Tag Archives: hindi literature

धार्मिक ग्रंथ की बात पहले समझें फिर व्यक्त करें-हिन्दी लेख


                                   अभी हाल ही में एक पत्रिका में वेदों के संदेशों के आधार पर यह संदेश प्रकाशित किया गया कि ‘गाय को मारने या मांस खाने वाले को मार देना चाहिये’।  इस पर बहुत विवाद हुआ। हमने ट्विटर, ब्लॉग और फेसबुक पर यह अनुरोध किया था कि उस वेद का श्लोक भी प्रस्तुत किया गया है जिसमें इस तरह की बात कही गयी है। चूंकि हम अव्यवसायिक लेखक हैं इसलिये पाठक अधिक न होने से  प्रचार माध्यमों तक हमारी बात नहीं पहंुंच पाती। बहरहाल हम अपनी कहते हैं जिसका प्रभाव देर बाद दिखाई भी देता है।

बहुत ढूंढने पर ही अथर्ववेद सि यह श्लोक मिला

—————

आ जिह्वाया मूरदेवान्ताभस्व क्रव्यादो वृष्टबापि धत्सवासन।

हिन्दी में भावार्थ-मूर्खों को अपनी जीभ रूपी ज्वाला से सुधार और बलवान होकर मांसाहारी हिसंकों को अपनी प्रवृत्ति से निवृत्त कर।

                                   हमें संस्कृति शुद्ध रूप से नहीं आती पर इतना ज्ञान है कि श्लोक और उसका हिन्दी अर्थ मिलाने का प्रयास करते हैं।  जहां तक हम समझ पाये हैं वेदों में प्रार्थनाऐं न कि निर्देश या आदेश दिये गये हैं।  उपरोक्त श्लोक का अर्थ हम इस तरह कर रहे हैं कि ‘हमारी जीभ के मूढ़ता भाव को आग में भस्म से अंत कर। अपने बल से हिंसक भाव को सुला दे।’

                                   हम फिर दोहराते हैं कि यह परमात्मा से प्रार्थना या याचना है कि मनुष्य को दिया गया आदेश। यह भी स्पष्ट कर दें कि यह श्लोक चार वेदों का पूर्ण अध्ययन कर नहीं वरन एक संक्षिप्त संग्रह से लिया गया है जिसमें यह बताया गया है कि यह चारो वेदों की प्रमुख सुक्तियां हैं।

                                   हम पिछले अनेक वर्षों से देख रहे हैं कि अनेक वेदों, पुराणों तथा अन्य ग्रंथों से संदेश लेकर कुछ कथित विद्वान ब्रह्मज्ञानी होने का प्रदर्शन करते हैं। अनेक प्रचार पाने के लिये धार्मिक ग्रंथों की आड़ में विवाद खड़ा करते हैं।  जिस तरह पाश्चात्य प्रचारक यह मानते हैं कि पुरस्कार या सम्मान प्राप्त करने वाला साहित्यकार मान जायेगा वैसे ही भारतीय प्रचारक भी यह मानते हैं कि गेरुए या सफेद वस्त्र पहनकर आश्रम में रहने वाले ही ज्ञानी है।  उनके अनुसार हम दोनों श्रेणी में नहीं आते पर सच यही है कि ग्रंथों का अध्ययन श्रद्धा करने पर ही ज्ञान मिलता है और वह प्रदर्शन का विषय नहीं वरनृ स्वयं पर अनुंसधान करने के लिये होता है। हमने लिखा था सामवेद में कहा गया है कि ‘ब्रह्मद्विष आवजहि’ अर्थात ज्ञान से द्वेष करने वाले को परास्त कर। हमारा मानना है कि बिना ज्ञान के धर्म रक्षा करने के प्रयास विवाद ही खड़ा करते हैं।

————–

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

140 शब्दों की सीमा से अधिक twitlonger पर लिखना भी दिलचस्प


                                   ट्विटर, फेसबुक और ब्लॉग से आठ वषौं के सतत संपर्क से यह अनुभव हुआ है कि भले ही आपकी बात अंग्रेजी में अधिक पढ़ी जाती है पर भारत में समझने के लिये आपका पाठ हिन्दी में होना आवश्यक है।  महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर आक्रामक शैली में शब्द लिखने हों तो अंग्रेजी से अधिक हिन्दी ज्यादा बेहतर भाषा है।  कटु  बात कहने के लिये मधुर शब्द का उपयोग भी व्यंजना भाषा में इस तरह किया जा सकता है कि  ंइसका अनुभव एक ऐसे ट्विटर प्रयोक्ता के खाते से संपर्क होने पर हुआ जो अपनी अंग्रेजी भाषा में लिखी गयी बात से प्रसिद्ध हो रहा है।  उसके अंग्रेजी शब्दों के जवाब में अंग्रेजी टिप्पणियां आती हैं पर जितना आक्रामक शब्द अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी टिप्पणियों के होते हैं।  एक टिप्पणीकर्ता ने तो लिख ही दिया कि अगर अपनी बात ज्यादा प्रभावी बनाना चाहते हो तो हिन्दी में लिखो। वह ट्विटर प्रयोक्ता अंग्रेजी में लिख रहा है पर उसकी आशा के अनुरूप हवा नहीं बन पाती। अगर वह हिन्दी में लिखता तो शायद ज्यादा चर्चित होता। इसलिये हमारी सलाह तो यही है कि जहां तक हो सके अपना हार्दिक प्रभाव बनाने के लिये अधिक से अधिक देवनागरी हिन्दी में लिखे।

140 शब्दों की सीमा से अधिक ट्विटरलौंगर पर लिखना भी दिलचस्प

—————–

इधर ट्विटर ने भी 140 शब्दों से अधिक शब्द लिखने वाले प्रयोक्ताओं  ट्विटलोंगर की सुविधा प्रदान की है। हिन्दी के प्रयोक्ता शायद इसलिये उसका अधिक उपयोग नहीं कर पा रहे क्योंकि उसका प्रचार अधिक नहीं है। हमने जब एक प्रयोक्ता के खाते का भ्रमण किया तब पता लगा कि यह सुविधा मौजूद है। हालांकि हम जैसे ब्लॉग लेखक के लिये यह सुविधा अधिक उपयोगी नहीं है पर जब किसी विशेष विषय पर ट्विटर लिखना हो तो उसका उपयोग कर ही लेते हैं। वैसे ट्विटर पर अधिक लिखना ज्यादा अच्छा नहीं लगता क्योंकि वह लोग लिंक कम ही क्लिक करते हैं।  बहरहाल जो केवल ट्विटर पर अधिक सक्रिय हैं उनके लिये यह लिंक तब अधिक उपयोग हो सकता है जब वह अधिक लिखना चाहते हैं।

———————

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

एकलव्य की तरह श्रीमद्भागवतगीता का अध्ययन करें-हिन्दी लेख


                         श्रीमद्भागवत गीता में सांख्ययोग की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ बताया गया है। इतना ही सांख्या योग से सन्यास अत्यंत कठिन बताते हुए कर्म येाग सन्यास का महत्व प्रतिपादित किया गया है। हमारे यहां सन्यास पर अनेक तरह के भ्रम फैलाये जाते हैं।  सन्यास का यह अर्थ कदापि नही हैं कि संसार के विषयों का त्याग कर कहीं एकांत में बैठा जाये। यह संभव भी नहीं है क्योंकि देह में बैठा मन कभी विषयों से परे नहीं रहने देता।  उसके वश में आकर मनुष्य कुछ न कुछ करने को तत्पर हो ही जाता है। भारतीय धर्म में सन्यास से आशय सांसरिक विषयों से संबंध होने पर भी उनमें भाव का त्याग करना  ही माना गया गया है। इसे सहज योग भी कहा जाता है। जीवन में भोजन करना अनिवार्य है पर पेट भरने के लिये स्वाद के भाव से रहित होकर पाचक भोजन ग्रहण करने वाला सन्यासी है। लोभ करे तो सन्यासी भी ढोंगी है।

                                   इस संसार में मनुष्य की देह स्थित मन के चलने के दो ही मार्ग हैं-सहज योग या उसके विपरीत असहज योग। अगर श्रीमद्भागवत् गीता को गुरु मानकर उसका अध्ययन किया जाये तो धीरे धीरे जीवन जीने की ऐसी कला आ जाती है कि मनुष्य सदैव सहज योग में स्थित हो जाता है। जिन लोगों के पास ज्ञान नहीं है वह मन के गुलाम होकर जीवन जीते हैं। अपना विवेक वह खूंटी पर टांग देते हैं। यह मार्ग उन्हें असहज योग की तरफ ले ही जाता है।

                                   एक बात निश्चित है कि हर मनुष्य योग तो करता ही है। वह चाहे या न चाहे अध्यात्मिक तथा सांसरिक विषयों के प्रति उसके मन में चिंत्तन और अनुसंधान चलता रहता है। अंतर इतना है कि ज्ञानी प्राणायाम, ध्यान और मंत्रजाप से अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए अपने विवेक से अध्यत्मिक ज्ञान धारण कर संसार के विषयों से जुड़ता है जबकि  सामान्य मनुष्य ज्ञान के पंच दोषों के प्रभाव के वशीभूत होकर कष्ट उठाता है। इसलिये अगर दैहिक गुरु न मिले तो श्रीमद्भागवत्गीता का अध्ययन उसी तरह करना चाहिये जैसे एकलव्य ने द्रोणाचार्य की प्रतिमा बनाकर धनुर्विद्या सीखी थी।

—————

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

#आमआदमी की उपेक्षा करना अब #संभव नहीं-#हिन्दीचिंत्तनलेख


                    सार्वजनिक जीवन में मानवीय संवेदनाओं से खिलवाड़ कर  सदैव लाभ उठाना खतरनाक भी हो सकता है। खासतौर से आज जब अंतर्जाल पर सामाजिक जनसंपर्क तथा प्रचार की सुविधा उपलब्ध है। अभी तक भारत के विभिन्न पेशेवर बुद्धिजीवियों ने संगठित प्रचार माध्यमों में अपने लिये खूब मलाई काटी पर अब उनके लिये परेशानियां भी बढ़ने लगी हैं-यही कारण है कि बुद्धिजीवियों का एक विशेष वर्ग अंतर्जालीय जनसंपर्क तथा प्रचार पर नियंत्रण की बात करने लगा है।

                              1993 में मुंबई में हुए धारावाहिक बम विस्फोटों का पंजाब के गुरदासपुर में हाल ही में हमले से सिवाय इसके कोई प्रत्यक्ष कोई संबंध नहीं है कि दोनों घटनायें पाकिस्तान से प्रायोजित है।  बमविस्फोटों के सिलसिले में एक आरोपी को फांसी होने वाली है जिस पर कुछ बुद्धिमान लोगों ने वैसे ही प्रयास शुरु किये जैसे पहले भी करते रहे हैं। इधर उधर अपीलों में करीब तीन सौ से ज्यादा लोगों ने हस्ताक्षर किये-मानवीय आधार बताया गया। इसका कुछ सख्त लोगों ने विरोध किया। अंतर्जाल पर इनके विरुद्ध अभियान चलने लगा। इसी दौरान पंजाब के गुरदासपुर में हमला होने के बाद पूरे देश में गुस्सा फैला जो अंतर्जाल पर दिख रहा है। लगे हाथों सख्त मिजाज लोगों ने इन हस्ताक्षरकर्ता बुद्धिजीवियों पर उससे ज्यादा भड़ास निकाली।  जिन शब्दों का उपयोग हुआ वह हम लिख भी नहीं सकते। हमारे हिसाब से स्थिति तो यह बन गयी है कि इन हस्ताक्षरकर्ता बुद्धिजीवियों के हृदय भी अब यह सोचकर कांप रहे होंगे कि गुरदासपुर की घटना के बाद आतंकवाद पर उनका परंपरागत ढुलमुल रवैया जनमानस में स्वयं की खलनायक छवि स्थाई न बना दे।

                              हमने पिछले दो दिनों से ट्विटर और फेसबुक पर देखा है।  यकीनन यह लोग अभी तक अंतर्जालीय मंच को निम्न कोटि का समझते हैं शायद परवाह न करें पर कालांतर में उनको यह अनुभव हो जायेगा कि संगठित प्रचार माध्यमों से ज्यादा यह साामाजिक जनसंपर्क और प्रचार माध्यम ज्यादा शक्तिशाली है। सबसे बड़ी बात यह कि आम जनमानस के प्रति उपेक्षा का रवैया अपनाने वाले इन लोगों का इस बात का अहसास धीरे धीरे तब होने लगेगा उनके जानने वाले तकनीक लोग उन्हें अपनी छवि के बारे में बतायेंगे।

————–

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

मैली गंगा और भरी थैली-हिन्दी कवितायें


हिमालय से निकली

पवित्र गंगा हर जगह

मैंली क्यों है।

पानी की हर बूंद पर

 गंदगी फैली क्यों है।

कहें दीपक बापू किनारे से

चलो धनवानों के घर तक

पत लग जायेगा

गंगा की धाराओं में

विष प्रवाहित करने के बदले

उनकी भरी थैली  क्यों है।

——————–

भीड़ लगी है ऐसे लोगों की

 जो मुख में राम

बगल में खंजर दबाये हैं।

खास लोगों का भी

जमघट कम नहीं है

कर दिया जिन्होंने

शहर में अंधेरा

अपना घर रौशनी से सजाये हैं।

कहें दीपक बापू किसे पता था

विकास का मार्ग

विनाश के समानातंर चलता है

मझधार में फंसी संस्कारी नाव

जिसे किसी ने पीछे लौटने के

 गुर नहीं बताये हैं।

——————————-

कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

४.हिन्दी पत्रिका

५.दीपकबापू कहिन

६. ईपत्रिका 

७.अमृत सन्देश पत्रिका

८.शब्द पत्रिका

जहर तो न पकाओ-हिन्दी कवितायें


सपना सभी का होता है

मगर राज सिंहासन तक

चतुर ही पहुंच पाते हैं।

बादशाहों की काबलियत पर

सवाल उठाना बेकार हैं

दरबार में उनकी

अक्लमंद भी धन के गुलाम होकर

सलाम बजाने पहुंच जाते हैं।

कहें दीपक बापू इंसानों ने

अपनी जिंदगी के कायदे

कुदरत से अलग बनाये,

ताकतवरों ने लेकर उनका सहारा

कमजोरों पर जुल्म ढहाये,

हुकुमतों के गलियारों में

जज़्बातों के कातिल भी पहरेदारी

करने पहुंच जाते हैं।

—————

भोजन जल्दी खाना है

या पकाना

पता नहीं

मगर जहर तो न पकाओ।

दुनियां में अधिक खाकर

आहत होते हैं लोग

भूख से मरने का

भय दिल में न लाओ।

कहें दीपक बापू जिंदगी में

पेट भरना जरूरी है

जहर खायेंगे

यह भी क्या मजबूरी है

घर की नारी के हाथ से बने

भोजन के मुकाबले

कंपनी दैत्य के विषैले

चमकदार लिफाफे में रखे

प्रसाद को कभी अच्छा न बताओ।

—————————-

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

देवताओं ने सीखें सफलता का मंत्र-हिन्दी चिंत्तन लेख


                              मनुष्य मन का भटकाव उसे कभी लक्ष्य तक नहीं पहुंचने देता। जीवन संघर्ष में अनेक अच्छे और बुरे अवसर आते हैं पर ज्ञानी मनुष्य अपने लक्ष्य पथ से अलग नहीं होता।  कहा जाता है कि इस संसार में समय और प्रकृति बलवान है और उनके नियमों के अनुसार ही जीवन चक्र चलता है।  मनुष्य में उतावलपन अधिक रहता है इसलिये वह अपने परिश्रम का परिणाम जल्दी प्राप्त कर लेना चाहता है। ऐसा न होने पर वह निराश और हताश होकर अपने लक्ष्य से अलग हो जाता है या फिर अपना पथ बदल देता है।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

——————————

रत्नेर्महार्हस्तुतुंषुर्न देवा न भेजिरेभीमविषेण भीतिम्।

सुधां विना न प्रययुर्विरामं न निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीरा।

                              हिन्दी में भावार्थ-समुद्र मंथन के समय अनमोल निकलने पर भी देवता प्रसन्न नहीं हुए। न विष निकलने पर विचलित हुए। वह तब तक नहीं रुके जब तक अमृत निकलकर उनके हाथ नहीं आया। धीर पुरुष अपना लक्ष्य प्राप्त किये बिना कभी अपना काम बीच में नहीं छोड़ते।

          वर्तमान काल में शीघ्र तथा संक्षिप्त मार्ग से सफलता पाने का विचार करने में ही लोग अपना समय गंवा देते हैं।  किसी काम में दो दिन लगते हों पर लोग उसे दो घंटे में करने की सोचते हुए पांच दिन गंवा देते हैं।  प्रकृत्ति का सिद्धांत कहता है कि हर कार्य अपने समय के अनुसार ही होता है।  मनुष्य को बस अपने कर्म करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

अज्ञान ही समस्त संकट का कारण-पतंजलि योग साहित्य


       पूरे विश्व में 21 जून को योग दिवस मनाया जा रहा है। इसका प्रचार देखकर ऐसा लगता है कि योग साधना के दौरान किये जाने वाले आसन एक तरह से ऐसे व्यायाम हैं जिनसे बीमारियों का इलाज हो जाता है।  अनेक लोग तो योग शिक्षकों के पास जाकर अपनी बीमारी बताते हुए दवा के रूप में आसन की सलाह दवा के रूप में मांगते हैं।  इस तरह की प्रवृत्ति योग विज्ञान के प्रति  संकीर्ण सोच का परिचायक है जिससे उबरना होगा।  हमारे योग दर्शन में न केवल देह वरन् मानसिक, वैचारिक तथा आत्मिक शुद्धता की पहचान भी बताई जाती है जिनसे जीवन आनंद मार्ग पर बढ़ता है।

पातञ्जलयोग प्रदीप में कहा गया है कि

———————–अनित्यशुचिदःखनात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या।।

हिन्दी में भावार्थ-अनित्य, अपवित्र, दुःख और जड़ में नित्यता, पवित्रता, सुख और आत्मभाव का ज्ञान अविद्या है।

         आज भौतिकता से ऊबे लोग मानसिक शांति के लिये कुछ नया ढूंढ रहे हैं।  इसका लाभ उठाते हुए व्यवसायिक योग प्रचारक योग को साधना की बजाय सांसरिक विषय बनाकर बेच रहे हैं। हाथ पांव हिलाकर लोगों के मन में यह विश्वास पैदा किया जा रहा है कि वह योगी हो गये हैं। पताञ्जलयोग प्रदीप के अनुसार  योग न केवल देह, मन और बुद्धि का ही होता है वरन् दृष्टिकोण भी उसका एक हिस्सा है। किसी वस्तु, विषय या व्यक्ति की प्रकृृत्ति का अध्ययन कर उस पर अपनी राय कायम करना चाहिये। बाह्य रूप सभी का एक जैसा है पर आंतरिक प्रकृत्तियां भिन्न होती हैं। आचरण, विचार तथा व्यवहार में मनुष्य की मूल प्रकृत्ति ही अपना रूप दिखाती है। अनेक बार बाहरी आवरण के प्रभाव से हम किसी विषय, वस्तु और व्यक्ति से जुड़ जाते हैं पर बाद में इसका पछतावा होता है। हमने देखा होगा कि लोहे, लकड़ी और प्लास्टिक के रंग बिरंगे सामान बहुत अच्छे लगते हैं पर उनका मूल रूप वैसा नहीं होता जैसा कि दिखता है। अगर उनसे रंग उतर जाये या पानी, आग या हवा के प्रभाव से वह अपना रूप गंवा दें तब उन्हें देखने पर अज्ञान की  अनुभूति होती है।  अनेक प्रकार के संबंध नियमित नहीं रहते पर हम ऐसी आशा करते हैं। इस घूमते संसार चक्र में हमारी आत्मा ही हमारा साथी है यह सत्य ज्ञान है शेष सब बिछड़ने वाले हैं। हम बिछड़ने वाले व्यक्तियों, छूटने वाले विषयों और नष्ट होने वाली वस्तुंओं में मग्न होते हैं पर इस अज्ञान का पता योग चिंत्तन से ही चल सकता है। तब हमें नित्य-अनित्य, सुख-दुःख और जड़े-चेतन का आभास हो जाता है।

———————

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

क्रिकेट खेल बिकने वाली सेवा मान लें तो कोई समस्या नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख


क्रिकेट के मैच अब खिलाड़ियों के पराक्रम  से खेले नहीं जाते नहीं वरन् टीमों के स्वामियों की लिखी पटकथा के अभिनीत किये  जाते हैं। इसका पहले हमें उस समय अनुमान हुआ था जब आज से आठ दस साल पहले इसमें इसके परिणाम सट्टेबाजों के अनुसार पूर्व निर्धारित किये जाने के आरोप लगे थे। उस समय एक ऐसे मैच की बात सुनकर हंसी आई थी जिसमें खेलने वाली दोनों टीमें हारना चाहती थी।  उस समय लगातार ऐसे समाचार आये कि हमारी क्रिकेट में रुचि समाप्त हो गयी।

अब जिस तरह क्रिकेट के व्यापार से जुड़े लोगों की हरकतें दिख रही हैं उससे यह साफ होता है कि क्रिकेट खेल अब फिल्म की तरह हो गया है। क्रिकेट के व्यापार में लगे कुछ लोग जब असंतुष्ट होते हैं तो ऐसी पोल खेलते हैं कि सामान्य आदमी हतप्रभ रह जाता है।  टीवी पर आंखों देखा हाल सुना रहे अनेक पुराने क्रिकेट खिलाड़ी भी अनेक बार उत्साह में कह जाते हैं कि इसमें केवन मनोरंजन, मनोरंजन मनोंरंजन ढूंढना चाहिये।  हम जैसे लोग डेढ़ दशक से मूर्ख बनकर इसमें राष्ट्रभक्ति का भाव ढूंढते रहे। स्थिति यह रही कि क्रिकेट, फिल्म, टीवी, टेलीफोन, अखबार तथा रेडियो जैसे मनोरंजन साधनों पर कंपनी राज हो गया है।  स्वामी लोग फिल्म वालों को क्रिकेट मैच और क्रिकेट खेलने वालों ने चाहे जब नृत्य करवा लेते हैं।  टीवी के लोकप्रिय कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति दिखाते हैं। ऐसे में लोग भले ही फिल्म, टीवी, और क्रिकेट के लोकप्रिय नामों पर फिदा हों पर समझदार लोग उन्हें धनवान मजदूर से अधिक नहीं मानते।  हमारा  विचार तो यह है कि क्रिकेट, टीवी धारावाहिक और फिल्म में अपना दिमाग अधिक खर्च नहीं करना चाहिये।

——————-

कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

४.हिन्दी पत्रिका

५.दीपकबापू कहिन

६. ईपत्रिका 

७.अमृत सन्देश पत्रिका

८.शब्द पत्रिका

सहज योगी उपेक्षासन करना भी सीखें-21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष हिन्दी चिंत्तन लेख


                  21 जून विश्व योग दिवस जैसे जैसे करीब आता जा रहा है वैसे वैसे भारतीय प्रचार माध्यम भारतीय अध्यात्मिक विचारधारा न मानने वाले समुदायों के कुछ लोगों को ओम शब्द, गायत्री मंत्र तथा सूर्यनमस्कार के विरोध करने के लिये बहस में निष्पक्षता के नाम पर बहसों में आगे लाकर अपने विज्ञापन का समय पास कर रहे हैं। हमारा मानना है कि भारतीय योग विद्या को विश्व पटल पर स्थापित करने के इच्छुक लोगों को ऐसी तुच्छ बहसों से दूर होना चाहिये। उन्हें विरोध पर कोई सफाई नहीं देना चाहिये।

                 योग तथा ज्ञान साधक के रूप में हमारा मानना है कि ऐसी बहसों में न केवल ऊर्जा निरर्थक जाती है वरन् तर्क वितर्क से कुतर्क तथा वाद विवाद से भ्रम उत्पन्न होता है।  भारतीय प्रचार माध्यमों की ऐसे निरर्थक बहसों से योग विश्वभर में विवादास्पद हो जायेगा। विश्व योग दिवस पर तैयारियों में लगी संस्थायें अब विरोध की सफाई की बजाय उसके वैश्विक प्रचार के लिये योग प्रक्रिया तथा विषय का प्रारूप बनाने का कार्य करें। जिन पर इस योग दिवस का जिम्मा है वह अगर आंतरिक दबावों से प्रभावित होकर योग विद्या से छेड़छाड़ करते हैं तो अपने ही श्रम को व्यथ कर देंगे।

           हम यहां बता दें कि भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा का देश में ही अधिक विरोध होता है। इसका कारण यह है कि जिन लोगों ने गैर भारतीय विचाराधारा को अपनाया है वह कोई सकारात्मक भाव नहीं रखते। इसके विपरीत यह कहना चाहिये कि नकारात्मक भाव से ही वह भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा से दूर हुए हैं।  उन्हें समझाना संभव नहीं है।  ऐसे समुदायों के सामान्य जनों को समझा भी लिया जाये पर उनके शिखर पुरुष ऐसा होने नहीं देंगे। इनका प्रभाव ही भारतीय विचाराधारा के विरोध के कारण बना हुआ है। वैसे हम एक बात समझ नहीं पाये कि आखिर चंद लोगों को गैर भारतीय विचाराधारा वाले समुदायों का प्रतिनिधि कैसे माना जा सकता है?  समझाया तो भारतीय प्रचार माध्यमों के चंद उन लोगों को भी नहीं जा सकता जो निष्पक्षता के नाम पर समाज को टुकड़ों में बंटा देखकर यह सोचते हुए प्रसन्न होते हैं कि विवादों पर बहसों से उनके विज्ञापन का समय अव्छी तरह पास हो जाता है।

