Tag Archives: internet

वैश्विक समाजों का अंतर्द्वंद्व और अंतर्जाल-आलेख (hindi article on the social matter)


यहां हम इस मुद्दे पर चर्चा नहीं करने जा रहे कि किसी अश्लील वेबसाईट पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिये या नहीं और न ही इसके देखने या न देखने के औचित्य पर सवाल उठा रहे हैं बल्कि हमारा मुख्य ध्येय है यह है कि हम समाज के उस अंतद्वंद्व को देखें जिस पर किसी अन्य की नजर नहीं जा रही। यहां हम चीन और भारतीय समाजों को केंद्र बिंदु में रखकर यह चर्चा कर रहे हैं जहां इस तरह की अश्लील वेबसाईटों पर प्रतिबंध लगाने की चर्चा है। भारत में तो केवल एक ही वेबसाईट पर रोक लगी है-जिसके बारे में अंतर्जाल के लेखक कह रहे हैं कि यह तो समंदर से बूंद निकलाने के बराबर है-पर चीन तो सारी की सारी वेबसाईटों के पीछे पड़ गया है।

कुछ दिनों पहले तक कथित समाज विशेषज्ञ चीन के मुकाबले दो कारणों से पिछड़ा बताते थे। एक तो वहां औसत में कंप्यूटर भारत से अधिक उपलब्ध हैं दूसरा वहां इंटरनेट पर भी लोगों की सक्रियता अधिक है। इन दोनों की उपलब्धता अगर विकास का प्रमाण है तो दूसरा यह भी सच है कि अंतर्जाल पर इन्हीं यौन साहित्य और सामग्री से सुसज्जित वेबसाईटों ने ही अधिक प्रयोक्ता बनाने के लिये इसमें योगदान दिया है। अंतर्जाल ने शिक्षा, साहित्य, व्यापार तथा आपसी संपर्क बढ़ाने मे जो योगदान दिया है उससे कोई इंकार नहीं कर सकता पर सवाल यह भी कि ऐसे सात्विक उद्देश्य की पूर्ति कितने प्रयोक्ता कर रहे हैं? यह लेखक ढाई वर्ष से इस अंतर्जाल को निकटता से देख रहा है और उसका यह अनुभव रहा है कि भारत में प्रयोक्ताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग केवल मनोरंजन के लिये इसे ले रहा है। इससे भी आगे यह कहें कि वह असाधारण मनोरंजन की चाहत इससे पूरी करना चाहता है। जिस तरह चीन सरकार आक्रामक हो उठी है तो उससे तो यही लगता है कि वहां भी इसी तरह का ही समाज है।
अनेक ब्लाग लेखकों ने यह बताया है कि यौन सामग्री वाली वेबसाईटों में ढेर सारी कमाई है और यह इतनी है कि गूगल और याहू जैसी कंपनियों के लिये भी कल्पनातीत है। कोई वेबसाईट दस माह में ही इतनी प्रसिद्ध हो जाती है कि उस पर प्रतिबंध लग जाता है। इसमें समाज के बिगड़ने की चिंता के साथ आर्थिक पक्ष भी हो सकता है। एक आश्चर्य की बात यह है कि दस माह में कोई वेबसाईट इतनी लोकप्रिय कैसे हो जाती है? निश्चित रूप से चीन ने अपने देश की बहुत बड़ी राशि बाहर जाने से रोकने के लिये ही ऐसा किया होगा। उसे रोकने के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास हो रहे हैं जो कि इस बात का प्रमाण है कि कहीं न कहीं इन प्रतिबंधों के पीछे आर्थिक कारण भी है।
भारत और चीनी समाज में बहुत सारी समानतायें हैं। अंतर है बस इतना कि यहां वेबसाईट पर प्रतिबंधों का विरोध मुखर ढंग से किया जा सकता है पर वहां यह संभव नहीं है। वैसे दोनों ही समाजों में बूढ़ों को सम्मान से देखा जाता है और यही कारण है कि समाज पर नियंत्रण के लिये उनकी राय ली जाती है। समस्या यह है आदमी जब युवा होता है तब वह यौन साहित्य छिपकर पढ़ाा है पर बूढ़ा होने पर युवाओं को पढ़ने से रोकना चाहता है। यही दोनों समाजों की समस्या भी है। इसके अलावा सभी चाहते हैं कि वह पश्चिम द्वारा बनाये आधुनिक साधनों का उपयोग तो करें पर उसके रहन सहन की शैली और नियम न अपनायें। सभी लोग भौतिक परिलब्धियों के पीछे अंधाधुंध भाग रहे पर चाहते हैं कि देश की संस्कृति और स्वरूप की रक्षा सरकार करे।
इसमें एक मजेदार विरोधाभास दिखाई देता है। भारत और चीन के समाजों में माता, पिता, गुरु और धर्म चारों ही हमेशा संस्कृति और संस्कार का आधार स्तंभ माना जाते हैं। माता को तो प्रथम गुरु माना जाता है जो बच्चे में संस्कार और संस्कृति के बीच बोती है। गुरुपूर्णिमा हमारे यहां मनायी जाती है पर अब पश्चिमी प्रभाव से माता पिता दिवस भी मनाने लगे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब हम संस्कृति के लड़खड़ाने की बात करते हैं तो क्या हमारा यह आशय है कि हमारे यह चारों स्तंभ अब काम नहीं करे रहे? अगर कर रहे हैं तो फिर युवाओं के बिगड़ने का भय क्यों सता रहा है? अगर नहीं कर रहे हैं तो फिर संस्कृति को बचाने की जरूरत ही क्या है?
