Category Archives: hindi sahity

डुप्लीकेट खाने के आतंक के साये में-हास्य व्यंग्य


देश में आतंकवाद को लेकर तमाम तरह की चर्चा चल रही है। अनेक तरह की संस्थायें शपथ लेने के लिये कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। अनेक जगह छात्र और शिक्षक सामूहिक रूप से शपथ ले रहे हैं तो कई कलाकार और लेखक भी इसी तरह ही योगदान कर रहे हैं। सवाल यह है कि क्या आतंकवाद से आशय केवल बम रखकर या बंदूक चलाकर सामूहिक हिंसा करने तक ही सीमित है? टीवी पर ऐसे डरावने समाचार आते हैं भले ही वह उसमें आंतक जैसा कोई रंग नहीं देखते पर आदमी के दिमाग में वैसे ही खौफ छा जाता है जैसे कि कहीं बम या बंदूक की घटना से होता है। उस समय बम और बंदूक की हिंसा का परिदृश्य भी फीका नजर आता है।
हुआ यूं कि उस दिन कविराज बहुत सहमे हुए से एक डाक्टर के पास जा रहे थे। अपने सिर पर उन्होंने टोपी पहन ली और मुंह में नाक तक रुमाल बांध लिया। हुआ यूं कि उनकी कुछ कवितायें किसी पत्रिका में छपी थीं। जो संभवतः फ्लाप हो गयी क्योंकि जिन लोगों ने उसे पढ़ा वह उसके कविता के रचयिता कवि से उनका अर्थ पूछने के लिये ढूंढ रहे थे। पत्रिका कोई मशहूर नहीं थी इसलिये कुछ लोगों को फ्री में भी भेजी जाती थी। उनमें कविराज की कवितायें कई लोगों को समझ में नही आयी और फिर वह उनसे वैसे ही असंतुष्ट थे और अब बेतुकी कविता ने उनका दिमाग खराब कर दिया था। वह कवि से वाक्युद्ध करने का अवसर ढूंढ रहे थे। कविराज उस दिन घर से इलाज के लिये यह सोचकर ही निकले कि कहीं किसी से सामना न हो जाये और इसलिये अपना चेहरा छिपा लिया था।

मन में भगवान का नाम लेते हुए वह आगे बढ़ते जा रहे थे डाक्टर का अस्पताल कुछ ही कदम की दूरी पर था तब उन्होंने चैन की सांस ली कि चल अब अपनी मंजिल तक आ गये। पर यह क्या? डाक्टर के अस्पताल से आलोचक महाराज निकल रहे थे। वह उनके घोर विरोधी थै। वैसे उन्होंने कविराज की कविताओं पर कभी कोई आलोचना नहीं लिखी थी क्योंकि वह उनको थर्ड क्लास का कवि मानते थे। दोनों एक ही बाजार में रहते थे इसलिये जब दोनेां का जब भी आमना सामना होता तब बहस हो जाती थी।

दोनों की आंखें चार हुईं। आलोचक महाराज शायद कविराज को नहीं पहचान पाते पर चूंकि वह घूर कर देख रहे थे तो पहचान लिये गये। आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम कविराज हो न! हां, पहचान लिया। देख ली तुम्हारी सूरत अब तो वापस डाक्टर के पास जाता हूं कि कोई ऐसी गोली दे जिससे किसी नापसंद आदमी की शक्ल देखने पर जो तनाव होता है वह कम हो जाये।’

कविराज के लिये यह मुलाकात हादसे से कम नहीं थी। अपनी छपी कविताओं की चर्चा न हो इसलिये कविराज ने सहमते हुए कहा-‘क्या यार, बीमारी में भी तुम बाज नहीं आते।
आलोचक महाराज ने कहा-‘हां, यही तो मैं कह राह हूं। मैं जुकाम की वजह से परेशान हूं और तुम अपना थोबड़ा सामने लेकर आ गये। शर्म नहीं आती। यहां क्यों आये हो?’
कविराज ने बड़ी धीमी आवाज में कहा-‘ डाक्टर के पास कोई आदमी क्यों जाता हैं? यकीनन कोई कविता सुनाने तो जाता नहीं।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘मगर हुआ क्या? बुखार,जुकाम,खांसी या सिरदर्द? कोई बडी बीमार तो हुई नहीं हुई क्योंकि खुद ही चलकर आये हो।’
कविराज ने कहा-‘तुम्हें क्यों अपनी बीमारी बताऊं? तुम मेरी कविता पर तो आलोचना लिखोगे नहीं पर बीमारी पर कुछ ऐसा वैसा लिखकर मजाक उड़ाओगे।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘मैं तुम्हारी तरह नहीं हूं जो इस बीमारी में भी मेरे को शक्ल दिखाने आ गये। बताने में क्या जाता है? हो सकता है कि मैं इससे कोई अच्छा डाक्टर बता दूं। यह डाक्टर अपना दोस्त है पर इतना जानकार नहीं है।’
कविराज ने कहा-‘बीमारी तो नहीं है पर हो सकती है। मैं सावधानी के तौर पर दवाई लेने आया हूं।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘ कर दी अपने बेतुकी कविता जैसी बात। मैं तो सोचता था कि बेतुकी कविता ही लिखते हो पर तुम बेतुके ढंग से बीमार भी होते हो यह पहली बात पता लगा।’

कविराज ने कहा-‘‘ बात यह हुई कि आज मैंने घर पर देशी घी से बना खाना बना था। पत्नी के मायके वाले आये तो उसने जमकर देशी धी का उपयोग किया। जब टीवी देख रहे थे तो उसमें ‘देशी धी के जहरीले होने के संबंध में कार्यक्रम आ रहा था। पता लगा कि उसमें तो साबुन में डाले जाने वाला तेल भी डाला जाता है। वह बहुत जहरीला होता है। उसमें उस ब्रांड का नाम भी था जिसका इस्तेमाल हमारे घर पर होता है। यार, मेरे मन में तो आतंक छा गया। मैंने सोचा कि बाकी लोग तो मेरा मजाक उड़ायेंगे क्योंकि वह तो उस खबर को देखना ही नहीं चाहते थे। इसलिये अकेला ही चला आया।’

आलोचक महाराज ने कहा-‘डरपोक कहीं के! तुम्हारा चेहरा तो ऐसा लग रहा है कि जैसे कि गोली खाकर आये हो। अरे, यार घी खाया है तो अब मत खाना! ऐसा कोई धी नहीं है जो गोली या बम की तरह एक साथ चित कर दे।’

कविराज ने कहा-‘पर आदमी टीन लेकर रखेगा तो यह जहर धीरे धीरे अपने पेट में जाकर अपना काम तो करेगा न! गोली या बम की मार तो दिखती है पर इसकी कौन देखता है। यह जहर कितनों को मार रहा है कौन देख रहा है? सच तो यह है कि मुझे इसका भी आतंक कम दिखाई नहीं देता। यार उस दिन एक मित्र बता रहा था कि हर खाने वाली चीज की डुप्लीकेट बन सकती है। तब से लेकर मैं तो आतंकित रहता हूं। जो चीज भी खाता हूं उसके डुप्लीकेट होने का डर लगता है।’

आलोचक महाराज ने कहा-‘तो क्या डर का इलाज कराने आये हो?’
कविराज ने कहा -‘‘नहीं डाक्टर से ऐसी गोली लिखवाने आया हूं जो रोज ऐसा जहर निकाल सके। जिंदा रहने के लिये खाना तो जरूरी है पर असली या नकली है इसका पता लगता नहीं है इसलिये कोई ऐसी गोली मिल जाये तो कुछ सहारा हो जायेगा। गोली से भले ही रोज का जहर नहीं निकले पर अपने को तसल्ली तो हो जायेगी कि हमने गोली ली है कुछ नहीं होगा। नकली खाने के आतंक में तो नहीं जिंदा रहना पड़ेगा।

दोनों की बात उनका डाक्टर मित्र सुन रहा था और वह बाहर आया और कविराज से बोला-‘इस नकली खाने के आतंक से बचने का कोई इलाज नहीं है। वह जो बीमारियां पैदा करता है उनका इलाज तो संभव है पर उसके आतंक से बचने का कोई इलाज नहीं है। वह तो जब बीमारी सामने आये तभी मेरे पास आना।’

कविराज का मूंह उतर गया। वह बोले-ठीक है यार, कम से कम यह तसल्ली तो हो गयी कि ऐसी कोई गोली नहीं है जो नकली खाने के आतंक का इलाज कर सके। तसल्ली हो गयी वरना सोचा कि कहीं हम पीछे न रह जायें इसलिये चला आया।’

कविराज वापस जाने लगे तो आलोचक महाराज ने कहा-‘इस पर कोई कविता मत लिख देना क्योंकि मैं तब लिख दूंगा कि तुम कितने डरपोक हो। कितनी बेतुकी बात की है‘नकली खाने का आतंक’। कहीं लिख मत देना वरना लोग हंसेंगे और मैं तो तुम्हें अपना दोसत कहना ही बंद कर दूंगा। मेरी सलाह है कि तुम टीवी कम देखा करो क्योंकि तुम अब आतंक के कई चेहरे बना डालोगे जैसे चैनल वाले रोज बनाते हैं।’
कविराज ने कहा-‘‘यार, मैं तो नकली खाने के आतंक ने इतना डरा दिया है कि इस पर कविता लिखने के नाम से ही मेरे होश फाख्ता हो जाते हैं।
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दर्द से लड़ते आंसू सूख गये-हिंदी शायरी


जब हकीकतें होती बहुत कड़वी
वह मीठे सपनों के टूटने की
चिंता किसी को नहीं सताती
जहां आंखें देखती हैं
हादसे दर हादसे
वहां खूबसूरत ख्वाब देखने की
सोच भला दिमाग में कहा आती

दर्द से लड़ते आंसू सूख गये है जिसके
हादसों पर उसकी हंसी को मजाक नहीं कहना
उसकी बेरुखी को जज्बातों से परे नही समझना
कई लोग रोकर इतना थक जाते
कि हंसकर ही दर्द से दूर हो पाते
जिक्र नहीं करते वह लोग अपनी कहानी
क्योंकि वह हो जाती उनके लिये पुरानी
रोकर भी जमाना ने क्या पाता है
जो लोग जान जाते हैं
अपने दिल में बहने वाले आंसू वह छिपाते हैं
इसलिये उनकी कशकमश
शायरी बन जाती
शब्दों में खूबसूरती या दर्द न भी हो तो क्या
एक कड़वे सच का बयान तो बन जाती
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सहमा शब्द -हिन्दी शायरी


जब बमों की आवाज से
शहर काँप जाते हैं
बाज़ार में सड़कों पर
फैले खून के दृश्य
आखों के सामने आते हैं
तब बैठने लगता है दिल
लड़खडाने लगती है जुबान
हाथ रुक जाते हैं
तब अपने शब्द लडखडाते नजर आते हैं

लगता है कि कोई
मुस्करा रहा है यह बेबसी देखकर
क्योंकि बुलंद आवाज और
बोलते शब्द उसे पसंद नहीं आते हैं
उसके चेहरे पर है कुटिलता का भाव
लगता है उसी ने दिया है घाव
आजादी देने के बहाने
अपने पास बुलाकर
मन में खौफ भरकर
लोगों को गुलाम बनाने के बहाने उसे खूब आते हैं

क्या बाँटें दर्द अपना
किससे कहें हाल दिल का
लोगों के खून के साथ होली खेलने वाले
चुपके से निकल जाते हैं
अपना उदास चेहरा किसे दिखाएँ
कही अपने कदम न लडखडायें
यहाँ खंजर लिए है कौन
पता नहीं चलता
पीठ में घोंपने के लिए सब तैयार नजर आते हैं

ज़माने में अमन और चैन बेचने का भी
व्यापार होता है
भले ही मिल नहीं पाते हैं
पर दहशत के सौदागर फलते हैं इसलिए
क्योंकि दाम लेकर खून का
सौदा हाथों हाथ किये जाते हैं
इंसानी रिश्तों को वह क्या समझेंगे
जो इसका मोल नहीं जान पाते हैं
बुलंद आवाज़ और शब्दों की ताकत क्या समझेंगे
वह बम धमाकों में ही
अपने को कामयाब समझ पाते हैं
उनकी आवाज से खून बहता है सड़क पर
तकलीफों के कारवाँ
लोगों के घर पहुँच जाते हैं
पर सहमा शब्द
लडखडाते हुए चलते हुए भी
लम्बी दूरी तय कर जाते हैं
मिटते नहीं कभी
समय की मार से मरने वाले बचे ही कहाँ
पर मारने वाले भी कब बच पाते हैं
दहशत से शब्द कभी न कभी तो उबार आते हैं
भले ही धमाको से शब्द उदास हो जाते हैं

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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कहीं शय तो कहीं आदमी बिक जाता है-व्यंग्य कविता


दिन के उजाले में

लगता है बाजार

कहीं शय तो कहीं आदमी

बिक जाता है

पैसा हो जेब में तो

आदमी ही खरीददार हो जाता है

चारों तरफ फैला शोर

कोई किसकी सुन पाता है

कोई खड़ा बाजार में खरीददार बनकर

कोई बिकने के इंतजार में बेसब्र हो जाता है

भीड़ में आदमी ढूंढता है सुख

सौदे में अपना देखता अस्त्तिव

भ्रम से भला कौन मुक्त हो पाता है

रात की खामोशी में भी डरता है

वह आदमी जो

दिन में बिकता है

या खरीदकर आता है सौदे में किसी का ईमान

दिन के दृश्य रात को भी सताते हैं

अपने पाप से रंगे हाथ

अंधेरे में भी चमकते नजर आते है

मयस्सर होती है जिंदगी उन्हीं को

जो न खरीददार हैं न बिकाऊ

सौदे से पर आजाद होकर जीना

जिसके नसीब में है

वह जिंदगी का मतलब समझ पाता है
…………………………..
दीपक भारतदीप

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रोटी का इंसान से बहुत गहरा है रिश्ता-हिंदी शायरी


पापी पेट का है सवाल
इसलिये रोटी पर मचा रहता है
इस दुनियां में हमेशा बवाल
थाली में रोटी सजती हैं
तो फिर चाहिये मक्खनी दाल
नाक तक रोटी भर जाये
फिर उठता है अगले वक्त की रोटी का सवाल
पेट भरकर फिर खाली हो जाता है
रोटी का थाल फिर सजकर आता है
पर रोटी से इंसान का दिल कभी नहीं भरा
यही है एक कमाल
………………………
रोटी का इंसान से
बहुत गहरा है रिश्ता
जीवन भर रोटी की जुगाड़ में
घर से काम
और काम से घर की
दौड़ में हमेशा पिसता
हर सांस में बसी है उसके ख्वाहिशों
से जकड़ जाता है
जैसे चुंबक की तरफ
लोहा खिंचता

…………………………………..

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लोगों के मन का सहारा है परनिंदा करना-व्यंग्य आलेख


हमारे देश के लोगों का सबसे बड़ा दोष है-परनिंदा करना। बहुत कम लोग हैं जो इसके कीटाणुओं से मुक्त रह पाते हैं। देखने में भक्त और साधु किस्म के लोग भी इस बीमारी से उतने ही ग्रस्त होते हैं जितने सामान्य लोग। अगर कहीं चार लोगों के बीच चर्चा करो तो वहां अनुपस्थित व्यक्ति की निंदा हाल शुरू हो जाती है।

कई बार तो विचित्र स्थिति भी सामने आ जाती है। जब एक आदमी किसी दूसरे से अन्य के बारे में चर्चा करते हुए उसके दोष गिनाता है और श्रोता व्यक्ति यह सोचकर हंसता है कि यह दोष तो कहने वाले में भी है पर वह नहीं समझता। उसे लगता है कि दूसरा आदमी उसकी बात से सहमत है।
लोग परनिंदा में लिप्त तो होते हैं पर उससे घबड़ाते बहुत हैं। यही कारण है कि कई तरह के मानसिक बोझ व्यर्थ गधे की तरह ढोकर अपना जीवन नरक बनाते हैं यह अलग बात है कि वह मरणोपरांत स्वर्ग की कल्पना करना नहीं छोड़ते। ‘लोग क्या कहेंगे’, और ‘लोग क्या सोचेंगे’।

एक सज्जन दूसरे से अपने ही एक मित्र के बारे में कह रहे थे-‘वह तो दिखने का ही भला आदमी है। मैं तो उसे ऐसे ही अपना मित्र कहता हूं क्योंकि उससे काम निकालना होता है। वह तो अपने बाप का नहीं हुआ तो मेरा क्या होगा? उसक मां बाप अलग रहते हैं। दोनों बीमार हैं पर वह उनके पास जाता तक नहीं है। न ही पैसा देता है। बिचारे रोते रहते हैं। ऐसा आदमी इस दुनियां मेंे किस काम का जो मां बाप की सेवा नहीं करता।’

दूसरे ने कहा-‘भई, किसी के परिवार के विवादों को सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं करो तो अच्छा! आज तुम उनके बारे में कह रहे हो कल कोइ्र्र तुम्हारे बारे में भी कह सकता है। उसके मां बाप तो उसके घर से दूर रहते हैं हो सकता है वह अपने कार्य की व्यस्तता के कारण नहीं जा पाता हो। तुम्हारे मां बाप तो एकदम पास ही रहते हैं पर वह भी तुम्हारे बारे में ऐसी ही बातें करते हैं। यह तो घर घर की कहानी है।’

पहले वाले सज्जन एकदम तैश में आ गये और बोले-‘वह तो बुजुर्गों की आदत होती है। वैसे मैने तो अपने दम पर ही अपना मकान और सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित की है। अपने मां बाप से एक भी पैसा नहीं लिया। उन्होंने सब छोटे भाई को दे दिया है। उससे तो मेरी तुलना हो ही नहीं सकती।’

बहरहाल दोनों में बातचीत से तनाव बढ़ा और फिर दोनों में बातचीत ही बंद हो गयी। अपने दोष कोई सुन नहीं सकता पर दूसरे का प्रचार हर कोई ऐसे करता है जैसे कि वह सर्वगुण संपन्न हो।

किसी सात्विक विषय पर चर्चा करने की बजाय हर पल अपने लिये समाज के खलपात्र ढूंढने लगते हैं। नहीं मिलें तो फिल्मी सितारों और खलपात्रों की ही बात करेंगे। कहीं भी जाओ तो बस यही जुमले सुनाई देंगे‘अमुक आदमी ने अपने मां बाप को जीवन भर पूछा ही नहीं पर मर गया तो तेरहवीं पर पानी की तरह पैसा बहाया ताकि समाज के लोग खापीकर उसकी प्रशंसा करें’ या फिर ‘अमुक का लड़का नकारा है इसलिये ही उसकी बहुत भाग गयी आदि आदि।

तमाम तरह के संत और साधु अपने भक्तों के सामने प्रवचन में कहते हैं कि ‘परनिंदा मत करो‘ कार्यक्रम खत्म होते ही अपने निजी सेवकों और भक्तों के समक्ष दूसरे संतों की निंदा करने लग जाते हैं। उन पर आश्रित सेवक या भक्त उनके सामने कैसे कह सकता है कि कि ‘महाराज अभी तो आप परनिंदा की लिये मना कर रहे थे और आप जो कह रहे हैं क्या वह परंनिदा नहीं है।’
जैसे वक्ता वैसे ही श्रोता। श्रोता ऐसे बहरे कि उनको लगता है कि वक्ता जैसे गूंगा हो।

पंडाल में प्रवचन करते हुए वक्ता कह रहा है ‘परनिंदा मत करो’, पर वहां बैठे श्रोता तो व्यस्त रहते हैं अपने घर परिवार की चिंताओं में या अपने साथ आये लोगों के साथ वार्ताओं में। कोई अपने दामाद से खुश है तो कोई नाखुश। बहू से तो कोई सास कभी खुश हो ही नहीं सकती। उसी तरह बहुत कम बहूऐं ऐसी मिलेंगी जो सास की प्रशंसा करेंगी। लोग इधर उधर निंदा में ही अपना समय व्यतीत करते हैं और जिनको सुनने वाले लोग नहीं मिलते वह ऐसे सत्संग कार्यक्रमों की सूचना का इंतजार करते हैं कि वहां कोई पुराना साथी मिल जाये तो जाकर दिल की भड़ास निकालें।

ऐसा लगता है कि इसे देश में मौजूद लोगों परनिंदा करने की भूख को शांत करने के लिये ही ऐसे पारंपरिक मिलन समारोह बनाये गये हैं जहां आकर सब अपने को छोड़कर बाकी सभी की निंदा कर सकें। कई तो व्यवसाय ही इसलिये फल रहे हैं। फिल्म में एक नायक और एक खलनायक इसलिये ही रखा जाता है ताकि लोग नायक में अपनी छबि देखें और खलनायक में किसी दूसरे की। बातचीत मेंं लोग जिससे नाखुश होते हैं उसके लिये किसी फिल्मी खलनायक की छबि ढूंढते हैं।

आजकल के प्रचार माध्यम तो टिके ही परनिंदा के आसरे हैं। वह अपने लिये समाज के ऐसे खलपात्रों का ही प्रचार करते हैं जो अपराध तो करते हैं पर आसपास दिखाई नहीं देते। उन पर ढेर सारे शब्द और समय व्यय किया जाता है। लोग एकरसता से ऊबे नहीं इसलिये बीच बीच में भले लोगों के रचनात्मक काम का प्रदर्शन भी कर देते हैं। अखबार हों या टीवी चैनल ऐसी खबरों को ही महत्वपूर्ण स्थान देते हैं जिनमें दूसरों का दोष लोगों को अधिक दिखाई दे। कहीं बहू खराब तो कहीं सास, कहीं जमाई तो कही ससुर खूंखार और कही भाई तो कहीं साला अपराधी। लोग बड़े चाव से देखते हैं खराब व्यक्ति को। तब उनको आत्मतुष्टि मिलती हैं कि हम तो ऐसे नहीं हैं।

इसी कारण कहा भी जाता है कि ‘बदनाम हुए तो क्या नाम तो है’। रचनात्मक काम के परिश्रम अधिक लगता है कि नाम पाने के लिये मरणोपरांत ही संभावना रहती है जबकि विध्वंस में तत्काल चर्चा हो जाती है। अखबार और टीवी में नाम आ जाता हैं। भले लोग को अपना यह जुमला दोहराने का अवसर निरंतर मिलता है‘आजकल जमाना बहुत खराब है’। यह सुनते हुए बरसों हो गये हैं। यह पता हीं लगता कि जमाना सही था कब? एक भला आदमी दूसरे से संबंध रखने की बजाय दादा टाईप के आदमी से संबंध रखता है कि कब उससे काम पड़ जाये। हर किसी को दादा टाईप लोगों में ही दिलचस्पी रहती है।

कुल मिलाकर परनिंदा पर ही यह भौतिक संसार टिका हुआ है। अनेक लोगों की रोजी रोटी तो केवल इसलिये चलती है कि वह परनिंदा करते हैं तो कुछ कथित महान लोगों को इसलिये मक्खन खाने की अवसर मिलता है क्योंकि वह लोगों का संदेश देते हैं कि परनिंदा मत करो। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि सारा संसार ही परंनिंदा पर टिका है।

सारा संसार परनिंद पर टिका है-व्यंग्य आलेख

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अकेलापन-हिंदी शायरी


जब याद आती है अकेले में किसी की
खत्म हो जाता है एकांत
जिन्हें भूलने की कोशिश करो
उतना ही मन होता क्लांत
धीमे-धीमे चलती शीतल पवन
लहराते हुए पेड़ के पतों से खिलता चमन
पर अकेलेपन की चाहत में
बैठे होते उसका आनंद
जब किसी का चेहरा मन में घुमड़ता
हो जाता अशांत

अकेले में मौसम का मजा लेने के लिये
मन ही मन किलकारियां भरने के लिये
आंखे बंद कर लेता हूं
बहुत कोशिश करता हूं
मन की आंखें बंद करने की
पर खुली रहतीं हैं वह हमेशा
कोई साथ होता तो अकेले होने की चाहत पैदा
अकेले में भी यादें खत्म कर देतीं एकांत
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दीपक भारतदीप

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ख्वाहिश है कि जमाना उनको सलाम करे- हिन्दी शायरी


जिंदगी जीने का उनको बिल्कुल सलीका नहीं है
उनके पास वफा बेचने का कोई एक तरीका नहीं है
भीड़ में मचायें शोर अपनी जिंदगी के तजूर्बे का
पर उससे कभी कुछ खुद सीखा नही है
ख्वाहिश है कि जमाना उनको सलाम करे
आवाजें हैं उनकी बहुत तेज,पर शब्द तीखा नहीं है
बेअसर बोलते हैं पर जमाना फिर भी मानता है
उनको परखने का खांका किसी ने खींचा नहीं है
ईमानदार के ईमान को ही देते हैं चुनौती
खुद कभी उसका इस्तेमाल करना सीखा नही है
फिर भी नाम चमक रहा है इसलिये आकाश में
जमीन पर लोगों ने अपनी अक्ल से चलना सीख नहीं है
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दिल के मचे तूफानों का कौन पता लगा सकता ह-हिन्दी शायरी



मोहब्बत में साथ चलते हुए
सफर हो जाते आसान
नहीं होता पांव में पड़े
छालों के दर्द का भान
पर समय भी होता है बलवान
दिल के मचे तूफानों का
कौन पता लगा सकता है
जो वहां रखी हमदर्द की तस्वीर भी
उड़ा ले जाते हैं
खाली पड़ी जगह पर जवाब नहीं होते
जो सवालों को दिये जायें
वहां रह जाते हैं बस जख्मों के निशान
……………………………
जब तक प्यार नहीं था
उनसे हम अनजान थे
जो किया तो जाना
वह कई दर्द साथ लेकर आये
जो अब हमारी बने पहचान थे
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दीपक भारतदीप

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चमन की बागडोर है जिसके हाथ वही दुश्मन हो जाता-हिंदी शायरी


लुट जाने का खतरा अब
गैरो से नहीं सताता
अपनों को ही यह काम
अच्छी तरह अब करना आता

पहरेदारी अपने घर की किसे सौेपे
यकीन किसी पर नहीं आता
जहां भी देखा है लुटते हुए लोगों को
अपनों का हाथ नजर आता
कई बाग उजड़ गये हैं
माली के हाथों जब
जोअब फूल नहीं लगाता
इंतजार रहता है उसे
कोई आकर लगा जाये पेड़ तो
वह उसे बेच आये बाजार में
इस तरह अपना घर सजाता
नाम के लिये करते हैं मोहब्बत
बेईमानी से उनकी है सोहबत
जमाने के भलाई का लगाते जो लोग नारा
लूट में उनको ही मजा आता
कहें महाकवि दीपक बापू
मन में है उथलपुथल तो
अमन कहां से आयेगा यहां
जिनके हाथ में बागडोर होती चमन की
किसी और से क्या खतरा होगा
वही उसका दुश्मन हो जाता

…………………………….

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भिखारी से साक्षात्कार-लघुकथा (intervew with bagger-hindi laghu kahani)


            वह लेखक मंदिर के अंदर गया और वहां से बाहर लौटा तो गेहूंआ कुर्ता और सफेद धोती पहले और माथे पर लाल तिलक लगाये एक भिखारी ने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया और बोला-‘बाबूजी जरा चाय के लिये दो रुपये दे दो।’
लेखक ने मंदिर के अंदर करते हुए देखा था कि कोई दानी व्यक्ति भिखारियों के बीच खाने का सामान बांट रहा था और उसे लेकर वही भिखारी भी खा रहा था।
          लेखक ने उसे घूर कर देखा तो वह बोला-‘‘आज खाना तो मिला नहीं। अब चाय पीकर ही काम चलाऊंगा।”

         वह हाथ फैलाये उसके सामने खड़ा होकर झूठ बोल रहा था। लेखक ने उससे कहा-“मैं तुम्हें दस रुपये दूंगा, पर इससे पहले तुम्हं साक्षात्कार देना होगा। आओ मेरे साथ!”

         थोड़ी दूर जाकर उस लेखक ने उससे पूछा-“तुम्हारे घर में क्या तुम अकेले हो?”

          भिखारी-“नही! मुझे दो लड़के हैं और दो लडकियां हैं। सबका ब्याह हो गया है?”

           लेखक-“फिर तुम भीख क्यों मांगते हो? क्या तुम्हारे लड़के कमाते नहीं हैं या फिर तुम्हें पालनेको तैयार नहीं है?।”

           भिखारी-“बहुत अच्छा कमाते हैं, पर आजकल बाप को कौन पूछता है? वैसे वह मेरे को घर पर मेरे को सूखी रोटी देते हैं क्योंकि उनको लगता है कि मैं बीमार न हो जाऊँ। मैं चिकनी चुपड़ी और माल खाने वाला आदमी हूं,इसलिए भीख मांगकर मजे ही करता हूँ।”

        लेखक-“इस उमर में वैसे भी कम चिकनाई खाना चाहिए। गरिष्ठ भोजन नहीं करने से अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं। डाक्टर लोग यही कहते हैं।”

         भिखारी-“यह काड़ा तो वह तो सेठों के लिये कहते हैं जो सारा दिन एक जगह बैठे रहते हैं। हम भिखारियों के लिये नहीं जो सारा दिन यहाँ से वहाँ चलते रहते हैं।”

         लेखक-“मंदिर में अंदर जाते हो।”

भिखारी-“मंदिर के अंदर हमें आने भी नहीं देते और न हम जाते। हम तो बाहर भक्तों के दर्शन ही कर लेते हैं। भगवान ने कहा भी है कि मेरे से बड़े तो मेरे भक्त हैं। भक्तों का दान हमारे लिए भगवान का प्रसाद है भले ही लोग इसे भीख कहते हैं।”

    लेखक-“रहते कहां हो?”

