चलो अच्छा ही हुआ कि आज दीपावली के दिन भारत ने एशिया हॉकी कप के फायनल में पाकिस्तान को 3-2 से हराकर खिताब जीत लिया। भारतीय प्रचार माध्यम अपनी श्रेष्ठता दिखाने के लिये खेलों को सनसनीपूर्ण बना देते हैं इसलिये दर्शकों के भावुक होने की पूरी संभावना रहती है-खासतौर से जब देशभक्ति और हिन्दू पर्व का संयुक्त विषय हो-ऐसे में हारने पर कुछ लोग तनाव ज्यादा अनुभव करते हैं। बहरहाल वह मैच हमने देखा। जैसा कि हम जानते हैं कि अब हॉकी का मैच 15-15 मिनट के चार भागों में खेला जाता है। भारतीय हॉकी टीम की यह रणनीति बन गयी है या उसकी स्वाभाविक प्रकृत्ति है कि वह पहले और चौथे भाग में बहुत ज्यादा आक्रामक खेलती है पर दूसरे व तीसरे भाग में उसका प्रदर्शन थोड़ा कमजोर रहता है।
इस मैच में भी भारत ने पहले ही भाग में 2-1 से बढ़त बना ली थी पर तीसरे भाग में पाकिस्तान ने एक गोल कर बराबरी की। चौथे भाग में हमारा यकीन था कि पाकिस्तान पर भारत की तरफ से गोला जरूर होगा। हारने जीतने की चिंता नहीं थी पर हम सोच रहे थे कि अन्य भावुक भारतीय अगर यह स्कोर देखेंगे तो चिंता में पढ़ जायेंगे। तीसरा गोल होने के बाद हमें भी लग रहा था कि जैसे तैसे समय पास हो तो ठीक है। बहरहाल भारत यह मैच जीत गया। यह कामयाबी पाकिस्तान के विरुद्ध है इसलिये ज्यादा महत्वपूर्ण है वरना तो वैश्विक स्तर पर भारतीय टीम को अपना प्रभाव दिखाने के लिये अभी बहुत मेहनत करनी है।
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हमारे अंदर भी पशु और पक्षियों के प्रति भारी संवेदनायें हैं पर दिखावा नहीं करते। इधर कुछ लोग पटाखे चलने से जानवरों पर संकट देख रहे हैं। अगर हिन्दूवादी पूछ रहे हैं कि उनके पर्वो पर ही सवाल क्यों उठते हैं तो इसका जवाब तो मिलना ही चाहिये। दिवाली पर पशुप्रेम दो प्रकार के लोगों को ही जागा है। एक वह जो निरपेक्ष हैं दूसरे जो कुत्ते पालते हैं जिनको इन पटाखों के शोर से बहुत परेशान होती है और उससे बचने के लिये वह स्वामी के शयनकक्ष तक बिना अनुमति के घुस जाते हैं। केवल हिन्दू पर्व पर विलाप करने वाले पशुप्रेमियों को हमारी यह राय है कि वह अपने पालतु बिल्ली और कुत्तों को शयन कक्ष में जाकर बिठा दें उन्हेें पटाखों के शोर से परेशानी नहीं होगी। हमारे पास एक टॉमी नामक कुत्ता-यह शब्द लिखते हुए पीड़ा होती है-तेरह साल रहा है उसे हम इसी तरह ही दिवाली और दशहरा पर इसी तरह बचाते हैं। आज पशुप्रेमियों का अभियान देकर उसकी याद आ रही है और मन भावुक हो रहा है। काश! वह होता तो आज उसे हम इसी तरह अपने शयनकक्ष के पलंग के नीचे दुबका देते।
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दीपावली पर चीनी सामान के बहिष्कार का अभियान तो चल रहा है पर बाज़ार में जिस तरह भीड़ लगी है तो दुकानदार से यह पूछना भी मुश्किल है कि यह चीनी है या देसी। फिर कोई पहचान भी नहीं है। इस बात की संभावना है कि कई दिनों से चीनी सामान के बहिष्कार की बात चलती रही है तो जिन व्यापारियों ने सामान खरीदा हो वह बाहर की पैकिंग भी बदल कर सामान बेच सकते हैं। अतः पूरी तरह यह प्रयास सफल नहीं हो सकता कि चीनी सामान बिके ही नहीं। वैसे भी हम आर्थिक दृष्टि से छोटे व्यापारियों की देशभक्ति पर सवाल नहीं उठायें तो अच्छा है पहले बड़े मगरमच्छों से सभी सवाल करें जो भारी मात्रा में सामान मंगवा रहे है।
एशियाई हॉकी में पाक पर जीत से प्रचार माध्यमों में खुशी दिखनी ही थी-हिन्दी लेख
इंसान हीरे नहीं होते-हिन्दी व्यंग्य कवितायें
पंचतत्वों से बने इंसान
कभी हीरे या
सोने जैसे नहीं होते।
आदतों से मजबूर सभी
चरित्र में चालाकी के बीज
बोने जैसे नहीं होते।
कहें दीपक बापू इतिहास में
खल भी बन गये महानायक
दर्दनाक हादसे करने वाले
पर्दे पर बने घायल के सहायक
कहलाये फरिश्ते ऐसे नाम
जो भले इंसानों की जुबान पर
ढोने जैसे नहीं होते
—————-
इंतजार करो
आग बुझाने आयेंगे वही लोग
जिन्होंने लगाई है।
