Category Archives: global dashboard

ज्ञान का चिराग-लघुकथा


डूबता हुआ सूरज रोज अट्टहास के साथ अपने से ही सवाल करता था कि ‘इस दुनियां में सबसे बड़ा कौन?’
फिर दोबारा अट्टहास करते हुए स्वयं ही जवाब देता था कि ‘मैं’! मेरी रौशनी के बिना इस संसार के उस हिस्से में अंधेरा छा जाता है जहां से मैं विदा लेता हूं।’
एक दिन डूबने से पहले उसने कुछ देर पहले धरती पर झांक कर देखा तो उसे एक औरत अपने घर के बाहर बने छोटे चबूतरे पर एक जलता चिराग रखते हुए दिखाई दी। पड़ौसन ने उससे कहा-‘यह चिराग तुम क्यों जलाकर रखती हो। अपने कमरे में ही चिराग जलते है, फिर यहां रखने से क्या लाभ? बेकार में तेल का अपव्यय करना भला कहां की अक्लमंदी है?’
उस महिला ने कहा-‘यहां गली में रात को अंधेरा रहता है। अनेक राहगीर यहां से गुजरते हैं। इस चिराग से उनको सहायता मिलती है। अपने लिये तो सभी रौशनी करते हैं पर दूसरे के लिये करने पर एक अलग प्रकार का ही आनंद आता है।’

सूरज वहां से विदा हो गया पर उस महिला की बात उसके मन में घर कर गयी। उसने अपने आप से कहा-’मैं भी तो यही करता हूं पर अपने अहंकार की वजह से कभी उस आनंद का अनुभव नहीं कर पाया जो वह महिला करती है। एक छोटा चिराग भी वही कर लेता है जो मैं करता हूं। मतलब न इस दुनियां में रौशनी करने वाला मै अकेला हूं, दूसरों को रौशनी देने की सोचने वाला’
यह सोचकर सूरज मौन हो गया। फिर कभी डूबते समय उसने अट्टहास नहीं किया। उस चिराग और महिला ने ज्ञान का प्रकाश दिखाकर उसके अहंकार को परे कर दिया।

……………………………..

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

खाकपति से बने करोड़पति पर कहानी-हास्य व्यंग्य कविताएँ


फिल्मों की कहानी में
गंदी बस्ती का लड़का
करोड़पति बन जाता है
पर हकीकत में भला कहां
कोई ऐसा पात्र नजर आता है
यह तो है बाजार के प्रचार का खेल
जो पहले करोड़पति बनने वाले
सवाल जवाब का कार्यक्रम बनाता है
उठते हैं उसकी सच्चाई पर सवाल
पर भला झूठ और ख्वाब के सौदागर
पर उसका असर कहां आता है
फिर बाजार रचता है
गंदी बस्ती का एक काल्पनिक पात्र
जो करोड़पति का इनाम जीत जाता है
प्रचार फिर उस काल्पनिक पात्र पर जाता है
सच कहते हैं एक झूठ सच बोलो
तो वह सच नजर आता है
……………………………….
अमीरों में कभी भेद नहीं होता
पर गरीबों में बना दिये
जाति,भाषा और धर्म के कई भेद
करते हैं बाजार के सौदागर
समय पर अपना शासन चलाने के लिये
उसमें बहुत छेद
जिसका तूती बोलती है
उसी वर्ग के गरीब की तूती बजाते
भले ही उनके काम भी नहीं आते
पर दूसरे को तकलीफ पहुंचाते हुए
उनके मन में नहीं होता खेद
…………………..
एक गरीब ने कहा दूसरे से
चलता है करोड़पति देखने
सुना है फिल्म में बहुत मजा आता है’
दूसरे ने कहा
‘पहले पता करूंगा कि
उसमें नायक के फिल्मी नाम की जाति कौनसी है
फिर चलूंगा
अगर तेरी जाति का नाम हुआ तो
मुझे गुस्सा आ जायेगा
करोड़पति बने या रहे खाकपति
मुझे तो अपनी जाति के नायक के फिल्मी नाम पर बनी
फिल्म देखने में ही मजा आता है

………………………………………….

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

जिंदगी क्या जंग से कम है-लघुकथा


उसकी मां आई.सी.यू में भर्ती थी। वह और उसका चाचा बाहर टहल रहे थे। उसने चाचा से पूछा-‘चाचाजी, आपको क्या लगता है कि पाकिस्तान से भारत की जंग होगी।’

चाचा ने कहा-‘पता नहीं! अभी तो हम दोनों यह जंग लड़ ही रहे हैं।’

इतने में नर्स बाहर आयी और बोली-‘तीन नंबर के मरीज को देखने वाले आप ही लोग हैं न! जाकर यह दवायें ले आईये।’

युवक ने पूछा-‘‘आप ने अंदर कोई दवाई दी है क्या?’

नर्स ने कहा-‘ नहीं! अभी तो चेकअप कर रहे हैं। उनके कुछ और चेकअप होने हैं जो आप जाकर बाहर करायें। हमारी मशीनें खराब पड़ीं हैं। अभी यह दवायें आप ले आयें।

लड़का दवा लेने चला गया। रास्ते में एक फलों का ठेला देखा और अपनी मां के लिये पपीता खरीदने के लिये वहां रुक गया। उसी समय दो लड़के वहां आये और उस ठेले से कुछ सेव उठाकर चलते बने।

ठेले वाला चिल्लाया-‘अरे, पैसे तो देते जाओ।’

उन लड़कों में एक लड़के ने कहा-‘अबे ओए, तू हमें जानता नहीं। अभी हाल जाकर ढेर सारे दोस्त ले आयेंगे तो पूरा ठेला लूट लेंगे।’

ठेले वाले ने कहा-‘ढंग से बात करो। मैं भी पढ़ा लिखा हूं। इधर आकर पैसे दो।’

उनमें एक लड़का आया और उसके गाल पर थप्पड़ जड़ दिया। वह ठेले वाला सकते में आया और लड़के वहां से चलते बने।’

ठेले वाला गालियां देता रहा। फिर पपीता तौलकर उस युवक से बोला-‘साहब, क्या लड़ेगा यह देश किसी से। आतंक आतंक की बात करते हैं तो पर यह घर का आतंक कौन खत्म करेगा? गरीब और कमजोर आदमी का इज्जत से जीना मुश्किल हो गया है और बात करते हैं कि बाहर से आतंक आ रहा है।

वह दवायें लेकर वापस लौटा। उसने अपनी दवायें नर्स को दी। वह अंदर चली गयी तो उसने अपने चाचा को बताया कि एक हजार की दवायें आयीं हैं। उसने चाचा से कहा-‘चाचाजी, यहां आते आते पंद्रह सौ रुपये खर्च हो गये हैं। अगर कुछ पैसे जरूरत पड़ी तो आप दे देंगे न! बाद में मैं आपको दे दूंगा।’

चाचा ने हंसकर कहा-‘अगर मुझे मूंह फेरना होता तो यहां खड़ा ही क्यों रहता? तुम चाहो तो अभी पैसे ले लो। बाद में देना। तुम्हारी मां ने मुझे देवर नहीं बेटे की तरह पाला है। उसकी मेरे ऊपर भी उतनी ही जिम्मेदारी है जितनी तुम्हारी।’

इतने में वही नर्स वहां आयी और एक पर्चा उसके हाथ में थमाते हुए बोली-‘डाक्टर साहब बोल रहे हैं यह इंजेक्शन जल्दी ले आओ।’

युवक वह इंजेक्शन ले आया और फिर चाचा से बोला-‘मेडीकल वाले में बताया कि यह इंजेक्शन तो अक्सर मरीजों को लगता है। वह यह भी बता रहा था कि इन अस्पताल वालों को ऐसे ही इंजेक्शन मिलते हैं पर यह कभी मरीज को नहीं लगाते बल्कि बाजार में बेचकर पैसा बचाते हैं।’

चाचा ने कहा-‘हां, यह तो आम बात है। सार्वजनिक अस्पताल तो अब नाम को रह गये हैं। वह दवाईयां क्या डाक्टर ही देखने वाला मिल जाये वही बहुत है।’

वह कम से कम तीन बार दवाईयां ले आया। धीरे धीरे उसकी मां ठीक होती गयी। एक दिन उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गयी। बाद में वह युवक बाजार में अपने सड़क पर सामान बेचने के ठिकाने पर पहुंचा। उसने अभी अपना सामान लगाया ही था कि हफ्ता लेने वाला आ गया। युवक ने उससे कहा-‘यार, मां की तबियत खराब थी। कल ही उनको आई.सी.यू. से वापस ले आया। तुम कल आकर अपना पैसा ले जाना।’

हफ्ता वसूलने वाले ने कहा-‘ओए, हमारा तेरी समस्या से कोई मतलब नहीं है। हम कोई उधार नहीं वसूल नहीं कर रहे। हमारी वजह से तो तू यहां यह अपनी गुमटी लगा पाता है।’

युवक ने हंसकर कहा-‘भाई, जमीन तो सरकारी है।’

हफ््ता वसूलने वाले ने कहा-‘फिर दिखाऊं कि कैसे यह जमीन सरकारी है।’

युवक ने कहा-‘अच्छा बाद में ले जाना। कम से कम इतना तो लिहाज करो कि मैंने अपनी मां की सेवा की और इस कारण यहां मेरी कमाई चली गयी।’

हफ्ता वसूली करने वाले ने कहा-‘इससे हमें क्या? हमें तो बस अपने पैसे से काम है? ठीक है मैं कल आऊंगा। याद रखना हमें पैसे से मतलब हैं तेरी समस्या से नहीं। ’

वह हफ्तावसूली वाला मुड़ा तो उसी समय एक जूलूस आ रहा था। जुलूस में लोग देश भक्ति जाग्रत करने के लिये आतंक विरोधी तख्तियां लिये हुए थे। उसमें उसे वह दो लड़के भी दिखाई दिये जिन्होंने फल वाले के सेव लूटकर उसको थप्पड़ भी मारी थी। उन्होंने हफ्तावसूल करने वाले को देखा तो बाहर निकल आये और उससे हाथ मिलाया।’

उसके निकलने पर युवक के पास गुमटी लगाने वाले दूसरे युवक ने कहा-‘यार, तेरे को क्या लगता है जंग होगी?’

पहले युवक ने आसमान की तरफ देखा और कहा-‘अभी हम लोगों के लिये यह जिंदगी क्या जंग से कम है?’

———–
मैंने कुछ सुधार कर दिया है अगर आप मेरे ब्लॉग का और मेरा पूरा नाम दें तो अच्छा रहेगा. मेरी आपको शुभकामनाएं

………………………

यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

डुप्लीकेट खाने के आतंक के साये में-हास्य व्यंग्य


देश में आतंकवाद को लेकर तमाम तरह की चर्चा चल रही है। अनेक तरह की संस्थायें शपथ लेने के लिये कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। अनेक जगह छात्र और शिक्षक सामूहिक रूप से शपथ ले रहे हैं तो कई कलाकार और लेखक भी इसी तरह ही योगदान कर रहे हैं। सवाल यह है कि क्या आतंकवाद से आशय केवल बम रखकर या बंदूक चलाकर सामूहिक हिंसा करने तक ही सीमित है? टीवी पर ऐसे डरावने समाचार आते हैं भले ही वह उसमें आंतक जैसा कोई रंग नहीं देखते पर आदमी के दिमाग में वैसे ही खौफ छा जाता है जैसे कि कहीं बम या बंदूक की घटना से होता है। उस समय बम और बंदूक की हिंसा का परिदृश्य भी फीका नजर आता है।
हुआ यूं कि उस दिन कविराज बहुत सहमे हुए से एक डाक्टर के पास जा रहे थे। अपने सिर पर उन्होंने टोपी पहन ली और मुंह में नाक तक रुमाल बांध लिया। हुआ यूं कि उनकी कुछ कवितायें किसी पत्रिका में छपी थीं। जो संभवतः फ्लाप हो गयी क्योंकि जिन लोगों ने उसे पढ़ा वह उसके कविता के रचयिता कवि से उनका अर्थ पूछने के लिये ढूंढ रहे थे। पत्रिका कोई मशहूर नहीं थी इसलिये कुछ लोगों को फ्री में भी भेजी जाती थी। उनमें कविराज की कवितायें कई लोगों को समझ में नही आयी और फिर वह उनसे वैसे ही असंतुष्ट थे और अब बेतुकी कविता ने उनका दिमाग खराब कर दिया था। वह कवि से वाक्युद्ध करने का अवसर ढूंढ रहे थे। कविराज उस दिन घर से इलाज के लिये यह सोचकर ही निकले कि कहीं किसी से सामना न हो जाये और इसलिये अपना चेहरा छिपा लिया था।

मन में भगवान का नाम लेते हुए वह आगे बढ़ते जा रहे थे डाक्टर का अस्पताल कुछ ही कदम की दूरी पर था तब उन्होंने चैन की सांस ली कि चल अब अपनी मंजिल तक आ गये। पर यह क्या? डाक्टर के अस्पताल से आलोचक महाराज निकल रहे थे। वह उनके घोर विरोधी थै। वैसे उन्होंने कविराज की कविताओं पर कभी कोई आलोचना नहीं लिखी थी क्योंकि वह उनको थर्ड क्लास का कवि मानते थे। दोनों एक ही बाजार में रहते थे इसलिये जब दोनेां का जब भी आमना सामना होता तब बहस हो जाती थी।

दोनों की आंखें चार हुईं। आलोचक महाराज शायद कविराज को नहीं पहचान पाते पर चूंकि वह घूर कर देख रहे थे तो पहचान लिये गये। आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम कविराज हो न! हां, पहचान लिया। देख ली तुम्हारी सूरत अब तो वापस डाक्टर के पास जाता हूं कि कोई ऐसी गोली दे जिससे किसी नापसंद आदमी की शक्ल देखने पर जो तनाव होता है वह कम हो जाये।’

