Tag Archives: shayri

दिल से बाहर-हिन्दी कविता


अब अपने दिल के घर से
बाहर आकर
न हम रोते
न हँसते हैं,
पर्दे पर चलते अफसाने
देखते देखते
हो गए इस जहान के लोग
हर पल प्रपंच रचने के आदी
हम उनके जाल में यूं नहीं फँसते हैं।
कहें दीपक बापू
फिल्म की पटकथाएँ
और टीवी धारावाहिकों की कथाएँ
ले उड़ जाती हैं अक्ल पढ़े लिखे लोगों की
ख्याली दुनियाँ के पात्रों को ढूंढते हुए
ज़मीन की हक़ीक़तों में खुद ही धँसते हैं,
रोना तो छूट गया बरसों पहले
अब ज़माने के कभी बहते घड़ियाली आंसुओं
कभी फीकी उड़ती मुस्कान देखकर
अब अपने दिल को साथ लेकर
बस, हम भी हँसते हैं।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

इतिहास और नया घटनाक्रम-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


इतिहास क्यों पुराना सुनाते हो,
यहां घट रहा है रोज नया घटनाक्रम
तुम पुरानी कथा क्यों सुनाते हो।
पढ़ लिखकर किताबें क्यों ढूंढ रहे हो
जमाने को दिखाने का रास्ता,
अपनी खुद की सोच बयान करो
मत दो रद्दी हो चुके ख्यालों का वास्ता,
पुराने समय के नायकों की याद में
नये खलनायकों की चुनौती क्यों भुलाते हो।
———-
राजशाही लुट गयी
लुटेरे बन गये
ज़माने के खैरख्वाह।
उठाये थे पहले भी गरीब
साहुकारों का बोझ
भले ही भरकर रह जाते थे आह,
अब भी कहर बरपा रहे
लुटेरे तमंचों के जोर पर रोज
फिर भी बोलना पड़ता है वाह वाह।
———

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
—————————
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

प्रायोजित कहानियां-हिन्दी व्यंग्य कविता (sporsard story-hindi satire poem)


वस्त्रों के रंगों से चरित्र की पहचान
कभी नहीं होती है,
पद का नाम कुछ भी हो
इंसानों से निभाये बिना
उसकी कदर नहीं होती है।
जोगिया पहनकर करते जिस्म का व्यापार
जोगी धन जुटाने का कर रहे चमत्कार,
जब तक पोल सामने न आये
जयकारा बोलने वालों के मुख से भी
हाहाकार की आवाज बुलंद होती है।
कहें दीपक बापू
बाजार और प्रचार के हाथों में है
सारा खेल,
कब सजाये स्वयंवर
कब निकाल दें तेल,
खड़े किये हैं
फिल्म, खेल, और धर्म में बुत
जो दिखते इंसान हैं,
फैलायें जो भ्रम वह कहलाते महान
सनसनी बिकवा दें वही शैतान हैं,
लगता है कभी कभी
पहले जिनका पहले नायक बनाने के लिये
करते हैं प्रायोजन,
छिपकर पेश करते हैं
सुंदर देह और भोजन
करवाते हैं शुभ काम,
चमकाते हैं उसका नाम,
फिर पोल खोलकर
अपने लिये उनको खलनायक सजाते हैं,
जिन तस्वीरों पर सजवाये थे फूल
उन पर ही पत्थर बरसाते हैं,
कुछ कल्पित, कुछ सत्य कहानियां
प्रायोजित लगती हैं
जिन पर जनता कभी हंसती कभी रोती है।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

कामयाबी का दस्तूर-हिन्दी शायरी (kamyabi ka dastur-hindi hasya kavitaen)


फिक्र हो या नहीं
करते दिखना,
एक झूठ को
सौ बार सच लिखना,
ईमानदारी और वफा के कायदों से
कोई वास्ता हो या न हो
कामयाबी का बस एक ही दस्तूर है
बाजार में महंगे भाव बिकना।
——–
कभी कभी आंखों के आंसु भी
हंसी में बदल जाते हैं
जब हमदर्द कम करने की बजाय
दर्द बढ़ाने लग जाते हैं।
——–
अभावों का होना
तब नहीं अखरता
जब सामान हादसों की वजह
बनते नज़र आते हैं।
किसी हमदर्द का न मिलना
तब दुःख नहीं लगता
जब दौलतमंद भी
अपने महलों में तन्हा नज़र आते हैं।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

————————————-

यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

मुखौटे बाजार के-हिन्दी व्यंग्य शायरी कवितायें (mukhaute bazar ke-hindi hasya kavita)


आदर्श पुरुषों ने अपनी दरबार में
देशभक्ति का नारा बड़े तामझाम के साथ सजाया।
बाजार को बेचनी थी मोमबत्तियों
शहीदों के नाम पर,
इसलिये प्रचारकों से नारे को संगीत देने के लिये
शोक संगीत भी बजवाया।
भेजे आदर्श पुरुषों के नाम से
रुपयों से भरे लिफाफे
जिनकी समाज सेवा से आम इंसान हमेशा कांपे
दिल में न था भाव फिर भी
आदर्श पुरुषों के खौफ से
सभी ने देशभक्ति का गीत गाया।
———
उनकी देशभक्ति की दुहाई,
कभी नहीं सुहाई,
मुखौटे हैं वह बाजार के सौदागरों के
जो जज़्बात बेचने आते हैं,
उनकी जुबां कभी बोलती नहीं
पर पर्दे के पीछे
वही संवाद लिखकर लाते हैं,

खरीदे देशभक्तों ने बस उनकी बात हमेशा दोहराई।
इंसान की हर दाद मिलती है,

पर सच बोलने पर कोई इनाम नहीं होता।

कितना भी हो जाये कोई अमीर,

पीछा नहीं छोड़ता उसका जमीर,

कैसे दे सकते हैं इनाम, उस शख्स को

बोलता है हमेशा सच जो,

खड़ी है दौलत की इमारत उनकी झूठ पर

चाटुकारों को लेते हैं, अपनी बाहों में भर

क्योंकि सच बोलने वालो से उनका काम नहीं होता।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

————————-
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

चमके वही लोग -हिन्दी हास्य व्यंग्य कविताएँ


खजाना भरने  वालों को

भला कहां सम्मान मिल पाया,

चमके वही लोग

बिना मेहनत किये जिनके वह हाथ आया।

——-

शरीर से रक्त

बहता है पसीना बनकर

कांटों को बुनती हुई

हथेलियां लहुलहान हो गयीं

अपनी मेहनत से पेट भरने वाले ही

रोटी खाते बाद में

पहले खजाना  भर जाते हैं।

सीना तानकर चलते

आंखों में लिये कुटिल मुस्कराहट लेकर

लिया है जिम्मा जमाने का भला करने का

वही सफेदपोश शैतान उसे लूट जाते हैं।

———-

अब लुटेरे चेहरे पर नकाब नहीं लगाते।

खुले आम की लूट की

मिल गयी इजाजत

कोई सरेराह लूटता है

कोई कागजों से दाव लगाते।

वही जमाने के सरताज भी कहलाते।


चौराहे पर चार लोग आकर

चिल्लाते जूता लहरायेंगे,

चार लोग नाचते हुए

शांति के लिये सफेद झंडा फहरायेंगे।

चार लोग आकर दर्द के

चार लोग खुशी के गीत गायेंगे।

कुछ लोगों को मिलता है

भीड़ को भेड़ों की तरह चराने का ठेका,

वह इंसानो को भ्रम के दरिया में बहायेंगे।

सोच सकते हैं जो अपना,

दर्द में भी नहीं देखते

उधार की दवा का सपना,

सौदागरों और ढिंढोरची के रिश्तों का

सच जो जानते हैं

वही किनारे खड़े रह पायेंगे।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

————————-
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

दीवार के पीछे ही खुद को छिपाना-हिंदी शायरी


दीवार के पीछे ही

अपना चेहरा छिपाये रहो तुम,

तुम हो एक सजा सजाया ख्वाब,

कितने भी सवाल करूं

नहीं देना उनका जवाब,

तुम्हारे दिल के स्वर ही

दिमाग की सोच में बजते रहे हैं,

कई  शेर कहे हमने यह मानकर

जैसे कि तुमने कहे हैं,

अपने कड़वे सच के घूंट

हमने जहर की तरह पिये हैं,

अभी तक ख्वाबों के

अमृत के सहारे ही जियें हैं,

आंखों सामने आकर  अपना सच न दिखाना

जब तक हम भूलें न तुमको

दीवार के पीछे ही खुद को छिपाना,

वरना पल भर में ख्वाबों की दुनियां हो जायेगी गुम।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

