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धार्मिक ग्रंथ की बात पहले समझें फिर व्यक्त करें-हिन्दी लेख


                                   अभी हाल ही में एक पत्रिका में वेदों के संदेशों के आधार पर यह संदेश प्रकाशित किया गया कि ‘गाय को मारने या मांस खाने वाले को मार देना चाहिये’।  इस पर बहुत विवाद हुआ। हमने ट्विटर, ब्लॉग और फेसबुक पर यह अनुरोध किया था कि उस वेद का श्लोक भी प्रस्तुत किया गया है जिसमें इस तरह की बात कही गयी है। चूंकि हम अव्यवसायिक लेखक हैं इसलिये पाठक अधिक न होने से  प्रचार माध्यमों तक हमारी बात नहीं पहंुंच पाती। बहरहाल हम अपनी कहते हैं जिसका प्रभाव देर बाद दिखाई भी देता है।

बहुत ढूंढने पर ही अथर्ववेद सि यह श्लोक मिला

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आ जिह्वाया मूरदेवान्ताभस्व क्रव्यादो वृष्टबापि धत्सवासन।

हिन्दी में भावार्थ-मूर्खों को अपनी जीभ रूपी ज्वाला से सुधार और बलवान होकर मांसाहारी हिसंकों को अपनी प्रवृत्ति से निवृत्त कर।

                                   हमें संस्कृति शुद्ध रूप से नहीं आती पर इतना ज्ञान है कि श्लोक और उसका हिन्दी अर्थ मिलाने का प्रयास करते हैं।  जहां तक हम समझ पाये हैं वेदों में प्रार्थनाऐं न कि निर्देश या आदेश दिये गये हैं।  उपरोक्त श्लोक का अर्थ हम इस तरह कर रहे हैं कि ‘हमारी जीभ के मूढ़ता भाव को आग में भस्म से अंत कर। अपने बल से हिंसक भाव को सुला दे।’

                                   हम फिर दोहराते हैं कि यह परमात्मा से प्रार्थना या याचना है कि मनुष्य को दिया गया आदेश। यह भी स्पष्ट कर दें कि यह श्लोक चार वेदों का पूर्ण अध्ययन कर नहीं वरन एक संक्षिप्त संग्रह से लिया गया है जिसमें यह बताया गया है कि यह चारो वेदों की प्रमुख सुक्तियां हैं।

                                   हम पिछले अनेक वर्षों से देख रहे हैं कि अनेक वेदों, पुराणों तथा अन्य ग्रंथों से संदेश लेकर कुछ कथित विद्वान ब्रह्मज्ञानी होने का प्रदर्शन करते हैं। अनेक प्रचार पाने के लिये धार्मिक ग्रंथों की आड़ में विवाद खड़ा करते हैं।  जिस तरह पाश्चात्य प्रचारक यह मानते हैं कि पुरस्कार या सम्मान प्राप्त करने वाला साहित्यकार मान जायेगा वैसे ही भारतीय प्रचारक भी यह मानते हैं कि गेरुए या सफेद वस्त्र पहनकर आश्रम में रहने वाले ही ज्ञानी है।  उनके अनुसार हम दोनों श्रेणी में नहीं आते पर सच यही है कि ग्रंथों का अध्ययन श्रद्धा करने पर ही ज्ञान मिलता है और वह प्रदर्शन का विषय नहीं वरनृ स्वयं पर अनुंसधान करने के लिये होता है। हमने लिखा था सामवेद में कहा गया है कि ‘ब्रह्मद्विष आवजहि’ अर्थात ज्ञान से द्वेष करने वाले को परास्त कर। हमारा मानना है कि बिना ज्ञान के धर्म रक्षा करने के प्रयास विवाद ही खड़ा करते हैं।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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140 शब्दों की सीमा से अधिक twitlonger पर लिखना भी दिलचस्प


                                   ट्विटर, फेसबुक और ब्लॉग से आठ वषौं के सतत संपर्क से यह अनुभव हुआ है कि भले ही आपकी बात अंग्रेजी में अधिक पढ़ी जाती है पर भारत में समझने के लिये आपका पाठ हिन्दी में होना आवश्यक है।  महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर आक्रामक शैली में शब्द लिखने हों तो अंग्रेजी से अधिक हिन्दी ज्यादा बेहतर भाषा है।  कटु  बात कहने के लिये मधुर शब्द का उपयोग भी व्यंजना भाषा में इस तरह किया जा सकता है कि  ंइसका अनुभव एक ऐसे ट्विटर प्रयोक्ता के खाते से संपर्क होने पर हुआ जो अपनी अंग्रेजी भाषा में लिखी गयी बात से प्रसिद्ध हो रहा है।  उसके अंग्रेजी शब्दों के जवाब में अंग्रेजी टिप्पणियां आती हैं पर जितना आक्रामक शब्द अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी टिप्पणियों के होते हैं।  एक टिप्पणीकर्ता ने तो लिख ही दिया कि अगर अपनी बात ज्यादा प्रभावी बनाना चाहते हो तो हिन्दी में लिखो। वह ट्विटर प्रयोक्ता अंग्रेजी में लिख रहा है पर उसकी आशा के अनुरूप हवा नहीं बन पाती। अगर वह हिन्दी में लिखता तो शायद ज्यादा चर्चित होता। इसलिये हमारी सलाह तो यही है कि जहां तक हो सके अपना हार्दिक प्रभाव बनाने के लिये अधिक से अधिक देवनागरी हिन्दी में लिखे।

140 शब्दों की सीमा से अधिक ट्विटरलौंगर पर लिखना भी दिलचस्प

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इधर ट्विटर ने भी 140 शब्दों से अधिक शब्द लिखने वाले प्रयोक्ताओं  ट्विटलोंगर की सुविधा प्रदान की है। हिन्दी के प्रयोक्ता शायद इसलिये उसका अधिक उपयोग नहीं कर पा रहे क्योंकि उसका प्रचार अधिक नहीं है। हमने जब एक प्रयोक्ता के खाते का भ्रमण किया तब पता लगा कि यह सुविधा मौजूद है। हालांकि हम जैसे ब्लॉग लेखक के लिये यह सुविधा अधिक उपयोगी नहीं है पर जब किसी विशेष विषय पर ट्विटर लिखना हो तो उसका उपयोग कर ही लेते हैं। वैसे ट्विटर पर अधिक लिखना ज्यादा अच्छा नहीं लगता क्योंकि वह लोग लिंक कम ही क्लिक करते हैं।  बहरहाल जो केवल ट्विटर पर अधिक सक्रिय हैं उनके लिये यह लिंक तब अधिक उपयोग हो सकता है जब वह अधिक लिखना चाहते हैं।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