इंतजार करो
रोटी लेकर आयेंगे वही लोग
जिन्होंने भूख जगाई है।
कहें दीपक बापू लाचारी ओढ़कर
बैठने का सहारा इंतजार है,
बेबस का वादा यार है,
कमजोर के उठ खड़े होने से
घबड़ाते हैं वह चालाक लोग
जिन्होंने ज़माने की तरक्की
अपने घर लगाई है।
—————————-
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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पूज्यनीय सूची-हिन्दी व्यंग्य कवितायें
सर्वशक्तिमान में आस्था
वह भीड़ में नाटकीयता के साथ
सभी को दिखाते हैं।
अपनी पूजा पद्धति
दान में पायी भेंट बांटकर
दूसरों को सिखाते हैं।
कहें दीपक बापू अज्ञान के बुतों से
नहीं बनता कोई दूसरा काम,
सर्वशक्तिमान के सेवक के रूप में
कमाना चाहते पैसा और नाम,
सामान देकर खरीदते आस्था
भक्ति के व्यापार से
पूज्यनीय सूची में नाम लिखाते हैं।
———————–
मन में दबी आशायें
खुली आंखों से सपना
देखंने की आदत
मानव को नशा करने का
आदी बना देती हैं।
आकाश में उड़ने की
नाकाम कोशिश
पूरी जिंदगी बर्बादी से
सना देती हैं।
कहें दीपक बापू टूटते हुए
दौलत से ऊब रहे हैं,
बोतलों के नशे में डूब रहे हैं,
उनकी लाचारियां
दिवालियों को भी
दौलतमंद बना देती हैं।
———————
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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गुलामी का भूत-हिन्दी व्यंग्य कवितायें
लिखे गये हिन्दी में
इतिहास में ऐसे मशहूर किस्से भी हो गये।
कहें दीपक बापू गुलामी का भूत
जिनके सिर पर चढ़ा
आधुनिक दिखने की चाह में
अधकचड़े लोग अंग्रेजी के हिस्से हो गये।
———-
गुलामों ने पहन लिया उधार का ताज,
आकाओं की भाषा का चला रहे राज।
कहें दीपक बापू अंधेरे में तीर चलाते,
देशी इतिहास में विदेशी पीर ढलाते,
गांव से चलकर वह शहर आये
फिर भी नहीं जाने मातृभूमि का सच
कर रहे हैं परदेसी गुलामी पर नाज।
———————————
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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प्रसिद्धि की खातिर-हिन्दी व्यंग्य कविता
इश्क के किस्से में
तब मोड़ आता है
जब उसकी चर्चा
चौराहे पर हो जाती है।
माशुका चलती आशिक की राह
तब तक ठीक रहता
मुश्किल होती जब
वह दोराहे पर खो जाती है।
कहें दीपक बापू इश्क में
परंपराओं के रास्ते बदलने का
ख्वाब देख रहे हैं नयी सोच वाले
शादी के पुरानी प्रथा से जुड़कर,
हमेश बंधन में रहे माशुका आशिक के
देखे न पीछे मुड़कर,
इस सच से मुंह छिपाते
हर माशुका आखिर
आशिक की बंधुआ हो जाती है।
———————————
प्रसिद्धि की खातिर कोई विद्वता का लबादा ओढ़ता
कोई दूसरों को हंसाने के लिये बनता जोकर,
यह अलग बात है प्रचार में कोई नायक बनता
किसी के हिस्से आती केवल ठोकर,
सभी के लिये समय एक जैसा नहीं होता,
शब्दों का जादूगर अपना असर देखकर हंसता है,
जग को हंसाने वाला अकेले में अपने हाल पर रोता,
ज़माने का दिल बहलाते हैं लोग कमाने के लिये,
अपने अंधेरे से भागते दूसरों का देते जलाकर दिये,
कहें दीपक बापू गोल दुनियां में हालातों में डोलता इंसान
जिस शान पर इतराता बेबस हो जाता उसे खोकर।
—————-
लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
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मनोरंजन के गुलाम-हिंदी कविताएँ
लगातार रौशनी में
जीने की आदत
अंधेरे की आशंका से डरा देती है।
प्रतिदिन चुपड़ी रोटी
खाने की आदत
भूख की आशंका से डरा देती है।
हमेशा आसमान में
उड़ने की आदत
जमीन पर पांव पड़ने की
आशंका से डरा देती है।
कहें दीपक बापू इंसान की देह
फंसती है आलस्य और विलासिता में
भोग की राह पर चलने की आदत
रोग की आशंका से डरा देती है।
———–
जमीन पर चलते हुए लोग
आकाश की तरफ देखकर सोचते हैं
घर की छत पर सितारे सजाने का देखते सपना,
साफ न नीयत है न आंगन
मनोरंजन के गुलाम हो चुके सभी
क्या प्यार करेंगे कुदरत के तोहफे से
पल पल में बदलते ख्याल अपना।
कहें दीपक बापू अपने हाथ से कचड़ा फैलाकर
