मानसून के प्रारंभ में प्रलय की स्थिति-हिन्दी लेख


    एक सप्ताह पूर्व तक देश में गर्मी का प्रकोप था।  उस समय वर्षा का इंतजार हो रहा था।  आमतौर से जून के माह में मानसून धीमे धीमे पूरे भारत में छा जाता है।  प्रारंभ में वर्षा अत्यंत सुकून देती है पर बाद में वह तेजी लाते हुए अनेक शहरों में बाढ़ का प्रकोप प्रकट करती है।  इस बार जिस तरह की बरसात आयी है उसका अनुमान मौसम विशेषज्ञों ने पहले नहीं दिया था।  मात्र कुछ पलों के सुकून के बाद अनेक शहरों में बरसात ने कहर बरपा दिया।  यह कहर ऐसा है कि मानसून आने की प्रसन्नता ही काफूर हो गयी।  गंगा यमुना उफनती आ रही हैं।  अनेक मकान और मंदिर ढह गये हैं।

  दरअसल हमारे देश में आबादी तेजी से बढ़ रही है और पर्यावरण के साथ ही प्रकृति से भी भारी छेड़छाड़ की गयी है। हम कहते हैं कि हमारे यहां आबादी ज्यादा है इस कारण लोग नदियों और नालों के किनारों पर कब्जा कर अपने मकान बनाते हैं और जब बाढ़ आ जाती है तब वह ढह जाते हैं। जमीन की कमी है  मगर जनसंख्या की वृद्धि  इकलौता कारण नहीं है जिसे हम इस तरह के प्राकृतिक प्रकोप को जायज ठहराते हैं। दरअसल हमारे देश में कथित विकास ने अनेक ऐसे लोगों को अधिक अमीर बना दिया है जिनके पास दो नंबर की कमाई है।  उनके पास सोने के बाद जमीन दूसरा विनिवेश करने का स्तोत्र है। देश के अनेक भागों में  भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़े गये अनेक लोगों के पास इतने मकान बरामद हुए हैं कि सरकारें उनको जनहित के लिये उपयेाग कर रही हैं।  दूसरी बात यह कि अधिकतर नदियों के किनारे तीर्थ स्थान होते हैं जहां वृद्धावस्था में लोग रहना चाहते हैं।  उनकी संतानें भी यही चाहती हैं कि बुजुर्ग घर से दूर रहें। जिनके पास पैसा है वह मकान लेकर रहते हैं। पूरे देश के साथ ही इन तीर्थस्थानों पर भवन निर्माण कंपनियों की चांदी कट रही है।  कुछ लोगों के पास तो इतना पैसा है कि वह इन तीर्थ स्थानों पर मकान केवल इसलिये लेकर खते हैं कि वहां खास अवसरों पर आकर रहेंगे। दूसरी बात यह कि समाचारों में भी यह बात आती है कि इन भवनों के निर्माण के लिये अधिगृहीत जमीनों पर भी अनेक प्रकार के विवाद होते हैं।  कहीं कहीं तो सरकारी अनुमति के बिना भी मकान बनाने की बात सामने आती हैं तीर्थ स्थानों पर बने अनेक धार्मिक स्थानों को लेकर झगड़े होते हैं।  ऐसे में नदियों के किनारे पर जमीनों पर मकान बनना कितना उचित है या अनुचित, इस विषय पर बहस करना अलग विषय है।  मूल बात यह कि इन किनारों पर इस तरह अतिक्रमण नहीं होना चाहिये। अगर हुए हैं तो नदियां  जब बिना अवरोध के अपना पानी लेकर चलती है तो कौन उनके आगे टिक सकता है।  अनेक बार असम में हाथियों के आतंक की चर्चा आती है तब पशु विज्ञानी कहते हैं कि हाथी मनुष्यों की जमीन पर नहंी आये बल्कि वही उनके इलाके में घुसकर मकान बना रहा है।  हाथी सीधा साधा जानवार है। अधिक प्रतिरोध नहीं कर सकता। इंसान ने हाथियों की जमीन की तरह नदियों के किनारों पर भी कब्जा कर लिया है  मगर नदियां बेबस नहीं होती।  उनमें धर्म और कर्म के नाम पर मनुष्य गंदगी विसर्जित करता रहता है। आठ महीने वह दंसान के अनाचार झेलती हैं पर मानसून में समंदर से भेजे गये बादलों से पानी लेकर वह चार मास तक मनुष्य पर वही गंदगी भेजती हैं जो आठ माह तक बहाता है।  यह अलग बात है कि किसकी गंदगी किसके पास जाती है मगर यह भी सच है कि नदी के निकट पहुंचने वाले लोग उसकी शुद्धता बनाये रखने का विचार नहीं करते।