सीधी बात तो यह है कि हम पश्चिमी साधनों को तो हासिल कर लेते हैं पर उसके उपयोग के नियमों को नहीं अपनाना चाहते। कंप्यूटर सभी जगह अपनाना जा रहा है पर उस पर काम करने के कायदे कहीं लागू नहीं है। कंप्यूटर अधिक काम करता है पर चलाता तो आदमी ही है न! मगर उसे भी कंप्यूटर मानकर उससे कैसे काम लिया जाता है? यह कौन देख रहा है? यही हालत हवाई जहाज की है। उसे उड़ाने वाले पायलटों का नियम से कितना चलाया जाता है? यह अलग से बहस का विषय है।
हम चलना तो चाहते हैं कि पश्चिम की खुले समाज की अवधारणा की राह पर अपनी शर्तों के साथ। हम कंप्यूटर और अंतर्जाल प्रयोक्ताओं की अधिक संख्या को विकास का प्रतीक मानकर चर्चा करते हैं पर क्या यह सच नहीं है कि लोगों के यौन साहित्य पढ़ने और देखने की ललक ही इसके लिये अधिक जिम्मेदार है। सही आंकड़े तो इस लेखक के पास नहीं है पर अनुमान से यह कह सकता है कि चीन ने यौन सामग्री की वेबसाईटों को अगर प्रभावपूर्ण ढंग से लागू किया तो यकीनन उसका इन दोनों मामलों में ग्राफ नीचे गिर सकता है। शिक्षा, साहित्य सृजन, रचनात्मक कार्य, आपसी संपर्क और व्यापार में इंटरनेट की अहम भूमिका है पर क्या उसके प्रयोक्ताओं के दम पर ही इतना बड़ा अंतर्जाल चल सकता है? यह विशेषज्ञों को देखना होगा।
हम अंतर्जाल के प्रयोक्ताओं को यह समझा सकते हैं कि टीवी, अखबार, बाहर मिलने वाली किताबों और सीडी आदि से जो काम चल सकता है उसके लिये यहंा आंखें न फोड़कर अपनी सात्विक जिज्ञासाओं के लिये इसका उपयोग करे। इसके लिये इंटरनेट और टेलीफोन कंपनियों को प्रयास कर ऐसे लोगों को सहायता करनी होगी जो अपने रचनात्मक भूमिका से समाज के युवकों के मन में सात्विक जिज्ञासायें जगाये रख सकते हैं। यह काम कम से कम समाजों के वर्तमान शिखर पुरुषों का बूते का तो नहीं लगता जो उनके नेतृत्व करने का दावा तो करते हैं पर जब नियंत्रण की बात आती है तो वह लट्ठ और नियम के आसरे बैठ कर अपने मूंह से शब्दों की जुगाली करते हैं। समाज के नये संत तो अब वही बन सकते हैं जो इंटरनेट पर रचनात्मक काम करते हुए युवा पीढ़ी में सात्विक जिज्ञासा और इच्छा उत्पन्न कर सकते हैं-वह कोई पुराना धार्मिक या सामाजिक चोला पहनने वालों हों यह जरूरी नहीं है। हो सकता है कि यौन सामग्री और साहित्य प्रस्तुत करने वाली वेबसाईटों से इंटरनेट और टेलीफोन कंपनियां इसलिये भी खुश हों कि वह उनके लिये प्रयोक्ता जुटा रही हैं पर इससे उनका भविष्य सुरक्षित नहीं हो जायेगा। जिस तरह आदमी समाचार पत्र पत्रिकाओं, किताबों, टीवी चैनलों और फिल्मों की यौन सामग्री से बोर होकर अंतर्जाल पर सक्रिय हो रहा है तो आगे उसमें वैसी विरक्ति भी आ सकती है। संभव है अन्य प्रचार माध्यम अपने यहां कुछ नया करें कि अंतर्जाल को प्रयोक्ता इसे छोड़कर वहां चला जाये। क्या यह दिलचस्प नहीं है कि हर मुद्दे को उठाकर सनसनी फैलाने और आजादी की दुहाई देने वाले टीवी चैनल और अखबार एक वेबसाईट पर प्रतिबंध लगने की तरफ से उदासीन हो गये हैं। उन्हें डर रहा होगा कि कहीं उस वेबसाईट का नाम लें तो उनका उपभोक्ता उसकी तरफ न चला जाये।
इंटरनेट में रचनात्मक काम, संवाद प्रेषण, साहित्य सृजन और व्यापार की संभावनायें और इस पर ही अधिक काम किया जाये तो इसमें निरंतरता बनी रहेगी। वेबसाईटों पर प्रतिबंध के क्या परिणाम है यह तो पता नहीं मगर यह बात निश्चित है कि पश्चिम में भी अंतर्जाल के विकास में इन्हीं यौन साहित्य और सामग्री से सुसज्तित वेबसाईटों को योगदान रहा है। कुछ लोग कह रहे हैं कि पश्चिम में लोग अब अंतर्जाल यौन साहित्य से ऊब कर सात्विक विषयों की तरफ बढ़ रहे हैं। संभव है कि भारत और चीन में भी आगे यह हो पर तब इंटरनेट और टेलीफोन कंपनियां रचनात्मक कर्म करने वाले लोगों को ढूंढती रह जायेंगी पर उनको वह मिलेंगे नहीं। रचनात्मक काम करना एक आदत होती है जिसे बनाये रखने के लिय सामान्य आदमी श्रम करता है तो धनी आदमी को उसमें विनिवेश करना चाहिये। हो सकता है कि लेखक की यह सोच औार धारणायें गलत हों पर अंतर्जाल पर जो अनुभव पाया है उसके आधार पर लिख रहा है। यह लेखक कोई ब्रह्मा तो है नहीं कि उसका सत्य अंतिम मान लिया जाये।
…………………………………..

