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विज्ञापन में शोक कि शोक में विज्ञापन-हिंदी व्यंग्य


                     दो प्रचार प्रबंधक एक बार में सोमरस का उपभोग करने के लिये   गये। बैरा उनके कहे अनुसार सामान लाता और वह उसे उदरस्थ करने के बाद इशारा करके पास दोबारा बुलाते तब फिर आता। दोनों आपस में अपने व्यवसाय से संबंधित बातचीत करते रहे।  एक प्रचार प्रबंधक ने दूसरे से कहा‘-‘‘यार, मेरे चैनल का मालिक विज्ञापनों का भूखा है।  कहता है कि तुम समाचार अधिक चलाते हो विज्ञापन कम दिखाते हो।’’

दूसरा बोला-‘‘यार, मेरे चैनल पर तो समाचारों का सूखा है।  इतने विज्ञापन आते हैं कि समझ में नहीं आता कि समाचार चलायें कि नहीं। जिन मुद्दों पर पांच मिनट की बहस होती है  हम पच्चपन मिनट के विज्ञापन चलाते हैं।  हालांकि इस समय मुसीबत यह है कि हर रोज कोई मुद्दा मिलता नहीं है।’’

पहला बोला-‘‘अरे, इसकी चिंता क्यों करते हो? हम और तुम मिलकर कोई कार्यक्रम बनाते हैं। राई को पर्वत और रस्सी को सांप बना लेंगे। अरे दर्शक जायेगा कहां? मेरे चैनल  या तुम्हारे चैनल पर जाने अलावा उसके पास कोई चारा नहीं है।

इतने में बैरा उनके आदेश के अनुसार सामान ले आया।  उसकी आंखों में आंसु थे। यह देखकर पहले प्रचार प्रबंधक ने उससे पूछा कि ‘‘क्या बात है? रो क्यों रहे हो? जल्दी बताओ कहीं हमारे लिये जोरदार खबर तो नहीं है जिससे हमारे विज्ञापन हिट हो जाये।’’

बैरा बोला-‘‘नहीं साहब, यह शोक वाली खबर है।  वह मर गयी।’’

दोनों प्रबंधक उछलकर खड़े हुए पहला बोला-‘‘अच्छा! यार तुम यह पैसा रख लो। सामान वापस ले जाओ। हम अपने काम पर जा रहे है। आज समाचार और बहसों के लिये ऐसी सामग्री मिल गयी जिसमे हमारे ढेर सारे विज्ञापन चल जायेंगे।’’

दूसरा बोला-‘‘यार, पर शोक और उसकी बहस में विज्ञापन! देखना लोग बुरा न मान जायें।’’

पहला बोला-‘‘नहीं यार, लोग आंसु बहायेंगे। विज्ञापन देखकर उनको राहत मिलेगी। हम फिर उनको रुलायेंगे। देखा नहीं उसके  बस से लेकर उसके अस्पताल रहने तक  हमने समाचार और बहस में कितने विज्ञापन चलाये।’’

दूसरा बोला-‘‘पहले यह तो इससे पूछो मरी कौन है?’’

पहले ने बैरे से पूछा-‘‘यह तो बताओ मरी कौन है?’’

बैरा रोता रहा पर कुछ बोला नहीं। दूसरे ने कहा-‘‘यार, यह तो मौन है।’’

पहला बोला-‘‘चलो यार, अपने विज्ञापन का काम देखो।  यह हमारा कौन है?’’

दोनों ही बाहर निकल पड़े। पहले ने एक विद्वान को मोबाइल से फोन किया और बोला-‘‘जनाब, आप जल्दी आईये।  अपने साथ अपनी मित्र मंडली भी लाना। सभी अच्छा बोलने वाले हों ताकि दर्शक अधिक से अधिक हमने चैनल पर बने रहें। हमारा विज्ञापन का समय निकल सके।’’

दूसरे ने भी मोबाईल निकाला और अपने सहायक से बोला-‘‘सुनो, जल्दी से विज्ञापन की तैयारी कर लो। एक खबर है जिस पर लंबी बहस हो सकती है। इसमें अपनी आय का लक्ष्य पूरा करने में मदद मिलेगी।’’

दोनों अपने लक्ष्यों की तरफ चल दिये। उन्होंने यह जानने का प्रयास भी नहीं किया कि ‘मरी कौन है’। इससे उनका मतलब भी नहीं था।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश 

poet and writer-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

इश्क़ नहीं है आसान-हिन्दी व्यंग्य कविता


इश्क आसान है
अगर दिल से करना जानो तो
जिस्म से ज्यादा रूह को मानो तो
जहां कुछ पाने की ख्वाहिश पाली दिल में
सौदागरों के चंगुल में फंस जाओगे।
कहें दीपक बापू
कोई दौलत पाता है,
कोई उसे गँवाता है,
सिक्कों के खेल में
किसका पेट भरता है,
आम इंसान की ज़िंदगी
कभी कहानी नहीं बनती
चाहे जीता या मरता है,
किसी को होंठों से चूमना,
हाथ पकड़कर साथ साथ घूमना,
दिल का दिल से मिले होने का सबूत नहीं है,
जज़्बात बाहर दिखाये कोई ऐसा भूत नहीं,
इंसान के कायदे अलग हैं,
जिंदगी के उसूल अलग हैं,
करीब से जब जान लोगे
तभी सारे जहां पर हंस पाओगे।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
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क्रिकेट के साथ बल्ले बल्ले और फिक्सिंग मिक्सिंग चालू आहे-हिन्दी हास्य व्यंग्य (ramance with cricket-hindi hasya vyangya)