कविराज के लिये यह मुलाकात हादसे से कम नहीं थी। अपनी छपी कविताओं की चर्चा न हो इसलिये कविराज ने सहमते हुए कहा-‘क्या यार, बीमारी में भी तुम बाज नहीं आते।
आलोचक महाराज ने कहा-‘हां, यही तो मैं कह राह हूं। मैं जुकाम की वजह से परेशान हूं और तुम अपना थोबड़ा सामने लेकर आ गये। शर्म नहीं आती। यहां क्यों आये हो?’
कविराज ने बड़ी धीमी आवाज में कहा-‘ डाक्टर के पास कोई आदमी क्यों जाता हैं? यकीनन कोई कविता सुनाने तो जाता नहीं।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘मगर हुआ क्या? बुखार,जुकाम,खांसी या सिरदर्द? कोई बडी बीमार तो हुई नहीं हुई क्योंकि खुद ही चलकर आये हो।’
कविराज ने कहा-‘तुम्हें क्यों अपनी बीमारी बताऊं? तुम मेरी कविता पर तो आलोचना लिखोगे नहीं पर बीमारी पर कुछ ऐसा वैसा लिखकर मजाक उड़ाओगे।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘मैं तुम्हारी तरह नहीं हूं जो इस बीमारी में भी मेरे को शक्ल दिखाने आ गये। बताने में क्या जाता है? हो सकता है कि मैं इससे कोई अच्छा डाक्टर बता दूं। यह डाक्टर अपना दोस्त है पर इतना जानकार नहीं है।’
कविराज ने कहा-‘बीमारी तो नहीं है पर हो सकती है। मैं सावधानी के तौर पर दवाई लेने आया हूं।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘ कर दी अपने बेतुकी कविता जैसी बात। मैं तो सोचता था कि बेतुकी कविता ही लिखते हो पर तुम बेतुके ढंग से बीमार भी होते हो यह पहली बात पता लगा।’

कविराज ने कहा-‘‘ बात यह हुई कि आज मैंने घर पर देशी घी से बना खाना बना था। पत्नी के मायके वाले आये तो उसने जमकर देशी धी का उपयोग किया। जब टीवी देख रहे थे तो उसमें ‘देशी धी के जहरीले होने के संबंध में कार्यक्रम आ रहा था। पता लगा कि उसमें तो साबुन में डाले जाने वाला तेल भी डाला जाता है। वह बहुत जहरीला होता है। उसमें उस ब्रांड का नाम भी था जिसका इस्तेमाल हमारे घर पर होता है। यार, मेरे मन में तो आतंक छा गया। मैंने सोचा कि बाकी लोग तो मेरा मजाक उड़ायेंगे क्योंकि वह तो उस खबर को देखना ही नहीं चाहते थे। इसलिये अकेला ही चला आया।’

आलोचक महाराज ने कहा-‘डरपोक कहीं के! तुम्हारा चेहरा तो ऐसा लग रहा है कि जैसे कि गोली खाकर आये हो। अरे, यार घी खाया है तो अब मत खाना! ऐसा कोई धी नहीं है जो गोली या बम की तरह एक साथ चित कर दे।’

कविराज ने कहा-‘पर आदमी टीन लेकर रखेगा तो यह जहर धीरे धीरे अपने पेट में जाकर अपना काम तो करेगा न! गोली या बम की मार तो दिखती है पर इसकी कौन देखता है। यह जहर कितनों को मार रहा है कौन देख रहा है? सच तो यह है कि मुझे इसका भी आतंक कम दिखाई नहीं देता। यार उस दिन एक मित्र बता रहा था कि हर खाने वाली चीज की डुप्लीकेट बन सकती है। तब से लेकर मैं तो आतंकित रहता हूं। जो चीज भी खाता हूं उसके डुप्लीकेट होने का डर लगता है।’

आलोचक महाराज ने कहा-‘तो क्या डर का इलाज कराने आये हो?’
कविराज ने कहा -‘‘नहीं डाक्टर से ऐसी गोली लिखवाने आया हूं जो रोज ऐसा जहर निकाल सके। जिंदा रहने के लिये खाना तो जरूरी है पर असली या नकली है इसका पता लगता नहीं है इसलिये कोई ऐसी गोली मिल जाये तो कुछ सहारा हो जायेगा। गोली से भले ही रोज का जहर नहीं निकले पर अपने को तसल्ली तो हो जायेगी कि हमने गोली ली है कुछ नहीं होगा। नकली खाने के आतंक में तो नहीं जिंदा रहना पड़ेगा।

दोनों की बात उनका डाक्टर मित्र सुन रहा था और वह बाहर आया और कविराज से बोला-‘इस नकली खाने के आतंक से बचने का कोई इलाज नहीं है। वह जो बीमारियां पैदा करता है उनका इलाज तो संभव है पर उसके आतंक से बचने का कोई इलाज नहीं है। वह तो जब बीमारी सामने आये तभी मेरे पास आना।’

कविराज का मूंह उतर गया। वह बोले-ठीक है यार, कम से कम यह तसल्ली तो हो गयी कि ऐसी कोई गोली नहीं है जो नकली खाने के आतंक का इलाज कर सके। तसल्ली हो गयी वरना सोचा कि कहीं हम पीछे न रह जायें इसलिये चला आया।’

कविराज वापस जाने लगे तो आलोचक महाराज ने कहा-‘इस पर कोई कविता मत लिख देना क्योंकि मैं तब लिख दूंगा कि तुम कितने डरपोक हो। कितनी बेतुकी बात की है‘नकली खाने का आतंक’। कहीं लिख मत देना वरना लोग हंसेंगे और मैं तो तुम्हें अपना दोसत कहना ही बंद कर दूंगा। मेरी सलाह है कि तुम टीवी कम देखा करो क्योंकि तुम अब आतंक के कई चेहरे बना डालोगे जैसे चैनल वाले रोज बनाते हैं।’
कविराज ने कहा-‘‘यार, मैं तो नकली खाने के आतंक ने इतना डरा दिया है कि इस पर कविता लिखने के नाम से ही मेरे होश फाख्ता हो जाते हैं।
……………………………………..
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

दिवाली की मिठाई के बारे में लोगों को बताएंगे-हास्य कवित


दीपावली मेले में दुकान से
घर सजाने के लिये मिट्टी के बने
कुछ खिलौने खरीदने पर
उनका मिठाई का ध्यान आया तो बोले
‘भईया, तुम्हारे मिट्टी के फल तो
असली लगते हैं
हम इसे अपने ड्रांइग रूम में सजायेंगे
ऐसे ही मिठाई के भी दिखाओ
आजकल विषैले खोये की वजह
से मिठाई खरीदने की हिम्मत नहीं होती
अगर मिल जायें मिठाई के खिलौने तो बहुत अच्छा
उसे भी इनके साथ सजायेंगे
हमने भी दीपावली पर जमकर
मिठाई खाई लोगों को बतायेंगे

यह हिंदी कहानी/आलेख/शायरी मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’ पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

अमीरी का यहां बसेरा बसाया-लघुकथा


एक धनी परिवार के लोगों ने अपने मुखिया की स्मृति में कार्यक्रम आयोजन करना चाहते थे। आमंत्रण पर कविता छपवानेे के लिये उन्होंने एक हास्य कवि से संपर्क किया और उसे अपने मुखिया के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए एक कविता लिखने का आग्रह किया। बदले में कार्यक्रम के दौरानं उसको सम्मानित करने का लोभ भी दिया। वह कवि तैयार हो गया। उसने कविता लिखी और देने पहुंच गया। उस कविता मे कुछ इस तरह भी था।

पहले उन्होंने गरीबों के पुराने
घरों के येनकेन प्रकरेण हथियाया
जो नहीं हट रहे थे उनको
अपनी ताकत से हटवाया
अपना निजी बुलडोजर चलाया
जमकर बरपाया कहर
पर लगन से किसी भी तरह
अपनी कल्पानाओं का नया शहर बसाया
इतने महान थे वह कि
एक गरीब जो अपने मकान से
निकलने के बाद बीमारी में मर गया
उसके नाम पर नये शहर का
नामकरण करवाया
शहर के लिये देखा था जो सपना
उन्होंने पूरा कर दिखाया

उसकी कविता पढ़कर परिवार वाले हास्य कवि पर बहुत बिफरे और उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया। जब उसके प्रतिद्वंद्वी कवि को यह पता लगी तो उनके पास अपनी कविता बेचने को पहुंच गया। उसने जो कविता लिखी उसमे कुछ सामग्री इस तरह थी।

शहर से गरीबी हटाने का
उनका एक ख्वाब था
जो उन्होंने पूरा कर बताया
कैसे अपनी सोच को जमीन पर
लायें यह उन्होंने बताया
कभी यहां फटेहाल और कंगाल लोगों की
बस्ती हुआ करती थी
चारों तरफ गंदगी और बीमारी
बसेरा करती थी
उस पर जो डाली उन्होंने अपनी तीक्ष्ण दृष्टि
सब साफ हो गयी
उनके तेज का यह परिणाम था कि
गरीबी की रेखा यहां आफ हो गयी
आज खड़े हैं यहां महल और कारखाने
पेड़ पौधो के थे यहां कभी जमाने
आज पत्थरों और ईंट के बुत खड़े हैं
उनके विकास की धारा का परिणाम है
अब यहां आदमी नहीं मिलता
लोग देते हैं घर के नौकरों के लिये विज्ञापन
देखो अब यहां कितना काम है
उन्होंने इस तरह गरीबी को भगाकर
अमीरी का यहां बसेरा बसाया

उसकी कविता से उस धनी परिवार के सदस्य प्रसन्न हो गये और उसे स्मृति कार्यक्रम में सर्वश्रेष्ठ कवि का सम्मान दिया।
………………………

यह पाठ/कविता इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

गीत संगीत की महफिल की बजाय महायुद्ध सजाते-हास्य कविता


गीत और संगीत से
दिल मिल जाते हैं पर
अब तो उसकी परख के लिये
प्रतियोगितायें को अब वह
महायुद्ध कहकर जमकर प्रचार कराते
वाद्ययंत्र हथियारों की तरह सजाये जाते
जिन सुरों से खिलना चाहिये मन
उससे हमले कराये जाते
मद्धिम संगीत और गीत से
तन्मय होने की चाहत है जिनके ख्याल में
उन पर शोर के बादल बरसाये जाते

कहें महाकवि दीपक बापू
‘अब गीत और संगीत
में लयताल कहां ढूंढे
बाजार में तो ताल ठोंककर बजाये जाते
महफिलें तो बस नाम है
श्रोता तो वहां भाड़े के सैनिक की
तरह सजाये जाते
जो हर लय पर तालियों का शोर मचाते
देखने वाले भी कान बंद कर
आंखों से देखने की बजाय
उससे लेते हैं सुनने का काम
गायकों को सैनिक की तरह लड़ते देख
फिल्म का आनंद उठाये जाते
किसे समझायें कि
भक्ति हो या संगीत
एकांत में ही देते हैं आनंद
शोर में तो अपने लिये ही
जुटाते हैं तनाव
जिनसे बचने के लिये संगीत का जन्म हुआ
क्या उठाओगे गीत और संगीत का आंनद
जैसे हम उठाते
लगाकर रेडियो पर विविध भारती पर
अपनी अंतर्जाल की पत्रिका पर लिखते जाते
यारों, संगीत सुनने की शय है देखने की नहीं
गीत वह जिसके शब्द दिल को भाते हैं
सुरों के महायुद्ध में जीत हार होते ही
सब कुछ खत्म हो जाता है
पर तन्हाई में लेते जब आनंद तब
वह दिल में बस जाते
बाजार में दिल के मजे नहीं बिकते
अकेले में ही उसके सुर पैदा किये जाते
……………………………

दीपक भारतदीप

मौसम पर कविता नहीं लिखेंगे-हास्य कविता


आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू, गर्मी में हो रही बरसात
जहां रुलाता पसीना, वहां करती बहार अपनी बात
लिखो कोई जोरदार कविता
बहने लगे श्रृंगार रस की सरिता
शायद तुम्हारे नाम से फ्लाप का लेबल हट जाये
हिट होकर तुम्हारा नाम आकाश पर चमक जाये
कोई कुछ भी कहे तुम करो
अपनी पत्रिका पर मौसम पर कविता की बरसात’

जाने को तैयार खड़े थे
बांध रहे थे धोती
सिर पर रख रहे टोपी
सुनकर पहले देखा फंदेबाज को घूरकर
फिर कहैं दीपक बापू
‘दो दिन पहले गर्मी पर
लिखने को कह रहे थे हास्य कविता
अब प्रवाहित करवाना चाहते हो
श्रृंगार रस की सरिता
बहुत लिख चुके तुम्हारे विषयों पर
नहीं बनी हमारी पत्रिका के हिट होने की बात
मौसम का कोई भरोसा नहीं
सर्दी के मौसम में सुबह लिख रहे थे
कंपाकंपाते हुए उस पर गर्म कविता
दोपहर तक निकलने लगा गर्मी में पसीना
गर्मी में लिखने बैठते हैं शाम को
रात तक पानी बरसता है बनकर नगीना
हवा बंद पर लिखने बैठते हैं तो
आंधी चली आती है
मौसम का कोई भरोसा नहीं
यह अंतर्जाल है मेरे मित्र
सारी दुनियां में एक जैसा मौसम नहीं रहता
कहीं कोई बहार में नहाता
तो कोई धूप में गर्मी में सहता
अब पहले जैसा माहौल नहीं है
जो लिखेंगे यहीं पढ़ा जायेगा
अब तो लिखो अपने शहर में
वह विदेश में भी दिखने में आयेगा
इसलिये समझ में नहीं आती
मौसम पर लिखकर हिट होने की बात
यहां हमेशा ही होने लगी है
बेमौसम गर्मी, सर्दी, और बरसात
हमें नहीं जमी तुम्हारी मौसम पर
हास्य कविता लिखने की बात
…………………………….