दूसरे पर डालते सफाई की जिम्मेदारी,
बीमार आदतों के मालिक
क्या करेंगे बदतर हालत के शिकार की तीमारदारी,
चलते फिरते सभी पर टांगों को तमीज नहीं,
सफेदपोश काले कारनामों से करते नहीं परहेज
फिक्र उनको भी है कि मैली न हो जाये कमीज कहीं,
अपने मतलब में मस्त है जमाना
लालच के अलावा कोई नहीं किसी का अपना।
—————–
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior, Madhya pradesh
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समंदर और सूरज-हिन्दी कविता
तपते सूरज की आग बरसाती किरणें
इंसानों के शरीर से निकलता पसीना
पानी के लिये भटकते पशु पक्षी
कोई मौन होकर सह रहा है
कोईै हाहाकर दर्द कह रहा है
सूखे तालाब गर्म हवाओं के थपेड़े सहते पेड़
दूर विराजमान समंदर
मौसम के गुणा भाग में व्यस्त है
बादलों को नहीं सौंप रहा हवाओं के हाथ
क्योंकि वह धरती पर बने कैलेंडर नहीं देखता
इंतजार करता है वह भी
सूरज के इशारे का
जो थक थक जायेगा आग बरसाते
फिर धरती पर अपनी कोमल दृष्टि डालेगा
तब अपनी उंगली उठायेगा।
——–
इतिहास गवाह है सिंहासन के लिये हमेशा जंग होती रही है,
बड़े योद्धाओं के जीत दर्ज कर पहना ताज क्रांति के नाम पर
यह अलग बात है जनता अपने चेहरे का रंग खोती रही है।
कहें दीपक बापू आम इंसान लड़ता रहा हमेशा
अपने लिये रोटी जुटाने के वास्ते,
मदद मांगने कभी नहीं गया वह राजमहल के रास्ते,
घर पर अपना आसन लगाकर बैठा रहा
उसे मालुम है कोई नहीं बनेगा हमदर्द
वह लोग तो कतई नहीं
जिनकी शाही पालकी
उसकी भुजाओं की मेहनत ढोती रही है
—————-
लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
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भावना से माने तो ही मूर्तिपूजा लाभदायक-चाणक्य नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख
हमारे देश में साकार तथा निरंकार दोनों प्रकार की भक्ति को मान्यता प्रदान की जाती है। यहां तक कि अनेक अध्यात्मिक विद्वान यह भी मानते हैं कि चाहे मूर्ति पूजा करें या नहीं पर परमात्मा के प्रति सहज भाव से की गयी भक्ति अध्यात्मिक शुद्धता प्रदान करती है। यही अध्यात्मिक शुद्धता जीवन में शांति के साथ ही अपनी समस्याओं का हल करने की शक्ति प्रदान करती है। यह अलग बात है कि साकार भक्ति की आड़ में हमारे यहां अनेक प्रकार के सिद्ध मंदिर बताकर वहां लोगों को पर्यटन के लिये प्रेरित करने का प्रयास किया जाता है। प्राचीन धर्मग्रंथों की कथाओं में वर्णित महापुरुषों से संबंद्ध स्थानों को पवित्र मानकर वहां अनेक प्रकार के कर्मकांडों की परंपरायें विकसित की गयी हैं। इनसे धर्म के व्यापारियों के वारे न्यारे होते हैं।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
——————-
काष्ठापाषाणधातूनां कृत्वा भावेन सेवनम्।
श्रद्धया च तया सिद्धस्तब्ध विष्णुः प्रसीदति।।
हिन्दी में भावार्थ-लकड़ी, पत्थर एवं धातु की बनी मूर्तियों भावना पूर्वक सेवा करनी चाहिए। ऐसा करने से भगवान विष्णु अपनी कृपा का प्रसाद प्रदान करते हैं।
न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृन्मये।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावी हि कारणम्।।
हिन्दी में भावार्थ-देव लकड़ी में विद्यमान नहीं है न ही पत्थर में विराजमान है न ही मिट्टी का प्रतिमा उसके रूप का प्रमाण है। निश्चय ही परमात्मा वहीं विराजमान है जहां हार्दिक भावना से भक्ति की जाती है।
देखा जाये तो दिन का विभाजन प्रातः धर्म, दोपहर अर्थ, सांय मनोरंजन तथा रात्रि मोक्ष यानि निद्रा के लिये होता है। देखा यह जा रहा है कि कथित तीर्थों पर लोग जाकर एक तरह से पर्यटन करने जाते हैं। वहां स्थित धार्मिक ठेकेदार दान के नाम पर कर्मकांड कराकर उनका आर्थिक शोषण करते हैं। अज्ञान के अभाव के स्वर्ग की चाहत में लोग इन कर्मकांडों में व्यय कर अपने घर लौटकर आते हैं। इससे न तो उनके मन की शुद्ध होती है न विचार पवित्र रहते हैं इसलिये उनका जीवन फिर पुराने ढर्रे पर चलता है जिसमें बीमारी, तनाव और अशांति के अलावा कुछ नहीं रह जाता।
