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महात्मा गांधी का दर्शन भी निरापद नहीं-गांधी जयंती पर विशेष हिन्दी लेख (mahatma gandhi ka darshan aur bharat-special article on gandhi jaynati)


         दो अक्टोबर देश में गांधी जयंती मनाई जायेगी। प्रसंगवश इस दिन भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री का भी जन्म दिन मनाया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इतिहास में किसी भी महापुरुष का नाम बिना किसी योग्यता, कठिन परिश्रम या त्याग के दर्ज नहीं होता पर यह भी सत्य है कि एतिहासिक पुरुषों के व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन समय समय पर अनेक लोग अपने ढंग से करते हैं। एतिहासिक पुरुषों के परमधाम गमन के तत्काल बाद सहानुभूति के चलते जहां उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन करने वाले अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाते हैं। उस समय कोई प्रतिकूल टिप्पणियां नहीं करता पर समय के साथ ही एतिहासिक पुरुषों के व्यक्तित्व का प्रभाव क्षीण होने लगता है तब विचारवान लोग प्रतिकूल टिप्पणियां भले न करें पर कुछ प्रश्न उठाने ही लगते हैं।
          गांधीजी के दर्शन  पर भी अनेक सवाल उठते हैं तो श्रीलाल बहादुर शास्त्री के बारे में भी यह पूछा जाता है कि पाकिस्तान से युद्ध जीतने के बाद भी उन्होंने मास्को जाकर सोवियत संघ की मध्यस्थता स्वीकार कर हारने जैसा काम क्यों किया? बहुत समय तक यह सवाल किसी ने नहीं पूछा था पर जब कारगिल युद्ध के बंद होने के बाद यह बात उठी थी तब शास्त्री जी की भूमिका सामने आयी थी भले ही उस समय सीधे किसी ने उनका नाम लेकर आक्षेप नहीं किया गया। फिर यह सवाल चर्चा में अधिक नहीं आया पर विचारवान लोगों के लिये इतना ही बहुत था। पाकिस्तान को परास्त करने के बाद विजेता भारत के प्रधानमंत्री का इस तरह मास्को जाकर पाकिस्तान के हुक्मरानों से समझौता करना वाकई देश के लिये कोई सम्मान की बात नहीं थी-यह बात आज अनेक लोग मानते हैं। इस समझौते में पाकिस्तान की जमीन बिना कुछ लिये दिये वापस कर दी गयी थी।
            गांधीजी को विश्व में महान सम्मान प्राप्त हुआ है पर भारतीय जनमानस में अब उनकी छवि क्षीण हो रही है फिर अब फिल्म, क्रिकेट और अन्य प्रतिष्ठित क्षेत्रों में सक्रिय नये नये महापुरुषों का भी प्रचार हो रहा है। सरकारी और गैर सरकारी तौर पर गांधी जयंती के समय खूब प्रचार होने के साथ ही अनेक कार्यक्रम भी होते हैं पर लगता नहीं कि आज के कठिन समय का सामना कर रहा भारतीय जनमानस उसमें बढ़चढ़कर हिस्सा लेता हो। गांधीजी को राजनीतक संत कहना उनके दर्शन को सीमित दायरे में रखना है। मूलतः गांधी जी एक सात्विक प्रवृत्ति के धार्मिक विचार वाले व्यक्ति थे। निच्छल हªदय और सहज स्वभाव की वजह से उनमें उच्च जीवन चरित्र निर्माण हुआ। एक बात तय है कि उन्होंने भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने का जब अभियान प्रारंभ किया होगा तब उनका लक्ष्य आत्मप्रचार पाना नहीं बल्कि देश के आम इंसान का उद्धार करना रहा होगा। अलबत्ता अपने आंदोलन के दौरान उन्होंने इस बात को अनुभव किया होगा कि उनके सभी सहयोग उनकी तरह निष्काम नहीं है। इसके बावजूद वह इस बात को लेकर आशावदी रहे होंगे कि समय के अनुसार बदलाव होगा और अपने ही देश के भले लोग राज्य अच्छी तरह चलायेंगे। कालांतर में जो हुआ वह हम सब जानते हैं। उनके सपनों का भारत कभी न बना न बनने की आशा है। स्थिति यह है कि अनेक अनुयायी अब दूसरे स्वाधीनता आंदोलन का बात करने लगे हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि गांधी जी का सपना पूरा नहीं हुआ और जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन प्रारंभ किया वह पूरा नहीं हुआ। दूसरे शब्दों में 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी केवल एक ऐसा प्रतीक है जिसकी स्मृतियां केवल उस दिन मनाये जाये वाले कार्यक्रमों में ही मिलती है। जमीन पर अभी गांधीजी के सपनों का पूरा होना बाकी है।
        यहां हम गांधीजी के व्यक्तित्व और कृतित्व की आलोचना नहीं कर रहे क्योंकि हम जैसा मामूली शख्स भला उन पर क्या लिख सकता है? अलबत्ता देश के हालात देखकर वैचारिक रूप से गांधी दर्शन अब निरापद नहीं माना जा सकता है। सबसे पहला सवाल तो यह है कि भारत का स्वाधीनता आंदोलन अंततः एक राजनीतिक प्रयास था जिसमें राजकाज भारतीयों के हाथ में होने का लक्ष्य तय किया गया था। दूसरी बात यह कि गांधीजी ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध आंदोलन किया था जिस पर भारतीयों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करने का आरोप था। इसके अलावा देश की समस्याओं के प्रति अंग्रेज सरकार की प्रतिबद्धता पर भी संदेह जताया गया था। इसका अर्थ सीधा है कि गांधीजी एक ऐसी सरकार चाहते थे जो देश के लोगों की होने के साथ ही जनहित का काम करे। ऐसे में राजकाज के पदों पर बैठने वाले महत्वपूर्ण लोगों की गतिविधियां महत्वपूर्ण होती हैं। तब गांधी जी ने राजकाज प्रत्यक्ष रूप से चलाने के लिये कोई पद लेने से इंकार क्यों किया? क्या वह इन पदों को भोग का विषय समझते थे या दायित्व निभाने के लिये अपने अंदर क्षमता का अभाव अनुभव करते थे। अगर यह दोनों बातें नहीं थी तो क्या उनको भरोसा था कि जो लोग राजकाज देखेंगे वह उनके रहते हुए अच्छा काम ही करेंगे? क्या उनको यकीन था कि जिन लोगों को वह राजकाज का जिम्म सौंपेंगे वह अच्छा ही काम करेंगे?
