भ्रम का सिंहासन-व्यंग्य कविता


एक सपना लेकर
सभी लोग आते हैं सामने
दूर कहीं दिखाते हैं सोने-चांदी से बना सिंहासन

कहते हैं
‘तुम उस पर बैठ सकते हो
और कर सकते हो दुनियां पर शासन

उठाकर देखता हूं दृष्टि
दिखती है सुनसार सारी सृष्टि
न कहीं सिंहासन दिखता है
न शासन होने के आसार
कहने वाले का कहना ही है व्यापार
वह दिखाते हैं एक सपना
‘तुम हमारी बात मान लो
हमार उद्देश्य पूरा करने का ठान लो
देखो वह जगह जहां हम तुम्हें बिठायेंगे
वह बना है सोने चांदी का सिंहासन’

उनको देता हूं अपने पसीने का दान
उनके दिखाये भ्रमों का नहीं
रहने देता अपने मन में निशान
मतलब निकल जाने के बाद
वह मुझसे नजरें फेरें
मैं पहले ही पीठ दिखा देता हूं
मुझे पता है
अब नहीं दिखाई देगा भ्रम का सिंहासन
जिस पर बैठा हूं वही रहेगा मेरा आसन

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टिप्पणियाँ

  • mehhekk  On 03/06/2008 at 17:19

    उनको देता हूं अपने पसीने का दान
    उनके दिखाये भ्रमों का नहीं
    रहने देता अपने मन में निशान
    मतलब निकल जाने के बाद
    वह मुझसे नजरें फेरें
    मैं पहले ही पीठ दिखा देता हूं
    मुझे पता है
    अब नहीं दिखाई देगा भ्रम का सिंहासन
    जिस पर बैठा हूं वही रहेगा मेरा आसन

    wah kya baat hai,sahi,bhram ka singhasan nakli hai,hamara pakka nishchay hi hamara aasan hai jo kabhi nai dagmagata,bahut khubsurat

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