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एकलव्य की तरह श्रीमद्भागवतगीता का अध्ययन करें-हिन्दी लेख


                         श्रीमद्भागवत गीता में सांख्ययोग की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ बताया गया है। इतना ही सांख्या योग से सन्यास अत्यंत कठिन बताते हुए कर्म येाग सन्यास का महत्व प्रतिपादित किया गया है। हमारे यहां सन्यास पर अनेक तरह के भ्रम फैलाये जाते हैं।  सन्यास का यह अर्थ कदापि नही हैं कि संसार के विषयों का त्याग कर कहीं एकांत में बैठा जाये। यह संभव भी नहीं है क्योंकि देह में बैठा मन कभी विषयों से परे नहीं रहने देता।  उसके वश में आकर मनुष्य कुछ न कुछ करने को तत्पर हो ही जाता है। भारतीय धर्म में सन्यास से आशय सांसरिक विषयों से संबंध होने पर भी उनमें भाव का त्याग करना  ही माना गया गया है। इसे सहज योग भी कहा जाता है। जीवन में भोजन करना अनिवार्य है पर पेट भरने के लिये स्वाद के भाव से रहित होकर पाचक भोजन ग्रहण करने वाला सन्यासी है। लोभ करे तो सन्यासी भी ढोंगी है।

                                   इस संसार में मनुष्य की देह स्थित मन के चलने के दो ही मार्ग हैं-सहज योग या उसके विपरीत असहज योग। अगर श्रीमद्भागवत् गीता को गुरु मानकर उसका अध्ययन किया जाये तो धीरे धीरे जीवन जीने की ऐसी कला आ जाती है कि मनुष्य सदैव सहज योग में स्थित हो जाता है। जिन लोगों के पास ज्ञान नहीं है वह मन के गुलाम होकर जीवन जीते हैं। अपना विवेक वह खूंटी पर टांग देते हैं। यह मार्ग उन्हें असहज योग की तरफ ले ही जाता है।

                                   एक बात निश्चित है कि हर मनुष्य योग तो करता ही है। वह चाहे या न चाहे अध्यात्मिक तथा सांसरिक विषयों के प्रति उसके मन में चिंत्तन और अनुसंधान चलता रहता है। अंतर इतना है कि ज्ञानी प्राणायाम, ध्यान और मंत्रजाप से अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए अपने विवेक से अध्यत्मिक ज्ञान धारण कर संसार के विषयों से जुड़ता है जबकि  सामान्य मनुष्य ज्ञान के पंच दोषों के प्रभाव के वशीभूत होकर कष्ट उठाता है। इसलिये अगर दैहिक गुरु न मिले तो श्रीमद्भागवत्गीता का अध्ययन उसी तरह करना चाहिये जैसे एकलव्य ने द्रोणाचार्य की प्रतिमा बनाकर धनुर्विद्या सीखी थी।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

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#आमआदमी की उपेक्षा करना अब #संभव नहीं-#हिन्दीचिंत्तनलेख


                    सार्वजनिक जीवन में मानवीय संवेदनाओं से खिलवाड़ कर  सदैव लाभ उठाना खतरनाक भी हो सकता है। खासतौर से आज जब अंतर्जाल पर सामाजिक जनसंपर्क तथा प्रचार की सुविधा उपलब्ध है। अभी तक भारत के विभिन्न पेशेवर बुद्धिजीवियों ने संगठित प्रचार माध्यमों में अपने लिये खूब मलाई काटी पर अब उनके लिये परेशानियां भी बढ़ने लगी हैं-यही कारण है कि बुद्धिजीवियों का एक विशेष वर्ग अंतर्जालीय जनसंपर्क तथा प्रचार पर नियंत्रण की बात करने लगा है।

                              1993 में मुंबई में हुए धारावाहिक बम विस्फोटों का पंजाब के गुरदासपुर में हाल ही में हमले से सिवाय इसके कोई प्रत्यक्ष कोई संबंध नहीं है कि दोनों घटनायें पाकिस्तान से प्रायोजित है।  बमविस्फोटों के सिलसिले में एक आरोपी को फांसी होने वाली है जिस पर कुछ बुद्धिमान लोगों ने वैसे ही प्रयास शुरु किये जैसे पहले भी करते रहे हैं। इधर उधर अपीलों में करीब तीन सौ से ज्यादा लोगों ने हस्ताक्षर किये-मानवीय आधार बताया गया। इसका कुछ सख्त लोगों ने विरोध किया। अंतर्जाल पर इनके विरुद्ध अभियान चलने लगा। इसी दौरान पंजाब के गुरदासपुर में हमला होने के बाद पूरे देश में गुस्सा फैला जो अंतर्जाल पर दिख रहा है। लगे हाथों सख्त मिजाज लोगों ने इन हस्ताक्षरकर्ता बुद्धिजीवियों पर उससे ज्यादा भड़ास निकाली।  जिन शब्दों का उपयोग हुआ वह हम लिख भी नहीं सकते। हमारे हिसाब से स्थिति तो यह बन गयी है कि इन हस्ताक्षरकर्ता बुद्धिजीवियों के हृदय भी अब यह सोचकर कांप रहे होंगे कि गुरदासपुर की घटना के बाद आतंकवाद पर उनका परंपरागत ढुलमुल रवैया जनमानस में स्वयं की खलनायक छवि स्थाई न बना दे।

                              हमने पिछले दो दिनों से ट्विटर और फेसबुक पर देखा है।  यकीनन यह लोग अभी तक अंतर्जालीय मंच को निम्न कोटि का समझते हैं शायद परवाह न करें पर कालांतर में उनको यह अनुभव हो जायेगा कि संगठित प्रचार माध्यमों से ज्यादा यह साामाजिक जनसंपर्क और प्रचार माध्यम ज्यादा शक्तिशाली है। सबसे बड़ी बात यह कि आम जनमानस के प्रति उपेक्षा का रवैया अपनाने वाले इन लोगों का इस बात का अहसास धीरे धीरे तब होने लगेगा उनके जानने वाले तकनीक लोग उन्हें अपनी छवि के बारे में बतायेंगे।

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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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जिंदगी का हिसाब-हिंदी व्यंग्य कविता