यकीनन सरकार का सैद्धांतिक रूप उनके सपनों में रहा हो पर व्यवहारिक  रूप से उनको इसका कोई अनुभव नहीं था। वह राजनीतिक के सैद्धांतिक पक्ष और व्यवहारिक स्थिति के अंतर को नहीं जानते थे। उन्होंने एक ऐसा राजनीतिक अभियान शुरु किया जो कालांतर में सीमित लक्ष्य प्राप्त कर समाप्त हो गया। आज उसी प्राप्त लक्ष्य को भी चुनौती मिल रही है। गांधी जी के अनुयायी और आज के महानायक अन्ना हजारे मानते हैं कि आज का शासन भी अंग्रेजों जैसा ही है। श्री अन्ना हजारे स्वयं भी कोई पद नहीं लेना चाहते पर देश के स्वच्छ और विकसित होने की का जिम्मा सरकार का ही मानते हैं। तब ऐसा लगता है कि एक राजनीति शास्त्र का ज्ञान न रखने वाला व्यक्ति भी राजनीति कर सकता है या राजकाज कोई पद संभाल सकता है। हमारा तो मानना है कि अंग्रेजों के विरुद्ध गांधीजी के आंदोलन के बारे में अब इतिहास पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं अन्ना जी का आंदोलन बता रहा है कि उस समय क्या क्या हुआ होगा?
        28 अगस्त को अन्ना साहिब का जनलोकपाल विधेयक लाने संबंधी आंदोलन समाप्त हुआ। हासिल कुछ नहीं हुआ पर उन्होंने कहा कि हमें आधी जीत मिली है। तब हम जैसे लोग सड़कों पर घूमते हुए उस आधी जीत को ढूंढते हुए सोच रहे थे कि 16 अगस्त को भी कोई हम जैसा शख्स रहा होगा जो उस आजादी को ढूंढ रहा होगा जिसका दावा उस समय किया जा रहा था। बहरहाल गांधीजी के आंदोलन के पीछे उस समय के धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, तथा आर्थिक शिखरों पर बैठे लोग रहे होंगे जो अपने हित साधन के लिये ही ऐसी आजादी चाहते होंगे ताकि वह देश के आम इंसान को गुलाम बनाये रख सके। पता नहीं गांधीजी यह देख पाये या नहीं पर इतना तय है कि वह जैसा भारत चाहते थे वैसा बन नहीं पाया। आखिरी बात यह है कि गांधीजी सात्विक प्रवृत्ति के थे और उनका आंदोलन राजस वृत्ति का था। बात अगर राजनीति की है तो उसमे सात्विक प्रवृत्ति की आशा करना व्यर्थ है। यह राजसी वृत्ति वाले लोगों का काम है। राजसी वृत्ति बुरी नहीं है बशर्त व्यक्ति अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिये उचित ढंग से कार्य करे। मुश्किल यह है कि तामसी वृत्ति वाले लोग अब राजकाज करने लगे हैं। भारत में दूसरी भी समस्या है। राजसी लोगों को स्वार्थी जानकर लोग हªदय से सम्मान नहीं करते जबकि सामूहिक नेतृत्व करना उन्हीं के बूते का होता है। सात्विक लोगों को समाज सम्मान देता है पर वह निष्काम होने के कारण राजकाज का काम नहीं करते। यही कारण है कि राजसी वृत्ति के लोग सात्विक लोगों को ढाल बनाकर आगे चलते हैं ताकि समाज उनका नेतृत्व और शासन स्वीकार करे। इसी कारण पूरे विश्व के राष्ट्राध्यक्ष अपने संपर्क धार्मिक नेताओं  से रखते हैं। गांधी को हमने देखा नहीं और अन्ना से कभी मिले नहीं पर प्रचार माध्यमों में देखकर हमने अनुभव किया वह लिख दिया। इस अवसर पर महात्मा गांधी जी और शास्त्री जी को हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि!