होली के दिन सबका चरित्र बदल जाता है-हास्य कविता


घर से नेकर और कैप पहनकर
निकले घर से बाहर निकले लेने किराने का सामान
तो सामने से आता दिखा फंदेबाज
और बिना देख आगे बढ़ गया किया नही मान
तब चिल्ला कर आवाज दी उसे
”क्यों आँखें बंद कर जा रहे हो
अभी तो दोपहर है
बिना हमें देखे चले जा रहे हो
क्या अभी से ही लगा ली है
या लुट गया है सामान’

देखकर चौंका फंदेबाज
”आ तो तुम्हारे घर ही रहा हूँ
यह देखने कल कहीं भाग तो नहीं जाओगे
वैसे पता है तुम अपने ब्लोग पर
कल भी कहर बरपाओगे
पर यह क्या होली का हुलिया है
कहाँ है धोती और टोपी
पहन ली नेकर और यह अंग्रेजी टोपी
वैसे बात करते हो संस्कृति और संस्कार की
पर भूल गए एक ही दिन में सम्मान”

हंसकर बोले दीपक बापू
”होली के दिन सभी लोगों का
चरित्र बदल जाता है
समझदार आदमी भी बदतमीजी पर उतर आता है
बचपन में देखा है किस तरह
कांटे से लोगों की टोपी उडाई जाती थी
और धोती फंसाई जाती थी
तब से ही तय किया एक दिन
अंग्रेज बन जायेंगे
किसी तरह अपना बचाएंगे सम्मान
वैसे भी पहनने और ओढ़ने से
संस्कार और संस्कृति का कोई संबंध नहीं
मजाक और बदतमीजी में अंतर होता है
हम धोती पहने या नेकर
देशी पहने या विदेशी टोपी
लिखेंगे तो हास्य कविता
बढाएंगे हिन्दी का सम्मान
——————————–

संत कबीर वाणी:जैसा भोजन और पानी वैसा मन और वाणी


आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक
कहैं कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक

संत कबीर जी का कहना है की गाली आते हुए एक होती है, परन्तु उसके प्रत्युत्तर में जब दूसरा भी गाली देता है, तो वह एक की अनेक रूप होती जातीं हैं। अगर कोई गाली देता है तो उसे सह जाओ क्योंकि अगर पलट कर गाली दोगे तो झगडा बढ़ता जायेगा-और गाली पर गाली से उसकी संख्या बढ़ती जायेगी।

जैसा भोजन खाईये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिए, तैसी बानी होय

संत कबीर कहते हैं जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है उसका जीवन वैसा ही बन जाता है।

एक राम को जानि करि, दूजा देह बहाय
तीरथ व्रत जप तप नहिं, सतगुरु चरण समाय

कबीर कहते हैं की जो सबके भीतर रमा हुआ एक राम है, उसे जानकर दूसरों को भुला दो, अन्य सब भ्रम है। तीर्थ-व्रत-जप-तप आदि सब झंझटों से मुक्त हो जाओ और सद्गुरु-स्वामी के श्रीचरणों में ध्यान लगाए रखो। उनकी सेवा और भक्ति करो

रहीम के दोहे:कलारी वाले के हाथ में दूध भी मदिरा लगता है


रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि
दूध कलारी कर गाहे, मद समुझै सब ताहि

कविवर रहीम का कथन है कि नीच व्यक्ति के संपर्क में रहने से सबको कलंक ही लगता है। मद्य बेचने वाले व्यक्ति के हाथ में दूध होने पर भी लोग उसे मदिरा ही समझते हैं।

रहिमन निज संपत्ति बिना, कोउ न विपति सहाय
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय

कविवर रहीम कहते हैं कि अपने धन के अतिरिक्त आपत्ति आने पर अन्य कोई सहायता नहीं करता जैसे बिना जल के कमल के मुरझाने पर सूर्य भी उसको जीवन प्रदान नहीं कर पाता।

अपने मुहँ से अपनी तारीफ़-हास्य व्यंग्य


अब दो फिल्म अभिनेताओं में झगडा शुरू हो गया है कि वह नंबर वन हैं। आज जब मैंने यह खबर एक टीवी चैनल पर सुनी तो मुझे हैरानी नहीं हुई क्योंकि हमारे बुजुर्ग कहते रहे हैं कि चूहे को मिली हल्दी की गाँठ तो गाने लगा कि ”मैं भी पंसारी, मैं भी पंसारी”। ऐसा भाव आदमी में स्वाभाविक रूप से होता भी है थोडा बहुत नाच-गा लेता है या लिख लेता तो उसके दिमाग में नंबर वन का कीडा कुलबुलाने लगता है। थोडे ठुमके लगा लिए और कुछ इधर-उधर टीप कर लिख लिया। और फिर सोचने लगता है कि अब कोई कहेगा कि अब तुम नंबर वन हो। जब कोई नहीं कहता तो खुद ही कहने लगता है कि ‘मैं नंबर वन हूँ’। उसकी बात कोई न सुने तो वह और अधिक चीखने और चिल्लाने लगता है कि जैसे कि उसका मानसिक संतुलन गड़बड़ होता दिखता है।

कम से कम इस मामले में मैं बहुत भाग्यशाली हूँ कि खराब लेखनी की वजह से मेरे अन्दर एक कुंठा हमेशा के लिए भर गयी कि लिखने के मामले में मुझे कहीं भी नंबर नहीं मिलेगा। निबंध लिखता था तो टीचर कहते थे तुम्हारी राईटिंग खराब है इसलिए नंबर कम मिलेंगे पर पास होने लायक जरूर मिलेंगे क्योंकि लिखा अच्छा है। इस कुंठा को साथ लेकर साथ चले तो फिर नंबर वन की कभी चिंता नहीं की। अंतर्जाल पर लिखते समय यह तो मालुम था कि कोई नंबर वन का शिखर हमारे लिए नहीं है इसलिए अपने शिखर को साथ लेकर उतरे और वह था सतत संघर्ष की भावना और आत्मविश्वास जिसके बारे में हमारे गुरु ने कह दिया कि वह तुम में खूब है और कहीं अगर किसी क्षेत्र में कोई नंबर वन का शिखर खाली हुआ तो तुम जरूर पहुंचोगे। हम उनकी बात सुनकर खुश हुए पर आगे उन्होने कहा पर इसकी आशा मत करना क्योंकि इसके लिए तुम्हें विदेश जाना होगा भारत में तो इसके लिए सभी जगह सिर-फुटटोबल होती मिलेंगी। इस देश में लोग हर जगह नंबर वन के लड़ते मिलेंगे और तुम यह काम नहीं करो पाओगे।

हमने देखा तो बिलकुल सही लगा। घर-परिवार, मोहल्ला-कालोनी, नाटक–फिल्म और गीत-संगीत, साहित्य और व्यापार में सब जगह जोरदार द्वंद्व नजर आता है। हम भी कई जगह सक्रिय हैं और जब लोगों को नंबर वन के लिए लड़ते देखते हैं तो हँसते हैं। एक बात मजे की है कि कोई हमें नंबर वन के लिए आफर भी नहीं करता और हमें भी अफ़सोस भी नहीं होता। एक बार एक संस्था के अध्यक्ष पद पर भाई लोगों ने खडा कर दिया और मैंने अन्तिम समय में अपना नाम वापस ले लिया, क्योंकि मुझे लगा कि पूरे साल मैं अपनी आजादी खो बैठूंगा पर कार्यकारिणी के सदस्य पर लड़ा और जीता। सात सौ सदस्यों वाली उस समिति में सात कार्यकारिणी सदस्यों में नंबर वन पर आया। तब मुझे हैरानी हुई पर यह सम्मान मुझे अपने लेखक होने के प्रताप से मिला था और फिर आगे कई संस्थाओं से जुडे होने के बावजूद मैंने कहीं चुनाव नहीं लड़ा क्योंकि अगर मुझे अपने लिखे से ही लोगों का प्यार मिलना है तो मुझे कुछ और क्या करने की जरूरत है।

हिन्दी फिल्मों में अभिनेता करोडों रुपये कमा रहे हैं पर उनका मन भटकता हैं नंबर वन के लिए। उसका आधार क्या है? फिल्मी समीक्षक फिल्म के परिश्रम को मानते हैं। आजादी देते समय अंग्रेज जाते समय हमारे अक्ल भी ले गए और हम सारे आधार पैसे के अनुसार ही करते हैं। आजकल क्रिकेट के व्यापार में उतरे फिल्मी हीरो और चाकलेटी हीरो में नंबर वन का मुकाबला प्रचार माध्यम चला रहे हैं एक हीरों खुद ही दावा कर दिया कि वह नम्बर वन हैं। सच कहूं तो आजकल प्रचार माध्यम में कुंठित लोगों का जमावडा है और उनको खुद पता नहीं क्या कह रहे हैं? किसी समय मिथुन चक्रवर्ती को गरीबों का अमिताभ बच्चन कहा जाता था और इसलिए उनको नंबर वन फिर भी किसी ने नहीं कहा क्योंकि उनका पारिश्रमिक अमिताभ बच्चन जितना नहीं था।मैं अमिताभ बच्चन का कभी प्रशंसक नहीं रहा पर आज मैं मानता हूँ अपने दूसरी पारी में अमिताभ एक नंबर से नौ नंबर तक हैं और दसवें पर कोई है तो अक्षय कुमार। बाकी जो खुद को नंबर वन के लिए प्रोजेक्ट कर रहे हैं या मीडिया प्रचार कर रहा हैं वह किसी अन्य व्यवसायिक कारणों से कर रहे हैं।
जिनकी मुझे आलोचना करनी होती है मैं उनके नाम नहीं देता क्योंकि उसे इस बहाने व्यर्थ प्रचार देना है और जिनकी मुझे प्रशंसा करनी होती है उनका नाम लेने में मुझे कोई हिचक नहीं होती। अक्सर मेरी हर वर्ग और आयु के लोगों से चर्चा होती है और उनसे मुझे बात कर यही लगता है कि कुछ लोगों को मीडिया जबरन लोगों पर थोप रहा है। अगर अभिनय की बात करें तो ओमपुरी और नसीरुद्दीन शाह, सदाशिव अमरापुरकर और अमरीशपुरी जैसे अभिनेताओं को तो फिल्म समीक्षकों और प्रचार माध्यमों द्वारा कभी गिना ही नहीं जाता जबकि लोग आज भी इनके कायल हैं। वैसे भी अमिताभ बच्चन अभी सक्रिय है और नंबर वन का सिंहासन अभी उनके नाम है और उनके बाद अक्षय कुमार की छवि लोगों में अच्छी है।
अगर इस लेख को लिखते हुए हमें अपनी प्रशंसा कर डाली हो तो अनदेखा कर दें आखिर जब इस बीमारी सब ग्रस्त हैं तो हम कैसे बच सकते हैं. हमें कोई नहीं कह रहा कि तुन नबर वन ब्लोगर है इसलिए कभी ऐसा दावा करें तो मजाक समझना. माफी वगैरह तो हम मांगेंगे नहीं फिर व्यंग्य कैसे लिखेंगे.

प्रभावपूर्ण दस्तक देते हैं सागरचंद नाहर-समीक्षा


अंतर्जाल पर बहुत लोग लिख रहे हैं और हर किसी को ब्लोग के बारे इस्तेमाल की पूरी जानकारी हो यह कोई जरूरी नहीं है और जिनको पूरी हो गयी है तो लिख कर व्यक्त नहीं करते. हालत यह है जिन ब्लॉगस्पोट और वर्डप्रेस ब्लोगों का पूरा इस्तेमाल भी कुछ लोग-जिनमें मैं स्वयं भी शामिल-नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में एक शख्सियत हैं सागर चंद नाहर जो निर्बाध गति से अपना ज्ञान दूसरे लोगों को अपने ब्लॉग दस्तक पर बाँट रहे हैं. जब मैं अपने को अंतर्जाल पर लिखते देखता हूं तो यह कभी नहीं भूलता कि किस तरह कमेंट देकर उन्होने मुझे प्रेरित किया, तब मैं सादा हिन्दी फ़ॉन्ट में लिख रहा था और मेरा लिखा कोई पढ़ नहीं पा रहा था. उस समय वह मेरे ब्लॉग पर आए और अपना संदेश छोड़ गये. उसके बाद मैं महीने भर तक अकेले ही अपने ब्लोग यूनीकोड में लिखकर विचरता रहा था तो फिर आए और संदेश छोडा कि नारद पर आओ. हमें तो केवल लिखने का नशा है पर उनको इसके साथ दूसरों को भी प्रेरित करने का भाव हो नाहर जी में है वह बहुत कम लोगोंमें दिखता है.

जो भी नया ब्लॉग नारद पर आया उसे सबसे पहले कमेन्ट देकर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने का काम उन्होने किया है. मैं हमेशा उसे ही अच्छा ब्लोग लेखक मानता हूँ जो प्रभावपूर्ण लिखने के साथ दूसरों को भी प्रेरित करता है और मेरे हिसाब से इस समय नाहर जी के अलावा मैं यह गुण अन्य किसी में नहीं देखता .

आईए उनके लिखे पर चर्चा करें. तमाम तरह के तकनीकी ज्ञान को लेकर तमाम ब्लॉगर दावे करते रहे हैं पर अपने ब्लोग पर ही मौजूद सुविधाओं का इस्तेमाल किस तरह किया जाये यह जानकारी मुझे केवल सागरचंद नाहर के ब्लोग से ही मिलती है.देखा जाए तो हमारे ब्लॉग पर जो सुविधाएँ उपलब्ध हैं उनके लिए बाहर से किसी सॉफ्टवेअर की मुझे कभी ज़रूरत नहीं लगती. इन्हीं ब्लोग का अधिक से अधिक उपयोग कैसे किया जाए यह सीखना भर है-हमें यह जानकारी अक्सर दस्तक पर मिल जाती है . अभी सागर चंद नाहर जी ने अपने ब्लॉग पर ही मौजूद सुविधा ब्लोगरोल के व्यापक इस्तेमाल के बारे में लिखा था. इसका इस्तेमाल तो मैं बहुत समय से कर रहा हूँ पर कई लोगों को शायद इससे पता लगा होगा. आपने पिछले दिनों यह सुना होगा की ”अपने चिट्ठे पसंद कर लो और पढ़ो”. जिन ब्लॉगरों ने सागरचंद नाहर का वह लेख पढ़ा होगा वह हंसते होंगे. हमारे ब्लॉग पर ही यह सुविधा है कि आपको जो ब्लॉग पसंद है उस अपने ब्लॉग पर ही लिंक दे और स्वयं पढ़ें और अपने पाठकों को भी पढ़वाएं. चाहे कितने भी चिट्ठे अपने ब्लॉग पर लिंक कर सकते हैं. इसके लिए किसी का मोहताज होने की ज़रूरत नहीं है.

