दौड़ता है आदमी इधर से उधर
देने का ख्याल कभी उसके
अंदर नहीं आता
भरता है जमाने का सामान अपने घर में
पर दिल से खाली हो जाता
दूसरे के दिलों में ढूंढता प्यार
अपना तो खाली कर आता
कोई बताये कौन लायेगा
इस धरती पर हमदर्दी का दरिया
नहाने को सभी तैयार खड़े हैं
दिल से बहने वाली गंगा में
पर किसी को खुद भागीरथ
बनने का ख्याल नहीं आता
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अपने नाम खुदवाते हुए
कितने इंसानों ने पत्थर लगवाये
पर फिर भी अमर नहीं बन पाये
जिन्होंने रचे शब्द
बहते रहे वह समय के दरिया में
गाते हैं लोग आज भी उनका नाम
कुछ पत्थरों पर धूल जमी
कुछ टूट कर कंकड़ हो गये
पर
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दीपक भारतदीप
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टिप्पणियाँ
वाह! बहुत खूबसूरत…