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आतंकवादी का साक्षात्कार-हिन्दी हास्य व्यंग्य कविता (aatankvadi ka sakshatakar-hindi hasya vyangya kavita)


एक पत्रकार आतंकवादी का
साक्षात्कार लेने पहुंचा और बोला
‘भई, बड़ी मुश्किल से तुम्हें ढूंढा है
अब इंटरव्यु के लिऐ मना नहीं करना
बहुत दिन से कोई सनसनीखेज खबर नहीं मिली
इसलिये नौकरी पर बन आई है,
तुम मुझ पर रहम करना
आखिर दरियादिल आतंकवादी की
छबि तुमने पाई हैं।’
सुनकर आतंकवादी बोला
‘‘भई, हमारी मजबूरी है,
तुम्हें साक्षात्कार नहीं दे सकता
क्योंकि तुमने कमीशन देने की
मांग नहीं की पूरी है,
पता नहीं तुम यहां कैसे आ गये,
जिंदा छोड़ रहा हूं
तुम शायद सीधे और नये हो
इसलिये मुझे भा गये,
कमबख्त!
तुम्हें आर्थिक वैश्वीकरण के इस युग में
इस बात का अहसास नहीं है कि
आतंकवाद भी कमीशन और ठेके पर चलता है,
उसी पर ही हमारे अड्डे का चिराग जलता है,
टीवी पर चाहे जैसा भी दिखता हो,
अखबार चाहे जो लिखता हो,
हक़ीकत यह है कि
अगर पैसा न मिले तो हम आदमी क्या
न मारें एक परिंदा भी,
आतंक के पक्के व्यापारी हैं
कहलाते भले ही दरिंदा भी,
हमें सुरक्षा कमीशन मिल जाये
तो समझ लो हाथी सलामत निकल जाये,
न मिले तो चींटी भी गोली खाये,
आजकल निठल्ला बैठा हूं
इसका मतलब यह नहीं कि काम नहीं है
सभी चुका रहे हैं मेरा कमीशन
फिर हमला करने का कहीं से मिला दाम नहीं है,

अब इससे ज्यादा मत बोलना
निकल लो यहां से
सर्वशक्तिमान को धन्यवाद दो कि
क्योंकि अभी तुम्हारी जिंदगी ने अधिक आयु पाई है।
————–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दिवाली(दीपावली) का शुभ दिन बीत गया-आलेख (hindi article on diwali festival


होश संभालने के बाद शायद जिंदगी में यह पहली दिवाली थी जिसमें मिठाई नहीं खाई। कभी इसलिये मिठाई नहीं खाते थे कि बस अब दिवाली आयेगी तो जमकर खायेंगे।  हमें मिठाई खाने का शौक शुरु से रहा है और कुछ लोग मानते हैं कि मिठाई के शौकीन झगड़ा कम करते हैं क्योंकि उनकी वाणी में मधुरता आ जाती है। हम भी इस बात को मानते हैं पर वजह दूसरी है। दरअसल अधिक मीठा खाने वाले मोटे हो जाते हैं इसलिये उनके झगड़ा करने की ताकत कम होती है।  अगर कहीं शारीरिक श्रम  की बात आ जाये तो हांफने लगते हैं। हमारे साथ भी यही होता रहा है, अलबत्ता हमने शारीरिक श्रम खूब किया है और साइकिल तो आज भी चलाते हैं।  हां, यह सच है कि मोटे अपने खाने की चिंता अधिक करते हैं क्योंकि उनके खाली पेट में जमा गैस उनको सताने लगती है जिसे हम भूख भी कहते हैं।  इसके बावजूद हम मानते हैं कि मोटे लोग शांतिप्रिय होते हैं-कहने वाले कहते रहें कि डरपोक होते हैं पर यह सच है कि कोई उन पर आसानी से हाथ डालने की भी कोई नहीं सोचता। 
दिवाली के अगली  सुबह बाजार में निकले तो देखा कि  बाजार में मिठाईयां बिक रही थीं। बिकने की जगह देखकर ही मन दुःखी हो रहा था।  इधर हम घर पर ही जब कभी खाने की कोई सामग्री देखने को मिलती है तो उसे हम स्वतः ही प्लेट से ढंकने लगते हैं।  मंगलवार हनुमान जी का प्रसाद ले आये और अगर कभी उसका लिफाफा खुला छूट गया तो फिर हम न तो खाते हैं न किसी को खाने देते हैं।  मालुम है कि आजकल पर्यावरण प्रदूषण की वजह से अनेक प्रकार की खतरनाक गैसें और कीड़े हवा में उड़कर उसे विषाक्त कर देते हैं।  ऐसे में बाजार में खुली जगह पर रखी चीज-जिसके बारे में हमें ही नहीं पता होता कि कितनी देर से खुले में पड़ी है-कैसे खा सकते हैं।  पिछले सात वर्षों से योग साधना करते हुए अब खान पान की तरह अधिक ही ध्यान देने लगे हैं तब जब तक किसी चीज की शुद्धता का विश्वास न हो उसे ग्रहण नहीं करते।  यही कारण है कि बीमार कम ही पड़ते हैं और जब पड़ते हैं तो दवाई नहीं लेते क्योंकि हमें पता होता है कि हम क्या खाने से बीमार हुए हैं? उसका प्रभाव कम होते ही फिर हमारी भी वापसी भी हो जाती है।
बाजार में सस्ती मिठाईयां गंदी जगहों के बिकते देखकर हम सोच रहे थे कि कैसे लोग इसे खा रहे होंगे।  कई जगह डाक्टरों की बंद दुकानें भी दिखीं तब तसल्ली हो जाती थी कि चलो आज इनका अवकाश है कल यह उन लोगों की मदद करेंगी जो इनसे परेशान होंगे।  वैसे मिठाई के भाव देखकर इस बात पर यकीन कम ही था कि वह पूरी तरह से शुद्ध होंगी।
ज्यादा मीठा खाना ठीक नहीं है अगर आप शारीरिक श्रम नहीं करते तो।  शारीरिक श्रम खाने वाले के लिये मीठा हजम करना संभव है मगर इसमें मुश्किल यह है कि उनकी आय अधिक नहीं होती और वह ऐसी सस्ती मिठाई खाने के लिये लालायित होते हैं।  संभवतः सभी बीमार इसलिये नहीं पड़ते क्योंकि उनमें कुछ अधिक परिश्रमी होते हैं और थोड़ा बहुत खराब पदार्थ पचा जाते हैं पर बाकी के लिये वह नुक्सानदेह होता है।  वैसे इस बार अनेक हलवाईयों ने तो खोये की मिठाई बनाई हीं नहीं क्योंकि वह नकली खोए के चक्कर में फंसना नहीं चाहते थे। इसलिये बेसन जैसे दूध न बनने वाले पदार्थ उन्होंने बनाये तो कुछ लोगों ने पहले से ही तय कर रखा था कि जिस प्रकार के मीठे में मिलावट की संभावना है उसे खरीदा ही न जाये।
पटाखों ने पूरी तरह से वातावरण को विषाक्त किया। अब इसका प्रभाव कुछ दिन तो रहेगा।  अलबत्ता एक बात है कि हमने इस बार घर पर पटाखों की दुर्गंध अनुभव नहीं की। कुछ लोगों ने शगुन के लिये पटाखे जलाये पर उनकी मात्रा इतनी नहीं रही कि वह आसपास का वातावरण अधिक प्रदूषित करते। महंगाई का जमाना है फिर अब आज की पीढ़ी-कहीं पुरानी भी- लोग टीवी और कंप्यूटर से चिपक जाती है इसलिये परंपरागत ढंग से दिवाली मनाने का तरीका अब बदल रहा है।
अपनी पुरानी आदत से हम  बाज नहीं आये। घर पर बनी मिठाई का सेवन तो किया साथ ही बाजार से आयी सोहन पपड़ी भी खायी।  अपने पुराने दिनों की याद कभी नहीं भूलते।  अगर हमसे पूछें तो हम एक ही संदेश देंगे कि शारीरिक श्रम को छोटा न समझो। दूसरा जो कर रहा है उसका ख्याल करो।  उपभोग करने से सुख की पूर्ण अनुभूति नहीं होती बल्कि उसे मिल बांटकर खाने में ही मजा है।  इस देश में गरीबी और बेबसी उन लोगों की समस्या तो है जो इसे झेल रहे हैं पर हमें भी उनकी मदद करने के साथ सम्मान करना चाहिए।  ‘समाजवाद’ तो एक नारा भर है हमारे पूरे अध्यात्मिक दर्शन में परोपकार और दया को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है ताकि समाज स्वतः नियंत्रित रहे। यह तभी संभव है जब अधिक धन वाले अल्प धन वालों की मदद बिना प्रचार के करें।  कहते हैं कि दान देते समय लेने वाले से आंखें तक नहीं मिलाना चाहिए।  इसके विपरीत हम देख रहे हैं कि हमारे यहां के नये बुद्धिजीवी डंडे और नियम कें जोर पर ऐसा करना चाहते हैं।  इसके लिये वह राज्य को मध्यस्थ की भूमिका निभाने का आग्रह करते हैं। इसका प्रभाव यह हुआ है कि समाज के धनी वर्ग ने सभी समाज कल्याण अब राज्य का जिम्मा मानकर गरीबों की मदद से मूंह फेर लिया है और हमारे सामाजिक विघटन का यही एक बड़ा कारण है।
खैर, इस दीपावली के निकल जाने पर मौसम में बदलाव आयेगा। सर्दी बढ़ेगी तो हो सकता है कि मौसम बदलने से भी बीमारी का प्रभाव बढ़े।  ऐसे में यह जरूरी है कि सतर्कता बरती जाये।  बदलते मौसम में सावधानी न बरतने से बुखार, खांसी तथा सर दर्द जैसी परेशानियां  आती हैं
इधर ब्लाग पर अनेक टिप्पणीकर्ता लिखते हैं कि आप अपना फोटो क्यों नहीं लगाते? या लिखते हैं कि आप अपना फोन नंबर दीजिये तो कभी आपके शहर आकर आपके दीदार कर ले। हम दोनों से इसलिये बच रहे हैं कि कंप्यूटर पर लिखने की वजह से हमारा पैदल चलने का कार्यक्रम कम हो गया है इसलिये पेट अधिक बाहरं निकल आया है। फोटो भी अच्छा नहीं खिंच रहा।  इसलिये सोचा है कि कल से योगासन का समय बढ़ाकर अपना चेहरा मोहरा ठीक करें तो फोटो खिंचवाकर लगायेंगे और नंबर भी ब्लाग पर लिखेंगे।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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भारतीय योग साधना का फिनोमिना-हिन्दी धार्मिक विचार आलेख (finomina of yog sadhna-hindu dharmik vichar lekh


इंटरनेट पर एक हिंद ब्लॉग में लिखा   गया वह एक दिलचस्प लेख था! मन में आया टिप्पणी करना चाहिए! लेख दोबारा पढ़ा तो लगा कि चलो एक अपना पाठ ही लिख लेते हैं क्योंकि भारतीय योग साधना से संबंधित विधियां और उनके महत्व को लेकर विश्व भर में चर्चा हो रही है पर उसके मूल तत्व किसी को नहीं दिखाई दे रहे हैं। एक तरह से अंधों का हाथी हो गया है भारतीय योग जो केवल देह के इर्दगिर्द ही घूम रहा है और मन और विचारों में उससे होने वाले परिवर्तनों को अनदेखा किया जा रहा है।
बात उन दिनों की है जब इस लेखक ने योग साधना प्रारंभ की थी। शायद दस वर्ष पूर्व की बात होगी तब बाबा रामदेव का नाम इतना प्रसिद्ध नहीं था। भारतीय योग संस्थान के शिविर में अनेक साधकों से भेंट होती। कुछ अन्यत्र शिविरों की भी जानकारी आती थी। ऐसे ही अन्यत्र चल रहे योग शिविर की जानकारी मिली कि एक शिक्षक ने अचानक ही साधना का परित्याग कर दिया था। एक साधक ने बताया कि उनके किसी संत गुरु ने उनको योग साधना करने से मना कर कहा था कि इससे भगवान के प्रति भक्ति भाव कम होता है। अपने गुरु के आदेश का उन्होंने पालन किया। बात आई गयी खत्म होना चाहिए थी, मगर हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अनेक लोग योग साधना के बारे में अनेक संशय पाले हुए हैं। उससे भी ज्यादा यह बात कि लोग इससे अनेक प्रकार की सिद्धियां होने का दावा करते हैं। यह दोनों ही बुरी बात है और मन में असहजता का भाव उत्पन्न करती हैं जो कि ठीक योग के विरुद्ध है। योग साधना से केवल देह, मन और विचारों में सकारात्मक भाव पैदा होता है इससे अधिक कुछ नहीं। अगर कोई योग साधक श्रीमद्भागवत गीता पढ़ ले तो वह अध्यात्मिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाता है और तब स्वर्ग में टिकट दिलाने, हर मर्ज की दवा देने, मनोरंजन करने, सौंदर्य बनाये रखने और काम शक्ति बढ़ाने के उपाय बताने के नाम पर उस पर शासन करने वाले बाज़ार तथा प्रचार का उस नियंत्रण उस पर से समाप्त हो जाता है। सभी योग साधक श्रीमद्भागवत गीता पढ़ें यह जरूरी नहीं है पर चरम पर आने के बाद उसका मन ऐसे तत्व ज्ञान की तरफ स्वतः ही बढ़ता है। ऐसे में वह इस संसार में बुद्धि और मन के आधार पर सामान्य मनुष्यों पर शासन करने वाली शक्तियों के घेरे से बाहर हो जाता है। कोई वाद या विचार उसके आगे निरर्थक विषय के अलावा कुछ नहीं रह जाता। वह संसार के सामान्य कर्म नहीं त्यागता वरन् वह एक स्वतंत्र और मौलिक कर्मयोगी मनुष्य बन जाता है। यही से शुरु होता है योग का विरोध जो शासन और बाज़ार के स्वामी अपने प्रचारकों से करवाते हैं।
उस लेख में बाबा रामदेव के फिनोमिना की बात कही गयी थी। लिखने वाले स्वयं ही कार्ल मार्क्स की किताब पूंजी से प्रभावित हैं। कार्ल मार्क्स का नाम और उनकी पूंजी किताब का भी एक समय फिनोमिना रहा है। कार्ल मार्क्स एक विदेशी लेखक था और उसके विचारों को भारत के संबंध में अप्रासंगिक माना जाता रहा है, मगर शैक्षणिक संस्थानों तथा साहित्यक क्षेत्रों में एक समय ऐसे लोगों का जमावड़ा था जो सोवियत संघ की कथित क्रांति के प्रभाव में वैसी ही क्रांति अपने देश में लाना चाहते थे और गरीब और मज़दूर का उद्धार करना ही उनका लक्ष्य था। उनकी बहसें कॉफी हाउसों में होती थी। यह बहसें या मुलाकतें एक फैशन थी जो किसी विचार या आंदोलन का निर्माण करने में सहायक नहीं थी। उन्होंने इस देश में बुद्धिजीवियों की ऐसी छबि का निर्माण किया जिसका अपना फिनोमना जनता में था। यही कारण था कि ऐसे लोग जो कार्ल मार्क्स के विचारों से प्रभावित नहीं थे और कहीं न कहीं उनके मन में अपने भारत की विचाराधारा का प्रभाव था वह भी उनकी शैली अपनाने लगे। इससे भारत में विचारधाराओं का फिनोमिना बढ़ा। नये नये देवता गढ़े गये मगर चूंकि सभी भारतीय अध्यात्म ज्ञान से परे थे इसलिये चिंतन केवल चिंता तक सिमट गया। ऐसे में भारतीय योग को देशी विचारधारा के लोग भी एक बेकार चीज़ मानने लगे थे। उनका मानना था कि योगियों की निष्क्रियता की वज़ह से ही विदेशी यहां आकर जम गये जबकि सच यह है कि यह केवल अधंविश्वासी तथा पाखंडी लोगों की सक्रियता से हुआ था। श्रीमद्भागवत गीता को तो केवल सन्यासियों के लिये प्रचारित किया गया।
ऐसे में यह देश बहुत बड़े वैचारिक भटकाव में फंस गया और नतीजा यह निकला कि नारे और वाद ही दर्शन बनकर रह गये मगर यह समाज बिना फिनोमिना के चलने के आदी नहीं है। एक आदर्श आदमी के फिनोमिना में चलने के आदी इस समाज को अगर बाबा रामदेव नाम का नायक मिल गया तो उस पर अध्यात्मिकवादी लोग खुश ही होते हैं। रहा बाज़ार और उसके प्रचारतंत्र का सवाल तो उसके दोनों ही हाथों में लड्डू रहने है और इसे रोकना मुश्किल काम हैं। मुश्किल यह है कि वैचारिक भटकाव के समय इस देश में ऐसे बुद्धिजीवियों की भरमार हो गयी जो चिंतन कम चिंताओं पर अधिक लिखते हैं। समस्याओं को उभारते हैं पर हल उनके पास नहीं है। सबसे बड़ी बात यह कि वह समाज को वैचारिक रूप से आत्मनिर्भर बनाकर समस्याओं का हल ढूंढने की बजाय सरकारी कानूनों से करने की शैली आज के बुद्धिजीवियों में है। पराश्रित बुद्धिजीवी जब योग साधना पर लिखते हैं तो उनका सामना करने वाले लोग भी वैसे ही हैं। आदमी जब दैहिक तनाव से मुक्त होगा वह मानसिक और वैचारिक रूप से स्वतंत्र हो जायेगा। ऐसे में इन बुद्धिजीवियों की सुनेगा कौन?
अमेरिका के एक पादरी ने घोषित किया कि भारतीय योग साधना ईसाई धर्म के विरुद्ध है। इस पर भारत में कुछ लोगों ने विरोध किया। विरोध करने वालों का कहना है कि यह ईसाई धर्म के विरुद्ध नहीं है। यह विरोध करने वाले नहीं जानते कि अनेक हिन्दू संत ही इसका विरोध करते हैं।
सच बात तो यह है कि पूरे विश्व में इतने सारे धर्म होना ही इसका प्रमाण है कि इसके नाम पर जनसमुदाय में भ्रम फैलाया जाता रहा है। किसी भी भारतीय ग्रंथ में धर्म का कोई नाम नहीं है और इसका आशय केवल आचरण से लिया जाता रहा है। मतलब पूरी दुनियां में दो ही प्रवृतियां रहती हैं एक धर्म की दूसरी अधर्म की! धर्म के नाम पर बांटने का काम तो पश्चिम से ही आया है। इसका कारण यह रहा है कि लोग अपने संकटों, बीमारियों तथा अन्य समस्याओं का हल दूसरे से कराना चाहते हैं। योग मनुष्य को शारीरिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक रूप से आत्मनिर्भर बनाता है। जब व्यक्ति आत्मनिर्भर हो जायेगा और धर्म का मतलब समझ जायेगा तब वह किसी भी धर्म के किसी ठेकेदार के पास नहीं जायेगा। यह योग तो हर धर्म के लिये खतरा है जिसमें इंसान स्वयं ही इंसान होकर जीना सीख जाता है। ऐसे में सभी धर्म प्रेम, अहिंसा तथा दया भाव से जीना सिखाते हैं जैसी बातें सुनाकर बहसें और चर्चा करने वाले तथा शांति संदेश बेचने वालों का क्या होगा? यही कारण है कि योग फिनोमिना से बहुत लोग आतंकित हैं क्योंकि आधुनिक बाज़ार तथा उसके प्रचारकों का फिनोमिना कम होने का खतरा है। हमने फिनोमिना शब्द का अर्थ इधर उधर ढूंढा पर मिला नहीं। इसका आशय हिन्दी में प्रभाव या प्रभावी हो सकता है और इसीलिये फिनोमिना शब्द प्रयोग करके देखा है। जब आप योग साधना करते हैं तो ऐसे प्रयोगों की प्रेरणा स्वतः पैदा होती है। यह लेखक कोई ब्रह्मज्ञानी नहीं है पर योग फिनोमिना की वजह से ही यह लिखने को विवश हुआ है इसमें संदेह नहीं है।
———

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com

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फर्जी मुठभेड़ पर बवाल-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं (false encounter-hindi satire poem)


फर्जी मुठभेड़ों की चर्चा कुछ
इस तरह सरेआम हो जाती कि
अपराधियों की छबि भी
समाज सेवकों जैसी बन जाती है।
कई कत्ल करने पर भी
पहरेदारों की गोली से मरे हुए
पाते शहीदों जैसा मान,
बचकर निकल गये
जाकर परदेस में बनाते अपनी शान
उनकी कहानियां चलती हैं नायकों की तरह
जिससे गर्दन उनकी तन जाती है।
——–
टीवी चैनल के बॉस ने
अपने संवाददाता से कहा
‘आजकल फर्जी मुठभेड़ों की चल रही चर्चा,
तुम भी कोई ढूंढ लो, इसमें नहीं होगा खर्चा।
एक बात ध्यान रखना
पहरेदारों की गोली से मरे इंसान ने
चाहे कितने भी अपराध किये हों
उनको मत दिखाना,
शहीद के रूप में उसका नाम लिखाना,
जनता में जज़्बात उठाना है,
हमदर्दी का करना है व्यापार
इसलिये उसकी हर बात को भुलाना है,
मत करना उनके संगीन कारनामों की चर्चा।
———–

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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माया का असली और नकली खेल-हिन्दी व्यंग्य (maya ka asli aur nakali khel-hindi vyangya)


काग़ज के नोट वैसे भी नकली माया की प्रतीक है क्योंकि उनसे कोई वस्तु खरीदी जा सकती है पर उनका कोई उपयोग नहीं है। हर नोट पर रिजर्व बैंक इंडिया के गवर्नर का एक प्रमाण पत्र रहता है जिस पर लिखा रहता है कि मैं इसके धारा को अंकित रुपया देने का वचन देता हूं। चूंकि वह एक सम्मानित व्यक्ति होता है इसलिये उसका प्रमाण पत्र नोट को नोट प्रमाण बना देता है। कहने का अभिप्राय यह है कि नोट असली माया का प्रतीक है पर स्वयं नकली है पर कमबख्त अब तो नकली माया में भी नकली का संकट खड़ा हो गया लगता है।
इधर सुनते हैं कि चारों तरफ नकली नोटों का बोलबाला है। कहीं  दूध तो कहीं खोए के भी नकली होने की चर्चा आती है। एक तो सारा संसाद ही मिथ्या माया का प्रतीक और उसमें भी मिथ्या।
बड़े बड़े अध्यात्मिक चिंतक इस देश में हुए हैं पर किसी ने अपनी तपस्या, यज्ञ या सत्संग में मिथ्या संसार में भी मिथ्या माया की खोज नहीं की। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि अपना अध्यात्मिक चिंतन भी चूक गया है क्योंकि वह तो संसार के मिथ्या होने तक ही सीमित है। मिथ्या में भी मिथ्या के आगे वह बेबस हो जाता है।
इधर एक दूग्ध संघ के अधिकारी के पास जांच अधिकारियों को माया के अपरंपार भंडार मिले हैं और उनके लाकर नित नित नये प्रमाण उगल रहे हैं। अब यह कहना मुश्किल है कि सरकारी दुग्ध भंडार के अधिकारी ने दूध से काली कमाई कैसे की? नकली दूध बनाकर बेचा या फिर पानी मिलाकर आम उपभोक्ता को पिलाया! उनके खज़ाने में नकली नोट भी मिल रहे हैं और इससे एक बात जाहिर होती है कि जब आदमी के सामने नोट आता है तो वह उसके आने के अच्छे या बुरे रास्ते आने पर विचार नहीं कर सकता पर अब तो यह हालत है कि नकल और असल की भी पहचान नहीं रही।
मुश्किल यह है कि दूध सफेद ही बेचा जा सकता है पर उससे काली कमाई करने के दो तीन तरीके प्रचलित हैं-पानी मिलाकर, नकली बनाकर या पावडर से तैयार कर! शुद्ध दूध तो आजकल उनको ही मिलना संभव है जिन्होंने पिछले जन्म में पुण्य किये हों या स्वयं ही दूसरों को शुद्ध दूध प्रदान किया हो।
देश की जनसंख्या बढ़ रही है और उसके कारण महंगाई भी! खाद्य और पेय पदार्थों की कमी के कारण यह सभी हो रहा है। दुनियां के बहुत सारे झूठ हैं जिनमें यह भी एक शामिल है क्योंकि अपना मानना है कि सारा संकट अकुशल प्रबंध से जुड़ा है जिसे छिपाने के लिये ऐसा कहा जाता है। मुश्किल यह है कि इस देश में शिखर पर बैठे लोगों ने तय किया है कि कोई काम आसानी से नहीं होने देंगे। पूंजीपति के लिये सारे रास्ते आसान है पर आम इंसान के लिये सभ्ीा जगह मुश्किलों का ढेर है। जिसके पास अवसर आ रहा है वही नोट एकत्रित करने लगता है-न वह काला रास्ता देखता है न सफेद।
अलबत्ता दूध सफेद है तो वह सफेद ही रहेगा-असली हो या नकली। नोट भी नोट रहेगा असली या नकली। किसी भी दुग्ध संध के बड़े अधिकारी स्वयं दूध नहीं बेचते। दूध के विपणन में उनकी अप्रत्यक्ष भूमिका होती है पर उसका निर्णायक महत्व होता है। दूध खरीदना बेचने की सामान्य प्रक्रिया के बीच एक तंत्र है जिसमें ठेके और कमीशन का खेल चलता है। तय बात है कि यह नकली नोट भी किसी ने अपने काम के लिये दिये होंगे। उसका काम असली हुआ पर माल नकली दे गया। किसने देखा कि माल भी नकली रहा हो।
हजार और पांच सौ नोटों का मामला अज़ीब है। एक तरह से समानातंर व्यवस्था चलती दिख रही है। जब सब्जी या अन्य छोटा सामान खरीदना होता है तो सौ, पचास और दस का नोट जेब में देखकर चलना होता है। बैंक से एटीएम में पांच सौ हजार का नोट जब निकलता है तो एक तो चिंता यह होती है कि कहीं नकली न आ जाये दूसरा यह भी कि उनके खर्च करने के लिये कौनसी बड़ी खरीददार होगी। हम यह दावा तो नहीं कर सकते कि कभी नकली नहीं आया क्योंकि अगर आया भी होगा तो चल गया हो, कौन कह सकता है। अलबत्ता कुछ लोगों ने ऐसी शिकायते की हैं कि बैंकों से भी नकली नोट निकले हैं। बहरहाल बड़े नोटों को बड़ी खरीददारी में खर्च कर छोटे नोट जुटाते हैं ताकि उनका छोटी खरीददारी में उपयोग किया जाये। इस तनाव में थोड़ा दृष्टिपात करें तो अपने आप को दो अर्थव्यवस्थाओं के बीच फंसा पायेंगे।
ऐसे में कभी कभी बड़ा डर लगता है कि कहीं अपने हाथ एक हजार या पांच सौं का नोट आ गया तो क्या कहेंगे-माया में भी नकली माया!

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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कलम की कद्र नहीं करते, तलवार उठाते अपने हाथ में-हिन्दी व्यंग्य कविता (kalam aur talwar-hindi vyangya kavita


पेड़ की छाया भी सुख न दे सके, लोग लगे ऐसे तनाव लाने में।
घास भी पांव में छाले कर दे, ऐसे मैदान में लगे पांव बढ़ाने में।।
बुलंदियों को छूना चाहते सभी, ऊंचाई का पता नहीं किसी को,
बिना पंख आकाश में उड़ते, जिंदगी दांव पर होती भाग्य अजमाने में।।
कलम की कद्र नहीं करते, तलवार उठाते अपने हाथ में,
अपनी गर्दन कटवाते या काटते, नाक की झूठी इज्जत बचाने में।।
बहुत सी चीजों की तरह, हर आदमी भी उगा इस धरती पर
ढेर सारे तोहफे यहां, मगर ताकत लगाते तारे जमीन पर लाने में।
कुदरत ने अक्ल दी, इंसान के ढेर सारी बिना मोल के,
कहें दीपक बापू लोग उसे अमन की बजाय लगाते लड़ाने में।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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भद्र पुरुष उवाच-हास्य व्यंग्य


वह भद्र पुरुष बुद्धिजीवी बहुत दिनों से बिना प्रचार के सांसें ले रहा था। कहने को लेखक था और संबंधों के दम पर अच्छा खासा छपता भी था पर अब न वह लिख पाता था और न ही उसकी दिलचस्पी थी। अलबत्ता अपने पुराने रिश्तों के सहारे कहीं उसने साहित्यक संस्थाओं के पद वगैरह जरूर हथिया कर रखे थे ताकि साहित्यकार की छबि बनी रहे। बहुत दिन से न तो अखबार में नाम आया और न ही टीवी चैनल वालों ने पूछा।
उस दिन एक भद्र महिला बुद्धिजीवी का फोन उसके पास आया। उसने रिसीवर उठाया ‘‘हलौ कौन बोल रहा है?’’
भद्र महिला ने कहा-‘‘मैं बोल रही हूं।’’
भद्र पुरुष ने कहा-‘‘कौन बोल रही हो। नाम तो बताओ।’’
भद्र महिला ने कहा-‘पहले अपनी खांसी बंद तो कर बुढऊ, तब तो बताऊं।’
भद्र पुरुष ने खांसते हुए कहा-‘‘पहले नाम तो बताओ! गोरी नाम है या काली या सांवली या दिलवाली! तुम नाम बताओगी तो खांसी अपने आप रुक जायेगी। नहीं तो मुझे यह भ्रम बना रहेगा कि पंद्रह दिन से मायके में गयी मेरी बीवी बोल रही है, उसे अधिक बात न करना पड़े इसलिये मेरा गला वैसे ही बिदकता है। मेरे समझाने पर भी नहीं समझता।’’
भद्र महिला-कमबख्त! तू अब भी नाम पूछता है। तेरा नाम तो डूबा जा रहा है। उसे बचाने के लिये मौका चाहिए कि नहीं!
भद्र पुरुष की खांसी रुक गयी और बोला-‘अच्छा! तू बोल रही है………तभी मैं कहूं कि ऐसा स्वर किसका है जिसकी वजह से खांसी नहीं रुक रही। मेरे कान तो कोयल के स्वर सुनने के आदी हैं न कि कौएनी के!’
भद्र महिला-‘लगता है सठिया गये हो। अब यह कौएनी कौन? क्या हिन्दी में कोई नया शब्द जोड़ा है। तुझे खुशफहमी है कि तू हिन्दी का बड़ा ठेकेदार है।’
भद्र पुरुष बोला-‘‘कौए के नारी रूप को क्या कहेंगे? मेरे हिन्दी ज्ञान से इसके लिये यही शब्द ठीक है। अब ज्यादा माथा न खपा। बता मामला क्या है?’’
भद्र महिला-‘‘इधर बहुत दिन से मेरा नाम न तो अखबार में आ रहा है न तुम्हारा। इसलिये कुछ ऐसा करो कि अपना नाम चलता रहे। इधर इंटरनेट पर अपना नाम कहीं चमक नहीं रहा।’’
भद्र पुरुष-‘अपने तो चेले चपाटे चमका रहे हैं। रोज कोई न कोई विवाद खड़ा करता रहता हूं। तू अपनी कह, करना क्या है? हां, एक बात याद रखना मैं अब केवल विवाद ही खड़ा करता रहूंगा क्योंकि सीधा सपाट लिखना पढ़ना अब हिन्दी वाले जानते ही नहीं।’
भद्र महिला-‘‘कल एक कार्यक्रम रखा है जिसमें हम दोनों हिन्दी भाषा के साहित्य पर बहस करेंगे। तुम्हारे एक चेले ने ही इसे रखवाया है और कह रहा था कि गुरुजी को आप मना लो। जब बहस होगी तो तय बात विवाद तो होगा। आजकल के प्रचार जगत को विवादों की बहुत जरूरत है।’’
भद्र पुरुष ने हामी भर दी। दोनों समय पर वहां पहुंचे। पहले भद्र पुरुष को बोलना था। उसने भद्र महिला की तरफ देखा और बोला-‘अरे, आजकल कुछ महिला लेखिकाऐं तो यह साबित करने में जुटी हैं कि
उनके लिखे में कौन ज्यादा छिनालपन दिखा सकता है।’
उसने कनखियों से भद्र महिला बुद्धिजीवी को देखा। जैसे उसने सुना ही नहीं। भद्र पुरुष इधर उधर देखने लगा। पास में आयोजक चेला आया तो भद्र बुद्धिजीवी पुरुष ने उसके कान में कहा-‘‘यह सुन नहीं रही शायद! नहीं तो अभी तक तो हमला कर चुकी होंती।’’
चेला तत्काल महिला बुद्धिजीवी के पास गया और बोला-‘आपने सुनने वाली मशीन नहीं लगायी क्या?’
महिला ने वह भी नहीं सुना पर जब कानों में हाथ डाला तो झेंप गयी और तत्काल मशीन लगा ली। तब भद्र पुरुष की जान में जान आयी।
उसने फिर अपने शब्द दोहराये।
भद्र महिला तत्काल उठकर आयी और उसके हाथ से माईक खींचककर बोली-‘‘यह आदमी सरासर मूर्ख है। इसके लिखे में तो ऐसा छिछोरापन दिखता है कि पढ़ते हुए भी हमें शर्म आती है। फिर आज यह समूची महिला लेखिकाओं पर आक्षेप करता है। इसके अंदर सदियों पुरानी पुरुष अहं की भावना है। जिस तरह पुरुष स्त्री को हमेशा ही लांछित करता है। उसी तरह यह भी……’’
एक श्रोता उठकर बोला-‘‘उन्होंने केवल कुछ महिला लेखिकाऐं कहा है तो आप भी कुछ पुरुष कहें। आप दोनों कोई पुरुष या महिला के इकलौते प्रतिनिधि नहीं हैं। हिन्दी भाषा में अच्छे लेखक और लेखिकायें भी हैं पर आप दोनों कैसे हैं यह पता नहीं।’
इस पर भद्र बुद्धिजीवी चिल्ला पड़ा-‘‘ओए, तू कहां से बीच में कूद पड़ा। हम दोनों प्रसिद्ध बुद्धिजीवी हैं इसलिये समूचे मानव जाति के प्रतिनिधि हैं। बैठ जा…….हमें बोलने दे।’’
भद्र महिला-‘बोली और क्या? इस बहस में केवल विद्वान ही हिस्सा ले सकते हैं।’
वह श्रोता बोला-‘पर आप लोग यह किस तरह के असाहित्यक शब्द उपयोग में ला रहे हैं।’
तब आयोजक चेला बोला-‘तुम कोई साहित्यकार हो?’
श्रोता बोला-‘नहीं!
आयोजक चेला-‘तुम्हें कोई पुरस्कार मिला है?’
श्रोता ने ना में सिर हिलाया तो वह चिल्लाया-‘बैठ जा! इतने महान विद्वानों की बहस के बीच में मत बोल।’
श्रोता बोला-‘पर मैं तो इनका नाम भी पहली बार सुन रहा हूं। वैसे मैं सब्जी खरीदने घर से बाज़ार जा रहा था। बरसात की वजह से यहां सभागार के बाहर पोर्च में खड़ा था। अंदर नज़र पड़ी तो देखा कि यहां कोई साहित्यक कार्यक्रम हो रहा है सो चला आया। मुझे नहीं पता था कि यहां कोई भाषाई अखाड़ा है जहां साहित्यक पहलवान आ रहे हैं।’
भद्र महिला चीख पड़ी-‘मारो इसे! यह तो इससे ज्यादा छिछोरेपन की बात कर रहा है।’
इससे पहले कि कोई उससे कहता वह भाग निकला।
उसके साथ ही एक दूसरा श्रोता भी निकल आया और थोड़ी दूर चलने पर उसे रोका बोला-‘यार, अच्छा हुआ मैं बच गया। वरना यह सब बातें मैं ही कहने वाला था पर मेरे पास बैठे एक आदमी ने यह कहकर रोका यहां तो पहले से ही तयशुदा कुश्ती होने वाली है।’
पहले श्रोता ने कहा-‘तुम वहां क्यों गये थे?’
दूसरा श्रोता बोला-‘जैसे तुम बरसात से बचने के लिये गये थे। सुना है आजकल इंटरनेट की वजह से इन पुराने हिन्दी दुकानदारों की स्थिति ठीक नहीं है इसलिये ऐसे स्वांग रचे जा रहे हैं ताकि प्रचार जगत में अहमियत बनी रहे। ऐसा वहीं बैठे एक आदमी ने बताया। अब देखना इस पर चहूं ओर चर्चा होगी। निंदा परनिंदा होगी! कुछ जगह बहसें होंगी। दोनों का डूबता हुआ नाम चमकेगा।’
पहले श्रोता को यकीन नहीं हुआ पर अगले दिन उसने टीवी और समाचार पत्रों में यह सब सुना और पढ़ा। तब मन ही मन बुदबुदाया-छिछोरापन, छिनालपन और तयशुदा जंग।
सारे विवाद में प्रचार जगत में दो दिन तक दोनों भद्र पुरुष और महिला सक्रिय रहे। तीन दिन बाद भद्र महिला ने भद्र पुरुष को फोन किया-‘धन्यवाद, आपने तो कल कमाल कर दिया। एक ही शब्द से ही धोती फाड़कर रुमाल कर दिया। बुढ़ापे में भी रौनक कम नहीं हुई।’
भद्र पुरुष ने कहा-‘इसलिये ही तो ज्यादा लिखना कम कर दिया है। क्या जरूरत है, जब एक शब्द से ही विवाद खड़ा कर नाम कमाया जा सकता है!’
————
नोट-यह हास्य व्यंग्य किसी घटना या व्यक्ति पर आधारित नहीं है। अगर इसमें लिखा किसी की कारितस्तानी से मेल खा जाये तो लेखक जिम्मेदार नहीं है। इसे केवल पाठकों के मनोरंजन के लिये लिखा गया है।

