षा
गुरुदक्षिणा देने के लिये शिष्य मांगते थे भिक्षा
तुमने हमेशा मुझे चाल फरेब करना ही सिखाया
जैसी दी थी शिक्षा वैसा ही शिष्य पाया’
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लिखने और प्रयोग करने में क्या हर्ज है- व्यंग्य


बहुत दिन से लोगों ने ऐसी हिंदी लिखी नहीं होगी जैसी उसे अंग्रेजी में अनुवाद टूल देखने का इच्छुक है। मैने गूगल के हिंदी टूल से समझौता करने का निर्णय किया तो मुझे जितना आसान लग रहा था उतना है नहीं।

पिछले कई वर्षों से मन में हिंदी का विख्यात लेखक बनने की इच्छा रही जो कभी पूर्ण नहीं हो सकी। विषय सामग्री की प्रशंसा तो अनेक लोगों से मिली पर ख्याति फिर भी नहीं मिली। भटकते हुए इस अंतर्जाल (अनुवाद वाला टूल इसे  इंटरनेट नहीं करता) पर आ गये। वर्डप्रेस का ब्लाग लिखने बैठ गये तो अपने देव और कृतिदेव में टाईप कर रख दिया। दो दिन तक इस बात   प्रतीक्षा की कि  यह उसको हिंदी के कर देगा। उसने नहीं किया तो हम हैरान रह गये। आखिर दूसरे लोग किस तरह लिख रहे हैं यह सोचकर हैरानी होती थी। पता नहीं कैसे हमने वर्डप्रेस में  हिंदी श्रेणी में अपना ब्लाग घुसेड दिया। इससे वहां सक्रिय अन्य ब्लाग लेखकों की उस पर वक्रदृष्टि पड़ गयी। हिंदी के सब ब्लाग एक जगह दिखाने वाले नारद फोरम के ब्लाग लेखक आखें तरेर रहे थे। ‘यह कौनसी भाषा है’, ‘इसे यूनिकोड में करो’, वगैरह….वगैरह।
हमने समझा कि यह लोग जल रहे हैं पर आगे घटनाक्रम ऐसा हुआ कि हम यूनिकोड में ही लिखने लगे। एक मित्र ने इंडिक का हिंदी टूल दिया जो रोमन लिपि में लिखी हिंदी को देवनागरी रूप देता था। देखा जाये तो एक तरह से यूनिकोड में लिखने की वजह से हम भी ब्लाग लेखक बन गये। यह तो बाद में पता लगा कि हम तो इतने बड़े साहित्यक लेखक से ब्लाग लेखक बनकर रह गये। 

इधर ब्लाग लेखक ऐसा टूल बता गये जिससे कृतिदेव बता गये जो उसे यूनिकोड में परिवर्तित करता  था। हम उस टूल को उठा तो लाये पर यकीन नहीं था कि सफल होगा। वह हुआ और हम अब ब्लाग लेखक नहीं रहे थे। जिन मित्रों ने हमें ब्लाग लेखक बनाने की गलती की थी यह टूल बताकर उसका प्रायश्चित कर दिया। कहें तो हमसे तंग होकर ब्लाग जगत से बाहर का मार्ग दिखा दिया।  अब हो गये लेखक।

एक महीना भी नहीं बीता कि एक और टूल का पता फिर यह ब्लाग मित्र ले आये-हिंदी को अंग्रेजी भाषा में बदलने का। कई पाठक अभी शायद इस बात पर यकीन नहीं करे पर यह सत्य है कि ऐसा टूल आ गया है। हमें एक लेखक की तरह हिंदी ब्लाग जगत में लिखते हुए अधिक समय नही बीता पर पुराने धाव कभी कभी हरे हो ही जाते हैं।

हमें कई वर्षों से इस बात का अनुभव रहा है कि  हम हिंदी में लिखकर विख्यात नहीं हो सकते। उल्टे कई बार विख्यात होने के चक्कर में हमारे झगड़े और हो जाते हैं जिसमें सिवाय कुख्यात होने के हमारे हाथ कुछ भी नहीं आता। ऐसे में इस टूल के जरिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात होने का विचार आया और अपनी कुछ पाठ-मित्रों की इस चेतावनी के बावजूद कि इसके परिणाम की संभावना का प्रतिशत बहुत कम है-हमने इस टूल का प्रयोग आरंभ किया। पहले पाठ  में कम से कम उसने बीस अक्षर परिवर्तित करने की बजाय वैसे के वैसे ही रखकर यह बता दिया कि यह काम आसान नहीं है।मैने एक-एक कर वैकल्पिक अक्षरों का इस्तेमाल किया और अपना पाठ  तैयार की और चिपका दिया। जब पढ़ने बैठा तो दंग रह गया। ‘मैं खाना खाता हूं’ में वह खाता को एकांउट कर देता है। साइकिल उसके समझ में आता है पर सायकल को मानने से मना कर देता है। पोस्ट नहीं पाठ लिखो तो समझता है। हिंदी के अधिकतर व्यंग्यकारों की यह आदत होती है कि वह ‘मैं’ की बजाय ‘हम’ शब्द का प्रयोग करते है पर इस अनुवाद के टूल से मत पढ़ कर अंग्रेजी पढ़ने वाले भ्रमित हो जायेंगे। यह टूल इतना हिंदी प्रेमी है कि उर्दू या अंगेजी शब्द को स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

अभी लोगों ने इसका उपयोग किया नहीं है पर जितना मैंने किया है उसके अनुसार अगर शुद्ध हिंदी में लिखा जाये तो बहुत हद तक इस टूल से अपना पाठ इस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है जिससे अंग्रेजी भाषा के पाठक भी पढ़ सकें। हिंदी में लेखक रहे या ब्लाग लेखक कोई सम्मान नहीं मिला। पहले भी मैं बहुत प्रयास करता था कि अंग्रेजी में अपनी रचनाएं लिखूं पर लिख नहीं पाया। अब विचार मेरे मस्तिष्क में आ रहा है कि क्यों न इस टूल से अंग्रेजी में घुसपैठ  की जाये। जब अंग्रेजी वाले हमारे हिंदी में हमारे अनुवादकों की सहायता से घुस सकते हैं तो फिर उनके इस टूल से उन्हींे की क्षेत्र में उसी तरह प्रवेश किया जाये।

आने वाला समय बहुत दिलचस्प है। सबसे बड़ी बात यह है कि जिस तरह अंतर्जाल पर भाषा की दीवार टूट रही है तो साथ ही कई भ्रम भी टूटने वाले हैं। अभी तक हिंदी के ठेकेदार  और मालिक  हिंदी के लेखकों को अपनी जागीर समझते थे। जिसे कोई पुरस्कार या सम्मान मिला वही प्रसिद्ध हुआ। लिखने के साथ किसी बड़े संगठन या व्यक्ति की चाटुकारिता करना आवश्यक है। हिंदी पढ़ने वाले पाठकों की कमी है पर अब यह विषय नहीं रहने वाला कि किस भाषा में लिखा गया बल्कि क्या लिख गया यह महत्वपूर्ण होने वाला है।

पिछले बहुत समय से मुझे अपने ब्लाग पर अंग्रेजी भाषा के ब्लाग लेखकों की उपस्थिति के संकेत देखे थे पर मैंने उनकी उपेक्षा की यह सोचकर कि भला उनके साथ क्या संपर्क बन पायेगा? अब संभव है कि अंतर्भाषीय ब्लाग संपर्क बनने लगें। जिस गति परिवर्तन आ रहे हैं उससे मुझे लगता है कि एक वर्ष में बहुत सारे ऐसे दृश्य हमारे समक्ष प्रस्तुत होंगे जिसकी कल्पना भी हम अभी नहीं कर सकते। मेरी दिलचस्पी अब इस ब्लाग जगत में लेखक की तरह कम एक दृष्टा की तरह अधिक है-लेखक होने के कारण मुझे भी सुखद अनुभूतियां होंगी, यह एक अलग से उपहार होगा।

अभी इस टूल के प्रयोग को सीखा जाना है और जो लेखक नये हैं और वह इस पर अपनी पोस्टों का अनुवाद जरूर कर देखें कि वह अंग्रेजी में कैसे आ रहीं हैं। हालांकि लोग उछल रहे हैं कि ‘हिंदी अंग्रेजी अनुवाद टूल‘ आ गया तो हमें अंग्रेजी में भी पढ़ा जायेगा तो उन्हें पहले यह भी तो देखना चाहिए कि उनके पाठ अनुवाद होकर अंग्रेजी में पढ़ने योग्य हैं कि नहीं। इसके साथ अभ्यास करने से हो सकता कि कुछ लोग अपने पाठ इस तरह बना लें कि अंग्रेजी के पाठक उनको आसानी से पढ़ सकें। महत्वपूर्ण बात यह है कि जो शायद हिंदी के लेखक कभी अंग्रेजी और उर्दू शब्दों के प्रयोग करने की आदत से पीछा नहीं छुड़ा सके वही काम यह टूल उनसे करा लेगा, अगर वह यह चाहते हैं कि अंग्रेजी के पाठक भी उन्हें पढ़ें। कुल मिलाकर आने वाला समय बहुत दिलचस्प रहने वाला है। हम तो लिखते रहेंगे जब तक अवसर मिल रहा है। आखिर हमें लिखने और प्रयोग करने में क्या हर्ज है?  

इंसान तो कठपुतली है-हास्य कविता


आदमी के पंख नहीं होते
जो वह आसमान में उड़ सके
पर उसका मन बिना पंख के ही
उड़ता चला जाता है
उसके पांव आदमी की काबू में होते नहीं
पंरिदे बनाते हैं लोगों के घर में भी घरोंदे
पर उनके बिस्तर पर सोते नहीं
खुशी में झूमकर नाचता इंसान
दुःख  में अपने ही आंखो से बहती
अश्रुधारा में करता स्नान
पर परिंदे कभी रोते नहीं
अपने मन के इशारे पर
कठपुतली की तरह नाचता
कितने भी दावे करे कि
खुद ही चल रहा है इस जीवन पथ पर
अपनी अक्ल पर है उसका काबू
कराती है इंसान की  जुबान दावे आजाद होने के
पर कभी वह सच्चे होते नहीं
अपनी जरूरतों से आगे नहीं उड़ते
इसलिये परिंदे कठपुतली नहीं होते
यह सच है
अपनी ख्वाहिशों के हमेशा गुलाम
रहने वाले  इंसानों के लिये
साबित करना बहुत मुश्किल है कि
वह कठपुतली होते नहीं
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कठपुतली ने चिडि़या से कहा
‘देखो, मैं नाच  और गा सकती हूं
पर तुम ऐसा नहीं कर सकती
मुझे तुम पर तरस आता है’

चिडि़या ने उसकी डोर पकड़ने वाल  नट की
गर्दन पर चांेच मारी तो वह चिल्लाया
छूट गयी उसके हाथ से  डोर
उसने कठपुतली को इस तरह नीचे गिराया
चिडि़या ने लौटकर चिड़े से कहा
‘आदमी कठपुतली को आगे कर बोलता
अपने मन के इशारे पर डोलता 
बोलने से पहले कभी शब्द नहीं तोलता 
दावे करता है आकाश में उड़ने का
कभी ऐसा नहीं करता तब  मचा रहा है शोर
उड़ता तो क्या हाल करता
सर्वशक्तिमान ने इसलिये इसको पंख नहीं लगाया
उड़ने के ख्वाब देखता रहे इसलिये
इंसान को मन की कठपुतली बनाया
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दीपक भारतदीप

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महिला बुद्धिजीवी सम्मेलन-हास्य व्यंग्य


सम्मेलनों के आयोजने करने के आदी लोगों की संस्था के पदाधिकारियों के  दिमाग  में ‘बुद्धिजीवी महिला सम्मेलन’ करवाने का विचार आया। कुछ लोगों ने इसका विरोध किया और कुछ लोगों ने समझाया। एक समझदार ने कहा-‘‘इस देश की शिक्षा पद्धति ने लोगों को गहरे ज्ञान से वंचित किया है और सभी प्रकार के बुद्धिजीवी चाहे वह  महिला हो या पुरुष केवल वाद का नाम और नारे लगाकर ही चलते हैं और फिर आपस में झगड़ा करते हैं। सामान्य आदमी तो बैठक आदि में जाता नहीं और जाता है तो खामोशी से चला जाता है और चार बुद्धिजीवी पूरुष जहां मिलते है लड़ पड़ते है, उनको हाथ पकड़ कर या धमकी देकर समझाया जा सकता है  कहीं महिला बुद्धिजीवी कहीं झगड़ा कर बैठीं  तो उनको समझाना कठिन हो जायेगा।’

   मगर संस्था के लोग नहीं माने। सम्मेलन कराने का नशा उन पर सवार था। उनका विचार था कि इस बहाने संस्था का नाम पुनः चमकेगा जो पहले ही डूब रहा है।

सम्मेलन घोषित हो गया। ढूंढ-ढूंढकर बुद्धिजीवी महिलाओं को आमंत्रण भेजा गया और फिर विषय रखा गया ‘सास-बहु और ननद-भाभी  के मधुर संबंध कैसे हों’?

संस्था के सभी लोग आयोजन कर चंदा वसूलने और फिर आत्मप्रचार के काम में महारात हासिल किये हुए थे पर फिर भी उनमें से कुछ कच्चे पड़ गये और उन्होंने फैसला किया कि वह इस आयोजन से दूर रहेंगे। वजह यह थी कि उनके घर की महिलायें भी इन आयोजनों में आतीं थीं और उनको लगा कि इस तरह के आयोजन से उनके घरेलू विवाद सबके सामने आयेंगे।

हालांकि संस्था के लोगों ने इस बात का पुख्ता इंतजाम किया कि उनके घर की महिला सदस्य इनमें शामिल न हों और वह बुद्धिजीवी भी हों तो उनको सूचना नहीं भेजी जाये। इसलिये जिसका नाम भी आमंत्रण पत्र पर लिखा जाता था पहले इस बात की तस्दीक कर ली जाती थीं कि वह संस्थो के सदस्यों की घर से संबद्ध न हों।

सम्मेलन का दिन आया तमाम महिलायें कार्यक्रम में पहुंची। कुछ को भाषण देना था तो कुछ को केवल सुनकर तालियां बजानीं थीं। तालियां बजाने के लिये भी बकायदा पैसे देने का आश्वासन दिया गया था। आयोजक जानते थे कि बोलने के लिये बुद्धिजीवी महिलायें तो मिल जायेंगी पर ताली बजाने के लिये उनकी उपलब्धता संदिग्ध है। इसलिये कुछ पुरुंष भी किराये पर बुलाये गये और उनको महिला अधिकारों के लिये लड़ने वाले जुझारू कार्यकर्ता कर प्रचारित किया गया।

तमाम सावधानियों के बावजूद आयोजक आमंत्रण पत्र भेजने में गल्तियां कर गये। उन्होने कई ऐसी बुद्धिजीवी महिलाओं को बोलने के लिये आमंत्रण भेज दिया जिनके आपस में सास बहु और ननद-भाभी के रिश्ते थे। उनको इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि बुद्धिजीवी घरों में ‘बुद्धिजीवी’ बहु की मांग ही होती है यह अलग बात है कि कोई भी बुद्धिजीवी सास दहेज की राशि को लेकर वैसे ही कोई समझौता नहीं करती जैसे कि कोई सामान्य सास।

सम्मेलन शूरू कराने के लिये एक पुरुष सदस्य माइक पर आया और बोला-‘‘आज हम अपने पहले बुद्धिजीवी सम्मेलन…………………….’’

उसकी बात पूरी होने से पहले ही एक महिला कुर्सी से उठ कर खड़ी हो गयी और बोली-‘क्या इस काम के लिये कोई महिला नहीं थी। हटो मैं संचालन करती हूं।’

वह मंच पर चढ़कर आ गयी और उससे माइक लेकर स्वयं डट गयी।उस संचालक पर तो जैसे वज्रपात हुआ क्योंकि वह उस संस्था का अध्यक्ष था और उसी ने ही इस सम्मेलन के प्रस्ताव को रखा था और पास कराया था। उसका मूंह उतर गया तो संस्था में उसके वह प्रतिद्वंद्वी खुश हो गये जो इस सम्मेलन को कराने के विरोधी थे।

उस महिला ने अखबारों की कटिंग दिखाकर  कुछ ऐसी खबरें जिनमें महिलाओं के खिलाफ अपराध किये गये थे उनको पढ़ना और उसके लिये पुरुष प्रधान समाज को जिम्मेदार ठहराने का सिलसिला शुरू किया। 

तब एक दूसरी महिला खड़ी होकर बोली-‘‘यहां हमें  बताया गया है कि आज की चर्चा का विषय है ‘सास-बहु और ननद-भाभी  के मधुर संबंध कैसे हों’? आप तो विषय से हटकर बोल रहीं हैं।’

उसके पास ही उसकी बहु भी बैठी थी वह अपनी सास से बोली-‘‘अत्याचार तो अत्याचार है। खबर बतायेंगी तभी तो यह पता लगेगा कि कहां-कहां बहुओं पर अत्याचार हुए।’

तब दूसरी बुद्धिजीवी महिला भी माइक पर पहुंच गयी और उससे छीनकर बोली-‘हम पुरुषों द्वारा तय किये गये विषय पर नहीं बोलेंगे। हमें अपना विषय तय स्वयं करना चाहिए।’

अब तो वहां हलचल मच गयी। बहुएं और भाभियां चाहतीं थीं कि उनके साथ जो दुव्र्यवहार घर में होता है उस पर चर्चा की जाये और सास और ननदें चाहतीं थीं कि इसमें बहुओं द्वारा अपने अधिकारों के दुरुपयोग पर विचार किया  जाये।

माहौल गर्मा गया था और आयोजकों की घिग्घी बंध गयी थी। संस्था के एक सदस्य ने कहा-‘आज का किसी के मरने की खबर देकर स्थगित करते हैं और अगली तारीख पर आयोजित करेंगे। अभी जो नाश्ते का समय घोषित करते हैं फिर इसे स्थगित कर देते हैं।’

संस्था का अध्यक्ष बोला-‘‘पर वहां यह घोषित करने के लिये भी तो कोई महिला चाहिए। देखा नहीं मुझे किस तरह वहां से भगा दिया।

माहौल तनाव से भरा था। अब आयोजकों के समझ में नही आ रहा था कि क्या करें? किसकी मदद लें? सब बुद्धिजीवी महिलायें तो जोर-जोर से बोल रहीं थीं। अचानक उनकी नजर एक व्यंग्यकार महिला पर पड़ गयी। उस सभा में वही एक खामोश बैठी थी और मंद-मंद मुस्करा रही थी। मजे की बात यह कि उसे नहीं बुलाया गया था वह तो कहीं से सुनकर वहां आयी थी। अध्यक्ष उसके पास गया और बोला-‘‘आप हमारी कुछ मदद करे। पहले सबके लिये नाश्ते की घोषणा करें थोड़ी देर बाद किसी बहाने इस स्थगित कर दें।’