————————-
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

बेईमानी से बढ़ता कद-हिन्दी व्यंग्य शायरी (baimani aur kad-hindi comic poem)


कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

कान में लगाये मोबाइल पर

ऊंची आवाज में बतियाते

पांव उठाता सीना तानकर

आंखों से बहती कुटिल मुस्कराहट

वह अभिमान से चला जा रहा है।

लोगों ने बताया

‘अपनी बेईमानी से कभी लाचार

वह भाग रहा था जमाने से

गिड़गिड़ाता तथा छोटे इंसानों के सामने भी

अब मिल गया है उसे लोगों के भला करने का काम

उसकी कमाई से उसका कद बढ़ता जा रहा है।

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

किस्सा दहेज का-हिन्दी हास्य कविताएं (kissa dahej ka-hindi hasya kavitaen


शिक्षक पुत्र ने वकील पिता से कहा
‘पापा, मेरी शादी में आप दहेज की
मांग नहीं करना
यह बुरा माना जाता है
देश के समाज की हालत सुधारने का
श्रेय भी मिल जायेगा
हम पर कभी ‘दहेज एक्ट’ भी
नहीं लग पायेगा
उससे बचने का यही उपाय मुझे नजर आता है।’
वकील पिता ने कहा
‘बेटा, कैसी शिक्षा तुमने पायी
कानून की बात तुम्हारी समझ नहीं आयी।
‘दहेज एक्ट’ का दहेज से कोई संबंध नहीं
लेना और देना दोनों अपराध हैं
पर देने वाला बच जाता है
दहेज न लिया न लिया हो लड़के वालों ने
फिर भी लड़की का बाप इल्ज़ाम लगाता है।
वधु पक्ष तब कानून से नहीं शर्माता है।
अगर दहेज एक्ट का डर होता तो
समाज में रोज इसकी रकम न बढ़ जाती,
नई चीजें शादी के मंडप में नहीं सज पाती,
तुम सभी देखते रहो
कानून की विषय है पेचीदा
हर किसी की समझ में नहीं आता है।’
—————
नोट-यह कविता काल्पनिक है और किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोई लेना देना नहीं है। किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।

————————
शहर को बढ़ते देखा
————————
सड़कों को सिकुड़ते देखा,

इंसानों की जिंदगी में

बढ़ते हुए दर्द के साथ

हमदर्दी को कम होते देखा।

…………………..
आसमान छूने की चाहत में

कई लोगों को जमीन पर

औंधे मुंह गिरते देखा,

बार बार खाया धोखा

फिर भी हर नये ठग की

चालों में उनको घिरते देखा।

……………………..

हिन्दी में पैदा हुए

अंग्रेजी के बने दीवाने

पढ़े लिखे लोगों की

जुबां को लड़खड़ाते देखा।

भाषा और संस्कार

इंसान की बुनियाद होती है

मगर अपने अंदर बनाने की बजाय

लोगों को बाजार से खरीदते देखा

………………………

ख्वाहिशें पूरी करने के लिये

आंखों से ताक रहे हैं,

बोलते ज्यादा, सुनते कम

लोग सोच से भाग रहे हैं

समझदार को भी

चिल्लाते हुए देखा।

सभ्य शब्द का उच्चारण

बन गया है कायरता का प्रमाण

बहादुरी दिखाने के लिये

लोगों को गाली लिखते देखा।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

————————-
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

महानायकों के झुंड के बीचआम आदमी-व्यंग्य कविता


महानायकों के झुंड के बीच
खड़ा है आम आदमी
हैरान होता  यह सोचकर कि
किसकी आरती वह पहले करे।
सुबह छाया पर्दे पर फिल्म का नायक
दोपहर को गा रहा है भजन गायक
शाम को नजर आ रहा है
आतंक का खलनायक
किसे करे प्रेम
किस पर दिखाये गुस्सा
पहले नज़रों में उसके चेहरा तो तो भरे।
मगर पर्दे पर हर पल
दृश्य बदल रहा है
कभी हंसी आती है तो
कभी दिल दहल रहा है
इतने नायक और खलनायकों को
देखने से तो पहले फुरसत तो मिले
तब वह कुछ वह सोचने की पहल करे।

दान और कमीशन-व्यंग्य कविता (dan aur comishan-vyangya shayri)


 सरकार और साहुकारों ने

इतने वर्षों से बहुत दान किया है

कि इस देश से पीढ़ियों तक

गरीबी मिट जाती।

अगर कमबख्त

यह कमीशन की रीति

दान बांटने वालों की नीति न बन जाती।

———

नया बनाने के लिये

पुराना समाज टुकड़े टुकड़े

किये जा रहे हैं।

कुछ नया नहीं बन पा रहा है

इसलिये हर टुकड़े को समाज बता रहे हैं।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

————————-
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

बन जायेगा तमाशा-हिंदी शायरी (ban jayega tamasha-hindi shayri)


 अपने दर्द का बयां न

कभी न करना

बन जायेगा तमाशा।

अपनी ही गमों ने लोग हैरान हैं

अपनों की करतूतों से परेशान है

कर नहीं सकते किसी की

पूरी आशा।

किसी इंसान को

कुदरत हीरे की तरह तराश दे

अलग बात है

इंसानों ने कभी नहीं तराशा।

———–

सर्वशक्तिमान से मोहब्बत नहीं होती

पर उसकी इबादत की जाती।

पीरों ने बनाये कई कलाम

गाने के लिये

तमाशा जमाने के लिये

पर सच यह है कि

दिल में है जिसकी जगह

उसकी असलियत

जुबान से बयान नहीं की जाती।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
—————————
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

पर्दे के पीछे-हिन्दी साहित्य कविता


सच कहते हैं
जिंदगी के फैसले
कभी जंग से नहीं होते।
पर्दे के पीछे
तय हो जाते फैसले ले देकर
कटवाते है वही सिर अपना
जो इससे बेखबर होते।
कहीं गद्दारी तो
कही वफदारी बिक जाती है
दौलत और शौहरत वह शय है
जो ईमान भी खरीद लाती है
खून खराबे के आदी होते कायर
बहादुर तो जमाने के साथ
बांटकर खाने वाले होते।
जिंदगी की जंग जीतते हैं वही लोग
जो जमाने का दिल जीत चुके होते।

———-
इज्जतदार लोग-व्यंग्य कविता
______________________

इंसान के चेहरे बदल जाते हैं
नहीं बदलती चाल।
खून खराबा करने वाले
हाथ बदल जाते हैं
वही रहती तलवार और ढाल।

इंसान से ही उगे इंसान
संभालते उसका खानदान
जमाने को काबू करने का मिला जिनको वरदान,
पांव हमेशा पेट की तरफ ही मुड़ता है,
दौलत से ही किस्मत का साथ जुड़ता है,
बड़े आदमी करते दिखावा
जमाने का भला करने का
मगर लूटते हैं गरीब का दान,
छोटे आदमी के हिस्से आता है अपमान,
थामे अपनी अगली पीढ़ी का झंडा
लुटेरे लूट रहे जमाने को
लगे हैं कमाने को
अपनी दौलत शौहरत देकर
अपनी औलाद में जिंदा
रहने की ख्वाहिश पाले
मौत की सोच पर लगा ताले
दौड़ जा रहे हैं इज्जतदार लोग,
लिये साथ पाप और रोग
वाह री कुदरत! तेरा कमाल।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
————————————-

यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

जिंदगी और जंग-हिंदी शायरी (zindagi aur zang-hindi shayri


सच कहते हैं
जिंदगी के फैसले
कभी जंग से नहीं होते।
पर्दे के पीछे
तय हो जाते फैसले ले देकर
कटवाते है वही सिर अपना
जो इससे बेखबर होते।
कहीं गद्दारी तो
कही वफदारी बिक जाती है
दौलत और शौहरत वह शय है
जो ईमान भी खरीद लाती है
खून खराबे के आदी होते कायर
बहादुर तो जमाने के साथ
बांटकर खाने वाले होते।
जिंदगी की जंग जीतते हैं वही लोग
जो जमाने का दिल जीत चुके होते।

———-
इंसान के चेहरे बदल जाते हैं
नहीं बदलती चाल।
खून खराबा करने वाले
हाथ बदल जाते हैं
वही रहती तलवार और ढाल।

इंसान से ही उगे इंसान
संभालते उसका खानदान
जमाने को काबू करने का मिला जिनको वरदान,
पांव हमेशा पेट की तरफ ही मुड़ता है,
दौलत से ही किस्मत का साथ जुड़ता है,
बड़े आदमी करते दिखावा
जमाने का भला करने का
मगर लूटते हैं गरीब का दान,
छोटे आदमी के हिस्से आता है अपमान,
थामे अपनी अगली पीढ़ी का झंडा
लुटेरे लूट रहे जमाने को
लगे हैं कमाने को
अपनी दौलत शौहरत देकर
अपनी औलाद में जिंदा
रहने की ख्वाहिश पाले
मौत की सोच पर लगा ताले
दौड़ जा रहे हैं इज्जतदार लोग,
लिये साथ पाप और रोग
वाह री कुदरत! तेरा कमाल।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
————————————-

यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

दिल और कविता-हिंदी कविता (dil aur kavita-hindi shayri)


 
कभी गम तो कभी खुशी
कभी दर्द तो कभी हँसी के साथ
कविता लिखने का ख्याल किया
तब भाषा सजाने के साथ  
शब्द को जोर से बजाने का सोच  नहीं आया.
कोशिश की रस के रंग दिखाने 
और   अलंकार से कविता  सजाने की 
मिले जिससे भाषा विद्वान की उपाधि 
तब कविता को अपने दिल के  भाव से दूर पाया..
____________________
 

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

समन्दर पीने से भी प्यास नहीं बुझेगी (samandar se bhee pyas nahin bujhegee)


सभी लोग हमेशा दूसरे के सुख देखकर मन में अपने लिये उसकी कमी का विचार करते हुए अपने को दुःख देते हैं। दूसरे का दुःख देकर अपने आपको यह संतोष देते हैं कि वह उसके मुकाबले अधिक सुखी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग बहिर्मुखी जीवन व्यतीत करते हैं और अपने बारे में उनके चिंतन के आधार बाह्य दृश्यों से प्रभावित होते हैं। यह प्रवृत्ति असहज भाव को जन्म देती है। इसके फलस्वरूप लोग अपनी बात ही सही ढंग से सही जगह प्रस्तुत नहीं करते। अनेक जगह इसी बात को लेकर विवाद पैदा होते हैं कि अमुक ने यह इस तरह कहा तो अमुक ने गलत समझा। आप अगर देखें तो कुदरत ने सभी को जुबान दी है पर सभी अच्छा नहीं बोलकर नहीं कमाते। सभी को स्वर दिया है पर सभी गायक नहीं हो जाते। भाषा ज्ञान सभी को है पर सभी लेखक नहीं हो जाते। जिनको अपने जीवन के विषयों का सही ज्ञान होता है तथा जो अपने गुण और दुर्गुण को समझते हैं वही आगे चलकर समाज के शिखर पर पहुंचते हैं। इस संदर्भ में दो कवितायें प्रस्तुत हैं।
सोचता है हर कोई
पर अल्फाजों की शक्ल और
अंदाज-ए-बयां अलग अलग होता है
बोलता है हर कोई
पर अपनी आवाज से हिला देता है
आदमी पूरे जमाने को
कोई बस रोता है।।
—————
पी लोगे सारा समंदर भी
तो तुम्हारी प्यास नहीं जायेगी।
ख्वाहिशों के पहाड़ चढ़ते जाओ
पर कहीं मंजिल नहीं आयेगी।
रुक कर देखो
जरा कुदरत का करिश्मा
इस दुनियां में
हर पल जिंदगी कुछ नया सिखायेगी।
__________________________

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

नए स्वांग और मुखौटे-हास्य व्यंग्य कविताएँ (svang aur mukhaute-hindi satire poem)


रोज रचते हैं नया स्वांग
चेहरे पर लगाते नए मुखौटे
और बदलकर आते हैं कपड़े
मगर छद्म होकर भी करते हैं हमेशा लफड़े.
आदमी अपना बाहर का रूप
कितना भी बदल ले
अदाओं से पहचाना जाता है,
जहां स्वर बदले
शब्दों से पकड़ा जाता है,
खुलकर सांस लेने से घबड़ाते हैं जो लोग
छिपकर करते वार
पर अपने हथियारों की शकल
और तौरतरीकों से जाते हैं पकड़े.

——————————-
अपनी महफ़िल में उन्होंने बुलाया नहीं
हमारी परवाह न होने का अहसास जताया.
खूब चिराग जलाए उन्होंने
पर अन्दर के अँधेरे में
चमकता रहा हमारा चेहरा और नाम
बड़ी मेहनत से उन्होंने छिपाया.
हमारा नाम लेने पर उन्होंने
अपने मेहमान पर गुस्सा दिखाकर
अपनी नापसंदगी दिखाई
पर सच है कि जो खौफ है
उनके दिमाग में
हमारे हाथ से जलते चिरागों से
ज़माने के रौशन होने का
वही अनजाने में बाहर आया.

—————————-
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

जब उनके पुतलों की पोल खुल जायेगी-हिंदी कविता (putlon ki pol-hindi hasya kavita)


पर्दे के पीछे वह खेल रहे हैं
सामने उनके पुतले डंड पेल रहे हैं।
आत्ममुग्धता हैं जैसे जमाना जीत लिया
समझते नहीं भीड़ के इशारे
अपनी उंगलियों से पकड़ी रस्सी से
मनचाहे दृश्य वह मंच पर ठेल रहे हैं।
भीड़ में बैठे हैं उनके किराये के टट्टू
जो वाह वाही करते हैं
तमाम लोग तो बस झेल रहे हैं।
खेल कभी लंबा नहीं होता
कभी तो खत्म होगा
सच्चाई तो सामने आयेगी
जब उनके पुतलों की पोल खुल जायेगी
तब जवाब मांगेंगे लोग
हम भी यही सोचकर झेल रहे हैं।

……………………………
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

दीवारों के पीछे से प्रहार-व्यंग्य कविताएं (deevar ke piche se prahar-vyangya kavitaen)


चेहरे पर रोज नया मुखौटा लगाकर
वह सामने चले आते
उनकी बहादुरी पर क्या भरोसा करें
जो अपने पहचाने जाने का खौफ
हमेशा अपने साथ लाते।
………………
दीवारों के पीछे छिपकर
वह पत्थर हम पर उछालते हैं
भीड़ हंसती है
हम भी बदले का इरादा पालते हैं।
दीवारों के पीछे हम नहीं जा सकते
अपनी पहचान छिपाते
डर के साये में जीते वह लोग
मर मर कर जीते होंगे
अपने ही प्रति प्रहार वापस हमारी तरफ लौट आयें
जमाने को मुफ्त में फिर क्यों हंसायें
यही सोचकर चुप रह जाते हैं।

……………………………….

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

हुकुम मेरे आका-हास्य व्यंग्य कविता(hukum mere aka-hasya hindi kavita


शराब की बोतल से जिन्न निकला
और उस पियक्कड़ से बोला
-“हुकुम मेरे आका!
आप जो भी मुझसे मंगवाओगे
वह ले आउंगा
बस शराब की बोतल नहीं मंगवाना
वरना मुझसे हाथ धोकर पछताओगे.