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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हिन्दी ब्लाग लेखकों का मार्ग अत्यंत कठिन-हिन्दी लेख (hindi blog writing and society-article)


इस लेखक के ब्लाग ईपत्रिका ने पाठक तथा पाठन संख्या दो लाख पार कर ली है। यह कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है पर फिर भी यह बताना जरूरी है कि हिन्दी पत्रिका के बाद यह दूसरा ब्लाग है जिसने यह उपलब्धि प्राप्त की है।
दूसरे की रचना सभी के लिये समालोचना-प्रशंसा और आलोचना-का विषय होती है। फिल्म, नाटक, साहित्य, पत्रकारिता तथा चित्रकारी जैसे विषयों से रचनात्मक लोग निर्वाह कर पाते हैं क्योंकि उनके पास अपनी अभिव्यक्ति बाह्य रूप से प्रकट करने की क्षमता होती है जबकि सामान्य आदमी केवल रचना करने की सोचकर रह जाता है। वैसे देखा जाये तो हर मनुष्य अपने अंतर्मन की अभिव्यक्ति करना चाहता है पर कभी संकोच तथा कभी उचित ज्ञान का अभाव उसे ऐसा करने नहीं देता। तब मनुष्य दूसरे की अभिव्यक्ति में अपने मन के उतार चढ़ाव देखकर प्रसन्न होता है। यही कारण है कि इस संसार में रचनाकारों की हर प्रकार की रचना आम इंसानों के लिये मनोरंजन का विषय होती है। विश्व में इंटरनेट के आगमन ने अभिव्यक्ति के स्वरूप का विस्तार किया पर इसमें तकनीकी ज्ञान होने की अनिवार्यता ने असहज भी बनाया है। हम यहां केवल हिन्दी भाषा के संदर्भ में ही विचार करें तो अच्छा रहेगा क्योंकि अन्य भाषाओं की अपेक्षा इससे संबद्ध लोगों की संख्या अधिक होने के बावजूद इसे इंटरनेट पर प्रतिष्ठित होने में समय लग रहा है।
पहली बात तो यह कि हिन्दी में रचनाकारों की संख्या में कभी कमी नहीं रही पर स्तरीय रचनाओं को समाज के सामने प्रकट होने का मार्ग हमेशा दुरूह रहा है। हिन्दी में लिखने की क्षमता होना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उसे पाठकों के सामने जाने का मार्ग प्रशस्त करने की कला भी आना चाहिए। आज़ादी के बाद इस देश में हिन्दी का प्रचलन बढ़ा जरूर मगर इससे जुड़े आर्थिक तथा सामाजिक ढांचे में कार्यरत प्रबंधकों ने लेखक को कभी महत्व नहीं दिया। एक तरह से यह योजना जाने अनजाने अपना काम करती रही कि इस भाषा में कोई लेखक केवल अपनी लेखन क्षमता के कारण पूज्यनीय नहीं बनना चाहिए। उसकी स्थिति लिपिकीय रहना चाहिये न कि उसके स्वामित्व का बोध समाज के सामने प्रकट हो। यही कारण है फिल्म, पत्रकारिता, साहित्य तथा कला के क्षेत्र में ऐसे लोगों को प्रतिष्ठा मिली जिनका समाज न कभी स्तरीय नहीं माना या फिर उनकी रचनाओं को वर्तमान समाज के सरोकारों से दूर काल्पनिक माना गया।
अगर हम आज हिन्दी की स्थिति को देखें तो पाएंगे कि भक्ति काल के सूर, तुलसी,मीरा, कबीर,रहीम,रसखान तथा अन्य कवि रचनाकार कम संत अधिक माने जाते हैं। इस काल का हिन्दी भाषा का स्वर्णिम काल माना जाता है जबकि दिलचस्प बात यह कि इनमें से एक की भी रचना आधुनिक हिन्दी में नहीं है। ऐसे में अन्य कालों के लेखकों को श्रेष्ठ दर्जा न मिल पाना न केवल हमारे भाषा के विकास परप्रश्नचिन्ह लगाता है बल्कि समाज को आत्ममंथन के लिये भरी प्रेरित करता है। इससे हम एक बात समझ सकते हैं कि भारतीय जनमानस ऐसे साहित्य में कम दिलचस्पी लेता है जिससे उसको अध्यात्मिक शांति नहीं मिलती।
जब हम आधुनिक काल के रचनाकारों को देखते हैं तो वह समाज की घटनाओं को अपनी रचना में जगह देते हैं तो वह केवल तथ्यात्मक हो जाते हैं। वह मानकर चलते हैं कि उनकी प्रस्तुति से समाज स्वयं चिंतन कर निष्कर्ष निकाले। इसके विपरीत भारतीय जनमानस ऐसी स्पष्ट रचना चाहता है जिसमें तथ्यों के साथ स्पष्ट निष्कर्ष और प्रेरणा हो। देश की गरीबी, बेरोजगारी तथा अपराध का ग्राफ बढ़ा है और अगर हम समाज की स्थिति का अवलोकन करें तो यह बात साफ हो जाती है कि लोगों में चेतना इसलिये नहीं है क्योंकि वह चिंतन नहीं करते। चिंतन से चेतना आती है और चेतना से ही चिंतन होता है। तब ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी रचनायें हों जिससे चिंतन पैदा हो या चेतना। यह तभी संभव है जब कोई अपनी रचनाओं को तथ्यात्मक प्रस्तुति की सीमा से बाहर निकालकर स्पष्ट संदेश दे। हालांकि जरूरत इस बात की भी है कि समाज उनको प्रोत्साहित करे। जबकि हो यह रहा है कि मनोरंजन परोसकर उनकी चेतना और चिंतन क्षमता को समाप्त किया जा रहा है।
