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140 शब्दों की सीमा से अधिक twitlonger पर लिखना भी दिलचस्प


                                   ट्विटर, फेसबुक और ब्लॉग से आठ वषौं के सतत संपर्क से यह अनुभव हुआ है कि भले ही आपकी बात अंग्रेजी में अधिक पढ़ी जाती है पर भारत में समझने के लिये आपका पाठ हिन्दी में होना आवश्यक है।  महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर आक्रामक शैली में शब्द लिखने हों तो अंग्रेजी से अधिक हिन्दी ज्यादा बेहतर भाषा है।  कटु  बात कहने के लिये मधुर शब्द का उपयोग भी व्यंजना भाषा में इस तरह किया जा सकता है कि  ंइसका अनुभव एक ऐसे ट्विटर प्रयोक्ता के खाते से संपर्क होने पर हुआ जो अपनी अंग्रेजी भाषा में लिखी गयी बात से प्रसिद्ध हो रहा है।  उसके अंग्रेजी शब्दों के जवाब में अंग्रेजी टिप्पणियां आती हैं पर जितना आक्रामक शब्द अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी टिप्पणियों के होते हैं।  एक टिप्पणीकर्ता ने तो लिख ही दिया कि अगर अपनी बात ज्यादा प्रभावी बनाना चाहते हो तो हिन्दी में लिखो। वह ट्विटर प्रयोक्ता अंग्रेजी में लिख रहा है पर उसकी आशा के अनुरूप हवा नहीं बन पाती। अगर वह हिन्दी में लिखता तो शायद ज्यादा चर्चित होता। इसलिये हमारी सलाह तो यही है कि जहां तक हो सके अपना हार्दिक प्रभाव बनाने के लिये अधिक से अधिक देवनागरी हिन्दी में लिखे।

140 शब्दों की सीमा से अधिक ट्विटरलौंगर पर लिखना भी दिलचस्प

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इधर ट्विटर ने भी 140 शब्दों से अधिक शब्द लिखने वाले प्रयोक्ताओं  ट्विटलोंगर की सुविधा प्रदान की है। हिन्दी के प्रयोक्ता शायद इसलिये उसका अधिक उपयोग नहीं कर पा रहे क्योंकि उसका प्रचार अधिक नहीं है। हमने जब एक प्रयोक्ता के खाते का भ्रमण किया तब पता लगा कि यह सुविधा मौजूद है। हालांकि हम जैसे ब्लॉग लेखक के लिये यह सुविधा अधिक उपयोगी नहीं है पर जब किसी विशेष विषय पर ट्विटर लिखना हो तो उसका उपयोग कर ही लेते हैं। वैसे ट्विटर पर अधिक लिखना ज्यादा अच्छा नहीं लगता क्योंकि वह लोग लिंक कम ही क्लिक करते हैं।  बहरहाल जो केवल ट्विटर पर अधिक सक्रिय हैं उनके लिये यह लिंक तब अधिक उपयोग हो सकता है जब वह अधिक लिखना चाहते हैं।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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जहर तो न पकाओ-हिन्दी कवितायें


सपना सभी का होता है

मगर राज सिंहासन तक

चतुर ही पहुंच पाते हैं।

बादशाहों की काबलियत पर

सवाल उठाना बेकार हैं

दरबार में उनकी

अक्लमंद भी धन के गुलाम होकर

सलाम बजाने पहुंच जाते हैं।

कहें दीपक बापू इंसानों ने

अपनी जिंदगी के कायदे

कुदरत से अलग बनाये,

ताकतवरों ने लेकर उनका सहारा

कमजोरों पर जुल्म ढहाये,

हुकुमतों के गलियारों में

जज़्बातों के कातिल भी पहरेदारी

करने पहुंच जाते हैं।

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भोजन जल्दी खाना है

या पकाना

पता नहीं

मगर जहर तो न पकाओ।

दुनियां में अधिक खाकर

आहत होते हैं लोग

भूख से मरने का

भय दिल में न लाओ।

कहें दीपक बापू जिंदगी में

पेट भरना जरूरी है

जहर खायेंगे

यह भी क्या मजबूरी है

घर की नारी के हाथ से बने

भोजन के मुकाबले

कंपनी दैत्य के विषैले

चमकदार लिफाफे में रखे

प्रसाद को कभी अच्छा न बताओ।

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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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देवताओं ने सीखें सफलता का मंत्र-हिन्दी चिंत्तन लेख


                              मनुष्य मन का भटकाव उसे कभी लक्ष्य तक नहीं पहुंचने देता। जीवन संघर्ष में अनेक अच्छे और बुरे अवसर आते हैं पर ज्ञानी मनुष्य अपने लक्ष्य पथ से अलग नहीं होता।  कहा जाता है कि इस संसार में समय और प्रकृति बलवान है और उनके नियमों के अनुसार ही जीवन चक्र चलता है।  मनुष्य में उतावलपन अधिक रहता है इसलिये वह अपने परिश्रम का परिणाम जल्दी प्राप्त कर लेना चाहता है। ऐसा न होने पर वह निराश और हताश होकर अपने लक्ष्य से अलग हो जाता है या फिर अपना पथ बदल देता है।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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रत्नेर्महार्हस्तुतुंषुर्न देवा न भेजिरेभीमविषेण भीतिम्।