व्यंग्यकार महिला ने कहा-‘‘पर मैं तो यहां बिना बुलाये आयी हूं।  वैसे भी मैं केाई बुद्धिजीवी नहीं हूं बल्कि व्यंग्यकार हूं। नहीं…..नहीं…………तुम क्या समझते हो कि मेरा कोई सम्मान नहीं है।’

उसने जब अधिक याचना की तो वह तैयार हो गयी। उसने मंच संभाला और पहले नाश्ते की घोषणा कर माहौल को ठंडा किया फिर थोड़ी देर बाद माइक पर आयी और बोली-‘‘ अब हम सब लोगों ने नाश्ता कर लिया है पर हमारा विषय तय नहीं है इसलिये अगली तारीख पर विषय तय कर लेंगे तब आपको सूचना दी जायेगी। हम फिर मिलेंगे।’

सब महिलायें  थोड़ा बहुत विरोध कर वहां से चलीं गयीं। थोड़ी देर बाद वह व्यंग्यकार महिला बाहर निकली तो देखा एक खाकी पेंट, सफेद शर्ट और सिर पर टोपी पहने एक आदमी खड़ा उसे देख रहा था और जैसे ही नजरें मिलीं तो वह खिसकने को हुआ तो वह पीछे से चिल्लाकर  बोली-‘अरे, तुम व्यंग्यकार होकर इस तरह यहां क्यों खड़े हो। अच्छा अपने लिये विषय तलाशने चपरासी की भूमिका में आये हो। अगर मुझे पता होता तो सब महिलाओं को बता देती और तुम्हारी धुलाई करवाती। तुम्हारे व्यंग्य वैसे ही मेरे समझ में नहीं आते पर तुम हो कि लिखना बंद नहीं करते।

वह अपनी साइकिल उठाकर बोला-‘‘अब हम दोनों ही यहां से निकल लें तो अच्छा रहेगा। मै इस वेश में इसलिये आया था कि चपरासी तो चपरासी होता है उसकी उपस्थिति पर भला कौन आपत्ति करता है पर अगर सूटबूट पहनकर आता तो हो सकता है कि बाहर भी कोई खड़ा नहीं रहने देता। यहां दोनों ही बिना बुलाये आये हैं अगर मैं इस पर व्यंग्य लिख दूं और महिलाओं का तुम्हारे बिना आमंत्रण के यहां आगमन की बात बता दू तो कैसा रहेगा? और बुद्धिजीवी और व्यंग्यकार में अंतर होता है ऐसा मैंने तुम्हारे व्यंग्यों में ही पढ़ा है।

महिला व्यंग्यकार ने कहा-‘ महिलायें अभी भी दूर नहीं हैं बुलवा लूं। खैर छोड़ो…………..फिर उनको भी यह पता चल जायेगा कि मैं भी यहां बिना बुलाये आयी हूं और आयोजकों कहने से उनका सम्मेलन खत्म कराया गया है।’’

अगले दिन अखबार में सम्मेलन के उल्लास से संपन्न होने का समाचार था और व्यंग्यकार महिला का नाम तक उसमें नहीं था। 
यह हास्य व्यंग्य काल्पनिक रचना है और किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोई लेना देना नहीं हैं अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा। इन पंक्तियों को लेखक किसी भी महिला व्यंग्यकार से कभी नहीं मिला

अंग्रेजी नाम, हिंदी नाम-आलेख


अंतर्र्जाल पर हिंदी लिखते हुए मुझे एक बात अनुभव हो रही है कि यहां रूढ़ता का भाव अपने हृदय में रखने को कोई मायने नहीं है। अंतर्जाल पर अनेक वेब साइटों और ब्लाग पर निकल रही हिंदी  पत्र-पत्रिकाओं के नाम हिंदी में है तो अंग्रेजी में नहीं और अंग्रेजी में है तो हिंदी में नहीं। मैं दोनों से संबंध रखता हूं और मेरी रुचि इस बात में है कि किस तरह अंतर्जाल पर हिंदी के पाठक अधिक से अधिक सक्रिय हों। मेरी कुछ पत्रिकाएं ब्लाग पर हैं और कुछ वेब साईटों की पत्रिकाओं पर मैं लिखता हूं। मैंरे अपने वेब पृष्ठों (ब्लाग) पर बनी पत्रिकाओं के नाम हिंदी में रखे हैं। बीच में मैंने अपनी इन पत्रिकाओं का अंग्रेजी नाम भी रखा था पर हिंदी एग्रीगेटरों से उनके जुड़ने  के बाद अंग्रेजी नाम हटा लिये। इसका पछतावा मुझे आज तक है।

एक बात तय है कि विश्व में भाषा की दूरियां अब कम हो रही हैं और ऐसे में वेब साइटों और वेब पृष्ठोंं पर बनी पत्र-पत्रिकाओं को किसी भाषाई रूढ़ता से उबरना होगा तो साथ ही अपनी मौलिकता से निर्वाह करना होगा। मैं बात कर रहा हूं उनके वेब साईटों और वेब पृष्ठों पर बने पत्र-पत्रिकाओं के शीर्षक और  नाम की। कई जगह पत्र-पत्रिकाओं का नाम अंग्रेजी है पर हिंदी में न होने के कारण उसके शब्द सर्च इंजिन में डालने पर वह उसके सामने नहीं आती तो अंग्रेजी मेें न होने के कारण उसका भी यही हश्र होता है। अब अनुवाद  टूल आने से हमें अब इस संभावना पर भी विचार करना चाहिए कि देश विदेश के अन्य भाषी लोग हिंदी के लेखकों और संपादकों से अपना संपर्क रखना चाहेंगे और यकीन मानिए वह हिंदी शब्द सर्च इंजिन में डालकर तलाश नहीं करेंगे। ऐसे में कोई हिंदी भाषी पत्र-पत्रिका (जो वेब साईट या वेब पृष्ठों   पर हैं) अगर अपना नाम अंग्रेजी में रखती है तो उस पर आपत्ति नहीं है पर अगर वह हिंदी में भी रखें तो अच्छी बात है। वैसे यह आवश्यक नहीं है कि अंग्रेजी के पाठक हिंदी की अंतर्जाल पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना चाहें पर यह एक संभावना है जो हाल ही में बनी है। वैसे  अंग्रेजी नाम की वजह से कई पत्र-पत्रिकाएं  अन्य भाषियों में ही क्या अपनी भाषा वालों मे भी पैठ भी नहीं बना पाईं।

एक बात और है कि हिंदी भाषी पत्र-पत्रिकाओं के अंग्रेजी शीर्षक या नाम रखने वालों को यह समझना चाहिए कि ‘हिंदी’ में नाम होने से ही उनकी मौलिकता प्रकट होगी न कि अंग्रेजी से। अगर कोई विदेशी पाठक हिंदी सामग्री  को पढ़ना चाहेगा तो उसकी दृष्टि में सम्मान तभी बढ़ेगा जब हिंदी में शीर्षक होगा भले ही वह सर्च इंजिन में अंग्रेजी शब्द डालकर वहां तक आया हो। इसलिये अंतर्जाल पर वेब साईटों और वेब पृष्ठों (ब्लाग) पर चल रहीं पत्र-पत्रिकाओं को अपने नाम अंग्रेजी नाम के साथ हिंदी में रखना चाहिए, जिनके शीर्षक हिंदी में है वह अगर सोचते हैं कि अन्य भाषियों तक उनके लिए पहुंचना संभव है तो वह उसमें अंग्रेजी नाम भी जोड़ सकते हैं। वैसे श्रेणियों और टैग लगाकर भी यह काम हो ही रहा है। 

गरीबों का खाना सहता कौन है? हास्य व्यंग्य


अमेरिका के राष्ट्रपति जार्जबुश ने कहा है कि विश्व में खाद्यान्न संकट के लिये भारत के लोग ही जिम्मेदार हैं क्योंकि वह ज्यादा खाते हैं। उनके इस बयान पर यहां बवाल बचेगा यह तय बात है और यह भी  कि अमेरिका में रहने वाले भारतीय भी अब वहां संदेह की दृष्टि से देखें जायेंगे। अगर कहीं अकाल यह बाढ़ की वजह से  अमेरिका में कभी खाद्याान्न का संकट आया तो उसके लिये भारतीयों पर ही निशाना साधा जायेगा। वैसे तो वहां पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोग भी हैं पर अब वह बच जायेंगे और कभी ऐसा अवसर आया तो वह भी भारतीयों पर चढ़ दौड़ेंगे कि यही लोग सब जगह ज्यादा खाकर संकट खड़ा करते हैं।

ऐसा लगता है कि लोकतंत्र बहाल होने के बाद अमेरिका अब पाकिस्तान पर मेहरबान हो रहा है और उसे किसी तरह अपने कैंप में रखना चाहता है इसलिये उसे अब विश्व का संकट वहां पनप रहा आतंकवाद नहीं बल्कि भारतीयों द्वारा अधिक खाने के कारण खाद्यान्न संकट  दिख रहा है। ऐसा भी हो सकता है कि भारत और पाकिस्तान के लोगों का  करीब आना अमेरिका को सहन नहीं हो रहा है और परोक्ष रूप से पाकिस्तान के लोगों को यह संदेश दिया जा रहा हो कि इन भारत के लोगों से बचने का प्रयास करें क्योंकि अधिक खाते हैं और तुम्हारा अनाज भी खा जायेंगे।

अमेरिका की स्थिति अब डांवाडोल होती जा रही है क्योंकि इराक और अफगानिस्तान उसका बहुत बड़ा सिरदर्द साबित होने वाले हैं। अमेरिका भारत से जैसी  अपेक्षा कर रहा है वह पूरी नहीं हो रहीं हैं क्योंकि यहां की आंतरिक स्थिति भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। जार्जबुश का यह बयान किसी ऐसे ही तनाव  का  परिणाम प्रतीत  होती  है क्योंकि उनको अपने राष्ट्रपति  चुनाव से पहले यह भी पता नहीं था कि भारत है किस दिशा में। उनकी विदेशमंत्री कोंडला राइस भारत आती रहतीं है और फिर चली जातीं हैं। भारत की विविधताओं और विशेषताओं का उनको पता हो इस पर संदेह है। उनके बयान के बाद ही उसके समर्थन में जार्जबुश का यह कथन सामने आया है।

जार्जबुश के इस कथन में हमें इसमे कोई दोष नहीं देखना चाहिए क्योंकि वह एक अमीर राष्ट्र के प्रधान हैं। अमीरों की यह मनोवृत्ति होती है कि उनको गरीब का खाना, पीना और चैन से सोना  पसंद नहीं है-क्योंकि उनके नसीब से  यह चीजें चलीं जातीं हैं जब धन उनके पास आता है। मेरी नहीं तो कविवर रहीम के बात तो आप मानेंगे ही जो कह गये हैं कि अमीरों की पाचन शक्ति कम होती है। अब यह तो सब जानते हैं कि इस देह का सारा खेल भोजन की पाचन शक्ति पर निर्भर करता है। अगर वह नहीं है तो नींद अच्छी नहीं आयेगी और उसकी वजह से तनाव रहेगा।  अमेरिका के लोग भारतीय अध्यात्म इतने फिदा क्यों हैं? भारत के योग का प्रचार वहां क्यों बढ़ा है? क्योंकि अमेरिका में सुख-सुविधाओं के चलते शारीरिक परिश्रम का प्रचलन कम होता जा रहा है। हालत यह है के ढोंगी और पाखंडी बाबा भी वहां अपने चेले बनाकर अपना काम चला रहे हैंं।  मतलब यह कि भारतीयों के खाने पर यह की गयी टिप्पणी उनके ऐसे ही किसी तनाव का परिणाम लगती है जो इस समय उनके दिमाग में है।
इस देश में कई बार ऐसे भी दृश्य देखने को मिल जाते हैं कि सड़क पर लोग अपने ट्रकों और ट्रालियो के नीचे गर्मियों की दोपहर में मजदूर लोग खाना खाकर ऐसी नींद लेते हैं कि अमीरों को एसी में भी वह नसीब नहीं होती।

अमीरों को इस बात से सुख नहीं मिलता कि उनके पास संपत्ति, वैभव और प्रतिष्ठा है उनको यह दुःख सताता है कि उनके सामने रहने वाले गरीब उसके बिना कैसे जिंदा है? वह इतने आराम की नींद कैसे लेते है जबकि उनको इसके लिये गोलियां लेनी पड़ती है। हम जार्ज बुश का क्या कहें अपने देश के अमीर लोग भी क्या इससे अलग सोचते हैं और अब तो ऐसे राष्ट्राध्यक्ष का बयान आया है जिसको यहां का धनवान वर्ग बहुत मानता है और अब यहां गरीबों के खाने पर आक्षेप होंगे। अब यह भला कौन समझाए कि मेहनत करने से भूख अच्छी लगती है तो खाना भी आदमी खाएगा और खाएगा तो मेहनत भी करेगा। अच्छी भूख लगना और ईमानदारी से आय अर्जित करना  प्रत्येक व्यक्ति के भाग्य में नहीं होता। 

अमेरिका द्वारा सुझाये गये आर्थिक मार्ग पर यह देश चलता जा रहा है पर अभी भी किसानों की मेहनत पर ही इस देश की अर्थव्यवस्था जिंदा है। उद्योग की चमक जो शहरों में दिख रही है वह केवल कृत्रिम है यह सत्य तो कोई भी देख सकता है। अमीरों के पास राज है तो रोग भी हैं और उसके इलाज के लिये धन भी है पर गरीब के पास सिवाय अपनी देह के और क्या होता है और वह अगर उसे भी न बचाने तो जाये कहां। जिस औद्योगिक और तकनीकी विकास की बात कर रहे हैं उसमें गैर तकनीकी श्रमिकों और कर्मचारियों के लिये कोई जगह दिखती भी नहीं है और ऐसे संघर्ष में जो आदमी अगर रोटी कमा कर अपना चला रहा है उसके पास इतना समय भी नहीं होता कि अपने मन का दर्द किसी को सुना सके-वह तो उसके पसीने की बूंदों के साथ बाहर निकल जाता है। ऐसे में कई अमीर भी आक्षेप करते हैं कि गरीब अधिक खाते हैं इसलिये गरीब हैं ऐसे में अगर बुश साहब ने भी यह कह दिया तो उस पर अधिक परेशान होने की जरूरत नहीं है।

संत कबीर वाणीःभक्ति के लिये हृदय में शुद्ध भावना जरूरी


पाहन पानी पूजि से, पचि मुआ संसार
भेद अलहदा रहि गयो, भेदवंत सो पार
 
संत शिरोमणि कबीदासजी कहते हैं कि पत्थर और पानी को पूज कर सारे संसार के लोग नष्ट हो गये पर अपने तत्व ज्ञान को नहीं जान पाये। वह ज्ञान तो एकदम अलग है। अगर कोई ज्ञानी गुरु मिल जाये तो उसे प्राप्त कर इस दुनियां से पार हुआ जा सकता है।

पाहन ही का देहरा, पाहन ही का देव
पूजनहारा आंधरा, क्यौं करि मानै सेव

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मूर्ति  पत्थर की होती है और उसको घर में रखा जाता है वह भी पत्थर का है और लोग उसकी पूजा कर रहे हैं। जिसे खुद कुछ नहीं दिखाई देता वह भला आदमी की सेवा और भक्ति को कैसे स्वीकार कर सकता है।
आज के संदर्भ में व्याख्या-सच तो यह है कि पत्थरों की प्रतिमाएं या मकान बनाकर उसमेें लोगों को अपनी आस्था और भक्ति व्यक्त करने के परंपरा इस संसार में शूरू हुई है तब से इस संसार में लोगों के मन में तत्वज्ञान के प्रति जिज्ञासा कम हो गयी है। लोग पत्थरों की प्रतिमाओं या स्थानों के जाकर अपने दिल को तसल्ली देते है कि हमने भक्ति कर ली और दुनियां के साथ भगवान ने भी देख लिया।  मन में जो विकास है वह जस के  तस रहते है जबकि सच्ची भक्ति के लिये उसका शुद्ध होना जरूरी है। इस तरह भक्ति या सेवा करने का कोई लाभ नहीं है। पत्थर की पूजा करते हुए मन भी पत्थर हो जाता है और उसकी मलिनता के कारण ं शुद्ध भक्ति और सेवा का  भाव नहीं बन पाता और  आध्यात्मिक शांति पाने के लिये किये गये प्रयास भी कोई लाभ नहीं देते। अगर हम चाहते हैं कि हमारे अंदर सात्विक भाव सदैव रहे तो ओंकार की भक्ति करें या निरंकार की भावना शुद्ध रखना चाहिए। 

 

चाणक्य नीतिःधन कमाने वाले धर्म की स्थापना नहीं कर सकते


अर्थाधीतांश्च  यैवे ये शुद्रान्नभोजिनः
मं द्विज किं करिध्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः

जिस प्रकार विषहीन सर्प किसी को हानि नहीं पहुंचा सकता, उसी प्रकार जिस विद्वान ने धन कमाने के लिए वेदों का अध्ययन किया है वह कोई उपयोगी कार्य नहीं कर सकता क्योंकि वेदों का माया से कोई संबंध नहीं है। जो विद्वान प्रकृति के लोग असंस्कार लोगों के साथ भोजन करते हैं उन्हें भी समाज में समान नहीं मिलता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- आजकल अगर हम देखें तो अधिकतर वह लोग जो ज्ञान बांटते फिर रहे हैं उन्होंने भारतीय अध्यात्म के धर्मग्रंथों को अध्ययन किया इसलिये है कि वह अर्थोपार्जन कर सकें। यही वजह है कि वह एक तरफ माया और मोह को छोड़ने का संदेश देते हैं वही अपने लिये गुरूदक्षिणा के नाम भारी वसूली करते हैं। यही कारण है कि इतने सारे साधु और संत इस देश में होते भी अज्ञानता, निरक्षरता और अनैतिकता का बोलाबाला है क्योंकि  उनके काम में निष्काम भाव का अभाव है। अनेक संत और उनके करोड़ों शिष्य होते हुए भी इस देश में ज्ञान और आदर्श संस्कारों का अभाव इस बात को दर्शाता है कि धर्मग्रंथों का अर्थोपार्जन करने वाले धर्म की स्थापना नही कर सकते।

सच तो यह है कि व्यक्ति को गुरू से शिक्षा लेकर धर्मग्रंथों का अध्ययन स्वयं ही करना चाहिए तभी उसमें ज्ञान उत्पन्न होता है पर यहंा तो गुरू पूरा ग्रंथ सुनाते जाते और लोग श्रवण कर घर चले जाते। बाबआों की झोली उनके पैसो से भर जाती। प्रवचन समाप्त कर वह हिसाब लगाने बैठते कि क्या आया और फिर अपनी मायावी दुनियां के विस्तार में लग जाते हैं। जिन लोगों को सच में ज्ञान और भक्ति की प्यास है वह अब अपने स्कूली शिक्षकों को ही मन में गुरू धारण करें और फिर वेदों और अन्य धर्मग्रंथों का अध्ययन शुरू करें क्योंकि जिन अध्यात्म गुरूओं के पास वह जाते हैं वह बात सत्य की करते हैं पर उनके मन में माया का मोह होता है और वह न तो उनको ज्ञान दे सकते हैं न ही भक्ति की तरफ प्रेरित कर सकते हैं। वह करेंगे भी तो उसका प्रभाव नहीं होगा क्योंकि जिस भाव से वह दूर है वह हममें कैसे हो सकता है।