जिन लोगों को अपना जीवन सहजता और शांति के साथ बिताना है उन्हें प्रातकाल के समय का उपयोग योग साधना तथा उद्यानों के भ्रमण में बिताना चाहिये। समय मिले तो मूर्तियों की पूजा करना चाहिये पर सच यह है कि पत्थर, लोहे, पीतल या मिट्टी की बनी प्रतिमाओं में परमात्मा नहीं होते वरन् हमारे अंदर के भाव से उनमें आभास रहता है। इस भाव का आनंद तभी लिया जा सकता है जब अपना हृदय शुद्ध हो।
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राजमहल में निद्रावासी हो जाता है-हिंदी व्यंग्य कविताएँ
जिनसे उम्मीद होती मौके पर सहारे की
वही ताना देकर हैरान करने लगें,
क्या कहें उनको
ढांढस देना चाहिये जिनको जिंदगी की जंग में
वही हमारी हालातों को देखकर डरने लगें।
कहें दीपक बापू ऊंचे महलों में जो रहते हैं,
महंगे वाहनों में सड़क पर साहबों की तरह बहते हैं,
दौलतमंद है,
मगर देह से मंद है,
मन उनके बंद हैं,
आदर्श के लिये युद्ध वह क्या लड़ेंगे
अपना घर बचाने के लिये
जो अपने से ताकतवर के यहां पानी भरने लगें।
————-
सिंहासन का स्वाद जिसने एक बार चखा
वह विलासिता का आदी हो जाता है,
दिन दरबार में बजाता चैन की बंसी
रात को राजमहल में निद्रा वासी हो जाता है।
कहें दीपक बापू दुनियां चल रही भगवान भरोसे
बादशाह अपने फरिश्ते होने की गलतफहमी मे रहते
आम आदमी अपने कड़वे सच में भी
भगवान दरबार में जाकर भक्ति का आनंद उठाता है।
——–
लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
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विकास ने महंगाई से अपना रिश्ता जोड़ लिया है-हिन्दी व्यंग्य कवितायें
खेल भी नाटक की तरह पहले पटकथा लिखकर होते हैं,
जुआ और सट्टे के दाव पर लोग कभी हसंते कभी रोते हैं,
अभिनेता और खिलाड़ी में नहीं रह गया अंतर,
सभी पैसे के लिये अदायें बेचते जपते हैं मनोरंजन मंतर,
गेंद पर आंकड़ा बढ़ेगा कि विकेट गिरेगा पहले ही तय है,
फुटबाल हो या टेनिस हर प्रहार बिकने की शय है,
मिल बैठते हैं खिलाड़ी और अभिनेता नायकों की तरह,
दर्शकों के भगवान धनवानों के गीत गाते गायकों की तरह,
कहें दीपक बापू पर्दे पर चल रहे हर दृश्य पर होता शक
चतुर बेचते अपनी चाल मूर्ख भ्रम को सच समझ रहे होते हैं।
————–
देश के विकास का हमने अब रिश्ता महंगाई से जोड़ लिया है,
घर के रिश्तों के दाम का आंकलन भी बाज़ार पर छोड़ दिया है।
ईंधन के दाम हर रोज बढ़ने का समाचार आता है
मन में चिंताओं का उठता धुंआ ख्याल पर अंधेरा छा जाता है,
शादी हो या गमी अपनी इज्जत बढ़ाने के लिये लोग खाना बांटते,
कुछ लेते कर्जा कुछ अपनी तिजोरियों में रुपये छांटते,
तत्वज्ञान बघारने वाले बहुत है मगर पाखंड कोई नहीं छोड़ता,
रस्म निभाने के लिये जिंदगी गंवाकर हर कोई दौलत जोड़ता,
कहें दीपक बापू दिन-ब-दिन समाज सिकुड़ रहा है
सामानों की चाहतों ने इंसान के दिल के रिश्तों को तोड़ दिया है।
—————–
लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
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रुपहले पर्दे कि बुत-हिंदी व्यंग्य कविता
रुपहले पर्दे पर जो चेहरे बूत दिख रहे हैं,
बाज़ार के सौदागरों हाथ बिक रहे हैं।
कहें दीपक बापू खबर और फिल्म एक समान
होता वही है जो पटकथाकार लिख रहे हैं।
————
खबरची लोगों के मन की बात भांप रहे हैं,
रुपहले पर्दे पर कुछ लोग खुश तो कुछ कांप रहे हैं।
कहें दीपक बापू मन तो पल पल में बदलता है,
महीनों बाद के फैसले पर अभी विद्वान हांफ रहे हैं।
———-
रुपहले पर्दे पर रोज नया सर्वे आता है,
कोई नायक कोई खलनायक बन जाता है।
कहें दीपक बापू माया का विज्ञापन रूप भी है
लोगों की भलाई का नारा भी दाम दे जाता है।
———–
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior, Madhya pradesh
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दावे और वादे-हिन्दी व्यंग्य कविता