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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हादसे और हमदर्दी की रस्म-हिन्दी व्यंग्य कविता (hadse aur handardi ki rasma)


दौलत और शौहरत के सिंहासन पर
बैठे लोगों से हमदर्दी की
उम्मीद करना बेकार है
क्योंकि वह डरे सहमे हैं
अपनी औकात से ज्यादा
मिली कामयाबी के खो जाने के खौफ से ,
और दुनियां का यह कायदा
भूलना मुश्किल है कि
डरपोक लोग ही खूंखार हो जाते हैं।
इसलिये हर हादसे पर
उनकी हमदर्दी जताने को
रस्म समझ खामोश हो जाते हैं।
————-

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लौकी का जूस और मूली-हास्य व्यंग्य


यही है बाज़ार और उससे प्रायोजित प्रचार माध्यमों को खेल कि लौकी भी अब विषैले पदार्थों में शामिल हो सकती है।
हमें याद है जब सात वर्ष पूर्व जब उच्च रक्तचाप की शिकायत होने पर आधुनिक चिकित्सकों के शरण लेनी पड़ी थी।
एक मित्र होम्योपैथी चिकित्सक ने रक्तचाप की नाप ली और कहा कि ‘तुम्हें उच्च रक्तचाप है।’
हमने कहा-‘ज्यादा झाड़ो नहीं! हम अपनी बीमारी स्वयं ही बता देते हैं। हमें शराब की बहुत खराब आदत है। फिर कल मंगलवार होने के कारण व्रत था इसलिये शाम को शादी में खाना देर से खाया। उससे पहले शराब का पैग लिया पर एक घूंट के बाद ही हमारी हालत बिगड़ गयी। बाद में खाना गया तो चैन आया पर रात को नींद आराम से आयी और अब चाय के बाद हालत बिगड़ी है। ऐसा लगता है कि गैस की समस्या है।’
चिकित्सक ने कहा‘-तुम अपनी बीमारी जानते हो तो मेरे पास क्यों आये।’
हमने कहा-‘कोई वायु विकार दूर करने वाली गोली बता दो।’
चिकित्सक ने कहा-‘ मित्र हो इसलिये अभी उच्च रक्तचाप की गोली देता हूं। वह भी आधी लेना और हां शराब और तंबाकू से पीछा छुड़ाओ। साथ ही यह चेकअप की कराओ।’
हमने गोली ली और घर आये। बीमारी की वजह स्वयं को पता थी। शराब से पीछा छुड़ाया। तंबाकू भी एकदम छोड़ दी-हालांकि वह अब भी है और योग साधना के कारण उसके दुष्परिणाम से बचे रहते हैं। उस समय इससे परहेज करने से शरीर के व्यसनों की वजह से सक्रिय अंग ढीले पड़ गये।
उसके बाद शुरु हुआ लोगों से चर्चा का सिलसिला। मधुमेह की समस्या थी पर अधिक नहीं। अब स्थिति यह थी कि हमें लगने लगा कि जीवन ऐसे ही संकट के साथ चलेगा। लोगों की सलाहें ली। एक ने कहा खाने के साथ सलाद लिया करो। हमने मूली खाना प्रारंभ किया। नियमित रूप से लेते और शाम को स्थिति बिगड़ती। मूली हम खाते थे खाना पचाने के लिये पर वह संकट की वजह बन रही है इसका पता चला तब जब किसी ने बताया कि मूली हर किसी को नहीं पचती। हमने दो दिन मूली छोड़ी तो समस्या से निजात मिली।
लोगों ने करेले और लौकी का जूस पीने की सलाह दी। हमने उसे अनसुना किया और अपना इलाज स्वयं ही शुरु किया। हमें पता था कि घरेलू समस्याओं की वजह से चार महीने तक साइकिल चलाना छोड़ने से शरीर में संकट पैदा हुआ है। साइकिल चलाना शुरु की। शराब एकदम कम कर दी पर तंबाकू छूटने नहीं छूटी।
सबकुछ सामान्य था पर मन में यह बात आ गयी कि हम उच्च रक्तचाप के शिकार है। उसी समय अखबार में पढ़ा कि देश के साठ प्रतिशत लोगों को पता ही नहीं कि वह मनोरोग का शिकार है और हमें लगने लगा कि हम उनमें से एक ही हैं। जिस चिकित्सक ने उच्च रक्तचाप के बाद तमाम तरह के चेकअप लिख कर दिये थे उसी ने ही एक अपने से बड़े होम्यापैथिक चिकित्सक के पास भेजा। उसने ही तमाम तरह के चेकअप किये और पर्चे पर लिखा हाईपर ऐसिडिटी। बात हमारी समझ में आ गयी क्योंकि वह हमारे पूर्वानुमान से मेल खाती थी। सब कुछ सामान्य होने के बावजूद मानसिक स्थिति खराब हो चली थी। इसी बीच एक योग शिविर कालोनी में लगा।
हम उन दिनों सुबह घूमने जाते थे। एक सज्जन ने हमसे कहा-‘अरे आप उस योग शिविर में आईये। इस तरह सैर करने से कोई अधिक लाभ नहीं होता।’
हमने शिविर में जाना किया। शिविर में जो शिक्षक आते थे। वह भले आदमी थे। पांचवें दिन योग साधना कर हम घर लौटे तो हालत बिगड़ गयी। तब हमने अपने ही फ्रिज में रखी बर्फी खाकर अपने पर नियंत्रण किया क्योंकि हमें पता था कि वायुविकार के हमले का प्रतिकार करने का यही एक उपाय है।
अगले दिन हमने योग शिक्षक को बताया तो उन्होंने अच्छी बात कहीं। वह बोले-‘एक बात बताईये कि अगर हमारे घर में अनेक किरायेदार हों और हम सबसे मकान खाली करने को कहें तो क्या वह प्रसन्न होंगे? कोई चुपचाप बद्दुआऐं देता जायेगा। कोई लड़ेगा, कोई केस भी कर सकता है। यह आपके अंदर वायु विकार है जो कर आपसे लड़ रहा था क्योंकि योग साधना उसको निकालने आयी थी।’
हमें उसके जवाब ने हतप्रभ कर दिया। सात वर्ष हो गये योग साधना करते हुए।  सच तो यह है कि ज़िन्दगी कि दूसरी पारी है जो योगढ़ना खेल रही है, न कि हम स्वयं!अब किसी चीज पर भरोसा नहीं। न लौकी न करेला। पपीता खाना पड़ता है क्योंकि तंबाकू की वजह से कब्जी का मुकाबला करने के वही काम आता है। तंबाकू न खायें तो खाना तरस जाये कि यह हमें खाता क्यों नहीं और पानी देखता रहे कि यह पीता क्यों नहीं!
जब तनाव के क्षण आते हैं तो हम तंबाकू का त्याग कर देते हैं क्योंकि हमें पता है कि वह मानसिक संतुलन बिगाड़ता है। साइकिल चलाकर दूर तक चले जाते हैं। घर लौटते हैं तो लगता ही नहीं कि साइकिल चलाकर आये हैं। तब सोचते हैं कि काश! यह योग साधना बचपन में किसी ने सिखाई होती।
इसी योग साधना को लेकर भी तमाम तरह के दुष्प्रचार होते रहते हैं जिसके बारे में हमारा दावा है कि खुश रहने के लिये इससे बेहतर कोई उपाय नहीं है। योग साधना से अमरत्व नहीं मिलता पर इंसानों की तरह जिंदा रहने की ताकत मिलती है। जहां तक पेट पालने का सवाल है तो पशु भी पल जाते हैं और इंसान ही केवल इस भ्रम में रहता है कि वह स्वयं को पाल रहा है।
टीवी चैनलों पर लौकी का जूस पीकर मरने वाले एक दंपत्ति की मौत होने के साथ ही एक अधेड़ के बीमार पड़ने की खबर जोरशोर से चल रही थी। इधर इंटरनेट पर पता चला कि जिन दंपत्ति की मौत हुई वह डिब्बा बंद था यानि किसी कंपनी के द्वारा पैक किया गया पर उसका नाम नहीं पता लगा। चैनल शायद इस बात को छिपा रहे हैं ताकि लोग स्वयं लोकी का रस बनाने से बचें और कंपनियों का खरीदें।
अनेक बार नकली दूध की खबरें आती हैं तब लगता है कि सारे देश में वही दूध बिक रहा है। तब मन खराब होता है। एक ब्लाग लेखक ने तो आरोप लगाया था कि कंपनियों के लिये दूध बेचने का मार्ग बनाने के लिये निजी असंगठित ंक्षेत्र को बदनाम करने के लिये ऐसा प्रचार किया जा रहा है। लौकी के बाद करेले पर निशाना लगेगा। योग साधना पर तो लगता ही रहता है। ऐसा क्यों?
कभी कभी सुबह योग साधना के पहले या बाद में पार्क जाना होता है। कभी कभी शाम को भी जाते हैं। वहां योग साधना, व्यायाम तथा सैर करने वालों की संख्या देखकर लगता है कि लोग अब अपने स्वास्थ्य को लेकर सजग हैं। हालांकि सुप्तावस्था में रहने वाले लोगों की संख्या कहंी अधिक है पर सजगता का बढ़ता दायरा दवा कंपनियों के लिये चिंता का विषय हो सकता है। अनेक जगह चिकित्सा शिविर लगते हैं जहां चिकित्सक अपने यहां चेकअप की सलाह लिखकर देते हैं।
प्रसंगवश कहते हैं कि देश में भुखमरी अधिक है पर आंकड़े बताते हैं कि खाकर मरने वालों की संख्या अधिक है भूख से मरने वालों की कम! सीधा मतलब है कि खाने पीने में सावधानी से बीमारी से बचा जा सकता है। कम से कम खाद्य पदार्थ अपने घर पर ही निर्माण किये जायें उतना ही अच्छा! प्रतिदिन योग साधना की जाये तो कहना ही क्या? बाज़ार और उसके प्रचार माध्यमों पर एकदम निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं। हमने मूली से तौबा की पर इसका मतलब यह नहीं कि वह सभी के लिये विषैली है। वैसे अगर कोई प्रायोजित लेख लिखने के लिये कहे तो हम उस पर बहुत कुछ नकारात्मक लिख सकते हैं।
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इश्क के चर्चे-हिन्दी व्यंग्य कविता


जो पत्नी को प्रियतमा न समझे
भटके हैं प्यार पाने के लिये इस दर से उस दर।
दिल में पल रहे जज़्बात
जमीन पर चलते नहीं देखे जाते,
इश्क है या हवस
इसकी पहचान नहीं कर पाते,
जो इंसानी जिस्म को सर्वशक्तिमान समझे
मोहब्बत नहीं टिकती कभी उनके घर।
————
इश्क के चर्चे जमाने में बहुत हुए,
जो एक हुए दो बदन
लोगों ने बीता कल मान लिया।
जो उतरा हवस का भूत
तो घर का बोझ
दिमाग पर बढ़ने लगा
जिंदगी में फिर कभी इश्क का नाम न लिया।
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मोहब्बत का पैगाम होते हैं धोखा-हिन्दी शायरी


दौलत के खिलाड़ी, दूसरों के जज़्बातों समझते नहीं,
जहां मौका मिलता है, गेंद समझकर खेलते हैं वहीं।
उनके मोहब्बत का पैगाम, होते हैं हमेशा एक धोखा,
फायदे के लिये नफरत उगलते उनको देर लगती नहीं।
कुछ पेट कम भर लेना, चीथड़े भी ओढ़ना अच्छा है,
अपने जज़्बातों का जनाज़ा निकलने कभी देना नहीं।।
थोड़ी हंसी की खातिर, जिदंगी का रोना भी मिलता है
दौलत के खिलाड़ी, दिल की दलाली भी करते हैं कहीं।
उनको अपने आसमानों का बोझ उठाये रहने दो
तुम्हारी हमदर्दी को भी, मजाक न समझ बैठें कहीं।

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खतरा है जिनसे जमाने को, पहरा उनके घर सजा है-हिन्दी हास्य व्यंग्य कवितायें


इंसान कितना भी काला हो चेहरा
पर उस पर मेअकप की चमक हो,
चरित्र पर कितनी भी कालिख हो
पर उसके साथ दौलत की महक हो,
वह शौहरत के पहाड़ पर चढ़ जायेगा।
बाजार में बिकता हो बुत की तरह जो इंसान
लाचार हो अपनी आजाद सोच से भले
पर वह सिकंदर कहलायेगा।
खतरा है जिनसे जमाने को
उनके घर सुरक्षा के पहरे लगे हैं,
लोगों के दिन का चैन
और रात की नींद हराम हो जाती जिनके नाम से
उनके घर के दरवाजे पर पहरेदार, चौबीस घंटे सजे हैं।
कसूरवारों को सजा देने की मांग कौन करेगा
लोग बेकसूर ही सजा होने से डरने लगे हैं।
———–
बाजार में जो महंगे भाव बिक जायेगा,
वही जमाने में नायक कहलायेगा।
जब तक खुल न जाये राज
कसूरवार कोई नहीं कहलाता,
छिपायेगा जो अपनी गल्तियां
वही सूरमा कहलायेगा।
———-

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ॐ (ओम) शब्द और गायत्री मंत्र जपने से लाभ होता है-हिन्दू धर्म संदेश (OM SHABD AUR GAYTRI MANTRA JAPNE SE LABH-HINDU DHARM SANDESH)


अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः।
वेदत्रयान्निरदुहभ्दूर्भूवः स्वारितीतिच।।
     हिन्दी में भावार्थ-
प्रजापित ब्रह्माजी ने वेदों से उनके सार तत्व के रूप में निकले अ, उ तथा म् से ओम शब्द की उत्पति की है। ये तीनों भूः, भुवः तथा स्वः लोकों के वाचक हैं। ‘अ‘ प्रथ्वी, ‘उ‘ भूवः लोक और ‘म् स्वर्ग लोग का भाव प्रदर्शित करता है।
एतदक्षरमेतां च जपन् व्याहृतिपूर्विकाम्।
सन्ध्ययोर्वेदविविद्वप्रो वेदपुण्येन युज्यते।।
     हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य ओंकार मंत्र के साथ गायत्री मंत्र का जाप करता है वह वेदों के अध्ययन का पुण्य प्राप्त करता है।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीगीता में गायत्री मंत्र के जाप को अत्यंत्र महत्वपूर्ण बताया गया है। उसी तरह शब्दों का स्वामी ओम को बताया गया है। ओम, तत् और सत् को परमात्मा के नाम का ही पर्याय माना गया है। श्रीगायत्री मंत्र के जाप करने से अनेक लाभ होते हैं। मनु महाराज के अनुसार ओम के साथ गायत्री मंत्र का जाप कर लेने से ही वेदाध्ययन का लाभ प्राप्त हो जाता है। हमारे यहां अनेक प्रकार के धार्मिक ग्रंथ रचे गये हैं। उनको लेकर अनेक विद्वान आपस में बहस करते हैं। अनेक कथावाचक अपनी सुविधा के अनुसार उनका वाचन करते हैं। अनेक संत कहते हैं कि कथा सुनने से लाभ होता है। इस विचारधारा के अलावा एक अन्य विचाराधारा भी जो परमात्मा के नाम स्मरण में ही मानव कल्याण का भाव देखती है। मगर नाम और स्वरूप के लेकर विविधता है जो कालांतर में विवाद का विषय बन जाती है। अगर श्रीमद्भागवत गीता के संदेश पर विचार करें तो फिर विवाद की गुंजायश नहीं रह जाती। श्रीगीता में चारों वेदों का सार तत्व है। उसमें ओम शब्द और गायत्री मंत्र को अत्यधिक महत्वपूर्ण बताया गया है।
     आजकल के संघर्षपूण जीवन में अधिकतर लोगों के पास समय की कमी है। इसलिये लोगों को व्यापक विषयों से सुसज्ज्ति ग्रंथ पढ़ने और समझने का समय नहीं मिलता पर मन की शांति के लिये अध्यात्मिक विषयों में कुछ समय व्यतीत करना आवश्यक है। ऐसे में ओम शब्द के साथ गायत्री मंत्र का जाप कर अपने मन के विकार दूर करने का प्रयास किया जा सकता है। ओम शब्द और श्रीगायत्री मंत्र के उच्चारण के समय अपना ध्यान केवल उन पर ही रखना चाहिये-उनके लाभ के लिये ऐसा करना आवश्यक है।

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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वफा की कीमत औकात के मुताबिक-हिन्दी शायरी


दिन में फरिश्तों को भेष ओढ़े लोग
रात को शैतान हो जाते हैं।
भलाई अब हो गयी है
सौदे की शय
बेचते हैं बाजार में दरियादिल
वही दीवारों के पीछे
रंगीन रौशनी में
इज्जत के लुटेरे बन जाते हैं।
———-
नहीं दौलत अपने पास तो
किसी पर यकीन नहीं करना,
बिखर जाओगे मुफ्त में वरना,
यहां वफा बिकती है
बेचने वाले की औकात से
जिसकी तय होती है कीमत
पर बेवफाई आज के इंसानों के लिये
चालाकी का नाम होती है।

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उजड़े रिश्ते-हिन्दी शायरी (rishtey-hindi comic poem)


अपनी दर्द भरी बातें
किसी को क्या सुनायें,
रोते लोगों क्या रुलायें,
सभी अपने गम छिपाने के लिये
दूसरों के घावों पर हंसने का
मौका ढूंढ रहे हैं।
अपने साथ हुए हादसों के किस्से
किसको सुनायें,
आखिर लोग उनको मुफ्त में क्यों भुनायें,
अपनी जिंदगी में थके हारे लोग
जज़्बातों के सौदागर बनकर
दूसरों के घरों के उजड़े रिश्तों की कहानी
बेचने के लिये घूम रहे हैं।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चाणक्य नीति-दुष्ट व्यक्ति कितना भी तीर्थ करे, पवित्र नहीं हो सकता


अंतर्गतमलो दृष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि।
न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिसके मन में मैल भरा है ऐसा दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी बार भी तीर्थ पर जाकर स्नान कर लें पर पवित्र नहीं हो पाता जैस मदिरा का पात्र आग में तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता।
न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः।
आमूलसिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरात्वमेति।।
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट व्यक्ति को कितना भी सिखाया या समझाया जाये पर वह अपना अभद्रता व्यवहार नहीं छोड़कर सज्जन नहीं बन सकता जैसे नीम का वृक्ष, दूध और घी से सींचा जाये तो भी उसमें मधुरता नहीं आती।
अंतर्गतमलो दृष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि।
न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिसके मन में मैल भरा है ऐसा दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी बार भी तीर्थ पर जाकर स्नान कर लें पर पवित्र नहीं हो पाता जैस मदिरा का पात्र आग में तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की प्रकृत्ति का निर्माण बचपन काल में ही हो जाता है। मनुष्य के माता पिता, दादा दादी तथा अन्य वरिष्ठ परिवारजन जिस तरह का आचार विचार तथा व्यवहार करते हैं उसी से ही उसमें संस्कार और विचार का निर्माण होता है। इसके अलावा बचपन के दौरान ही जैसा खानपान होता है वैसे ही स्थाई गुणों का भी निर्माण होता है जो जीवन पर्यंत अपना कार्य करते हैं। एक बार जैसी प्रकृत्ति मनुष्य की बन गयी तो फिर उसमें बदलाव बहुत कठिन होता है।
इसलिये जिनमें दुष्टता का भाव आ गया है उनके साथ संपर्क कम ही रखें तो अच्छा है। चाहे जितना प्रयास कर लें दुष्ट अपना रवैया नहीं बदलता और अगर उसने किसी व्यक्ति विशेष को अपने दुव्र्यवहार का शिकार बनने का विचार कर लिया है तो फिर उससे बाज नहीं आता। ऐसे में सज्जन व्यक्ति को चाहिये कि वह खामोशी से दुष्ट के व्यवहार को नजरअंदाज करे क्योंकि उनकी प्रकृत्ति ऐसी होती है कि बिना किसी को तकलीफ दिये उनको चैन नहीं पड़ता। ऐसे दुष्ट किसी की मजाक उड़ाकर तो किसी के साथ अभद्र व्यवहार कर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। सज्जन के लिये दो ही उपाय है कि वह चुपचाप अपने रास्ते चले या अगर उसे नियंत्रण करने के लिये शारीरिक या आर्थिक बल है तो उस पर प्रहार करे पर इसके बावजूद भी यह संभावना कम ही होती है कि वह नालायक आदमी सुधर जाये। ऐसे दुष्ट लोग चाहे जितनी बार तीर्थ स्थान पर जाकर स्नान करें पर उनका उद्धार नहीं होता। तीर्थ पर जाने से शरीर का मल निकल सकता है पर मन का तो कोई योगी ही निकाल पाता है।

अभिप्राय यह है कि सत्संग और तीर्थस्थानों पर जाकर मन का मैल नहीं निकलता बल्कि उसके लिये अंतमुर्खी होकर आत्म चिंतन करना चाहिये। इतना ही नहीं अपने को ही सुधारने का प्रयास करना चाहिये। दूसरे से यह अपेक्षा न करें कि वह आपके समझाने से समझ जायेगा। कुछ लोगों में कुसंस्कार ऐसे भरे होते हैं कि उन्हें उपदेश देने से अपना ही अपमान होता है। अतः उससे दूर होकर ही अपना काम करें।

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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

प्रायोजित कहानियां-हिन्दी व्यंग्य कविता (sporsard story-hindi satire poem)


वस्त्रों के रंगों से चरित्र की पहचान
कभी नहीं होती है,
पद का नाम कुछ भी हो
इंसानों से निभाये बिना
उसकी कदर नहीं होती है।
जोगिया पहनकर करते जिस्म का व्यापार
जोगी धन जुटाने का कर रहे चमत्कार,
जब तक पोल सामने न आये
जयकारा बोलने वालों के मुख से भी
हाहाकार की आवाज बुलंद होती है।
कहें दीपक बापू
बाजार और प्रचार के हाथों में है
सारा खेल,
कब सजाये स्वयंवर
कब निकाल दें तेल,
खड़े किये हैं
फिल्म, खेल, और धर्म में बुत
जो दिखते इंसान हैं,
फैलायें जो भ्रम वह कहलाते महान
सनसनी बिकवा दें वही शैतान हैं,
लगता है कभी कभी
पहले जिनका पहले नायक बनाने के लिये
करते हैं प्रायोजन,
छिपकर पेश करते हैं
सुंदर देह और भोजन
करवाते हैं शुभ काम,
चमकाते हैं उसका नाम,
फिर पोल खोलकर
अपने लिये उनको खलनायक सजाते हैं,
जिन तस्वीरों पर सजवाये थे फूल
उन पर ही पत्थर बरसाते हैं,
कुछ कल्पित, कुछ सत्य कहानियां
प्रायोजित लगती हैं
जिन पर जनता कभी हंसती कभी रोती है।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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क्रिकेट का बदला साइकिल में- व्यंग्य (cycle and cricket match-hindi vyangya)


भारत में आयोजित एक निजी क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता में पाकिस्तानियों को नहीं खरीदा गया। पाकिस्तान इसका बदला लेने की फिराक में था और उसने लिया भी, भारत की साइकिलिंग टीम को अपने यहां न बुलाकर। एक अखबार में कोने में छपी इस खबर ने दिल को हैरान कर दिया। न देशभक्ति के जज़्बात जागे न अपने साइकिल चलाने को लेकर अफसोस हुआ। भारत में इसकी कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी। अनेक्र लोगों को तो यह खबर ही समझ में नहीं आयी होगी कि साइकिल की भी प्रतियोगिता होती है और इसे ओलम्पिक में एक खेल का दर्जा प्राप्त है। मामला साइकिल से जुड़ा तो अनेक बुद्धिजीवियों को इस टिप्पणी करते हुए शर्म भी आयेगी यह सोचकर कि ‘साइकिल वालों का क्या पक्ष लेना?’
हमारी नज़र और दिमाग में यह खबर फंस गयी और अपने भाव व्यंग्य के रूप में ही अभिव्यक्त होने थे। सच तो यह है कि जिसे चिंतन और व्यंग्य में महारत हासिल करना है उसे साइकिल जरूर चलाना चाहिये। जहां तक हमारी जानकारी है हिन्दी में उन्हीं आधुनिक काल के लेखकों ने जोरदार लिखा जिन्होंने रिक्शा, पैदल या साइकिल की सवारी की। पाकिस्तान द्वारा साइकिलिंग टीम को रोकने पर ऐसी हंसी आयी जिसे हम खुद भी नहीं समझ पाये कि वह दुःख की थी या व्यंग्य से उपजी थी। ऐसे में तय किया इस पर शाम को लिखेंगे।
शाम को लिखने का विचार आया तो लगा कि पहले साइकिल चला कर आयें। इसलिये दस दिन बाद फिर साइकिल निकाली-ब्लाग लिखने के बाद साइकिल चलाना कम हो गयी है पर जारी फिर भी है। हमें पता था कि केवल कोई साइकिल चालक ही इस पर अच्छा सोच सकता है। जहां तक रही देशभक्ति की बात तो एक किस्सा हम लिख चुके हैं, उसका संक्षिप्त में वर्णन कर देते हैं।
एक बार स्कूटर पा जा रहे थे कि रेल की वजह से फाटक बंद हो गया। हम एक तरफ स्कूटर खड़ा कर उस पर ही विराजमान थे। उसी समय एक कार आकर रुकी। कार के पीछे एक गैस मैकनिक साइकिल पर आ रहा था। उसने बहुत कोशिश की पर वह कार को छू गयी।
वह गरीब मैकनिक चुपचाप हमारे आगे साइकिल खड़ी कर वहीं ठहर गया। उधर कार से एक सज्जन निकले-जो वस्त्रों से नेता लग रहे थे-और उस कार वाले को बुलाया। वह उनके पास गया और उन्होंने बड़े आराम से उसके गाल पर जोरदार थप्पड़ दिया। वह मासूम सहम गया। फिर वह उससे बोले-‘भाग साले यहां से!’
जब से स्कूटरों, कारों और मोटर साइकिलों का प्रचलन बढ़ा है साइकिल चालकों के लिये रास्ते पर चलना दुर्घटना से ज्यादा अपमान की आशंकाओं से ग्र्रसित रहता है। हमने भी अनेक बार झेला है। इसलिये जब साइकिल पर होते हैं तो हर तरह का अपमान सहने को तैयार रहते हैं। ऐसे में पाकिस्तान के द्वारा किया गया यह व्यवहार अपमाजनकर हमें अधिक दुःखदायी नहीं लगा। हमारे लिये उसके खिलाड़ियों को नहीं खिलाना साइकिल द्वारा कार को छूने जैसी घटना है और उसके व्यवहार थप्पड़ मारने जैसा तो नहीं चिकोटी काटने जैसा है। दरअसल दोस्ती और दुश्मनी अब दोनों देशों के खास वर्ग के लिये एक फैशन बन गया है। यह खास वर्ग अपने हिसाब से दोनों तरफ के आम इंसानों को कभी आपस में प्रेम रखना तो कभी दुश्मनी करने का संदेश देता है।
पाकिस्तान खिसिया गया है और खिसियाया गया आदमी कुछ भी कर सकता है। ऐसे में वह दूसरे को थप्पड़ मारते हुए अपना हाथ ही कटवा बैठता है। भारत के धनपतियों ने तो उससे गुलाम नहीं खरीदे थे पर उसने तो खिलाड़ियों को रोका है। याद रहे क्रिकेट को ओलम्पिक में खेल ही नहीं माना जाता। फिर इधर क्रिकेट और फिल्म तो संयुक्त व्यवसाय हो गये हैं। क्रिकेट खिलाड़ी रैम्प पर अभिनेत्रियों के साथ नाचते हैं तो फिल्म अभिनेत्रियां और अभिनेता उनकी टीमों के मालिक बन गये हैं। ऐसे ही एक अभिनेता मालिक ने पाकिस्तान से गुलाम न खरीदने पर अफसोस जताया! इस पर देश में एक सीमित वर्ग ने बेकार बावेला मचाया! दरअसल उसके प्रचार प्रबंधक चाहते यही थे इसलिये एक अभिनेत्री मालकिन से कहलवाया गया कि ‘चंद लोगों की धमकी के चलते ऐसा हुआ।’
जहां तक हमारी जानकारी पाकिस्तान के गुलामों को खरीदने को लेकर बयान से पहले कुछ कहा नहीं था। मगर अभिनेता मालिक ने जब बयान दिया तो उस पर हल्ला मचा। आखिर प्रचार प्रबंधकों ने ऐसा क्यों किया? अभिनेता की वह फिल्म पाकिस्तान के दर्शकों के बीच भी जानी थी। दूसरी बात यह कि उसमें उस जाति सूचक शब्द को शीर्षक में शामिल किया गया जो पाकिस्तानियों का सिर गर्व से ऊंचा कर देता है। सच तो यह है कि क्रिकेट के उस बयान को भारत में अनदेखा कर देना चाहिये था क्योंकि यह फिल्म के पाकिस्तानी प्रसारण को रोकने से बचाने के लिये दिया गया था। शायद भारत में कम ही लोग जानते हैं कि पाकिस्तान में अब भारतीय फिल्मों का प्रसारण सार्वजनिक रूप से किया जाने लगा है। कहीं पाकिस्तान के लोग चिढ़कर फिल्म का बहिष्कार न कर दें इसलिये उसे यहां रोकने का अभियान चलाया गया जिससे वहां के आम आदमी को यह अनुभव हो कि भारत के लोग इसे देखने पर चिढेंगे। इधर भारत में फिल्म रोकने के प्रयास को अभिव्यक्ति से जोड़ा गया।
होना तो यह चाहिये था कि पाकिस्तान उस अभिनेता की फिल्म को रोकता मगर विवाद इस तरह फंस गया कि उसके प्रसारण में वहां के प्रबंधकों ने अपना हित देखा। ऐसे में वह बदला कैसे ले! साइकिल वालों को रोक लो!
उसने सही पहचाना! दरअसल साइकिल वाले ऐसे सतही विवादों में नहीं पड़ते। यह कार, स्कूटर, और मोटर साइकिल वाले क्या लड़ेंगे! एक मील पैदल चलने में हंफनी आ जाती है। मामला दूसरा भी है। साइकिल वाले पेट्रोल के दुश्मन हैं यह अलग बात है कि भारत में अभी भी इस देश में कुछ लोग इस पर चल ही रहे हैं। पेट्रोल बेचने वाले देश पाकिस्तान के खैरख्वाह हैं। इस तरह उसने उनको भी बताया कि देखो कैसे भारत के साइकिल वालों को आने से रोका। कहीं यह प्रतियोगिता भारत के खिलाड़ी जीतते तो संभव है कि जिस तरह 1983 की विजय के बाद क्रिकेट का खेल यहां लेाकप्रिय हुआ था, अब कहीं साइकिल भी वहां लोकप्रिय न हो जाये।
एक टीवी पर विज्ञापन आता है। जिसमें स्वयं बच्चा साइकिल पंचर की दुकान खोलकर बाप को पेट्रोल बचाने का उपदेश देते हुए कहता है कि ‘इस तरह तो आपको साइकिल चलानी पड़ेगी, तब पंचर कौन जोड़ेगा।’
तब हंसी आती है क्योंकि पेट्रोल खत्म होने पर न बाप साइकिल चलाने वाला लगता है न लड़का ही कभी पंचर जोड़ने वाला बनते नज़र आता है। वैसे बड़े शहरों का पता नहीं पर छोटे शहरों में साइकिल पंचर जोड़ने वालों की कमी हमें नज़र नहीं आती। पेट्रोल कल खत्म हो जाता है, आज खत्म हो जाये, हमारी बला से! यह देश पानी से चल रहा है पेट्रोल से नहीं। यह भी विचित्र है कि जो पानी हमारे यहां बिखरा पड़ा है उसे बचाने का संदेश कोई नहीं देता बल्कि उस पेट्रोल को बचाने की बात है जिसका अपने देश में उत्पादन बहुत कम है।
हमें तो ऐसा लगता है कि जैसे जैसे साइकिल लोगों ने चलाना कम कर दिया वैसे ही उनकी विचार शक्ति भी क्षीण होती गयी है। कथित सभ्रांत वर्ग के युवाओं के लिये तो साइकिल अब एक अजूबा है। उनके पास समय पास करने के लिये पर्दे पर फिल्में देखना या क्रिकेट में आंखें झौंकने के अलावा अन्य कोई साधन नहीं है। जहां पहुंचना है फट से पहुंच जाते हैं। साइकिल पर जायें तो थोड़ा समय अधिक पास हो। हमारा तो यह अनुभव है कि घुटने घूमते हैं तो दिमाग भी घूमता है। उसमें नित नये विचार आते हैं। कल्पनाशक्ति तीव्र होती है। जब दिमाग विकार रहित होता है तो दूसरा उसका दोहन नहीं कर सकता। आजकल का बाजार जिन लोगों का दोहन कर रहा है उनके पास पैसा है और दिमाग के जड़ होने के कारण वह मनोरंजन का इंतजार करते रहते हैं। बाजार घर में उठाकर उठकार मनोरंजन फैंक रहा है। साइकिल पर चलते फिरते मनोरंजन करने वाले उसके दायरे से बाहर हैं। यही बाजार पूरे विश्व में फैल रहा है और पाकिस्तान ने भारत की साइकिलिंग टीम को रोककर साबित किया कि वह भी उसके दबाव में है। वह फिल्म अभिनेताओं और क्रिकेट खिलाड़ियों का आगमन तो रोक हीं नहीं सकता न!