ऐसे में जब इंटरनेट पर हिन्दी लिखने का सवाल आता है तो यह भी स्थिति सामने होती है कि पढ़ने वाले बहुत कम हैं। इस पर दूसरी समस्या यह कि यहां लेखक के स्वामी होने का प्रश्न तो दूर उसकी लिपिकीय स्थिति भी नहीं है जो कार्यालय में लिख कर पैसा कमाते हैं। उसे एकदम फोकटिया प्रयोक्ता मानकर छोड़ दिया गया है। ऐसे में वही लोग इस पर लिख सकते हैं जिनके पास इंटरनेट पर पैसा खर्च करने की क्षमता के साथ लिखने के साथ ही पढ़ने का शौक है। जिन लोगों को यहां लिखने से पैसा मिल सकता है तो उनकी भी स्थिति परांपरागत बाज़ार के बंधुआ से अधिक नहीं है और ऐसे में वैसी रचनायें आयेंगी जो बाहर मिल जाती हैं। तब ऐसी अपेक्षा करना व्यर्थ है कि हिन्दी का आम पाठक सरलता से पढ़ सके जाने वाले अखबार की जगह अपनी आंखें यहां बरबाद करेगा।
इधर इंटरनेट पर पिछले सात आठ वर्ष से हिन्दी में लिखने का प्रयास हो रहा है पर इसमें तेजी से बढ़ोतरी पिछले चार वर्ष में हुई है। वह भी एकदम नाकाफी है। हम इसके लिये हिन्दी पाठकों को दोष नहीं दे सकते क्योंकि यह बात नहीं भूलना चाहिए कि हमारे यहां नयी तकनीकी को अपनाने की क्षमता तो है पर उसमें सुविधा की चाहत भी है। इंटरनेट खोलने और उसमें लिखने के लिये थोड़ा अधिक तकनीकी ज्ञान चाहिए। इसके विपरीत घर आये अखबार को उठाकर पढ़ने में कोई अधिक कष्ट नहीं होता। फिर लिखना स्वयं की अभिव्यक्ति की चाहत वालों के लिये है और मोबाइल इसके लिये अच्छा काम करता है। हाथ में उठाकर किसी को भी संदेश भेज दो। वह चाहे जैसा भी हो दिवाली या होली की बधाई का हो या इश्क के इजहार के लिये। मतलब यह कि इंटरनेट का अभी अभिव्यक्ति के लिये उपयोग करने के लिये लोग तैयार नहीं है।
ऐसे में लोग अपनी अभिव्यक्ति को दूसरे के सामने देखकर खुश होते हैं। बड़े पाठ या कविताओं की रचना का माद्दा सभी में नहीं हो सकता। अगर देखा जाये तो मोबाइल ने भारतीय समाज में अंतिम व्यक्ति के हाथ में अपनी जगह बना ली है। मोबाइल में कैमरा, टीवी और रेडियो की सुविधायें हैं और लोग धड़ल्ले से उनका उपयोग कर रहे हैं। उसमें भी तकनीकी ज्ञान चाहिए पर अपनी सुविधा के लिये भारतीय जनमानस उस हद तक चला जाता है। मोबाइल के इर्दगिर्द सिमट रहे समाज में अभिव्यक्ति के लिये कंप्यूटर या लैपटाप के लिये कम ही जगह बची है। यह अलग बात है कि कंप्यूटर पर काम कर चुके आदमी के लिये मोबाईल छोटी चीज हो जाती है। चाहे कितने भी प्रयास किये जायें मोबाईल पर संदेश तो सीमित शब्द संख्या में ही लिखा जायेगा। उसमें भी आंख और हाथ को जो कष्ट होता है उसकी अनुभूति संदेश की अभिव्यक्ति के कारण नहीं होती है पर अंततः उबाऊ तो है।
एक बात तय हो गयी है कि भारतीय समाज प्रचार से संचालित होता है। जिनके पास प्रचार की शक्ति है वह चाहें तो लोगों के दिमाग में जगह बना सकते हैं। जब पहले ब्लाग की चर्चा प्रचार माध्यम करते थे तब लोगों का ध्यान इसकी तरफ आकर्षित हुआ। फिर ट्विटर आया और अब फेसबुक। ट्विटर में एक बार में सीमित संख्या के शब्द दर्ज किये जा सकते हैं जबकि फेसबुक असीमित शब्द संजो सकती है। प्रचार माध्यम जब पहले ब्लाग की चर्चा करते थे तो प्रचार में शिखर पर प्रतिष्ठत लोगों के ब्लाग की चर्चा अवश्य करते थे। अब ट्विटर या फेसबुक की चर्चा भी होती है तो लगभग यही रवैया है। मतलब सीधी बात यह है कि जो भी शिखर पुरुष करते हैं वही समाज देखे, यह प्रचार माध्यमों का रवैया है। यही वजह है कि अनेक लोगों ने ट्विटर और फेसबुक पर अपना खाते खोल लिये। यह आसान था पर ब्लाग बनाना थोड़ा कठिन है यह अलग बात है कि लेखकों के लिये ब्लाग से बढ़िया कोई चीज नहीं है। यह अलग बात है कि हिन्दी लेखक के लिये यह मार्ग कठिन है। अगर वह केवल लेखक हैं तो उनके विचार, कवितायें, या लेख के अंश कोई भी चुरा कर अपने नाम से अभिव्यक्ति दे सकता है। यह हो भी रहा है। जैसा कि भारतीय बाज़ार व्यवस्था की योजना वह लेखक को केवल लिखने के दम पर पनपने नहीं दे सकती। यही कारण है कि राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और अपराध के विषयों पर प्रचार माध्यमों में प्रतिष्ठित लेखक हमेशा उसी लकीर पर चलते हैं जो एक बार बनाई तो उसके स्वामी हो गये। उथले विचारों और निरर्थक बहसों के साथ ही अंगभीर संवाद होता है। गंभीर विषय पर बात करते हास्य की बात कहकर अगर कहा जाये कि लोगों का जायका कदला जा रहा है तो समझ लीजिये कि लेखक-पाठक तथा वक्ता-श्रोता में सहज भाव की कमी है।