           योग एक विज्ञान है इसमें संशय नहीं है। श्रीमद्भागवत गीता संसार में एक मात्र ऐसा ग्रंथ है जिसमें ज्ञान तथा विज्ञान है। यह सत्य भारतीय विद्वानों को समझ लेना चाहिये।  विरोध को चुनौती समझने की बजाय 21 जून को विश्व योग दिवस पर समस्त मनुष्य योग विद्या को सही ढंग से समझ कर इस राह पर चलें इसके लिये उन्हें मूल सामग्री उलब्ध कराने का प्रयास करना चाहिये।  विरोधियों के समक्ष उपेक्षासन कर ही उन्हें परास्त किया जा सकता है। उनमें  योग विद्या के प्रति सापेक्ष भाव लाने के लिये प्रयास करने से अच्छा है पूरी ऊर्जा भारत तथा बाहर के लोगों में दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक रूप से स्वस्था रहने के इच्छुक लोगों को जाग्रत करने में लगायी जाये।

————————

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com

यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।

इस लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकायें जरूर देखें

1.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका

2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका

3.दीपक भारतदीप का  चिंतन

4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका

5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका

६.ईपत्रिका

७.दीपकबापू कहिन

८.जागरण पत्रिका

८.हिन्दी सरिता पत्रिका

हर विषय पर योग दृष्टि से विचार करें-21 जून विश्व योग दिवस पर विशेष लेख


       पूरे विश्व में 21 जून को योग दिवस मनाया जा रहा है। इसका प्रचार देखकर ऐसा लगता है कि योग साधना के दौरान किये जाने वाले आसन एक तरह से ऐसे व्यायाम हैं जिनसे बीमारियों का इलाज हो जाता है।  अनेक लोग तो योग शिक्षकों के पास जाकर अपनी बीमारी बताते हुए दवा के रूप में आसन की सलाह दवा के रूप में मांगते हैं।  इस तरह की प्रवृत्ति योग विज्ञान के प्रति  संकीर्ण सोच का परिचायक है जिससे उबरना होगा।  हमारे योग दर्शन में न केवल देह वरन् मानसिक, वैचारिक तथा आत्मिक शुद्धता की पहचान भी बताई जाती है जिनसे जीवन आनंद मार्ग पर बढ़ता है।

पातञ्जलयोग प्रदीप में कहा गया है कि
———————–
अनित्यशुचिदःखनात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या।।

हिन्दी में भावार्थ-अनित्य, अपवित्र, दुःख और जड़ में नित्यता, पवित्रता, सुख और आत्मभाव का ज्ञान अविद्या है।

         आज भौतिकता से ऊबे लोग मानसिक शांति के लिये कुछ नया ढूंढ रहे हैं।  इसका लाभ उठाते हुए व्यवसायिक योग प्रचारक योग को साधना की बजाय सांसरिक विषय बनाकर बेच रहे हैं। हाथ पांव हिलाकर लोगों के मन में यह विश्वास पैदा किया जा रहा है कि वह योगी हो गये हैं। पताञ्जलयोग प्रदीप के अनुसार  योग न केवल देह, मन और बुद्धि का ही होता है वरन् दृष्टिकोण भी उसका एक हिस्सा है। किसी वस्तु, विषय या व्यक्ति की प्रकृृत्ति का अध्ययन कर उस पर अपनी राय कायम करना चाहिये। बाह्य रूप सभी का एक जैसा है पर आंतरिक प्रकृत्तियां भिन्न होती हैं। आचरण, विचार तथा व्यवहार में मनुष्य की मूल प्रकृत्ति ही अपना रूप दिखाती है। अनेक बार बाहरी आवरण के प्रभाव से हम किसी विषय, वस्तु और व्यक्ति से जुड़ जाते हैं पर बाद में इसका पछतावा होता है। हमने देखा होगा कि लोहे, लकड़ी और प्लास्टिक के रंग बिरंगे सामान बहुत अच्छे लगते हैं पर उनका मूल रूप वैसा नहीं होता जैसा कि दिखता है। अगर उनसे रंग उतर जाये या पानी, आग या हवा के प्रभाव से वह अपना रूप गंवा दें तब उन्हें देखने पर अज्ञान की  अनुभूति होती है।  अनेक प्रकार के संबंध नियमित नहीं रहते पर हम ऐसी आशा करते हैं। इस घूमते संसार चक्र में हमारी आत्मा ही हमारा साथी है यह सत्य ज्ञान है शेष सब बिछड़ने वाले हैं। हम बिछड़ने वाले व्यक्तियों, छूटने वाले विषयों और नष्ट होने वाली वस्तुंओं में मग्न होते हैं पर इस अज्ञान का पता योग चिंत्तन से ही चल सकता है। तब हमें नित्य-अनित्य, सुख-दुःख और जड़े-चेतन का आभास हो जाता है।

———————

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

भक्ति में जादू का मिश्रण-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


दूसरे पर तरह खाते वही

अपनी देह पर तरह तरह के

वेश धारण करने में

जिनकी आसक्ति है।

चमकते सिंहासन पर विराजे

समाज सेवा के व्यापार में

बेचते भ्रम सत्य के नाम पर

उनके शब्दों में इतनी शक्ति है।

कहें दीपक बापू प्रमाण पत्र

कोई नहीं  देखता

प्रसिद्ध हो जाने पर

प्रश्न नहीं उठाता

चतुराई में सिद्धि आने पर,

गुरु को दोष देना व्यर्थ

शिष्य वही आते

जिनकी जादू में भक्ति है।

——————-

दूसरे पर तरह खाते वही

अपनी देह पर तरह तरह के

वेश धारण करने में

जिनकी आसक्ति है।

चमकते सिंहासन पर विराजे

समाज सेवा के व्यापार में

बेचते भ्रम सत्य के नाम पर

उनके शब्दों में इतनी शक्ति है।

कहें दीपक बापू प्रमाण पत्र

कोई नहीं  देखता

प्रसिद्ध हो जाने पर

प्रश्न नहीं उठाता

चतुराई में सिद्धि आने पर,

गुरु को दोष देना व्यर्थ

शिष्य वही आते

जिनकी जादू में भक्ति है।

——————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

सत्य से लोग घबड़ाते हैं-हिन्दी व्यंग्य कविताये


कत्ल की खबर

प्रचार के बाज़ार में

महंगी बिक जाती है।

व्याभिचार का विषय हो तो

दिल दहलाने के साथ

 मनोरंजन के तवे पर विज्ञापन की

रोटी भी सिक जाती है।

कहें दीपक बापू साहित्य को

समाज बताया जाता था दर्पण,

शब्दों का अब नहीं किया जाता

पुण्य के लिये तर्पण,

अर्थहीन शब्द

चीख कर बोलने पर

प्रतिष्ठा पाता

जिसके भाव शांत हों

उसकी किसी के दिल पर स्मृति

टिक नहीं पाती है।

———————–

सत्य से सभी लोग

बहुत कतराते हैं,

झूठे अफसानों से

अपना दिल

इसलिये बहलाते हैं।

सड़क पर पसीने से

नहाये चेहरों से

फेरते अपनी नज़र

खूबसुरत तस्वीरों से

अपनी आंखें सहलाते हैं।

कहें दीपक बापू सोच का युद्ध

ज़माने में चलता रहा है,

घमंड में डूबे लोग

अक्ल का खून बहा है,

सौेदागर ख्वाब बेचकर

पैसा कमा रहे हैं,

ज़माने पर अपना

राज भी जमा रहे हैं,

बगवात रोकने वाले

सबसे बड़े चालाक कहलाते हैं।

—————–

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा के अनुसरण से ही विश्व शांति संभव-हिन्दी चिंत्तन लेख


            फ्रांस के पेरिस में लगातार आतंकवादी हमलों से वहां के वातावरण जो भावनात्मक विष मिश्रित हो रहा है उसे कोई समझ नहीं पा रहा है।  ऐसा लगता है कि विश्व में मध्य एशिया से निर्यातित आतंकवाद के मूल तत्व को कोई समझ नहीं पा रहा है। हमारे देश में कथित रूप से जो सर्व धर्म समभाव या धर्म निरपेक्ष का राजनीतिक सिद्धांत प्रचलित है वह विदेश से आयातित है और भारतीय दर्शन या समाज की मानसिकता का उससे कोई संबंध नहीं है। पहले तो सर्व धर्म शब्द ही भारतीय के लिये एक अजीब शब्द है।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन में कहीं भी हिन्दू धर्म का नाम नहीं है वरन् उसे आचरण और कर्म से जोड़ा गया है।  कभी कभी सर्व धर्म भाव या धर्मनिरपेक्ष शब्द कौतूहल पैदा करता है।  इस संसार में आचरण या कर्म के आशय से प्रथक अनेक कथित धर्म हो सकते हैं-यह बात भारतीय ज्ञान साधक के लिये सहजता से गेय नहीं हो पाती।

            जब हम यह दावा करते हैं कि हमारे देश में विभिन्नता में एकता रही है तो उसका आम जनमानस में  पूजा पद्धति के प्रथक प्रथक रूपों की स्वीकार्यता से है। हम जैसे अध्यात्मिक ज्ञान साधकों के लिये किसी की भी पूजा पद्धति या इष्ट के रूप पर प्रतिकूल टिप्पणी करना अधर्म करने वाला काम होता है। सर्वधर्म समभाव तथा धर्म निरपेक्ष शब्द अगेय लगते हैं पर इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी मूल भावना से कोई विरोध है।  इसके बावजूद विश्व में प्रचलित कथित धर्मों के नाम पर चल रही गतिविधियों का आंकलन करना जरूरी लगता है।  स्पष्टतः मानव में अदृश्य सर्वशक्तिमान के प्रति जिज्ञासा तथा सम्मान का भाव रहता है।  इसी का दोहन के करने के लिये अनेक प्रकार की पूजा पद्धतियां तथा इष्ट के रूप में निर्मित किये गये।  यहां तक सब ठीक है पर उससे आगे जाकर अज्ञात सर्वशक्तिमान  के आदेश के नाम पर मनुष्य जीवन के रहन सहन, खान पान तथा पहनावे तक के नियम भी बनाने की प्रक्रिया चतुर मनुष्यों की अपना स्थाई समूह बनाकर अपना वैचारिक सम्राज्य विस्तार की इच्छा का परिणाम लगता है।  वह इसमें सफल रहे हैं।  पूजा पद्धतियां और इष्ट के रूप अब मनुष्य के लिये धर्म की पहचान बन गये हैं।  उससे भी आगे रहन सहन, पहनावे और खान पान में अपने शीर्ष पुरुषों के सर्वशक्तिमान के संदेश के नाम पर बिना चिंत्तन किये अनुसरण इस आशा में करते हैं कि इस धरती पर इस नश्वर देह के बिखरने के बाद आकाश में भी बेहतर स्थान मिलेगा। पूजा पद्धतियां और सर्वशक्तिमान के रूप ही लोगों की पहचान अलग नहीं कर सकते क्योंकि इनके साथ मनुष्य एकांत में या कम जन समूह में संपर्क करता है जबकि खान पान, रहन सहन तथा पहनावे से ही असली धर्म की पहचान होती है।  हम एक तरह से कहें कि जिस तरह सर्व धर्म समभाव या धर्म निरपेक्षता राजनीतिक शब्दकोष से आये हैं उसी तरह विभिन्न धर्मों से जुड़े शब्द भी प्रकट हुए हैं।  हम सीधी बात कहें तो पूजा पद्धति और इष्ट के रूप से आगे निकली धर्म की पहचान उसके शिखर पुरुषों की राजनीतिक विस्तार करती है।  ऐसे में जब हम जैसे चिंत्तक विभिन्न नाम के धर्मों को देखते हैं तो सबसे पहला यह प्रश्न आता है कि उसकी सक्रियता से राजनीतिक लाभ किसे मिल रहा है?

            इतिहास बताता है कि मध्य एशिया में हमेशा ही संघर्ष होता रहा है। परिवहन के आधुनिक साधनों से पूर्व विश्व के मध्य में स्थित होने के कारण दोनों तरफ से आने जाने वाले लोगों को यहां से गुजरना होता था।  इसलिये यह मध्य एशिया पूरे विश्व के लिये चर्चा का विषय रहा है।  तेल उत्पादन की वजह से वहां माया मेहरबान है और ऐसे में इस क्षेत्र के प्रति विश्व के लोगों का आकर्षण होना स्वाभाविक रहा है।  ऐसे में मध्य एशिया ने अपनी पूजा पद्धति और इष्ट के रूप के साथ मनुष्य जीवन में हस्तक्षेप करने वाली प्रक्रियाओं को जोड़कर अपने धर्म का प्रचार कर अपना साम्राज्य सुरक्षित किया है।  इस क्षेत्र में अन्य पूजा पद्धतियों या इष्ट के रूप मानने वालों को स्वीकार नहीं किया जाता मगर इसके बावजूद उन पर सर्वधर्म समभाव या धर्मनिरपेक्ष भाव अपनाने का का दबाव कोई नहीं डाल सकता।  अलबत्ता इन्होंने अपने दबाव से भिन्न पूजा पद्धतियों और इष्ट के रूप मानने वालों को  सर्वधर्म समभाव या धर्मनिरपेक्ष भाव अपनाने का दबाव डाला।  इनके पास तेल और गैस के भंडार तथा उससे मिली आर्थिक संपन्नता से विश्व के मध्यवर्गीय समाज का वहां जाने के साथ  अपने क्षेत्र में ही प्रमुख धार्मिक स्थान होने की वजह से जो शक्ति मिली उससे मध्य एशिया के देशों की ताकत बढ़ी।  यह क्षेत्र आतंकवाद का निर्यातक इसलिये बना क्योंकि अपना भावनात्मक साम्राज्य विश्व में बदलाव से नष्ट होने की आशंका यहां के शिखर पुरुषों में हमेशा रही है।

            हमें इनकी गतिविधियों पर कोई आपत्ति नहीं है पर हम यह साफ कहना चाहते हैं कि पूजा पद्धति और इष्ट के रूप के आगे जाकर कथित रूप से अन्य परंपरायें शुद्ध रूप से राजसी विषय है-स्पष्टत । सात्विक भाव का इनसे कोई संबंध नहीं है। हमारा भारतीय अध्यात्मिक दर्शन जिसे सुविधा के लिये हम हिन्दू संस्कृति का आधार भी कह सकते हैं वह केवल पूजा पद्धति के इर्दगिर्द ही रहा है।  इतना ही नहीं जीवन को सहन बनाने के लिये योग साधना जैसी विधा इसमें रही है जिसमें आसन, प्राणायाम तथा ध्यान के माध्यम से समाधि का लक्ष्य पाकर व्यक्त्तिव में निखार लाया जा सकता है।  भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का आधार ग्रंथ श्रीमद्भागवत गीता स्वर्णिम शब्दों का भंडार है  सांसरिक विषय का रत्तीभर भी उल्लेख  नहीं है।  स्पटष्तः कहा गया है कि अध्यात्मिक ज्ञान होने पर मनुष्य राजसी विषय में भी सात्विकता से सक्रिय रह कर सहज जीवन बिता सकता है।  खान पान, पहनावे, तथा रहन सहन के साथ ही कोई ऐसा धार्मिक प्रतीक चिन्ह नहीं बताया गया जिससे अलग पहचान बनी रहे। हमारी पहचान दूसरे कथित धर्मों से अलग इसलिये दिखती है क्योंकि उनके मानने वाले अपनी विशिष्ट पहचान के लिये बाध्य किये गये दिखते हैं।

            जिस तरह पूरे विश्व में कथित धर्मों के बीच संघर्ष चल रहा है उसके आधार पर हमारी यही राय बनी है कि उनके आधार राजनीतिक ही हैं। हमारे देश के लोग यह कहते हैं कि धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिये तो उन्हें यह समझना होगा कि इस नियम का पालन केवल भारतीय अध्यात्मिक विचारधाराओं में ही होता है।  बाहर से आयातित सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा साहित्य विचाराधारायें शुद्ध रूप से राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली हैं। अगर ऐसा न होता तो रहन सहन, खान पान तथा पहनावा जो भौगोलिक आधारों पर तय होना चाहिये उसके लिये सर्वशक्तिमान के आदेश बताने की जरूरत नहीं होती।

———————————

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

कमाई के जरिये पर कोई सवाल नहीं उठता-हिंदी कविताएँ


बाहर हंसने की

नाकाम कोशिश करते लोग

मगर उनके दिल टूटे हैं।

शब्दों का मायाजाल

बुनने में सभी माहिर होते

अनुमान नहीं लगता कि

अर्थ कितने सत्य कितने झूठे हैं।

कहें दीपक बापू सभी के दिल

लगे हैं माया जोडने में,

कुछ उड़ाते

वफा का वादा हवा में

कुछ लगे रिश्ते तोड़ने में,

कमाई के जरिये पर

कोई सवाल नहीं करता

जानना चाहते हैं कि

किसने कितने सिक्के लूटे हैं।

———————

पद पैसे और प्रतिष्ठा के

शिखर पर आकर

हर कोई वाणी के नियम से

मुक्त हो जाता है।

चला न जाता

स्वयं जिस पथ पर

उसके प्रदर्शक बनने की

योग्यता से युक्त हो जाता है।

कहें दीपक बापू रबड़ की जीभ

धरा पर  तलवार की तरह चलती

 तब कोई नहीं देखता

चढ़ जाये सफलता के सिर पर

हर किसी की नज़र में

इंसान का मुख वाक्य

अलंकार से संयुक्त हो जाता है।

——————-

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

अपनी बात-हिन्दी कविता


कभी कभी हम

कुछ पंक्तियों में

अपनी बात कह जाते हैं।

हालातों से बेजार ज़माना

भटका है बाज़ार की

भूलभुलैया में

किससे कहें अपने शब्द

लोगों के कान

अपने मतलब की बात

सुनने के लिये ही रहते आतुर

हम स्वयं से ही कहते

दिल की बात

कागज अपना साथी बनाते हैं।

कहें दीपक बापू संवेदना से

जिनका नाता है

वही अकविता में भी

कवित्व समझ पाते हैं। 

——————————————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

ऊंचे और शानदार भवन-हिन्दी कविताऐं


धन का शिखर

हमेशा चमकदार दिखता है

मगर कोई चढ़ नहीं पाता।

एक रुपये की चाहत

करोड़ों तक पहुंचती

चढ़ते जाते फिर भी लोग शौक से

चाहे वह हमेशा दूर ही नज़र आता।

कहें दीपक बापू माया की दौड़ में

शामिल धावकों की कमी नहीं है,

कुछ औंधे मुंह गिरे

जो दौड़ते रहे

फिर भी उनको

सफलता जमी नहीं है,

यह माया का खेल है

किसी के हाथ आयी

किसी के हाथ से गयी

जीतकर भी कोई नहीं

सिर ऊंचा कर पाया

नाकाम धावक

प्राण भी दांव पर लगाता है।

———————-

हर शहर में

ऊंचे और शानदार भवन

सीना तानकर खड़े हैं।

आंखें नीचे कर देखो

कहीं गड्ढे में सड़क हैं

कहीं सड़कों पर गड्ढे

पैबंद की तरह जड़े हैं।

कहें दीपक बापू खूबसूरत

शहर बहुत सारे कहलाते हैं,

कूड़े के  मिलते ढेर भी

आंखों को दहलाते हैं,

विकास की दर ऊपर

जाती दिखती जरूर है

मुश्किल यह है कि

हमारी सोच स्वच्छ नहीं हो पाती

गंदी सांसों में फेर में  जो पड़े हैं।

—————————-

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

४.हिन्दी पत्रिका

५.दीपकबापू कहिन

६. ईपत्रिका 

७.अमृत सन्देश पत्रिका

८.शब्द पत्रिका

सफाई की जिम्मेदार दूसरे पर-2 अक्टूबर महात्मा गांधी जयंती पर भारत स्वच्छता अभियान पर विशेष हिन्दी कविता


पेट में डालकर दाना

कूड़ा वह राह पर

फैंक देते हैं

यह सोचकर कि

कोई दूसरा आकर उठायेगा।

सभी व्यस्त हैं काम में

फुर्सत नहीं किसी को

फालतू काम और बातों से

ख्याल यह है कि सफाई के लिये

कोई दूसरा आकर

अपना समय लुटायेगा।

कहें दीपक बापू आर्थिक दंड

अनिवार्य होना चाहिये

सार्वजनिक स्थान में

कचड़ा फैलाने पर

तब कोई सफाई के लिये समय

य पैसे स्वयं जुटायेगा।

———————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

धर्म की पहचान-हिंदी व्यंग्य कविताएँ


धर्म की पहचान

अलग अलग रंग के

कपड़े और टोपी हो गयी है।

ठेकेदारों ने तय किये हैं

नैतिकता और आदर्श के पैमाने

आम इंसान की अक्ल

उनको नापने में खो गयी है।

जो हर काम में हारे हैं

वही धर्म के सहारे हैं

विदेशी आयातित नारे लगाते हुए

देशी भक्ति सो गयी है।

कहें दीपक बापू सहज राह

चलने की आदत नहीं रही

किसी समाज में

ठेकेदार दिखाते धर्म का मार्ग

रंगीन तस्वीरों में खोए लोग के लिये

ज्ञान की किताबों गूढ़ हो गयी हैं।

———————-

इंसानों की आदत है

अपनी नाकामी का बोझ

दूसरों पर डालते हैं।

अपनी जेब को भरने के लिये सभी तैयार

परमार्थ का काम

परमात्मा पर टालते हैं।

विलासिता का आनंद

कभी कष्टमय होता है

फिर भी लोग

अपने मन में पालते हैं।

कहें दीपक बापू कल्याण का काम

ठेके पर होने लगा है,

दाम चुकाओ तो ठीक

वरना वफा के नाम पर

हर जगह मिलता दगा है,

मजबूरों की मेहनत के दम पर

सभी ताकतवर अपने घर

सोने के सामानों ढालते हैं।

——————-

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

४.हिन्दी पत्रिका

५.दीपकबापू कहिन

६. ईपत्रिका 

७.अमृत सन्देश पत्रिका

८.शब्द पत्रिका

छिपाते जो खजाना वही अमीर होते-हिन्दी व्यंग्य काव्य रचनाये


कई बार सुना  वह लोग अमीर हो जाते हैं,

जिनके हाथ छिपे खजाने लग जाते हैं।

कहें दीपक बापू अब देखते हैं हम

छिपाते हैं जो अपना खजाना वही  अमीर कहलाते हैं।

———–

लुटेरों को अब कोई भय नहीं सताता है,

खजाने में पहरेदारों से ही हिस्सा मिल जाता है।

कहें दीपक बापू अपराधों का पैमाना ऊपर जाये तो जाये

रुपहले पर्दे पर ज़माने के हालात पर होती चर्चा

रोने वाला भी कमाई कर जाता है।

———

किस जगह कौनसा सामान कब तक बचायें,

लुटने की फिक्र में जिंदगी कब तक दाव पर लगायें।

कहें दीपक बापू चिंता से बेहतर हैं चिंत्तन करना

सामानों का उपयोग करें पर दिल न लगायें।

————

जिस मशहूर आदमी के हाथ में कोई काम नहीं रह पाता है,

वही सर्वशक्तिमान के दर पर मत्था टेकने पहुंच जाता है।

कहें दीपक बापू पर्दे पर दिखने के  लिये बेताब है सभी

 कोई इंसान अपने चरित्र से भी बेपर्दा हो जाता है।

————–

पर्दे पर चेहरा दिखाने का मोह इंसानों को भटका देता है,

कोई चलता भद्दी चाल कोई चरित्र सरेराह लटका लेता है।

कहें दीपक बापू मूर्खतापूर्ण अदाओं से  बहलाने वाला आदमी

लोकप्रिय होने की तख्ती अपने नाम के साथ अटका देता है।

——————–

खबरची किसी की लहर ऊपर उठाते किसी की गिराते हैं,

डूबने वाले से करते किनारा 

मगर खुद पार लगने वाले पर अपनी मेहरबानी दिखाते हैं।

कहें दीपक बापू पर्दे पर खबरें लहरों की तरह बहती हैं,

आ गयी खोपड़ी के किनारे उन पर ही हम नज़र टिकाते हैं।

—————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

अल्मारी में बंद किताब-हिन्दी कविताये


अमीरों के सिक्कों पर सारा संसार चल रहा है,

राजा का खजाना भरता उनकी भेंट से

तो गरीब का पेट उनकी चाकरी से पल रहा है।

कहें दीपक बापू अमीरों के कई इंसानी बुत प्रायोजित है

कोई उनके लिये बनता है पैसा लेकर खलनायक,

कोई उपहार लेकर बन जाता नायक,

जिसे कुछ नहीं मिलता

वह खाली बैठा हाथ मल रहा है

————-

स्वांत सुखाय शब्द रचना व्यर्थ हो जाती है,

सिक्के मिलें तो अर्थ खो जाती है।

कहें दीपक बापू अपना अपना नजरिया है

प्रायोजन से बाज़ार में सज गयी किताबें ढेर सारी,

अल्मारी में बंद है इस इंतजार में कि कब आयेगी

पाठक की नज़र में उसकी बारी,

इनमें कुछ ही पुरस्कारों का

बोझ भी ढो जाती हैं।

———–

 

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

 

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

४.हिन्दी पत्रिका

५.दीपकबापू कहिन

६. ईपत्रिका 

७.अमृत सन्देश पत्रिका

८.शब्द पत्रिका

बादशाहों का ताज जनता का हाल-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


एक इंसान वह हैं जो कृत्रिम वातानुकूलन यंत्र से सजे

महलों में लेते सांस

रास्ते पर वाहनों में सफर करते हुए भी

जिंदगी में बदलाव की हवा से कांपते हैं,

दूसरी तरफ वह मेहनतकश भी हैं जो

गर्मी की भरी दोपहरिया में

खेत खलिहान और चौराहों पर

पसीना बहाते हुए अपनी तकलीफों से दिखते लापरवाह

चाहे हांफते हैं।

कहें दीपक बापू उन अमीरों को

अपना दर्द सुनाने से कोई फायदा नहीं है,

कांपते जिनके बीमार दिल

मदद देना उनका कायदा नहीं है,

सच यह है कि जंग में खड़े रहते हैं वह यकीन के साथ,

पसीना बहाने में नही डरते जिनके हाथ,

उनकी सच्ची हमदर्दी की वीरता को हम भांपते हैं।

————

इतिहास गवाह है सिंहासन के लिये हमेशा जंग होती रही है,

बड़े योद्धाओं के जीत दर्ज कर पहना ताज क्रांति के नाम पर

यह अलग बात है जनता अपने चेहरे का रंग खोती रही है।

कहें दीपक बापू आम इंसान लड़ता रहा हमेशा

अपने लिये रोटी जुटाने के वास्ते,

मदद मांगने कभी नहीं गया वह राजमहल के रास्ते,

घर पर अपना आसन लगाकर बैठा रहा

उसे मालुम है कोई नहीं बनेगा हमदर्द

वह लोग तो कतई नहीं

जिनकी शाही पालकी

उसकी भुजाओं की मेहनत ढोती रही है

—————-

 