बल्ले बल्ले और फिक्सिंग मिक्सिंग-हिन्दी हास्य व्यंग्य
लेखक -दीपक भारतदीप
आखिर क्रिकेट में चल क्या रहा है? बल्ले बल्ले कि फिक्सिंग मिक्सिंग! सुबह दो चैनल अपने कार्यक्रम इस तरह प्रस्तुत कर रहे थे जैसे कि क्रिकेट इस देश का जीवन हो। उनकी प्रस्तुति इस तरह की थी जैसे पहले नौटंकी वालों के ढिंढोरची ढोलक बजाकर कहते थे कि ‘देखो, देखो आपके शहर में आ गयी नौटंकी। कल से शुरु!’
दूसरी तरफ दो चैनल बता रहे थे कि विश्व कप प्रतियोगिता में सात मैच फिक्स होने का संदेह है। दो सटोरिये घूमकर खिलाड़ियों को फिक्स कर रहे हैं। उनके लिये ‘क्रिकेट के गद्दार’ शब्द का उपयोग किया गया। पाकिस्तान, वेस्टइंडीज और आस्ट्र्रेलिया के खिलाड़ियों की तरफ उंगली उठाई। बीसीसीआई की टीम जिसे टीम इंडिया बताकर क्रिकेट में देशप्रेम की भावना को उबारा जा रहा है उसके खिलाड़ियों की तरफ कोई संकेत नहीं! मतलब सभी पाक साफ हैं। हां होंगे! जिन दो खिलाड़ियों पर क्रिकेट मैच फिक्सिंग का आरोप लगाकर उन पर आजीवन क्रिकेट खेलने की सजा दी गयी वह अब विशेषज्ञ की भूमिका में हैं। उनके इतिहास की चर्चा से टीवी चैनल कतराते हैं क्योंकि वह आजकल उनके स्टूडियो में जो शोभायमान हैं। वैसे देखा गया है जिस पर क्रिकेट खेलने पर प्रतिबंध लगता है उसे प्रचार माध्यम भी अपने कार्यक्रमों से बहिष्कृत कर देते हैं, पर अब सब चलने लगा है। पाकिस्तान का एक फिक्सर भी आजकल भारत में विशेषज्ञ बनकर घूम रहा है।
एक टीवी चैनल में उद्घोषक ने मजेदार बात कही कि ‘जिन पत्रकारों पर फिक्सिंग में संलिप्त होने का संदेह है वह खिलाड़ियों से बाकायदा मिल रहे हैं।’
अब हम उनसे कैसे पूछें कि ‘जिन खिलाड़ियों पर मैच फिक्सिंग के आरोप प्रमाणित हो चुके हैं वह उनके स्टूडियो में क्या कर रहे हैं?’’
कुछ लोग संशय में हैं कि आखिर क्रिकेट को क्या समझें? खेल या जुआ! हम दोनों से परे तीसरी बात कहते हैं कि क्रिकेट अब एक व्यापार है। व्यापार मतलब कि उसमें एक सीमा तक छल कपट जायज है। फिक्सिंग भी उसमें शामिल है। हम फिक्सिंग वगैरह को लेकर देशद्रोह या गद्दार जैसा शब्द उपयोग नहीं करते। सीधी सी बात है कि जब तुम्हें मालुम है कि सभी न हों पर कोई भी मैच फिक्स हो सकता है तो काहे देख रहे हो क्रिकेट!
आजकल हम क्रिकेट पर लिखते अधिक बोलते ज्यादा हैं! कहीं क्रिकेट की चर्चा हो जाये तो कभी कभार पूछ लेते हैं कि ‘जनाब, यह फिक्सिंग का क्या चक्कर है?’
लोग आस्ट्रेलिया, पाकिस्तान और वेस्टइंडीज के खिलाड़ियों पर शक करते हैं पर अपने देश के क्रिकेट क्लब बीसीसीआई की टीम के खिलाड़ियों को पवित्र मानते हैं। उनकी नज़र में तो केवल क्रिकेट खिलाड़ी ही राष्ट्र की पहचान हैं जिन पर लगी कालिख उनके मन में बैठे राष्ट्रप्रेम को तकलीफ दे सकती है। दरअसल हमारे देश का हर इंसान भारी तकलीफ में जी रहा है। वह सुंदर चीजें, व्यक्ति तथा हालत केवल सपने में देखता है और फिर अपने अंदर बहुत सारे भ्रम पाल लेता है जिनके टूटने का भय उसे हमेशा ही रहता है। ऐसे में अगर हम कह दें कि ‘हमने सुना है क्रिकेट के अब अतंर्राष्ट्रीय मैच फिक्स होते हैं तो लोग ऐसे देखते हैं जैसे कि कोई विदेशी या मूर्ख आदमी बोल रहा है।
हम देखते हैं कि कड़वी सच्चाई से उनकी आखों की चमक कम हो जाती है यह सोचकर कि कहीं यह बात वाकई सच तो नहीं है। लोग अपने देश के क्रिकेट क्लब बीसीसीआई को ऐसे मानता है जैसे कि वह देश की सरकार है जो बिना किसी दबाव के सारे काम करती है। दुनियां की सबसे अमीर क्रिकेट संस्था बीसीसीआई प्रायोजकों की दम पर है जिनके पीछे कंपनियां हैं। कुछ ए हैं तो कुछ बी और कुछ सी। यह विज्ञापन देने वाली कंपनियंा हैं जिनके प्रचार के लिये बनी फिल्मों में क्रिकेट खिलाड़ी अभिनयक कर चुके होते हैं। संदेह किया जाता है कि यह अपने उत्पाद के प्रचार मॉडलों को खिलाड़ी के रूप में टीमो के लिये फिक्स करती हैं। एक डी कपंनी भी है जिस पर आरोप है कि वह तो खेल ही फिक्स करती है। इस कंपनी को तो कहना ही क्या? वह देश की नहीं है और कार्यकर्ता देश के ही होते हैं जो इतनी आसानी से नहीं मिलते।
लोग हैरान हैं। क्या सच, क्या झूठ! एक मित्र ने पूछा-‘आखिर बताओ, क्या सच समझें? यह चैनल वाले तो कभी बल्ले बल्ले तो कभी फिक्सिंग फिक्सिंग करते हैं। हां, अपने देश के खिलाड़ियों पर सभी खामोश हैं, इसे क्या समझें!’
हमने उससे कहा कि ‘कम से कम एक बात अच्छी है कि वह बल्ले बल्ले के बाद कम से कम फिक्सिंग की बात तो करते हैं। अब यह जरूरी है कि वह निष्कर्ष प्रस्तुत करें! यह उनका काम नहीं है। तुम स्वयं देखो और देखकर तय करो कि देखना है कि नहीं देखना! जहां तक बीसीसीआई की टीम जिसे तुम देश की मान रहे हो उस पर खामोश रहना ही बेहतर हैं। भला कोई अपने परिवार के बच्चों की बुराई कोई बाहर कहकर कोई उनके विरुद्ध दुष्प्प्रचार करता है? हां, दूसरे परिवार के बच्चों की बुराई कर अपने बच्चों को यह हर कोई समझाता है कि वह उससे बचें।’
बहरहाल यह बल्ले बल्ले और फिक्सिंग मिक्सिंग का मैच अब चालू आहे।
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काले को सफेद करने का चमत्कार-हास्य व्यंग्य