हम जब ब्लाग पर लिखते हैं तो यह लक्ष्य नहीं रखते कि कौन पढ़ रहा है बल्कि यह सोचते हैं कि हम लिख रहे हैं। पैसा नहीं मिलता। फोकटिया लेखक है इसलिये रचनायें हमेशा ही मनस्थिति से प्रभावित होती हैं। कुछ तो ऐसी हैं जो बहुत समय बाद पढ़ने पर ऐसा लगता है कि यह बेकार लिखा गया। जो अच्छी लगती हैं उन पर भी यह ख्याल आता है कि इससे अच्छा लिखा जा सकता था। आभासी दुनियां में यह शब्दों का सफर अपने होने की आत्ममुग्धता से भरपूर है। लोगों ने क्या समझा यह कभी विचार नहीं किया। लिखते लिखते हम क्या सीखे, नजरिये में कैसे सुधार आया, कई मिथक कैसे टूट गये, समाज की व्यवस्था में कैसे शिखर बनते बिगड़ते हैं, यह सब हमने इंटरनेट पर लिखते लिखते देखा। सच बात तो यह है कि हम पहले भी परंपरागत विषयों पर दूसरों के तर्क नहीं मानते थे तब बहस होती तो अपने तर्क ठोस ढंग से नहीं कह पाते। अब अपनेत तर्क हैं जिनसे किसी भी विषय पर किसी को भी घेरा जा सकता है। यह लिखने से आये आत्मविश्वास का ही परिणाम है। ईपत्रिका के दो लाख पठन/पाठक संख्या पर करने पर बस इतना ही है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता के लिये धर्म और संतों का सहारा-हिन्दी संपादकीय (vishwa cup cricket tournment,religion and hindu sant)


हो सकता है कि वयोवृद्ध दर्शक कहकर -दरअसल प्रचार माध्यम अब क्रिकेट खेल के लिये नयी पीढ़ी के दर्शक ढूंढ रहे हैं क्योकि उनको यकीन है कि 1983 में विश्व कप क्रिकेट जीतन पर इससे जुड़े भारतीय दर्शक अब बुढ़ा गये हैं- क्रिकेट खेल पर चर्चा से वंचित किया जाये पर सच यह है कि सच यह है कि इसकी लोकप्रियता केवल इसलिये थी क्योंकि सभी आयु वर्ग के महिला पुरुष इसे देखते थे। अब क्रिकेट का प्रचार अप्रभावी लग रहा है इसलिये धर्म और अंधविश्वास की आड़ लेकर विश्व क्रिकेट में दर्शक और नये प्रशंसक तलाशने का काम हो रहा है।
स्थिति यह हो गयी है कि धार्मिक स्थानों पर संतों के हाथ में बल्ला पकड़ाकर उनसे टीम इंडिया को शुभकामनाऐं दिलवायी जा रही हैं। यह सब संत बड़ी आयु वर्ग के हैं और हमें नहीं लगता कि उनके धार्मिक ऐजंेडे में क्रिकेट कहीं फिट बैठता है। इसके अलावा खिलाड़ियों को प्रतिष्ठित धार्मिक स्थानों का विजय के लिये आशाीर्वाद मांगते हुए वहां का दौरा करते हुए भी दिखाया जा रहा है। माता, शनि, शिवजी, विष्णु जी तथा अन्य कई देवताओं और भगवानों से मनौती मांगी जा रही है। भक्तों से टीवी इंडिया के विजय की कामना कराई जा रही है। ऐसा करते हुए कम इस मामले में भारत शब्द का उपयोग न कर हमें आत्मग्लानि के बोध से यह प्रचार माध्यम बचा रहे हैं इसके लिये तो धन्यावद तो दिया जाना चाहिए क्योंकि इंडिया शब्द से हमारा मस्तिष्क संवेदनहीन ही रहता है और भारत शब्द आते ही भावुक हो जाता है। टीम इंडिया से आशय केवल है कि बीसीसीआई नामक एक क्रिकेट क्लब की टीम से है न कि संपूर्ण भारत के प्रतिनिधित्व वाली टीम से-कम से कम हमारी खिसियाहट तो यही कहने को मज़बूर करती है।
जब टीवी समाचार चैनल और समाचार पत्र क्रिकेट से संबंधित सामग्री का प्रकाशन भारत में विश्व कप क्रिकेट की दृष्टि से कर रहे हैं तो वह उनकी पत्रकारिता के प्रति निष्ठा कम व्यवसायिक प्रतिबद्धता को ही दर्शाती है। अब इनके प्रबंधक और संपादक यह दावा भले ही कर लें कि वह तो यह केवल वही कर रहे हैं जो लोग देखना चाहते हैं और फिर विश्व कप भारत में हो रहा है तो पूरे विश्व को यह बताना आवश्यक है कि हम उसकी कितनी इज्जत करते हैं पर इस देश के आम जागरुक नागरिकों के लिये यह मानना संभव नहीं है।