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

इन्टरनेट पर लिखते हुए कोई संकोच न करें-आलेख


नये लेखक लेखिकाओं को लिखते हुए इस बात की झिझक हो सकती है कि उनके लिखे पर कोई हंसे नहीं। वह समाचार पत्र पत्रिकाओं में तमाम प्रसिद्ध लेखकों की रचनायें पढ़कर यह सोचते होंगे कि वह उन जैसा नहीं लिख सकते। कई युवक युवतियां तो ऐसे हैं जो अपनी रचनायें लिखकर अपने पास ही रख लेते हैं कि कहीं कोई उस पर पढ़कर हंसे नहीं। संभव है ऐसे ही कुछ नये लेखकों के पास इंटरनेट की सुविधा के साथ ब्लाग लिखने की तकनीकी जानकारी भी हो पर वह इसलिये नहंी लिखते हों कि ‘कहीं कोई पढ़कर मजाक न उड़ाये।’

ऐसे नये लेखक अपने आप को भाग्यशाली समझें कि उनके पास अंतर्जाल पर ब्लाग लिखने के अवसर मौजूद हैं जो पुराने लेखकों के पास नहीं थे। हां, उन्हें लिखने को लेकर अपने अं्रदर कोई संकोच नहीं करना चाहिये। वह जिन पत्र पत्रिकाओं के प्रसिद्ध लेखकों की रचनाओं को लेकर अपने अंदर कुंठा पाल लेते हैं उनके बारे में अधिक भ्रम उन्हें नहीं रखना चाहिये। वैसे तो हर आदमी जन्मजात लेखक होता है पर अभ्यास के बाद वह समाज में लेखक का दर्जा प्राप्त करता है। अगर आप लिखना प्रारंभ करें तो धीरे धीरे आपको लगने लगेगा कि जिन बड़े लेखकों को पढ़कर आप कुंठा पाल रहे थे उनसे सार्थक तो आप लिख रहे है। सच बात तो यह है कि स्वतंत्रता के बाद देश में हर क्षेत्र में ठेकेदारी का प्रथा का प्रचलन शुरु हो गया जिसमें बाप जो काम करता है बेटा उसके लिये उतराधिकारी माना जाता है। यही हाल हिंदी लेखन का भी रहा है।