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मुखौटे बाजार के-हिन्दी व्यंग्य शायरी कवितायें (mukhaute bazar ke-hindi hasya kavita)


आदर्श पुरुषों ने अपनी दरबार में
देशभक्ति का नारा बड़े तामझाम के साथ सजाया।
बाजार को बेचनी थी मोमबत्तियों
शहीदों के नाम पर,
इसलिये प्रचारकों से नारे को संगीत देने के लिये
शोक संगीत भी बजवाया।
भेजे आदर्श पुरुषों के नाम से
रुपयों से भरे लिफाफे
जिनकी समाज सेवा से आम इंसान हमेशा कांपे
दिल में न था भाव फिर भी
आदर्श पुरुषों के खौफ से
सभी ने देशभक्ति का गीत गाया।
———
उनकी देशभक्ति की दुहाई,
कभी नहीं सुहाई,
मुखौटे हैं वह बाजार के सौदागरों के
जो जज़्बात बेचने आते हैं,
उनकी जुबां कभी बोलती नहीं
पर पर्दे के पीछे
वही संवाद लिखकर लाते हैं,

खरीदे देशभक्तों ने बस उनकी बात हमेशा दोहराई।
इंसान की हर दाद मिलती है,

पर सच बोलने पर कोई इनाम नहीं होता।

कितना भी हो जाये कोई अमीर,

पीछा नहीं छोड़ता उसका जमीर,

कैसे दे सकते हैं इनाम, उस शख्स को

बोलता है हमेशा सच जो,

खड़ी है दौलत की इमारत उनकी झूठ पर

चाटुकारों को लेते हैं, अपनी बाहों में भर

क्योंकि सच बोलने वालो से उनका काम नहीं होता।
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बेईमानी से बढ़ता कद-हिन्दी व्यंग्य शायरी (baimani aur kad-hindi comic poem)


कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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कान में लगाये मोबाइल पर

ऊंची आवाज में बतियाते

पांव उठाता सीना तानकर

आंखों से बहती कुटिल मुस्कराहट

वह अभिमान से चला जा रहा है।

लोगों ने बताया

‘अपनी बेईमानी से कभी लाचार

वह भाग रहा था जमाने से

गिड़गिड़ाता तथा छोटे इंसानों के सामने भी

अब मिल गया है उसे लोगों के भला करने का काम

उसकी कमाई से उसका कद बढ़ता जा रहा है।

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नयी पीढ़ी को आगे लाने के वास्ते-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं


कभी शिकायत नहीं की अपने दर्द की

शायद इसलिये उन्होंने बेकद्री का रुख दिखाया,

इशारों को कभी समझा नहीं

काम निकलते ही अपनों  से अलग परायों में बिठाया,

जब अपने मसले रखे उनके सामने

बागी कहकर, हमलावरों में नाम लिखाया

————

नयी पीढ़ी को आगे लाने के वास्ते,

खोल रहे हैं सभी अपने रास्ते।

पुरानों को बरगलाना मुश्किल है

उनकी जेबें हैं खाली, बुझे दिल हैं

खून जल चुका है जिन बेदर्दो की तोहीन से

वही ताजे खून के लिये, ढूंढ रहे गुमाश्ते।

————-

वह देश और समाज का भविंष्य

सुधारने के लिये उठाते हैं कसम,

जबकि अपनी आने वाले सात पुश्तों का

खाना जुटाने के लिये लगाते दम।

उनके काम पर क्या उठायें उंगली

आखें खुली है

पर अक्ल के पर्दै मिराये बैठे हम।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हिन्दू धर्म संदेश-दोस्त और पत्नी एक ही होना चाहिए


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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एको देवः केशवो वा शिवो वा ह्येकं मित्रं भूपतिवां यतिवां।
एको वासः पत्तने वने वा ह्येकं भार्या सुन्दरी वा दरी वा।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य को अपना आराध्य देव एक ही रखना चाहिये भले ही वह केशव हो या शिव। मित्र भी एक ही हो तो अच्छा है भले ही वह राजा हो या साधु। घर भी एक ही होना चाहिये भले ही वह जंगल में हो या शहर में। स्त्री भी एक होना चाहिये भले ही वह वह सुंदरी हो या अंधेरी गुफा जैसी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में दुःख बहुत हैं पर सुख कम। भले लोग कम स्वार्थी अधिक हैं। इसलिये अपनी कामनाओं की सीमायें समझना चाहिये। हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो एक ही निरंकार का प्रवर्तन करता है पर हमारे ऋषियों, मुनियों तथा विद्वानों साकार रूपों की कल्पना इसलिये की है ताकि सामान्य मनुष्य सहजता से ध्यान कर सके। सामन्य मनुष्य के लिये यह संभव नहीं हो पाता कि वह एकदम निरंकार की उपासना करे। इसलिये भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिव तथा अन्य स्वरूपों की मूर्ति रूप में स्थापना की जाती है। मुख्य ध्येय तो ध्यान के द्वारा निरंकार से संपर्क करना होता है। ध्यान में पहले किसी एक स्वरूप को स्थापित कर निरंकार की तरफ जाना ही भक्ति की चरम सीमा है। अतः एक ही रूप को अपने मन में रखना चाहिये चाहे वह राम जी हो, कृष्ण जी हों या शिव जी।
उसी तरह मित्रों के संचय में भी लोभ नहीं करना चाहिये। दिखाने के लिये कई मित्र बन जाते हैं पर निभाने वाला कोई एक ही होता है। इसलिये अधिक मित्रता करने पर कोई भी भ्रम न पालें। अपने रहने के लिये घर भी एक होना चाहिये। वैसे अनेक लोग ऐसे हैं जो अधिक धन होने के कारण तीर्थो और पर्यटन स्थलों पर अपने मकान बनवाते हैं पर इससे वह अपने लिये मानसिक संकट ही मोल लेते हैं। आप जिस घर में रहते हैं उसे रोज देखकर चैन पा सकते हैं, पर अगर दूसरी जगह भी घर है तो वहां की चिंता हमेशा रहती है।
उसी तरह पत्नी भी एक होना चाहिये। हमारे अध्यात्मिक दर्शन की यही विशेषता है कि वह सांसरिक पदार्थों में अधिक मोह न पालने की बात कहता है। अधिक पत्नियां रखकर आदमी अपने लिये संकट मोल लेता है। कहीं तो लोग पत्नी के अलावा भी बाहर अपनी प्रेयसियां बनाते हैं पर ऐसे लोग कभी सुख नहीं पाते बल्कि अपनी चोरी पकड़े जाने का डर उन्हें हमेशा सताता है। अगर ऐसे लोग राजकीय कार्यों से जुड़े हैं तो विरोधी देश के लोग उनकी जानकारी एकत्रित कर उन्हें ब्लेकमेल भी कर सकते हैं। कहने का अभिप्राय यही है कि अपना इष्ट, घर, मित्र और भार्या एक ही होना चाहिये।

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मारते हैं अपने ही जज़्बात को लात-हिन्दी शायरी


प्यार मांगने की चीज होती तो

किसी से भी मांग लेते,

इज्जत छीनने की चीज होती तो

किसी से भी छीन लेते।

लोग नहीं सुनते अपने ही दिल की बात,

मारते हैं अपने ही जज़्बात को लात,

दिमाग को ही अपना मालिक समझते,

बड़े अक्लमंद दिखने को सभी हैं तैयार

पर लुटती होती कहीं अक्ल तो सभी लूट लेते।

———

कुछ पल का साथ मांगा था

वह सीना तानकर सामने खड़े हो गये।

गोया अपनी सांसे उधार दे रहे हों

हमें अपनी जिंदगी को ढोने के लिये

जो ऊपर वाले ने बख्शी है,

फरिश्ता होने के ख्याल में

वह फूलकर कुप्पा हो गये।

———-

ताली दोनों हाथ से बजती है,

दिल की बात दिल से ही  जमती है,

हाथ तो दो है

चाहे जब बजा लेंगे,

पर दिल तो एक है क्या करेंगे?


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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पुतले कहलाते शहंशाह-हिन्दी शायरी (putle kahlate shanshah-hindi shayri)


जिसके सिर पर ताज का बोझ नहीं है,

काम करने का जिम्मा रोज नहीं है,

कान नहीं खड़े होते हमेशा

किसी का हुक्म सुनने के लिये,

जिसके हाथ नहीं मोहताज

किसी का जुर्म बुनने के लिये,

जिसकी आंखें नहीं ताकती

मदद के लिये किसी दूसरे की राह,

खुशदिल आदमी बोले हर समय ‘वाह’।

वही है असली शहंशाह।

———–

झुकते हैं वही सिर

जिन पर होता है ताज,

तलवार का वार झेलती  वही गर्दन

जो अकड़ जाती हैं करते राज

सफेल मलमल के सिंहासन के पीछे

डर और अहंकार का रंग है काला स्याह।

दौलत कमाने वाले नटों के

हाथ में डोर है

पुतले राज करते हुए कहलाते शहंशाह।


कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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मौसम भी ब्रेकिंग न्यूज होता है-हिन्दी व्यंग्य (weather is breking news-hindi hasya kavita)


टीवी चैनलों वाले भी क्या करें? उनको हमेशा ही सनसनीखेज की जरूरत है, वह न मिलें तो उसका एक ही उपाय है कि होता है कि हर खबर को सनसनीखेज खबर बनाया जाये। जब हर दस मिनट में ‘ब्रेकिंग न्यूज’ देना है तो फिर चाहे जो खबर पहली बार मिले उसे ही चला दो।
कोहरा कोई खास खबर नहीं है। कम से कम सर्दी में तो नहीं है। अगर सर्दी में मावठ की वर्षा न हो पड़े तो फिर फसलों के लिये परेशानी तो है ही आने वाली गर्मियों में जमीन का जलस्तर बहुत जल्दी कम हो जाने की आशंका हो जाती है।
कोहरे में रेलगाड़ियों के लिये क्या आदमी के लिये भी घर से निकलना परेशानी का कारण हो जाता है।
इधर घर में रजाई में बैठकर सर्दी से ठिठुर रहे हैं और उधर टीवी सुना रहा है कि ‘नई दिल्ली में हवाई जहाज की उड़ाने रद्द’, ‘उड़ाने रद्द होने से यात्री परेशान’, ‘नई दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर अनेक गाड़ियां कोहरे के कारण लेट’ और वही पुराना राग ‘सही जानकारी न मिलने से यात्री परेशान’। लगातार ब्रेकिंग न्यूज चल रही है। यात्रा करने वालों के लिये अनेक कारण यात्रा के हो सकते हैं। अजी, इस मौसम में ही शादियां अधिक होती हैं तो गमियां भी! आदमी को जाना पड़ता है। फिर इधर नया साल आया। यह अपना परंपरागत भारतीय पर्व नहीं हैं। इस मौसम में कोई भी भारतीय पर्व नहीं पड़ता। शायद इसलिये अनेक विशेषज्ञ कहते हैं कि त्यौहारों का मौसम स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार उसी समय होता है जब मौसम ठीकठाक हो और इसी कारण वह परंपरा भी बन जाते हैं। मगर अपने यहां खिचड़ी संस्कृति है सो लोग इसकी परवाह नहीं करते।
जिस दिन नया साल आ रहा था। सर्दी के मारे हम तो सो गये। रात को फटाके जलने की आवाज से हमारी निद्रा टूटी। बहुत देर तक हम सोच रहे थे कि ‘शायद कोई बारात आयी होगी।’ जब लगातार फटाखे जलने की आवाज आयी- साथ में हमारी नियमित स्मृति भी-तब याद आया कि नया वर्ष आया है।
ऐसे फटाखे शायद पूरे भारत में जल होंगे और शायद इससे पर्यावरण प्रदूषित नहीं हुआ होगा शायद इसने इसलिये नहीं लिखा। दिवाली पर तो बहुत रोना रोते हैं लोग कि ‘बड़ा खराब त्यौहार है, जिस पर जलने वाले फटाखों से पर्यावरण प्रदूषित होता है।’
शायद यह अंग्रेजी त्यौहार है इस पर ऐसी बातें लिखना पुरातनपंथी व्यवहार का प्रमाण होगा। सर्दी ने नया साल वगैरह सब भुला दिया है पर इस मौके पर शादी और गमी के अलावा अन्य आवश्यक कार्य से यात्रा पर जाने वालों से अधिक संख्या उन लोगों की होगी जो नववर्ष मनाने के लिये कही सैरसपाटे करने जा रहे होंगे या लौटते होंगे। ऐसे में सर्दी में अपने कमरे के अंदर रजाई में बैठे एक सज्जन ने हमसे कहा-‘यार, लोग इतनी सर्दी में अपने घर से बाहर क्यों निकलते हैं?’
हमें अपने आप पर ही शर्मिंदगी महसूस होने लगी क्योंकि हम भी तो उनके यह अपने ही घर से निकल कर आये थे।’
हमने कहा-‘ब्रेकिंग न्यूज बनाने के लिये।’
वह सज्जन बोले-‘हां, यह बात कुछ जमी! तुम्हारा हमारे यहां आना ब्रेकिंग न्यूज से कम नहीं है। तुम्हारा काफी पीने का हक बनता है। इतने दिनों बाद तुम्हें हमारी याद आयी।’
हमने कहा-‘इससे बड़ी बात यह है कि हम सर्दी में घर से बाहर निकले। पता लगा कि तुम बीमार हो! दोस्त यारों ने हम पर दबाव डाला कि हम तुम्हें देखने आयें।’
वह सज्जन बोले-‘तब तो तुम्हें पांच दिन पहले आना था। अब तो हम ठीक हैं। इस तरह तो तुम्हारा यहां आना भी सार्थक न रहा।’
हमने काफी का कप उठाते हुए कहा-‘यार, तुमने काफी पिलाकर कुछ दर्द हल्का कर दिया। वैसे सर्दी में घर से निकलने का अफसोस तुम्हारी तबियत देखने के कारण नहीं था पर तुमने ऐसी बात कर दी कि लगने लगा कि हमने गलती की।’
वह सज्जन रजाई में बैठे ही उचकते हुए बोले-‘यानि, मेरी तबियत अच्छी देखकर तुम्हें खुशी नहीं हुई। अपने सर्दी में बाहर निकलने का दर्द तुमको अब इसी कारण हो रहा है।’
हमने कहा-‘नहीं यार, तुम्हारी बात से हमें ऐसा लगा कि सैर सपाटा करने निकले हैं।
यह एक सामान्य बातचीत थी। वाकई इस बार सर्दी अधिक पड़ रही है पर ऐसा हमेशा होता है। इसमें ब्रेकिंग न्यूज जैसा कुछ हो सकता है या इससे सनसनी फैल सकती है, ऐसा नहीं लगता। बरसात में बाढ़ आने की खबरें सुनते हुए बरसों हो गये। कहते हैं कि दर्द झेलते हुए एसा समय भी आता है जब आदमी संवेदनायें मर जाती हैं और कहीं वह दर्द चला जाये तो आदमी को अजीब सा लगता है। यह कोहरा तथा उससे विमानों की उड़ाने और रेल यातायात का बाधित होना अब कोई प्रतिक्रिया पैदा नहीं करता। मगर खबर देने वाले भी क्या करें? लोग घर से निकलते कम हैं तो उनके लिये खबरें भी कम हो जाती हैं। फिर इतना बड़ा देश है तो लोग मजबूरी में यात्रायें तो करेंगे और चाहे जो भी मौसम हो तो हवाई अड्डों और स्टेशनों पर भीड़ होगी ही। अगर वह दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता या अन्य बड़ा शहर हुआ तो फिर कहना ही क्या? तब तो खबरें लिखने वालों को बाहर निकलते ही खबर मिल जाती है। बाकी देश में कहां ढूंढते फिरें! ऐसे में सर्दी में अपने दिनों की याद को हम अकेले में ही याद कर उसे अपने ब्लाग/पत्रिका पर लिख सकते हैं।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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रास्ता जाम-हिन्दी व्यंग लेख (trafic trouble-hindi satire)


मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंसना कोई बड़ी बात नहीं है। इस देश के करोड़ों लोग रोज फंसते हैं। उनकी कोई खबर नहीं बन सकती। खबर के लिये सनसनी होना जरूरी है। यह सनसन असामान्य लोगों के उठने, बैठने, चलने, फिरने और छींकने पर बनती है। मैंढकी को जुकाम हो जाये तो क्या फर्क पड़ता है, अगर किसी फिल्मी मेम को हो जाये तभी सनसनीखेज खबर बनती है क्योंकि उसके किये गये विज्ञापनों पर सारे टीवी चैनल और रोडियो चल रहे हैं। उसके लगाये ठुमकों पर जमाने भर के लड़को दिल जलते हैं। उसको जुकाम होने की खबर हो तो उनके दिल भी बैठ जाते हैं और यही काम खबरों से किया जाता हैं। दरअसल जिन खबरों से दिल उठे बैठे उससे ही सनसनी फैलती है।
ऐसे में मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) होने की खबर भी तभी सनसनी फैलाती है जब उसमें कोई खास हस्ती हो और अगर अंतराष्ट्रीय हो तो फिर कहना ही क्या? फिर एक दो नहीं बल्कि अनेक हों तब तो वह मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) अंतर्राष्ट्रीय स्तर का होता है और सनसनी अधिक ही फैल जाती है। अलबत्ता कोपेनहेगन में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के काफिले की वजह से अन्य राष्ट्रों के प्रमुखों के काफिले मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंस गये। यह खबर सुन और पढ़कर भी इस देश के बहुत कम लोगों पर उसकी प्रतिक्रिया दिखाई दे रही है। किसी से कहो तो वही यह कहता है कि‘यार, ऐसा क्या है इस खबर में! हम तो यहां दिन में गंतव्य तक पहुंचने में चार चार बार मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंसते हैं।’
यह बताये जाने पर कि यह मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) अमेरिकी राष्ट्रपति की वजह से हुआ तो लोग कहते हैं कि‘ इससे क्या फर्क पड़ता है कि उनकी वजह से हुआ। अगर वह उनके खास आदमी होने की वजह से हुआ तो भी क्या? यहां तो आम आदमी की वजह से भी मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) हो जाता है!
हमें तो ऐसी आदत हो गयी है कि अगर किसी दिन अगर मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) का सामना नहीं किया तो लगता है कि जैसे यात्रा ही नहीं की हो। इतना ही नहीं अगर किसी कार्यक्रम या गंतव्य पर विलंब से पहुंचते हैं और उसकी सफाई मांगी जाती है तो भले ही मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) का सामना नहीं किया हो बहाना उसी का बना देते हैं।
कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये गैस उत्सर्जन कम करने के प्रयासों पर बैठक हो रही थी। पता नहीं उसका क्या हुआ? बहरहाल इस तरह के गैस उत्सर्जन में मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) होने का भी कम योगदान नहीं है। मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) हो गया तो गाड़ियां चालू हालत में ही गैस छोड़ती रहती हैं। कई गाड़ियों में पैट्रोल में धासलेट भरा होता है जिसके जलने पर निकलने वाली दुर्गंध बता देती है। उसका धुआं जब सांस में घुसता है तो तकलीफ कम नहीं होती। कई बार तो ऐसा लगता है कि इन जामों में जितना पैट्रोल खर्च होता है अगर उससे रोका जाये तो न केवल देश का पैसा और पर्यावरण दोनों बचेगा। कितना, यह हमें पता नहीं। अलबत्ता, ऐसे जामों में हम अपनी गाड़ी बंद कर देते हैं-गैस उत्सर्जन से बचने के लिये नहीं पैसा बचाने के लिये।
वैसे हम सोच रहे थे कि कोई मोबाईल के लिये कोई ऐसा धुन बन जाये जिसमें ‘ओबामा…ओबामा… मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंस गये रामा रामा’ जैसे शब्द हों तो मजा आ जाये। अगर इस पर कोई गीत फिल्म वाले बनाकर दिखायें तो शायद वह हिट भी जाये। ऐसे में उसे मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) होने पर लोगा गुनगुनाकर दिल हल्का कर लेंगे। उसे हम अपने मोबाइल पर लोड कर लेंगे और जब कहीं फंस जायें तो उसे सुनेंगे। धुन पाश्चात्य संगीत पर आधारित होना चाहिये या फिर शास्त्रीय संगीत पर। भारतीय फिल्म संगीत के आधार पर तो बिल्कुल नहीं क्योंकि वह अब हमें प्रभावित नहीं करती। ओबामा का नाम इसलिये लिया क्योंकि जिस तरह कोपेनहेगन की खबर पढ़ी उससे तो यही लगता है कि इस समय वह दुनियां के इकलौते आदमी हैं जिनको कहीं मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) फंसना नहीं पड़ेगा! आखिर अमेरिका के राष्ट्रपति जो हैं। यह अलग बात है कि उनकी वजह से मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) हुआ और उसमें फंसी गाड़ियों में ईंधन जलने से विषाक्त गैस वातावरण में फैली।
इधर भारत ने भी तय किया कि वह गैस उत्सर्जन कम करेगा। हमारा मानना है कि हमारे राष्ट्र के प्रबंधक इस मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) से बचना चाहते हैं तो वह सड़कों का सुधार करें। इससे मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) होने की समस्या से तो निजात मिलेगी और साथ मेें गाड़ियों की गति कम होने से ईंधन की खपत कम होगी जिससे गैस का विसर्जन कम ही होगा। हालांकि यह एक सुझाव ही है। हमें पता है कि इस पर अमल शायद ही हो क्योंकि विकास कभी बिना विनाश के नहीं होता। अगर आपको सड़कें बनानी हैं तो टूटी पाईप लाईन भी बनानी है। फिर टेलीफोन लाईन लगानी है तो सड़क खोदनी है। खोदने, बनाने और लगाने में कमीशन का जुगाड़ का होना भी जरूरी है। जिस पर सड़क बनाने या बनवाने का जिम्मा है उसे भी उसी सड़क से गुजरना है पर वह बिना कमीशन के मानेगा नहीं भले ही सड़क के खस्तहाल से जूझेगा। विकास में कमीशन का मामला फिट होता है। लोगों को अपने बैंक खाते भरते दिखना चाहिये सड़क कौन देखता है? अरे, धक्के खाते हुए आफिस या घर पहुंच ही जाते हैं कौन उस पर रहना है?
किसी से मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) की बात कहो तो यही कहेगा कि ‘यार, इसमें तो केवल ओबामा ही नहीं फंसेंगे? तुम क्या ओबामा हो जो इससे बचना चाहते हो?’
इधर भारत ने गैस उत्सर्जन में कटौती की घोषणा की है तो अनेक बड़े धनिकों ने उस पर आपत्तियां की हैं। उनको देश का विकास अवरुद्ध होता नजर आ रहा है पर मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) की समस्या देखते तो उनको लगता कि यह कठिन काम नहीं है पर बात वही है कि कौन उनको ऐसी सड़कों पर चलना है। हम तो मार्ग अवरुद्ध होने पर अपनी ही यह एक पंक्ति ‘ओबामा…ओबामा… मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंस गये रामा रामा’ दोहरायेंगे। पूरा गीत लिखना वैसे भी अपनी बौद्धिक क्षमता के बाहर की बात है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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इस ब्लाग ने पाठक संख्या एक लाख पार की-संपादकीय (vews of it blog-hindi editorial)


 आज यह ब्लाग एक लाख की संख्या पार गया।  देश में हिन्दी भाषी क्षेत्रों में इंटरनेट  कनेक्शनों की संख्या को देखते हुए किसी हिन्दी भाषी ब्लाग पर दो वर्ष में यह संख्या अधिक नहीं है, मगर दूसरा पक्ष यह है कि आम हिन्दी भाषी लोगों में इंटरनेट पर हिन्दी लिखे जाने का ज्ञान और उसके पढ़ने के संबंध में होने वाली तकनीकी जानकारी के अभाव के चलते यह संख्या ठीक ही कही जा सकती है।
आज भी ऐसे अनेक लोग हैं जिनको इस बात का पता नहीं है कि इंटरनेट पर हिन्दी भाषा में न केवल साहित्य बल्कि समसामयिक विषयों पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। फिर जिनको पढ़ने का शौक है उनको यह पता ही नहीं कि हिन्दी में लिखा सर्च इंजिन में कैसे ढूंढा जाये।  जिनको तकनीकी ज्ञान है उनमें फिर यह अहंकार है कि हिन्दी में तो सभी कचड़ा है असली तो अंग्रेजी में लिखा जा रहा है।  दूसरा यह है कि लोग इंटरनेट का उपयोग टीवी के विकल्प के रूप में कर रहे हैं, जिस दिन वह अखबार या किताब के  रूप में इसे पढ़ना चाहेंगे तब शायद हिन्दी का अंतर्जाल पर बोलबाला होगा।  वैसे बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि इस ब्लाग लेखक के विदेशों में अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद टूलों के माध्यम से पढ़ा जा रहा है। मतलब यह है कि अंतर्जाल पर आप किसी भाषा में न लिखकर वरन् अपने अंदर चल रही हलचल या भाव को अभिव्यक्त कर रहे हैं उसे अपनी भाषा में पढ़ने की पाठक को बहुत सुविधा है।  सच तो यह है कि जो लोग सोच रहे हैं कि हिन्दी में लिखने से कोई लाभ नहीं है वह संकीर्णता के भाव मन में लिये हुए हैं-यही ब्लाग एक रैकिंग बताने वाल वेबसाईट पर अंग्रेजी के ब्लागों पर बढ़त बनाये हुए है।  गूगल पेज रैंक में भी इसे चार का अंक प्राप्त है जो अंग्रेजी ब्लागों की तुलना में किसी तरह कम नहीं है। अधिकतर लोगों को यह लगता है कि  अंग्र्रेजी ब्लाग आगे हैं तो उनकी गलतफहमी है।  दूसरी बात यह है कि अंतर्जाल पर सामग्री की गुणवता तथा भावनात्मकता के साथ उसके व्यापक प्रभाव का बहुत महत्व है। अगर यह शर्तें कोई हिन्दी ब्लाग पूरी करता है तो उसे दुनियां भर में लोकप्रियता मिल सकती है।
आखिरी बात यह है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से सराबोर भारत के हिन्दी समाज में से ही भावनात्मक, आदर्श तथा अध्यात्मिक संदेश से भरी रचनायें आनी अपेक्षित हैं इसलिये हिन्दी को भविष्य में इंटरनेट पर एक आकर्षक रूप प्राप्त होगा इसकी पूरी संभावना है। इस अवसर पर पाठकों, ब्लाग लेखक मित्रों तथा तकनीकी रूप से इस ब्लाग को अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग कर रहे लोगों का आभार। भविष्य में भी ऐसे ही सहयोग की आशा है।

लेखक तथा संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर 
 
 

इतिहास के झगड़े-व्यंग्य चिंत्तन (war of history-hindi satire article


इस देश में कई ऐसे लोग मिल जायेंगे जो इतिहास विषय को बहुत कोसते हैं क्योंकि उनको प्रश्नपत्रों को हल करते समय अनेक घटनाओं की तारीखें और सन् याद नहीं रहते और गलत सलत उत्तर हो जाने पर परीक्षा में उनके अंक कम हो जाते हैं। वैसे इतिहास पढ़ते समय हमें भी मजा नहीं आता था पर नंबर पाने के लिये रटना तो पढ़ता ही था। सन आदि की गलतियां कभी नहीं हुई पर उनकी आशंका हमेशा बनी रहती थी। उत्तर लिखने के बाद जब घर पहुंचते तो पहले इसकी पुष्टि अवश्य करते थे कि कहीं सन गलत तो नहीं लिख दिया।
उस समय इस बात पर यकीन नहीं होता था कि हम जो इतिहास पढ़ रहे हैं वह झूठ भी हो सकता है। मगर जैसे जैसे अखबार वगैरह पढ़ने लगे तक लगने लगा कि किसी भी इतिहासकार ने एक लेखक के रूप में अगर कुछ अनुमान कर लिखा होगा तो कल्पना भी सच बनाकर प्रस्तुत हो सकती है। जैसे जैसे समय बीता फिर हमने ऐसे लोगों को अपने सामने इतिहास बनते देखा जिनके बारे में हमें यकीन नहीं था कि इनका नाम भी कभी इतिहास में एक श्रेष्ठ मनुष्य में रूप में लिखा जा सकता है। एक दो घटनायें ऐसी भी देखी जिससे लगा कि अगर हम अपने घर में कहीं किसी पत्थर पर राज्य का राजा होने का जानकारी खुदवाकर गाढ़ दें तो कई वर्षों बाद उसकी खुदाई होने पर वह इतिहास हो जायेगा जो कि सच नहीं बल्कि कल्पना होगी। फिर कई ऐसे लोगों की भी अच्छी चर्चायें सुनी जिनके बारे में हमें यकीन था कि वह इतने उत्कृष्ट नहीं थे जितना अपने देहावसान के बाद बताये जा रहे हैं। इससे भी आगे बढ़े तो यह भी पाया कि कुछ लोगों की कभी खूब आलोचना हुआ करती थी जो कि सही भी थी पर समय के अनुसार जनमत ऐसा बदला लगा कि लोग उनको याद करते हुए कहते हैं कि ‘अगर वह होते तो ऐसा नहीं होता।’
कहने का तात्पर्य यह है कि लोग एक व्यक्ति के बारे में अपनी राय भी बदल सकते हैं और इस तरह इतिहास बदल जाता है। पूरी बात कहें तो यह कि एक झूठ हजार बार बोला जाये तो वह सच बन जाता है। इसी कारण इतिहास की अनेक बातें यकीन पर आधारित हो सकती हैं।
इधर अंतर्जाल पर सक्रिय हुए तो उसने तो हमारे एतिहासिक ज्ञान की न केवल धज्जियां उड़ा दी है कि बल्कि अनेक तरह के शक शुबहे भी पैदा कर दिये हैं। पहला शक तो हमें अपने इतिहास लिखने वालों की विश्वसनीयता और समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को ही लेकरहोता है पर उससे ज्यादा उनको अपनी राय के अनुसार प्रस्तुत करनें वाले प्रचार माध्यमों पर होता है। परस्पर विरोधाभासी तर्क देख सुनकर एक बार तो ऐसा लगता है कि दोनों में से कोई एक झूठ या भ्रमवश बोल रहा है पर फिर अपना सोचते हैं तो लगता है कि दोनों ही एक जैसे हैं। इधर कुछ लोग यह लिख रहे हैं कि ताज महल शाहजहां से अपनी बेगम मुम्ताज की याद में नहीं बनवाया बल्कि वहां पहले एक ‘शिव मंदिर’ था जिसे ‘तेजोमहालय’ कहा जाता था। किन्हीं इतिहासकार श्री ओक की खोज पर आधारित इस विचार ने हमें इतना दिग्भ्रमित कर दिया कि हमे लगने लगा कि हो सकता है वह सही हो। उनके तर्क वजनदार दिखे पर जब अपना सोचना शुरु किया तो लगने लगा कि शायद न तो यह ताजमहल होगा न यह तेजोमहालय बल्कि ताजा मोहल्ला भी हो सकता है जो शायद उस समय के साहूकार लोगों ने शायद अपनी विलासिता के लिये बनवाया हो। उनका इरादा से सामूहिक मनोरंजनालय बनाने का रहा हो जहां अनेक लोग बैठकर शतरंज या च ौपड़ खेले सकें। शायद इसमें सर्वशक्तिमान की मूर्ति भी लगवा सकते थे। उसमें जिस तरह परिक्रमा के लिये जगह बनी है उससे यह विश्वास होता है कि वह वहां कोई कलाकृति वगैरह लगाने वाले होंगे कि किसी राज कर्मचारी या अधिकारी ने बादशाह को खबर कर दी होगी कि अमुक जगह अपने नाम से करवाना बेहतर होगा।
हमें सबसे पहले ताजमहल पर हमारे मामा ले गये थे। दरअसल हमारी वहां जाने की इच्छा नहीं थी। इस अनिच्छा के पीछे इतिहास के ही पढ़ी यह बात जिम्मेदार थी कि ‘ताज महल बनाने वाले मजदूरों के हाथ इसलिये काट दिये गये थे ताकि वह दूसरी जगह ऐसी इमारत न बना सकें।’
जब पहली बार ताजमहल पर गये तब उसे देखकर अच्छा जरूर लगा पर यही बात हमारे मन में ऐसी रही कि उसका आकर्षण हमें बुरा लगा। हम न तो प्रगतिशील हैं न ही परंपरावादी पर श्रम की अवमानना करने वालों को कभी हम श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में नहीं स्वीकारते। इसके बाद भी अनेक बार ताजमहल गये पर वहां हमारे हृदय में कोई स्पंदन नहीं होता। फिर भी उसकी बनावट का अवलोकन तो हमेशा ही किया। हमें लगता है कि ताजमहल कभी एक काल खंड या राजा के राज्य में नहीं बना होगा। इसके बहुत से कारण है। सबसे बड़ी चीज यह कि हमें परिक्रमापथ कभी समझ में नहीं आया। वहां बताने वाले सारी बातें शाहजहां से जोड़कर बताते हैं कि वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करते थे इसलिये चारों तरफ घूमने के लिये उन्होंने बनवाया।
इतिहास में यह बात नहीं पढ़ाई गयी कि मुम्ताज की प्राणविहीन देह एक वर्ष तक बुरहानपुर शहर की एक कब्र में रही। यह हमें कई वर्षों बाद पता लगा। ताजमहल को आधुनिक प्रेम का प्रतीक बताकर जिस तरह फिल्में बनकर सफल रहीं और गीतों को जैसे लोकप्रियता मिली उससे भी यही लगा कि वाकई ऐसा हुआ होगा। इतना ही नहीं ताजमहल छाप साबुन, साड़ियां, बीड़ी तथा अन्य सामान भी बाजार में खूब बिकता देखा। इस पर उस समय विचार नहीं किया मगर अब जैसे बाजार और उसके सहायक प्रचार माध्यम जिस तरह इतिहास के महानायकों को गढ़ रहे हैं तब अपना ही पढ़ा इतिहास संदिग्ध लगता है।
कुछ उदाहरण तो सामने दिखते ही हैं। एक क्रिकेटर जिसने कभी इस देश को विश्वकप नहीं जितवाया उसे सर्वकालीन महान खिलाड़ी का दर्जा देते हुए यहां के प्रचार माध्यम थकते ही नहीं हैं। फिल्मों में काल्पनिक पात्रों का अभिनय करने वाले अभिनेता को देवपुरुष बना देते हैं। अगर इसी तरह चलता रहा तो यकीनन वह किसी समय इतिहास में ऐसे लोग महापुरुष की तरह अपना नाम दर्ज करवायेंगे जिन्होंने जमीनी तौर से कोई बड़ा काम नहीं किया हो।
अपनी इस हल्की सोच के साथ जीना आसान नहीं है। फिर इतिहास को समझें कैसे? क्योंकि उसके बिना आप आगे की व्याख्या भी तो नहीं कर सकते। ऐसे में हमने अपना ही सूत्र ढूंढ लिया है कि ‘‘पीछे देख आगे बढ़, आगे का देखकर पीछे का गढ़।’’
हमारे अपने तर्क हैं जो हल्के भी हो सकते हैं। हमारे महानपुरुषों ने अच्छे काम
करने को इसलिये कहा होगा क्योंकि उन्होंने अपने समय में ऐसे बुरे काम देखे होंगे। कहने का आशय यह है कि इस धरती पर धर्म और अधर्म दोनों ही रहते हैं और कम ज्यादा का कोई पैमाना नहीं है। अगर कबीर और तुलसी को पढ़ें तो यह साफ समझ में आता है कि दुष्ट प्रकृत्ति के लोग उनके समय में भी कम नहीं थे। ऐसे में बाजार और प्रचार की प्रकृत्तियां भी इसी तरह की रही होंगी। सामान्य ज्ञान की किताब में विश्व के जो सात आश्चर्य बताये गये थे उनमें ताजमहल नहीं आता था मगर पिछले साले एक प्रचार अभियान में इसे जबरदस्ती सातवें नंबर का बनाया गया। इतना ही नहीं अभियान के साथ देशप्रेम जैसे भाव भी जोड़ने के प्रयास हुए। उस समय बाजार का खेल देखकर तो ऐसा लगा था कि जैसे कि ताजमहल कोई नयी इमारत बन रही है। लोगों ने जमकर उस समय टेलीफोन पर संदेश भेजे जिसमें उनका पैसा खर्च हुआ और बाजार ने कमाया। हमने आज के बाजार और प्रचार को देखा तो लगा कि पहले भी ऐसा हो सकता है।
कहते हैैं कि ताजमहल का प्रेम प्रतीक है पर हम इसे विकट भ्रम का प्रतीक मानने लगे हैं। भारतीय अध्यात्म के अनुसार मृत्यु के कार्यक्रमों का विस्तार नहीं होना चाहिये। जिस तरह यह बताया गया कि मुम्ताज को एक साल बाद कब्र से निकालकर यहां दोबारा दफनाया गया, उस पर यकीन करना कठिन लगता है। संभव है बादशाह को इसके लिये रोकने का साहस किसी में नहीं था या लोग भी चाहते थे कि इस राजा का नाम अपने राज्य की वजह से तो लोकप्रिय नहीं होगा इसलिये इसे ताजमहल जैसी इमारत के सहारे बढ़ाया जाये। बादशाह को गद्दी पर बनाये रखना उस समय के पूंजीपतियों, जमीदारों और सेठों की बाध्यता रही होगी। इतना ही नहीं आगरा को विश्व के मानचित्र पर लाने के लिये ताजमहल के साथ प्रेम को जोड़ना आवश्यक लगा होगा इसलिये ऐसा किया गया। वरना सभी जानते हैं कि पंचतत्वों से बनी यह देह धीरे धीरे स्वतः मिट्टी होती जाती है। एक वर्ष कब्र में पड़ी देह में क्या बचा होगा यह देखने की कोशिश शायद इसलिये नहीं की गयी। जहां तक हमारी जानकारी है दुनियां में किसी भी धर्म के मतावलंबी मौत के शोक के विस्तार के रूप में इस तरह के नाटक मे नहीं करते ।
शाहजहां को इस देश का कोई अच्छा शासक नहीं माना जाता। ऐसे में लगता है कि उस समय के बाजार और प्रचार विशेषज्ञों ने उसे प्रेम का उपासक बताकर लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया होगा। उस समय आज जैसे शक्तिशाली प्रचार माध्यम नहीं थे इसलिये आपसी बातचीत के जरिये या फिर ढोल वालों से ऐसा प्रचार कराया होगा। हम किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हैं और न ही कोई ऐसी कसम खाई है कि दोबारा वहां नहीं जायेंगे-नहीं हमारा किसी के निष्कर्ष से सहमति या असहमति जताने का इरादा है। हम तो अपनी सोच को इधर उधर घुमाते ऐसे ही हैं। अलबत्ता इस बार जब जायेंगे तो उसके ताजमहल, तेजोमहालय या ताजा मोहल्ला होने के नजरिये से विचार जरूर करेंगे। इसका कारण यह है कि आजकल हम अपने सामने वर्तमान को इतिहास बनता देख रहे हैं उसने हमारे मन में ढेर सारे संशय खड़े कर दिये हैं।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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हास्य पैदा करने वाला शोक-हिन्दी व्यंग्य (hasya aur shok-hindi vyangya


आप कितने भी ज्ञानी ध्यानी क्यों न हों, एक समय ऐसा आता है जब आपको कहना भी पड़ता है कि ‘भगवान ही जानता है’। जब किसी विषय पर तर्क रखना आपकी शक्ति से बाहर हो जाये या आपको लगे कि तर्क देना ही बेकार है तब यह कहकर ही जान छुड़ाना पड़ती है कि ‘भगवान ही जानता है।’

अब कल कुछ लोगों ने छ दिसंबर पर काला दिवस मनाया। दरअसल यह किसी शहर में कोई विवादित ढांचा गिरने की याद में था। अब यह ढांचा कितना पुराना था और सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में इसका नाम क्या था, ऐसे प्रश्न विवादों में फंसे है और उनका निष्कर्ष निकालना हमारे बूते का नहीं है।
दरअसल इस तरह के सामूहिक विवाद खड़े इसलिये किये जाते हैं जिससे समाज के बुद्धिमान लोगों को उन पर बहस कर व्यस्त रखा जा सकें। इससे बाजार समाज में चल रही हेराफेरी पर उनका ध्यान न जाये। कभी कभी तो लगता है कि इस पूरे विश्व में धरती पर कोई एक ऐसा समूह है जो बाजार का अनेक तरह से प्रबंध करता है जिसमें लोगों को दिमागी रूप से व्यस्त रखने के लिये हादसे और समागम दोनों ही कराता है। इतना ही नहीं वह बहसें चलाने के लिये बकायदा प्रचार माध्यमों में भी अपने लोग सक्रिय रखता है। जब वह ढांचा गिरा था तब प्रकाशन से जुड़े प्रचार माध्यमों का बोलाबाला था और दृष्यव्य और श्रवण माध्यमों की उपस्थिति नगण्य थी । अब तो टीवी चैनल और एफ. एम. रेडियो भी जबरदस्त रूप से सक्रिय है। उनमें इस तरह की बहसे चल रही थीं जैसे कि कोई बड़ी घटना हुई हो।
अब तो पांच दिसंबर को ही यह अनुमान लग जाता है कि कल किसको सुनेंगे और देखेंगे। अखबारों में क्या पढ़ने को मिलेगा। उंगलियों पर गिनने लायक कुछ विद्वान हैं जो इस अवसर नये मेकअप के साथ दिखते हैं। विवादित ढांचा गिराने की घटना इस तरह 17 वर्ष तक प्रचारित हो सकती है यह अपने आप में आश्चर्य की बात है। बाजार और प्रचार का रिश्ता सभी जानते हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि ऐसे प्रचार का कोई आर्थिक लाभ न हो। उत्पादकों को अपनी चीजें बेचने के लिये विज्ञापन देने हैं। केवल विज्ञापन के नाम पर न तो कोई अखबार छप सकता है और न ही टीवी चैनल चल सकता है सो कोई कार्यक्रम होना चाहये। वह भी सनसनीखेज और जज़्बातों से भरा हुआ। इसके लिये विषय चाहिये। इसलिये कोई अज्ञात समूह शायद ऐसे विषयों की रचना करने के लिये सक्रिय रहता होगा कि बाजार और प्रचार दोनों का काम चले।
बहरहाल काला दिवस अधिक शोर के साथ मना। कुछ लोगों ने इसे शौर्य दिवस के रूप में भी मनाया पर उनकी संख्या अधिक नहीं थी। वैसे भी शौर्य दिवस मनाने जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि वह तो किसी नवीन निर्माण या उपलब्धि पर मनता है और ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता काला दिवस वालों का स्यापा बहुत देखने लायक था। हम इसका सामाजिक पक्ष देखें तो जिन समूहों को इस विवाद में घसीटा जाता है उनके सामान्य सदस्यों को अपनी दाल रोटी और शादी विवाह की फिक्र से ही फुरसत नहीं है पर वह अंततः एक उपभोक्ता है और उसका मनोरंजन कर उसका ध्यान भटकाना जरूरी है इसलिये बकायदा इस पर बहसें हुईं।
राजनीतिक लोगों ने क्या किया यह अलग विषय है पर समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों पर हिन्दी के लेखकों और चिंतकों को इस अवसर पर सुनकर हैरानी होती है। खासतौर से उन लेखको और चिंतकों की बातें सुनकर दिमाग में अनेक प्रश्न खड़े होते हैं जो साम्प्रदायिक एकता की बात करते हैं। उनकी बात पर गुस्सा कम हंसी आती है और अगर आप थोड़ा भी अध्यात्मिक ज्ञान रखते हैं तो केवल हंसिये। गुस्सा कर अपना खूना जलाना ठीक नहीं है।
वैसे ऐसे विकासवादी लेखक और चिंतक भारतीय अध्यात्मिक की एक छोटी पर संपूर्ण ज्ञान से युक्त ‘श्रीमद्भागवत गीता’ पढ़ें तो शायद स्यापा कभी न करें। कहने को तो भारतीय अध्यात्मिक ग्रथों से नारियों को दोयम दर्जे के बताने तथा जातिवाद से संबंधित सूत्र उठाकर यह बताते हैं कि भारतीय धर्म ही साम्प्रदायिक और नारी विरोधी है। जब भी अवसर मिलता है वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान पर वह उंगली उठाते है। हम उनसे यह आग्रह नहीं कर रहे कि वह ऐसा न करें क्योंकि फिर हम कहां से उनकी बातों का जवाब देते हुए अपनी बात कह पायेंगे। अलबत्ता उन्हें यह बताना चाहते हैं कि वह कभी कभी आत्ममंथन भी कर लिया करें।
पहली बात तो यह कि यह जन्मतिथि तथा पुण्यतिथि उसी पश्चिम की देन है जिसका वह विरोध करते हैं। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि न आत्मा पैदा होता न मरता है। यहां तक कि कुछ धार्मिक विद्वान तो श्राद्ध तक की परंपरा का भी विरोध करते हैं। अतः भारतीय अध्यात्मिक को प्राचीन मानकर अवहेलना तो की ही नहीं जा सकती। फिर यह विकासवादी तो हर प्रकार की रूढ़िवादिता का विरोध करते हैं कभी पुण्यतिथि तो कभी काला दिवस क्यों मनाते हैं?