गुरुजी के पुराने भूतहे आश्रम  में आते ही चेले ने अपने बिना प्रणाम गुरु जी से कहा-‘गुरूजी जी आज आपकी सेवा में अंतिम दिन है। कल से नये गुरू की चेलागिरी ज्वाइन कर रहा हूं, सो आशीर्वाद दीजिये कि उनकी सेवा पूरे हृदय से कर सकूं और मुझे जीवन में मेवा मिल सके।’
सुबह सुबह यह बात सुनकर गुरूजी का रक्तचाप बढ़ गया। शरीर पसीने से नहा उठा। वह उनका इकलौता चेला था जिसकी वजह से लोग उनको गुरुजी की पदवी प्रदान करते थे। अगर वह इकलौता चेला उनको छोड़कर चला गया तो साथ ही उनकी गुरूजी की पदवी भी जानी थी। बिना चेले भला कौन गुरु कहला सकता है। उन्होंने चेले से कहा-‘यह क्या किसी कंपनी की नौकरी है जो छोड़कर जा रहा है। अरे, कोई  धर्म कर्म को व्यापार समझ रखा है जो नये गुरू की सेवा ऐसे ज्वाइन कर रहा है जैसे नई कंपनी प्रमोशन देकर बुला रही है। तू तो ऐसे बोल रहा है जैसे किसी कंपनी का प्रबंधक अपने प्रबंध निदेशक से बात करता है। सुबह सुबह क्या स्वांग रचा लिया है जो आज धमका रहा है। जो थोड़ी बहुत गुरु दक्षिण आती है उसमें से तुझे ईमानदारी से हिस्सा देता हूं। कभी कभी कोई दो लड्डू चढ़ाकर जाता है तो उसमें से भी आधा तेरे लिये बचा रखता हूं। अभी डेढ़ लड्डू खा जाता हूं अगर चाहूं तो पौने दो भी खा सकता हूं पर मैं ऐसा नहीं कर सकता। इतना ख्याल तेरा कौन रखेगा।’
चेला बोला-‘आपको इस नई दुनियां का नहीं पता। यह धर्म कर्म भी अब व्यापार हो गये है। आश्रम कंपनियों की तरह चल रहे हें। आपका यह पुराना आश्रम पहले तो फ्लाप था अब तो सुपर फ्लाप हो गया है। वह तो में एक था जो किसी नये अच्छे गुरू के इंतजार में आपकी शरण लेता रहा। अब तो फायदा वाले बाबा ने मुझे निमंत्रण भेजा है अपनी चेलागिरी ज्वाइन करने के लिये।’
गुरुजी हैरान रह गये-अरे, यह फायदा वाले बाबा तो बड़े ऊंचे हैं, भला तुझे कैसे निमंत्रण भेजा है? दूसरे हिट बाबाओं को चेले मर गये हैं क्या? सुन इस चक्कर में मत पड़ना। पहली बात तो उनके फाइव स्टार आश्रम में तेरा प्रवेश ही कठिन है फिर चेलागिरी ज्वाइन करने का तो सवाल ही नहीं।‘
चेले ने कहा ‘क्या बात करते हैं आप! इस गुरूपूर्णिमा के दिन वह मुझे दीक्षा देने वाले हैं। अब उनका धंधा बढ़ा गया है और उनको योग्य शिष्यों की जरूरत है। उनमें काले धन को सफेद करने का जो चमत्कार है उसकी वजह से उनको खूब चढ़ावा आता है। उसे संभालने के लिये उनको योग्य लोग चाहिऐं।’
गुरूजी ने कहा-‘भला तुझे काले धन को सफेद करने का कौनसा अभ्यास है?’
चेले ने कहा-‘धन है ही कहां जो सफेद कर सकूं। जब धन आयेगा तो अपने आप सारा ज्ञान प्राप्त होगा। कम से कम आपको इस बात पर थोड़ा शर्मिंदा तो होना चाहिए कि आपके पास कोई काला धन लेकर नहीं आया जिसे आप सफेद कर सकते जिससे मुझे भी अभ्यास हो जाता। वैसे मै वहां काम सीखकर आपके पास वापस भी आ सकता हूं ताकि आपकी गुरुदक्षिणा चुका सकूं।’’
चेला चला गया और गुरुजी अपने काम में लीन हो गये यह सोचकर कि ‘अभी तो फ्लाप हूं शायद लौटकर चेला हिट बना दे। कहीं गुरू गुड़ रह जाता है तो चेला शक्कर बनकर अपने गुरू को हिट बना देता है।’
कुछ दिन बात चेला रोता बिलखता और कलपता हुआ वापस लौटा और बोला-‘’गुरूजी, मैं लुट गया, बरबाद हो गया। आपके नाम पर मैंने अनेक लोगों से चंदा वसूल कर एक लाख एकत्रित किया था वह उस गुरू के एक फर्जी चेले ने ठग लिया। मुझे उसके एक चेले ने कहा कि गुरुजी को एक लाख रुपये दो और दो महीने में दो लाख करके देंगे। वह मुझे गुरूजी के पास ले भी गया। उन्होंने मुझे आशीवार्द भी दिया। बोले कुछ नहीं पर गुरूजी का चेला मुझसे बोला कि जब दो लाख देने के लिये बुलवायेंगे तभी से अपनी चेलागिरी भी प्रदान करेंगे। दो महीने क्या छह महीने हो गये। मैं आश्रम में गया तो पता लगा कि कोई ऐसा ही फर्जी चेला था जो आश्रम आता रहता था। फायदा वाले बाबा के पास कुछ अन्य लोगों को पास ले जाता और आशीर्वाद दिला देता। बाकी वह क्या करता है मालुम नहीं! हम सब बाबा के पास गये तो वह बोले‘कमबख्तों काले धन को सफेद करते उसका चूरमा बन जाता है। वह रकम बढ़ती नहीं घटकर मिलती है, ताकि उसे काग़जों में दिखाया जा सके। तुम लोगों के पहले के कौन गुरू हैं जो तुम्हें इतना भी नहीं समझाया’। अब तो आपकी शरण में आया हूं। मुझे चेलागिरी में रख लें।’’
गुरूजी ने कहा-‘फायदा वाले बाबा को यह नहीं बताया कि तुम्हारे गुरू कौन हैं?’
चेला बोला-‘‘बताया था तो वह बोले ‘कमबख्त! तुम्हारा धन तो काला ही नहीं था तो सफेद कैसे होता’, वैसे तुम्हारी ठगी का वैसा ठगी में गया’।’’
गुरूजी ने कहा-‘अब भई तू किसी तीसरे गुरू की शरण ले, तेरी जगह बाहर चाय की दुकान कााम करने वाले लड़के को पार्ट टाईम चेलागिरी का काम दे दिया है। वह भी मेरे नाम से इधर उधर से दान वसूल कर आता है पर कुछ हिस्सा देता है, तेरी तरह नहीं सौ फीसदी जेब में रख ले। वैसे वह कह रहा है कि ‘काले धन को सफेद करने का काम भी जल्दी शुरू करूंगा’, वह तो यह भी दावा कर रहा है कि इस आश्रम का सब कुछ बदल डालूंगा।’
चेले ने कहा-‘गुरुजी, कहीं वह यहां गुरूजी भी तो नहीं बदल डालेगा।’
गुरूजी एकदम करवट बदलकर बैठ गये और बोले-‘कैसी बातें कर रहा है। गुरूजी तो मैं ही रहूंगा।’
चेले ने कहा-‘गुरूजी, यह माया का खेल है। जब वह कह रहा है कि ‘सब कुंछ बदल डालूंगा तो फिर गुरूजी भी वही आदमी कैसे रहने देगा। ऐसे में आप मुझे दोबारा शरण में लें ताकि उस पर नज़र रख सकूं।’’
गुरूजी सोच में पड़ गये और बोले-‘मुश्किल यह है कि काले धन को सफेद करने का धंधा कभी मैंने किया नहीं। इसलिये उस पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। ठीक है तू अब उपचेला बन कर रह जा।’
चेले ने कहा-‘गुरूजी आप महान हैं जो उपचेला के पद पर ही पदावनत कर रख रहे हैं वरना तो मैं सफाई करने वाला बनकर भी आपकी सेवा करता रहूंगा। आपने न सिखाया तो क्या आपके नये चेले से काला धन सफेद करने का चमत्कार सीख लूंगा।’
इस तरह काले धन का सफेद करने के मामले पर दोनों ने अपने संबंध पुनः जोड़ लिये और उनको इंतजार है कि नया चेला कब से यह काम शुरू करता है।’