कुदरत की अपनी चाल है

इंसान की अपनी चालाकियां है,

कसूर करते समय

सजा से रहते अनजान

यह अलग बात है कि

सर्वशक्तिमान की सजा की भी बारीकियां हैं,

दौलत शौहरत और ओहदे की ऊंचाई पर

बैठकर इंसान घमंड में आ ही जाता है,

सर्वशक्तिमान के दरबार में हाजिरी देकर

बंदों में खबर बनकर इतराता है,

आकाश में बैठा सर्वशक्तिमान भी

गुब्बारे की तरह हवा भरता

इंसान के बढ़ते कसूरों पर

बस, मुस्कराता है

फोड़ता है जब पाप का घड़ा

तब आवाज भी नहीं लगाता है।

कहें दीपक बापू

अहंकार ज्ञान को खा जाता है,

मद बुद्धि को चबा जाता है,

अपने दुष्कर्म पर कितनी खुशफहमी होती लोगों को

किसी को कुछ दिख नहीं रहा है,

पता नहीं उनको कोई हिसाब लिख रहा है,

गिरते हैं झूठ की ऊंचाई से लोग,

किसी को होती कैद

किसी को घेर लेता रोग

उनकी हालत पर

जमीन पर खड़े इंसानों को तरस ही जाता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Gwalior, madhyapradesh

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माया का तिलिस्म-हिंदी व्यंग्य कविता


देश में तरक्की बहुत हो गयी है

यह सभी कहेंगे,

मगर सड़कें संकरी है

कारें बहुत हैं

इसलिये हादसे होते रहेंगे,

रुपया बहुत फैला है बाज़ार में

मगर दौलत वाले कम हैं,

इसलिये लूटने वाले भी

उनका बोझ हल्का कर

स्वयं ढोते रहेंगे।

कहें दीपक बापू

टूटता नहीं तिलस्म कभी माया का,

पत्थर पर पांव रखकर

उस सोने का पीछा करते हैं लोग

जो न कभी दिल भरता

न काम करता कोई काया का,

फरिश्ते पी गये सारा अमृत

इंसानों ने शराब को संस्कार  बना लिया,

अपनी जिदगी से बेजार हो गये लोगों ने

मनोरंजन के लिये

सर्वशक्तिमान की आराधना को

खाली समय

पढ़ने का किस्सा बना लिया,

बदहवास और मदहोश लोग

आकाश में उड़ने की चाहत लिये

जमीन पर यूं ही गिरते रहेंगे।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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शांति और हथियार के सौदागर-हिंदी व्यंग्य कविता


 

जंग के लिये जो अपने  घर में हथियार बनाते हैं,

बारूद का सामान बाज़ार में  लोगों को थमाते हैं।

दुनियां में उठाये हैं वही शांति का झंडा अपने हाथ

खून खराबा कहीं भी हो, आंसु बहाने चले आते हैं।

कहें दीपक बापू, सबसे ज्यादा कत्ल जिनके नाम

इंसानी हकों के समूह गीत वही दुनियां में गाते हैं।

पराये पसीने से भरे हैं जिन्होंने अपने सोने के भंडार

गरीबों के भले का नारे वही जोर से सुनाते हैं।

अपनी सोच किसको कब कहां और  कैसे सुनायें

चालाक सौदागरों के जाल में लोग खुद ही फंसे जाते हैं।

खरीद लिये हैं उन्होंने बड़े और छोटे रुपहले पर्दे

इसलिये कातिल ही फरिश्ते बनकर सामने आते हैं।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

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बीमार बन गए चिकित्सक -हिंदी व्यंग्य कविता


इस जहान में आधे से ज्यादा लोग

चिकित्सक हो गये हैं,

अपनी बीमारियों की दवायें खाते खाते

इतना अभ्यास कर लिया है कि

वह बीमारी और दवा के बीच

अपना अस्तित्व खो रहे हैं,

बताते हैं दूसरों को दवा

भले कभी खुद ठीक न हो रहे हों।

कहें दीपक बापू

अपनी छींक आते ही हम

रुमाल लगा लेते हैं

इस भय से कि कोई देखकर

दुःखी हो जायेगा,

बड़ी बीमारी का भय दिखाकर

बड़े चिकित्सक का रास्ता बतायेगा,

सत्संग में भी सत्य पर कम

मधुमेह पर चर्चा ज्यादा होती है,

सर्वशक्तिमान से ज्यादा

दवाओं  पर बात  होती है,

कितनी बीमारियां

कितनी दवायें

बीमार समाज देखकर लगता है

छिपकर खुशी की सांस ली जाये,

लाचार शरीर में लोग

ऊबा हुआ मन ढो रहे हैं,

बीमार खुश है अपनी बीमारी और दवाओं पर

भीड़ में सत्संग कर

यह सोचते हुए कि

वह स्वास्थ्य का बीज बो रहे हैं।

 लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

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लुटेरों की खता नही है-हिंदी व्यंग्य कविता


दौलत की दौड़ में बदहवास है पूरा जमाना

या धोखा है हमारे नजरिये में

यह हमें भी पता नहीं है,

कभी लोगो की चाल पर

कभी अपने ख्याल पर

शक होता है

दुनियां चल रही अपने दस्तूर से दूर

सवाल उठाओ

जवाब में होता यही दावा

किसी की भी खता नहीं है।

कहें दीपक बापू

शैतान धरती के नीचे उगते हैं,

या आकाश से ज़मीन पर झुकते हैं,

सभी चेहरे सफेद दिखते हैं,

चमकते मुखौटे बाजार में बिकते हैं,

उंगली उठायें किसकी तरफ

सिलसिलेवार होते कसूर पर

इंसानियत की दलीलों से जहन्नुम में

जन्नत की तलाश करते लोगों की नज़र में

पहरेदार की तलाशी होना चाहिये पहले

कहीं अस्मत लुटी,

कहीं किस्मत की गर्दन घुटी,

लुटेरों की खता नही है।

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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

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हिंदी दिवस पर हास्य कविता-राष्ट्रभाषा का महत्व अंग्रेजी में समझाते


हिन्दी दिवस हर बार

यूं ही मनाया जायेगा,

राष्ट्रभाषा का महत्व

अंग्रेजी में बोलेंगे बड़े लोग

कहीं हिंग्लिश में

नेशनल लैंग्वेज का इर्म्पोटेंस

मुस्कराते समझाया जायेगा।

कहें दीपक बापू

पता ही नहीं लगता कि

लोग तुतला कर बोल रहे हैं

या झुंझला कर भाषा का भाव तोल रहे हैं,

हिन्दी लिखने वालों को

बोलना भी सिखाया जायेगा,

हमें तसल्ली है

अंग्रेजी में रोज सजती है महफिलें

14 सितम्बर को हिन्दी के नाम पर

चाय, नाश्ता और शराब का

दौर भी एक दिन चल जायेगा।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

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हिन्दी दिवस पर विशेष निबंध लेख-अध्यात्म की भाषा हिन्दी को चाटुकार संबल नहीं दे सकते