सांप्रदायिक एकता लाने का तो उनका ढोंग तो उनके बयानों से ही सामने आ जाता है। उस विवादित ढांचे को दो संप्रदाय अपनी अपनी भाषा में सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में अलग अलग नाम से जानते हैं पर विकासवादियों ने उसका नाम क्या रखा? तय बात है कि भारतीय अध्यात्म से जुड़ा नाम तो वह रख ही नहीं सकते थे क्योंकि उसके विरोध का ही तो उनका रास्ता है। अपने आपको निष्पक्ष कहने वाले लोग एक तरफ साफ झुके हुए हैं और इसको लेकर उनका तर्क भी हास्यप्रद है कि वह अल्प संख्या वाले लोगों का पक्ष ले रहे है क्योंकि बहुसंख्या वालों ने आक्रामक कार्य किया है। एक मजे की बात यह है कि अधिकतर ऐसा करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के ही हैं।
इस संसार में जितने भी धर्म हैं उनके लोग किसी की मौत का गम कुछ दिन ही मनाते हैं। जितने भी धर्मो के आचार्य हैं वह मौत के कार्यक्रमों का विस्तार करने के पक्षधर नहीं होते। कोई एक मर जाता है तो उसका शोक एक ही जगह मनाया जाता है भले ही उसके सगे कितने भी हों। आप कभी यह नहीं सुनेंगे कि किसी की उठावनी या तेरहवीं अलग अलग जगह पर रखी जाती हो। कम से कम इतना तो तय है कि सभी धर्मों के आम लोग इतने तो समझदार हैं कि मौत का विस्तार नहीं करते। मगर उनको संचालित करने वाले यह लेखक और चिंतक देश और शहरों में हुए हादसों का विस्तार कर अपने अज्ञान का ही परिचय ही देते हैं। । इससे यह साफ लगता है कि उनका उद्देश्य केवल आत्मप्रचार होता है।
आखिरी बात ऐसे ही बुद्धिजीवियों के लिये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से दूर होकर लिखने में शान समझते हैं। उनको यह जानकर कष्ट होगा कि श्रीगीता में अदृश्य परमात्मा और आत्मा को ही अमर बताया गया है पर शेष सभी भौतिक वस्तुऐं नष्ट होती हैं। उनके लिये शोक कैसा? यह प्रथ्वी भी कभी नष्ट होगी तो सूर्य भी नहीं बचेगा। आज जहां रेगिस्तान था वहां कभी हरियाली थी और जहां आज जल है वहां कभी पत्थर था। यह ताजमहल, कुतुबमीनार, लालाकिला और इंडिया गेट सदियों तक बने रहेंगे पर हमेशा नहीं। यह प्रथवी करोड़ों साल से जीवन जी रही है और कोई नहीं जानता कि कितने कुतुबमीनार और ताज महल बने और बिखर गये। अरे, तुमने मोहनजो दड़ो का नाम सुना है कि नहीं। पता नहीं कितनी सभ्यतायें समय लील गया और आगे भी यही करेगा। अरे लोग तो नश्वर देह का इतना शोक रहीं करते आप लोग तो पत्थर के ढांचे का शोक ढो रहे हो। यह धरती करोड़ों साल से जीवन की सांसें ले रही है और पता नहीं सर्वशक्तिमान के नाम पर पता नहीं कितने दरबादर बने और ढह गये पर उसका नाम कभी नहीं टूटा। बाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि भगवान श्रीरामचंद्र जी के पहले भी अनेक राम हुए और आगे भी होंगे। मतलब यह कि राम का नाम तो आदमी के हृदय में हमेशा से था और रहेगा। उनके समकालीनों में परशुराम का नाम भी राम था पर फरसे के उपयोग के कारण उनको परशुराम कहा गया। भारत का आध्यात्मिक ज्ञान किसी की धरोहर नहीं है। लोग उसकी समय समय पर अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। जो ठीक है समाज उनको आत्मसात कर लेता है। यही कारण है कि शोक के कुछ समय बाद आदमी अपने काम पर लग जाता है। यह हर साल काला दिवस या बरसी मनाना आम आदमी को भी सहज नहीं ल्रगता। मुश्किल यह है कि उसकी अभिव्यक्ति को शब्दों का रूप देने के लिये कोई बुद्धिजीवी नहीं मिलता। जहां तक सहजयोगियों का प्रश्न है उनके लिये तो यह व्यंग्य का ही विषय होता है क्योंकि जब चिंतन अधिक गंभीर हो जाये तो दिमाग के लिये ऐसा होना स्वाभाविक ही है
सबसे बड़ी खुशी तो अपने देश के आम लोगों को देखकर होती है जो अब इस तरह के प्रचार पर अधिक ध्यान नहीं देते भले ही टीवी चैनल, अखबार और रेडियो कितना भी इस पर बहस कर लें। यह सभी समझ गये हैं कि देश, समाज, तथा अन्य ऐसे मुद्दों से उनका ध्यान हटाया जा रहा है जिनका हल करना किसी के बूते का नहीं है। यही कारण है कि लोग इससे परे होकर आपस में सौहार्द बनाये रखते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि इसी में ही उनका हित है। वैसे तो यह कथित बुद्धिजीवी जिन अशिक्षितों पर तरस खाते हैं वह इनसे अधिक समझदार है जो देह को नश्वर जानकर उस पर कुछ दिन शोक मनाकर चुप हो जाते हैं। ऐसे में उनसे यही कहना पड़ता है कि ‘भई, नश्वर निर्जीव वस्तु के लिये इतना शोक क्यों? वह भी 17 साल तक!
हां, चाहें तो कुछ लोग उनकी हमदर्दी जताने की अक्षुण्ण क्षमता की प्रशंसा भी कर सकते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हिन्दू अध्यात्मिक संदेश-विद्वान विपत्तियों का पहले अनुमान कर लेते है (hindi dharm sandesh-vidavan aur vipatti)


अशिक्षितनयः सिंहो हन्तीम केवलं बलात्।
तच्च धीरो नरस्तेषां शतानि जतिमांजयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
सिंह किसी नीति की शिक्षा लिये बना सीधे अपने दैहिक बल से ही आक्रमण करता है जबकि शिक्षित एवं धीर पुरुष अपनी नीति से सैंकड़ों को मारता है।
पश्यदिभ्र्दूरतोऽप्रायान्सूपायप्रतिपत्तिभिः।
भवन्ति हि फलायव विद्वादभ्श्वन्तिताः क्रिया।।
हिन्दी में भावार्थ-
विद्वान तो दूर से विपत्तियों को आता देखकर पहले ही से उसकी प्रतिक्रिया का अनुमान कर लेता है और इसी कारण अपनी क्रिया से उसका सामना करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सिंह बुद्धि बल का आश्रय लिये बिना अपने बल पर एक शिकार करता है पर जो मनुष्य ज्ञानी और धीरज वाला है वह एक साथ सैंकड़ों शिकार करता है। महाराज कौटिल्य का यह संदेश आज के संदर्भ में देखें तो पता लगता है कि हमारे देश में लोगों की समझ इसलिये कम है क्योंकि वह अपने अध्यात्मिक साहित्य आधुनिक शिक्षा में पढ़ाया नहीं जाता। अंग्रेज हिंसा से इस देश में राज्य नहीं कर पा रहे थे तब उन्होंने अपने विद्वान मैकाले का यह जिम्मेदारी दी कि वह कोई मार्ग निकालें। उन्होंने ऐसी शिक्षा पद्धति निकाली कि अब तो अंग्रेज ब्रिटेन में हैं पर अंग्रेजियत आज भी राज्य कर रही है। अब तलवारों से लड़कर जीतने का समय गया। अब तो फिल्म, शिक्षा, धारावाहिक, समाचार पत्र, किताबें तथा रेडियो से प्रचार कर भी सैंकड़ों लोगों को गुलाम बनाया जा सकता है। इनमें फिल्म और टीवी तो एक बड़ा हथियार बन गया है। आप फिल्में और टीवी की विषय सामग्रंी देखकर उसका मनन करें तो पता लग जायेगा कि जाति, धर्म, और भाषा के गुप्त ऐजेडे वहीं से लागू किये जा रहे हैं। फिल्म और टीवी वाले तो कहते हैं कि समाज में जो चल रहा है वही दिखा रहे हैं पर सच तो यह है कि उन्होंने अपनी कहानियों में ईमानदार लोगों का परिवार समेत तो हश्र दिखाया वह कहीं नहीं हुआ पर उनकी वजह से समाज डरपोक होता चला गया और आज इसलिये अपराधियों में सार्वजनिक प्रतिरोध का भय नहीं रहा। वजह यह थी कि इन फिल्मों में अपराधियों का पैसा लगता रहा था। फिल्मों के अपराधी पात्र गोलियों से दूसरों को निशाना बनाते थे पर उनको नायक के हाथ से पिटते हुए दिखाया गया। स्पष्टतः संदेश था कि आप अगर नायक नहीं हो तो आतंक या बेईमानी से लड़ना भूल जाओ। इस तरह समाज को डरपोक बना दिया गया और अब तो पूरी तरह से अपराधियों को महिमा मंडन होने लगा है।
अगर आप कभी फिल्म या टीवी धारवाहिकों की पटकथा तथा अन्य सामग्री देखें और उस पर चिंतन करें तो हाल पता लग जायेगा कि उसके पीछे किस तरह के प्रायोजक हैं? यह एक चालाकी है जो धनवान और शिक्षित लोग करते हैं। अंग्रेज लोग हमारे धार्मिक ग्रंथों को खूब पढ़ते रहे होंगे इसलिये उन्होंने एसी शिक्षा पद्धति थोपी कि उनसे यह देश अपनी प्राचीन विरासत से दूर हो जाये। अब क्या हालत है कि जो अंग्रेज जो कहें वही ठीक है। वह अपनी परंपराओं तथा भाषा के कारण आज भी यहां राज्य कर रहे हैं। उनकी दी हुई शिक्षा पद्धति यहां गुलाम पैदा करती है जो अंग्रेजों की सेवा के लिये वहां जाकर उनकी सेवा के लिये तत्पर रहते हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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समाचार हिन्दी में-व्यंग्य कविता (news in hindi-satire poem)


समाचार भी अब फिल्म की तरह

टीवी पर चलते हैं।

हास्य पैदा करने वाले विज्ञापनों के बीच

दृश्यों में हिंसा के शिकार लोगों की याद में

करुणामय चिराग जलते हैं।

——–

समाचार भी खिचड़ी की तरह

परदे पर सजाये जाते हैं।

ध्यान रखते हैं कि 

हर रस वाला समाचार

लोगों को सुनाया जाये

किसी को हास्य तो किसी को वीर रस

अच्छा लगता है

कुछ लोग करुणारस पर

मंत्र मुग्ध हो जाते हैं।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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मानवाधिकार-व्यंग्य आलेख (manvadhikar-vyanyga chittan)


वर्तमान भौतिकवादी युग में यह मानना ही बेवकूफी है कि कोई बिना मतलब के जनसेवा करता है। अगर लाभ न हो तो आदमी अपने रिश्तेदार को पानी के लिये भी नहीं पूछता। वैसे यह मानवीय प्रवृत्ति पुराने समय से है कि बिना मतलब के कोई किसी का काम नहीं करता पर आजकल के समय में कुछ कथित समाज सेवक देखकर यह साफ लगता है कि वह अप्रत्यक्ष रूप से लाभ लिये बिना काम नहीं कर रहे हैं । यही स्थिति मानवाधिकार के लिये काम करने वाले लोगों और उनके संगठनों के बारे में देखी जा सकती है। हम तो सीधी बात कहें कि जब हम किसी को जनकल्याण, मानवाधिकार या किसी अन्य सार्वजनिक अभियान चलाते हुए देखते हैं तो उसके उद्ददेश्य से अधिक इस बात को जानने का प्रयास करते हैं कि वह उसके पीछे कौनसा अपना हित साध कहा है।
आतंकवाद के बारे में कुछ विशेषज्ञों का स्पष्टतः मानना है कि यह एक उद्योग है जिसके सहारे अनेक दो नंबरी व्यवसाय चलते हैं। आंकड़े इस बात का प्रमाण है कि जहां आतंकवाद दृष्टिगोचर होता है वहीं दो नंबर का व्यापार अधिक रहता है। आतंकवाद को उद्योग इसलिये कहा क्योंकि किसी नवीन वस्तु का निर्माण करने वाला स्थान ही उद्योग कहा जाता है और आतंकवाद में एक इंसान को हैवान बनाने का काम होता है। इसी आतंकवाद या हिंसा का सहायक व्यापार मानवाधिकार कार्यक्रम लगता है। नित अखबार और समाचार पत्र पढ़ते हुए कई प्रश्न कुछ लोगों के दिमाग में घुमड़ते हैं। इसका जवाब इधर उधर ढूंढते हैं पर कहीं नहीं मिलता। जवाब तो तब मिले जब वैसे सवाल कोई उठाये। कहने का तात्पर्य यह है सवाल करने वालों का भी टोटा है।
बहरहाल एक बड़ा उद्योग या व्यवसाय अनेक सहायक व्यवसायों का भी पोषक होता है। मान लीजिये कहीं कपड़े के नये बाजार का निर्माण होता है तो उसके सहारे वहां चाय और नाश्ते की दुकानें खुल जाती हैं। वजह यह है कि कपड़े का बाजार है पर वहां रहने वाले दुकानदार और आगंतुकों के लिये खाने पीने की व्यवस्था जरूरी है। इस तरह कपड़े का मुख्य स्थान होते हुए भी वहां अन्य सहायक व्यवसाय स्थापित हो जाते हैं। कहीं अगर बुनकरी का काम होता है तो उसके पास ही दर्जी और रंगरेज की दुकानें भी खुल जाती हैं। यही स्थिति शायद आतंकवाद के उद्योग के साथ है। जहां इसका प्रभाव बढ़ता है वहीं मानवाधिकार कार्यकर्ता अधिक सक्रिय हो जाते हैं। उनकी यह बात हमें बकवाद लगती है कि वह केवल स्व प्रेरणा की वजह से यह काम कर रहे हैं। यह ऐसे ही जैसे कपड़े की बाजार के पास कोई चाय की दुकान खोले और कहे कि ‘मैं तो यहां आने वाले व्यापारियों की सेवा करने आया हूं।’
ऐसे अनेक निष्पक्ष विशेषज्ञ हैं जो भले ही साफ न कहते हों पर विश्व भर में फैले आतंकवाद के पीछे काम कर रहे आर्थिक तत्वों का रहस्ययोद्घाटन करते हैं पर वह समाचार पत्रों में अंदर के कालम में छपते हैं और फिर उन पर कोई अधिक नहीं लिखता क्योंकि विश्व भर में बुद्धिजीवियों को तो जाति, भाषा, धर्म, और क्षेत्र के नाम पर फैल रहे आतंकवाद की सच्चाई पर ध्यान देने की बजाय उसके कथित विषयों पर अनवरत बहस करनी होती है। अगर वह इस सच को एक बार मान लेंगे कि इसके पीछे दो नंबर का धंधा चलाने वाले किसी न किसी रूप से अपना आर्थिक सहयोग इसलिये देते हैं ताकि प्रशासन का ध्यान बंटे और उनका काम चलते रहे, तो फिर उनके लिये बहस की गुंजायश ही कहां बचेगी? फिर मानवाधिकार कार्यकताओं का काम भी कहां बचेगा, जिसके सहारे अनेक लोग मुफ्त का खाते हैं बल्कि प्रचार माध्यमों को अपने कार्यक्रमों की जगह भरने के लिये अपने शब्द और चेहरा भी प्रस्तुत करते हैं।
शक की पूरी गुंजायश है और यह टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में छपी सामग्री पर थोड़ा भी चिंतन करें तो वह पुख्ता भी हो जाता है। यहां यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। ऐसा कोई भी गांव या शहर नहीं है जो इससे मुक्त हो। अलबत्ता घटना केवल उन्हीं जगहों की सामने आती हैं जिनको प्रचार माध्यम इन्हीं मानवाधिकार कार्यकताओं के सहारे प्राप्त करते हैं।
आप जरा ध्यान से अखबार पढ़ें कि भारत के मध्य क्षेत्र में ऐसे अनेक एनकांउटर होते हैं जिनमें किसी कुख्यात अपराधी को मार दिया जाता है। उस पर उसके परिवार वाले विरोध भी जताते हैं पर वहां कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता या संगठन सक्रिय नहीं होता क्योंकि इसके लिये उनको कोई प्रायोजक नहीं मिलता। प्रायोजक तो वहीं मिलेगा जहां से आय अच्छी होती हो। सीमावर्ती क्षेत्रों से तस्करी और घुसपैठ को लेकर अनेक संगठन कमाई करते हैं और इसलिये वहां आतंकवादियों की सक्रियता भी रहती है। इसलिये वहां सुरक्षाबलों से उनकी मुठभेड भी होती है जिसमें लोग मारे जाते हैं। मानवाधिकर कार्यकर्ता वहां एकदम सक्रिय रहते हैं। उनकी सक्रियता पर कोई आपत्ति नहीं है पर मध्य क्षेत्र में उनकी निष्क्रियता संदेह पैदा करती है। पूर्वी क्षेत्र को लेकर इस समय हलचल मची हुई है। हिंसक तत्व वहां की प्राकृत्तिक संपदा का दोहन करने का आरोप लगाते हुए सक्रिय हैं। वह अनेक बार अनेक सामान्य सशस्त्र कर्मियों को मार देते हैं पर इन हिंसक तत्वों में कोई मरता है तो मानवाधिकार कार्यकर्ता उसका नाम लेकर चिल्लाते हैं। सवाल यह है कि क्या यह मानवाधिकार कार्यकर्ता यह मानते हैं कि सामान्य सुरक्षा अधिकारी या कर्मचारी का तो काम ही मरना है। उसका तो कोई परिवार ही नहीं है। उसके लिये यह कभी आंसु नहीं बहाते।
कुछ निष्पक्ष विशेषज्ञ साफ कहते हैं कि अगर कहीं संसाधनों के वितरण को लेकर हिंसा हो रही है तो वह इसलिये नहीं कि आम आदमी तक उसका हिस्सा नहीं पहुंच रहा बल्कि यह कि उसका कुछ हिस्सा हिंसक तत्व स्वयं अपने लिये चाहते हैं। इसके अलावा यह हिंसक तत्व आर्थिक क्षेत्र की आपसी प्रतिस्पर्धा में एक दूसरे को निपटाने के काम भी आते हैं
इसके बाद भी एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कुछ लोगों ने तो बड़ी बेशर्मी से खास जाति, भाषा और धर्म के समूह पकड़ कर उनके मानवाधिकारों के हनन का प्रचार कर रखा है। इसमें भी उनका स्वार्थ दिखाई देता है। इनमें अगर जातीय या भाषाई समूह हैं तो उनका धरती क्षेत्र ऐसा है जो धन की दृष्टि से उपजाऊ और धार्मिक है तो उसके लिये कहीं किसी संस्था से उनको अप्रत्यक्ष रूप से पैसा मिलता है-उनकी गतिविधियां यही संदेह पैदा करती हैं। इधर फिर कुछ ऐसे देश अधिक धनवान हैं जो धर्म पर आधारित शासन चलाते हैं और उनके शासनध्यक्षों से कृपा पाने के लिये कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता उनके धर्म की पूरे विश्व में बजा रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यह मानवाधिकार कार्यक्रम चलाने वाले जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र की दृष्टि से बंटे समाज में ऐसे छिद्र ढूंढते हैं जिनको बंद करने का प्रयास सुधारक करते हैं।
अखबार में एक नहीं अनेक ऐसी खबरें छपती हैं जिनमें मानवाधिकार हनन का मामला साफ बनता है पर वहां कार्यकर्ता लापता होते हैं। कल एक ब्लाग में पढ़ने को मिला जिसमें बताया कि सरकार ने धारा 498-ए के तहत मामले छानबीन के बाद दर्ज करने का आदेश जारी किया है क्योंकि पाया गया कि इसमें फर्जी मामले दर्ज हुए और शिकायत में ढेर सारे नाम थे पर छानबीन के बाद जांच एजेंसियों ने पैसा खाकर कुछ लोगों को छोड़ा। इतना ही नहीं कई में तो शिकायत ही झूठी पायी गयी। इससे अनेक लोगों को परेशानी हुई। इस तरह के कानून से हमारे भारतीय समाज के कितने लोगों को परेशानी झेलनी पड़ी है इस पर कथित रूप से कोई मानवाधिकार संगठन कभी कुछ नहीं बोला। सरकार ने स्वयं ही यह काम किया। यह कैसे मान लें कि सरकार समाज का दर्द नहीं जानती। मानवाधिकार कार्यकर्ता तो केवल चिल्लाते हैं पर सरकार अपना काम करती है,यह इसका प्रमाण है
सच तो हम नहीं जानते। अखबार और टीवी के समाचारों के पीछे अपने चिंत्तन के घोड़े दौड़ाते है-हमारे गुरु जी का भी यही संदेश है- तब यही सवाल हमारे दिमाग में आते हैं। दूसरा हमारा फार्मूला यह है कि आज कल कोई भी आदमी बिना स्वार्थ के समाज सेवा नहीं करता। फिर उनके चेहरे भी बताते हैं कि वह कितने निस्वार्थी होंगे। हम ब्रह्मा तो हैं नहीं कि सब जानते हों। हो सकता है कि हमारी सोच में ही कमी हो। एक आम लेखक के रूप में यही अभिव्यक्ति दिखी, व्यक्त कर दी।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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समन्दर पीने से भी प्यास नहीं बुझेगी (samandar se bhee pyas nahin bujhegee)


सभी लोग हमेशा दूसरे के सुख देखकर मन में अपने लिये उसकी कमी का विचार करते हुए अपने को दुःख देते हैं। दूसरे का दुःख देकर अपने आपको यह संतोष देते हैं कि वह उसके मुकाबले अधिक सुखी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग बहिर्मुखी जीवन व्यतीत करते हैं और अपने बारे में उनके चिंतन के आधार बाह्य दृश्यों से प्रभावित होते हैं। यह प्रवृत्ति असहज भाव को जन्म देती है। इसके फलस्वरूप लोग अपनी बात ही सही ढंग से सही जगह प्रस्तुत नहीं करते। अनेक जगह इसी बात को लेकर विवाद पैदा होते हैं कि अमुक ने यह इस तरह कहा तो अमुक ने गलत समझा। आप अगर देखें तो कुदरत ने सभी को जुबान दी है पर सभी अच्छा नहीं बोलकर नहीं कमाते। सभी को स्वर दिया है पर सभी गायक नहीं हो जाते। भाषा ज्ञान सभी को है पर सभी लेखक नहीं हो जाते। जिनको अपने जीवन के विषयों का सही ज्ञान होता है तथा जो अपने गुण और दुर्गुण को समझते हैं वही आगे चलकर समाज के शिखर पर पहुंचते हैं। इस संदर्भ में दो कवितायें प्रस्तुत हैं।
सोचता है हर कोई
पर अल्फाजों की शक्ल और
अंदाज-ए-बयां अलग अलग होता है
बोलता है हर कोई
पर अपनी आवाज से हिला देता है
आदमी पूरे जमाने को
कोई बस रोता है।।
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पी लोगे सारा समंदर भी
तो तुम्हारी प्यास नहीं जायेगी।
ख्वाहिशों के पहाड़ चढ़ते जाओ
पर कहीं मंजिल नहीं आयेगी।
रुक कर देखो
जरा कुदरत का करिश्मा
इस दुनियां में
हर पल जिंदगी कुछ नया सिखायेगी।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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योगासन, प्राणायाम, ध्यान और धारणा-हिन्दी लेख (hindi lekh on yogasan)


                प्राचीन भारतीय योग साधना पद्धति की तरफ पूरे विश्व का रुझान बढ़ना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है। आज से दस वर्ष पूर्व तक अनेक लोग योगसाधना को अत्यंत गोपनीय या असाधारण बात समझते थे। ऐसी धारणा बनी हुई थी कि योग साधना सामान्य व्यक्ति के करने की चीज नहीं है। इसका कारण यह था कि शरीर के लिये विलासिता की वस्तुओं का उपभोग बहुत कम था और लोग शारीरिक श्रम के कारण बीमार कम पड़ते थे।
आज की नयी पीढ़ी के लोगों जहां भी वाहन का स्टैंड देखते हैं वहां पर पैट्रोल चालित वाहनों को अधिक संख्या में देखते हैं जबकि पुरानी पीढ़ी के लोगों के अनुभव इस बारे में अलग दिखाई देते हैं। पहले इन्हीं स्टैंडों पर साइकिलें खड़ी मिलती थीं। सरकारी कार्यालय, बैंक, सिनेमाघर तथा उद्यानों के बाहर साइकिलों की संख्या अधिक दिखती थी। फिर स्कूटरों की संख्या बढ़ी तो अब कारों के काफिले सभी जगह मिलते हैं। पहले जहां रिक्शाओं, बैलगाड़ियों तथा तांगों की वजह से जाम लगा देखकर मन में क्लेश होता था वहीं अब कारें यह काम करने लगी हैं-यह अलग बात है कि गरीब वाहन चालकों को लोग इसके लिये झिड़क देते थे पर अब किसी की हिम्मत नहीं है कार वाले से कुछ कह सके।

         योगसाधना की शिक्षा बड़े लोगों का शौक माना जाता था। यह सही भी लगता है क्योंकि परंपरागत वाहनों तथा साइकिल चलाने वालों का दिन भर व्यायाम चलता था। उनकी थकान उनको रात को चैन की नींद का उपहार प्रदान करती थी। उस समय ज्ञानी लोगों का इस तरफ ध्यान नहीं गया कि लोगों को योगासन से अलग प्राणायाम तथा ध्यान की तरफ प्रेरित किया जाये। संभवतः योगासाधना के आठों अंगों में से पृथक पृथक सिखाने का विचार किसी ने नहीं किया। अब जबकि विलासिता पूर्ण जीवन शैली है तब योगसाधना की आवश्यकता तीव्रता से अनुभव की जा रही है तो उसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। पहले जब लोग पैदल अधिक चलने के साथ ही परिश्रम करते थे इसलिये उनका स्वास्थ्य सदैव अच्छा रहता था । बाद में साइकिल युग के चलते भी लोगों के स्वास्थ्य में शुद्धता बनी रही। फिर योग साधना को केवल राजाओं, ऋषियों और धनिकों के लिये आवश्यक इसलिये भी माना गया क्योंकि वह शारीरिक श्रम कम करते थे जबकि बदलते समय के साथ इसे जनसाधारण में प्रचारित किया जाना चाहिये था। भले ही शारीरिक श्रम से लोगों का लाभ होता रहा है पर प्राणायाम से जो मानसिक लाभ की कल्पना किसी ने नहीं की। श्रमिक तथा गरीब वर्ग के लिये योगासन के साथ प्राणायाम और ध्यान का भी महत्व अलग अलग रूप से प्रचारित किया जाना जरूरी लगता है। यह बताना जरूरी है कि जो लोग शारीरिक श्रम के कारण रात की नींद आराम से लेते हैं उनको भी जीवन का आनंद उठाने के लिये प्राणायाम और ध्यान करना चाहिये।

             अब योग साधना के आठ भाग देखकर तो यही लगता है कि उसके आठ अंगों को -यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-एक पूरा कार्यक्रम मानकर देखा गया। सच तो यह है कि जो लोग परिश्रम करते हैं या सुबह सैर करके आते हैं उनको नियम, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि जैसे अन्य सात अंगों का भी अध्ययन करना चाहिये। योगासन या सुबह की सैर के बाद प्राणायम और ध्यान की आदत डालना श्रेयस्कर है। जो लोग गरीब, मजदूर तथा अन्य शारीरिक श्रम करते हैं उनके लिये भी प्राणायाम के साथ ध्यान बहुत लाभप्रद है। इस बात का प्रचार बहुत पहले ही होना चाहिये था इसलिये अब इस पर भी इस पर काम होना चाहिये। प्राणायाम से प्राणवायु तीव्र गति से अंदर जाकर शरीर और मन के विकारों को परे करती है। उसी तरह ध्यान भी योगासन और प्राणायाम के बाद प्राप्त शुद्धि को पूरी देह और मन में वितरित करने की एक प्रक्रिया है। जब कभी आप थक जायें और सोने की बजाय आंखें बंद कर केवल बैठें और अपने ध्यान को भृकुटि पर केंद्रित करके देखें। शुरुआत में आराम नहीं मिलेगा पर पांच दस मिनट बाद आप को अपने शरीर और मन में शांति अनुभव होगी। जैसे मान लीजिये आप किसी समस्या से परेशान हैं। वह उठते बैठते आपको परेशान करती है। आप ध्यान लगा कर बैठें। समस्या हल होना एक अलग मामला है पर ध्यान के बाद उससे उपजे तनाव से राहत अनुभव करेंगे। सच बात तो यह है कि हम अपने दिमाग और शरीर को बहुत खींचते हैं और उसको बिना ध्यान के विराम नहीं मिल सकता। यह को व्यायाम नहीं है एक तरह से पूर्णाहुति है उस यज्ञ की जो हम अपनी देह के लिये करते हैं। शेष फिर कभी। संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior http://terahdeep.blogspot.com …………………………..

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नए स्वांग और मुखौटे-हास्य व्यंग्य कविताएँ (svang aur mukhaute-hindi satire poem)


रोज रचते हैं नया स्वांग
चेहरे पर लगाते नए मुखौटे
और बदलकर आते हैं कपड़े
मगर छद्म होकर भी करते हैं हमेशा लफड़े.
आदमी अपना बाहर का रूप
कितना भी बदल ले
अदाओं से पहचाना जाता है,
जहां स्वर बदले
शब्दों से पकड़ा जाता है,
खुलकर सांस लेने से घबड़ाते हैं जो लोग
छिपकर करते वार
पर अपने हथियारों की शकल
और तौरतरीकों से जाते हैं पकड़े.

——————————-
अपनी महफ़िल में उन्होंने बुलाया नहीं
हमारी परवाह न होने का अहसास जताया.
खूब चिराग जलाए उन्होंने
पर अन्दर के अँधेरे में
चमकता रहा हमारा चेहरा और नाम
बड़ी मेहनत से उन्होंने छिपाया.
हमारा नाम लेने पर उन्होंने
अपने मेहमान पर गुस्सा दिखाकर
अपनी नापसंदगी दिखाई
पर सच है कि जो खौफ है
उनके दिमाग में
हमारे हाथ से जलते चिरागों से
ज़माने के रौशन होने का
वही अनजाने में बाहर आया.