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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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असली क्रिकेट प्रशिक्षण-हिन्दी हास्य व्यंग्य (real cricket coching-hindi hasya vyngya)


एक आदमी अपने लड़के को क्रिकेट की कोचिंग सिखाने के लिये ले जा रहा था। रास्ते में दोस्त मिल गया और उसने पूछा तो वह आदमी बोला-‘यार, मेरा बच्चा क्रिकेट खेलता है। पढ़ता लिखता कुछ नहीं है। पड़ौसियों को परेशान कर रखा है। इसलिये इसे क्रिकेट कोच के पास ले जा रहा हूं। हो सकता है कि यह क्रिकेट खिलाड़ी बन जाये क्योंकि ऐस सारे गुण इसमें दिखाई देते हैं।
दूसरे दोस्त ने कहा-‘अच्छी बात है! वैसे मैं एक अच्छे क्रिकेट कोच को जानता हूं। उसने कभी क्रिकेट अधिक नहीं खेली पर जितनी खेली कोच बनने के लिये पर्याप्त थी। तुम कहो तो उसके यहां चलें।’
उस आदमी ने कहा-‘अरे यार, तुम समझते नहीं। आजकल कोई भी खेल खेलना काफी नहीं है। जिस कोच के पास ले जा रहा हूं वह क्रिकेट सिखाने के साथ रैम्प पर नाचना भी सिखाता है। सबसे बड़ी बात यह कि वह ऐसा क्रिकेट कोच है जो फिक्सिंग करना भी सिखाता है।
दोस्त ने हैरान होकर पूछा-‘यार कैसी बात कर रहे हो?’
उस आदमी ने कहा-‘वही तो हम पुराने लोग नहीं समझ पाते। इधर मैंने देखा कि मैच फिक्सिंग की बातें भी हो रही है। अरे, एक पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी पर भारत की दो दो लड़कियां फिदा हो गयीं। एक से तलाक फिक्स किया तो दूसरे की साथ शादी हुई जबकि उसके बारे में उस देश की ही एक खिलाड़ी कहता है कि वह गज़ब का फिक्सिर है। उधर क्रिकेट खिलाड़ियों को रैम्प पर नाचता हुआ देखता हूं तो लगता है कि यह भी उनको कोच ने ही सिखाया होगा। एक दो खिलाड़ी तो लाफ्टर शो में भी निर्णायक बन कर आता है। ऐसी गतिविधियां वह कोच सिखाता है। क्रिकेट तो कोई भी सीख और सिखाता है पर उसके साथ जो दूसरी जरूरी चीजें वह सिखाये वही असली कोच है।
वह दोस्त अपना मुंह लेकर चला गया।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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ढाई कौड़ी का चिंत्तन-हिन्दी हास्य व्यंग्य