सुनकर पियक्कड़ बोला
-“मेरे पास बाकी सब है
उनसे भागता हुआ ही शराब के नशे में
घुस जाता हूँ
दिल को छु ले, ऐसा कोई प्यार नहीं देता
देने से पहले प्यार, अपनी कीमत लेता
तुम भी दुनिया की तमाम चीजें लेकर
मेरा दिल बहलाओगे
मैं तो शराब ही मांगूंगा
मुझे मालूम है तुम छोड़ जाओगे.
जाओ जिन्न किसी जरूरतमंद के पास
मुझे नहीं खुश कर पाओगे..
————————-
रिश्ते और समय की धारा-हिंदी कविता
हम दोनों तूफान में फंसे थे
उनको सोने की दीवारों का
सहारा मिला
हम ताश के पतों की तरह ढह गये।

अब गुजरते हैं जब उस राह से
यादें सामने आ जाती हैं
कभी अपनो की तरह देखने वाली आंखें
परायों की तरह ताकती हैं
रिश्ते समय की धारा में यूं ही बह गये।
जुबां से निकलते नहीं शब्द उनके
पर इशारे हमेशा बहुत कुछ कह गये।

……………………………..

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

आती जाती बिजली-हास्य कविता (bijli par hasya kavita)


अच्छे विषय पर सोचकर
कविता लिखने बैठा युवा कवि
कि बिजली गुल हो गयी।
कागज पर हाथ था उसका
कलम अंधेरे में हुई लापता
जो सोचा था विषय
उसका भी नहीं था अतापता
अब वह बिजली पर पंक्तियां सोचने लगा
‘कब आती और जाती है
यह तो बहुत सताती है
इसका आसरा लेकर जीना खराब है
इससे तो अच्छा
तेल से जलने वाला चिराग है
जिंदगी की कृत्रिम चीजें अपनाने में
पूरे जमाने से भूल हो गई।’

कुछ देर बाद बिजली वापस आई
कवि की सोच में भी
बीभत्स रस की जगह श्रृंगार ने जगह पाई
उसकी याद में
अपने साथ पढ़ने वाली
बिजली नाम की लड़की
पहले ही थी समाई
बिजली आने पर भूल गया वह दर्द अपना
अब उसने लिखा
‘मैं उसका नाम नहीं जानता
उसकी अदाओं को देखकर
बिजली ही मानता
जब भी जिंदगी अंधेरे से बोझिल हो जाती
उसकी याद मेरे अंदर रौशनी जैसे आती
उसका चेहरा देखकर दिल का बल्ब जल उठता है
कोई दूसरा उसे देखे तो
करंट जैसा चुभता है
मेरी कविताओं के हर शब्द की
ट्यूबलाईट उसकी याद के बटन से जलती है
उसके आंखों की चमक बिजली जैसी
चारों तरफ मरकरी जैसी रौशनी दिखती
जब वह चलती है
उसकी याद में मेरे दिल का मीटर तो
बहुत तेजी से चलता है
पर वह बेपरवाह
मुझे समझने में भूल करती है।

……………………………

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

बीस और पचास का खेल-हास्य व्यंग्य कविताएँ (play for twenty and fifty-hindi hasya vyangya kavitaen


उन्होंने तय किया है कि
एक दिन में पचास ओवर की
जगह बीस ओवर वाले मैच खेलेंगे।
देखने वाले तो देखेंगे
जो नहीं देखने वाले
वह तो व्यंग्य बाण ऐसे भी फैंकेंगे।

सच है जब बीस रुपये खर्च से भी
हजार रुपया कमाया जा सकता है तो
पचास रुपये खर्च करने से क्या फायदा
फिल्म हो या खेल
अब तो कमाने का ही हो गया है कायदा
पचास ओवर तक कौन इंतजार करेगा
जब बीस ओवर में पैसे से झोला भरेगा
मूर्खों की कमी नहीं है जमाने में
मैदान पर दिखता है जो खेल
उस पर ही बहल जाते हैं लोग
नहीं देखते कि खिलाड़ियों को
अभिनेता की तरह पर्दे के पीछे
कौन लगा है नचाने में
पैसा बरस रहा है खेल के नाम पर
फिल्म वाले भी लग गये उसमें काम पर
दाव खेलने वाले भी
जल्दी परिणाम के लिये करते हैं इंतजार
खिलाने वाले भी
अब हो रहे हैं बेकरार
पैसे का खेल हो गया है
खेलते हैं पैसे वाले
निकल चुके हैंे कई के दिवाले
खाली जेब जिनकी है
बन जाते समय बरबाद करने वाले
अभिनेताओं में भगवान
खिलाड़ियों में देवता देखेंगे।

कहें दीपक बापू
‘नकली शयों का शौकीन हो गया जमाना
चतुरों को इसी से ही होता कमाना
पर्दे के नकली फरिश्तों के जन्म दिन पर
प्रचार करने वाले नाचते हैं
मैदान पर बाहर की डोर पर
खेलने वालों के करतबों पर
तकनीकी ज्ञान फांकते हैं
जब हो सकती है दो घंटे में कमाई
तो क्यों पांच घंटे बरबाद करेंगे
बीस रुपये में काम चलेगा तो
पचास क्यों खर्च करेंगे
आम आदमी हो गया है
मन से खाली मनोरंजन का भूखा
जुआ खेलने को तैयार, चाहे हो पैसे का सूखा
जिनके पास दो नंबर का पैसा
वह खुद कहीं खर्च करें या
उनके बच्चे कहीं फैंकेंगे।
खेल हो या फिल्म
जज्बातों के सौदागर तो
बस! अपना भरता झोला ही देखेंगे।

…………………………..


पर्दे पर आंखों के सामने
चलते फिरते और नाचते
हांड़मांस के इंसान
बुत की तरह लगते हैं।
ऐसा लगता है कि
जैसे पीछे कोई पकड़े है डोर
खींचने पर कर रहे हैं शोर
डोर पकड़े नट भी
खुद खींचते हों डोर, यह नहीं लगता
किसी दूसरे के इशारे पर
वह भी अपने हाथ नचाते लगते हैं
………………………
चारो तरफ मुखौटे सजे हैं
पीछे के मुख पहचान में नहीं आते।
नये जमाने का यह चालचलन है
फरिश्तों का मुखौटा शैतान लगाते।

……………………

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

देशी बीमारी, विदेशी बीमारी-हास्य कविता (deshi aur videshi bimari-hasya kavita)


स्वाईन फ्लू की बीमारी ने आते ही देश में प्रसिद्धि आई।
इतने इंतजार के बाद, आखिर शिकार ढूंढते विदेश से आई।।
ढेर सारी देसी बीमारियां पंक्तिबद्ध खड़ी होकर खड़ी थी
पर तब भी विदेश में बीमारी के नृत्य की खबरें यहां पर छाई।
देसी कुत्ता हो या बीमारी उसकी चर्चा में मजा नहीं आता
देसी खाने और दवा के स्वाद से नहीं होती उनको कमाई।।
महीनों से लेते रहे स्वाईन फ्लू का नाम बड़ी शिद्दत से
उससे तो फरिश्ता भी प्रकट हो जाता, यह तो बीमारी है भाई।।
करने लगे हैं लोग, देसी बीमारी का देसी दवा से इलाज
बड़ी मुश्किल से कोई बीमारी धंधा कराने विदेश से आई।।
कहैं दीपक बापू मजाक भी कितनी गंभीरता से होता है
चमड़ी हो या दमड़ी, सम्मान वही पायेगी जो विदेश से आई।।

…………………………….

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

वह कौनसी तराजू है-हिन्दी व्यंग्य कविता (taraju-hasya kavita)


कामयाबी की कीमत
मुद्रा में आंकी जाने लगी है।
इज्जत और दिल के चैन का
मोल लोग भूल गये हैं
ढेर सारी दौलत एकत्रित कर
प्रतिष्ठा का भ्रम पाले
अपने पांव तले
दूसरे इंसान को कुचलने की चाहत
हर इंसान में जगी है।
…………………………
वह कौनसी तराजू हैं
जिसमें इंसान की इज्जत
और दिल का चैन तुल जाये।
दौलत के ढेर कितने भी बड़े हों
फिर भी उनमें कोई द्रव्य नहीं है
जिसमें दिल का अहसास उसमें घुल जाये।
………………………..

