अकेले होने के गम में इसलिये रोते रहे-कविता
भीड़ में हमेशा खोते रहे
अपने से न मिलने के गम में रोते रहे
नहीं ढूंढा अपने को अंदर
आदमी होकर भी रहा बंदर
लोगों के शोर को सुनकर ही बहलाया दिल
अपनी अक्ल की आंख बंद कर सोते रहे
जमाने भर का बेजान सामान
जुटाते हुए सभी पल गंवा दिये
दिल का चैन फिर नहीं मिला
जो आज आया था घर में
उसी से ही कल हो गया गिला
उठाये रहे अपने ऊपर भ्रम का बोझ
सच समझ कर उसे ढोते रहे
कब आराम मिले इस पर रोते रहे
झांका नहीं अपने अंदर
मिले नहीं अपने अंदर बैठे शख्स से
अकेले होने के गम में इसलिये रोते रहे
………………………….
दीपक भारतदीप
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दीपक भारतदीप, on
24/06/2008 at 17:28, under
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टिप्पणियाँ
काहे अकेला मान रहे हैं-हम हैं न!! आप तो बस अपने हिन्दी को विस्तार देने के यज्ञ की अलख जलाये रखें..बाकि नो टेंशन.