अंतर्गतमलो दृष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि।
न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत्।।
हिंदी में भावार्थ-जिसके मन में मैल भरा है ऐसा दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी बार भी तीर्थ पर जाकर स्नान कर लें पर पवित्र नहीं हो पाता जैस मदिरा का पात्र आग में तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता।
न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः।
आमूलसिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरात्वमेति।।
हिंदी में भावार्थ-दुष्ट व्यक्ति को कितना भी सिखाया या समझाया जाये पर वह अपना अभद्रता व्यवहार नहीं छोड़कर सज्जन नहीं बन सकता जैसे नीम का वृक्ष, दूध और घी से सींचा जाये तो भी उसमें मधुरता नहीं आती।
अंतर्गतमलो दृष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि।
न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत्।।
हिंदी में भावार्थ-जिसके मन में मैल भरा है ऐसा दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी बार भी तीर्थ पर जाकर स्नान कर लें पर पवित्र नहीं हो पाता जैस मदिरा का पात्र आग में तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की प्रकृत्ति का निर्माण बचपन काल में ही हो जाता है। मनुष्य के माता पिता, दादा दादी तथा अन्य वरिष्ठ परिवारजन जिस तरह का आचार विचार तथा व्यवहार करते हैं उसी से ही उसमें संस्कार और विचार का निर्माण होता है। इसके अलावा बचपन के दौरान ही जैसा खानपान होता है वैसे ही स्थाई गुणों का भी निर्माण होता है जो जीवन पर्यंत अपना कार्य करते हैं। एक बार जैसी प्रकृत्ति मनुष्य की बन गयी तो फिर उसमें बदलाव बहुत कठिन होता है।
इसलिये जिनमें दुष्टता का भाव आ गया है उनके साथ संपर्क कम ही रखें तो अच्छा है। चाहे जितना प्रयास कर लें दुष्ट अपना रवैया नहीं बदलता और अगर उसने किसी व्यक्ति विशेष को अपने दुव्र्यवहार का शिकार बनने का विचार कर लिया है तो फिर उससे बाज नहीं आता। ऐसे में सज्जन व्यक्ति को चाहिये कि वह खामोशी से दुष्ट के व्यवहार को नजरअंदाज करे क्योंकि उनकी प्रकृत्ति ऐसी होती है कि बिना किसी को तकलीफ दिये उनको चैन नहीं पड़ता। ऐसे दुष्ट किसी की मजाक उड़ाकर तो किसी के साथ अभद्र व्यवहार कर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। सज्जन के लिये दो ही उपाय है कि वह चुपचाप अपने रास्ते चले या अगर उसे नियंत्रण करने के लिये शारीरिक या आर्थिक बल है तो उस पर प्रहार करे पर इसके बावजूद भी यह संभावना कम ही होती है कि वह नालायक आदमी सुधर जाये। ऐसे दुष्ट लोग चाहे जितनी बार तीर्थ स्थान पर जाकर स्नान करें पर उनका उद्धार नहीं होता। तीर्थ पर जाने से शरीर का मल निकल सकता है पर मन का तो कोई योगी ही निकाल पाता है।
अभिप्राय यह है कि सत्संग और तीर्थस्थानों पर जाकर मन का मैल नहीं निकलता बल्कि उसके लिये अंतमुर्खी होकर आत्म चिंतन करना चाहिये। इतना ही नहीं अपने को ही सुधारने का प्रयास करना चाहिये। दूसरे से यह अपेक्षा न करें कि वह आपके समझाने से समझ जायेगा। कुछ लोगों में कुसंस्कार ऐसे भरे होते हैं कि उन्हें उपदेश देने से अपना ही अपमान होता है। अतः उससे दूर होकर ही अपना काम करें।
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टिप्पणियाँ
agar kisi ko kitna samjhao aur nahi manta hai to wo bykti janwaer ke saman hoyta hai
Meri likhi hui kavita aplogo se sare karna chahunga – Ma ki mahima hai jag se nirali par koi nahi kahta ma hai meri pyari usse tum ja ke puchho jo ma se hai begana tab tumhe ehsash hoga ma ke bina hai sansar dukho ka khajana