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

दिखावे की दोस्ती -हिंदी शायरी (dikhave ki dosti-hindi shayri)



बेसुरा वह गाने लगे।
किसी के समझ न आये
ऐसे शब्द गुनगनाने लगे।
फिर भी बजी जोरदार तालियां
मन में लोग बक रहे थे गालियां
आकाओं ने जुटाई थी किराये की भीड़
अपनी महफिल सजाने के लिये
इसलिये लोगों ने अपने मूंह सिल लिये
पहले हाथों से चुकाई ताली बजाकर कीमत
दाम में पाया खाना फिर खाने लगे।
………………………
कमअक्ल दोस्त से
अक्लमंद दुश्मन भला
ऐसे ही नहीं कहा जाता है।
दुश्मन पर रहती है नजर हमेशा
दोस्त का पीठ पर वार करना
ऐसे ही नहीं सहा जाता है।
जमाने में खंजर लिये घूम रहा है हर कोई
अकेले भी तो रहा नहीं जाता है
इसलिये दिखाने के लिये
बहुत से लोगों को दोस्त कहा जाता है।

……………………………..

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

ख़ुद भटके,द्रूसरे को देते रास्ते का पता-व्यंग्य कविता


अपनी मंजिल पर
कभी वह पहुंचे नहीं।
चले कहीं के लिये थे
पहुंचे गये कहीं।
भटकाव सोच का था
कभी रास्ते से वह उतर जाते
कभी खो जाता रास्ता कहीं।
……………………..
अपने रास्ते से वह भटके
अपने ही गम में वह लटके
कोई उपाय न देखकर
बूढ़े बरगद के नीचे धूनि रमाई।

दूसरे को रास्ता बताने लगे
यूं भीड़ का काफिला बढ़ता गया
जमाना ही उनके जाल में फंसता गया
फिर भी चल रहा है उनका धंधा
कभी आता नहीं मंदा
जब तक लोग भटकते रहेंगे
रास्ते पूछने की कीमत सहेंगे
मंजिल पर पहुंच जायेगा राही
बन नहीं हो जायेगी कमाई।
भ्रम वह सिंहासन है
जिसे सिर पर बिठाया तो
बन गये प्रजा
उस पर बैठे तो बने राजा
सच है सर्वशक्तिमान ने
खूब यह दुनियां बनाई

……………………………
नोट-यह व्यंग्य काल्पनिक तथा इसका किसी व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है और किसी से इसका विषय मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

हादसों से सीखा, अफ़सानों ने समझाया-व्यंग्य कविता


कुछ हादसों से सीखा
कुछ अफसानों ने समझाया।
सभी जिंदगी दो चेहरों के साथ बिताते हैं
शैतान छिपाये अंदर
बाहर फरिश्ता दिखाते हैं
आगे बढ़ने के लिये
पीठ पर जिन्होंने हाथ फिराया।
जब बढ़ने लगे कदम तरक्की की तरफ
उन्होंने ही बीच में पांव फंसाकर गिराया।
इंसान तो मजबूरियों का पुतला
और अपने जज़्बातों का गुलाम है
कुदरत के करिश्मों ने यही बताया।
…………………….
कदम दर कदम भरोसा टूटता रहा
यार जो बना, वह फिर रूठता रहा।
मगर फिर भी ख्यालात नहीं बदलते
भले ही हमारे सपनों का घड़ा फूटता रहा
हमारे हाथ की लकीरों में नहीं था भरोसा पाना
कोई तो है जो निभाने के लिए जूझता रहा।
…………………………

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

मुस्कराहट का मुखौटा-व्यंग्य कविता


बेकद्रों की महफिल में मत जाना
बहस के नाम पर वहां बस कोहराम मचेगा
पर कौन, किसकी कद्र करेगा।
मुस्कराहट का मुखौटा लगाये सभी
हर शहर में घूम रहे हैं
जो मिल नहीं पाती खुशी उसे
ढूंढते हुए झूम रहे हैं
दूसरे के पसीने में तलाश रहे हैं
अपने लिये चैन की जिंदगी
उनके लिये अपना खून अमृत है
दूसरे का है गंदगी
तुम बेकद्रों को दूर से देखते रहकर
उनकी हंसी के पीछे के कड़वे सच को देखना
दिल से टूटे बिखरे लोग
अपने आपसे भागते नजर आते हैं
शोर मचाकर उसे छिपाते हैं
उनकी मजाक पर सहम मत जाना
अपने शरीर से बहते पसीने को सहलाना
दूसरा कोई इज्जत से उसकी कीमत
कभी तय नहीं करेगा।

………………………

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

लफ्ज़ ही इन्कलाब का सैलाब लाते-हिंदी शायरी


यह सच है कि लिखने से इंकलाब नहीं आते।
पर जमाना बदल दे, लफ्ज ही ऐसा सैलाब लाते।।
किसी के लफ्ज पर ही तो तलवारें म्यान से निकलीं
खूनी जंग में गूंजती चीखें, कान गीत को तरस जाते।।
किताबों ने आदमी को गुलाम बनाकर रख दिया
लफ्जों की लड़ाई में लफ्ज ही तलवार बन पाते।।
चीखते हुए तलवार घुमाओ या कलम पर करो भरोसा
मरा आदमी किस काम का, लफ्ज उसे गुलाम बनाते।।
कहें दीपक बापू दूसरों के लिखे पर चलते रहे हो
गुर्राने से क्या फायदा, क्यों नहीं मतलब के शब्द रच पाते।।
हथियार फैंकने और मारने वाले बहुत मिल जायेंगे
उनको रास्ता बताने के लिये, क्यों नहीं गीत गजल सजाते।।

……………………….

यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

वही नायक बनेगा-हास्य व्यंग्य कविताएँ


रीढ़हीन हो तो भी चलेगा।
चरित्र कैसा हो भी
पर चित्र में चमकदार दिखाई दे
ऐसा चेहरा ही नायक की तरह ढलेगा।

शब्द ज्ञान की उपाधि होते हुए भी
नहीं जानता हो दिमाग से सोचना
तब भी वह जमाने के लिये
लड़ता हुआ नायक बनेगा।
कोई और लिखेगा संवाद
बस वह जुबान से बोलेगा
तुतलाता हो तो भी कोई बात नहीं
कोई दूसरा उसकी आवाज भरेगा।

बाजार के सौदागर खेलते हैं
दौलत के सहारे
चंद सिक्के खर्च कर
नायक और खलनायक खरीद
रोज नाटक सजा लेते हैं
खुली आंख से देखते है लोग
पर अक्ल पर पड़ जाता है
उनकी अदाओं से ऐसा पर्दा पड़ जाता
कि ख्वाब को भी सच समझ पचा लेते हैं
धरती पर देखें तो
सौदागर नकली मोती के लिये लपका देते हैं
आकाश की तरफ नजर डालें
तो कोई फरिश्ता टपका देते हैं
अपनी नजरों की दायरे में कैद
इंसान सोच देखने बाहर नहीं आता
बाजार में इसलिये लुट जाता
ख्वाबों का सच
ख्यालों की हकीकत
और फकीरों की नसीहत के सहारे
जो नजरों के आगे भी देखता है
वही इंसान से ग्राहक होने से बचेगा।

…………………………….

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

——————
बादशाह बनने की चाहत-हिंदी शायरी
हीरे जवाहरात और रत्नों से सजा सिंहासन
और संगमरमर का महल देखकर
बादशाह बनने की चाहत मन में चली ही आती है।
पर जमीन पर बिछी चटाई के आसन
कोई क्या कम होता है
जिस पर बैठकर चैन की बंसी
बजाई जाती है।

देखने का अपना नजरिया है
चलने का अपना अपना अंदाज
पसीने में नहाकर भी मजे लेते रहते कुछ लोग
वह बैचेनी की कैद में टहलते हैं
जिनको मिला है राज
संतोष सबसे बड़ा धन है
यह बात किसी किसी को समझ में आती है।
लोहे, पत्थर और रंगीन कागज की मुद्रा में
अपने अरमान ढूंढने निकले आदमी को
उसकी ख्वाहिश ही बेचैन बनाती है।

…………………

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

मर्द की असलियत और नारी मुक्ति-व्यंग्य क्षणिकाएं


पीता जाए चुपचाप दर्द.
घर की नारी करें हैरान
ससुराल वाले धमकाकर करें परेशान
पर खामोश रहे वही है असली मर्द.

