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नए स्वांग और मुखौटे-हास्य व्यंग्य कविताएँ (svang aur mukhaute-hindi satire poem)


रोज रचते हैं नया स्वांग
चेहरे पर लगाते नए मुखौटे
और बदलकर आते हैं कपड़े
मगर छद्म होकर भी करते हैं हमेशा लफड़े.
आदमी अपना बाहर का रूप
कितना भी बदल ले
अदाओं से पहचाना जाता है,
जहां स्वर बदले
शब्दों से पकड़ा जाता है,
खुलकर सांस लेने से घबड़ाते हैं जो लोग
छिपकर करते वार
पर अपने हथियारों की शकल
और तौरतरीकों से जाते हैं पकड़े.

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अपनी महफ़िल में उन्होंने बुलाया नहीं
हमारी परवाह न होने का अहसास जताया.
खूब चिराग जलाए उन्होंने
पर अन्दर के अँधेरे में
चमकता रहा हमारा चेहरा और नाम
बड़ी मेहनत से उन्होंने छिपाया.
हमारा नाम लेने पर उन्होंने
अपने मेहमान पर गुस्सा दिखाकर
अपनी नापसंदगी दिखाई
पर सच है कि जो खौफ है
उनके दिमाग में
हमारे हाथ से जलते चिरागों से
ज़माने के रौशन होने का
वही अनजाने में बाहर आया.

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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।

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बहस कि कामेडी-हिंदी लघु व्यंग्य (disscusion as a comedy-hindi satire)


                 उस उद्यान में ज्ञानियों के बीच देश की गरीबी मिटाने के लिये बहस चल रही थी। विषय था देश में गरीबी और शौषण खत्म कैसे किया जाये। सभी सजधजकर बहस करने आये थे। सभी वक्ता अपने अपने विचार रख रहे थे।
            एक ने कहा ‘हमें गरीबों के दिमाग में अपने अधिकार के लिये चेतना जगाने का अभियान छेड़ना चाहिये।
           वहीं एक फटीचर आदमी भी बैठा था। उसने उठकर पूछा-‘पर कैसे? क्या कहें गरीबों से जाकर कि अमीरों का पैसा छीन लो!’
               सभा के संचालक ने उसे बिठा दिया और कहा‘-आप आमंत्रित वक्ता नहीं है इसलिये बहस मत करिये।’
              दूसरे वक्ता ने कहा-‘हमें एक आंदोलन छेड़ना चाहिये।’
              वह फटीचर फिर उठकर खड़ा हो गया और बोला-‘बहस और आंदोलन तो बरसों से चल रहे हैं।’
            संचालक फिर चिल्लाया-‘चुपचाप बैठ जाओ। वरना बाहर फैंक दिये जाओगे। हम कितने गंभीर विषय पर बहस कर रहे हैं और तुम अपनी टिप्पणियां मुफ्त में दिये जा रहे हो।’