अनेक लोग ऐसे भी हैं जो हिंदी में बेहतर नाटक,कहानी या उपन्यास न लिखने की शिकायत करते हैं। दरअसल यह वही लोग हैं जो ठेकेदारी के चलते प्रसिद्धि प्राप्त कर गये हैं पर उनको हिंदी के सामान्य लेखक के मनोभाव का ज्ञान नहीं रहा। हिंदी में बहुत अच्छा लिखने वालों की कमी नहीं है पर उनको अवसर देने वाले तमाम तरह के बंधन लगा कर उन्हें अपनी मौलिकता छोड़ने को बाध्य करे देते हैं। यही कारण है कि पिछले पचास वर्षों से जातिवाद, क्षेत्रवाद,और भाषावाद के कारण हिंदी में बहुत कम साहित्य लिखा गया है। जिन लोगों ने इन वादों और नारों की पूंछ पकड़कर प्रसिद्धि की वैतरणी पार की है उनका सच आप तभी समझ पायेंगे जब अंतर्जाल पर स्वतंत्र लेखन करेंगे। अधिकतर लेखक या तो प्रतिबद्ध रहे या बंधूआ। दोनों ही परिस्थितियों में मौलिक भाव का दायरा संकुचित हो जाता है।

अगर आप कविता लिखना चाहते हैं तो लिखिये। अब वह कविता इस तरह भी हो तो चलेगी।
होटल में जाने को मचलने लगा हमारा दिल
खाया पीया जमकर, बैठ गया वह जब आया बिल
या
फिल्मी गाने सुनते ऐसे हुए, चेहरे परं चांद जैसा लगता तिल
जब भी आता है कोई ऐसा चेहरा, गाने लगता अपना दिल

आप यह मत सोचिये कि कोई हंसेगा। हो सकता है कुछ लोग हंसें पर यह सबसे आसान काम है। कोई भी किसी पर हंस सकता है। आप तो यह मानकर चलिये कि आपने अपने मन की बात लिख ली यही बहुत है।
अगर आपको गद्य लिखने का विचार आया तो यह भी लिख सकते हैं।
आज मैं सुबह नहाया, फिर नाश्ता किया और उसके बाद बाहर फिल्म लिखने गया और रात को घर आया और खाना खाया और सो गया। अब कल सोचूंगा कि क्या करना है?

