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नया आईडिया-लघु हिन्दी हास्य व्यंग्य (new idea-laghu hindi hasya vyangya or short comic satire article)


     उस्ताद ने शागिर्द से कहा-“मेरी तौंद बहुत बढ़ गई है, इसे कम करना होगा, वरना लोग मेरे उपदेशों पर यकीन नहीं करेंगे जिसमें मैं उनको कम खाने गम खाने और कसरत करो तंदुरुस्ती पाओ जैसी बातें कहता हूँ। आजकल मोटे लोगों को कोई पसंद नहीं करता, नयी पीढ़ी के लड़के लड़कियां मोटे लोगों को बूढ़ा और बीमार समझते हैं। सोच रहा हूँ कल सुबह से सैर पर जाना शुरू करूँ।”
     शागिर्द ने कहा-“उस्ताद सुबह जल्दी उठने के लिए रात को जल्दी सोना पड़ेगा। जल्दी सोने के लिए सोमरस का सेवन भी छोडना होगा।”
    उस्ताद ने कहा-“सोमरस का सेवन बंद नहीं कर सकता, क्योंकि उसी समय मेरे पास बोलने के ढेर सारे आइडिया आते हैं जिनके सहारे अपना समाज सुधार अभियान चलता है। ऐसा करते हैं सोमरस का सेवन हम दोनों अब शाम को ही कर लिया करेंगे।”
     शागिर्द ने कहा-“यह संभव नहीं है क्योंकि आपके कई शागिर्द शाम के बाद भी देर तक रुकते हैं, उनको अगर यह इल्म हो गया कि उनके उस्ताद शराब पीते हैं तो हो सकता है कि वह यहाँ आना छोड़ दें।”
    उस्ताद ने कहा-“ऐसा करो तुम सबसे कह दो कि हम अपना चित्तन और मनन का कार्यक्रम बदल रहे हैं इसलिए वह शाम होने से पहले ही चले जाया करें।”
    उस्ताद कुछ दिन तक अपने कार्यक्रम के अनुसार सुबह घूमने जाते रहे पर पेट था कि कम होने का नाम नहीं ले रहा था। उस्ताद ने शागिर्द से अपनी राय मांगी। शागिर्द बोला-“उस्ताद आप देश में फ़ेल रही महंगाई रोकने के लिए अनशन पर बैठ जाएँ। इससे प्रचार और पैसे बढ्ने के साथ आपका पेट भी कम होगा।”
    उस्ताद ने कहा-“कमबख्त तू शागिर्द है या मेरा दुश्मन1 मैं पतला होना चाहता हूँ,न कि मरना।
शागिर्द बोला-“मैं तो आपको सही सलाह दे रहा हूँ। सारा देश परेशान है। इससे आपको नए प्रायोजक और शागिर्द मिल जाएंगे। फिर आपका स्वास्थ भी अच्छा हो जाएगा।”
      उस्ताद ने कहा-“हाँ और तू बैठकर बाहर सोमरस पीना, मैं उधर अपना गला सुखाता रहूँ।”
शागिर्द ने कहा-“ठीक है,फिर आप ऐसा करें की शाम को कहीं अंदर घुस जाया करें। तब मैं बाहर बैठकर लोगों को भाषण वगैरह दिया करूंगा। अलबत्ता मेरे यह शर्त है कि मैं आपसे पहले ही जाम पी लूँगा।”
      उस्ताद ने पूछा-“वह तो ठीक है पर शराब पीकर खाली पेट कैसे सो जाएंगे?
    शागिर्द ने कहा-” आप शराब कोई नमकीन के साथ थोड़े ही पीएंगे, बल्कि काजू और सलाद भी आपको लाकर दूँगा। उस समय हमारे पास ढेर सारा चंदा होगा। वैसे आप चाहें तो कभी कभी भोजन में मलाई कोफता के साथ रोटी भी खा लेना। अपने तो ऐश हो जाएंगे।”
      उस्ताद ने कहा-“पर इससे मेरी तौंद कम नहीं होगीc”
     शागिर्द ने कहा- आप अब अभी तक तौंद करने के मसले पर ही सोच रहे हैं? अरे, आप तो नए शागिर्द बनाने के लिए ही यह सब करना चाहते हैं न! जब नया आइडिया आ गया तो फिर पुराने पर सोचना छोड़ दीजिए।”
        उस्ताद ने मुंडी हिलाते हुए कहा-“हूँ, हूँ !”
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

राम के रूप इंसान क्या जाने (ram ke roop insan kya jane)