       भिखारी-“एक दयालू सज्जन ने हम भिखारियों के लिये एक मकान किराये पर ले रखा है। उसमें वही किराया भरता है।”

        लेखक-“तुम्हारे लड़के तुम्हें अपने घर नहीं रखते या तुम उनके साथ रहना नहीं चाहते?”

यह लघुकथा इस ब्लाग दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका पर मूल रूप से प्रकाशित है। इसके प्रकाशन के लिये अन्य कहीं अनुमति प्रदान नहीं की गयी है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

         भिखारी-“वह तो मिन्नतें करते हैं पर इसलिए नहीं कि मुझसे  कोई उनको प्रेम करते हैं बल्कि इसलिए कि उनको मारे भीख मांगने से इज्ज़त खराब होती दिखती है इसलिए अपने यहाँ रहने के लिए कहते हैं।   वहां कौन उनकी चिकचिक सुनेगा इसलिए भीख मांगना अच्छा लगता है।  मैं तो बचपन से ही आजाद रहने वाला आदमी हूं। पूरी ज़िंदगी भीख के सहारे गुजर दी, अब क्या पवाह करना? वह बच्चा मुझे  क्या खिलायेंगे मैंने ही अपनी भीख से उनको बड़ा किया है।  मैंने खाने के मामले में बाप की परवाह नहीं की। वह भी सूखी खिलाता था पर बाहर मुझे भीख मांगने पर जो खाने का मिलता था वह बहुत अच्छा होता था।”

         लेखक-“बचपन से भीख मांग रहे हो। बच्चों की शादी भी भीख मांगते हुए करवाई होगी?”

        भिखारी-“नहीं! पहले तो मेरा बाप ही मेरे परिवार को पालता रहा। उसने मेरी  बीबी  को किराने  कि दुकान खुलवा दी कुछ दिन उससे काम चला  फिर बच्चे थोड़े बड़े हो गये तो नौकरी कर वही काम चलाते रहे। मैं अपनी बीबी के लिये ही कुछ सामान घर ले जाता हूं। वह बच्चों के पास ही रहती है। आजकल की औलादें ऐसी हैं उसकी बिल्कुल इज्जत नहीं करतीं। मैं सहन नहीं कर सकता।’

       लेखक-तुम्हें भीख मांगते हुए शर्म नहीं आती।’

         भिखारी ने कहा-‘जिसने की शर्म उसकी फूटे कर्म।’

        लेखक उसको घूर कर देख रहा था! अचानक उसने पीछे से आवाज आई-‘बाबूजी, इससे क्या बहस कर रहे हो। भीख मांगना एक आदत है जिसे लग जाये तो फिर नहीं छूटती। कोई मजबूरी में भीख नहीं मांगता। जुबान का चस्का ही भिखारी बना देता है।’

       लेखक ने देखा कि थोड़ी दूर ही एक बुढ़िया  भिखारिन पुरानी चादर बिछाये बैठी थी। उसके पास एक लाठी रखी थी और सामने एक कटोरी । उसके पास रखी पन्नी में कुछ खाने का सामान रखा हुआ था जो शायद दानी भक्त दे गये थे और वह अभी खा नहीं रही थी।

         लेखक ने उस भिखारी को दस रुपये दिये और फिर जाने लगा तो वह भिखारिन बोली-‘बाबूजी! कुछ हमको भी दे जाओ। भगवान के नाम पर हमें भी कुछ दे जाओ।’

          लेखक ने पांच रुपये उसके हाथ में दे दिये और अपने होठों में बुदबुदाने लगा-‘भीख मांगना मजबूरी नहीं आदत होती हैं।

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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ख्यालों का बंधन-हिंदी शायरी


ख्यालों के बंधन में फंसकर
उनके इशारों पर नाचते रहे
जिंदगी मेंं इसलिये हर कदम पर हारते रहे
जो आजाद होकर सोचा
तो सामने हमारे यह बात आई
क्यों हमने उनको अपना सबकुछ माना
जब हमेशा की उन्होंने बेवफाई
दिल की गुलामी से
अच्छा है आजाद ख्याल से जीना
हम क्यों अपना जिस्म
इतने समये से अपने हाथों ही मारते रहे
……………………….

गीत संगीत की महफिल की बजाय महायुद्ध सजाते-हास्य कविता


गीत और संगीत से
दिल मिल जाते हैं पर
अब तो उसकी परख के लिये
प्रतियोगितायें को अब वह
महायुद्ध कहकर जमकर प्रचार कराते
वाद्ययंत्र हथियारों की तरह सजाये जाते
जिन सुरों से खिलना चाहिये मन
उससे हमले कराये जाते
मद्धिम संगीत और गीत से
तन्मय होने की चाहत है जिनके ख्याल में
उन पर शोर के बादल बरसाये जाते

कहें महाकवि दीपक बापू
‘अब गीत और संगीत
में लयताल कहां ढूंढे
बाजार में तो ताल ठोंककर बजाये जाते
महफिलें तो बस नाम है
श्रोता तो वहां भाड़े के सैनिक की
तरह सजाये जाते
जो हर लय पर तालियों का शोर मचाते
देखने वाले भी कान बंद कर
आंखों से देखने की बजाय
उससे लेते हैं सुनने का काम
गायकों को सैनिक की तरह लड़ते देख
फिल्म का आनंद उठाये जाते
किसे समझायें कि
भक्ति हो या संगीत
एकांत में ही देते हैं आनंद
शोर में तो अपने लिये ही
जुटाते हैं तनाव
जिनसे बचने के लिये संगीत का जन्म हुआ
क्या उठाओगे गीत और संगीत का आंनद
जैसे हम उठाते
लगाकर रेडियो पर विविध भारती पर
अपनी अंतर्जाल की पत्रिका पर लिखते जाते
यारों, संगीत सुनने की शय है देखने की नहीं
गीत वह जिसके शब्द दिल को भाते हैं
सुरों के महायुद्ध में जीत हार होते ही
सब कुछ खत्म हो जाता है
पर तन्हाई में लेते जब आनंद तब
वह दिल में बस जाते
बाजार में दिल के मजे नहीं बिकते
अकेले में ही उसके सुर पैदा किये जाते
……………………………

दीपक भारतदीप

चिंतन शिविर-हास्य कविता


अपने संगठन का चिंतन शिविर
उन्होंने किसी मैदान की बजाय
अब एक होटल में लगाया
जहां सभी ने मिलकर
अपना समय अपने संगठन के लिये
धन जुटाने की योजनायें बनाने में बिताया
खत्म होने पर एक समाज को सुधारने का
एक आदर्श बयान आया
तब एक सदस्य ने कहा
-‘कितना आराम है यहां
खुले में बैठकर
खाली पीली सिद्धांतों की बात करनी पड़ती थी
कभी सर्दी तो गर्मी हमला करती थी
यहां केवल मतलब की बात पर विचार हुआ
सिर्फ अपने बारे में चिंतन कर समय बिताया’
……………………………

दीपक भारतदीप

ख्याल तो हैं जलचर की तरह-हिंदी शायरी



मन का समंदर है गहरा
जहां ख्याल तैरते हैं जलचर की तरह
कुछ मछलियां सुंदर लगती हैं
कुछ लगते हैं खौफनाक मगरमच्छ की तरह

देखने का अपना अपना नजरिया है
मोहब्बत हर शय को खूबसूरत बना देती है
नफरत से फूल भी चुभते हैं कांटे की तरह
इस चमन में बहती है कभी ठंडी तो कभी गर्म हवा
मन जैसा चाहे नाचे या चीखे
नहीं उसके दर्द की दवा
न एक जगह ठहरते
न एक जैसा रूप धरते
ख्याल तो हैं बहते जलचर की तरह
…………………………..

दीपक भारतदीप

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कबीर साहित्य के पाठ की पाठक संख्या एक हजार के पार


मेरे इस ब्लाग/पत्रिका पर संत शिरोमणि कबीरदास के दोहों वाला एक पाठ आज एक हजार की पाठक संख्या पार गया। इसको मैं पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं और मूल पाठ को पढ़ने के लिये यहां क्लिक भी कर कर सकते हैं। जिस समय में इस पाठ को लिख रहा हूं तब उस पर पाठक संख्या 1029 है।

मुझे जैसे अस्त पस्त लेखक के लिये यह बहुत महत्वपूर्ण बात है क्योंकि कोई काम व्यवस्थित ढंग से न करने की वजह से मुझे अधिकतर सफलता इतनी आसानी से नहीं मिल जाती। इस पाठ के एक हजार पाठक संख्या पार करने में कोई विशेष बात नहीं है पर इस छोटे पाठ की इस सफलता में जो संदेश मेरे को मिलते हैं उसकी चर्चा करना जरूरी लगता है। इस हिंदी ब्लाग जगत पर तमाम तरह के विश्लेषण करने वाले लोग उसमें रुचि लेंगे इसकी मुझे पूरी जानकारी है और जो संदेश मिल रहे हैं वह कई धारणाओं का बदलाव का संकेत हैं वह समाज शास्त्र के विद्वानों के लिये भी दिलचस्पी का विषय हो सकते हैं कि आखिर अंतर्जाल पर भी आधुनिक युग में लोग कबीर साहित्य के रुचि ले रहे हैं।

सबसे पहली बात तो यह कि दो दोहों और उनका भावार्थ प्रस्तुत करना मेरे लिये इस समय आसान है क्योंकि मैं अब पहले देवनागरी फोंट कृतिदेव में टाइप कर उस पर अपनी कभी छोटी तो कभी बड़ी व्याख्या भी प्रस्तुत करता हूं पर जब यह पाठ लिखा गया था तब मुझे अंग्रेजी टाईप से यूनिकोड में टाईप करना पड़ता था। यह काम मेरे लिये कठिन ही नहीं अस्वाभाविक भी था। सुबह इतना संक्षिप्त पाठ लिखना ही बहुत बड़ी उपलब्धि होता था-आज भले ही मुझे भी लगता है कि इतने छोटे पाठ- जिसमें मेरा टंकक से अधिक योगदान नहीं है- की सफलता पर क्या इतना बड़ा आलेख लिखना।

कुछ पाठक कहते थे कि आप अपनी व्याख्या भी दीजिये क्योंकि उन्होंने कुछ जगह मेरी ऐसी व्याख्यायें देखीं थीं जो मैं एक दिन पहले ही टाईप कर रखता था। संत शिरोमणि कबीरदास के दोहे वैसे अपने आप ही कई गूढ रहस्यों को प्रकट कर देते हैं पर लोग यह भी चाहते हैं कि जो इनको प्रस्तुत कर रहा है वह भी अपनी बात कहे। इस ब्लाग को मैंने पहले अध्यात्मिक विषयों के रखा था पर बाद में ब्लागस्पाट पर अंतर्जाल पत्रिका पर यही विषय लिखने के कारण मैंने इसे अन्य विषयों के लिये सुरक्षित कर दिया। वर्डप्रेस का शब्दलेख पत्रिका इस समय अध्यात्म विषयों के लिये है और उसी पर ही लिख रहा हूं। इसके अलावा ब्लागस्पाट का शब्दलेख सारथी है जो अध्यात्मिक विषयों से संबंधित है। अब सोच रहा हूं कि इस ब्लाग को भी अध्यात्मिक विषयों के लिये रख दूं।

सभी ब्लाग एक जैसे दिखते हैं पर मेरे लिये सभी के परिणाम एक जैसे नहीं हैं। वर्डप्रेस में विविध श्रेणियां पाठ के लिए अधिक पाठक जुटातीं हैं इसलिये अब मैं ब्लागस्पाट के अच्छे पाठ यहां लाने वाला हूं। मुझे ब्लाग स्पाट और वर्डप्रेस के ब्लाग दो अलग अलग स्थान दिखते हैं। हिंदी के सभी ब्लाग एक जगह दिखाने वाले फोरमो पर उनको एक जैसा देखा जाता है पर मेरे लिये स्थिति वैसी नहीं है।
मैंने शुरूआती दिनों में कई लोगों को ब्लाग लिखने के बारे में अनेक भ्रांत धारणायें फैलाते देखा था जिसमें यह बताया गया था कि आप ढाई सौ अक्षर अवश्य लिखें वरना लोग आपके बारे में यह कहेंगे कि यह लिख नहीं रहा बल्कि मेहनत बचा रहा है। इसके प्रत्युत्तर में मैंने हमेशा ही लिखा है कि मुख्य विषय है आपका कथ्य न कि शब्दों की संख्या। हालांकि मैने हमेशा बड़े ही पाठ लिखे हैं पर दूसरों को इस बात के लिये प्रेरित किया है कि वह अपने मन के अनुसार लिखें पर प्रभावी विषय और शब्दों का चयन इस तरह करें कि गागर में सागर भर जाये। संत कबीरदास और रहीम के दोहों पर तो ऐसी कोई शर्त लागू हो भी नहीं सकती।

एक जो महत्वपूर्ण बात कि आज भी संत कबीर और रहीम इतने प्रासंगिक हैं कि उनका लिखा अपने आप पाठक जुटा लेता है-यह बात मुझे बहुत अचंभित कर देती है। हिंदी के भक्ति काल को स्वर्णिम काल कहा जाता है जिसे वर्तमान में अनेक कथित संत आज भी भुना रहे हैं और मैं अनजाने मेंे ही वह कर बैठा जिसके लिये में उन पर आरोप लगाता हूं कि वह ज्ञान का व्यापार कर रहे हैं। हां, इतना अंतर है कि वह लोग अपने भक्तों को कथित ज्ञान देकर दान-दक्षिणा वसूल करते हैं और मैं इंटरनेट के साढ़े छहः सौ रुपये व्यय करने के साथ ही अपना पसीना भी लिखने में बहाता हूं। इसमें कोई संशय नहीं है कि ऐसे प्रयासों से मेरी लोकप्रियता बनी होगी। लोग कह नहीं पाते पर जिस तरह पाठक अध्यात्मिक विषयों को पढ़ रहे हैं वह मुझे अचंम्भित कर देता है। सुबह लिखते समय मेरे मन में कोई भाव नहीं होता। न तो मुझे पाठ के हिट या फ्लाप होने की चिंता होती है और न कमेंट की परवाह। मैंने आध्यात्मिक विषय पर तो पहले ही दिन से लिखना आरंभ किया और हिंदी में दिखाये जाने वाले फोरमों पर तो मेरे ब्लाग बाद में दिखने के लिये आये अगर उन्मुक्त और सागरचंद नाहर मुझे प्रेरित नहीं करते तो ब्लाग लेखक मेरे मित्र नहीं बनते और आज की तारीख में जिस तरह मेरे ब्लाग कुछ वेबसाईट लिंक कर रहीं हैं उस पर झगड़ा और कर बैठता। नारद फोरम पर मैं उन दिनों भी प्रतिदिन जाता था पर मुझे अपना ब्लाग पंजीकृत कराना नहीं आ रहा था। मतलब यह है कि मैंने कई चीजें अपने ब्लाग मित्रों से सीखीं हैं और वह नहीं सीखता तो अल्पज्ञानी रहता और सब जानते हैं कि जिस विषय में कम जानता है वहां उसमें अहंकार आ जाता है। प्रसंगवश इस पोस्ट को इतने पाठक इसलिये भी मिले कि मैंने ब्लाग पर नवीनतम पाठों और पाठकों की पसंद के स्तंभ स्थापित किये और वहां यह पाठ लंबे समय से बना हुआ है और इतने सारे पाठक मिलने के पीछे यह भी एक वजह हो सकती है। इसका श्रेय श्री सागरचंद नाहर जी को जाता है जिनकी एक पाठ से मैंने यह बात सीखी थी। मैं अगर किसी से कुछ सीखता हूं तो उसका दस बार नाम लेता हूं क्योंकि ऐसा न करने वाला कृतघ्न होता है।

इस पाठ पर किसी ब्लाग लेखक की कमेंट नहीं है और किसी पाठक ने कल ही इस पर अपनी टिप्पणी लिखी। 18 जनवरी 2008 को यह पोस्ट उस समय लिखी गयी थी जब हिंदी ब्लाग जगत में मैं हास्य कविताओं की बरसात कर रहा था और उस समय लोगों ने शायद इस पर कम ही ध्यान दिया कि मैं प्रातः अध्यात्मिक विषयों पर लिखने के बाद चला जाता हूं और शाम को होता है वह समय जब मैं अन्य विषयों पर लिखता हूं। इसलिये लोग सुबह के लिखे इस पाठ पर ध्यान नहीं दे पाये और उनको इंतजार करते होंगे उस दिन शाम को मेरी हास्य कविताओं का जो आज किसी भी मतलब की नहीं है। एक बात मैंने अनुभव की है कि अब मैं पिछले कई दिनों से शाम को भी लिखते समय संयम बरतने का विचार करता हूं क्योकि अध्यात्मिक विषय पर लिखने से लोग थोड़ा सम्मान की दृष्टि से देखते हैं और मुझे यह सोचना चाहिये कि इस कारण कोई मेरी गुस्से में कही बात का प्रतिकार न करते हों। वैसे सच यह है कि मैंने अपने महापुरुषों का संदेश लिखते समय कुछ भी विचार नहीं किया और न मेरे को ऐसा लगता था कि इससे मेरे ब्लाग@पत्रिकाओं को लोकप्रियता मिलेगी। अन्य विषयों में हास्य कविता भी मेरे लिये कोई प्रिय विषय नहीं रही पर ताज्जुब है कि उससे भी अनेक पाठकों तक पहुंचने में सहायता की। सुबह लिखते समय मैं अपने को लेखक नहीं बल्कि एक टंकक की तरह देखता हूं पर कहते हैं कि आप आपके परिश्रम का कोई न कोई अच्छा परिणाम निकलता है।
कुल मिलाकर साफ संदेश यही है कि आम पाठकों के लिये रुचिकर लिखकर ही उन्हें अपने ब्लाग पर आने के लिये बाध्य किया जा सकता है। इसके लिये त्वरित हिट और टिप्पणियों का मोह तो त्यागना ही होता है किसी सम्मान आदि से वंचित होने की आशंका भी साथ लेकर चलनी पड़ती है और मुझे अधिक से अधिक आम पाठकों तक पहुंचना है इसलिये ऐसे विषयों पर लिखने का प्रयास करता हूं जो सार्वजनिक महत्व के हों। फोरमों पर अपने चार-पांच हिट देखकर अगर विचलित हो जाता तो शायद इतना नहीं लिख पाता। मेरी स्मृति में यह बात आज तक है कि उस दिन इस पाठ पर सभी तरफ से केवल 19 हिट थे जिसमें वर्डप्रेस के डेशबोडे से ही अधिक थे। विभिन्न फोरमों से संभवतः 8 हिट थे। वहां अधिक हिट न लेने वाला यह पाठ 1000 से अधिक पाठकों तक पहुंच गया क्या यह विश्लेषण करने का विषय नहीं है। कबीर साहित्य पर एक अन्य ब्लाग एक अन्य पाठ भी हजार की संख्या के पास पहुंच रहा है और यह जानकारी चर्चा का विषय हो सकती है।
आज मुझे भी लगता है कि मैंने कोई मेहनत नहीं की है पर उस समय इतनी पोस्ट लिखने में ही मुझे बहुत समय लग जाता था। इसलिये मैं अपने उन सभी ब्लाग लेखक मित्रों का आभारी हूं जिन्होंने हमेशा मुझे नये नयी जानकारियां और टूल देकर आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया है और इस पाठ की सफलता के लिये उनको श्रेय देने में मुझे कोई संकोच भी नहीं है। हां, मुझे अपने को श्रेय लेने में संकोच बना हुआ है।

बिना पूछे रास्ता बताने लगे-कविता


लिखे उन्होंने चंद शब्द
और दूसरों को लिखना सिखाने लगे
मुश्किल है कि बिना समझे लिखा था
पर दूसरों में समझ के दीप जलाने लगे

खरीद ली चंद किताबें और रट लिये कुछ शब्द
अब दूसरों को पढ़ाने लगे
खुद कुछ नहीं समझा था अर्थ
दूसरों का जीवन का मार्ग बताने लगे

जो भटके हैं अपने रास्ते
अपने लक्ष्य का पता नहीं
पर चले जा रहे सीना तानकर
सूरज की रोशनी में मशाल वह जलाने लगे
ज्ञानी रहते हैं खामोश
इसलिये अल्पज्ञानी
शब्दों का मायाजाल बनाने लगे

कहें दीपक बापू
समझदार भटक जाता है
तो पूछते पूछते लक्ष्य तक
पहुंच ही जाता है
पर नासमझ भटके तो
पूछने की बजाय रास्ता बताने लग जाता है
अपनी समझदारी दिखाने के लिये
तमाम नाम लेता है रास्तों का
शायद कोई बिना पूछे रास्ता बताने लगे
नहीं भी बताया तो
अपने जैसा ही रास्ता वह भी भटकने लगे
………………………….

भ्रम का सिंहासन-व्यंग्य कविता


एक सपना लेकर
सभी लोग आते हैं सामने
दूर कहीं दिखाते हैं सोने-चांदी से बना सिंहासन

कहते हैं
‘तुम उस पर बैठ सकते हो
और कर सकते हो दुनियां पर शासन

उठाकर देखता हूं दृष्टि
दिखती है सुनसार सारी सृष्टि
न कहीं सिंहासन दिखता है
न शासन होने के आसार
कहने वाले का कहना ही है व्यापार
वह दिखाते हैं एक सपना
‘तुम हमारी बात मान लो
हमार उद्देश्य पूरा करने का ठान लो
देखो वह जगह जहां हम तुम्हें बिठायेंगे
वह बना है सोने चांदी का सिंहासन’

उनको देता हूं अपने पसीने का दान
उनके दिखाये भ्रमों का नहीं
रहने देता अपने मन में निशान
मतलब निकल जाने के बाद
वह मुझसे नजरें फेरें
मैं पहले ही पीठ दिखा देता हूं
मुझे पता है
अब नहीं दिखाई देगा भ्रम का सिंहासन
जिस पर बैठा हूं वही रहेगा मेरा आसन

कभी किसी का कड़वा सच उसके सामने नहीं कहना चाहिए-आलेख


सच बहुत कड़वा होता है और अगर आप किसी के बारे में कोई विचार अपने मस्तिष्क में  हैं और आपको लगता है कि उसमें कड़वाहट का अश है तो वह उसके समक्ष कभी व्यक्त मत करिये। ऐसा कर आप न  केवल उसे बल्कि उसके चाहने वालों को भी अपना विरोधी बना लेते हैं। हां, मैं इसी नीति पर चलता रहा हूं। केवल एक बार मैंने ऐसी गलती की और उसका आज तक मुझे पछतावा होता है।

कई वर्ष पहले की बात है तब मेरा विवाह हुए अधिक समय नहीं हुआ था। ससुराल पक्ष का एक युवक मेरे घर आया। उसके बारे में तमाम तरह के किस्से मैंने सुने थे। वह अपने परिवार के लिये ही आये दिन संकट खड़े करता था। वह सट्टा आदि में अपने पैसे बर्बाद करता था। उसने अपनी युवावस्था में कदम रखते ही ऐसे काम शुरू किये जो उसके माता पिता  के लिए संकट का कारण बनते थे। एक बार उसने सभी लोगों के बिजली और पानी के बिल भरने का जिम्मा लिया। वह सबसे पैसे ले गया और फिर नकली सील लगाकर उसने सबको बिल थमा दिये और उनका पूरा पैसा उसने ऐसे जुआ और सट्टे के  कामों में बर्बाद कर दिया। उसके जेल जाने की नौबत आ सकती थी पर उसके पिताजी ने सबको पैसा देकर उसे बचा लिया। उसके पिताजी के कुछ लोगों पर उधार हुआ करते और वह उनको वसूल कर लाता और घर पर कुछ नहीं बताता। ऐसे बहुत सारे किस्से मुझे पता थे पर उसका मेरे और मेरी पत्नी के प्रति ठीक था।

घर पर खाने के दौरान मैंने पता नहीं किस संदर्भ में कहा था-‘पिताजी के पैसो पर सब मजे करते हैं। जब अपना पैसा होता है तब पता चलता है कि कैसे कमाया और व्यय किया जाता है। मैंने  भी पिताजी के पैसे पर खूब मजे किये  और अब पता लग रहा है। अभी तुम कर रहे हो और तुम्हें भी अपना कमाने और विवाह करने के बाद पता लग जायेगां’।

मेरी पत्नी ने भी यह बात सुनी थी और यह एक   सामान्य बात  थी। इसमेें कोई नयी चीज नहीं थी। जब वह अपने घर गया तब उसकी प्रतिक्रिया ने मुझे और मेरी पत्नी को हैरान कर दिया। उसकी मां ने मेरी पत्नी की मां से कहा-‘‘मेरा लड़का अपने पिताजी के पैसे पर मजे कर रहा है कोई उसे दे थोड़े ही जाता है।’

लड़के के बाप की भी ऐसी टिप्पणी हम तक पहुंची। हमें बहुत अफसोस हुआ। वह अफसोस  आज तक है क्योंकि हमारे उनसे अब भी रिश्ते हैं उस लड़के के माता पिता दोनों ही उसी की चिंता मेंं स्वर्ग सिधार गये। लड़का आज भी वैसा ही है जैसे पहले था। चालीस की उम्र पार कर चुकने के बाद उसका विवाह हुआ और पत्नी ने विवाह के छह माह बाद ही उसको छोड़ दिया। कहते हैं कि उसके हाथ में जो रकम आती है वह सट्टे में लगा आता है। उसके जेब में कभी दस रुपये भी नहीं होते। हां, उसके बाप ने जो पैसा छोड़ा उस पर बहुत दिनों तक उसका काम चला। उसका बड़ा भाई जैसे तैसे कर अभी तक उसे बचाये हुए है।
मेरा उसका कई बार आमना सामना होता है पर मैं बहुत सतर्क रहता हूं कि कोई ऐसी बात न निकल जाये जो उसे गलत लगे।

उसके माता पिता की याद आती है तब लगता है कि लोग दूसरों की कड़वी सच्चाई देखकर उसे बोलना चाहते हैं पर अपनी सच्चाई से मूंह फेर लेते हैं। मेरी बात उसने घर पर इस तरह बताई ताकि उसे वहां पर लोगों की सहानुभूति मिल सके। वह उसमें सफल रहा पर अब वह इस हालत में है कि कोई उसका अपने घर आना भी पसंद नहीं करता। उसकी गलत आदतें अब भी बनीं हुईं हैं। कहने वाले तो यह भी  कहते हैं कि वह जब वह अपना वेतन ले आता है तो उसे एक दिन में ही उड़ा देता है।

पिताजी के पैसे पर मजे करने के मुझे ं भी ऐसे ताने मिलते थे पर  विचलित नहीं होता था पर चूंकि किसी गलत काम में अपव्यय नहीं करता था इसलिये कोई गुस्सा नहीं आता था। फिर वह विचलित क्यों हुआ? मेरा विचार है कि वह अपने पिता के पैसे जिस तरह पापकर्म पर खर्च कर रहा था वही उस समय उसके हृदय में घाव करने  लगे, जब मैने यह बात उसके सामने कही थी।
लोग अपने बच्चों को किस तरह बिगाड़ देते हैं यह उसे देखकर समझा जा सकता है। घर में  अपने बच्चों द्वारा पैसे के गबन के मामले  को अक्सर लोग ढंक लेते हैं-जो कि स्वाभाविक भी है-पर बाहर अगर कोई ऐसा करता है तो उसे छिपाना कठिन होता है। अगर अन्य लोगों की बात पर यकीन करें तो उनका कहना है कि ‘आपने जब उससे कहा था तब अगर उसके माता पिता उसे समर्थन नहीं देते तो वह शायद सुधर जाता। क्योंकि आपकी बात सुनने के बाद चार पांच दिन तक वह गलत आदतों से दूर रहा पर जब माता पिता से समर्थन मिला तो वह फिर उसी कुमार्ग पर चला पड़ा।’

हमारे अंतर्मन में अपनी छवि एक स्वच्छ व्यक्ति की होती है पर बाहर हमें लोग इसी दृष्टि से देख रहे हैं यह सोचना मूर्खतापूर्ण है। हर आदमी में गुण दोष होते हैं और दूसरे को दिखाई देते हैं। कोई आदमी  सामने ही हमारा दोष प्रकट करता है तो हम उतेजित होते हैं जबकि उस समय हमें आत्ममंथन करना चाहिए। खासतौर से बच्चों के मामले में लोग संवेदनशील होते हैं। अगर कोई कहता है कि आपका लड़का या लड़की कुमार्ग पर जा रहे हैं तो उतेजित हो जाते हैं और अपने अपने लड़के और लड़की के झूठे स्पष्टीकरण पर संतुष्ट होकर कहने वाले की निंदा करते हैं। एक बार उन्हें अपने बच्चे की गतिविधि पर निरीक्षण करना चाहिए। जिस व्यक्ति ने कहा है उसका आपके बच्चे से कोई लाभ नहीं है पर आपका पूरा जीवन उससे जुड़ा है। हां, संभव है कुछ लोग आपके बच्चे की निंदा कर आपको मानसिक रूप से आहत करना चाहते हों और उसमें झूठ भी हो सकता है पर इसके बावजूद आपको सतर्क होना चाहिए। 