क्रिकेट में अब देशप्रेम का सुख नहीं उठाते-हास्य कविता


आया फंदेबाज और बोला
‘क्या दीपक बापू किक्रेट भूल गये देखना
पता नहीं तुम्हें अब यहां
क्रिकेट मैच चल रहे हैं
तुम्हारे नेत्र उनका आनंद उठाने की बजाय
कंप्यूटर में जल रहे हैं
क्यों नहीं कुछ मजा उठाते’

सुन कर पहले उदास हुए
फिर टोपी लहराते हुए कहें दीपक बापू
‘जजबातों में बहकर देख लिया
जिनकी जीत पर हंसे
और हारने पर रोए
उनके खिलवाड़ को सहकर देख लिया
कमबख्तों ने  पहले राष्ट्रप्रेम जगाने के लिये
आजादी के गाने सुनवाये
और हमारे जजबातों से खूब पैसे बनाये
अब क्रिकेट हो गया बाकी सब जगह कंगाल
विदेशी खिलाड़ी हो रहे बेहाल
किसी भी तरह इस देश में ही कमाना है
पर बाहर ही तो रखना अपना खजाना है
इसलिये देश में अंदर ही बंटने के लिये
देश की बजाय टीमों के नाम की भक्ति के लिये
नये-नये मनोरंजक तराने बनवाये
अब तो देशप्रेम उनको सांप की तरह
डसने लगता है
क्योंकि विदेशी नाराज न हो जायें
इससे शरीर उनका कंपता है
हमें तो लगने लगा है कि
इतिहास में ही आडम्बर भरा पड़ा है
गुलामी का दैत्य तो अब भी यहीं खड़ा है
कभी इस देश को एक करने के लिये
सब जगह नारे लगे
अब बांटने के लिये सितारे लगे
पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में
मनोरंजन के नाम पर बांटा जा रहा है
देशप्रेम से शायद व्यापार नहीं होता
विश्व के सबसे उपभोक्ता यहीं हैं
उनको बांटने से ही कई लोगों का
बेड़ा पार यहीं होता
देशप्रेम हम नहीं छोड़ पाते
उसके नाम के बिना क्रिकेट में सुख नहीं पाते
लोग उसे भुलाने के लिये
बन  रहे हैं बैट बाल के खेल में
पेश कर रहे हैं नृत्य और गाने
उसे देखेंगे शोर के दीवाने
हास्य कविता लिखेंगे हम जैसे सयाने
अब हम क्रिकेट से मनोरंजन नहीं उठाते
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आठ साल की बच्ची का हाथ कैसे कुचला जा सकता है-आलेख


आज श्री सुरेश चिपलूनकर जी ने कुछ फोटो की श्रृंखला भेजी जिसने मेरा मन विचलित कर दिया। वह अकेले ऐसे ब्लागर हैं जिनसे मैं व्यक्तिगत रूप से मिल चुका हूं। मुलाकात के बाद वह अपने ब्लाग और ऐसे फोटो ईमेल से भेज देते हैं। उनका लेखन कितना प्रभावी है यह बताने की आवश्यकता नहीं है पर उनके द्वारा प्रेषित फोटो भी बहुत संदेश देते हैं।

उनके बारे में विस्तार से कभी समीक्षा लिखूंगा पर आज उनके द्वारा भेजे गये फोटो ने तत्काल  कुछ लिखने को मजबूर कर दिया। उनके कथानुसार यह फोटो ईरान से लिया गया है। वहां एक आठ वर्षीय लड़की पर ब्रेड चुराने का आरोप लगाया गया और फिर उसका हाथ कार के नीचे कुचला गया। उसके पास एक पेंटशर्ट पहने आदमी बकायदा इसकी घोषणा माइक पर करते दिखाया गया है। उसके आसपास भारी भीड़ खड़ी है।  मुझे यह फोटो देखकर बहुत तकलीफ हुई।

हमारे देश में भी अंधविश्वासों के कारण कई ऐसी घटनाएं होतीं हैं पर एक तो वह अशिक्षित लोगों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में की जातीं है और अगर उसकी जानकारी प्रशासन पर आये तो वह कार्रवाई भी करता है, दूसरे ऐसे कुकृत्यों को कोई सामूहिक सामाजिक समर्थन प्राप्त नहीं होता। मैं ऐसी घटनाओं पर बहुत लिख चुका हूं और एक बात तय है कि ऐसी घटनाओं को कानून की दृष्टि से कोई समर्थन नहीं मिलता। हम ईरान की बात कर रहे हैं वहां के धार्मिक कानून के अनुसार चोरी की सजा हाथ काट देने या कुचलना ही है। मतलब वहां उसे कानूनी संरक्षण प्राप्त है।

अपराध की दृष्टि से देखें तो चोरी सबसे छोटा अपराध है पर हम उसको बड़ा कहते हैं क्योंकि वह कमजोर लोगों द्वारा अपनी  भूख मिटाने के लिये किया जाता है। मैंने तो एक व्यंग्य भी लिखा है ‘‘चोरी करना पाप है’ यह एक नारे की तरह पढ़ाया जाता है। कहीं यह नहीं पढ़ाया जाता कि ‘रिश्वत लेना पाप है’ या अपहरण करना पाप है। अगर कोई स्कूल यह पढ़ाना शुरू कर दे तो उसके यहां लोग अपने बच्चों को भेजना ही बंद कर देंगे। आखिर वह बच्चों को इसलिये नहीं पढ़ाते कि उनका बच्चा पढ़लिखकर उच्च पद पर तो पहुंचे और ऊपरी कमाई न करे।

पर मैं इन फोटो पर कोई व्यंग्य नहीं लिख सकता। यह मेरे मन को विचलित करने वाली फोटों है। वह तो बच्ची है मैं तो बड़ी आयु के आदमी पर भी ऐसा करने के  विरुद्ध हूं। खासतौर से तब यह वह डबलरोटी चोरी करने के आरोप में दी गयी है। एक समय की भूख के लिये उस बच्ची का जिंदगी भर का हाथ नष्ट करना एक जघन्य अपराध है। होना तो चह चाहिए था कि उस बच्ची की व्यथा सुनकर उसके लिये कोई उपाय किया जाता पर उल्टे उसका हाथा कुचला गया। मैं उन फोटो को अपने ब्लाग पर लाने में सफल नहीं हो पाया और वैसे भी मैने अपने शब्दों में ही जो चित्र खींचा उसे आप पढ़कर समझें तो ठीक रहेगा। वैसे मैंने चिपलूनकर जी सच ईमेल किया है कि वह ऐसी फोटो के लिये एक अलग ब्लाग शुरू करें क्योंकि कई बार चित्र भी बहुत कुछ कह जाते हैं।  आखिर एक गरीब आठ साल की बच्ची का हाथ केवल इसलिये जिंदगी भर के लिये कैसे नष्ट किया जा सकता है जिसने एक समय के खाने के लिये डबलरोटी चुराई हो। यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि मैंने जो भी  कुछ लिखा है वह चिपलूनकर जी के उसी फोटो को देखकर ही लिखा है।

तब तक बहुत देर हो जायेगी-हास्य कविता


हर शाख पर उल्लू बिठा दो
जब बिजली चली जायेगी
वह तरक्की-तरक्की के नारे लगायेगा
लोग समझेंगे सब ठीक-ठाक है
अंधेरे में भला किसे तरक्की नजर आयेगी
………………………………………………………………………..
तरक्की हो रही चारों तरफ
भ्रमित लोग चले जा रहे यह सोचकर कि 
कहीं हमें भी मिल जायेगी
जमीन में धंसता जा रहा  है पानी
आदमी में कहां रहेगा
घर में बढ़ते कबाड़ में खोया
जब गला तरसेगा  पानी को
तब उसे समझ आयेगी
पर तब तक बहुत देर हो जायेगी
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उसने कहा
‘मैं तरक्की करूंगा
आकाश में तारे की तरह
लोगों के बीच चमकूंगा
मेरी ख्याति चारों और फैल जायेगी’
बरसों हो गये वह घूमता रहा
रोटी से अधिक कुछ हाथ नहीं आया
अब कहता है
‘‘इतनी कट गयी जिंदगी
जो बची है वह भी कट जायेगी’
पढना जारी रखे

बंधे सबके अपनी मजबूरी से हाथ-हिन्दी शायरी (hand of men-hindi shayri)


यूं दर्द बांटने चले थे जमाने के साथ
शायद बढे मदद के लिए अपनी तरफ हाथ
हम खड़े देखते रहे
लोग हंसते रहे
जो हमने पूछी वजह तो
बताया‘यहां सब सुनाने आते हैं दर्द
कोई नहीं बनता  किसी का हमदर्द
मूंहजुबानी बहुत वादे करने की
होड़ सभी लोग करते
पर देता कोई नहीं साथ
बंधे सबके  अपनी मजबूरी से हाथ

हमने भी कुछ खोया नहीं-हिन्दी शायरी


अपनी राह चलते जाना है
कहीं फूल बरसेंगे
तो कहीं लोग ताने कसेंगे
थोड़ी खुशी के लिये
बहुत दूर तक ढूंढते बहाने
निराश होने पर
भागने लगते हैं गम भुलाने
ऐसे लोगों के इशारे पर
अगर चले जिंदगी की राह पर
तो ताउम्र अपनी मंजिल को तरसेंगे
……………………………………………….

उनके इशारे पर लड़ते रहे जमाने से
वह तो रहे पर्दे में, मतलब रख कमाने से
जो वक्त आया तो फेर लीं नजरें हमसे
जब मिलने गये तो लगे अनजाने से
उन्होंने बहुत कुछ पा लिया
पर हमने भी कुछ खोया नहीं
हमें भी मतलब था
कुछ जिंदगी के सच देखने से
अपना मकसद पूरा किया
अपनी जिंदगी को आजमाने से

मानसिक गुलामी किसी को दिखाई नहीं देती-आलेख


मनोरंजन के नाम पर जिस तरह के कार्यक्रम विभिन्न टीवी कार्यक्रमों में अंधविश्वासों और रूढियों को प्रतिपादित किया जा रहा है उससे तो ऐसा लगता है कि कुछ लोगों के मन में आज भी यह बात है कि इस देश के लोग ज्ञान की दृष्टि से अंधेरे में ही रहे ताकि उनका उल्लू सीधा होता रहे।

आचार्य चाणक्य, विद्वान विदुर, संत कबीर और रहीम के संदेशों को जब मैं अपने ब्लागों पर रखता हूं तो अपना ज्ञान नही बघारता बल्कि उनका उपयोग मैं अपना ज्ञान बढ़ाने के लिये भी करता हूं। मैं नही जानता बाकी ब्लागर मेरे बारे में क्या सोचते हैं पर एक बात मुझे लगने लगी है कि उससे मेरी अच्छी छवि बनी है। मुझे याद है मैने शब्दलेख सारथि पर जब छद्म नाम से चाणक्य और कबीर दास जी के संदेश अपने ब्लाग पर रख रहा था तब मेरा कोई प्रयोजन नहीं था। हां, बस यह सोचता था कि अगर यह रखूंगा तो लोग शायद मुझे व्यंग्य और अन्य आलेख लिखते नहीं देखना चाहें इसलिये अपना असली नाम नही लिख रहा था। हालत ऐसे बने कि मुझे उस पर असली नाम लिखना पड़ा। इसके बावजूद मेरे मन में यह भाव कभी नहीं रहा कि लोग मेरे इस काम को अधिक महत्व दें। मेरा सोचना यह है कि जब सब लोग हमारे महापुरुषों के संदेश सुनाकर अपनी पूजा करवा रहे है और मैं उनका विरोध करता हूं तो मैं अपने लिये कोई ऐसी अपेक्षा रखकर अपने उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाउंगा जिसके लिये मैने इतनी तकलीफ से ब्लाग बनाकर लिखना शुरू किया।

इस देश का जितना अध्यात्म स्वर्ण की खदान है जो हमेशा अक्षुण्ण रहेगा उतना ही अंधविश्वास भी एक कीचड़ की तरह हमेशा रहेगा। यह विरोधाभास ही है जिस कारण यहां विदेशी विचारधाराओं को पनपने का अवसर मिला। होता यह है कि लोग अपने देश के अंधविश्वासों और रूढियों से तंग आकर यह सोचते हैं कि यही हमारा धर्म है और दूसरी विचारधारा की तरफ आकर्षित हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि जिन लोगों ने धर्म के प्रचार का ठेका लिया है वह अध्यात्म के नाम अंधविश्वास की स्थापना करते हैं। ऐसा नहीं है कि यह आजकल से हो रहा है। कबीर और रहीम के समय में भी यह होता आया है और उन्होंने इसका जमकर विरोध किया।

उम्मीद यह थी कि बढ़ती शिक्षा के साथ यह सब समाप्त हो जायेगा। हुआ उल्टा ही पहले फिल्मों ने और अब टीवी चैनलों के मुख्य पात्र मंदिरों और दरगाहों के चक्कर लगाते हैं जहां कथित पंडित या पीर उनको ऊपर आकाश की तरफ इशारा कर उस पर विश्वास करने का संदेश देते हैं।

इससे भी काम नही चलता तो फिल्मों और टीवी के हीरो ऐसे धार्मिक स्थानों पर आर्शीवाद लेने जाते हैं और उनकी खबरें फिर अखबार और टीवी चैनलों पर आतीं हैं। इससे भी बात नहीं बने तो ऐसे धार्मिक स्थानों पर कुछ विवाद खड़े किये जाते हैं ताकि लोग उनके बारे में अधिक जाने। मतलब यह कि देश अंधविश्वासों और रूढियों में जकड़ा रहे ताकि उसकी आड़ में उस आर्थिक और सामाजिक शासन बना रहे। जिनका सामाजिक सीरियल कहा जाता है मेरे हिसाब से वह तो अपराध या हारर शो कहे जाने चाहिए क्योंकि उसमें अपनी तकलीफों से घबड़ाये पात्र को ऐसे धार्मिक स्थानों से ही आशीर्वाद मिलता है और जब कुछ अपराध दिखाये जाते हैं तो वह भयानक होते हैं।

अगर देखा जाये तो धर्म और अध्यात्म की आड़ में लोगों की भावनाओं को दोहन आज से नहीं सदियों से ही चल रहा है। पहले आदमी को उसे तथा पुरखों को मोक्ष और स्वर्ग दिलाने के नाम पर कर्मकांडों की जंजीर में बांधा गया तो अब भी वही चल रहा है। सच तो यह है कि दैहिक आजादी तो सबको दिखती है पर जजबातों के नाम आदमी जो मानसिक गुलामी कर रहा है वह दिखाई नही देती।

जो बडे हैं वह कभी संयम नहीं गंवाते-हास्य कविता


आया फंदेबाज और बोला
”क्या दीपक बापू हम तो
समझते थे कोई भारी भरकम लेखक को
पर हम अब समझे हमें भरमाते हो
सभ्य शब्दों की बात करते हो
गालियाँ लिखने में शर्माते हो
देखो अंतर्जाल पर बडे-बडे लेखकों के नाम का
लेखक गालिया चाप (छाप) जाते
और लोग तारीफ भी कर आते”

सुन पहले चौंके
फिर कुर्सी से उठकर
टोपी को घुमाते कहानी दीपक बापू
”लोगों की हताशा और निराशा दूर करने का
ठेका वैसे हमने नहीं लिया
अभिव्यक्ति की आजादी है
किसी का मुहँ सिलने का
काम हमने कभी नहीं किया
करते हो गालियों की बात
हम नहीं लिखेंगे
चाहे तालियाँ बजे या पड़े लात
लोगों का क्या
जो लेखक होते सामने
उनका पूछते नहीं
पीठ पीछे उनके नाम की
कविताओं के गुणगान कर जाते
समझना तो दूर कभीं पढीं भी
नहीं होगी जिन कवियों की कवितायेँ
उनके पीछे गाते हैं उनकी गाथाएं
और अपना प्रभाव जमाने के लिए
उनकी गालियाँ चिपका जाते
दूसरों पर लाशों का व्यापार करने का
आरोप लगाने वाले
स्वर्गवासी लोगों के नाम से
गालियाँ छपने के लिए आते
अपने दिल के अरमान दबाये दिल में
बडे कवियों के नाम से वाह-वाही लूट जाते
हिन्दी भाषा का है बहुत बडा इलाका
दर्द भी बहुत है यहाँ
इसलिए कवि और लेखक भी बहुत हैं
सबको कौन पढ़ पाता
इसलिए लोग अपनी बात उनसे नाम से
चिपका जाते
हम तो बस इतना जानते कि
जो बडे हैं वह कभी अपना संयम नहीं गंवाते”
———————————————-

एक ढूंढो हजार मूर्ख मिलते हैं-आलेख


कल बिहार में एक स्थान पर एक महिला को जादूटोना करने के आरोप जिस बहशी ढंग से अपमानित किया गया हैं वह देश के लिये शर्म की बात है। यह कोई पहली घटना नहीं है जो ऐसा हुआ है और न शायद यह आखिरी अवसर है। पहले भी ऐसी घटनाएं हो चुकी है। यह कोई अभी नहीं हो रहीं है बल्कि सदियो से हो रहीं हैं यह अलग बात है कि अब सूचना माध्यम के शक्तिशाली होने की वह राष्ट्रीय पटल पर आ जातीं है। ऐसी घटनाओं को देख कर अपने इस समाज के बारे में क्या कहें?