लोकतंत्र में ईमानदार होने से ज्यादा
दिखना जरूरी है,
वादे करते जाओ,
दावे जताते जाओ,
भले ही यकीन से उनकी दूरी हो।
कहें दीपक बापू
सत्ता का रास्ता चुनाव से जाता है,
लोगों को शब्दों के जाल में फंसना भाता है,
चल रहा है देश भगवान भरोसे,
इंसानों को कोई क्यों कोसे,
दिल में भले ही कुर्सी के मचलता हो,
दिमाग में अपना घर भरने का विचार पलता हो,
सादगी दिखाओ ऐसी
जिसमें चालाकी भरी पूरी हो।
गरीब का भला न कर पाओ,
पर नित उसके गीत गाओ,
चाहे जुबान की जो मजबूरी हो।
—————–
कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
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आदमी और पाखंड-हिंदी कविता
दौलत के भंडार है उनके घर
पर जिस्म में ताकतवर जान नहीं है,
महापुरुषों की तस्वीरों पर
चढ़ाते हैं दिखावे के लिये माला
पर दिल में उनके लिये मान नहीं है,
सारे जहान में फैला है पाखंड
दिखना चाहते हैं शानदार वह लोग
जिनकी आंखों में किसी की शान नहीं है।
कहें दीपक बापू
मजदूर ने तराशा जिस पत्थर को
अपनी पसीने से तराशा
बन गया भगवान,
पड़ा रहा जो रास्ते पर
बना रहा दुनियां में अनजान,
जिनके पेट भरे हैं
उनकी चिंता सभी करते हैं
परिश्रम करने वालों को पूरी रोटी मिले
इससे आंखें फेरते है
स्वर्ग की चिंता में जिंदगी
दाव पर लगाते हैं लोग
जिसका किसी को ज्ञान नहीं है,
दिवंगतों की तस्वीर के आगे सिर झुकाते लोग
शोकाकुल सुरत से श्रद्धा निभाते
भले ही उनकी बनती शान नहीं है।
————–
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समाज से पहले अपने को सुधारें-हिन्दी लेख
हम अपने समाज में रामराज्य की कल्पना कर सकते हैं पर उसे धरातल पर लाना लगभग असंभव है। कम से कम श्रीमद्भागवत गीता के अध्ययन करने पर तो कोई साधक इस तरह का विचार व्यक्त कर सकता है। उसमें कहा गया है कि इस संसार में दैवीय तथा आसुरीय तो प्रकार के मनुष्य होते हैं। इससे हम यूं भी मान सकते हैं कि इस संसार में दोनों प्रकार के लोग सदैव उपस्थित रहेंगे ही चाहे कोई माने या माने। इतना ही नहीं दैवीय प्रकृत्ति के लोगों में भी सात्विक, राजस तथा तामस प्रकृत्ति के लोग हमेशा ही अपने स्वभाव के अनुसार सक्रिय पाये जायेंगे। इस आधार हम कह सकते हैं कि समूची मानव जाति एक ही रंग में रंगी जाये यह संभव नहीं है।
समाज में कथित लोग समाज में सुधार लाने के प्रयासों में लगे बुद्धिमान लोग इस विचार को निराशाजनक विचार मान सकते हैं पर ज्ञान साधकों के लिये यही संसार का सत्य है। यह सत्य उनमें स्वयं को ही सुधारने के लिये प्रेरित करता है। ज्ञान साधकों को जब यह आभास होने लगता है कि इस संसार का निर्माण जिस तरह परामात्मा के संकल्प के आधार पर हुआ है उसी तरह वह भी अपने देहकाल में संकल्प के आधार अपने आसपास शुद्ध वातावरण का निर्माण करें। वह संसार में दूसरे लोगों को सुधार कर उन्हें अपने अनुकूल लाने की अपेक्षा अपने अंदर ऐसी शक्ति पैदा करते हैं कि प्रतिकूल व्यक्ति और स्थिति उनके अनुकूल हो जाये। वह किसी के लिये मन में द्वेष, ईर्ष्या और घृणा का भाव नहीं पालते। कोई दूसरा उनके प्रति कुविचार रखता है तो उसे आसुरीय प्रवृत्तियों के वशीभूत मानकर क्षमा कर देते हैं। किसी का परोपकार करें या नहीं पर किसी का अपकार करने का विचार हृदय में भी नहीं लाते। किसी के कठोर वचनों के उत्तर में भी मधुर वचन में बात करते हैं। प्रमाद या आलस्य से परे होकर सदैव सकारात्मक कार्यों में लगे रहते हैं। इससे उनके व्यक्तित्व की धवल छवि का निर्माण होता है जिससे कालांतर में उनको सम्मान मिलता है।
