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हिंदी भाषा और मनोरंजन -१४ सितम्बर हिंदी दिवस पर कविता


आकर्षक शब्द वाचन की

कला में जादू है

मगर सभी को नहीं आती।

लोग मधुर स्वर के

जाल में फंस ही जाते

अर्थ की अनुभूति

सभी  को नहीं आती।

बिना सृजन के

रचयिता  दिखने की छवि

सभी को नहीं बनानी आती।

मनोरंजन के पेशे में

नारा नया होना चाहिये

पुरानी अदाओं पर भी

भीड़ खिंची चली आती।

कहें दीपक सुविधा भोगी

मनुष्य समाज हो गया है,

उपभोग के शोर में खो गया है,

मायाजाल में फंसे सभी

चाहे जिसे बंधक बना लो

नया बुनने की नौबत ही

कभी नहीं आती है।

————

कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
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धर्म की पहचान-हिंदी व्यंग्य कविताएँ


धर्म की पहचान

अलग अलग रंग के

कपड़े और टोपी हो गयी है।

ठेकेदारों ने तय किये हैं

नैतिकता और आदर्श के पैमाने

आम इंसान की अक्ल

उनको नापने में खो गयी है।

जो हर काम में हारे हैं

वही धर्म के सहारे हैं

विदेशी आयातित नारे लगाते हुए

देशी भक्ति सो गयी है।

कहें दीपक बापू सहज राह

चलने की आदत नहीं रही

किसी समाज में

ठेकेदार दिखाते धर्म का मार्ग

रंगीन तस्वीरों में खोए लोग के लिये

ज्ञान की किताबों गूढ़ हो गयी हैं।

———————-

इंसानों की आदत है

अपनी नाकामी का बोझ

दूसरों पर डालते हैं।

अपनी जेब को भरने के लिये सभी तैयार

परमार्थ का काम

परमात्मा पर टालते हैं।

विलासिता का आनंद

कभी कष्टमय होता है

फिर भी लोग

अपने मन में पालते हैं।

कहें दीपक बापू कल्याण का काम

ठेके पर होने लगा है,

दाम चुकाओ तो ठीक

वरना वफा के नाम पर

हर जगह मिलता दगा है,

मजबूरों की मेहनत के दम पर

सभी ताकतवर अपने घर

सोने के सामानों ढालते हैं।

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 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

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