पसीना बहाकर कितना भी थक जाता हो
फिर भी नींद पर उसका हक़ नहीं हैं
अगर नारी का हक़ भूल जाता हो
घर में भीगी बिल्ली की तरह रहे
भले ही बाहर शेर नज़र आता हो
मुश्किलों में पानी पानी हो जाए
भले ही हवाएं चल रही हों सर्द.
तभी कहलाएगा मर्द.
———————–
मर्द को हैरान करे
पल पल परेशान करे
ऐसी हो युक्ति.
उसी से होती है नारी मुक्ति.
डंडे के सहारे ही चलेगा समाज
प्यार से घर चलते हैं
पड़ गयी हैं यह पुरानी उक्ति.

————————–

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

शराब पीना बन गयी है आज़ादी का पैमाना -हिंदी व्यंग्य कविता


अब खूब पीना शराब
नहीं कहेगा कोई खराब
क्योंकि वह आजादी का पैमाना बन गयी है
कदम बहकने की फिक्र मत करना
इंसानी हकों के के नाम पर लड़ने वाले
तुम्हें संभाल लेंगे
इंतजार में खड़े हैं मयखानों के बाहर
कोई लड़खड़ाता हुआ आये तो
उसे सजा सकें अपनी महफिल में
हमदर्दी के व्यापार के लिये
उनके ठिकानों पर दर्द लेकर आने वालों की
भीड़ कम हो गयी है
………………………….
अपनी अक्ल का इस्तेमाल करोगे
तो दुश्मन बहुत बन जायेंगे
क्योंकि दूसरों पर
अपनी समझ लादने वालों की भीड़ बढ़ गयी है
जो ढूंढते हैं कलम और तलवार
अपने हाथों में लेकर
जो सच में तुम आजाद दिखे तो
डर जायेंगे
आजादी की बात कर
वह तुम्हें गुलाम बनायेंगे
नहीं माने तो विरोधी बन जायेंगे

…………………………….

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

खाकपति से बने करोड़पति पर कहानी-हास्य व्यंग्य कविताएँ


फिल्मों की कहानी में
गंदी बस्ती का लड़का
करोड़पति बन जाता है
पर हकीकत में भला कहां
कोई ऐसा पात्र नजर आता है
यह तो है बाजार के प्रचार का खेल
जो पहले करोड़पति बनने वाले
सवाल जवाब का कार्यक्रम बनाता है
उठते हैं उसकी सच्चाई पर सवाल
पर भला झूठ और ख्वाब के सौदागर
पर उसका असर कहां आता है
फिर बाजार रचता है
गंदी बस्ती का एक काल्पनिक पात्र
जो करोड़पति का इनाम जीत जाता है
प्रचार फिर उस काल्पनिक पात्र पर जाता है
सच कहते हैं एक झूठ सच बोलो
तो वह सच नजर आता है
……………………………….
अमीरों में कभी भेद नहीं होता
पर गरीबों में बना दिये
जाति,भाषा और धर्म के कई भेद
करते हैं बाजार के सौदागर
समय पर अपना शासन चलाने के लिये
उसमें बहुत छेद
जिसका तूती बोलती है
उसी वर्ग के गरीब की तूती बजाते
भले ही उनके काम भी नहीं आते
पर दूसरे को तकलीफ पहुंचाते हुए
उनके मन में नहीं होता खेद
…………………..
एक गरीब ने कहा दूसरे से
चलता है करोड़पति देखने
सुना है फिल्म में बहुत मजा आता है’
दूसरे ने कहा
‘पहले पता करूंगा कि
उसमें नायक के फिल्मी नाम की जाति कौनसी है
फिर चलूंगा
अगर तेरी जाति का नाम हुआ तो
मुझे गुस्सा आ जायेगा
करोड़पति बने या रहे खाकपति
मुझे तो अपनी जाति के नायक के फिल्मी नाम पर बनी
फिल्म देखने में ही मजा आता है

………………………………………….

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

पब में पीने से शराब कोई अमृत नहीं हो जाती -हास्य कविता


नयी धोती, कुरता और टोपी पहनकर
बाहर जाने को तैयार हुए
कि आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू
अच्छा हुआ तैयार हुए मिल गये
समय बच जायेगा
चलो आज अपने भतीजे के पब के
उदघाटन कार्यक्रम में तुम्हें भी ले जाता।
वहां तुम्हें पांचवें नंबर का अतिथि बनाता।
किसी ने नहीं दिया होगा ऐसा सम्मान
जो मैं तुम्हें दिलाता
खाने के साथ जाम भी पिलाता’।

सुनकर क्रोध में भर गये
फिर लाल लाल आंखें करते हुए बोले
दीपक बापू
‘कमबख्त जब भी मेरे यहां आना
प्यार में हो या गुस्से में जरूर देना ताना
पब में पीने से
शराब का कोई अमृत नहीं बन जाता।
पीने वाला पीकर तामस
प्रवृत्ति का ही हो जाता ।
झगड़े पीने वाला शुरु करे या दूसरा कोई
बदनाम तो दोनों का नाम हो जाता।
शराब कोई अच्छी चीज नहीं
इसलिये घर में सभी को पीने में लज्जा आती
बाहर पियें दोस्तों के साथ महफिल में
तो कभी झगड़ों की खबर आती
शराब-खाने के नाम पर कान नहीं देंगे लोग
इसलिये पब के नाम से खबर दी आती
शराब का नाम नहीं होता
इसलिये वह सनसनी बन जाती
शराब पीने पर फसाद तो हो ही जाते हैं
शराब की बात कहें तो असर नहीं होता
इसलिये खाली पब के नाम खबर में दिये जाते हैं
पिटा आदमी शराबी है
इसे नहीं बताया जाता
क्योंकि उसके लिये जज्बात पैदा कर
सनसनी फैलाने के ख्वाब मिट जाते हैं
पब नाम रखा जाता है इसलिये कि
शराब का नाम देने में सभी शरमाते हैं
वहां हुए झगड़ों में भी
अब ढूंढने लगे जाति,धर्म,भाषा और लिंग के भेद
ताकि शराब पीकर पिटने वालों के लिये
लोगों में पैदा कर सकें खेद
रखो तुम अपने पास ही उदघाटन का सम्मान
कभी पब पर कुछ हुआ तो
हम भी हो जायेंगे बदनाम
वैसे भी हम नहीं पीते अब जाम
अंतर्जाल पर हास्य कवितायें लिखकर ही
कर लेते हैं नशा
हमें तो अपना कंप्यूटर ही पब नजर आता है

…………………………………..