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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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सेल के रोग का इलाज नहीं-हास्य व्यंग्य कविता (sel rog ka ilaj-hasya vyangyakavita)


अपने साथ फंदेबाज एक पर्चा लेकर आया
और हाथ में देते हुए बोला-
‘दीपक बापू,
बूढ़े आदमियों के लिये
तैयार कपड़ों की एक सेल लगी है
चलो तुम्हें वहां से
टोपी, कुर्ता धोती और स्वेटर दिलवायें
बहुत पुराने लगते हैं तुम्हारी तरह
तुम्हारें कपड़े भी सजायें।
यह ठीक है अभी तक फ्लाप हो
चिंता की बात नहीं
पर कल हिट हो जाओगे
तो कैसे सम्मेलनों में अपना चेहरा दिखाओगे
सेल में एक चीज पर एक मुफ्त है
एक रख लेना रोज पहनने के लिये
दूसरा बाहर के लिये रख लेना
चलो तो मौके का पूरा फायदा उठायें।’

सुनते ही भड़के फिर
अपनी पुरानी टोपी की तरफ
निहारते हुए बोले दीपक बापू
‘कमबख्त, हमारे फ्लाप होने का ताना
देने के लिये कोई बहाना ढूंढ जरूर लेना
अरे, इस टोपी, धोती और स्वेटर के
पुराने होने पर तुम्हें तरस आ रहा है
पर कोई दूसरा तो नहीं गा रहा है
एक के साथ एक फ्री ले आये थे
पहले इसी इरादे से
पर दोनों ही घिस गये
अंतर्जाल पर टाईप करते
पर हमारे ब्लाग अभी आहें भरते
पैकिंग में धोती, कुर्ता, टोपी और स्वेटर
बहुत अच्छे दिखे
पर घर लाये तो सभी में छेद दिखे
फिर तुम सभी जगह हमारे
फ्लाप होने की कथा सुना रहे हो
आपने हिट दोस्त होने का अच्छा साथ भुना रहे हो
हम किस हाल में है
भला कौन पाठक जानता है
इतना ही ठीक है
इस ‘एक के साथ एक फ्री’ में
पगला गये हैं कई लोग
जिसका इलाज नहीं है
ऐसा बन गया है यह सेल का रोग
हम तो मुफ्त में ब्लाग लिखने के साथ
यह दूसरा फ्री का रोग नहीं पाल सकते
रुपये भला कैसे लगायें।
दो रोग पालना एक साथ मूर्खता है
यह तुम्हें कैसे समझायें’’
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जब उनके पुतलों की पोल खुल जायेगी-हिंदी कविता (putlon ki pol-hindi hasya kavita)


पर्दे के पीछे वह खेल रहे हैं
सामने उनके पुतले डंड पेल रहे हैं।
आत्ममुग्धता हैं जैसे जमाना जीत लिया
समझते नहीं भीड़ के इशारे
अपनी उंगलियों से पकड़ी रस्सी से
मनचाहे दृश्य वह मंच पर ठेल रहे हैं।
भीड़ में बैठे हैं उनके किराये के टट्टू
जो वाह वाही करते हैं
तमाम लोग तो बस झेल रहे हैं।
खेल कभी लंबा नहीं होता
कभी तो खत्म होगा
सच्चाई तो सामने आयेगी
जब उनके पुतलों की पोल खुल जायेगी
तब जवाब मांगेंगे लोग
हम भी यही सोचकर झेल रहे हैं।

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खेल और हवा-हिंदी व्यंग्य लघुकथा (khel aur hava-hindu laghu katha)


उसने एक फुटबाल ली और उस पर लिख दिया धर्म। वह उस फुटबाल के साथ एक डंडा लेकर उस मैदान में पहुंच गया जहां गोल पोस्ट बना हुआ था। तमाम लोग वहां तफरी करने आते थे इसलिये वह पहले जोर से चिल्लाया और बोला-‘है कोई जो सामने आकर मुझे गोल करने से रोक सके।’
उसने अपनी आंखों पर चश्मा लगा लिया था। उसका डीलडौल और हाथ में डंडा देखकर लोग डर गये और फिर वह शुरु हो गया उसके गोल करने का सिलसिला। एक के बाद एक गोल कर वह चिल्लाता रहा-है कोई जो मेरा सामना कर सके। देखों धर्म को मैं कैसे लात मारकर गोल कर रहा हूं।’
लोग देखते और चुप रहते। कुछ बच्चे शोर बचाते तो कुछ बड़े कराहते हुए आपस में एक दूसरे का सांत्वना देते कि कोई तो माई का लाल आयेगा जो उसका गोल रोकेगा।’
उसी समय एक ज्ञानी वहां से निकला। उसने यह दृश्य देखा और फिर उसके पास जाकर बोला-‘क्या बात है? सामने कोई गोल पर तो है नहीं जो गोल किये जा रहे हो।’
वह बोला-‘तुम सामने आओ। मेरा गोल रोककर दिखाओ। यह फुटबाल मैंने एक कबाड़ी से खरीदी है और मैं चाहता हूं कि कोई मेरे से गोल गोल खेले।

ज्ञानी ने कहा-‘ यह होता ही है। अगर फुटबाल है तो खेलने का मन होगा। डंडा है तो उसे भी किसी को मारने का मन आयेगा। ऐसे में तुम्हारे साथ कोई नहीं खेलने आयेगा।’
उसने कहा-‘तुम ही खेल लो। दम है तो आ जाओ सामने।’
ज्ञानी ने उससे फुटबाल हाथ में ली और उसकी हवा भरने के मूंह पर जाकर उसका ढक्कन खोल दिया। वह पूरी हवा निकल गयी।
वह चिल्लाने लगा और बोला-‘अरे, डरपोक हवा निकाल दी। अभी डंडा मारता हूं।’
ज्ञानी ने कहा-‘फंस जाओगे। यहां बहुत सारे लोग हैं। फुटबाल पर तुमने धर्म लिखकर लोगों की भावनाओं को संशकित कर दिया था पर अब वह यहीं आयेंगे। देखो वह आ रहे हैं।’
उसने देखा कि लोग उसकी तरफ आ रहे हैं। ज्ञानी ने कहा-‘तुम अब घर जाओ। यह तुम नहीं फुटबाल थी जो तुमसे खेल रही थी। फुटबाल में हवा भरी थी जो उसके साथ तुम्हें भी उड़ा रही थी। वैसे तुम्हारी देह भी हवा से चल रही है पर यह हवा तुम्हारे दिमाग को भी चला रही थी। अब न यह फुटबाल चलेगी न डंडा।’
वह ज्ञानी ऐसा कहकर चल दिये तो तफरी करने आये एक सज्जन ने पूछा-‘पर आपने सब क्यों और कैसे किया?’
ज्ञानी ने कहा-‘मैंने कुछ नहीं किया। यह तो हवा ने किया है। उसे फुटबाल में भरी हवा ने बौखला दिया था। वह निकल गयी तो उसके लिये अपना यह नाटक जारी रखना कठिन था। मुझे करना ही क्या था? उसके कहने पर उसके साथ फुटबाल खेलने से अच्छा है कि उसकी हवा निकाल कर मामला ठंडा कर दो। फुटबाल खेलता तो वह गोल रोकने को लेकर विवाद करता। मेरे गोल पर आपत्तियां जताता। उसको छोड़ कर जाता तो वह यहां भीड़ के लोगों को बेकार में डराता। इससे अच्छा है कि धर्म नाम लिखकर झगड़ा बढ़ाने की उसकी योजना को फुटबाल में से हवा निकाल कर बेकार कर दिया जाये।’
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बहस कि कामेडी-हिंदी लघु व्यंग्य (disscusion as a comedy-hindi satire)


                 उस उद्यान में ज्ञानियों के बीच देश की गरीबी मिटाने के लिये बहस चल रही थी। विषय था देश में गरीबी और शौषण खत्म कैसे किया जाये। सभी सजधजकर बहस करने आये थे। सभी वक्ता अपने अपने विचार रख रहे थे।
            एक ने कहा ‘हमें गरीबों के दिमाग में अपने अधिकार के लिये चेतना जगाने का अभियान छेड़ना चाहिये।
           वहीं एक फटीचर आदमी भी बैठा था। उसने उठकर पूछा-‘पर कैसे? क्या कहें गरीबों से जाकर कि अमीरों का पैसा छीन लो!’
               सभा के संचालक ने उसे बिठा दिया और कहा‘-आप आमंत्रित वक्ता नहीं है इसलिये बहस मत करिये।’
              दूसरे वक्ता ने कहा-‘हमें एक आंदोलन छेड़ना चाहिये।’
              वह फटीचर फिर उठकर खड़ा हो गया और बोला-‘बहस और आंदोलन तो बरसों से चल रहे हैं।’
            संचालक फिर चिल्लाया-‘चुपचाप बैठ जाओ। वरना बाहर फैंक दिये जाओगे। हम कितने गंभीर विषय पर बहस कर रहे हैं और तुम अपनी टिप्पणियां मुफ्त में दिये जा रहे हो।’
              वह फटीचर आदमी वहां से चला गया तो एक विद्वान ने दूसरे से पूछा-‘यह कौन फटीचर यहां आ गया था।’
            दूसरे ने कहा-‘पता नहीं।’
           वहीं एक दूसरा फटीचर आदमी र्बैठा था वह बोला-‘वह मेरा दोस्त था। पहले किताबें पढ़कर बहुत बहस कर चुका है पर जब से बहुत ज्ञानी हो गया तब से उसने ऐसी बहसें बंद कर दी हैं। अलबत्ता कभी कभी चला आता है ऐसी बहसें देखने। क्योंकि इसे इसमें कामेडी नजर आती है।’
            यह बात सुनते ही दोनों विद्वानों का खूल खौल उठा वह बोले-‘तू हमारी बहस को कामेडी कहता है।’
वह दोनों उठकर खड़े गये और चिल्लाने लगे कि‘यह हमारी बहस को कामेडी कह रहा है। इसे मारो पीटो।’
            सब लोग उस पर चढ़ पड़े। वह चिल्लाता रहा‘मैं नहीं वह कहता है।’
             उसके पुराने कपड़ों में पहले ही पैबंद लगे थे वह और अधिक फट गये। जब वह पिट पिटकर बेहोश हो गया तब उसे छोड़ दिया गया। विद्वान फिर बहस करने लगे। कुछ देर बात उसे होश आया तो वह दोनों विद्वान वहीं बैठे बहस में व्यस्त थे। उसने उनसे कहा-‘यार, मैं थोड़े ही कहता हूं। वह कहता है। तुम दोनों ने मुझे क्यों क्यों पिटवाया।’
          उनमें से एक ने कहा-‘हम विद्वान है कोई सामान्य आदमी नहीं।  सांप को निकलने देते हैं उसके बाद लकीर पीटते हैं।’
       वह बिचारा वापस अपने दोस्त के पास पहुंचा और पूरा हाल बताकर बोला-‘यार, किस मुसीबत में फंसा मुझे फँसकर इस तरह भाग निकले। हम तो सोच रहे थे कि विद्वान लोग हैं शांति से सभी की बात सुनते होंगे पर  हैं पर वह हिंसा पर उतर आये।’
            उसने जवाब दिया-‘यह भ्रम मुझे भी होता था। इसलिये तुझसे कहता हूं कि ऐसी जगहों पर अधिक मत रुका करो। वहां बहस वही करते हैं जो किताबी ज्ञानी हैं। कबीरदास जी कह गये हैं कि किताब पढ़ने वालों को अहंकार आ ही जाता है। मैं भी तुझसे कहता हूं कि ऐसी बहसें कामेडी नाटक की तरह हैं क्योंकि किताबी ज्ञानी लकीर के फकीर होते हैं पर वहां सबके बीच में नहीं कहा। सच बात भी सही जगह और सही समय पर बोलना चाहिये। बस तुम्हारे और मेरे बीच यही अंतर है। इसलिये मैं तुम्हें अल्पज्ञानी कहता हूं। मैंने खतरा देखा तो निकल लिया और तुम फंसं गये।’

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हिंदी ब्लाग अंग्रेजी से आगे निकल सकते हैं-आलेख (hindi blog, inglish blog-hindi article)


अंतर्जाल पर कौन कितना सफल है यह तो कहना कठिन है क्योंकि यहां अनेक तरह के फर्जीवाड़े हैं जिनको समझना एक कठिन काम है। चाहे किसी भी भाषा के ब्लाग हैं उनको लेकर अनेक तरह के भ्रम बने ही रहते हैं। अनेक दिलचस्प बातें सामने आती हैं। लोग तमाम तरह की वेबसाईटों पर अपने ब्लाग की रेटिंग दिखाकर अपने को सबसे सफल ब्लाग या वेबसाईट लेखक होने का दावा भी करते हैं। अनेक लोगों को तो यह लगता है कि हम तो अच्छा लिख नहीं रहे इसलिये सफल नहीं है।
अनेक समझदार ब्लाग लेखक ऐसी बातें लिख जाते हैं उनके आशय कुछ भी लिये जा सकते हैं। अभी कुछ दिनों पहले एक समाचार था कि अंतर्जाल पर लिखे जा रहे ब्लागों को एक ही आदमी पढ़ता है। इसका आशय यह भी हो सकता है कि लेखक स्वयं ही पढ़ता है या यह भी हो सकता है कि जिन वेबसाईटों पर ब्लाग बने हैं वहीं से उनकी सामग्री देखी जा सकती है या कहीं उनके द्वारा कुछ लोग इसके लिये नियुक्त हैं जिन्हें रोज ब्लाग पर व्यूज भेजने के लिये रखा गया है।
एक कमाने वाले ब्लाग लेखक ने लिखा था कि ‘हजारों ऐसे पाठक लेकर क्या करूंगा जिनसे मुझे एक पैसा भी न मिले। मुझे तो दस ऐसे ही पाठक काफी हैं जो मेरे विज्ञापनों से मुझे आय अर्जित करायें।’
अब सच क्या है कोई नहीं जानता। अलबत्ता इतना तय है कि अनेक तरह के फर्जीवाड़े संभावित हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि कौन कितना सफल है? यह बात केवल ब्लाग लेखकों तक नहीं बड़ी बड़ी वेबसाईटों पर भी लागू होती है। अलबत्ता आॅनलाईन से जनता का काम करने वाली व्यवसायिक वेबसाईटें जरूर अधिक देखी जाती हैं पर वह सफलता और असफलता के दायरे से बाहर हैं। संभव है कोई ऐसा ब्लाग या वेबसाईट लेखक हो जिसको एक हजार पाठक रोज देखते हों और वह कमाता भी हो तो उसे सफल मान लिया जाये और जिसे सौ पाठक देखते हों और वह न कमाता हो उसे असफल मान लिया जाये। इसमें एक पैंच ही फंसता है कि जिसके पास सौ पाठक हों संभव है वह पूरी तरह से सौ हों और जिसके पास हजार हों उसके लिये केवल बीस ही सक्रिय हों। जो ब्लागर कमा रहे हैं उनकी इस बात के लिये प्रशंसा करना चाहिए कि वह आय अर्जित करने का गुर सीख गये हैं और नये लोगों को उनसे प्रेरणा भी लेना चाहिए। मुश्किल यह है कि जिनके लिये अंगूर खट्टे हैं वह कैसे संतोष करें। न पैसा मिले न प्रतिष्ठा उनके लिये क्या है यहां पर? ऐसे में उनके पास एक ही चारा है कि वह अपने पास ऐसे कांउटर लगायें जिससे पता लगे कि उनको कितने लोग पढ़ रहे हैं और कहीं मित्र लोग ही तो केवल फर्जी व्यूज नहीं दे रहे क्योंकि सफलता का भ्रम तो असफलता से भी अधिक बुरा होता है।
इधर हमने शिनी का स्टेट कांउटर लगाकर देखा। यह कांउटर केवल वर्डप्रेस के ब्लाग पर लगाया यह देखने के लिये कि आखिर देखें तो सही कि हमारे ब्लाग किस दिशा में जा रहे हैं। इस कांउटर के साथ अच्छी बात यह है कि इसने ब्लाग के वर्गीकरण कर दिये हैं। पंजीकृत समझ में अधिक नहीं आया पर जो उचित लगा वह वर्ग ले लिया। इसमें मनोरंजन और साहित्य के अलग अलग वर्ग लिये।
इसका अवलोकन करने के बाद करने पर पता चला कि अंग्रेजी के ब्लागों पर भी अब हिंदी ब्लाग की बढ़त बन सकती है। इतना ही नहीं यौन सामग्री से सुसंज्जित सामग्री के मुकाबले भी साहित्य का स्थान बन सकता है। इस कांउटर पर अभी अन्य ब्लाग अधिक पंजीकृत नहीं है इसलिये यह कहना कठिन है कि उनके मुकाबले इस लेखक के ब्लाग का क्या स्तर है? अलबत्ता प्रारंभ में ही हिंदी ब्लागों को पचास में 10 से 13 तक अंक और समाज में ई पत्रिका और दीपक बापू कहिन को साहित्य वर्ग मे 22, 23 स्थान मिलना अच्छा संकेत है। वैसे हिंदी पत्रिका को मनोरंजन के अन्य वर्ग में 82 वां स्थान मिला है पर वहां उसके सामने अंग्रेजी ब्लाग हैं जो शायद अधिक पढ़े जाते है। यह ब्लाग दो दिन पहले तक 92 वें स्थान पर था। यह आंकड़े ऊपर नीचे होंगे। यह कोई बड़ी सफलता का प्रमाण भी नहीं है पर इससे एक बात साफ है कि अंतर्जाल पर हिंदी की पाठक संख्या ठीक ठाक है और भविष्य में हिंदी ब्लाग अंग्रेजी को जरूर चुनौती देंगे। वैसे ब्लाग स्पाट के ब्लाग की सफलता का सबसे अच्छा आंकलन गूगल विश्लेषण प्रस्तुत करता है जिसका दावा है कि वह आपको फर्जी व्यूज से भ्रमित होने से बचाता है। इसके बावजूद अन्य वेबसाईटों पर भी ब्लाग की स्थिति देखी जा सकती है पर उनके साफ्टवेयरों पर अनेक लोग संदेह जाहिर करते हैं। अलबत्ता शिनी ने जो अलग वर्ग बनाये हैं वह एक अच्छी बात है। हमने यह कांउटर एक किसी हिंदी ब्लाग लेखक के ब्लाग से दो सप्ताह पहले ही लिया था पर यह पता नहीं वह किस श्रेणी में पंजीकृत हैं क्योंकि हमने अपनी श्रेणियों में उनको देखने का प्रयास किया था पर दिखाई नहीं दिया। यहां यह भी याद रखने लायक है कि अनेक वेबसाईटें ऐसी हैं जो वहां पंजीकरण कराने पर रैकिंग देती हैं इसलिये उनको लेकर अपना यह दावा करना ठीक नहीं लगता कि हम सफल हैं, क्योंकि संभव है कि अन्य अपंजीकृत ब्लाग हमसे भी श्रेष्ठ हो सकते हैं।

हां, एक मजेदार बात सामने आई। कहा जाता है कि अधिकतर ब्लाग को एक आदमी पढ़ता है। लेखक समेत हम दो मान लें तो सफलता का एक पैमाना यह भी होता है कि आपके ब्लाग को तीसरा आदमी भी पढ़ता दिखे। इस काउंटर पर हमने अपने ब्लाग पर आनलाईन पाठक की संख्या पांच से सात तक देखी है। इसका आशय यह है कि हमारे ब्लाग उस दायरे से तो बाहर निकल गये हैं जो उसे एक या दो पाठक तक ही सीमित रहते हैं।
……………………………

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
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2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
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ब्लागर सरकार पर एसा वैसा मत लिख देना-हास्य व्यंग्य (hasya vyangya on blogger sarkar)


सर्दी की सुबह चाय पीने के बाद ब्लागर कोहरे में घर से बाहर निकला। उसका शरीर ठंड से कांप रहा था पर चाय पीने से जो पेट मं गैस बनती है उससे निपटने का ब्लागर के पास यही एक नुस्खा था कि वह बाहर टहल आये। वह थोड़ा दूर चला होगा तो उसे कालोनी के नोटिस बोर्ड पर एक पर्चा चिपका दिखाई दिया। वह उसे देखकर कर अनेदखा कर निकल जाता पर उसे लगा कि कहीं ब्लागर शब्द लिखा हुआ है। वह सोच में पड़ गया कि यह आखों का वहम होगा। भला यहां कौन जानता है ब्लागर के बारे में। फिर वह रुककर उस पर्चे के पास गया और उसे पढ़ने लगा। उस पर लिखा था कि

‘आज ब्लागर सरकार की दरबार पर विशेष कार्यक्रम होगा। सभी इंटरनेट धार्मिक बंधुओं से निवेदन है कि वहां पहुंचकर लाभ उठावें । इस अवसर पर ब्लागर सरकार की विशेष आरती होगी उसके बाद समस्त धार्मिक बंधुओं को ज्योतिष,विज्ञान,तकनीकी तथा वैवाहिक ब्लाग तथा वेबसाईटों की जानकारी दी जायेगी। ब्लागर सरकार की पूजा से अनेक लोगों ने इंटरनेट पर हिट पाये हैं और उनके प्रवचन भी इस अवसर पर आयोजित किये जायेंगे। स्थान-नीली छतरी, दो पुलों के बीच, घाटी के बगल में। निवेदक ब्लागर स्वामी।

ब्लागर का माथा ठनका। वह भागा हुआ घर लौटा। गृहस्वामिनी ने कहा-‘क्या बात है इतनी जल्दी लौट आये। क्या सर्दी सहन नहीं हुई। मैंने पहले ही कहा था कि बाहर मत जाओ।’
ब्लागर ने कहा-‘यह बात नहीं हैं। मैं साइकिल पर जा रहा हूं थोड़ा दूर जाना होगा। वह जो दूसरा ब्लागर है न! उसने शायद कोई ब्लागर सरकार का दरबार के नाम से कुछ बनाया है। इतने दिन से आया नहीं हैं। मैं समझ गया था कि वह कुछ न कुछ करता होगा।
गृहस्वामिनी ने कहा-‘वह क्यों ब्लागर सरकार का दरबार बनायेगा। उसके सामने तो वैसे ही सर्वशक्तिमान का पुराना बना बनाया दरबार है जहां उसकी महफिल जमती है।’
ब्लागर ने कहा-‘पर ठिकाना वही है। जरूर वह कुछ गड़बड़ कर रहा है। मैं जाता हूं। यह दरबार उसी का होना चाहिये। उसने कोई नया बखेड़ा खड़ा किया होगा। वह बहुत दिनों से उस दरबार में भक्तों के जमावड़े और चढ़ावा बढ़ाने की योजनायें बन रहा है।
गृहस्वामिनी ने कहा-‘तो फिर स्कूटर ले जाओ।’
ब्लागर अपने पुराने स्कूटर की तरफ झपटा तो गृहस्वामिनी ने कहा-‘अब इस पुराने स्कूटर को मत ले जाओ। नया स्कूटर ले जाओ। वैसे ही वहां भीड़ होगी और वह मजाक बनायेगा। उसके नये दरबार में अपनी भद्द मत पिटवाओ।
ब्लागर ने अपना नया स्कूटर लिया। रास्ते में उसका कालोनी का एक मित्र टिप्पणी स्वामी मिल गया। उसे जब ब्लागर ने अपनी बात बताई तो वह भी उसके साथ हो लिया। स्कूटर पर बैठते हुए वह बोला-‘वैसे तो वह तुम और वह दोनों फालतू हो पर क्योंकि स्कूटर तुम्हारा है और पेट्रोल भी तो साथ चलता हूं। मेरा घूमना फ्री में हो जायेगा इसलिये साथ चल रहा हूं।’
दोनों स्कूटर पर सवाल होकर साढ़े तीन मिनट में-टिप्पणी स्वामी की वहां पहुंचते ही दी गयी टिप्पणी के अनुसार-वहां पहुंच गये। ब्लागर का संदेह ठीक था। दूसरे ब्लागर ने अपने सामने बने पुराने दरबार पर पहले ही कब्जा कर रखा था और उसके आंगन में खाली पड़ी जमीन पर बना दिया था ‘ब्लागर सरकार का दरबार’।
ब्लागर अपना स्कूटर सीधे अंदर ले गया। वहां एक आदमी तौलिया पहने दांतुन कर रहा था। उसने सिर से ठोढ़ी तक टोपा तथा शरीर पर भारीभरकम पुराना स्वेटर पहनकर रखा था। मूंह में दातुन रखे ही उसने ब्लागर की तरफ उंगली उठाकर कहा-‘उधर रखो। इधर स्कूटर कहां रख रहे हो। यह ब्लागर सरकार का दरबार है।’
ब्लागर उसे घूर कर देख रहा था। टिप्पणी स्वामी ने उससे कहा-‘अरे, भाई यह ब्लागर सरकार का दरबार है और हमारे यह मित्र ब्लागर हैं। इस दरबार का जो स्वामी है वह इनका खास मित्र है। जाओ उसे बुलाओ। ब्लागरों का स्कूटर भी खास होता है।’

जानता हूं। जानता हूं। इसका नया स्कूटर तो क्या पुरानी साइकिल भी खास होती है।’ यह कहकर वह आदमी कुल्ला करने गया। इधर पहले ब्लागर ने टिप्पणी स्वामी से कहा-‘अरे, तुमने पहचाना नहीं यही है वह ब्लागर स्वामी। अब लौटते ही शाब्दिक आक्रमण करेगा।’
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘अरे, यार मैंने उसे एक बार ही देखा है। तुम तो अक्सर उससे मिलते हो।’

उधर से दूसरा ब्लागर लौटा और पहले ब्लागर से बोला-‘यह कौन कबूतर पकड़ लाये? जो मुझे बता रहा है कि तुम्हारा स्कूटर खास है?
पहले ब्लागर ने कहा-‘यह टिप्पणी स्वामी है। कभी कभार टिप्पणी देता है। हालांकि जबसे इसके मकान की उपरी मंजिल बनना शुरू हुई तब से इसकी पत्नी इसे इंटरनेट पर काम नहीं करने देती इसलिये वह भी अब बंद है। बहरहाल यह ब्लागर सरकार के दरबार का क्या चक्कर है।’

दूसरे ब्लागर ने कहा-‘चक्कर क्या है? अधार्मिक कहीं के। तुम अपनी टांग क्यों फंसाने आ गये? तुम तो अध्यात्मिक ज्ञान और धर्म को अलग अलग मानते हो न! क्या जानो धर्म के बारे में। चक्कर नहीं है। यह मेरीे श्रद्धा और आस्था है। उस दिन रात को सपने में ब्लागर सरकार के दर्शन हुए और उन्होंने बताया कि उनकी स्थापना करूं! आजकल इंटरनेट के समय लोग सर्वशक्तिमान के सभी नाम और स्वरूपों को पुराना समझते हैं इसलिये उन्होंने मुझे इस नये स्वरूप की स्थापना का संदेश दिया। वैसे तुम यहां निकल लो क्योंकि तुम अपने ब्लाग पर मूर्तिपूजा के विरुद्ध लिखते रहते हो जबकि चाहे जिस दरबार में मूंह उठाये पहुंच जाते हो। हमारा चरित्र तुम्हारी तरह दोहरा नहीं है।’
टिप्पणी स्वामी ने पहले ब्लागर से कहा-‘यार, यह तो तुम्हें काटने दौड़ रहा है। इसे मालुम नहीं कि तुम अध्यात्म के विषय पर लिखते हो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘कोई बात नहीं। इस बिचारे का दोष नहीं है। बहुत व्यस्त आदमी है इसलिये इसे पढ़ने का अवसर नहीं मिलता।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-वैसे तुम पढ़ने लायक लिखते क्या हो जिसे मैं पढ़ूं। वैसे इस नये स्कूटर का मुहूर्त करने यहां आये हो क्या? यह केवल खाली हाथ मुझे दिखाकर क्या दिखाना चाहते होे। वैसे मैंने तुम्हें उस दिन नये स्कूटर पर देख लिया था। अब बताओ यहां किसलिये आये हो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘तुम्हारे इस दरबार का पर्चा अपनी कालोनी में पढ़ा। मुझे लगा कि यह तुम्हारा कोई नया स्वांग है जिसे देखने चला आया।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘हां, तुमसे यही उम्मीद थी। तुम मेरी धार्मिक भावनाओं को आहत कर रहे हो। वैसे तुम चाहे कितना भी लिखो जब तक ब्लाग स्वामी की कृपा नहीं होगी तब तक तुम हिट नहीं हो सकते।’
पहला ब्लागर-‘ठीक है पहले तुम्हारे ब्लागर सरकार की मूर्ति अंदर चलकर देख लें।’
दूसरा ब्लागर बोला-नहीं। तुम जैसे नास्तिकों का अंदर प्रवेश वर्जित है।’
टिप्पणीकार बोला-‘मैं तो अस्तिक हूं। अंदर जाकर देख सकता हूं न!
दूसरा ब्लागर बोला-‘नहीं! तुम इसके साथी हो। नास्तिक का साथी भी नास्तिक ही होता है मेरे सामने तुम्हारा यह पाखंड नहीं चल सकता।’
पहला ब्लागर बोला-‘ठीक है। अंदर क्या जाना? यहीं से पूरी तस्वीर दिख रही है। यह पत्थर की है न!
दूसरा ब्लागर-‘नहीं प्लास्टिक की है। आर्डर देकर बनवाई है।
पहला ब्लागर बोला-‘यार, फिर तुम मुझसे नाराज क्यों होते हो? मैंने तो कभी प्लास्टिक की मूर्तियों की पूजा करने से तो रोका नहीं है। वैसे यह डिजाइन तो ठीक है।’
दूसरा ब्लागर-‘‘हां, डिजाइन पर अधिक पैसा खर्च हुआ है जो भक्तों के चंदे से मिले हैं। जैसे सपने में डिजाईन जैसी देखी थी वैसी ही बनवाई है।’
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘यह डिजाईन तो शायद मैंने किसी पत्रिका में देखा था। फिर पैसे किस पर खर्च हुए। लगता है किसी ने ठग लिया।’
दूसरा ब्लागर-टिप्पणी स्वामी! तुम अपनी बेतुकी टिप्पणियां करने बाज आओ। कहीं ब्लागर सरकार नाराज हो गये तो तुम्हारा इस दोस्त को एकाध टिप्पणी मिलती है उससे भी तरस जायेगा। मकान बनने के बाद भी तुम्हारी पत्नी तुम्हें इंटरनेट पर काम करने नहंी देगी।
दोनों मूर्तियां देखने लगे। कंप्युटर के उपर रखे कीबोर्ड पर अपने दोनों हाथों की उंगलियां रख ेएक चूहा बैठा मुस्कराने की मुस्कराने की मुद्रा में था। कंप्यूटर से जुड़ी हर सामग्री को वहां दिखाया गया था। कंप्यूटर की स्क्रीन पर लिखा था ब्लागर सरकार।

टिप्पणीकार ने धीरे से कहा-‘यह चूहा और कीबोर्ड कंप्यूटर के ऊपर क्यों रखा हुआ है।’
दूसरा ब्लागर चीखा-‘चूहा! अरे, यही तो हैं ब्लागर स्वामी! तुम कुछ तो सोचकर बोला करो। अपने इस दोस्त के चक्कर में तुम भी वैसी ही बेहूदा टिप्पणियां कर रहे हो जैसे यह पाठ लिखता है।’
पहला ब्लागर अभी प्लास्टिक की मूर्ति को घूर रहा था। फिर बोला-‘मैंने अपनी कालोनी में एक पहचान वाले के यहां ऐसी ही मूर्ति देखी थी। वह बता रहे थे कि उन्होंने यह कबाडी को बेची थी।’
दूसरा ब्लागर’-‘तुम क्या कहना चाहते हो कि मैंने यह कबाड़ी से खरीदी थी। अब तुम जाओ। यार, तुम मेरा समय खोटी कर रहे हो। अब यहां भक्तों के आने का समय हो गया है। यहां पर मैंने लोगों को ज्योतिष,चैट,विवाह तथा नौकरी में मदद देने के लिये असली कंप्यूटर लगा रखे हैं। वह भक्त आते होंगे।
पहले ब्लागर ने देखा कि टीन शेड से बने केबिन थे जहां कंप्यूटर रखे दिख रहे थे। दूसरा ब्लागर बोला-‘जैसे जैसे भक्तों के कमेंट आते जायेंगे वैसे वैसे दरबार का विकास होता जायेगा।’
ब्लागर और टिप्पणी स्वामी ने आश्चर्य से पूछा-‘कमेंट!
दूसरा ब्लागर बोला-‘कमेंट यानि चढ़ावा। अरे, इतने दिन से ब्लागिंग कर रहे हो तुम्हें मालुम नहीं कि कमेंट भी चढ़ावे की तरह होता है और प्रसाद भी! वैसे तुम क्या समझोगे? तुम्हारे पाठ पढ़ता कौन है? जो कमेंट लगायेगा।’
दूसरा ब्लागर मूर्ति तक गया और वहां से लड्ड्ओं की थाली ले आया। उस एक लड्ड् के दो भाग किये। एक भाग अपने मूंह में रख गया। फिर दूसरे भाग के दो भाग कर उसका एक भाग अपने मूंह में रख लिया और बाकी के दो भागों में एक पहले ब्लागर को दूसरा टिप्पणी स्वामी को देते हुए बोला-तुम दोनों तो हो नास्तिक। फिर भी यह थोड़ा थोड़ा प्रसाद खा लो। कल हमारे यहां एक लड़के को इंटरनेट पर चैट करते समय अपनी गर्लफ्रैंड का पहला ईमेल मिला तो उसने मन्नत पूरी होने पर यह लड्डूओं की कमेेंट चढ़ा गया।’
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘इसकी क्या जरूरत थी। हम तो ब्लागर सरकार के दर्शन कर वैसे ही बहुत खुश हो गये।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘चुपचाप खालो टिप्पणी स्वामी! वरना इससे भी जाओगे।
फिर उसने दूसरे ब्लागर से पूछा-‘वह तुम्हारा विशेष कार्यक्रम कब है?’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘परसों हो गया। क्या तुमने उस पर्चे में तारीख नहीं पढ़ी थी।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘यार, जोश में होश नहीं रहा। अच्छा हम दोनों चलते हैं।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘बहुत मेहरबानी! अब मैं ब्लाग सरकार की विशेष आरती करूंगा। ब्लाग सरकार की मेहरबानी हो तो अच्छा अच्छे कमेंट आयेंगे तो तुम दोनों की शक्लें देखने से जो बुरा टोटका हो गया उसको मिटाने के लिये यह जरूरी है। और हां! ब्लागर सरकार पर कुछ एैसा-वैसा मत लिख देना।’

पहला ब्लागर और टिप्पणी स्वामी स्कूटर से वापस लौटने लगे। टिप्पणी स्वामी ने पहले ब्लागर से पूछा-‘तुम इस पर कुछ लिखोगे।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘हां, हास्य व्यंग्य!
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘पर उसने मना किया था न! कहा था कि ब्लागर सरकार पर कुछ एैसा-वैसा मत लिख देना।’
पहले ब्लागर ने स्कूटर रोक दिया और बोला-‘यार, उसने हास्य व्यंग्य लिखने से मना तो नहीं किया था! चलो लौटकर फिर भी पूछ लेते हैं।’
टिप्पणीकार हैरान होकर उसकी तरफ देखने लगा। फिर पहले ब्लागर ने कहा-‘अगली बार पूछ लूंगा।
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सविता भाभी ने किया सच का सामना-हिन्दी हास्य कविता (savita bhabhi ne kiya sach ka samana-hasya kavita)


नाम कुछ दूसरा था पर
नायिका सविता भाभी रखकर वह
सच का सामना प्रतियागिता में पहुंची
और एक करोड़ कमाया।
प्रतिबंधित वेबसाईट की कल्पित नायिका को
अपने में असली दर्शाया।
यह देखकर उसका रचयिता
छद्म नाम लेखक कसमसाया।
पीसने लगा दांत
भींचने लगा मुट्ठी और
गुस्से में आकर एक जाम बनाया।
पास में बैठे दूसरे
पियक्कड़ ब्लाग लेखक से बोला
‘‘यार, कैसी है यह अंतर्जाल की माया।
अपनी नायिका तो कल्पित थी
यह असल रूप किसने बनाया।
हम जितना कमाने की सोच न सके
उससे ज्यादा इसने कमाया।
हमने इतनी मेहनत की
पर टुकड़ों के अलावा कुछ हाथ नहीं आया।’

दूसरे पियक्कड़ ब्लाग लेखक ने
अपने मेहमान के पैग का हक
अदा करते हुए उसे समझाया
‘यार, अच्छा होता हम असल नाम से लिखते
अपने कल्पित पात्र के मालिक तो दिखते
हम तो सोचते थे कि
यौन विषय पर लिखना बुरा काम है
पर देखो हमारे से प्रेरणा ले गये
यह टीवी चैनल
कर दिया सच का सामना का प्रसारण
जिसमें ऐसी वैसी बातें होती खुलेआम हैं
हम तो हिंदी भाषा के लिये रास्ता बना रहे थे
यह हिंदी टीवी चैनल अंग्रेजी का खा रहे थे
हमारी हिंदी की कल्पित पात्र
सविता भाभी को असली बताकर
अपना कार्यक्रम उन्होंने सजाया,
पर हम भी कुछ नहीं कर सकते
क्योंकि अपना नाम छद्म बताया।
जब लग गया प्रतिबंध तो
हम ही नहीं गये उसे रोकने तो
कोई दूसरा भी साथ न आया।
हमारी कल्पित नायिका ने
हमको नहीं दिया कमाकर जितना
उससे ज्यादा टीवी चैनल वालों ने कमाया।
यह टीवी वाले उस्ताद है
ख्यालों को सच बनाते
और सच को छिपाते
नकली को असली बताने की
जानते हैं कला
इसलिये सविता भाभी का भी पकड़ लिया गला
अपने हाथ तो बस अपना छद्म नाम आया।

…………………………
नोट-यह हास्य कविता एक काल्पनिक रचना है और किसी भी घटना या व्यक्ति से इसका लेनादेना नहीं है। अगर संयोग से किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।
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आती जाती बिजली-हास्य कविता (bijli par hasya kavita)


अच्छे विषय पर सोचकर
कविता लिखने बैठा युवा कवि
कि बिजली गुल हो गयी।
कागज पर हाथ था उसका
कलम अंधेरे में हुई लापता
जो सोचा था विषय
उसका भी नहीं था अतापता
अब वह बिजली पर पंक्तियां सोचने लगा
‘कब आती और जाती है
यह तो बहुत सताती है
इसका आसरा लेकर जीना खराब है
इससे तो अच्छा
तेल से जलने वाला चिराग है
जिंदगी की कृत्रिम चीजें अपनाने में
पूरे जमाने से भूल हो गई।’

कुछ देर बाद बिजली वापस आई
कवि की सोच में भी
बीभत्स रस की जगह श्रृंगार ने जगह पाई
उसकी याद में
अपने साथ पढ़ने वाली
बिजली नाम की लड़की
पहले ही थी समाई
बिजली आने पर भूल गया वह दर्द अपना
अब उसने लिखा
‘मैं उसका नाम नहीं जानता
उसकी अदाओं को देखकर
बिजली ही मानता
जब भी जिंदगी अंधेरे से बोझिल हो जाती
उसकी याद मेरे अंदर रौशनी जैसे आती
उसका चेहरा देखकर दिल का बल्ब जल उठता है
कोई दूसरा उसे देखे तो
करंट जैसा चुभता है
मेरी कविताओं के हर शब्द की
ट्यूबलाईट उसकी याद के बटन से जलती है
उसके आंखों की चमक बिजली जैसी
चारों तरफ मरकरी जैसी रौशनी दिखती
जब वह चलती है
उसकी याद में मेरे दिल का मीटर तो
बहुत तेजी से चलता है
पर वह बेपरवाह
मुझे समझने में भूल करती है।

……………………………

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बीस और पचास का खेल-हास्य व्यंग्य कविताएँ (play for twenty and fifty-hindi hasya vyangya kavitaen


उन्होंने तय किया है कि
एक दिन में पचास ओवर की
जगह बीस ओवर वाले मैच खेलेंगे।
देखने वाले तो देखेंगे
जो नहीं देखने वाले
वह तो व्यंग्य बाण ऐसे भी फैंकेंगे।

सच है जब बीस रुपये खर्च से भी
हजार रुपया कमाया जा सकता है तो
पचास रुपये खर्च करने से क्या फायदा
फिल्म हो या खेल
अब तो कमाने का ही हो गया है कायदा
पचास ओवर तक कौन इंतजार करेगा
जब बीस ओवर में पैसे से झोला भरेगा
मूर्खों की कमी नहीं है जमाने में
मैदान पर दिखता है जो खेल
उस पर ही बहल जाते हैं लोग
नहीं देखते कि खिलाड़ियों को
अभिनेता की तरह पर्दे के पीछे
कौन लगा है नचाने में
पैसा बरस रहा है खेल के नाम पर
फिल्म वाले भी लग गये उसमें काम पर
दाव खेलने वाले भी
जल्दी परिणाम के लिये करते हैं इंतजार
खिलाने वाले भी
अब हो रहे हैं बेकरार
पैसे का खेल हो गया है
खेलते हैं पैसे वाले
निकल चुके हैंे कई के दिवाले
खाली जेब जिनकी है
बन जाते समय बरबाद करने वाले
अभिनेताओं में भगवान
खिलाड़ियों में देवता देखेंगे।

कहें दीपक बापू
‘नकली शयों का शौकीन हो गया जमाना
चतुरों को इसी से ही होता कमाना
पर्दे के नकली फरिश्तों के जन्म दिन पर
प्रचार करने वाले नाचते हैं
मैदान पर बाहर की डोर पर
खेलने वालों के करतबों पर
तकनीकी ज्ञान फांकते हैं
जब हो सकती है दो घंटे में कमाई
तो क्यों पांच घंटे बरबाद करेंगे
बीस रुपये में काम चलेगा तो
पचास क्यों खर्च करेंगे
आम आदमी हो गया है
मन से खाली मनोरंजन का भूखा
जुआ खेलने को तैयार, चाहे हो पैसे का सूखा
जिनके पास दो नंबर का पैसा
वह खुद कहीं खर्च करें या
उनके बच्चे कहीं फैंकेंगे।
खेल हो या फिल्म
जज्बातों के सौदागर तो
बस! अपना भरता झोला ही देखेंगे।

…………………………..