क्रिकेट में हम जैसे दर्शकों की निष्ठा नहीं रही। इतना ही नहीं इसमें देशभक्ति जैसा भाव पैदा नहीं होता। कई लोगों को बुरा लगेगा कि पाकिस्तान की जीत पर भी अब क्षोभ पैदा नहीं होगा क्योंकि वैश्विक उदारीकरण में धर्म, देशभक्ति तथा भाषा प्रेम का ढोंग अब स्वाभाविक तो नहीं लगता खास तौर से जब बाज़ार के सौदागरों को वक्तव्य और उनके प्रचार माध्यमों के कार्यक्रमों में उसे जमकर प्रायोजित ढंग से उभारा जाता है। संभव है कि हमारे जैसे पुराने दर्शकों को बढ़ती आयु का प्रकोप बताकर चुप करा दिया जाये पर फिर उन पुराने दर्शकों की भी बात हम उठा सकते हैं जो फिर बाज़ार और प्रचार माध्यम के जाल में फंस गया है। क्रिकेट फिक्सिंग की बात सामने आने पर उससे मन विरक्त हो गया। अगर कोई उससे देशभक्ति जोड़ता है तो हम यह भी सवाल उठा सकते हैं कि जिन लोगों को मैच फिक्सिंग में दोषी पाकर सजा दी गयी आजकल वह लोग क्या कर रहे हैं? क्या उनकी राष्ट्रनिष्ठा पर सवाल नहीं उठाना चाहिये आखिर उन पर देश के लिये खेलकर मैच बेचने का आरोप हैं। इनमें से कई लोग तो अब दूसरे क्षेत्रों में फिर शिखर पर पहुंच गये हैं।
बहरहाल क्रिकेट की लोकप्रियता उतनी नहीं जितना दिखाया जा रहा है। जिस समय क्रिकेट लोकप्रियता तेजी से बढ़ी उस समय देश में मनोरंजन साधन सीमित थे। इसके बावजूद क्रिकेट की लोकप्रियता बनी रही पर एक बार जब फिक्सिंग का भूत आया तो फिर अनेक लोगों का मन विरक्त हो गया। उसके बाद टीट्वंटी विश्व भारत को जितवाकर इस खेल को नया जीवन देने का प्रयास किया गया पर लगता है नाकाफी रहा। सो अब नये नये टोटके किये जा रहे हैं। इससे पहले भी भारत में क्रिकेट का विश्व कप हो चुका है पर उस समय धर्म और देशभक्ति के भावनाओं की आड़़ लेकर उसका प्रचार नहीं हुआ था। क्रिकेट को इसकी जरूरत भी नहीं थी पर अब जो हालात हैं उसे देखते धर्म और अंधविश्वास की आड़ ली जा रही है।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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आधुनिक तथा प्राचीन व्यवस्थाओं का संघर्ष-हिन्दी लेख


टुयूनिशिया तथा मिस्त्र की घटनाओं में जनआंदोलनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका दिखाई जरूर देती है पर शक की पूरी यह गुंजायश है कि विश्व में अप्रत्यक्ष रूप से शासन कर रहे पूंजीपतियों की इसमें कोई न कोई योगदान हो सकता है। संभव है कि यह वर्ग महसूस कर रहा हो कि तेल क्षेत्रों में उसका काम चलता रहे इसलिये जनता में फैले विद्रोह को हवा देकर अपने नये मुखौटे खाड़ी तथा अरब क्षेत्रों में लाये जायें। इससे उनको दो लाभ होंगे कि एक तो नये मुखोटे जनता को ताजा लगेंगे कि दूसरा यह कि पुराने मुखोटे इन पूंजीपतियों को अभी भी केवल एक प्रयोजक मानकर राजकाज के काम में उपेक्षा करते होंगे इसलिये नये मुखौटे लाकर उनको अपना सीधा वर्चस्प स्थापित किया जाये क्योंकि वह औकात से अधिक पद मिल जाने के कारण हमेशा दबे रहेंगे।
संभव ऐसा न हो। वाकई जनविद्रोह हो रहा हो, पर भारतीय प्रचार माध्यम जिस तरह दुनियां के पचास तानाशाहों के लिये खतरा बता रहे हैं वह कहीं न कहंी दुनियां के पूंजीपति और अपराधियों के गिरोह में व्याप्त एक सोच का प्रतिबिंब भी हो सकते हैं जो प्रजा तथा राज्य को भरमाये रखने के लिये हमेशा नये मुखौटे तलाशता है। यह तानाशाह अफ्रीकी तथा खाड़ी देशों में हैं। इनमें अधिकतर धार्मिक राज्य हैं और उन पर अपने धर्म के आधार पर आतंकवाद को शह देने का संदेह भी किया जाता है। मुख्य बात यह है कि प्रत्यक्ष भले ही इन राष्ट्रों के वर्तमान प्रमुख भ अमेरिका का पिछलग्गू होने का दावा न करें या संभव है इनमें से कुछ अमेरिका का विरोधी होने का नाटक करते हों पर कमोबेश सभी उसके बंधक हैं। यह सभी तेल उत्पादक राष्ट्र हैं जहां अमेरिकी कंपनियों का प्रभुत्व हैं जो कि अपने व्यापार के लिये राजनीति संस्थाओं को अपने कब्जे में लेकर काम करती हैं। कई जगह तो अमेरिकी सेना अपना डेरा डाले बैठी है। अधिकतर तेल उत्पादक राष्ट्र तानाशाही का शिकार हैं भले ही कई जगह लोकतंत्र का दिखावा किया जाता है। मुख्य बात यह है कि यह सभी धर्म पर आधारित संवैधानिक व्यवस्था वाले राष्ट्र हैं। मगर जिस लोकतंत्र के लिये वहां जनआंदोलन हो रहे हैं कहीं न कहंी उसके पीछे वहां के धार्मिक तत्वों की सक्रियता दिखाई दे रही है उससे नहीं लगता कि अगर वहां तख्ता पलट हुआ भी तो सही मायने में लोकतंत्र आयेगा। ईरान इसका एक उदाहरण है जहां राजशाही पलटकर लोकतंत्र के लिये आंदोलन एक मौलवी ने किया और बाद में वहां का धार्मिक तानाशाह बन बैठा।