एक सरकारी अधिकारी के यहां छापा मारकर ढाई हजार करोड़ की अवैध संपत्ति का पता लगाया गया। डेढ़ टन सोना बरामद किया। यह खबर अखबार में पढ़कर अपने तो होश ही उड़ गये-आजकल अक्सर ऐसा होने लगा है।
हम सोचने लगे कि इतने सारी संपत्ति वह अधिकारी संभालता कैसै होगा। अपने से तो ढाई हजार रुपये की रकम हीं नहीं संभलती। पहले तो इतनी बड़ी रकम साथ लेकर निकलते ही नहीं-कुछ तो लेकर निकलते ही हैं क्योंकि इतने बड़े आदमी नहंी है कि साथ में सचिव वगैरह हो खर्च करने के लिये या लोग मुफ्त सेवा के लिये आतुर रहते हों-अगर साथ लेकर निकलते ही हैं तो कुछ पर्स में रखेंगे, कुछ पेंट की अंदरूनी जेब में तो कुछ शर्ट की जेब में और बाकी पेंट की दायीं जेब में।
इसके चलते एक बार हमें अपमानित भी होना पड़ा जब हमारा पर्स खो गया तो एक टूसीटर चालक वापस करने आया। उसमें एटीएम कार्ड था जो गरीब होने की छबि से बचाता है, इसलिये शर्मिंदा होने से बचे और और उस टूसीटर चालक ने कहा भी था कि ‘आपका एटीएम देखकर वापस करने का मन हुआ था वरना तो उसमें एक भी पैसा भी नहीं था जिससे वापस करने का विचार करता।’
कभी एक साथ ढाई लाख की रकम नहीं देखी इसलिये ढाई करोड़ जैसा शब्द ही डरा देता है। ऐसे में उसके साथ सौ का शब्द तो अंदर तक हिला देता है। देश की विकासदर बढ़ रही है पर अपनी विकास दर स्थिर है इसलिये यह सौ करोड़ या हजार करोड़ शब्द ही मातृभाषा हिन्दी से पृथक किसी दूसरी भाषा के शब्द प्रतीत होते हैं। उस समय सोच के दरवाजे ही बंद हो जाते हैं।
एक समय तक इस देश में करोड़ की रकम भ्रष्टाचार में पकड़े जाने तक सम्मानजनक मानी जाती थी। उसके बाद सौ करोड़ अब तो हजार करोड़ों से नीचे बात ही कहां होती है। वैसे आजकल अधिकारियों के पकड़े जाने की चर्चा खूब होती है। इसमें कुछ गरीब अधिकारी भी फंसे हैं जिनके पास सौ करोड़ के मानक में संपत्ति थी।
जब ऐसी खबरे आती हैं तो हमें कुछ देर लगता है कि जैसे वह इस धरती की चर्चा नहीं होगी कहीं स्वर्ग वगैरह का मामला होगा वरना यहां हजार करोड़ रखने की किसके पास ताकत होगी-यह तो ऊपर वाले देवताओं की कृपा हो सकती है जो स्वर्ग में ही रहते हैं। फिर शहर और प्रदेश देखते हैं तो यकीन करना ही पड़ता है कि इस धरती पर भी दूसरी दुनियां है जिसमें केवल पैसे वाले रहते हैं और भले ही उन सड़कों पर घूमते हों जहां से हम भी निकलते हैं पर उनको न हम जैसे लोग दिखाई देते हैं और न वह इनको देख पाते हैं। इतने हजार करोड़ों रुपये के मालिक भला खुले में निकल कहां सकते हैं? उनको तो चाहिये लोहे लंगर के बने हुए चलते फिरते किले।
प्रेम के ढाई आखर पढ़ ले वही पंडित बन जाये, पर जिससे पंडित नहीं बनना हो वह ढाई में सौ का गुणा करते हुए इस मायावी दुनियां में बढ़ता जाये। मुश्किल हम जैसे लोगों की है जिनके पास यह गुणा करने की ताकत नहीं है।
डेढ़ टन सोना। कर लो बात! यहां अपने घर में डेढ़ तोले सोने पर ही बात अटक जाती है। हमारे मित्र को अपने पत्नी के लिये सोने की चूड़ियां बनवानी थी। एक दिन हम से उसने कहा-‘अभी तय नहीं कर पा रहा कि एक तोले की चार चूड़ियां बनवाऊं या डेढ़ डेढ़ तोले की दो।’
हमने कहा-‘क्या यार। अभी भी एक ड़ेढ तोले पर ही अटके हुए हो। सोना तो विनिवेश करने एक अच्छा साधन है। दो दो तोले की चार बनवा लो।’
वह बोला-‘यार, औरतों को पहननी भी तो पड़ती हैं। भारी हो जाती हैं।’
सोना पहनने में भारी होता है पर रखने में नहीं। आम औरतें सोना पहनने के लिये लेती हैं ताकि समाज में उनकी अमीरी का अहसास बना रहे। विशिष्ट लोगों की औरतों में तो अब सोना पहनने का शौक नहीं रहा। शायद इसका कारण यह है कि किसी वस्तु अधिकता से बोरियत हो जाती है-यह अर्थशास्त्र के उपयोगिता नियम के अनुसार विचार है- अपने घर में टनों सोना देखकर उनका मन वैसे ही भर जाता है तब उसके गहने बनवाने का विचार उनको नहंी आता। वैसे ही उनका रौब इतना रहता है कि अगर गहने न भी पहने तब भी आम लोग उनकी अमीरी का लोहा मानते हैं। ऐसी औरतों के पति अगर बड़े पद पर हों तो वह सोने की बरफी-बिस्कुट भी कह सकते हैं-बनाने वाले हलवाई हो जाते हैं जो अपना माल खुद उपभोग में नहीं लाते। उनके घर की नारियां भी ऐसे ही हो जाती हैं कि क्या अपने पति का बना माल खाना’।
हद है यार! क्या लिखें और क्या कहें! ढाई हजार करोड़ रुपये की संपत्ति और डेढ़ टन सोने की मात्रा देखते हुए अपनी औकात नहीं लगती कि उस पर कुछ लिखें। मुश्किल यह है कि जिनकी औकात है वह लिखेंगे नहीं क्योंकि उनको तो अपने गुणा भाग से ही फुरसत नहीं होती। यह लिखने का काम तो ढाई कौड़ी के लेखक ही करते हैं-यकीनन इतनी औकात तो अपनी है ही। अपनी आंखें ढाई हजार पर ही बंद हो जाती हैं पर ऐसे महानुभाव तो गुण पर गुणा करते हुए बढ़ते जाते हैं। आखिर उनको जिंदा रहने के लिये कितना पैसा चाहिये। यह सोचकर ही हमारी सोच भी जवाब देने लगती है वह भी तो ठहरी आखिर ढाई कौड़ी की।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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बहस कि कामेडी-हिंदी लघु व्यंग्य (disscusion as a comedy-hindi satire)