                        14 सितम्बर 2013 को एक बार फिर हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है।  इस अवसर पर सरकारी तथा अर्द्धसरकारी तथा निजी संस्थाओं में कहीं हिन्दी सप्ताह तो कही पखवाड़ा मनाया जायेगा।  इस अवसर पर सभी जगह जो कार्यक्रम आयोजित होंगे उसमें निबंध, कहानी तथा कविता लेखन के साथ ही वादविवाद प्रतियोगितायें होंगी। कहीं परिचर्चा आयोजित होगी।  अनेक लोग भारत में हिन्दी दिवस मनाये जाने पर व्यंग्य करते हैं। उनका मानना है कि यह देश के लिये दुःखद है कि राष्ट्रभाषा के लिये हमें एक दिन चुनना पड़ता है।  उनका यह भी मानना है कि हिन्दी भाषा अभी भी अंग्रेजी के सामने दोयम दर्जे की है।  कुछ लोग तो अब भी हिन्दी को देश में दयनीय स्थिति में मानते हैं। दरअसल ऐसे विद्वानों ने अपने अंदर पूर्वाग्रह पाल रखा है। टीवी चैनल, अखबार तथा पत्रिकाओं में उनके लिये छपना तो आसान है पर उनका चिंत्तन और दृष्टि आज से पच्चीस या तीस वर्ष पूर्व से आगे जाती ही नहीं है।  ऐसे विद्वानों को मंच भी सहज सुलभ है क्योंकि हिन्दी का प्रकाशन बाज़ार उनका प्रयोजक है। इनमें से कई तो ऐसे हैं जो हिन्दी लिखना ही नहीं जानते बल्कि उनके अंग्रेजी में लिखे लेख हिन्दी प्रकाशनों में अनुवाद के साथ आते हैं। उनका सरोकार केवल लिखने से है। एक लेखक का इससे ज्यादा मतलब नहीं होना चाहिये पर शर्त यह है कि वह समय के बदलाव के साथ अपना दृष्टिकोण भी बदले।

                        एक संगठित क्षेत्र का लेखक कभी असंगठित लेखक के साथ बैठ नहीं सकता।  सच तो यह है कि जब तक इंटरनेट नहीं था हमें दूसरे स्थापित लेखकों को देखकर निराशा होती थी पर जब इस पर लिखना प्रारंभ किया तो इससे बाहर प्रकाशन में दिलचस्पी लेना बंद कर दिया।  यहां लिखने से पहले हमने बहुत प्रयास किया कि भारतीय हिन्दी क्षितिज पर अपना नाम रोशन करें पर लिफाफे भेज भेजकर हम थक गये।  सरस्वती माता की ऐसी कृपा हुई कि हमने इंटरनेट पर लिखना प्रारंभ किया तो फिर बाहर छपने का मोह समाप्त हो गया।  यहंा स्वयंभू लेखक, संपादक, कवित तथा चिंत्तक बनकर हम अपना दिल यह सोचकर ठंडा करते हैं कि चलो कुछ लोग तो हमकों पढ़ ही रहे हैं।  कम से कम हिन्दी दिवस की अवधि में हमारे ब्लॉग जकर हिट लेते हैं।  दूसरे ब्लॉग  लेखकों का पता नहीं पर इतना तय है कि भारतीय अंतर्जाल पर हिन्दी की तलाश करने वालों का हमारे ब्लॉग से जमकर सामना होता है।  दरअसल निबंध, कहानी, कविता तथा टिप्पणी लिखने वालों को अपने लिये विषय चाहिये।  वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेने वाले युवाओं तथा परिचर्चाओं में बोलने वाले विद्वानों को हिन्दी विषय पर पठनीय सामग्रंी चाहिये और अब किताबों की बजाय ऐसे लोग इंटरनेट की तरफ आते हैं।  सर्च इंजिनों में उनकी तलाश करते हुए हमारे बलॉग उनके सामने आते हैं।  यही बीस ब्लॉग बीस  किताब की तरह हैं।  यही कारण है कि हम अब अपनी किताब छपवाने का इरादा छोड़ चुके हैं।  कोई प्रायोजक हमारी किताब छापेगा नहीं और हमने छपवा लिये तो हमारा अनुमान है कि हम हजार कॉपी बांट दें पर उसे पढ़ने वाले शायद उतने न हों जितना हमारी एक कविता यहां छपते ही एक दिन में लोग पढ़ते हैं।  इतना ही नहीं हमारे कुछ पाठ तो इतने हिट हैं कि लगता है कि उस ब्लॉग पर बस वही हैं।  अगर वह पाठ  हम किसी अखबार में छपवाते तो उसे शायद इतने लोग नहीं देखते जितना यहां अब देख चुके हैं। आत्ममुग्ध होना बुरा हेाता है पर हमेशा नहीं क्योंकि अपनी अंतर्जालीय यात्रा में हमने देख लिया कि हिन्दी के ठेकेदारों से अपनी कभी बननी नहीं थी।  यहां हमें पढ़ने वाले जानते हैं कि हम अपने लिखने के लिये बेताब जरूर रहते हैं पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि हमें कोई प्रचार की भूख है।  कम से कम इस बात से  हमें तसल्ली है कि अपने समकालीन हिन्दी लेखकों में स्वयं ही अपनी रचना टाईप कर लिखने की जो कृपा प्राकृतिक रूप से हुई है कि हम  उस पर स्वयं भी हतप्रभ रह जाते हैं क्योंकि जो अन्य लेखक हैं वह इंटरनेट पर छप तो रहे हैं पर इसके लिये उनको अपने शिष्यों पर निर्भर रहना पड़ता है।  दूसरी बात यह भी है कि टीवी चैनल ब्लॉग, फेसबुक और ट्विटर जैसे अंतर्जालीय प्रसारणों में वही सामग्री उठा रहे हैं जो प्रतिष्ठत राजनेता, अभिनेता या पत्रकार से संबंधित हैं।  यह सार्वजनिक अंतर्जालीय प्रसारण पूरी तरह से बड़े लोगों के लिये है यह भ्रम बन गया है।  अखबारों में भी लोग छप रहे हैं तो वह अंतर्जालीय प्रसारणों का मोह नहीं छोड़ पाते।  कुछ मित्र पाठक पूछते हैं कि आपके लेख किसी अखबार में क्या नहीं छपतें? हमारा जवाब है कि जब हमारे लिफाफोें मे भेजे गये लेख नहीं छपे तो यहां से उठाकर कौन छापेगा?  जिनके अंतर्जालीय प्रसारण अखबारों या टीवी में छप रहे हैं वह संगठित प्रकाशन जगत में पहले से ही सक्रिय हैं। यही कारण है कि अंतर्जाल पर सक्रिय किसी हिन्दी लेखक को राष्ट्रीय क्षितिज पर चमकने का भ्रम पालना भी नहीं चाहिये।  वह केवल इंटरनेट के प्रयोक्ता हैं। इससे ज्यादा उनको कोई मानने वाला नहीं है।