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

 

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

 

 

झगड़े से बचने के लिये अज्ञानी की छवि बनाये रखें-संत मलूक दास के दर्शन के आधार पर चिंत्तन लेख


         हमारे देश के लोगों की प्रकृति इस तरह की है उनकी अध्यात्मिक चेतना स्वतः जाग्रत रहती है। लोग पूजा करें या नहीं अथवा सत्संग में शामिल हों या नहीं मगर उनमें कहीं न कहीं अज्ञात शक्ति के प्रति सद्भाव रहता ही है। इसका लाभ धर्म के नाम पर व्यापार करने वाले उठाते हैं। स्थिति यह है कि लोग अंधविश्वास और विश्वास की बहस में इस तरह उलझ जाते हैं कि लगता ही नहीं कि किसी के पास कोई ज्ञान है। सभी धार्मिक विद्वान आत्मप्रचार के लिये टीवी चैनलों और समाचार पत्रों का मुख ताकते हैं। जिसे अवसर मिला वही अपने आपको बुद्धिमान साबित करता है।

            अगर हम श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों के संदर्भ में देखें तो कोई विरला ही ज्ञानी की कसौटी पर खरा उतरता है। यह अलग बात है कि लोगों को दिखाने के लिये पर्दे या कागज पर ऐसे ज्ञानी स्वयं को प्रकट नहीं करते। सामाजिक विद्वान कहते हैं कि हमारे भारतीय समाज एक बहुत बड़ा वर्ग धार्मिक अंधविश्वास के साथ जीता है पर तत्वज्ञानी तो यह मानते हैं कि विश्वास या अविश्वास केवल धार्मिक नहीं होता बल्कि जीवन केे अनेक विषयों में भी उसका प्रभाव देखा जाता है।

                  संत मलूक जी कहते हैं कि
——————-
भेष फकीरी जे करै, मन नहिं आये हाथ।

दिल फकीरी जे हो रहे, साहेब तिनके साथ।

          ‘‘साधुओं का वेश धारण करने से कोई सिद्ध नहीं हो जाता क्योंकि मन को वश करने की कला हर कोई नहीं जानता। सच तो यह है कि जिसका हृदय फकीर है भगवान उसी के साथ हैं।’’
‘‘मलूक’ वाद न कीजिये, क्रोधे देय बहाय।
हार मानु अनजानते, बक बक मरै बलाय।।
‘‘किसी भी व्यक्ति से वाद विवाद न कीजिये। सभी जगह अज्ञानी बन जाओ और अपना क्रोध बहा दो। यदि कोई अज्ञानी बहस करता है तो तुम मौन हो जाओ तब बकवास करने वाला स्वयं ही खामोश हो जायेगा।’’

             हमारे यहां धार्मिक, सामाजिक, कला तथा राजनीतिक विषयों पर बहस की जाये तो सभी जगह अपने क्षेत्र के अनुसार वेशभूषा तो पहन लेते हैं पर उनको ज्ञान कौड़ी का नहीं रहता। यही कारण है कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों के शिखरों पर अक्षम और अयोग लोग पहुंच गये हैं। ऐसे में उनके कार्यों की प्रमाणिकता पर यकीन नहीं करना चाहिए। मूल बात यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान या धार्मिक विश्वास सार्वजनिक चर्चा का विषय कभी नहीं बनाना चाहिए। इस पर विवाद होते हैं और वैमनस्य बढ़ने के साथ ही मानसिक तनाव में वृद्धि होती है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

मसले और मजबूरी-हिंदी व्यंग्य कविता


हमें ऊंचे लक्ष्य की तरफ उन्होंने मदद का

भरोसा देकर ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर  धकेल दिया

मौका आया तो बताने लगे अपने मसले और मजबूरी,

यूं ही छोड़ जाते तो कोई बात नहीं

उन्होंने बना ली दिल से दूरी।

कहें दीपक बापू तन्हाई इतना नहीं सताती,

बिछड़ने के दर्द दूर करने की कोई दवा नही आती

हमने भी तय किया है

उसी जंग में उतरेंगे जो लड़ सकेंगे खुद ही पूरी।

————————

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

इंसान और अंतरिक्ष-हिंदी व्यंग्य कविताएँ


सवाल उठा रहे जहान की हालातों पर

वह अक्लमंद लोग जिनको जवाब देने हैं,

बहस होती  उनमें पर्दे पर विज्ञापनों के बीच

मगर फैसला लापता है

जुबान से निकले शब्दों के

मतलब अक्लमंदों से भी लेने हैं।

कहें दीपक बापू  जहान की मुसीबतों का हल

किसी फरिश्ते के पास भी नहीं मिल सकता

फिर भी कागजी नायक तैयारी करते दिखते हैं

हर कोई टाल रहा असली मुद्दे

क्योंकि लोगों के मसले बहुत पैने हैं।

———-

इंसान भेजता रहता है चांद पर अंतरिक्ष यान,
आंकाश के रहस्य की तलाश में है
मगर अपनी धरती के स्वभाव से हो गया है अनजान।
कहें दीपक बापू संसार में विज्ञान की तरक्की बुरी नहीं
है
मगर दुःखदायी है बिना इंसानियत के ज्ञान,
पत्थर और लोहे का सामान रंग से चमकता है
आंखों देखती है तो दिल धमकता है,
फिर भी लगता है कहीं खालीपन
क्योंकि होती नहीं अपनी जान की पहचान
—————-

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””

Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior

http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग

1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका

2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका

3.दीपक भारतदीप का चिंतन

४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

विज्ञापन की नाव.हिंदी व्यंग्य कविता


कुछ खबरे बनती हैं कुछ बनायी जाती हैं,

बताते हैं खुद खबरची कुछ ढूंढते हैं हम मसाला

बनाते हैं चाट की तरह खबर

मिर्ची सनसनी के लिये

मिलाई जाती हैं।

कहें दीपक बापू पर्दे  हो या कागज

प्रचार की धारा में बहने के लिये विज्ञापन की नाव जरूरी है,

अपने चेहरे को लोकप्रियता के समंदर में

पार लगाने वालों की  यही मजबूरी है,

नशा करते हैं जो पढ़ने सुनने का

उनको खबर की किस्म का हो जाता है अहसास

बयान करने के अंदाज से अपनी वह असलियत बताती है।

—————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

 

रिश्ता और कीमत-दो हिन्दी व्यंग्य क्षणिकायें


दौलत चाहे बेईमानी से घर में आये

पहरेदारी के लिये ईमानदार शख्स जरूरी है,

ईमानदारी अभी तक नहीं मिटी इस धरती पर

जिंदगी बचाने के लिये उसे बनाये रखना

सर्वशक्तिमान की मजबूरी है।

कहें दीपक बापू अमीरों के छल कपट से

बन जाते है महल

इसे भाग्य कहें या दुर्भाग्य

ईमानदारी की रिश्तेदार मजदूरी है।

——–

हमने तो वफा निभाई उन्हें अपना समझकर

वह उसकी कीमत पूछने लगे,

क्या मोल लगाते हम अपने जज़्बातों का

जो उन पर हमने लुटाये थे

बिना यह सोचे कि वह पराये हैं या सगे।

कहें दीपक बापू रिश्ता निभाना भी उन्होंने व्यापार समझा

जिसकी तौल वह रुपयों की तराजू में करने लगे।

—————

 

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

४.दीपकबापू कहिन

5.हिन्दी पत्रिका 

६.ईपत्रिका 

७.जागरण पत्रिका 

८.हिन्दी सरिता पत्रिका 

९.शब्द पत्रिका

बाज़ार से गठबंधन-हिन्दी व्यंग्य कविता


अंगद जैसे उनके पांव नहीं पर फिर भी सेवा के लिये अड़े हैं,

चंदे और दान से व्यापार चलाते शर्म नहीं वह चिकने घड़े हैं।

कागजों पर अपना खुद लिखते हुए इतिहास वह बन गये महान,

मदद का पैसा आत्मप्रचार पर फूंककर पर्दे पर सीना रहे तान,

अपनी चाहतों का पूरा करने के लिये दूसरे का दर्द दिखाते,

खुद करते कमाई ज़माने को तरक्की के सपने देखना सिखाते,

सबके चरित्र पर दाग हैं उन पर कोई उंगली नहीं उठायेगा,

बेआबरुओं से सभी डरते हैं अपनी इज्जत कोई नहीं लुटायेगा,

मशहुर हुए वह  करके बाज़ारों के सौदागरों से गठबंधन,

जिनके नाम का लिया सहारा उन बेबसों का जारी है क्रंदन,

कहें दीपक बापू अपनी सेहत बचाने का जिम्मा खुद पर है

देह हो या दिल की बीमारी दवा के दाम में उनके हिस्से बड़े हैं।

—————-

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

गरीब का पसीना बनाता उनका महल-हिन्दी व्यंग्य कविता


बड़े लोग अच्छा कहें या बुरा कुछ फर्क नहीं होता है,

हिचकोले खाते हालातों में ज़माने का बेड़ा गर्क होता है।

गरीबी से रहे जो दूर वही गरीब का उद्धार करने चले हैं,

मजदूरों के पसीने के गाते गीत वही महलों में जो पले है,

जवानी के जश्न का सामान जुटाते वृद्धों का भला करते हुए

अभिव्यक्ति के झंडबरदारों के पास जाते लोग डरते हुए,

विज्ञान की डिग्री लेकर क्रांतिकारी अर्थशास्त्र पर चर्चा करते,

नारे लगाते लोग लेते चंदा जिससे अपना ही खर्चा भरते,

नाटकबाजी से चले आंदोलन  वजन प्रचार से पाते हैं,

तख्त पर पहुंचे लोगों के विचार आखिर खो जाते हैं,

कहें दीपक बापू स्वर्ग के सपने बेचने वाले बाज़ार में बहुत हैं

सस्ते मिले या महंगा सुंदर आवरण में छिपा नर्क होता है।

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

होली के रंग और रस पर अध्यात्मिक चिंत्तन-होली पर्व 2014 के अवसर पर विशेष हिन्दी लेख


      अगर अंतर्मन सूखा हो तो बाहर पानी में कितने भी प्रकार के रंग डालकर उन्हें उड़ाओ क्षणिक प्रसन्नता के बाद फिर वही उष्णता घिर आती है।  बाह्य द्रव्यमय रंगों का रूप है दिखता है उसमें गंध है जो सांसों में आती है , एक दूसरे पर रंग डालते हुए शोर होता है उसका स्वर है, दूसरे की देह का स्पर्श है। पांचों इंद्रियों की सक्रियता तभी तक अच्छी लगती है जब तक वह थक नहीं जाती।  थकने के बाद विश्राम की चाहत! एक पर्व मनाने का प्रयास अंततः थकावट में बदल जाता है।

      आदमी बोलने पर थकता है, देखने में थकता है, सुनने में थकता है, चलते हुए एक समय तेज सांसें लेते हुए थकता है, किसी एक चीज का स्पर्श लंबे समय तक करते हुए थकता है। आनंद अंततः विश्राम की तरफ ले जाता है।  यह विश्राम इंद्रियों की  सक्रियता पर विराम लगाता है। यह विराम देह की बेबसी से उपजा है। देह की बेबसी मन में होती है और तब दुनियां का कोई नया विषय मस्तिष्क में स्थित नहीं हो सकता।  व्यथित इंद्रियां विश्राम करने  के समय स्वयं को सहमी लगती हैं। 

      योग साधकों की होली अंतर्मन में रंगों के दर्शन करते हुए बीतती है।  एकांत में आत्मचिंत्तन करने का सुअवसर पर मिलने पर अध्यात्मिक चक्षु, कर्ण, नासिका, मुख तथा मस्तिष्क  काम करने लगता है।  बाहर के रंग सूर्य की उष्मा से सूखने के साथ ही फीके होते हैं पर आंतरिक रंग ध्यान से उत्पन्न ऊर्जा से अधिक गहरे होते जाते हैं।  ऐसे में इस बात की अनुभूति होती है कि बाह्य सुख सदैव दुःख में बदलते हैं। जिस तरह हम करेला खाये या मिठाई अंततः पेट में कचड़े का ही रूप उनको मिलता है।  उसी तरह कानों से सुने गये स्वर, आंखों से देखे गये सुदंर दृश्य, नासिका से ली गयी सुगंध और हाथ से स्पर्श की गयी वस्तुओं का अनुभव अंततः स्मृतियों में बसकर कष्ट का कारण बनता है।  हमने वह खाया उसे फिर खाना चाहते हैं। हमने वह देखा फिर देखना चाहते हैं। हमने वह सुना फिर सुनना चाहते हैं। हमने गुलाब के फूल की खुशबू ली फिर लेना चाहते हैं। हमने सुंदर वस्तु को छुआ हम उसे फिर छूना चाहते हैं।  यह लोभ सताता है।   इसका कारण यह कि इन सुखों से प्राप्त विकार मन में बना हुआ है।  योग साधक अपनी साधना से विकार रहित हो जाते हैं। इंद्रियों के गुणों के पांचों विषय-रूप, रस, गंध, स्वर तथ स्पर्श-का सत्य जानते हैं।  इन गुणों के भी गुण वह समझते हैं। इसलिये वह किसी विषय को अपनी इंद्रियों के साथ  ग्रहण करते हुए भी उसके गुणों में लिप्त नहीं होते। योग साधक किसी विषय या वस्तु को छूते हैं, स्वर सुनते हैं, दृश्य देखते हैं, गंध सूंघते हैं, भोजन का स्वाद भी लेते हैं पर उससे प्राप्त सुख का तुरंत त्याग भी कर देते हैं ताकि वह अंदर जाकर दुःख का रूप न ले। अपने अभ्यास से वह विकारों को ध्यान से ध्वस्त कर देते हैं।

      मनुष्य की इंद्रियां बाहर सहजता से विचरण करती है। उन पर नियंत्रण करना कठिन है यह कहा जाता है।  योगसाधकों का इंद्रियों पर नियंत्रण सहज नहीं वरन् स्वभाविक रूप से होता है। इस संसार में मनुष्य मन के चलने के दो ही मार्ग हैं। एक सहज योग दूसरा असहज योग। योग सभी करते हैं। सामान्य आदमी इंद्रियों के वश होकर सांसरिक विषयों से जुड़ता है जिससे वह अंततः असहज को प्राप्त होता है  पर योग साधक उन पर नियंत्रण कर उपभोग करता है और हमेश सहज बना रहता है।  सामान्य मनुष्य होने का अर्थ असिद्ध होना नहीं है और योग साधक को सिद्ध भी नहीं समझना चाहिये।  असहज योगी में नैतिक और चारित्रिक दृढ़ता का अभाव होता है। कोई योग साधक है उसके लिये यह दोनों शक्तियां प्रमाण होती हैं। अगर नहीं है तो इसका आशय यह है कि उसके अभ्यास में कमी है। अपने योग साधक होने का प्रमाण दूसरों को दिखाने की बजाय स्वयं देखना चाहिये।  हम भीड़ में जाकर अगर यह प्रमाण दिखायेंगे तो सामान्य लोग यकीन नहीं कर सकते क्योंकि उनके पास ज्ञान नहीं होता। सहज योगियों के सामने प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि वह दूसरे योग साधक की चाल देखकर ही समझ लेते हैं।

      अध्यात्मिक चिंत्तन, अध्ययन, मनन और अनुसंधान एकांत का विषय है। सत्संग करना चाहिये ताकि दूसरे लोगों से भी अनुभव किये जा सकें।  आत्म प्रचार की भूख सभी को होती है पर योग साधक के कार्य उनके लिये प्रचार का काम स्वतः करते हैं। फिर पं्रचार कर प्रभावित भी किसे करना है? उन लोगों के सामने स्वप्रचार का क्या लाभ जिन्हें सांसरिक विषय भी अच्छे लगते हैं और त्यागियों के सामने प्रचार कोई लाभ भी नहीं है क्योंकि वह परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो जाते हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि हमें अपने को प्रसन्न करने का प्रयास करना चाहिये। सहज योग के लिये यह संभव है। जब संसार के सभी लोग असहज योग में रत हों तक सहज योगी को अपनी अनुभूतियां आनंद देती हैं। इनको बांटना संभव नहीं क्योंकि इनका न कोई रूप है न रंस है न ही स्वर है न गंध है न ही इसे स्पर्श किया जा सकता है।

      इस होली और घुलेड़ी पर एकांत चिंत्तन करते हुए हमने इतना ही पाया। इस अवसर पर सभी ब्लॉग लेखक मित्रों तथा पाठको को बधाई।

दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

ग्वालियर मध्यप्रदेश

 

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

कैमरे के सामने समाज सेवा-हिंदी व्यंग्य कविता


 कैमरे के सामने आते ही समाज सेवकों की बाछें खिल जाती हैं,

चंदे के कारोबार में प्रचार की पंक्तियों की सांसें मिल जाती हैं।

जन कल्याण की दुकानें शहर और गांव में जगह जगह खुल गयी हैं,

मालिकों खाते चंदे की मिठाई जिसमें  दान की मिश्री घुल गयी है,

देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक सेवकों की टोली फैली है,

बेबसों की संख्या यथावत पता नहीं किसकी नीयत मैली है,

गायक गाते अभिनेता नाचते मजबूरों के लिये चंदा मांगते,

भूल जाते सब जब भरी जेब की पतलून घर में खूंटी पर टांगते,

कहें दीपक बापू विकास दर के साथ गरीबी और बेबसी भी बढ़ी हैं

समाज सेवा के कारोबारियों के खाते में रकम भी बढ़ती जाती है।

—————–

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

४.दीपकबापू कहिन

5.हिन्दी पत्रिका 

६.ईपत्रिका 

७.जागरण पत्रिका 

८.हिन्दी सरिता पत्रिका 

९.शब्द पत्रिका

अपनी खुशी का काम-हिंदी व्यंग्य कविता


 हर कोई लगा रहा एक दूसरे पर भ्रष्टाचार का इल्जाम,

अपने कसूरों से बेखबर लिखते खुद ही अपना ईमानदारों में नाम।

लोगों के खजाने पर खतरे मंडराते हैं नहीं देते अब सांप पहरा,

सारे सबूत सामने हैं पर दावा यह कि चोरी का राज है गहरा,

पर्दे पर चर्चा होती विज्ञापनों के बीच भ्रष्टाचार हटाने की,

हंसी और मजाक करते हुए विद्वान कहते बात महंगाई घटाने की,

शिखर पर पहुंचे खास लोग लगाते हैं भलाई के नये नारे,

बेबस हो रहा आम इंसान दिन में दिखते हैं जमीन पर तारे,

कहें दीपक बापू दूसरे पर न छोड़ो  अपनी खुशी का काम,

हुक्मतों के लिये मुश्किल है खुद ही करो अपनी हंसी का इंतजाम।

—————

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

४.दीपकबापू कहिन

5.हिन्दी पत्रिका 

६.ईपत्रिका 

७.जागरण पत्रिका 

८.हिन्दी सरिता पत्रिका 

९.शब्द पत्रिका

हमदर्दी का दर्द से संबंध-हिंदी व्यंग्य कविता


दिखाते हैं हमदर्दी पर दर्द से उनका संबंध नहीं है,

रोज नये वादे करने के महाराथी पर वफा के पाबंद नहीं है।

वाक्पटुता के लिये मशहूर है वह पर शब्द सृजन नहीं करते,

इधर उधर से चुराकर कविता अपनी जुबान में  ही भरते।

रेतीली जमीन पर आम उगाने की हमेशा वह करेंगे बात,

दिन में लोगों के दर्दे पर बोलते पर  भुला देती उनको रात।

चलता रहेगा लोगों के जज़्बात से खेलने का सिलसिला,

लोग सौंप रहे शातिरों को दान पेटी किससे करेंगे गिला।

कहें दीपक बापू धोखे की आग के उनको कभी जलना ही होगा

टूटे इंसानों की आह से उनके स्वाह होने के रास्ते बंद नहीं है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

पर्दे पर चलती खबर -हिंदी व्यंग्य कविता


नित नये स्वांग रचें,

अपने ही सच से आप बचें,

जिंदगी में हर पल एक नया शगूफा छोड़कर

सरल है स्वयं को  बहलाना

मौका मिले तो दूसरे को भी बरगलाना।

कहें दीपक बापू

पर्दे पर चलती खबर

फिल्म की तरह बनी लगती हैं,

पात्रों की अदायें बाद में हुई 

पहले लिखी लगती है,

जब काम न बनता हो अपने आप से

अस्त्र शस्त्रों को पास में दबाकर

भीड़ में हमदर्दी पाने के लिये

अच्छा है चिल्लाने का बहानां

………………………………..

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

सौदागरों के कागजी ख्वाब-हिन्दी व्यंग्य कविता


वह ठहरे हल्के इंसान

चेहरे पर रोज नया मुखौटा लगाकर आते हैं,

गंभीरता का करते हैं नाटक

जल्दी ही जोकर हो जाते हैं।

कहें दीपक बापू

वादों पर कभी वह खरे उतर सकते नहीं,

अपने भरोसे पर यकीन खुद करते नहीं,

यह प्रचार का खेल हैं

जहां उनकी काली नीयत भी सुंदर नज़र आती है,

फरेबी अदायें महंगी बिक जाती हैं,

सौदागर बेच रहे बाज़ार में कागजी ख्वाब,

कारिंदों करें कारिस्तानी वह दिखायें रुआब,

सियायत हो या ज़माने का भला

कामयाब खिलाड़ी वही नज़र आते हैं,

वादों से वफादारी निभाने के बजाय

कागजी नाव जो चला पाते हैं।

—————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

वादों के महारथी-हिंदी व्यंग्य कविता


दिखाते हैं हमदर्दी पर दर्द से उनका संबंध नहीं है,

रोज नये वादे करने के महाराथी पर वफा के पाबंद नहीं है।

वाक्पटुता के लिये मशहूर है वह पर शब्द सृजन नहीं करते,

इधर उधर से चुराकर कविता अपनी जुबान में  ही भरते।

रेतीली जमीन पर आम उगाने की हमेशा वह करेंगे बात,

दिन में लोगों के दर्दे पर बोलते पर  भुला देती उनको रात।

चलता रहेगा लोगों के जज़्बात से खेलने का सिलसिला,

लोग सौंप रहे शातिरों को दान पेटी किससे करेंगे गिला।

कहें दीपक बापू धोखे की आग के उनको कभी जलना ही होगा

टूटे इंसानों की आह से उनके स्वाह होने के रास्ते बंद नहीं है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

आकाश मुस्करा रहा है -हिंदी व्यंग्य कविता


लगता है ख्वाब में आयेंगे आसमान  से फरिश्ते,

निभायेंगे बिना मिन्नत किये हमसे अपने रिश्ते।

कहें दीपक बापू

हर पल जंग लड़ना ही  जिंदगी की सच्चाई है,

भले ही पलायन करने की कसम हमने खाई है,

बहुत आशिक कर चुके चांद तारे जमीन पर लाने के इरादे,

आकाश मुस्करा रहा है सदियों से सुनकर झूठे वादे,

सपने देखना अब बंद कर दिया लोगों ने,

खरीद रहे दूसरे की सोच घेरा दिमागी रोगों ने,

सभी के घर भरे दुनियां भर के सामानों से,

फिर भी ख्वाहिशों के झुंड के लिये फिर रहे अरमानों से,

दिल बहलाने के लिये भटकते लोगों का समझाना कठिन है

 अक्लमंदों के लिये ठीक यही कि अपना चंदन रहें खुद घिसते।

—————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

माया का विज्ञापन रूप भी है-हिंदी व्यंग्य कविताएं


 रुपहले पर्दे पर जो चेहरे  दिख रहे हैं,

बाज़ार के सौदागरों हाथ बिक रहे हैं।

कहें दीपक बापू खबर और फिल्म एक समान

होता वही है जो पटकथाकार लिख रहे हैं।

————

खबरची लोगों के मन की बात भांप रहे हैं,

रुपहले पर्दे पर कुछ लोग खुश तो कुछ कांप रहे हैं।

कहें दीपक बापू मन तो पल पल  में बदलता है,

महीनों बाद के फैसले पर अभी विद्वान हांफ रहे हैं।

———-

रुपहले पर्दे पर रोज नया सर्वे आता है,

कोई नायक कोई खलनायक बन जाता है।

कहें दीपक बापू माया का विज्ञापन रूप भी है

लोगों की भलाई का नारा भी दाम दे जाता है।

———–

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

४.दीपकबापू कहिन

5.हिन्दी पत्रिका 

६.ईपत्रिका 

७.जागरण पत्रिका 

८.हिन्दी सरिता पत्रिका 

९.शब्द पत्रिका

राजनीति में दावपेंच तो चलते ही रहेंगे-हिंदी चिंत्तन लेख


            हमारे देश राजतंत्र समाप्त होने के बाद लोकतांत्रिक प्रणाली अपनायी गयी जिसमें चुनाव के माध्यम से  जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं।  भारत एक बृहद होने के साथ भौगोलिक विविधता वाला देश है। लोकसभा राष्ट्रीय, विधानसभा प्रादेशिक, नगर परिषद तथा पंचायत स्थानीय स्तर पर प्रशासन की देखभाल करती हैं। देखा जाये तो राजतंत्र में राजा के चयन का आधार सीमित था इसलिये आम आदमी राजकीय कर्म में लिप्त होने की बात कम ही सोचता था। हालांकि इस संसार में अधिकतर लोग राजसी प्रवृत्ति के ही होते हैं पर राजतंत्र के दौरान क्षेत्र व्यापार, कला, धर्म तथा प्रचार के अन्य क्षेत्रों में स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने तक ही उनका प्रयास सीमित था। लोकतंत्र ने अब उनको आधुनिक राजा बनने की सुविधा प्रदान की है।  चुनावों में वही आदमी जीत सकता है जो आम मतदाता के दिल जीत सके।  बस यहीं से नाटकीयता की शुरुआत हो जाती है।  स्थिति यह है कि कला, पत्रकारिता, फिल्म, टीवी तथा धर्म के क्षेत्र में लोकप्रिय होता है वही चुनाव की राजनीति करने लगता है। वैसे राजनीति राजसी कर्म की नीति का परिचायक होती है जो अर्थोपार्जन की हर प्रक्रिया का भाग होता है।  राज्यकर्म तो इस प्रक्रिया का एक भाग होता है। राजनीति उस हर व्यक्ति को करना चाहिये जो नौकरी, व्यापार अथवा उद्योग चला रहा है।  केवल चुनाव ही राजनीति नहीं होती पर माना यही जाने लगा है।