मिस्र में जनविद्रोह के लिये धार्मिक स्थलों का उपयोग हुआ। दिन भी शुक्रवार का चुना गया। एशियाई देशों में धर्म की महत्ता है पर मुश्किल यह है कि जब इसकी आड़ लेकर कोई आंदोलन होता है तो वह धार्मिक ठेकेदारों के नेतृत्व में ही होता है। वैसे भारतीय प्रचार माध्यमों ने सीधे नाम नहीं लिया पर सऊदी अरब की तरफ बदलाव के उनके संकेत कोई व्यवाहारिक नहीं लगते। वहां के शासक धार्मिक आधार पर सबसे ज्यादा मज़बूती से टिके हैं। दुनियां के एक सौ बीस करोड़ से अधिक लोगों का पवित्र स्थान वहंीं है। तानाशाही का अंत अगर वहां होता है तो वह संसार का नक्श पलट सकता है। वहां जन आंदोलन की आहट तो है पर वह गुर्राहट नहीं है। वैश्विक आतंकवाद में गैर अमेरिकी विरोधी संगठनों को उसका खुला प्रश्रय मिलता है। भारत के अनेक वांछित लोग वहां जाते हैं। मज़े की बात यह है कि भारतीय रणनीतिकार कभी उसका नाम नहीं लेकर पाकिस्तान तक ही अपना लक्ष्य रखते हैं। सऊदी अरब में ऐसा कोई जनआंदोलन होता है तो उसके एतिहासिक परिणाम होंगे क्योंकि तब वहां जो दौर चलेगा वह पूरे विश्व को प्रभावित करेगा।
पश्चिमी देशों में धर्म की नाम पर ही तानाशाही है और राष्ट्र प्रमुख अपनी जनता का ध्यान अपनी समस्याओं से हटाकर दूसरी जगह धर्म की जंग कराकर इसलिये लगाते हैं ताकि वह अंधविश्वास में पड़ी रहे। वहां के शेखों का धर्म केवल पैसा बनाना तथा उसके लिये चाहे जैसी जुगाड़ करना है। वह अपरे देशों के सबसे बड़े अमीर हैं तो वहां शासन भी करते हैं। दुनियां भर में लोकतंत्र का हामी अमेरिका ही इन तानाशाह शेखों पर अपना हाथ रखे हुए है। ऐसे में अगर कहीं आंदोलन हो रहा है तो अमेरिका रणीनीतिकार आंखें मूंदें नहीं बैठे होंगे। संभव है कि वह कोई नया मुखोटा ट्यूनिशिया और मिस्र में लाना चाहते हों। यह भी हो सकता है कि आंदोलन के चलते वह कोई नया मुखोटा वहां लाने की योजना बना रहे हों। मिस्र में स्थिति खराब है पर उसमें जल्दी सुधार आयेगा यह संभव नहीं लगता। वह एक तेल उत्पादक राष्ट्र और वहां सक्रिय पूंजीपतियों का समूह कहीं न कहीं अपनी भूमिका निभा रहा होगा और यह यकीन करना कठिन है कि तख्ता पलट से उनके हितों पर कोई आंच आयेगी।
इन दोनों जगहों पर हो रहे जनआंदोलनों का अन्य देशों में विस्तार लेने की अभी कोई संभावना नहीं दिखती जैसा कि भारतीय प्रचार माध्यम बता रहे हैं। इसका कारण यह है कि पूंजीपतियों, अपराधियों तथा उनके पाले बुद्धिजीवी समूहों ने विश्व को इस तरह टुकड़ों में बांट दिया है कहीं भी सामान्य जनों में एकता संभव नहीं है-किसी राष्ट्रप्रमुख को हटाने के लिये आंदोलन चलाने के लिये कतई नहीं। ऐसे में वहां जो आंदोलन चल रहे हैं वहां व्यवस्थापक तो बदल सकते हैं पर व्यवस्था नहीं। इन आंदोलनों को विश्व में किसी नयी आशा का संकेत भी नहीं माना जा सकता क्योंकि कहीं न कहीं इन देशों में धर्म आधारित व्यवस्था रहनी है जो आंतकवाद का मार्ग प्रशस्त करती है। धार्मिक स्थलों पर अवकाश के दिन एकत्रित होकर लोगों के आंदोलन करने से तो यही निष्कर्ष निकलता है। आगे क्या होगा यह देखने वाली बात होगी।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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लुटेरों का वजूद नायक जैसा बताया-हिन्दी व्यंग्य कविता


ऊंचे सिंहासन पर बैठने से
चरित्र ऊंचा नहीं हो जाता,
अगर हो इंसान ईमानदार तो
ऊंचा सिंहासन नसीब में नहीं आता।
पर मजबूरी है चारणों की जो स्तुति करते हैं,
शब्दों में स्वामी के काल्पनिक गुण भरते हैं,
ज़माने की मजबूरी कहें,
या कुदरत की मंजूरी कहें,
सिंहासन पर बैठे राजा का
फरिश्ते जैसा दिखना जरूरी है,
शैतान भी आकर बैठ जाये तो
उसको ईमानदार बताना मज़बूरी है
शायद इसलिये ही चंद टुकड़ों की खातिर
लिखे गये चमत्कारी अफसाने
