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पहरेदार-हिंदी लघुकथा/ कहानी (paharedar-a short hindi story)


एक बेकार आदमी साक्षात्कार देने के लिये जा रहा था। रास्ते में उसका एक बेकार घूम रहा मित्र मिल गया। उसने उससे पूछा-‘कहां जा रहा है?
उसने जवाब दिया कि -‘साक्षात्कार के लिये जा रहा हूं। इतने सारे आवेदन भेजता हूं मुश्किल से ही बुलावा आया है।’
मित्र ने कहा-‘अरे, तू मेरी बात सुन!’
उसने जवाब दिया-‘यार, तुम फिर कभी बात करना। अभी मैं जल्दी में हूं!’
मित्र ने कहा-‘पर यह तो बता! किस पद के लिये साक्षात्कार देने जा रहा है।’
उसने कहा-‘‘पहरेदार की नौकरी है। कोई एक सेठ है जो पहरेदारों को नौकरी पर लगाता है।’
उसकी बात सुनकर मित्र ठठाकर हंस पड़ा। उसे अपने मित्र पर गुस्सा आया और पूछा-‘क्या बात है। हंस तो ऐसे रहे हो जैसे कि तुम कहीं के सेठ हो। अरे, तुम भी तो बेकार घूम रहे हो।’
मित्र ने कहा-‘मैं इस बात पर दिखाने के लिये नहीं हंस रहा कि तुम्हें नौकरी मिल जायेगी और मुझे नहीं! बल्कि तुम्हारी हालत पर हंसी आ रही है। अच्छा एक बात बताओ? क्या तम्हें कोई लूट करने का अभ्यास है?’
उसने कहा-‘नहीं!’
मित्र ने पूछा-‘कहीं लूट करवाने का अनुभव है?’
उसने कहा-‘नहीं!
मित्र ने कहा-‘इसलिये ही हंस रहा हूं। आजकल पहरेदार में यह गुण होना जरूरी है कि वह खुद लूटने का अपराध न कर अपने मालिक को लुटवा दे। लुटेरों के साथ अपनी सैटिंग इस तरह रखे कि किसी को आभास भी नहीं हो कि वह उनके साथ शामिल है।’
उसने कहा-‘अगर वह ऐसा न करे तो?’
मित्र ने कहा-‘तो शहीद हो जायेगा पर उसके परिवार के हाथ कुछ नहीं आयेगा। अलबत्ता मालिक उसे उसके मरने पर एक दिन के लिये याद कर लेगा!’
उसने कहा-‘यह क्या बकवास है?’
मित्र ने कहा’-‘शहीद हो जाओगे तब पता लगेगा। अरे, आजकल लूटने वाले गिरोह बहुत हैं। सबसे पहले पहरेदार के साथ सैटिंग करते हैं और वह न माने तो सबसे पहले उसे ही उड़ाते हैं। इसलिये ही कह रहा हूं कि जहां तुम्हारी पहरेदार की नौकरी लगेगी वहां ऐसा खतरा होगा। तुम जाओ! मुझे क्या परवाह? हां, जब शहीद हो जाओगे तब तुम्हारे नाम को मैं भी याद कर दो शब्द बोल दिया करूंगा।’
मित्र चला गया और वह भी अपने घर वापस लौट पड़ा।
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‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