तंबाकू, एकता और योगसाधना-आलेख


 

पिछले वर्ष जुलाई में वृंदावन से हम दोनों पति-पत्नी अपने शहर  के लिये चले। हमने मथुरा के मार्ग पर पड़ने वाले मंदिरों को देखने का फैसला किया। हम जब बिड़ला मंदिर पहुंचे तो उस समय उमस बहुत थी। हम दोनों अंदर गये और कुछ देर ध्यान लगाने के बाद बाहर निकले। मैंने वहां पानी पिया और फिर अपनी जेब से तंबाकू की डिब्बी निकाली और हाथ में घिसकर उसे मूंह में रख लिया। वहां भीषण उमस से भरी दोपहर में हमने अब अन्य मंदिर देखने की बजाय मथुरा रेल्वे स्टेशन का रुख किया।

पता चला कि गाड़ी आने में आधा घंटा देर है तब हमने वहां अपने साथ लाये खाने के सामान से कुछ नमकीन निकाला और खा लिया। फिर पानी लेकर पिया और हाथ पौंछने के लिए रुमाल निकाला तो तंबाकू की डिब्बी भी मेरे हाथ में आ गयी। मैं उसे रखना चाहता था कि एक तिलक धारी सज्जन आये और बोले-‘जरा तंबाकू की डिब्बी दीजिए। मैंने आपके पास बिड़ला मंदिर में देखी थी पर उस समय खाने का विचार नहीं था। मैं अपनी डिब्बी घर भूल कर आया और यहां कोई दुकान नहीं मिली।’

मैंने उसके हाथ में डिब्बी दी। उसने कहा-‘चूना तो सूखा हुआ हैं। मैं पानी डाल दूं।’

मेरी स्वीकृति के बाद वह पास ही नल पर गया और उसमंे पानी डालकर तंबाकू बनाने लगा। उसी समय वहां से एक कुली गुजर रहा था और बोला-‘साहब, थोड़ी मेरे लिये भी बना लीजिए।’
उन सज्जन ने हंसते हुए कुछ तंबाकू और चूना और निकाला और घिसना शूरू किया। तंबाकू बनते ही जैसे उसने उस कुली को देने के लिए हाथ बढ़ाया तो कोई अन्य एक सज्जन जो खाकी कपड़े पहने हुए थे आये और बिना कुछ कहे ही उनके हाथ से थोड़ी तंबाकू लेकर चलते बने।
सबने अपना अपना हिस्सा ले लिया और डिब्बी मेरी जेब में पहुंच गयी। तंबाकू खाने वालों के लिए ऐसी घटनाएं कोई मायने नहीं रखतीं। यह घटना भी ऐसी ही थी अगर मेरी पत्नी इस सब पर गौर नहीं कर रही होती। इतने में हमारी गाड़ी आ गयी। हमारे से पहले चूंकि तीन गाडि़यां जा चुकीं थीं इसलिये हमें सामान्य डिब्बे में  बैठने के लिये जगह मिल गयी।
आगरा तक हम आराम से आये और वहां भी गाड़ी से लोग उतरने लगे। खिड़की से एक युवती ने हमसे पूछा-‘यहां क्या कोई बैठा है। अगर नहीं! तो प्लीज हमारे लिए जगह घेर लीजिए।’
मेरी पत्नी ने कहा-‘‘घेरने की कोई जरूरत नहीं है आप इन सबको निकल जाने दीजिए और आराम से अंदर आयें। यह जगह खाली पड़ी रहेगी। अभी इस समय कोई इसमें अंदर आता नहीं दिख रहा।’

वह युवती अंदर आयी तो उसके साथ उसकी माता पिता और भाई भी थे। चारों को आराम से जगह मिल गयी। वह मुस्लिम परिवार था। हम दोनो खिड़की के आमने सामने बैठे थे। मेरी पत्नी मेरे पास में आकर बैठ गयी लड़की सामने की जगह ली।
उसके थोड़ा समय बाद ही हमने चाय लेकर पीना भी शुरू कर दी। उसके बाद मैंने अपने जेब से तंबाकू निकाली और उसे हाथ में घिसने लगा। उस लड़की की पिता ने कहा-‘‘थोड़ा तंबाकू आप देंगे। मेरे दांत में दर्द है।’

लड़की ने कहा-‘‘पापा, आपको तंबाकू खाना है तो  फिर दंात के दर्द का बहाना क्यों कर रहे हैं? कहीं तंबाकू देखी नहीं कि खाने का मन करने लगता है।’

फिर वह हमारी पत्नी की तरफ देखकर हंसते हुए बोली-‘सब आदतें छूट जायें पर तंबाकू की आदत नहीं जाती।’ 
हमारी पत्नी ने उससे कहा-‘‘हां, हमारे यह योगसाधना शुरू करने के बाद शराब तो छोड़ चुके हैं पर इससे इनका भी पीछा नहीं छूटता।’
लड़की ने एकदम पूछा-‘‘रोज करते हैं? वही बाबा रामदेव वाली न!
हमारी पत्नी ने कहा-‘‘हां पिछले पांच वर्ष से कर रहे हैं, और यह इन्होंने तब शुरू की जब बाबा रामदेव का नाम इतना प्रसिद्ध नहीं था।
मैने बीच में हस्तक्षेप किया-‘‘मैंने भारतीय योग ंसंस्थान के शिविर में योग साधना सीखी थी। हां, अब यह सच है कि भारतीय योग के प्रचार में उनका बहुत योगदान है।’
फिर तो वह कहने लगी-‘हां, हमारे यहां एक औरत को कैंसर हो गया था वह टीवी पर देखकर योग साधना करने लगी और वह ठीक हो गयी। एक आदमी  की तो दोनों किडनी खराब थी वह भी ठीक हो गयीं। कई लोगोंं को इससे लाभ हुआ है।’
उसका भाई बताने लगा-‘उससे कई लोगों का फायदा हुआ है।’
मैंने कहा-‘‘खुश रहने के लिए इसके अलावा कोई और उपाय है इस पर मैं यकीन नहीं करता।’

उसकी मां ने कहा-‘‘है तो बहुत काम की चीज, पर लोग करते नहीं है। आलस्य होता है।’
उसके पिताजी ने कहा-‘हां, हमारे यहां कई लोगों की फायदे की बात सुनी है।
लड़की कहने लगी-‘आप कौनसे आसन करते हैं?
मैने उसे थोड़ा इस बारे में बताया। हमारा गंतव्य स्थान आ गया तो फिर हमने उनसे विदा ली।
बाहर निकलकर मेरी पत्नी ने कहा-‘‘हमसे कहा कि एक बात जो मैने वहां नहीं कही कि तंबाकू खाने वाले व्यसनी कोई जातपात या धर्म नहीं देखते। उनके लिए तो तंबाकू  खाने वाले आत्मीय बंधु हो जाते हैं और कभी अधिकार से तो कभी आग्रह से तंबाकू मांग कर खाते है।’
मैने कहा-‘‘हां, पर यह कई बार मैं भी करता हूं। एक विषय और है आजकल जो लोगों में  बंधुत्व की भावना जाग्रत कर रहा है। वह है योग साधना और ध्यान। हां तंबाकू से तो केवल क्षणिक रूप से बंधुत्व का भाव होता है पर देखो मैंने जिनके साथ योग साधना प्रारंभ की उनसे आजतक मेरी मित्रता है। फिर अभी गाडी में  उनसे तंबाकू पर कितनी क्षणिक बातचीत  हुई पर योग साधना पर कितनी देर तक चर्चा हुई।’
 
हमारे देश में एकता और और प्रेम के नारे बहुत लगते है। इनसे कोई मतलब नहीं निकलता। सच तो यह है कि स्वार्थ की वजह से एकता स्वयं ही बन जाती है। अगर आप यह चाहते है कि कोई आपसे एकता करे तो उसके स्वार्थ अपने में फंसाये रहो। आप अगर किसी समूह के नेता है तो केवल एकता करने या उनको अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रेरित कर उसे संगठित नहीं रख सकते। उनके आपस में इस तरह स्वार्थ जोडि़ये। मैं अपने साथ स्वार्थ की वजह से जुड़ने वाले व्यक्तियों पर भी कोई आक्षेप नहीं करता क्योंकि मुझे मालुम है कि समाज में एक दूसरे के स्वार्थ सिद्धि  के लिये कार्य नहीं करेंगे तो फिर उसका औचित्य क्या रह जायेगा? आप चाहते हैं कि आपके बच्चे आपस में जुड़े रहे तो उनके अपने स्वार्थ इस जुड़वा कर रखें ताकि उनका प्रेम बना रहे। हम सब अपने स्वार्थ पूर्ति करने वालों के साथ ही एकता स्थापित करते हैं तब दूसरों से निस्वार्थ एकता की बात करना व्यर्थ है। सभी धर्मों, जातियों, विचारों और वर्गों के लोग आपस में अपने स्वार्थों से मिलते और बिछुड़ते है। जिनको आपस में स्वार्थ नहीं है उसे किसी से मिलने की जरूरत क्या है? हम उस परिवार के साथ अच्छे विषयों पर चर्चा में इतना व्यस्त रहे कि दोनों ने एक दूसरे का परिचय तक नहीं पूछा जबकि  डेढ़ घंटे तक सहयात्री के रूप में एकता और सौहार्द बनाये  रहे।

जरूरत है उन विषयों को प्रोत्साहन देने की जिनसे लोगों में एकता कायम हो सकती है। यहां मैंने तंबाकू का विषय इसलिये उठाया कि लिखते लिखते अब मैं ज्ञानी होता जा रहा हूं-ऐसा आज मेरे एक मित्र ने कहा। मैं सोचता हूं हो सकता है कि लिखने से मेरी यह आदत छूट जाये। तंबाकू खाना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है यह तो सभी जानते है। सोच रहा हूं हो सकता है लिखने से वह छूट जाये।    

इंसान तो कठपुतली है-हास्य कविता


आदमी के पंख नहीं होते
जो वह आसमान में उड़ सके
पर उसका मन बिना पंख के ही
उड़ता चला जाता है
उसके पांव आदमी की काबू में होते नहीं
पंरिदे बनाते हैं लोगों के घर में भी घरोंदे
पर उनके बिस्तर पर सोते नहीं
खुशी में झूमकर नाचता इंसान
दुःख  में अपने ही आंखो से बहती
अश्रुधारा में करता स्नान
पर परिंदे कभी रोते नहीं
अपने मन के इशारे पर
कठपुतली की तरह नाचता
कितने भी दावे करे कि
खुद ही चल रहा है इस जीवन पथ पर
अपनी अक्ल पर है उसका काबू
कराती है इंसान की  जुबान दावे आजाद होने के
पर कभी वह सच्चे होते नहीं
अपनी जरूरतों से आगे नहीं उड़ते
इसलिये परिंदे कठपुतली नहीं होते
यह सच है
अपनी ख्वाहिशों के हमेशा गुलाम
रहने वाले  इंसानों के लिये
साबित करना बहुत मुश्किल है कि
वह कठपुतली होते नहीं
……………………………………………………..

कठपुतली ने चिडि़या से कहा
‘देखो, मैं नाच  और गा सकती हूं
पर तुम ऐसा नहीं कर सकती
मुझे तुम पर तरस आता है’

चिडि़या ने उसकी डोर पकड़ने वाल  नट की
गर्दन पर चांेच मारी तो वह चिल्लाया
छूट गयी उसके हाथ से  डोर
उसने कठपुतली को इस तरह नीचे गिराया
चिडि़या ने लौटकर चिड़े से कहा
‘आदमी कठपुतली को आगे कर बोलता
अपने मन के इशारे पर डोलता 
बोलने से पहले कभी शब्द नहीं तोलता 
दावे करता है आकाश में उड़ने का
कभी ऐसा नहीं करता तब  मचा रहा है शोर
उड़ता तो क्या हाल करता
सर्वशक्तिमान ने इसलिये इसको पंख नहीं लगाया
उड़ने के ख्वाब देखता रहे इसलिये
इंसान को मन की कठपुतली बनाया
……………………………………………………..

दीपक भारतदीप

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गरीबों का खाना सहता कौन है? हास्य व्यंग्य


अमेरिका के राष्ट्रपति जार्जबुश ने कहा है कि विश्व में खाद्यान्न संकट के लिये भारत के लोग ही जिम्मेदार हैं क्योंकि वह ज्यादा खाते हैं। उनके इस बयान पर यहां बवाल बचेगा यह तय बात है और यह भी  कि अमेरिका में रहने वाले भारतीय भी अब वहां संदेह की दृष्टि से देखें जायेंगे। अगर कहीं अकाल यह बाढ़ की वजह से  अमेरिका में कभी खाद्याान्न का संकट आया तो उसके लिये भारतीयों पर ही निशाना साधा जायेगा। वैसे तो वहां पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोग भी हैं पर अब वह बच जायेंगे और कभी ऐसा अवसर आया तो वह भी भारतीयों पर चढ़ दौड़ेंगे कि यही लोग सब जगह ज्यादा खाकर संकट खड़ा करते हैं।

ऐसा लगता है कि लोकतंत्र बहाल होने के बाद अमेरिका अब पाकिस्तान पर मेहरबान हो रहा है और उसे किसी तरह अपने कैंप में रखना चाहता है इसलिये उसे अब विश्व का संकट वहां पनप रहा आतंकवाद नहीं बल्कि भारतीयों द्वारा अधिक खाने के कारण खाद्यान्न संकट  दिख रहा है। ऐसा भी हो सकता है कि भारत और पाकिस्तान के लोगों का  करीब आना अमेरिका को सहन नहीं हो रहा है और परोक्ष रूप से पाकिस्तान के लोगों को यह संदेश दिया जा रहा हो कि इन भारत के लोगों से बचने का प्रयास करें क्योंकि अधिक खाते हैं और तुम्हारा अनाज भी खा जायेंगे।

अमेरिका की स्थिति अब डांवाडोल होती जा रही है क्योंकि इराक और अफगानिस्तान उसका बहुत बड़ा सिरदर्द साबित होने वाले हैं। अमेरिका भारत से जैसी  अपेक्षा कर रहा है वह पूरी नहीं हो रहीं हैं क्योंकि यहां की आंतरिक स्थिति भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। जार्जबुश का यह बयान किसी ऐसे ही तनाव  का  परिणाम प्रतीत  होती  है क्योंकि उनको अपने राष्ट्रपति  चुनाव से पहले यह भी पता नहीं था कि भारत है किस दिशा में। उनकी विदेशमंत्री कोंडला राइस भारत आती रहतीं है और फिर चली जातीं हैं। भारत की विविधताओं और विशेषताओं का उनको पता हो इस पर संदेह है। उनके बयान के बाद ही उसके समर्थन में जार्जबुश का यह कथन सामने आया है।

जार्जबुश के इस कथन में हमें इसमे कोई दोष नहीं देखना चाहिए क्योंकि वह एक अमीर राष्ट्र के प्रधान हैं। अमीरों की यह मनोवृत्ति होती है कि उनको गरीब का खाना, पीना और चैन से सोना  पसंद नहीं है-क्योंकि उनके नसीब से  यह चीजें चलीं जातीं हैं जब धन उनके पास आता है। मेरी नहीं तो कविवर रहीम के बात तो आप मानेंगे ही जो कह गये हैं कि अमीरों की पाचन शक्ति कम होती है। अब यह तो सब जानते हैं कि इस देह का सारा खेल भोजन की पाचन शक्ति पर निर्भर करता है। अगर वह नहीं है तो नींद अच्छी नहीं आयेगी और उसकी वजह से तनाव रहेगा।  अमेरिका के लोग भारतीय अध्यात्म इतने फिदा क्यों हैं? भारत के योग का प्रचार वहां क्यों बढ़ा है? क्योंकि अमेरिका में सुख-सुविधाओं के चलते शारीरिक परिश्रम का प्रचलन कम होता जा रहा है। हालत यह है के ढोंगी और पाखंडी बाबा भी वहां अपने चेले बनाकर अपना काम चला रहे हैंं।  मतलब यह कि भारतीयों के खाने पर यह की गयी टिप्पणी उनके ऐसे ही किसी तनाव का परिणाम लगती है जो इस समय उनके दिमाग में है।
इस देश में कई बार ऐसे भी दृश्य देखने को मिल जाते हैं कि सड़क पर लोग अपने ट्रकों और ट्रालियो के नीचे गर्मियों की दोपहर में मजदूर लोग खाना खाकर ऐसी नींद लेते हैं कि अमीरों को एसी में भी वह नसीब नहीं होती।

अमीरों को इस बात से सुख नहीं मिलता कि उनके पास संपत्ति, वैभव और प्रतिष्ठा है उनको यह दुःख सताता है कि उनके सामने रहने वाले गरीब उसके बिना कैसे जिंदा है? वह इतने आराम की नींद कैसे लेते है जबकि उनको इसके लिये गोलियां लेनी पड़ती है। हम जार्ज बुश का क्या कहें अपने देश के अमीर लोग भी क्या इससे अलग सोचते हैं और अब तो ऐसे राष्ट्राध्यक्ष का बयान आया है जिसको यहां का धनवान वर्ग बहुत मानता है और अब यहां गरीबों के खाने पर आक्षेप होंगे। अब यह भला कौन समझाए कि मेहनत करने से भूख अच्छी लगती है तो खाना भी आदमी खाएगा और खाएगा तो मेहनत भी करेगा। अच्छी भूख लगना और ईमानदारी से आय अर्जित करना  प्रत्येक व्यक्ति के भाग्य में नहीं होता। 

अमेरिका द्वारा सुझाये गये आर्थिक मार्ग पर यह देश चलता जा रहा है पर अभी भी किसानों की मेहनत पर ही इस देश की अर्थव्यवस्था जिंदा है। उद्योग की चमक जो शहरों में दिख रही है वह केवल कृत्रिम है यह सत्य तो कोई भी देख सकता है। अमीरों के पास राज है तो रोग भी हैं और उसके इलाज के लिये धन भी है पर गरीब के पास सिवाय अपनी देह के और क्या होता है और वह अगर उसे भी न बचाने तो जाये कहां। जिस औद्योगिक और तकनीकी विकास की बात कर रहे हैं उसमें गैर तकनीकी श्रमिकों और कर्मचारियों के लिये कोई जगह दिखती भी नहीं है और ऐसे संघर्ष में जो आदमी अगर रोटी कमा कर अपना चला रहा है उसके पास इतना समय भी नहीं होता कि अपने मन का दर्द किसी को सुना सके-वह तो उसके पसीने की बूंदों के साथ बाहर निकल जाता है। ऐसे में कई अमीर भी आक्षेप करते हैं कि गरीब अधिक खाते हैं इसलिये गरीब हैं ऐसे में अगर बुश साहब ने भी यह कह दिया तो उस पर अधिक परेशान होने की जरूरत नहीं है।

एक ढूंढो हजार मूर्ख मिलते हैं-आलेख


कल बिहार में एक स्थान पर एक महिला को जादूटोना करने के आरोप जिस बहशी ढंग से अपमानित किया गया हैं वह देश के लिये शर्म की बात है। यह कोई पहली घटना नहीं है जो ऐसा हुआ है और न शायद यह आखिरी अवसर है। पहले भी ऐसी घटनाएं हो चुकी है। यह कोई अभी नहीं हो रहीं है बल्कि सदियो से हो रहीं हैं यह अलग बात है कि अब सूचना माध्यम के शक्तिशाली होने की वह राष्ट्रीय पटल पर आ जातीं है। ऐसी घटनाओं को देख कर अपने इस समाज के बारे में क्या कहें?

एक तरफ प्रचार माध्यम यह बताते हुए थकते नहीं हैं कि भारतीय संस्कृति को विदेशी लोग अपना रहे है- कहीं कोई विदेशी जोडा+ भारतीय पद्धति से विवाह कर रहा है तो कहीं कोई विदेशी दुल्हन देशी दूल्हे से विवाह कर देशी संस्कृति अपना रही है तो कहीं विदेशी दूल्हा देशी दुल्हन के साथ सात फेरे लेकर भारत की संस्कृति आत्मसात रहा है। एसी खबरें पढ़कर लोग खुश होते है कि हमारी संस्कृति महान है।

ऐसे प्रसंग केवल विवाह तक ही सीमित रहते है और हम मान लेते हैं कि हमारी संस्कृति और संस्कार महान है। मगर क्या हमारी संस्कृति विवाह तक ही सीमित है या हमारी सोच ही संकीर्ण हो गयी है। हिंदी फिल्मो में एक प्रेम कहानी जरूर होती है जो तमाम तरह के घुमाव फिराव के बाद विवाह पर समाप्त हो जाती है। फिल्म के लेखक विवाह के आगे इसलिये नहीं सोच पाते कि वह भारतीय समाज से जुड़े है या इन फिल्मों को देखते-देखते हमारे समाज की सोच विवाह के संस्कार तक ही सिमट गयी है यह अलग विचार का विषय है। हां, समाज पर फिल्म का प्रभाव देखकर तो यही लगता है कि अब लोग इससे आगे सोच नहीं पाते।

मैंने जब यह दृश्य देखा तो बहुत क्रोध आ गया। वजह! मेरा मानना है कि महिला चाहे कितनी भी बुरी हो वह क्रूर नहीं होती। उसे गांव का एक बुड्ढा आदमी मार रहा था और अन्य औरतें भी उसे मार रहीं थीं। उसके बाल काटे गये। इस बेरहमी पर उसे बचाने वाला कोई नहीं था। मुझे तो उन गंवारों पर बहुत गुस्सा आ रहा था मेरा तो यह कहना है कि उनमें जो महिलाएं थी उन सबसे खिलाफ भी कड़ी कार्यवाही होना चाहिए।

ऐसी घटनाऐं देखकर मन में अमर्ष भर जाता है। हम जिस कथित संस्कृति की बात करते हैं उसका स्वरूप क्या है? आज तक कोई स्पष्ट नहीं कर सका। यहां मैं बता दूं कि अध्यात्म अलग मामला है और उसका जबरदस्ती संस्कारों और संस्कृति से जोड्ने की जरूरत नहीं है क्यांकि कोई भी विवाह श्रीगीता का पाठ पढ़कर संपन्न नहीं कराया जाता जो कि हमारे अध्यात्म का मुख्य आधार है। उसे कई लोग अपनी जिन्दगी में नहीं पढ़ते और अपनी औलादों को भी नहीं पढ़ने देते कि कहीं उसे पढ़कर वह विरक्त न हो जायें और बुढ़ापे में हमारी सेवा न करें। अंधविश्वास और रूढियों के कारण इस देश का समाज पूरे विश्व में बदनाम है और हम जबरन कहते हैं कि बदनाम किया जा रहा है। गाव में अनपढ़ तो क्या शहर के पढ़े लोग भी अपनी समस्याओं के लिये जादूटोना करने वाले ओझाओं और पीरों के पास जाते है।
खानपान और रहन-सहन में कमी की वजह से बच्चा बीमार हो गया तो कहते हैं कि किसी की नजर लग गयी। मां.-बाप की लापरवाही की वजह से बच्चा बहुंत समय ठीक नहीं हो रहा है तो लगाते है आरोप लगाते कि किसी ने जादूटोना किया होगा।

कमअक्ली के कारण किसी भी काम में सफल नहीं हो रहे तो दूसरों को दोष देते हैं। गांव और शहर एक बहुंत बड़ा तबका अपने आलस्य और व्यसनों की आदतों की वजह से हमेशा संकट में रहता है। आदमी दारू पीते हैं अपने घर में खर्चा नहीं देते पर घर की महिलांए किसी को अपनी पीड़ा नहीं बतातीं और फिर अपना मन हल्का करने के लिए शुरू होता है जादूटोना वाले ओझाओं के पास जाने को दौर।
वह बताते हैं कि उपरी चक्कर है किसी ने जादूटोना किया है। कभी ‘अ’ से नाम बतायेंगे तो कभी ‘ब’ से। ऐसे में कोई निरीह औरत अगर उनके गांव में हो तो उसकी आफत। गांव में एक.दूसरे के प्रति अंदर ही अंदर दुश्मनी रखने वाले लोग मौके का फायदा उठाते हैं और अगर उस औरत को कोई नहीं है और गांव के बूढ़े जो बाहर से भक्त बनते है और अंदर के राक्षस हैं अपना मौका देखते है। ऐसे में कहना पड़ता हैं कि ‘रावण मरा कहां है’। एक निरीह औरत को मारती हुई औरतें क्या भली कहीं जा सकतीं है। आखिर ऐसी समस्या किसी पुरुष के साथ क्यों नहीं आती?

एक प्रश्न अक्सर समझदार और जागरुक लोग उठाते है कि ं हमारे देश में आजकल अनेक साधु संत हैं जिनका प्रचार पूरे देश में है पर इनमें से कोई भी इन चमत्कारों के खिलाफ नहीं बोलता बल्कि ईश्वरीय चमत्कारों की कथा सुनाकर वाहवाही लूटते है। भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम का नाम तो केवल लोग दिखावे के लिये लेते हैं। यह सही हैं कि यज्ञ, हवन, मंत्रजाप और मूर्ति पूजा से मानसिक लाभ होता है क्योंकि इससे आदमी के मन में विश्वास पैदा होता है और वह सात्विक कर्म करने के लिये प्रेरित होता है। इसका लाभ भी उसी का होता है जो स्वयं करता है। अगर एसा न होता तो ऋषि विश्वामित्र भगवान श्रीराम को अपने यज्ञ और हवन की रक्षा के लिये नहीं ले जाते और श्रीराम जी बाणों से राक्षसों का वध नहीं करते बल्कि खुद भी मंत्रजाप और यज्ञ-हवन करते। हमारें मनीषियों ने हमेशा ही जादूटोनों और चमत्कारों का विरोध करते हुए सत्कर्म को प्रधानता दी है। जबकि हमारें देश का एक बहंुत बड़ा वर्ग जो उनको मानने और उनके बताये रास्ते पर चलने के जोरशोर से चलने को दावा तो करता है पर वह ढोंगी अधिक है। आत्ममंथन तो कोई करना नहीं चाहता। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय अध्यात्म हमारे देश की अनमोल निधि है पर अपने देश में जिस तरह जादूटोना ओर चमत्कारों का प्रचार होते देखते है तो यह कहने में भी संकोच नही होता कि दुनियां के सबसे अधिक बेवकूफ हमारे देश में ही बसते है एक ढूंढो हजार मिलते है।

देशी कुत्तों की तस्करी की खबर सुनकर आयी मुझे अपने कुत्ते की याद-आलेख


देशी कुतों की तस्करी भी हो सकती है कि यह कभी हमें सोचा भी नहीं था। आज टीवी में यह खबर सुनकर हम हैरान हो गए, पर खबर तो खबर है। बाकायदा नागालेंड भेजने के लिए उनको तैयार किया गया था। वहां उसके मांस से खाद्य सामग्री बनायी जाती है जिसे बडे शौक से खाया जाता है।

हमने सबके मांस खाने की खबर पढी है पर देशी कुत्तों का भी मांस खाया जाता है यह हमने पहली बार सुना है। कुत्ता बहुत वफादार जानवर है और जिसका खाता है उसकी बजाता है। आवारा कुत्ता भी हम जिसे कहते हैं वह किसी गली या मोहल्ले का पालतू होता है जो वहां के निवासियों द्वारा फैंकी गयी खाद्य सामग्री खाकर काम चलाता है।

हमारे आध्यात्म/दर्शन के अनुसार गृहस्वामिनी को घर के भोजन पकाते समय पहली रोटी गाय के लिए और आखिरी रोटी कुते के लिए पकाना चाहिऐ। बृहद होते समाज में तमाम तरह के परिवर्तन आते गए और कुछ लोगों को याद रहा और कुछ को नहीं। गाय को तो पालतू बताया गया है कुत्ते को पालने का जिक्र नहीं किया गया पर उसका मनुष्य के साथ सह-अस्तित्त्व स्वीकार किया गया। उसकी जगह घर के बाहर मानी गयी और एक तरह से उसे सामूहिक रूप से पालतू पशु का दर्जा दिया गया है। गावों में कभी बच्चों के पत्थर खाते और कभी रोटी खाते यह देशी कुत्ते और कुछ करें या नहीं पर रात को उनकी आसपास उपस्थिति एक आत्मविश्वास जरूर देती है।