एक तरफ प्रचार माध्यम यह बताते हुए थकते नहीं हैं कि भारतीय संस्कृति को विदेशी लोग अपना रहे है- कहीं कोई विदेशी जोडा+ भारतीय पद्धति से विवाह कर रहा है तो कहीं कोई विदेशी दुल्हन देशी दूल्हे से विवाह कर देशी संस्कृति अपना रही है तो कहीं विदेशी दूल्हा देशी दुल्हन के साथ सात फेरे लेकर भारत की संस्कृति आत्मसात रहा है। एसी खबरें पढ़कर लोग खुश होते है कि हमारी संस्कृति महान है।

ऐसे प्रसंग केवल विवाह तक ही सीमित रहते है और हम मान लेते हैं कि हमारी संस्कृति और संस्कार महान है। मगर क्या हमारी संस्कृति विवाह तक ही सीमित है या हमारी सोच ही संकीर्ण हो गयी है। हिंदी फिल्मो में एक प्रेम कहानी जरूर होती है जो तमाम तरह के घुमाव फिराव के बाद विवाह पर समाप्त हो जाती है। फिल्म के लेखक विवाह के आगे इसलिये नहीं सोच पाते कि वह भारतीय समाज से जुड़े है या इन फिल्मों को देखते-देखते हमारे समाज की सोच विवाह के संस्कार तक ही सिमट गयी है यह अलग विचार का विषय है। हां, समाज पर फिल्म का प्रभाव देखकर तो यही लगता है कि अब लोग इससे आगे सोच नहीं पाते।

मैंने जब यह दृश्य देखा तो बहुत क्रोध आ गया। वजह! मेरा मानना है कि महिला चाहे कितनी भी बुरी हो वह क्रूर नहीं होती। उसे गांव का एक बुड्ढा आदमी मार रहा था और अन्य औरतें भी उसे मार रहीं थीं। उसके बाल काटे गये। इस बेरहमी पर उसे बचाने वाला कोई नहीं था। मुझे तो उन गंवारों पर बहुत गुस्सा आ रहा था मेरा तो यह कहना है कि उनमें जो महिलाएं थी उन सबसे खिलाफ भी कड़ी कार्यवाही होना चाहिए।

ऐसी घटनाऐं देखकर मन में अमर्ष भर जाता है। हम जिस कथित संस्कृति की बात करते हैं उसका स्वरूप क्या है? आज तक कोई स्पष्ट नहीं कर सका। यहां मैं बता दूं कि अध्यात्म अलग मामला है और उसका जबरदस्ती संस्कारों और संस्कृति से जोड्ने की जरूरत नहीं है क्यांकि कोई भी विवाह श्रीगीता का पाठ पढ़कर संपन्न नहीं कराया जाता जो कि हमारे अध्यात्म का मुख्य आधार है। उसे कई लोग अपनी जिन्दगी में नहीं पढ़ते और अपनी औलादों को भी नहीं पढ़ने देते कि कहीं उसे पढ़कर वह विरक्त न हो जायें और बुढ़ापे में हमारी सेवा न करें। अंधविश्वास और रूढियों के कारण इस देश का समाज पूरे विश्व में बदनाम है और हम जबरन कहते हैं कि बदनाम किया जा रहा है। गाव में अनपढ़ तो क्या शहर के पढ़े लोग भी अपनी समस्याओं के लिये जादूटोना करने वाले ओझाओं और पीरों के पास जाते है।
खानपान और रहन-सहन में कमी की वजह से बच्चा बीमार हो गया तो कहते हैं कि किसी की नजर लग गयी। मां.-बाप की लापरवाही की वजह से बच्चा बहुंत समय ठीक नहीं हो रहा है तो लगाते है आरोप लगाते कि किसी ने जादूटोना किया होगा।

कमअक्ली के कारण किसी भी काम में सफल नहीं हो रहे तो दूसरों को दोष देते हैं। गांव और शहर एक बहुंत बड़ा तबका अपने आलस्य और व्यसनों की आदतों की वजह से हमेशा संकट में रहता है। आदमी दारू पीते हैं अपने घर में खर्चा नहीं देते पर घर की महिलांए किसी को अपनी पीड़ा नहीं बतातीं और फिर अपना मन हल्का करने के लिए शुरू होता है जादूटोना वाले ओझाओं के पास जाने को दौर।
वह बताते हैं कि उपरी चक्कर है किसी ने जादूटोना किया है। कभी ‘अ’ से नाम बतायेंगे तो कभी ‘ब’ से। ऐसे में कोई निरीह औरत अगर उनके गांव में हो तो उसकी आफत। गांव में एक.दूसरे के प्रति अंदर ही अंदर दुश्मनी रखने वाले लोग मौके का फायदा उठाते हैं और अगर उस औरत को कोई नहीं है और गांव के बूढ़े जो बाहर से भक्त बनते है और अंदर के राक्षस हैं अपना मौका देखते है। ऐसे में कहना पड़ता हैं कि ‘रावण मरा कहां है’। एक निरीह औरत को मारती हुई औरतें क्या भली कहीं जा सकतीं है। आखिर ऐसी समस्या किसी पुरुष के साथ क्यों नहीं आती?

एक प्रश्न अक्सर समझदार और जागरुक लोग उठाते है कि ं हमारे देश में आजकल अनेक साधु संत हैं जिनका प्रचार पूरे देश में है पर इनमें से कोई भी इन चमत्कारों के खिलाफ नहीं बोलता बल्कि ईश्वरीय चमत्कारों की कथा सुनाकर वाहवाही लूटते है। भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम का नाम तो केवल लोग दिखावे के लिये लेते हैं। यह सही हैं कि यज्ञ, हवन, मंत्रजाप और मूर्ति पूजा से मानसिक लाभ होता है क्योंकि इससे आदमी के मन में विश्वास पैदा होता है और वह सात्विक कर्म करने के लिये प्रेरित होता है। इसका लाभ भी उसी का होता है जो स्वयं करता है। अगर एसा न होता तो ऋषि विश्वामित्र भगवान श्रीराम को अपने यज्ञ और हवन की रक्षा के लिये नहीं ले जाते और श्रीराम जी बाणों से राक्षसों का वध नहीं करते बल्कि खुद भी मंत्रजाप और यज्ञ-हवन करते। हमारें मनीषियों ने हमेशा ही जादूटोनों और चमत्कारों का विरोध करते हुए सत्कर्म को प्रधानता दी है। जबकि हमारें देश का एक बहंुत बड़ा वर्ग जो उनको मानने और उनके बताये रास्ते पर चलने के जोरशोर से चलने को दावा तो करता है पर वह ढोंगी अधिक है। आत्ममंथन तो कोई करना नहीं चाहता। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय अध्यात्म हमारे देश की अनमोल निधि है पर अपने देश में जिस तरह जादूटोना ओर चमत्कारों का प्रचार होते देखते है तो यह कहने में भी संकोच नही होता कि दुनियां के सबसे अधिक बेवकूफ हमारे देश में ही बसते है एक ढूंढो हजार मिलते है।

देशी कुत्तों की तस्करी की खबर सुनकर आयी मुझे अपने कुत्ते की याद-आलेख


देशी कुतों की तस्करी भी हो सकती है कि यह कभी हमें सोचा भी नहीं था। आज टीवी में यह खबर सुनकर हम हैरान हो गए, पर खबर तो खबर है। बाकायदा नागालेंड भेजने के लिए उनको तैयार किया गया था। वहां उसके मांस से खाद्य सामग्री बनायी जाती है जिसे बडे शौक से खाया जाता है।

हमने सबके मांस खाने की खबर पढी है पर देशी कुत्तों का भी मांस खाया जाता है यह हमने पहली बार सुना है। कुत्ता बहुत वफादार जानवर है और जिसका खाता है उसकी बजाता है। आवारा कुत्ता भी हम जिसे कहते हैं वह किसी गली या मोहल्ले का पालतू होता है जो वहां के निवासियों द्वारा फैंकी गयी खाद्य सामग्री खाकर काम चलाता है।

हमारे आध्यात्म/दर्शन के अनुसार गृहस्वामिनी को घर के भोजन पकाते समय पहली रोटी गाय के लिए और आखिरी रोटी कुते के लिए पकाना चाहिऐ। बृहद होते समाज में तमाम तरह के परिवर्तन आते गए और कुछ लोगों को याद रहा और कुछ को नहीं। गाय को तो पालतू बताया गया है कुत्ते को पालने का जिक्र नहीं किया गया पर उसका मनुष्य के साथ सह-अस्तित्त्व स्वीकार किया गया। उसकी जगह घर के बाहर मानी गयी और एक तरह से उसे सामूहिक रूप से पालतू पशु का दर्जा दिया गया है। गावों में कभी बच्चों के पत्थर खाते और कभी रोटी खाते यह देशी कुत्ते और कुछ करें या नहीं पर रात को उनकी आसपास उपस्थिति एक आत्मविश्वास जरूर देती है।

भारत में घर में निजी रूप से कुत्ते पालने का काम मुझे लगता है कि अंग्रेजों के समय में ही शुरू हुआ होगा। फिर शहरी सभ्यता में चूंकि पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव रहा है इसलिए बडे लोगों के साथ अब मध्यम वर्ग के लोग भी कुत्ते को पालने लगे हैं। हाँ इसमें भी लोगों ने देशी कुत्तो के नस्लों से अपने परहेज दिखाई है। खिलोना टाईप के पामोलियन के कुत्ते अधिक पाले जाते हैं। जब हम अपना मकान बना रहे थे तो हम जहाँ किराए पर रहते थे उसके मालिक देशी कुत्ते का बच्चा ले आये। उनकी माँ, पत्नी और बच्चों ने इसका विरोध किया। उस समय हम अपना मकान बनाने के लिए शुरू करने वाले थे तो उन्होने हमसे कहा-”यह कुत्ता आप रख लो। नये मकान में काम आएगा।”
मकान मालिक की बात का हमने प्रतिवाद किया पर हमारी श्रीमतीजी ने उसे स्वीकार कर लिया। हमें डेढ़ वर्ष मकान बनाने में लगा और फिर उसे अपने साथ ले आये। दस वर्ष तक हमारे साथ वह रहा और पिछले वर्ष उसका निधन हो गया। बिलकुल बच्चों की तरह रहा और उसकी मौत पर हमें बहुत दुख हुआ और खुशी भी क्योंकि उसका अंत हमसे देखा नहीं जा रहा था। बहरहाल देशी कुत्तों को कई लोग विदेशी कुत्तों के मुकाबले श्रेष्ठ मानते हैं और अपने स्वर्गीय कुत्ते के प्रति मेरे मन में इतना सम्मान है कि मैं उनकी नस्ल पर कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं करता।
पहले देशी कुत्तों को भोजन-पानी वगैरह बहुत आसानी से मिल जाता था पर बदलते परिवेश ने उनको भी प्रभावित किया है अब वह एक गली-मोहल्ले से दूसरे में अपना भोजन पानी उनको ढूढने जाना पड़ता है। हमारे देश में देशी आवारा कुत्तों की बहुत बड़ी संख्या में है और इस तरह उनके मांस की तस्करी की संख्या बड़ी तो हो सकता है कि एक दिन इसकी नस्ल बचाने के लिए सोचने लगें। हमेशा साथ रहने वाले इन देशी कुत्तों को वही आदमी देखते हैं जो सभी जीवों के प्रति एक जैसा दृष्टिकोण एक जैसा है। मैं अपने कुत्ते की याद करता हूँ तो लगता है कि शुरूआती दिनों में मेरा ध्यान उस पर नहीं जाता था पर वह मुझे हर पल देखता था। शाम को जब मैं घर लौटता था तो वह भले ही पामोलियन की तरह लहराता हुआ नहीं आता था पर उसकी आखों के भाव बताते थे कि वह कुछ सोच रहा है। आदमी अपने देहाभिमान में किसी तरफ नहीं देखता पर अन्य जीव उसे देखते हैं, इसकी अनुभूति अपने उसी पालतू कुत्ते से हुई। इंसान को इस धरती पर केवल अपना अस्तित्व ध्यान में रखता है जबकि अन्य जीव अपनी जीविका के लिए उस पर निर्भर हैं और उसकी जीविका का आधार भी हैं। इस मामले में भारतीय दर्शन में सबसे अग्रणी है कि उसमें जीव और जीवात्मा की प्रधानता है न कि केवल मनुष्य देह की।

होली के दिन सबका चरित्र बदल जाता है-हास्य कविता


घर से नेकर और कैप पहनकर
निकले घर से बाहर निकले लेने किराने का सामान
तो सामने से आता दिखा फंदेबाज
और बिना देख आगे बढ़ गया किया नही मान
तब चिल्ला कर आवाज दी उसे
”क्यों आँखें बंद कर जा रहे हो
अभी तो दोपहर है
बिना हमें देखे चले जा रहे हो
क्या अभी से ही लगा ली है
या लुट गया है सामान’

देखकर चौंका फंदेबाज
”आ तो तुम्हारे घर ही रहा हूँ
यह देखने कल कहीं भाग तो नहीं जाओगे
वैसे पता है तुम अपने ब्लोग पर
कल भी कहर बरपाओगे
पर यह क्या होली का हुलिया है
कहाँ है धोती और टोपी
पहन ली नेकर और यह अंग्रेजी टोपी
वैसे बात करते हो संस्कृति और संस्कार की
पर भूल गए एक ही दिन में सम्मान”

हंसकर बोले दीपक बापू
”होली के दिन सभी लोगों का
चरित्र बदल जाता है
समझदार आदमी भी बदतमीजी पर उतर आता है
बचपन में देखा है किस तरह
कांटे से लोगों की टोपी उडाई जाती थी
और धोती फंसाई जाती थी
तब से ही तय किया एक दिन
अंग्रेज बन जायेंगे
किसी तरह अपना बचाएंगे सम्मान
वैसे भी पहनने और ओढ़ने से
संस्कार और संस्कृति का कोई संबंध नहीं
मजाक और बदतमीजी में अंतर होता है
हम धोती पहने या नेकर
देशी पहने या विदेशी टोपी
लिखेंगे तो हास्य कविता
बढाएंगे हिन्दी का सम्मान
——————————–

संत कबीर वाणी:मुहँ में डाले तेल से आंखों देखा घी भला


आंखों देखा घी भला, ना सुख मेला तेल
साधू सों झगडा भला, ना साकट सों मेल

आंखों से देखा घी का दर्शन भी अच्छा है और तेल तो मुख में डाला हुआ भी अच्छा नहीं है। साधू-संतो से झगडा भी अच्छा है परन्तु निगुरा (जिसका कोई गुरू नहीं है) से मेल-मिलाप कदापि अच्छा नहीं है, क्योंकि साधू से झगडा होने पर निर्णय अच्छा हो सकता है पर निगुरे से मेल-मिलाप कभी भी फलदायी नहीं हो सकता।

सीखै सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय
बिना समझै शब्द गहै, कछु न लोहा लेय

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति सत्य और न्याय के शब्दों को अच्छी तरह से ग्रहण करता है उसके लिए ही फलदायी होता है। परंतु जो बिना समझे, बिना सोचे-विचारे शब्द को ग्रहण करता है तथा रटता फिरता है उसे कोई लाभ नहीं मिलता ।

संत कबीर वाणी:जैसा भोजन और पानी वैसा मन और वाणी


आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक
कहैं कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक

संत कबीर जी का कहना है की गाली आते हुए एक होती है, परन्तु उसके प्रत्युत्तर में जब दूसरा भी गाली देता है, तो वह एक की अनेक रूप होती जातीं हैं। अगर कोई गाली देता है तो उसे सह जाओ क्योंकि अगर पलट कर गाली दोगे तो झगडा बढ़ता जायेगा-और गाली पर गाली से उसकी संख्या बढ़ती जायेगी।

जैसा भोजन खाईये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिए, तैसी बानी होय

संत कबीर कहते हैं जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है उसका जीवन वैसा ही बन जाता है।

एक राम को जानि करि, दूजा देह बहाय
तीरथ व्रत जप तप नहिं, सतगुरु चरण समाय

कबीर कहते हैं की जो सबके भीतर रमा हुआ एक राम है, उसे जानकर दूसरों को भुला दो, अन्य सब भ्रम है। तीर्थ-व्रत-जप-तप आदि सब झंझटों से मुक्त हो जाओ और सद्गुरु-स्वामी के श्रीचरणों में ध्यान लगाए रखो। उनकी सेवा और भक्ति करो

रहीम के दोहे:कलारी वाले के हाथ में दूध भी मदिरा लगता है


रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि
दूध कलारी कर गाहे, मद समुझै सब ताहि

कविवर रहीम का कथन है कि नीच व्यक्ति के संपर्क में रहने से सबको कलंक ही लगता है। मद्य बेचने वाले व्यक्ति के हाथ में दूध होने पर भी लोग उसे मदिरा ही समझते हैं।

रहिमन निज संपत्ति बिना, कोउ न विपति सहाय
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय

कविवर रहीम कहते हैं कि अपने धन के अतिरिक्त आपत्ति आने पर अन्य कोई सहायता नहीं करता जैसे बिना जल के कमल के मुरझाने पर सूर्य भी उसको जीवन प्रदान नहीं कर पाता।

नंबर वन और टू का खेल-हास्य व्यंग्य


मुझे कल ही लग रहा था कि कोई चालाकी है और इन्तजार कर रहा था कि आज उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है। कल चाकलेटी चेहरे वाले हीरो ने कहा-” मैं नंबर वन हूँ वह जो क्रिकेट के व्यापार में लगा है वह दो नम्बर है।”

लोग भले ही कड़ी प्रतिक्रिया उम्मीद लगा रहे थे पर मुझे लग रहा था कि कोई एकदम ठंडा और पहले से तय बयान आएगा और यह काल्पनिक सीटें नंबर वन और टू आपस में बंट जायेंगी।आज यही हुआ। क्रिकेट के काम में लगे हीरो ने कह दिया है-”हाँ, वह खूबसूरत हीरो नंबर वन है और उसके बाद मेरा नंबर आता है।”

जो नम्रता अपनाता है वह एक पायदान ऊपर चढ़ जाता है और इस तरह दोनों ने नंबर वन हथिया लिया और दो नंबर पर भी किसी को भी नहीं रहने दिया। अब तो कोई चुनौती भी नहीं दे सकता। फिल्म देखकर अपनी आँखें और दिमाग खराब कर रहे आम लोगों के पास कहाँ इतनी शक्ति बचती है कि इस नंबर वन के चक्कर को समझ सकें और और कई खुशफहमियों जी रहे समीक्षक इस चालाकी को नहीं पकड़ेंगे क्योंकि उनके तो दोनों हाथों में लड्डू हैं। पर हम तिरछी नजर से कंप्यूटर चलाते हुए सब पर नजर रखते हैं पर हमारे गुरु ने हमसे कह दिया है कि कोई तस्वीर दिखाए तो उसके पीछे जाकर देखो।

यह सारा खेल बिग बी के मुकाबले खडे करने के प्रयास से अधिक कुछ नहीं है। इसका फिल्म से कोई संबंध नहीं हैं। पब्लिक सब जानती है। फिल्में देखकर भूल जाती है और फिर विज्ञापन फिल्मों को ढोते हैं। फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार कहते हैं कि आजकल इतनी फिल्में बन रहीं है कि सभी के पास बहुत सारा काम है और कोई अभिनेता एक वर्ष में पांच-छः से अधिक फिल्में नहीं कर सकता इसलिए सबके पास बराबर काम है। इसलिए मैं नंबर एक और दो की रेस में नहीं पड़ता।

फिल्म समीक्षक अगर किसी फिल्म के पारिश्रमिक को अगर सफलता का पैमाना मानते हैं तो अपुष्ट आधार पर जो जानकारी बाहर आती है उसमें भी अक्षय कुमार कम नहीं है। दरअसल जब फिल्में कम बनतीं थी और प्रचार के माध्यम सीमित थे तब हिन्दी फिल्मों में सतत सफलता के हिसाब से किसी एक को सुपर स्टार कहकर प्रचारित किया जाता था। अमिताभ बच्चन इस कथित सिंहासन पर कई वर्ष रहे पर उस पर विवाद भी रहा। उनको ऋषि कपूर और विनोद खन्ना से कड़ी चुनौती मिली क्योंकि जो फिल्म हिट हुईं उनमें यह अमिताभ के टक्कर के हीरो हुआ करते थे और अभिनय भी कम नहीं था।