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

दर्द बयां करते हुए हो जाता है भुलावा-व्यंग्य कविताएँ


चेहरे हैं उनके सजे हुए
अपने घर पर उन्होंने
पत्थर और प्लास्टिक के फूल सजाये हैं
अपनी जुबान से बात करते हैं
वह ईमान और वफा की
पर अपने करते नहीं वह धंधे जो
उन्होंने सभी को बताये हैं
नाम तो हैं बड़े आकर्षक पर
काम का कोई भरोसा नहीं है
कौन बिक जाये यहां
पता नहीं लगता
आजाद तो सभी दिखते हैं
चाल और चरित्र में ‘सत्य’ लिखते हैं
पर सवाल उठता है
फिर इतने सारे इंसान
गुलामों के बाजार में
बिकने कहां से आये हैं
फूल तो है सभी के एक हाथ में
पर दूसरे हाथ में पीठ पीछे
सभी खंजर सजाये हैं

——————-
पुरानी इबारतें-हिंदी शायरी
जब भी अपने दिल का हाल
दूसरें को हम सुनाते हैं
तब उस पर हंसने वालों को
भेजते है बुलावा
दर्द बयां करते हुए हो जाता है भुलावा
जिनके सहारे लेकर दोस्त भी दुश्मन बनकर
कमजोर जगहों पर वार कर जाते हैं
पुरानी इबारतों को पढ़ना हमेशा
बुरा नहीं होता
जिन में धोखे और गद्दारी पर
ढेर सारे किस्से हैं दर्ज
जिनमें इंसानी रिश्ते
वफा की तरफ कम
बेवफाई की तरफ अधिक जाते हैं।

…………………………

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

यह प्यार है बाजार का खेल-व्यंग्य कविता


खूब करो क्योंकि हर जगह
लग रहे हैं मोहब्बत के नारे
बाजार में बिक सकें
उसमें करना ऐसे ही इशारे
उसमें ईमान,बोली,जाति और भाषा के भी
रंग भरे हों सारे
जमाने के जज्बात बनने और बिगड़ने के
अहसास भी उसमें दिखते हांे
ऐसा नाटक भी रचानां
किसी एकता की कहानी लिखते हों
भले ही झूठ पर
देश दुनियां की तरक्की भी दिखाना
परवाह नहीं करना किसी बंधन की
चाहे भले ही किसी के
टूटकर बिखर जायें सपने
रूठ जायें अपने
भले ही किसी के अरमानों को कुचल जाना
चंद पल की हो मोहब्बत कोई बात नहीं
देखने चले आयेंगे लोग सारे
हो सकती है
केवल जिस सर्वशक्तिमान से मोहब्बत
बैठे है सभी उसे बिसारे

……………………………
जगह-जगह नारे लगेंगे
आज प्यार के नारे
बाहर ढूंढेंगे प्यार घर के दुलारे
प्यार का दिवस वही मनाते
जो प्यार का अर्थ संक्षिप्त ही समझ पाते
एक कोई साथी मिल जाये जो
बस हमारा दिल बहलाए
इसी तलाश में वह चले जाते

बदहवास से दौड़ रहे हैं
पार्क, होटल और सड़क पर
चीख रहे हैं
बधाई हो प्रेम दिवस की
पर लगता नहीं शब्दों का
दिल की जुबान से कोई हो वास्ता
बसता है जो खून में प्यार
भला क्या वह सड़क पर नाचता
अगर करे भी कोई प्यार तो
भला होश खो चुके लोग
क्या उसे समझ पाते
प्यार चाहिऐ और दिलदार चाहिए के
नारे लगा रहे
पर अक्ल हो गयी है भीड़ की साथी
कैसे होगी दोस्त और दुश्मन की पहचान
जब बंद है दिमाग से दिल की तरफ
जाने का रास्ता
अँधेरे में वासना का नृत्य करने के लिए
प्यार का ढोंग रचाते
यह प्यार है बाजार का खेल
शाश्वत प्रेम का मतलब
क्या वाह जानेंगे जो
विज्ञापनों के खेल में बहक जाते

———————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

दर्द से लड़ते आंसू सूख गये-हिंदी शायरी


जब हकीकतें होती बहुत कड़वी
वह मीठे सपनों के टूटने की
चिंता किसी को नहीं सताती
जहां आंखें देखती हैं
हादसे दर हादसे
वहां खूबसूरत ख्वाब देखने की
सोच भला दिमाग में कहा आती

दर्द से लड़ते आंसू सूख गये है जिसके
हादसों पर उसकी हंसी को मजाक नहीं कहना
उसकी बेरुखी को जज्बातों से परे नही समझना
कई लोग रोकर इतना थक जाते
कि हंसकर ही दर्द से दूर हो पाते
जिक्र नहीं करते वह लोग अपनी कहानी
क्योंकि वह हो जाती उनके लिये पुरानी
रोकर भी जमाना ने क्या पाता है
जो लोग जान जाते हैं
अपने दिल में बहने वाले आंसू वह छिपाते हैं
इसलिये उनकी कशकमश
शायरी बन जाती
शब्दों में खूबसूरती या दर्द न भी हो तो क्या
एक कड़वे सच का बयान तो बन जाती
……………………………………………
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

यह शहर धरती का एक टुकड़ा है-व्यंग्य कविता


अपने शहर पर इतना नहीं इतराओ
कि फिर पराये लगने लगें लोग सभी
कभी यह गांव जितना छोटा था
तब न तुम थे यहां
न कोई बाजार था वहां
बाजार बनते बड़ा हुआ
सौदागर आये तो खरीददार भी
गांव से शहर बना तभी

आज शहर की चमकती सड़कों
पर तुम इतना मत इतराओ
बनी हैं यह मजदूरों के पसीने से
लगा है पैसा उन लोगों का
जो लगते हैं तुमको अजनबी
‘मेरा शहर सिर्फ मेरा है’
यह नारा तुम न लगाओ
तुम्हारे यहां होने के प्रमाण भी
मांगे गये तो
अपने पूर्वजों को इतिहास देखकर
अपने बाहरी होने का अहसास करने लगोगे अभी

अपने शहर की इमारतों और चौराहों पर
लगी रौशनी पर इतना मत इतराओ
इसमें जल रहा है पसीना
गांवों से आये किसानों का तेल बनकर
घूमने आये लोगों की जेब से
पैसा निकालकर खरीदे गये बल्ब
मांगा गया इस रौशनी का हिसाब तो
कमजोर पड़ जायेंगे तर्क तुम्हारे सभी

यह शहर धरती का एक टुकड़ा है
जो घूमती है अपनी धुरी पर
घूम रहे हैं सभी
कोई यहां तो कोई वहां
घुमा रहा है मन इंसान का
अपने चलने का अहसास भ्रम में करते बस सभी
जिस आग को तुम जला रहे हो
कुछ इंसानों को खदेड़ने के लिये
जब प्रज्जवलित हो उठेगी दंड देने के लिये
तो पूरा शहर जलेगा
तुम कैसे बचोगे जब जल जायेगा सभी

अपने शहर की ऊंची इमारतों और
होटलों पर इतना न इतराओ
दूसरों को बैचेन कर
अपने लोगों को अमन और रोटी दिलाने का
वादा करने वालों
बरसों से पका रहे हो धोखे की रोटी
दूसरों की देह से काटकर बोटी
अधिक दूर तक नहीं चलेगा यह सभी
दूसरों की भूख पर अपने घर चलाने का रास्ता
बहुत दूर तक नहीं जाता
क्योंकि तुम हो छीनने की कला में माहिर
रोटी पकाना तुमको नहीं आता
जान जायेगें लोग कुछ दिनों में सभी

——————————
तालाब के चारों और किनारे थे
पर पानी में नहाने की लालच मेंं
नयनों के उनसे आंखें फेर लीं
पर जब डूबने लगे तो हाथ उठाकर
मांगने लगे मदद
पर किनारों ने फिर सुध नहीं ली
……………………………….
दिल तो चाहे जहां जाने को
मचलता है
बंद हो जातीं हैं आंखें तब
अक्ल पर परदा हो जाता है
पर जब डगमगाते हैं पांव
जब किसी अनजानी राह पर
तब दुबक जाता है दिल किसी एक कोने में
दिमाग की तरफ जब डालते हैं निगाहें
तो वहां भी खालीपन पलता है
……………………………

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

सहमा शब्द -हिन्दी शायरी


जब बमों की आवाज से
शहर काँप जाते हैं
बाज़ार में सड़कों पर
फैले खून के दृश्य
आखों के सामने आते हैं
तब बैठने लगता है दिल
लड़खडाने लगती है जुबान
हाथ रुक जाते हैं
तब अपने शब्द लडखडाते नजर आते हैं

लगता है कि कोई
मुस्करा रहा है यह बेबसी देखकर
क्योंकि बुलंद आवाज और
बोलते शब्द उसे पसंद नहीं आते हैं
उसके चेहरे पर है कुटिलता का भाव
लगता है उसी ने दिया है घाव
आजादी देने के बहाने
अपने पास बुलाकर
मन में खौफ भरकर
लोगों को गुलाम बनाने के बहाने उसे खूब आते हैं