दिखाये कातिलों के बहादुरी के कारनामे
लूट लिया जिन्होंने जमाने को
पर नायकों जैसा उनका वजूद बताया जाता।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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इस ब्लाग ने पाठक संख्या एक लाख पार की-संपादकीय (vews of it blog-hindi editorial)


 आज यह ब्लाग एक लाख की संख्या पार गया।  देश में हिन्दी भाषी क्षेत्रों में इंटरनेट  कनेक्शनों की संख्या को देखते हुए किसी हिन्दी भाषी ब्लाग पर दो वर्ष में यह संख्या अधिक नहीं है, मगर दूसरा पक्ष यह है कि आम हिन्दी भाषी लोगों में इंटरनेट पर हिन्दी लिखे जाने का ज्ञान और उसके पढ़ने के संबंध में होने वाली तकनीकी जानकारी के अभाव के चलते यह संख्या ठीक ही कही जा सकती है।
आज भी ऐसे अनेक लोग हैं जिनको इस बात का पता नहीं है कि इंटरनेट पर हिन्दी भाषा में न केवल साहित्य बल्कि समसामयिक विषयों पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। फिर जिनको पढ़ने का शौक है उनको यह पता ही नहीं कि हिन्दी में लिखा सर्च इंजिन में कैसे ढूंढा जाये।  जिनको तकनीकी ज्ञान है उनमें फिर यह अहंकार है कि हिन्दी में तो सभी कचड़ा है असली तो अंग्रेजी में लिखा जा रहा है।  दूसरा यह है कि लोग इंटरनेट का उपयोग टीवी के विकल्प के रूप में कर रहे हैं, जिस दिन वह अखबार या किताब के  रूप में इसे पढ़ना चाहेंगे तब शायद हिन्दी का अंतर्जाल पर बोलबाला होगा।  वैसे बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि इस ब्लाग लेखक के विदेशों में अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद टूलों के माध्यम से पढ़ा जा रहा है। मतलब यह है कि अंतर्जाल पर आप किसी भाषा में न लिखकर वरन् अपने अंदर चल रही हलचल या भाव को अभिव्यक्त कर रहे हैं उसे अपनी भाषा में पढ़ने की पाठक को बहुत सुविधा है।  सच तो यह है कि जो लोग सोच रहे हैं कि हिन्दी में लिखने से कोई लाभ नहीं है वह संकीर्णता के भाव मन में लिये हुए हैं-यही ब्लाग एक रैकिंग बताने वाल वेबसाईट पर अंग्रेजी के ब्लागों पर बढ़त बनाये हुए है।  गूगल पेज रैंक में भी इसे चार का अंक प्राप्त है जो अंग्रेजी ब्लागों की तुलना में किसी तरह कम नहीं है। अधिकतर लोगों को यह लगता है कि  अंग्र्रेजी ब्लाग आगे हैं तो उनकी गलतफहमी है।  दूसरी बात यह है कि अंतर्जाल पर सामग्री की गुणवता तथा भावनात्मकता के साथ उसके व्यापक प्रभाव का बहुत महत्व है। अगर यह शर्तें कोई हिन्दी ब्लाग पूरी करता है तो उसे दुनियां भर में लोकप्रियता मिल सकती है।
आखिरी बात यह है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से सराबोर भारत के हिन्दी समाज में से ही भावनात्मक, आदर्श तथा अध्यात्मिक संदेश से भरी रचनायें आनी अपेक्षित हैं इसलिये हिन्दी को भविष्य में इंटरनेट पर एक आकर्षक रूप प्राप्त होगा इसकी पूरी संभावना है। इस अवसर पर पाठकों, ब्लाग लेखक मित्रों तथा तकनीकी रूप से इस ब्लाग को अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग कर रहे लोगों का आभार। भविष्य में भी ऐसे ही सहयोग की आशा है।

लेखक तथा संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर 
 
 

इस तरह सताते भविष्य के सपने-हिंदी शायरी


अतीत के गुजरे पल ही
दिमाग को इस तरह सताते
कि भविष्य के सपने
सामने चले आते
साथ चलता तो है
बस आज का सच
जो बहुत लगता है बहुत कठोर
उससे बचने के लिये
सपनों को ही बुने जाते
अगर सच हो गया तो ठीक
बिखर गया तो उस पर रोना क्या
जिंदगी है इसी का नाम
जिसमें सपनों के दौर आते जाते
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सपनों से जितना करते दूर होने की कोशिश
पास वह अपने चले आते
बहुत सोचते कि साथ ही
जिंदगी गुजारें
पर सपने बार-बारे बुलाते
जैसे कहते हों
‘बस कुछ करना नहीं है
कभी जमीन पर उतर कर
तेरे पास नहीं आयेंगे
तुम केवल ख्याल करने से क्यों घबड़ाते

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यह आलेख ‘दीपक” भारतदीप की सिंधु केसरी-पत्रिका पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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