                        दूसरी बात है कि मध्यप्रदेश के छोटे शहर का होने के कारण हम जैसे लेखको यह आशा नहीं करना चाहिये कि जिन शहरों या प्रदेशों के लेखक पहले से ही प्रकाशन जगत में जगह बनाये बैठे हैंे वह अपनी लॉबी से बाहर के आदमी को चमकने देंगे।  देखा जाये तो क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्म तथा विचारवाद पहले से ही देश में मौजूद हैं अंतर्जाल पर हिन्दी में सक्रिय लेाग उससे अपने को अलग रख नहीं पाये हैं।  अनेक लोगों से मित्र बनने का नाटक किया, प्रशंसायें की और आत्मीय बनने का दिखावा किया ताकि हम मुफ्त में यहां लिखते रहें।  यकीनन उन्हें कहीं से पैसा मिलता रहा होगा।  वह व्यवसायिक थे हमें इसका पता था पर हमारा यह स्वभाव है कि किसी के रोजगार पर नज़र नहीं डालते।  अब वह सब दूर हो गये हैं।  कई लोग तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर को होने का दावा भी करने लगे हैं पर उनका मन जानता है कि वह इस लेखक के मुकाबले कहां हैं? वह सम्मान बांट रहे हैं, आपस में एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे हैं। कभी हमारे प्रशंसक थे अब उनको दूसरे मिल गये हैं। चल वही रहा है अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह चीन्ह कर दें।  दरअसल वह इंटरनेट पर हिन्दी फैलाने से अधिक अपना हित साधने में लगे हैं। यह बुरा नहीं है पर अपने दायित्व को पूरा करते समय अपना तथा पराया सभी का हित ध्यान में न रखना अव्यवसायिकता है। पैसा कमाते सभी है पर सभी व्यवसायी नहीं हो जाते। चोर, डाकू, ठग भी पैसा कमाते हैं।  दूसरी बात यह कि कहीं एक ही आदमी केले बेचने वाला है तो उसे व्यवसायिक कौशल की आवश्यकता नहीं होती। उसके केले बिक रहे हैं तो वह भले ही अपने व्यवसायिक कौशल का दावा करे पर ग्राहक जानता है कि वह केवल लाभ कमा रहा है।  अंतर्जाल पर हिन्दी का यही हाल है कि कथित रूप से अनेक पुरस्कार बंट जाते हैं पर देने वाला कौन है यह पता नहीं लगता।  आठ दस लोग हर साल आपस में ही पुरस्कार बांट लेते हैं।  हमें इनका मोह नहीं है पर अफसोस इस बात का है कि यह सब देखते हुए हम किसी दूसरे लेखक को यहां लिखने के लिये प्रोत्साहित नहीं कर पाते।  हमारे ब्लॉगों की पाठक संख्या चालीस लाख पार कर गयी है। यह सूचना हम देना चाहते हैं। इस पर बस इतना ही।  हिन्दी दिवस पर कोई दूसरा तो हमें पूछेगा नहंी इसलिये अपना स्म्मान स्वयं ही कर दिल बहला रहे हैं। 

 

 लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

 

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

 

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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सूरज की रौशनी में-हिंदी व्यंग्य कविता


रोज पर्दे पर देखकर उनके चेहरे

मन उकता जाता है,

जब तक दूर थे आंखों से

तब तक उनकी ऊंची अदाओं का दिल में ख्वाब था,

दूर के ढोल की तरह उनका रुआब था,

अब देखकर उनकी बेढंगी चाल,

चरित्र पर काले धब्बे देखकर होता है मलाल,

अपने प्रचार की भूख से बेहाल

लोगों का असली रूप  बाहर आ ही जाता है।

कहें दीपक बापू

बाज़ार के सौदागर

हर जगह बैठा देते हैं अपने बुत

इंसानों की तरह जो चलते नज़र आते हैं,

चौराहों पर हर जगह लगी तस्वीर

सूरज की रौशनी में

रंग फीके हो ही जाते हैं,

मुख से बोलना है उनको रोज बोल,

नहीं कर सकते हर शब्द की तोल,

मालिक के इशारे पर उनको  कदम बढ़ाना है,

कभी झुकना तो कभी इतराना है,

इंसानों की आंखों में रोज चमकने की उनकी चाहत

जगा देती है आम इंसान के दिमाग की रौशनी

कभी कभी कोई हमाम में खड़े

वस्त्रहीन चेहरों पर नज़र डाल ही जाता है,

एक झूठ सौ बार बोलो

संभव है सच लगने लगे

मगर चेहरों की असलियत का राज

यूं ही नहीं छिप पाता है।

——————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

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क्रिकेट में सिर पर सवार पैसा-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन


        इस समय इंग्लैंड में चैम्पियन ट्राफी क्रिकेट प्रतियोगिता चल रही है। इसमें बीसीसीआई की टीम जोरदार प्रदर्शन करते हुए आगे बढ़ती जा रही है। अनेक क्रिकेट विशेषज्ञ चकित हैं। बीसीसीआई के क्रिकेट खिलाड़ी जिस तरह तूफानी बल्लेबाजी कर रहे है तो दूसरी टीमों के खिलाड़ी धीमे धीमे चल रहे हैं उससे लगता है कि जैसे पिचें अलग अलग हैं। कभी कभी लगता है कि बल्ला या गेंदें भी अलग अलग हैं। मतलब यह कि भारतीय बल्लेबाज दूसरों के मुकाबले ज्यादा आक्रामक हैं। किसी के समझ में नहीं आ रहा है।

