Tag Archives: हिन्दी शायरी

दिल से बाहर-हिन्दी कविता


अब अपने दिल के घर से
बाहर आकर
न हम रोते
न हँसते हैं,
पर्दे पर चलते अफसाने
देखते देखते
हो गए इस जहान के लोग
हर पल प्रपंच रचने के आदी
हम उनके जाल में यूं नहीं फँसते हैं।
कहें दीपक बापू
फिल्म की पटकथाएँ
और टीवी धारावाहिकों की कथाएँ
ले उड़ जाती हैं अक्ल पढ़े लिखे लोगों की
ख्याली दुनियाँ के पात्रों को ढूंढते हुए
ज़मीन की हक़ीक़तों में खुद ही धँसते हैं,
रोना तो छूट गया बरसों पहले
अब ज़माने के कभी बहते घड़ियाली आंसुओं
कभी फीकी उड़ती मुस्कान देखकर
अब अपने दिल को साथ लेकर
बस, हम भी हँसते हैं।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
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हँसते नगमे दिल पर परचम फहराते-हिन्दी कविता


पत्थरों के खेल होते हैं
मगर वह जीते नहीं जाते,
कुछ घायल होते
कुछ बेमौत मर जाते।
कहें दीपक बापू
आओ
चंद शब्द मन में दुहराएँ,
कलम से होते जो कागज पर उतार आयें,
इंसान खुशनसीब है
भाषा मिली है बोलने के वास्ते,
क्यों चुने फिर पत्थर के रास्ते,
जज़्बातों में कुब्बत हो तो
दहशत के माहौल में भी
हँसते नगमे दिल पर परचम फहराते।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
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आपसी द्वन्द्व-हिन्दी कविताएँ


अब मंच और पर्दे के नाटक
नहीं किसी को भाते हैं,
खबरों के लिए होने वाले
प्रायोजित आंदोलन और अनशन ही
मनोरंजन खूब कर जाते हैं।
——————
हर मुद्दे पर
उन्होने समर्थन और विरोध की
अपनी भूमिका तय कर ली है,
उनके आपसी द्वन्द्व के
पर्दे पर चलते हुए दृश्य को
देखकर कभी व्यथित न होना
कुछ हंसी तो
कुछ दर्द की
चाशनी में नहाये शब्दों से
उन्होंने  पहले ही अपनी  पटकथा भर ली है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com

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पहले लिखी आंदोलन की पटकथा-हिन्दी व्यंग्य कविता


अब मंच और पर्दे के नाटक
नहीं किसी को भाते हैं,
खबरों के लिए होने वाले
प्रायोजित आंदोलन और अनशन ही
मनोरंजन खूब कर जाते हैं।
——————
हर मुद्दे पर
उन्होने समर्थन और विरोध की
अपनी भूमिका तय कर ली है,
उनके आपसी द्वन्द्व के
पर्दे पर चलते हुए दृश्य को
देखकर कभी व्यथित न होना
कुछ हंसी तो
कुछ दर्द की
चाशनी में नहाये शब्दों से
उन्होंने  पहले ही अपनी  पटकथा भर ली है।
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बिसात-हिन्दी कविता (bisat-hindi poem


दुबली, पतली और सांवली
उस गरीब औरत की काम के समय
मौत होने पर
पति ने हत्या होने का शक जताया।
पुलिस ने लाश को पोस्टमार्टम के लिये
अस्पताल भेजा
और एक घर से दूसरे और वहां से तीसरे
घर में काम करती हुई
उस गरीब औरत की मौत को
संदेहास्पद बताया।
गरीब और बीमार की मौत का पोस्टमार्टम
सुनकर अज़ीब लगता है,
पति लगाये तो कभी नहीं फबता है,
एक औरत
जिसने दस दिन पहले गर्भपात कराया हो,
रोटी की आस में घर से भूखी निकली होगी
कमजोर लाचार औरत की क्या बिसात
उमस तो अच्छे खासे इंसान को वैसे ही बनाती रोगी,
हड्डियों के कमजोर पिंजरे से
कब पंछी कैसे उड़ा
उसकी जिंदगी का रथ कैसे मौत की ओर मुड़ा,
इन प्रश्नों का जवाब ढूंढने की
जरूरत भला कहां रह जाती है,
सारी दुनियां गरीबी को अपराध
औरत उस पर सवार हो तो अभिशाप बताती है,
जाने पहचाने सवाल हैं,
अज़नबी नहीं जवाब हैं,
भूख और मज़बूरी
पहले अंदर से तोड़ते हैं,
तब ही मौत से लोग नाता जोड़ते हैं,
क्या करेंगे सभी
अगर पोस्टमार्टम में
कहीं भूख का अक्स नज़र आया।
———-

कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
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दुआ करो चोर पकड़ा न जाये-हिन्दी हास्य कविता


हांफता हुआ आया फंदेबाज
और बोला
‘दीपक बापू,
आज तो निकल गया इज्जत का जनाजा
बज जायेगा मेरे नाम का भी बाजा,
घर से पर्स में केवल पचास रुपये
लेकर निकला था कि कट गया,
मेरे लिये तो जैसे आसमान फट गया,
अब चिंता इस बात की है कि
कभी चोर पकड़ा गया तो
मेरा पर्स भी दिखायेगा,
उसमें मेरा परिचय पत्र है तो
वह नाम भी लिखायेगा,
दुःख इस बात का है कि
पचास रुपये थे उसमें
यह सुनकर हर कोई मुझ पर हंसेगा,
तब हमारा सिर शर्म के मारे जमीन में धंसेगा,
तरस जायेगा इज्जतदार मेहमानों के लिये
हमारे घर का दरवाजा।’

सुनकर तमतमाते हुए दीपक बापू बोले
‘बेशर्मी की भी हद करते हो,
पर्स में रखते हो परिचय पत्र
फिर पचास रुपये उसमें धरते हो,
दुआ करो चोर पकड़ा न जाये,
या पैसे निकालकर उसे कहीं फैंक आये
पकड़ा गया तो
उसकी बद्दुआ तुम्हारे नाम पर भी आयेगी,
जेल में पहुंचे है हजारों करोड़ चुराने वाले
उसे देखकर उसकी रूह शरमायेगी,
पहले अगर जेल जाकर भी वह चोर नहीं सुधरा होगा
क्योंकि उसने वहां अपने जैसों को ही बंद देखा होगा,
अब पहुंचेगा तो अपने को ‘गरीब श्रेणी’ में पायेगा,
मिलेंगे उसे ऐसे साथी, जिनकी लूटी रकम की बराबरी
वह सैंकड़ों जन्मों तक की चोरी में भी नहीं कर पायेगा,
बाहर की आजादी को तरसा करेगा,
जब ‘उच्च स्तरीय चोरों’ की गुलामी में चिलम भरेगा,
तब देगा उन घर स्वामियों को गालियां,
जिनके तालों में घुसी थी उसकी तालियां (चाबियां),
पकड़ा वह चोर न जाये,
या फिर पर्स उसका खो जाये
इसके लिये प्रार्थना करो
खुला है इसके लिये
बस एक सर्वशक्तिमान का दरवाजा।’
—————

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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शब्द बोलते, हिसाब तोलते-हिन्दी हास्य व्यंग्य कवितायें


उपदेश देते हुए उनकी
जुबान बहुत सुहाती हैं,
और बंद कमरे में उनकी हर उंगली
चढ़ावे के हिसाब में लग जाती है।
किताबों में लिखे शब्द उन्होंने पढ़े हैं बहुत
सुनाते हैं जमाने को कहानी की तरह
पर अकेले में करते दौलत का गणित से हिसाब
लिखने में कलम केवल गुणा भाग में चल पाती है।
———-
अपनी भाषा छोड़कर
कब तक कहां जाओगे,
किसी कौम या देश का अस्त्तिव
कभी भी मिट सकता है
परायी भाषा के सहारे
कहां कहां पांव जमाओगे।
दूसरों के घर में रोटी पाने के लिये
वैसी ही भाषा बोलने की चाहत बुरी नहीं है
दूसरा घर अकाल या तबाही में जाल में फंसा
तो फिर तुम कहां जाओगे।
अपनी भाषा तो नहीं आयेगी तब भी जुबां पर
फिर दूसरे घर की तलाश में कैसे जाओगे।
————-

मशहूर हो जाने पर
वही बताओ दूसरों को रास्ते,
जो चुने नहीं तुमने अपने वास्ते।
कुछ नया कहने के लिये
चारों तरफ तुम्हें तारीफ भी मिलेगी,
तुम्हारे चाहने वालों के चेहरे
पर हंसी भी खिलेगी,
सोचने का शऊर न हो
पर दिखना तो चाहिये,
भले ही लफ्ज़ खुद न समझो
पर लिखना तो चाहिये,
कोई नया आकर तुम्हारी जगह न ले
इसलिये रास्ता बंद कर दो
आहिस्ते आहिस्ते।
———

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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खतरा है जिनसे जमाने को, पहरा उनके घर सजा है-हिन्दी हास्य व्यंग्य कवितायें