इसके विपरीत जो अज्ञानी हैं वह बिना कुछ किए ही सम्मान पाना चाहते हैं। कुछ लोग धन, मित्र और सहायकों का समुदाय एकत्रित कर यह समझते हैं कि उनका तो स्वतः ही समाज में सम्मान होगा तो यह उनका भ्रम है। ऐसे लोगों को सम्मान पाने की भावना अंध कर देती है और किसी से प्रतिकूल व्यवहार मिलने पर वह हिंसा पर उतर आते हैं। हम आज समाज में जो हिंसक वातावरण देख रहे हैं वह राजसी लोगों की आक्रामकता और तामसी प्रवृत्ति लोगों के बौद्धिक आलस्य का परिणाम है। सात्विक लोगों की संख्या कम है पर आज के भौतिकतावादी युग में कोई उन्हें साथ रखना नहीं चाहता। सात्विक लोगों का ध्येय वैसे भी समाज में हर विषय पर टांग फंसाकर प्रतिष्ठा अर्जित करना नहीं होता। वह जानते हैं कि हमारे समाज में समस्या विचारों के संकट की नहीं वरन्् उसे धारण करने की प्रवृत्ति का अभाव है। ज्ञान चर्चा बहुत होती है पर उसे धारण करने की न लोगों में शक्ति है न उनके पास ऐसा संकल्प है। निकट भविष्य में लोग ज्ञान के आचरण की तरफ प्रवृत्त होंगे इसकी संभावना लगती भी नहीं है। समाज अपने साथ विध्वसंक तत्व लेकर चल रहा है और हम मानते हैं कि आगे हालात अधिक खराब होने वाले हैं। यह अलग बात है कि समाज में पेशेवर समाज सेवक के सुधार का नाटक भी जमकर चल रहा है। हमने देखा है कि अनेक कथित सुधारक समाज में व्याप्त अंधविश्वास का विरोध करते हैं पर मनुष्य में मन में कोई विश्वास का बीज कैसे बोया जाये इस विषय पर खामोश रहते हैं।
बहरहाल समाज की समस्याओं को दूर करने की बजाय अपने सुधार पर अधिक ध्यान देना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि हमें अपने शुद्ध विचार रखने और सुखद कल्पनायें करने के साथ ही अपने अंदर एक दृढ़ संकल्प स्थापित करना चाहिये। हम बाहर जैसा वातावरण देखना चाहते हैं उसे पहले अपने अंतर्मन में संकल्प कर स्थापित करना होगा। आजकल के तनावपूर्ण वातावरण से प्रथक होकर एकांत में शुद्ध स्थान पर ध्यान करते हुए इस बात पर विचार करना चाहिये कि हम किस तरह अपना जीवन सफल करें।
लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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जिंदगी का हिसाब-हिंदी व्यंग्य कविता
कुदरत की अपनी चाल है
इंसान की अपनी चालाकियां है,
कसूर करते समय
सजा से रहते अनजान
यह अलग बात है कि
सर्वशक्तिमान की सजा की भी बारीकियां हैं,
दौलत शौहरत और ओहदे की ऊंचाई पर
बैठकर इंसान घमंड में आ ही जाता है,
सर्वशक्तिमान के दरबार में हाजिरी देकर
बंदों में खबर बनकर इतराता है,
आकाश में बैठा सर्वशक्तिमान भी
गुब्बारे की तरह हवा भरता
इंसान के बढ़ते कसूरों पर
बस, मुस्कराता है
फोड़ता है जब पाप का घड़ा
तब आवाज भी नहीं लगाता है।
कहें दीपक बापू
अहंकार ज्ञान को खा जाता है,
मद बुद्धि को चबा जाता है,
अपने दुष्कर्म पर कितनी खुशफहमी होती लोगों को
किसी को कुछ दिख नहीं रहा है,
पता नहीं उनको कोई हिसाब लिख रहा है,
गिरते हैं झूठ की ऊंचाई से लोग,
किसी को होती कैद
किसी को घेर लेता रोग
उनकी हालत पर
जमीन पर खड़े इंसानों को तरस ही जाता है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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माया का तिलिस्म-हिंदी व्यंग्य कविता
देश में तरक्की बहुत हो गयी है
यह सभी कहेंगे,
मगर सड़कें संकरी है
कारें बहुत हैं
इसलिये हादसे होते रहेंगे,
रुपया बहुत फैला है बाज़ार में
मगर दौलत वाले कम हैं,
इसलिये लूटने वाले भी
उनका बोझ हल्का कर
स्वयं ढोते रहेंगे।
कहें दीपक बापू
टूटता नहीं तिलस्म कभी माया का,
पत्थर पर पांव रखकर
उस सोने का पीछा करते हैं लोग
जो न कभी दिल भरता
न काम करता कोई काया का,
फरिश्ते पी गये सारा अमृत
इंसानों ने शराब को संस्कार बना लिया,
अपनी जिदगी से बेजार हो गये लोगों ने
मनोरंजन के लिये
सर्वशक्तिमान की आराधना को
खाली समय
पढ़ने का किस्सा बना लिया,
बदहवास और मदहोश लोग
आकाश में उड़ने की चाहत लिये
जमीन पर यूं ही गिरते रहेंगे।
—————-
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh
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शांति और हथियार के सौदागर-हिंदी व्यंग्य कविता
जंग के लिये जो अपने घर में हथियार बनाते हैं,
बारूद का सामान बाज़ार में लोगों को थमाते हैं।