          हम समझाते हैं कि आखिर मामला क्या है? गुरुगोविंद सिंह ने कहा है कि पैसा बहुत जरूरी चीज है पर खाने के लिये दो रोटी चाहिये। मतलब यह कि जिंदगी में पैसा जरूरी है।  एक विद्वान कहते हैं कि पैसा कुछ हो या न हो पर जीवन में आत्मविश्वास का बहुत बड़ा स्तोत्र होता है।  जी हां, आईपीएल में बीसीसीआई की टीम के बल्लेबाजों ने जमकर पैसा कमाया है।  यह उनके आत्मविश्वास का ही  कारण बन गया है।  उनको मालुम है कि हमारे पास पैसा बहुत है और यह भाव उनको आक्रामक बना देता है। सीधी बात कहें कि पैसा सिर चढ़कर बोलता है।  हम यहां बीसीसीआई के खिलाडियों की आलोचना नहीं कर रहे बल्कि यह बता रहे हैं कि जिस तरह अन्य टीमों के खिलाड़ी बुझे मन से खेल रहे हैं उससे तो यही लगता है कि उनमें वैसा विश्वास नहीं है जैसा बीसीसीाआई की टीम में हैं। इसे कहते हैं कि पैसा सिर चढ़कर बोलता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’

Gwalior, Madhya Pradesh

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दरबारी बुत-हिन्दी कविता


एक दूसरे के तख्ते बजाते लोग
किसी ऊंचे तख्त पर होंगे विराजमान
फिर हथियारों के पहरे में
अपनी ढपली अपना राग बजायेंगे।
सस्ते तोहफे से बनाकर लोगों को बुत
कर लेंगे दुनियां अपनी मुट्ठी में
अपने ही दरबार में उनको सजायेंगे।
कहें दीपक बापू
ज़माने का भला करने वाले ठेकेदार
फैले हें चारों ओर
उनके दाव से कब तक खुद को बचायेंगे।

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

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वीडियो पर हिंदी व्यंग्य प्रस्तुत करने का एक प्रयास


महिला और पुरुष:कौन आगे कौन पीछे-महिला दिवस पर विशेष लेख


       हमारे देश में आजकल रोज एक दिवस मनता दिखता है।  वैसे तो भारत को वैसे भी त्यौहारों का ही देश कहा जाता है पर वह सप्ताह या माह के अंतराल बाद ही आते हैं। पूर्णमासी तथा अमावस्या हर महीने ही आती हैं।  कैलेंडर में देखें तो रोज कोई न कोई खास दिन होता है। इधर पश्चात्य संस्कृति ने अपने पांव पसारे हैं तो लगता है कि हर दिन ही त्यौहार है। मित्र दिवस, मातृ दिवस, पितृ दिवस और नया वर्ष जैसे दिन तो बहुत सुनते हैं। कभी एड्स विरोधी दिवस तो कभी कैंसर निरोधी दिवस भी सुनाई देता हैं  इधर हाल ही में महिला दिवस मना। व्यवसायिक बुद्धिमानों ने जहां अपनी वाणी और चेहरे से टीवी चैनलों के साथ ही रेडियों पर अपने भाषण झाड़े वही आमजनों में अपना रुतवा रखने वाले महानुभावों ने नारी शक्ति अनौपचारिक बैठकों में  बखान किया।

हमने देखा है कि पुरुष दिवस कभी नहीं मनता। इसका सीधा मतलब यह है कि यह मान लिया गया है कि यह संसार पुरुषों की संपत्ति है जिसमें महिलायें उनकी अनुकंपा से जी रही हैं।  हमारे देश के जनवादी और प्रगतिशील  बुद्धिमान हमेशा ही जाति, वर्ण, भाषा तथा क्षेत्र के आधार पर भेदभाव का आरोप लगाते हैं पर नारी विषय पर उनका रुख बदल जाता है।  वहां वह पुरुष को एक तरह से राक्षसी वृत्ति का मान लेते हैं यह अलग बात है कि वह स्वयं भी पुरुष ही होते हैं। उनके तर्कों पर हम हंसते हैं।  कहते हैं कि समाज में पुरुषवादी मानसिकता है।  हम पूछते हैं कि जब आप नारी अनाचार के विरुद्ध विषवमन करते हो तब क्या कभी यह देखा है कि वास्तव में उनका शत्रु कौन होता है?

कुछ नारीवादी बुद्धिमान तो नारी के लिये विवाह बंधन ही खतरनाक मानते हैं यह अलग बात है कि उनमें अविवाहित या ब्रह्चारी कोई नहीं होता।  आयुवर्ग में भी वह युवा न होकर उस अवस्था में होते हैं जब देह में रोमांस का असर काम हो जाता है।  अपनी बात वह युवाओं पर तब लादते दिखते हैं जब उनका खुद का समय बीत गया होता है। अपने युवा दिनों की मटरगस्ती को वह भूल जाते हैं।  कहा जाता है कि विवाह का लड्डू जो खाये वह भी दुःखी जो न खाये वह भी दुःखी।  जिन्होंने स्वयं खा लिया है वह दूसरों को न खाने की सलाह देते हैं।  मजे की बात यह कि भारतीय पारिवारिक संस्कारों के साथ जीने वाले लोग उसका मजाक बनाते हैं पर स्वयं के लिये उनका नियम पुराना ही होता है। वह विद्रोह का झंडा दूसरों के हाथ में देकर स्वयं आराम से सामाजिक फिल्म देखना चाहते हैं ताकि उसकी समीक्षायें लिखी और सुनाईं जा सकें।  समस्या यह है कि वह इस बात नियम को नहीं मानते कि नारी के लिये पुरुष कम नारियां ही अधिक समस्या खड़ी करती हैं।  भारतीय रिश्तों में नहीं वरन् पूरे विश्व में ही ननद-भाभी, सास-बहु, देवरानी-जेठानी तथा अन्य बहन जैसे रिश्तों में तनाव की बात सामने आती है।  अपवाद स्वरूप ही देवर-भाभी, ससुर-बहु, नन्दोही-सलहज और साली बहनोई के रिश्ते में खटास वाली घटनायें होती हैं।  सामाजिक विशेषज्ञों का अनुभव तो यह भी कहता है कि पर्दे के पीछे नारियों के विवाद होते हैं पर समाज के सामने फंसता पुरुष ही है क्योंकि परिवार उसके नाम पर जाना जाता है।  हमारे यहां घरेलु नारियों की रक्षा के नाम पर जितने भी प्रयास हुए हैं उनमें जड़ में नारियों का आपसी विवाद होता है पर परेशान पुरुष ही होता है।  इन मामलों में यह देखा गया है कि मामलों को बाहर सुलझाने के लिये घर से बाहर ले जाने जो प्रयास होते हैं उनमें से अधिकतर शिकायतें गलत आधार पर गलत व्यक्ति के खिलाफ होती है।  दहेज विरोधी कानून का जमकर दुरुपयोग हुआ।  अनेक सामाजिक विशेषज्ञ तो यह कहते हैं कि इस कानून का दुरुपयोग करने का यह परिणाम हुआ है कि ऐसे अनेक दंपत्ति जो एक साथ समझाने पर रह सकते थे वह मामला बाहर आने में मन में  बढ़ी हुई  खटास के कारण अलग हो गये।  अनेक लोगों की कथा तो इसलिये भी दर्दनाक रही है कि वह उस शादी में एक समय का भोजन करना उन्हें महंगा लगा जिसका भांडा चौराहे पर फूटा और उन पर भी घाव हुए। स्थिति इतनी खराब है कि कहीं नवदंपत्ति का विवाद होने  पर निकटस्थ रिश्तेदार बीच में आकर सुलझाना ही नहीं चाहते क्योंकि उनको लगता है कि कहीं उनका नाम चौराहे पर न घसीट लिया जाये।  विवाह एक सामाजिक मामला है और उसे उसके नियमों के दायरे में ही रखना चाहिये न कि उसमें राजकीय हस्तक्षेप हो।  राजकीय हस्तक्षेप से समाज के सुधार का प्रयास पाश्चात्य विचाराधारा से उपजा है जो निहायत अव्यवाहारिक है।  ऐसे प्रयासों से भारतीय समाज बिखरा है। दूसरी बात यह कि जिस तरह सारे पुरुष देवता नहीं है तो राक्षस भी नहीं है उसी तरह नारियों का भी हमेशा सकारात्म स्वरूप रहता है यह माना नहीं माना जा सकता।  अगर समाज में नारियों के विरुद्ध अपराध बढ़े हैं तो उसमें शामिल नारियों की संख्या भी बढ़ी है।