अभी कुछ दिनों पहले ही उन्होने वर्डप्रेस के widgest के इस्तेमाल की जानकारी दी. इसके अलावा वर्ड प्रेस में अपनी पोस्ट पर ही post slug में भी अपना शीर्षक डालने की जानकारी दी और वह मेरे काम आई. आज अब मेरे वर्डप्रेस के ब्लॉग को देखेंगे तो उनके वर्तमान स्वरूप का श्रेय सागरचंद नाहर को ही देता हूँ. इसके अलावा अपनी पोस्ट पर शब्दों का चयन कर उनको विशिष्ट रूप से कैसे दिखाएँ यह भी उन्होने बताया. इतना ही नहीं वह ब्लॉगस्पोट के ब्लॉग के बारे में भी लिखते हैं. मैं मानता हूँ कि अगर आप ब्लॉग को निरंतर लिख रहे हैं और उसमें सुधार करना चाहते हैं तो सागर चंद नहर की दस्तक पर ध्यान देते र्हें, ऐसी जानकारी देने वाला और कोई मुझे तो नहीं दिखा.

वह बहुत सरल स्वभाव के हैं. यह मैं जानता हूँ क्योंकि पिछले वर्ष की कुछ ऐसी पोस्टें जो ब्लॉग जगत में अभद्र व्यवहार पर प्रतिवाद प्रकट करतीं थी उस पर वह कमेंट देते थे और कहते थे आप ऐसा लिखते रहें. कुछ लोगों ने उनकी सादगी को कमज़ोरी समझकर ऐसा कोई व्यवहार उसने किया होगा जो अशोभनीय होगा या वह ऐसे माहौल से दुख होकर कहते होंगे -ऐसा मुझे लगता है. शांति से अपनी बात लिखकर दूसरों की प्रेरणा बनने वाले सागरचंद नाहर पर बहुत दिनों से लिखने का मन था. हिन्दी साहित्या में वही साहित्यकार पूर्ण माना जाता है जो समीक्षा लिख सकता है. मैने इससे पहले सत्येन्द्र श्रीवास्तव (भूख), परमजीत बाली (दिशाएं) और ममता श्री वास्तव (ममता टीवी) पर समीक्षाएं लिखीं थी. उसके बाद एक समीक्षा लिख रहा था तो वह पूरी होने से पहले ही इंडिक टूल पर पता नहीं कहाँ हाथ पड़ा और वह उड़ गया. यह पोस्ट भी मैं लिख चुका था एक माह पहले पर लाईट चली गयी तो इसे सेव कर रख लिया. आज जब वर्डप्रेस पर गया तो अचानक यह याद आई और मुझे अपने आप पर खुद आश्चर्य हुआ कि मैने इसे इतने दिन तक क्यों अपने पास रख छोडा . सागर चंद नाहर के बारे में बस इतना ही और कहना चाहूँगा कि वह ऐसा न समझें की उनका लिखा कोई महत्व नहीं रखता.यह समीक्षा लिखने का मतलब भी यही है की सब लोग समझें कि अन्य पाठक उनको पढ़ते हैं और उसका प्रभाव होता है.
हाँ मैं एक आग्रह उनसे करूंगा कि अगर वह एक ऐसी पोस्ट रखें जिसमें ब्लोग बनाने की पूरी विधि हो. वह यह मानकर लिखें कि ब्लोगर अनाडी हैं क्योंकि हमारा लिखा अन्य आम पाठक भी पढ़ते हैं जो हमें बता नहीं पाते और इस विधा की जानकारी उनको तभी हो सकती है जब कोई ब्लोगर उस पर लिखे. अगर मैं उनके बारे में कम या गलत लिख गया हूँ तो उनसे और उनके प्रशंसकों से और अधिक लिख गया हूँ तो उनके आलोचकों से क्षमा प्रार्थी हूँ. उनके उज्जवल भविष्य की कामना के साथ यह समीक्षात्मक आलेख उनको ही समर्पित.

इनके ब्लोग का पता है
http://nahar.wordpress.com
————————————- —————————————————-

कंप्यूटर के बाहर ब्लोगर नजरबंद


बिजली बंद तो पानी बंद
ब्लोग फिर भी चल रहा है
भले ही उसकी गति हो मंद
पर ब्लोगर खुद बैठा है
कंप्यूटर के बाहर नजरबंद
उसे इन्तजार है कब लाईट आये
तो वह अपने ब्लोग पर जाये
घड़ी चल रही है
पर ब्लोगर की सांस थम रही है
अक्ल काम कर रही है
पर सोच का सिलसिला है बंद
कलम हाथ में
कोरा कागज़ सामने है
पर लिखना फिर भी है बंद
ब्लोगर खुद ही किये बैठा अपनी नजर बंद
————————————-

समस्याएं वैसे भी कम नहीं है
पर बिजली फिर भी निभाती है
कुछ अल्फाज दिल से बाहर
निकल आते हैं
डैने बनकर ब्लोग को कबूतर
की तरह उडा ले जाते हैं
तसल्ली होती हैं कि
हमने भी एक कबूतर उडाया
सब शून्य में घिर जाता है
जब बिजली चली जाती है
————————————

चाणक्य नीति:मन शुद्ध हो तो प्रतिमा में भी भगवान्


1.शास्त्रों की संख्या अनन्त, ज्योतिष,आयुर्वेद तथा धनुर्वेद की विद्याओं की भी गणना भी नहीं की जा सकती है, इसके विपरीत मनुष्य का जीवन अल्प है और उस अल्पकाल के जीवन में रोग,शोक, कष्ट आदि अनेक प्रकार की बाधाएं उपस्थित होती रहती हैं। इस स्थिति में मनुष्य को शास्त्रों का सार ग्रहण करना चाहिए।
संपादकीय अभिमत-विश्व में अनेक प्रकार के ग्रंथ हैं और सबको पढ़ना और उनका ज्ञान धारण करना संभव नहीं है इसलिए सार अपनी दिमाग में रखना चाहिए. अनेक पुस्तकों में कहानियां और उदाहरण दिए जाते हैं पर उनके सन्देश का सार बहुत संक्षिप्त होता है और उसे ही ध्यान में रखान चाहिऐ

2.मन की शुद्ध भावना से यदि लकड़ी, पत्थर या किसी धातु से बनी मूर्ति की पूजा की जायेगी तो सब में व्याप्त परमात्मा वहां भी भक्त पर प्रसन्न होंगें। अगर भावना है तो जड़ वस्तु में भी भगवान का निवास होता है ।
3. सच्ची भावना से कोई भी कल्याणकारी काम किया जाये तो परमात्मा की कृपा से उसमें अवश्य सफलता मिलेगी। मनुष्य की भावना ही प्रतिमा को भगवान बनाती है। भावना का अभाव प्रतिमा को भी जड़ बना देता है।
संपादकीय अभिमत-यह सच है की प्रतिमा में भगवान् का अस्तित्व नही दिखता पर इस उसमें उसके होने की अनुभूति हमारे मन होती है. आदमी का मन ही उसका मूल है इसलिए उसे मनुष्य कहा जाता है. जब किसी प्रतिमा के सामने बहुत श्रद्धा से प्रणाम करते हैं तो कुछ देर इस दुनिया से विरक्त हो जाते हैं और हमारा ध्यान थोडी देर के लिए पवित्र भाव को प्राप्त होता है. यह बहुत महत्वपूर्ण होता है. हाँ, इसके लिए हमें मन में शुद्ध भावना को स्थापित करना पडेगा तभी हम प्रसन्नता प्राप्त कर सकते हैं.

4.इस क्षण-भंगुर संसार में धन-वैभव का आना-जाना सदैव लगा रहेगा। लक्ष्मी चंचल स्वभाव की है। घर-परिवार भी नश्वर है। बाल्यकाल, युवावस्था और बुढ़ापा भी आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी मनुष्य उन्हें सदा ही उन्हें अपने बन्धन में नहीं बाँध सकता। इस अस्थिर संसार में केवल धर्म ही अपना है। धर्म का नियम ही शाश्वत है और उसकी रक्षा करना ही सच्चा कर्तव्य है।
5.जिस प्रकार सोने की चार विधियों-घिसना, काटना, तपाना तथा पीटने-से जांच की जाती है, उसी प्रकार मनुष्य की श्रेष्ठता की जांच भी चार विधियों-त्यागवृति, शील, गुण तथा सतकर्मो -से की जाती है।

पानी पिलायें ऐसा नही अवसर


भाषण करते हुए वह बोले
”हम अब प्रगति के पथ पर
अग्रसर हैं
सारी दुनिया हमारी प्रशंसक है
हमारे शेयर बाजार का आंकडा
अब दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है
विकास डर आसमान छू रही है
हमारे लिए अब आगे बढ़ने का अवसर है

भाषण के बाद आए मिलने लोग
उनसे अपने-अपने इलाके की
बिजली, पानी और सड़कों की
खस्ता हालत के मुद्दे उठाने लगे
तो वह बोले
‘इस समय देश विकास कर रहा है
और तुम अभी भी वहीं अटके हो
अपने रास्ते से भटके हो
हम तरक्की करते हुए
अन्तरिक्ष की तरह बढे हैं
और तुम लोग अभी भी
सड़क, बिजली और पानी पर अटके हो
भला अब यह भी ऐसी बातों का अवसर है’

उनके डर के मारे सब खामोश रहे
फ़िर बोले
‘बहुत बोल लिया अब तो
मुझे पिलाने के लिए पानी लाओ
मुझे फ़िर आगे जाकर बोलना है
मेरी तो बस विकास पर नजर है’

वहाँ कोई पानी नहीं लाया
तो चीखने लगे तब एक आदमी ने कहा
‘यहाँ पानी बिजली कुछ नही है
आपका भाषण सुनने के लिए नहीं
हम अपनी व्यथा कहने आए थे
पानी की बोतलें अपने साथ लाये थे
सब पी गए आपकी बात सुनते हुए
जो बचा है वह इस ऊबड़ खाबड़
सड़क पर चलते हुए पीते जायेंगे
हम तो पहुचेंगे गिरते -पड़ते अपने घर
आप तो हेलिकॉप्टर में उड़ जायेंगे
आकाश में पानी पी लीजिये
आपकी है तो विकास पर नजर
पर हमारी तो है घर पर नजर
इन बोतलों में बंद पानी ही
अब हमारे रास्ते का सहारा है
आपके भाषण से हम बहुत खुश
पर पानी पिलायें ऐसा नहीं अवसर

चाणक्य नीति:बुद्धिमान अपने आहार की चिंता नहीं करते


१.बुद्धिमान पुरुष को आहार जुटाने के चिंता नहीं करना चाहिए, उसे तो केवल अपने धर्म और अनुष्ठान में लगना चाहिए क्योंकि उसका आहार तो उसके मनुष्य जन्म लेते ही उत्पन्न हो जाता है.

अभिप्राय-इसका अभिप्राय यह है कि परमपिता परमात्मा ने जिसे जन्म दिया है उसके लिए आहार का इंतजाम तो उसके भाग्य में लिख दिया है, कहा भी जाता है कि दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम. आदमी में यह अहंकार रहता है कि में खुद अर्जित कर रहा हूँ जबकि वह तो उसके भाग्य में लिखा है.

लोगों से जब कहा जाता है कि ‘भाई,. धर्म कर्म और भगवान् की भक्ति कर लो.’ तो वह कहते हैं कि समय ही कहाँ मिल पाता. परिवार के लिए रोटी कमाने से फुरसत ही कहाँ है?

ऐसा कहकर अपने को धोखा देते हैं. यहाँ कोई किसी को नहीं पाल सकता. सब अपने लिए नियत भाग्य का खा रहे हैं. आपने देखा होगा कि कोइ व्यक्ति जब मार जाता है तो उसके पीछे कोई और मरने नहीं जाता कि अब तो अमुक मर गया है और अब में कहाँ से रोटी खाऊंगा. अब जिंदा लोग यह खुशफहमी पालें के में किसी को भोजन और वस्त्र और अन्य वस्तुएं उपलब्ध करा रहा हूँ तो उसे भ्रमित नहीं तो क्या कहा जायेगा. यह भ्रम नहीं तो और क्या है कि लोग अपना पूरा जीवन अपने जिस परिवार को अर्पित करते हुए धर्म-कर्म और अनुष्टान से दूर रहकर गुजार देते हैं और वह उनके बाद भी यथावत चलता है.

हवा और पानी को शुद्ध नहीं कर सकते


जिन रास्तों पर चलते हुए
कई बरस बीत गये
पता ही नही लगा कि
कैसे उनके रूप बदलते गए
जहाँ कभी छायादार पेड़ हुआ करते थे
वहाँ लहराता है सिगरेट का धुआं
जहाँ रखीं थीं गुम्टियाँ
वहाँ ऊंची इमारतों के
पाँव जमते गए
जहाँ हुआ करता था उद्यान
वहाँ कचरे के ढेर बढ़ते गये
कहते हैं दुनिया में तरक्की हो रही है
सच यह है कि पतन की तरफ
हम कदम-दर कदम बढ़ते गए
हवा में लटकी
खातों में अटकी
गरीब से दूर भटकी
दौलत अगर तरक्की का प्रतीक है तो
सोचना होगा कि हम पढे-लिखे हैं कि
किताब पढ़ने वाले अनपढ़ बन गए
आंकडों के मायाजाल में
कितनी भी तरक्की दिखा लो
हवाओं को तुम ताजा नहीं कर सकते
पानी को साफ नहीं कर सकते
इलाज के लिए कितनी भी दवाएं बना लो
मरे हुए को जिंदा नही कर सकते
आकाश में खडे होकर तरक्की की
सोचने वाले जमीन के दुश्मन बन गए

चाणक्य नीति:संतान को शिक्षा न देने वाले माता-पिता शत्रु के समान


१.इस संसार में कुछ प्राणियों के किसी विशेष अंग में विष होता है-जैसे सर्प के दांतों में मक्खी के मस्तिष्क में और बिच्छू की पुँछ में-पर इन सबसे अलग दुर्जन और कपटी मनुष्य के हर अंग में विष होता है. उसके मन में विद्वेष,वाणी में कटुता और कर्म में नीचता का व्यवहार जहर बुझे तीर की तरह दूसरे को त्रास देते हैं.

२.जो माता-पिता अपने पुत्र को शिक्षित नहीं करते वह उसके शत्रु के समान हैं.
संपादकीय अभिव्यक्ति-चाणक्य के काल में पूरा समाज स्त्री को घरेलू शिक्षा तक ही सीमित था पर आज के आधुनिक समाज में यह कथन पुत्री की शिक्षा पर भी लागू होता है.