अमिताभ ने बीच में फिल्मों से विराम लिया तो अनिल कपूर इस कथित नंबर वन पर आ गये। इधर प्रचार माध्यमों का भी विस्तार हो गया और इस पर बहस ख़त्म हो गई कि कौन नंबर वन है और कौन टू। अब फिर नये सिरे से इस कथित प्रथा को शुरू किया जा रहा है-क्योंकि लोगों का ध्यान बंटाने के लिए प्रचार माध्यमों को कुछ तो चाहिए। अब इसे आधार बनाया जा रहा है कि कौन ख़बरों में अधिक बना रहता है और इसके लिए जरूरी है फिल्मों के अभिनय से हटकर कोई अन्य लोकप्रिय व्यापार करना या विवाद खडे करना। अक्षय कुमार ने बहुत सारी फिल्में हिट दीं हैं और उनकी संख्या इन दोनों से अधिक है पर वह कहते हैं कि मैं कभी किसी फिल्म का निर्माता नहीं बनूंगा। विवाद से तो वह हमेशा परहेज करते रहे। यह दोनों हीरो जिन फिल्मों में काम करते हैं उनके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से निर्माता भी होते हैं-हालांकि और भी कई अभिनेता भी यही करते हैं। अक्षय कुमार ऐसा नहीं करते और उनका केवल अभिनय से ही वास्ता है।
आजकल विज्ञापन का युग है और बाजार में उत्पाद बेचने की सिफारिश करने वाले प्रसिद्ध चेहरों की उसे जरूरत है। उनमें अपने क्षेत्र की काबलियत के अलावा अनेक प्रकार की अलग से योग्यता की जरूरत भी होती है और सधी भाषा में कहें तो विवाद अपने साथ जोड़ना। शायद इसी वजह से यह नंबर वन और टू का खेल खेला जा रहा है। ऐसा खेल जिसमें दोनों बराबर रहें और जो बाजार के मतलब के नहीं हैं-क्योंकि अनावश्यक विवादों से परे हैं-उनको नंबर दो से भी धकेल दिया गया है। मगर आजकल प्रचार माध्यम सशक्त हैं अगर वह अपने हिसाब से किसी को नंबर वन दिलवाते हैं तो उसकी मजाक भी कम नहीं बनाते। इधर से खबर देते हैं उधर खिल्ल्ली उडाना शुरू कर देते हैं। वैसे और भी अभिनेता काफी सक्रिय हैं और उनका अभिनय काम नहीं हैं-संजय दत्त, अक्षय खन्ना, इमरान हाशमी, ऋतिक रोशन, सन्नी और बोबी देओल, सुनील शेट्टी और अजय देवगन जैसे अभिनेता भी हिन्दी फिल्मों में बहुत लोकप्रिय हैं, पर यह लोग विवादों से दूर रहते हैं इसलिए इनको कोई नंबर वन में शामिल नहीं करता। सलमान खान भी लोकप्रिय हैं और उनको भी इस दौड़ से बाहर रखा जा रहा है-शायद इसलिए कि उन्होने कोई प्रचार की कोई ऐसी चालाकी नहीं अपनाई। और अमिताभ बच्चन? जहाँ तक मेरी जानकारी हैं उन्होने अभी फिल्मों से सन्यास नहीं लिया है! बहरहाल यह नंबर एक और दो का खेल है दिलचस्प।

अपने मुहँ से अपनी तारीफ़-हास्य व्यंग्य


अब दो फिल्म अभिनेताओं में झगडा शुरू हो गया है कि वह नंबर वन हैं। आज जब मैंने यह खबर एक टीवी चैनल पर सुनी तो मुझे हैरानी नहीं हुई क्योंकि हमारे बुजुर्ग कहते रहे हैं कि चूहे को मिली हल्दी की गाँठ तो गाने लगा कि ”मैं भी पंसारी, मैं भी पंसारी”। ऐसा भाव आदमी में स्वाभाविक रूप से होता भी है थोडा बहुत नाच-गा लेता है या लिख लेता तो उसके दिमाग में नंबर वन का कीडा कुलबुलाने लगता है। थोडे ठुमके लगा लिए और कुछ इधर-उधर टीप कर लिख लिया। और फिर सोचने लगता है कि अब कोई कहेगा कि अब तुम नंबर वन हो। जब कोई नहीं कहता तो खुद ही कहने लगता है कि ‘मैं नंबर वन हूँ’। उसकी बात कोई न सुने तो वह और अधिक चीखने और चिल्लाने लगता है कि जैसे कि उसका मानसिक संतुलन गड़बड़ होता दिखता है।

कम से कम इस मामले में मैं बहुत भाग्यशाली हूँ कि खराब लेखनी की वजह से मेरे अन्दर एक कुंठा हमेशा के लिए भर गयी कि लिखने के मामले में मुझे कहीं भी नंबर नहीं मिलेगा। निबंध लिखता था तो टीचर कहते थे तुम्हारी राईटिंग खराब है इसलिए नंबर कम मिलेंगे पर पास होने लायक जरूर मिलेंगे क्योंकि लिखा अच्छा है। इस कुंठा को साथ लेकर साथ चले तो फिर नंबर वन की कभी चिंता नहीं की। अंतर्जाल पर लिखते समय यह तो मालुम था कि कोई नंबर वन का शिखर हमारे लिए नहीं है इसलिए अपने शिखर को साथ लेकर उतरे और वह था सतत संघर्ष की भावना और आत्मविश्वास जिसके बारे में हमारे गुरु ने कह दिया कि वह तुम में खूब है और कहीं अगर किसी क्षेत्र में कोई नंबर वन का शिखर खाली हुआ तो तुम जरूर पहुंचोगे। हम उनकी बात सुनकर खुश हुए पर आगे उन्होने कहा पर इसकी आशा मत करना क्योंकि इसके लिए तुम्हें विदेश जाना होगा भारत में तो इसके लिए सभी जगह सिर-फुटटोबल होती मिलेंगी। इस देश में लोग हर जगह नंबर वन के लड़ते मिलेंगे और तुम यह काम नहीं करो पाओगे।

हमने देखा तो बिलकुल सही लगा। घर-परिवार, मोहल्ला-कालोनी, नाटक–फिल्म और गीत-संगीत, साहित्य और व्यापार में सब जगह जोरदार द्वंद्व नजर आता है। हम भी कई जगह सक्रिय हैं और जब लोगों को नंबर वन के लिए लड़ते देखते हैं तो हँसते हैं। एक बात मजे की है कि कोई हमें नंबर वन के लिए आफर भी नहीं करता और हमें भी अफ़सोस भी नहीं होता। एक बार एक संस्था के अध्यक्ष पद पर भाई लोगों ने खडा कर दिया और मैंने अन्तिम समय में अपना नाम वापस ले लिया, क्योंकि मुझे लगा कि पूरे साल मैं अपनी आजादी खो बैठूंगा पर कार्यकारिणी के सदस्य पर लड़ा और जीता। सात सौ सदस्यों वाली उस समिति में सात कार्यकारिणी सदस्यों में नंबर वन पर आया। तब मुझे हैरानी हुई पर यह सम्मान मुझे अपने लेखक होने के प्रताप से मिला था और फिर आगे कई संस्थाओं से जुडे होने के बावजूद मैंने कहीं चुनाव नहीं लड़ा क्योंकि अगर मुझे अपने लिखे से ही लोगों का प्यार मिलना है तो मुझे कुछ और क्या करने की जरूरत है।

हिन्दी फिल्मों में अभिनेता करोडों रुपये कमा रहे हैं पर उनका मन भटकता हैं नंबर वन के लिए। उसका आधार क्या है? फिल्मी समीक्षक फिल्म के परिश्रम को मानते हैं। आजादी देते समय अंग्रेज जाते समय हमारे अक्ल भी ले गए और हम सारे आधार पैसे के अनुसार ही करते हैं। आजकल क्रिकेट के व्यापार में उतरे फिल्मी हीरो और चाकलेटी हीरो में नंबर वन का मुकाबला प्रचार माध्यम चला रहे हैं एक हीरों खुद ही दावा कर दिया कि वह नम्बर वन हैं। सच कहूं तो आजकल प्रचार माध्यम में कुंठित लोगों का जमावडा है और उनको खुद पता नहीं क्या कह रहे हैं? किसी समय मिथुन चक्रवर्ती को गरीबों का अमिताभ बच्चन कहा जाता था और इसलिए उनको नंबर वन फिर भी किसी ने नहीं कहा क्योंकि उनका पारिश्रमिक अमिताभ बच्चन जितना नहीं था।मैं अमिताभ बच्चन का कभी प्रशंसक नहीं रहा पर आज मैं मानता हूँ अपने दूसरी पारी में अमिताभ एक नंबर से नौ नंबर तक हैं और दसवें पर कोई है तो अक्षय कुमार। बाकी जो खुद को नंबर वन के लिए प्रोजेक्ट कर रहे हैं या मीडिया प्रचार कर रहा हैं वह किसी अन्य व्यवसायिक कारणों से कर रहे हैं।
जिनकी मुझे आलोचना करनी होती है मैं उनके नाम नहीं देता क्योंकि उसे इस बहाने व्यर्थ प्रचार देना है और जिनकी मुझे प्रशंसा करनी होती है उनका नाम लेने में मुझे कोई हिचक नहीं होती। अक्सर मेरी हर वर्ग और आयु के लोगों से चर्चा होती है और उनसे मुझे बात कर यही लगता है कि कुछ लोगों को मीडिया जबरन लोगों पर थोप रहा है। अगर अभिनय की बात करें तो ओमपुरी और नसीरुद्दीन शाह, सदाशिव अमरापुरकर और अमरीशपुरी जैसे अभिनेताओं को तो फिल्म समीक्षकों और प्रचार माध्यमों द्वारा कभी गिना ही नहीं जाता जबकि लोग आज भी इनके कायल हैं। वैसे भी अमिताभ बच्चन अभी सक्रिय है और नंबर वन का सिंहासन अभी उनके नाम है और उनके बाद अक्षय कुमार की छवि लोगों में अच्छी है।
अगर इस लेख को लिखते हुए हमें अपनी प्रशंसा कर डाली हो तो अनदेखा कर दें आखिर जब इस बीमारी सब ग्रस्त हैं तो हम कैसे बच सकते हैं. हमें कोई नहीं कह रहा कि तुन नबर वन ब्लोगर है इसलिए कभी ऐसा दावा करें तो मजाक समझना. माफी वगैरह तो हम मांगेंगे नहीं फिर व्यंग्य कैसे लिखेंगे.

हॉकी में ओलंपिक से बाहर होने के मायने-आलेख


ओलंपिक में भारत की हॉकी टीम नहीं होगी। टीम ओलंपिक जाती थी तो कौनसे तीर मारती थी कहने वाले तो कह सकते हैं। ओलंपिक दुनिया का सबसे बड़ा महाकुंभ है और उसमें भारत की पहचान केवल हॉकी से ही है और किसी खेल में भारत का नाम इतना नहीं है। जब ओलंपिक में सारे खिलाड़ी हार कर वापस लौटते हैं पर हॉकी टीम आखिर तक खेलती है और समापन कार्यक्रम में उसके खिलाड़ी भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। अब कौन बचेगा। यह भूमिका निभाने के लिए? तय बात है इसके लिए अब विचार होगा।

हमारी स्थिति अच्छी नहीं है यह सब जानते थे। चक डे इंडिया फिल्म महिला हॉकी पर बनी जिसमें भारत को काल्पनिक विजेता बना दिया। लोग फूले नहीं समाये। जिधर देखो चक दे इंडिया का गाना बज रहा था। ट्वंटी-ट्वंटी क्रिकेट विश्व कप में जब भारत जीता तो सारे अख़बार और टीवी चैनल इसे बजा रहे थे। मगर जिस हॉकी की पृष्ठ भूमि पर यह काल्पनिक कथानक गढा गया वह खेल सिसक रहा था। मैंने उस समय एक ब्लोग पर इस फिल्म के कथानक की तारीफ पढी तो मुझे हँसी आयी और मैंने उस पर खूब लिखा। जिस क्रिकेट खेल पर इस देश के प्रचार माध्यम कमा रहे है उसमें विश्व कप में बंगलादेश से हारा था यह भूलने वाली बात नहीं है। यह इतिहास में दर्ज रहेगा कि २००७ में भारत की क्रिकेट टीम अपमानित रूप से हार कर विश्वकप क्रिकेट से बाहर हुआ और इसे कोई बदल नहीं सकता।

मजे की बात यह है कि हॉकी की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में हीरो की भूमिका निभाने वाला हीरो आज क्रिकेट के बाजार में प्रवेश कर गया है और हॉकी कान तो नाम भी उसकी जुबान पर नहीं था। आखिर सवाल यह है कि चक दे इंडिया को हॉकी की पृष्ठभूमि पर क्यों बनाया गया क्रिकेट की क्यों नहीं? मेरा अनुमान है कि भारत के लोग क्रिकेट देखते हैं पर हॉकी को चूंकि राष्ट्रीय खेल के रूप में प्रचारित किया जाता है इसलिए लोगों का उससे आत्मिक लगाव है और इसी कारण उनकी भावनाओं का दोहन करना आसान है।फिल्म बनाना एक व्यवसाय है और इसमें कोई बुराई भी नहीं है पर हमारे देश के लोग बहकावे में आ जाते हैं तब उस पर विचार तो करना ही होता है। बहुत दिन तक गूंजा चके दे इंडिया का नारा पर अब क्या?
हॉकी से पूरे विश्व में हमारी पहचान थी। अब चीन में होने वाले ओलंपिक में भारत हॉकी नहीं खेल सकेगा। इस समय मुझे कोई ऐसा कोई खिलाड़ी दिखाई भी नहीं देता जिसके वहाँ कोई ओलंपिक में पदक पा सकेगा। टेनिस के कुछ नाम चर्चित हैं पर उनकी विश्व में रेकिंग भी देख लेना जरूरी है। हाँ एक जो मजेदार बात मुझे लगती है और हंसी भी आती है कि भारत में एशियाड, कॉमनवेल्थ और ओलंपिक में कराने के प्रयास किये जाते हैं तो किस बूते पर?केवल पैसे के दम पर न! फिर हाकी पर पैसा खर्च क्यों नहीं करते? हम खेलों के मेले लगाने की बात करते हैं तो पर खिलाडियों को प्रोत्साहन देने के नाम पर सांप सूंघ जाता है।
क्रिकेट हो या टेनिस बहुत लोकप्रिय हैं पर हाकी भारत के खेलों का प्रतीक और आत्मा है। यह ठीक है कि वहाँ बहुत समय से कोई पदक नहीं जीता पर फिर भी एक संतोष था कि चलो अपना प्रतीक बना हुआ है। अब वहाँ से बाहर होने पर जो वास्तव में खेल प्रेमी हैं वह बहुत आहत हुए हैं और जो केवल आकर्षण के भाव से देखने वाले दर्शक हैं उनको इसका अहसास भी नहीं हो सकता कि भारत ने क्या खोया है? हॉकी हमारे आत्सम्मान का प्रतीक है जो हमने खो दिया है।

हम अपने आर्थिक विकास और सामरिक मजबूती का दावा कितना भी कर लें पर हमारे पडोसी देश चीन की जनता को अगले ओलंपिक में इस पर हंसने का खूब अवसर मिलेगा। आखिरी बात खेलों के किसी भी राष्ट्र के विकास का प्रमाण माना जाता है और जो ऐसे विकास के दावे करते हैं उन्हें हॉकी में भारत की हार एक आईने की तरह दिखाई जा सकती है। हॉकी खेल में विश्व के मानचित्र में बने रहना ही हमारे लिए ताज था और अब चाहे कितना भी कर लो अब वह आसानी से वापस आने वाला नहीं है अगर ऐसा करने वाले लोग होते तो इतने साल से गर्त में जा रहे इस खेल को बचाने की कोशिश नहीं करते।

दुआएं ही कर सकते हैं कि हाकी का अस्तित्व बचे-आलेख


अगले ओलंपिक में भारत की हाकी टीम नहीं खेलेगी। देश के नये खेल प्रेमियों को शायद ही इससे मतलब हो पर फिर भी पुराने खेल प्रेमियों को लिए यह खबर सदमें से कम नहीं है। इस देश के अधिकतर खेल प्रेमियों को क्रिकेट पसंद हैं पर सभी को नहीं वरना हाकी खेलने के लिए नये लड़के कहाँ से आते हैं? स्पष्टत: कुछ जगह अभी भी यह खेल खेलने वाले लड़के हैं और खासतौर से पंजाब में अभी भी यह लोकप्रिय है-हालंकि देश के अनेक भागों में लड़के आज भी हाकी खेलते हैं और उनकी संख्या इतनी है कि अगर सावधानी, ईमानदारी और कुशलता से प्रशिक्षण और चयन हो तो अभी भी हमारी विश्व में बादशाहत कायम हो सकती हैं।

क्रिकेट की लोकप्रियता को हॉकी के विकास में बाधा मानना बेकार का तर्क है। आस्ट्रेलिया, इंग्लेंड और दक्षिण अफ्रीका की हॉकी टीमें अच्छा खेलतीं है और क्रिकेट में भी उनकी बादशाहत है। एक श्रंखला में आस्ट्रेलिया पर जीत क्या हुई हमारे देश के प्रचार माध्यम सीना फुलाने लगे थे और अब हॉकी की दुर्दशा पर एक दिन रोकर सब बैठ जायेंगे। हाकी को राष्ट्रीय खेल (इसके लिए कोइ आधिकारिक दस्तावेज है इसकी जानकारी मेरे पास नहीं है) भी कहा जाता है और इसी खेल में हमारा अस्तित्व ही ख़त्म हो गया। अभी तक अनेक लड़के ओलंपिक और विश्व कप में जाने का ख्वाब यह सोचकर पालते थे कि क्रिकेट में सबको जगह तो मिल नहीं सकती तो क्यों न इसमें हाथ आजमाया जाये। कई नये लड़के राष्ट्रीय खेल में इसलिए भी आते हैं कि हो सकता है अच्छा खेलने पर कैरियर बन जाये। उनके लिए यह खबर बहुत दुखद: है।

जिस तरह हाकी में सब चल रहा है उससे तो नहीं लग रहा है कि अब इसमें इतनी आसानी से वापसी होगी। क्रिकेट जिसमें इतना पैसा है उसमें अभी भी वापसी कहाँ हुई है? एक दिवसीय मैचों में जब विश्व कप के दूसरे दौर में टीम पहुंचे तब कहना कि हाँ टीम में दम है। इक्का-दुक्का एक दिवसीय श्रंखला तो टीम जीत जाती है पर विश्व में हार कर बाहर आ जाती है। बात हाकी की हो रही है। इसमें हालत बहुत खराब है सबको मालुम था पर एकदम इसका अस्तित्व ही खतरे में आ जायेगा ऐसा सोचा नहीं था।