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जहर और अमृत -लघुकथा


वह कोई गेहुंआ वस्त्र पहने साधु या संत नहीं बल्कि कोई शिक्षित और सज्जन पुरुष थे। कहीं बैठकर लोगों से ज्ञान चर्चा कर रहे थे। उनके सामने तीन लोग श्रोता के रूप में बैठ कर उनकी बातें सुन रहे थे। उन सज्जन ज्ञानी पुरुष ने पुराने शास्त्रों से अनेक उद्धरण देते हुए कुछ महापुरुषों के संदेश भी सुनाये।
उनके पीछे एक अन्य व्यक्ति भी बैठा यह सब सुन रहा था। उसे यह चर्चा बेकार की लग रही थी। अचानक वह उठा और उन सज्जन पुरुष के पास आकर उनसे बोला- तुम यह क्या बकवास कर रहे हो? इस ज्ञान चर्चा से क्या होगा,? तुम इतना सब सुना रहे हो वह सब मैंने भी किताबों में पढ़ा है पर तुम्हारी तरह इधर उधर ज्ञान नहीं बघारता। तुम इतना ज्ञान बघार रहे हो पर क्या उस पर चलते भी हो?‘
उस सज्जन ने कहा-‘कोशिश बहुत करता हूं कि उस राह पर चलूं। अब यह तो लोग ही बता सकते हैं कि मेरा व्यवहार किस तरह का है? बाकी रहा ज्ञान बघारने का सवाल तो भई, फालतू की बातें सोचने अैार कहने से अच्छा है तो इसी तरह की बातें की जाये। अच्छा, हम जब यह ज्ञान चर्चा कर रहे थे तब तुम्हारे मन में क्या विचार आ रहे थे।
उस आदमी ने कहा-‘मेरे को इस तरह की ज्ञान चर्चा पर गुस्सा आ रहा था। मैं तुम जैसे ढोंगियों को देखकर क्रोध में भर जाता हूं। पता नहीं यह तीनों तुम्हें कैसे झेल रहे थे?’
उन सज्जन ने कहा-‘मुझे बहुत दुःख है कि मेरी ज्ञान चर्चा से तुम्हें बहुत गुस्सा आया पर मैं भी अनेक ढोंगियों को देखता हूं पर गुस्सा बिल्कुल नहीं होता। उनकी ज्ञान की बातें सुनता हूं पर उनके आचरण पर ध्यान देकर अपना मन खराब नहीं करता। वैसे तुम इन श्रोताओं से पूछो कि आखिर हम दोनों में वह किसे पसंद करेंगे?’
उन्होंने तीनों श्रोताओं की तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा तब एक श्रोता उस बीच में बोलने वाले आदमी से बोला-‘हम इन सज्जन पुरुष की बातें सुन रहे थे तो मन को शांति मिल रही थी। हमें इससे क्या मतलब कि यह कहां से आये है और क्या करते हैं? बस इनकी बातें सुनकर आनंद आ रहा था। यह सब बातें हमने भी सुनी है पर इनके मुख से सुनकर भी अच्छा लगा रहा था। हां, तुम्हारे बीच में आने से जरूर हमें दुःख पहुंचा है।’
दूसरा श्रोता ने कहा-‘तुमने बताया कि तुमने यह सब पढ़ा है तो हमने भी सुना है। इन सज्जन की वाणी से हमें सुख मिल रहा था पर तुम्हारे आने से ऐसा लग रहा है कि जैसे यज्ञ में किसी राक्षस ने बाधा डाली हो!
तीसरे कहा-‘तुम्हारी अंतदृष्टि में यह सज्जन ढोंगी हैं पर हमारी नजर में ज्ञानी हैं क्योंकि इनकी बात से हमें आत्मिक सुख मिल रहा था भले ही यह पुरानी बातें दोहरा रहे हैं मगर तुम शिक्षित और ज्ञानी होते हुए भी भटक रहे हो क्योंकि ज्ञान धारण न भी किया हो पर उसकी चर्चा कर अच्छा वातावरण तो बनाया जा सकता है और तुमने इसे विषाक्त बना दिया।’
बीच में बोलने वाले सज्जन का मूंह उतर गया। वह पैर पटकता हुआ वहां से चला गया तो एक श्रोता ने उस सज्जन से कहा-‘आखिर यह आपकी बात पर गुस्सा क्यों हुआ?’
सज्जन ने कहा-‘भई, एक तो यह अपने घर से परेशान होगा दूसरे यह कि इस समाज में ज्ञान चर्चा केवल गेहूंए वस्त्र पहनने वाले ही कर सकते हैं। उन्होंने इतनी सामाजिक और राजनीतिक शक्ति एकत्रित कर ली होती है कि किसी की हिम्मत नहीं होती कि सामने जाकर कोई उनको ढोंगी कह सके इसलिये उनकी कुंठायें ऐसे लोगों के सामने निकालते हैं जो सादा वस्त्र पहनकर ज्ञान चर्चा करते हैं। सभी सुविधायें जुटाकर सन्यासी होने का ढोंग करने वालों से कहना कठिन है पर कोई सद्गृहस्थ ज्ञान चर्चा करे तो उस पर उंगली उठाकर अपनी कुंठा निकालना अधिक आसान है। शायद इसलिये उसने जमाने भर का गुस्सा यहां निकाल दिया। बहरहाल तुम उसकी बात भूल जाना क्योंकि इससे तुम्हारे अंदर उसका फैलाया विष असर दिखाने लगेगा और अगर मेरी बात से कुछ बूँद अमृत बना है तो वह भी दवा कर का नहीं कर पायेगा।
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