इंसान कितना भी काला हो चेहरा
पर उस पर मेअकप की चमक हो,
चरित्र पर कितनी भी कालिख हो
पर उसके साथ दौलत की महक हो,
वह शौहरत के पहाड़ पर चढ़ जायेगा।
बाजार में बिकता हो बुत की तरह जो इंसान
लाचार हो अपनी आजाद सोच से भले
पर वह सिकंदर कहलायेगा।
खतरा है जिनसे जमाने को
उनके घर सुरक्षा के पहरे लगे हैं,
लोगों के दिन का चैन
और रात की नींद हराम हो जाती जिनके नाम से
उनके घर के दरवाजे पर पहरेदार, चौबीस घंटे सजे हैं।
कसूरवारों को सजा देने की मांग कौन करेगा
लोग बेकसूर ही सजा होने से डरने लगे हैं।
———–
बाजार में जो महंगे भाव बिक जायेगा,
वही जमाने में नायक कहलायेगा।
जब तक खुल न जाये राज
कसूरवार कोई नहीं कहलाता,
छिपायेगा जो अपनी गल्तियां
वही सूरमा कहलायेगा।
———-

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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ज़ज्बातों को कार समझ लिया-हास्य कविताएँ


एक दिल था जो
उन्होंने खिलौने की तरह तोड़ दिया,
मोहब्बत को समझा खेल
अपना रिश्ता दिल्लगी से जोड़ लिया।
जिंदगी के सुकून का मतलब नहीं समझे
जज़्बातों को समझा लोहे लंगर की तरह
अपना ख्याल कार की तरह मोड़ लिया।
———
एक दोस्त ने दूसरे को समझाया
‘‘यह ‘आई लव यू’ लिखकर
प्रेम पत्र भेजने से काम नहीं चलेगा,
इस तरह तो तू जिंदगी पर आहें भरेगा।
अपने पत्र में
तमाम तरह के तोहफों की पेशकश कर,
जज़्बातों से ज्यादा वादों के शब्द भर,
भले ही बाद में कार में न घुमाना
पहाड़ों पर हनीमून मनाने की बात भुलाना
मित्र, अब केवल दिल से दिल नहीं जीते जाते,
होटलों के बिल से ही इश्क के गीत लिखे जाते,
जो बताई मैंने तुझ राह
मंजिल तुझे तभी मिलेगी
जब आजकल के इश्क की राह चलेगा।’

———
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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वफा की कीमत औकात के मुताबिक-हिन्दी शायरी


दिन में फरिश्तों को भेष ओढ़े लोग
रात को शैतान हो जाते हैं।
भलाई अब हो गयी है
सौदे की शय
बेचते हैं बाजार में दरियादिल
वही दीवारों के पीछे
रंगीन रौशनी में
इज्जत के लुटेरे बन जाते हैं।
———-
नहीं दौलत अपने पास तो
किसी पर यकीन नहीं करना,
बिखर जाओगे मुफ्त में वरना,
यहां वफा बिकती है
बेचने वाले की औकात से
जिसकी तय होती है कीमत
पर बेवफाई आज के इंसानों के लिये
चालाकी का नाम होती है।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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काली करतूतें सफेद कागज में ढंकते रहे-हिन्दी शायरी


सिर उठाकर आसमान में देखा तो लगा
जैसे हम उसे ढो रहे हैं,
जमीन पर गड़ायी आंख तो लगा कि
हम उसे अपने पांव तले रौंद रहे हैं।
ठोकर खाकर गिरे जब जमीन पर मुंह के बल
न आसमान गिरा
न जमीन कांपी
तब हुआ अहसास कि
हम कोई फरिश्ते नहीं
बस एक आम इंसान है
जो इस दुनियां को बस भोग रहे हैं।
———
अपने से ताकतवर देखा तो
सलाम ठोक दिया,
कमजोर मिला राह पर
उसे पांव तले रौंद दिया।
वह अपनी कारगुजारियों पर इतराते रहे
काली करतूतें
सफेद कागज में ढंकते रहे
पर ढूंढ रहे थे अपने खड़े रहने के लिये जमीन
जब समय ने उनके कारनामों को खोद दिया।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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उजड़े रिश्ते-हिन्दी शायरी (rishtey-hindi comic poem)


अपनी दर्द भरी बातें
किसी को क्या सुनायें,
रोते लोगों क्या रुलायें,
सभी अपने गम छिपाने के लिये
दूसरों के घावों पर हंसने का
मौका ढूंढ रहे हैं।
अपने साथ हुए हादसों के किस्से
किसको सुनायें,
आखिर लोग उनको मुफ्त में क्यों भुनायें,
अपनी जिंदगी में थके हारे लोग
जज़्बातों के सौदागर बनकर
दूसरों के घरों के उजड़े रिश्तों की कहानी
बेचने के लिये घूम रहे हैं।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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प्रायोजित कहानियां-हिन्दी व्यंग्य कविता (sporsard story-hindi satire poem)