मैं थोडा कभी दार्शनिक भी हो जाता हूँ और इधर-उधर की बात भी कर ही जाता हूँ। हमारे देश में आजकल लोग कहते हैं कि सारे काम पैसे से होते हैं तो यहाँ बता दें अपने देश में ओलंपिक, एशियाड, और कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन कराने के लिए बहुत उत्साह जताया जाता है और वह बिना पैसे के नहीं होते और इसका मतलब तो यह है कि हमारे देश में पैसा तो है फिर हमारे खिलाडी बाकी खेलों में फिसड्डी क्यों है? मतलब पैसे से सब काम नहीं होते। सच तो क्रिकेट के विश्व कप में भारत की टीम की हार पर मुझे कोई अफ़सोस नहीं हुआ था क्योंकि मुझे पहले ही लग रहा था कि वह एक असंतुलित टीम है। हॉकी को कम देखता हूँ पर उसमें मेरी बहुत दिलचस्पी है और इस हर से मुझे वाकई दुख पहुंचा। सिवाय दुआ करने के अलावा क्या किया जा सकता है कि हाकी का खेल फिर वापस लोकप्रिय हो।

आंकडों का खेल भी इन्द्रजाल जैसा -आलेख


आज एक ब्लोग पर हमने वह वेब साईट देखी जिसमें सभी ब्लोग की कीमत का मूल्यांकन किया जा सकता है. उत्सुकतावश हमें उसे खोल कर देखा और अपने सभी ब्लोग की रेट लिस्ट ले आये. देखकर हैरान रह गए कि हमारे सभी ब्लोग फ्लॉप श्रेणी में हैं पर कुल जमा हम फ्लॉप नहीं हैं. आईये ज़रा इन ब्लोग की रेट लिस्ट पर नजर डालें. यह सही है की हमें अभी तक एक धेला भी पैसा नहीं मिला और आगे भी इसके आसार नहीं है पर अगर इसी तरह चलते रहे तो कोई न कोई ब्लोग अधिक कीमत पर आकर सबको चौंका देगा. अब यह वेब साईट विश्वास योग्य है या नहीं हमको नहीं पता. इधर हम अंतर्जाल पर अब किसी भी प्रकार का यकीन नहीं करते जबकि उसका कोई प्रत्यक्ष लाभ हमको नहीं हो फिर यह कंप्यूटर है इसमें आंकडों का हेरफेर तो आसानी से दिया जा सकता है.
ब्लोग का नाम और पता ——————– राशि डालरों में
१.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका——————— १५२४२.५८
२.दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका ——————– १२९८४.४२
३.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका ——————— १२४१९.८८
४.दीपक बापू कहिन ——————– ११८५५.३४
५.दीपक भारतदीप का चिंतन——————— १०१६१.७२
६.अनंत शब्दयोग——————– ९०३२.६४
७.शब्दलेख सारथी——————— ८४६८.१०
८.शब्दलेख पत्रिका——————– ६७७४.४८
९.शब्दज्ञान पत्रिका——————— ५६४५.४०
१० अंतर्जाल पत्रिका——————– ५०८०.८६
११.शब्द योग पत्रिका——————– २८२८.७०
१२. राजलेख की हिन्दी पत्रिका ——————— ००.००

कुल योग ——————– १००५३५.१२

१२ वें नंबर का ब्लोग क्यों नहीं आ रहा यह समझ में नहीं आया क्योंकि यह मेरा सबसे पहला ब्लोग है और इस पर ८० करीब पोस्टें हैं और उसका न आना आश्चर्य की बात है.
हमने अवलोकन किया तो उस ब्लोग पर ७३ हजार से ऊपर के ब्लोग था. अब यह पता नहीं है कि हिन्दी का सबसे महंगा ब्लोग कौनसा है पर जो नाम उनमें थे उससे अगर काल्पनिक रूप से सही माना जाये तो हमारे ब्लोग के कुल योग के आधार पर हम तो ठीकठाक हैं. भौतिक रूप से कुल राशि हमारे लिए वहाँ तभी हो सकती है अगर सब ब्लोग बिकने लगें. अगर हमारे सब ब्लोग को एक इकाई माना जाये तो कुल उनका मूल्य १००५३५.१२ डालर दिखाया गया है. अपने आप में मुझे यह एक रोचक हास्य लग रहा था. अगर कोई एक ब्लोगर एक ब्लोग के साथ ७५ हजार मूल्य के साथ हैं तो वह महंगा लगता है पर अगर एक ब्लोगर १२ ब्लोग के साथ उससे अधिक है तो क्या कहा जा सकता है? वाणिज्य का विधार्थी होने के नाते मुझे सांख्यिकी में बहुत दिलचस्पी रही है और इन आंकडों में अधिक माथा पच्ची करना मुझे ठीक नहीं लगा. भारत के हिन्दी ब्लोगर बहुत उत्साही हैं और वह नित-प्रतिदिन कुछ न कुछ ढूंढते रहते हैं. आज जब वह वेब साईट देखी तो मुझे आश्चर्य हुआ. हालांकि उसके सॉफ्ट वेयर की प्रमाणिकता के बारे में कुछ कहना मुशिकल है और हो सकता है उस पर काम चल रहा हो.

मैं हिट हूँ या फ्लॉप इस मसले पर माथापची करने की बजाय कोई फालतू कविता लिखना पसंद करता हूँ. भारत के उत्साही ब्लोगर किस तरह क्या करते हैं इस पर मेरी नजर रहती है. हाँ आंकडों के इस खेल में मैं यह सोच रहा था कि यार, मुझे भी एक या दो ब्लोग रखना था तो सब मिलाकर मेरा रेट कितना अधिक दिखता. सांख्यिकी किताब में ही मैंने पढा था कि आंकडे धोखा देने के लिए योजनाबद्ध ढंग से बनाए भी जाते हैं जो लोगों को गुमराह भी कर देते हैं पर एक लेखक होने के नाते यह भी जानता हूँ कि लोग इनमें रूचि भी बहुत लेते हैं. अगर आप रेट के हिसाब से देखेंगे तो मेरे ब्लोग बहुत पीछे होंगे पर कुल जमा में मेरा स्थान कोई कम रहने वाला नहीं है. हाँ आंकडों के खेल में हार जीत भी इसी तरह होती है.

इस समय हिन्दी ब्लोगर तेजी से बढ़ते जा रहे हैं और उन पर बाजार की नजर है. इस समय अभिव्यक्ति के सब माध्यम बहुत तेजी से अपनी आभा खो रहे हैं और अंतर्जाल पर ब्लोग अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बनाने वाले हैं. मेरा स्थान तो मेरी रचनाएं तय करेंगी पर कई ऐसे अन्य ब्लोगर यहाँ आयेंगे जो चमकेंगे. हाँ इसके लिए उनको आम पाठक के लिए लिखना होगा और उनको फोरमों पर मिलने वाले त्वरित टिप्पणी का मोह छोड़ना होगा. मेरे इस तर्क को चुनौती नहीं दे सकते क्योंकि मैं भी उनकी तरह अपने ब्लोगों पर ऐसे प्रयोग कर रहा हूँ. जिन रचनाओं को ब्लोगरों में सम्मान मिलता है वह आम पाठक के लिए कोई महत्त्व नहीं रखतीं और जो आम पाठक के लिए लिखी जाती हैं ब्लोगर उसे अधिक नहीं पढ़ते.

अंतर्जाल पर काम करना बहुत अच्छा है पर उसके साथ यह मानना कि कंप्यूटर पर रचे गए प्रमाणिक हैं तब तक ठीक नहीं होगा जब तक उसका कोई भौतिक पैमाना हमारे पास न हो. तमाम तरह के ईमेल मुझे आते हैं और अगर उनको सच मान लिया जाये तो मुझे अभी करोड़पति हो जाना चाहिऐ. जो रेट लगे हैं इसकी आधी कीमत पर भी कोई मेरा ब्लोग नहीं खरीदेगा. इसलिए आजकल के युवक-युवतियां इंटरनेट पर व्यवहार के दौरान किसी पर तब तक यकीन न करें जब तक उसका भौतिक सत्यापन न कर लें. इसी तरह अगर उनके सामने कोई आंकडे रखे जाते हैं तो उसका सत्यापन वह स्वयं करें. जब आदमी प्रत्यक्ष सामने खडा होकर झूठ बोल सकता है तो इस कंप्यूटर पर बिना सामने आये तो वह उसे भी बड़ा झूठ बोल सकता है. याद रखने वाली बात यह है कि कड़ी मेहनत करने से ही सफलता मिलती है और अगर असफल होते हैं तो इसका मतलब यह है कि हमारी नीयत में ही कोई खोट है. मैंने अपने जीवन में बहुत देखा है पर मैंने कोई ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जिसने ईमानदारी से मेहनत की हो और सफल नहीं हुआ हो. अगर में कहीं असफल हुआ हूँ तो उसमें मैंने अपने अन्दर ही खोट पाया है. यही कारण है कि इतने आत्मविश्वास से अंतर्जाल पर लिख रहा हूँ. मैं अपनी बात पूरे भारत में पहुंचाना चाहता हूँ और जानता हूँ इसमें कड़ी मेहनत ही एक उपाय है और अब बिना किसी की परवाह किये लिखे जा रहा हूँ और कई लोग ऐसे भी हैं जो बहुत विश्वास योग्य और मेरे मित्र हैं पर मेरा लक्ष्य है आम पाठक तक पहुंचना. मैं अपने मुहँ से अपना नाम नहीं लेना चाहता मैं चाहता हूँ कि लोग मेरा नाम लें और मैं अपने कानों से सुनूं. शेष फिर कभी

जो आम पाठक मेरे ब्लोग पढ़ना चाहते हैं वह मेरे इस ब्लोग का पता लिख लें.

https://dpkraj.wordpress.com

सुनने से पहले ही लोग भूल जाते बात-कविता


पहले तोड़कर फिर जोड़ने की बात
पहले रुलाकर फिर हँसाने की बात
अपनी नाकामियों को छिपाने के
लिए रोज नया मोर्चा खोलने की बात
बौना चरित्र, खोखला ख्याल और
खोटी नीयत से समाज में बदलाव की बात
बरसों से चल रही है यहाँ
कहने वालों को लोग सिर उठा लेते हैं
सौंप देते अपने दिल के ताज
फिर भी चल रही है बात पर बात
लोगों की याददाश्त कमजोर होती है
सुना था
पर यहाँ तो लापता है वह
सुनने से पहले ही लोग भूल जाते बात
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किसी को यादों में बसाएं
ऐसा साथी मिलता नहीं
किसी के वादों पर भरोसा करें
ऐसा यार अब मिलता नहीं
भूलने की आदत अच्छी लगती है
अब यादों से डरने की कोई बात नहीं
वफाएं तो मिलती कहाँ
बेवफाई का दर्द दिल मी बसता नहीं
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तुम्हारी रक्षा करेगा ज्ञान-साहित्यक कविता


गुरु ने शिष्य को विदा
करने से पहले पूछा
”तुम अब जाओगे
जीवन के पथ पर
चल्रते जाओगे प्रगति पथ पर
सेवा करोगे या चाहोगे सम्मान
शिष्य ने कहा
”गुरु आपने कहा था
ज्ञान कभी पूरा किसी का हो नहीं सकता
मैं तो अभी भी चाहूंगा ज्ञान”

गुरु ने खुश होकर कहा
”तब तो तुम सेवा से स्वत: बडे हो जाओगे
हर सम्मान से परे पाओगे
नहीं होगा अभिमान
हमेशा तुम्हारी रक्षा करेगा ज्ञान’
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अप्रवासी और प्रवासी हिन्दी लेखक-आलेख


अप्रवासी ब्लोगरों को लेकर मेरे मन में बहुत जिज्ञासा रहती है क्योंकि उनके लिखे पर उस देश के परिवेश और संस्कृति की जानकारी मिल जाती है जो अन्य कहीं नहीं मिल पाती. हांलांकि समाचार पत्र-पत्रिकाओं में इस बारे में अक्सर छपता है पर वह अधिकतर सारे देश को इकाई मानकर लिखा जाता है और जो लिखते हैं वह अधिकतर विदेशी फोबिया से ग्रसित होते हैं. वहाँ रह रहे लोगों की मानसिक उतार-चढाव पर उनका नजरिया अधिक नहीं रहता है. हिन्दी के अप्रवासी भारतीयों से ही विदेशों में रह रहे अपने लोगों की बहुत अच्छी जानकारी मिल जाती है. इस बारे में ब्लोग तथा ई-पत्रिकाओं में सक्रिय लेखकों की रचनाओं से मैंने बहुत कुछ सीखा है.

शुरुआत में ई-पत्रिकाओं में मैंने कुछ कहानियां देखीं तो मुझे आश्चर्य हुआ यह देखकर कि अगर कुछ अच्छे लोग अपने साथ अच्छी बातें ले गए हैं तो कुछ बुरे भी हैं जो बुरी बातें ले गए हैं और यह भी कि सभी विदेशों में रह रहे लोग भले नहीं है. उनमें अपने देश के लोगों के साथ धोखा देने के प्रुवृतियाँ वैसी हैं जैसे यहाँ. कुछ कहानियां तो आँखें खोल देने वाली भी होतीं हैं. ब्लोग जगत में सक्रिय अप्रवासी भारतीयों के लिए ब्लोग अपने लोगों से भावनात्मक रूप से जुडे रहने का साधन भी है यह मैं मानता हूँ. चौपालों पर ब्लोगर भीड़ की तरह हैं और भीड़ में कौन क्या है यह समझ पाना मुश्किल होता है पर एक लेखक का काम यही है कि वह भी में न केवल अपनी पहचान बनाए बल्कि उसमें अपने लिए विषय के साथ अपने मित्र और साथी सही ढंग से तलाशने के साथ उसमें हर व्यक्ति को अलग-अलग कर पहचानने का प्रयास करे. अप्रवासी भारतीयों का लेखन के विषय भी हम प्रवासी भारतीयों की तरह हैं पर उनमें एक पृथक भाव अवश्य होता है और वह अपनी जन्मभूमि और लोगों से दूर रहने का भाव.
हम प्रवासी ब्लोगर यहाँ बैठकर जिन कठिनाईयों में-जैसी लाईट, यातायात, अपने कार्य और अपने सामाजिक तनाव- लिखते हैं वह अप्रवासियों को नहीं छूते पर उनके सामने और समस्याएं तो रहतीं हैं. उनके कार्यस्थल निवास स्थान से बहुत दूर होते हैं और सबसे बड़ी चीज जो मेरी नजर में आई हैं अपने देश के लोगों से उपेक्षा का भाव उन्हें वहाँ भी सालता है. एक जो सबसे अच्छी बात यह लगती है कि वह रुचिकर लिखने का प्रयास वह लोग करते हैं और नई जानकारियाँ भी उनसे मिलती हैं. शायद मेरे जैसे प्रवासी भारतीय ब्लोगर सोच रहे होंगे कि आखिर यह मैं सब कुछ लिख क्यों रहा हूँ? इसका जवाब यह है कि हम सब अपने देश के बारे में बहुत कुछ लिखते हैं पर रहन-सहन की हालातों को देखने तो सभी जगह कमोबेश एक जैसे हैं और इसलिए सतत पढ़ते रहने के बाद जब कुछ नया पढ़ने की इच्छा होती है तो इन्हीं अप्रवासी भारतीयों का लिखा मददगार होता है. ईपत्रिकाओं में मैंने कुछ ऐसी कहानियां भी पढी हैं जिनसे पता लगता है कि सब कुछ वैसा विदेशों में नहीं है जैसा यहाँ प्रचारित किया जाता है.
अप्रवासी ब्लोगर आमतौर से फोरमों पर चल रहे विवादों से दूर रहते हैं क्योंकि इससे उन्हें अपने सहृदय ब्लोगरों से दूरी होने की आशंका रहती हैं. इसके विपरीत हम प्रवासी इस खतरे से डरते नहीं क्योंकि यहाँ एक नहीं तो दूसरा मित्र बहुत सहजता से मिल जायेगा-शहर-प्रदेश, जाति, भाषा, कार्य की प्रकृति, विचारधारा और अन्य आधारों पर हमारे पास संपर्क बनाने के बहुत आधार हैं जिन पर देश में रहते हुए हमें कभी परेशानी नहीं आती और कुछ नहीं तो जिससे विवाद किया उससे समझौता करने में भी आसानी होती है. एक बात आपने देखी होगी कि समाज में विदेशों में नौकरी पाने और जाने का बहुत आकर्षण है पर प्रवासी ब्लोगर कभी इसके लिए ऐसा लालायित नहीं दिखाई देते क्योंकि इन्हीं अप्रवासी ब्लोगरों की पोस्टों से उन्होने वहाँ के हाल समझ लिए हैं. इसलिए अनेक पोस्टों पर ऐसी टिप्पणियाँ दिखाईं देतीं है कि’हम तो सोचते थे कि यहीं होता है वहाँ भी ऐसा होता है जानकार आश्चर्य होता है’.