            इससे हुआ यह है कि बिना राजनीति शास्त्र ज्ञान के लोग पदों पर पहुंच जाते हैं पर काम नहीं कर पाते। राजकीय कर्म की नीतियां हालांकि परिवार के विषय से अलग नहीं होती पर जहां परहित या जनहित का प्रश्न हो वहां शिखर पुरुषों को व्यापक दृष्टिकोण अपनाना पड़ता है।  इसलिये राजनीति शास्त्र का उनको आम इंसान से अधिक होना आवश्यक है।  भारत में आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं  से हमेशा ही लोगों में अंतर्द्वंद्व देखा गया है।  देखा यह गया है कि रचनात्मक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति लंबे समय तक अपना स्थान बनाये रखता है पर अनवरत अंतर्द्वंद्व की प्रक्रिया के बीच जब कोई विध्वंसक प्रवृत्ति का व्यक्ति खड़ा हो जाता है तो तनावग्रस्त समाज में उसकी छवि नायक की बन जाती है। दूसरी बात यह है कि जब लोग अपनी समस्याओं से जूझते हैं तब उनके बीच जोर से ऊंची आवाज में बगावत की बात कहने से लोकप्रियता मिलती है।  यही लोकप्रियता चुनाव जीतने का आधार बनती है।  इससे उन लोगों को जनप्रतिनिधि होने का अवसर भी  मिल जाता है जो बगावती तेवर के होते है पर उनमें रचनात्मकता का अभाव होता है।

मनु स्मृति में कहा गया है कि

——————

साम्रा दानेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक।

विजेतुः प्रयतेतारीन्न युद्धेन कदाचत्।।

            हिन्दी में भावार्थ-अपने राजनीतिक अभियान में सफलता की कामना रखने वाले पुरुष को साम, दाम तथा भेद नीतियों के माध्यम से पहले अपने अनुकूल बनाना चाहिये। जब यह संभव न हो तभी दंड का प्रयोग करना श्रेयस्कर है।

उपजप्यानुपजपेद् बुध्येतैव च तत्कृतम।

बुत्तों च दैवे बुध्यते जयप्रेप्सुरपीतभीः।।

            हिन्दी में भावार्थ-राजनीतिक अभियान में पहले अपने विरोधी पक्ष के लालची लोगों को अपने पक्ष में करना चाहिये। उनसे अपने विरोधी पक्ष की नीति तथा कमजोरी का पता लगाकर अपने अभियान को सफल बनाने का प्रयास करना चाहिये।

            हमारे देश में अनेक प्रकार के राजनीतिक परिदृश्य देखने को मिले हैं।  अनेक संगठन बने और बिगड़े पर देश की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति यथावत रही।  नारे लगाकर अनेक लोग सत्ता के शिखर पर पहुंचे राजनीति तथा प्रशासन का ज्ञान न होने की वजह से वह प्रजाहित की सोचते तो रहे पर आपने कार्यक्रम क्रियान्वित नहीं कर सके। साहित्य, कला, फिल्म तथा पत्रकारिता के साथ ही जन समस्याओं के लिये जनआंदोलन करने वाले लोग जनमानस में लोकप्रियता प्राप्त कर चुनाव जीत जाते हैं पर जहां प्रशासन चलाने की बात आये वहां उनकी योग्यता अधिक प्रमाणित नहीं हो पाती।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

मय कभी गम दूर नहीं करती-हिन्दी व्यंग्य कविता


मयखानों में भीड़ लगी है,

जैसे भीड़ अभी नींद से जगी है,

लगता है सारा जहान ही

बोतल में खुशियां तलाश रहा है,

एकता की मिसाल मिलती वहां

किसी ने खूब कहा है।

कहें दीपक बापू

कतरा कतरा हलक से उतरती मय

ऐसा शैतान पैदा करती

बात करता  जो फरिश्तों जैसी

मगर  दिल में जिसके

बदनीयती जगह बना लेती है,

नशेड़ी सच बोलता है

किस मूर्ख ने कहा है,

वहम है कि मय पीने से

गम दूर होता है

सच यह है

उतरती शराब से

बढ़ जाता है वह दर्द

जो होशहवास में सहा है,

जिसे कोई करना नहीं आता

पीने लग जाता है

कोई गम कोई खुशी की

वजह झूठी बता रहा है।

————–

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

तख्त के चाहने वाले-हिन्दी व्यंग्य कविता


हुकुमतों के तख्त पर बैठने वाले

चेहरे रोज नये नये आते हैं,

ज़माना जब पांव तले होने का अहसास ऐसा

उनमें कसाई का चरित्र ही पाते है,

कीचड़ की दुर्गंध क्या समझेंगे

अपने महलों में रहते जो इत्र ही  पाते हैं

कहें दीपक बापू

बादशाह बन गया जो इंसान

सड़कों पर उड़ती धूल नहीं आती आंखों में

खुशकिस्मत होता है वही लाखों में,

आम इंसान की भलाई का दावा

वह चाहे कितना भी करे

अपने तख्त का उसे मित्र ही पाते हैं।

—————–

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

४.दीपकबापू कहिन

5.हिन्दी पत्रिका 

६.ईपत्रिका 

७.जागरण पत्रिका 

८.हिन्दी सरिता पत्रिका 

९.शब्द पत्रिका

असुरों के अपराध पर बहस-हिन्दी व्यंग्य कविता


असुरों के अपराध पर करते हैं बहस

महिलाओं के हक हड़पने पर

समाज को कोसते हैं,

देवताओं पर लगाते पुरुष होने का आरोप

तोहमत कानून पर थोपते हैं।

कहें दीपक बापू अंग्रेजों ने समाज बांटा,

बुद्धिजीवी लगा रहे हर टुकड़े

बेकार के तर्कों का कांटा,

कोई कर रहा बाल कल्याण,

कोई महिलाओं की रक्षा के लिये चला बाण,

कोई गरीब को अमीर बनाने में जुटा,

कोई बीमार के लिये हमदर्दी रहा लुटा,

हजारों हाथ उठे दिखते हैं

जमाने की भलाई के लिये

मलाई मिलने का मौका मिलते ही

कमजोरों की पीठ में छुरा घौंपते हैं।

————

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

४.दीपकबापू कहिन

5.हिन्दी पत्रिका 

६.ईपत्रिका 

७.जागरण पत्रिका 

८.हिन्दी सरिता पत्रिका 

९.शब्द पत्रिका

जिसके मन में दया है उसे धार्मिक पाखंड करने की आवश्यकता नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख


            हमारे देश में धर्म के विषय पर दो धारायें हमेशा प्रचलित रही हैं-एक निराकार भक्ति तथा दूसरी साकार भक्ति।  जहां तक हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों में वर्णित सामग्री की बात है तो उसमें दोनों ही प्रकार की भक्ति को ही मान्य किया गया है।  वैसे हमारे प्राचीन ऋषियों, मुनियां तथा तपस्वियों ने सदैव ही परमात्मा के निराकार रूप को ही श्रेष्ठ माना है पर देखा यह गया है कि समाज के सामान्य जनों ने हमेशा ही साकार भक्ति करने में ही अपनी सिद्धि समझी है।  समाज ने ऋषियों, मुनियों तथा तपस्वियों को अपने हृदय में तो स्थान दिया पर उनकी निराकार भक्ति से कभी प्रेरणा नहीं ली।  यही कारण है कि साकार भक्ति के कारण पूरा समाज धीरे धीरे तार्किक गतिविधियों की तरफ बढ़ता चला गया।  दरअसल साकार भक्ति में हर मनुष्य अपनी दैहिक सक्रियता न केवल स्वयं देखता है बल्कि दूसरों को भी दिखाकर सुख उठाना चाहता है।

                        मंदिर में जाकर फल, फूल, दूध तथा तेल चढ़ाने की परंपरा साकार तथा सकाम भक्ति का ही प्रतीक हैं। इसके अलावा भी प्रसाद तथा वस्त्र भी मूर्तियों पर चढ़ाये जाते हैं।  इन सब वस्तुओं की आपूर्ति बाज़ार करता है। अनेक मंदिरों में विशेष अवसरों पर पूजा सामग्री, प्रसाद तथा मूर्तियों की दुकानें लगी देखी जा सकती है। कहने का अभिप्राय यह है कि सकाम तथा साकार भक्ति के कारण बाज़ार को लाभ होता है जैसा कि हम जानते हैं कि आर्थिक प्रबंधक सदैव ही अपनी वस्तुओं के प्रचार तथा उनके विक्रय के लिये सक्रिय रहते है।  कभी वह अपनी वस्तुओं का विक्रय करने के लिये किसी स्थान को सिद्ध प्रचारित करते हैं तो कभी अपनी वस्तु को सिद्ध बताकर भगवान के लिये अर्पण करने के लिये लोगों को प्रेरित करते है। इतना ही नहीं मनुष्य में जीवन के रहस्यों को जानने की जो जिज्ञासा होती है उसके लिये मोक्ष तथा स्वर्ग के भी रूप भिन्न भिन्न रूप तैयार किये गये हैं।  जिस धर्म के सिद्धांत अत्यंत सीमित और संक्षिप्त हैं उस पर ही लंबी लंबी बहसें होती हैं। यह बहसें तत्वज्ञान के नारों से शुरु तो होती हैं और समाज अज्ञान के अंधेरे में होती हैं।  दान और दया के रूप को कोई समझ हीं नहीं आया।  गुरु हमेशा ही अपने आश्रमों के लिये दान मांगते हैं तो दया के के नाम पर अपने व्यवसाय के लिये चंदा प्राप्त करने के लिये रसीदें काटते हैं।

महर्षि चाणक्य कहते हैं कि

——————–

यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु।

तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलैपनैः।।

                        हिन्दी में भावार्थ-जिसके चित्त में सभी प्राणियों के लिऐ दयाभाव है उसे शरीर पर भस्म लगाने, जटायें बढ़ाने, तत्वज्ञान प्राप्त करने तथा मोक्ष के लिये कोई प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।

                        जिस मनुष्य में जीवन के प्रति सहज भाव है उसे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। संत रविदास ने कहा है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। इसके विपरीत बाज़ार के आर्थिक स्वामी तथा प्रचार प्रबंधक अपने शोर से लोगों के मन को ही भटकाते हैं। जिस धर्म का सही ढंग से एकांत में हो सकता है उसे उन्होंने चौराहे पर चर्चा का विषय बना दिया है। भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्व में यही स्थिति है।  हर धर्म के ठेकेदार अपने निर्धारित विशिष्ट रंगों के वस्त्र पहनकर यह प्रमाणित करते हैं कि वह अपने समाज के माननीय है। यह अलग बात है कि किसी भी धर्म के मूल प्रवर्तक ने अपने समाज के लिये किसी खास रंग की पहचान नहीं बनायी।  इस तरह धर्म को लेकर एक तरह से भ्रम की स्थिति बन गयी है।

                        अगर हम प्राचीन ग्रंथों के आधार पर धर्म के सिद्धांत की पहचान करें तो वह आचरण के आधार पर बना हुआ होता है। उसको कोई निश्चित कर्मकांड नहीं है। यही कारण है कि धार्मिक रूप से हमारे यहां एकता है पर कर्मकांडों में स्थान और क्षेत्र के आधार पर भिन्नता पायी जाती है। जहां तक स्वयं घर्म के आधार पर चलने का प्रश्न है तो उस पर अवश्य विचार करना चाहिये। प्रातःकाल उठकर योगसाधना तथा पूजा आदि कर मन को स्वस्थ तथा प्रसन्न चित्त बनाना चाहिये। उससे पूरा दिन अच्छा निकलता है। धर्म को लेकर लोगों से अधिक चर्चा नहीं करना चाहिये क्योंकि अधिकतर लोग इस बारे में अपना ज्ञान बघारते हैं। हमारे आसपास धर्म के मार्ग  पर चलने वाले लोग उंगलियों पर गिनती करने लायक ही होते हैं।                       

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

आदमी और पाखंड-हिंदी कविता


दौलत के भंडार है उनके घर

पर जिस्म में ताकतवर जान नहीं है,

महापुरुषों की  तस्वीरों पर

चढ़ाते हैं दिखावे के लिये  माला

पर दिल में उनके लिये मान नहीं है,

सारे जहान में फैला है पाखंड

दिखना चाहते हैं शानदार वह लोग

जिनकी आंखों में किसी की शान नहीं है।

कहें दीपक बापू

मजदूर ने तराशा जिस पत्थर को

अपनी पसीने से तराशा

बन गया भगवान,

पड़ा रहा जो रास्ते पर

बना रहा दुनियां में अनजान,

जिनके पेट भरे हैं

उनकी चिंता सभी करते हैं

परिश्रम करने वालों को पूरी रोटी मिले

इससे आंखें फेरते है

स्वर्ग की चिंता में जिंदगी

दाव पर लगाते हैं लोग

जिसका किसी को ज्ञान नहीं है,

दिवंगतों की तस्वीर के  आगे सिर झुकाते लोग

शोकाकुल सुरत से श्रद्धा निभाते

भले ही उनकी बनती  शान नहीं है।

————–

 लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

समाज से पहले अपने को सुधारें-हिन्दी लेख


                        हम अपने समाज में रामराज्य की कल्पना कर सकते हैं पर उसे धरातल पर लाना लगभग असंभव है।  कम से कम श्रीमद्भागवत गीता के अध्ययन करने पर तो कोई साधक इस तरह का विचार व्यक्त कर सकता है। उसमें कहा गया है कि इस संसार में दैवीय तथा आसुरीय तो प्रकार के मनुष्य होते हैं। इससे हम यूं भी मान सकते हैं कि इस संसार में दोनों प्रकार के लोग सदैव उपस्थित रहेंगे ही चाहे कोई माने या माने।  इतना ही नहीं दैवीय प्रकृत्ति के लोगों में भी सात्विक, राजस तथा तामस प्रकृत्ति के लोग हमेशा ही अपने स्वभाव के अनुसार सक्रिय पाये जायेंगे।  इस आधार हम कह सकते हैं कि समूची मानव जाति एक ही रंग में रंगी जाये यह संभव नहीं है।

                        समाज में कथित लोग समाज में  सुधार लाने के प्रयासों में लगे बुद्धिमान लोग इस विचार को निराशाजनक विचार मान सकते हैं पर ज्ञान साधकों के लिये यही संसार का सत्य है। यह सत्य उनमें स्वयं को ही सुधारने के लिये प्रेरित करता है।  ज्ञान साधकों को जब यह आभास होने लगता है कि इस संसार का निर्माण जिस तरह परामात्मा के संकल्प के आधार पर हुआ है उसी तरह वह भी अपने देहकाल में संकल्प के आधार अपने आसपास शुद्ध वातावरण का निर्माण करें। वह संसार में दूसरे लोगों  को सुधार कर उन्हें अपने अनुकूल लाने की अपेक्षा अपने अंदर ऐसी शक्ति पैदा करते हैं कि प्रतिकूल व्यक्ति और स्थिति उनके अनुकूल हो जाये।  वह किसी के लिये मन में द्वेष, ईर्ष्या और घृणा का भाव नहीं पालते। कोई दूसरा उनके प्रति कुविचार रखता है तो उसे आसुरीय प्रवृत्तियों के वशीभूत मानकर क्षमा कर देते हैं।  किसी का परोपकार करें या नहीं पर किसी का अपकार करने का विचार हृदय में भी नहीं लाते।  किसी के कठोर वचनों के उत्तर में भी मधुर वचन में बात करते हैं।  प्रमाद या आलस्य से परे होकर सदैव सकारात्मक कार्यों में लगे रहते हैं।  इससे उनके व्यक्तित्व की धवल छवि का निर्माण होता है जिससे कालांतर में उनको सम्मान मिलता है।

                        इसके विपरीत जो अज्ञानी हैं वह बिना कुछ किए ही सम्मान पाना चाहते हैं। कुछ लोग धन, मित्र और सहायकों का समुदाय एकत्रित कर यह समझते हैं कि उनका तो स्वतः ही समाज में सम्मान होगा तो यह उनका भ्रम है।  ऐसे लोगों को सम्मान पाने की भावना अंध कर देती है और किसी से प्रतिकूल व्यवहार मिलने पर वह हिंसा पर उतर आते हैं। हम आज समाज में जो हिंसक वातावरण देख रहे हैं वह राजसी लोगों की आक्रामकता और तामसी प्रवृत्ति लोगों के बौद्धिक आलस्य का परिणाम है।  सात्विक लोगों की संख्या कम है पर आज के भौतिकतावादी युग में कोई उन्हें साथ रखना नहीं चाहता।  सात्विक लोगों का ध्येय वैसे भी समाज में हर विषय पर टांग फंसाकर प्रतिष्ठा अर्जित  करना नहीं होता। वह जानते हैं कि हमारे समाज में समस्या विचारों के संकट की नहीं वरन्् उसे धारण करने की प्रवृत्ति का अभाव है।  ज्ञान चर्चा बहुत होती है पर उसे धारण करने की न लोगों में शक्ति है न उनके पास ऐसा संकल्प है। निकट भविष्य में लोग ज्ञान के आचरण की तरफ प्रवृत्त होंगे इसकी संभावना लगती भी नहीं है। समाज अपने साथ विध्वसंक तत्व लेकर चल रहा है और हम मानते हैं कि आगे हालात अधिक खराब होने वाले हैं।  यह अलग बात है कि समाज में पेशेवर समाज सेवक के सुधार का  नाटक भी जमकर चल रहा है।  हमने देखा है कि अनेक कथित सुधारक समाज में व्याप्त अंधविश्वास का विरोध करते हैं पर मनुष्य में मन में कोई विश्वास का बीज कैसे बोया जाये इस विषय पर खामोश रहते हैं। 

                        बहरहाल समाज की समस्याओं को दूर करने की बजाय अपने सुधार पर अधिक ध्यान देना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि हमें अपने शुद्ध विचार रखने और  सुखद कल्पनायें करने के साथ ही अपने अंदर एक दृढ़ संकल्प स्थापित करना चाहिये। हम बाहर जैसा वातावरण देखना चाहते हैं उसे पहले अपने अंतर्मन में संकल्प कर स्थापित करना होगा।  आजकल के तनावपूर्ण वातावरण से प्रथक होकर एकांत में शुद्ध स्थान पर ध्यान करते हुए इस बात पर विचार करना चाहिये कि हम किस तरह अपना जीवन सफल करें।

 लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

ज्ञान से बड़ा खज़ाना कौनसा हो सकता है-हिंदी चिंत्तन लेख


                        एक संत ने एक सपना देखा कि एक पुराने महल में पंद्रह फुट नीचे  एक हजार टन सोना-जो एक एक स्वर्गीय राजा का है जिसे अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था-दबा हुआ है।  उसने अपनी बात जैसे तैसे भारतीय पुरातत्व विभाग तक पहुंचायी।  पुरातत्व विभाग ने अपनी सांस्कृतिक खोज के तहत एक अभियान प्रारंभ किया।  पुरातत्वविद् मानते हैं कि उन्हें सोना नहीं मिलेगा। मिलेगा तो इतने बड़े पैमाने पर नहीं होगा।  अलबत्ता कोई प्राचीन खोज करने का लक्ष्य पूरा हो सकता है, यही सोचकर पुरातत्व विभाग का एक दल वहां खुदाई कर रहा है।

                        यही एक सामान्य कहानी अपने समझ में आयी पर सोना शब्द ही ऐसा है कि अच्छे खासे आदमी को बावला कर दे। सोने का खजाना ढूंढा जा रहा है, इस खबर ने प्रचार माध्यमों को अपने विज्ञापन प्रसारण के बीच सनसनीखेज सामग्री प्रसारण का वह  अवसर प्रदान किया है जिसकी तलाश उनको रहती है।  भारत में लोगों वेसे काम अधिक होने का बहाना करते हैं पर ऐसा कोई आदमी नहीं है जो टीवी पर खबरें देखने में वक्त खराब करते हुए  इस खबर में दिलचस्पी न ले रहा हो। व्यवसायिक निजी चैनलों ने भारतीय जनमानस में इस कदर अपनी पैठ बना ली है कि इसके माध्यम से कोई भी विषय सहजता से भारत के आम आदमी के लिये ज्ञेय बनाया जा सकता है।  इस पर खजाना वह भी सोने का, अनेक लोगों ने दांतों तले उंगली दबा रखी है। टीवी चैनलों ने लंबी चौड़ी बहसें चला रखी हैं।  सबसे बड़ी बात यह कि संत ने सपना देखा है तो तय बात है कि बात धर्म से जुड़नी है और कुछ लोगों की आस्थायें इससे विचलित भी होनी है।  सोना निकला तो संत की वाह वाह नहीं हुई तो, यह बात अनेक धर्मभीरुओं को डरा रही है कि इससे धर्म बदनाम होगा।

                        कहा जाता है कि संत त्यागी हैं। यकीनन होंगे। मुश्किल यह है कि वह स्वयं कोई वार्तालाप नहीं करते और उनका शिष्य ही सभी के सामने दावे प्रस्तुत करने के साथ ही विरोध का प्रतिकार भी कर रहा है। इस पर एक टीवी पर चल रही बहस में एक अध्यात्मिक रुचि वाली संतवेशधारी महिला अत्यंत चिंतित दिखाई दीं। उन्हें लग रहा था कि यह एक अध्यात्मिक विषय नहीं है और इससे देश के भक्तों पर धर्म को लेकर ढेर सारा भ्रम पैदा होगा।

                        एक योग तथा ज्ञान साधक के रूप में कम से कम हमें तो इससे कोई खतरा नहीं लगता।  सच बात तो यह है कि अगर आप किसी को निष्काम कर्म का उपदेश दें तो वह नहीं समझेगा पर आप अगर किसी को बिना या कम परिश्रम से अधिक धन पाने का मार्ग बताओ तो वह गौर से सुनेगा।  हमारे देश में अनेक लोग ऐसे हैं जिनके मन में यह विचार बचपन में पैदा होता है कि धर्म के सहारे समाज में सम्मान पाया जाये।  वह कुछ समय तक भारतीय ज्ञान ग्रंथों का पठन पाठन कर अपनी यात्रा पर निकल पड़ते हैं। थोड़े समय में उनको पता लग जाता है कि इससे बात बनेगी नहीं तब वह सांसरिक विषयों में भक्तों का मार्ग दर्शन करने लगते है। कुछ चमत्कार वगैरह कर शिष्यों को संग्रह करना शुरु करते हैं तो फिर उनका यह क्रम थमता नहीं।  अध्यात्मिक ज्ञान तो उनके लिये भूली भटकी बात हो जाती है।  लोग भी उसी संत के गुण गाते हैं जो सांसरिक विषयों में संकट पर उनकी सहायता करते हैं।  यहां हम एक अध्यात्मिक चिंतक के रूप में बता दें कि ऐसे संतों के प्रति हमारे मन में कोई दुर्भाव नहीं है। आखिर इस विश्व में आर्त और अर्थाथी भाव के भक्तों को संभालने वाला भी तो कोई चाहिये न! जिज्ञासुओं को कोई एक गुरु समझा नहीं सकता और ज्ञानियों के लिये श्रीमद्भागवत गीता से बड़ा कोई गुरु होता नहीं। आर्ती और अर्थार्थी भक्तों की संख्या इस संसार में सर्वाधिक होती है। केवल भारत ही नहीं वरन् पूरे विश्व में धर्म के ठेकेदारों का यही लक्ष्य होते है। केवल भारतीय धर्म हीं नहीं बल्कि विदेशों में पनपे धर्म भी इन ठेकेदारों के चमत्कारों से समर्थन पाते हैं। जब अंधविश्वास की बात करें तो भारत ही नहीं पूरे विश्व में ऐसी स्थिति है।  जिन्हें यकीन न हो वह हॉलीवुड की फिल्में देख लें। जिन्होंने भूतों और अंतरिक्ष प्राणियों पर ढेर सारी फिल्में बनायी हैं। दुनियां के बर्बाद होने के अनेक संकट उसमें दिखाये जाते हैं जिनसे नायक बचा लेता है। ऐसे संकट कभी प्रत्यक्ष में कभी आते दिखते नहीं।

                        हम संतों पर कोई आक्षेप नहीं करते पर सच बात यह है कि जब वह सांसरिक विषय में लिप्त होते हैं तो उनका कुछ पाने का स्वार्थ न भी हो पर मुफ्त के प्रचार का शिकार होने का आरोप तो उन पर लगता ही है। दूसरी बात यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान साधक स्पष्टतः उनकी छवि को संदेह की नजरों से देखने लगते है।  विदेशी लोग भारत के बारे में कह करते थे  कि यहां हर डाल पर सोने की चिड़िया रहती है।  जब हम मार्ग में गेेंहूं के खेत लहलहाते देखते हैं तो लगता है कि यहां खड़ी फसलें देखकर ही उन्होंने ऐसा कहा होगा।  हो सकता है यह हमारा पूर्वाग्रह हो क्योंकि हमें गेंहूं की रोटी ही ज्यादा पसंद है।  उससे भूख शांत होती है। दूसरी बात यह भी है कि सेोने से कोई अधिक लगाव नहीं रहा।  गेंहूं की रोटी लंबे समय तक पेट में रहती है और दिल में संतोष होता है। संतोषी आदमी को सोना नहीं सुहाता।  मुश्किल यह है कि सोना प्रत्यक्ष पेट नहीं भर पाता।