वस्त्रों के रंगों से चरित्र की पहचान
कभी नहीं होती है,
पद का नाम कुछ भी हो
इंसानों से निभाये बिना
उसकी कदर नहीं होती है।
जोगिया पहनकर करते जिस्म का व्यापार
जोगी धन जुटाने का कर रहे चमत्कार,
जब तक पोल सामने न आये
जयकारा बोलने वालों के मुख से भी
हाहाकार की आवाज बुलंद होती है।
कहें दीपक बापू
बाजार और प्रचार के हाथों में है
सारा खेल,
कब सजाये स्वयंवर
कब निकाल दें तेल,
खड़े किये हैं
फिल्म, खेल, और धर्म में बुत
जो दिखते इंसान हैं,
फैलायें जो भ्रम वह कहलाते महान
सनसनी बिकवा दें वही शैतान हैं,
लगता है कभी कभी
पहले जिनका पहले नायक बनाने के लिये
करते हैं प्रायोजन,
छिपकर पेश करते हैं
सुंदर देह और भोजन
करवाते हैं शुभ काम,
चमकाते हैं उसका नाम,
फिर पोल खोलकर
अपने लिये उनको खलनायक सजाते हैं,
जिन तस्वीरों पर सजवाये थे फूल
उन पर ही पत्थर बरसाते हैं,
कुछ कल्पित, कुछ सत्य कहानियां
प्रायोजित लगती हैं
जिन पर जनता कभी हंसती कभी रोती है।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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प्यार की आज़ादी-हिंदी हास्य कविता/हिन्दी शायरी


समाज के ठेकेदार से

उसके दोस्त ने पूछा

‘यार, तुम वेलंटाइन डे पर

प्यार की आजादी की जंग लड़ते हो,

जो आधा शरीर ढके वस्त्र पहने

उनके साथ देने का दंभ भरते हो,

क्यों नहीं वस्त्रहीन घूमने पर लगी

रोक ही खत्म करवा देते,

श्लीलता और अश्लीलता का भेद मिटा लेते।’

प्रश्न सुनकर समाज का ठेकेदार

घबड़ा गया और बोला

‘क्या बकवास करते हो,

अर्द्ध नग्न और वस्त्रहीन में

फर्क नहीं समझते हो,

अरे, मूर्ख मित्र

अगर वस्त्रहीन घूमने की

छूट लोगों को मिल गयी,

तो समझो अपनी ठेकेदारी हिल गयी,

बना रहे यह भेद अच्छा है

जहां तक हम कहें वहीं तक

रह पाती है श्लीलता,

विरोधी को निपटाने में

बहाना बनती है उसकी  अश्लीलता.

इसलिये वस्त्रहीन घूमने की

लोगों को छूट नहीं दिलवाते

मौका पड़ते ही बयानों में अपना नाम लिखवाते

फिर किसकी आजादी के लिये लड़ेंगे

वस्त्रहीनों से तो सर्वशक्तिमान भी डरता है

फिर वह क्यों किसी से डरेंगे।

जब तक वस्त्र छिन जाने का डर है

तभी तक ही तो लोग हमारा आसरा लेते।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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महानायकों के झुंड के बीचआम आदमी-व्यंग्य कविता


महानायकों के झुंड के बीच
खड़ा है आम आदमी
हैरान होता  यह सोचकर कि
किसकी आरती वह पहले करे।
सुबह छाया पर्दे पर फिल्म का नायक
दोपहर को गा रहा है भजन गायक
शाम को नजर आ रहा है
आतंक का खलनायक
किसे करे प्रेम
किस पर दिखाये गुस्सा
पहले नज़रों में उसके चेहरा तो तो भरे।
मगर पर्दे पर हर पल
दृश्य बदल रहा है
कभी हंसी आती है तो
कभी दिल दहल रहा है
इतने नायक और खलनायकों को
देखने से तो पहले फुरसत तो मिले
तब वह कुछ वह सोचने की पहल करे।

पड़ौस पर हमला न करो यह तो डाइन भी सिखाती-व्यंग्य कविता


डाइन भी सात घर छोड़कर
कहर बरपाती
अपने पडौस से निभाओ यह तो वह भी सिखाती

उसकी राह पर चलने वाले असली भक्त
आज भी अपने देश और पडौस को
कहर से बचाने के लिए
दूसरी जगह कहर बरपाते
पर खुद न जाकर
वहीँ के बाशिंदों को लगाते
जो पडौस नहीं अपने ही घर को ही
अपने हाथ से आग लगाकर कर देते राख
खुद को बहादुर समझने वाले
नहीं जानते कि
उनकी करतूत डाइन को भी लजाती
वह भी उनकी करतूत पर शर्माती
——————————-

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