भिखारी से साक्षात्कार-लघुकथा (intervew with bagger-hindi laghu kahani)


            वह लेखक मंदिर के अंदर गया और वहां से बाहर लौटा तो गेहूंआ कुर्ता और सफेद धोती पहले और माथे पर लाल तिलक लगाये एक भिखारी ने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया और बोला-‘बाबूजी जरा चाय के लिये दो रुपये दे दो।’
लेखक ने मंदिर के अंदर करते हुए देखा था कि कोई दानी व्यक्ति भिखारियों के बीच खाने का सामान बांट रहा था और उसे लेकर वही भिखारी भी खा रहा था।
          लेखक ने उसे घूर कर देखा तो वह बोला-‘‘आज खाना तो मिला नहीं। अब चाय पीकर ही काम चलाऊंगा।”

         वह हाथ फैलाये उसके सामने खड़ा होकर झूठ बोल रहा था। लेखक ने उससे कहा-“मैं तुम्हें दस रुपये दूंगा, पर इससे पहले तुम्हं साक्षात्कार देना होगा। आओ मेरे साथ!”

         थोड़ी दूर जाकर उस लेखक ने उससे पूछा-“तुम्हारे घर में क्या तुम अकेले हो?”

          भिखारी-“नही! मुझे दो लड़के हैं और दो लडकियां हैं। सबका ब्याह हो गया है?”

           लेखक-“फिर तुम भीख क्यों मांगते हो? क्या तुम्हारे लड़के कमाते नहीं हैं या फिर तुम्हें पालनेको तैयार नहीं है?।”

           भिखारी-“बहुत अच्छा कमाते हैं, पर आजकल बाप को कौन पूछता है? वैसे वह मेरे को घर पर मेरे को सूखी रोटी देते हैं क्योंकि उनको लगता है कि मैं बीमार न हो जाऊँ। मैं चिकनी चुपड़ी और माल खाने वाला आदमी हूं,इसलिए भीख मांगकर मजे ही करता हूँ।”

        लेखक-“इस उमर में वैसे भी कम चिकनाई खाना चाहिए। गरिष्ठ भोजन नहीं करने से अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं। डाक्टर लोग यही कहते हैं।”

         भिखारी-“यह काड़ा तो वह तो सेठों के लिये कहते हैं जो सारा दिन एक जगह बैठे रहते हैं। हम भिखारियों के लिये नहीं जो सारा दिन यहाँ से वहाँ चलते रहते हैं।”

         लेखक-“मंदिर में अंदर जाते हो।”

भिखारी-“मंदिर के अंदर हमें आने भी नहीं देते और न हम जाते। हम तो बाहर भक्तों के दर्शन ही कर लेते हैं। भगवान ने कहा भी है कि मेरे से बड़े तो मेरे भक्त हैं। भक्तों का दान हमारे लिए भगवान का प्रसाद है भले ही लोग इसे भीख कहते हैं।”

    लेखक-“रहते कहां हो?”