भारत में घर में निजी रूप से कुत्ते पालने का काम मुझे लगता है कि अंग्रेजों के समय में ही शुरू हुआ होगा। फिर शहरी सभ्यता में चूंकि पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव रहा है इसलिए बडे लोगों के साथ अब मध्यम वर्ग के लोग भी कुत्ते को पालने लगे हैं। हाँ इसमें भी लोगों ने देशी कुत्तो के नस्लों से अपने परहेज दिखाई है। खिलोना टाईप के पामोलियन के कुत्ते अधिक पाले जाते हैं। जब हम अपना मकान बना रहे थे तो हम जहाँ किराए पर रहते थे उसके मालिक देशी कुत्ते का बच्चा ले आये। उनकी माँ, पत्नी और बच्चों ने इसका विरोध किया। उस समय हम अपना मकान बनाने के लिए शुरू करने वाले थे तो उन्होने हमसे कहा-”यह कुत्ता आप रख लो। नये मकान में काम आएगा।”
मकान मालिक की बात का हमने प्रतिवाद किया पर हमारी श्रीमतीजी ने उसे स्वीकार कर लिया। हमें डेढ़ वर्ष मकान बनाने में लगा और फिर उसे अपने साथ ले आये। दस वर्ष तक हमारे साथ वह रहा और पिछले वर्ष उसका निधन हो गया। बिलकुल बच्चों की तरह रहा और उसकी मौत पर हमें बहुत दुख हुआ और खुशी भी क्योंकि उसका अंत हमसे देखा नहीं जा रहा था। बहरहाल देशी कुत्तों को कई लोग विदेशी कुत्तों के मुकाबले श्रेष्ठ मानते हैं और अपने स्वर्गीय कुत्ते के प्रति मेरे मन में इतना सम्मान है कि मैं उनकी नस्ल पर कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं करता।
पहले देशी कुत्तों को भोजन-पानी वगैरह बहुत आसानी से मिल जाता था पर बदलते परिवेश ने उनको भी प्रभावित किया है अब वह एक गली-मोहल्ले से दूसरे में अपना भोजन पानी उनको ढूढने जाना पड़ता है। हमारे देश में देशी आवारा कुत्तों की बहुत बड़ी संख्या में है और इस तरह उनके मांस की तस्करी की संख्या बड़ी तो हो सकता है कि एक दिन इसकी नस्ल बचाने के लिए सोचने लगें। हमेशा साथ रहने वाले इन देशी कुत्तों को वही आदमी देखते हैं जो सभी जीवों के प्रति एक जैसा दृष्टिकोण एक जैसा है। मैं अपने कुत्ते की याद करता हूँ तो लगता है कि शुरूआती दिनों में मेरा ध्यान उस पर नहीं जाता था पर वह मुझे हर पल देखता था। शाम को जब मैं घर लौटता था तो वह भले ही पामोलियन की तरह लहराता हुआ नहीं आता था पर उसकी आखों के भाव बताते थे कि वह कुछ सोच रहा है। आदमी अपने देहाभिमान में किसी तरफ नहीं देखता पर अन्य जीव उसे देखते हैं, इसकी अनुभूति अपने उसी पालतू कुत्ते से हुई। इंसान को इस धरती पर केवल अपना अस्तित्व ध्यान में रखता है जबकि अन्य जीव अपनी जीविका के लिए उस पर निर्भर हैं और उसकी जीविका का आधार भी हैं। इस मामले में भारतीय दर्शन में सबसे अग्रणी है कि उसमें जीव और जीवात्मा की प्रधानता है न कि केवल मनुष्य देह की।

नंबर वन और टू का खेल-हास्य व्यंग्य


मुझे कल ही लग रहा था कि कोई चालाकी है और इन्तजार कर रहा था कि आज उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है। कल चाकलेटी चेहरे वाले हीरो ने कहा-” मैं नंबर वन हूँ वह जो क्रिकेट के व्यापार में लगा है वह दो नम्बर है।”

लोग भले ही कड़ी प्रतिक्रिया उम्मीद लगा रहे थे पर मुझे लग रहा था कि कोई एकदम ठंडा और पहले से तय बयान आएगा और यह काल्पनिक सीटें नंबर वन और टू आपस में बंट जायेंगी।आज यही हुआ। क्रिकेट के काम में लगे हीरो ने कह दिया है-”हाँ, वह खूबसूरत हीरो नंबर वन है और उसके बाद मेरा नंबर आता है।”

जो नम्रता अपनाता है वह एक पायदान ऊपर चढ़ जाता है और इस तरह दोनों ने नंबर वन हथिया लिया और दो नंबर पर भी किसी को भी नहीं रहने दिया। अब तो कोई चुनौती भी नहीं दे सकता। फिल्म देखकर अपनी आँखें और दिमाग खराब कर रहे आम लोगों के पास कहाँ इतनी शक्ति बचती है कि इस नंबर वन के चक्कर को समझ सकें और और कई खुशफहमियों जी रहे समीक्षक इस चालाकी को नहीं पकड़ेंगे क्योंकि उनके तो दोनों हाथों में लड्डू हैं। पर हम तिरछी नजर से कंप्यूटर चलाते हुए सब पर नजर रखते हैं पर हमारे गुरु ने हमसे कह दिया है कि कोई तस्वीर दिखाए तो उसके पीछे जाकर देखो।

यह सारा खेल बिग बी के मुकाबले खडे करने के प्रयास से अधिक कुछ नहीं है। इसका फिल्म से कोई संबंध नहीं हैं। पब्लिक सब जानती है। फिल्में देखकर भूल जाती है और फिर विज्ञापन फिल्मों को ढोते हैं। फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार कहते हैं कि आजकल इतनी फिल्में बन रहीं है कि सभी के पास बहुत सारा काम है और कोई अभिनेता एक वर्ष में पांच-छः से अधिक फिल्में नहीं कर सकता इसलिए सबके पास बराबर काम है। इसलिए मैं नंबर एक और दो की रेस में नहीं पड़ता।

फिल्म समीक्षक अगर किसी फिल्म के पारिश्रमिक को अगर सफलता का पैमाना मानते हैं तो अपुष्ट आधार पर जो जानकारी बाहर आती है उसमें भी अक्षय कुमार कम नहीं है। दरअसल जब फिल्में कम बनतीं थी और प्रचार के माध्यम सीमित थे तब हिन्दी फिल्मों में सतत सफलता के हिसाब से किसी एक को सुपर स्टार कहकर प्रचारित किया जाता था। अमिताभ बच्चन इस कथित सिंहासन पर कई वर्ष रहे पर उस पर विवाद भी रहा। उनको ऋषि कपूर और विनोद खन्ना से कड़ी चुनौती मिली क्योंकि जो फिल्म हिट हुईं उनमें यह अमिताभ के टक्कर के हीरो हुआ करते थे और अभिनय भी कम नहीं था।

अमिताभ ने बीच में फिल्मों से विराम लिया तो अनिल कपूर इस कथित नंबर वन पर आ गये। इधर प्रचार माध्यमों का भी विस्तार हो गया और इस पर बहस ख़त्म हो गई कि कौन नंबर वन है और कौन टू। अब फिर नये सिरे से इस कथित प्रथा को शुरू किया जा रहा है-क्योंकि लोगों का ध्यान बंटाने के लिए प्रचार माध्यमों को कुछ तो चाहिए। अब इसे आधार बनाया जा रहा है कि कौन ख़बरों में अधिक बना रहता है और इसके लिए जरूरी है फिल्मों के अभिनय से हटकर कोई अन्य लोकप्रिय व्यापार करना या विवाद खडे करना। अक्षय कुमार ने बहुत सारी फिल्में हिट दीं हैं और उनकी संख्या इन दोनों से अधिक है पर वह कहते हैं कि मैं कभी किसी फिल्म का निर्माता नहीं बनूंगा। विवाद से तो वह हमेशा परहेज करते रहे। यह दोनों हीरो जिन फिल्मों में काम करते हैं उनके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से निर्माता भी होते हैं-हालांकि और भी कई अभिनेता भी यही करते हैं। अक्षय कुमार ऐसा नहीं करते और उनका केवल अभिनय से ही वास्ता है।
आजकल विज्ञापन का युग है और बाजार में उत्पाद बेचने की सिफारिश करने वाले प्रसिद्ध चेहरों की उसे जरूरत है। उनमें अपने क्षेत्र की काबलियत के अलावा अनेक प्रकार की अलग से योग्यता की जरूरत भी होती है और सधी भाषा में कहें तो विवाद अपने साथ जोड़ना। शायद इसी वजह से यह नंबर वन और टू का खेल खेला जा रहा है। ऐसा खेल जिसमें दोनों बराबर रहें और जो बाजार के मतलब के नहीं हैं-क्योंकि अनावश्यक विवादों से परे हैं-उनको नंबर दो से भी धकेल दिया गया है। मगर आजकल प्रचार माध्यम सशक्त हैं अगर वह अपने हिसाब से किसी को नंबर वन दिलवाते हैं तो उसकी मजाक भी कम नहीं बनाते। इधर से खबर देते हैं उधर खिल्ल्ली उडाना शुरू कर देते हैं। वैसे और भी अभिनेता काफी सक्रिय हैं और उनका अभिनय काम नहीं हैं-संजय दत्त, अक्षय खन्ना, इमरान हाशमी, ऋतिक रोशन, सन्नी और बोबी देओल, सुनील शेट्टी और अजय देवगन जैसे अभिनेता भी हिन्दी फिल्मों में बहुत लोकप्रिय हैं, पर यह लोग विवादों से दूर रहते हैं इसलिए इनको कोई नंबर वन में शामिल नहीं करता। सलमान खान भी लोकप्रिय हैं और उनको भी इस दौड़ से बाहर रखा जा रहा है-शायद इसलिए कि उन्होने कोई प्रचार की कोई ऐसी चालाकी नहीं अपनाई। और अमिताभ बच्चन? जहाँ तक मेरी जानकारी हैं उन्होने अभी फिल्मों से सन्यास नहीं लिया है! बहरहाल यह नंबर एक और दो का खेल है दिलचस्प।

तुम्हारी रक्षा करेगा ज्ञान-साहित्यक कविता


गुरु ने शिष्य को विदा
करने से पहले पूछा
”तुम अब जाओगे
जीवन के पथ पर
चल्रते जाओगे प्रगति पथ पर
सेवा करोगे या चाहोगे सम्मान
शिष्य ने कहा
”गुरु आपने कहा था
ज्ञान कभी पूरा किसी का हो नहीं सकता
मैं तो अभी भी चाहूंगा ज्ञान”

गुरु ने खुश होकर कहा
”तब तो तुम सेवा से स्वत: बडे हो जाओगे
हर सम्मान से परे पाओगे
नहीं होगा अभिमान
हमेशा तुम्हारी रक्षा करेगा ज्ञान’
——————————-

अप्रवासी और प्रवासी हिन्दी लेखक-आलेख


अप्रवासी ब्लोगरों को लेकर मेरे मन में बहुत जिज्ञासा रहती है क्योंकि उनके लिखे पर उस देश के परिवेश और संस्कृति की जानकारी मिल जाती है जो अन्य कहीं नहीं मिल पाती. हांलांकि समाचार पत्र-पत्रिकाओं में इस बारे में अक्सर छपता है पर वह अधिकतर सारे देश को इकाई मानकर लिखा जाता है और जो लिखते हैं वह अधिकतर विदेशी फोबिया से ग्रसित होते हैं. वहाँ रह रहे लोगों की मानसिक उतार-चढाव पर उनका नजरिया अधिक नहीं रहता है. हिन्दी के अप्रवासी भारतीयों से ही विदेशों में रह रहे अपने लोगों की बहुत अच्छी जानकारी मिल जाती है. इस बारे में ब्लोग तथा ई-पत्रिकाओं में सक्रिय लेखकों की रचनाओं से मैंने बहुत कुछ सीखा है.

शुरुआत में ई-पत्रिकाओं में मैंने कुछ कहानियां देखीं तो मुझे आश्चर्य हुआ यह देखकर कि अगर कुछ अच्छे लोग अपने साथ अच्छी बातें ले गए हैं तो कुछ बुरे भी हैं जो बुरी बातें ले गए हैं और यह भी कि सभी विदेशों में रह रहे लोग भले नहीं है. उनमें अपने देश के लोगों के साथ धोखा देने के प्रुवृतियाँ वैसी हैं जैसे यहाँ. कुछ कहानियां तो आँखें खोल देने वाली भी होतीं हैं. ब्लोग जगत में सक्रिय अप्रवासी भारतीयों के लिए ब्लोग अपने लोगों से भावनात्मक रूप से जुडे रहने का साधन भी है यह मैं मानता हूँ. चौपालों पर ब्लोगर भीड़ की तरह हैं और भीड़ में कौन क्या है यह समझ पाना मुश्किल होता है पर एक लेखक का काम यही है कि वह भी में न केवल अपनी पहचान बनाए बल्कि उसमें अपने लिए विषय के साथ अपने मित्र और साथी सही ढंग से तलाशने के साथ उसमें हर व्यक्ति को अलग-अलग कर पहचानने का प्रयास करे. अप्रवासी भारतीयों का लेखन के विषय भी हम प्रवासी भारतीयों की तरह हैं पर उनमें एक पृथक भाव अवश्य होता है और वह अपनी जन्मभूमि और लोगों से दूर रहने का भाव.
हम प्रवासी ब्लोगर यहाँ बैठकर जिन कठिनाईयों में-जैसी लाईट, यातायात, अपने कार्य और अपने सामाजिक तनाव- लिखते हैं वह अप्रवासियों को नहीं छूते पर उनके सामने और समस्याएं तो रहतीं हैं. उनके कार्यस्थल निवास स्थान से बहुत दूर होते हैं और सबसे बड़ी चीज जो मेरी नजर में आई हैं अपने देश के लोगों से उपेक्षा का भाव उन्हें वहाँ भी सालता है. एक जो सबसे अच्छी बात यह लगती है कि वह रुचिकर लिखने का प्रयास वह लोग करते हैं और नई जानकारियाँ भी उनसे मिलती हैं. शायद मेरे जैसे प्रवासी भारतीय ब्लोगर सोच रहे होंगे कि आखिर यह मैं सब कुछ लिख क्यों रहा हूँ? इसका जवाब यह है कि हम सब अपने देश के बारे में बहुत कुछ लिखते हैं पर रहन-सहन की हालातों को देखने तो सभी जगह कमोबेश एक जैसे हैं और इसलिए सतत पढ़ते रहने के बाद जब कुछ नया पढ़ने की इच्छा होती है तो इन्हीं अप्रवासी भारतीयों का लिखा मददगार होता है. ईपत्रिकाओं में मैंने कुछ ऐसी कहानियां भी पढी हैं जिनसे पता लगता है कि सब कुछ वैसा विदेशों में नहीं है जैसा यहाँ प्रचारित किया जाता है.
अप्रवासी ब्लोगर आमतौर से फोरमों पर चल रहे विवादों से दूर रहते हैं क्योंकि इससे उन्हें अपने सहृदय ब्लोगरों से दूरी होने की आशंका रहती हैं. इसके विपरीत हम प्रवासी इस खतरे से डरते नहीं क्योंकि यहाँ एक नहीं तो दूसरा मित्र बहुत सहजता से मिल जायेगा-शहर-प्रदेश, जाति, भाषा, कार्य की प्रकृति, विचारधारा और अन्य आधारों पर हमारे पास संपर्क बनाने के बहुत आधार हैं जिन पर देश में रहते हुए हमें कभी परेशानी नहीं आती और कुछ नहीं तो जिससे विवाद किया उससे समझौता करने में भी आसानी होती है. एक बात आपने देखी होगी कि समाज में विदेशों में नौकरी पाने और जाने का बहुत आकर्षण है पर प्रवासी ब्लोगर कभी इसके लिए ऐसा लालायित नहीं दिखाई देते क्योंकि इन्हीं अप्रवासी ब्लोगरों की पोस्टों से उन्होने वहाँ के हाल समझ लिए हैं. इसलिए अनेक पोस्टों पर ऐसी टिप्पणियाँ दिखाईं देतीं है कि’हम तो सोचते थे कि यहीं होता है वहाँ भी ऐसा होता है जानकार आश्चर्य होता है’.

विदुर नीति:अकेले वृक्ष के बलवान होने पर भी आंधी उसे गिरा देती है


*जलती लकडियाँ अलग-अलग होने पर धुआं और एक साथ होने पर अग्नि को प्रज्जवलित करतीं हैं इसी प्रकार फ़ुट होने पर लोग कष्ट उठाते हैं और एक होने पर सुखी होते हैं।
*यदि वृक्ष अकेला है तो बलवान, दृढ़ और बृहद होने पर भी एक ही क्षण में आंधी के द्वारा बलपूर्वक शाखाओं सहित धराशायी किया जा सकता है।
*जो बहुत बडे वृक्ष एक साथ रहकर समूह में खडे रहते हैं वह एक दूसरे को सहारा देकर बहुत शक्तिशाली तूफ़ान का भी सामना करते हैं
*समस्त गुणों से संपन्न होने पर भी शत्रु अपनी ताकत के अन्दर समझते हैं जैसे अकेले वृक्ष को वायु किन्तु परस्पर मेल होने से एक दूसरे के साथ रहने वाले लोग ऐसी ही शोभा प्राप्त करते हैं जैसे तालाब में कमल।

रहीम के दोहे:सज्जन सौ बार रूठे तो भी मनाएं


जैसी जाकी बुद्धि है, तैसे कहैं बनाय
ताकौं बुरो न मानी, लें कहाँ सो जाय

कविवर रहीम जी कहते हैं कि जिस मनुष्य की जैसी बुद्धि है वह उसके अनुरूप ही तो काम करता है। उस मनुष्य का बुरा मत मानिए क्योंकि वह और बुद्धि कहाँ लेने जायेगा।

टूटे सुजन मनाइये, जौ टूटे सौ बार
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार
कविवर रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार सच्चे मोतियों का हार टूट जाने पर बार-बार पिरोया जाता है, उसी प्रकार यदि सज्जन सौ बार भी नाराज हो जाएं तो भी उन्हें सौ बार ही मना लेना चाहिऐ क्योंकि वह मोतियों की तरह मूल्यवान होते हैं।

सच का भला कौन साथी होता-कविता


अगर अकेले चल सकते हो
जिन्दगी की राह पर
तो सत्य बोलो जो
हमेशा कड़वा होता
अगर अपने इर्द-गिर्द जुटाना चाहते हो
लोगों की भीड़ तो
झूठ बड़ी सफाई से बोलो
जो हमेशा मीठा होता

यहाँ सब सच से घबडाए
भ्रम की छाया तले
जिंदा रहने के आदी हैं लोग
सर्वशक्तिमान के नाम पर
बताये संदेशों की दवा बनाकर
किया जाता है उसका दूर रोग
पर सच यह कि
भ्रम का कोई इलाज नहीं होता
जिसने जीवन दिया
उसी सर्वशक्तिमान के क्रुद्ध होने का भय
दिखाते कई सयाने
तंत्र-मन्त्र से लगते दर्द भगाने
उनको ढोंगियों के चंगुल से
कभी कोई बचा नहीं सकता
जाली धंधे का जाल भी
इतना कमजोर नहीं होता

मन का अँधेरा आदमी को
खुशी की खातिर कहाँ-कहाँ ले जाता
मिलता रौशन चिराग का पता
वहाँ अपनी देह खींच ले जाता
जिन पर हैं जमाने के दिल को रौशन
करने का ठेका
वह भी नकली चिराग बेच रहे हैं
पुरानी किताबों के संदेशों पर
चुटकुलों के पैबंद लगाकर
लोगों से पैसे अपनी और खींच रहे हैं
सच कह पाना लोगों से कठिन है
क्योंकि उसमें आदमी अकेला होता
सच का भला कौन साथी होता

जहाँ ले जाता मन-कविता साहित्य


दिल में हो कड़वाहट तो मीठा कैसे लिखें
उदासी हो दिल में, चेहरे से हँसते कैसे दिखें
कितना कठिन अपने को छिपाना मन की आँखों से
जैसे अपने को लगें वैसे ही दूसरों को भी दिखें
जमाने के साथ कब तक चल सकती है चालाकी
कब तक अपने दिल का हाल छिपा कर लिखें
कहीं कोई आस नहीं, फिर भी दिल निराश नहीं
जब तक चल रही सांस, कैसे जिन्दगी से हारते दिखें
कभी अपने कागज़ पर लिखे शब्द थके हुए लगते हैं
हम रुक जाते, पर फिर वह शेर की तरह दौड़ते दिखे
कहाँ ले जाएं इस जमाने से आहत अपना मन
रुकने की सोचें, अगले ही पल उसके कहे पर चलते दिखें

सुबह और शाम का दृश्य-लघुकथा


वह एक गृह स्वामी की तरह अपने पोर्च के नीचे खडा था . कालोनी का चौकीदार पैसे मांगने आया और बोला-”बाबूजी नमस्कार.
उसने अपने पहले दोनों हाथ जोड़े और अपना एक हाथ मांगने के लिए बढाया.
उसके जेब में दस, बीस, पचास और सौ के नोट थे, पर उसे तीस रूपये देने का मन नहीं हुआ और बोला-”यार, अभी हमें वेतन नहीं मिला. जब मिलेगा तो ले जाना.
वह चला गया. घर पर काम करने वाले बाई आई और काम कर जब जाने वाली थी तब बोली-”बाबूजी, आज हमें अपने दो सौ रूपये दे दीजिये.हमें अपने बेटे के लिए फीस भरनी है.”
यह उसके जेब में रखी रकम से कोई कम नहीं थी फिर भी उसने कहा-”अभी वेतन नहीं मिला. जब मिल जायेगा तो दे दूंगा.
वह चली गयी. कुछ देर बाद सड़क पर झाडू लगाने वाला आया और उसने नमस्कार की. उसे हर महीने बीस रूपये देने होते थे. उसे भी उसने वही जवाब दिया.
पत्नी ने कहा-”इतना पैसा तो अपने पास होता है, फिर आपने दिया क्यों नहीं? मुझसे ही लेकर देते.”
उसने कहा-”ठीक है. कल दे देंगे. क्या जाता है. कौनसा पहाड़ टूट पड़ रहा है. सुबह-सुबह सब भिखारियों की तरह मांगने चले जाते हैं. मुझे तो उनकी शक्ल देखकर ही नफरत होती है.

शाम को उसने अपना काम समाप्त किया और अपना वेतन मांगने के लिए प्रबंधक के पास गया. उसका जवाब था-”
कल ले लेना.”
”आज क्यों नहीं?आपके यहाँ तो पैसा हमेशा रहता है.”
प्रबंधक ने कहा-”हाँ, पर आज मुझे जल्दी जाना है, फिर आज मेरा असिस्टेंट भी नहीं है. अपनी तनख्वाह लेकर चला गया. उसे खरीददारी करनी थी.”

उसे बहुत गुस्सा आ गया और बोला-”क्या हम मेहनत नहीं करते? उस क्लर्क को जल्दी खरीददारी करनी थी पर हम क्या करेंगे?”
प्रबंधक ने कहा-”चिल्लाओ नहीं. वह मालिकों का रिश्तेदार है, अगर किसी ने सुन लिया तो इस नौकरी से भी जाओगे.
वह गुस्से में घर आया और अपनी पत्नी के सामने प्रबंधक और क्लर्क को गाली देना लगा गो वह बोली-”सुबह हमने क्या किया था? वही उन्होने हमारे साथ किया. अगर वह छोटे लोग कल तक इन्तजार कर सकते हैं तो फिर हम क्यों नहीं?”

वह हतप्रभ खडा था. देर रात तक सोते समय सुबह और शाम के दृश्य उसके सामने घूम रहे थे.

एक सामान्य पहल से अधिक कुछ नहीं-आलेख


भारत में हिन्दी ब्लोग अभी शैशव काल में है और ब्लोगरों की संख्या देखें तो अपने देश के विशाल क्षेत्र को देखते हुए अभी भी नगण्य है, और जैसे जैसे इसका प्रचार होगा वैसे-वैसे ही इसमें बदलाव आयेंगे और उस समय जो स्वरूप होगा जिसकी कल्पना कोई इस समय तो नहीं कर सकता
किसी समय नारद हिन्दी ब्लोग का एकमात्र ऐसा फोरम था जिस पर सब ब्लोग एकत्रित होते थे, और दूसरे फोरम बनाने के बावजूद लोग उस पर नहीं जा रहे थे. एक बार नारद के तीन दिन तक खराब रहने के बाद भी लोग उस पर नहीं जा रहे थे तब मैंने एक पोस्ट डाली थी ”नारद का मोह न छोडें पर दूसरी चौपालों पर भी जाएं”. इसका असर हुआ और लोग दूसरी चौपालों पर जाना शुरू हुए. आज भी मेरे तरह कुछ लोग हैं जिनको नारद से मोह है पर उसकी ब्लोगवाणी से प्रतिस्पर्धा है जिसे मेरे लेख के बाद पाठक मिले तो ऐसे कि वह इस समय ब्लोगरों का पसंदीदा फोरम है.

अगर यह चौपाल वाले दूसरों की खबर रखते हैं तो दूसरों को भी इनकी खबर रखनी चाहिए. नारद और चिटठा जगत आपसे में जुड़ें फोरम हैं. आप कोई नया ब्लोग बनाएं और उसे चिटठा जगत पर पंजीकृत करें तो वह उसके अलावा नारद और हिन्दी ब्लोग्स पर अपने आप आ जायेगा पर ब्लोग वाणी पर आपको पंजीकृत कराना पडेगा. जो लोग चिट्ठाजगत के परिवर्तनों से चिंतित हैं उन्हें बता दूं कि इस तरह की कोई बात नहीं है. नारद अपने ऐसे बदलाव नहीं करेगा क्योंकि वह जानते हैं कि वह किसी काम का नहीं है. ब्लोगवाणी के संचालक कभी भी ऐसे परिवर्तन नहीं करेंगे क्योंकि इसका सीधा मतलब है नारद के पास अपने ब्लोगर भेजना.
नारद के कर्णधार इस समय अपने पास पाठक खींचने के लिए जूझ रहे हैं, वह चिट्ठाजगत के परिवर्तनों का प्रचार कर रहे हैं पर ब्लोगवाणी शायद ही इसमें आयें.

कल सर्वश्रेष्ठ चिट्ठाकार २००७ के लिए किया गया एलान इसी का हिस्सा है. नारद के फोरम से ही चलाया गया है-ऐसा मुझे लगता है. उसका एक कर्णधार ही इससे सीधा जुडा हुआ है. हालांकि इसके एक कर्णधार का मत रहा है कि वेब साईट को ब्लोग नहीं माना जा सकता है, पर इस राय से हटने के अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं है. उन्होने कुछ पुराने ब्लोगरों के साथ ऐसे नये ब्लोगर जोड़े हैं जो उनके साथ एक मित्र की तरह पहले से ही हैं .

बहरहाल ऐसे बहुत से पुरस्कार बनेंगे और बटेंगे, इनसे विचलित होने की बजाय नये ब्लोगर अपने कौशल का प्रदर्शन करते हुए आगे बढ़ें. हमें इन फोरमों के आपसी द्वंद में नहीं जाना है क्योंकि इसके लोग बडे शहरों में रहते हैं और आपस में मित्रों की तरह ही हैं. इनकी लाबियाँ है और इसमें तो निकट के लोग ही हो सकते हैं. अभी पिछले पुरस्कार के समय भी विवाद उठे थे और इसमें भी उठेंगे पर इतने प्रभावशाली ढंग से नहीं क्योंकि इसमें कई ऐसी चीजों का ध्यान रखा गया है जो विवाद उठाने वाले लोग हैं वह डरेंगे-दबे स्वर में तो कल ही कुछ पोस्ट और कमेन्ट देखी थी. अगर आप इनके नामों और उनके सक्रियता को देखें तो नारद अब भी वहीं हैं जहाँ पहले था. वरिष्ठ वेब साईट धारकों को आगे कर वह ऐसा समझ रहे हैं कि कोई इस चालाकी को नही पकडेगा और पकडेगा तो कहेगा नहीं. मैं भी लिख रहा हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि कोई मुझसे सवाल नहीं करेगा क्योंकि मेरे पास और भी सवाल हैं. एक धुर विरोधी नाम के ब्लोगर थे और कहते हैं कि वह गुस्से में ब्लोग जगत से चले गए पर मेरे के मित्र ब्लोगर से जब भेंट हुई (वह अकेले ऐसे ब्लोगर हैं जिनसे मैं मिला हूँ) तो पता लगा कि वह एक छद्म नाम था और वह असली नाम से कोई वेब साईट चला रहे हैं-और मेरा मानना है कि कई लोग ऐसे होते है कि लगता है अब झांसे में आये पर आते नहीं है. इन फोरम वालों का द्वंद है चलता रहेगा. इसमें रूचि लें पर अपने लक्ष्य से नहीं भटकें. यह इस सम्मान का खूब प्रचार करेंगे और ऐसा दिखाएँगे कि जैसे कोई बहुत बड़ी उपाधि है पर उस पर ध्यान देना चाहे तो वोट डाल देना पर कोई टेंशन मत लेना. यह भी बता दूं इनकी यह योजना हाल ही में बनी हैं क्योंकि कुछ नये नाम लोगों की जुबान पर चढ़ते जा रहे हैं तो इन लोगों ने सोचा कि अपने पुराने लोगों को पुन: सक्रिय किया जाये ताकि वह उनके चौपाल पर आयें, और हम जैसे लोग तो वैसे ही जाते है और ऐसे पुरस्कारों में रूचि नहीं है जो अपने ही ब्लोगर वर्ग के लोगों से मिले क्योंकि बड़ा तो बाहर सिद्ध होना है यहाँ क्या? कुल मिलाकर एक दम सामान्य पहल है. आज मेरा इस पर हास्य कविता लिखने का मन था पर उसे अब मैंने स्थगित कर दिया क्योंकि इसमें दम नजर नहीं आया.

संत कबीर वाणी:माया के स्वरूप को भी कोई नहीं जानता


माया मया सब कहैं, माया लखै न कोय
जो मन में ना उतरे, माया कहिए सोय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि माया-माया कहकर उसके पीछे तो सब पड़े हैं पर उसका सही स्वरूप कोई नहीं जानता. सभी एक दूसरे को सन्देश देते हैं कि माया के चक्कर में मत पडो पर पर सभी उसके इर्द-गिर्द जिन्दगी भर घूमते हैं.