क्या बाँटें दर्द अपना
किससे कहें हाल दिल का
लोगों के खून के साथ होली खेलने वाले
चुपके से निकल जाते हैं
अपना उदास चेहरा किसे दिखाएँ
कही अपने कदम न लडखडायें
यहाँ खंजर लिए है कौन
पता नहीं चलता
पीठ में घोंपने के लिए सब तैयार नजर आते हैं

ज़माने में अमन और चैन बेचने का भी
व्यापार होता है
भले ही मिल नहीं पाते हैं
पर दहशत के सौदागर फलते हैं इसलिए
क्योंकि दाम लेकर खून का
सौदा हाथों हाथ किये जाते हैं
इंसानी रिश्तों को वह क्या समझेंगे
जो इसका मोल नहीं जान पाते हैं
बुलंद आवाज़ और शब्दों की ताकत क्या समझेंगे
वह बम धमाकों में ही
अपने को कामयाब समझ पाते हैं
उनकी आवाज से खून बहता है सड़क पर
तकलीफों के कारवाँ
लोगों के घर पहुँच जाते हैं
पर सहमा शब्द
लडखडाते हुए चलते हुए भी
लम्बी दूरी तय कर जाते हैं
मिटते नहीं कभी
समय की मार से मरने वाले बचे ही कहाँ
पर मारने वाले भी कब बच पाते हैं
दहशत से शब्द कभी न कभी तो उबार आते हैं
भले ही धमाको से शब्द उदास हो जाते हैं

—————————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

ऐसे ही खाते हैं कसम-व्यंग्य कविता



नकली घी,खोवा और दूध से
हो रहा है बाज़ार गर्म
दीपावली का जश्न मनाने से पहले
अमृत के नाम पर विष पी जाने के
खौफ से छिद्र हो रहा है मर्म
बिना मिठाई के दीपावली क्या मजा क्या
पर पेट में जो भर दे विकार
ऐसे पेडे भी खाकर बीमार पड़ना क्या
कि जश्न मनाकर जोशीले तेवर
डाक्टर के सख्त सुई से पड़ जाएँ नर्म
——————————–

ईमानदारी की कसम खाकर
वह बेचते हैं मिलावटी सामान
क्योंकि अब तो वह मर मिट गयी है इस दुनिया से
चाहे जितनी क़समें खा लो उसके नाम की
दोबारा जिंदा नहीं हो सकती ईमानदारी
कितनी भी बेईमानी करने पर
पकड़ने के लिए किसी आदमी के कान

————————–
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

मन की उदासी कहने में डर लगता है-हिंदी शायरी


अपने मन की उदासी
किसी से कहने में डर लगता है
जमाने में फंसा हर आदमी
अपनी हालातों से है खफा
नहीं जानता क्या होती वफा
अपने मन की उदासी को दूर
करने के लिये
दूसरे के दर्द में अपनी
हंसी ढूंढने लगता है
एक बार नहीं हजार बार आजमाया
अपने ही गम पर
जमाने को हंसता पाया
जिन्हें दिया अपने हाथों से
बड़े प्यार से सामान
उन्होंने जमाने को जाकर लूट का बताया
जिनको दिया शब्द के रूप में ज्ञान
उन्होंने भी दिया पीठ पीछे अपमान
बना लेते हैं सबसे रिश्ता कोई न कोई
पर किसी को दोस्त कहने में डर लगता है

…………………………………….

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

खुद सज जाते हैं हमेशा दूल्हों की तरह-व्यंग्य कविता


लोगों को आपस में
मिलाने के लिये किया हुआ है
उन्होंने शामियानों का इंतजाम
बताते हैं जमाने के लिये उसे
भलाई का काम
खुद सज जाते हैं हमेशा दूल्हों की तरह
अपना नाम लेकर
पढ़वाते हैं कसीदे
उनके मातहत बन जाते सिपहसालार
वह बन जाते बादशाह
बाहर से आया हर इंसान हो जाता आम

जिनको प्यारी है अपनी इज्जत
करते नहीं वहा हुज्जत
जो करते वहां विरोध, हो जाते बदनाम
मजलिसों के शिरकत का ख्याल
उनको इसलिये नहीं भाता
जिनको भरोसा है अपनी शख्यिसत पर
शायद इसलिये ही बदलाव का बीज
पनपता है कहीं एक जगह दुबक कर
मजलिसों में तो बस शोर ही नजर आता
ओ! अपने ख्याल और शायरी पर
भरोसा करने वालोंे
मजलिसों और महफिलों में नहीं तुम्हारा काम
बेतुके और बेहूदों क्यों न हो
इंतजाम करने वाले ही मालिक
सजते हैं वहां शायरों की तरह
बाहर निकल कर फीकी पड़ जायेगी चमक
इसलिये दुबके अपने शामियानों के पीछे
कायरों की तरह
वहां नहीं असली शायर का काम

…………………………

यह आलेख/कविता इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन-पत्रिका…’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

जो बुत बोल रहे, पराये शब्द और स्वर लेकर डोल रहे-व्यंग्य कविता


हाड़मांस के पुतलों से
हो गये है नाउम्मीद इसलिये
पत्थर के बुत ही पूजना अच्छा लगता
कम से कम उम्मीद के टूटने का भय तो नहीं रहता

पत्थर बोलते नहीं है
पर जो बुत बोल रहे
स्वर उनके जरूर हैं पर
शब्द पराये होकर डोल रहे ं
आखों में जिनके जीवन है
देख रहे हैं दृश्य
पर उसे किसी का दृष्टिकोण उधार लेकर तोल रहे
उनकी किसी बात को
प्रमाणिक मानने को मन नहीं कहता

ऋषियों और मुनियों जैसे
बन नहीं सके
ऐसे पुरुषों ने अपने को पुजवाने के लिये
तमाम दिये नारे
इतिहास में किया नाम दर्ज
समाज के इलाज के नाम पर दिया
उसे भ्रमों में भटकने का मर्ज
भटक रहे हैं कई किताबी कीड़े
उतारने के लिये उनका कर्ज
मिटाने की चाहत थी पुराने इतिहास की
नया जो रचा उन्होंने
नीरस और बोझिल शब्दों से जो वाद और नारा
वह कभी हकीकत नहीं लगता
पर बिखरे पड़े हैं उनके शागिर्द चारों ओर
को साहसी भी सच नहीं उनसे नहीं कहता

पत्थर के बुतों से
अगर नहीं है कामयाबी की आशा
तो नहीं होती कभी
उनसे झूठ और भ्रम की वजह से निराशा
हाड़मांस के पुतलों को क्या
नाम दें
इसलिये तो जमाना पत्थर के बुतों को ही
अपना इष्ट कहता
पत्थरों से जंग लड़ी जाती है तभी
जब हाड़मांस के बुतों बातों पर होती जंग
उनके नारे लगाने वालों की
हो जाती है सोच तंग
पर पत्थर का कोई बुत
खुद तो किसी को जंग के लिये नहीं कहता

…………………………………….

यह आलेख ‘दीपक” भारतदीप की सिंधु केसरी-पत्रिका पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका 2.दीपक भारतदीप का चिंतन 3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

दूसरे के दर्द में अपनी तसल्ली ढूंढता आदमी-हिंदी शायरी


शहर-दर-शहर घूमता रहा

इंसानों में इंसान का रूप ढूंढता रहा
चेहरे और पहनावे एक जैसे

पर करते हैं फर्क एक दूसरे को देखते

आपस में ही एक दूसरे से

अपने बदन को रबड़ की तरह खींचते

हर पल अपनी मुट्ठियां भींचते

अपने फायदे के लिये सब जागते मिले

नहीं तो हर शख्स ऊंघता रहा

अपनी दौलत और शौहरत का

नशा है

इतराते भी उस बहुत

पर भी अपने चैन और अमन के लिये

दूसरे के दर्द से मिले सुगंध तो हो दिल को तसल्ली

हर इंसान इसलिये अपनी

नाक इधर उधर घुमाकर सूंघता रहा
……………………………
दीपक भारतदीप

यह आलेख ‘दीपक भारतदीप की ई-पत्रिकापर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप