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भक्ति में जादू का मिश्रण-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


दूसरे पर तरह खाते वही

अपनी देह पर तरह तरह के

वेश धारण करने में

जिनकी आसक्ति है।

चमकते सिंहासन पर विराजे

समाज सेवा के व्यापार में

बेचते भ्रम सत्य के नाम पर

उनके शब्दों में इतनी शक्ति है।

कहें दीपक बापू प्रमाण पत्र

कोई नहीं  देखता

प्रसिद्ध हो जाने पर

प्रश्न नहीं उठाता

चतुराई में सिद्धि आने पर,

गुरु को दोष देना व्यर्थ

शिष्य वही आते

जिनकी जादू में भक्ति है।

——————-

दूसरे पर तरह खाते वही

अपनी देह पर तरह तरह के

वेश धारण करने में

जिनकी आसक्ति है।

चमकते सिंहासन पर विराजे

समाज सेवा के व्यापार में

बेचते भ्रम सत्य के नाम पर

उनके शब्दों में इतनी शक्ति है।

कहें दीपक बापू प्रमाण पत्र

कोई नहीं  देखता

प्रसिद्ध हो जाने पर

प्रश्न नहीं उठाता

चतुराई में सिद्धि आने पर,

गुरु को दोष देना व्यर्थ

शिष्य वही आते

जिनकी जादू में भक्ति है।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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कमाई के जरिये पर कोई सवाल नहीं उठता-हिंदी कविताएँ


बाहर हंसने की

नाकाम कोशिश करते लोग

मगर उनके दिल टूटे हैं।

शब्दों का मायाजाल

बुनने में सभी माहिर होते

अनुमान नहीं लगता कि

अर्थ कितने सत्य कितने झूठे हैं।

कहें दीपक बापू सभी के दिल

लगे हैं माया जोडने में,

कुछ उड़ाते

वफा का वादा हवा में

कुछ लगे रिश्ते तोड़ने में,

कमाई के जरिये पर

कोई सवाल नहीं करता

जानना चाहते हैं कि

किसने कितने सिक्के लूटे हैं।

———————

पद पैसे और प्रतिष्ठा के

शिखर पर आकर

हर कोई वाणी के नियम से

मुक्त हो जाता है।

चला न जाता

स्वयं जिस पथ पर

उसके प्रदर्शक बनने की

योग्यता से युक्त हो जाता है।

कहें दीपक बापू रबड़ की जीभ

धरा पर  तलवार की तरह चलती

 तब कोई नहीं देखता

चढ़ जाये सफलता के सिर पर

हर किसी की नज़र में

इंसान का मुख वाक्य

अलंकार से संयुक्त हो जाता है।

——————-

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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अपनी बात-हिन्दी कविता


कभी कभी हम

कुछ पंक्तियों में

अपनी बात कह जाते हैं।

हालातों से बेजार ज़माना

भटका है बाज़ार की

भूलभुलैया में

किससे कहें अपने शब्द

लोगों के कान

अपने मतलब की बात

सुनने के लिये ही रहते आतुर

हम स्वयं से ही कहते

दिल की बात

कागज अपना साथी बनाते हैं।

कहें दीपक बापू संवेदना से

जिनका नाता है

वही अकविता में भी

कवित्व समझ पाते हैं। 

——————————————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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ऊंचे और शानदार भवन-हिन्दी कविताऐं


धन का शिखर

हमेशा चमकदार दिखता है

मगर कोई चढ़ नहीं पाता।

एक रुपये की चाहत

करोड़ों तक पहुंचती

चढ़ते जाते फिर भी लोग शौक से

चाहे वह हमेशा दूर ही नज़र आता।

कहें दीपक बापू माया की दौड़ में

शामिल धावकों की कमी नहीं है,

कुछ औंधे मुंह गिरे

जो दौड़ते रहे

फिर भी उनको

सफलता जमी नहीं है,

यह माया का खेल है

किसी के हाथ आयी

किसी के हाथ से गयी

जीतकर भी कोई नहीं

सिर ऊंचा कर पाया

नाकाम धावक

प्राण भी दांव पर लगाता है।

———————-

हर शहर में

ऊंचे और शानदार भवन

सीना तानकर खड़े हैं।

आंखें नीचे कर देखो

कहीं गड्ढे में सड़क हैं

कहीं सड़कों पर गड्ढे

पैबंद की तरह जड़े हैं।

कहें दीपक बापू खूबसूरत

शहर बहुत सारे कहलाते हैं,

कूड़े के  मिलते ढेर भी

आंखों को दहलाते हैं,

विकास की दर ऊपर

जाती दिखती जरूर है

मुश्किल यह है कि

हमारी सोच स्वच्छ नहीं हो पाती

गंदी सांसों में फेर में  जो पड़े हैं।

—————————-

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

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छिपाते जो खजाना वही अमीर होते-हिन्दी व्यंग्य काव्य रचनाये