              वह फटीचर आदमी वहां से चला गया तो एक विद्वान ने दूसरे से पूछा-‘यह कौन फटीचर यहां आ गया था।’
            दूसरे ने कहा-‘पता नहीं।’
           वहीं एक दूसरा फटीचर आदमी र्बैठा था वह बोला-‘वह मेरा दोस्त था। पहले किताबें पढ़कर बहुत बहस कर चुका है पर जब से बहुत ज्ञानी हो गया तब से उसने ऐसी बहसें बंद कर दी हैं। अलबत्ता कभी कभी चला आता है ऐसी बहसें देखने। क्योंकि इसे इसमें कामेडी नजर आती है।’
            यह बात सुनते ही दोनों विद्वानों का खूल खौल उठा वह बोले-‘तू हमारी बहस को कामेडी कहता है।’
वह दोनों उठकर खड़े गये और चिल्लाने लगे कि‘यह हमारी बहस को कामेडी कह रहा है। इसे मारो पीटो।’
            सब लोग उस पर चढ़ पड़े। वह चिल्लाता रहा‘मैं नहीं वह कहता है।’
             उसके पुराने कपड़ों में पहले ही पैबंद लगे थे वह और अधिक फट गये। जब वह पिट पिटकर बेहोश हो गया तब उसे छोड़ दिया गया। विद्वान फिर बहस करने लगे। कुछ देर बात उसे होश आया तो वह दोनों विद्वान वहीं बैठे बहस में व्यस्त थे। उसने उनसे कहा-‘यार, मैं थोड़े ही कहता हूं। वह कहता है। तुम दोनों ने मुझे क्यों क्यों पिटवाया।’
          उनमें से एक ने कहा-‘हम विद्वान है कोई सामान्य आदमी नहीं।  सांप को निकलने देते हैं उसके बाद लकीर पीटते हैं।’
       वह बिचारा वापस अपने दोस्त के पास पहुंचा और पूरा हाल बताकर बोला-‘यार, किस मुसीबत में फंसा मुझे फँसकर इस तरह भाग निकले। हम तो सोच रहे थे कि विद्वान लोग हैं शांति से सभी की बात सुनते होंगे पर  हैं पर वह हिंसा पर उतर आये।’
            उसने जवाब दिया-‘यह भ्रम मुझे भी होता था। इसलिये तुझसे कहता हूं कि ऐसी जगहों पर अधिक मत रुका करो। वहां बहस वही करते हैं जो किताबी ज्ञानी हैं। कबीरदास जी कह गये हैं कि किताब पढ़ने वालों को अहंकार आ ही जाता है। मैं भी तुझसे कहता हूं कि ऐसी बहसें कामेडी नाटक की तरह हैं क्योंकि किताबी ज्ञानी लकीर के फकीर होते हैं पर वहां सबके बीच में नहीं कहा। सच बात भी सही जगह और सही समय पर बोलना चाहिये। बस तुम्हारे और मेरे बीच यही अंतर है। इसलिये मैं तुम्हें अल्पज्ञानी कहता हूं। मैंने खतरा देखा तो निकल लिया और तुम फंसं गये।’