                        कहा जाता है कि दूर के ढोल सुहावने। भारत में सोने की कोई खदान हो इसकी जानकारी हमें नहीं है।  सोना दक्षिण अफ्रीका में पैदा होता है।  तय बात है कि सदियों से यह विदेश से आयातित होता रहा है।  सोना यहां से दूर रहा है इसलिये भारत के लोग उसके दीवाने रहे हैं।  जिस गेंहूं से पेट भरता है वह उनके लिये तुच्छ है।  एक हजार टन सोना कभी किसी राजा के पास रहा हो इस पर यकीन करना भी कठिन है। हीरे जवाहरात की बात समझ में आती है क्योंकि उनके उद्गम स्थल भारत में हैं।  अनेक प्राचीन ग्रंथों में स्वर्णमय हीरे जवाहरात जड़े मुकुटों तथा सिंहासन  की बात आती है पर उनके सोने की परत चढ़ी रही होती होगी या रंग ऐसा रहा होगा कि सोना लगे।  असली सोना यहां कभी इतना किसी व्यक्ति विशेष के पास रहा होगा यह यकीन करना कठिन है।

                        भारत में लोगों के अंदर संग्रह की प्रवृत्ति जबरदस्त है।  कुछ समझदार लोग कहते हैं कि अगर सोने का आभूषण तीन बार बनवाने के लिये किसी एक आदमी के पास ले जायें तो समझ लो पूरा सोना ही उसका हो गयां।  इसके बावजूद लोग हैं कि मानते नहीं। अनेक ढोंगी तांत्रिक तो केवल गढ़ा खजाना बताने के नाम पर धंधा कर रहे हैं। इतना ही नहीं अनेक ठग भी सोना दुगंना करने के नाम पर पूरे गहने ही महिलाओं के हाथ से छुड़ा लेते है।  बहरहाल खुदाई पूरी होने पर सोना मिलेगा या नहीं यह तो भविष्य ही बतायेगा पर टीवी चैनलों में विज्ञापन का समय समाचार तथा बहस के बीच खूब पास हो रहा है।

                        आखिर में हमारा हलकट सवाल-अरे, कोई हमें बतायेगा कि श्रीमद्भागवत गीता के बहुमूल्य ज्ञान के खजाने से अधिक बड़ा खजाना कहां मिलेगा।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

ऊँचाई से गिरते लोग-हिंदी व्यंग्य कविता


कुदरत की अपनी चाल है

इंसान की अपनी चालाकियां है,

कसूर करते समय

सजा से रहते अनजान

यह अलग बात है कि

सर्वशक्तिमान की सजा की भी बारीकियां हैं,

दौलत शौहरत और ओहदे की ऊंचाई पर

बैठकर इंसान घमंड में आ ही जाता है,

सर्वशक्तिमान के दरबार में हाजिरी देकर

बंदों में खबर बनकर इतराता है,

आकाश में बैठा सर्वशक्तिमान भी

गुब्बारे की तरह हवा भरता

इंसान के बढ़ते कसूरों पर

बस, मुस्कराता है

फोड़ता है जब पाप का घड़ा

तब आवाज भी नहीं लगाता है।

कहें दीपक बापू

अहंकार ज्ञान को खा जाता है,

मद बुद्धि को चबा जाता है,

अपने दुष्कर्म पर कितनी खुशफहमी होती लोगों को

किसी को कुछ दिख नहीं रहा है,

पता नहीं उनको कोई हिसाब लिख रहा है,

गिरते हैं झूठ की ऊंचाई से लोग,

किसी को होती कैद

किसी को घेर लेता रोग

उनकी हालत पर

जमीन पर खड़े इंसानों को तरस ही जाता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

जिंदगी का हिसाब-हिंदी व्यंग्य कविता


कुदरत की अपनी चाल है

इंसान की अपनी चालाकियां है,

कसूर करते समय

सजा से रहते अनजान

यह अलग बात है कि

सर्वशक्तिमान की सजा की भी बारीकियां हैं,

दौलत शौहरत और ओहदे की ऊंचाई पर

बैठकर इंसान घमंड में आ ही जाता है,

सर्वशक्तिमान के दरबार में हाजिरी देकर

बंदों में खबर बनकर इतराता है,

आकाश में बैठा सर्वशक्तिमान भी

गुब्बारे की तरह हवा भरता

इंसान के बढ़ते कसूरों पर

बस, मुस्कराता है

फोड़ता है जब पाप का घड़ा

तब आवाज भी नहीं लगाता है।

कहें दीपक बापू

अहंकार ज्ञान को खा जाता है,

मद बुद्धि को चबा जाता है,

अपने दुष्कर्म पर कितनी खुशफहमी होती लोगों को

किसी को कुछ दिख नहीं रहा है,

पता नहीं उनको कोई हिसाब लिख रहा है,

गिरते हैं झूठ की ऊंचाई से लोग,

किसी को होती कैद

किसी को घेर लेता रोग

उनकी हालत पर

जमीन पर खड़े इंसानों को तरस ही जाता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

माया का तिलिस्म-हिंदी व्यंग्य कविता


देश में तरक्की बहुत हो गयी है

यह सभी कहेंगे,

मगर सड़कें संकरी है

कारें बहुत हैं

इसलिये हादसे होते रहेंगे,

रुपया बहुत फैला है बाज़ार में

मगर दौलत वाले कम हैं,

इसलिये लूटने वाले भी

उनका बोझ हल्का कर

स्वयं ढोते रहेंगे।

कहें दीपक बापू

टूटता नहीं तिलस्म कभी माया का,

पत्थर पर पांव रखकर

उस सोने का पीछा करते हैं लोग

जो न कभी दिल भरता

न काम करता कोई काया का,

फरिश्ते पी गये सारा अमृत

इंसानों ने शराब को संस्कार  बना लिया,

अपनी जिदगी से बेजार हो गये लोगों ने

मनोरंजन के लिये

सर्वशक्तिमान की आराधना को

खाली समय

पढ़ने का किस्सा बना लिया,

बदहवास और मदहोश लोग

आकाश में उड़ने की चाहत लिये

जमीन पर यूं ही गिरते रहेंगे।

—————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

शांति और हथियार के सौदागर-हिंदी व्यंग्य कविता


 

जंग के लिये जो अपने  घर में हथियार बनाते हैं,

बारूद का सामान बाज़ार में  लोगों को थमाते हैं।

दुनियां में उठाये हैं वही शांति का झंडा अपने हाथ

खून खराबा कहीं भी हो, आंसु बहाने चले आते हैं।

कहें दीपक बापू, सबसे ज्यादा कत्ल जिनके नाम

इंसानी हकों के समूह गीत वही दुनियां में गाते हैं।

पराये पसीने से भरे हैं जिन्होंने अपने सोने के भंडार

गरीबों के भले का नारे वही जोर से सुनाते हैं।

अपनी सोच किसको कब कहां और  कैसे सुनायें

चालाक सौदागरों के जाल में लोग खुद ही फंसे जाते हैं।

खरीद लिये हैं उन्होंने बड़े और छोटे रुपहले पर्दे

इसलिये कातिल ही फरिश्ते बनकर सामने आते हैं।

——————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

बीमार बन गए चिकित्सक -हिंदी व्यंग्य कविता


इस जहान में आधे से ज्यादा लोग

चिकित्सक हो गये हैं,

अपनी बीमारियों की दवायें खाते खाते

इतना अभ्यास कर लिया है कि

वह बीमारी और दवा के बीच

अपना अस्तित्व खो रहे हैं,

बताते हैं दूसरों को दवा

भले कभी खुद ठीक न हो रहे हों।

कहें दीपक बापू

अपनी छींक आते ही हम

रुमाल लगा लेते हैं

इस भय से कि कोई देखकर

दुःखी हो जायेगा,

बड़ी बीमारी का भय दिखाकर

बड़े चिकित्सक का रास्ता बतायेगा,

सत्संग में भी सत्य पर कम

मधुमेह पर चर्चा ज्यादा होती है,

सर्वशक्तिमान से ज्यादा

दवाओं  पर बात  होती है,

कितनी बीमारियां

कितनी दवायें

बीमार समाज देखकर लगता है

छिपकर खुशी की सांस ली जाये,

लाचार शरीर में लोग

ऊबा हुआ मन ढो रहे हैं,

बीमार खुश है अपनी बीमारी और दवाओं पर

भीड़ में सत्संग कर

यह सोचते हुए कि

वह स्वास्थ्य का बीज बो रहे हैं।

 लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

लुटेरों की खता नही है-हिंदी व्यंग्य कविता


दौलत की दौड़ में बदहवास है पूरा जमाना

या धोखा है हमारे नजरिये में

यह हमें भी पता नहीं है,

कभी लोगो की चाल पर

कभी अपने ख्याल पर

शक होता है

दुनियां चल रही अपने दस्तूर से दूर

सवाल उठाओ

जवाब में होता यही दावा

किसी की भी खता नहीं है।

कहें दीपक बापू

शैतान धरती के नीचे उगते हैं,

या आकाश से ज़मीन पर झुकते हैं,

सभी चेहरे सफेद दिखते हैं,

चमकते मुखौटे बाजार में बिकते हैं,

उंगली उठायें किसकी तरफ

सिलसिलेवार होते कसूर पर

इंसानियत की दलीलों से जहन्नुम में

जन्नत की तलाश करते लोगों की नज़र में

पहरेदार की तलाशी होना चाहिये पहले

कहीं अस्मत लुटी,

कहीं किस्मत की गर्दन घुटी,

लुटेरों की खता नही है।

————–

 

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

४.दीपकबापू कहिन

5.हिन्दी पत्रिका 

६.ईपत्रिका 

७.जागरण पत्रिका 

८.हिन्दी सरिता पत्रिका 

९.शब्द पत्रिका

हिंदी दिवस पर हास्य कविता-राष्ट्रभाषा का महत्व अंग्रेजी में समझाते


हिन्दी दिवस हर बार

यूं ही मनाया जायेगा,

राष्ट्रभाषा का महत्व

अंग्रेजी में बोलेंगे बड़े लोग

कहीं हिंग्लिश में

नेशनल लैंग्वेज का इर्म्पोटेंस

मुस्कराते समझाया जायेगा।

कहें दीपक बापू

पता ही नहीं लगता कि

लोग तुतला कर बोल रहे हैं

या झुंझला कर भाषा का भाव तोल रहे हैं,

हिन्दी लिखने वालों को

बोलना भी सिखाया जायेगा,

हमें तसल्ली है

अंग्रेजी में रोज सजती है महफिलें

14 सितम्बर को हिन्दी के नाम पर

चाय, नाश्ता और शराब का

दौर भी एक दिन चल जायेगा।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

गणेश चतुर्थी पर विशेष हिंदी लेख-गणपति बप्पा मोरिया, अगली बार जल्दी आ


         आज पूरे देश में  श्रीगणेश चतुर्थी का पर्व उत्साह से मनाया जा रहा है। साकार रूप में  श्रीगणेश भगवान का चेहरा हाथी और सवारी वाहन चूहा दिखाया जाता है।  सकाम भक्त उनके इसी रूप पर आकर्षक होकर उनकी आराधना करते हैं। आमतौर से हिन्दू धर्म समाज के बारे में कहा जाता है कि वह संगठित नहीं है और भगवान के किसी एक स्वरूप के न होने के कारण उसमें अन्य धर्मों की तरह एकता नहीं हो पाती।  अनेक लोग भारतीय समाज के ढेर सारे भगवान होने के विषय की मजाक बनाते हैं। इनमें भी भगवान श्री हनुमान तथा गणेश जी के स्वरूप को अनेक लोग मजाक का विषय मानते हैं।  ऐसे अज्ञानी लोगों से बहस करना निरर्थक है।  दरअसल ऐसे बहसकर्ता अपने जीवन से कभी प्रसन्नता का रस ग्रहण नहीं कर पाते इसलिये दूसरों के सामने विषवमन करते हैं। यह भी देखा गया है कि गैर हिन्दू विचारधारा  के कुछ  लोगों में रूढ़ता का भाव इस तरह होता है कि उन्हें यह समझाना कठिन है कि हिन्दू अध्यात्मिक दर्शन निरंकार परमात्मा का उपासक है पर सुविधा के लिये उसने उनके विभिन्न मूर्तिमान स्वरूपों का सृजन किया है।  साकार से निराकार की तरफ जाने की कला हिन्दू बहुत अच्छी तरह जानते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि देह की इंद्रियां-आंख, नाक, कान, तथा मन बाह्य विषयों की तरफ सहजता से आकर्षित रहता है।  इसलिये ही बाह्य विषयों में दृढ़ अध्यात्मिक भाव स्थापित किया जाये तो बाद में निष्काम भक्ति का भाव सहजता से अंतर्मन में लाया जा सकता है।

                        भगवान के मूर्तिमान स्वरूपों से अमूर्त रूप की आराधना करने में सुविधा होती है।  दूसरे धर्मों के लोगों के बारे में क्या कहें कुद स्वधर्मी बंधु भी अपने भगवान के विभिन्न स्वरूपों के प्रति रूढ़ता का भाव दिखाते हुए कहते हैं कि हम तो अमुक भगवान के भक्त हैं अमुक के नहीं? इसके बावजूद गणेश जी के रूप के सभी उपासक होते हैं क्योंकि उनके नाम लिये बिना कोई भी शुभ काम प्रारंभ नहीं होता।

                        आमतौर से भगवान श्रीगणेश जी का स्मरण मातृपितृ भक्त के रूप में किया जाता है। बहुत कम लोग उस महाभारत की याद करते हैं जिसके गर्भ से श्रीमद्भागवत गीता जैसे अद्भुंत ग्रंथ  का जन्म हुआ, इसी महाभारत के रचयिता तो महर्षि वेदव्यास हैं पर भगवान श्रीगणेश जी ने हार्दिक भाव के साथ  अपनी कलम से उसे सजाया है।  आम भारतीय के लिये श्रीमद्भागवत गीता एक पवित्र ग्रंथ है पर इसके विषय में  कुछ ज्ञानी और साधक मानते हैं कि यह विश्व का अकेला एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें तत्व ज्ञान के साथ सांसरिक विषयों का विज्ञान भी विद्यमान है।  हाथी जैसे विशाल धड़ को धारण तथा चूहे की सवारी करने वाले भगवान श्रीगणेश जी ने श्रीमद्भागवत गीता की  रचना में अपना योगदान देकर भारतीय तत्वज्ञान को एक ऐसा आधारभूत ढांचा प्रदान किया जिससे भारत विश्व का अध्यात्मिक गुरु कहलाता है।  यही कारण है कि भगवान श्रीगणेश जी के उपासक जहां सकाम भक्त हैं तो निष्काम ज्ञानी और और साधक भी उनका स्मरण करते हुए उनके स्वरूप का आनंद उठाते हैं।

यहां प्रस्तुत है श्रीगणपत्यथर्वशीर्षम् के श्लोक आधार पर उनके स्मरण के लिये मंत्र।

—————————————————————————————————–

 ॐ (ओम) नमस्ते गणपतये। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि। त्वमेव केवलं कर्तासि। त्वमेव धर्तासि। त्वमेव केवलं हर्तासि। त्वमेव सर्व खल्विदं ब्रह्मासि। त्वं साक्षादात्मासि नित्यम्

                        हिन्दी में भावार्थ-गणपति जी आपको नमस्कार है। आप ही प्रत्यक्ष तत्व हो, केवल आप ही कर्ता, धारणकर्ता और संहारकर्ता हो। आप ही विश्वरूप ब्रह्म हो और आप ही साक्षात् नित्य आत्मा हो।

ऋतं वच्मिं। सत्यं  वच्मि।।

                        हिन्दी में भावार्थ-यथार्थ कहता हूं। सत्य कहता हूं।

                        हम जैसे योग तथा ज्ञान साधकों के लिये श्रीगणेश भगवान हृदय में धारण करने योग्य विषय हैं।  उन्हें कोटि कोटि नमन करते हैं।  सच बात तो यह है कि इस तरह उनके आकर्षक स्वरूप का स्मरण करने से मन में उल्लास तथा आत्मविश्वास का भाव पैदा होता है उसे शब्दों में व्यक्त करना एक दुष्कर कार्य है।

                        इस गणेशचतुर्थी के पावन पर्व पर सभी ब्लॉग लेखक मित्रों, पाठकों को हमारी तरफ से बधाई।  भगवान श्रीगणेश जी उनके हृदय में स्थापित होकर उनका जीवन मंगलमय करें। वही हर मनुष्य के  शुभ कमों के प्रारंभ में ही उत्तम फल का सृजन करते हैं जो समय आने पर उसे मिलता है। वही दुष्टों के  दंड का भी निर्धारण करते हैं जिसकी कल्पना अपना दुष्कृत्य करते हुए अपराधी सोच भी नहंी सकता। इसलिये मनुष्य को श्रीगणेश जी पर विश्वास करते हुए तनाव रहित होने का प्रयास करना चाहिये।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

हिन्दी दिवस पर विशेष निबंध लेख-अध्यात्म की भाषा हिन्दी को चाटुकार संबल नहीं दे सकते


                        14 सितम्बर 2013 को एक बार फिर हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है।  इस अवसर पर सरकारी तथा अर्द्धसरकारी तथा निजी संस्थाओं में कहीं हिन्दी सप्ताह तो कही पखवाड़ा मनाया जायेगा।  इस अवसर पर सभी जगह जो कार्यक्रम आयोजित होंगे उसमें निबंध, कहानी तथा कविता लेखन के साथ ही वादविवाद प्रतियोगितायें होंगी। कहीं परिचर्चा आयोजित होगी।  अनेक लोग भारत में हिन्दी दिवस मनाये जाने पर व्यंग्य करते हैं। उनका मानना है कि यह देश के लिये दुःखद है कि राष्ट्रभाषा के लिये हमें एक दिन चुनना पड़ता है।  उनका यह भी मानना है कि हिन्दी भाषा अभी भी अंग्रेजी के सामने दोयम दर्जे की है।  कुछ लोग तो अब भी हिन्दी को देश में दयनीय स्थिति में मानते हैं। दरअसल ऐसे विद्वानों ने अपने अंदर पूर्वाग्रह पाल रखा है। टीवी चैनल, अखबार तथा पत्रिकाओं में उनके लिये छपना तो आसान है पर उनका चिंत्तन और दृष्टि आज से पच्चीस या तीस वर्ष पूर्व से आगे जाती ही नहीं है।  ऐसे विद्वानों को मंच भी सहज सुलभ है क्योंकि हिन्दी का प्रकाशन बाज़ार उनका प्रयोजक है। इनमें से कई तो ऐसे हैं जो हिन्दी लिखना ही नहीं जानते बल्कि उनके अंग्रेजी में लिखे लेख हिन्दी प्रकाशनों में अनुवाद के साथ आते हैं। उनका सरोकार केवल लिखने से है। एक लेखक का इससे ज्यादा मतलब नहीं होना चाहिये पर शर्त यह है कि वह समय के बदलाव के साथ अपना दृष्टिकोण भी बदले।

                        एक संगठित क्षेत्र का लेखक कभी असंगठित लेखक के साथ बैठ नहीं सकता।  सच तो यह है कि जब तक इंटरनेट नहीं था हमें दूसरे स्थापित लेखकों को देखकर निराशा होती थी पर जब इस पर लिखना प्रारंभ किया तो इससे बाहर प्रकाशन में दिलचस्पी लेना बंद कर दिया।  यहां लिखने से पहले हमने बहुत प्रयास किया कि भारतीय हिन्दी क्षितिज पर अपना नाम रोशन करें पर लिफाफे भेज भेजकर हम थक गये।  सरस्वती माता की ऐसी कृपा हुई कि हमने इंटरनेट पर लिखना प्रारंभ किया तो फिर बाहर छपने का मोह समाप्त हो गया।  यहंा स्वयंभू लेखक, संपादक, कवित तथा चिंत्तक बनकर हम अपना दिल यह सोचकर ठंडा करते हैं कि चलो कुछ लोग तो हमकों पढ़ ही रहे हैं।  कम से कम हिन्दी दिवस की अवधि में हमारे ब्लॉग जकर हिट लेते हैं।  दूसरे ब्लॉग  लेखकों का पता नहीं पर इतना तय है कि भारतीय अंतर्जाल पर हिन्दी की तलाश करने वालों का हमारे ब्लॉग से जमकर सामना होता है।  दरअसल निबंध, कहानी, कविता तथा टिप्पणी लिखने वालों को अपने लिये विषय चाहिये।  वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेने वाले युवाओं तथा परिचर्चाओं में बोलने वाले विद्वानों को हिन्दी विषय पर पठनीय सामग्रंी चाहिये और अब किताबों की बजाय ऐसे लोग इंटरनेट की तरफ आते हैं।  सर्च इंजिनों में उनकी तलाश करते हुए हमारे बलॉग उनके सामने आते हैं।  यही बीस ब्लॉग बीस  किताब की तरह हैं।  यही कारण है कि हम अब अपनी किताब छपवाने का इरादा छोड़ चुके हैं।  कोई प्रायोजक हमारी किताब छापेगा नहीं और हमने छपवा लिये तो हमारा अनुमान है कि हम हजार कॉपी बांट दें पर उसे पढ़ने वाले शायद उतने न हों जितना हमारी एक कविता यहां छपते ही एक दिन में लोग पढ़ते हैं।  इतना ही नहीं हमारे कुछ पाठ तो इतने हिट हैं कि लगता है कि उस ब्लॉग पर बस वही हैं।  अगर वह पाठ  हम किसी अखबार में छपवाते तो उसे शायद इतने लोग नहीं देखते जितना यहां अब देख चुके हैं। आत्ममुग्ध होना बुरा हेाता है पर हमेशा नहीं क्योंकि अपनी अंतर्जालीय यात्रा में हमने देख लिया कि हिन्दी के ठेकेदारों से अपनी कभी बननी नहीं थी।  यहां हमें पढ़ने वाले जानते हैं कि हम अपने लिखने के लिये बेताब जरूर रहते हैं पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि हमें कोई प्रचार की भूख है।  कम से कम इस बात से  हमें तसल्ली है कि अपने समकालीन हिन्दी लेखकों में स्वयं ही अपनी रचना टाईप कर लिखने की जो कृपा प्राकृतिक रूप से हुई है कि हम  उस पर स्वयं भी हतप्रभ रह जाते हैं क्योंकि जो अन्य लेखक हैं वह इंटरनेट पर छप तो रहे हैं पर इसके लिये उनको अपने शिष्यों पर निर्भर रहना पड़ता है।  दूसरी बात यह भी है कि टीवी चैनल ब्लॉग, फेसबुक और ट्विटर जैसे अंतर्जालीय प्रसारणों में वही सामग्री उठा रहे हैं जो प्रतिष्ठत राजनेता, अभिनेता या पत्रकार से संबंधित हैं।  यह सार्वजनिक अंतर्जालीय प्रसारण पूरी तरह से बड़े लोगों के लिये है यह भ्रम बन गया है।  अखबारों में भी लोग छप रहे हैं तो वह अंतर्जालीय प्रसारणों का मोह नहीं छोड़ पाते।  कुछ मित्र पाठक पूछते हैं कि आपके लेख किसी अखबार में क्या नहीं छपतें? हमारा जवाब है कि जब हमारे लिफाफोें मे भेजे गये लेख नहीं छपे तो यहां से उठाकर कौन छापेगा?  जिनके अंतर्जालीय प्रसारण अखबारों या टीवी में छप रहे हैं वह संगठित प्रकाशन जगत में पहले से ही सक्रिय हैं। यही कारण है कि अंतर्जाल पर सक्रिय किसी हिन्दी लेखक को राष्ट्रीय क्षितिज पर चमकने का भ्रम पालना भी नहीं चाहिये।  वह केवल इंटरनेट के प्रयोक्ता हैं। इससे ज्यादा उनको कोई मानने वाला नहीं है।

                        दूसरी बात है कि मध्यप्रदेश के छोटे शहर का होने के कारण हम जैसे लेखको यह आशा नहीं करना चाहिये कि जिन शहरों या प्रदेशों के लेखक पहले से ही प्रकाशन जगत में जगह बनाये बैठे हैंे वह अपनी लॉबी से बाहर के आदमी को चमकने देंगे।  देखा जाये तो क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्म तथा विचारवाद पहले से ही देश में मौजूद हैं अंतर्जाल पर हिन्दी में सक्रिय लेाग उससे अपने को अलग रख नहीं पाये हैं।  अनेक लोगों से मित्र बनने का नाटक किया, प्रशंसायें की और आत्मीय बनने का दिखावा किया ताकि हम मुफ्त में यहां लिखते रहें।  यकीनन उन्हें कहीं से पैसा मिलता रहा होगा।  वह व्यवसायिक थे हमें इसका पता था पर हमारा यह स्वभाव है कि किसी के रोजगार पर नज़र नहीं डालते।  अब वह सब दूर हो गये हैं।  कई लोग तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर को होने का दावा भी करने लगे हैं पर उनका मन जानता है कि वह इस लेखक के मुकाबले कहां हैं? वह सम्मान बांट रहे हैं, आपस में एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे हैं। कभी हमारे प्रशंसक थे अब उनको दूसरे मिल गये हैं। चल वही रहा है अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह चीन्ह कर दें।  दरअसल वह इंटरनेट पर हिन्दी फैलाने से अधिक अपना हित साधने में लगे हैं। यह बुरा नहीं है पर अपने दायित्व को पूरा करते समय अपना तथा पराया सभी का हित ध्यान में न रखना अव्यवसायिकता है। पैसा कमाते सभी है पर सभी व्यवसायी नहीं हो जाते। चोर, डाकू, ठग भी पैसा कमाते हैं।  दूसरी बात यह कि कहीं एक ही आदमी केले बेचने वाला है तो उसे व्यवसायिक कौशल की आवश्यकता नहीं होती। उसके केले बिक रहे हैं तो वह भले ही अपने व्यवसायिक कौशल का दावा करे पर ग्राहक जानता है कि वह केवल लाभ कमा रहा है।  अंतर्जाल पर हिन्दी का यही हाल है कि कथित रूप से अनेक पुरस्कार बंट जाते हैं पर देने वाला कौन है यह पता नहीं लगता।  आठ दस लोग हर साल आपस में ही पुरस्कार बांट लेते हैं।  हमें इनका मोह नहीं है पर अफसोस इस बात का है कि यह सब देखते हुए हम किसी दूसरे लेखक को यहां लिखने के लिये प्रोत्साहित नहीं कर पाते।  हमारे ब्लॉगों की पाठक संख्या चालीस लाख पार कर गयी है। यह सूचना हम देना चाहते हैं। इस पर बस इतना ही।  हिन्दी दिवस पर कोई दूसरा तो हमें पूछेगा नहंी इसलिये अपना स्म्मान स्वयं ही कर दिल बहला रहे हैं। 