अब मुश्किल यह है कि जनवादियों और प्रगतिवादियों ने देश के अभिव्यक्ति के साधनों पर इस कदर कब्जा कर लिया है कि उनके प्रतिकूल सर प्रथक  किसी बात कहने पर किसी पर प्रभाव नहीं होता।  समाज में आयु, वर्ण, जाति, भाषा, धर्म और लिंग के आधार पर कल्याण के दावे हो रहे हैं पर खुश कोई नहीं है।  वजह साफ है कि  समाज को एक इकाई मानते हुए देश में सभी शहरों के साथ गांवों में भी सड़कों का जाल बिछा होना चाहिये।   सभी जगह शुद्ध पेयजल प्रदाय की सहज व्यवस्था हो।  इसके साथ ही बिजली हर घर में पहुंचना चाहिये।  यह मूलभूत सुविधायें हैं अगर यह देश के किसी हिस्से में नहीं है तो हम अपने पूर्ण विकास का दावा नहीं कर सकते।  इसके विपरीत देश के बुद्धिमान किश्तों में अलग अलग समाज को भागों में बांटकर विकास देखना चाहते हैं।  हमारे देश में गरीब परिवारों जो स्थिति है उसमें नारी दयनीय जीवन जीती है पर यकीनन पुरुष भी कोई खुशहाल नहीं होता।   अपने पिता, पति और पुत्र को जूझते देखकर नारी स्वयं की दयनीय स्थिति से समझौता कर लेती है।  सीधी बात कहें तो नारी और पुरुष के बिना मानवीय संसार नहीं चल सकता।  दोनों परिवार के पहिये हैं।  एक पहिया पीछे तो एक आगे चलता है।  आगे का पहिया पुरुष है और अगर नारीवादी चाहते हैं कि नारी आगे पहिये के रूप में चले तो ठीक है।  उनके प्रयास बुरे नहीं है पर उन्हें यह समझना होगा कि तब पुरुष को पिछला पहिया बनना होगा। एक पहिया आगे तो एक पीछे रखना ही होगा। हालांकि तब इन नारीवादियों को तब पुरुषवादी बनना पड़ेगा।

  दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’

Gwalior, Madhya Pradesh

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इश्क़ नहीं है आसान-हिन्दी व्यंग्य कविता


इश्क आसान है
अगर दिल से करना जानो तो
जिस्म से ज्यादा रूह को मानो तो
जहां कुछ पाने की ख्वाहिश पाली दिल में
सौदागरों के चंगुल में फंस जाओगे।
कहें दीपक बापू
कोई दौलत पाता है,
कोई उसे गँवाता है,
सिक्कों के खेल में
किसका पेट भरता है,
आम इंसान की ज़िंदगी
कभी कहानी नहीं बनती
चाहे जीता या मरता है,
किसी को होंठों से चूमना,
हाथ पकड़कर साथ साथ घूमना,
दिल का दिल से मिले होने का सबूत नहीं है,
जज़्बात बाहर दिखाये कोई ऐसा भूत नहीं,
इंसान के कायदे अलग हैं,
जिंदगी के उसूल अलग हैं,
करीब से जब जान लोगे
तभी सारे जहां पर हंस पाओगे।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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चमकते सितारे बदसूरत नज़ारे-हिन्दी कविता


क्यों उम्मीद करते हो उन लोगों से
जो हुकूमत का पहाड़ चढ़ने के लिए
तुमसे पाँव उधार मांगने आते हैं,
बताओ ज़रा यह कि
जिनके सिर आसमान में टंगे हैं
चमकते सितारों की तरह
उनकी आँखों को नीचे के बदसूरत नज़ारे
कब नज़र आते हैं।
———–
जब से सीखा है
कौवे से किसी दूसरे पर
कभी भरोसा न करना
ज़िंदगी अपने अमन और चैन रहने लगा है,
हो गया है इस बात का अहसास कि
वफा बाज़ार में बिकने वाली शय है
यहाँ हर कोई मतलब का सगा है।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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शायद कोई हालात बदल दे-हिंदी कविता(shayad koyee halat badal de-hindi poem


जमाने को बदल देंगे
यह ख्याल अच्छा है
पर कोई चाबुक नहीं
किसी इंसान के पास
जिससे दूसरे का ख्याल बदल दे।
अमीरी खूंखार ख्याल लाती है,
कहर बरपाने के कदमों में
ताकत का सबूत पाती है,
गरीबी मदद के लिये
भटकाती है इधर से उधर,
दरियादिली के इंतजार में खड़े टूटे घर,
न बदलती किस्मत
न होती हिम्मत
बस उम्मीद जिंदा रहती है कि
शायद कोई हालात बदल दे।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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आतंकवादी का साक्षात्कार-हिन्दी हास्य व्यंग्य कविता (aatankvadi ka sakshatakar-hindi hasya vyangya kavita)