भावार्थ-आपने देखा होगा कि सब लोग एक दूसरे को तमाम तरह के उपदेश देते हैं कि पैसे से सब कुछ नहीं होता है और धर्म-कर्म भी करना चाहिए और दिखाने के लिए भक्ति भी करते हैं पर उनके मन से माया का मोह नहीं निकलता और भगवान् का नाम लेते हैं पर उनको मन में स्थान नहीं दे पाते.

सस्ती कार आने पर ही होगी शादी और सगाई-हास्य कविता


एक पडोसन दूसरी पडोसन के पास पहुँची
और बोली
‘बहिन तुम्हारे छोरे के लिए
एक रिश्ता मैं हूँ लाई
जल्दी करो सगाई
तुमने कहा था मोटर साइकिल चाहिए
दहेज़ में
वह तुम्हें मिल जायेगी
अगले महीने तक ही मुहूर्त हैं
कर लोग जल्दी-जल्दी
फिर न शादी होगी न सगाई’

दूसरी बोली
‘मुझे अब जल्दी नहीं है
अब आ रही है कुछ महीने में
सस्ती कार
उसके आने पर ही करूंगी
अपने लड़के की शादी का विचार
मोटर साइकिल का चला जायेगा ज़माना
अब तो है मेरे लड़को को कार चलाना
मेरे पति मुझसे कह गए
तब तक मुद्रा स्फीति भी बढ़ जायेगी
इसलिए मैंने तय किया है कि
सस्ती कार आने पर ही करूंगी
अपने लाडले की सगाई.’

पुराने रिकार्ड के सहारे अब नहीं चलेगा नाम-हास्य कविता


कितने दिनों के बाद
प्राचीनतम बल्लेबाज सह्बाग ने
बना शतक और अब
कगारुओं पर पर बरस रहे
तब तक मुहँ पर ताला जब
बल्ला खामोश
लोग अभी बडे मैच में उनके रनों को तरस रहे

कहै दीपक बापू
नाम ने उनका कंगारू
उनके लिए एक बकनर क्या
कई अंपायर उस जैसा बनने के लिए तरस रहे
पर अभी भी तुम्हारा इम्तहान बाकी है
छोटे मैच का शतक तुम्हें हीरो नहीं बनाता
बडे मैच में महीनों हो गए
रन बनाने में तुम्हारा नाम नहीं आता
जुबान से गर्जना होता आसान
बाल खेलने के लिए
हाथों और पांवों कर जोर काम आता
तुम्हारे ‘फुटवर्क’ में अभी ढेर दोष नजर आता
कहीं फिर न हो जाओ टाँय-टाँय फिस्स
अपना मुहँ चलाते रहो
पर अभी बाकी है
तुम्हारे लिए रन बनाने का काम
पुराने रिकार्ड के सहारे अब नहीं चलेगा नाम

आसमान से अब फ़रिश्ते नहीं आते


आसमान से अब फ़रिश्ते नहीं आते
विचार खुले होना अच्छा है
पर आंख्ने भी खुली रखना
यकीन करना अच्छा है
पर कदम-कदम पर है
धोखे भीं हजार हैं
अपना हर कदम
सतर्कता से रखना

सुन्दर शब्दों का जाल
फैलाया जाता है चहूं ओर
अर्थहीन लाभ दिखाए जाते है
जिनका नहीं होता कहीं ठौर
शिकारी अब ऐसा जाल बिछाते हैं
पंक्षी बिना दाना डाले फंस जाते हैं
तुम शिकार होने से बचना

कहीं एक के साथ एक फ्री का नारा
कहीं भारी भरकम गिफ्ट का नज़ारा
कोई करता हैं भारी छूट का वादा
कोई बताता अपने ही लुटने का aaj
खरीदने निकलो बाजार में तो तुम भी
एक सौदागर बन जाना
अपनी नज़र पैनी रखना

कहैं दीपक बापू
अब आसमान से नहीं आते
ऐसे फ़रिश्ते
जो दूसरे को मालामाल कर दें
लोगों के झुंड के झुंड जुटे हैं
अमीर बनने के लिए
वह ऐसे नही है
किसी दूसरे के लिए कमाल कर दें
तुम अपना ईमान नहीं छोड़ना
अपने ख्वाबों को सच करने की
जंग खुद ही जीतने की बाट जोहना
किसी दूसरे के दिखाए सपने में
अपनी जिन्दगी फंसाने से बचना
यहां कोई ख़्याल से फ्री दिखता है
किसी का माल फ्री बिकता है
कोई फ्री में लिखता है
पर यहां कुछ फ्री नहीं है
सिवाय तुम्हारी जिन्दगी के
इसे फ्री में बेकार करने से बचना
——————-

चिंता का रोग


टूटते-बिखरते समाज को
बचाने के लिए जूझते लोग
रिवाजों और रीतियों को निभाकर
अपने लिए सम्मान ढूंढते लोग
चिंताओं में पाल रहे हैं रोग
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चिंता देती है कई रोगों को जन्म
पर उनसे क्या कहेंगे
जिनको चिंता के साथ जीने की
आदत हो गयी
ज्ञान सब बघारते हैं सभी
‘करने वाला तो करतार है’
पर फिर आ जाता है ख्याल
तो कहते हैं कि
”चिंता तो करनी पड़ती है
वरना हमारे काम कैसे होंगे
हमारी जिन्दगी तो हराम हो गयी’

नववर्ष नही कर सकता मैं तेरा अभिनन्दन


नववर्ष नही कर सकता मैं तेरा अभिनन्दन
जब चारों और देखता हूँ पीडा और क्रंदन

अच्छी खबरें ही मिलती रहेंगी तेरे इस दौर में
यकीन नही होता जब करता हूँ अपने मन में मंथन

लोग खुशी के आसमान में उड़ना चाहते हैं
पर तोड़ नही पाते अपने पुराने मन के बन्धन

उत्पात और अशांति के बादल गरज रहे हैं सब तरफ
कहीं न कहीं किसी आदमी की तबाह करेंगे गरदन

कुछ पल अच्छे लग सकते हो कैलेंडर बदलते समय
पर फिर अपनी राह चलोगे, भूलकर अभिनन्दन

”मैं अपनी पोस्ट का शीर्षक बदलता हूँ”


एक ब्लोगर ने अपने ब्लोगर ने
अपनी पोस्ट पर लिखी कहानी
शीर्षक लिखा ”मैं प्यार करता चाहता हूँ’
पढ़ने वालों ने बस उसे ही
पढा और अपने लिए प्रस्ताव समझकर
कई ने लगा दिए
स्वीकृति भरे कमेन्ट
ब्लोगर हैरान हुआ
समझ गया केवल शीर्षक ने ही किया है
यह घोटाला
तब उसने दूसरी पोस्ट लिखी
”मैं अपनी पोस्ट का शीर्षक बदलता हूँ’
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पोस्ट भले फटीचर हो शीर्षक फड़कता हुआ लगाएं
————————————–

किसी भी रचना की मुख्य पहचान उसका शीर्षक होता है। अगर कभी कोई शीर्षक आकर्षक होता है तो लोग उसे बडे चाव से पढ़ते हैं और कही वह प्रभावपूर्ण नहीं है तो लोग उसे नजरंदाज कर जाते हैं। हालांकि इसमें पढ़ने वाले का दोष नहीं होता क्योंकि हो सकता है उसे वह विषय ही पसंद न हो दूसरा विषय पसंद हो पर शीर्षक से उस पर प्रभाव न डाला हो. वैसे भी हम जब अखबार या पत्रिका देखते हैं तो शीर्षक से ही तय करते हैं कि उसे पढ़ें या नहीं।

मैने एक ब्लोग पर एक नाराजगी भरी पोस्ट देखी थी जिसमें चार ब्लोगरों के नाम शीर्षक में लिखकर नीचे इस बात पर नाराजगी व्यक्त की गयी थी कि लोग शीर्षक देखकर कोई पोस्ट पढ़ते हैं। इसलिए प्रसिद्ध ब्लोगरों के नाम दिये गये हैं ताकि ब्लोगर लोग अपनी गलती महसूस करें। जैसा की अनुमान था और कई ब्लोगरों ने उसे खोला और वहां कुछ न देखकर अपना बहुत गुस्सा कमेंट के रूप में दिखाया। उत्सुक्तवश मैने भी वह पोस्ट खोली और उससे उपजी निराशा को पी गया। इस तरह पाठकों की परीक्षा लेना मुझे भी बहुत खला क्योंकि उस ब्लोगर ने यह नहीं सोचा ही ब्लोग पर कोई ऐसा पाठक भी हो सकता है और जो ब्लोगर नहीं है और उसे कुछ समझ नहीं आयेगा।

हालांकि मैं कई बार ऐसी रचनाएँ- जो की कवितायेँ होतीं है- अनाकर्षक शीर्षक से डाल जाता हूं जिनके बारे में मेरा विचार यह होता है कि इसे आकर्षक शीर्षक डालकर अधिक लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित करना ठीक नहीं होगा, यह अलग बात है कि मुझे जो नियमित रूप से पढ़ते हैं वह मुझे जानने लगे हैं और वह मेरी कोई पोस्ट नहीं छोड़ते। एक मित्र ने लिखा भी था कि आप कभी-कभी ऐसा हल्का शीर्षक क्यों लगाते हैं कि अधिक लोग न पढ़ें।

अभी दो भारत में ही रहने वाले ब्लोगरों से शीर्षक में ही पूछा गया था कि क्या अफगानिस्तान में रहते हैं। उस ब्लोगर ने लिखा था कि लोगों का ध्यान आकर्षित हो इसलिए ऐसा लिखा है ताकि दूसरे ब्लोगर भी अपनी गलती सुधार लें। मैं उस ब्लोगर की तारीफ करूंगा कि उसने सही शीर्षक लगाया था ताकि उसे अधिक ब्लोगर पढ़ें। उसकी पूरी जानकारी काम की थी। उसके बाद मैने अपने एक ब्लोग को देखा तो वह भी अफगानिस्तान में बसा दिख रहा था और उसे सही किया। पोस्ट छोटी थी पर काम की थी-और जैसा कि मैं हमेशा कह्ता हूं कि अच्छी या बुरी रचना का निर्णय पाठक पर ही छोड़ देना चाहिये। इसलिए अपनी पोस्ट भले ही फटीचर लगे पर शीर्षक तो फड़कता लगाना चाहिये पर पाठकों की परीक्षा लेने का प्रयास नहीं करना चाहिये। एक बार अगर किसी के मन में यह बात आ गयी कि उसे मूर्ख बनाया गया है तो वह फिर आपकी पोस्ट की तरफ देखेगा भी नहीं।

बेनजीर एक नजीर बन गयी


सुन्दर चेहरा
समुन्दर जैसे गहरी ऑंखें
खुशदिल और शिक्षित व्यक्तित्व
की मल्लिका बेनजीर को
किसकी  नजर लग गयी

५४ वर्ष में खिला एक
फूल पल भर में मसल डाला
दानव नहीं लगा सकते एक फूल भी
पर बाग़-बाग़ के उजाड़ डालते हैं
इंसानों के भेष में सब इंसान नहीं होते
भला क्या सब यह जानते हैं
भोली भाली एक औरत
मर्दों की राजनीति की बलि चढ़ गयी

हिंसा का खेल कौन रचता है
अपने लिए  रखता है आजादी
औरत को गुलाम बनाने के लिए
कई किताबें लिख बचता है
लिखी जायेगी कोई किताब उस पर
फिर कभी किसी आदमी द्वारा
बेनजीर किताब का एक पन्ना बन गई

उसने किया उन लोगों पर भरोसा
जिनके घर के चिराग 
भले लोगों के खून से रौशन होते हैं
अपने कफ़न  बेचने के लिए
बाजार में कत्लेआम बेचते हैं
धोखे तो हर पल होते हैं यहाँ
बेनजीर भी एक नजीर बन गयी   

संत कबीर वाणी:प्रभु का दर्शन करने वाला गाता नहीं


कबीर जब हम गावते, तब जाना गुरु नाहीं
अब गुरु दिल में देखिया, गावन को कछु नाहिं

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक हम गाते रहे, तब तक हम गुरु को जान ही नहीं पाए, परन्तु अब हृदय में दर्शन पा लिया, तो गाने को कुछ नहीं रहा.

भावार्थ- संत कबीरदास जी के दोहों में बहुत बड़ा महत्वपूर्ण दर्शन मिलता है. समाज में कई ऐसे लोग हैं जो किन्हीं गुरु के पास या किसी मंदिर या किसी अन्य धार्मिक स्थान पर जाते है और फिर लोगों से वहाँ के महत्त्व का दर्शन बखान करते हैं. यह उनका ढोंग होता है. इसके अलावा कई गुरु ऐसे भी हैं जो धर्म ग्रंथों का बखान कर अपने ज्ञान तो बघारते हैं पर उस पर चलना तो दूर उस सत्य के मार्ग की तरफ झांकते तक नहीं है. ऐसे लोग भक्त नहीं होते बल्कि एक गायक की तरह होते हैं. जिसने भगवान् की भक्ति हृदय में धारण कर ली है तो उसे तत्वज्ञान मिल जाता है और वह इस तरह नहीं गाता. वह तो अपनी मस्ती में मस्त रहता है किसी के सामने अपने भक्ति का बखान नहीं करता.

अपने मन में है बस व्यापार


जो हाथ मांगने के लिए उठते हैं
उनके हाथ कुछ तो आ जाता है
पर सम्मान पाने की आशा
उनको नहीं करना चाहिए
जिनकी जुबान का हर शब्द
मांगने में खर्च हो जाता है
———————————–

अपने मन में है बस व्यापार
बाहर ढूंढते हैं प्यार
मन में ख्वाहिश
सोने, चांदी और धन
के हों भण्डार
पर दूसरा करे प्यार
मन की भाषा में हैं लाखों शब्द
पर बोलते हुए जुबान कांपती है
कोई सुनकर खुश हो जाये
अपनी नीयत पहले यह भांपती है
हम पर हो न्यौछावर
पर खुद किसी को न दें सहारा
बस यही होता है विचार
इसलिए वक्त ठहरा लगता है
छोटी मुसीबत बहुत बड़ा कहर लगता है
पहल करना सीख लें
प्यार का पहला शब्द
पहले कहना सीख लें
तो जिन्दगी में आ जाये बहार
—————–

मनुस्मृति:एक दिन से अधिक ठहरने वाला अतिथि नहीं


1.एक सज्जन व्यक्ति के घर से बैठने या विश्राम के लिए भूमि, तिनकों से बने आसन, जल तथा मृदु वचन कभी दूर नहीं रहते। यह सब आसानी से उपलब्ध रहते हैं। अत: अतिथि को यदि अन्न, फल-फूल और दूध आदि से सेवा करना संभव नहीं हो तो उसे सही स्थान पर आसन पर आदर सहित बैठाकर जल तथा मृदु वचनों से संतुष्ट करना चाहिऐ।
2.एक रात गृहस्थ के घर ठहरने वाला व्यक्ति ही अतिथि कहलाता है क्योंकि उसके आने की कोई तिथि निश्चित नहीं होती। एक रात से अधिक ठहरने वाला अतिथि कहलाने का अधिकारी नहीं होता।
3.यदि एक स्थान से दूसरे स्थान या नगर में रोजी-रोटी कमाने के उद्देश्य से जाकर कोई व्यक्ति बस जाता है तथा उसके गृह क्षेत्र का कोई दूसरा व्यक्ति उसके यहाँ ठहरता है या वह स्वयं अपने गृहक्षेत्र में जाकर ठहरता है तो उसे अतिथि नहीं माना जाता। इसी प्रकार मित्र, सहपाठी और यज्ञ आदि कराने वाला पुरोहित भी अतिथि नहीं कहलाता।
4.जो मंद बुद्धि गृहस्थ उत्तम भोजन के लालच में दूसरे गाँव में जाकर दूसरे व्यक्ति के घर अतिथि बनकर रहता है वह मरने के बाद अन्न खिलाने वाले के घर पशु के रूप में उस भोजन का प्रतिफल चुकाता है।
सूर्यास्त हो जाने के बाद असमय आने वाले मेहमान को भी घर से बिना 5.भोजन कराए वापस भेजना अनुचित है। अतिथि समय पर आये या असमय पर उसे भोजन कराना ही गृहस्थ का धर्म है।
6.जो खाद्य पदार्थ अतिथि को नहीं परोसे गए हों उन्हें गृहस्थ स्वयं न ग्रहण करे। अतिथि का भोजन आदि से आदर सत्कार करने से धन, यश, आयु एवं स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
7.उत्तम, मध्यम एवं हीन स्तर के अतिथियों को उनकी अवस्था के अनुसार स्थान, विश्राम के लिए शय्या और अभिवादन प्रदान कर उनकी पूजा करना चाहिऐ।

चाणक्य नीति:अपनी हानि किसी को नहीं बतानी


१.बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने धन की हानि, अपने मानसिक संताप, अपने घर-परिवार के सदस्यों के दोष तथा किसी दुष्ट द्वारा अपने पर किये गए प्रहार और अपमान की भूलकर किसी से भी चर्चा किसी अन्य व्यक्ति से चर्चा न करे. इन सब बातों को यथासंभव गुप्त रखना चाहिए.
२.बुद्धिमान पुरुष को भय से तब तक डरना चाहिए जब तक वह सामने नहीं आ जाता. जब वह सामने आ जाता है तो उसका सामना करने के लिए मनस्थिति बना लेनी चाहिऐ.
३.बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिऐ कि वह अपने अपनी स्थिति पर विचार करता रहे कि उसके कितने मित्र है, उसका समय कैसा है, उसका निवास कैसा है और उसकी आय कितनी है और व्यय कितना है.
४.बुद्धिमान को चाहिऐ कि वह अपनी स्त्री से ही संतोष करे चाहे वह रूपवती हो अथवा साधारण, वह सुशिक्षित हो अथवा निरक्षर. इसी प्रकार को जो भोजन प्राप्त हो जाये, उसी से संतोष करना चाहिऐ. आजीविका से प्राप्त धन के संबंध में भी विचार करना चाहिए.
५.बुद्धिमान व्यक्ति को स्वाध्याय करते रहना चाहिए और शास्त्रों के अध्ययन, प्रभु के नाम का स्मरण और दान करने से कभी संतोष नहीं करना चाहिए.

मनुस्मृति:अपराधियों को अनदेखा न करे राज्य



चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

१.अपनी क्षीण वृति, अर्थात आय की कमी से तंग होकर जो व्यक्ति रास्ते में पड़ने वाले खेत से कुछ कंद-मूल अथवा गन्ना ले लेता हैं उस पर दंड नहीं लगाना चाहिए.

२.जो व्यक्ति दुसरे के पशुओं को बांधता है, बंधे हुए पशुओं को खोल देता है तथा दासों, घोडों और रथों को हर लेता है, वह निश्चय ही दंडनीय है.

३.इस प्रकार जो राज्य प्रमुख चोरों को दण्डित कर चोरी का निग्रह करता है वह इस लोक में यश प्राप्त करता है तथा परलोक में दिव्य सुखों को भोगता है.

४.जो राज्य प्रमुख इस लोक में अक्षय यश व मृत्यु के बाद दिव्य लोक चाहता है उसे चोरों और डकैतों के अपराध को कभी अनदेखा नहीं करना चाहिए.

५. वह व्यक्ति जो अप्रिय वचन बोलता है, चोरी करता है और हिंसा में लिप्त होता है. उसे महापापी मानना चाहिए.

६.यदि राज्य दुस्साहस करने वाले व्यक्ति को क्षमा कर देता है या उसके कृत्य को अनदेखा कर देता है तो अतिशीघ्र उसका विनाश हो जाता है क्योंकि लोगों को उसके प्रति विद्वेष की भावना पैदा हो जाती है.

७.राज्य प्रमुख को चाहिए के वह स्नेह वश अथवा लालच वश भी प्रजाजन में डर उत्पन्न करने वाले अपराधियों को बन्धन मुक्त न करे.

८.यदि गुरु, बालक,वृद्ध व विद्वान भी किसी पर अत्याचार करता है तो उसे बिना विचार किये उपयुक्त दंड दिया जाना चाहिए.

९.अपने आत्म रक्षार्थ तथा किसी स्त्री और विद्वान पर संकट आने पर उसकी रक्षा के लिए जो व्यक्ति किसी दुष्ट व्यक्ति का संहार करता है उसे हत्या के पाप का भागीदार नहीं माना जाता.

जब ब्लोगर कार के मुहूर्त से बिना कमेन्ट के लौटा


ब्लोगर पहुंचा सर्वशक्तिमान के घर
ध्यान लगाने
कुछ पल का चैन पाने
निकला जब बाहर तो देखा
उसका मित्र अपनी नयी कार लेकर
खडा था
उस घर के सेवक से पुजवाने
ब्लोगर को देखकर मित्र खुश हो गया
और इशारा कर बुलाया और बोला
”यार, आज ही खरीदी है
लाया हूँ इसे इसकी नजर उतरवाने
तुम भी रुक जाओ
और प्रसाद पाओ
फिर कभी ले चलूँगा तुम्हें घुमाने’

ब्लोगर रुक गया
विश्वास बहुत था उसका सर्वशक्तिमान में
पर अंधविश्वास से परे था
पर मित्र के आगे वह झुक गया
मित्र ने फूल दिए और कहा
जब हो जाये सब
तक यह हैं कार पर बरसाने’
जब हो गयी कार की पूजा
तब ब्लोगर ने भी फूल बरसाए
और दूर हो गया पानी पीने के बहाने
उधर मिठाई बंटी
ख़त्म हो गया मिठाई का डिब्बा
ब्लोगर पहुंचा मित्र के सामने
हिस्से का हक़ जमाने
मित्र ने खाली डिब्बा दिखाया और
दिया आश्वासन कल उसका
हिस्सा घर पहुँचाने के लिए
ब्लोगर बोला
”यार, क्या मेरे लिए
एक टुकडा नहीं बचा सके
मैंने तुम्हारी कार पर
फूल पोस्ट किये थे
पर कमेन्ट की बात आयी
तो लगे टरकाने
हमें तो मजा तब आता है
जब पोस्ट रखते ही कमेन्ट आये
वह बहुत ताजा लगती है
कल-परसों वाली बासी लगती है
तुम कल भी कुछ मत लाना
अरे, हमें हर पोस्ट पर कमेन्ट नहीं मिलती
मैं यही समझ लूंगा
यह पोस्ट भी औंधे-मुहँ गिरी
चित हो गयी चारों खाने
—————————————-
नोट-यह काल्पनिक हास्य-व्यंग्य रचना है और इसका किसी घटना से कोई लेना देना नहीं है और किसी की कारिस्तानी इससे मेल खा जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार होगा.

कंप्यूटर के बाहर ब्लोगर नजरबंद


बिजली बंद तो पानी बंद
ब्लोग फिर भी चल रहा है
भले ही उसकी गति हो मंद
पर ब्लोगर खुद बैठा है
कंप्यूटर के बाहर नजरबंद
उसे इन्तजार है कब लाईट आये
तो वह अपने ब्लोग पर जाये
घड़ी चल रही है
पर ब्लोगर की सांस थम रही है
अक्ल काम कर रही है
पर सोच का सिलसिला है बंद
कलम हाथ में
कोरा कागज़ सामने है
पर लिखना फिर भी है बंद
ब्लोगर खुद ही किये बैठा अपनी नजर बंद
————————————-

समस्याएं वैसे भी कम नहीं है
पर बिजली फिर भी निभाती है
कुछ अल्फाज दिल से बाहर
निकल आते हैं
डैने बनकर ब्लोग को कबूतर
की तरह उडा ले जाते हैं
तसल्ली होती हैं कि
हमने भी एक कबूतर उडाया
सब शून्य में घिर जाता है
जब बिजली चली जाती है
————————————

ब्लोगरी की तो प्रेम के अध्याय बंद हो जायेंगे


प्रेयसी ने प्रियतमा को सुझाया
जब तक मेरा कोर्स पूरा न हो
तब तक ब्लोग बनाकर मजे कर लें
इसमें जब मशहूर हो जायेंगे
तब प्रियतम के माँ-बाप भी
मशहूर बहू को बिना दहेज़ के
लाने को तैयार हो जायेंगे

प्रियतम सोच में पड़ गया
और शहर के एक फ्लॉप ब्लोगर के
घर पहुंचा राय मांगने
सुनते ही उसने कहा
‘पगला गए हो जो ऐसा सोचते हो
क्या इश्क ने तुम्हें बिल्ली बना दिया है
जो ब्लोग का खंभा नोचते हो
तुम नहीं जानते ब्लोग चीज क्या है
कैसे हैं डाक्टर और मरीज क्या हैं
पहले तो चौपालों के लोग
पंजीकरण के लिए तुम्हें
पकड़ कर अपना मेहमान बनायेंगे
खूब लगाएंगे कमेन्ट
फिर भूल जायेंगे
वहाँ पर करते हैं कई बार
शब्दों की लड़ाई में दो-दो हाथ
फिर हो जाते हैं साथ-साथ
मेरी नहीं मानते तो
मेरे दोस्त नारद जी से पूछो
वह तुमेह ब्लोगवाणी सुनाएंगे
चिट्ठाजगत की धक्कमपेल और खींचतान के
किस्से सुनायेगे
हिन्दी ब्लोग भी है अजीब
दोनों को अगर नशा चढ़ गया तो
गजब हो जायेगा
ब्लोग के चक्कर में पड़ गए तो
जो झगडे मियाँ-बीबी में शादी के
बाद होते हैं वह पहले ही शुरू हो जायेंगे
दोस्त अपने माँ-बाप को
समझा लो
लड़कियों की संख्या कम होती जा रही है
कई कुंवारे बिना ब्याह रह जायेंगे
अपने प्रेयसी को भी मना लो
ब्लोगरी की तो तुम्हारे प्रेम प्रसंग के
सारे अध्याय बंद हो जायेंगे
———————————–
नोट-यह काल्पनिक हास्य रचना है किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोई संबंध नहीं है और किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार होंगे.

ब्लोगर लेखक और लेखक ब्लोगर (3)


मैं पिछले कई दिनों से लगातार देख रहा हूँ कि कुछ लोग अपने साथ कोई लेबल लगा कर रहना चाहते हैं. यह मानव प्रवृति है कि वह कोई समूह बनाने के लिए अपने साथ कोई न कोई लेबल लगाना चाहता है ताकि वैसे ही लेबल लगाने वाले उससे जुड़ें. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसकी यह स्वाभाविक प्रवृति है. इधर आजकल ब्लोगरों को एक समूह में पिरोने का विचार चल रहा है. ब्लोगर और साहित्यकार क्या अलग-अलग होंगे?यह प्रश्न मेरे सामने था और मैं उसका उत्तर लिखते ही ढूँढता हूँ-मेरी अक्ल लिखते ही काम करती है. अगर कोई मुझे कोई योजना बनानी होती है तो भले ही लिखने न हो पेन अपने हाथ में ले लेता हूँ और आगे बढ़ता हूँ.

मैं मूलत: एक लेखक हूँ और ब्लोग मेरे लिए कापी और पेन की तरह है. कापी और पेन कई लोगों के पास होती है पर सभी लेखक नहीं बन जाते. कापी या कागज़ लेकर क्लर्क, अधिकारी, और महाजन भी लिखते हैं पर लेखक नहीं कहलाते. ब्लोग से पहले कंप्यूटर शब्द का विश्लेषण कर लें C= केल्कूलेटर A= घड़ी m= मेज P= पेन U= अलमारी T= टाईप राईटर E= इलेक्ट्रोनिक R= रजिस्टर. मुझे यह बहुत पहले एक इंजीनियर ने अपनी किताब में दिखाया था और हो सकता है कि इसमें एक दो शब्द मुझे वैसे याद न हो. उसने कहा था कि कंप्यूटर और कुछ नहीं ऐसी चीजों का संग्रह है. मतलब ब्लोग कोई आसमान से टपकी चीज नहीं है, बस ऐसे ही जैसे पहले नौटंकी देखने घर से बाहर जाते थे अब टीवी पर ही देख लेते हैं. इसी तरह ब्लोग पर लेखक हैं पर साहित्यकार उनमें कौन अपने को मानता है यह उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए, पर हाँ इसका उपयोग कुछ लोग डायरी की तरह भी कर सकते हैं तो कुछ मित्र बनाने के लिए भी कर सकते हैं तो कुछ अपने विज्ञापनों को क्लिक कराने के लिए ऐसी सामग्री रख सकते हैं जो पठनीय है, पर साहित्यकार वही होंगे जो अपनी मौलिक रचना प्रस्तुत करेंगे. जो मौलिक रचना देंगे वही होंगे साहित्यकार.
जब मैंने ब्लोग बनाना शुरू किया था तो मेरा विचार यह था कि देखें तो आखिर होता क्या है. मैं एक ईपत्रिका पर नारद को देखता था तब मुझे कभी नहीं लगा कि वहाँ साहित्य लिखने के लिए कोई जगह है वह तो जब मेरे हाथ ब्लोग लगे तो मैं उस पर अपनी ई-पत्रिका बनाने के लिए मैदान में उतरा था.