                 उस उद्यान में ज्ञानियों के बीच देश की गरीबी मिटाने के लिये बहस चल रही थी। विषय था देश में गरीबी और शौषण खत्म कैसे किया जाये। सभी सजधजकर बहस करने आये थे। सभी वक्ता अपने अपने विचार रख रहे थे।
            एक ने कहा ‘हमें गरीबों के दिमाग में अपने अधिकार के लिये चेतना जगाने का अभियान छेड़ना चाहिये।
           वहीं एक फटीचर आदमी भी बैठा था। उसने उठकर पूछा-‘पर कैसे? क्या कहें गरीबों से जाकर कि अमीरों का पैसा छीन लो!’
               सभा के संचालक ने उसे बिठा दिया और कहा‘-आप आमंत्रित वक्ता नहीं है इसलिये बहस मत करिये।’
              दूसरे वक्ता ने कहा-‘हमें एक आंदोलन छेड़ना चाहिये।’
              वह फटीचर फिर उठकर खड़ा हो गया और बोला-‘बहस और आंदोलन तो बरसों से चल रहे हैं।’
            संचालक फिर चिल्लाया-‘चुपचाप बैठ जाओ। वरना बाहर फैंक दिये जाओगे। हम कितने गंभीर विषय पर बहस कर रहे हैं और तुम अपनी टिप्पणियां मुफ्त में दिये जा रहे हो।’
              वह फटीचर आदमी वहां से चला गया तो एक विद्वान ने दूसरे से पूछा-‘यह कौन फटीचर यहां आ गया था।’
            दूसरे ने कहा-‘पता नहीं।’
           वहीं एक दूसरा फटीचर आदमी र्बैठा था वह बोला-‘वह मेरा दोस्त था। पहले किताबें पढ़कर बहुत बहस कर चुका है पर जब से बहुत ज्ञानी हो गया तब से उसने ऐसी बहसें बंद कर दी हैं। अलबत्ता कभी कभी चला आता है ऐसी बहसें देखने। क्योंकि इसे इसमें कामेडी नजर आती है।’
            यह बात सुनते ही दोनों विद्वानों का खूल खौल उठा वह बोले-‘तू हमारी बहस को कामेडी कहता है।’
वह दोनों उठकर खड़े गये और चिल्लाने लगे कि‘यह हमारी बहस को कामेडी कह रहा है। इसे मारो पीटो।’
            सब लोग उस पर चढ़ पड़े। वह चिल्लाता रहा‘मैं नहीं वह कहता है।’
             उसके पुराने कपड़ों में पहले ही पैबंद लगे थे वह और अधिक फट गये। जब वह पिट पिटकर बेहोश हो गया तब उसे छोड़ दिया गया। विद्वान फिर बहस करने लगे। कुछ देर बात उसे होश आया तो वह दोनों विद्वान वहीं बैठे बहस में व्यस्त थे। उसने उनसे कहा-‘यार, मैं थोड़े ही कहता हूं। वह कहता है। तुम दोनों ने मुझे क्यों क्यों पिटवाया।’
          उनमें से एक ने कहा-‘हम विद्वान है कोई सामान्य आदमी नहीं।  सांप को निकलने देते हैं उसके बाद लकीर पीटते हैं।’
       वह बिचारा वापस अपने दोस्त के पास पहुंचा और पूरा हाल बताकर बोला-‘यार, किस मुसीबत में फंसा मुझे फँसकर इस तरह भाग निकले। हम तो सोच रहे थे कि विद्वान लोग हैं शांति से सभी की बात सुनते होंगे पर  हैं पर वह हिंसा पर उतर आये।’
            उसने जवाब दिया-‘यह भ्रम मुझे भी होता था। इसलिये तुझसे कहता हूं कि ऐसी जगहों पर अधिक मत रुका करो। वहां बहस वही करते हैं जो किताबी ज्ञानी हैं। कबीरदास जी कह गये हैं कि किताब पढ़ने वालों को अहंकार आ ही जाता है। मैं भी तुझसे कहता हूं कि ऐसी बहसें कामेडी नाटक की तरह हैं क्योंकि किताबी ज्ञानी लकीर के फकीर होते हैं पर वहां सबके बीच में नहीं कहा। सच बात भी सही जगह और सही समय पर बोलना चाहिये। बस तुम्हारे और मेरे बीच यही अंतर है। इसलिये मैं तुम्हें अल्पज्ञानी कहता हूं। मैंने खतरा देखा तो निकल लिया और तुम फंसं गये।’