ऐसे ही आप लिखना प्रारंभ कर दीजिये। अभ्यास के साथ आप के अंदर का लेखक परिपक्व होता चला जायेगा। वैसे इसके साथ ही दूसरों का लिखा पढ़ें जरूर! दूसरे का पढ़ने से न केवल विषय के चयन का तरीका मिलता है बल्कि उससे अपनी एक शैली स्वतः निर्मित होती जाती है। हम जैसे पढ़ते हैं वैसे ही लिखने का मन करता है और फिर अपनी एक नयी शैली अपने आप हमारी साथी बन जाती है।
आप लोग पत्र पत्रिकाओं में बड़ी कहानियां,व्यंग्य और निबंध पढ़ते हैं और वैसा ही लिखना चाहते हैं तो इस पर अधिक विचार मत करिये। अंतर्जाल पर संक्षिप्तता का बहुत महत्व है। सबसे बड़ी बात यह है कि यहां मौलिकता और स्वतंत्रता के साथ लिखने की जो सुविधा है उसका उपयोग करना जरूरी है। इस लेखक से अनेक लोग अपनी टिप्पणियों में सवाल करते हैं कि आप अपनी रचनायें पत्र पत्रिकाओं में क्यों नहीं भेजते?
इसका सीधा जवाब तो यही है कि भई, हम तो पांच रुपये की डाक टिकट लगाकर लिफाफे भेजते हुए थक गये। अपनी रचना अपने हिसाब से की पर वह उन पत्र पत्रिकाओं के अनुकूल नहीं होती । वैसे अधिकतर समाचार पत्र पत्रिकाओं के वैचारिक, साहित्यक और व्यवसायिक प्रारूप हैं जिनके ढांचे में हमारी रचनायें फिट नहीं बैठती। हां, यह सच है कि आप जो लिखते हैं उसका उस पत्र या पत्रिका के निर्धारित प्रारूप में फिट होना आवश्यक है। जो लेखक इन प्रारूपों की सीमा में लिखते हैं वही प्रसिद्ध हो पाते हैं-यह सफलता भी उन्हीं लेखकों को नसीब में आती है जिनके संबंध होते हैं। अधिकतर पत्र पत्रिकाओं के मुख्यालय बड़े शहरों में होते हैं और छोटे शहरों के लेखक वहां तक नहीं पहुंच पाते। वैसे वह उनके तय प्रारूप के अनुसार लिखें तो तो भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उनकी रचना छप ही जाये।
बहरहाल जिन नये लेखकों के अवसर मिल रहा है उनके लिये तो अच्छा ही है पर जिनको नहीं मिल रहा है वह यहां लिखें। उन्हें पत्र पत्रिकाओं वाले प्रारूपों का ध्यान नहीं करना चाहिये क्योंकि यहां संक्षिप्पता, मौलिकता और निष्पक्षता के साथ चला जा सकता है जबकि वहां कुछ न कुछ बंधन होता ही है। आपके ब्लाग एक जीवंत किताब की तरह हैं जो कहीं अलमारी में बंद नहीं होंगे और उन्हें पढ़ा ही जाता रहेगा। आप इस पर विचार मत करिये कि आज कितने लोगों ने इसे पढ़ा आप यह सोचिये कि आगे इसे बहुत लोग पढ़ने वाले हैं। मेरे ऐसे कई पाठ हैं जो प्रकाशित होने वाले दिन दस पाठक भी नहीं जुटा सके पर वह एक वर्ष कें अंदर पांच हजार की संख्या के निकट पहुंचने वाले हैं।
हिंदी लेखन में स्थिति यह हो गयी है कि लेखक की पारिवारिक, व्यवसायिक और सामाजिक परिस्थिति कें अनुसार उसकी रचना को देखा जाता है। यही कारण है कि पत्र पत्रिकाओं में लेखन से इतर कारणों से प्रसिद्धि हस्ती के लेखक प्रकाशित होते हैं या फिर उन अंग्रेजी लेखकों के लेख प्रकाशित होते हैं जो अंग्रेजी में आम पाठक की उपेक्षा से तंग आकर हिंदी की तरफ आकर्षित हुए-इस बारे में संदेह है कि वह स्वयं उनको लिखते होंगे क्योंकि उन्होंने ताउम्र अंग्रेजी में लिखा। संभवतः अपने लेखों को अंग्रेजी में लिखकर उसका हिंदी में अनुवाद कराते होंगे या बोलकर लिखवाते होंगे।

अगर कोई फिल्मी हीरो अपना ब्लाग बना ले तो उसे एक ही दिन में हजारों पाठक मिल जायेंगे पर आप अगर एक आप लेखक हैं तो फिर आपको अपने लिखे के सहारे ही धीरे धीरे आगे बढ़ना होगा। ऐसे में यही बेहतर है कि आप संकोच छोड़कर लिखे जायें। इस विषय में हमारे एक गुरुजी का कहना है कि तुम तो मन में आयी रचना लिख लिया करो। हो सकता है उस समय उसे कोई न पूछे पर जब तुम्हारा नाम हो जाये तो लोग उसी की प्रशंसा करें।

इसलिये जिन लोगों के पास ब्लाग लिखने की सुविधा है उन्हें अपना लेखक कार्य शुरु करने में संकोच नहीं करना चाहिये। हिंदी में गंभीर लेखन को कालांतर में बहुत महत्व मिलेगा। आपका लिखा हिंदी में पढ़ा जाये यह जरूरी नहीं है। अनुवाद टूलों ने भाषा और लिपि की दीवार ढहाने का काम शुरु कर दिया है यानि यहां लिखना शुरु करने का अर्थ है कि आप अंतर्राष्ट्रीय स्तर के लेखक बनने जा रहे हैं जो कि पूर्व के अनेक हिंदी लेखकों का एक सपना रहा है। हां इतना जरूरी है कि अपने लिखे पर आत्ममुग्ध न हों क्योंकि इससे रचनाकर्म प्रभावित होता है।
………………………..

