शहर-दर-शहर घूमता रहा
इंसानों में इंसान का रूप ढूंढता रहा
चेहरे और पहनावे एक जैसे
पर करते हैं फर्क एक दूसरे को देखते
आपस में ही एक दूसरे से
अपने बदन को रबड़ की तरह खींचते
हर पल अपनी मुट्ठियां भींचते
अपने फायदे के लिये सब जागते मिले
नहीं तो हर शख्स ऊंघता रहा
अपनी दौलत और शौहरत का
नशा है
इतराते भी उस बहुत
पर भी अपने चैन और अमन के लिये
दूसरे के दर्द से मिले सुगंध तो हो दिल को तसल्ली
हर इंसान इसलिये अपनी
नाक इधर उधर घुमाकर सूंघता रहा
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दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
टिप्पणियाँ
बहुत उम्दा..