३.हर मनुष्य को सभी विधाओं में निपुण होना चाहिऐ. बडे लोगों से विनम्रता, विद्वानों से श्रेष्ठ और मधुर ढंग से वार्तालाप का तरीक सीखना चाहिए. जुआरियों से झूठ बोलना और कुशल स्त्रियों से चालाकी का गुण सीखना चाहिए.
४.मनुष्य को ऐसे कर्म करना जिससे उसकी कीर्ति सब और फैले. विद्या, दान, तपस्या, सत्य भाषण और धनोपार्जन के उचित तरीकों से कीर्ति दसों दिशाओं में फैलती है.

५.अपना जीवन शांतिपूर्वक बिताने के लिए हर मनुष्य को धर्म-कर्म का अनुष्ठान करते रहना चाहिऐ. वह घर मुर्दाघर के समान हैं जहाँ धर्म-कर्म या यज्ञ-हवन नहीं होता. जहाँ वेद शास्त्रों का उच्चारण नहीं होता, विद्वानों का सम्मान नहीं होता और यज्ञ-हवन से देवताओं का पूजन नहीं होता ऐसे घर, घर न रहकर शमशान के समान होता है.

विकास यानि वाहनों की चौडाई बढना सड़क की कम होना


बहुत समय से देश के विकास होने के प्रचार का मैं टीवी चैनलों और अख़बारों में सुनता आ रहा हूँ. तमाम तरह के आंकडे भी दिए जाते हैं पर जब मैं रास्तों से उन रास्तों से गुजरता हूँ-जहाँ चलते हुए वर्षों हो गयी है-तो उनकी हालत देखकर यह ख्याल आता है कि आखिर वह विकास हुआ कहाँ है. अगर इसे विकास कहते हैं तो वह इंसान के लिए बहुत तकलीफ देह होने वाला है.

पेट्रोल, धुएं और रेत से पटे पड़े रास्ते राहगीरों की साँसों में जो विष घोल रहे हैं उससे अनेक बार तो सांस बंद करना पड़ती हैं कि यह थोडा आगे चलकर यह विष भरा धुआं और गंध कम हो तो फिर लें. टेलीफोन, जल और सीवर की लाईने डालने और उनको सुधारने के लिए खुदाई हो जाती है पर सड़क को पहले वाली शक्ल-जो पहले भी कम बुरी नहीं थी-फिर वैसी नहीं हो पाती. अपने टीवी चैनल और अखबार चीन के विकास की खबरें दिखाते हुए चमचमाती सड़कें और ऊंची-ऊंची गगनचुंबी इमारतें दिखा कर यह बताते हैं कि हम उससे बहुत पीछे हैं-पर यह मानते हैं कि अपने देश में विकास हो रहा है पर धीमी गति से. मैं जब वास्तविक धरातल पह देखता हूँ तो पानी और पैसे के लिए देश का बहुत बड़ा वर्ग अब भी जूझ रहा है. कमबख्त विकास कहीं तो नजर आये.

आज एक अखबार में पढ़ रहा था कि भारत में पुरुषों से मोबाइल अधिक महिलाओं के पास बहुत हैं. मोबाइल से औरतें अधिक लाभप्रद स्थिति में दिखतीं हैं क्योंकि अब किसी से बात करना है तो उसके घर जाने की जरूरत ही नहीं है मोबाइल पर ही बात कर ली, पर पुरुषों की समस्या यह है कि उनको अपने कार्यस्थल तक घर से सड़क मार्ग से ही जाना है और उनके लिए यह रास्ते कोई सरल नहीं रहे. साथ में मोबाइल लेकर उनके लिए चलना वैसे भी ठीक नहीं है. रास्ते में मोबाइल की घंटी मस्तिष्क में कितनी बाधा पहुचाती है यह मैं जानता हूँ. उस दिन बीच सड़क पर स्कूटर पर घंटी बजी और मेरे इर्द-गिर्द वाहनों की गति बहुत तेज थी कि एक तरफ रूकने के लिए मुझे समय लग गया. जब एक तरफ रुका तो जेब से मोबाइल निकाला तो देखा कि ‘विज्ञापन’ था. उस समय झल्लाहट हुई पर मैं क्या कर सकता था? फिर मैंने स्कूटर भी सड़क से ढलान से उतरकर ऐसी जगह रोका था जहाँ सड़क पर लाने के लिए शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन करना पडा.

आपने देखा होगा कि जो आंकडे विकास के रूप में दिए जाते हैं उनमें देशों में मोबाइल, कंप्यूटर और टीवी के उपभोक्ता की संख्या शामिल रहती है. अब विकास का अर्थ प्रति व्यक्ति की आय-व्यय की जगह धन की बर्बादी से है. यह नहीं देखते कि उनका उपयोग क्या है? मैं तो आज तक समझ नहीं पाया कि लोग मोबाइल पर इतनी लंबी बात करते क्या हैं. फालतू, एकदम फालतू? फिर तमाम ऍफ़ एम् रेडियो, और टीवी पर ऐसे सवाल करते है ( उस पर एस.एम्.एस करने के लिए कहा जाता है) जो एक दम साधारण होते हैं. लोग जानते हैं कि यह सब उनका धन खींचने के लिए किया जा रहा है पर अपने को रोक नहीं पाते क्योंकि उन्हें क्षेत्र, धर्म, और भाषा के नाम पर बौद्धिक रूप से गुलाम बना दिया गया है कि वह उससे मुक्त नहीं हो पाता.

अगर मुझसे पूछें तो विकास का मतलब है कि वाहनों की चौडाई बढना और सड़क की कम होना. जब भी कहीं जाम में फंसता हूँ तो मुझे नहीं लगता कि वह लोगों और उनके वाहनों की संख्या की वजह से है. दो सौ मीटर के दायरे में सौ लोग और पच्चीस वाहन भी नहीं होंगे पर जाम फिर भी लग जाता है. वहाँ कारें, ट्रेक्टर और मोटर साइकलों पर एक-एक व्यक्ति सवार हैं पर सड़क तंग है तो रास्ता जाम हो जाता है. सड़कें भी जो पहले चौड़ी थी वहाँ इस तरह निर्माण किये गए हैं कि पता नहीं कि कब यह हो गए. जहाँ पहले पेड़ थे वहाँ गुमटियाँ, ठेले और कहीं पक्के निर्माण हो गए हैं और सड़क छोटी हो गयी और वाहन जहाँ साइकिल और स्कूटर थे वहाँ आजकल कारों का झुंड हो गया है. यह विकास और उत्थान है तो फिर विनाश और पतन किसे कहते हैं यह मेरे लिए अभी भी एक पहेली है.

रूस और भारत की मैत्री में अब वह बात नहीं रही


भारत के नौसेनाध्यक्ष एडमिरल मेहता ने रक्षा सौदों मैं रूस की और से निरंतर बढ़ते विलंब और लागत से परेशान होकर कहा है कि रूस को अब भारत से संबंध पर पुनर्विचार करना चाहिए. अखबार मैं प्रकाशित समाचार के अनुसार नौसेना दिवस की पूर्व संध्या पर उन्होने कहा कि रूस वैसा नहीं रहा जैसा वह सोवियत संघ के विघटन से पहले था.

अगर हम पिछले कुछ वर्षों का घटनाक्रम देखें तो रूस के साथ जब हम अपने संबंधों पर विचार करते हैं तो हमारी स्मृति में सोवियत संघ के साथ भारत की तथाकथित मैत्री थी वही बनी रहती है. वास्तव में अब वह पहले वाले बात नहीं रही. वैसे जब उसके साथ भारत की घनिष्ठ मैत्री की बात होती थी तब भी भारत में विद्वानों का एक बहुत बड़ा वर्ग उसे अपना निस्वार्थी मित्र मानने से इन्कार कर देता था. रूस की मैत्री के रूप में सबसे बडा प्रमाण १९७१ में पाकिस्तान के साथ युद्ध में जब अमेरिका ने भारत के खिलाफ सातवाँ बेडा भेजने की धमकी दी तब रूस ने भी कार्यवाही की धमकी दी और अमेरिका इससे डर गया था.

इसके बारे में विद्वान लोग अपना अलग मत ही व्यक्त करते हैं. उनका कहना है कि उस समय अमेरिका इतना प्रबल नहीं था कि वह भारत से लंबी लड़ाई लड़ता. उस समय से पहले और अभी तक अमेरिका किसी दूसरे देश की तरफ से अकेले लड़ने नहीं गया और जब गया तो उसने मुहँ की खाई है. उसने किसी देश पर हमला किया है तो अपने हितों की खातिर उसे कमजोर जानते हुए और वह भी ब्रिटेन और फ्रांस जैसे अन्य ताक़तवर देशों को साथ लेकर किया है. उस समय अन्य पश्चिमी देशों का रवैया भारत के पक्ष में नहीं था तो केवल सोवियत संघ से मैत्री के कारण वह इस हद तक नहीं था कि वह अमेरिका की तरफ से लड़ने आते . कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि यह धमकी तब आयी थी जब युद्ध करीब-करीब समाप्ति की तरफ था. अगर उस दौर को छोड़ दिया जाये तो अमेरिका से भारत का कभी सीधा टकराव नहीं हुआ, और यही कारण है कि आज भी उसे मैत्री की वकालत करने वालों की संख्या अधिक है. भारत में वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्रों में अमेरिकी योगदान को काम कर आंकना सरल नहीं है.

पिछले दिनों से अमेरिका से भारत की बढ़ती मैत्री से रूस नाखुश है पर इस देश में यह सवाल उठाने वाले कई लोग हैं कि भारत को क्रायोजनिक इंजन अमेरिकी दबाव में न बेचने वाला रूस क्या भारत से ऐसा व्यवहार कर सकता है? जब भारत ने परमाणु विस्फोट किये तो अमेरिका ने भारत पर जो प्रतिबन्ध लगाए क्या रूस ने उनमें से किसी का उल्लंघन कर भारत की मदद की. रूस अब भारत से ऐसी अपेक्षाएं कर रहा है जिन पर वह खुद खरा नहीं उतरा. वह मदद की बात करता है पर १९६५ में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री शास्त्री जी को बुलाकर जो पाकिस्तान से समझौता करवाया उससे भारत को क्या मिला था? कहते हैं कि उन्होने अपनी इच्छा के विपरीत रूस के दबाव में समझौता किया था और वही पीडा वह झेल नहीं पाए और दिल के दौरे से निधन हो गया. इन बातों में कितनी सच्चाई है यह कोई नहीं जानता कुल मिलाकर कई राजनीतिक विशेषज्ञ रूस के निस्वार्थ मित्रता को एक ढोंग मानते है.

आथिक विशेषज्ञों ने तो कभी भी सोवियत संघ को भारत के लिए कभी उपयोगी नहीं माना. कहा जाता है जब उसके और भारत के रिश्ते बहुत अच्छे थे तब भी उसने भारतीय मुद्रा रूपये का कभी अंतर्राष्ट्रीय मूल्य स्वीकार न करते हुए अपने द्वारा तय मूल्य दिया. उसकी मुद्रा कभी भी विश्व में सम्मान नहीं पा सकी पर भारत ने उसका मूल्य अधिक दिया. कुल मिलाकर उसने मित्रता का दोहन किया और उसके लिए अमेरिका भी काम जिम्मेदार नहीं है क्योंकि जिस समय संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद का थोडा बहुत सम्मान था तब उसके स्थायी सदस्यों में रूस ही था जिससे भारत किसी मसले पर अपने साथ खडे होने का विश्वास कर सकता था, और परमाणु विस्फोट करते समय भारत ने उसकी परवाह भी छोड़ दी और आखिर अपनी आर्थिक और राजनितिक ताकत से अमेरिका को प्रतिबन्ध हटाने के लिए मजबूर कर दिया. भारत के कई लोग अभी रूस को सम्मान करते हैं पर उसका रवैया इस तरह रहा तो उसका यहाँ रहा सहा सम्मान भी समाप्त हो जायेगा.

भारत की सेना ने अभी तक अपनी लड़ाई खुद जीतीं है और सोवियत संघ ने भारत से सलाह मशविरा किये बिना अफगानिस्तान में दखल दिया जो उसके साम्राज्य के अंत का कारण बना और उससे भारत को भी बहुत परेशानी हुई. अगर उसने भारत का साथ दिया तो भारत ने उसकी कीमत भी चुकाई है इसलिए वह अगर बराबरी के आधार पर ही संबंध रखकर वह आगे चल सकता है.

चाणक्य नीति:जहाँ यज्ञ-हवन न हो वह घर मुर्दाघर समान


१.इस संसार में कुछ प्राणियों के किसी विशेष अंग में विष होता है-जैसे सर्प के दांतों में मक्खी के मस्तिष्क में और बिच्छू की पुँछ में-पर इन सबसे अलग दुर्जन और कपटी मनुष्य के हर अंग में विष होता है. उसके मन में विद्वेष,वाणी में कटुता और कर्म में नीचता का व्यवहार जहर बुझे तीर की तरह दूसरे को त्रास देते हैं.

२.किसी भी व्यक्ति को वह स्थान भी त्याग देना चाहिए जहाँ आजीविका न हो क्योंकि आजीविका रहित मनुष्य समाज में किसी सम्मान के योग्य नहीं रह जाता.

३.हर मनुष्य को सभी विधाओं में निपुण होना चाहिऐ. बडे लोगों से विनम्रता, विद्वानों से श्रेष्ठ और मधुर ढंग से वार्तालाप का तरीक सीखना चाहिए. जुआरियों से झूठ बोलना और कुशल स्त्रियों से चालाकी का गुण सीखना चाहिए.
४.मनुष्य को ऐसे कर्म करना जिससे उसकी कीर्ति सब और फैले. विद्या, दान, तपस्या, सत्य भाषण और धनोपार्जन के उचित तरीकों से कीर्ति दसों दिशाओं में फैलती है.

५.अपना जीवन शांतिपूर्वक बिताने के लिए हर मनुष्य को धर्म-कर्म का अनुष्ठान करते रहना चाहिऐ. वह घर मुर्दाघर के समान हैं जहाँ धर्म-कर्म या यज्ञ-हवन नहीं होता. जहाँ वेद शास्त्रों का उच्चारण नहीं होता, विद्वानों का सम्मान नहीं होता और यज्ञ-हवन से देवताओं का पूजन नहीं होता ऐसे घर, घर न रहकर शमशान के समान होता है.

