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वीडियो पर हिंदी व्यंग्य प्रस्तुत करने का एक प्रयास


महिला और पुरुष:कौन आगे कौन पीछे-महिला दिवस पर विशेष लेख


       हमारे देश में आजकल रोज एक दिवस मनता दिखता है।  वैसे तो भारत को वैसे भी त्यौहारों का ही देश कहा जाता है पर वह सप्ताह या माह के अंतराल बाद ही आते हैं। पूर्णमासी तथा अमावस्या हर महीने ही आती हैं।  कैलेंडर में देखें तो रोज कोई न कोई खास दिन होता है। इधर पश्चात्य संस्कृति ने अपने पांव पसारे हैं तो लगता है कि हर दिन ही त्यौहार है। मित्र दिवस, मातृ दिवस, पितृ दिवस और नया वर्ष जैसे दिन तो बहुत सुनते हैं। कभी एड्स विरोधी दिवस तो कभी कैंसर निरोधी दिवस भी सुनाई देता हैं  इधर हाल ही में महिला दिवस मना। व्यवसायिक बुद्धिमानों ने जहां अपनी वाणी और चेहरे से टीवी चैनलों के साथ ही रेडियों पर अपने भाषण झाड़े वही आमजनों में अपना रुतवा रखने वाले महानुभावों ने नारी शक्ति अनौपचारिक बैठकों में  बखान किया।

हमने देखा है कि पुरुष दिवस कभी नहीं मनता। इसका सीधा मतलब यह है कि यह मान लिया गया है कि यह संसार पुरुषों की संपत्ति है जिसमें महिलायें उनकी अनुकंपा से जी रही हैं।  हमारे देश के जनवादी और प्रगतिशील  बुद्धिमान हमेशा ही जाति, वर्ण, भाषा तथा क्षेत्र के आधार पर भेदभाव का आरोप लगाते हैं पर नारी विषय पर उनका रुख बदल जाता है।  वहां वह पुरुष को एक तरह से राक्षसी वृत्ति का मान लेते हैं यह अलग बात है कि वह स्वयं भी पुरुष ही होते हैं। उनके तर्कों पर हम हंसते हैं।  कहते हैं कि समाज में पुरुषवादी मानसिकता है।  हम पूछते हैं कि जब आप नारी अनाचार के विरुद्ध विषवमन करते हो तब क्या कभी यह देखा है कि वास्तव में उनका शत्रु कौन होता है?