चाणक्य नीति:समय का ख्याल करना पशु-पक्षियों से सीखें


1.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही वाचों द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।

2.समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं।
3.मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।जब तक बारिश नहीं आती कोयल नहीं गाती, वह समयानुकूल स्वर निकालती है।

4.पशु-पक्षी समय के अनुसार अपने क्रियाएँ करते हैं और जो मनुष्य समय का ध्यान नहीं रखते वह पशु-पक्षियों से भी गए गुजरे हैं।
5.उसी कवि की शोभा और उपयोगिता होती है जो समयानुकूल होता है। बेमौसम राग अलापना जग हँसाई कराना है।

चाणक्य नीति:देवता तो बस भावना में बसते हैं


1.जिस प्रकार फूल में गंध, तिल में तेल, लकडी में आग, दूध में घी और ईख में गुड होता है वैसे ही शरीर में आत्मा होती है यह विचार करना चाहिऐ।
2.देवता न कंठ में, न मिटटी की मूर्ति में होते हैं। वह तो केवल भावना में बसते हैं। इसलिए ही भावना ही सब कुछ है।
3.धातु, काष्ट और पाषाण की मूर्ति को भावनानुसार पूजन करने से ही भगवान की कृपा की सिद्धि होती है।
4. जो इंसान मुक्ति की इच्छा रखते हों तो उसे विषय रुपी विष को त्याग देना चाहिऐ। सरलता, पवित्रता और सत्य का अमृत की तरह पान करना चाहिए।
5.सोने में महक, ईख में फल, चन्दन में फूल, धनी-विज्ञान , दीर्घजीवी राजा क्या विधाता ने इनको नहीं बनाया। क्या ब्रह्मा की तरह कोई बुद्धि दाता न था। *
*इसका आशय यह है कि भला कहीं सोने में सुगंध होती है। ईख में फल और चन्दन में फूल नहीं होते। विज्ञान कभी धनी नहीं होता और राजा कभी दीर्घजीवी नहीं होता। विधाता ने ऐसा नहीं किया। क्या विधाता को ऐसी बुद्धि देने वाला कोई नहीं मिला था। सीधा आशय यह है की विधाता ने सब सोच समझकर बनाया है। उसकी महिमा इसलिए अपरंपार मानी जाती है।

रहीम के दोहे:हृदय कुएँ से अधिक गहरा नहीं होता


गुन ते लेत रहीम जन, सलिल कूप ते काढि
कूपहु ते कहुं होत है, मन काहु को बाढि

कविवर रहीम कहते हैं की जिस प्रकार रस्सी के द्वारा कुएँ से पानी निकल लेते हैं, उसी प्रकार अच्छे गुणों द्वारा दूसरों के ह्रदय में अपने लिए प्रेम उत्पन्न कर सकते हैं, क्योंकि किसी का हृदय कुएँ से गहरा नहीं होता।

कविवर रहीम कहते हैं की अपना प्रभाव और सम्मान सबको अच्छा लगता है। अपने शरीर की सुन्दरता आती है तो जाती भी है। जैसे ह्रदय पर पयोधर सुन्दर प्रतीत होते हैं परन्तु अन्यत्र रसौली भी होती है जो अच्छी नहीं लगती।

भावार्थ- मनुष्य में गुण और अवगुण दोनों ही होते हैं और समय पर उनका प्रकट होना आवश्यक भी है। अपना सम्मान अच्छा लगता है पर कभी अपमान का भी सामना करना पड़ता है। देह और मुख पर सुन्दरता होती है तो अच्छी लगती है पर अगर शरीर के किसी हिस्से पर रसौली है तो बहुत बुरी लगती है। ऐसे में हमें दुख-सुख में कभी विचलित नहीं होना चाहिऐ।

बसन्त पंचमी की समस्त साथियों, पाठकों और मित्रों को बधाई

दीपक भारतदीप

विदुर नीति:अकेले वृक्ष के बलवान होने पर भी आंधी उसे गिरा देती है


*जलती लकडियाँ अलग-अलग होने पर धुआं और एक साथ होने पर अग्नि को प्रज्जवलित करतीं हैं इसी प्रकार फ़ुट होने पर लोग कष्ट उठाते हैं और एक होने पर सुखी होते हैं।
*यदि वृक्ष अकेला है तो बलवान, दृढ़ और बृहद होने पर भी एक ही क्षण में आंधी के द्वारा बलपूर्वक शाखाओं सहित धराशायी किया जा सकता है।
*जो बहुत बडे वृक्ष एक साथ रहकर समूह में खडे रहते हैं वह एक दूसरे को सहारा देकर बहुत शक्तिशाली तूफ़ान का भी सामना करते हैं
*समस्त गुणों से संपन्न होने पर भी शत्रु अपनी ताकत के अन्दर समझते हैं जैसे अकेले वृक्ष को वायु किन्तु परस्पर मेल होने से एक दूसरे के साथ रहने वाले लोग ऐसी ही शोभा प्राप्त करते हैं जैसे तालाब में कमल।

रहीम के दोहे:सज्जन सौ बार रूठे तो भी मनाएं


जैसी जाकी बुद्धि है, तैसे कहैं बनाय
ताकौं बुरो न मानी, लें कहाँ सो जाय

कविवर रहीम जी कहते हैं कि जिस मनुष्य की जैसी बुद्धि है वह उसके अनुरूप ही तो काम करता है। उस मनुष्य का बुरा मत मानिए क्योंकि वह और बुद्धि कहाँ लेने जायेगा।

टूटे सुजन मनाइये, जौ टूटे सौ बार
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार
कविवर रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार सच्चे मोतियों का हार टूट जाने पर बार-बार पिरोया जाता है, उसी प्रकार यदि सज्जन सौ बार भी नाराज हो जाएं तो भी उन्हें सौ बार ही मना लेना चाहिऐ क्योंकि वह मोतियों की तरह मूल्यवान होते हैं।

रहीम के दोहे:जहाँ ईर्ष्या की गाँठ है वहाँ आनंद रस नहीं


जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग होय
मंड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय

कविवर रहीम कहते हैं कि यह संसार खोजकर देख लिया है, जहाँ परस्पर ईर्ष्या आदि की गाँठ है, वहाँ आनंद नहीं है. महुए के पेड़ की प्रत्येक गाँठ में रस ही रस होता है वे परस्पर जुडी होतीं हैं.

जलहिं मिले रहीम ज्यों, कियो आपु सम छीर
अंगवहि आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर

कविवर रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार जल दूध में मिलकर दूध बन जाता है, उसी प्रकार जीव का शरीर अग्नि में मिलकर अग्नि हो जाता है.

सुबह और शाम का दृश्य-लघुकथा


वह एक गृह स्वामी की तरह अपने पोर्च के नीचे खडा था . कालोनी का चौकीदार पैसे मांगने आया और बोला-”बाबूजी नमस्कार.
उसने अपने पहले दोनों हाथ जोड़े और अपना एक हाथ मांगने के लिए बढाया.
उसके जेब में दस, बीस, पचास और सौ के नोट थे, पर उसे तीस रूपये देने का मन नहीं हुआ और बोला-”यार, अभी हमें वेतन नहीं मिला. जब मिलेगा तो ले जाना.
वह चला गया. घर पर काम करने वाले बाई आई और काम कर जब जाने वाली थी तब बोली-”बाबूजी, आज हमें अपने दो सौ रूपये दे दीजिये.हमें अपने बेटे के लिए फीस भरनी है.”
यह उसके जेब में रखी रकम से कोई कम नहीं थी फिर भी उसने कहा-”अभी वेतन नहीं मिला. जब मिल जायेगा तो दे दूंगा.
वह चली गयी. कुछ देर बाद सड़क पर झाडू लगाने वाला आया और उसने नमस्कार की. उसे हर महीने बीस रूपये देने होते थे. उसे भी उसने वही जवाब दिया.
पत्नी ने कहा-”इतना पैसा तो अपने पास होता है, फिर आपने दिया क्यों नहीं? मुझसे ही लेकर देते.”
उसने कहा-”ठीक है. कल दे देंगे. क्या जाता है. कौनसा पहाड़ टूट पड़ रहा है. सुबह-सुबह सब भिखारियों की तरह मांगने चले जाते हैं. मुझे तो उनकी शक्ल देखकर ही नफरत होती है.

शाम को उसने अपना काम समाप्त किया और अपना वेतन मांगने के लिए प्रबंधक के पास गया. उसका जवाब था-”
कल ले लेना.”
”आज क्यों नहीं?आपके यहाँ तो पैसा हमेशा रहता है.”
प्रबंधक ने कहा-”हाँ, पर आज मुझे जल्दी जाना है, फिर आज मेरा असिस्टेंट भी नहीं है. अपनी तनख्वाह लेकर चला गया. उसे खरीददारी करनी थी.”

उसे बहुत गुस्सा आ गया और बोला-”क्या हम मेहनत नहीं करते? उस क्लर्क को जल्दी खरीददारी करनी थी पर हम क्या करेंगे?”
प्रबंधक ने कहा-”चिल्लाओ नहीं. वह मालिकों का रिश्तेदार है, अगर किसी ने सुन लिया तो इस नौकरी से भी जाओगे.
वह गुस्से में घर आया और अपनी पत्नी के सामने प्रबंधक और क्लर्क को गाली देना लगा गो वह बोली-”सुबह हमने क्या किया था? वही उन्होने हमारे साथ किया. अगर वह छोटे लोग कल तक इन्तजार कर सकते हैं तो फिर हम क्यों नहीं?”

वह हतप्रभ खडा था. देर रात तक सोते समय सुबह और शाम के दृश्य उसके सामने घूम रहे थे.

संत कबीर वाणी:जब फसल घर आये तभी उसे अपनी समझो


पकी कहती देखि के, गरब किया किसान
अजहूँ झोला बहुत हैं, घर आवै तब जान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं की फसल को तैयार देखकर किसान खुशी से फूला नहीं समाता. उसे अत्यंत अभिमानी हो जाता. परतु यह उसका भ्रम है क्योंकि उसके बाद भी बहुत परेशानियाँ होतीं हैं और जब वह कटकर घर आ जाये तभी उसे अपनी समझना चाहिए

पांच तत्व का पुतरा, मानुष धरिया नाम
दिन चार के कारने, फिर फिर रोके ठाम

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं की यह देह रूपी पुतला पांच तत्वों से निर्मित है जिसका मनुष्य नाम रखा दिया है. चार दिन के क्षणिक भोगों के कारण इस जीव ने अपनी मुक्ति का रास्ता स्वयं ही बंद कर रखा है.

कमेन्ट ही रजाई का काम कर जायेगी-हास्य कविता


आकर फंदेबाज बोला
”दीपक बापू
इस ठंड में क्या
कीबोर्ड पर उंगली नचा रहे हो
लो लाया हूँ बोतल
तुम तो अब हो गए हो काईयाँ
शराब का नशा छोड़
ब्लोग पर पोस्ट पर लगे कमेन्ट के
पैग पीकर
जेब के पैसे बचा रहे हो’

सुनकर उखड़े दीपक बापू पहले
फिर सिर पर रखी टोपी घुमाते बोले
‘कह गए बुजुर्ग
अधिक नशा करना ठीक नहीं
साथ ही यह भी कहा है कि
अधिक खर्च करना ठीक नहीं
ब्लोग पर पोस्ट लिखने का नशा भी
सिर पर चढा हो
तो फिर शराब क्या काम करेगी
डबल हो गया नशा तो हैरान करेगी
तुमने बताया है तो देखो ठंड के मारे
हमारे हाथ काँप रहे हैं
वरना हमें क्या पता कि
कल पारा जीरों पर जायेगा
तुम घर में ही घुसे रहना
यहाँ आकर हमें खबर न करना
वरना पोस्ट लिखने का नशा उतर जायेगा
यह बोतल भी ले जाओ
ठंड से यह क्या बचायेगी
एकाध कमेन्ट टपक पडी तो
उसकी गर्मी ही रजाई का काम कर जायेगी
अगर कमेन्ट नहीं आयी तो
चौपालों पर जाकर ढूंढेंगे
अंतर्जाल का कोई गरम पोस्ट वाला ब्लोग उसी पर
फड़कती कमेन्ट लगाकर
लिखेंगे कोई हास्य कविता
जो हमारी क्या सब साथियों को
सर्दी में भी गर्मी का अहसास कराएगी
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जल्दी टीवी बनवा लेना-हास्य कविता


घर में घुसते ही बाप ने बेटे से कहा
”बेटा तुम्हारी मां के कमरे में रखा टीवी
खराब हो गया है
अगर तुम बचना चाहते हो
गृहयुद्ध से तो आज
अपने कमरे में रखे टीवी के
प्लग में गडबडी कर देना
ताकि सास के मन को भी हो जाये तसल्ली
आज खामोश रहे
कल छुट्टी के दिन मां का टीवी
किसी भी तरह बनवा लेना
वैसे भी सास-बहु के सीरियल की
भयानक आवाजे सुनते
और बीभत्स दृश्य देखते
बोर हो गया हूँ
पर फिर भी टीवी जल्दी बनवा लेना
नहीं तो जो अभी तक
सीरियल में चल रहा है
उसे अपने घर के परदे पर
देखने का मन बना लेना
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प्रभावपूर्ण दस्तक देते हैं सागरचंद नाहर-समीक्षा


अंतर्जाल पर बहुत लोग लिख रहे हैं और हर किसी को ब्लोग के बारे इस्तेमाल की पूरी जानकारी हो यह कोई जरूरी नहीं है और जिनको पूरी हो गयी है तो लिख कर व्यक्त नहीं करते. हालत यह है जिन ब्लॉगस्पोट और वर्डप्रेस ब्लोगों का पूरा इस्तेमाल भी कुछ लोग-जिनमें मैं स्वयं भी शामिल-नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में एक शख्सियत हैं सागर चंद नाहर जो निर्बाध गति से अपना ज्ञान दूसरे लोगों को अपने ब्लॉग दस्तक पर बाँट रहे हैं. जब मैं अपने को अंतर्जाल पर लिखते देखता हूं तो यह कभी नहीं भूलता कि किस तरह कमेंट देकर उन्होने मुझे प्रेरित किया, तब मैं सादा हिन्दी फ़ॉन्ट में लिख रहा था और मेरा लिखा कोई पढ़ नहीं पा रहा था. उस समय वह मेरे ब्लॉग पर आए और अपना संदेश छोड़ गये. उसके बाद मैं महीने भर तक अकेले ही अपने ब्लोग यूनीकोड में लिखकर विचरता रहा था तो फिर आए और संदेश छोडा कि नारद पर आओ. हमें तो केवल लिखने का नशा है पर उनको इसके साथ दूसरों को भी प्रेरित करने का भाव हो नाहर जी में है वह बहुत कम लोगोंमें दिखता है.

जो भी नया ब्लॉग नारद पर आया उसे सबसे पहले कमेन्ट देकर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने का काम उन्होने किया है. मैं हमेशा उसे ही अच्छा ब्लोग लेखक मानता हूँ जो प्रभावपूर्ण लिखने के साथ दूसरों को भी प्रेरित करता है और मेरे हिसाब से इस समय नाहर जी के अलावा मैं यह गुण अन्य किसी में नहीं देखता .

आईए उनके लिखे पर चर्चा करें. तमाम तरह के तकनीकी ज्ञान को लेकर तमाम ब्लॉगर दावे करते रहे हैं पर अपने ब्लोग पर ही मौजूद सुविधाओं का इस्तेमाल किस तरह किया जाये यह जानकारी मुझे केवल सागरचंद नाहर के ब्लोग से ही मिलती है.देखा जाए तो हमारे ब्लॉग पर जो सुविधाएँ उपलब्ध हैं उनके लिए बाहर से किसी सॉफ्टवेअर की मुझे कभी ज़रूरत नहीं लगती. इन्हीं ब्लोग का अधिक से अधिक उपयोग कैसे किया जाए यह सीखना भर है-हमें यह जानकारी अक्सर दस्तक पर मिल जाती है . अभी सागर चंद नाहर जी ने अपने ब्लॉग पर ही मौजूद सुविधा ब्लोगरोल के व्यापक इस्तेमाल के बारे में लिखा था. इसका इस्तेमाल तो मैं बहुत समय से कर रहा हूँ पर कई लोगों को शायद इससे पता लगा होगा. आपने पिछले दिनों यह सुना होगा की ”अपने चिट्ठे पसंद कर लो और पढ़ो”. जिन ब्लॉगरों ने सागरचंद नाहर का वह लेख पढ़ा होगा वह हंसते होंगे. हमारे ब्लॉग पर ही यह सुविधा है कि आपको जो ब्लॉग पसंद है उस अपने ब्लॉग पर ही लिंक दे और स्वयं पढ़ें और अपने पाठकों को भी पढ़वाएं. चाहे कितने भी चिट्ठे अपने ब्लॉग पर लिंक कर सकते हैं. इसके लिए किसी का मोहताज होने की ज़रूरत नहीं है.

अभी कुछ दिनों पहले ही उन्होने वर्डप्रेस के widgest के इस्तेमाल की जानकारी दी. इसके अलावा वर्ड प्रेस में अपनी पोस्ट पर ही post slug में भी अपना शीर्षक डालने की जानकारी दी और वह मेरे काम आई. आज अब मेरे वर्डप्रेस के ब्लॉग को देखेंगे तो उनके वर्तमान स्वरूप का श्रेय सागरचंद नाहर को ही देता हूँ. इसके अलावा अपनी पोस्ट पर शब्दों का चयन कर उनको विशिष्ट रूप से कैसे दिखाएँ यह भी उन्होने बताया. इतना ही नहीं वह ब्लॉगस्पोट के ब्लॉग के बारे में भी लिखते हैं. मैं मानता हूँ कि अगर आप ब्लॉग को निरंतर लिख रहे हैं और उसमें सुधार करना चाहते हैं तो सागर चंद नहर की दस्तक पर ध्यान देते र्हें, ऐसी जानकारी देने वाला और कोई मुझे तो नहीं दिखा.

वह बहुत सरल स्वभाव के हैं. यह मैं जानता हूँ क्योंकि पिछले वर्ष की कुछ ऐसी पोस्टें जो ब्लॉग जगत में अभद्र व्यवहार पर प्रतिवाद प्रकट करतीं थी उस पर वह कमेंट देते थे और कहते थे आप ऐसा लिखते रहें. कुछ लोगों ने उनकी सादगी को कमज़ोरी समझकर ऐसा कोई व्यवहार उसने किया होगा जो अशोभनीय होगा या वह ऐसे माहौल से दुख होकर कहते होंगे -ऐसा मुझे लगता है. शांति से अपनी बात लिखकर दूसरों की प्रेरणा बनने वाले सागरचंद नाहर पर बहुत दिनों से लिखने का मन था. हिन्दी साहित्या में वही साहित्यकार पूर्ण माना जाता है जो समीक्षा लिख सकता है. मैने इससे पहले सत्येन्द्र श्रीवास्तव (भूख), परमजीत बाली (दिशाएं) और ममता श्री वास्तव (ममता टीवी) पर समीक्षाएं लिखीं थी. उसके बाद एक समीक्षा लिख रहा था तो वह पूरी होने से पहले ही इंडिक टूल पर पता नहीं कहाँ हाथ पड़ा और वह उड़ गया. यह पोस्ट भी मैं लिख चुका था एक माह पहले पर लाईट चली गयी तो इसे सेव कर रख लिया. आज जब वर्डप्रेस पर गया तो अचानक यह याद आई और मुझे अपने आप पर खुद आश्चर्य हुआ कि मैने इसे इतने दिन तक क्यों अपने पास रख छोडा . सागर चंद नाहर के बारे में बस इतना ही और कहना चाहूँगा कि वह ऐसा न समझें की उनका लिखा कोई महत्व नहीं रखता.यह समीक्षा लिखने का मतलब भी यही है की सब लोग समझें कि अन्य पाठक उनको पढ़ते हैं और उसका प्रभाव होता है.
हाँ मैं एक आग्रह उनसे करूंगा कि अगर वह एक ऐसी पोस्ट रखें जिसमें ब्लोग बनाने की पूरी विधि हो. वह यह मानकर लिखें कि ब्लोगर अनाडी हैं क्योंकि हमारा लिखा अन्य आम पाठक भी पढ़ते हैं जो हमें बता नहीं पाते और इस विधा की जानकारी उनको तभी हो सकती है जब कोई ब्लोगर उस पर लिखे. अगर मैं उनके बारे में कम या गलत लिख गया हूँ तो उनसे और उनके प्रशंसकों से और अधिक लिख गया हूँ तो उनके आलोचकों से क्षमा प्रार्थी हूँ. उनके उज्जवल भविष्य की कामना के साथ यह समीक्षात्मक आलेख उनको ही समर्पित.