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

यूँ हुआ सच का सामना-हास्य व्यंग्य (yoon hua sach ka samna-hindi satire)


कविराज अपने घर से दूर उस पार्क में पहुंच गये। घर में बिजली नहीं थी और बरसात की वजह से सारी सड़कें सराबोर हो गयी थीं। पिछली बार एक बरसात में कविराज एक गड्ढे में गिर चुके थे। उस समय आसपास खड़े लोग भी उन पर हंस रहे थे। एक जानपहचान वाले ने हंसने वालों से कहा-तरस खाओ। हंस रहे हो! शर्म नहीं आती। एक कवि जो तुम्हारे लिये हमेशा सरस, समधुर और हास्य कवितायें ढूंढता हुआ सड़कों पर घूमता है अगर इस गड्ढे में गिर गया और तुम हंस रहे हो।’
एक ने कहा-‘इसलिये तो खुशी हो रही है। यह कवि लोग बेकार की कवितायें लिखते हैं।’
इतने में कविराज उठकर खड़े हो गये और बोले-‘आप लोग हंसे तो मुझे भी हंसने का अवसर मिलना चाहिये। आज इस गड्ढे में गिरने के विषय पर हास्य कविता लिखूंगा। आप लोग जरा अपना परिचय दीजिये।’
उन्होंने अपनी जेब से कागज और पेन निकाली जो अभी पानी से बची हुई थी और इधर वह लोग भाग निकले। जानपहचान वाले ने कहा-‘क्या मूर्ख कवि हो। हास्य कविता लिखने की बात करते हुए उनसे परिचय मांग रहे थे। हास्य मेें उनका सच लिख दोगे तो उनकी तो हालत खराब हो जायेगी।
कविराज ने कहा-‘पर मैं उनका पूरा परिचय तो नहीं मांग रहा था। भला उनका सच हास्य कविता में कैसे लिख सकता था?’
जानपहचान वाले ने कहा-‘तुम पूरा परिचय नहीं मांग रहे थे पर उनके दिमाग में तो अपना परिचय आ गया न! अपने सच पर कोई नजर नहीं डाले इसलिये वह भाग गये। सच से समाज भागता है।’
बात आयी गयी मगर कविराज ने उस दिन जब सड़कों पर लबालब पानी भरा देखा तो एक पार्क में चले गये। वहां भी भला बैठने की जगह कहां थी। उसी समय उन्हें एक पेड़ के नीच चबूतरा दिखाई दिया। वह उस पर बैठ गये। सोचा आज कुछ बरसात पर लिख लें। मगर कमबख्त वहां भी चैन कहां। पार्क के ठीक बाहर बाहर सड़क के किनारे एक चाय वाले का ठेला लगता था। अनेक बार लोग उस पार्क में खड़े होकर उसी चबूतरे पर बैठकर चाय पीते थे। आज बरसात की वजह से उसके पास लोग अधिक नहीं थे। इधर कविराज बैठे उधर से चाय वाले ने बाहर से चिल्ला कर पूछा-‘साहब, चाय दूं क्या?
कविराज ने कहा-‘नहीं भई, हम तो घर से पीकर आये हैं।’
उस ठेले वाले ने कहा-‘हमें क्या पता कि आपको चाय नहीं चाहिये। इस पार्क में इस पेड़ के नीचे तो हमसे चाय पीने वाले ही बैठते हैं।’
कविराज ने कहा-‘यह चबूतरा तुमने खरीदा है कि या पूरा पार्क ही तुम्हारे नाम पर लिख दिया गया है। हम यहां बैठकर कवितायें लिखेंगे।
कविराज ने अपनी जेब से डायरी निकाली और उस पर कुछ लिखने लगे। इधर बरसात बंद होने के बाद चाय के आशिक भी वहां आने लगे। एक साथ चार लोग आये और उसी चबूतरे पर बैठ गये एक तो कविराज के पास ही बैठ गया। उसने चाय वाले को चार चाय बनाने का आदेश दिया और कविराज के पास बैठकर उनका लिखा देखने लगा।
कविराज ने चश्में से उसे झांक कर देखा और पूछा-‘क्या देख रहे हो?’
उसने कहा-‘बस ऐसे ही नजर पड़ गयी, पर लगता है जैसे कि आप कविता सविता लिख रहे हैं।’
कविराज ने पूछा-‘यह कविता तो समझ में आ गया पर यह सविता क्या है? कहीं तुम इंटरनेट पर वह वेबसाईट तो नहीं देखते जो बदनाम हो गयी है।’
वह आदमी बोला-‘नहीं, पर मेरा छोटा भाई शायद देखता है। मैंने तो ऐसे ही कह दिया। अलबत्ता आपकी कविता बहुत अच्छी है। इसका शीर्षक क्या लिखेंगे?’
कविराज ने पूछा-‘तुमने यह कविता पढ़ ली जो कह रहे हो अच्छी है!’
उसने जवाब दिया-‘नहीं, ऐसे ही कह दिया।’
कविराज ने कहा-‘यही इसमें लिख रहा हूं कि लोग बिना देखे प्रशंसा या निंदा करते हैं। इसका शीर्षक होगा ‘सच का सामना’। बहरहाल आप अपना परिचय दें तो अच्छा रहेगा।’
वह घबड़ा गया और बोला-‘अरे, मुझे एक काम याद आ गया। फिर आता हूं।’
उसने अपने तीनों साथियों को भी इशारा किया और चाय वाले से कहा-‘अभी चाय मत लाना। हम अपना एक काम कर आ रहे हैं।’