सुधां विना न प्रययुर्विरामं न निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीरा।

                              हिन्दी में भावार्थ-समुद्र मंथन के समय अनमोल निकलने पर भी देवता प्रसन्न नहीं हुए। न विष निकलने पर विचलित हुए। वह तब तक नहीं रुके जब तक अमृत निकलकर उनके हाथ नहीं आया। धीर पुरुष अपना लक्ष्य प्राप्त किये बिना कभी अपना काम बीच में नहीं छोड़ते।

          वर्तमान काल में शीघ्र तथा संक्षिप्त मार्ग से सफलता पाने का विचार करने में ही लोग अपना समय गंवा देते हैं।  किसी काम में दो दिन लगते हों पर लोग उसे दो घंटे में करने की सोचते हुए पांच दिन गंवा देते हैं।  प्रकृत्ति का सिद्धांत कहता है कि हर कार्य अपने समय के अनुसार ही होता है।  मनुष्य को बस अपने कर्म करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

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अज्ञान ही समस्त संकट का कारण-पतंजलि योग साहित्य


       पूरे विश्व में 21 जून को योग दिवस मनाया जा रहा है। इसका प्रचार देखकर ऐसा लगता है कि योग साधना के दौरान किये जाने वाले आसन एक तरह से ऐसे व्यायाम हैं जिनसे बीमारियों का इलाज हो जाता है।  अनेक लोग तो योग शिक्षकों के पास जाकर अपनी बीमारी बताते हुए दवा के रूप में आसन की सलाह दवा के रूप में मांगते हैं।  इस तरह की प्रवृत्ति योग विज्ञान के प्रति  संकीर्ण सोच का परिचायक है जिससे उबरना होगा।  हमारे योग दर्शन में न केवल देह वरन् मानसिक, वैचारिक तथा आत्मिक शुद्धता की पहचान भी बताई जाती है जिनसे जीवन आनंद मार्ग पर बढ़ता है।

पातञ्जलयोग प्रदीप में कहा गया है कि

———————–अनित्यशुचिदःखनात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या।।

हिन्दी में भावार्थ-अनित्य, अपवित्र, दुःख और जड़ में नित्यता, पवित्रता, सुख और आत्मभाव का ज्ञान अविद्या है।

         आज भौतिकता से ऊबे लोग मानसिक शांति के लिये कुछ नया ढूंढ रहे हैं।  इसका लाभ उठाते हुए व्यवसायिक योग प्रचारक योग को साधना की बजाय सांसरिक विषय बनाकर बेच रहे हैं। हाथ पांव हिलाकर लोगों के मन में यह विश्वास पैदा किया जा रहा है कि वह योगी हो गये हैं। पताञ्जलयोग प्रदीप के अनुसार  योग न केवल देह, मन और बुद्धि का ही होता है वरन् दृष्टिकोण भी उसका एक हिस्सा है। किसी वस्तु, विषय या व्यक्ति की प्रकृृत्ति का अध्ययन कर उस पर अपनी राय कायम करना चाहिये। बाह्य रूप सभी का एक जैसा है पर आंतरिक प्रकृत्तियां भिन्न होती हैं। आचरण, विचार तथा व्यवहार में मनुष्य की मूल प्रकृत्ति ही अपना रूप दिखाती है। अनेक बार बाहरी आवरण के प्रभाव से हम किसी विषय, वस्तु और व्यक्ति से जुड़ जाते हैं पर बाद में इसका पछतावा होता है। हमने देखा होगा कि लोहे, लकड़ी और प्लास्टिक के रंग बिरंगे सामान बहुत अच्छे लगते हैं पर उनका मूल रूप वैसा नहीं होता जैसा कि दिखता है। अगर उनसे रंग उतर जाये या पानी, आग या हवा के प्रभाव से वह अपना रूप गंवा दें तब उन्हें देखने पर अज्ञान की  अनुभूति होती है।  अनेक प्रकार के संबंध नियमित नहीं रहते पर हम ऐसी आशा करते हैं। इस घूमते संसार चक्र में हमारी आत्मा ही हमारा साथी है यह सत्य ज्ञान है शेष सब बिछड़ने वाले हैं। हम बिछड़ने वाले व्यक्तियों, छूटने वाले विषयों और नष्ट होने वाली वस्तुंओं में मग्न होते हैं पर इस अज्ञान का पता योग चिंत्तन से ही चल सकता है। तब हमें नित्य-अनित्य, सुख-दुःख और जड़े-चेतन का आभास हो जाता है।

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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

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