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

जमीन की जिन्दगी की हकीकत


ख्वाहिशें तो जिंदगी में बहुत होतीं हैं
पर सभी नहीं होतीं पूरी
जो होतीं भी हैं तो अधूरी
पर कोई इसलिए जिन्दगी में ठहर नहीं जाता
कहीं रौशनी होती है पर
जहाँ होता हैं अँधेरा
वीरान कभी शहर नहीं हो जाता
कोई रोता है कोई हंसता है
करते सभी जिन्दगी पूरी

सपने तो जागते हुए भी
लोग बहुत देखते हैं
उनके पूरे न होने पर
अपने ही मन को सताते हैं
जो पूरे न हो सकें ऐसे सपने देखकर
पूरा न होने पर बेबसी जताते हैं
अपनी नाकामी की हवा से
अपने ही दिल के चिराग बुझाते हैं
खौफ का माहौल चारों और बनाकर
आदमी ढूंढते हैं चैन
पर वह कैसे मिल सकता है
जब उसकी चाहत भी होती आधी-अधूरी
फिर भी वह जिंदा दिल होते हैं लोग
जो जिन्दगी की जंग में
चलते जाते है
क्या खोया-पाया इससे नहीं रखते वास्ता
अपने दिल के चिराग खुद ही जलाते हैं
तय करते हैं मस्ती से मंजिल की दूरी

—————————————-
ख्वाहिशें वही पूरी हो पातीं हैं
जो हकीकत की जमीन पर टिक पातीं हैं
कोई ऐसे पंख नहीं बने जो
आदमी के अरमानों को आसमान में
उडा कर सैर कराएँ
जमीन की जिन्दगी की हकीकतें
जमीन से ही जुड़कर जिंदा रह पाती हैं

दिल के चिराग जलाते नहीं-hindi shayri


जिनका हम करते हैं इन्तजार
वह हमसे मिलने आते नहीं
जो हमारे लिए बिछाये बैठे हैं पलकें
उनके यहां हम जाते नहीं
अपने दिल के आगे क्यों हो जाते हैं मजबूर
क्यों होता है हमको अपने पर गरूर
जो आसानी से मिल सकता है
उससे आँखें फेर जाते हैं
जिसे ढूँढने के लिए बरसों
बरबाद हो जाते हैं
उसे कभी पाते नहीं
तकलीफों पर रोते हैं
पर अपनी मुश्किलें
खुद ही बोते हैं
अमन और चैन से लगती हैं बोरियत
और जज्बातों से परे अंधेरी गली में
दिल के चिराग के लिए
रौशनी ढूँढने निकल जाते हैं
——————–

दुर्घटनाएं अब अँधेरे में नहीं
तेज रौशनी में ही होतीं है
रास्ते पर चलते वाहनों से
रौशनी की जगह बरसती है आग
आंखों को कर देती हैं अंधा
जागते हुए भी सोती हैं
—————————-
हमें तेज रौशनी चाहिए
इतनी तेज चले जा रहे हैं
उन्हें पता ही नहीं आगे
और अँधेरे आ रहे हैं
दिल के चिराग जलाते नहीं
बाहर रौशनी ढूँढने जा रहे हैं

कौटिल्य का अर्थशास्त्र:अग्नि के समान असहनशील भी होना चाहिये


१.कछुए के समान अंग संकोचकर शत्रु का प्रहार भी सहन करे और बुद्धिमान फिर समय देखकर क्रूर सर्प के समान डटकर लडे.
२.समय पर पर्वत के समान सहनशील हो और अग्नि के समान असहनशील हो और समय पर प्रिय वचन कहता हुआ कंधे पर भी शत्रु को उठावे.
३.मत्त और प्रमत्त के समान बाहरी दिखावे से स्थित बुद्धिमान आक्रमण करे, जैसे कि सिंह ऐसा कूदकर प्रहार करता है वह खाले वार नहीं जाता.
४.प्रसन्नता की वृत्ति से लोक की हितकारी वृत्ति से शत्रु के हृदय में निरन्तर प्रवेश का समय पर नीति के हाथों से प्रहार कर उसकी लक्ष्मी के केश ग्रहण करें.

५.विद्वान् को उचित है कि प्राप्त हुए उपायों से विग्रह को शांत करे. विजय की प्राप्ति अचल नहीं है. एकाएक किसी प्रकार पर प्रहार न करे.
६.बुद्धिमान को कोई भी वस्तु असाध्य नहीं है, लोहा अभेद्य होता है पर लोहार बुद्धिमानी से उसे गला डालता है.