चाय वाले का मूंह सूख गया पर वह कह कुछ नहीं पा रहा था। इधर उस आदमी के साथ आये तीन आदमियों ने भी यह वार्तालाप सुना और उसे अपने अनुकूल न पाकर अपने साथी की बात मानकर चले गये।
इतने में एक अन्य सज्जन आये। वह सिगरेट का धूंआ छोड़ते हुए कविराज के पास बैठ गये और चाय वाले से बोले-‘जरा, एक चाय बनाना।’
इधर कविराज अपनी कविता लिखने में लगे हुए थे। वह आदमी उनको लिखते देख पास में आ गया।
कविराज ने उसकी तरफ मूंह कर पूछा-‘क्या देख रहे हो।’
उन सज्जन ने कहा-‘यही कि आप क्या लिख रहे हैं?’
कविराज ने कहा-‘यह तो सच का सामना लिख रहा हूं। अच्छा हुआ आप मिल गये। बहुत देर से एक सिगरेट पीने वाला देख रहा था क्योंकि इससे कौन कौनसी बीमारियां होती है उसे बताना था और यह भी पूछना था कि इसे पीने में मजा क्या आता है? आप अपना परिचय दीजिये।ं’
उस आदमी ने एकदम सिगरेट फैंक दी और बोला-‘अरे, यह तो मैं पहली बार पीकर देख रहा हूं। अभी सामने से सामान लाता हूं फिर आपको परिचय दूंगा।’
उसने भी चाय वाले को चाय के लिये मना किया और खिसक गया। अब तो चाय वाले का धैर्य जवाब दे गया और बोला-‘साहब, यह हो क्या रहा है? यह मेरे ग्राहक क्यों भाग रहे हैं? महाराज, अगर आप नाराज हैं तो मुफ्त चाय पी लीजिये। कम से कम मेरा धंधा बर्बाद मत करिये। वैसे आपने उन लोगों से बात क्या की थी? जो चले गये।’
कविराज ने कहा-‘मैंने तो बस यही कहा था कि आजकल दूध भी साबुन वाले सामान से बनने लगा है। वैसे कुछ दिल पहले एक आदमी तुम्हारी चाय की शिकायत कर रहा था। उसने बताया कि तुम नकली दूध से चाय बनाते हो।’
चाय वाला घबड़ा गया और बोला-‘अब, दूध तो मेरे घर पर बनता नहीं है। जैसा आता है उससे चाय बनाता हूं। दूध की वैसे मुझे पहचान अधिक नहीं है। सच कहता हूं कि इसमें मेरी गलती नहीं है।’
कविराज ने उसकी तरफ घूरकर देखा और कहा-‘तुम्हें अच्छी तरह पता है कि दूध में मिलावट है।’
चाय वाला बोला-‘पर साहब, यह बात कहीं आप लिख मत देना। मैं गरीब आदमी हूं बर्बाद हो जाऊंगा। आप कौनसी अखबार के पत्रकार हैं?’
पता नहीं कविराज को क्या सूझा बोले-‘नहीं, हम तो मामूली कवि हैं। वैसे भी हम यहां बैठकर अपने पैसे का हिसाब कर रहे थे।’
चाय वाले का रुख एकदम बदल गया और बोला-‘उंह! फूटो यहां से! तुम जैसे छत्तीस कवि देखे हैं। चुपचाप यहां से चले जाओ। वरना बुलाता हूं इस सड़क के ठेकेदार से जो हमसे हर रोज पचास रुपये सुरक्षा कर वसूल करता है। वह बहुत खतरनाक आदमी है। ख्वामख्वाह में हमें और हमारे ग्राहकों को डरा रहे हो।’
कविराज हंसते हुए उठ गये। वह पीछे से बोला-‘फिर दिखना नहीं!
वह तेजी से चले जा रहे थे तो एक परिचित बोला-‘क्या बात है कविराज, भागे जा रहे हो। जरा बात तो कर लो।’
कविराज बोले-‘अभी नहीं। एक काम से जा रहा हूं।
उन परिचित ने पूछा-‘काम से जा रहे हो यह तो बता दिया। अब यह भी बता दो आ कहां से रहे हो?’
कविराज ने कहा-‘सच का सामना करके आ रहा हूं। अखबार में पढ़ना तो समझ में आ जायेगा।’
उन परिचित ने कहा-‘हां, अगर छप गया तो! वैसे मैंने सुना है कि आजकल तुम्हारी रचनायें अनेक अखबारों के कूड़ेदान की शोभा बढ़ा रही हैं।’
कविराज ने अपने कदम पीछे खींचे और उसके पास जाकर कहा-‘हां, यह भी सच है। एक दिन में दो बार सच से सामना हुआ है। अब यह भी लिखना पड़ेगा।’
वह सज्जन बोले-‘नहीं यार, तुम तो बुरा मान गये। कहीं हमारा नाम मत लिख देना। कहीं अखबार वालों ने छाप दिया तो बदनामी होगी। यकीनन तुम उसमें हमारे लिये कुछ अच्छा तो लिखने से रहे। अगर यह सच का सामना करके कहीं लिख दिया तो हो सकता है कि कोई सनसनी फैलने की उम्मीद में छाप दे। देखो इससे तुम्हारी और हमारी दोस्ती में फर्क पड़ सकता है!
कविराज धीरे धीरे बुदबुदाये-‘तीसरी बार!’ फिर अपने रास्ते चले गये।
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कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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