 

 लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

 

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

 

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

 

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

 

सूरज की रौशनी में-हिंदी व्यंग्य कविता


रोज पर्दे पर देखकर उनके चेहरे

मन उकता जाता है,

जब तक दूर थे आंखों से

तब तक उनकी ऊंची अदाओं का दिल में ख्वाब था,

दूर के ढोल की तरह उनका रुआब था,

अब देखकर उनकी बेढंगी चाल,

चरित्र पर काले धब्बे देखकर होता है मलाल,

अपने प्रचार की भूख से बेहाल

लोगों का असली रूप  बाहर आ ही जाता है।

कहें दीपक बापू

बाज़ार के सौदागर

हर जगह बैठा देते हैं अपने बुत

इंसानों की तरह जो चलते नज़र आते हैं,

चौराहों पर हर जगह लगी तस्वीर

सूरज की रौशनी में

रंग फीके हो ही जाते हैं,

मुख से बोलना है उनको रोज बोल,

नहीं कर सकते हर शब्द की तोल,

मालिक के इशारे पर उनको  कदम बढ़ाना है,

कभी झुकना तो कभी इतराना है,

इंसानों की आंखों में रोज चमकने की उनकी चाहत

जगा देती है आम इंसान के दिमाग की रौशनी

कभी कभी कोई हमाम में खड़े

वस्त्रहीन चेहरों पर नज़र डाल ही जाता है,

एक झूठ सौ बार बोलो

संभव है सच लगने लगे

मगर चेहरों की असलियत का राज

यूं ही नहीं छिप पाता है।

——————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

चित्त पर नियंत्रण करना ही वास्तविक योग-पतंजलि योग साहित्य


      भारतीय योग साधना शब्द ही अपने आप में स्वर्णिम लगता है।  जब भी कहीं योग की बात आती है तो भारतीय जनमानस उसके प्रति अपना सदाशय दिखाने में चूकता नहीं है। महर्षि पतंजलि योग विज्ञान के जनक है तो उसके महत्व को भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में प्रतिपादित किया है।  हम यह भी देखते रहे हैं कि जिस तरह भारतीय अध्यात्म ग्रंथों के सत्य से संबंधित विषय सामग्री का उपयोग पेशेवर धार्मिक कथाकार अपने व्यवसायिक हित की साधना के लिये करते हैं वैसे ही योग पद्धति का भी करना शुरु कर दिया है। हालांकि लंबे समय तक योग  साधना केवल सन्यासियों और सिद्धों के लिये स्वाभाविक कर्म माना जाता था पर जैसे जैसे भौतिकवाद ने मनुष्य के तन, मन और विचारों को विकृत किया वैसे वैसे ही विश्व के अनेक समाज, स्वास्थ्य तथा शिक्षा विशेषज्ञों ने उसका प्रतिकार भारतीय योग साधना को मानने का अभियान प्रारंभ किया।

   जैसा कि हम भारतीयों की आदत है जब तक कोई फैशन विदेश से न आये हम उसे स्वीकार नहीं करते वैसे ही योग साधना के मामले में भी रहा। विदेशी विशेषज्ञों ने जब भारतीय योग को एक वैज्ञानिक पद्धति माना तो देश में उसकी शिक्षा का व्यवसायिक अभियान प्रारंभ हो गया।  आज स्थिति यह है कि राजयोग, ज्ञान योग, अध्यात्मिक योग तथा  चमत्कृत शब्दों से अनेक कथित धार्मिक संस्थान अपनी दुकान चला रहे हैं तो अनेक बड़े छोटे पर्दे के कलाकार भी योग को योगा बनाकर अपनी छवि चमत्कृत कर रहे हैं। हमें  उनसे कोई शिकायत नहीं  है।  समस्या यह है कि उपभोग की तरह योग विषय का विज्ञापन करने का प्रभाव यह हुआ है कि पतंजलि योग का मूल स्तोत्र उससे मेल नहीं खाता जिससे इस विषय को लेकर अनेक लोग  भ्रमित हो रहे हैं।  सच बात तो यह है कि योग साधना के प्राणायाम तथा आसनों तक ही सीमित रखा जा रहा है।  अनेक पेशेवर धार्मिक फिल्मी कलाकारों की तरह दैहिक सक्रियता तक ही सीमित रखकर ज्ञान दे रहे हैं।  हाथ पांव हिलाने से आदमी न केवल स्वयं को देखता है बल्कि दूसरे भी उसे देखते हैं।  उसी तरह  सांसों को तेज करने से ध्वनि का बोध होता है।  इस तरह दृश्य और स्वरों के मेल से जो सक्रियता हो वह दिखती है इसलिये उनसे मनुष्य की दो इंद्रियां आंख और कान चमत्कृत होती हैं। इन्हीं दो इंद्रियों के आधार पर  मनोरंजनक व्यवसायियों के अर्थ का महल बनता है।  अगर धार्मिक पेशेवर भी इसी पर काम रहे हैं तो कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि उनका लक्ष्य भी समाज कल्याण के नाम पर अपना प्रचार करना ही है।

         आमतौर से पतंजलि योग साहित्य और श्रीमद्भागवत गीता को अनेक कथित धार्मिक प्रवचनकार गूढ अर्थों वाला मानते हैं।  उनका मानना है कि आम आदमी उसका स्वतः ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। यह प्रचार उन्हें स्वयं को गुरु पद पर प्रतिष्ठित करने के प्रयासों के  अलावा कुछ नहीं है।  सच बात तो यह है कि नित्य योग साधना तथा गीता का अध्ययन करने वाले लोग जब ज्ञान के सागर में गोता लगाने के आदी हो जाते हैं तब उनको यही गहराई कम लगती है।  इतना ही नहीं प्रचलित योग तथा उसके मूल स्तोत्र में उनको अंतर का पता चलता है।  योग मूलतः अंतर्मुखी होने की कला है जबकि योग प्रचारक उसे दैहिक सक्रियता तक सीमित रखकर उसके बहिर्मुखी होना प्रमाणित करते हैं। इसलिये इस बात की अनेक विद्वान आवश्यकता अनुभव करते हैं कि योग का मूल अर्थ समाज में बताते रहना चाहिये। इस विषय पर अनेक निष्काम कर्मी प्रयास कर रहे हैं जो प्रशंसनीय है।

पतंजलि योग में कहा गया है कि

——————-

योगनिश्चत्तवृत्तिनिरोधः।।

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।

वृत्तिसारूप्यमिततरत्र।।

   हिन्दी में भावार्थ-चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।  उस समय दृष्टा की  स्थिति अपने वास्तविक स्वरूप से जुड़ जाती है। दूसरे समय या यानि सामान्य समय में वह वृत्ति के सदृश होता है।

            हम योग का केवल शाब्दिक  अर्थ लें तो उसका मतलब जोड़ना।  मूल रूप से मनुष्य का संचालक उसका मन है।  मन हमेशा बहिर्मुखी विषयों की तरफ आकर्षित रहता है।  ऐसे में दृष्टा भी मन की बतायी राह पर चलता है। यह असहज योग की स्थिति है।  मनुष्य का मन या चित्त उसकी बुद्धि को इधर से उधर दौड़ाता है।  जब देह थक जाती है तो मनुष्य टूटने लगता है।  हम अगर मूल योग की बात करें तो वह चित्त की अवस्था पर नियंत्रण की विधा है।  जिस तरह दैहिक कार्य करने के बाद विराम लिया जाता है उसी तरह मन को भी विराम देना चाहिये पर यह केवल योग साधक ही कर सकते हैं।  हम दिन भर सांसरिक विषयों में रत रहें। रात को सो जायें फिर सुबह उठकर इन्हीं सांसरिक विषयों का चिंत्तन करें ऐसे में हमारे अध्यात्म का तो कोई अभ्यास होता ही नहीं हैं। अध्यात्म यानि वह शक्ति जो  इस शरीर को धारण करती है पर वह उसकी उपभोक्ता नहीं है। उपभोक्ता तो चित्त या मन है।  सांसरिक विषयों में डूबा मन कभी विरत नहीं होता। एक विषय से भरता है तो दूसरा ढूंढ लेता है।   उधर अध्यात्म का घर खाली लगता है।  इन दोनों को मिलाना ही योग है।  अध्यात्म और चित्त मिलकर एक स्वस्थ मनुष्य का निर्माण करते हैं।

               हमें इस मेल के लिये त्याग की आवश्यकता होती है।  यह त्याग धन का नहीं मन का होता है। प्रातःकाल उठकर पहले शरीर, मन और विचारों के विकारों को  योगासन, प्राणायाम और प्रत्याहार  से ध्वस्त करें फिर धारणा, ध्यान के साथ  समाधि की प्रक्रिया  से अपने चित्त को नवीन स्वरूप मे स्थापित करें। सांसरिक विषयों में लिप्त मन को प्रतिदिन उनसे विराम देने के लिये अध्यात्मिक साधना करें।  योग साधना की प्रक्रिया में लिप्त होने पर मनुष्य स्वाभाविक रूप से सांसरिक विषयों से परे हो जाता है जिसे हम त्याग कह सकते हैं। 

    आप अगर सर्वेक्षण करें तो पायेंगे कि अनेक लोग यह कहते हैं कि हम योग साधना करना चाहते हैं पर समय नहीं मिलता या फिर हमारी कुछ घरेलु समस्यायें जिनके हल तक यह करना संभव नहीं है। दरअसल ऐसे लोग सांसरिक विषयों के प्रति अपने भाव को त्याग नहीं करना चाहते हैं। चित्त में चिंतायें जमाये रखने की उनको ऐसी आदत होती है कि उससे परे रहना उन्हें उसी तरह तकलीफदेह लगता है जैसे कि किसी शराबी को शराब न मिलने पर लगता है।

      एक बात सभी जानते हैं कि सबका दाता राम है फिर लोग कभी अपनी  तो कभी अपने परिवार की समस्याओं को लेकर अपने अंदर चिंता की आग जलाये क्यों रखते हैं। वह भगवान के समक्ष  आर्त भाव से इस तरह प्रस्तुत क्यों होते हैं कि उनका काम बन जाये तो वह योग साधना करेंगे?   दरअसल चिंता की अग्नि में  जलने की आम लोगों को आदत है। एक तरह से कहें कि चिंतायें पालना भी एक तरह का नशा हो गया है। सब ज्ञान है पर धारण कोई नहीं करता।  चिंता के नशे में रहने आदी लोगों को योग साधना के दौरान अंतर्मुखी होने पर बाहरी विषयों से परे होने का भय उसको डरा देता है।  जबकि  मन और शरीर स्वस्थ होने के साथ ही  विचारों की शुद्धता मनुष्य को संबल प्रदान करती है पर सांसरिक विषयों से  विराम की आवश्यकता है उसे कोई लेना नहीं चाहता। हम इसे यह भी कह सकते हैं कि सांसरिक विषयों के चिंत्तन का त्याग कर योग साधना का लाभ अधिकतर लोग लेना नहीं चाहते। कहने का अभिप्राय यही है कि योग अपने चित्त पर नियंत्रण के लिये आवश्यक है।  जब तक चित्त पर नियंत्रण नहीं आता तब तक योग का कोई महत्व नहीं है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

६.अमृत सन्देश पत्रिका

पतंजलि योग विज्ञान-मन पर नियंत्रण करना ही सच्चा योग


       भारतीय योग साधना शब्द ही अपने आप में स्वर्णिम लगता है।  जब भी कहीं योग की बात आती है तो भारतीय जनमानस उसके प्रति अपना सदाशय दिखाने में चूकता नहीं है। महर्षि पतंजलि योग विज्ञान के जनक है तो उसके महत्व को भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में प्रतिपादित किया है।  हम यह भी देखते रहे हैं कि जिस तरह भारतीय अध्यात्म ग्रंथों के सत्य से संबंधित विषय सामग्री का उपयोग पेशेवर धार्मिक कथाकार अपने व्यवसायिक हित की साधना के लिये करते हैं वैसे ही योग पद्धति का भी करना शुरु कर दिया है। हालांकि लंबे समय तक योग  साधना केवल सन्यासियों और सिद्धों के लिये स्वाभाविक कर्म माना जाता था पर जैसे जैसे भौतिकवाद ने मनुष्य के तन, मन और विचारों को विकृत किया वैसे वैसे ही विश्व के अनेक समाज, स्वास्थ्य तथा शिक्षा विशेषज्ञों ने उसका प्रतिकार भारतीय योग साधना को मानने का अभियान प्रारंभ किया।

   जैसा कि हम भारतीयों की आदत है जब तक कोई फैशन विदेश से न आये हम उसे स्वीकार नहीं करते वैसे ही योग साधना के मामले में भी रहा। विदेशी विशेषज्ञों ने जब भारतीय योग को एक वैज्ञानिक पद्धति माना तो देश में उसकी शिक्षा का व्यवसायिक अभियान प्रारंभ हो गया।  आज स्थिति यह है कि राजयोग, ज्ञान योग, अध्यात्मिक योग तथा  चमत्कृत शब्दों से अनेक कथित धार्मिक संस्थान अपनी दुकान चला रहे हैं तो अनेक बड़े छोटे पर्दे के कलाकार भी योग को योगा बनाकर अपनी छवि चमत्कृत कर रहे हैं। हमें  उनसे कोई शिकायत नहीं  है।  समस्या यह है कि उपभोग की तरह योग विषय का विज्ञापन करने का प्रभाव यह हुआ है कि पतंजलि योग का मूल स्तोत्र उससे मेल नहीं खाता जिससे इस विषय को लेकर अनेक लोग  भ्रमित हो रहे हैं।  सच बात तो यह है कि योग साधना के प्राणायाम तथा आसनों तक ही सीमित रखा जा रहा है।  अनेक पेशेवर धार्मिक फिल्मी कलाकारों की तरह दैहिक सक्रियता तक ही सीमित रखकर ज्ञान दे रहे हैं।  हाथ पांव हिलाने से आदमी न केवल स्वयं को देखता है बल्कि दूसरे भी उसे देखते हैं।  उसी तरह  सांसों को तेज करने से ध्वनि का बोध होता है।  इस तरह दृश्य और स्वरों के मेल से जो सक्रियता हो वह दिखती है इसलिये उनसे मनुष्य की दो इंद्रियां आंख और कान चमत्कृत होती हैं। इन्हीं दो इंद्रियों के आधार पर  मनोरंजनक व्यवसायियों के अर्थ का महल बनता है।  अगर धार्मिक पेशेवर भी इसी पर काम रहे हैं तो कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि उनका लक्ष्य भी समाज कल्याण के नाम पर अपना प्रचार करना ही है।

         आमतौर से पतंजलि योग साहित्य और श्रीमद्भागवत गीता को अनेक कथित धार्मिक प्रवचनकार गूढ अर्थों वाला मानते हैं।  उनका मानना है कि आम आदमी उसका स्वतः ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। यह प्रचार उन्हें स्वयं को गुरु पद पर प्रतिष्ठित करने के प्रयासों के  अलावा कुछ नहीं है।  सच बात तो यह है कि नित्य योग साधना तथा गीता का अध्ययन करने वाले लोग जब ज्ञान के सागर में गोता लगाने के आदी हो जाते हैं तब उनको यही गहराई कम लगती है।  इतना ही नहीं प्रचलित योग तथा उसके मूल स्तोत्र में उनको अंतर का पता चलता है।  योग मूलतः अंतर्मुखी होने की कला है जबकि योग प्रचारक उसे दैहिक सक्रियता तक सीमित रखकर उसके बहिर्मुखी होना प्रमाणित करते हैं। इसलिये इस बात की अनेक विद्वान आवश्यकता अनुभव करते हैं कि योग का मूल अर्थ समाज में बताते रहना चाहिये। इस विषय पर अनेक निष्काम कर्मी प्रयास कर रहे हैं जो प्रशंसनीय है।

पतंजलि योग में कहा गया है कि

——————-

योगनिश्चत्तवृत्तिनिरोधः।।

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।

वृत्तिसारूप्यमिततरत्र।।

   हिन्दी में भावार्थ-चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।  उस समय दृष्टा की  स्थिति अपने वास्तविक स्वरूप से जुड़ जाती है। दूसरे समय या यानि सामान्य समय में वह वृत्ति के सदृश होता है।

            हम योग का केवल शाब्दिक  अर्थ लें तो उसका मतलब जोड़ना।  मूल रूप से मनुष्य का संचालक उसका मन है।  मन हमेशा बहिर्मुखी विषयों की तरफ आकर्षित रहता है।  ऐसे में दृष्टा भी मन की बतायी राह पर चलता है। यह असहज योग की स्थिति है।  मनुष्य का मन या चित्त उसकी बुद्धि को इधर से उधर दौड़ाता है।  जब देह थक जाती है तो मनुष्य टूटने लगता है।  हम अगर मूल योग की बात करें तो वह चित्त की अवस्था पर नियंत्रण की विधा है।  जिस तरह दैहिक कार्य करने के बाद विराम लिया जाता है उसी तरह मन को भी विराम देना चाहिये पर यह केवल योग साधक ही कर सकते हैं।  हम दिन भर सांसरिक विषयों में रत रहें। रात को सो जायें फिर सुबह उठकर इन्हीं सांसरिक विषयों का चिंत्तन करें ऐसे में हमारे अध्यात्म का तो कोई अभ्यास होता ही नहीं हैं। अध्यात्म यानि वह शक्ति जो  इस शरीर को धारण करती है पर वह उसकी उपभोक्ता नहीं है। उपभोक्ता तो चित्त या मन है।  सांसरिक विषयों में डूबा मन कभी विरत नहीं होता। एक विषय से भरता है तो दूसरा ढूंढ लेता है।   उधर अध्यात्म का घर खाली लगता है।  इन दोनों को मिलाना ही योग है।  अध्यात्म और चित्त मिलकर एक स्वस्थ मनुष्य का निर्माण करते हैं।

               हमें इस मेल के लिये त्याग की आवश्यकता होती है।  यह त्याग धन का नहीं मन का होता है। प्रातःकाल उठकर पहले शरीर, मन और विचारों के विकारों को  योगासन, प्राणायाम और प्रत्याहार  से ध्वस्त करें फिर धारणा, ध्यान के साथ  समाधि की प्रक्रिया  से अपने चित्त को नवीन स्वरूप मे स्थापित करें। सांसरिक विषयों में लिप्त मन को प्रतिदिन उनसे विराम देने के लिये अध्यात्मिक साधना करें।  योग साधना की प्रक्रिया में लिप्त होने पर मनुष्य स्वाभाविक रूप से सांसरिक विषयों से परे हो जाता है जिसे हम त्याग कह सकते हैं। 

    आप अगर सर्वेक्षण करें तो पायेंगे कि अनेक लोग यह कहते हैं कि हम योग साधना करना चाहते हैं पर समय नहीं मिलता या फिर हमारी कुछ घरेलु समस्यायें जिनके हल तक यह करना संभव नहीं है। दरअसल ऐसे लोग सांसरिक विषयों के प्रति अपने भाव को त्याग नहीं करना चाहते हैं। चित्त में चिंतायें जमाये रखने की उनको ऐसी आदत होती है कि उससे परे रहना उन्हें उसी तरह तकलीफदेह लगता है जैसे कि किसी शराबी को शराब न मिलने पर लगता है।

      एक बात सभी जानते हैं कि सबका दाता राम है फिर लोग कभी अपनी  तो कभी अपने परिवार की समस्याओं को लेकर अपने अंदर चिंता की आग जलाये क्यों रखते हैं। वह भगवान के समक्ष  आर्त भाव से इस तरह प्रस्तुत क्यों होते हैं कि उनका काम बन जाये तो वह योग साधना करेंगे?   दरअसल चिंता की अग्नि में  जलने की आम लोगों को आदत है। एक तरह से कहें कि चिंतायें पालना भी एक तरह का नशा हो गया है। सब ज्ञान है पर धारण कोई नहीं करता।  चिंता के नशे में रहने आदी लोगों को योग साधना के दौरान अंतर्मुखी होने पर बाहरी विषयों से परे होने का भय ं को डरा देता है।  जबकि  मन और शरीर स्वस्थ होने के साथ ही  विचारों की शुद्धता मनुष्य को संबल प्रदान करती है पर सांसरिक विषयों से  विराम की आवश्यकता है उसे कोई लेना नहीं चाहता। हम इसे यह भी कह सकते हैं कि सांसरिक विषयों के चिंत्तन का त्याग कर योग साधना का लाभ अधिकतर लोग लेना नहीं चाहते। कहने का अभिप्राय यही है कि योग अपने चित्त पर नियंत्रण के लिये आवश्यक है।  जब तक चित्त पर नियंत्रण नहीं आता तब तक योग का कोई महत्व नहीं है।

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

६.अमृत सन्देश पत्रिका

 

कभी दिल का हाल जाना नहीं-हिंदी कविता


 जिनको नहीं चलने का तरीका

दौड़ने में मजा वही बताते हैं,

कभी दिल का हाल जाना नहीं

इश्क के गीत वही गाते हैं।

कहें दीपक बापू

ज़माने की समझदारी,

बन गयी  है एक बीमारी,

खाने का सामान लेकर

पहुचंते उद्यानों में

जीभ के स्वाद में लोग डूबते,

पेट भरकर जल्दी ऊबते,

गंदगी छोड़कर चल देते अपने घर,

शीतल हवाओं में विष घोलते उसके दर,

सुख के लिये इधर उधर दौड़ते हुए

ऐसे लोग मरे जाते हैं,

दूसरों की आंखों और सांसों में

करते हैं दर्द पैदा

स्वयं भी तनावों से नहीं परे रह पाते हैं।

……………………………………..

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

४.दीपकबापू कहिन

5.हिन्दी पत्रिका 

६.ईपत्रिका 

७.जागरण पत्रिका 

८.हिन्दी सरिता पत्रिका 

९.शब्द पत्रिका

मानसून के प्रारंभ में प्रलय की स्थिति-हिन्दी लेख


    एक सप्ताह पूर्व तक देश में गर्मी का प्रकोप था।  उस समय वर्षा का इंतजार हो रहा था।  आमतौर से जून के माह में मानसून धीमे धीमे पूरे भारत में छा जाता है।  प्रारंभ में वर्षा अत्यंत सुकून देती है पर बाद में वह तेजी लाते हुए अनेक शहरों में बाढ़ का प्रकोप प्रकट करती है।  इस बार जिस तरह की बरसात आयी है उसका अनुमान मौसम विशेषज्ञों ने पहले नहीं दिया था।  मात्र कुछ पलों के सुकून के बाद अनेक शहरों में बरसात ने कहर बरपा दिया।  यह कहर ऐसा है कि मानसून आने की प्रसन्नता ही काफूर हो गयी।  गंगा यमुना उफनती आ रही हैं।  अनेक मकान और मंदिर ढह गये हैं।

  दरअसल हमारे देश में आबादी तेजी से बढ़ रही है और पर्यावरण के साथ ही प्रकृति से भी भारी छेड़छाड़ की गयी है। हम कहते हैं कि हमारे यहां आबादी ज्यादा है इस कारण लोग नदियों और नालों के किनारों पर कब्जा कर अपने मकान बनाते हैं और जब बाढ़ आ जाती है तब वह ढह जाते हैं। जमीन की कमी है  मगर जनसंख्या की वृद्धि  इकलौता कारण नहीं है जिसे हम इस तरह के प्राकृतिक प्रकोप को जायज ठहराते हैं। दरअसल हमारे देश में कथित विकास ने अनेक ऐसे लोगों को अधिक अमीर बना दिया है जिनके पास दो नंबर की कमाई है।  उनके पास सोने के बाद जमीन दूसरा विनिवेश करने का स्तोत्र है। देश के अनेक भागों में  भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़े गये अनेक लोगों के पास इतने मकान बरामद हुए हैं कि सरकारें उनको जनहित के लिये उपयेाग कर रही हैं।  दूसरी बात यह कि अधिकतर नदियों के किनारे तीर्थ स्थान होते हैं जहां वृद्धावस्था में लोग रहना चाहते हैं।  उनकी संतानें भी यही चाहती हैं कि बुजुर्ग घर से दूर रहें। जिनके पास पैसा है वह मकान लेकर रहते हैं। पूरे देश के साथ ही इन तीर्थस्थानों पर भवन निर्माण कंपनियों की चांदी कट रही है।  कुछ लोगों के पास तो इतना पैसा है कि वह इन तीर्थ स्थानों पर मकान केवल इसलिये लेकर खते हैं कि वहां खास अवसरों पर आकर रहेंगे। दूसरी बात यह कि समाचारों में भी यह बात आती है कि इन भवनों के निर्माण के लिये अधिगृहीत जमीनों पर भी अनेक प्रकार के विवाद होते हैं।  कहीं कहीं तो सरकारी अनुमति के बिना भी मकान बनाने की बात सामने आती हैं तीर्थ स्थानों पर बने अनेक धार्मिक स्थानों को लेकर झगड़े होते हैं।  ऐसे में नदियों के किनारे पर जमीनों पर मकान बनना कितना उचित है या अनुचित, इस विषय पर बहस करना अलग विषय है।  मूल बात यह कि इन किनारों पर इस तरह अतिक्रमण नहीं होना चाहिये। अगर हुए हैं तो नदियां  जब बिना अवरोध के अपना पानी लेकर चलती है तो कौन उनके आगे टिक सकता है।  अनेक बार असम में हाथियों के आतंक की चर्चा आती है तब पशु विज्ञानी कहते हैं कि हाथी मनुष्यों की जमीन पर नहंी आये बल्कि वही उनके इलाके में घुसकर मकान बना रहा है।  हाथी सीधा साधा जानवार है। अधिक प्रतिरोध नहीं कर सकता। इंसान ने हाथियों की जमीन की तरह नदियों के किनारों पर भी कब्जा कर लिया है  मगर नदियां बेबस नहीं होती।  उनमें धर्म और कर्म के नाम पर मनुष्य गंदगी विसर्जित करता रहता है। आठ महीने वह दंसान के अनाचार झेलती हैं पर मानसून में समंदर से भेजे गये बादलों से पानी लेकर वह चार मास तक मनुष्य पर वही गंदगी भेजती हैं जो आठ माह तक बहाता है।  यह अलग बात है कि किसकी गंदगी किसके पास जाती है मगर यह भी सच है कि नदी के निकट पहुंचने वाले लोग उसकी शुद्धता बनाये रखने का विचार नहीं करते।

