फिर भी तुम बरसते रहना-कविता


सूरज की गर्मी में झुलसते हुए
पानी में नहा गया था बदन
जलती हवाओं में
गर्म मोम की तरह पिघल रहा था मन
चारों तरफ फैला था क्रंदन
ऐसे में जो आये आकाश पर बादल
बिछ गयी पानी की चादर
जैसे स्वर्ग का अनुभव हुआ जमीन पर
लहराने लगा जलती धूप से त्रस्त लोगों का बदन

कहैं महाकवि दीपक बापू
तुम सभी जगह बरसते जाना
जल से जीवन बहाते जाना
किसी के भरोसे मत छोड़ना
इस धरती पर विचरने वाले जीवों को
बड़े बांध बनवाये या तालाब
पर किसी की प्यास बुझाये
यह विचार इंसान नहीं करता
ढूंढता है अपनी चाहत के लिये
सोने, चांदी और संगमरमर के पत्थर जैसे निर्जीवों को
अमीरों के आसरे तो बहुत हैं
एक ढूंढें हजार पानी पिलाने वाले जायेंगे
पर गरीब का आसरा हो तुम बादल
शायद इसलिये कहलाते हो पागल
फिर भी तुम बरसते रहना
नहीं तो हमें रहेगा पानी के लिये तरसते रहना
तुम हो आत्मा इस धरा के
जो है हम सबका बदन
………………..

दीपक भारतदीप

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टिप्पणियाँ

  • mehhekk  On 21/06/2008 at 15:14

    कहैं महाकवि दीपक बापू
    तुम सभी जगह बरसते जाना
    जल से जीवन बहाते जाना
    किसी के भरोसे मत छोड़ना
    इस धरती पर विचरने वाले जीवों को
    बड़े बांध बनवाये या तालाब
    पर किसी की प्यास बुझाये
    यह विचार इंसान नहीं करता
    sahi kaha aaj koi insaan kisi ki pyas ki parwa nahi karta sab ko apni jeb sone chandi se bharni hoti hai,bahut sundar kavita badhai

  • Advocate Rashmi Saurana  On 22/06/2008 at 04:58

    bilkul sahi likha hai aapne apni rachana mei. likhate rhe.

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