झूठ की सता ही लोगों में इज्जत पाती है


अपनी महफिलों में शराब की
बोतलें टेबलों पर सजाते हैं
बात करते हैं इंसानियत की
पर नशे में मदहोश होने की
तैयारी में जुट जाते हैं
हर जाम पर ज़माने के
बिगड़ जाने का रोना
चर्चा का विषय होता है
सोने का महंगा होना
नजर कहीं और दिमाग कहीं
ख्याल कहीं और जुबान कहीं
शराब का हर घूँट
गले के नीचे उतारे जाते हैं
————————————

आदमी की संवेदना हैं कि
रुई की गठरी
किसी लेखक के लिखे
चंद शब्दों से ही पिचक जाती हैं
लगता हैं कभी-कभी
सच बोलना और लिखना
अब अपराध हो गया है
क्योंकि झूठ और दिखावे की सत्ता ही
अब लोगों में इज्जत पाती है

———————————

रहीम के दोहे:संसार के बड़प्पन को कोई नहीं देख सकता


रहिमन जगत बडाई की, कूकुर की पहिचानि
प्रीती करे मुख छाती, बैर करे तन हानि

कविवर रहीम कहते हैं की अपनी बडाई सुनकर फूलना और आलोचना से गुस्सा हो जाना कोई अच्छी बात नहीं है क्योंकि यह कुत्ते का गुण है. उसे थोडा प्यार करो तो मालिक को चाटने लगता है और फटकारने पर उसे काट भी लेता है.
भावार्थ-संसार में कई प्रकार के लोग हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जो चापलूसी कर काम निकालते हैं ऐसे लोगों से बचने का प्रयास करना चाहिए. उनकी प्रशंसा पर फूल जाना मूर्खता है क्योंकि उन्हें तो काम निकलना होता है और बाद में हमें मूर्ख भी समझते हैं कि देखो कैसे काम निकलवाया.

रहिमन जंग जीवन बडे, काहू न देखे नैन
जाय दशानन अछत ही,कापी लागे काठ लेन

कवि रहीम कहते हैं कि संसार के बड़प्पन को कोई व्यक्ति अपनी आँखों से नहीं देख सकता. रावण को अक्षत जाना जाता था, परन्तु वानरों ने उसके गढ़ को नष्ट कर दिया.

भावार्थ-अक्सर यह भ्रम होता है यहाँ सब कुछ कई बरसों तक स्थिर रहने वाला है पर यहाँ सब एक दिन बिखर जाता है. इसलिए अपने अन्दर किसी प्रकार का अहंकार नहीं पालना चाहिए. न ही यह भ्रम पालना चाहिए कि कोई हमसे छोटा है और यह कुंठा भी मन में नहीं लाना चाहिऐ कि कोई हमसे बड़ा है.

अपनी सोच से रास्ते बनते हैं


एक पत्थर को रंग पोतकर अदभुत
बताकर दिखाने की कोशिश
लोहे को रंग लगाकर
चमत्कारी बताने की कोशिश
आदमी के भटकते मन को
स्वर्ग दिखाने की कोशिश
तब तक चलती रहेगी
जब तक अपने को सब खुद नहीं संभालेंगे

ख्वाब ही हकीकत बनते हैं
सपने भी सच निकलते हैं
अपनी सोच से भी रास्ते बनते हैं
कोई और हमें संभाले
अपनी जंग जीत सकते हैं
जब इसके लिए इन्तजार करने के बजाय
खुद को खुद ही संभालेंगे
———————————

भूल-भुलैया में फंस जाते हैं


अपने दिल के नगीने से
सजाकर कितने भी तौह्फे दे दो
इस ज़माने को
कद्रदान कभी होगा नहीं
खुश रहते हैं वही लोग
जो बेचते हैं परछाईयाँ
झूठ बेचते हैं दिखाकर सच्चाईयां
बन जाते हैं उनके महल
ज़माना भी खो जाता है
भूलभुलैया में कहीं
दावे सभी करते हैं
पर भला कोई हुआ है अभी तक
सच्चे आदमी का साथी कहीं
—————————————-