        धन्य है गंगा मां! धन्य है यमुना मां!  मकान और मंदिरों में कोई भेद नहंी करती।  उनका यही निरपेक्ष भाव उनको माता का दर्जा दिलाता है।  मकान हो या मंदिर बनाये तो इंसान ने ही है।  धरतीपुत्र पहाड़ों की गर्दन उड़ाने के बाद मनुष्य चाहे  जितना धार्मिक होने का दावा करे नदियां उसे स्वीकार नहीं करती और इंसानों के हाथ  से पत्थरों की बनायी गयी  भगवान  मूर्तियों का जलाभिषेक करने के बाद उन्हें अपने जल में बिना प्रयास साथ ले जाती हैं। एक टीवी चैनल कहा रहा था किदेखो, नदी पर स्थित भगवान शिव का मंदिर ढह गया।  यह मंदिर उस मनुष्य जाति का बना था जो दावा तो करती है कि गंगा और शिव को मानने का पर अपने ही धन और बाहुबल से उनको चुनौती भे देती हैं।  भगवान के नाम पर आडंबर कर अनेक मनुष्य स्वयं को देवता की तरह दिखाने का प्रयास करते हैं।  किसी ने जोगिया तो किसी ने सफेद वस्त्र पहन लिये हैं।

  अभी हाल ही में इलाहाबाद में महाकुंभ संपन्न हुआ था तब अनेक धार्मिक प्रवृत्ति के जागरुक लोगों ने गंगा के प्रदूषित जल पर निराशा जताई थी।  उस  समय विशेषज्ञों ने साफ कहा था कि गंगा के जल में नहाना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक भी हो सकता है। तब टीवी चैनलों में पवित्र नदियों के जल की दर्दनाक स्थिति का बयान देखने को मिला।  सभी कहते हैं कि नदियों का जल शुद्ध रखने का प्रयास हो, पर करे कौन? न भी करें तो इतना तो तय किया जा सकता है कि हम अब नंदियों में कचड़ा प्रवाहित न करें।  यह भी नहीं करना चाहते।  ऐसे में नदियों के हृदय में कभी कभी तो आता ही होगा कि वह कुछ समय तक अपने जल  से गंदगी बाहर करें।  जैसा कि हम नदियों को माता मानते हैं तो यह भी मानना चाहिये कि उनका भी हृदय तो होता ही होगा।  यह भी मानना चाहिये कि इन नदियों मे में इतनी शक्ति है खास अवसरों पर इनमें  नहाने से पुण्य मिलता है तो यह भी मानना चाहिये कि वह मनुष्य जाति के पापों को बाहर आकर उसी के पास सौंपना भी जानती हैं।

    बहरहाल इस बार के मानसून ने ज्यादा समय तक प्रसन्न रहने का अवसर नहीं दिया।  हालांकि अभी बरसात प्रारंभ हुई है और संभावना इसी बात की है कि आगे बरसात नियमित रूप से होती रहेगी। तब शायद यह प्रकोप इतना न हो जितना अब दिख रहा हैं।

   

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

 

क्रिकेट में सिर पर सवार पैसा-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन


        इस समय इंग्लैंड में चैम्पियन ट्राफी क्रिकेट प्रतियोगिता चल रही है। इसमें बीसीसीआई की टीम जोरदार प्रदर्शन करते हुए आगे बढ़ती जा रही है। अनेक क्रिकेट विशेषज्ञ चकित हैं। बीसीसीआई के क्रिकेट खिलाड़ी जिस तरह तूफानी बल्लेबाजी कर रहे है तो दूसरी टीमों के खिलाड़ी धीमे धीमे चल रहे हैं उससे लगता है कि जैसे पिचें अलग अलग हैं। कभी कभी लगता है कि बल्ला या गेंदें भी अलग अलग हैं। मतलब यह कि भारतीय बल्लेबाज दूसरों के मुकाबले ज्यादा आक्रामक हैं। किसी के समझ में नहीं आ रहा है।

          हम समझाते हैं कि आखिर मामला क्या है? गुरुगोविंद सिंह ने कहा है कि पैसा बहुत जरूरी चीज है पर खाने के लिये दो रोटी चाहिये। मतलब यह कि जिंदगी में पैसा जरूरी है।  एक विद्वान कहते हैं कि पैसा कुछ हो या न हो पर जीवन में आत्मविश्वास का बहुत बड़ा स्तोत्र होता है।  जी हां, आईपीएल में बीसीसीआई की टीम के बल्लेबाजों ने जमकर पैसा कमाया है।  यह उनके आत्मविश्वास का ही  कारण बन गया है।  उनको मालुम है कि हमारे पास पैसा बहुत है और यह भाव उनको आक्रामक बना देता है। सीधी बात कहें कि पैसा सिर चढ़कर बोलता है।  हम यहां बीसीसीआई के खिलाडियों की आलोचना नहीं कर रहे बल्कि यह बता रहे हैं कि जिस तरह अन्य टीमों के खिलाड़ी बुझे मन से खेल रहे हैं उससे तो यही लगता है कि उनमें वैसा विश्वास नहीं है जैसा बीसीसीाआई की टीम में हैं। इसे कहते हैं कि पैसा सिर चढ़कर बोलता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’

Gwalior, Madhya Pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

 

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

 

क्रिकेट मैच में फिक्सिंग-जब नायक ही खलनायक बन जाते हैं


          कभी भारतीय जनमानस के नायक रहे श्रीसंत ने अपने आचरण ने स्वयं को खलनायक के पद पर प्रतिष्ठत कर लिया है।  लोगों की याद्दाश्त कमजोर होती है पर लेखकों को अपने दिमाग में अनेक यादें संजोकर  रखनी पड़ती हैं ताकि कभी उनका उपयोग किया जा सके।  2009 में बीसीसीआई की क्रिकेट टीम ने इंग्लैंड में बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता जीती थी। फाइनल में श्रीसंत ने पाकिस्तान के आखिरी खिलाड़ी मिसबा उल हक की चार रन के लिये उड़ती जा रही गेंद लपककर मैच जितवा दिया था। गेंद अगर बाहर जाती तो पाकिस्तान जीत जाता।  उस समय तक क्रिकेट मैचों का बीस ओवरीय प्रारूप भारत में लोकप्रिय नहीं था। इतना ही नहीं भारत में क्रिकेट खेल की प्रतिष्ठा भी कम होती जा रही थी।  उस कैच ने न केवल बीस ओवरीय प्रारूप को भारत में लोकप्रिय बनाया वरन् क्रिकेट खेल की प्रतिष्ठा भी वापस दिलवाई।  हमारे यहंा लोकप्रियता का पैमाना लोगों की आंखों में सम्मान से कम उनके खर्च करने वाले पैसों के आधार पर तय की जाती है।  फिल्म का नायक ज्यादा पैसा लेता तो वह नंबर वन होता है।  खिलाड़ी की  लोकप्रियता इस आधार पर तय होती है कि उसे प्रदर्शन पर  पैसा कितना मिलता है?  खेल की लोकप्रियता इस आधार पर तय होती है कि उस दाव कितना लोग लगाते हैं!

        बहरहाल श्रीसंत चेहरे से जहां सुंदर थे वहीं उनकी गेंदबाजी भी गजब की थी।  पता नहीं लोकप्रियता का मतलब उनकी नज़र मे क्या था?  उन्हें पता ही नहंी भारतीय जनमानस में उनकी प्रतिष्ठा कितनी थी?  अगर इसका विचार होता तो वह कभी उन आरोपों के शिकार नहीं होते जो उन पर लगे हैं।  श्रीसंत का खेल निरंतर गिरता जा रहा था।  फिर वह अनेक बार जब बीसीसीआई की टीम में नहीं दिखते तो हैरानी होती थी। कहा जाता था कि उनको चोटें परेशान कर रही हैं!  उनके प्रशंसकों  को लगता था कि उनके साथ अन्याय हो रहा है।  यह अब पता चला है कि वह अपनी प्रतिष्ठा का नकदीकरण करने लग गये थे। क्रिकेट में पाने के लिये अब उनके पास कुछ नहीं था!  विश्व कप जीतने वाले खिलाड़ी के लिये बाकी सारे मैच छोटे हो जाते हैं।  श्रीसंत निरंतर अच्छा खेलते तो उनके लिये कोई उपलब्धि विश्व कप से बड़ी नहीं होती।  शायद यही कारण है कि उनके लिये अब धन अधिक महत्वपूर्ण हो गया होगा।   पार्टियों में सुंदरियों के साथ नाचते हुए उनके फोटो इस बात का प्रमाण है कि उनका लक्ष्य केवल अपनी  विश्व कप विजेता की छवि भुनाना भर था।  सच बात तो यह है कि एक खिलाड़ी के रूप में अब उनके सामने अपने अस्तित्व का संकट है पर उनके प्रशंसकों के लिये तो दिल टूटने वाली स्थिति है। बीस ओवरीय प्रतियोगिता के फायनल में मिसबा उल हक का कैच लेकर उन्होंने जो प्रतिष्ठा कमाई थी वह इस तरह मिट्टी में मिल जायेगी यह कल्पना कौन कर सकता था?

           क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिताओं में फिक्सिंग होती है यह चर्चा आम रही है।  लोग कह रहे हैं कि श्रीसंत की वजह से क्रिकेट कलंकित हुई है तो थोड़ा आश्चर्यजनक भी लगता है।  जो लोग इस पर सट्टा लगाकर अपनी मूर्खता का प्रदर्शन करते हैं उनके बारे में भी तो कुछ कहना ही चाहिये।  ऐसा दिखाया जा रहा है कि सट्टा लगाने वाले आम लोग कोई मासूम हों! हैरानी होती है यह सब सुनकर! एक नहीं दस बार यही प्रचार माध्यम कह चुके हैं कि वहां फिक्सिंग वगैरह होती है।  इसके बावजूद क्या लोगों की अक्ल मारी गयी है? कहा जाता है कि भारत में क्रिकेट एक धर्म की तरह है! यह केवल कोरी बकवास है। हमने बरसों से क्रिकेट देखी है। बीसीसीआई को टीम से कभी बहुत लगाव रहा पर अब पता लगा कि वह तो एक निजी संस्था है।  फिर भी अनेक बार समय मिलने पर क्रिकेट मैच देखते हैं। किसी खिलाड़ी के प्रति लगाव होता है तो उसकी सफलता पर खुश होते हैं।  किसी खिलाड़ी से लगाव नहीं है तो फिल्म की तरह देखते हैं।  सट्टा लगाकर स्वयं खिलाड़ी बनेंगे तो फिर खेल का मजा क्या खाक लेंगे? सीधी बात कहें तो सट्टा लगाने वाले अपने लिये खेलते हैं।  वह दर्शक नहीं खिलाड़ी होते हैं। एक खिलाड़ी जब स्वयं खेलता है तो वह दूसरे का खेल नहीं देख पाता। खेल देखने के लिये दर्शक बनकर बैठना जरूरी है।  शायद क्रिकेट में बढ़ता सट्टा ही उसे धर्म के नाम से पुकारने के लिये प्रचार माध्यमों को मजबूर कर रहा है।  जैसे हर धर्म में कर्मकांड होता है वैसे ही क्रिकेट धर्म का कर्मकांड शायद मैच फिक्सिंग है।  क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में छक्के चौके पर नर्तकिंया नृत्य करती हैं। नर्तकियों के भी दो झुंड होते हैं जो अपनी अपनी टीम की सफलता पर त्वरित नृत्य करती हैं।  हमने क्लब सुने हैं, बार सुने हैं जहां नर्तकिंया नृत्य कर आगंतुकों का मन बहलाती हैं पर उनकी स्थापना के लिये सरकारी लायसेंस जरूरी माना गया है।  क्लब स्तरीय प्रतियोगिताओं के नृत्य के लिये लायसेंस अनिवार्य नहीं है यह देखकर हैरानी होती है।

    अभी तो जांच एजेंसियों  ने मैच फिक्सिंग को लेकर कार्यवाही की है। कल को वह इस नृत्य कार्यक्रम के लिये लायसेंस न होने की बात कहकर भी कार्यवाही कर सकती है।  मगर ऐसा होगा नहीं क्योंकि क्रिकेट एक धर्म बनाकर प्रचारित किया जा रहा है। अगर उसमें नृत्य पर पुलिस कार्यवाही करती है तो कहा जायेगा कि सर्वशक्तिमान के अनेक रूप  के दरबार में भी तो नृत्य होते हैं तब वहां कार्यवाही क्यों नहीं करते? तय बात है कि धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दी जायेगी।  देश का चालीस से पचास हजार करोड़ रुपये इस सट्टे की भेंट चढ़ता है।  ऐसे में मन में एक प्रश्न होता है कि क्या क्या गायों, भैंसों या बकरियों के पास पैसा है जो यह धन लगाती हैं। तय बात है कि मनुष्य ही सट्टा लगाते हैं।  जब क्रिकेट को धर्म बताने वाले प्रचार माध्यम ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता में सट्टा और मैच फिक्सिंग की बात कहते रहे हैं तो क्या हमारे देश के मनुष्य जातीय समाज को यह बात समझ में नहीं आ रही।

संत कबीर दास जी कह गये है कि

सांई इतना दीजिये, जा में कुटुंब समाय

आप भी भूखा न रहूं, अतिथि भी भूखा न जाये।

       शायद उन्होंने यह याचना इसलिये की थी कि अधिक धन आने पर मति मारी जाती है।  जिनकी मति मारी जाती है वह मनुष्य पशु समान होता है।  तब क्रिकेट मैचों पर सट्टा लगाकर बरबाद होने वाले मनुष्य के हमदर्दी समाप्त हो जाती है।  बहरहाल हम क्रिकेट मैचों के साथ ही उन पर बाहर हो रही चर्चा देखकर यह सोचते हैं कि हम किसमें दिलचस्पी दिखायें। मैचों पर या बहस में!  इधर मैच चल रहा है तो उधर बहस चल रही है।  बार बार टीवी का चैनल बदलते हैं।  न इधर के रहते हैं न उधर के!  तब हमें एक ही मार्ग बेहतर लगता है कि स्वयं ही कुछ लिख डालेें। यह लेख उसी विचार का परिणाम है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

 

जब मन में उष्णता हो तब मौन की बरफ से ठंडक पैदा करें-ग्रीष्म ऋतु पर लेख


    उत्तर भारत में अब गर्मी तेजी से बढ़ती जा रही है। जब पूरा विश्व ही गर्म हो रहा हो तब नियमित रूप से गर्मी में रहने वाले लोगों को  पहले से अधिक संकट झेलने के लिये मानसिक रूप से तैयार होना ही चाहिये।  ऐसा नहीं है कि हमने गर्मी पहले नहीं झेली है या अब आयु की बजह से गर्मी झेलना कठिन हो रहा है अलबत्ता इतना अनुभव जरूर हो रहा है कि गर्मी अब भयानक प्रहार करने वाली साबित हो रही है।  मौसम की दूसरी विचित्रता यह है कि प्रातः थोड़ा ठंडा रहता है जबकि पहले गर्मियों में निरंतर ही आग का सामना होता था।  प्रातःकाल का यह मौसम कब तक साथ निभायेगा यह कहना कठिन है।

   मौसम वैज्ञानिक बरसों से इस बढ़ती गर्मी की चेतावनी देते आ रहे हैं।  दरअसल इस धरती और अंतरिक्ष के बीच एक ओजोन परत होती है  जो सूर्य की किरणों को सीधे जमीन पर आने से रोकती है।  अब उसमे छेद होने की बात बहुत पहले सामने आयी थी।  इस छेद से निकली सीधी किरणें देश को गर्म करेंगी यह चेतावनी पहुत पहले से वैज्ञानिक देते आ रहे हैं।  लगातार वैज्ञानिक यह बताते आ रहे हैं कि वह छेद बढ़ता ही जा रहा है। अब कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि विश्व में विकास के मंदिर कारखाने ऐसी गैसें उत्सजर्तित कर रहे हैं जो उसमें छेद किये दे रही हैं तो कुछ कहते हैं कि यह गैसे वायुमंडल में घुलकर गर्मी बढ़ा रही हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि ओजोन पर्त के बढ़ते छेद की वजह से गर्मी बढ़ रही है या फिर गैसों का उपयोग असली संकट का कारण है या फिर दोनों ही कारण इसके लिये तर्कसंगत माने,ं यह हम जैसे अवैज्ञानिकों के लिये तय करना कठिन है ।  बहरहाल विश्व में पर्यावरण असंतुलन दूर करने के लिये अनेक सम्मेलन हो चुके हैं। अमेरिका समेत विश्व के अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्ष उनमें शािमल होने की रस्म अदायगी करते हैं। फिर गैस उत्सर्जन के लिये विकासशील देशों को जिम्मेदार बताकर विकसित राष्ट्रों के प्रमुख अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। यह अलग बात है कि अब इस असंतुलन के दुष्प्रभाव विकसित राष्ट्रों को भी झेलनी पड़ रहे है।

        एक बात तय है कि आधुनिक कथित राजकीय व्यवस्थाओं वाली विचाराधारायें केवल रुदन तक ही सभ्यता को ले जाती हैं।  लोकतंत्र हो या तानाशाही या राजतंत्र कोई व्यवस्था लोगों की समस्या का निराकरण करने के लिये राज्यकर्म में लिप्त लोगों को प्रेरित करते नहीं लगती। दरअसल विश्व में पूंजीपतियों का वर्चस्प बढ़ा है। यह नये पूंजीपति केवल लाभ की भाषा जानते हैं। समाज कल्याण उनके लिये निजी नहीं बल्कि शासन तंत्र का विषय  है। वह शासनतंत्र जिसके अनेक सूत्र इन्हीं पूंजीपतियों के हाथ में है।  यह पूंजीपति यह तो चाहते है कि विश्व का शासनतंत्र उनके लाभ के लिये काम करता रहे। यह वर्ग तो यह भी चाहता है कि  शासनतंत्र आम आदमी तथा पर्यावरण की चिंता करता तो दिखे, चाहे तो समस्या हल के लिये दिखावटी कदम भी उठाये पर उनके हितों पर कुठाराघात बिल्कुल न हो। जबकि सच यह है कि यही इन्हीं पूंजीपतियों  के विकास मंदिर अब वैश्विक संकट का कारण भी बन रहे हैं। सच बात तो यह है कि वैश्विक उदारीकरण ने कई विषयों को  अंधरे में ढकेल दिया है।  आर्थिक विकास की पटरी पर पूरा विश्व दौड़ रहा है पर धार्मिक, सामाजिक तथा कलात्मक क्षेत्र में विकास के मुद्दे में नवसृजन का मुद्दा अब गौण हो गया है।  पूंजीपति इस क्षेत्र में अपना पैसा लगाते हैं पर उनका लक्ष्य व्यक्तिगत प्रचार बढ़ाना रहता है। उसमें भी वह चाटुकारों के साथ ही ऐसे शिखर पुरुषों को प्रोत्साहित करते हैं जो उनकी पूंजी वृद्धि में गुणात्मक योगदान दे सकें।  अब वातानुकूलित भवनों, कारों, रेलों तथा वायुयानों की उपलब्धता ने ऐसे पूंजीपतियों को समाज के आम आदमी सोच से दूर ही कर दिया है।

          बहरहाल अगले दो महीने उत्तरभारत के लिये अत्यंत कष्टकारक रहेंगे।  जब तक बरसात नहीं आती तब तक सूखे से दुर्गति के समाचार आते रहेंगे।  यह अलग बात है कि बरसात के बाद की उमस भी अब गर्मी का ही हिस्सा हो गयी है।  इसका मतलब है कि आगामी अक्टुबर तक यह गर्म मौसम अपना उग्र रूप दिखाता रहेगा।  कुछ मनोविशेषज्ञ मानते हैं कि गर्मी का मौसम सामाजिक तथा पारिवारिक रूप से भी तनाव का जनक होता है। यही सबसे बड़ी समस्या हेाती है। सच बात तो यह है कि कहा भी जाता है कि तन की अग्नि से अधिक मन की अग्नि जलाती हैं संकट तब आता है जब आप शांत रहना चाहते हैं पर सामने वाला आपके मन की अग्नि भड़काने के लिये तत्पर रहता है।  ऐसे में हम जैसे लोगों के लिये ध्यान ही वह विधा है जो ब्रह्मास्त्र का काम करती है।  जब कोई गर्मी के दिनों में हमारे दिमाग में गर्मी लाने का प्रयास करे ध्यान में घुस जायें।  वैसे भी गर्मी के मार से लोग जल्दी थकते  लोग अपनी उकताहट दूसरे की तरफ धकेलने का प्रयास करते हैं।  उनसे मौन होकर ही लड़ा जा सकता है।  वहां मौन ही बरफ का काम कर सकता है       

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

६.अमृत सन्देश पत्रिका

 

रामनवमी पर अध्ययन और चिंत्तन जरूरी-हिंदी लेख


      आज रामनवमी का पर्व पूरे देश में बड़े उल्लास के साथ मनाया जा रहा है।  इस अवसर पर अनेक धर्मभीरु लोग मंदिरों में जाकर आरती, भजन तथा वहां मूर्तियों के अभिषेक आदि कार्यक्रमों में भाग लेकर आनंद उठाते हैं।  अनेक मंदिरों में लंगर आदि का कार्यक्रम भी होता है।  हम जैसे योग तथा ज्ञानसाधकों को ऐसे अवसर नये नये अनुभवों को अपने साथ जोड़ने का होता है। सच बात तो यह है कि योगविद्या के साथ ही श्रीमद्भागवत गीता के साथ जुड़ने पर इस संसार को देखने का हमारा ही दृष्टिकोण ही बदल गया है।  नित नयी अनुभूतियां होती हैं।  अनेक सुखद प्रसंग सामने इस तरह आते हैं कि कहना पड़ता है कि परमात्मा के खेल निराले हैं।

      पिछले दस बारह वर्षों से भारत में योग विद्या का प्रचार बढ़ा है। अनेक लोग मिलजुलकर योग साधना करते हैं।  इस दौरान आसन, प्राणायाम, ध्यान और मंत्रजाप करते करते वह एक दूसरे के सत्संगी बन जाते हैं।  भारतीय योग संस्थान और पतंजलि योग संस्थान के बैनरों के साथ होने वाले इन योग शिविरों ने सत्संगियों का एक नया समूह बनाया है।  हमने देखा है कि हमारे देश में पूजा पद्धतियों को लेकर अनेक पंथ बन चुके हैं। उनके पंथ प्रमुख अपने भक्तों के लिये पूज्यनीय माने जाते हैं।  उनके परमधाम गमन के पद उनका विश्राम आसन या कहें कुर्सी पर बैठने वाला दूसरा मनुष्य भी वहां प्रतिष्ठत होकर उनका  संचालन करता है।  इस तरह  पेशेवर ढंग से हमारे धार्मिक पंथ भी अपनी अध्यात्मिक विरासात संभाले रहते हैं।  आमतौर से अनेक धार्मिक विशेषज्ञ इन पंथों में बंटे समाज के विरोधी है पर योग शिविरों के आधार पर इन समूहों को वैसा नहीं माना जा सकता।

          पिछले कुछ वर्षों से रामनवमी, मकर सक्रांति, होली, जन्माष्टमी तथा अन्य धार्मिक पर्वों के अवसर पर हमारा संपर्क ऐसे ही योग शिविर से जुड़े लोगों से बढ़ता जा रहा है।  ऐसे अवसरों पर उनके साथ मिलकर बैठने में आनंद आता है।  यह आनंद रक्तशिराओं में जिस तरह के अमृत का संचालन करता है वह केवल योग से जुड़ी देह के लिये ही संभव है।

    आज रामनवमी के अवसर पर ऐसे ही एक योग सत्संगी के साथ हम अपने ही शहर के उन मंदिरों में गये जहां पहले भी जाते रहे हैं। इन मंदिरों का समय के साथ साथ आकर्षण बढ़ता ही गया है।  वह सत्संगी इन मंदिरों में हमारे साथ पहली बार चले।  वह बहुत प्रसन्न हुए।  कहने लगे ‘आपके साथ इतना घूमने में आज आनंद आ गया।’

 हमने हंसकर कहा कि‘‘जब भी ऐसे धार्मिक पर्व आते हैं हम अपने ही शहर के मंदिरों में जाकर आंनद उठाते हैं। सच बात तो यह है कि लोगों को बाहर दूसरे शहर में जाकर आंनद उठाने की बात मन में इसलिये आती है क्योंकि वह अपने शहर में घूमते नहीं।  उनका आदत ही नहीं। अगर अपने शहर में ही आनंद उठाने का अभ्यास हो तो फिर मन तृप्त हो जाता है तब कहीं बाहर जाकर भटकने का विचार नहीं आता है।’’

    वह हमारी बात से  सहमत हुए। सांई बाबा, वैष्णो देवी, राम मंदिर, और गोवर्धन के मंदिर हमारे शहर में भी हैं।  इन स्थानों में जाकर ध्यान लगाने के बाद मन तृप्त हो जाता है।  ऐसे में कोई व्यक्ति दूसरे शहर में प्रसिद्ध मंदिरों जाकर वहां दर्शन के लिये प्रेरित करता है तब उसे ना करना पड़ता है।  नाराज लोग कहते हैं कि‘‘यार, कहीं बाहर जाकर घूमा करो। क्या हमेशा यहीं पड़े रहते हो?’’