संत कबीर वाणी:जादू-टोना व्यर्थ है


जो कोय निन्दै साधू को, संकट आवै सोय
नरक जाय जन्मै मरै, मुक्ति कबहु नहिं होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो भी साधू और संतजनों की निंदा करता है, उसके अनुसार अवश्य ही संकट आता है। वह निम्न कोटि का व्यक्ति नरक-योनि के अनेक दु:खों को भोगता हुआ जन्मता और मरता रहता है। उसके मुक्ति कभी भी नहीं हो सकती और वह हमेशा आवागमन के चक्कर में फंसा रहेगा।

बोलै बोल विचारि के, बैठे ठौर संभारि
कहैं कबीर ता दास को, कबहु न आवै हारि

इसका आशय यह है कि जो आदमी वाणी के महत्त्व को जानता है,, समय देखकर उसके अनुसार सोच और विचार कर बोलता है और अपने लिए उचित स्थान देखकर बैठता है वह कभी भी कहीं भी पराजित नहीं हो सकता।

जंत्र मन्त्र सब झूठ है, मति भरमो जग कोय
सार शब्द जाने बिना, कागा हंस न होय

संत शिरोमणि कबीरदास जीं का यह आशय है कि यन्त्र-मन्त्र एवं टोना-टोटका आदि सब मिथ्या हैं। इनके भ्रम में मत कभी मत आओ। परम सत्य के ठोस शब्द-ज्ञान के बिना, कौवा कभी भी हंस नहीं हो सकता अर्थात दुर्गुनी-अज्ञानी लोग कभी सदगुनी और ज्ञानवान नही हो सकते

रहीम के दोहे:अति कदापि न कीजिए


रहिमन अति न कीजिए, गहि रहिये निज कानि
सैजन अति फूले तऊ, दार पात की हानि

अर्थ-कवि रहीम कहते हैं कि किसी चीज की भी अति कदापि न कीजिए, हमेशा अपनी मर्यादा को पकडे रही. जैसे सहिजन वृक्ष के अत्यधिक विकसित होने से उसकी शाखाओं और पत्तों को हानि होती है और वह झड़ जाते हैं.

रन, बन, व्याधि, विपत्ति में रहिमन मरै न रोय
जो रच्छक जननी जठर, सौ हरि गए कि सोय

अर्थ-कवि रहीम कहते हैं कि रणक्षेत्र में, वन में, बीमारी में और आपति आने पर जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है उसके रोना नहीं चाहिए, जो माता के गर्भ का रक्षक है वह परमात्मा कभी सोता नहीं है.

अभिप्राय- जो ईश्वर जन्म देता है वही मृत्यु भी. ईश्वर की मर्जी होती हैं तो जन्म होता है और उसकी मर्जी होती है तभी वह किसी जीव को अपने पास बुला लेता है. जिसके उसके द्वारा प्रदत्त आयु पूर्ण नहीं हुई है उसे मृत्यं भी नहीं मार सकती.

दिल के चिराग जलाते नहीं-hindi shayri


जिनका हम करते हैं इन्तजार
वह हमसे मिलने आते नहीं
जो हमारे लिए बिछाये बैठे हैं पलकें
उनके यहां हम जाते नहीं
अपने दिल के आगे क्यों हो जाते हैं मजबूर
क्यों होता है हमको अपने पर गरूर
जो आसानी से मिल सकता है
उससे आँखें फेर जाते हैं
जिसे ढूँढने के लिए बरसों
बरबाद हो जाते हैं
उसे कभी पाते नहीं
तकलीफों पर रोते हैं
पर अपनी मुश्किलें
खुद ही बोते हैं
अमन और चैन से लगती हैं बोरियत
और जज्बातों से परे अंधेरी गली में
दिल के चिराग के लिए
रौशनी ढूँढने निकल जाते हैं
——————–

दुर्घटनाएं अब अँधेरे में नहीं
तेज रौशनी में ही होतीं है
रास्ते पर चलते वाहनों से
रौशनी की जगह बरसती है आग
आंखों को कर देती हैं अंधा
जागते हुए भी सोती हैं
—————————-
हमें तेज रौशनी चाहिए
इतनी तेज चले जा रहे हैं
उन्हें पता ही नहीं आगे
और अँधेरे आ रहे हैं
दिल के चिराग जलाते नहीं
बाहर रौशनी ढूँढने जा रहे हैं

झूठ की सता ही लोगों में इज्जत पाती है


अपनी महफिलों में शराब की
बोतलें टेबलों पर सजाते हैं
बात करते हैं इंसानियत की
पर नशे में मदहोश होने की
तैयारी में जुट जाते हैं
हर जाम पर ज़माने के
बिगड़ जाने का रोना
चर्चा का विषय होता है
सोने का महंगा होना
नजर कहीं और दिमाग कहीं
ख्याल कहीं और जुबान कहीं
शराब का हर घूँट
गले के नीचे उतारे जाते हैं
————————————

आदमी की संवेदना हैं कि
रुई की गठरी
किसी लेखक के लिखे
चंद शब्दों से ही पिचक जाती हैं
लगता हैं कभी-कभी
सच बोलना और लिखना
अब अपराध हो गया है
क्योंकि झूठ और दिखावे की सत्ता ही
अब लोगों में इज्जत पाती है

———————————

तकिये का सहारा


हमें पूछा था अपने दिल को
बहलाने के लिए किसे जगह का पता
उन्होने बाजार का रास्ता बता दिया
जहां बिकती है दिल की खुशी
दौलत के सिक्कों से
जहाँ पहुंचे तो सौदागरों ने
मोलभाव में उलझा दिया
अगर बाजार में मिलती दिल की खुशी
और दिमाग का चैन
तो इस दुनिया में रहता
हर आदमी क्यों इतना बैचैन
हम घर पहुंचे और सांस ली
आँखें बंद की और सिर तकिये पर रखा
आखिर उसने ही जिसे हम
ढूढ़ते हुए थक गये थे
उसका पता दिया
——————-

सांप के पास जहर है
पर डसने किसी को खुद नहीं जाता
कुता काट सकता है
पर अकारण नहीं काटने आता
निरीह गाय नुकीले सींग होते
हुए भी खामोश सहती हैं अनाचार
किसी को अनजाने में लग जाये अलग बात
पर उसके मन में किसी को मरने का
विचार में नहीं आता
भूखा न हो तो शेर भी
कभी शिकार पर नहीं जाता
हर इंसान एक दूसरे को
सिखाता हैं इंसानियत का पाठ
भूल जाता हां जब खुद का वक्त आता
एक पल की रोटी अभी पेट मह होती है
दूसरी की जुगाड़ में लग जाता
पीछे से वार करते हुए इंसान
जहरीले शिकारी के भेष में होता है जब
किसी और जीव का नाम
उसके साथ शोभा नहीं पाता
————–

रहीम के दोहे:संसार के बड़प्पन को कोई नहीं देख सकता


रहिमन जगत बडाई की, कूकुर की पहिचानि
प्रीती करे मुख छाती, बैर करे तन हानि

कविवर रहीम कहते हैं की अपनी बडाई सुनकर फूलना और आलोचना से गुस्सा हो जाना कोई अच्छी बात नहीं है क्योंकि यह कुत्ते का गुण है. उसे थोडा प्यार करो तो मालिक को चाटने लगता है और फटकारने पर उसे काट भी लेता है.
भावार्थ-संसार में कई प्रकार के लोग हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जो चापलूसी कर काम निकालते हैं ऐसे लोगों से बचने का प्रयास करना चाहिए. उनकी प्रशंसा पर फूल जाना मूर्खता है क्योंकि उन्हें तो काम निकलना होता है और बाद में हमें मूर्ख भी समझते हैं कि देखो कैसे काम निकलवाया.

रहिमन जंग जीवन बडे, काहू न देखे नैन
जाय दशानन अछत ही,कापी लागे काठ लेन

कवि रहीम कहते हैं कि संसार के बड़प्पन को कोई व्यक्ति अपनी आँखों से नहीं देख सकता. रावण को अक्षत जाना जाता था, परन्तु वानरों ने उसके गढ़ को नष्ट कर दिया.

भावार्थ-अक्सर यह भ्रम होता है यहाँ सब कुछ कई बरसों तक स्थिर रहने वाला है पर यहाँ सब एक दिन बिखर जाता है. इसलिए अपने अन्दर किसी प्रकार का अहंकार नहीं पालना चाहिए. न ही यह भ्रम पालना चाहिए कि कोई हमसे छोटा है और यह कुंठा भी मन में नहीं लाना चाहिऐ कि कोई हमसे बड़ा है.

अपनी सोच से रास्ते बनते हैं


एक पत्थर को रंग पोतकर अदभुत
बताकर दिखाने की कोशिश
लोहे को रंग लगाकर
चमत्कारी बताने की कोशिश
आदमी के भटकते मन को
स्वर्ग दिखाने की कोशिश
तब तक चलती रहेगी
जब तक अपने को सब खुद नहीं संभालेंगे

ख्वाब ही हकीकत बनते हैं
सपने भी सच निकलते हैं
अपनी सोच से भी रास्ते बनते हैं
कोई और हमें संभाले
अपनी जंग जीत सकते हैं
जब इसके लिए इन्तजार करने के बजाय
खुद को खुद ही संभालेंगे
———————————

कौटिल्य का अर्थशास्त्र:अब तो उपेक्षासन भी सीख लें


१.शत्रु को अपने से अधिक जानकर उसके बल के कारण उपेक्षा कर स्थिर ही रहता है उसको उपेक्षासन कहते हैं। जैसे भगवान् श्री कृष्ण ने सत्यभामा के लिए स्वर्ग से कल्पवृक्ष उठा लिया तब देवराज इन्द्र ने अपनी पूरी शक्ति का प्रदर्शन न कर उपेक्षा की-अर्थात उनसे युद्ध नहीं किया।
२.दूसरों से उपेक्षित होने से रुक्मी ने भी उपेक्षासन किया। जब कृष्ण से युद्ध करने के उपरांत रुक्मी को किसी ने सहायता नहीं दी तो वह उपेक्षासन कर बैठ गया।

कौटिल्य के इन गूढ़ रहस्यों को समझे तो उनमें बहुत सारे अर्थ निहित हैं। आज एक सभ्य समाज निर्मित हो चुका है और बाहुबल के उपयोग के अवसर बहुत कम रह गए हैं। ऐसे में उनकी नीतियों का अनुसरण और अधिक आवश्यक हो गया है। हम देखते हैं कि हमें उत्तेजित करने के लिए कई विषय उपस्थित किये जाते हैं ताकि हम अपना विवेक खो दें और दूसरे इसका लाभ उठा सकें।

त्योहारों के मौके पर ही देखें। उनका व्यवसायीकरण इस तरह किया गया है कि लगता है कि पैसे खर्च करना ही त्यौहार है और भक्ति, ध्यान और एकांत चिंतन का उनसे कोई संबंध नहीं है। एक से बढ़कर एक विज्ञापन टीवी और अखबारों में आते हैं-यह खरीदो, वह खरीदो और अपना त्यौहार मनाओ। लोग इनको देखकर बहक जाते हैं और अपना पैसा खर्च करते हैं। और तो और इस अवसर पर कर्जों की भी आफर होती है। जिनके पास पैसा नहीं है वह कर्ज लेकर कीमती सामान खरीदने लगते हैं-यह सोचकर के उसे चुका देंगे पर ऐसा होता नहीं है और कर्ज जिसे मर्ज भी कहा जाता है एक दिन लाइलाज हो जाता है। हम दूसरों का आकर्षण देखकर उसको अपने मन में धारण कर लेते हैं और वही हमारे तनाम का कारण बन जाता है अगर हम उनकी उपेक्षा कर अपनी मस्ती में मस्त रहें तो लगेगा की इस दुनिया में बहुत सी चीजें दिखावे के लिए संग्रहित की जातीं है उनसे कोई सुख मिलता हो यह जरूरी नहीं है और जिनके पास सब कुछ है वह भी शांति नहीं है वरना वह भगवान् के घर मत्था टेकने क्यों जाते हैं?

यहाँ एक बात याद रखना होगी कि विज्ञापन में काम करने वाले अपने कार्य को ”एड केंपैन”यानि विज्ञापन अभियान या युद्ध भी कहते हैं और इसे इस तरह बनाया जाता है कि समझदार से समझदार व्यक्ति अपनी बुद्धि हार जाये। इस समय हर क्षेत्र में तमाम तरह के प्रचार युद्ध छद्म रूप से हम पर थोपे गए हैं और हम उनसे हार राहे हैं, केवल वस्तुओं को खरीदने तक ही यह प्रचार युद्ध सीमित नहीं है बल्कि अन्य विषयों -जैसे आध्यात्मिक, साँस्कृतिक एवं सामाजिक- पर विचार न कर केवल मीडिया द्वारा सुझाए गए विषयों पर ही सोचें, इस तरह हम पर थोपे गए हैं।

हम चूंकि बाजार उदारीकरण के पक्ष में हैं इसलिए उनको रोक नहीं सकते पर उनके प्रति उपेक्षासन का भाव अपनाना चाहिए। यह अब हमारे लिए चुनौती है। इसलिए मैं हमेशा कहता हूँ कि हमारे प्राचीन मनीषियों ने जो सोच इस समाज को दिया था उसकी परवाह तत्कालीन समाज ने इसलिए नहीं की क्योंकि उस समय इसकी अधिक आवश्यकता नहीं थी, और वह अब अधिक प्रासंगिक है क्योंकि ऐसे प्रसंग आ रहे हैं जिनमें उनके नियम और सिद्धांत बहुत नये लगते हैं। यह देखकर आश्चर्य होता है कि हमारे प्राचीन मनीषी और विद्वान कितने दूरदर्शी थे।दरअसल हमारे समाज की वास्तविक परीक्षा का समय अब आ गया है और हमें अपने अन्दर ऐसे विचार और नियम स्थापित करना चाहिए जिससे विजय पा सकें।
हमारे सामने किसी विज्ञापन में कोई वस्तु या कोई विषय होता है तो उस पर गहराई से विचार करना चाहिए, और अगर उसमें अपना और समाज का लाभ न दिखे तो उपेक्षा का भाव बरतना चाहिऐ. हमें किसी विषय, वस्तु या व्यक्ति पसंद नहीं है तो उसे बुरा कहने की बजाय उपेक्षासन करना चाहिए. अगर हम उसे बुरा कहेंगे तो चार लोग उसे अच्छा भी कहेंगे-उसका विज्ञापन स्वत: होगा. हम उपेक्षा करेंगे तो हमारे चित को शांति मिलेगी.

