अपने पर ही यूं हंस लेता हूं।
कोई मेरी इस हंसी से
अपना दर्द मिटा ले
कुछ लम्हें इसलिये उधार देता हूं।
मसखरा समझ ले जमाना तो क्या
अपनी ही मसखरी में
अपनी जिंदगी जी लेता हूं।
रोती सूरतें लिये लोग
खुश दिखने की कोशिश में
जिंदगी गुजार देते हैं
फिर भी किसी से हंसी
उधार नहीं लेते हैं
अपने घमंड में जी रहे लोग
दूसरे के दर्द पर सभी को हंसना आता है
उनकी हालतों पर रोने के लिये
मेरे पास भी दर्द कहां रह जाता है
जमाने के पास कहां है हंसी का खजाना
इसलिये अपनी अंदर ही
उसकी तलाश कर लेता हूं।
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
टिप्पणियाँ
बहुत ही प्यारा लिखा है आप ने!!
bahut sundar baat kahdi janaab
i have a lot of proud for you because you have care(worry)of forien indians
Apke sher-o-shayri read karne ke paschat meri ankhon men ansu bhar gaye.(please write it forever anever)
AAPNE DIL KI BAT KI HAI BAHUT HI KHUBSURAT LAMHE LIKHE HAI JO JIVAN ME GUJAR GAYE USE KE BARE ME LIKHA HAI
REALLY AMAZING……..
Veery nice
nice
very very nice boss
बहुत बढ़िया |
शुभकामनाए |
very nice
hahaha very fanney
lajawab likha hai
u r very gud write bt please very funny poem best of luck