    उनके ताने पर मुस्कराकर चुप रहना ही पड़ता है। श्रीमद्भागवत गीता के  संदेशों की बात उनसे करना व्यर्थ है।  हमने देखा है कि ऐसे महान दर्शन के बाद घर लौटे लोग अपने साथ थकावट लाते हैं। यह थकावट उनके दर्शन के आनंद को सुखा देती है।  रेल की यात्रा करने के बाद भीड़ में जूझते हुए जिन मंदिरों के वह दर्शन करते हैं इसके लिये उनकी प्रशंसा ही करना चाहिये। मगर घर लौटकर सभी के सामने उसका प्रचार करने की बात कुछ जमती नहीं है।  फिर जब हमारा दर्शन कहता है कि परमात्मा सभी जगह मौजूद है तब ऐसे प्रयास करना अजीब लगता है।  एक बात तय रही कि ऐसे लोग अपने ही शहरों में घूमते नहीं है।  उनके लिये दूर के ढोल ही सुहावने हैं। हमारी यह अनुभूति है कि  पास के ढोल का आनंद उठाने के लिये योग वि़द्या के साथ जुड़ना ही एकमात्र विकल्प है।  सच बात तो यह है कि योग तो सभी करते हैं। अंतर इतना है कि योग विद्या से जुड़ा साधक सहज योग करता है और न करने वाला असहज योगी हो जाता है। देह में स्थित मन इधर उधर दौड़ाकर असहज करता है। जबकि योग साधक अपने मन को जोड़ने के लिये विकल्प स्वयं चुनता है।  कुछ धार्मिक प्रवचनकर्ता कहते हैं कि काम, क्रोध, मोह, लोभ तथा अहंकार छोड़ दो।  यह संभव नहीं है। योग विद्या से उन पर नियंत्रित किया जा सकता है।

               आज रामनवमी का पर्व हमारे लिये अध्यात्मिक सक्रियता का दिन रहता है।  मंदिरों में जाकर ध्यान लगाते हैं।  वहां अन्य भक्तों के श्रद्धामय प्रयास सुखद अनुभूति देते हैं।  इस आंनद को व्यक्त करने के लिये शब्द नहीं होते। किसी पर हंसते नहीं है वरन् उनकी सक्रियता देखकर उनके चेहरे पर आये सहज भाव को पढ़ते हैं।  सच बात तो यह है कि जब कोई आदमी पूजा, आरती या भजन कार्यक्रम में शामिल होता है तब उसके हृदय का भाव सात्विक हो जाता है।  यही चेहरे पर प्रकट होता है।

      इस रामनवमी पर सभी ब्लॉग लेखक मित्रों तथा पाठकों के इस आशा के साथ बधाई। साथ ही इस बात की शुभकामनायें कि उनके हृदय का अध्यात्मिक विकास हो।

 

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

४.दीपकबापू कहिन

5.हिन्दी पत्रिका 

६.ईपत्रिका 

७.जागरण पत्रिका 

८.हिन्दी सरिता पत्रिका 

९.शब्द पत्रिका

 

अपराध से प्रतिअपराध की तरफ-हिन्दी चिन्त्तन लेख


      राजधानी दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार के एक आरोपी ने कारागार में खुदकुशी कर ली।  जब यह कांड हुआ था तब पीड़िता के न्याय के लिये पूरे देश में शोर मचा था। सभी अपराधियों को फांसी देने की मांग जबरदस्त उठी थी। पीड़िता जब तक इलाज के लिये अस्पताल में भर्ती थी तब तक तो यह मांग जोर पकड़ती रही कि हर बलात्कारी को फांसी दी जाये।  जब पीड़िता ने दम तोड़ दिया तब इस मांग का मतलब नहीं रहा था क्योंकि जघन्य हत्यांकाड के अपराध पर फांसी का दंड देने में सुविधा होती है। उस समय जब तक पीड़िता अस्पताल में रही तब तक प्रचार माध्यम उसके नाम पर अपना समय पास कर जमकर विज्ञापन चलाते रहे।  जमकर बहसें हुईं। देखा जाये तो देश में जो इस कांड के विरुद्ध जो निरंतरता रही उसका पूरा श्रेय भी इन्हीं प्रचार माध्यमों को ही दिया जाना चाहिये।  यह अलग बात है कि इस तरह के सनसनखेज विषय उनके विज्ञापन चलते रहने का एक अच्छा माध्यम बन जाते हैं।

अब आरोपी की खुदकुशी पर फिर प्रचार माध्यमों में बहस होने लगी।  इस बहस में मृतक आरोपी का पिता और मां दोनों ही शामिल हुए।  पिता ने जो बातें कही गयी उनकी चर्चा करना लोगों को ठीक न लगे पर उनसे संदेश निकालने की कोशिश तो होनी ही चाहिये।  उसमें उन्होंने अपने दोनों पुत्रों के अपराध में शामिल होने के बाद जो उनकी दुर्दशा का जो बयान किया वह आगे के लोगों को चेतावनी के रूप में सुनाना बुरा नहीं है। हम इस विषय पर किसी के साथ सहानुभूति नहीं जताने जा रहे।  महत्वपूर्ण बात यह कि पिता अपराधजगत का अनुभवी आदमी रहा है। वह जेल भी जा चुका है इसलिये वह मानता है कि उसके पुत्र की मौत का सच सामने कभी नहीं आयेगा।  हालांकि वह मानता था कि उसका पुत्र इस अपराध के लिये फांसी और मौत का हकदार है पर वह साथ ही यह भी दावा कर रहा था कि  वह आत्महत्या नहीं कर सकता।  एक बात तय रही थी कि इस सामूहिक बलात्कार कांड में शामिल लोगों से किसी की हमदर्दी नहीं हो सकती।  यहां तक कि मृतक के माता पिता भी अपने पुत्र के अपराध की वकालत नहीं कर सके।  यह बात तो निश्चित है कि हर माता पिता अपने पुत्र को चाहते हैं पर जब वह अपराध ऐसा कर बैठे कि सारे संसार के सामने शर्मिदंगी हो तब उसका सार्वजनिक समर्थन कठिन हो जाता है। बहरहाल विरोधाभासी बयानों के बीच उनके माता पिता के बयान उन लोगों के लिये सबक हैं जो ऐसे अपराध में संलिप्त होने की सोचते हैं।

एक पुराने पत्रकार  ने एक अपराधी की सोच बताई थी जो उनसे कभी मिला था।  दुनियां में तमाम तरह के अपराध होते हैं पर पेशेवर या आदतन अपराधी बलात्कार और चोरी एकदम घटिया अपराध मानते हैं।  बलात्कार के अपराधी की हालत जेल में बुरी होती है यह बात पत्रकार  को उस अपराधी ने बताई थी।  उस पत्रकार  से मिले अपराधी की बात पर यकीन करें तो उसका कहना था कि इन दो अपराधों के अपराधियों की जेल में अन्य अपराधी समय मिलने पर बुरी गति करते हैं।  मृतक आरोपी के पिता ने जो हालत बयान की वह उस पुराने अपराधी के बयान को देखकर आश्चर्यजनक नहीं लगती।  सब जानते हैं कि जेल में डकैती, हत्या, लूट, ठगी, मारपीट और धोखाधड़ी के आरोपी भी रहते हैं। पत्रकार को उस पुराने अपराधी ने बताया था कि कारागार में   डकैती और हत्या के अपराधियों को दबदबा रहता है।  ऐसे बड़े अपराधी बलात्कार और चोरी को कायरों का अपराध मानते हैं। आमतौर से अनेक कामाग्नि में जल रहे लोग यह सोचते हैं कि किसी औरत के साथ जबरदस्ती करना बहादुरी है तो उन्हें मृतक आरोपी के पिता के बयान अवश्य दिखाये जाना चाहिये।  उसने अपने बयान में ऐसे वाक्य और शब्दों का उपयोग किया कि कार्यक्रम प्रसारित करने वाला पत्रकार भी कांप गया और उसे रोकने लगा।  यह वाक्य या शब्द किसी गंदी से गंदी फिल्म में भी उपयोग नहीं किये जा सकते। हमारा मानना है कि भले ही वाक्य या शब्द गंदे थे पर अगर किसी को व्यक्तिगत रूप से समझाना हो तो आपसी बातचीत में उनका उपयोग होता है।  उस दुःखी पिता ने भले ही अभद्र शब्दों का उपयोग किया पर हमें लगा कि कम से कम यह कार्यक्रम देखकर कभी उन्माद करने  के लिये तत्पर लोगों को डर अवश्य लगेगा। उस पिता ने यहां तक कहा कि उसके पुत्र के साथ बलात्कार किया गया होगा।  पता नहीं यह सच था या झूठ पर  हतप्रभ करने वाला यह वाक्य उन लोगों को दिखायें जो यह सोचते हैं कि किसी मासूम लड़की के साथ जबरदस्ती करने पर कोई सजा नहीं मिलती।

इस सामूहिक हत्याकांड के आरोपियों की जेल में पिटाई की खबर उस समय समाचार चैनलों पर आयी थी जब यह मामला प्रचार में जोर पकड़े हुए था। अब मृतक आरोपी के वकील और माता पिता  बयान दे रहे हैं कि उनके साथ यह क्रम बाद में भी चलता रहा था।  उनका एक दूसरा भी बेटा है जो इसमें शामिल है।  वह उसके मरने की आशंका भी जता रहे थे।  उनका कहना था कि हम गरीब हैं इसलिये हमारे साथ ऐसा हो रहा है।  हमारा कहना है कि जब कोई गरीब होकर ऐसे जघन्य हत्याकांड में शामिल हो रहा है तो उसे यह मानना ही चाहिये कि उसका दंड बड़ा होगा।  अमीर लोग अपराध कर भी बच जाते हैं इस तर्क के आधार पर गरीब अपराधी के साथ सहानुभूति नहीं हो सकती।  अगर यह सच है तो फिर गरीब को अपराध में शामिल होने से ही बचना चाहिये।  हम तो यह कहते हैं कि गरीब के अपराध में शामिल होने पर उसका दंड अधिक भयानक होना चाहिये क्योंकि उसके सहने की क्षमता अधिक होती है।  अमीर में सहने की क्षमता नहीं होती यह बात तय है।  हम यहां अमीरों के अपराध में शामिल होने पर सहानुभूति नहीं जता रहे बल्कि गरीब होकर अपराध में सजा मिलने पर रुदन करने की प्रवृत्ति पर गुस्सा जता रहे हैं।

मृतक आरोपी ने आत्महत्या की होगी पर उसके अपराध के कारण उस  पीड़िता का करुण क्रंदन यादकर उससे सहानुभूति खत्म हो जाती है जिसने अपनी जख्मों से लड़ते हुए दम तोड़ दिया।  अंत में हमारा यह कहना है कि मृतक आरोपी के पिता के वह बयान समाज में आपसी वार्तालाप में सुनाते रहें जिसमें उसने पुत्र पर अनाचार होने की बातें कही हैं ताकि महिलाओं को सस्ता समझने वालों में भय पैदा हो।  हो सकता है कि हमारी यह सोच गलत हो पर जिस तरह नारियों के प्रति अपराध इस देश में बढ़ रहे हैं उस पर गुस्सा आता है।  तब लगता है कि शैतानी प्रवृत्ति के लोगों को डराने के लिये उन्हें ऐसे संभावित खतरे का रूप दिखाना चाहिये।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

 

दरबारी बुत-हिन्दी कविता


एक दूसरे के तख्ते बजाते लोग
किसी ऊंचे तख्त पर होंगे विराजमान
फिर हथियारों के पहरे में
अपनी ढपली अपना राग बजायेंगे।
सस्ते तोहफे से बनाकर लोगों को बुत
कर लेंगे दुनियां अपनी मुट्ठी में
अपने ही दरबार में उनको सजायेंगे।
कहें दीपक बापू
ज़माने का भला करने वाले ठेकेदार
फैले हें चारों ओर
उनके दाव से कब तक खुद को बचायेंगे।

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

४.दीपकबापू कहिन

5.हिन्दी पत्रिका 

६.ईपत्रिका 

७.जागरण पत्रिका 

८.हिन्दी सरिता पत्रिका 

९.शब्द पत्रिका

 

खबरों का बाज़ार-हिन्दी व्यंग्य कविता


कुछ खबरें खुशी में झुलाती हैं,

कुछ खबरें जोर से रुलाती हैं।

कमबख्त!

किस पर देर तक गौर करें

अपनी खूंखार असलियतें भी

जल्दी से अपनी तरफ बुलाती हैं।

कहें दीपक बापू

खबरचियों का धंधा है

लोगों के जज़्बातों से खेलना,

कभी होठों में हंसी लाने की कोशिश होती

कभी शुरु होता आंखों में आंसु पेलना,

बिकने के लिये बाज़ार में बहुत सामान है,

ग्राहक खुश है खरीद कर शान में,

हमारे जज़्बातों से न कर पाये खिलवाड़ कोई

इसलिये फेर लेते हैं नज़रे

विज्ञापनों में दिखने वाली सुंदरियों से

खबर और बहस के बीच कंपनियों के

उत्पाद बिकवाने के लिये

अपने हाथ में झुलाती हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””

Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior

http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग

1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका

2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका

3.दीपक भारतदीप का चिंतन

४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

६.अमृत सन्देश पत्रिका

खुद के लिये कमाई और दूसरे पर हंसना संसार के दो सरल काम-हिन्दी चिंत्तन लेख


       आदमी का मन उसे भटकाता है।  थोड़ा है तो आदमी दुःखी है और ज्यादा है तो भी खुश नहीं है। धन, संपदा तथा पद अगर कम है तो आदमी इस बात का प्रयास करता है कि उसमें वृद्धि हो।  यदि वह सफलता के चरमोत्कर्ष है तो वह उसका मन इस  चिंता में घुलता है कि वह किसी भी तरह अपने वैभव की रक्षा  करता रहे।

           कहा जाता है कि दूसरे की दौलत बुद्धिमान को चार गुनी और मूर्ख को सौ गुनी दिखाई देती है।  इसका मतलब यह है कि मायावी संसार बुद्धिमान को भी विचलित करता है भले ही मूर्ख की अपेक्षा उसके तनाव की मात्रा कम हो।  कुछ महानुभाव अच्छा काम करने के इच्छुक हैं तो समय नहीं मिलता और समय मिलता है तो उनका मन नहीं करता।

   एक सज्जन उस दिन अपनी शारीरिक व्याधियों का बखान दूसरे सज्जन से कर  रहे थे।  पैर से शुरु हुए तो सिरदर्द कर ही दम लिया।  दूसरे सज्जन ने कहा-‘‘यार, आप सुबह उठकर घूमा करो। हो सके तो कहीं योग साधना का अभ्यास करो।’’

      पहले सज्जन ने कहा-‘‘कैसे करूं? रात को देर से सोता हूं!  दुकान से से घर दस बजे आता हूं। फिर परिवार के सदस्यों से बात करने में ही दो बज जाते हैं। किसी भी हालत में सुबह आठ बजे से पहले उठ नही सकता।

      दूसरे सज्जन ने कहा-‘‘अब यह तो तुम्हारी समस्या है। बढ़ती  उम्र के साथ शारीरिक व्याधियां बढ़ती ही जायेंगी।  अब तो तरीका यह है कि दुकान से जल्दी आया करो। अपने व्यापार का कुछ जिम्मा अपने लड़के को सौंप दो।  दूसरा उपाय यह है कि रात को जल्दी सोकर सुबह जल्दी उठने का प्रयास करो।  बाहर से घूमकर आओ और चाय के समय परिवार के सदस्यों से बातचीत करो।

      पहले सज्जन ने कहा-‘‘बच्चे को तो मैं इंजीनियरिंग पढ़ा रहा हूं।  मैं नहीं चाहता कि बच्चा व्यापार में आये।  व्यापार की अब कोई इज्जत नहीं बची है। कहीं अच्छी नौकरी मिल जायेगी तो उसकी भी जिंदगी में चमक होगी।’’

         दूसरे सज्जन ने कहा-‘‘अगर बच्चे को इंजीनियर बनाना है तो फिर इतना कमाना किसके लिये? तुम दुकान से जल्दी आ जाया करो।’’

      पहले सज्जन ने कहा-‘‘यह नहीं हो सकता।  भला कोई अपनी कमाई से मुंह कैसे मोड़ सकता है।

         दूसरे सज्जन ने एक तीसरे सज्जन का नाम लेकर कहा-‘‘हम दोनों के ही  एक मित्र ने भी अपनी बच्चे को चिकित्सा शिक्षा के लिये भेजा है। अब वह जल्दी घर आ जाता है। सुबह उठकर उसे उद्यान में घूमने जाते मैंने  कई बार देखा है।’’

         पहले सज्जन ने कहा-‘‘अरे, उसकी क्या बात करते हो? उसकी दुकान इतनी चलती कहां है? उसने अपनी जिंदगी में कमाया ही क्या है? वह मेरे स्तर का नहीं है।  तुम भी किसकी बात लेकर बैठ गये। मैं अपनी बीमारियों के बारे में तुमसे उपाय पूछ रहा हूं और तुम हो कि उसे बढ़ा रहे हो।’

             दूसरे सज्जन ने हंसते हुए कहा-‘‘तुम्हारी बीमारयों का कोई उपाय मेरे पास तो नहीं है।  किसी चिकित्सक के पास जाओ।  मैं तुम्हें गलत सलाह दे बैठा।  दरअसल इस संसार में मन लगाने के लिये दो बढ़िया साधन हैं एक है कमाना दूसरा परनिंदा करना। कुछ लोगों के लिये तीसरा काम है मुफ्त में सलाह देना जिसकी गलती मैं कर ही चुका।’’

          वास्तव में हर आदमी राजनीति, धर्म, अर्थ, फिल्म, साहित्य तथा कला के क्षेत्रों पर स्थित प्रतिष्ठित लोगों को देखकर उन जैसा बनने का विचार तो करता है पर उसके लिये जो निज भावों का त्याग और परिश्रम चाहिये उसे कोई नहीं करना चाहता।  जिन लोगों को प्रतिष्ठत क्षेत्रों में सफलता मिली है उन्होंने पहले अपने समय का कुछ भाग मुफ्त में खर्च किया होता है।  जबकि सामान्य हर आदमी हर पल अपनी सक्रियता का दाम चाहता है। कुछ लोग तो पूरी जिंदगी परिवार के भरण भोषण में इस आशा के साथ गुजार देते है कि वह उनसे फुरसत पाकर कोई रचनात्मक कार्य करेंगे।  हालांकि उन्हें अपने काम के दौरान भी फुरसत मिलती है तो वह उस दौरान दूसरों के दोष निकालकर उसे नष्ट कर देते हैं।  राजनीति, धर्म, अर्थ, फिल्म, साहित्य तथा कला के क्षेत्र में प्रतिष्ठत लोगों के बारे में आमजन में यह भावना रहती है कि वह तो जन्मजात विरासत के कारण बने हैं।  सच बात तो यह है कि हमारे समाज में अध्यात्म ज्ञान से लोगों की दूरी बढ़ती जा रही है।  अनेक लोगों ने अपने आसपास सुविधाओं का इस कदर संग्रह कर लिया है कि उन्हें अपने पांव पर चलना भी बदनामी का विषय लगता है।  लोग परोपकार करना तो एकदम मूर्खता मानते हैं  इसी कारण एक दूसरे की प्रशंसा करने की बजाय निंदा कर अपनी श्रेष्ठता साबित करते हैं। दूसरे को दोष गिनाते हैं ताकि अपने को श्रेष्ठ साबित कर सकें।  रचनात्मक प्रवृत्तियों से परे लोगों के पास दो ही काम सहज रहे गये हैं कि एक अपने स्वार्थ की पूर्ति दूसरा परनिंदा करना।

         रुग्ण हो चुके समाज में कुछ लोग ऐसे हैं जो स्वयं अध्यात्म ज्ञान के साधक हैं पर सांसरिक विषयों से संबंध रखने की बाध्यता की वजह से दूसरों के अज्ञान के दोष को सहजता से झेलते हैं।  यही एक तरीका भी है।  अगर आप योग, ज्ञान, ध्यान और भक्ति साधक हैं तो दूसरों के दोषों को अनदेखा करें।  अब लोगों के सहिष्णुता का भाव कम हो गया है। थोड़ी आलोचना पर लोग बौखला जाते है।  पैसे, पद और प्रतिष्ठा से सराबोर लोगों के पास फटकना भी अब खतरनाक लगता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

६.अमृत सन्देश पत्रिका

 

समाज में चेतना की कोशिश-हिंदी व्यंग्य कविता



समाज में चेतना अभियान
कहां से प्रारंभ करें
यहां कोई दुआ
कोई दवा
और कोई दारु के लिये बेकरार है,
अपने शब्दों से किसे  खुश करे
कोई रोटी
कोई कपड़ा
कोई छत पाने के लिये
जंग लड़ने को खड़ा तैयार है।
कहें दीपक बापू
अपनी समस्याओं पर सोचते हुए लोग रोते,
हर पल  चिंताओं में होते,
दिल उठा रहा है
लाचारियों का बोझ
दिमाग में बसा है वही इंसान
जो उनके मतलब का यार है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका
६.अमृत सन्देश पत्रिका

विज्ञापन में शोक कि शोक में विज्ञापन-हिंदी व्यंग्य


                     दो प्रचार प्रबंधक एक बार में सोमरस का उपभोग करने के लिये   गये। बैरा उनके कहे अनुसार सामान लाता और वह उसे उदरस्थ करने के बाद इशारा करके पास दोबारा बुलाते तब फिर आता। दोनों आपस में अपने व्यवसाय से संबंधित बातचीत करते रहे।  एक प्रचार प्रबंधक ने दूसरे से कहा‘-‘‘यार, मेरे चैनल का मालिक विज्ञापनों का भूखा है।  कहता है कि तुम समाचार अधिक चलाते हो विज्ञापन कम दिखाते हो।’’

दूसरा बोला-‘‘यार, मेरे चैनल पर तो समाचारों का सूखा है।  इतने विज्ञापन आते हैं कि समझ में नहीं आता कि समाचार चलायें कि नहीं। जिन मुद्दों पर पांच मिनट की बहस होती है  हम पच्चपन मिनट के विज्ञापन चलाते हैं।  हालांकि इस समय मुसीबत यह है कि हर रोज कोई मुद्दा मिलता नहीं है।’’

पहला बोला-‘‘अरे, इसकी चिंता क्यों करते हो? हम और तुम मिलकर कोई कार्यक्रम बनाते हैं। राई को पर्वत और रस्सी को सांप बना लेंगे। अरे दर्शक जायेगा कहां? मेरे चैनल  या तुम्हारे चैनल पर जाने अलावा उसके पास कोई चारा नहीं है।

इतने में बैरा उनके आदेश के अनुसार सामान ले आया।  उसकी आंखों में आंसु थे। यह देखकर पहले प्रचार प्रबंधक ने उससे पूछा कि ‘‘क्या बात है? रो क्यों रहे हो? जल्दी बताओ कहीं हमारे लिये जोरदार खबर तो नहीं है जिससे हमारे विज्ञापन हिट हो जाये।’’

बैरा बोला-‘‘नहीं साहब, यह शोक वाली खबर है।  वह मर गयी।’’

दोनों प्रबंधक उछलकर खड़े हुए पहला बोला-‘‘अच्छा! यार तुम यह पैसा रख लो। सामान वापस ले जाओ। हम अपने काम पर जा रहे है। आज समाचार और बहसों के लिये ऐसी सामग्री मिल गयी जिसमे हमारे ढेर सारे विज्ञापन चल जायेंगे।’’

दूसरा बोला-‘‘यार, पर शोक और उसकी बहस में विज्ञापन! देखना लोग बुरा न मान जायें।’’

पहला बोला-‘‘नहीं यार, लोग आंसु बहायेंगे। विज्ञापन देखकर उनको राहत मिलेगी। हम फिर उनको रुलायेंगे। देखा नहीं उसके  बस से लेकर उसके अस्पताल रहने तक  हमने समाचार और बहस में कितने विज्ञापन चलाये।’’

दूसरा बोला-‘‘पहले यह तो इससे पूछो मरी कौन है?’’

पहले ने बैरे से पूछा-‘‘यह तो बताओ मरी कौन है?’’

बैरा रोता रहा पर कुछ बोला नहीं। दूसरे ने कहा-‘‘यार, यह तो मौन है।’’

पहला बोला-‘‘चलो यार, अपने विज्ञापन का काम देखो।  यह हमारा कौन है?’’

दोनों ही बाहर निकल पड़े। पहले ने एक विद्वान को मोबाइल से फोन किया और बोला-‘‘जनाब, आप जल्दी आईये।  अपने साथ अपनी मित्र मंडली भी लाना। सभी अच्छा बोलने वाले हों ताकि दर्शक अधिक से अधिक हमने चैनल पर बने रहें। हमारा विज्ञापन का समय निकल सके।’’

दूसरे ने भी मोबाईल निकाला और अपने सहायक से बोला-‘‘सुनो, जल्दी से विज्ञापन की तैयारी कर लो। एक खबर है जिस पर लंबी बहस हो सकती है। इसमें अपनी आय का लक्ष्य पूरा करने में मदद मिलेगी।’’

दोनों अपने लक्ष्यों की तरफ चल दिये। उन्होंने यह जानने का प्रयास भी नहीं किया कि ‘मरी कौन है’। इससे उनका मतलब भी नहीं था।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश 

poet and writer-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

वह क्या जाने-हिंदी कविता


उनके चेहरे पर मुखौटा है

उसके पीछे कौन है,

जवाब में वह मौन है।

कहें दीपक बापू जिंदगी में

इतने मंजर हमने देखे हैं

बस चेहरे बदलते हैं

ज़माने का भला करने की

अदायें पुरानी दिखाते हुए सभी

पर्दे पर  टहलते है,

उनका जिस्म सजा है अपने आकाओं के

दान और चंदे  पर,

भर लिये सोने और चांदी से अपने घर,

क्या जाने ज़माने का वह दर्द,

जज्बात हो गये उनके सर्द,

क्यों जानेंगे

दरवाजे पर बीमार, बेकार और भूखा

आकर खड़ा कौन है?

==================

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””

Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior

http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग

1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका

2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका

3.दीपक भारतदीप का चिंतन

४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

६.अमृत सन्देश पत्रिका