        धन्य है गंगा मां! धन्य है यमुना मां!  मकान और मंदिरों में कोई भेद नहंी करती।  उनका यही निरपेक्ष भाव उनको माता का दर्जा दिलाता है।  मकान हो या मंदिर बनाये तो इंसान ने ही है।  धरतीपुत्र पहाड़ों की गर्दन उड़ाने के बाद मनुष्य चाहे  जितना धार्मिक होने का दावा करे नदियां उसे स्वीकार नहीं करती और इंसानों के हाथ  से पत्थरों की बनायी गयी  भगवान  मूर्तियों का जलाभिषेक करने के बाद उन्हें अपने जल में बिना प्रयास साथ ले जाती हैं। एक टीवी चैनल कहा रहा था किदेखो, नदी पर स्थित भगवान शिव का मंदिर ढह गया।  यह मंदिर उस मनुष्य जाति का बना था जो दावा तो करती है कि गंगा और शिव को मानने का पर अपने ही धन और बाहुबल से उनको चुनौती भे देती हैं।  भगवान के नाम पर आडंबर कर अनेक मनुष्य स्वयं को देवता की तरह दिखाने का प्रयास करते हैं।  किसी ने जोगिया तो किसी ने सफेद वस्त्र पहन लिये हैं।

  अभी हाल ही में इलाहाबाद में महाकुंभ संपन्न हुआ था तब अनेक धार्मिक प्रवृत्ति के जागरुक लोगों ने गंगा के प्रदूषित जल पर निराशा जताई थी।  उस  समय विशेषज्ञों ने साफ कहा था कि गंगा के जल में नहाना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक भी हो सकता है। तब टीवी चैनलों में पवित्र नदियों के जल की दर्दनाक स्थिति का बयान देखने को मिला।  सभी कहते हैं कि नदियों का जल शुद्ध रखने का प्रयास हो, पर करे कौन? न भी करें तो इतना तो तय किया जा सकता है कि हम अब नंदियों में कचड़ा प्रवाहित न करें।  यह भी नहीं करना चाहते।  ऐसे में नदियों के हृदय में कभी कभी तो आता ही होगा कि वह कुछ समय तक अपने जल  से गंदगी बाहर करें।  जैसा कि हम नदियों को माता मानते हैं तो यह भी मानना चाहिये कि उनका भी हृदय तो होता ही होगा।  यह भी मानना चाहिये कि इन नदियों मे में इतनी शक्ति है खास अवसरों पर इनमें  नहाने से पुण्य मिलता है तो यह भी मानना चाहिये कि वह मनुष्य जाति के पापों को बाहर आकर उसी के पास सौंपना भी जानती हैं।

    बहरहाल इस बार के मानसून ने ज्यादा समय तक प्रसन्न रहने का अवसर नहीं दिया।  हालांकि अभी बरसात प्रारंभ हुई है और संभावना इसी बात की है कि आगे बरसात नियमित रूप से होती रहेगी। तब शायद यह प्रकोप इतना न हो जितना अब दिख रहा हैं।

   

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

 

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