पर्दे पर आंखों के सामने
चलते फिरते और नाचते
हांड़मांस के इंसान
बुत की तरह लगते हैं।
ऐसा लगता है कि
जैसे पीछे कोई पकड़े है डोर
खींचने पर कर रहे हैं शोर
डोर पकड़े नट भी
खुद खींचते हों डोर, यह नहीं लगता
किसी दूसरे के इशारे पर
वह भी अपने हाथ नचाते लगते हैं
………………………
चारो तरफ मुखौटे सजे हैं
पीछे के मुख पहचान में नहीं आते।
नये जमाने का यह चालचलन है
फरिश्तों का मुखौटा शैतान लगाते।

……………………

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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दोनों तूफान में फंसे थे-हिंदी कविता(rishton men tufan-hindi poem)


हम दोनों तूफान में फंसे थे
उनको सोने की दीवारों का
सहारा मिला
हम ताश के पतों की तरह ढह गये।

अब गुजरते हैं जब उस राह से
यादें सामने आ जाती हैं
कभी अपनो की तरह देखने वाली आंखें
परायों की तरह ताकती हैं
रिश्ते समय की धारा में यूं ही बह गये।
जुबां से निकलते नहीं शब्द उनके
पर इशारे हमेशा बहुत कुछ कह गये।

……………………………..

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नकली खून और डाक्टर-हास्य व्यंग्य (nakle khoon aur dactor-hindi hasya vyangya)


डाक्टर साहब बाहर ही मिल गये। उस समय वह एक किराने वाले से सामान खरीद रहे थे और हम पहले लेचुके सामान का पैसा उसे देने गये थे। दुपहिया से जैसे ही उतरे डाक्टर साहब से नमस्कार किया और पैसा देकर जैसे ही वापस मुड़े तो डाक्टर साहब ने पूछा-‘कहीं बाजार जा रहे हैं।’
हमने कहा-‘हां, आज अवकाश का दिन है सोच रहे हैं कि बाजार जाकर घूमे और सामान खरीद लायेें।’
डाक्टर साहब बोले-हां, सप्ताह में एक बार बाजार जाना स्वास्थ्य के लिये अच्छा होता है। आदमी रोज घर का खाना खाते हुए उकता जाता है, इसलिये कभी बाजार में खाना बुरा नहीं है।’
हम रुक गये और उनकी तरफ घूर कर देखा और कहा-‘पर एक बार जब हम बीमार पड़े थे तब आपने कहा था कि बाजार का खाना ठीक नहीं होता। तब से लगभग हमने यह कार्य बंद ही कर दिया है।’
वह बोले-‘हां, पर यह छह वर्ष पहले की बात है। वैसे आजकल आप सुबह योग कर लेते हैं इसलिये अब आपको इतनी परेशानी नहीं आयेगी। वैसे क्या आपने वाकई बाजार का खाना पूरी तरह बंद कर दिया है।’
हमने कहा-‘अधूरी तरह किया था पर अब तो टीवी वगैरह ने नकली घी, तेल, दूध, चाय तथा खोये का ऐसा खौफ भर दिया है कि बाजार में खाने के सामान की खुशबू नाक को कितना भी परेशान करे पर उस पर अपना ध्यान नहीं जाने देते।’
डाक्टर साहब बोल-‘हां, यह तो सही है पर सभी जगह थोड़े ही नकली सामान मिल रहा है।’
हमने कहा-‘आपकी बात सही है पर हम करें क्या? आधा आपने डराया और आधा इन टीवी वालोें ने। जैसे आपकी सलाह के बाद हमने योग साधना शुरु की वैसे ही बाहर का खाना भी बंद कर दिया है।’
डाक्टर साहब बोले-‘ आप अपने स्वास्थ्य के प्रति आप सजग है, यह अच्छी बात है। वैसे आप बहुत दिनों से घर नहीं आये।’
हमने हंसते हुए कहा-‘डाक्टर साहब, आपके घर आने से बचने के लिये तो रोज सुबह इतनी मेहनत करते हैं। पहले आपकी और अब टीवी वालों की चेतावनी को इसलिये ही याद रखते हैं क्योंकि हमें आपके घर आने से डर लगता है। अनेक बार तो बुखार और जुकान की बीमारियों से स्वतः ही निपटते हैं क्योंकि सोचते हैं कि हमने जो खराब खाना खाया है उसका दुष्प्रभाव कम होते ही सब ठीक हो जायेगा।’
डाक्टर साहब हंस पड़े-हां, वैसे भी हम छोटी मोटी बीमारियों का इलाज करते हैं पर बड़ी बीमारी के लिये तो बड़े डाक्टर के पास मरीज को भेजना ही पड़ता है।’
हमने बातों ही बातों में उनसे पूछा-‘डाक्टर साहब आप नकली खून की पहचान कर सकते हैं।’
वह एकदम बोले-‘हम तो होम्योपैथी के डाक्टर हैं। इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते अलबत्ता टीवी पर देखा तो हैरान रह गये।’
हमने कहा-‘मतलब यह है कि कभी किसी को बड़ी बीमारी हो और उसमें दूसरे का खून शरीर में देना जरूरी हो तो आपके पास न आयें। आपने तो हमारी उम्मीद ही तोड़ दी।’
डाक्टर साहब बोले-‘आपकी बात सुनकर मेरा ध्यान अपने चचेरे भाई की तरफ चला गया है। एक किडनी खराब होने के कारण वह एक अस्पताल में भर्ती है और उसे निकाला जाने वाला है। उसके लिये भी खून की जरूरत है। मैं अभी जाकर अपने दूसरे चचेरे भाई को फोन कर कहता हूं कि जरा देखभाल कर खून ले आये।’
डाक्टर साहब के चेहरे पर चिंता के भाव आ गये और वह शीघ्र वहां से चले गये। एक डाक्टर की आंखों में ऐसे चिंता के भाव देखकर हमें हैरानी हुई साथ ही यह चिंता भी होने लगी कि कहीं हमें अपने या किसी अन्य के लिये खून की जरूरत हुई तो क्या करेंगे? ऐसे में हमें सिवाय इसके कुछ नहीं सूझता तो फिर योग साधना का विचार आता है। सोचने लगे कि थोड़ी योग साधना से छोटी बीमारियों को ठीक कर लेते हैं तो क्यों न कल से अधिक अधिक कर बड़ी बीमारियों को अपने से दूर रखने का प्रयास करें। हालांकि कभी कभी लगता है कि इनसे अच्छा तो टीवी देखना ही बंद कर दें। वह बहुत सारी चिंतायें देने लगता है। कहा भी गया है कि ‘चिंता सम नास्ति शरीरं शोषणम्।’
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hindi aritcle, hindi laghu katha, hindi vyangya, खून, डाक्टर, बीमारी, मनोरंजन, हिंदी साहित्य

हिन्दी के कवि और शायर बिना पढ़े ही गीता पर लिखते हैं-हिन्दी आलेख (Hindi poet writes on without reading the Gita – Hindi article)


              अक्सर अनेक कवितायें, शायरियों गीत, और गद्य रचनायें हमारे सामने आती हैं जिसमें भारतीय धर्म ग्रंथों के साथ ही अन्य धर्मों की पवित्र पुस्तकें भूलकर इंसान से प्रेम करने का संदेश शामिल होता है। जिन कवियों और शायरों को देशभक्ति, एकता और धार्मिक सद्भावना सुसज्जित कर अपनी रचनाओं में दिखानी होती है वह अक्सर भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों के साथ ही अन्य धार्मिक ग्रंथों पर भी बरसने लगते हैं। इस पर कोई आपत्ति नहीं करता क्योंकि अपने देश के लोगों का यह रवैया है कि चलो हमारे साथ दूसरे धर्म की पुस्तक को भी भुलाने की बात तो कही। हमारा कान पकड़ तो दूसरे का भी तो नहीं छोड़ा।
              अगर कोई कवि या शायर अकेली यह बात कहे कि श्री रामायण या श्री रामचरित मानस पढ़ना छोड़ दो, श्रीगीता और वेद पुराण और श्रीगीता भूल जाओ तो उस पर हाहाकार मच जायेगा। लोग उस पर छद्म धर्मनिरपेक्ष होने का आरोप लगा देंगे। अगर उसने किसी अन्य धर्म का नाम लिया तो उस पर सांप्रदायिक होने का आरोप लग जायेगा। अगर भारतीय अध्यात्म ग्रंथों के साथ अन्य धर्म की पुस्तकों को त्यागने की बात कोई शायर, कवि या निबंधकार कहता है तो कोई उस पर ध्यान नहीं देता। चलो हमें काना कहा तो दूसरे को भी तो एक आंख वाला कहा।
                अगर कोई अन्य भारतीय धर्मग्रंथ की बात कहे तो हम भी मुंह  फेर सकते हैं पर जब मामला श्रीगीता का हो तब बात हमें कुछ जमती नहीं। हमें याद है कि बचपन में हमने जब हिंदी का प्रारंम्भिक ज्ञान प्राप्त किया था तब महाभारत ग्रंथ पढ़ते समय हमने श्रीगीता को पढ़ा था तब समझ में नहीं आया, पर कहते हैं कि बचपन में कोई बात भले ही समझ में न आये पर उसका अर्थ कहीं न कहीं आदमी के जेहन में रहता है। यही हाल हमारे साथ श्रीगीता का हुआ। अन्य किसी धर्मग्रंथ से जब भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथ की तुलना किसी फिल्मी या साहित्यक गीत, कविता, शायरी या आलेख में होती तो हम सहजता से लेते पर श्रीगीता का नाम आते ही असहज होते हैं। जब हिंदी का पूर्णता से ज्ञान हुआ तब पता लगा कि यह दुनियां की इकलौती ऐसी पुस्तक है जिसमें ज्ञान और विज्ञान है। समय के साथ हम भी चलते रहे पर श्रीगीता का ज्ञान कहीं न कहीं हमारे मस्तिष्क में रहा। इस पर अनेक लेख समाचार पत्रों में भेजे पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। तब हम सोचते थे कि हो सकता है कि हमारे लिखे में कमी हो।

               इधर जब से अंतर्जाल पर लिखने का सौभाग्य मिला तो हमने सोचा कि चलो यहां अपनी अध्यात्मिक भूख भी मिटा लो। ऐसा करते हुए हमारा ध्यान श्रीगीता की तरफ जाना स्वाभाविक था। सच बात तो यह है कि अंतर्जाल पर लिखने से पहले हम इतना नहीं लिखते थे पर कहते हैं कि लिखते लिखते लव हो जाये। जब भी अवसर मिलता है श्रीगीता पर अवश्य लिखते हैं और यही लिखते लिखते हमें ऐसा लग रहा है कि या तो हम ही कुछ दिमाग से विचलित हैं या फिर शायर और कवि लोग ही सतही रूप से लिखते रहे हैं। एक तरह से वह कार्ल माक्र्स और अंग्रेजों के चेलों की संगत में नारे और वाद ढोने आदी हो गये हैं।
                नारों और वाद पर चलने के आदी हो चुके इस समाज से यह आशा ही नहीं करना चाहिये कि वह कवियों और शायरों की चालाकियों को समझकर उनकी योग्यता पर उंगली उठाये। हम तो दूसरी बात कहते हैं कि जिस विषय पर आप जानते नहीं उस पर नहीं लिखें। हमने केवल भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथ ही पढ़े हैं इसलिये उन पर लिखते हैं-वह भी सकारात्मक पक्ष में। न तो हमने विदेशी लेखकों को पढ़ा है न ही गैर भारतीय धर्म ग्रंथों को देखा है इसलिये उन पर नहीं लिखते। उनकी आलोचना भी नहीं करते क्योंकि उर्दू शायरों की यह प्रवृत्ति हमें बिल्कुल नहीं भाती कि बिना जाने ही किसी विषय पर भी कुछ लिखने लगो।
एक सवाल हमारे दिमाग में आता है कि अगर कोई अन्य धर्म का भारतीय व्यक्ति भारतीय धर्म ग्रंथ पर कुछ प्रतिकूल बात कहता है तो हम उस पर चढ़ दौड़ते हैं चाहे भले ही उसने अपने धर्म ग्रंथ पर भी प्रतिकूल लिखा या कहा हो पर अगर कोई भारतीय धर्म का व्यक्ति ऐसा करे तो उसे हम सामान्य कहकर नजरअंदाज करते हैं-क्या यह हमारी बौद्धिका संकीर्णता का प्रमाण नहीं है।
              दरअसल हुआ यह है कि उर्दू शायरों की लच्छेदार शायरियों से प्रभावित होकर जब देश के लोग वाह वाह करने लगे होंगे तो तो हिंदी कवि भी इसी राह पर चल पड़े होंगे। इसमें भी एक पैंच हैं। भले ही उर्दू और हिंदी समान भाषायें लगती हैं पर दोनों का भाव अलग है। एक बार धर्म को लेकर मामला बढ़ गया था तब एक विद्वान ने कहा कि अंग्रेजी में रिलीजन शब्द का भाव सीमित है पर हिंदी में धर्म शब्द का भाव बहुत व्यापक है। यही हाल उर्दू का है। उर्दू का प्यार शब्द दैहिक संबंधों तक ही सीमित है जबकि हिंदी का प्रेम शब्द इतना व्यापक है कि उसे इंसान के अलावा सर्वशक्तिमान और अन्य जीवों से भी जोड़ जाता है और उसे तभी समझा जा सकता है जब हमारे अपने आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति आस्था हो। मुख्य बात संकल्प की है और हिंदी के प्रेम शब्द का उच्चारण करते ही हमारे अंदर समस्त जीवों के प्रति दया, करुणा और सहृदयता का भाव आता है।

                बात कहां से शुरु हुई और कहां पहुंच गयी। उर्दू शायरों में केवल श्रोताओं और लेखकों में सतही भाव पैदा करने की ललक होती है। इसके विपरीत हिंदी कवियों में इसके साथ ही अध्यात्मिक ज्ञान जाग्रत करने का भाव भी पैदा होता है। मगर उर्दू शायरों की सफलता ने हिंदी कवियों को भी पथभ्रष्ट कर दिया है। यही कारण है कि कबीर, रहीम, तुलसी और मीरा के बाद फिर कोई कवि रत्न पैदा ही नहीं हुआ। यह शिकायत नहीं है और न ही किसी कवि विशेष के विरुद्ध प्रचार है बल्कि अपनी बात कहने का अंतर्जाल पर कहने का जो अवसर मिला है उसका लाभ उठाने का एक प्रयास भर है। हमें तो हर पाठक और लेखक प्रिय है। जो लिखने और पढ़ने में परिश्रम करते हैं। परिश्रम करने वालों का प्रेम करते हुए उनका सम्मान करना चाहिये- श्रीगीता को पढ़ने और समझने के बाद हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। शेष फिर कभी

…………………………………

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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2.शब्दलेख सारथि
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वह कौनसी तराजू है-हिन्दी व्यंग्य कविता (taraju-hasya kavita)


कामयाबी की कीमत
मुद्रा में आंकी जाने लगी है।
इज्जत और दिल के चैन का
मोल लोग भूल गये हैं
ढेर सारी दौलत एकत्रित कर
प्रतिष्ठा का भ्रम पाले
अपने पांव तले
दूसरे इंसान को कुचलने की चाहत
हर इंसान में जगी है।
…………………………
वह कौनसी तराजू हैं
जिसमें इंसान की इज्जत
और दिल का चैन तुल जाये।
दौलत के ढेर कितने भी बड़े हों
फिर भी उनमें कोई द्रव्य नहीं है
जिसमें दिल का अहसास उसमें घुल जाये।
………………………..

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
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4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

पहरेदार-हिंदी लघुकथा/ कहानी (paharedar-a short hindi story)


एक बेकार आदमी साक्षात्कार देने के लिये जा रहा था। रास्ते में उसका एक बेकार घूम रहा मित्र मिल गया। उसने उससे पूछा-‘कहां जा रहा है?
उसने जवाब दिया कि -‘साक्षात्कार के लिये जा रहा हूं। इतने सारे आवेदन भेजता हूं मुश्किल से ही बुलावा आया है।’
मित्र ने कहा-‘अरे, तू मेरी बात सुन!’
उसने जवाब दिया-‘यार, तुम फिर कभी बात करना। अभी मैं जल्दी में हूं!’
मित्र ने कहा-‘पर यह तो बता! किस पद के लिये साक्षात्कार देने जा रहा है।’
उसने कहा-‘‘पहरेदार की नौकरी है। कोई एक सेठ है जो पहरेदारों को नौकरी पर लगाता है।’
उसकी बात सुनकर मित्र ठठाकर हंस पड़ा। उसे अपने मित्र पर गुस्सा आया और पूछा-‘क्या बात है। हंस तो ऐसे रहे हो जैसे कि तुम कहीं के सेठ हो। अरे, तुम भी तो बेकार घूम रहे हो।’
मित्र ने कहा-‘मैं इस बात पर दिखाने के लिये नहीं हंस रहा कि तुम्हें नौकरी मिल जायेगी और मुझे नहीं! बल्कि तुम्हारी हालत पर हंसी आ रही है। अच्छा एक बात बताओ? क्या तम्हें कोई लूट करने का अभ्यास है?’
उसने कहा-‘नहीं!’
मित्र ने पूछा-‘कहीं लूट करवाने का अनुभव है?’
उसने कहा-‘नहीं!
मित्र ने कहा-‘इसलिये ही हंस रहा हूं। आजकल पहरेदार में यह गुण होना जरूरी है कि वह खुद लूटने का अपराध न कर अपने मालिक को लुटवा दे। लुटेरों के साथ अपनी सैटिंग इस तरह रखे कि किसी को आभास भी नहीं हो कि वह उनके साथ शामिल है।’
उसने कहा-‘अगर वह ऐसा न करे तो?’
मित्र ने कहा-‘तो शहीद हो जायेगा पर उसके परिवार के हाथ कुछ नहीं आयेगा। अलबत्ता मालिक उसे उसके मरने पर एक दिन के लिये याद कर लेगा!’
उसने कहा-‘यह क्या बकवास है?’
मित्र ने कहा’-‘शहीद हो जाओगे तब पता लगेगा। अरे, आजकल लूटने वाले गिरोह बहुत हैं। सबसे पहले पहरेदार के साथ सैटिंग करते हैं और वह न माने तो सबसे पहले उसे ही उड़ाते हैं। इसलिये ही कह रहा हूं कि जहां तुम्हारी पहरेदार की नौकरी लगेगी वहां ऐसा खतरा होगा। तुम जाओ! मुझे क्या परवाह? हां, जब शहीद हो जाओगे तब तुम्हारे नाम को मैं भी याद कर दो शब्द बोल दिया करूंगा।’
मित्र चला गया और वह भी अपने घर वापस लौट पड़ा।
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‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

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कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

यूँ हुआ सच का सामना-हास्य व्यंग्य (yoon hua sach ka samna-hindi satire)


कविराज अपने घर से दूर उस पार्क में पहुंच गये। घर में बिजली नहीं थी और बरसात की वजह से सारी सड़कें सराबोर हो गयी थीं। पिछली बार एक बरसात में कविराज एक गड्ढे में गिर चुके थे। उस समय आसपास खड़े लोग भी उन पर हंस रहे थे। एक जानपहचान वाले ने हंसने वालों से कहा-तरस खाओ। हंस रहे हो! शर्म नहीं आती। एक कवि जो तुम्हारे लिये हमेशा सरस, समधुर और हास्य कवितायें ढूंढता हुआ सड़कों पर घूमता है अगर इस गड्ढे में गिर गया और तुम हंस रहे हो।’
एक ने कहा-‘इसलिये तो खुशी हो रही है। यह कवि लोग बेकार की कवितायें लिखते हैं।’
इतने में कविराज उठकर खड़े हो गये और बोले-‘आप लोग हंसे तो मुझे भी हंसने का अवसर मिलना चाहिये। आज इस गड्ढे में गिरने के विषय पर हास्य कविता लिखूंगा। आप लोग जरा अपना परिचय दीजिये।’
उन्होंने अपनी जेब से कागज और पेन निकाली जो अभी पानी से बची हुई थी और इधर वह लोग भाग निकले। जानपहचान वाले ने कहा-‘क्या मूर्ख कवि हो। हास्य कविता लिखने की बात करते हुए उनसे परिचय मांग रहे थे। हास्य मेें उनका सच लिख दोगे तो उनकी तो हालत खराब हो जायेगी।
कविराज ने कहा-‘पर मैं उनका पूरा परिचय तो नहीं मांग रहा था। भला उनका सच हास्य कविता में कैसे लिख सकता था?’
जानपहचान वाले ने कहा-‘तुम पूरा परिचय नहीं मांग रहे थे पर उनके दिमाग में तो अपना परिचय आ गया न! अपने सच पर कोई नजर नहीं डाले इसलिये वह भाग गये। सच से समाज भागता है।’
बात आयी गयी मगर कविराज ने उस दिन जब सड़कों पर लबालब पानी भरा देखा तो एक पार्क में चले गये। वहां भी भला बैठने की जगह कहां थी। उसी समय उन्हें एक पेड़ के नीच चबूतरा दिखाई दिया। वह उस पर बैठ गये। सोचा आज कुछ बरसात पर लिख लें। मगर कमबख्त वहां भी चैन कहां। पार्क के ठीक बाहर बाहर सड़क के किनारे एक चाय वाले का ठेला लगता था। अनेक बार लोग उस पार्क में खड़े होकर उसी चबूतरे पर बैठकर चाय पीते थे। आज बरसात की वजह से उसके पास लोग अधिक नहीं थे। इधर कविराज बैठे उधर से चाय वाले ने बाहर से चिल्ला कर पूछा-‘साहब, चाय दूं क्या?
कविराज ने कहा-‘नहीं भई, हम तो घर से पीकर आये हैं।’
उस ठेले वाले ने कहा-‘हमें क्या पता कि आपको चाय नहीं चाहिये। इस पार्क में इस पेड़ के नीचे तो हमसे चाय पीने वाले ही बैठते हैं।’
कविराज ने कहा-‘यह चबूतरा तुमने खरीदा है कि या पूरा पार्क ही तुम्हारे नाम पर लिख दिया गया है। हम यहां बैठकर कवितायें लिखेंगे।
कविराज ने अपनी जेब से डायरी निकाली और उस पर कुछ लिखने लगे। इधर बरसात बंद होने के बाद चाय के आशिक भी वहां आने लगे। एक साथ चार लोग आये और उसी चबूतरे पर बैठ गये एक तो कविराज के पास ही बैठ गया। उसने चाय वाले को चार चाय बनाने का आदेश दिया और कविराज के पास बैठकर उनका लिखा देखने लगा।
कविराज ने चश्में से उसे झांक कर देखा और पूछा-‘क्या देख रहे हो?’
उसने कहा-‘बस ऐसे ही नजर पड़ गयी, पर लगता है जैसे कि आप कविता सविता लिख रहे हैं।’
कविराज ने पूछा-‘यह कविता तो समझ में आ गया पर यह सविता क्या है? कहीं तुम इंटरनेट पर वह वेबसाईट तो नहीं देखते जो बदनाम हो गयी है।’
वह आदमी बोला-‘नहीं, पर मेरा छोटा भाई शायद देखता है। मैंने तो ऐसे ही कह दिया। अलबत्ता आपकी कविता बहुत अच्छी है। इसका शीर्षक क्या लिखेंगे?’
कविराज ने पूछा-‘तुमने यह कविता पढ़ ली जो कह रहे हो अच्छी है!’
उसने जवाब दिया-‘नहीं, ऐसे ही कह दिया।’
कविराज ने कहा-‘यही इसमें लिख रहा हूं कि लोग बिना देखे प्रशंसा या निंदा करते हैं। इसका शीर्षक होगा ‘सच का सामना’। बहरहाल आप अपना परिचय दें तो अच्छा रहेगा।’
वह घबड़ा गया और बोला-‘अरे, मुझे एक काम याद आ गया। फिर आता हूं।’
उसने अपने तीनों साथियों को भी इशारा किया और चाय वाले से कहा-‘अभी चाय मत लाना। हम अपना एक काम कर आ रहे हैं।’
चाय वाले का मूंह सूख गया पर वह कह कुछ नहीं पा रहा था। इधर उस आदमी के साथ आये तीन आदमियों ने भी यह वार्तालाप सुना और उसे अपने अनुकूल न पाकर अपने साथी की बात मानकर चले गये।
इतने में एक अन्य सज्जन आये। वह सिगरेट का धूंआ छोड़ते हुए कविराज के पास बैठ गये और चाय वाले से बोले-‘जरा, एक चाय बनाना।’
इधर कविराज अपनी कविता लिखने में लगे हुए थे। वह आदमी उनको लिखते देख पास में आ गया।
कविराज ने उसकी तरफ मूंह कर पूछा-‘क्या देख रहे हो।’
उन सज्जन ने कहा-‘यही कि आप क्या लिख रहे हैं?’
कविराज ने कहा-‘यह तो सच का सामना लिख रहा हूं। अच्छा हुआ आप मिल गये। बहुत देर से एक सिगरेट पीने वाला देख रहा था क्योंकि इससे कौन कौनसी बीमारियां होती है उसे बताना था और यह भी पूछना था कि इसे पीने में मजा क्या आता है? आप अपना परिचय दीजिये।ं’
उस आदमी ने एकदम सिगरेट फैंक दी और बोला-‘अरे, यह तो मैं पहली बार पीकर देख रहा हूं। अभी सामने से सामान लाता हूं फिर आपको परिचय दूंगा।’
उसने भी चाय वाले को चाय के लिये मना किया और खिसक गया। अब तो चाय वाले का धैर्य जवाब दे गया और बोला-‘साहब, यह हो क्या रहा है? यह मेरे ग्राहक क्यों भाग रहे हैं? महाराज, अगर आप नाराज हैं तो मुफ्त चाय पी लीजिये। कम से कम मेरा धंधा बर्बाद मत करिये। वैसे आपने उन लोगों से बात क्या की थी? जो चले गये।’
कविराज ने कहा-‘मैंने तो बस यही कहा था कि आजकल दूध भी साबुन वाले सामान से बनने लगा है। वैसे कुछ दिल पहले एक आदमी तुम्हारी चाय की शिकायत कर रहा था। उसने बताया कि तुम नकली दूध से चाय बनाते हो।’
चाय वाला घबड़ा गया और बोला-‘अब, दूध तो मेरे घर पर बनता नहीं है। जैसा आता है उससे चाय बनाता हूं। दूध की वैसे मुझे पहचान अधिक नहीं है। सच कहता हूं कि इसमें मेरी गलती नहीं है।’
कविराज ने उसकी तरफ घूरकर देखा और कहा-‘तुम्हें अच्छी तरह पता है कि दूध में मिलावट है।’
चाय वाला बोला-‘पर साहब, यह बात कहीं आप लिख मत देना। मैं गरीब आदमी हूं बर्बाद हो जाऊंगा। आप कौनसी अखबार के पत्रकार हैं?’
पता नहीं कविराज को क्या सूझा बोले-‘नहीं, हम तो मामूली कवि हैं। वैसे भी हम यहां बैठकर अपने पैसे का हिसाब कर रहे थे।’
चाय वाले का रुख एकदम बदल गया और बोला-‘उंह! फूटो यहां से! तुम जैसे छत्तीस कवि देखे हैं। चुपचाप यहां से चले जाओ। वरना बुलाता हूं इस सड़क के ठेकेदार से जो हमसे हर रोज पचास रुपये सुरक्षा कर वसूल करता है। वह बहुत खतरनाक आदमी है। ख्वामख्वाह में हमें और हमारे ग्राहकों को डरा रहे हो।’
कविराज हंसते हुए उठ गये। वह पीछे से बोला-‘फिर दिखना नहीं!
वह तेजी से चले जा रहे थे तो एक परिचित बोला-‘क्या बात है कविराज, भागे जा रहे हो। जरा बात तो कर लो।’
कविराज बोले-‘अभी नहीं। एक काम से जा रहा हूं।
उन परिचित ने पूछा-‘काम से जा रहे हो यह तो बता दिया। अब यह भी बता दो आ कहां से रहे हो?’
कविराज ने कहा-‘सच का सामना करके आ रहा हूं। अखबार में पढ़ना तो समझ में आ जायेगा।’
उन परिचित ने कहा-‘हां, अगर छप गया तो! वैसे मैंने सुना है कि आजकल तुम्हारी रचनायें अनेक अखबारों के कूड़ेदान की शोभा बढ़ा रही हैं।’
कविराज ने अपने कदम पीछे खींचे और उसके पास जाकर कहा-‘हां, यह भी सच है। एक दिन में दो बार सच से सामना हुआ है। अब यह भी लिखना पड़ेगा।’
वह सज्जन बोले-‘नहीं यार, तुम तो बुरा मान गये। कहीं हमारा नाम मत लिख देना। कहीं अखबार वालों ने छाप दिया तो बदनामी होगी। यकीनन तुम उसमें हमारे लिये कुछ अच्छा तो लिखने से रहे। अगर यह सच का सामना करके कहीं लिख दिया तो हो सकता है कि कोई सनसनी फैलने की उम्मीद में छाप दे। देखो इससे तुम्हारी और हमारी दोस्ती में फर्क पड़ सकता है!
कविराज धीरे धीरे बुदबुदाये-‘तीसरी बार!’ फिर अपने रास्ते चले गये।
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हंसी के खजाने की तलाश-हिंदी शायरी (hansi ka khazana-hindi shayri)


अपने पर ही यूं हंस लेता हूं।
कोई मेरी इस हंसी से
अपना दर्द मिटा ले
कुछ लम्हें इसलिये उधार देता हूं।
मसखरा समझ ले जमाना तो क्या
अपनी ही मसखरी में
अपनी जिंदगी जी लेता हूं।
रोती सूरतें लिये लोग
खुश दिखने की कोशिश में
जिंदगी गुजार देते हैं
फिर भी किसी से हंसी
उधार नहीं लेते हैं
अपने घमंड में जी रहे लोग
दूसरे के दर्द पर सभी को हंसना आता है
उनकी हालतों पर रोने के लिये
मेरे पास भी दर्द कहां रह जाता है
जमाने के पास कहां है हंसी का खजाना
इसलिये अपनी अंदर ही
उसकी तलाश कर लेता हूं।

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दिखावे की दोस्ती -हिंदी शायरी (dikhave ki dosti-hindi shayri)



बेसुरा वह गाने लगे।
किसी के समझ न आये
ऐसे शब्द गुनगनाने लगे।
फिर भी बजी जोरदार तालियां
मन में लोग बक रहे थे गालियां
आकाओं ने जुटाई थी किराये की भीड़
अपनी महफिल सजाने के लिये
इसलिये लोगों ने अपने मूंह सिल लिये
पहले हाथों से चुकाई ताली बजाकर कीमत
दाम में पाया खाना फिर खाने लगे।
………………………
कमअक्ल दोस्त से
अक्लमंद दुश्मन भला
ऐसे ही नहीं कहा जाता है।
दुश्मन पर रहती है नजर हमेशा
दोस्त का पीठ पर वार करना
ऐसे ही नहीं सहा जाता है।
जमाने में खंजर लिये घूम रहा है हर कोई
अकेले भी तो रहा नहीं जाता है
इसलिये दिखाने के लिये
बहुत से लोगों को दोस्त कहा जाता है।

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दूसरे की दौलत को धूल समझें-चाणक्य नीति (dusre ki daulat ko dhool samjhen-chankya niti


यो मोहन्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि कामिनी।
स तस्य वशगो मूढो भूत्वा नृत्येत् क्रीडा-शकुन्तवत्।।

       हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य के अनुसार कुछ पुरुषों में विवेक नहीं होता और वह सुंदर स्त्री से व्यवहार करते हुए यह भ्रम पाल लेते हैं कि वह वह उस पर मोहित है। वह भ्रमित पुरुष फिर उस स्त्री के लिये ऐसे ही हो जाता है जैसे कि मनोरंजन के लिये पाला गया पक्षी।
मातृवत् परदारांश्चय परद्रव्याणि लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स नरः।।

हिंदी में भावार्थ-दूसरों की पत्नी को माता तथा धन को मिट्टी के ढेले की भांति समझना चाहिये। इस संसार में वह यथार्थ रूप से मनुष्य है जो सारे प्राणियों को अपनी आत्मा की भांति देखने वाला मानता है।
       वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर व्यक्ति को अपने अंदर विवेक धारण करना चाहिये। कुछ लोग स्त्रियों के विषय में अत्यंत भ्रमित होते हैं। उनको लगता है कि कोई स्त्री उनसे अच्छी तरह बात कर रही है तो इसका आशय यह है कि वह उन पर मोहित है-यह उनका केवल एक भ्रम है। स्त्रियों का स्वभाव तथा वाणी कोमल होती है और इसी कारण वह हमेशा मृदभाषा से पुरुषों का मन मोह लेती हैं पर कुछ अज्ञानी और अविवेकी पुरुष यह भ्रम पाल कर अपने आपको ही कष्ट देते हैं कि वह उनके प्रति आकर्षित है।
       नीति विशारद चाणक्य ऐसे व्यक्तियों की तरफ संकेत करते हुए कहते हैं कि दूसरे की स्त्री को माता के समान समझना चाहिये। उसी तरह दूसरे के धन को मिट्टी का ढेला समझना चाहिये। वह यह भी कहते हैं कि इस संसार में वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो सभी लोगों को देह नहीं बल्कि इस संसार में दृष्टा की तरह उपस्थित आत्मा ही मानता है।
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कल्पित भाभी, कामयाबी की चाभी,-व्यंग्य कविता kalpit bhabhi, kamyabi ki chabhi-vyangya kavita