       भिखारी-“एक दयालू सज्जन ने हम भिखारियों के लिये एक मकान किराये पर ले रखा है। उसमें वही किराया भरता है।”

        लेखक-“तुम्हारे लड़के तुम्हें अपने घर नहीं रखते या तुम उनके साथ रहना नहीं चाहते?”

यह लघुकथा इस ब्लाग दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका पर मूल रूप से प्रकाशित है। इसके प्रकाशन के लिये अन्य कहीं अनुमति प्रदान नहीं की गयी है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

         भिखारी-“वह तो मिन्नतें करते हैं पर इसलिए नहीं कि मुझसे  कोई उनको प्रेम करते हैं बल्कि इसलिए कि उनको मारे भीख मांगने से इज्ज़त खराब होती दिखती है इसलिए अपने यहाँ रहने के लिए कहते हैं।   वहां कौन उनकी चिकचिक सुनेगा इसलिए भीख मांगना अच्छा लगता है।  मैं तो बचपन से ही आजाद रहने वाला आदमी हूं। पूरी ज़िंदगी भीख के सहारे गुजर दी, अब क्या पवाह करना? वह बच्चा मुझे  क्या खिलायेंगे मैंने ही अपनी भीख से उनको बड़ा किया है।  मैंने खाने के मामले में बाप की परवाह नहीं की। वह भी सूखी खिलाता था पर बाहर मुझे भीख मांगने पर जो खाने का मिलता था वह बहुत अच्छा होता था।”

         लेखक-“बचपन से भीख मांग रहे हो। बच्चों की शादी भी भीख मांगते हुए करवाई होगी?”

        भिखारी-“नहीं! पहले तो मेरा बाप ही मेरे परिवार को पालता रहा। उसने मेरी  बीबी  को किराने  कि दुकान खुलवा दी कुछ दिन उससे काम चला  फिर बच्चे थोड़े बड़े हो गये तो नौकरी कर वही काम चलाते रहे। मैं अपनी बीबी के लिये ही कुछ सामान घर ले जाता हूं। वह बच्चों के पास ही रहती है। आजकल की औलादें ऐसी हैं उसकी बिल्कुल इज्जत नहीं करतीं। मैं सहन नहीं कर सकता।’

       लेखक-तुम्हें भीख मांगते हुए शर्म नहीं आती।’

         भिखारी ने कहा-‘जिसने की शर्म उसकी फूटे कर्म।’

        लेखक उसको घूर कर देख रहा था! अचानक उसने पीछे से आवाज आई-‘बाबूजी, इससे क्या बहस कर रहे हो। भीख मांगना एक आदत है जिसे लग जाये तो फिर नहीं छूटती। कोई मजबूरी में भीख नहीं मांगता। जुबान का चस्का ही भिखारी बना देता है।’

       लेखक ने देखा कि थोड़ी दूर ही एक बुढ़िया  भिखारिन पुरानी चादर बिछाये बैठी थी। उसके पास एक लाठी रखी थी और सामने एक कटोरी । उसके पास रखी पन्नी में कुछ खाने का सामान रखा हुआ था जो शायद दानी भक्त दे गये थे और वह अभी खा नहीं रही थी।

         लेखक ने उस भिखारी को दस रुपये दिये और फिर जाने लगा तो वह भिखारिन बोली-‘बाबूजी! कुछ हमको भी दे जाओ। भगवान के नाम पर हमें भी कुछ दे जाओ।’

          लेखक ने पांच रुपये उसके हाथ में दे दिये और अपने होठों में बुदबुदाने लगा-‘भीख मांगना मजबूरी नहीं आदत होती हैं।

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
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