ऐसे ही खाते हैं कसम-व्यंग्य कविता



नकली घी,खोवा और दूध से
हो रहा है बाज़ार गर्म
दीपावली का जश्न मनाने से पहले
अमृत के नाम पर विष पी जाने के
खौफ से छिद्र हो रहा है मर्म
बिना मिठाई के दीपावली क्या मजा क्या
पर पेट में जो भर दे विकार
ऐसे पेडे भी खाकर बीमार पड़ना क्या
कि जश्न मनाकर जोशीले तेवर
डाक्टर के सख्त सुई से पड़ जाएँ नर्म
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ईमानदारी की कसम खाकर
वह बेचते हैं मिलावटी सामान
क्योंकि अब तो वह मर मिट गयी है इस दुनिया से
चाहे जितनी क़समें खा लो उसके नाम की
दोबारा जिंदा नहीं हो सकती ईमानदारी
कितनी भी बेईमानी करने पर
पकड़ने के लिए किसी आदमी के कान

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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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टिप्पणियाँ

  • sanjayoscar  On 05/11/2008 at 05:54

    hello friend,

    -Dhanyavad………………..app ki dilchaspi sahaj hai……….
    – the father of the universe par maine ek BOOK likhi hai (100 pgs. in Gujrati) is book ko mei international lavel par le jaunga.
    – yah RACHANA pa Oscar awards nischhitt hai.
    – the father of the universe is real carector. ( it is my real life).
    – pura creation padho ………gour se………

    -Sanjay Nimavat

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