कुछ नारीवादी बुद्धिमान तो नारी के लिये विवाह बंधन ही खतरनाक मानते हैं यह अलग बात है कि उनमें अविवाहित या ब्रह्चारी कोई नहीं होता।  आयुवर्ग में भी वह युवा न होकर उस अवस्था में होते हैं जब देह में रोमांस का असर काम हो जाता है।  अपनी बात वह युवाओं पर तब लादते दिखते हैं जब उनका खुद का समय बीत गया होता है। अपने युवा दिनों की मटरगस्ती को वह भूल जाते हैं।  कहा जाता है कि विवाह का लड्डू जो खाये वह भी दुःखी जो न खाये वह भी दुःखी।  जिन्होंने स्वयं खा लिया है वह दूसरों को न खाने की सलाह देते हैं।  मजे की बात यह कि भारतीय पारिवारिक संस्कारों के साथ जीने वाले लोग उसका मजाक बनाते हैं पर स्वयं के लिये उनका नियम पुराना ही होता है। वह विद्रोह का झंडा दूसरों के हाथ में देकर स्वयं आराम से सामाजिक फिल्म देखना चाहते हैं ताकि उसकी समीक्षायें लिखी और सुनाईं जा सकें।  समस्या यह है कि वह इस बात नियम को नहीं मानते कि नारी के लिये पुरुष कम नारियां ही अधिक समस्या खड़ी करती हैं।  भारतीय रिश्तों में नहीं वरन् पूरे विश्व में ही ननद-भाभी, सास-बहु, देवरानी-जेठानी तथा अन्य बहन जैसे रिश्तों में तनाव की बात सामने आती है।  अपवाद स्वरूप ही देवर-भाभी, ससुर-बहु, नन्दोही-सलहज और साली बहनोई के रिश्ते में खटास वाली घटनायें होती हैं।  सामाजिक विशेषज्ञों का अनुभव तो यह भी कहता है कि पर्दे के पीछे नारियों के विवाद होते हैं पर समाज के सामने फंसता पुरुष ही है क्योंकि परिवार उसके नाम पर जाना जाता है।  हमारे यहां घरेलु नारियों की रक्षा के नाम पर जितने भी प्रयास हुए हैं उनमें जड़ में नारियों का आपसी विवाद होता है पर परेशान पुरुष ही होता है।  इन मामलों में यह देखा गया है कि मामलों को बाहर सुलझाने के लिये घर से बाहर ले जाने जो प्रयास होते हैं उनमें से अधिकतर शिकायतें गलत आधार पर गलत व्यक्ति के खिलाफ होती है।  दहेज विरोधी कानून का जमकर दुरुपयोग हुआ।  अनेक सामाजिक विशेषज्ञ तो यह कहते हैं कि इस कानून का दुरुपयोग करने का यह परिणाम हुआ है कि ऐसे अनेक दंपत्ति जो एक साथ समझाने पर रह सकते थे वह मामला बाहर आने में मन में  बढ़ी हुई  खटास के कारण अलग हो गये।  अनेक लोगों की कथा तो इसलिये भी दर्दनाक रही है कि वह उस शादी में एक समय का भोजन करना उन्हें महंगा लगा जिसका भांडा चौराहे पर फूटा और उन पर भी घाव हुए। स्थिति इतनी खराब है कि कहीं नवदंपत्ति का विवाद होने  पर निकटस्थ रिश्तेदार बीच में आकर सुलझाना ही नहीं चाहते क्योंकि उनको लगता है कि कहीं उनका नाम चौराहे पर न घसीट लिया जाये।  विवाह एक सामाजिक मामला है और उसे उसके नियमों के दायरे में ही रखना चाहिये न कि उसमें राजकीय हस्तक्षेप हो।  राजकीय हस्तक्षेप से समाज के सुधार का प्रयास पाश्चात्य विचाराधारा से उपजा है जो निहायत अव्यवाहारिक है।  ऐसे प्रयासों से भारतीय समाज बिखरा है। दूसरी बात यह कि जिस तरह सारे पुरुष देवता नहीं है तो राक्षस भी नहीं है उसी तरह नारियों का भी हमेशा सकारात्म स्वरूप रहता है यह माना नहीं माना जा सकता।  अगर समाज में नारियों के विरुद्ध अपराध बढ़े हैं तो उसमें शामिल नारियों की संख्या भी बढ़ी है।

अब मुश्किल यह है कि जनवादियों और प्रगतिवादियों ने देश के अभिव्यक्ति के साधनों पर इस कदर कब्जा कर लिया है कि उनके प्रतिकूल सर प्रथक  किसी बात कहने पर किसी पर प्रभाव नहीं होता।  समाज में आयु, वर्ण, जाति, भाषा, धर्म और लिंग के आधार पर कल्याण के दावे हो रहे हैं पर खुश कोई नहीं है।  वजह साफ है कि  समाज को एक इकाई मानते हुए देश में सभी शहरों के साथ गांवों में भी सड़कों का जाल बिछा होना चाहिये।   सभी जगह शुद्ध पेयजल प्रदाय की सहज व्यवस्था हो।  इसके साथ ही बिजली हर घर में पहुंचना चाहिये।  यह मूलभूत सुविधायें हैं अगर यह देश के किसी हिस्से में नहीं है तो हम अपने पूर्ण विकास का दावा नहीं कर सकते।  इसके विपरीत देश के बुद्धिमान किश्तों में अलग अलग समाज को भागों में बांटकर विकास देखना चाहते हैं।  हमारे देश में गरीब परिवारों जो स्थिति है उसमें नारी दयनीय जीवन जीती है पर यकीनन पुरुष भी कोई खुशहाल नहीं होता।   अपने पिता, पति और पुत्र को जूझते देखकर नारी स्वयं की दयनीय स्थिति से समझौता कर लेती है।  सीधी बात कहें तो नारी और पुरुष के बिना मानवीय संसार नहीं चल सकता।  दोनों परिवार के पहिये हैं।  एक पहिया पीछे तो एक आगे चलता है।  आगे का पहिया पुरुष है और अगर नारीवादी चाहते हैं कि नारी आगे पहिये के रूप में चले तो ठीक है।  उनके प्रयास बुरे नहीं है पर उन्हें यह समझना होगा कि तब पुरुष को पिछला पहिया बनना होगा। एक पहिया आगे तो एक पीछे रखना ही होगा। हालांकि तब इन नारीवादियों को तब पुरुषवादी बनना पड़ेगा।

  दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’

Gwalior, Madhya Pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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शायद कोई हालात बदल दे-हिंदी कविता(shayad koyee halat badal de-hindi poem


जमाने को बदल देंगे
यह ख्याल अच्छा है
पर कोई चाबुक नहीं
किसी इंसान के पास
जिससे दूसरे का ख्याल बदल दे।
अमीरी खूंखार ख्याल लाती है,
कहर बरपाने के कदमों में
ताकत का सबूत पाती है,
गरीबी मदद के लिये
भटकाती है इधर से उधर,
दरियादिली के इंतजार में खड़े टूटे घर,
न बदलती किस्मत
न होती हिम्मत
बस उम्मीद जिंदा रहती है कि
शायद कोई हालात बदल दे।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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आपसी द्वन्द्व-हिन्दी कविताएँ


अब मंच और पर्दे के नाटक
नहीं किसी को भाते हैं,
खबरों के लिए होने वाले
प्रायोजित आंदोलन और अनशन ही
मनोरंजन खूब कर जाते हैं।
——————
हर मुद्दे पर
उन्होने समर्थन और विरोध की
अपनी भूमिका तय कर ली है,
उनके आपसी द्वन्द्व के
पर्दे पर चलते हुए दृश्य को
देखकर कभी व्यथित न होना
कुछ हंसी तो
कुछ दर्द की
चाशनी में नहाये शब्दों से
उन्होंने  पहले ही अपनी  पटकथा भर ली है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
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छीनने से सिंहासन नहीं मिल जाता-हिन्दी व्यंग्य कविता


तेल उधार लेकर

घर के चिराग न जलाएँ,

मांगी मिठाई से

दिवाली न मनाएँ,

अँधेरों में जीना,

जुबान चाहे मांगे स्वाद

अपने होंठ भूख से सीना,

वरना गुड़ बनकर

अमीरों के हत्थे चढ़ जाओगे।

फिर गुलामी की जज़ीरों से

लड़ते रहोगे

आज़ादी के लिए छटपटाओगे।

————–

मांगने से मिलती नहीं अमीरी

छीनने से सिंहासन नहीं मिल जाता है।

अपनी दौलत, शौहरत और ताकत

पर भले ही तुम इतराते रहो

अपने घमंड से काँपते देखो ज़माना

सच यह है कि

तुम्हारी ताकत से

क्या हिलेगा देश में कोई पेड़

किसी शहर का पत्ता तक हिल नहीं पाता है।


कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

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विज्ञापन की कीमत-हिन्दी व्यंग्य कविता (adevertisment-hindi shayari)


पैंतरेबाजी से प्रसिद्धि भी जल्दी मिल जाती है,
सीधी राह में भी अड़चन कम न आती है।
शादी पर बारात निकले, या गमी में शवयात्रा
खुशी और गमी भी बाजार में अब बेची जाती है।
हम बैठे देख रहे परदे पर, सब नाटक है सच नहीं
मुफ्त नहीं है, विज्ञापन की कीमत से शय बढ़ जाती है।
कहें दीपक बापू शादी से तलाक तक देखते रहो
बिके पात्रों के अभिनय में गज़ब की सच्चाई नज़र आती है।
कुछ मज़हब की बातें होती, कुछ शायरी भी देती सुनाई
जहां है दौलत का खजाना, वहां की गाथा गायी जाती है।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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