भीड़ से नहीं निकलेंगे शेर जब तक


जब किसी के लिखने से
शांति भंग होती है
तो उससे कहें बंद कर दे लिखना
जो बिना पढे ही
चंद शब्दों को समझे बिना ही
जमाने पर फैंकते हैं पत्थर
गैरों के इशारे पर
अपनों पर ही चुभोते हैं नश्तर
कह देते हैं लिखने वाले से
अब कभी लिखते नहीं दिखना

बोलने की आजादी पर
जोर-जोर से सुबह शाम चिल्लाने वाले
अपनी ताकत पर खौफ का
माहोल बनाने वालों का
रास्ता हमेशा आसान होते दिखता
लिखने की आजादी उनको मंजूर नहीं
क्योंकि कोई शब्द उनके
ख्यालों से नहीं मिलता
उनकी दिमाग में किसी के साथ चलने का
इरादा नहीं टिकता
उनके खौफ से ही ताकत बनती
जमाने के मिट जाने का डर जतातीं तकरीरें
बेबस भीड़ भी होती है उनके साथ
बढ़ते रहेंगे उनके पंजे तब तक
भीड़ से नहीं निकलेंगे शेर जब तक
दिल में हिम्मत जुटाकर लड़ना तो जरूरी है
काफी नहीं अब लड़ते दिखना

चाणक्य नीति:हिंसक पशु,नदी और राजपरिवार सदैव विश्वसनीय नहीं


१.केवल मनुष्य योनि में जन्म लेने से सब मनुष्य एक समान नहीं हो जाते. एक ही माँ के गर्भ से उत्पन्न एक ही राशि-नक्षत्र में जन्म लेने वाले दो जुड़वां भाई भी बिलकुल अलग कर्म करने वाले और भिन्न गुण और स्वभाव वाले होते है. शायद पुराने कर्म फल के कारण सभी में ऐसी विभिन्नता आती है.
२.जिस प्रकार मछली देख-देखकर संतान का पालन करती है,कछुई केवल ध्यान द्वारा ही संतान की देखभाल करती है और मादा पक्षी अपने अण्डों को सेकर या छूकर अपनी संतान का पालन करती हैं उसी परकार सज्जन की संगती अपने संपर्क में आने वालों को भगवान् के दर्शन, ध्यान और चरण-स्पर्श आदि का आभास कराकर कल्याण करती है.
३.संसार में सुख की अपेक्षा दु:खों का अस्तित्व अधिक माना जता है, तीन प्रकार के संताप ऐसे हैं जिनसे मनुष्य घिरा रहता है. मन, स्थिति और दुर्भाग्य के कष्टों का निवारण भी तीन प्रकार के उपायों से होता है- गुणवान पुत्र मधुर भाषिणी पत्नी और श्रेष्ठ पुत्र की संगति.

४.लंबे नाखून धारण करने वाले हिंसक पशु, नदिया एवं राजपरिवार हमेशा विश्वसनीय नहीं होते क्योंकि इनके स्वभाव में परिवर्तन आते रहते हैं.

डूबते को तिनके का सहारा :एक नारा


डूबते को तिनके का सहारा
देने में वह नाम कमाते हैं
पहले आदमी को डूबने की लिए छोड़
फिर तिनके एकत्रित करने के लिए
अभियान चलते हैं
जब भर जाते हैं चारों और तिनके
तब अपना आशियाना बनाते हैं
और डूबते को भूल जाते हैं
फिर भी उनका नाम है बुलंदियों पर
भला डूबे लोग कब उनकी पोल खाते हैं

———————————————
जब तक जवान थे
अपने नारे और वाद के सहारे
बहुत से आन्दोलन और अभियान चलाते रहे
अब बुढापे में मिल गया
आधुनिक साधनों का मिल गया सहारा
वीडियो और टीवी पर ही
चला रहे हैं पुरानी दुकान
अब भी चल रहा है उनका जन कल्याण
पेंतरे हैं नये पर शब्द वही जो बरसों से कहे

रहीम के दोहे:प्रेम की गली संकरी होती है


रहिमन गली है सांकरी, दूजो न ठहराहिं
आपु अहैं तो हरि नहीं, हरि आपुन नाहि

संत शिरोमणि रहीम कहते हैं की प्रेम की गली बहुत पतली होती है उसमें दूसरा व्यक्ति नहीं ठहर सकता, यदि मन में अहंकार है तो भगवान् का निवास नहीं होगा और यदि दृदय में ईश्वर का वास है तो अहंकार का अस्तित्व नहीं होगा.
रहिमन घरिया रहंट को त्यों ओछे की डीठ
रीतिही सन्मुख होत है, भरी दिखावे पीठ

कविवर रहीम कहते हैं की कुएँ में लगी रहंट की छोटी-छोटी घडेईयाँ तुच्छ व्यक्ति की दृष्टि के समान होती हैं. सामने तो खाली होती किन्तु पीछे भरे हुई होतीं हैं.

डर का माहौल बनाना ठीक नहीं


यह अनदेखी करने वाली बात नहीं है और जिस तरह इसे सामान्य कहकर टाला जा रहा है वह मुझे स्वीकार्य नहीं है। मैं आज सागर चंद नाहर के साथ हुई बदतमीजी की बात कर रहा हूँ। मैंने सागर चंद नाहर की पोस्ट देखी और उसमें तमाम साथियों की कमेन्ट भी देखी। इसे व्यक्तिगत मामला नहीं माना जा सकता है भले ही यह दो व्यक्तियों के बीच हुआ है। हम जो ब्लोग बनाए हैं वह घर के शोपीस नहीं है और वह बराबर लोगों के बीच में पढे जाते हैं और इन पर लिखा पढ़ने से लोगों के मन में प्रतिक्रिया होती है। जब ब्लोग की संख्या कम थी तब इसका आभास नहीं था। हो सकता है कि कुछ लोगों के पुराने पूर्वाग्रह रहे हों पर उनकों इस तरह व्यक्त करने का समय अब नहीं रहा।

अगर सागरचंद जी नाहर किसी भी चौपाल पर नहीं होते तो शायद मैं भी इस मामले में इतनी दिलचस्पी नहीं लेता, पर जब इन चौपालों से दूसरे लोगों को जोड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं तब यह भी देखना चाहिए कि यहाँ के घटनाक्रम का क्या प्रभाव होता है। अगर हम इस घटनाक्रम को देखें तो यह नये लेखकों में भय पैदा करता है। शुरू में मुझे यह लगा था कि यहाँ कुछ गड़बड़ है इसलिए अपने एक नहीं दो छद्म ब्लोग बनाए ताकि कभी ऐसी हालत आये तो उसे दो तरफा ढंग से निपटा जा सके। उसके बाद जब लगा कि अब इसकी मुझे जरूरत नहीं है तो मैंने उनको वास्तविक नाम में परिवर्तित कर दिया क्योंकि जिस बात से मुझे डर था वह उस छद्म ब्लोग पर ही हुई और तब मैंने उसे बंद किया। यह मैं इसलिए बता रहा हूँ कि यह भय लोगों को रहता है और अपनी बात कहने में कतरायेंगे, और इस तरह तो किसी को चौपालों से जोड़ने के काम में कठिनाई भी होगी। भला आदमी किसी की बदतमीजी से डरता है.

बात यहाँ तक ही सीमित नहीं है। किसी के ब्लोग पर जाकर सद्भावना से प्रशंसा और आलोचना करना अलग बात है अभद्र शब्द लिखना अनैतिक तो है ही और भारतीय संविधान भी इसकी इजाजत नहीं देता। सबसे बड़ी बात यह है कुछ लोगों के मन में यह भय व्याप्त हो सकता है कि किसी की प्रशंसा या आलोचना पर ऐसी प्रतिक्रिया भी हो सकती है। ऐसे भय का माहौल बनाने का किसी को कोई अधिकार नहीं है। मैं मानकर चलता हूँ कि कुछ भद्र लोग भी गलतियां कर जाते हैं और उनको उसे सुधारने का अधिकार दिया जाना चाहिए पर उनको दूसरे की सहृदयता को भी उनकी कमजोरी नहीं समझना चाहिए। हमारी कुछ गलतियां कानून के दायरे में आती है यह भी नये ब्लोगरों को ध्यान में रखना चाहिए। हो सकता है मैं कड़ी बात कह रहा हूँ और कुछ लोगों को बुरा लगे पर एक बात तो यह कि सच कड़वा होता है दूसरा यह कि मैं बहुत समय से ब्लोग को देख रहा हूँ और किसी ने भी यह बात लिखी हो कि ‘किसी के साथ बदतमीजी करने की इजाजत भारतीय संविधान नहीं देता’। अगर आप लोगों ने देखा होगा कि किस तरह ईमेल और मोबाइल पर बदतमीजी करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही होती है और हम तो सब एक दूसरे के अते-पते जानते हैं। मेरे गुरु ने जो पत्रकारिता में थे वह कहते थे’तुम कभी किसी को गाली मत देना और कोई दे तो उसे मारपीट भी मत करना दोनों में तुम फंसे होगे और दे तो तुम कानून की याद दिलाना। उनकी बात मेरे मन में ऐसी लगी कि फिर मैं बातचीत में किसी अभद्र शब्द का उपयोग गुस्से में भी नहीं करता। यह मैं सदाशय भाव से लिख रहा हूँ और कोई उपदेशक बनने का मेरा कोई विचार नहीं है। मैं उम्मीद करता हूँ कि मेरे मित्र मेरी इस बात को समझेंगे कि यहाँ डर का माहौल बनाना ठीक नहीं होगा, वैसे ही ऐसा माहौल बनाने वालों की कमी नहीं हैं.

क्रिकेट और फिल्म में ऐसा भी हो सकता है


आखिर झगडा किस बात का है? क्रिकेट वालों ने एक्टर से कहा होगा कि-”यार, क्रिकेट को लोग देखने तो खूब आ रहे हैं पर अभी पहले जैसी तवज्जो नहीं मिल रही है। हमारी टीम ने ट्वेन्टी-ट्वेन्टी मैं विश्व कप जीता है और हमें चाहिए फिफ्टी-फिफ्टी के ग्राहक जिसमें विज्ञापन लंबे समय तक दिखाए जा सकते हैं। सो तुम भी मैदान मैं देखने आ जाओ तो थोडा इसका क्रेज बढे। ट्वेन्टी-ट्वेन्टी के समय से क्रिकेट पेट नहीं भरना है.”

इधर एक्टर भी फ्लॉप चल रहें हो तो क्या करें? एक दिन फिल्म आयी मीडिया मैं शोर मचा फिर थम गया। अरबों रूपये का खेल है और तमाम तरह के विज्ञापन अभियान(अद्द cअम्पैं) लोगों की भावनाओं पर जिंदा हैं। विज्ञापन देने वाली कंपनिया तो सीमित हैं। फिल्मों के एक्टर हों या क्रिकेट के खिलाड़ी उनके प्रोडक्ट के प्रचार के माडल होते हैं। एक क्षेत्र में फ्लॉप हो रहे हों तो दूसरे के इलाके से लोग ले आओ। समस्या फिल्म और क्रिकेट की नहीं है कंपनियों के प्रोडक्ट के प्रचार की हैं। जब किसी प्रोडक्ट के माडल हीरो और खिलाड़ी एक हों तो उनका एक जगह पर होना प्रचार का दोहरा साधन हो जाता है।

अब आगे और बदलाव आने वाले हैं। जो युवक और युवतियां फिल्म के लिए इंटरव्यू देने जायेंगे उनसे अपने अभिनय के बारे में कम क्रिकेट के बारे में अधिक सवाल होंगे। खेल से संबन्धित विषय पर नहीं बल्कि उसे देखने के तरीक के बारे में सवाल होंगे। जैसे
१. जब मैच देखने जाओगे तो कैसे सीट पर बैठोगे?
२. चेहरे पर कैसी भाव भंगिमा बनाओगे जिससे लगे कि तुम क्रिकेट के बारे में जानते हो?
३. जब कोई देश का खिलाड़ी छका लगाएगा तो कैसे ताली बजाओगे?
इस तरह के ढेर सारे सवाल और होंगे और अनुबंध में ही यह शर्त शामिल होगी कि जब तक फिल्म पुरानी न पड़े तब तक निर्माता के आदेश पर फिल्म प्रचार के लिए एक्टर मैच देखने मैदान पर जायेगा।

क्रिकेट में क्या होगा? लड़के दो तरह के कोच के यहाँ जायेंगे-सुबह क्रिकेट के कोच के यहाँ शाम को डांस वाले के यहाँ। भी रैंप पर भी जाना तो होगा क्रिकेट के प्रचार के लिए। आगे जब स्थानीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर जो चयन करता टीम का चयन करेंगे वह पहले खिलाडियों की नृत्य कला की परख करेंगे। क्रिकेट खेलने वाले तो कई मिल जायेंगे पर रेम्प पर नृत्य कर सकें यह संभव नहीं है-और ऐसी ही प्रचार अभियान चलते रहे तो नृत्य में प्रवीण खिलाडियों की पूछ परख बाद जायेगी। हाँ, इसमें पुराने संस्कार धारक दब्बू क्रिकेट खिलाडियों को बहुत परेशानी होगी। यह बाजार और प्रचार का खेल और इसमें आगे जाने-जाने क्या देखने को मिलेगा क्योंकि यह चलता है लोगों के जज्बातों से और जहाँ वह जायेंगे वहीं उनकी जेब में रखा पैसा भी जायेगा और उसे खींचने वाले भी वहीं अपना डेरा जमायेंगे।

जब अपने मन का सच बोलता है


जब खामोशी हो चारों तरह तब भी
कोई बोलता हैं
हम सुनते नही उसकी आवाज
हम उसे नहीं देखते
पर वह हमें बैठा तोलता है
भीड़ में घूमने की आदत
हो जाती है जिनको
उन्हें अकेलापन डराता है
क्योंकि जिसकी सुनने से कतराते हैं
वही अपने मन में बैठा सच
दबने की वजह से बोलता है

