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गरीबी और विकास दर-हिन्दी व्यंग्य कविताएँ (garibi aur vikas dar-hindi vyangya kavitaen)


अपने घर में सोने के भंडार
तुम भरवाते रहो,
गरीब इंसान की रोटी से
टुकड़ा टुकड़ा कर चुरवाते रहो,
जब तक बैठे हो महलों में
झौंपड़ियों को उजड़वाते रहो।
यह ज्यादा नहीं चलेगा,
ज़माने की भलाई करने के नाम पर
सिंहासनों पर बुत बनकर बैठे लोगों
सुनो जरा यह भी
किसी दिन इतिहास अपना रुख बदलेगा,
किसी दिन तुम्हारी शख्सियत का
काला चेहरा भी हो जायेगा दर्ज
तब तक भले ही अपने तारीफों के पुल
कागजों पर जुड़वाते रहो।
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वातानुकूलित कक्षों में बैठकर वह
देश से गरीबी हटाने के साथ
विकास दर बढ़ाने पर चिंत्तन करते हैं,
बहसों के बाद
कागजों पर दौलतमंदों के
घर भरने के लिये शब्द भरते हैं।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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अक्लमंदों के बीच होती है अल्फाजों की जंग-हास्य शायरी


अक्लमंदों की महफिल से इसलिये ही

जल्दी बाहर निकल आये

सभी के पास था अपनी शिकायतों का पुलिंदा

किसी के पास मसलों का हल न था

अपनी बात कहते हुए चिल्ला रहे थे

पर करने का किसी में बल न था

करते वह कोई नई तलाश

उनसे यह उम्मीद करना बेकार था

हर कोई अपना मसले का

बयां करने को ही हर कोई तैयार था

सारी बहस शिकायतों का कहने के तरीके

और अल्फाजों पर ही चलती रही

टंग थे लोग महफिल में पेड़ की तरह

जिनमें कोई फल नहीं था
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जब चार अक्लमंद मिलते हैं

लफ्जों की जंग में शामिल हो जाते हैं

उनसे तो कमअक्ल ही सही

जो आपस में टकराते हैं जाम

और अपना गम गलत कर जाते हैं

अक्लमंदों की हालत पर आता है तरस

निकलते हैं घर से तरोताजा

पर महफिलों से बेआबरू होने का

गम अपने दिमाग पर लिये लौट आते हैं
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