जिसके सिर पर ताज का बोझ नहीं है,
काम करने का जिम्मा रोज नहीं है,
कान नहीं खड़े होते हमेशा
किसी का हुक्म सुनने के लिये,
जिसके हाथ नहीं मोहताज
किसी का जुर्म बुनने के लिये,
जिसकी आंखें नहीं ताकती
मदद के लिये किसी दूसरे की राह,
खुशदिल आदमी बोले हर समय ‘वाह’।
वही है असली शहंशाह।
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झुकते हैं वही सिर
जिन पर होता है ताज,
तलवार का वार झेलती वही गर्दन
जो अकड़ जाती हैं करते राज
सफेल मलमल के सिंहासन के पीछे
डर और अहंकार का रंग है काला स्याह।
दौलत कमाने वाले नटों के
हाथ में डोर है
पुतले राज करते हुए कहलाते शहंशाह।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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