दुनियां में उठाये हैं वही शांति का झंडा अपने हाथ
खून खराबा कहीं भी हो, आंसु बहाने चले आते हैं।
कहें दीपक बापू, सबसे ज्यादा कत्ल जिनके नाम
इंसानी हकों के समूह गीत वही दुनियां में गाते हैं।
पराये पसीने से भरे हैं जिन्होंने अपने सोने के भंडार
गरीबों के भले का नारे वही जोर से सुनाते हैं।
अपनी सोच किसको कब कहां और कैसे सुनायें
चालाक सौदागरों के जाल में लोग खुद ही फंसे जाते हैं।
खरीद लिये हैं उन्होंने बड़े और छोटे रुपहले पर्दे
इसलिये कातिल ही फरिश्ते बनकर सामने आते हैं।
——————-
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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बीमार बन गए चिकित्सक -हिंदी व्यंग्य कविता
इस जहान में आधे से ज्यादा लोग
चिकित्सक हो गये हैं,
अपनी बीमारियों की दवायें खाते खाते
इतना अभ्यास कर लिया है कि
वह बीमारी और दवा के बीच
अपना अस्तित्व खो रहे हैं,
बताते हैं दूसरों को दवा
भले कभी खुद ठीक न हो रहे हों।
कहें दीपक बापू
अपनी छींक आते ही हम
रुमाल लगा लेते हैं
इस भय से कि कोई देखकर
दुःखी हो जायेगा,
बड़ी बीमारी का भय दिखाकर
बड़े चिकित्सक का रास्ता बतायेगा,
सत्संग में भी सत्य पर कम
मधुमेह पर चर्चा ज्यादा होती है,
सर्वशक्तिमान से ज्यादा
दवाओं पर बात होती है,
कितनी बीमारियां
कितनी दवायें
बीमार समाज देखकर लगता है
छिपकर खुशी की सांस ली जाये,
लाचार शरीर में लोग
ऊबा हुआ मन ढो रहे हैं,
बीमार खुश है अपनी बीमारी और दवाओं पर
भीड़ में सत्संग कर
यह सोचते हुए कि
वह स्वास्थ्य का बीज बो रहे हैं।
लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
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लुटेरों की खता नही है-हिंदी व्यंग्य कविता
दौलत की दौड़ में बदहवास है पूरा जमाना
या धोखा है हमारे नजरिये में
यह हमें भी पता नहीं है,
कभी लोगो की चाल पर
कभी अपने ख्याल पर
शक होता है
दुनियां चल रही अपने दस्तूर से दूर
सवाल उठाओ
जवाब में होता यही दावा
किसी की भी खता नहीं है।
कहें दीपक बापू
शैतान धरती के नीचे उगते हैं,
या आकाश से ज़मीन पर झुकते हैं,
सभी चेहरे सफेद दिखते हैं,
चमकते मुखौटे बाजार में बिकते हैं,
उंगली उठायें किसकी तरफ
सिलसिलेवार होते कसूर पर
इंसानियत की दलीलों से जहन्नुम में
जन्नत की तलाश करते लोगों की नज़र में
पहरेदार की तलाशी होना चाहिये पहले
कहीं अस्मत लुटी,
कहीं किस्मत की गर्दन घुटी,
लुटेरों की खता नही है।
————–
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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कवि का हिंदी दिवस यूं मना-हिंदी हास्य कविता
रास्ते में मिला फंदेबाज और बोला
‘‘दीपक बापू, आप बरसों से
हिन्दी में लिखते हो,
फिर भी फ्लाप दिखते हो,
अब हिन्दी दिवस आया है
कोई कार्यक्रम कर
अपनी पहचान बढ़ाओ,
लोग तुम्हें ऐसे ही पढ़ें
यह तुम भूल जाओ,
आजकल प्रचार का जमाना है,
हाथ पांव मारो अगर नाम कमाना है,
तुम भी करो स्थापित कवियों की चमचागिरी,
अपने से कमतर पर जमाओ नेतागिरी,
वरना लिखना छोड़ दो,
सन्यास से अपना नाता जोड़ लो।’’
सुनकर हंसे दीपक बापू
‘‘हिन्दी दिवस का प्रचार देखकर
तुम्हारा मन भी उछल रहा है,
अपने दोस्त को फ्लाप
दूसरों को हिट देखकर
तुम्हारा दिमाग जल रहा है,
लगता है तुमने ऐसे कार्यक्रमों
कभी गये नहीं हो,
इसलिये ऐसी सलाहें दे रहे हो
भले दोस्त नये नहीं हो,
हिन्दी दिवस पर लिखने के अलावा
हमें कुछ नहीं आता है,
ऐसे कार्यक्रमों में लेखन पर कम
नाश्ते और चाय के इंतजाम पर
ध्यान ज्यादा जाता है,
बाज़ार के इशारे पर नाचता है जमाना,
सौदागरों के रहम के बिना मुश्किल है कमाना,
अंग्रेजी के गुंलाम
हिन्दी से ही कमाते हैं,
यह अलग बात है कि
ज़माने से अलग दिखने के लिये
अंग्रेजी का रौब जमाते हैं,
सच यह है कि
हिन्दी कमाकर देने वाली भाषा है,
इसलिये भविष्य में भी विकास की आशा है,
चीजें बनायें अंग्रेजी जानने वाले