कई बार सुना  वह लोग अमीर हो जाते हैं,

जिनके हाथ छिपे खजाने लग जाते हैं।

कहें दीपक बापू अब देखते हैं हम

छिपाते हैं जो अपना खजाना वही  अमीर कहलाते हैं।

———–

लुटेरों को अब कोई भय नहीं सताता है,

खजाने में पहरेदारों से ही हिस्सा मिल जाता है।

कहें दीपक बापू अपराधों का पैमाना ऊपर जाये तो जाये

रुपहले पर्दे पर ज़माने के हालात पर होती चर्चा

रोने वाला भी कमाई कर जाता है।

———

किस जगह कौनसा सामान कब तक बचायें,

लुटने की फिक्र में जिंदगी कब तक दाव पर लगायें।

कहें दीपक बापू चिंता से बेहतर हैं चिंत्तन करना

सामानों का उपयोग करें पर दिल न लगायें।

————

जिस मशहूर आदमी के हाथ में कोई काम नहीं रह पाता है,

वही सर्वशक्तिमान के दर पर मत्था टेकने पहुंच जाता है।

कहें दीपक बापू पर्दे पर दिखने के  लिये बेताब है सभी

 कोई इंसान अपने चरित्र से भी बेपर्दा हो जाता है।

————–

पर्दे पर चेहरा दिखाने का मोह इंसानों को भटका देता है,

कोई चलता भद्दी चाल कोई चरित्र सरेराह लटका लेता है।

कहें दीपक बापू मूर्खतापूर्ण अदाओं से  बहलाने वाला आदमी

लोकप्रिय होने की तख्ती अपने नाम के साथ अटका देता है।

——————–

खबरची किसी की लहर ऊपर उठाते किसी की गिराते हैं,

डूबने वाले से करते किनारा 

मगर खुद पार लगने वाले पर अपनी मेहरबानी दिखाते हैं।

कहें दीपक बापू पर्दे पर खबरें लहरों की तरह बहती हैं,

आ गयी खोपड़ी के किनारे उन पर ही हम नज़र टिकाते हैं।

—————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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बादशाहों का ताज जनता का हाल-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


एक इंसान वह हैं जो कृत्रिम वातानुकूलन यंत्र से सजे

महलों में लेते सांस

रास्ते पर वाहनों में सफर करते हुए भी

जिंदगी में बदलाव की हवा से कांपते हैं,

दूसरी तरफ वह मेहनतकश भी हैं जो

गर्मी की भरी दोपहरिया में

खेत खलिहान और चौराहों पर

पसीना बहाते हुए अपनी तकलीफों से दिखते लापरवाह

चाहे हांफते हैं।

कहें दीपक बापू उन अमीरों को

अपना दर्द सुनाने से कोई फायदा नहीं है,

कांपते जिनके बीमार दिल

मदद देना उनका कायदा नहीं है,

सच यह है कि जंग में खड़े रहते हैं वह यकीन के साथ,

पसीना बहाने में नही डरते जिनके हाथ,

उनकी सच्ची हमदर्दी की वीरता को हम भांपते हैं।

————

इतिहास गवाह है सिंहासन के लिये हमेशा जंग होती रही है,

बड़े योद्धाओं के जीत दर्ज कर पहना ताज क्रांति के नाम पर

यह अलग बात है जनता अपने चेहरे का रंग खोती रही है।

कहें दीपक बापू आम इंसान लड़ता रहा हमेशा

अपने लिये रोटी जुटाने के वास्ते,

मदद मांगने कभी नहीं गया वह राजमहल के रास्ते,

घर पर अपना आसन लगाकर बैठा रहा

उसे मालुम है कोई नहीं बनेगा हमदर्द

वह लोग तो कतई नहीं

जिनकी शाही पालकी

उसकी भुजाओं की मेहनत ढोती रही है

—————-

 