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

पसंद कि नापसंद-हास्य व्यंग (hindi comedy satire)


एक सज्जन ने मन्नत मांगी थी कि अगर उनको कभी कहीं से कोई सम्मान प्राप्त होगा तो वह किसी नये कवि का सम्मेलन करायेंगे। इससे तो उनका सम्मान का प्रचार तो होगा ही साहित्य में नयी पीढ़ी को आगे लाने के लिये भी प्रसिद्धि मिलेगी। दरअसल उन्होंने अपने बेकारी के दिनों में अनेक कवितायें लिखी थी जिनका एक किताब के रूप में प्रकाशन कराया। उन्होंने अपने मित्र को वह कविता दिखाई तो उसने कहा-‘‘चुपचाप इनको रख लो। यह कवितायें तुम्हारी मजाक बनवायेंगी। अलबत्ता जब तुम्हारे सपंर्क बन जायें तो इस किताब के सहारे कोई सम्मान वगैरह जुगाड़ लेना क्योंकि तुम जिस तरह अपने व्यवसाय में आगे जा रहे हो तुम्हारे लिये अच्छे अवसर हैं।’’
वह सज्जन अनेक तरह के ठेके लिया करते थे। ढेर सारी किताबें रखने के लिये उन्होंने एक अलमारी बनवायी थी जिस पर रोज अगरबत्ती जलाकर घुमाते।
इधर समय के साथ उनके व्यवसाय के साथ बड़े और प्रतिष्ठित लोगों से संपर्क बढ़ रहे थे। एक कारखाने में निर्माण का ठेका उनको मिला। वह कंपनी अवार्ड वगैरह भी बांटा करती थी। दरअसल उसका यह समाज कल्याण अभियान बड़े लोगों से संपर्क बढ़ाने के लिये था और वह अपने को फायदा देने वालों को सम्मानित भी कर चुकी थी। ठेकेदार सज्जन की उसी कंपनी के प्रबंधक से बातचीत हुई। ठेकेदार सज्जन को मालुम था कि यह कंपनी अवार्ड वगैरह बांटती है इसलिये वह प्रबंधक से अधिक प्रगाढ़ संबंध बनाने लगे। एक दिन उन्होंने प्रबंधक से कहा-‘आप हमें साहित्य के लिये अपना अवार्ड दिलवा दीजिये। आपका कमीशन दुगना कर देता हूं।’
प्रबंधक ने कहा-‘पहले वह किताब दिखाओ। नहीं दिखाना है तो कमीशन तीन गुना करो।’
ठेकेदार सज्जन बहुत खुश हो गये। मन ही मन कहने लगे कि‘यह बेवकूफ है, अगर चार गुना भी कहता तो देता।’
उन्होंने अपनी सहमति दी। इस तरह यह इनाम उनको मिल गया। वह भी साहित्यकार के रूप में। शहर भर के साहित्यकारों को तो मानो सांप सूंध गया। हरेक कोई एक दूसरे से पूछा रहा था कि ‘यह कौन महाकवि इस शहर में रहता है जो हमारी नजर से नहीं गुजरा। कभी किसी मंच पर नही देखा। उसका अखबार में नहीं पढ़ा।’
सम्मान मिलना तो सो मिल गया। एक दो आलोचक उनके घर पहुंच गये और कविता के शीर्षकों से ही समीक्षा अखबारों में लिखकर छाप दी। ठेकेदार सज्जन ने बकायदा आलोचकों की खातिर की। इधर उनके मन में बस एक ही बात थी कि किसी नये लेखक का एकल पाठ कराकर अपनी वह मिन्नत पूरी करूं जो किसी दिन मन में आ गयी थी। भले ही दस वर्ष बाद यह पूरी हुई पर मिन्नत का मान रखना भी जरूरी था। मुश्किल यह थी कि पहले उन्होंने नये कवि को अच्छी खासी रकम देने का विचार रखा था पर इधर खर्चा इतना हो गया कि वह सोच रहे थे कि सस्ते में निपट जाये। इसी चिंता में रहते थे। घर से बाहर एक दिन एक लड़का उनको मिल गया जिसके बारे में उनको पता लगा कि उसकी कोई कविता कहीं छपी थी-यह दावा वह मोहल्ले में करता फिर रहा था।