एक पत्रकार आतंकवादी का
साक्षात्कार लेने पहुंचा और बोला
‘भई, बड़ी मुश्किल से तुम्हें ढूंढा है
अब इंटरव्यु के लिऐ मना नहीं करना
बहुत दिन से कोई सनसनीखेज खबर नहीं मिली
इसलिये नौकरी पर बन आई है,
तुम मुझ पर रहम करना
आखिर दरियादिल आतंकवादी की
छबि तुमने पाई हैं।’
सुनकर आतंकवादी बोला
‘‘भई, हमारी मजबूरी है,
तुम्हें साक्षात्कार नहीं दे सकता
क्योंकि तुमने कमीशन देने की
मांग नहीं की पूरी है,
पता नहीं तुम यहां कैसे आ गये,
जिंदा छोड़ रहा हूं
तुम शायद सीधे और नये हो
इसलिये मुझे भा गये,
कमबख्त!
तुम्हें आर्थिक वैश्वीकरण के इस युग में
इस बात का अहसास नहीं है कि
आतंकवाद भी कमीशन और ठेके पर चलता है,
उसी पर ही हमारे अड्डे का चिराग जलता है,
टीवी पर चाहे जैसा भी दिखता हो,
अखबार चाहे जो लिखता हो,
हक़ीकत यह है कि
अगर पैसा न मिले तो हम आदमी क्या
न मारें एक परिंदा भी,
आतंक के पक्के व्यापारी हैं
कहलाते भले ही दरिंदा भी,
हमें सुरक्षा कमीशन मिल जाये
तो समझ लो हाथी सलामत निकल जाये,
न मिले तो चींटी भी गोली खाये,
आजकल निठल्ला बैठा हूं
इसका मतलब यह नहीं कि काम नहीं है
सभी चुका रहे हैं मेरा कमीशन
फिर हमला करने का कहीं से मिला दाम नहीं है,

अब इससे ज्यादा मत बोलना
निकल लो यहां से
सर्वशक्तिमान को धन्यवाद दो कि
क्योंकि अभी तुम्हारी जिंदगी ने अधिक आयु पाई है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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लहरें देखकर खेलने का मन करता है-हिंदी कविता(lahren aur man-hindi kavita)


जिंदगी की इस धारा में
किस किसकी नाव पार लगाओगे।
समंदर से गहरी है इसकी धारा
लहरे इतनी ऊंची कि
आकाश का भी तोड़ दे तारा
अपनी सोच को इस किनारे से
उस किनारे तक ले जाते हुए
स्वयं ही ख्यालों में डूब जाओगे।
दूसरे को मझधार से तभी तो निकाल सकते हो
जब पहले अपनी नाव संभाल पाओगे।
दूर उठती लहरें देखकर
खेलने का मन करता है
पर उनकी ताकत तभी समझ आयेगी
जब उनसे लड़ने जाओगे।

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देशी बीमारी, विदेशी बीमारी-हास्य कविता (deshi aur videshi bimari-hasya kavita)


स्वाईन फ्लू की बीमारी ने आते ही देश में प्रसिद्धि आई।
इतने इंतजार के बाद, आखिर शिकार ढूंढते विदेश से आई।।
ढेर सारी देसी बीमारियां पंक्तिबद्ध खड़ी होकर खड़ी थी
पर तब भी विदेश में बीमारी के नृत्य की खबरें यहां पर छाई।
देसी कुत्ता हो या बीमारी उसकी चर्चा में मजा नहीं आता
देसी खाने और दवा के स्वाद से नहीं होती उनको कमाई।।
महीनों से लेते रहे स्वाईन फ्लू का नाम बड़ी शिद्दत से
उससे तो फरिश्ता भी प्रकट हो जाता, यह तो बीमारी है भाई।।
करने लगे हैं लोग, देसी बीमारी का देसी दवा से इलाज
बड़ी मुश्किल से कोई बीमारी धंधा कराने विदेश से आई।।
कहैं दीपक बापू मजाक भी कितनी गंभीरता से होता है
चमड़ी हो या दमड़ी, सम्मान वही पायेगी जो विदेश से आई।।

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यह जिंदगी शब्दों का खेल है-हिंदी शायरी


महलों में रहने वाले भी ज्यादा पेट नहीं भर पाते-हिन्दी शायरी
आकाश से टपकेगी उम्मीद
ताकते हुए क्यों अपनी आंखें थकाते हो।
कोई दूसरा जलाकर चिराग
तुम्हारी जिंदगी का दूर कर देगा अंधेरा
यह सोचते हुए
क्यों नाउम्मीदी का भय ठहराते हो।।

खड़े हो जिन महलों के नीचे
कचड़ा ही उनकी खिड़कियों से
नीचे फैंका जायेगा
सोने के जेवर हो जायेंगे अलमारी में बंद
कागज का लिफाफा ही
जमीन पर आयेगा
निहारते हुए ऊपर
क्यों अपने आपको थकाते हो।

उधार की रौशनी से
घर को सजाकर
क्यों कर्ज के अंधेरे को बढ़ाते हो
जितना हिस्से में आया है तेल
उसमें ही खेलो अपना खेल
देखकर दूसरों के घर
खुश होना सीख लो
सच यह है कि महलों में रहने वाले लोग भी
झौंपड़ी में रहने वालों
से ज्यादा पेट नहीं भर पाते
तुम उनकी खोखली हंसी पर
क्यों अपना ही खून जलाते हो।

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शब्दों के चिराग-हिंदी शायरी
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यह जिंदगी शब्दों का खेल है
जो समझे वह पास
जो न समझे वही फेल है।
कहीं तीरों की तरह चलते हैं
कहीं वीरों की तरह मचलते हैं
लहु नहीं बहता किसी को लग जाने से
जिसे लगे उसे भी
घाव का पता नहीं लगता
दूसरों को ठगने वाले
को अपने ठगे जाने का
पता देर से लगता
कई बार अर्थ बदलकर
शब्द वार कर जाते हैं
जिसके असर देर से नजर आते हैं
जला पाते हैं वही शब्दों के चिराग
जिनमें अपनी रचना के प्रति समर्पण का तेल है।

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