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

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मसले और मजबूरी-हिंदी व्यंग्य कविता


हमें ऊंचे लक्ष्य की तरफ उन्होंने मदद का

भरोसा देकर ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर  धकेल दिया

मौका आया तो बताने लगे अपने मसले और मजबूरी,

यूं ही छोड़ जाते तो कोई बात नहीं

उन्होंने बना ली दिल से दूरी।

कहें दीपक बापू तन्हाई इतना नहीं सताती,

बिछड़ने के दर्द दूर करने की कोई दवा नही आती

हमने भी तय किया है

उसी जंग में उतरेंगे जो लड़ सकेंगे खुद ही पूरी।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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इंसान और अंतरिक्ष-हिंदी व्यंग्य कविताएँ


सवाल उठा रहे जहान की हालातों पर

वह अक्लमंद लोग जिनको जवाब देने हैं,

बहस होती  उनमें पर्दे पर विज्ञापनों के बीच

मगर फैसला लापता है

जुबान से निकले शब्दों के

मतलब अक्लमंदों से भी लेने हैं।

कहें दीपक बापू  जहान की मुसीबतों का हल

किसी फरिश्ते के पास भी नहीं मिल सकता

फिर भी कागजी नायक तैयारी करते दिखते हैं

हर कोई टाल रहा असली मुद्दे

क्योंकि लोगों के मसले बहुत पैने हैं।

———-

इंसान भेजता रहता है चांद पर अंतरिक्ष यान,
आंकाश के रहस्य की तलाश में है
मगर अपनी धरती के स्वभाव से हो गया है अनजान।
कहें दीपक बापू संसार में विज्ञान की तरक्की बुरी नहीं
है
मगर दुःखदायी है बिना इंसानियत के ज्ञान,
पत्थर और लोहे का सामान रंग से चमकता है
आंखों देखती है तो दिल धमकता है,
फिर भी लगता है कहीं खालीपन
क्योंकि होती नहीं अपनी जान की पहचान
—————-

 

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विज्ञापन की नाव.हिंदी व्यंग्य कविता


कुछ खबरे बनती हैं कुछ बनायी जाती हैं,

बताते हैं खुद खबरची कुछ ढूंढते हैं हम मसाला

बनाते हैं चाट की तरह खबर

मिर्ची सनसनी के लिये

मिलाई जाती हैं।

कहें दीपक बापू पर्दे  हो या कागज

प्रचार की धारा में बहने के लिये विज्ञापन की नाव जरूरी है,

अपने चेहरे को लोकप्रियता के समंदर में

पार लगाने वालों की  यही मजबूरी है,

नशा करते हैं जो पढ़ने सुनने का

उनको खबर की किस्म का हो जाता है अहसास

बयान करने के अंदाज से अपनी वह असलियत बताती है।

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रिश्ता और कीमत-दो हिन्दी व्यंग्य क्षणिकायें


दौलत चाहे बेईमानी से घर में आये

पहरेदारी के लिये ईमानदार शख्स जरूरी है,

ईमानदारी अभी तक नहीं मिटी इस धरती पर

जिंदगी बचाने के लिये उसे बनाये रखना

सर्वशक्तिमान की मजबूरी है।

कहें दीपक बापू अमीरों के छल कपट से

बन जाते है महल

इसे भाग्य कहें या दुर्भाग्य

ईमानदारी की रिश्तेदार मजदूरी है।

——–

हमने तो वफा निभाई उन्हें अपना समझकर

वह उसकी कीमत पूछने लगे,

क्या मोल लगाते हम अपने जज़्बातों का

जो उन पर हमने लुटाये थे

बिना यह सोचे कि वह पराये हैं या सगे।

कहें दीपक बापू रिश्ता निभाना भी उन्होंने व्यापार समझा

जिसकी तौल वह रुपयों की तराजू में करने लगे।

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बाज़ार से गठबंधन-हिन्दी व्यंग्य कविता


अंगद जैसे उनके पांव नहीं पर फिर भी सेवा के लिये अड़े हैं,

चंदे और दान से व्यापार चलाते शर्म नहीं वह चिकने घड़े हैं।

कागजों पर अपना खुद लिखते हुए इतिहास वह बन गये महान,

मदद का पैसा आत्मप्रचार पर फूंककर पर्दे पर सीना रहे तान,

अपनी चाहतों का पूरा करने के लिये दूसरे का दर्द दिखाते,

खुद करते कमाई ज़माने को तरक्की के सपने देखना सिखाते,

सबके चरित्र पर दाग हैं उन पर कोई उंगली नहीं उठायेगा,

बेआबरुओं से सभी डरते हैं अपनी इज्जत कोई नहीं लुटायेगा,

मशहुर हुए वह  करके बाज़ारों के सौदागरों से गठबंधन,

जिनके नाम का लिया सहारा उन बेबसों का जारी है क्रंदन,

कहें दीपक बापू अपनी सेहत बचाने का जिम्मा खुद पर है

देह हो या दिल की बीमारी दवा के दाम में उनके हिस्से बड़े हैं।

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गरीब का पसीना बनाता उनका महल-हिन्दी व्यंग्य कविता


बड़े लोग अच्छा कहें या बुरा कुछ फर्क नहीं होता है,

हिचकोले खाते हालातों में ज़माने का बेड़ा गर्क होता है।

गरीबी से रहे जो दूर वही गरीब का उद्धार करने चले हैं,

मजदूरों के पसीने के गाते गीत वही महलों में जो पले है,

जवानी के जश्न का सामान जुटाते वृद्धों का भला करते हुए

अभिव्यक्ति के झंडबरदारों के पास जाते लोग डरते हुए,

विज्ञान की डिग्री लेकर क्रांतिकारी अर्थशास्त्र पर चर्चा करते,

नारे लगाते लोग लेते चंदा जिससे अपना ही खर्चा भरते,

नाटकबाजी से चले आंदोलन  वजन प्रचार से पाते हैं,

तख्त पर पहुंचे लोगों के विचार आखिर खो जाते हैं,

कहें दीपक बापू स्वर्ग के सपने बेचने वाले बाज़ार में बहुत हैं

सस्ते मिले या महंगा सुंदर आवरण में छिपा नर्क होता है।

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

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होली के रंग और रस पर अध्यात्मिक चिंत्तन-होली पर्व 2014 के अवसर पर विशेष हिन्दी लेख


      अगर अंतर्मन सूखा हो तो बाहर पानी में कितने भी प्रकार के रंग डालकर उन्हें उड़ाओ क्षणिक प्रसन्नता के बाद फिर वही उष्णता घिर आती है।  बाह्य द्रव्यमय रंगों का रूप है दिखता है उसमें गंध है जो सांसों में आती है , एक दूसरे पर रंग डालते हुए शोर होता है उसका स्वर है, दूसरे की देह का स्पर्श है। पांचों इंद्रियों की सक्रियता तभी तक अच्छी लगती है जब तक वह थक नहीं जाती।  थकने के बाद विश्राम की चाहत! एक पर्व मनाने का प्रयास अंततः थकावट में बदल जाता है।

      आदमी बोलने पर थकता है, देखने में थकता है, सुनने में थकता है, चलते हुए एक समय तेज सांसें लेते हुए थकता है, किसी एक चीज का स्पर्श लंबे समय तक करते हुए थकता है। आनंद अंततः विश्राम की तरफ ले जाता है।  यह विश्राम इंद्रियों की  सक्रियता पर विराम लगाता है। यह विराम देह की बेबसी से उपजा है। देह की बेबसी मन में होती है और तब दुनियां का कोई नया विषय मस्तिष्क में स्थित नहीं हो सकता।  व्यथित इंद्रियां विश्राम करने  के समय स्वयं को सहमी लगती हैं। 

      योग साधकों की होली अंतर्मन में रंगों के दर्शन करते हुए बीतती है।  एकांत में आत्मचिंत्तन करने का सुअवसर पर मिलने पर अध्यात्मिक चक्षु, कर्ण, नासिका, मुख तथा मस्तिष्क  काम करने लगता है।  बाहर के रंग सूर्य की उष्मा से सूखने के साथ ही फीके होते हैं पर आंतरिक रंग ध्यान से उत्पन्न ऊर्जा से अधिक गहरे होते जाते हैं।  ऐसे में इस बात की अनुभूति होती है कि बाह्य सुख सदैव दुःख में बदलते हैं। जिस तरह हम करेला खाये या मिठाई अंततः पेट में कचड़े का ही रूप उनको मिलता है।  उसी तरह कानों से सुने गये स्वर, आंखों से देखे गये सुदंर दृश्य, नासिका से ली गयी सुगंध और हाथ से स्पर्श की गयी वस्तुओं का अनुभव अंततः स्मृतियों में बसकर कष्ट का कारण बनता है।  हमने वह खाया उसे फिर खाना चाहते हैं। हमने वह देखा फिर देखना चाहते हैं। हमने वह सुना फिर सुनना चाहते हैं। हमने गुलाब के फूल की खुशबू ली फिर लेना चाहते हैं। हमने सुंदर वस्तु को छुआ हम उसे फिर छूना चाहते हैं।  यह लोभ सताता है।   इसका कारण यह कि इन सुखों से प्राप्त विकार मन में बना हुआ है।  योग साधक अपनी साधना से विकार रहित हो जाते हैं। इंद्रियों के गुणों के पांचों विषय-रूप, रस, गंध, स्वर तथ स्पर्श-का सत्य जानते हैं।  इन गुणों के भी गुण वह समझते हैं। इसलिये वह किसी विषय को अपनी इंद्रियों के साथ  ग्रहण करते हुए भी उसके गुणों में लिप्त नहीं होते। योग साधक किसी विषय या वस्तु को छूते हैं, स्वर सुनते हैं, दृश्य देखते हैं, गंध सूंघते हैं, भोजन का स्वाद भी लेते हैं पर उससे प्राप्त सुख का तुरंत त्याग भी कर देते हैं ताकि वह अंदर जाकर दुःख का रूप न ले। अपने अभ्यास से वह विकारों को ध्यान से ध्वस्त कर देते हैं।

      मनुष्य की इंद्रियां बाहर सहजता से विचरण करती है। उन पर नियंत्रण करना कठिन है यह कहा जाता है।  योगसाधकों का इंद्रियों पर नियंत्रण सहज नहीं वरन् स्वभाविक रूप से होता है। इस संसार में मनुष्य मन के चलने के दो ही मार्ग हैं। एक सहज योग दूसरा असहज योग। योग सभी करते हैं। सामान्य आदमी इंद्रियों के वश होकर सांसरिक विषयों से जुड़ता है जिससे वह अंततः असहज को प्राप्त होता है  पर योग साधक उन पर नियंत्रण कर उपभोग करता है और हमेश सहज बना रहता है।  सामान्य मनुष्य होने का अर्थ असिद्ध होना नहीं है और योग साधक को सिद्ध भी नहीं समझना चाहिये।  असहज योगी में नैतिक और चारित्रिक दृढ़ता का अभाव होता है। कोई योग साधक है उसके लिये यह दोनों शक्तियां प्रमाण होती हैं। अगर नहीं है तो इसका आशय यह है कि उसके अभ्यास में कमी है। अपने योग साधक होने का प्रमाण दूसरों को दिखाने की बजाय स्वयं देखना चाहिये।  हम भीड़ में जाकर अगर यह प्रमाण दिखायेंगे तो सामान्य लोग यकीन नहीं कर सकते क्योंकि उनके पास ज्ञान नहीं होता। सहज योगियों के सामने प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि वह दूसरे योग साधक की चाल देखकर ही समझ लेते हैं।

      अध्यात्मिक चिंत्तन, अध्ययन, मनन और अनुसंधान एकांत का विषय है। सत्संग करना चाहिये ताकि दूसरे लोगों से भी अनुभव किये जा सकें।  आत्म प्रचार की भूख सभी को होती है पर योग साधक के कार्य उनके लिये प्रचार का काम स्वतः करते हैं। फिर पं्रचार कर प्रभावित भी किसे करना है? उन लोगों के सामने स्वप्रचार का क्या लाभ जिन्हें सांसरिक विषय भी अच्छे लगते हैं और त्यागियों के सामने प्रचार कोई लाभ भी नहीं है क्योंकि वह परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो जाते हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि हमें अपने को प्रसन्न करने का प्रयास करना चाहिये। सहज योग के लिये यह संभव है। जब संसार के सभी लोग असहज योग में रत हों तक सहज योगी को अपनी अनुभूतियां आनंद देती हैं। इनको बांटना संभव नहीं क्योंकि इनका न कोई रूप है न रंस है न ही स्वर है न गंध है न ही इसे स्पर्श किया जा सकता है।