मगर बेचने के लिये हिन्दी में
पापड़ बेलना पड़ते हैं,
यह अलग बात है कि
हिन्दी लेखक होने पर
उपेक्षा के थपेड़े झेलना पड़ते हैं,
कार्यक्रमों की भीड़ में जाकर
हमारी लिखी रचना क्या करेगी,
अकेली आहें भरेगी,
इसलिये तुम्हारी सलाह नहीं मान सकते
भले ही तुम दोस्ती से मुंह मोड़ लो।
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
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हिंदी दिवस पर हास्य कविता-राष्ट्रभाषा का महत्व अंग्रेजी में समझाते
हिन्दी दिवस हर बार
यूं ही मनाया जायेगा,
राष्ट्रभाषा का महत्व
अंग्रेजी में बोलेंगे बड़े लोग
कहीं हिंग्लिश में
नेशनल लैंग्वेज का इर्म्पोटेंस
मुस्कराते समझाया जायेगा।
कहें दीपक बापू
पता ही नहीं लगता कि
लोग तुतला कर बोल रहे हैं
या झुंझला कर भाषा का भाव तोल रहे हैं,
हिन्दी लिखने वालों को
बोलना भी सिखाया जायेगा,
हमें तसल्ली है
अंग्रेजी में रोज सजती है महफिलें
14 सितम्बर को हिन्दी के नाम पर
चाय, नाश्ता और शराब का
दौर भी एक दिन चल जायेगा।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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सूरज की रौशनी में-हिंदी व्यंग्य कविता
रोज पर्दे पर देखकर उनके चेहरे
मन उकता जाता है,
जब तक दूर थे आंखों से
तब तक उनकी ऊंची अदाओं का दिल में ख्वाब था,
दूर के ढोल की तरह उनका रुआब था,
अब देखकर उनकी बेढंगी चाल,
चरित्र पर काले धब्बे देखकर होता है मलाल,
अपने प्रचार की भूख से बेहाल
लोगों का असली रूप बाहर आ ही जाता है।
कहें दीपक बापू
बाज़ार के सौदागर
हर जगह बैठा देते हैं अपने बुत
इंसानों की तरह जो चलते नज़र आते हैं,
चौराहों पर हर जगह लगी तस्वीर
सूरज की रौशनी में
रंग फीके हो ही जाते हैं,
मुख से बोलना है उनको रोज बोल,
नहीं कर सकते हर शब्द की तोल,
मालिक के इशारे पर उनको कदम बढ़ाना है,
कभी झुकना तो कभी इतराना है,
इंसानों की आंखों में रोज चमकने की उनकी चाहत
जगा देती है आम इंसान के दिमाग की रौशनी
कभी कभी कोई हमाम में खड़े
वस्त्रहीन चेहरों पर नज़र डाल ही जाता है,
एक झूठ सौ बार बोलो
संभव है सच लगने लगे
मगर चेहरों की असलियत का राज
यूं ही नहीं छिप पाता है।
——————
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका
६.अमृत सन्देश पत्रिका
क्रिकेट में सिर पर सवार पैसा-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन
इस समय इंग्लैंड में चैम्पियन ट्राफी क्रिकेट प्रतियोगिता चल रही है। इसमें बीसीसीआई की टीम जोरदार प्रदर्शन करते हुए आगे बढ़ती जा रही है। अनेक क्रिकेट विशेषज्ञ चकित हैं। बीसीसीआई के क्रिकेट खिलाड़ी जिस तरह तूफानी बल्लेबाजी कर रहे है तो दूसरी टीमों के खिलाड़ी धीमे धीमे चल रहे हैं उससे लगता है कि जैसे पिचें अलग अलग हैं। कभी कभी लगता है कि बल्ला या गेंदें भी अलग अलग हैं। मतलब यह कि भारतीय बल्लेबाज दूसरों के मुकाबले ज्यादा आक्रामक हैं। किसी के समझ में नहीं आ रहा है।
हम समझाते हैं कि आखिर मामला क्या है? गुरुगोविंद सिंह ने कहा है कि पैसा बहुत जरूरी चीज है पर खाने के लिये दो रोटी चाहिये। मतलब यह कि जिंदगी में पैसा जरूरी है। एक विद्वान कहते हैं कि पैसा कुछ हो या न हो पर जीवन में आत्मविश्वास का बहुत बड़ा स्तोत्र होता है। जी हां, आईपीएल में बीसीसीआई की टीम के बल्लेबाजों ने जमकर पैसा कमाया है। यह उनके आत्मविश्वास का ही कारण बन गया है। उनको मालुम है कि हमारे पास पैसा बहुत है और यह भाव उनको आक्रामक बना देता है। सीधी बात कहें कि पैसा सिर चढ़कर बोलता है। हम यहां बीसीसीआई के खिलाडियों की आलोचना नहीं कर रहे बल्कि यह बता रहे हैं कि जिस तरह अन्य टीमों के खिलाड़ी बुझे मन से खेल रहे हैं उससे तो यही लगता है कि उनमें वैसा विश्वास नहीं है जैसा बीसीसीाआई की टीम में हैं। इसे कहते हैं कि पैसा सिर चढ़कर बोलता है।
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