भगवान की पहचान के लिए
शैतान का डर दिखाते हैं
सच को सही बताने के लिए
झूठ का भूत दिखाते हैं
पर जो देते हैं पता
वही नाचते हैं शैतान जैसा
झूठ को बेचते हैं सच की तरह
लोग मानते हैं उनको अपना आदर्श
इसलिए भगवान् से दूर
सच के रस्ते से हटे हुए
भूल-भुलैया में फंस जाते हैं

सबसे अलग हटकर लिख (sabse alag hatkar likh-hindi kavita)


तू लिख
समाज में झगडा
बढाने के लिए लिख
शांति की बात लिखेगा
तो तेरी रचना कौन पढेगा
जहां द्वंद्व न होता वहां होता लिख
जहाँ कत्ल होता हो आदर्श का
उससे मुहँ फेर
बेईमानों के स्वर्ग की
गाथा लिख
ईमान की बात लिखेगा
तो तेरी ख़बर कौन पढेगा

अमीरी पर कस खाली फब्तियां
जहाँ मौका मिले
अमीरों की स्तुति कर
गरीबों का हमदर्द दिख
भले ही कुछ न लिख
गरीबी को सहारा देने की
बात अगर करेगा
तो तेरी संपादकीय कौन पढेगा

रोटी को तरसते लोगों की बात पर
लोगों का दिल भर आता है
तू उनके जज्बातों पर ख़ूब लिख
फोटो से भर दे अपने पृष्ठ
भूख बिकने की चीज है ख़ूब लिख
किसी भूखे को रोटी मिलने पर लिखेगा
तो तेरी बात कौन सुनेगा

पर यह सब लिख कर
एक दिन ही पढे जाओगे
अगले दिन अपना लिखा ही
तुम भूल जाओगे
फिर कौन तुम्हे पढेगा

झगडे से बडी उम्र शांति की होती है
गरीब की भूख से लडाई तो अनंत है
पर जीवन का स्वरूप भी बेअंत है
तुम सबसे अलग हटकर लिखो
सब झगडे पर लिखें
तुम शांति पर लिखो
लोग भूख पर लिखें
तुम भक्ति पर लिखो
सब आतंक पर लिखें
तुम अपनी आस्था पर लिखो
सब बेईमानी पर लिखें
तुम अपने विश्वास पर लिखो
जब लड़ते-लड़ते थक जाएगा ज़माना
मुट्ठी भींचे रहना कठिन है
हाथ कभी तो खोलेंगे ही लोग
तब हर कोई तुम्हारा लिखा पढेगा
—————-

इससे अच्छा तो बुतों पर यकीन कर लें


अपने लिए बनाते हैं ऐसे
सपनों के महल
जो रेत के घर से भी
कमजोर बन जाते हैं
तेज रोशनी को जब देखते देखते
आंखों को थका देते हैं
फिर अँधेरे में ही रोशनी
तलाशने निकल जाते हैं
इधर-उधर भटकते हुए
अनजान जगहों के नाम
मंजिल के रूप में लिखते हैं
दर्द के सौदागरों के हाथ
पकड़ कर चलने लग जाते हैं
जब दौलत के अंबार लगे हों तो
गरीबी में सुख आता है नजर
जब हों गरीब होते हैं
तो बीतता समय रोटी की जंग में
अमीरों का झेलते हैं कहर
नहीं होता दिल पर काबू
बस इधर से उधर जाते हैं
जिंदा लोगों को बुत समझने की
गलती करते हैं कदम-कदम पर
इसलिए हमेशा धोखा खाते हैं
इससे अच्छा तो यही होगा कि
बुतों को ही रंग-बिरंगा कर
उनमें अपना यकीन जमा लें
हम कुछ भी कह लें
कम से कम वह बोलने तो नहीं आते हैं
——————————–

जब अपने मन का सच बोलता है


जब खामोशी हो चारों तरह तब भी
कोई बोलता हैं
हम सुनते नही उसकी आवाज
हम उसे नहीं देखते
पर वह हमें बैठा तोलता है
भीड़ में घूमने की आदत
हो जाती है जिनको
उन्हें अकेलापन डराता है
क्योंकि जिसकी सुनने से कतराते हैं
वही अपने मन में बैठा सच
दबने की वजह से बोलता है

दूसरे से अपना सच छिपा लें
पर अपने से कैसे छिपाये
अकेले होते तो बच पाते
भीड़ में रहते हुए
लोगों के बीच में टहलते हुए
महफिलों में अपने घमंड के
नशे में बहकते हुए
सहज होने की कोशिश भी
हो जाती है जब वह
अपने मन का सच बोलता है