अब यहाँ तमाम तरह के सवाल आते हैं तो मुझे लगता है कि उनका मुझसे कोइ संबंध सिर्फ इतना है कि मैं एक लेखक हूँ और जब किसी बात का महत्व सार्वजनिक रूप से है तो मुझे उस पर लिखना चाहिए. कोई लिखने की इच्छा से यहाँ आ रहा है और उसे यहाँ आकर पता लगता है कि वह तो ब्लोगिंग कर रहा है पर आम पाठक के लिए एक लेखक है. मेरे दोस्त मुझे बाहर और कंप्यूटर पर एक लेखक के रूप में पढ़ते हैं. अगर ब्लोगरों का एक वर्ग यह चुनौती दे रहा है कि यहाँ ब्लोगर आगे रहेंगे और साहित्यकार नहीं तो वह उनका तर्क है. हकीकत यह है कि अंतरजाल पर पाठक तभी जुडेंगे जब उन्हें वैसा ही रुचिकर, ज्ञानवर्द्धक पढ़ने के मिलेगा और यह केवल साहित्य लिखने वालों के बूते की बात है. मैं इस बात से बहुत खुश हूँ कि यहाँ मैं कई ऐसे ब्लोग पर लिखने वाले देख रहा हूँ जो साहित्यकार बनने की संभावना वाले हैं. जिनमें लिखने की साहित्य वृत्ति है वह बहुत जल्दी परिणाम चाहने वाले नहीं है और वही ब्लोग की विधा को आगे ले जाने वाले हैं . अगर आगे रहने की बात है और उसका संबंध कमाने से है तो अभी ब्लोगर आगे रहेंगे. मैं एक साहित्य सृजन करना चाहता हूँ और मुझे पता है कि यहाँ मेरे लिए अर्थार्जन की कोई संभावना है क्योंकि उसमें लिखने के साथ दूसरी गतिविधियों की तरफ ध्यान देना होता है. जो कमाने के लिए उतरेंगे वह ब्लोगर संपादक बनाकर भी अपना ब्लोग चलाएंगे पर जो खुद लिखने वाले हैं उसके लिए यहाँ रास्ता आसान नहीं है, पर उनके बिना ब्लोगर एक कदम भी नहीं चल पायेंगे.

मेरा लक्ष्य साफ है कि अंतर्जाल पा हिन्दी भाषा की श्री वृद्धि करना और अपना साहित्य लिखना. मेरे जैसे लोगों की कमी नहीं है और जो साहित्य सृजन की दृष्टि से आये हैं उन्हें तमाम तरह के बंटवारों से दूर रहना चाहिऐ अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ना चाहिए क्योंकि साहित्य श्रेणी का कोई बंटवारा तो है ही नहीं भले ही वह अंतर्जाल तकनीकी के बारे में हो. एक बात जो साहित्य श्रेणी के लेखक ब्लोगरों को करना चाहिऐ कि वह बाहर भी सक्रिय रहें और अखबार आदि में भी प्रचार करें क्योंकि अभी जो इस बारे में जानकारी वहाँ छप रही है और कुछ ब्लोगरों के प्रचार तक सीमित है. इतना ही नहीं यहाँ छपने वाले लेखों में भी यह साबित की जा रही हैं कि बस वहीं है सब कुछ. अब अगर ब्लोगरों और साहित्यकारों में विभाजन हो ही रहा है तो फिर साहित्य श्रेणी के लेखक ब्लोगरों को एक दूसरे का हाथ पकड़कर चलना होगा. इसलिए अगर अखबार वगैरह में ऐसे लोगों का भी प्रचार करें जो साहित्यक श्रेणी के हों. वर्तमान में कुछ ब्लोगर बाहर लिख रहे हैं वह पूर्ण नहीं है और जो पत्रिका वगैरह में लेख भेजें वह साहित्य लेखन से लिखे जा रहे ब्लोग का उल्लेख प्रभावपूर्ण ढंग से करें. अभी तो शुरूआत है और अभी तय होना बाकी है कि कौन श्रेष्ट है कौन नहीं.

वैसे एक सत्य और भी है कि अभी साहित्यक श्रेणी के लोगों को बहुत बड़ी रचनाएं लिखने से बचना चाहिए और गागर में सागर की नीति अपनानी चाहिए और यह काम केवल साहित्यकार ही कर सकता है. वैसे एक बात और कि अगर सादा हिन्दी फॉण्ट का उपयोग अगर संभव हो जाये तो साहित्य श्रेणी के लेखक ब्लोगर अपनी बढत बहुत जल्दी कायम कर लेंगे. दिलचस्प बात यह है के एक मेरा ब्लोग है जिस पर केवल साहित्य ही है और वह कई लोगों की पसंद बना हुआ है. मैं उस पर कम ही लिखता हूँ कि उस पर लिखी पोस्टें तत्काल कोई अधिक नहीं देखी जातीं. उसी ब्लोग को देखकर मेरा यह मानना है कि अच्छा साहित्य लिखने वाले यहाँ सफल होंगे. इस ब्लोग जगत में मेरे बहुत मित्र हैं और कई लोगों से मैं असहमत होता हूँ पर गुस्सा आने की बजाय उस पर लिखता हूँ यह बताने के लिए मुझे मत भूलो क्योंकि आप ही लोग मुझे लाये हो. अगर मैं साहित्यकार नही होता और मुझमें साहित्य के प्रति झुकाव नहीं होता तो भला क्या मैं टिकता. सादा हिन्दी फॉण्ट में लिखने वाला कोई अगर यूनीकोड में लिखने के लिए तैयार हो सकता है तो वह साहित्यकार ही हो सकता है.

इसलिए मेरे साहित्य श्रेणी के नये और फ्लॉप ब्लोग लेखकों और लेखक ब्लोगरों तुम अपने लिखने की तरफ ध्यान देते रहो. कई और तरह के बदलाव आने वालें है और उनका सामना तभी कर पाओगे जब खुद लिखोगे. अभी कई तरह की चालाकिया होना शुरू हो गयीं हैं. गुटबंदी साफ दिखाई दे रही है. तुम उस तरह लिखो कि कोई तुम्हारी उपेक्षा नहीं कर सके. मुझे ऐसा कभी नही लगा था कि लोगों के उसूल किसी के लिए एक तो दूसरे के लिए दूसरे होते हैं. साहित्यकार का मन कोमल होता है और वह छोटी बातों को अनदेखा कर देते हैं पर जब एक सामूह का प्रश्न हो तो उसे उठाते हैं और उनका लिखा साहित्य ही होता है.

संत कबीर वाणी:एक राम को जानिए


आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक
कहैं कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक

संत कबीर जी का कहना है की गाली आते हुए एक होती है, परन्तु उसके प्रत्युतर में जब दूसरा भी गाली देता है, तो वह एक की अनेक रूप होती जातीं हैं। अगर कोई गाली देता है तो उसे सह जाओ क्योंकि अगर पलट कर गाली दोगे तो झगडा बढ़ता जायेगा-और गाली पर गाली से उसकी संख्या बढ़ती जायेगी।

जैसा भोजन खाईये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिए, तैसी बानी होय संत

कबीर कहते हैं जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है उसका जीवन वैसा ही बन जाता है।

एक राम को जानि करि, दूजा देह बहाय
तीरथ व्रत जप तप नहिं, सतगुरु चरण समाय

संत कबीर कहते हैं की जो सबके भीतर रमा हुआ एक राम है, उसे जानकर दूसरों को भुला दो, अन्य सब भ्रम है। तीर्थ-व्रत-जप-तप आदि सब झंझटों से मुक्त हो जाओ और सद्गुरु-स्वामी के श्रीचरणों में ध्यान लगाए रखो। उनकी सेवा और भक्ति करो

शीतल चांदनी का आनंद उठाए कौन


रात्रि में चन्दा बिखेरता
अब भी पहले की तरह
शीतल चांदनी
पर उसका आनन्द उठाएँ कौन
दूरदर्शन और कम्प्यूटर से
अपनी आखें लेकर जूझता आदमी
बाहर है प्राकृतिक सौन्दर्य
खङा है मौन

प्रथम किरणों के साथ
जीवन का संदेश देता सूर्य
रात को देर तक सोकर
सुबह देर बिस्तर छोड़ें आदमी
प्रात:काल नमन करे कौन
शीतल और शुद्ध पवन
आवारा फिरती है
वातानुकूलित कमरों में
उसका है प्रवेश वर्जित
सुखद अनुभूति पाए कौन
कई सदियों से शहर के बीच
बहती है नदी की धारा
नालियों से बहकर आती गंदिगी ने
उसकी शुद्ध आत्मा को मारा
अपने शहर में ही हो गया
आदमी अब परदेशी
उसका हमसफ़र बने कौन

प्राणवायु का सर्जन कर
उसे चारों और  बिखेर  रहा है
बरगद का पेड
जीवंत ह्रदय की प्रतीक्षा में
खड़ा है मौन
जीने की चाह है सभी को
सुख और आनन्द भी मांगें
पर इनका मतलब
समझा पाता कौन
——————-
हरियाली को बेघर कर
पत्थरों के जंगल खडे कर रहा है
जिसे देखो  वही
आत्मघाती हमले कर रहा है
हवाओं में खुद ही डालता
विषैली गैसें आदमी
हर कोई जीवन को मौत का
सन्देश दे रहा है

चाणक्य नीति:अपनी योजना गुप्त रखने पर ही सफलता संभव


१. यदि आप सफलता हासिल करना चाहते हैं तो गोपनीयता रखना सीख लें. जब किसी कार्य की सिद्धि के लिए कोई योजना बना रहे हैं तो उसके कार्यान्वयन और सफल होने तक उसे गुप्त रखने का मन्त्र आना चाहिए. अन्य लोगों की जानकारी में अगर आपकी योजना आ गयी तो वह उसमें सफलता संदिग्ध हो जायेगी.

२.प्रत्येक व्यक्ति को स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए. उसे प्रतिदिन धर्म शास्त्रों का कम से कम एक श्लोक अवश्य पढ़ना चाहिए. इससे व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है और उसका भला होता है.

३.विवेकवान मनुष्य को जन्मदाता, दीक्षा देकर ज्ञान देने वाले गुरु, रोजगार देने वाले स्वामी एवं विपत्ति में सहायता करने वाले संरक्षक को सदा आदर देना चाहिए.

४.मनुष्य को चाहिए की कोई कार्य छोटा हो या बड़ा उसे मन लगाकर करे. आधे दिल व उत्साह से किये गए कार्य में कभी सफलता नहीं मिलती. पूरी शक्ति लगाकर अपने प्राणों की बाजी लगाकर कार्य करने का भाव शेर से सीखना चाहिए.

५.अपनी सारी इन्द्रियों को नियंत्रण में कर स्थान, समय और अपनी शक्ति का अनुमान लगाकर कार्य सिद्धि के लिए जुटना बगुले से सीखना चाहिए.

जजबात वह शय है


जजबातों के साथ जीना अच्छी बात है
पर उन्हें कोई बांधकर
हमारी अक्ल को भी कोई साथ ले जाये
यह मंजूर नहीं करना
अब उस्ताद वैसे नहीं है जो
शागिर्द को सिखा सब दाव सिखा दें
फिक्सिंग का खेल सभी जगह हैं
क्या पता कौन चेला
उस्ताद को स्टिंग आपरेशन में फंसा दे
इसलिए जहाँ तक विज्ञापन में बिक सके
उतना ही नाच नचवाये
तुम दिमाग से देखना
दिल में कुछ मत बसाना
जजबात से शेर-ओ-शायरी करना
पर किसी ड्रामे के सीन पर
न हँसना और न रोना
आदमी के जजबात अब वह शय है
जो बाजार में बिकती है
और उसे पता भी न चल पाए
खुले में होता है व्यापार
पर दिखता नहीं है
क्योंकि जजबात ही हैं जो
आदमी को अक्ल पर ताला लगाए
—————————–

पानी पिलायें ऐसा नही अवसर


भाषण करते हुए वह बोले
”हम अब प्रगति के पथ पर
अग्रसर हैं
सारी दुनिया हमारी प्रशंसक है
हमारे शेयर बाजार का आंकडा
अब दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है
विकास डर आसमान छू रही है
हमारे लिए अब आगे बढ़ने का अवसर है

भाषण के बाद आए मिलने लोग
उनसे अपने-अपने इलाके की
बिजली, पानी और सड़कों की
खस्ता हालत के मुद्दे उठाने लगे
तो वह बोले
‘इस समय देश विकास कर रहा है
और तुम अभी भी वहीं अटके हो
अपने रास्ते से भटके हो
हम तरक्की करते हुए
अन्तरिक्ष की तरह बढे हैं
और तुम लोग अभी भी
सड़क, बिजली और पानी पर अटके हो
भला अब यह भी ऐसी बातों का अवसर है’

उनके डर के मारे सब खामोश रहे
फ़िर बोले
‘बहुत बोल लिया अब तो
मुझे पिलाने के लिए पानी लाओ
मुझे फ़िर आगे जाकर बोलना है
मेरी तो बस विकास पर नजर है’

वहाँ कोई पानी नहीं लाया
तो चीखने लगे तब एक आदमी ने कहा
‘यहाँ पानी बिजली कुछ नही है
आपका भाषण सुनने के लिए नहीं
हम अपनी व्यथा कहने आए थे
पानी की बोतलें अपने साथ लाये थे
सब पी गए आपकी बात सुनते हुए
जो बचा है वह इस ऊबड़ खाबड़
सड़क पर चलते हुए पीते जायेंगे
हम तो पहुचेंगे गिरते -पड़ते अपने घर
आप तो हेलिकॉप्टर में उड़ जायेंगे
आकाश में पानी पी लीजिये
आपकी है तो विकास पर नजर
पर हमारी तो है घर पर नजर
इन बोतलों में बंद पानी ही
अब हमारे रास्ते का सहारा है
आपके भाषण से हम बहुत खुश
पर पानी पिलायें ऐसा नहीं अवसर

चाणक्य नीति:बुद्धिमान अपने आहार की चिंता नहीं करते


१.बुद्धिमान पुरुष को आहार जुटाने के चिंता नहीं करना चाहिए, उसे तो केवल अपने धर्म और अनुष्ठान में लगना चाहिए क्योंकि उसका आहार तो उसके मनुष्य जन्म लेते ही उत्पन्न हो जाता है.

अभिप्राय-इसका अभिप्राय यह है कि परमपिता परमात्मा ने जिसे जन्म दिया है उसके लिए आहार का इंतजाम तो उसके भाग्य में लिख दिया है, कहा भी जाता है कि दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम. आदमी में यह अहंकार रहता है कि में खुद अर्जित कर रहा हूँ जबकि वह तो उसके भाग्य में लिखा है.

लोगों से जब कहा जाता है कि ‘भाई,. धर्म कर्म और भगवान् की भक्ति कर लो.’ तो वह कहते हैं कि समय ही कहाँ मिल पाता. परिवार के लिए रोटी कमाने से फुरसत ही कहाँ है?

ऐसा कहकर अपने को धोखा देते हैं. यहाँ कोई किसी को नहीं पाल सकता. सब अपने लिए नियत भाग्य का खा रहे हैं. आपने देखा होगा कि कोइ व्यक्ति जब मार जाता है तो उसके पीछे कोई और मरने नहीं जाता कि अब तो अमुक मर गया है और अब में कहाँ से रोटी खाऊंगा. अब जिंदा लोग यह खुशफहमी पालें के में किसी को भोजन और वस्त्र और अन्य वस्तुएं उपलब्ध करा रहा हूँ तो उसे भ्रमित नहीं तो क्या कहा जायेगा. यह भ्रम नहीं तो और क्या है कि लोग अपना पूरा जीवन अपने जिस परिवार को अर्पित करते हुए धर्म-कर्म और अनुष्टान से दूर रहकर गुजार देते हैं और वह उनके बाद भी यथावत चलता है.

डर की कोख में ही क्रूरता का शैतान जन्म लेता है


कभी बनते थे हथियारों के खिलौने
अब हथियार ही खिलौने बनने लगे हैं
अपनी देह को बचाने के लिए
लोग रखने लगे हैं हथियार
इस इलेक्ट्रोनिक युग में
कौन रिवाल्वर को खरीद कर
बच्चों को देता है
अपने लिए ही हथियार को खिलौना समझ लेता है
क्या गलती उस बच्चे की जो
हथियार को खिलौना समझ लेता है

किस-किस से शिकायत करें
सबने अपनी जिन्दगी को ही खेल
समझ लिया है
क्या सिखाएंगे वह अपने बच्चों को
जिन्होंने खुद कुछ नहीं सीखा
क्या जियेगा वह जिन्दगी जो
पत्थर की दीवारों के पीछे
हथियार रखकर
भय को अपना मित्र बनाकर
अपनी सुरक्षा का किला समझ लेता है

हथियार रखने से लोग
बहादुर नहीं हो जाते
जो बहादुर होते वह होते दयालू
इसलिए किसी सी नहीं डरते
जिनके मन में खौफ है
वही क्रूर हो जाते
ओ हथियारों पर भरोसा रखने वालों
तुम खुद भी डरपोक हो और
अपने बच्चों को भी वही विरासत सौंप रहे हो
समझ लो इस बात को कि
डर की कोख में ही ईर्ष्या और क्रूरता का
शैतान जन्म लेता है

रहीम के दोहे:सच्चा मित्र दही की तरह निभाता है


मथत मथत माखन रही, दही मही बिलगाव
रहिमन सोई मीत हैं, भीर परे ठहराय

कविवर रहीम कहते हैं कि जब दही को लगातार माथा जाता है तो उसमें से मक्खन अलग हो जाता है और दही मट्ठे में विलीन होकर मक्खन को अपने ऊपर आश्रय देती है, इसी प्रकार सच्चा मित्र वही होता है जो विपत्ति आने पर भी साथ नहीं छोड़ता।

भावार्थ-सच्चा दोस्त वक्त पर ही परखा जाता है जिस प्रकार दही मट्ठे में परिवर्तित होकर मक्खन को अपने ऊपर आश्रय देती है वैसे ही सच्चा मित्र विपति में अपने मित्र को बचाने के लिए अपना अस्तित्व समाप्त कर देता है।

मनिसिज माली के उपज, कहि रहीम नहिं जाय
फल श्यामा के उर लगे, फूल श्याम उर आय

कविवर रहीम कहते हैं कि कामदेव रुपी माली की पैदावार का शब्दों में बखान नहीं किया जा सकता। राधा के हृदय पर जो फल लगे हुए हैं उसके फूल श्याम के हृदय पर ही उगे हैं।

रहिमन गली है सांकरी, दूजो न ठहराहिं
आपु अहैं तो हरि नहीं, हरि आपुन नाहि

संत शिरोमणि रहीम कहते हैं की प्रेम की गली बहुत पतली होती है उसमें दूसरा व्यक्ति नहीं ठहर सकता, यदि मन में अहंकार है तो भगवान का निवास नहीं होगा और यदि दृदय में ईश्वर का वास है तो अहंकार का अस्तित्व नहीं होगा।

हवा और पानी को शुद्ध नहीं कर सकते


जिन रास्तों पर चलते हुए
कई बरस बीत गये
पता ही नही लगा कि
कैसे उनके रूप बदलते गए
जहाँ कभी छायादार पेड़ हुआ करते थे
वहाँ लहराता है सिगरेट का धुआं
जहाँ रखीं थीं गुम्टियाँ
वहाँ ऊंची इमारतों के
पाँव जमते गए
जहाँ हुआ करता था उद्यान
वहाँ कचरे के ढेर बढ़ते गये
कहते हैं दुनिया में तरक्की हो रही है
सच यह है कि पतन की तरफ
हम कदम-दर कदम बढ़ते गए
हवा में लटकी
खातों में अटकी
गरीब से दूर भटकी
दौलत अगर तरक्की का प्रतीक है तो
सोचना होगा कि हम पढे-लिखे हैं कि
किताब पढ़ने वाले अनपढ़ बन गए
आंकडों के मायाजाल में
कितनी भी तरक्की दिखा लो
हवाओं को तुम ताजा नहीं कर सकते
पानी को साफ नहीं कर सकते
इलाज के लिए कितनी भी दवाएं बना लो
मरे हुए को जिंदा नही कर सकते
आकाश में खडे होकर तरक्की की
सोचने वाले जमीन के दुश्मन बन गए

चाणक्य नीति:मन में पाप हो तो तीर्थ से भी शुद्धि नहीं


१.आंखों से देखभाल का पैर रखें, पानी कपडे से छान कर पीयें. शास्त्रानुसार वाक्य बोलें, मन में सोच कर कार्य करें.
२.दान, शक्ति, मीठा बोलना, धीरता और सम्यक ज्ञान यह चार प्रकार के गुण जन्म जात होते हैं, यह अभ्यास से नहीं आते.
३.जिसकी मन में पाप हैं, वह सौ बार तीर्थ स्नान करने के बाद भी पवित्र नहीं हो सकता, जिस प्रकार मदिरा का पात्र जलाने पर भी शुद्ध नहीं होता.
४.जो वर्ष भर मौन रहकर भोजन करता है, वह हजार कोटी वर्ष तक स्वर्ग लोक में पूजित होता है.
५.पीछे-पीछे बुराई कर काम बिगाड़ने वाले और सामने मधुर बोलने वाले मित्र को अवश्य छोड़ देना चाहिए.
६.कुमित्र पर कदापि विश्वास न करें क्योंकि वह आपकी कभी भी आपकी पोल खोल सकता है.
७.अपने शास्त्रों के किसी एक श्लोक अथवा उस में से भी आधे का प्रतिदिन करना चाहिए. इससे अपने मन और विचार की शुद्ध होती है.

नोट-थक रहे ब्लोगर योग साधना शुरू करें-यह लेखा यहाँ अवश्य पढें

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भ्रम का जाल


सामने कुछ कहैं
पीठ पीछे कुछ और
ऐसे लोगों की बातों पर क्या करें गौर
बात काम करें मचाएँ ज्यादा शोर
बोले और पीछे पछ्ताएं
जैसे नाचने के बाद रोए मोर
जिनके मन में नही सदभाव
उनकी वाणी में होता है कटुता का भाव
अपनी पीठ आप थपथपापाएं
अपने दिल का मैल छिपाएं
क्या पायेंगे ऐसे लोगों को बनाकर सिरमौर
उनकी भीड़ में शामिल होने से बेहतर है
अकेले में समय गुजारें
उनके झुंड में रहने से अच्छा है
भले लोगों का तलाश करें ठौर
—————————————

सुबह से शाम तक
पसीन बहाते हुए लोग
बड़ी मुश्किल से रोटी जुटा पाते
फिर भी समाज में तिरस्कार पाते
जिन्हें मिली है दौलत की गाडी
वह फिर भी गरीब से इतना खौफ खाते कि
जिन्हें खुद न माने
उसी जाति,भाषा, और धर्म के नाम पर
भ्रम का जाल बुनकर उसे फंसाते

चाणक्य नीति:जिस देश में मूर्खों का सम्मान नहीं होता वहाँ समृद्धि आती है


१.जिस देश में मूर्खों का सम्मान नहीं होता, अन्न संचित रहता है तथा पति-पत्नी में झगडा नहीं होता वहाँ लक्ष्मी बिना बुलाए निवास करती है.
अभिप्राय-इस कथन का आशय यह है की यदि किसी देश में सुख और समृद्धि आयेगी तो गुणवानों के समान से आयेगी.इसके अलावा जहाँ खाद्यान के भण्डार एवं परिवारों में शांति होती है वही खुशहाली होती है.

2.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही वाचों द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।
३.समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं। मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बुद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।
4.जो बात बीत गयी उसका सोच नहीं करना चाहिए। समझदार लोग भविष्य की भी चिंता नहीं करते और केवल वर्तमान पर ही विचार करते हैं।हृदय में प्रीति रखने वाले लोगों को ही दुःख झेलने पड़ते हैं। प्रीति सुख का कारण है तो भय का भी। अतएव प्रीति में चालाकी रखने वाले लोग ही सुखी होते है.
५. व्यक्ति आने वाले संकट का सामना करने के लिए पहले से ही तैयारी कर रहे होते हैं वह उसके आने पर तत्काल उसका उपाय खोज लेते हैं। जो यह सोचता है कि भाग्य में लिखा है वही होगा वह जल्द खत्म हो जाता है। मन को विषय में लगाना बंधन है और विषयों से मन को हटाना मुक्ति है.

पहले अपनी नीयत बताओ


कहते हैं रामजी के होने के
भौतिक सबूत हमारे सामने लाओ
नहीं ला सकते तो उन्हें भूल जाओ
राम जी की माया अपरम्पार
जिस पर माया का भूत चढा दें
अपना नाम भी भुलवा दें
सोने के सिंहासन पर बैठते ही
भगवान् की तरह पूजने की चाह
उन्हें अंधा बना देती है
रामजी का नाम रहते यह संभव नहीं
अमीर तो क्या गरीब के मन भी
उनका नाम बसता है कहीं न कहीं
दिलों के नाम मिटाने के लिए
वह कहते है
उनके होने का सबूत लाओ

राम के नाम का उनको कितना खौफ है
गरीबी, शोषण और बीमारी के दवा के लिए
लोगों को इधर उधर भटकाते हैं
राम की प्रस्तर की प्रतिमा को
पूजने से मना करने वाले ही
मुर्दों के नाम पर पत्थर लगाकर
उस पर माला चढाते हैं
कहीं अपना काम न बने तो
पत्थर लगवाने के लिए
जिंदा इंसान को ही मुर्दा बनाते हैं
राम का नाम फिर भी लेते हैं
यह कहने के लिए उसे भूल जाओ

रामभक्त भी सबूत जुटा लेंगे
अपने भक्तों के लिए रामजी भी
अपनी कृपा उन पर लुटा देंगे
पर सवाल करने वाले भी
इसके पीछे जो उनके दिल की नीयत है
क्या वह अपनी हथेली पर रखकर दिखा देंगे
कर सकते हैं तभी कहें कि
‘राम जी के होने के सबूत लाओ’
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चाणक्य नीति:परिवार का सुख उसके स्वरूप पर निर्भर


१.सुखद गृहस्थी और परिवार की सुख समृद्धि इस बात पर निर्भर करती है की परिवार का स्वरूप कैसा है. जहाँ परिवार के सदस्य एक दूसरे के मनोभावों को समझते और सम्मान करे हैं वहीं शांति रह पाती है और शांति से ही सुख समृद्धि आती है.
2. यह मनुष्य का स्वभाव है की यदि वह दूसरे के गुण और श्रेष्ठता को नहीं जानता तो वह हमेशा उसकी निंदा करता रहता है. इस बात से ज़रा भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

उदाहरण- यदि किसी भीलनी को गजमुक्ता (हाथी के कपाल में पाया जाने वाला काले रंग का मूल्यवान मोती) मिल जाये तो उसका मूल्य न जानने के कारण वह उसे साधारण मानकर माला में पिरो देती है और गले में पहनती है.

3.बसंत ऋतू में फलने वाले आम्रमंजरी के स्वाद से प्राणी को पुलकित करने वाले कोयल की वाणी जब तक मधु और कर्ण प्रिय नहीं हो जाती तबतक मौन रहकर ही अपना जीवन व्यतीत करती है.
इसका आशय यह है हर मनुष्य को किसी भी कार्य को करने के लिए उचित समय की प्रतीक्षा करना चाहिए अन्यथा असफलता का भय बना रहता है.
4.राजा , अग्नि, गुरु और स्त्री इन चारों से न अधिक दूर रहना चाहिऐ न अधिक पास अर्थात इनकी अत्यधिक समीपता विनाश का कारण बनती है और इनसे दूर रहने पर भी कोई लाभ नहीं होता. अत: विनाश से बचने के लिए बीच का रास्ता अपनाना चाहिऐ.
५.अधिक लाड प्यार बच्चे में में दोष उत्पन्न करता है और प्रताड़ना से ही उसमें सुधार आता है.

चाणक्य नीति: इस कड़वे संसार में दो मीठे फल भी लगते हैं


१.इस संसार की तुलना एक कड़वे वृक्ष से की जाती है जिस पर पर अमृत के समान दो फल भी लगेते हैं-मधुर वचन और सद्पुरुषों की संगति. ये दोनों अत्यंत गुणकारी होते हैं. इन्हें खाकर आदमी अपने जीवन को सुखद बना सकता है. अत हर मनुष्य को मधुर वचन और सत्संग का फल ग्रहण करना चाहिए

2.जिसके कार्य में स्थिरता नहीं है, वह समाज में सुख नहीं पाता न ही उसे जंगल में सुख मिलता है. समाज के बीच वह परेशान रहता है और किसी का साथ पाने के लिए तरस जाता है.
3.गंदे पड़ोस में रहना, नीच कुल की सेवा, खराब भोजन करना, और मूर्ख पुत्र बिना आग के ही जला देते हैं.
4.कांसे का बर्तन राख से, तांबे का बर्तन इमले से,स्त्री रजस्वला कृत्य से और नदी पानी की तेज धारा से पवित्र होती है.
5.मनुष्य में अंधापन कई प्रकार का होता है. एक तो जन्म के अंधे होते हैं और आंखों से बिलकुल नहीं देख पाते और कुछ आँख के रहते हुए भी हो जाते हैं जिनकी अक्ल को कुछ सूझता नहीं है.
6.काम वासना के अंधे के कुछ नहीं सूझता और मदौन्मत को भी कुछ नहीं सूझता. लोभी भी अपने दोष के कारण वस्तु में दोष नहीं देख पाता. कामांध और मदांध इसी श्रेणी में आते हैं.
7.कुछ लोगों की प्रवृतियों को ध्यान में रखते हुए उनको वश में किया जा सकता है, और उनको वश में किया जा सकता है, लोभी को धन से, अहंकारी को हाथ जोड़कर, मूर्ख को मनमानी करने देने से और सत्य बोलकर विद्वान को खुश किया जा सकता है.

