धूप में पसीने से नहाते हुए
जब देखता हूं अपना साया
दिल भर आता है
वह जमीन पर गिरा होता है
मैं ढोकर चल रहा हूं आग में अपनी काया
कहीं राह में फूल की खुशबू आती है
मैं देखता हूं सड़क किनारे
कहीं फूलो का पेड़ है
जो बिखेर रहा है सुगंध की माया
रात में चांद की रोशनी में भी मेरे साथ
चलता आ रहा है मेरा साया
मैं उसे देख रहा हूं वह अब भी
जमीन पर गिरा हुआ है
शीतल पवन छू रही मेरे बदन को
पर उठ कर खड़ा नहीं होता मेरा साया
उसे कभी कभी ही देख पाता हूं
अपने ख्यालों में ही गुम हो जाता हूं
खामोश रहता है मेरा साया
कई लोग मिले इस राह पर
बिछड़ गये अपनी मंजिल आते ही
दिल में बसा रहा उनका साया
चंद मुलाकातों में रिश्ता गहरा होता लगा
पर जो बिछड़े तो फिर
उनका चेहरा कभी नजर नहीं आया
तन्हाई में जब खड़ा होकर
इधर-उधर देखता हूं
बस नजर आता है अपना साया
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दीपक भारतदीप
टिप्पणियाँ
तन्हाई में जब खड़ा होकर
इधर-उधर देखता हूं
बस नजर आता है अपना साया
बहुत अच्छी रचना, बधाई स्वीकारें..
***राजीव रंजन प्रसाद
बेहतरीन रचना… पड़ कर एक ग़ज़ल की कुछ पंक्तिया याद आ गई
अपने साये से चौक जाते है,
उमर गुजरी है इस कदर तन्हा,
काफिला साथ और सफर तन्हा,
यह तो मुझे बहुत ही पसंद आई थी …लिखते रहे .आपके पास शब्द बहुत हैं