उन्होंने उससे पूछा-‘‘क्यों गंजू उस्ताद, कैसी चल रही है तुम्हारी कवितागिरी।’’
गंजू उस्ताद ने कहा-‘आपसे तो अच्छी नहीं चल रही। अब सोच रहा हूं कि मैं भी ठेकेदारी शुरु करूं। बहुत दिनों से काम तलाश रहा हूं। सोच रहा हूं कि आपको गुरु बना लूं। हो सकता है एक दो अवार्ड अपने किस्मत में भी आ जाये।’
ठेकेदार सज्जन ने कहा-‘अरे, कहां ठेकेदारी के चक्कर में पड़े हो। तुम तो अपनी कविता सविता के साथ आनंद करो।’
गंजू उस्ताद बीच में ही बोल पड़ा-‘‘छि…छि………चुप हो जाईये। अभी अभी तो मेरी शादी हुई है। किसी ने सुना लिया कि सविता से मेरा चक्कर था तो गड़बड़ हो जायेगी।’’
ठेकेदार ने कहा-‘‘कविता के साथ मैंने तो ऐसे ही सविता जोड़ दिया। इधर मैं सोच रहा हूं कि तुम्हारा काव्य पाठ करवा दूं। इससे तुम्हें प्रचार मिलेगा और मुझे भी तसल्ली होगी कि साहित्य की सेवा की।’’
गंजू उस्ताद बोला-‘‘हां, पर अब आप मुझे उस्ताद न कहकर कवि नाम से पुकारें। आप अवसर दे रहे हैं तो अच्छी बात है। आप तैयारी करिये मैं अपनी नयी नवेली पत्नी के पास जाकर उसे यह खबर देता हूं। वह मुझे निठल्ला कहने के साथ ही कवितायें जलाने की धमकी देती है। इधर पिताजी भी कह रहे हैं कि अब तेरी शादी हो गयी तो कुछ कमाई करो। आप कितना पैसे देंगे।’’
ठेकेदार ने कहा-‘‘अरे, तुम्हें एक कवि सम्मेलन मिल गया तो फिर रास्ता खुल जायेगा। यही क्या कम है?’’
गंजू उस्ताद मान गया। वह गया तो ठेकेदार सोचने लगा कि ‘कितना बेवकूफ है कि अगर पांच सात सौ रुपये भी मांगता तो मैं देता।’
एक पार्क में बने बनाये मंच पर गंजू उस्ताद का एकल कविता पाठ प्रारंभ हुआ। मगर वह नया था उसे क्या मालुम कि कवितायें ठेली जाती हैं श्रोताओं की परवाह किये बिना। वह हर कविता पर श्रोताओं से पूछता-‘‘आप बताईये कि यह कविता आपको पसंद आयी।’’
लोग चिल्लाये -‘‘नापसंद नापसंद’’।
इस तरह उसने दस कवितायें सुनायी। अब तो हर कविता की समाप्ति पर लोग चिल्लाते-‘‘नापसंद नापसंद।’’
गंजू उस्ताद के बारे में यह कहा जाता है कि जब वह घर में अपने माता पिता से नाराज होता तो अपने कपड़े फाड़ने और बाल नौचने लगता था। इतना ही नहीं फिर घर से बाहर आकर ऐसे ही पत्थर उड़ाने लगता। यह बचपन की बात थी पर जब लोगों ने उसे इस तरह प्रताड़ित किया तो खिसियाहट में अपने बाल्यकाल में चला गया। वह अपने कपड़े फाड़ने लगा। उधर से लोग चिल्लाये ‘‘पसंद पसंद’’।
वह बाल नौचने लगा। लोग चिल्लाये-‘‘पसंद पसंद’’।
वह मंच से उतर गया और पत्थर उछालने लगा। लोग चिल्लाने लगे ‘‘पसंद पसंद।’’
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे ठेकेदार सज्जन भाग निकले। उनके पीछे गंजू उस्ताद भी भाग निकला। पीछे से लोग भी चिल्लाते हुए भागे-‘पसंद पसंद’
बाद में वह ठेकेदार सज्जन से मिला-‘‘और कुछ नहीं तो मेरे कपड़े फट गये उसके पैसे दे दो। आपको पता है कि वह शादी में मुझे ससुराल से मिले थे। आपके कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये मैंने उनको फाड़ डाला। तभी तो लोग चिल्ला रहे थे ‘पसंद पसंद’। वरना तो ‘नापसंद नापसंद’ कर पूरा कार्यक्रम ही बरबाद किये दे रहे थे।’’
ठेकेदार सज्जन बोले-‘बेशरम आदमी! तुम्हारी वजह से मेरी बदनामी हुई है। मैंने तुम्हार काव्य पाठ सुनने के लिये कार्यक्रम करवाया था या लोगों की पसंद नापसंद जानने के लिये। अरे, यह भीड़ है इस पर चाहे जितना अपनी कवितायें या कहानी थोप दो चुपचाप झेलती है। अगर बोलने का अवसर दो तो फिर यही करती है जो तुम्हारे साथ किया।’
गंजू उस्ताद उदास होकर चला गया। इधर ठेकेदार सज्जन सोचने लगे कि‘अगर जिद्द करता तो एक दो हजार मैं दे ही देता। चलो अच्छा है चला गया। मुझे तो अपना प्रचार मिल ही गया न!
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