चाणक्य नीति:धर्म का नियम ही शाश्वत


१.शास्त्रों की संख्या अनन्त, ज्योतिष,आयुर्वेद तथा धनुर्वेद की विद्याओं की भी गणना भी नहीं की जा सकती है, इसके विपरीत मनुष्य का जीवन अल्प है और उस अल्पकाल के जीवन में रोग,शोक, कष्ट आदि अनेक प्रकार की बाधाएं उपस्थित होती रहती हैं। इस स्थिति में मनुष्य को शास्त्रों का सार ग्रहण करना चाहिए।

२.मन की शुद्ध भावना से यदि लकड़ी, पत्थर या किसी धातु से बनी मूर्ति की पूजा की जायेगी तो सब में व्याप्त परमात्मा वहां भी भक्त पर प्रसन्न होंगें। अगर भावना है तो जड़ वस्तु में भी भगवान का निवास होता है । इस क्षण-भंगुर संसार में धन-वैभव का आना-जाना सदैव लगा रहेगा। लक्ष्मी चंचल स्वभाव की है। घर-परिवार भी नश्वर है। बाल्यकाल, युवावस्था और बुढ़ापा भी आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी मनुष्य उन्हें सदा ही उन्हें अपने बन्धन में नहीं बाँध सकता। इस अस्थिर संसार में केवल धर्म ही अपना है। धर्म का नियम ही शाश्वत है और उसकी रक्षा करना ही सच्चा कर्तव्य है।सच्ची भावना से कोई भी कल्याणकारी काम किया जाये तो परमात्मा की कृपा से उसमें अवश्य सफलता मिलेगी। मनुष्य की भावना ही प्रतिमा को भगवान बनाती है। भावना का अभाव प्रतिमा को भी जड़ बना देता है।
३.जिस प्रकार सोने की चार विधियों-घिसना, काटना, तपाना तथा पीटने-से जांच की जाती है, उसी प्रकार मनुष्य की श्रेष्ठता की जांच भी चार विधियों-त्यागवृति, शील, गुण तथा सतकर्मो -से की जाती है।

४.अज्ञानी व्यक्ति को कोई भी बात समझायी जा सकती है क्योंकि उसे किसी बात का ज्ञान तो है नहीं। अत: उसे जो कुछ समझाया जाएगा वह समझ सकता है, ज्ञानी को तो कोई बात बिल्कुल सही तौर पर समझायी जा सकते है। परन्तु अल्पज्ञानी को कोई भी बात नही समझायी क्योंकि अल्पज्ञान के रुप में अधकचरे ज्ञान का समावेश होता है जो किसी भी बात को उसके मस्तिष्क तक पहुंचने ही नहीं देता।

*संकलनकर्ता का मत है कि अल्पज्ञानी को अपने ज्ञान का अहंकार हो जाता है इसलिये वह कुछ सीखना ही नहीं चाहता, वह केवल अपने प्रदर्शन में ही लगा रहता है।
नोट-रहीम, चाणक्य, कबीर और कौटिल्य की त्वरित पोस्टें नारद और ब्लोगवाणी पर अभी उपलब्ध हैं, अत: वहाँ देखने का प्रयास करें.

चाणक्य नीति:आलस्य मनुष्य का स्वाभाविक दुर्गुण


1.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही वाचों द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।
2.समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं। मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।
3.ऐसा धन जो अत्यंत पीडा, धर्म त्यागने और बैरियों के शरण में जाने से मिलता है, वह स्वीकार नहीं करना चाहिए। धर्म, धन, अन्न, गुरू का वचन, औषधि हमेशा संग्रहित रखना चाहिए, जो इनको भलीभांति सहेज कर रखता है वह हेमेशा सुखी रहता है।बिना पढी पुस्तक की विद्या और अपना कमाया धन दूसरों के हाथ में देने से समय पर न विद्या काम आती है न धनं.

4.जो बात बीत गयी उसका सोच नहीं करना चाहिए। समझदार लोग भविष्य की भी चिंता नहीं करते और केवल वर्तमान पर ही विचार करते हैं।हृदय में प्रीति रखने वाले लोगों को ही दुःख झेलने पड़ते हैं। प्रीति सुख का कारण है तो भय का भी। अतएव प्रीति में चालाकी रखने वाले लोग ही सुखी होते हैंजो व्यक्ति आने वाले संकट का सामना करने के लिए पहले से ही तैयारी कर रहे होते हैं वह उसके आने पर तत्काल उसका उपाय खोज लेते हैं। जो यह सोचता है कि भाग्य में लिखा है वही होगा वह जल्द खत्म हो जाता है। मन को विषय में लगाना बंधन है और विषयों से मन को हटाना मुक्ति है.
5.आलस्य मनुष्य के स्वभाव का बहुत बड़ा दुर्गुण है। आलस्य के कारण प्राप्त की गयी विद्या भी नष्ट हो जाती है दुसरे के हाथ में गया धन कभी वापस नहीं आता।बीज अच्छा न हो तो फसल भी अच्छी नहीं होती और थोडा बीज डालने से भी खेत उजड़ जाते हैंसेनापति कुशल न हो तो सेना भी नष्ट हो जाती है। शील के संरक्षण में कुल का नाम उज्जवल होता है।
6.बुरे राजा के राज में भला जनता कैसे सुखी रह सकती है। बुरे मित्र से भला क्या सुख मिल सकता है। वह और भी गले की फांसी सिद्ध हो सकता है। बुरी स्त्री से भला घर में सुख शांति और प्रेम का भाव कैसे हो सकता है। बुरे शिष्य को गुरू लाख पढाये पर ऐसे शिष्य पर किसी भी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ सकता है।

विकास यानि वाहनों की चौडाई बढना सड़क की कम होना


बहुत समय से देश के विकास होने के प्रचार का मैं टीवी चैनलों और अख़बारों में सुनता आ रहा हूँ. तमाम तरह के आंकडे भी दिए जाते हैं पर जब मैं रास्तों से उन रास्तों से गुजरता हूँ-जहाँ चलते हुए वर्षों हो गयी है-तो उनकी हालत देखकर यह ख्याल आता है कि आखिर वह विकास हुआ कहाँ है. अगर इसे विकास कहते हैं तो वह इंसान के लिए बहुत तकलीफ देह होने वाला है.

पेट्रोल, धुएं और रेत से पटे पड़े रास्ते राहगीरों की साँसों में जो विष घोल रहे हैं उससे अनेक बार तो सांस बंद करना पड़ती हैं कि यह थोडा आगे चलकर यह विष भरा धुआं और गंध कम हो तो फिर लें. टेलीफोन, जल और सीवर की लाईने डालने और उनको सुधारने के लिए खुदाई हो जाती है पर सड़क को पहले वाली शक्ल-जो पहले भी कम बुरी नहीं थी-फिर वैसी नहीं हो पाती. अपने टीवी चैनल और अखबार चीन के विकास की खबरें दिखाते हुए चमचमाती सड़कें और ऊंची-ऊंची गगनचुंबी इमारतें दिखा कर यह बताते हैं कि हम उससे बहुत पीछे हैं-पर यह मानते हैं कि अपने देश में विकास हो रहा है पर धीमी गति से. मैं जब वास्तविक धरातल पह देखता हूँ तो पानी और पैसे के लिए देश का बहुत बड़ा वर्ग अब भी जूझ रहा है. कमबख्त विकास कहीं तो नजर आये.

आज एक अखबार में पढ़ रहा था कि भारत में पुरुषों से मोबाइल अधिक महिलाओं के पास बहुत हैं. मोबाइल से औरतें अधिक लाभप्रद स्थिति में दिखतीं हैं क्योंकि अब किसी से बात करना है तो उसके घर जाने की जरूरत ही नहीं है मोबाइल पर ही बात कर ली, पर पुरुषों की समस्या यह है कि उनको अपने कार्यस्थल तक घर से सड़क मार्ग से ही जाना है और उनके लिए यह रास्ते कोई सरल नहीं रहे. साथ में मोबाइल लेकर उनके लिए चलना वैसे भी ठीक नहीं है. रास्ते में मोबाइल की घंटी मस्तिष्क में कितनी बाधा पहुचाती है यह मैं जानता हूँ. उस दिन बीच सड़क पर स्कूटर पर घंटी बजी और मेरे इर्द-गिर्द वाहनों की गति बहुत तेज थी कि एक तरफ रूकने के लिए मुझे समय लग गया. जब एक तरफ रुका तो जेब से मोबाइल निकाला तो देखा कि ‘विज्ञापन’ था. उस समय झल्लाहट हुई पर मैं क्या कर सकता था? फिर मैंने स्कूटर भी सड़क से ढलान से उतरकर ऐसी जगह रोका था जहाँ सड़क पर लाने के लिए शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन करना पडा.

आपने देखा होगा कि जो आंकडे विकास के रूप में दिए जाते हैं उनमें देशों में मोबाइल, कंप्यूटर और टीवी के उपभोक्ता की संख्या शामिल रहती है. अब विकास का अर्थ प्रति व्यक्ति की आय-व्यय की जगह धन की बर्बादी से है. यह नहीं देखते कि उनका उपयोग क्या है? मैं तो आज तक समझ नहीं पाया कि लोग मोबाइल पर इतनी लंबी बात करते क्या हैं. फालतू, एकदम फालतू? फिर तमाम ऍफ़ एम् रेडियो, और टीवी पर ऐसे सवाल करते है ( उस पर एस.एम्.एस करने के लिए कहा जाता है) जो एक दम साधारण होते हैं. लोग जानते हैं कि यह सब उनका धन खींचने के लिए किया जा रहा है पर अपने को रोक नहीं पाते क्योंकि उन्हें क्षेत्र, धर्म, और भाषा के नाम पर बौद्धिक रूप से गुलाम बना दिया गया है कि वह उससे मुक्त नहीं हो पाता.

अगर मुझसे पूछें तो विकास का मतलब है कि वाहनों की चौडाई बढना और सड़क की कम होना. जब भी कहीं जाम में फंसता हूँ तो मुझे नहीं लगता कि वह लोगों और उनके वाहनों की संख्या की वजह से है. दो सौ मीटर के दायरे में सौ लोग और पच्चीस वाहन भी नहीं होंगे पर जाम फिर भी लग जाता है. वहाँ कारें, ट्रेक्टर और मोटर साइकलों पर एक-एक व्यक्ति सवार हैं पर सड़क तंग है तो रास्ता जाम हो जाता है. सड़कें भी जो पहले चौड़ी थी वहाँ इस तरह निर्माण किये गए हैं कि पता नहीं कि कब यह हो गए. जहाँ पहले पेड़ थे वहाँ गुमटियाँ, ठेले और कहीं पक्के निर्माण हो गए हैं और सड़क छोटी हो गयी और वाहन जहाँ साइकिल और स्कूटर थे वहाँ आजकल कारों का झुंड हो गया है. यह विकास और उत्थान है तो फिर विनाश और पतन किसे कहते हैं यह मेरे लिए अभी भी एक पहेली है.

चाणक्य नीति:जहाँ धनी, ज्ञानी और निपुण राजा न हो वह स्थान छोड़ दें


1.किसी भी व्यक्ति का जहाँ सम्मान न हो उसे त्याग देना चाहिए. क्योंकि बिना सम्मान के मनुष्य जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं है.
2.किसी भी व्यक्ति को वह स्थान भी त्याग देना चाहिए जहाँ आजीविका न हो क्योंकि आजीविका रहित मनुष्य समाज में किसी सम्मान के योग्य नहीं रह जाता.

3.इसी प्रकार वह देश और क्षेत्र भी त्याज्य है जहाः अपने मित्र व संबंधी न रहते हों क्योंकि इनके अभाव में व्यक्ति कभी भी असहाय हो सकता है.
4.वेद के ज्ञान की गहराई न समझकर वैद की निंदा करने वाले वेद की महानता कम नहीं कर सकते.शास्त्र निहित आचार-व्यवहार को व्यर्थ बताने वाले अल्प ज्ञानी उसकी विषय सामग्री की उपयोगिता को नष्ट नहीं कर सकते

5.जिस स्थान पर धनी-व्यापारी, ज्ञानीजन, शासन व्यवस्था में निपुण राजा, सिंचाई अथवा जल आपूर्ति की व्यवस्था न हो उस स्थान का भी त्याग कर देना चाहिऐ. क्योंकि धनि से श्री वृद्धि ज्ञानी से विवेक , निपुण राजा से मनुष्य की सुरक्षा और जल से जीवन के रक्षा होती है.

6.शास्त्रों की संख्या अनन्त, ज्योतिष,आयुर्वेद तथा धनुर्वेद की विद्याओं की भी गणना भी नहीं की जा सकती है, इसके विपरीत मनुष्य का जीवन अल्प है और उस अल्पकाल के जीवन में रोग,शोक, कष्ट आदि अनेक प्रकार की बाधाएं उपस्थित होती रहती हैं। इस स्थिति में मनुष्य को शास्त्रों का सार ग्रहण करना चाहिए।

रूस और भारत की मैत्री में अब वह बात नहीं रही


भारत के नौसेनाध्यक्ष एडमिरल मेहता ने रक्षा सौदों मैं रूस की और से निरंतर बढ़ते विलंब और लागत से परेशान होकर कहा है कि रूस को अब भारत से संबंध पर पुनर्विचार करना चाहिए. अखबार मैं प्रकाशित समाचार के अनुसार नौसेना दिवस की पूर्व संध्या पर उन्होने कहा कि रूस वैसा नहीं रहा जैसा वह सोवियत संघ के विघटन से पहले था.

अगर हम पिछले कुछ वर्षों का घटनाक्रम देखें तो रूस के साथ जब हम अपने संबंधों पर विचार करते हैं तो हमारी स्मृति में सोवियत संघ के साथ भारत की तथाकथित मैत्री थी वही बनी रहती है. वास्तव में अब वह पहले वाले बात नहीं रही. वैसे जब उसके साथ भारत की घनिष्ठ मैत्री की बात होती थी तब भी भारत में विद्वानों का एक बहुत बड़ा वर्ग उसे अपना निस्वार्थी मित्र मानने से इन्कार कर देता था. रूस की मैत्री के रूप में सबसे बडा प्रमाण १९७१ में पाकिस्तान के साथ युद्ध में जब अमेरिका ने भारत के खिलाफ सातवाँ बेडा भेजने की धमकी दी तब रूस ने भी कार्यवाही की धमकी दी और अमेरिका इससे डर गया था.

इसके बारे में विद्वान लोग अपना अलग मत ही व्यक्त करते हैं. उनका कहना है कि उस समय अमेरिका इतना प्रबल नहीं था कि वह भारत से लंबी लड़ाई लड़ता. उस समय से पहले और अभी तक अमेरिका किसी दूसरे देश की तरफ से अकेले लड़ने नहीं गया और जब गया तो उसने मुहँ की खाई है. उसने किसी देश पर हमला किया है तो अपने हितों की खातिर उसे कमजोर जानते हुए और वह भी ब्रिटेन और फ्रांस जैसे अन्य ताक़तवर देशों को साथ लेकर किया है. उस समय अन्य पश्चिमी देशों का रवैया भारत के पक्ष में नहीं था तो केवल सोवियत संघ से मैत्री के कारण वह इस हद तक नहीं था कि वह अमेरिका की तरफ से लड़ने आते . कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि यह धमकी तब आयी थी जब युद्ध करीब-करीब समाप्ति की तरफ था. अगर उस दौर को छोड़ दिया जाये तो अमेरिका से भारत का कभी सीधा टकराव नहीं हुआ, और यही कारण है कि आज भी उसे मैत्री की वकालत करने वालों की संख्या अधिक है. भारत में वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्रों में अमेरिकी योगदान को काम कर आंकना सरल नहीं है.

पिछले दिनों से अमेरिका से भारत की बढ़ती मैत्री से रूस नाखुश है पर इस देश में यह सवाल उठाने वाले कई लोग हैं कि भारत को क्रायोजनिक इंजन अमेरिकी दबाव में न बेचने वाला रूस क्या भारत से ऐसा व्यवहार कर सकता है? जब भारत ने परमाणु विस्फोट किये तो अमेरिका ने भारत पर जो प्रतिबन्ध लगाए क्या रूस ने उनमें से किसी का उल्लंघन कर भारत की मदद की. रूस अब भारत से ऐसी अपेक्षाएं कर रहा है जिन पर वह खुद खरा नहीं उतरा. वह मदद की बात करता है पर १९६५ में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री शास्त्री जी को बुलाकर जो पाकिस्तान से समझौता करवाया उससे भारत को क्या मिला था? कहते हैं कि उन्होने अपनी इच्छा के विपरीत रूस के दबाव में समझौता किया था और वही पीडा वह झेल नहीं पाए और दिल के दौरे से निधन हो गया. इन बातों में कितनी सच्चाई है यह कोई नहीं जानता कुल मिलाकर कई राजनीतिक विशेषज्ञ रूस के निस्वार्थ मित्रता को एक ढोंग मानते है.

आथिक विशेषज्ञों ने तो कभी भी सोवियत संघ को भारत के लिए कभी उपयोगी नहीं माना. कहा जाता है जब उसके और भारत के रिश्ते बहुत अच्छे थे तब भी उसने भारतीय मुद्रा रूपये का कभी अंतर्राष्ट्रीय मूल्य स्वीकार न करते हुए अपने द्वारा तय मूल्य दिया. उसकी मुद्रा कभी भी विश्व में सम्मान नहीं पा सकी पर भारत ने उसका मूल्य अधिक दिया. कुल मिलाकर उसने मित्रता का दोहन किया और उसके लिए अमेरिका भी काम जिम्मेदार नहीं है क्योंकि जिस समय संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद का थोडा बहुत सम्मान था तब उसके स्थायी सदस्यों में रूस ही था जिससे भारत किसी मसले पर अपने साथ खडे होने का विश्वास कर सकता था, और परमाणु विस्फोट करते समय भारत ने उसकी परवाह भी छोड़ दी और आखिर अपनी आर्थिक और राजनितिक ताकत से अमेरिका को प्रतिबन्ध हटाने के लिए मजबूर कर दिया. भारत के कई लोग अभी रूस को सम्मान करते हैं पर उसका रवैया इस तरह रहा तो उसका यहाँ रहा सहा सम्मान भी समाप्त हो जायेगा.

भारत की सेना ने अभी तक अपनी लड़ाई खुद जीतीं है और सोवियत संघ ने भारत से सलाह मशविरा किये बिना अफगानिस्तान में दखल दिया जो उसके साम्राज्य के अंत का कारण बना और उससे भारत को भी बहुत परेशानी हुई. अगर उसने भारत का साथ दिया तो भारत ने उसकी कीमत भी चुकाई है इसलिए वह अगर बराबरी के आधार पर ही संबंध रखकर वह आगे चल सकता है.

चाणक्य नीति:जहाँ यज्ञ-हवन न हो वह घर मुर्दाघर समान


१.इस संसार में कुछ प्राणियों के किसी विशेष अंग में विष होता है-जैसे सर्प के दांतों में मक्खी के मस्तिष्क में और बिच्छू की पुँछ में-पर इन सबसे अलग दुर्जन और कपटी मनुष्य के हर अंग में विष होता है. उसके मन में विद्वेष,वाणी में कटुता और कर्म में नीचता का व्यवहार जहर बुझे तीर की तरह दूसरे को त्रास देते हैं.

२.किसी भी व्यक्ति को वह स्थान भी त्याग देना चाहिए जहाँ आजीविका न हो क्योंकि आजीविका रहित मनुष्य समाज में किसी सम्मान के योग्य नहीं रह जाता.

३.हर मनुष्य को सभी विधाओं में निपुण होना चाहिऐ. बडे लोगों से विनम्रता, विद्वानों से श्रेष्ठ और मधुर ढंग से वार्तालाप का तरीक सीखना चाहिए. जुआरियों से झूठ बोलना और कुशल स्त्रियों से चालाकी का गुण सीखना चाहिए.
४.मनुष्य को ऐसे कर्म करना जिससे उसकी कीर्ति सब और फैले. विद्या, दान, तपस्या, सत्य भाषण और धनोपार्जन के उचित तरीकों से कीर्ति दसों दिशाओं में फैलती है.

५.अपना जीवन शांतिपूर्वक बिताने के लिए हर मनुष्य को धर्म-कर्म का अनुष्ठान करते रहना चाहिऐ. वह घर मुर्दाघर के समान हैं जहाँ धर्म-कर्म या यज्ञ-हवन नहीं होता. जहाँ वेद शास्त्रों का उच्चारण नहीं होता, विद्वानों का सम्मान नहीं होता और यज्ञ-हवन से देवताओं का पूजन नहीं होता ऐसे घर, घर न रहकर शमशान के समान होता है.

मनुस्मृति:सभी के निद्रा मी चले जाने पर दंड ही जाग्रत रहता है


1.देश, काल, विद्या एवं अन्यास में लिप्त अपराधियों की शक्ति को देखते हुए राज्य को उन्हें उचित दण्ड देना चाहिए। सच तो यह है कि राज्य का दण्ड ही राष्ट्र में अनुशासन बनाए रखने में सहायक तथा सभी वर्गों के धर्म-पालन कि सुविधाओं की व्यवस्था करने वाला मध्यस्थ होता है।
2.सारी प्रजा के रक्षा और उस पर शासन दण्ड ही करता है, सबके निद्रा में चले जाने पर दण्ड ही जाग्रत रहता है। भली-भांति विचार कर दिए गए दण्ड के उपयोग से प्रजा प्रसन्न होती है। इसके विपरीत बिना विचार कर दिए गए अनुचित दण्ड से राज्य की प्रतिष्ठा तथा यश का नाश हो जाता है।
3.यदि अपराधियों को सजा देने में राज्य सदैव सावधानी से काम नहीं लेता, तो शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर लोंगों को उसी प्रकार नष्ट कर देते हैं, जैसे बड़ी मछ्ली छोटी मछ्ली को खा जाती है। संसार के सभी स्थावर-जंगम जीव राजा के दण्ड के भय से अपने-अपने कर्तव्य का पालने करते और अपने-अपने भोग को भोगने में समर्थ होते हैं ।

*अक्सर एक बात कही जाती है की हमारे देश को अंग्रेजों ने सभ्यता से रहना सिखाया और इस समय जो हम अपने देश को सुद्दढ और विशाल राष्ट्र के रूप में देख रहे हैं तो यह उनकी देन है. पर हम अपने प्राचीन मनीषियों की सोच को देखे तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि वह राज्य, राजनीति और प्रशासनिक कार्यप्रणाली से अच्छी तरह वाकिफ थे, मनु स्मृति में राजकाज से संबंधित विषय सामग्री होना इस बात का प्रमाण है. एक व्यसनी राजा और उसके सहायक राष्ट्र को तबाह कर देते हैं. अगर राजदंड प्रभावी नहीं या उसमें पक्षपात होता है तो जनता का विश्वास उसमें से उठ जाता है. यह बात मनु स्मृति में कही गयी है.

चीखकर करना पङता है इजहार


चारों और मचती चीख पुकार
कोई खुशी में चिल्ला रहा है
कोई तकलीफ में कर रहा है चीत्कार
सुखों की खोज में बढ़ता आदमी
दुख जुटा रहा है
अपना चैन गँवा रहा है
दिल का दर्द इतना बढ जाता है
चिल्ला कर ही हो पाता है इजहार
कानों से किसी का दर्द
सुनने की आदत भी कहाँ रही
किसी को सुनाना है तो
इतनी शक्ति लगानी जरूरी हैं
की कान के के खुलें द्वार
इसलिए ही मची है
चारों और मची है चीख पुकार

संत कबीर वाणी:जादू-टोना व्यर्थ है


जो कोय निन्दै साधू को, संकट आवै सोय
नरक जाय जन्मै मरै, मुक्ति कबहु नहिं होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो भी साधू और संतजनों की निंदा करता है, उसके अनुसार अवश्य ही संकट आता है। वह निम्न कोटि का व्यक्ति नरक-योनि के अनेक दु:खों को भोगता हुआ जन्मता और मरता रहता है। उसके मुक्ति कभी भी नहीं हो सकती और वह हमेशा आवागमन के चक्कर में फंसा रहेगा।

बोलै बोल विचारि के, बैठे ठौर संभारि
कहैं कबीर ता दास को, कबहु न आवै हारि

इसका आशय यह है कि जो आदमी वाणी के महत्त्व को जानता है,, समय देखकर उसके अनुसार सोच और विचार कर बोलता है और अपने लिए उचित स्थान देखकर बैठता है वह कभी भी कहीं भी पराजित नहीं हो सकता।

जंत्र मन्त्र सब झूठ है, मति भरमो जग कोय
सार शब्द जाने बिना, कागा हंस न होय

संत शिरोमणि कबीरदास जीं का यह आशय है कि यन्त्र-मन्त्र एवं टोना-टोटका आदि सब मिथ्या हैं। इनके भ्रम में मत कभी मत आओ। परम सत्य के ठोस शब्द-ज्ञान के बिना, कौवा कभी भी हंस नहीं हो सकता अर्थात दुर्गुनी-अज्ञानी लोग कभी सदगुनी और ज्ञानवान नही हो सकते

सच किसे समझाएं


सदियों से चले आ रही
लोगों के समूहों की परिभाषाएँ
बाहर से मजबूत किले की तरह लगते
अन्दर रिवाजों में एक दूसरे को ठगते
बाहर से आदर्श लगते
पर एक शब्द से हिलते नजर आएं
वक्त देखें तो पहचान छिपाएं
फायदा देखें सीना तानकर सामने आयें
सभ्य समाज हो रहा है दिशाहीन
अक्षरज्ञान जितना बढ़ता जा रहा है
अक्षरों से बने शब्दार्थ पर हो रही है जंग
लोगों के दिमाग हो रहे हैं तंग
अभिव्यक्ति का मतलब चिल्लाना हो गया है
ऐसे में सच किसे समझाएं
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रहीम के दोहे:अति कदापि न कीजिए


रहिमन अति न कीजिए, गहि रहिये निज कानि
सैजन अति फूले तऊ, दार पात की हानि

अर्थ-कवि रहीम कहते हैं कि किसी चीज की भी अति कदापि न कीजिए, हमेशा अपनी मर्यादा को पकडे रही. जैसे सहिजन वृक्ष के अत्यधिक विकसित होने से उसकी शाखाओं और पत्तों को हानि होती है और वह झड़ जाते हैं.

रन, बन, व्याधि, विपत्ति में रहिमन मरै न रोय
जो रच्छक जननी जठर, सौ हरि गए कि सोय

अर्थ-कवि रहीम कहते हैं कि रणक्षेत्र में, वन में, बीमारी में और आपति आने पर जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है उसके रोना नहीं चाहिए, जो माता के गर्भ का रक्षक है वह परमात्मा कभी सोता नहीं है.

अभिप्राय- जो ईश्वर जन्म देता है वही मृत्यु भी. ईश्वर की मर्जी होती हैं तो जन्म होता है और उसकी मर्जी होती है तभी वह किसी जीव को अपने पास बुला लेता है. जिसके उसके द्वारा प्रदत्त आयु पूर्ण नहीं हुई है उसे मृत्यं भी नहीं मार सकती.

जमीन की जिन्दगी की हकीकत


ख्वाहिशें तो जिंदगी में बहुत होतीं हैं
पर सभी नहीं होतीं पूरी
जो होतीं भी हैं तो अधूरी
पर कोई इसलिए जिन्दगी में ठहर नहीं जाता
कहीं रौशनी होती है पर
जहाँ होता हैं अँधेरा
वीरान कभी शहर नहीं हो जाता
कोई रोता है कोई हंसता है
करते सभी जिन्दगी पूरी

सपने तो जागते हुए भी
लोग बहुत देखते हैं
उनके पूरे न होने पर
अपने ही मन को सताते हैं
जो पूरे न हो सकें ऐसे सपने देखकर
पूरा न होने पर बेबसी जताते हैं
अपनी नाकामी की हवा से
अपने ही दिल के चिराग बुझाते हैं
खौफ का माहौल चारों और बनाकर
आदमी ढूंढते हैं चैन
पर वह कैसे मिल सकता है
जब उसकी चाहत भी होती आधी-अधूरी
फिर भी वह जिंदा दिल होते हैं लोग
जो जिन्दगी की जंग में
चलते जाते है
क्या खोया-पाया इससे नहीं रखते वास्ता
अपने दिल के चिराग खुद ही जलाते हैं
तय करते हैं मस्ती से मंजिल की दूरी

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ख्वाहिशें वही पूरी हो पातीं हैं
जो हकीकत की जमीन पर टिक पातीं हैं
कोई ऐसे पंख नहीं बने जो
आदमी के अरमानों को आसमान में
उडा कर सैर कराएँ
जमीन की जिन्दगी की हकीकतें
जमीन से ही जुड़कर जिंदा रह पाती हैं

कौटिल्य का अर्थशास्त्र: कायर की संगति भी बुरी


  • 1. दूर्भिक्ष और आपत्तिग्रस्त स्वयं ही नष्ट होता है और सेना का व्यसन को प्राप्त हुआ राज प्रमुख युद्ध की शक्ति नहीं रखता।
    2. विदेश में स्थित राज प्रमुख छोटे शत्रु से भी परास्त हो जाता है। थोड़े जल में स्थित ग्राह हाथी को खींचकर चला जाता है।
    3. बहुत शत्रुओं से भयभीत हुआ राजा गिद्धों के मध्य में कबूतर के समान जिस मार्ग में गमन करता है, उसी में वह शीघ्र नष्ट हो जाता है।
    4.सत्य धर्म से रहित व्यक्ति के साथ कभी संधि न करें। दुष्ट व्यक्ति संधि करने पर भी अपनी प्रवृति के कारण हमला करता ही है।
    5.डरपोक युद्ध के त्याग से स्वयं ही नष्ट होता है। वीर पुरुष भी कायर पुरुषों के साथ हौं तो संग्राम में वह भी उनके समान हो जाता है।अत: वीर पुरुषों को कायरों की संगत नहीं करना चाहिऐ।
    6.धर्मात्मा राजप्रमुख पर आपत्ति आने पर सभी उसके लिए युद्ध करते हैं। जिसे प्रजा प्यार करती है वह राजप्रमुख बहुत मुश्किल से परास्त होता है।
    7.संधि कर भी बुद्धिमान किसी का विश्वास न करे। ‘मैं वैर नहीं करूंगा’ यह कहकर भी इंद्र ने वृत्रासुर को मार डाला।
    8.समय आने पर पराक्रम प्रकट करने वाले तथा नम्र होने वाले बलवान पुरुष की संपत्ति कभी नहीं जाती। जैसे ढलान के ओर बहने वाली नदियां कभी नीचे जाना नहीं छोडती।
  • कौटिल्य का अर्थशास्त्र:अग्नि के समान असहनशील भी होना चाहिये


    १.कछुए के समान अंग संकोचकर शत्रु का प्रहार भी सहन करे और बुद्धिमान फिर समय देखकर क्रूर सर्प के समान डटकर लडे.
    २.समय पर पर्वत के समान सहनशील हो और अग्नि के समान असहनशील हो और समय पर प्रिय वचन कहता हुआ कंधे पर भी शत्रु को उठावे.
    ३.मत्त और प्रमत्त के समान बाहरी दिखावे से स्थित बुद्धिमान आक्रमण करे, जैसे कि सिंह ऐसा कूदकर प्रहार करता है वह खाले वार नहीं जाता.
    ४.प्रसन्नता की वृत्ति से लोक की हितकारी वृत्ति से शत्रु के हृदय में निरन्तर प्रवेश का समय पर नीति के हाथों से प्रहार कर उसकी लक्ष्मी के केश ग्रहण करें.

    ५.विद्वान् को उचित है कि प्राप्त हुए उपायों से विग्रह को शांत करे. विजय की प्राप्ति अचल नहीं है. एकाएक किसी प्रकार पर प्रहार न करे.
    ६.बुद्धिमान को कोई भी वस्तु असाध्य नहीं है, लोहा अभेद्य होता है पर लोहार बुद्धिमानी से उसे गला डालता है.

    झूठ की सता ही लोगों में इज्जत पाती है


    अपनी महफिलों में शराब की
    बोतलें टेबलों पर सजाते हैं
    बात करते हैं इंसानियत की
    पर नशे में मदहोश होने की
    तैयारी में जुट जाते हैं
    हर जाम पर ज़माने के
    बिगड़ जाने का रोना
    चर्चा का विषय होता है
    सोने का महंगा होना
    नजर कहीं और दिमाग कहीं
    ख्याल कहीं और जुबान कहीं
    शराब का हर घूँट
    गले के नीचे उतारे जाते हैं
    ————————————

    आदमी की संवेदना हैं कि
    रुई की गठरी
    किसी लेखक के लिखे
    चंद शब्दों से ही पिचक जाती हैं
    लगता हैं कभी-कभी
    सच बोलना और लिखना
    अब अपराध हो गया है
    क्योंकि झूठ और दिखावे की सत्ता ही
    अब लोगों में इज्जत पाती है

    ———————————

    तकिये का सहारा


    हमें पूछा था अपने दिल को
    बहलाने के लिए किसे जगह का पता
    उन्होने बाजार का रास्ता बता दिया
    जहां बिकती है दिल की खुशी
    दौलत के सिक्कों से
    जहाँ पहुंचे तो सौदागरों ने
    मोलभाव में उलझा दिया
    अगर बाजार में मिलती दिल की खुशी
    और दिमाग का चैन
    तो इस दुनिया में रहता
    हर आदमी क्यों इतना बैचैन
    हम घर पहुंचे और सांस ली
    आँखें बंद की और सिर तकिये पर रखा
    आखिर उसने ही जिसे हम
    ढूढ़ते हुए थक गये थे
    उसका पता दिया
    ——————-

    सांप के पास जहर है
    पर डसने किसी को खुद नहीं जाता
    कुता काट सकता है
    पर अकारण नहीं काटने आता
    निरीह गाय नुकीले सींग होते
    हुए भी खामोश सहती हैं अनाचार
    किसी को अनजाने में लग जाये अलग बात
    पर उसके मन में किसी को मरने का
    विचार में नहीं आता
    भूखा न हो तो शेर भी
    कभी शिकार पर नहीं जाता
    हर इंसान एक दूसरे को
    सिखाता हैं इंसानियत का पाठ
    भूल जाता हां जब खुद का वक्त आता
    एक पल की रोटी अभी पेट मह होती है
    दूसरी की जुगाड़ में लग जाता
    पीछे से वार करते हुए इंसान
    जहरीले शिकारी के भेष में होता है जब
    किसी और जीव का नाम
    उसके साथ शोभा नहीं पाता
    ————–

    रहीम के दोहे:संसार के बड़प्पन को कोई नहीं देख सकता


    रहिमन जगत बडाई की, कूकुर की पहिचानि
    प्रीती करे मुख छाती, बैर करे तन हानि

    कविवर रहीम कहते हैं की अपनी बडाई सुनकर फूलना और आलोचना से गुस्सा हो जाना कोई अच्छी बात नहीं है क्योंकि यह कुत्ते का गुण है. उसे थोडा प्यार करो तो मालिक को चाटने लगता है और फटकारने पर उसे काट भी लेता है.
    भावार्थ-संसार में कई प्रकार के लोग हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जो चापलूसी कर काम निकालते हैं ऐसे लोगों से बचने का प्रयास करना चाहिए. उनकी प्रशंसा पर फूल जाना मूर्खता है क्योंकि उन्हें तो काम निकलना होता है और बाद में हमें मूर्ख भी समझते हैं कि देखो कैसे काम निकलवाया.

    रहिमन जंग जीवन बडे, काहू न देखे नैन
    जाय दशानन अछत ही,कापी लागे काठ लेन

    कवि रहीम कहते हैं कि संसार के बड़प्पन को कोई व्यक्ति अपनी आँखों से नहीं देख सकता. रावण को अक्षत जाना जाता था, परन्तु वानरों ने उसके गढ़ को नष्ट कर दिया.

    भावार्थ-अक्सर यह भ्रम होता है यहाँ सब कुछ कई बरसों तक स्थिर रहने वाला है पर यहाँ सब एक दिन बिखर जाता है. इसलिए अपने अन्दर किसी प्रकार का अहंकार नहीं पालना चाहिए. न ही यह भ्रम पालना चाहिए कि कोई हमसे छोटा है और यह कुंठा भी मन में नहीं लाना चाहिऐ कि कोई हमसे बड़ा है.

    अपनी सोच से रास्ते बनते हैं


    एक पत्थर को रंग पोतकर अदभुत
    बताकर दिखाने की कोशिश
    लोहे को रंग लगाकर
    चमत्कारी बताने की कोशिश
    आदमी के भटकते मन को
    स्वर्ग दिखाने की कोशिश
    तब तक चलती रहेगी
    जब तक अपने को सब खुद नहीं संभालेंगे

    ख्वाब ही हकीकत बनते हैं
    सपने भी सच निकलते हैं
    अपनी सोच से भी रास्ते बनते हैं
    कोई और हमें संभाले
    अपनी जंग जीत सकते हैं
    जब इसके लिए इन्तजार करने के बजाय
    खुद को खुद ही संभालेंगे
    ———————————

    भीड़ से नहीं निकलेंगे शेर जब तक


    जब किसी के लिखने से
    शांति भंग होती है
    तो उससे कहें बंद कर दे लिखना
    जो बिना पढे ही
    चंद शब्दों को समझे बिना ही
    जमाने पर फैंकते हैं पत्थर
    गैरों के इशारे पर
    अपनों पर ही चुभोते हैं नश्तर
    कह देते हैं लिखने वाले से
    अब कभी लिखते नहीं दिखना

    बोलने की आजादी पर
    जोर-जोर से सुबह शाम चिल्लाने वाले
    अपनी ताकत पर खौफ का
    माहोल बनाने वालों का
    रास्ता हमेशा आसान होते दिखता
    लिखने की आजादी उनको मंजूर नहीं
    क्योंकि कोई शब्द उनके
    ख्यालों से नहीं मिलता
    उनकी दिमाग में किसी के साथ चलने का
    इरादा नहीं टिकता
    उनके खौफ से ही ताकत बनती
    जमाने के मिट जाने का डर जतातीं तकरीरें
    बेबस भीड़ भी होती है उनके साथ
    बढ़ते रहेंगे उनके पंजे तब तक
    भीड़ से नहीं निकलेंगे शेर जब तक
    दिल में हिम्मत जुटाकर लड़ना तो जरूरी है
    काफी नहीं अब लड़ते दिखना

    चाणक्य नीति:हिंसक पशु,नदी और राजपरिवार सदैव विश्वसनीय नहीं


    १.केवल मनुष्य योनि में जन्म लेने से सब मनुष्य एक समान नहीं हो जाते. एक ही माँ के गर्भ से उत्पन्न एक ही राशि-नक्षत्र में जन्म लेने वाले दो जुड़वां भाई भी बिलकुल अलग कर्म करने वाले और भिन्न गुण और स्वभाव वाले होते है. शायद पुराने कर्म फल के कारण सभी में ऐसी विभिन्नता आती है.
    २.जिस प्रकार मछली देख-देखकर संतान का पालन करती है,कछुई केवल ध्यान द्वारा ही संतान की देखभाल करती है और मादा पक्षी अपने अण्डों को सेकर या छूकर अपनी संतान का पालन करती हैं उसी परकार सज्जन की संगती अपने संपर्क में आने वालों को भगवान् के दर्शन, ध्यान और चरण-स्पर्श आदि का आभास कराकर कल्याण करती है.
    ३.संसार में सुख की अपेक्षा दु:खों का अस्तित्व अधिक माना जता है, तीन प्रकार के संताप ऐसे हैं जिनसे मनुष्य घिरा रहता है. मन, स्थिति और दुर्भाग्य के कष्टों का निवारण भी तीन प्रकार के उपायों से होता है- गुणवान पुत्र मधुर भाषिणी पत्नी और श्रेष्ठ पुत्र की संगति.

    ४.लंबे नाखून धारण करने वाले हिंसक पशु, नदिया एवं राजपरिवार हमेशा विश्वसनीय नहीं होते क्योंकि इनके स्वभाव में परिवर्तन आते रहते हैं.

    डूबते को तिनके का सहारा :एक नारा


    डूबते को तिनके का सहारा
    देने में वह नाम कमाते हैं
    पहले आदमी को डूबने की लिए छोड़
    फिर तिनके एकत्रित करने के लिए
    अभियान चलते हैं
    जब भर जाते हैं चारों और तिनके
    तब अपना आशियाना बनाते हैं
    और डूबते को भूल जाते हैं
    फिर भी उनका नाम है बुलंदियों पर
    भला डूबे लोग कब उनकी पोल खाते हैं

    ———————————————
    जब तक जवान थे
    अपने नारे और वाद के सहारे
    बहुत से आन्दोलन और अभियान चलाते रहे
    अब बुढापे में मिल गया
    आधुनिक साधनों का मिल गया सहारा
    वीडियो और टीवी पर ही
    चला रहे हैं पुरानी दुकान
    अब भी चल रहा है उनका जन कल्याण
    पेंतरे हैं नये पर शब्द वही जो बरसों से कहे

    रहीम के दोहे:अपशब्द बोले जीभ, मार खाए सिर


    रहिमन जिह्म बावरी, कही गइ सरग पाताल
    आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल

    कविवर रहीम कहते हैं कि इस मनुष्य के बुद्धि बहुत वाचाल है. वह स्वर्ग से पाताल तक का अनाप-शनाप बककर अन्दर चली जाती है पर अगर उससे लोग गुस्सा होते हैं तो बिचारे सिर को जूते खाने पड़ते हैं.

    भावार्थ-यहाँ संत रहीम चेता रहे हैं कि जब भी बोलो सोच समझ कर बोलो. कटु वचन बोलना या दूसरे का अपमान करने पर मार खाने की भी नौबत आती है. इसलिए किसी को बुरा-भला कहकर लांछित नहीं करना चाहिए.

    रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि
    गाँठ युक्ति की खुलि गयी, अंत धूरि को धूरि

    संत रहीम कहते हैं ठहरी हुई धूल हवा चलने से स्थिर नहीं रहती, जैसे व्यक्ति की नीति का रहस्य यदि खुल जाये तो अंतत: सिर पर धूल ही पड़ती है.

    भावार्थ-श्रेष्ठ पुरुष अपने अपने हृदय के विचारों को आसानी से किसी के सामने प्रकट नहीं करते. यदि उनके नीति सबंधी विचार पहले से खुल जाएं तो उनका प्रभाव कम हो जाता है और उन्हें अपमानित होना पड़ता है.

    रहीम के दोहे:प्रेम की गली संकरी होती है


    रहिमन गली है सांकरी, दूजो न ठहराहिं
    आपु अहैं तो हरि नहीं, हरि आपुन नाहि

    संत शिरोमणि रहीम कहते हैं की प्रेम की गली बहुत पतली होती है उसमें दूसरा व्यक्ति नहीं ठहर सकता, यदि मन में अहंकार है तो भगवान् का निवास नहीं होगा और यदि दृदय में ईश्वर का वास है तो अहंकार का अस्तित्व नहीं होगा.
    रहिमन घरिया रहंट को त्यों ओछे की डीठ
    रीतिही सन्मुख होत है, भरी दिखावे पीठ

    कविवर रहीम कहते हैं की कुएँ में लगी रहंट की छोटी-छोटी घडेईयाँ तुच्छ व्यक्ति की दृष्टि के समान होती हैं. सामने तो खाली होती किन्तु पीछे भरे हुई होतीं हैं.

    चाणक्य नीति:धन मिले तो भी बैरी के पास न जाएं


    1.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही वाचों द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।

    2.समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं।
    3.मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।

    4.ऐसा धन जो अत्यंत पीडा, धर्म त्यागने और बैरियों के शरण में जाने से मिलता है, वह स्वीकार नहीं करना चाहिए। धर्म, धन, अन्न, गुरू का वचन, औषधि हमेशा संग्रहित रखना चाहिए, जो इनको भलीभांति सहेज कर रखता है वह हेमेशा सुखी रहता है।बिना पढी पुस्तक की विद्या और अपना कमाया धन दूसरों के हाथ में देने से समय पर न विद्या काम आती है न धनं.

    5.जो बात बीत गयी उसका सोच नहीं करना चाहिए। समझदार लोग भविष्य की भी चिंता नहीं करते और केवल वर्तमान पर ही विचार करते हैं।हृदय में प्रीति रखने वाले लोगों को ही दुःख झेलने पड़ते हैं।
    6.प्रीति सुख का कारण है तो भय का भी। अतएव प्रीति में चालाकी रखने वाले लोग ही सुखी होते हैं.
    7.जो व्यक्ति आने वाले संकट का सामना करने के लिए पहले से ही तैयारी कर रहे होते हैं वह उसके आने पर तत्काल उसका उपाय खोज लेते हैं। जो यह सोचता है कि भाग्य में लिखा है वही होगा वह जल्द खत्म हो जाता है। मन को विषय में लगाना बंधन है और विषयों से मन को हटाना मुक्ति है.

    भूल-भुलैया में फंस जाते हैं


    अपने दिल के नगीने से
    सजाकर कितने भी तौह्फे दे दो
    इस ज़माने को
    कद्रदान कभी होगा नहीं
    खुश रहते हैं वही लोग
    जो बेचते हैं परछाईयाँ
    झूठ बेचते हैं दिखाकर सच्चाईयां
    बन जाते हैं उनके महल
    ज़माना भी खो जाता है
    भूलभुलैया में कहीं
    दावे सभी करते हैं
    पर भला कोई हुआ है अभी तक
    सच्चे आदमी का साथी कहीं
    —————————————-

    भगवान की पहचान के लिए
    शैतान का डर दिखाते हैं
    सच को सही बताने के लिए
    झूठ का भूत दिखाते हैं
    पर जो देते हैं पता
    वही नाचते हैं शैतान जैसा
    झूठ को बेचते हैं सच की तरह
    लोग मानते हैं उनको अपना आदर्श
    इसलिए भगवान् से दूर
    सच के रस्ते से हटे हुए
    भूल-भुलैया में फंस जाते हैं

    सिगरेट का धुआं छोड़ते हुए (sigret ka dhuan-hindi vyangya kavita)


    मुख से सिगरेट का धुँआ
    चहुँ और फैलाते हुए करते हैं
    शहर में फैले
    पर्यावरण प्रदूषण की शिकायत
    शराब के कई जाम पीने के बाद
    करते हैं मर्यादा की वकालत
    व्यसनों को पालना सहज है
    उससे पीछा छुड़ाने में
    होती है बहुत मुश्किल
    पर नैतिकता की बात कहने में
    शब्द खर्च करने हुए क्यों करो किफायत
    कहैं दीपक बापू देते हैं
    दूसरों को बड़ी आसानी से देते हैं
    नैतिकता का उपदेश लोग
    जबकि अपने ही आचरण में
    होते हैं ढ़ेर सारे खोट
    दूसरे को दें निष्काम भाव का संदेश
    और दान- धर्म की सलाह
    अपने लिए जोड़ रहे हैं नॉट
    समाज और जमाने के बिगड़ जाने की
    बात तो सभी करते हैं
    आदमी को सुधारने की
    कोई नहीं करता कवायद
    ————————

    सुबह से शाम तक
    छोड़ते हैं सिगरेट का धुआं
    अपने दिल में खोदते  मौत का कुआँ
    और लोगों को सुनाते हैं
    जमाने के खराब होने के किस्से
    अपना सीना तानकर कहते हैं
    बिगडा जो है प्रकृति का हिसाब
    उस पर पढ़ते हैं किताब
    पर कभी जानना नहीं चाहते
    हवाओं को तबाह करने में
    कितने हैं उनके हिस्से

    इससे अच्छा तो बुतों पर यकीन कर लें


    अपने लिए बनाते हैं ऐसे
    सपनों के महल
    जो रेत के घर से भी
    कमजोर बन जाते हैं
    तेज रोशनी को जब देखते देखते
    आंखों को थका देते हैं
    फिर अँधेरे में ही रोशनी
    तलाशने निकल जाते हैं
    इधर-उधर भटकते हुए
    अनजान जगहों के नाम
    मंजिल के रूप में लिखते हैं
    दर्द के सौदागरों के हाथ
    पकड़ कर चलने लग जाते हैं
    जब दौलत के अंबार लगे हों तो
    गरीबी में सुख आता है नजर
    जब हों गरीब होते हैं
    तो बीतता समय रोटी की जंग में
    अमीरों का झेलते हैं कहर
    नहीं होता दिल पर काबू
    बस इधर से उधर जाते हैं
    जिंदा लोगों को बुत समझने की
    गलती करते हैं कदम-कदम पर
    इसलिए हमेशा धोखा खाते हैं
    इससे अच्छा तो यही होगा कि
    बुतों को ही रंग-बिरंगा कर
    उनमें अपना यकीन जमा लें
    हम कुछ भी कह लें
    कम से कम वह बोलने तो नहीं आते हैं
    ——————————–

    मेरे इन ब्लोगस की रचनाओं को देखें


    समस्त पाठकों से निवेदं है कि यदि आप मेरी रचनाएं इस ब्लोग पर पढना चाह्ते हैं तो कृप्या कमेंट अवश्य लिखे। इस ब्लोग पर मेरा इरादा एक उप ंयास लिखने का है। तब तक आप मेरे इन ब्लोगस की रचनाओं को देखें
    दीपक भारतदीप्

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    गीत-संगीत और मोबाइल


    मोबाइल का भला संगीत और गाने और बजाने से क्या संबंध हो सकता है? कभी यह प्रश्न हमने अपने आपसे ही नहीं पूछा तो किसी और से क्या पूछते? अपने आप में यह प्रश्न है भी बेतुका। पर जब बातें सामने ही बेतुकी आयेंगी तो ऐसे प्रश्न भी आएंगे।

    हुआ यूँ कि उस दिन हम अपने एक मित्र के साथ एक होटल में चाय पीने के लिए गये, वहाँ पर कई लोग अपने मोबाइल फोन हाथ में पकड़े और कान में इयरफोन डालकर समाधिस्थ अवस्था में बैठे और खडे थे। हमने चाय वाले को चाय लाने का आदेश दिया तो वह बोला-” महाराज, आप लोग भी अपने साथ मोबाइल लाए हो कि नहीं?’

    हमने चौंककर पूछा कि-”तुम क्या आज से केवल मोबाइल वालों को ही चाय देने का निर्णय किये बैठे हो। अगर ऐसा है तो हम चले जाते हैं हालांकि हम दोनों की जेब में मोबाइल है पर तुम्हारे यहाँ चाय नहीं पियेंगे। आत्म सम्मान भी कोई चीज होती है।”

    वह बोला-”नहीं महाराज! आज से शहर में एफ.ऍम.बेंड रेडिओ शुरू हो गया है न! उसे सब लोग मोबाइल पर सुन रहे हैं। अब तो ख़ूब मिलेगा गाना-बजाना सुनने को। आप देखो सब लोग वही सुन रहे हैं। आप ठहरे हमारे रोज के ग्राहक और गानों के शौक़ीन तो सोचा बता दें कि शहर में भी ऍफ़।एम्.बेंड ” चैनल शुरू हो गये हैं।”

    ” अरे वाह!”हमने खुश होकर कहा-” मजा आ गया!”

    “क्या ख़ाक मजा आ गया?” हमारे मित्र ने हमारी तरफ देखकर कहा और फिर उससे बोले-”गाने बजाने का मोबाइल से क्या संबंध है? वह तो हम दोनों बरसों से सुन रहे हैं । यह तो अब इन नन्हें-मुन्नों के लिए ठीक है यह बताने के लिए कि गाना दिखता ही नहीं बल्कि बजता भी है। इन लोगों नी टीवी पर गानों को देखा है सुना कहॉ है, अब सुनेंगे तो समझ पायेंगे कि गीत-संगीत सुनने के लिए होते हैं न कि देखने के लिए। “

    हमारे मित्र ने ऐसा कहते हुए अपने पास खडे जान-पहचाने के ऐक लड़के की तरफ इशारा किया था। उसकी बात सुनाकर वह लड़का तो मुस्करा दिया पर वहां कुछ ऐसे लोगों को यह बात नागवार गुजरी जो उन मोबाइल वालों के साथ खडे कौतुक भाव से देख और सुन रहे थे। उनमें एक सज्जन जिनके कुछ बाल सफ़ेद और कुछ काले थे और उनके केवल एक ही कान में इयरफोन लगा था उन्होने अपने दूसरे कान से भी इयर फोन खींच लिया और बोले -”ऐसा नहीं है गाने को कहीं भी और कभी भी कान में सुनने का अलग ही मजा है। आप शायद नहीं जानते।”

    हमारे मित्र इस प्रतिक्रिया के लिए तैयार नहीं था पर फिर थोडा आक्रामक होकर बोला-” महाशय! यह आपका विचार है, हमारे लिए तो गीत-संगीत कान में सुनने के लिए नहीं बल्कि कान से सुनने के लिए है। हम तो सुबह शाम रेडियों पर गाने सुनने वाले लोग हैं। अगर अब ही सुनना होगा तो छोटा ट्रांजिस्टर लेकर जेब में रख लेंगे। ऎसी बेवकूफी नहीं करेंगे कि जिससे बात करनी है उस मोबाइल को हाथ में पकड़कर उसका इयरफोन कान में डाले बैठे रहें । हम तो गाना सुनते हुए तो अपना काम भी बहुत अच्छी तरह कर लेते हैं।”

    वह सज्जन भी कम नहीं थे और बोले-”रेडियो और ट्रांजिस्टर का जमाना गया और अब तो मोबाइल का जमाना है। आदमी को जमाने के साथ ही चलना चाहिए।”

    हमारा मित्र भी कम नहीं था और कंधे उचकाता हुआ बोला-”हमारे घर में तो अभी भी रेडियो और ट्रांजिस्टर दोनों का ज़माना बना हुआ है।अभी तो हम उसके साथ ही चलेंगे।
    बात बढ न जाये इसलिये उसे हमने होटल के अन्दर खींचते हुए कहा-”ठीक है! अब बहुत हो गया। चल अन्दर और अपनी चाय पीते हैं।”

    हमने अन्दर भी बाहर जैसा ही दृश्य देखा और मेरा मित्र अब और कोई बात इस विषय पर न करे विषय बदलकर हमने बातचीत शुरू कर दीं। मेरा मित्र इस बात को समझ गया और इस विषय पर उसने वहाँ कोई बात भी नहीं की । बाद में बाहर निकला कर बोला-” एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही कि यह लोग गीत-संगीत के शौक़ीन है या मोबाइल से सुनने के। देखना यह कुछ दिनों का हे शौक़ है फिर कोई नहीं सुनेगा हम जैसे शौकीनों के अलावा।”

    हमने कहा-” यह न तो गीत-संगीत के शौक़ीन है और न ही मोबाइल के! यह तो दिखावे के लिए ही सब कर रहे हैं। देख-सुन समझ सब रहे हैं पर आनंद कितना ले रहे हैं यह पता नहीं।”

    हमारे शहर में एक या दो नहीं बल्कि चार एफ।ऍम.बेंड रेडियो शुरू हो रहे है और इस समय उनका ट्रायल चल रहा है। जिसे देखो इसी विषय पर ही बात कर रहा है। मैं खुद बचपन से गाने सुनने का आदी हूँ और दूरदर्शन और अन्य टीवी चैनलों के दौर में भी मेरे पास एक नहीं बल्कि तीन रेडियो-ट्रांजिस्टर चलती-फिरती हालत में है और शायद हम जैसे ही लोग उनका सही आनद ले पायेंगे और अन्य लोग बहुत जल्दी इससे बोर हो जायेंगे। हम और मित्र इस बात पर सहमत थे कि संगीत का आनंद केवल सुनकर एकाग्रता के साथ ही लिया जा सकता है और सामने अगर दृश्य हौं तो आप अपना दिमाग वहां भी लगाएंगे और पूरा लुत्फ़ नहीं उठा पायेंगे।

    गीत-संगीत के बारे में तो मेरा मानना है कि जो लोग इससे नहीं सुनते या सुनकर उससे सुख की अनुभूति नहीं करते वह अपने जीवन में कभी सुख की अनुभूति ही नहीं कर सकते। गीतों को लेकर में कभी फूहड़ता और शालीनता के चक्कर में भी नही पड़ता बस वह श्रवण योग्य और हृदयंगम होना चाहिए। गीत-संगीत से आदमी की कार्यक्षमता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार अधिक टीवी देखने के बुरे प्रभाव होते हैं जबकि रेडियो से ऐसा नहीं होता। मैं और मेरा मित्र समय मिलने पर रेडियो से गाने जरूर सुनते है इसलिये हमें तो इस खबर से ही ख़ुशी हुई । जहाँ तक कानों में इयर फोन लगाकर सुनने का प्रश्न है तो मेरे मित्र ने मजाक में कहा था पर मैंने उसे गंभीरता से लिया था कि ‘ गीत-संगीत कानों में नहीं बल्कि कानों से सुना जाता है।’

    बहरहाल जिन लोगों के पास मोबाइल है उनका नया-नया संगीत प्रेम मेरे लिए कौतुक का विषय था। घर पहुंचते ही हमने भी अपने ट्रांजिस्टर को खोला और देखा तो चारों चैनल सुनाई दे रहे थे। गाने सुनते हुए हम भी सोच रहे थे-’गीत संगीत का मोबाइल से क्या संबंध ?

    दृष्टा बनकर जो रहेगा


    अगर मन में व्यग्रता का भाव हो तो
    सुहाना मौसम भी क्या भायेगा
    अंतर्दृष्टि में हो दोष तो
    प्राकृतिक सौन्दर्य का बोध
    कौन कर पायेगा
    मन की अग्नि में पकते
    विद्वेष, लालच, लोभ, अहंकार और
    चिन्ता जैसे अभक्ष्य भोजन
    गल जाता है देह का रक्त जिनसे
    तब सूर्य की तीक्ष्ण अग्नि को
    कौन सह पायेगा
    अपने ही ओढ़े गये दर्द और पीडा का
    इलाज कौन कर पायेगा
    कहाँ तक जुटाएगा संपत्ति का अंबार
    कहाँ तक करेगा अपनी प्रसिद्धि का विस्तार
    आदमी कभी न कभी तो थक जाएगा
    जो दृष्टा बनाकर जीवन गुजारेगा
    खेल में खेलते भी मन से दूर रहेगा
    वही अमन से जीवन में रह पायेगा
    ——————