      इस होली और घुलेड़ी पर एकांत चिंत्तन करते हुए हमने इतना ही पाया। इस अवसर पर सभी ब्लॉग लेखक मित्रों तथा पाठको को बधाई।

दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

ग्वालियर मध्यप्रदेश

 

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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कैमरे के सामने समाज सेवा-हिंदी व्यंग्य कविता


 कैमरे के सामने आते ही समाज सेवकों की बाछें खिल जाती हैं,

चंदे के कारोबार में प्रचार की पंक्तियों की सांसें मिल जाती हैं।

जन कल्याण की दुकानें शहर और गांव में जगह जगह खुल गयी हैं,

मालिकों खाते चंदे की मिठाई जिसमें  दान की मिश्री घुल गयी है,

देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक सेवकों की टोली फैली है,

बेबसों की संख्या यथावत पता नहीं किसकी नीयत मैली है,

गायक गाते अभिनेता नाचते मजबूरों के लिये चंदा मांगते,

भूल जाते सब जब भरी जेब की पतलून घर में खूंटी पर टांगते,

कहें दीपक बापू विकास दर के साथ गरीबी और बेबसी भी बढ़ी हैं

समाज सेवा के कारोबारियों के खाते में रकम भी बढ़ती जाती है।

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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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अपनी खुशी का काम-हिंदी व्यंग्य कविता


 हर कोई लगा रहा एक दूसरे पर भ्रष्टाचार का इल्जाम,

अपने कसूरों से बेखबर लिखते खुद ही अपना ईमानदारों में नाम।

लोगों के खजाने पर खतरे मंडराते हैं नहीं देते अब सांप पहरा,

सारे सबूत सामने हैं पर दावा यह कि चोरी का राज है गहरा,

पर्दे पर चर्चा होती विज्ञापनों के बीच भ्रष्टाचार हटाने की,

हंसी और मजाक करते हुए विद्वान कहते बात महंगाई घटाने की,

शिखर पर पहुंचे खास लोग लगाते हैं भलाई के नये नारे,

बेबस हो रहा आम इंसान दिन में दिखते हैं जमीन पर तारे,

कहें दीपक बापू दूसरे पर न छोड़ो  अपनी खुशी का काम,

हुक्मतों के लिये मुश्किल है खुद ही करो अपनी हंसी का इंतजाम।

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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

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पर्दे पर चलती खबर -हिंदी व्यंग्य कविता


नित नये स्वांग रचें,

अपने ही सच से आप बचें,

जिंदगी में हर पल एक नया शगूफा छोड़कर

सरल है स्वयं को  बहलाना

मौका मिले तो दूसरे को भी बरगलाना।

कहें दीपक बापू

पर्दे पर चलती खबर

फिल्म की तरह बनी लगती हैं,

पात्रों की अदायें बाद में हुई 

पहले लिखी लगती है,

जब काम न बनता हो अपने आप से

अस्त्र शस्त्रों को पास में दबाकर

भीड़ में हमदर्दी पाने के लिये

अच्छा है चिल्लाने का बहानां

………………………………..

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

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सौदागरों के कागजी ख्वाब-हिन्दी व्यंग्य कविता


वह ठहरे हल्के इंसान

चेहरे पर रोज नया मुखौटा लगाकर आते हैं,

गंभीरता का करते हैं नाटक

जल्दी ही जोकर हो जाते हैं।

कहें दीपक बापू

वादों पर कभी वह खरे उतर सकते नहीं,

अपने भरोसे पर यकीन खुद करते नहीं,

यह प्रचार का खेल हैं

जहां उनकी काली नीयत भी सुंदर नज़र आती है,

फरेबी अदायें महंगी बिक जाती हैं,

सौदागर बेच रहे बाज़ार में कागजी ख्वाब,

कारिंदों करें कारिस्तानी वह दिखायें रुआब,

सियायत हो या ज़माने का भला

कामयाब खिलाड़ी वही नज़र आते हैं,

वादों से वफादारी निभाने के बजाय

कागजी नाव जो चला पाते हैं।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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आकाश मुस्करा रहा है -हिंदी व्यंग्य कविता