कवि देवर ने लिखी
अपनी प्यारी भाभी पर कविता
‘बहुत सुंदर और सुशील हैं मेरी भाभी
मेरी कामयाबी की है चाभी।
जब कहीं जाता था साक्षात्कार के लिये
वही मेरा सामान बनाती
अटैची में कपड़े सजाती
मेरी कामयाबी के लिये
सर्वशक्तिमान की मूर्ति के सामने
दिल लगाकर आरती गाती
भाई के साथ फेरे लगाकर आई
जैसे मैने नई मां पाई
दिल करता है मां संबोधित करूं न कि भाभी।’
लेकर पहुंचा वह मित्र के पास
राय मांगने तो उसने कहा
‘किस जमाने को कवि हो
उगते नहीं जैसे डूबते रवि हो
भला आज के जमाने में ऐसी
पुरातनपंथी कवितायें को लिखता है
इसलिये तू फ्लाप दिखता है
अगर जमाने में वाह वाह चाहिये
तो पात्र बना अपनी कविता में
असली नहीं बल्कि कल्पित भाभी।
उसे रोज होटलों में भेज
जहां सजे उसकी अय्याशी की सेज
नाम देशी रखना
पर लगाना अंग्रेजी टखना
हो जायेगी हिट, तेरी भी भाभी।
कामयाबी की इमारत में
घुसने के लिये यही है तेरे लिए चाभी।’
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मिलावट और नकल का आतंक-हास्य व्यंग्य(nakal aur milavat par hindi vyangya)


आतंक कोई बाहर विचरने वाला पशु नहीं बल्कि मानव के मन में रहने वाला भाव है जो उसके सामने तब उपस्थित होता है जब वह अपने लिये कठिन हालत पाता है। पूरे विश्व के साथ भारत में भी आंतक फैले होने की बात की जाती है पर अन्य से हमारी स्थिति थोड़ी अलग है। दूसरे देश कुछ लोगों द्वारा उठायी गयी बंदूकों के कारण आतंक से ग्रसित हैं पर भारत में तो यह आतंक का एक हिस्सा भर है। यह अलग बात है कि हमारे देश के बुद्धिमान बस उसी बंदूक वाले आतंक पर ही लिखते हैं।
बहुत दिन से हम देख रहे हैं कि हम सारे जमाने के आतंक पर लिख रहे हैं पर अपने मन में जिनका आंतक है उसकी भी चर्चा कर लें। सच बात तो यह है हम नकली नोटों और मिलावटी सामान से बहुत आतंकित हैं।
बाजार में जब किसी को पांच सौ का नोट देते हैं तो वह ऐसे देखता है कि जैसे कि किसी अपराधी ने उसे अपने चरित्र का प्रमाणपत्र देखने के लिये दिया हो। जब तक वह दुकानदार लेकर अपनी पेटी में वह नोट डालकर सौदा और बचे हुए पैसे वापस नहीं करता तब तक मन में जो उथल पुथल होती है उसमें हम कितनी बार घायल होते हैं यह पता ही नहीं-याद रहे पश्चिमी चिकित्सा शास्त्र यह कहता है कि तनाव से जो मनुष्य के दिमाग को क्षति पहुंचती है उसका पता उसे तत्काल नही चलता।
हमने अनेक दुकानदारों के सामने ताल ठौंकी-अरे, भईया हम यह नोट ए.टी.एम से ताजा ताजा निकाल कर लाये हैं।’
वह कहते हैं कि ‘साहब, आजकल तो ए़.टी.एम. से भी नकली नोट निकल आते हैं और वह सभी ताजा ही होते हैं।’
उस समय सारा आत्मविश्वास ध्वस्त नजर आता है। ऐसा लगता है कि जैसे बम फटा हो और हम अपनी किस्मत से साबित निकल गये।
यही मिलावटी सामान का हाल है। बाजार में खाने के नाम पर दिन-ब-दिन डरपोक होते जा रहे हैं। इधर टीवी पर सुना कि मिलावटी दूध में ऐसा सामान मिलाया जा रहा है जिसमें एक फीसदी भी शरीर के लिये पाचक नहीं हैं। मतलब यह कि पूरा का पूरा कचड़ा है जो पेट में जमा होता है और समय आने पर अपना दुष्प्रभाव दिखाता है। अभी उस दिन समाचार सुना कि एक तेरहवीं में विषाक्त खोये की मिठाई खाकर 1200 लोग एक साथ बीमार पड़ गये। उस समय हमारी सांसें उखड़ रही थी। उसी दौरान एक मित्र का फोन आया और उसने पूछा-‘क्या हालचाल हैं? तुम्हारे ब्लाग हिट हुए कि नहीं। अगर हो गये हों तो मिठाई खिला देना। हम अंधेरे में बैठे हैं और आज तुम्हारा ब्लाग नहीं देख पा रहे।’
हमने कहा-‘अच्छा है बैठे रहो। अगर लाईट आ गयी तो तुम टीवी समाचार भी जरूर देखोगे। वहां जब मिठाई खाकर बीमार पड़ने वालों की खबर सुनोगे तो फिर मिठाई नहीं मांगोगे बल्कि मिठाई खाना ही भूल जाओगे।’
मित्र ने कहा-‘’तुम चिंता मत करो। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। तुम कभी हिट नहीं बनोगे इसलिये मिठाई भी नहीं मिलेगी सो खतरा कम है। पर यार, वाकई बाहर खाने में हम दिमाग तनाव मे आ जाता है कि कहीं गलत चीज तो नहीं खा ली। उस दिन एक जगह चाय पी और बीच में छोड़ कर दुकानदार को पैसे दिये और उससे कहा‘यह हमारी इंसानियत ही समझना कि हमने पैसे दिये वरना तुम्हारा दूध खराब है उसमें बदबू आ रही है।’ उसने भी हमसे पैसे ले लिये। हैरानी की बात यह है कि लोग उसी चाय को पी रहे थे किसी ने उससे कुछ कहा नहीं।’’
पिछली दो दीवाली हमने बिना खोये की मिठाई खाये बिना ही मनाई हैं। कहां हमें उस दिन मिठाई खाने का शौक रहता था पर मिलावट के आतंक ने उसे छीन लिया। वजह यह है कि इधर दीवाली के दिन शुरु हुए उधर टीवी पर मिलावटी दूध के समाचार शुरु हो जाते हैं कहते हैं कि
1-शहरों में खोवा आ कहां से रहा है जबकि उस क्षेत्र में इतनी भैंसे ही नहीं्र है।
2-खोये में तमाम ऐसे रसायन मिले होते हैं जो पेट की आंतों में भारी हानि पहुंचाते हैं।
3-घी भी पूरी तरह से नकली बन रहा है।’
ऐसे समाचार जो दिमाग में आंतक फैलाते हैं वह बारूद के आतंक से कहीं कम नहीं होते। आप ही बताईये खोय की विषाक्त मिठाई खाकर 1200 लोग एक साथ बीमार हों तो उसे भला छोटी घटना माना जा सकता है? क्या जरूरी है कि दुनियां के किसी हिस्से में बारूद से लोग मरे उसे ही आतंकवादी घटना माना जायेगा?
समस्या यह नहीं है कि दूध, घी या खोवा मिलावटी सामान बन रहा है बल्कि हल्दी, मिर्ची और शक्कर में मिलावट की बात भी सामने आती है। इतना ही नहीं अब तो यह भी कहने लगे है कि सब्जियों और फलों में भी दवाईयां मिलाकर उन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है और वह भी कम मनुष्य देह के लिये कम खतरनाक नहीं है।

जब बारूदी आतंक का समाचार चारों तरफ गूंज रहा होता है तब कुछ देर उस पर ध्यान अधिक रहता है पर जब अपने जीवन में कदम कदम पर नकली और खतरनाक सामान से सरोकार होने की आशंका है तो वह भी अब कम आतंकित नहीं करती। मतलब यह है कि चारों तरफ आंतक है पर हमारे देश के बुद्धिमान लोगों की आदत है कि विदेश के बताये रास्ते पर ही अपने विषय चुंनते हैं। हम इससे थोड़ा अलग हैं और हर विषय को एक आईना बनाकर अपने आसपास देखते हैं तब लगता है कि इस विश्व में बारूदी आतंक खत्म वैसे ही न होने वाला पर जो यह नकल और मिलावट का यह अप्रत्यक्ष आतंक है उसके परिणाम उससे कहीं अधिक गंभीर हैं। सोचने का अपना अपना तरीका है कोई सहमत न हो यह अलग बात है।
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शराबी ईमेल-हास्य व्यंग्य (hasya vyangya)


उस ईमेल में सबसे ऊपर लगे फोटो में शराब की बोतलें सजी थीं। नीचे संदेश में लिखा था कि ‘कृपया इस ईमेल को ध्वस्त न करें। इसे पढ़ें और अपने अन्य मित्रों को भेजें। इस ईमेल को पढ़कर एक आदमी ने इसे ध्वस्त कर दिया तो अगले दिन ही सुबह उसके घर में रखी शराब की बोतल अपने आप ही गिर कर टूट गयी।
एक आदमी ने यह ईमेल पांच लोगों को भेजा तो उसे सुबह ही मुफ्त पांच बोतलों का पार्सल मिला।
एक आदमी ने इसे दस लोगों को भेजा तो उसे उसके मित्र ने एक बढ़िया काकटेल पार्टी दी।
एक अधिकारी ने इसे पंद्रह लोगों को भेजा तो अगले दिन ही उसे प्रमोशन मिल गया।’
यह एक मित्र ने भेजा था और साथ में लिखा था कि इसे मजाक न समझें। हम बहुत गंभीर हो गये। इस बात को लेकर कि हम जैसे व्यक्ति के साथ इस तरह का मजाक करना खतरनाक भी हो सकता था। छहः वर्ष पहले छूटी लत वापस भी आ सकती थी पर लिखने का यह नशा जो बचपन से लगा है उसकी वजह से बचने की संभावना थी पर फ्री में शराब की बोतल का मोह छोड़ना मुश्किल था।
अगले दिन हम एक शराब की दुकान के पास से गुजर रहे थे तो ईमेल की याद आ गयी तो वहीं खड़े हो गये। दरअसल हमें उस फोटो की याद आ गयी। पीछे से एक मित्र ने टोककर कहा-‘चले जाओ, खरीद लो बोतल। डरते किसलिये हो। कोई नहीं देख रहा सिवाय हमारे। हां अगर घर बुलाकर एकाध पैग पिला दो तो हम किसी से नहीं कहेंगे। वैसे तुम कवि हो और इसका सेवन तुम्हारे लिये फायदेमंद है। अच्छी कवितायें लिख लोगे।
हमने कहा-‘क्या इस शराब वाले ने तुम्हें कोई कमीशन दिया है जो प्रचार कर रहे हो? हम तो बस बोतलें देख रहे थे। वैसे ही सजी थीं जैसे कि हमारे ईमेल पर। हमने पांच लोगों को ईमेल भेजा है और सोच रहे थे कि शायद यह शराब वाला हमें मुफ्त में दो चार शराब की बोतलें देगा। सुबह से कोई पार्सल तो मिला नहीं।’
वह मित्र घूरकर हमें देखने लगा और बोला-‘यह क्या कह रहे हो?’
हमने कहा-‘सच कह रहे हैं हमने पांच लोगों को ईमेल किया है। हमें एक ईमेल मिला था जिसमें लिखा था कि यही ईमेल अगर मित्रों को भेजोगे तो कुछ न कुछ मिलेगा। हमने सोचा कि ब्लाग तो हमारे हिट होने से रहे तो हो सकता है कि शराब की एकाध बोतल ही फ्री में मिल जाये।’
उसे हमने पूरी कथा सुनाई तो वह एकदम चीख पड़ा-‘क्या बात है शराब के नाम पर अभी भी तुम बहकने लगते हो। कहते हो कि छोड़ दी है फिर यह कैसा स्वांग रचा है। लगता है कि इंटरनेट ने तुम्हारे दिमाग के सारे बल्ब फ्यूज कर दिये हैं।’
हमने कहा-‘सच कह रहे हैं हमने पांच लोगों को ईमेल भेजा है।’
’’अच्छा-‘’वह घूरकर बोला-‘आज से बीस साल पहले हमने तुम्हें एक सर्वशक्तिमान की एक दरबार के लिये एक पर्चा दिया था कि इसे छपवाकर सौ लोगों को दो तो फायदा होगा तब तुमने कहा था कि यह सब ढकोसला है और आज ईमेल पर शराब का संदेश भेजने की बात आ गयी तो सब भूल गये। क्या जमाना आया गया। आदमी सर्वशक्तिमान के संदेश छपवाता नहीं है पर शराब के ईमेल भेजने को तैयार है।’
तब हमें याद आया कि इस तरह के पर्चे पहले छपते थे कि अमुक जगह सर्वशक्तिमान के अमुक रूप की तस्वीर प्रकट हुई है। उसके बारे में यह पर्चा छपवाकर सौ लोगों को भेजो तो सारी समस्या हल हो जायेगी। दरअसल यह सर्वशक्तिमानों के दरबारों का प्रचार होता था। उसमें यह भी बताया जाता था कि अमुक जगह अमुक तस्वीर मिली तो जिसने प्रचार किया उसको लाभ हुआ जिसने वह पर्चे छपवाने की बजाय फैंक दिया तो उसे हानि हुई। हमने सतर्कता से मित्र को जवाब दिया-‘वह पर्चे छपवाने में पैसे खर्च होते हैं जबकि हमारा इंटरनेट कनेक्शन ब्राडबैंड वाला है इसलिये कोई अलग से पैसा नहीं देना पड़ता। इसलिये प्रयास करने में क्या बुराई है।’
मित्र बोला-‘हां, इससे इंटरनेट के कनेक्शन बने रहेंगे यह क्या कम है? उनकी कमाई नहीं होगी। फिर यह पूरब और पश्चिम का मेल कैसे हो रहा है? कहां अध्यात्म की बातें करते हो और कहां यह शराब की दुकान पर झांक रहे हो। निकल लो। किसी चाहने वाले ने देख लिया तो उसके सामने तुम्हारी पोल खुल जायेगी।’
हम सहम गये। हमारे दिमाग से ईमेल वाली बात निकल ही नहीं रही थी। पांच लोगों को ईमेल किया था पर कहीं से कोई पार्सल आदि नहीं मिला। फिर सोचा कि-‘यार, यह इंटरनेट पर पूरब पश्चिम का मेल कुछ इस तरह ही होगा। प्रचार का तरीका पुराना पर इष्ट तो नया होगा। कहां सर्वशक्तिमान के स्वरूप आदमी को प्रिय थे अब तो यह शराब ही प्रिय है।’

हमने गलत नहीं सोचा। टीवी, कूलर,फ्रिज, और गाड़ियों का अविष्कार इस देश में नहीं हुआ पर उपलब्ध सभी को हैं। हां, उनके उपयोग का तरीका जरूर पश्चिमी देशों से नहीं मिलता। कारें तो एक से एक सुंदर आ रही हैं पर रोड पुरानी और खटारा है। फ्र्रिज है पर लाईट की उठक बैठक उसके साथ लगी हुई है। टीवी आया पर विदेश के लोग उसका आनंद उठाते हैं जबकि हम लोग चिपक जाते हैं। फिर यह सभी चीजें चाहिये पर दहेज के रूप में। मतलब यह कि हम अपने चलने फिरने का ढर्रा नहीं बदल सकते पर इस्तेमाल करने वाली चीजों का बदल देते हैं। यही हाल उस शराब की ईमेल का है। पहले सर्वशक्तिमान की दरबारें कमाई का जरिया होती थी तो अब शराब की दुकानें हो गयी हैं इसलिये प्रचार के लिये उनका ही तो फोटा लगेगा न!
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‘सविता भाभी’ से मस्त राम पीछे- व्यंग्य आलेख ‘savita bhabhi’ se pichhe ‘mastram’-hindi vyangya article


कुछ दिन पहले तक शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि ‘सविता भाभी’ नाम की कोई वेबसाइट होगी जिस पर ‘लोकप्रिय’ सामग्री भी हो सकती है। इस पर प्रतिबंध लगने के बाद उसकी खोज खबर बढ़ गयी है। सच कहें तो इस ‘सविता भाभी’ अपने पाठों को हिट कराने का जोरदार नुस्खा बनता नजर आ रहा है-यह लेख भी इसी उद्देश्य से हम लिख रहे हैं कि चलो कुछ और हिट बटोर लो क्योंकि हम कथित रूप से उस तरह का लोकप्रिय साहित्य लिखने में अपने को असमर्थ पाते हैं-हां, अगर कहीं से जोरदार पैसे की आफर आ जाये तो जोरदार कहानियां हैं पर मु्फ्त में तो यही लिखेंगे। नामा आ जाये तो नाम वैसे ही होता है भले बदनाम हो जाये।
किस्से पर किस्सा याद आ ही जाता है। हमने अपने ब्लाग में अपने नाम के साथ मस्तराम शब्द जोड़ा तो पाया कि वह हिट ले रहा है। उसी तरह हमने अंग्रेजी और हिंदी में मस्तराम के लेबल जोड़े। उससे कुछ पाठ हिट होने लगे। एक बार एक ब्लाग लेखक ने इस पर आपत्ति की तो हमने पता किया कि मस्तराम साहित्य में लोकप्रिय सामग्री लिखी जाता है अलबत्ता उसकी लोकप्रियता का दायदा उत्तरप्रदेश तक ही सीमित है। इधर मध्यप्रदेश में लोगों को अधिक जानकारी नहीं है। बहरहाल हमारी नानी हमसे मस्तराम कहती थी जो किसी भी आपत्ति को स्वीकार न कर हम उसका उपयोग करते हैं-उसमें सामग्री यही होती है।
इधर सविता भाभी ने मस्तराम को पीछे छोड़ दिया है। अब क्या करें? उसके उपयोग के लिये हमारे पास कोई तर्क नहीं है। हमारे पूरे खानदान में किसी महिला का नाम सविता नहीं है जिसे झूठमूठ ही आदर्श के रूप में प्रस्तुत कर ब्लाग का नाम लिखे या पाठों पर लेबल लगायें। ‘सविता भाभी’ प्रतिबंध से पहले कितनी लोकप्रिय थी यह तो पता नहीं पर इस समय सर्च इंजिनों यह शब्द सबसे अधिक खोजा गया है। कहते हैं कि किसी भी चीज या आदमी को दबाओ उतनी ही शिद्दत से ऊपर उठ कर आती है। यही हाल ‘सविता भाभी’ का है। एक काल्पनिक स्त्री पात्र और उसका नाम इस समय इंटरनेट प्रयोक्ताओं के लिये खोजबीन का विषय हो गया है।
इंटरनेट पर पोर्न वेबसाईटों का जाल कभी खत्म नहीं हो सकता। देश के अधिकतर प्रयोक्ता ऐसा वैसा देखने के लिये ही अधिक उत्सुक हैं और उनकी यही इच्छा संचार बाजार का यह एक बहुत बड़ा आधार बनी हुई हैं।
एक मजे की बात है कि हमेशा ही नारी स्वतंत्रता और और विकास के पक्षधर सार्वजनिक रूप से अश्लीलता रोकने का स्वतंत्रता के नाम पर तो विरोध करते हैं पर अंतर्जाल पर ‘सविता भाभी’ की रोक पर कोई सामने नहीं आया। लगभग यही स्थिति उनकी है जो परंपरावादी हैं और अश्लीलता रोकने का समर्थन करते हैं वह भी इसके समर्थन में आगे नहीं आये।
इधर अनेक अंतर्जाल लेखकों ने यह बता दिया है कि ‘सविता भाभी’ पर कैसे पहुंचा जा सकता है। हमने यह वेबसाईट देखने का प्रयास नहीं किया मगर इस पर लगा प्रतिबंध हमारे लिये कौतुक और जिज्ञासा का विषय है। इधर हमारे एक पाठ ने जमकर हिट पाये तो वह जिज्ञासा बढ़ गयी।
हम भी लगे गुणा भाग करने। पाया कि मस्तराम उसके मुकाबले एकदम फ्लाप है।
उस दिन इस लेखक ने सविता भाभी वेबसाईट पर लगे प्रतिबंध पर एक आलेख लिखा। उसका नाम भी पहली बार अखबार में देखा था। वह पाठ ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर लिखा गया। हिंदी के सभी ब्लाग एक जगह दिखाने वाले एक फोरम ब्लाग वाणी पर इस लेखक के केवल ब्लाग स्पाट के ही ब्लाग दिखते हैं। वहां ब्लाग लेखक मित्रों की आवाजाही होती है और आम पाठक तो हमारे पाठों को सर्च इंजिनों में सीधे ही पढ़ते हैं। वहां सविता भाभी पर लिखा गया पाठ फ्लाप हो गया। उसे हमने शाम को डालाा था और अगली सुबह वही पाठ हमें सुस्त पड़ा दिखा। जैसे कह रहा हो कि तुमने शीर्षक में ही अगर ‘सविता भाभी’ लिखा होता तो मेरा यह हाल न होता।’
हमने उसे पुचकारा और शाम तक इंतजार करने के लिये कहा। शाम को आते ही उस पाठ को वर्डप्रेस के प्लेट फार्म ‘हिंदी पत्रिका’ पर ढकेल दिया। उस पर शीर्षक हिंदी और अंग्रेजी में लिखा-यह अलग बात है कि हिंदी में ‘सविता भाभी’ छूट गया पर अंग्रेजी में डालना नहीं भूले।
अपने दायित्व की इति श्री करने के बाद हमने उससे मूंह फेर लिया। डेढ़ दिन बाद जब वर्डप्रेस के डेशबोर्ड को खोला तो वह पाठों के शीर्ष पर मौजूद होकर वह हमें चिढ़ा रहा था-देखो हिंदी में लिखना था ‘सविता भाभी पर प्रतिबंध’ और लिख दिया केवल ‘पर प्रतिबंध’। हमने अंदर घुसकर देखा तो आंखें फटी रह गयी। कहां वह पाठ छह पाठकों की संख्या लेकर ब्लागवाणी में सुपर फ्लाप था और कहां वह डेढ़ सौ के पास पहुंच गया। हिंदी में शब्द डालने का अफसोस इसलिये नहीं रहा क्योंकि उसे अंग्रेजी के शब्द से ही खोजा गया था।
फिर हमने मस्तराम की खोजबीन की तो देखा कि उसके आंकड़े नगण्य थे। मस्तराम नाम की अंतर्जाल पर लोकप्रियता ठीक ठाक है। हम तो हैरान होते हैं जब मस्तरामी ब्लाग के आंकड़े देखते हैं। कुछ मत लिखो पर उस पाठकों का आगमन यथावत है। हमें याद है जब पत्रकार थे तब हमारे साथ एक बाजार संपादक हुआ करते थे। उनके शीर्ष ऐसे ही होते थे। ‘मिर्ची भड़की’, ‘सोना लुढ़का’, ‘चांदी उछली’ और ‘तेल पिछड़ा’। उनकी अनुपस्थिति में हम उनका काम देखते थे। तब ऐसे ही शीर्षक लगाते थे। उनकी देखा देखी हम अपने खेल समाचारों पर कभी कभी खेल संपादक के रूप में हम भी लिख देते थे कि‘अमुक टीम ने अमुक को पीटा’। इस बात को अनेक बरस हो गये हैं पर याद तो आती है। इस घटनाक्रम पर हमारे दिमाग में एक ही शीर्षक आ रहा था कि ‘सविता भाभी’ ने ‘मस्तराम’को पीटा।
आगे क्या होगा पता नहीं पर इस देश में अंतर्जाल पर व्यवसाय ढूंढ रहे लोग इसे नुस्खे के रूप में अपना सकते हैं। आप देखना कि ‘सविता भाभी’ नाम के अनेक उत्पाद और पाठ यहां दिख सकते हैं। प्रतिबंध लगा यह एक अलग विषय है पर जिस तरह अखबार में पढ़कर लोग इस पर आ रहे हैं उस पर विचार करना चाहिये कि कहीं इस तरह के प्रयास तो नहीं हो रहे कि इसके नाम के सहारे अंतर्जाल पर बाजार की नैया पर लगायी जाये क्योंकि अंतर्जाल का बाजर नियमित रूप से बना रहे इसके लिये टेलीफोन कंपनियों से विज्ञापन पाने वाले व्यवसायिक इस तरह के प्रयास करेंगे। मस्तराम से अधिक आशा नहीं की जा सकती।
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श्रीगीता संदेश-गैर धर्म गुणवान होने पर भी दु:खदायी (shri gita sandesh)


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।
हिंदी में भावार्थ-
श्रीगीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि अपने धर्म से पराया धर्म श्रेष्ठ लगता है तब उसको कभी श्रेय न प्रदान करें। अपना धर्म संपन्न नहीं दिखता पर दूसरे का धर्म तो हमेशा भयावह परिणाम देने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग धर्म को लेकर बहस करते हैं पर उसका मतलब नहीं समझते। हर टीवी चैनल, अखबार और पत्रिका को उठाकर देख लें धर्म को लेकर तमाम सतही बातें लिखी मिल जायेंगी जिनका सार तो विषय सामग्री प्रस्तुत करने वाले स्वयं नहीं जानते न ही पाठक या दर्शक समझने का प्रयास करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि धर्म बिकने, खरीदने, और लाभ हानि वाली व्यापारिक वस्तु हो गयी है। अनेक प्रचार माध्यम बकायदा धर्मपरिवर्तित कर जिंदगी में भौतिक उपलब्धि प्राप्त करने वाले लोगों का प्रचार करते हैं। इतना ही नहीं धर्म परिवर्तित कर विवाह करने पर लड़कियों को वीरांगना करार दिया जाता है। यह केवल प्रचार है जिससे बुद्धिमान भारतीय तत्व ज्ञान से दिखने वाले कटु सत्यों से भागते हुए करते हैं क्योंकि भारतीय अध्यात्म ज्ञान जीवन के ऐसे रहस्यों को उद्घाटित करने के सत्यों से भरा पड़ा है जिसको जानने वाला धर्म न पकड़ता है न छोड़ता है।
हमारे भारतीय अध्यात्म में स्पष्ट रूप से धर्म को कर्म से जोड़ा गया न कि कर्मकांडों से। कर्मकांडों और रूढ़ियों को लेकर भारतीय धर्मों की आलोचना करने वाले मायावी लोग उस तत्व ज्ञान को जानते नहीं है पर उनको यह पता है कि अगर उसका प्रचार हो गया तो फिर उनकी माया धरी की धरी रह जायेगी।
एक मजे की बात है कि धर्म परिवर्तित दूसरा धर्म अपनाने वाली युवतियां विवाह कर लेती हैं इसमें बुराई नहीं है पर उसके बाद उनको जब दूसरे धर्म के संस्कार अपनाने पड़ते हैं तब उन पर क्या गुजरती है इस पर कोई प्रकाश नहीं डालता। दरअसल फिल्मों की कहानियों को केवल विवाह तक ही सीमित देखने वाले बुद्धिजीवी उससे आगे कभी सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि विवाह के बाद जब पराये धर्म के कर्मकांडों को मन मारकर अपनाना पड़ता है तब उन युवतियों की क्या कहानी होती है इस पर कोई भी आज का महापुरुष नहीं लिखता।
दरअसल धर्म दिखाने या छूने की वस्तु नहीं बल्कि हृदय में की जाने वाली अनुभूति है। बचपन से जिस धर्म के संस्कार पड़ गये उनसे पीछा नहीं छूटता विवाह या अन्य किसी भौतिक प्राप्ति के लिये धर्म परिवर्तन तो लोग कर लेते हैं उसके बाद जो उनपर तनाव आता है उसकी चर्चा भी गाहे बगाहे करते हैं। एक मजे की बात है कि कथित आधुनिक लोग धर्म परिवर्तन करते हैं पर उसके साथ अपना नाम और इष्ट भी परिवर्तित कर लेते हैं। मतलब वह दूसरे धर्म के के बंधन को ओढ़ते है और दावा आजादी का करते हैं। सच बात तो यह है कि धर्म का आशय सही मायने में भारतीय अध्यात्म में ही है जिसका आशय है कि बिना लोभ लालच और कामना के भगवान की भक्ति करते हुए जीवन व्यतीत करना न कि उनके वशीभूत होकर धर्म मानना। दूसरी बात यह है कि धर्म परिवर्तित करने वाले अपनी पहचान गुम होने के भय से अपना पुराना नाम भी साथ लगाते हैं। दूसरे के धर्म के क्या कर्मकांड हैं किसी को पता नहीं होता? इसलिये उस धर्म के लोग मजाक उड़ाते हैं जिसे अपनाया गया है।

संत कबीरदास और चाणक्य भी कहते हैं कि दूसरे धर्म या समुदाय का आसरा लेना हमेशा दुःख का कारण होता है। किसी भी व्यक्ति या समाज को बाहर से देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि उसका धर्म कैसा है या वह उसे कितना मानता है। वह तो जब कोई नया आदमी धर्म परिवर्तन कर उस धर्म में जाता है तब उसे पता लगता है कि सच क्या है? इसके बावजूद यह सच है कि दूसरा धर्म नहीं अपनाना चाहिये क्योंकि उससे तनाव बढ़ता है। हालांकि आजकल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षा लाभों के लिये अनेक लोग धर्म बदल लेते हैं। वह भले ही दावा करें कि उनको ज्ञान प्राप्त हुआ है पर यह झूठ है। जिसे ज्ञान प्राप्त होता है वह धर्म से परे होकर योग साधना, ध्यान और भक्ति में रहते हुए निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया करता है न कि धर्म छोड़ने या पकड़ने के चक्कर में पड़ता है।
हां एक बात महत्वपूर्ण है कि भारतीय धर्म व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं क्योंकि इसमें किसी प्रकार की भाषा या उस पर आधारित नाम या कर्मकांड की बाध्यता नहीं होती। हमारा श्रीगीता ग्रंथ दुनिया का अकेला ऐसा धर्म ग्रंथ है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की भी चर्चा है। इसमें निरंकार परमात्मा की निष्काम भक्ति के साथ ही अन्य जीवों पर निष्प्रयोजन दया करने का भी संदेश है। यह मनुष्य को विकास की तरफ जाने के लिये प्रेरित करने के साथ विनाश से भी रोकता है।
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बरसात के साथ धार्मिक चालाकी-हिंदी व्यंग्य (hindi vyangya)


अध्यात्म नितांत एक निजी विषय है पर जब उसकी चौराहे पर चर्चा होने लगे तो समझ लो कि कहीं न कहीं उसकी आड़ में कोई अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ा रहा है तो कोई अपना व्यवसाय कर रहा है। जब कहीं सार्वजनिक रूप से प्रार्थनायें सभायें होती हैं तब यह लगता है कि लोग दिखावा अधिक कर रहे हैं। आज के संचार युग में तो यह कहना कठिन है कि धर्म का बाजार लग रहा है या बाजार ही धर्म बना रहा है। ऐसा लगता है कि पहले लोगों के पास मनोरंजन के अधिक साधन नहीं थे इसलिये धार्मिक पात्रों की व्याख्या करना ही धर्म प्रचार मान लिया गया। इस आड़ में तमाम तरह के कर्मकांड और अंधविश्वास सृजित किये गये ताकि उनकी आड़ में धरती पर उत्पन्न अनावश्यक भौतिक साधान बिक सकें जिसके माध्यम से आदमी की जेब से पैसा निकाला जाये।
अब तो प्रचार युग आ गया है और लोग अध्यात्मिक आधार पर इसलिये अपना अस्तित्व बनाये रखना चाहते है ताकि सामाजिक, आर्थिक तथा वैचारिक संगठनों में अपनी छबि बनाकर पुजते रहें। वह आधुनिक बाजार में आधुनिक अध्यात्मिक व्यापारी बनकर चलना चाहते हैं पर उनकी दुकान सामान उनका बरसो पुराना ही है जिसमें केवल धार्मिक प्रतीक और कर्मकांड ही हैं। जब कहीं हिंसा हो तो वहां लोग शांति के लिये सामूहिक प्रार्थनायें करने के लिये एकत्रित होते हैं। उनको प्रचार माध्यमों में बहुत दिखाया जाता है। जब यह कहना कठिन हो जाता है कि बाजार को ऐसी खबरें चाहिये इसलिये यह सब हो रहा है या सभी विचारधारा के ज्ञानियों को प्रचार चाहिये इसलिये वह इस तरह की सामूहिक प्रार्थनायें करते हैं।
हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि पूजा, भक्ति या साधना तो एकांत में ही परिणाम देने वाली होती है।’ इसलिये जब इस तरह के सामूहिक कार्यक्रम होते हैं तो वह दिखावा लगते हैं। आजकल अनेक स्थानों पर बरसात बुलाने के लिये प्रार्थना सभायें हो रही हैं। हर तरह की धार्मिक विचाराधारा के स्वयंभू ज्ञानी लोगों से बरसात के लिये सामूहिक प्रार्थनाऐं आयोजित कर रहे हैं। प्रचार भी उनको खूब मिल रहा है। हमें इस पर आपत्ति नहीं है पर अपने जैसे लोगों से अपनी बात करने का एक अलग ही मजा है। कुछ लोग है जो इसमें हो रही चालाकियों को देखते हैं।
हम जरा इस बरसात के मौसम पर विचार करें तो लगेगा कि उसका आना तय है। देश के कुछ इलाकों में उसका प्रवेश हो चुका है और अन्य तरफ मानसून बढ़ रहा है।

उस दिन मई की एक शाम बाजार में तेज बरसात से बचने के लिये हम एक मंदिर में बैठ गये। उस समय तेज अंाधी के साथ बरसात हो रही थी। हालांकि गर्मी कम नहीं थी और बरसात से राहत मिली पर एक शंका मन में थी कि यह मानसून के लिये संकट का कारण बन सकता है। प्रकृत्ति का अपना खेल है और उस पर किसी का नियंत्रण नहीं है। मनुष्य यह चाहता है कि प्रकृति उसके अनुरूप चले पर पर उसके साथ खिलवाड़ भी करता है। मई में उस दिन हुई बरसात के अगले कुछ दिनों में ही अखबारों में हमने पढ़ा कि बरसात देर से आयेगी। विशेषज्ञों ने बरसात कम होने की भविष्यवाणी की है-औसत से सात प्रतिशत कम यानि 93 प्रतिशत होने का अनुमान है।

ऐसा नहीं है कि बरसात हमेशा समय पर आती हो-कभी विलंब से तो कभी जल्दी भी आती है-पिछली बार कीर्तिमान भंजक वर्षा हुई थी। बरसात जब तक नहीं आती तब आदमी व्यग्र रहता है। ऐसे में उसके जज्बातों से खेलना बहुत सहज होता है। उसका ध्यान गर्मी पर है तो उसे भुनाओ। कहने के लिये तो कह रहे हैं कि हम सर्वशक्तिमान को बरसात भेजने के लिये पुकार रहे हैं। पर उसका समय पर चर्चा नहीं करते। जब बरसात आने के संकेत हो चुके हैं तब ऐसी प्रार्थनाओं के समाचार खूब आ रहे हैं। वैसे तो फरवरी के आसपास भी ऐसे समाचार आ गये थे कि इस बार बरसात देर से आयेगी और कम होगी। तब ऐसी प्रार्थना सभायें क्यों नहीं की गयी। उस समय नहीं तो मई में ही कर लेते।
सर्वशक्तिमान के सभी रूपों के चेले चालाक हैं। उस समय करते तो कौन लोग उनको याद रखते। जब एक दो दिन या सप्ताह में बरसात आने वाली तब ऐसी प्रार्थना सभायें इसलिये कर रहे हैं ताकि जब हों तो लोग माने कि उनके ‘ज्ञानियों’ को कितनी सिद्धि प्राप्त है। बहरहाल हम देख रहे हैं कि बाजार के प्रबंधक और सर्वशक्तिमान के यह आधुनिक दूत एक जैसे चालाक हैं। टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकाऐं तो व्यवसायिक हैं पर सर्वशक्तिमान के सभी रूपों के यह ज्ञानी चेले भी क्या व्यवसायी है? उनकी इस तरह की चालाकियों से तो यही लगता है?
प्रसंगवश याद आया एक पाठक ने अपनी टिप्पणी में पूछा था कि ‘आपके लेखों से यह पता ही नहीं लगता कि आप किस धर्म या भगवान की बात कर रहे हैं?
दरअसल इसका कारण यह है कि हम सभी तरह की विचारधाराओं पर अपने विचार रखते हैं। किसी एक का तयशुदा नाम लेने पर लोग कहते हैं कि तुम उनके नाम पर लिखो तो जाने। जहां तक हमारी जानकारी सर्वशक्तिमान शब्द किसी भी खास विचारधारा से नहीं जुड़ा यही स्थिति उसके ठेकेदार शब्द ं की भी है। इसलिये कोई यह नहीं कह सकता कि हमारी बात करते हो उनकी करके देखो तो जानो।
अगर सभी विरोध करने लगें तो हम भी कह सकते हैं कि तुम सर्वशक्तिमान और ठेकेदार शब्द से अपने को क्यों जोड़ते हो? दरअसल हमने देखा कि यह समाजों के ठेकेदारो का काम ही चालाकी पर चल रहा है और लोगों को जज्बात से भड़काने और बहलाने के काम में यह सब सक्षम होते हैं। हम इसलिये अपनी बात व्यंजना विधा में कहते हैं। हां, बरसात की पहली बूंदों का इंतजार हमें भी है। अब यह गर्मी सहना कठिन हो गया है। कभी कभी आकाश में बिना बरसते बादल देखते हैं तो भी गुस्सा आता है कि यह हमारी धरती की गर्मी नष्ट कर रहे हैं जो कि बरसात को खींचती है।
……………………….

यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

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गर्मी पर लिखी कविता बरसात धो गयी-व्यंग्य कविता


गर्मी पर लिखने बैठे कविता
बिजली गुल हो गयी।
बाहर चलती आंधी ने
मचाया शोर
गरज कर बरसा पानी
बरसात के इंतजार में रचे थे शब्द
बहते पसीने का दिखाया था दर्द
मानसून की पहली बरसात
सब धो गयी।
गर्मी पर लिखी कविता बस यूं खो गयी।
…………………
गर्मी पर लिखकर पहुंचा
वह कवि सम्मेलन में
बीच में बरसात हो गयी।
मंच पर आकर बोला वह
‘मेरे गुरु ने कहा था कि
कभी मौसम पर मत लिखना
चाहे जब बदल जाता है
कभी चुभोता है नश्तर
कभी सहलाता है
लिखकर निकला था घर से
गर्मी पर ताजा कविता
बीच रास्ते में पड़ी बरसात
लिखा कागज अब मेरी समझ में नहीं आता
धूप और पसीने से
पैदा हुए जज्बात
सुनाने का मन था
पर मानसून की पहली बरसात ने
इतना आनंदित किया कि
मेरी अक्ल सो गयी।
फिर सुनाऊंगा कभी फिर कविता
अभी तो मेरी कविता बरसात धो गयी।

…………………………..

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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विदुर नीति-कम ताकत के होते गुस्सा करना तकलीफदेह


द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी कहते हैं कि जो अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। गृहस्थ होकर अकर्मण्यता और सन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है।

द्वाविमौ कपटकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणी।
यश्चाधनः कामयते पश्च कुप्यत्यनीश्वरः।।
हिंदी में भावार्थ-
अल्पमात्रा में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन होते हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और कांटों के समान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -किसी भी कार्य को प्रारंभ करने पहले यह आत्ममंथन करना चाहिए कि हम उसके लिये या वह हमारे लिये उपयुक्त है कि नहीं। अपनी शक्ति से अधिक का कार्य और कोई वस्तु पाने की कामना करना स्वयं के लिये ही कष्टदायी होता है।
न केवल अपनी शक्ति का बल्कि अपने स्वभाव का भी अवलोकन करना चाहिये। अनेक लोग क्रोध करने पर स्वतः ही कांपने लगते हैं तो अनेक लोग निराशा होने पर मानसिक संताप का शिकार होते हैं। अतः इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि हमारे जिस मानसिक भाव का बोझ हमारी यह देह नहीं उठा पाती उसे अपने मन में ही न आने दें।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब हम कोई काम या कामना करते हैं तो उस समय हमें अपनी आर्थिक, मानसिक और सामाजिक स्थिति का भी अवलोकन करना चाहिये। कभी कभी गुस्से या प्रसन्नता के कारण हमारा रक्त प्रवाह तीव्र हो जाता है और हम अपने मूल स्वभाव के विपरीत कोई कार्य करने के लिये तैयार हो जाते हैं और जिसका हमें बाद में दुःख भी होता है। अतः इसलिये विशेष अवसरों पर आत्ममुग्ध होने की बजाय आत्म चिंतन करते हुए कार्य करना चाहिए।
…………………………….

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ख़ुद भटके,द्रूसरे को देते रास्ते का पता-व्यंग्य कविता


अपनी मंजिल पर
कभी वह पहुंचे नहीं।
चले कहीं के लिये थे
पहुंचे गये कहीं।
भटकाव सोच का था
कभी रास्ते से वह उतर जाते
कभी खो जाता रास्ता कहीं।
……………………..
अपने रास्ते से वह भटके
अपने ही गम में वह लटके
कोई उपाय न देखकर
बूढ़े बरगद के नीचे धूनि रमाई।

दूसरे को रास्ता बताने लगे
यूं भीड़ का काफिला बढ़ता गया
जमाना ही उनके जाल में फंसता गया
फिर भी चल रहा है उनका धंधा
कभी आता नहीं मंदा
जब तक लोग भटकते रहेंगे
रास्ते पूछने की कीमत सहेंगे
मंजिल पर पहुंच जायेगा राही
बन नहीं हो जायेगी कमाई।
भ्रम वह सिंहासन है
जिसे सिर पर बिठाया तो
बन गये प्रजा
उस पर बैठे तो बने राजा
सच है सर्वशक्तिमान ने
खूब यह दुनियां बनाई

……………………………
नोट-यह व्यंग्य काल्पनिक तथा इसका किसी व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है और किसी से इसका विषय मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।

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मनुस्मृतिः युवती को पति स्वयं चुनने का अधिकार


देवदतां पतिर्भार्यां विन्दते नेच्छत्यात्मनः।
तां साध्वीं बिभृयान्नित्यं दीनां प्रियमाचरन्।।
हिंदी में भावार्थ-
पुरुष स्वयं की इच्छा ने नहीं वरन् देवताओं द्वारा पूर्व निर्धारित स्त्री को ही पत्नी के रूप में प्राप्त करता है। उन्हीं देवताओं के प्रसन्न करने तथा उनके प्रति आस्था प्रदर्शित करने के लिये पुरुष का कर्तव्य है कि वह अपनी आश्रिता पत्नी का भरण भोषण करे।
अलंकारं नाददीत पित्र्यं कन्या स्वयंवरा।
मातृकभ्रातृदतं वा स्तेना स्वाद्यदि तं हरेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
कोई युवती अपने लिये वर स्वयं ही चुनकर विवाह कर सकती है पर उसे अपने माता पिता तथा भाई द्वारा दिये गये आभूषणों को ले जाने का अधिकार नहीं है। स्वयं वर चुनकर विवाह करने पर अगर वह आभूषण ले जाती है तो उसे अनुचित ही कहा जायेगा।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कहते हैं कि भारतीय समाज में कन्या को स्वयं अपना वर चुनने या विवाह करने का अधिकार नहीं है-यह आरोप पूरी तरह से मिथ्या है। मनु महाराज के समय में यह अधिकार था शायद इसी कारण उन्होंने इसकी चर्चा की है पर इतना अवश्य है कि उस पर उन्होंने यह विचार व्यक्त किया है कि जो कन्या युवती ऐसा करती है अपने माता, पिता तथा भाई द्वारा समस समय पर उपहार रूप में प्रदान आभूषण ले जाने का अधिकार नहीं है। यह स्वाभाविक भी है। जब माता पिता तथा भाई अपने कर्तव्य का निर्वाह करने के लिये अपनी कन्या युवती के लिये वर का चयन करते हैं तो वह अपनी प्रतिष्ठा के लिये उपहार स्वरूप दहेज भी देते हैं पर जहां उनको ऐसा अधिकार नहीं मिलता वहां वह अपने उपहार देने के कर्तव्य से विमुख भी हो सकते हैं। अगर किसी युवती ने अपनी इच्छा से वर चुनकर विवाह करने का निर्णय किया है तो उसे अपने माता पिता तथा भाई द्वारा दिये गये आभूषण लौटा देना चाहिये वरना उसके इस कृत्य को अनुचित कहा जायेगा। हां अगर माता पिता और भाई अगर उन आभूषणों को वापस नहीं चाहते तो फिर कन्या पर कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता है। आजकल की परिस्थतियों में प्रेम विवाह का प्रचलन बढ़ रहा है और कोई जगह तो माता पिता और भाई न केवल उसे स्वीकृति देते हैं पर अपनी क्षमतानुसार उपहार भी देते हैं।
हालांकि इस तरह का प्रतिबंध मनु महाराज ने लगाया जरूर है पर उन्होंने कन्या युवती के स्वयं वर चुनने के अधिकार को स्वीकार भी किया है।

इसके अलावा प्रत्येक पुरुष को यह समझना चाहिये कि उसे जो युवती पत्नी के रूप में प्राप्त हुई है वह देवताओं द्वारा तय किये भाग्य के कारण प्राप्त हुई है। इसलिये उसका यह कर्तव्य है कि वह अपनी पत्नी का भरण भोषण का कर्तव्य पूरा करे। उसे यह कर्तव्य देवताओं के प्रति आस्था प्रदर्शित करते हुए उनको प्रसन्न करने के लिये करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि जो लोग अपनी पत्नी का भरण भोषण अच्छी तरह नहीं करते देवता उनसे रुष्ट हो जाते हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

पतंग और क्रिकेट-हास्य कविता hindi vyangya kavita


बेटे ने कहा बाप से
‘पापा मुझे पतंग उड़ाना सिखा दो
कैसे पैच लड़ाते हैं यह दिखा दो
तो बड़ा मजा आयेगा।’

बाप ने कहा बेटे से
‘पतंग उड़ाना है बेकार
इससे गेंद और बल्ला पकड़ ले
तो खेल का खेल
भविष्य का व्यापार हो जायेगा।
मैंने व्यापार में बहुत की तरक्की
पर पतंग उड़ाकर किया
बचपन का वक्त
यह हमेशा याद आयेगा।
बड़ा चोखा धंधा है यह
जीतने पर जमाना उठा लेता सिर पर
हार जाओ तो भी कोई बात नहीं
सम्मान भले न मिले
पर पैसा उससे ज्यादा आयेगा।
दुनियां के किसी देश के
खिलाड़ी को जीतने पर भी
नहीं कोई उसके देश में पूछता
यहां तो हारने पर भी
हर कोई गेंद बल्ले के खिलाड़ी को पूजता
विज्ञापनों के नायक बन जाओ
फिर चाहे कितना भी खराब खेल आओ
बिकता है जिस बाजार में खेल
वह अपने आप टीम में रहने का
बोझ उठायेगा।
हारने पर थकने का बहाना कर लो
फिर भी यह वह खेल है
जो हवाई यात्रा का टिकट दिलायेगा।
जीत हार की चिंता से मुक्त रहो
क्योंकि यह मैदान से बाहर तय हो जायेगा।
भला ऐसा दूसरा खेल कौनसा है
जो व्यापार जैसा मजा दिलायेगा।

…………………….
नोट-यह व्यंग्य काल्पनिक तथा इसका किसी व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है और किसी से इसका विषय मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

क्रिकेट में हार-मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र


बीसीसीआई की क्रिकेट टीम बीस ओवरीय एक दिवसीय प्रतियोगिता में हार गयी और अब पता लगा कि उसमें पांच खिलाड़ी अनफिट थे। टीम जिस तरह अपने मैच खेल रही थी उससे लग तो नहीं रहा था कि वह कप जीत पायेगी पर इस कदर पिटेगी यह आभास भी नहीं था। इससे पहले एक क्लब स्तर की प्रतियोगिता हुई थी। उसमें बीसीसीआई के यह सभी खिलाड़ी बड़े शहरों के नाम पर बनी टीमों के लिये खेले।

कहने वाले तो शुरुआती दौर में ही कह रहे थे कि खिलाड़ी थक गये होंगे इसलिये शायद उनका प्रदर्शन प्रभावित होगा। हुआ भी यही पर इस दलील का विरोध करने वाले कहते हैं कि अन्य देशों के खिलाड़ी भी तो इसमें खेले थे फिर उनका प्रदर्शन प्रभावित क्यों नहीं हुआ? यानि हर तरह से इस हार को स्वाभाविक बताने का प्रयास किया जा रहा है। क्रिकेट अनिश्चताओं का खेल है पर इस आड़ में ऐसी हार के कारण छिप नहीं सकते। हारना एक अलग बात है और खराब खेलना अलग। यहां मुद्दा यह नहीं है कि बीसीसीआई की टीम बीस ओवरीय प्रतियोगता में हारी बल्कि उसका प्रदर्शन इतना खराब रहा कि लोग को रहे हैं कि भारत के किसी भी शहर से कोई टीम उठाकर भेज देते तो वह भी इनसे अच्छा खेलते। नये होने के कारण वह उत्साह से खेलते तो पता लगता कि बीस ओवरीय प्रतियोगता का विश्व कप ही जीत लाये। भारत में खिलाड़ियों की कमी नहीं है। फिर बीस ओवरीय प्रतियोगता तो ऐसी है जिसमें अनुभव वगैरह की तो जरूरत ही नहीं है-इसे तो केवल मनोबल के आधार पर ही जीता जा सकता है।
एक पुराने खिलाड़ी ने बढ़िया टिप्पणी की। उसने कहा कि हम भारतीयों में पैसा पचाने की क्षमता बहुत कम हैं। वर्तमान भारतीय खिलाड़ी इतना पैसा कमा चुके हैं कि वह फिर भूल गये कि वह इसी खेल की दम पर हैं।
वह खिलाड़ी चूंकि पेशवर है इसलिये अन्य सच नहीं कह पाया। जिन खिलाड़ियों को बीस ओवरीय मैचों का स्टार माना जाता था वह इस तरह खेले जैसे कि पचास ओवरों वाला मैच खेल रहे हैं। कहने को तो सभी कह रहे हैं कि हम चुस्त दुरस्त थे और क्लब स्तर की प्रतियोगिता में खेलने की वजह से हमारा खेल प्रभावित नहीं हुआ। दरअसल यह उसी क्लब स्तरीय प्रतियोगिता के दोबारा आयोजन में बाधा न पड़े इसलिये ही कहा जा रहा है। फिर वह उसी प्रतियोगिता में अपनी सदस्यता बनाये रखना चाह रहे हैं। यह खिलाड़ी सभी तरह की गेंदें खेलने में माहिर हैं चाहे शार्टपिच हो या स्पिन पर अब बिचारे शार्टपिच गेंदों का तोड़ ढूंढ रहे हैं। सच बात तो यह है कि चाहे खेल कोई भी हो अगर खिलाड़ी का मन नहीं है तो विपक्षी के दांव पैंच उसके लिये पहाड़ हो जाते हैं। भारतीय खिलाड़ी इतना पैसा कमा चुके थे कि अब उनको अपने परिवारों के लिये समय चाहिये था। इंकार इसलिये नहीं कर सकते थे कि कहीं उनकी जगह शामिल नया खिलाड़ी उसमें छा गया तो इससे भी जायेंगे। खेलना है इसलिये खेले। कह सकते हैं कि हाजिरी देने के लिये खेले। जीतने की खुशी या हारने के गम से परे होकर वह निर्विकार भाव से खेलते दिख रहे थे। मगर यह कोई उच्च स्थिति नहीं थी बल्कि उनके चेहरे पर खेलने की बाध्यता के भाव भी थे जो इस बात को दर्शा रहे थे कि वह न खुश हैं न उत्साहित बल्कि टालू खेल दिखा रहे हैं।
अन्य देशों के खिलाड़ी क्लब स्तर में खेलने के बावजूद यहां भी खेले तो इसलिये कि उनको इतना पैसा नहीं मिलता जितना भारत के खिलाड़ियों को मिलता है। भारतीय खिलाड़ी विज्ञापनों और रैम्पों पर इतना पैसा कमा चुके हैं कि उनका बोझ उठाना अब संभव नहीं था। वह खेल की थकवाट से नहीं बल्कि अपनी आर्थिक परिलब्धियेां का उपयोग न कर पाने की गम का बोझ उठाये हुए थे। सच कहें तो ऐसा लगता है कि इस विश्व में शायद उनके लिये मिलने वाली धनराशि इतनी उपयोगी नहीं थी जितनी क्लब स्तर की प्रतियोगिता से मिली होगी। अन्य देशों के खिलाड़ियों के लिये यह रकम भी बहुत बड़ी होगी इसलिये खेल रहे हैं।
क्रिकेट से देश के लोगों ने अपने जज्बात ख्वामख्वाह जोड़ रखे हैं पर उसके लिये यहां कोई जवाबदेह नहीं है। हार गये तो क्या कर लोगे? हां, लोगों का गुस्सा कम करने के लिये तमाम तरह की सफाई दी जा रही है वह इसलिये कि कहीं वह लोग फिर विरक्त न हो जायें और क्रिकेट का व्यापार कहीं ठप न हो जाये।
अगर खिलाड़ी अनफिट हैं तो फिर अभी बाहर जाने वाली टीम के के लिये उनको कैसे चुन लिया गया। वही कप्तान वही खिलाड़ी!
प्रबंधन के मामले में हमारा देश अप्रतिभाशाली माना जाता है। यह हमारी कमजोरी है। कोई नया बदलाव कहीं करना ही नहीं चाहता। दरअसल क्रिकेट अब बाजार का खेल है-कम से कम भारत में तो यही लगता है। खिलाड़ियों ने विज्ञापन कर रखे होते हैं जो ऐसी प्रतियोगिताओं में समय अधिक दिखाई देते हैं। इसलिये उसमें अभिनय करने वाले खिलाड़ियों का होना जरूरी है अतः अप्रत्यक्ष रूप से कहीं न कहीं यह बात भी देखी जाती है कि बाजार का ध्यान अधिक रखा जाता है फोकटिया दर्शक का कम। एक खिलाड़ी इस टीम में शामिल नहीं हुआ तो वह दर्शक दीर्घा में अन्य खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने पहुंच गया। दरअसल उसके विज्ञापन भी दिख रहे थे और वह यकीनन उनकी वजह से ही अपनी सूरत दिखाने वहां पहुंचा होगा ताकि विज्ञापन दाता उससे खुश रहें। टीवी कैमरा हर मैच में उसका चेहरा अनेक बार दिखाता था। कितनी अच्छी बात लगती है यह बात सुनकर कि इतना बड़ा खिलाड़ी मनोबल बढ़ाने पहुंचा मगर इसके पीछे का सच कौन पढ़ पाता है। यह सब बुरा नहीं है क्योंकि सभी को कमाने का हक है पर आम लोगों को यही सच समझते हुए यह देखना चाहिये। क्रिकेट टीम का खेलना एक व्यवसाय है और उसे बाजार प्रभावित कर सकता है-इससे मान लेना चाहिये। किसी को क्या दोष देना? क्रिकेट वालों को पूरा पैसा मिल रहा है टीम हारे या जीते-तब उनसे यह आशा करना बेकार है कि वह नये और तरोताजा खिलाड़ी भेजकर प्रतियोगिता जीतने का प्रयास कर अपने प्रबंध कौशल का प्रमाण दें। अपने देश में पैसा कमाना महत्वपूर्ण है कि प्रबंध कौशल!
सो टीम हार गयी तो कोई बात नहीं। जिस कप्तान को सिर पर उठाये रखा है उसने कहा है कि कुछ महीने बाद फिर प्रतियोगिता है। उसमें दमखम दिखायेंगे। वहां यह आश्वासन देना ठीक है क्योंकि अगली बार तक लोग इंतजार कर अपना पैसा खर्च कर सकते हैं।
पिछली बीस ओवरीय प्रतियोगिता बीसीसीआई की टीम ने जीती थी। उससे पहले विश्व में हारने की वजह से पूरी टीम की जो किरकिरी हुई वह लोग भूल गये। बीस ओवरीय प्रतियोगिता में बीसीसीआई टीम की पिछली जीत की दो वजहें थी एक तो दूसरी टीमें गंभीरता से नहीं खेली दूसरा भारतीयों पर जीत का कोई दबाव नहीं था। कुछ लोग तो उस समय मान रहे थे कि इस आड़ में भारत में क्रिकेट को दोबारा प्रतिष्ठा दिलाने का योजनाबद्ध प्रयास किया गया है। यह योजना वैसे ही सफल हुई जैसे कि 1983 में एक दिवसीय विश्व क्रिकेट कप में बीसीसीआई की टीम के जीतने पर क्रिकेट का वह प्रारूप भारत में लोकप्रिय हो गया। मतलब पच्चीस साल तक बाजार उस जीत को भुनाता रहा। अब हमारे लिये यह देखने का विषय है कि पिछली बीस ओवरीय प्रतियोगता की जीत को बाजार कब तक भुनाता रहेगा। इस बात तो टीम पिट गयी इसलिये निश्चित रूप से क्रिकेट के इस व्यापर पर बुरा प्रभाव पड़ेगा-चाहे वह एक नंबर को हो या दो नंबर का। देखना है कि इस हार का मनौवैज्ञानिक और आर्थिक रूप से बाजार पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है?
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इस ब्लाग/पत्रिका ने पार की पाठक संख्या पचास हजार-संपादकीय


पाठ पठन/पाठक संख्या पचास हजार पार करने वाला ईपत्रिका इस लेखक का तीसरा ब्लाग/पत्रिका है। इसने हाल ही मैं गूगल के पैज रैंक में चौथा स्थान प्राप्त किया-जो कि इसकी बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसे लेखक के पचास हजार की पाठ पठन/पाठक संख्या पार करने वाले अब तीन ब्लाग हैं-
1. हिंदी पत्रिका
2.शब्द पत्रिका
3.ईपत्रिका
गूगल के पैज रैंक में चार अंक प्राप्त करने वाले अब चार ब्लाग/पत्रिका इस प्रकार हैं-
1. शब्दलेख सारथी
2. हिंदी पत्रिका
3. शब्दलेख पत्रिका
4. ईपत्रिका
आंकड़ों का खेल हमेशा ही दिलचस्प होता है। शब्द पत्रिका ने भी पचास हजार पाठ पठन/पाठक संख्या पार की है पर उसे गूगल की पैज रैंक में तीन अंक प्राप्त हैं जबकि शब्दलेख पत्रिका ने गूगल पैज रैंक में दस में से चार अंक प्राप्त किये हैं पर उसकी संख्या अभी पचास हजार से दूर है। गूगल का पैज रैंक किसी भी ब्लाग की लोकप्रियता को प्रमाणित करने वाला अकेला प्रमाणिक टूल है। हालांकि अन्य कुछ वेबसाईट भी ब्लाग की लोकप्रियता का आंकलन करती हैं पर अनेक ब्लाग लेखक मानते हैं कि उनके साफ्टवेयर अधिक प्रमाणिक नहीं है।
जब ब्लाग लेखन की यात्रा प्रारंभ की थी तब यह लेखक अकेला था पर अंतर्जाल पर बहुत सारे मित्र मिले और जो पहले ही मित्र थे वह अब पाठक भी हो गये हैं। वर्डप्रेस की पाठक संख्या पर वह हमेशा नजर लगाये रहते हैं और यह बताते हैं कि तुम्हारा वह ब्लाग आज पचास हजार पार सकता है। आज तो अच्छा संपादकीय लिखना। मना करने पर कहते हैं कि-नहीं, आजकल वह समय नहीं है कि चुपचाप बैठकर लिखते जाओ। लोगों को यह बताना जरूरी है कि हम भी है नंबर वन की दौड़ में।’
तब बरबस हंसी आती है। सच तो हम जानते हैं कि हिंदी में लेखन कभी आसान नहीं रहा। अपने काम की व्यसततओं से समय निकालकर लिखने में मजा आता है पर समस्या उसके प्रकाशन की आती है।
प्रसंगवश आज एक लेख पर नजर पड़ गयी। उस लेख में बताया गया कि अनेक लेखकों द्वारा अपना पैसा लगाकर पुस्तकें प्रकाशित कराने की प्रवृत्ति से अनेक प्रकाशक जमकर पैसा कमा रहे है।
उस लेख में कहा गया कि आज हिंदी के लेखक की वह छबि नहीं है कि वह रद्दी दिखता हो या गरीब हो। उस पाठ में लिखा गया था कि अनेक अप्रवासी भारतीय भारत आते हैं और अपने पैसे से किताब छपवाकर आकर्षक कार्यक्रम में उसका विमोचन करते हुए चले जाते हैं। उस पाठ के लेखक का मानना था कि ऐसी किताबों की विषय सामग्री कूड़ा हो यह जरूरी नहीं है। आखिर धनी मानी लोगों को भी लिखने का अधिकार है। उसने कुछ पुराने लेखकों के नाम भी गिनाये जो अमीर परिवारों से आये। इसलिये यह जरूरी नहीं कि हिंदी लेखक गरीब हो या जो गरीब है वही अच्छा लिख सकता है।
उस लेखक की बात ठीक थी पर कुछ सवाल हमारे सामने थे। जिन धनी मानी परिवारों में पैदा पुराने हिंदी लेखकों की उसने बात की उन्होंने अपने पैसे से किताब छपवाकर विमोचन नहीं किया। दूसरा यह है कि जो धनीमानी लोग किताबें छपवाते हैं उनमें होता क्या है? उनके जीवन के अनुभव जिनमें झूठ के अलावा कुछ भी नहीं होता। उनमें वह यह साबित करने का प्रयास किया जाता है वह वह धनी, उच्च पदस्थ और प्रसिद्ध होने के साथ संवेदनशील लेखक भी हैं। फिर सवाल यह नहीं है कि अमीर आदमी को लिखने या छपने का अधिकार नहीं हैं। हां, उनमें भी बहुत अच्छे लेखक हो सकते हैं। पर अनवरत चलने वाली बहस का निष्कर्ष यह है कि अपना पैसा खर्च किये बिना कोई लेखक प्रसिद्ध नहीं हो सकता। इसे हम यह भी कह सकते हैं कोई भी आदमी अपने लिखने के दम पर प्रसिद्ध नहीं हो सकता।
दूसरा यह है कि जो धनीमानी हैं उनका समय अधिकतर अपने व्यवसायों पर ही रहता है। समाज के उतार चढ़ाव में वह बहते हैं पर वह किस तरह आते हैं और इसके लिये कौनसी प्रवृत्तियां जिम्मेदार हैं यह देखने के पास उनके पास इतना समय नहीं होता जितना अल्प धनिक के पास रहता है। अल्प धनिक के पास ही वह समय होता है कि वह जमीन पर चलते हुए अनेक यथार्थ घटनाओं को एक स्वपनदृष्टा की तरह प्रस्तुत करता है। मुख्य बात यह है कि हिंदी में लिखने की बात आज वही सोच सकता है जिसके पास अपने रोजगार का कोई साधन हो। इससे रोटी पाने की कोई आशा नहीं कर सकता। हिंदी भाषी समाज की यह प्रवृत्ति है कि वह शुद्ध लेखक को पाल नहीं सकता।
ऐसे में यह अंतर्जाल ही एक आशा की किरण है। उसमें भी शर्त यही है कि इंटरनेट कनेक्शन व्यय करने की शक्ति होना चाहिए। इस लेखक ने लिखना तब शुरु किया था जब वह कमाने की सोच भी नहीं सकता था। जीवन संघर्ष के दौरान लिखते हुए कभी यह नहीं लगा कि उसक सहारे धन या प्रतिष्ठा मिलेगी। बस, एक आनंद आता है। इंटरनेट कनेक्शन लेते समय यह विचार भी था कि जब अवसर मिलेगा अपनी रचनायें प्रतिष्ठत समाचार पत्रों में भेज दिया जायेगा। कुछ समय बाद अध्ययन किया तो इस बात का आभास हो गया कि हर क्षेत्र में शिखर पर बैठे लोग कंप्यूटर पर काम करने से इसलिये कतराते हैं क्योंकि उनको लगता है कि यह काम टाईपिस्ट या लिपिक’ का है। इंटरनेट से भेजी गयी रचनाओं का भी वही हाल रहा जो डाक से भेजी गयी रचनाओं का था। ऐसे में स्वतंत्र लेखन के लिये ब्लाग मिला तो लिखना शुरु किया। इस लेखक की कवितायें, व्यंग्य, आलेख और कहानियां अच्छी है या बुरी इस स्वयं कभी नहीं सोचता। लिखते समय इस बात का ध्यान रहता है कि उसका सामाजिक सरोकार और संबंध जरूर होना चाहिये। अपनी कहानी लिखना आसान है पर वह तभी प्रभावी होती है जब उसकी प्रस्तुति ऐसी होना चाहिये कि वह सभी को अपनी लगे।
इधर इंटरनेट पर अच्छे लेखक भी आ गये हैं। उनका पढ़कर आनंद आता है और उनसे भी लिखने की प्रेरणा मिलती है। सच बात तो यह है कि कई ऐसे स्तरीय पाठ भी सामने आये जो व्यवसायिक पत्र पत्रिकाओं में नहीं दिखते। साहित्य, फिल्म, व्यापार, कला तथा प्रचार माध्यमों में एक परंपरागत ढांचा है जो परिवार, जाति, भाषा और धर्म में ही अपने रचनाकार तथा पात्र ढूंढता है। नयी व्यवस्था के आने की आशंका से यथास्थितिवादी खौफ खाते हैं और इसलिये वह ऐसी योजना बनाते हैं कि वह बदलाव आये ही नहीं और आये तो उसमें उसके मोहरे ही फिट हों। इसका पता तो पहले से ही था पर अंतर्जाल लिखते हुए इसका आभास अच्छी तरह होता जा रहा है।
एक ब्लाग मित्र-उसकी और इस लेखक की मित्रता ब्लाग लिखने के पहले से ही है- से उसी दिन बात हो रही थी। उसकी इंटरनेट पर अनेक ब्लाग लेखकों से चर्चा भी होती है। उसने कहा-’‘वह लोग तुम्हें पंसद करें या नहीं पर जानते सभी हैं। यह तय बात है। वह लोग कहते हैं कि ‘उसके कुछ ब्लाग बहुत अच्छे हैं और कुछ ऐसे ही हैं। मतलब यह कि तुम्हारी पहचान है और इसे कोई मिटा नहीं सकता। सबसे बड़ी बात यह है कि मुझे भी तुम्हारा वह ब्लाग पसंद हैं जो सभी की पसंद है।’
इशारा समझ में आया। मगर यह यात्रा बहुत लंबी है। कोई जल्दी नहीं है। आशा से अधिक जिज्ञासा है कि देखें यथास्थितिवादी किस तरह बदलाव लाने के लिये जूझ रहे लेखकों के सामने प्रतिरोध कर रहे हैं। जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र और परिवार के दायरों से मुक्त रहने का संदेश वाले छद्म लोग वास्तव में यथास्थितिवादी है और बदलाव लाने वाले तो केवल अपने कर्म में लिप्त रहते हैं। इसमें एक दृष्टा की तरह शामिल होकर देखने का अलग ही मजा है। खुद मैदान में उतरने का अर्थ है अपने लिये अधिक से अधिक विरोधी बनाना। ऐसे अवसरों पर लिखने का केवल एक ही मतलब होता है कि जिन लोगों की हिंदी ब्लाग का विश्लेषण करने वाले ब्लाग लेखकों के लिये अगर कुछ हो तो वह समझ लें। पूर्व में ऐसे ही आलेखों का प्रभाव क्या हुआ है यह इस लेखक ने देखा है। ब्लाग लेखक मित्रों से जो पाया है उनको ही कुछ लौटाया जा सकता है तो वह इसी तरह ताकि वह अगर इससे कोई लाभ उठा सकें तो ठीक, नहीं भी तो पाठकों में यह प्रेरणा तो आ ही सकती है कि अंतर्जाल पर हिंदी में लिखना उतना बुरा नहीं है जितना लगता है।
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पैसे के साथ इश्क में भी आ सकता है मंदी का दौर – हास्य व्यंग्य


क्वीसलैंड यूनिवर्सटी आफ टैक्लनालाजी के प्रोफेसर कि अनुसार इस मंदी के दौर में लोगों के दाम्पत्य जीवन पर कुप्रभाव पड़ रहा है। उनके अनुसार पैसा प्यार को मजबूत रखता है और उसकी कमी तनाव को जन्म देती है।
यह एक सच्चाई है। फिल्मों,साहित्यक कहानियों और हिंदी उर्दू शायरियों में जिस इश्क, प्यार या मोहब्बत का गुणगान किया जाता है वह केवल भौतिक साधनों के सहारे ही परवान चढ़ता है। फिल्मों की काल्पनिक कथायें देखते हुए हमारे देश के युवक युवतियां क्षणिक प्यार में जाने क्या क्या करने को तैयार हो जाते हैं और फिर न केवल अपने लिये संकट बुलाते हैं बल्कि परिवार को भी उसमें फंसाते हैं।

हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यही कहता है कि प्रेम केवल सर्वशक्तिमान से हो सकता है पर अपने देश में एसी भी विचारधारायें भी प्रचलन में हैं जिनके अनुसार प्रियतम अपनी प्रेयसी को तो कहीं प्रेयसी को उसकी जगह बिठाकर आदमी को प्यार और मोहब्बत के लिये प्रेरित करती हैं। आपने फिल्मों में ऐसे गीत देखे होंगे जिसमें काल्पनिक प्रियतम की याद प्रेयसी और उसकी याद में प्रियतम ऐसे गीत गा रहा होता है जैसे कि भजन गा रहा हो। हम न तो ऐसे प्रेम का विरोध कर रहे हैं न उसका गुणगान कर रहे हैं बल्कि यह बता रहे हैं कि प्रेमी जब गृहस्थ के रूप में बदल जाते हैं तक अपनी दैहिक आवश्यकताओं के लिये धन की जरूरत होती है और तभी तय होता है कि वह कथित प्रेम किस राह चलेगा।

वैसे हमने अपने जीवन में देखा है कि जब को लड़का किसी लडकी की तरफ आकर्षित होता है तो उसे प्रेम पत्र लिखकर या वाणी से बोलकर किसी ऐसी जगह ही आमंत्रित करता है जहां खाने पीने के लिये एकांत वाली जगह हो। वहां डोसा,सांभर बड़ा या समौसे कचैड़ी खाते हुए प्रेम परवान चढ़ता है। वैसे आजकल पब सिस्टम भी शुरु हो गया है। यह बात पहले पता नहीं थी पर आजकल कुछ घटनायें ऐसी हो गयी हैं उससे यह जानकारी मिली है।

यह स्त्री पुरुष का दैहिक प्रेम पश्चिमी विचारधारा पर आयातित है तो तय है कि उसके लिये मार्ग भी वैसे ही बनेंगे जैसे वहां बने हैं। वैसे इस दैहिक प्रेम का विरोध तो सदियों से हर जगह होता आया है पुराने समय में इक्का दुक्का घटनायें होती थीं और प्यार के विरोध में केवल परिवार और रिश्तेदार ही खलनायक की भूमिका अदा करते थे। अब तो सब लोग खुलेआम प्रेम करने लगे हैं और हालत यह है कि परिवार के लोग विरोध करें या नहीं पर बाहर के लोग सामूहिक रूप से इसका प्रतिकार कर उसे प्रचार देते हैं। यह भी होना ही था पहले प्यार एकांत में होता था अब भीड़ में होने लगा है तो फिर विरोध भी वैसा होता है। इस दैहिक प्यार की महिमा जितनी बखान की जाती है उतनी है नहीं पर जब कोई खास दिन होता है तो उसकी चर्चा सारे दिन सुनने को मिलती है।

वैसे तो देखा जाये कोई किससे प्यार करने या न करे उसका संबंध बाहर के लोगों से कतई नहीं है। पर रखने वाले रखते हैं और कहते हैं कि यह संस्कृति के खिलाफ है? आज तक हम उस संस्कृति का नाम नहीं जान पाये जो इसके खिलाफ है। हमारे अनेक सांस्कृतिक प्रतीक पुरुषों ने प्यार किया और अपनी प्रेयसियों से विवाह रचाया। अब यह जरूरी नहीं है कि उनकी विवाह पूर्व की प्रेमलीला कोई लंबी खिंचती या वह गाने गाते हुए इधर उधर फिरते। चूंकि यह व्यंग्य है इसलिये हम उनके नाम नहीं लिखेंगे पर जानते सभी हैं। सच बात तो यह है कि दैहिक प्रेम में आत्मिक भाव तभी ढूंढा जाता है दोनों प्रेमियो का मिलन सामाजिक नियमों के अनुसार हो जाता है। मगर आजकल हालत अजीब है कि कहीं विवाह पूर्व प्रेम ढूंढा जा रहा है तो कही विवाह के पश्चात् सनसनी के कारण से प्रेम पर चर्चा होती है।

बहरहाल हमारा मानना है कि चाहे जो भी हो जो लोग सावैजनिक जगहों पर प्रेम करने पर आमदा होते हैं उनकी तरफ अधिक ध्यान देना ही नहीं चाहिये। पिछले कुछ वर्षों से समाज में कामकाजी महिलाओंं की संख्या बढ़ती जा रही है-यह अलग बात है कि उसके बावजूद गृहस्थ महिलाओं की संख्या बहुत अधिक हैं। ऐसे में अगर वह अविवाहित हैं तो उनके संपर्क अपने कार्यस्थल पर काम कर रहे या कार्य के कारण पासं आने वाले युवकों से हो जाते हैं। लड़कियां क्योंकि कामाकाजी होती हैं इसलिये वह विवाह से पहले अपने मित्रों को पूरी तरह परखना चाहती हैं। ऐसे में कुंछ युवतियां अपने परिवार में संकोच के कारण नहीं बताती क्योंकि उनको लगता है कि इससे माता पिता और भाई नाराज हो जायेंगे। फिर क्या पता लड़का हमें ही न जमें। कुछ मामलों में तो देखा गया है कि कामकाजी लड़कियों के माता पिता पहले कहीं अपनी कामकाजी लड़की के रिश्ते की बात चलाते हैं फिर लड़की से कहा जाता है कि वह लड़का देख कर अपना विचार बताये-तय बात है कि यह मिलने लड़की और लड़के का अकेले ही होता है और उस समय कोई उनका परिचित देख ले तो यही कहेगा कि कोई चक्कर है।

बहरहाल संस्कृति और संस्कार के रक्षकों के सामने अपने विचारों का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता बस नारे लगाते हुए चले जाते हैं। उनको लगता है कि सार्वजनिक जगहों पर अविवाहित युवक युवतियों का उठना बैठना संस्कृति को नष्ट कर देगा। यह