दूसरे से अपना सच छिपा लें
पर अपने से कैसे छिपाये
अकेले होते तो बच पाते
भीड़ में रहते हुए
लोगों के बीच में टहलते हुए
महफिलों में अपने घमंड के
नशे में बहकते हुए
सहज होने की कोशिश भी
हो जाती है जब वह
अपने मन का सच बोलता है

तुम्हारे प्रेम के विरह में हास्य लिखता हूँ


ब्लोगर उस दिन एक पार्क में घूम रहा था तो उसकी पुरानी प्रेमिका सामने आकर खडी हो गयी। पहले तो वह उसे पहचाना ही नहीं क्योंकि वह अब खाते-पीते घर के लग रही थी और जब वह उसके साथ तथाकथित प्यार (जिसे अलग होते समय प्रेमिका ने दोस्ती कहा था) करता था तब वह दुबली पतली थी। ब्लोगर ने जब उसे पहचाना तो सोच में पड़ गया इससे पहले वह कुछ बोलता उसने कहा-”क्या बात पहचान नहीं रहे हो? किसी चिंता में पड़े हुए हो। क्या घर पर झगडा कर आये हो?”
”नहीं!कुछ लिखने की सोच रहा हूँ।”ब्लोगर ने कहा;”मुझे पता है कि तुम ब्लोग पर लिखते हो। उस दिन तुम्हारी पत्नी से भेंट एक महिला सम्मेलन में हुई थी तब उसने बताया था। मैंने उसे नहीं बताया कि हम दोनों एक दूसरे को जानते है।वह चहकते हुए बोली-”क्या लिखते हो? मेरी विरह में कवितायेँ न! यकीनन बहुत हिट होतीं होंगीं।’
ब्लोगर ने सहमते हुए कहा-”नहीं हिट तो नहीं होतीं फ्लॉप हो जातीं हैं। पर विरह कवितायेँ मैं तुम्हारी याद में नहीं लिखता। वह अपनी दूसरी प्रेमिका की याद में लिखता हूँ।”
”धोखेबाज! मेरे बाद दूसरी से भी प्यार किया था। अच्छा कौन थी वह? वह मुझसे अधिक सुन्दर थी।”उसने घूरकर पूछा।
”नहीं। वह तुमसे अधिक खूबसूरत थी, और इस समय अधिक ही होगी। वह अब मेरी पत्नी है। ब्लोगर ने धीरे से उत्तर दिया।
प्रेमिका हंसी-”पर तुम्हारा तो उससे मिलन हो गया न! फिर उसकी विरह में क्यों लिखते हो?’
”पहले प्रेमिका थी, और अब पत्नी बन गयी तो प्रेम में विरह तो हुआ न!”ब्लोगर ने कहा।
पुरानी प्रेमिका ने पूछा -”अच्छा! मेरे विरह में क्या लिखते हो?”
”हास्य कवितायेँ और व्यंग्य लिखता हूँ।” ब्लोगर ने डरते हुए कहा।
”क्या”-वह गुस्से में बोली-”मुझे पर हास्य लिखते हो। तुम्हें शर्म नहीं आती। अच्छा हुआ तुमसे शादी नहीं की। वरना तुम तो मेरे को बदनाम कर देते। आज तो मेरा मूड खराब हो गया। इतने सालों बाद तुमसे मिली तो खुशी हुई पर तुमने मुझ पर हास्य कवितायेँ लिखीं। ऐसा क्या है मुझमें जो तुम यह सब लिखते हो?’
ब्लोगर सहमते हुए बोला-“मैंने देखा एक दिन तुम्हारे पति का उस कार के शोरूम पर झगडा हो रहा था जहाँ से उसने वह खरीदी थी। कार का दरवाजा टूटा हुआ था और तुम्हारा पति उससे झगडा कर रहा था. मालिक उसे कह रहा था कि”साहब. कार बेचते समय ही मैंने आपको बताया था कि दरवाजे की साईज क्या है और आपने इसमें इससे अधिक कमर वाले किसी हाथी रुपी इंसान को बिठाया है जिससे उसके निकलने पर यह टूट गया है और हम इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं. तुम्हारा पति कह रहा था कि’उसमें तो केवल हम पति-पत्नी ने ही सवारी की है’, तुम्हारे पति की कमर देखकर मैं समझ गया कि……………वहाँ मुझे हंसी आ गई और हास्य कविता निकल पडी. तब से लेकर अब जब तुम्हारी याद आती है तब……अब मैं और क्या कहूं?”
वह बिफर गयी और बोली-”तुमने मेरा मूड खराब किया। मेरा ब्लड प्रेशर वैसे ही बढा रहता है। डाक्टर ने सलाह दी कि तुम पार्क वगैरह में घूमा करो। अब तो मुझे यहाँ आना भी बंद करना पडेगा। अब मैं तो चली।”
ब्लोगर पीछे से बोला-”तुम यहाँ आती रहना। मैं तो आज ही आया हूँ। मेरा घर दूर है रोज यहाँ नहीं आता। आज कोई व्यंग्य का आइडिया ढूंढ रहा था, और तुम्हारी यह खुराक साल भर के लिए काफी है। जब जरूरत होगी तब ही आऊँगा।”
वह उसे गुस्से में देखती चली गयी। ब्लोगर सोचने लगा-”अच्छा ही हुआ कि मैंने इसे यह नहीं बताया कि इस पर मैं हास्य आलेख भी लिखता हूँ। नहीं तो और ज्यादा गुस्सा करती।”
नोट-यह एक स्वरचित और मौलिक काल्पनिक व्यंग्य रचना है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई लेना देना नहीं है और किसी का इससे मेल हो जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार होगा.

मेरे इन ब्लोगस की रचनाओं को देखें


समस्त पाठकों से निवेदं है कि यदि आप मेरी रचनाएं इस ब्लोग पर पढना चाह्ते हैं तो कृप्या कमेंट अवश्य लिखे। इस ब्लोग पर मेरा इरादा एक उप ंयास लिखने का है। तब तक आप मेरे इन ब्लोगस की रचनाओं को देखें
दीपक भारतदीप्

1. http://deepakbapukahin.wordpress.com

2. http://deepakraj.wordpress.com

3. http://rajlekh.wordpress.com

4. http://dpkraj.blogspot.com

गीत-संगीत और मोबाइल


मोबाइल का भला संगीत और गाने और बजाने से क्या संबंध हो सकता है? कभी यह प्रश्न हमने अपने आपसे ही नहीं पूछा तो किसी और से क्या पूछते? अपने आप में यह प्रश्न है भी बेतुका। पर जब बातें सामने ही बेतुकी आयेंगी तो ऐसे प्रश्न भी आएंगे।

हुआ यूँ कि उस दिन हम अपने एक मित्र के साथ एक होटल में चाय पीने के लिए गये, वहाँ पर कई लोग अपने मोबाइल फोन हाथ में पकड़े और कान में इयरफोन डालकर समाधिस्थ अवस्था में बैठे और खडे थे। हमने चाय वाले को चाय लाने का आदेश दिया तो वह बोला-” महाराज, आप लोग भी अपने साथ मोबाइल लाए हो कि नहीं?’

हमने चौंककर पूछा कि-”तुम क्या आज से केवल मोबाइल वालों को ही चाय देने का निर्णय किये बैठे हो। अगर ऐसा है तो हम चले जाते हैं हालांकि हम दोनों की जेब में मोबाइल है पर तुम्हारे यहाँ चाय नहीं पियेंगे। आत्म सम्मान भी कोई चीज होती है।”

वह बोला-”नहीं महाराज! आज से शहर में एफ.ऍम.बेंड रेडिओ शुरू हो गया है न! उसे सब लोग मोबाइल पर सुन रहे हैं। अब तो ख़ूब मिलेगा गाना-बजाना सुनने को। आप देखो सब लोग वही सुन रहे हैं। आप ठहरे हमारे रोज के ग्राहक और गानों के शौक़ीन तो सोचा बता दें कि शहर में भी ऍफ़।एम्.बेंड ” चैनल शुरू हो गये हैं।”

” अरे वाह!”हमने खुश होकर कहा-” मजा आ गया!”

“क्या ख़ाक मजा आ गया?” हमारे मित्र ने हमारी तरफ देखकर कहा और फिर उससे बोले-”गाने बजाने का मोबाइल से क्या संबंध है? वह तो हम दोनों बरसों से सुन रहे हैं । यह तो अब इन नन्हें-मुन्नों के लिए ठीक है यह बताने के लिए कि गाना दिखता ही नहीं बल्कि बजता भी है। इन लोगों नी टीवी पर गानों को देखा है सुना कहॉ है, अब सुनेंगे तो समझ पायेंगे कि गीत-संगीत सुनने के लिए होते हैं न कि देखने के लिए। “

हमारे मित्र ने ऐसा कहते हुए अपने पास खडे जान-पहचाने के ऐक लड़के की तरफ इशारा किया था। उसकी बात सुनाकर वह लड़का तो मुस्करा दिया पर वहां कुछ ऐसे लोगों को यह बात नागवार गुजरी जो उन मोबाइल वालों के साथ खडे कौतुक भाव से देख और सुन रहे थे। उनमें एक सज्जन जिनके कुछ बाल सफ़ेद और कुछ काले थे और उनके केवल एक ही कान में इयरफोन लगा था उन्होने अपने दूसरे कान से भी इयर फोन खींच लिया और बोले -”ऐसा नहीं है गाने को कहीं भी और कभी भी कान में सुनने का अलग ही मजा है। आप शायद नहीं जानते।”

हमारे मित्र इस प्रतिक्रिया के लिए तैयार नहीं था पर फिर थोडा आक्रामक होकर बोला-” महाशय! यह आपका विचार है, हमारे लिए तो गीत-संगीत कान में सुनने के लिए नहीं बल्कि कान से सुनने के लिए है। हम तो सुबह शाम रेडियों पर गाने सुनने वाले लोग हैं। अगर अब ही सुनना होगा तो छोटा ट्रांजिस्टर लेकर जेब में रख लेंगे। ऎसी बेवकूफी नहीं करेंगे कि जिससे बात करनी है उस मोबाइल को हाथ में पकड़कर उसका इयरफोन कान में डाले बैठे रहें । हम तो गाना सुनते हुए तो अपना काम भी बहुत अच्छी तरह कर लेते हैं।”

वह सज्जन भी कम नहीं थे और बोले-”रेडियो और ट्रांजिस्टर का जमाना गया और अब तो मोबाइल का जमाना है। आदमी को जमाने के साथ ही चलना चाहिए।”

हमारा मित्र भी कम नहीं था और कंधे उचकाता हुआ बोला-”हमारे घर में तो अभी भी रेडियो और ट्रांजिस्टर दोनों का ज़माना बना हुआ है।अभी तो हम उसके साथ ही चलेंगे।
बात बढ न जाये इसलिये उसे हमने होटल के अन्दर खींचते हुए कहा-”ठीक है! अब बहुत हो गया। चल अन्दर और अपनी चाय पीते हैं।”

हमने अन्दर भी बाहर जैसा ही दृश्य देखा और मेरा मित्र अब और कोई बात इस विषय पर न करे विषय बदलकर हमने बातचीत शुरू कर दीं। मेरा मित्र इस बात को समझ गया और इस विषय पर उसने वहाँ कोई बात भी नहीं की । बाद में बाहर निकला कर बोला-” एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही कि यह लोग गीत-संगीत के शौक़ीन है या मोबाइल से सुनने के। देखना यह कुछ दिनों का हे शौक़ है फिर कोई नहीं सुनेगा हम जैसे शौकीनों के अलावा।”

हमने कहा-” यह न तो गीत-संगीत के शौक़ीन है और न ही मोबाइल के! यह तो दिखावे के लिए ही सब कर रहे हैं। देख-सुन समझ सब रहे हैं पर आनंद कितना ले रहे हैं यह पता नहीं।”

हमारे शहर में एक या दो नहीं बल्कि चार एफ।ऍम.बेंड रेडियो शुरू हो रहे है और इस समय उनका ट्रायल चल रहा है। जिसे देखो इसी विषय पर ही बात कर रहा है। मैं खुद बचपन से गाने सुनने का आदी हूँ और दूरदर्शन और अन्य टीवी चैनलों के दौर में भी मेरे पास एक नहीं बल्कि तीन रेडियो-ट्रांजिस्टर चलती-फिरती हालत में है और शायद हम जैसे ही लोग उनका सही आनद ले पायेंगे और अन्य लोग बहुत जल्दी इससे बोर हो जायेंगे। हम और मित्र इस बात पर सहमत थे कि संगीत का आनंद केवल सुनकर एकाग्रता के साथ ही लिया जा सकता है और सामने अगर दृश्य हौं तो आप अपना दिमाग वहां भी लगाएंगे और पूरा लुत्फ़ नहीं उठा पायेंगे।

गीत-संगीत के बारे में तो मेरा मानना है कि जो लोग इससे नहीं सुनते या सुनकर उससे सुख की अनुभूति नहीं करते वह अपने जीवन में कभी सुख की अनुभूति ही नहीं कर सकते। गीतों को लेकर में कभी फूहड़ता और शालीनता के चक्कर में भी नही पड़ता बस वह श्रवण योग्य और हृदयंगम होना चाहिए। गीत-संगीत से आदमी की कार्यक्षमता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार अधिक टीवी देखने के बुरे प्रभाव होते हैं जबकि रेडियो से ऐसा नहीं होता। मैं और मेरा मित्र समय मिलने पर रेडियो से गाने जरूर सुनते है इसलिये हमें तो इस खबर से ही ख़ुशी हुई । जहाँ तक कानों में इयर फोन लगाकर सुनने का प्रश्न है तो मेरे मित्र ने मजाक में कहा था पर मैंने उसे गंभीरता से लिया था कि ‘ गीत-संगीत कानों में नहीं बल्कि कानों से सुना जाता है।’

बहरहाल जिन लोगों के पास मोबाइल है उनका नया-नया संगीत प्रेम मेरे लिए कौतुक का विषय था। घर पहुंचते ही हमने भी अपने ट्रांजिस्टर को खोला और देखा तो चारों चैनल सुनाई दे रहे थे। गाने सुनते हुए हम भी सोच रहे थे-’गीत संगीत का मोबाइल से क्या संबंध ?