इनके ब्लोग का पता है
http://nahar.wordpress.com
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एक सामान्य पहल से अधिक कुछ नहीं-आलेख


भारत में हिन्दी ब्लोग अभी शैशव काल में है और ब्लोगरों की संख्या देखें तो अपने देश के विशाल क्षेत्र को देखते हुए अभी भी नगण्य है, और जैसे जैसे इसका प्रचार होगा वैसे-वैसे ही इसमें बदलाव आयेंगे और उस समय जो स्वरूप होगा जिसकी कल्पना कोई इस समय तो नहीं कर सकता
किसी समय नारद हिन्दी ब्लोग का एकमात्र ऐसा फोरम था जिस पर सब ब्लोग एकत्रित होते थे, और दूसरे फोरम बनाने के बावजूद लोग उस पर नहीं जा रहे थे. एक बार नारद के तीन दिन तक खराब रहने के बाद भी लोग उस पर नहीं जा रहे थे तब मैंने एक पोस्ट डाली थी ”नारद का मोह न छोडें पर दूसरी चौपालों पर भी जाएं”. इसका असर हुआ और लोग दूसरी चौपालों पर जाना शुरू हुए. आज भी मेरे तरह कुछ लोग हैं जिनको नारद से मोह है पर उसकी ब्लोगवाणी से प्रतिस्पर्धा है जिसे मेरे लेख के बाद पाठक मिले तो ऐसे कि वह इस समय ब्लोगरों का पसंदीदा फोरम है.

अगर यह चौपाल वाले दूसरों की खबर रखते हैं तो दूसरों को भी इनकी खबर रखनी चाहिए. नारद और चिटठा जगत आपसे में जुड़ें फोरम हैं. आप कोई नया ब्लोग बनाएं और उसे चिटठा जगत पर पंजीकृत करें तो वह उसके अलावा नारद और हिन्दी ब्लोग्स पर अपने आप आ जायेगा पर ब्लोग वाणी पर आपको पंजीकृत कराना पडेगा. जो लोग चिट्ठाजगत के परिवर्तनों से चिंतित हैं उन्हें बता दूं कि इस तरह की कोई बात नहीं है. नारद अपने ऐसे बदलाव नहीं करेगा क्योंकि वह जानते हैं कि वह किसी काम का नहीं है. ब्लोगवाणी के संचालक कभी भी ऐसे परिवर्तन नहीं करेंगे क्योंकि इसका सीधा मतलब है नारद के पास अपने ब्लोगर भेजना.
नारद के कर्णधार इस समय अपने पास पाठक खींचने के लिए जूझ रहे हैं, वह चिट्ठाजगत के परिवर्तनों का प्रचार कर रहे हैं पर ब्लोगवाणी शायद ही इसमें आयें.

कल सर्वश्रेष्ठ चिट्ठाकार २००७ के लिए किया गया एलान इसी का हिस्सा है. नारद के फोरम से ही चलाया गया है-ऐसा मुझे लगता है. उसका एक कर्णधार ही इससे सीधा जुडा हुआ है. हालांकि इसके एक कर्णधार का मत रहा है कि वेब साईट को ब्लोग नहीं माना जा सकता है, पर इस राय से हटने के अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं है. उन्होने कुछ पुराने ब्लोगरों के साथ ऐसे नये ब्लोगर जोड़े हैं जो उनके साथ एक मित्र की तरह पहले से ही हैं .

बहरहाल ऐसे बहुत से पुरस्कार बनेंगे और बटेंगे, इनसे विचलित होने की बजाय नये ब्लोगर अपने कौशल का प्रदर्शन करते हुए आगे बढ़ें. हमें इन फोरमों के आपसी द्वंद में नहीं जाना है क्योंकि इसके लोग बडे शहरों में रहते हैं और आपस में मित्रों की तरह ही हैं. इनकी लाबियाँ है और इसमें तो निकट के लोग ही हो सकते हैं. अभी पिछले पुरस्कार के समय भी विवाद उठे थे और इसमें भी उठेंगे पर इतने प्रभावशाली ढंग से नहीं क्योंकि इसमें कई ऐसी चीजों का ध्यान रखा गया है जो विवाद उठाने वाले लोग हैं वह डरेंगे-दबे स्वर में तो कल ही कुछ पोस्ट और कमेन्ट देखी थी. अगर आप इनके नामों और उनके सक्रियता को देखें तो नारद अब भी वहीं हैं जहाँ पहले था. वरिष्ठ वेब साईट धारकों को आगे कर वह ऐसा समझ रहे हैं कि कोई इस चालाकी को नही पकडेगा और पकडेगा तो कहेगा नहीं. मैं भी लिख रहा हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि कोई मुझसे सवाल नहीं करेगा क्योंकि मेरे पास और भी सवाल हैं. एक धुर विरोधी नाम के ब्लोगर थे और कहते हैं कि वह गुस्से में ब्लोग जगत से चले गए पर मेरे के मित्र ब्लोगर से जब भेंट हुई (वह अकेले ऐसे ब्लोगर हैं जिनसे मैं मिला हूँ) तो पता लगा कि वह एक छद्म नाम था और वह असली नाम से कोई वेब साईट चला रहे हैं-और मेरा मानना है कि कई लोग ऐसे होते है कि लगता है अब झांसे में आये पर आते नहीं है. इन फोरम वालों का द्वंद है चलता रहेगा. इसमें रूचि लें पर अपने लक्ष्य से नहीं भटकें. यह इस सम्मान का खूब प्रचार करेंगे और ऐसा दिखाएँगे कि जैसे कोई बहुत बड़ी उपाधि है पर उस पर ध्यान देना चाहे तो वोट डाल देना पर कोई टेंशन मत लेना. यह भी बता दूं इनकी यह योजना हाल ही में बनी हैं क्योंकि कुछ नये नाम लोगों की जुबान पर चढ़ते जा रहे हैं तो इन लोगों ने सोचा कि अपने पुराने लोगों को पुन: सक्रिय किया जाये ताकि वह उनके चौपाल पर आयें, और हम जैसे लोग तो वैसे ही जाते है और ऐसे पुरस्कारों में रूचि नहीं है जो अपने ही ब्लोगर वर्ग के लोगों से मिले क्योंकि बड़ा तो बाहर सिद्ध होना है यहाँ क्या? कुल मिलाकर एक दम सामान्य पहल है. आज मेरा इस पर हास्य कविता लिखने का मन था पर उसे अब मैंने स्थगित कर दिया क्योंकि इसमें दम नजर नहीं आया.

संत कबीर वाणी:माया के स्वरूप को भी कोई नहीं जानता


माया मया सब कहैं, माया लखै न कोय
जो मन में ना उतरे, माया कहिए सोय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि माया-माया कहकर उसके पीछे तो सब पड़े हैं पर उसका सही स्वरूप कोई नहीं जानता. सभी एक दूसरे को सन्देश देते हैं कि माया के चक्कर में मत पडो पर पर सभी उसके इर्द-गिर्द जिन्दगी भर घूमते हैं.

भावार्थ-आपने देखा होगा कि सब लोग एक दूसरे को तमाम तरह के उपदेश देते हैं कि पैसे से सब कुछ नहीं होता है और धर्म-कर्म भी करना चाहिए और दिखाने के लिए भक्ति भी करते हैं पर उनके मन से माया का मोह नहीं निकलता और भगवान् का नाम लेते हैं पर उनको मन में स्थान नहीं दे पाते.

संत कबीर वाणी:जो दंभ रखता है वह साधू नहीं


जौन चाल संसार के जौ साधू को नाहिं
डिंभ चाल करनी करे, साधू कहो मत ताहिं

संत शिरोमणि कबीरदास जीं कहते हैं कि जो आचरण संसार का वह साधू का हो नहीं सकता। जो अपने आचरण और करनी का दंभ रखता है उसको साधू मत कहो।

सोई आवै भाव ले, कोइ अभाव लै आव
साधू दौऊँ को पोषते, भाव न गिनै अभाव

कोई भाव लेकर आता है और कोई अभाव लेकर आता है। साधू दोनों का पोषण करते हैं, वह न किसी के प्रेम पर आसक्त होते हैं और न किसी के अभाव देखकर उससे विरक्ति दिखाते हैं।

‘कबीर’ सो धन संचिये, जो आगै कू होइ
सीस चढाये पोटली, ले जात न देख्या कोइ

उसी धन का संचय करो, जो आगे काम आए, तुम्हारे इस धन में क्या रखा है। गठरी सिर पर रखकर किसी को भी आज तक ले जाते नहीं देखा।

कूड़े में भी सोना हो सकता है-हास्य कविता


अभी तक दे रहे थे पहरा
तकनीकी ज्ञान का डंडा लेकर
इस घर के पहरेदार बनकर
करते रहे अपने मन की
उस समय कहते यहाँ सोना है
कभी कोई विचार नहीं आया
जो हटा दिया गया
उनको अपने काम से तो
बरस रहे हैं सब पर
कहते हैं ”मैंने सब छोड़ दिया
वहाँ तो सब कूडा है
बदबू आती है वहाँ
खडा नहीं रह सकता कभी तनकर”

कहै दीपक बापू
होता रहता है यार
जब हमें कही से भागना होता है
हम भी यही कहते हैं
पर कोई शालीन शब्द गढ़ते हैं
कह गए चाणक्य महाराज
”कूड़े में भी सोना हो तो उठा लेना चाहिए
कभी नहीं रहना चाहिए मदांध बनकर’
हम तो महापुरुषों की बात
मानते और सब जगह जाते
कूड़े में भी सोना हो सकता है
कोई छोटा कभी हो सकता है
सबके सामने खडा बड़ा आदमी बनकर
नोट-यह एक काल्पनिक रचना है और इसका किसी व्यक्ति या घटना से कोई लेना देना नहीं है और किसी से इसका कोई लेना-देना नहीं है

चजई-अक्ल का करो व्यायाम, लगाओ चालाकियों पर विराम-हास्य कविता


चतुरों के होते चार कान
सुने किसी की नहीं
हमेशा अपनी छेड़ें तान
ज्ञान, विज्ञान, पत्रकारिता, उद्योग और व्यापार में
जहाँ भी गए
मात खा जाते हैं हम
इधर से बचाएँ उधर से पकड़ लेते कान
हम ठहरे अल्हड़ और मस्त
सब जगह फ्लॉप हो जाते थे
वह दूसरों को टोपी पहनाकर
खुद भी हिट हो जाते थे
हम झेलते अपमान
कहते हैं कि काठ की हांडी
सिर्फ एक बार ही चढ़ती
पर उनकी चतुराई होती है ऐसी कि
कई बार बीरबल की खिचडी की तरह पकती
सहृदय लोगों को नहीं होता इसका भान

कहै दीपक बापू
सब करो अक्ल का व्यायाम
सुबह उठकरलगाओ हमेशा ध्यान
तो दुनिया में हर धोखे का आभास
तुम्हें पहले ही हो जायेगा
हम तो हैरान होते हैं जब लोग
हो जाते हैं ठगी का शिकार
अपनी अक्ल को नहीं करते
दूसरे का मान लेते हैं सही विचार
हम भी रहे हमेशा चालाकियों का शिकार
पर अब पल-पल रहते हैं सजग
अपने शब्दों से खेलते हैं
न गाली देना न धमकाना
बस व्यंजना विधा में
हास्य कविता ही बरसाना
तुम भी सीख लोगे ऐसी शब्दों की जादूगरी
जब लगाओगे ध्यान
तुम्हारा भी लोग करेंगे सम्मान
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नोट-यह काल्पनिक हास्य रचना है. इसका किसी घटना या व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है.

पुराने रिकार्ड के सहारे अब नहीं चलेगा नाम-हास्य कविता


कितने दिनों के बाद
प्राचीनतम बल्लेबाज सह्बाग ने
बना शतक और अब
कगारुओं पर पर बरस रहे
तब तक मुहँ पर ताला जब
बल्ला खामोश
लोग अभी बडे मैच में उनके रनों को तरस रहे

कहै दीपक बापू
नाम ने उनका कंगारू
उनके लिए एक बकनर क्या
कई अंपायर उस जैसा बनने के लिए तरस रहे
पर अभी भी तुम्हारा इम्तहान बाकी है
छोटे मैच का शतक तुम्हें हीरो नहीं बनाता
बडे मैच में महीनों हो गए
रन बनाने में तुम्हारा नाम नहीं आता
जुबान से गर्जना होता आसान
बाल खेलने के लिए
हाथों और पांवों कर जोर काम आता
तुम्हारे ‘फुटवर्क’ में अभी ढेर दोष नजर आता
कहीं फिर न हो जाओ टाँय-टाँय फिस्स
अपना मुहँ चलाते रहो
पर अभी बाकी है
तुम्हारे लिए रन बनाने का काम
पुराने रिकार्ड के सहारे अब नहीं चलेगा नाम

आसमान से अब फ़रिश्ते नहीं आते


आसमान से अब फ़रिश्ते नहीं आते
विचार खुले होना अच्छा है
पर आंख्ने भी खुली रखना
यकीन करना अच्छा है
पर कदम-कदम पर है
धोखे भीं हजार हैं
अपना हर कदम
सतर्कता से रखना

सुन्दर शब्दों का जाल
फैलाया जाता है चहूं ओर
अर्थहीन लाभ दिखाए जाते है
जिनका नहीं होता कहीं ठौर
शिकारी अब ऐसा जाल बिछाते हैं
पंक्षी बिना दाना डाले फंस जाते हैं
तुम शिकार होने से बचना

कहीं एक के साथ एक फ्री का नारा
कहीं भारी भरकम गिफ्ट का नज़ारा
कोई करता हैं भारी छूट का वादा
कोई बताता अपने ही लुटने का aaj
खरीदने निकलो बाजार में तो तुम भी
एक सौदागर बन जाना
अपनी नज़र पैनी रखना

कहैं दीपक बापू
अब आसमान से नहीं आते
ऐसे फ़रिश्ते
जो दूसरे को मालामाल कर दें
लोगों के झुंड के झुंड जुटे हैं
अमीर बनने के लिए
वह ऐसे नही है
किसी दूसरे के लिए कमाल कर दें
तुम अपना ईमान नहीं छोड़ना
अपने ख्वाबों को सच करने की
जंग खुद ही जीतने की बाट जोहना
किसी दूसरे के दिखाए सपने में
अपनी जिन्दगी फंसाने से बचना
यहां कोई ख़्याल से फ्री दिखता है
किसी का माल फ्री बिकता है
कोई फ्री में लिखता है
पर यहां कुछ फ्री नहीं है
सिवाय तुम्हारी जिन्दगी के
इसे फ्री में बेकार करने से बचना
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जो बीस में नहीं चला उसे सौ में चलाना आसान नहीं है


इधर-उधर की बात करते जाओ
लोगों का ध्यान बांटते जाओ
जो नोट बीस में नहीं चलता
उसे एक सौ मैं चलाना आसान नहीं है
एक दो आदमी को भ्रम में
डालकर खोटा सिक्का चलाना सहज है
पर जमाने भर को नचा दे
जाने और माने तभी
जब ऐसी कहानी लिखकर बताओ

एक फिल्म के हिट होने पर
उसका हीरो भी हिट हो जाता है
दूसरा टापता रह जाता है
पर क्रिकेट खेल ही ऐसा है
जिसमें एक कमाता है बीस का नोट
पर जो कौडी का नहीं उसकी आड़ में
दूसरा खिलाड़ी भी
सौ रूपये का हकदार हो जाता है
कहते रहो बीस का नोट सौ में नहीं चलेगा
पर वह तो चला रहे हैं
किस्से और कहानी गढ़कर
तुम में दम है तो चलाकर बताओ

जब बन्दर क्रिकेट खेलने लगे


मैदान पर खेलते हुए
बोलर ने बैट्समैन से कहा ‘बन्दर’
बैट्समैन ने कहा-”तू होगा बन्दर”
दोनों में झगडा हो गया
साथियों ने सुलझाने की कोशिश
पर नहीं रहा उनके बस के अन्दर
अचानक एक खिलाड़ी चिल्लाया
”भागो, देखो आ रहे हैं झुंड बनाकर
जब हम खेल रहे थे
तब कुछ देख रहे थे बन्दर
और अब झुंड बनाकर लड़ने आ रहे हैं
अब हमें नहीं छोडेंगे बन्दर

सब भाग गए वहाँ से
सब बंदरों ने जमा लिया अपना खेल
बेट-बल्ला लेकर खेलने लगे
एक बन्दर ने कहा
”क्या किसी आदमी को अंपायर बना लें
दूसरा बोला
”हमें आदमी की तरह क्रिकेट नहीं खेलना
बेईमानी तो कभी देखी भी नहीं
और वह करता है खूब
उसमें भी कुछ को दिखता नहीं
अंपायरिंग क्या कर पायेंगे
भला क्या हम उनके लिए पहले
आंखों का डाक्टर जुटा पायेंगे
फिर कब खेल पायेंगे
अभी तो मौका मिला है तो खेल लो
हम आदमी नहीं बनेंगे
रहेंगे तो बन्दर”

धर्म के रास्ते


दुनिया से ऊबकर लोग
धर्म के रास्ते जाते
ढूंढते ठिकाने वही
जहाँ तख्तियाँ लगी होती
सर्वशक्तिमान के नाम की
पीछे अधर्म के होते अहाते
अपने अन्दर बैठे शख्स को देख पाते
तो शायद जान पाते
जिन्दगी केवल पाते रहने का नाम नहीं
जिस पर अपने जीवन के सभी पल लुटाते
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शांति लाने का दावा
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बारूद के ढेर चारों और लगाकर
हर समस्या के इलाज के लिए
नये-नयी चीजें बनाकर
आदमी में लालच का भूत जगाकर
वह करते हैं दुनिया में शांति लाने का दावा

बंद कमरों में मिलते अपने देश की
कुर्सियों पर सजे बुत
चर्चाओं के दौर चलते
प्रस्ताव पारित होते बहुत
पर जंग का कारवाँ भी
चल रहा है फिर भी हर जगह
होती कुछ और
बताते और कुछ वजह
जब सब चीज बिकाऊ है
तो कैसे मिल सकता है
कहीं से मुफ्त में शांति का वादा
बहाने तो बहुत मिल जाते हैं
पर कुछ लोग का व्यवसाय ही है
देना अशांति को बढावा

एक दुकान से खरीदेंगे शांति
दूसरा अपनी बेचने के लिए
जोर-जोर से चिल्लाएगा
फैलेगी फिर अशांति
जब फूल अब मुफ्त नहीं मिलते
तो बंदूक और गोली कैसे
उनके हाथ आते हैं
जहाँ से चूहा भी नहीं निकल सकता आजादी से
वहाँ कोहराम मचाकर
वह कैसे निकल जाते हैं
विकास के लिए बहता दौलत का दरिया
कुछ बूँदें वहाँ भी पहुंचा देता है
जहाँ कहीं शांति का ठेकेदार
कुछ समेट लेता है
जानते सब हैं पर
दुनिया को देते हैं भुलावा
न दें तो कैसे करेंगे शांति लाने का दावा

समाज से कमाने वालों, बांटकर खाना सीखो