लगता है ख्वाब में आयेंगे आसमान  से फरिश्ते,

निभायेंगे बिना मिन्नत किये हमसे अपने रिश्ते।

कहें दीपक बापू

हर पल जंग लड़ना ही  जिंदगी की सच्चाई है,

भले ही पलायन करने की कसम हमने खाई है,

बहुत आशिक कर चुके चांद तारे जमीन पर लाने के इरादे,

आकाश मुस्करा रहा है सदियों से सुनकर झूठे वादे,

सपने देखना अब बंद कर दिया लोगों ने,

खरीद रहे दूसरे की सोच घेरा दिमागी रोगों ने,

सभी के घर भरे दुनियां भर के सामानों से,

फिर भी ख्वाहिशों के झुंड के लिये फिर रहे अरमानों से,

दिल बहलाने के लिये भटकते लोगों का समझाना कठिन है

 अक्लमंदों के लिये ठीक यही कि अपना चंदन रहें खुद घिसते।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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माया का विज्ञापन रूप भी है-हिंदी व्यंग्य कविताएं


 रुपहले पर्दे पर जो चेहरे  दिख रहे हैं,

बाज़ार के सौदागरों हाथ बिक रहे हैं।

कहें दीपक बापू खबर और फिल्म एक समान

होता वही है जो पटकथाकार लिख रहे हैं।

————

खबरची लोगों के मन की बात भांप रहे हैं,

रुपहले पर्दे पर कुछ लोग खुश तो कुछ कांप रहे हैं।

कहें दीपक बापू मन तो पल पल  में बदलता है,

महीनों बाद के फैसले पर अभी विद्वान हांफ रहे हैं।

———-

रुपहले पर्दे पर रोज नया सर्वे आता है,

कोई नायक कोई खलनायक बन जाता है।

कहें दीपक बापू माया का विज्ञापन रूप भी है

लोगों की भलाई का नारा भी दाम दे जाता है।

———–

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

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मय कभी गम दूर नहीं करती-हिन्दी व्यंग्य कविता


मयखानों में भीड़ लगी है,

जैसे भीड़ अभी नींद से जगी है,

लगता है सारा जहान ही

बोतल में खुशियां तलाश रहा है,

एकता की मिसाल मिलती वहां

किसी ने खूब कहा है।

कहें दीपक बापू

कतरा कतरा हलक से उतरती मय

ऐसा शैतान पैदा करती

बात करता  जो फरिश्तों जैसी

मगर  दिल में जिसके

बदनीयती जगह बना लेती है,

नशेड़ी सच बोलता है

किस मूर्ख ने कहा है,

वहम है कि मय पीने से

गम दूर होता है

सच यह है

उतरती शराब से

बढ़ जाता है वह दर्द

जो होशहवास में सहा है,

जिसे कोई करना नहीं आता

पीने लग जाता है

कोई गम कोई खुशी की

वजह झूठी बता रहा है।

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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

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तख्त के चाहने वाले-हिन्दी व्यंग्य कविता


हुकुमतों के तख्त पर बैठने वाले

चेहरे रोज नये नये आते हैं,

ज़माना जब पांव तले होने का अहसास ऐसा

उनमें कसाई का चरित्र ही पाते है,

कीचड़ की दुर्गंध क्या समझेंगे

अपने महलों में रहते जो इत्र ही  पाते हैं

कहें दीपक बापू

बादशाह बन गया जो इंसान

सड़कों पर उड़ती धूल नहीं आती आंखों में

खुशकिस्मत होता है वही लाखों में,

आम इंसान की भलाई का दावा

वह चाहे कितना भी करे

अपने तख्त का उसे मित्र ही पाते हैं।

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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

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Gwalior, Madhya pradesh

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असुरों के अपराध पर बहस-हिन्दी व्यंग्य कविता


असुरों के अपराध पर करते हैं बहस

महिलाओं के हक हड़पने पर

समाज को कोसते हैं,

देवताओं पर लगाते पुरुष होने का आरोप

तोहमत कानून पर थोपते हैं।

कहें दीपक बापू अंग्रेजों ने समाज बांटा,

बुद्धिजीवी लगा रहे हर टुकड़े

बेकार के तर्कों का कांटा,

कोई कर रहा बाल कल्याण,

कोई महिलाओं की रक्षा के लिये चला बाण,

कोई गरीब को अमीर बनाने में जुटा,

कोई बीमार के लिये हमदर्दी रहा लुटा,

हजारों हाथ उठे दिखते हैं

जमाने की भलाई के लिये

मलाई मिलने का मौका मिलते ही

कमजोरों की पीठ में छुरा घौंपते हैं।

————

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

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