घर से बाहर निकलकर जैसे ही स्कूटर पर सवार हुआ, वैसे ही पास से गुजरते दो आदमियों का वार्तालाप कानों में सुनाई दिया। एक दूसरे से कह रहा था कि ‘आज तो शहर में धारा 144 लागू है। अयोध्या के राम मंदिर पर फैसला आने वाला है।’
दूसरा बोला-हां, अयोध्या के राम मंदिर पर अदालत का फैसला साढ़े तीन बजे आयेगा। आज बच्चे भी स्कूल नहंी गये हैं। बता रहे हैं कि टैम्पो और ऑटो भी साढ़े तीन बजे के बंद हो जायेंगेे। एक तरह से शहर में सन्नाटा छा जायेगा।’’
मैं सोच रहा हूं कि मेरा इस विषय से संबंध नहीं है क्योंकि घर तो अपने ही वाहन से मुझे वापस आना है। राम मंदिर पर फैसला! याद आया, पिछले कई बरसों से मेरे जेहन में बसा है राम मंदिर! मन में तो राम भी बसे हैं पर मंदिर एक अलग विषय है। राम पर चर्चा करने में मज़ा आता है पर अयोध्या का राम मंदिर अब गुजरे ज़माने की बात लगता है। ऐसा लगता है कि मेरी बुद्धि समय दूसरों के विषय पर काम करती थी जब इस विषय पर लोगों से चर्चा करता था। अब स्वतंत्र रूप से सोचता हूं तो लगता है कि राम मंदिर तो मेरे पास ही है। अपने कार्यस्थल से आते जाते दोनेां की बार ही मार्ग में पड़ता है जहां समय मिलने पर अवश्य जाता हूं। एक विष्णु जी का भी मंदिर है जहां परिवार के साथ जाना होता है। मोहल्ले से थोड़ी दूरी पर ही हनुमानजी और शिवजी के मंदिर हैं और वहां ध्यान लगाने में बहुत मज़ा आता है। जिन मंदिरों में जाता हूं मुझे वही सिद्ध लगते हैं जहां नहीं गया उनको हृदय में अब स्थान नहीं दे पाता। पता नहीं कभी अयोध्या जाना होगा या नहंी, पर अभी तक अनेक बार वृंदावन और उज्जैन में जाकर ही मुझे आनंद प्राप्त करने का अवसर मिला है।
एक राम मेरे अंदर है जहां उनकी अयोध्या उनकेसाथ है तो दूसरी अयोध्या मुझसे बहुत दूर है। मेरी आस्था मेरे घर के आसपास ही सिमटती जाती है और अपना स्कूटर लेकर चल पड़ता हूं। सोचता हूं-‘शाम को आकर टीवी पर समाचार सुनूंगा।’
शाम को चार बजे हैं। एक मित्र से फोन पर पूछता हूं कि-‘क्या अयोध्या के राम मंदिर पर फैसले का कोई समाचार आया?’’
वह बताता है कि ‘अभी नहीं आया! साढ़े चार बजे तक आने की संभावना है।’
मैं घर चलने की तैयारी में हूं। एक मित्र रास्ते में मिल जाता है। उससे बात करता हूं तो वह कहता है कि चलो, थोड़ी दूर चलकर चाय पीते हैं।
मैं उसे बिठाकर बाज़ार मंे आता हूं। दुकानें बंद हैं! मैंने कहा-‘पता नहीं आज यह बाज़ार क्यों बंद है! वह होटल वाला भी बंद कर गया, सुबह तो खुला था!
मित्र ने कहा-‘अरे यार, याद आया आज तो अयोध्या में राम मंदिर पर फैसला आना था। इसलिये उपद्रव होने की आशंका में बाज़ार बंद हो गया है। चलो फिर कल मिलेंगे।’
वह स्कूटर से उतरता ही है कि एक अन्य मित्र वहां से कहीं से निकलकर आया। मैने उत्सुकतावश पूछा-‘तुमने राम मंदिर के फैसले पर समाचार सुना है।’
वह बोला-‘हां, पूरा तो सुन नहीं पाया पर विवादित ज़मीन को तीनों पक्षों में एक समान बांटने का निर्णय सुनाया गया है। बाकी पूरा सुनने ही घर जा रहा हूं। मुख्य बात यह है कि रामलला की मूर्तियां वहां से नहीं हटेंगी।’
पहला वाला मित्र जो अभी वहीं खड़ा था‘-यार आपकी पूरी बात समझ में नहीं आयी। अभी जाकर समाचार सुनते हैं।’
मैंने कहा-‘अभी तो पूरे समाचार आने हैं। घर जाकर देखते हूं कि क्या फैसला और कैसा है।’’
मैं चल पड़ता हूं। रास्ते भर सन्नाटा छाया लगता है। बाज़ार में कुछ ही दुकाने खुली हुईं हैं। आवागमन भी अत्यंत कम है। यह दृश्य या तो एकदम सुबह दिखता है या रात को दस बजे के बाद! जिन मार्गों पर जाम लगते हैं वहां पर आसानी से चला जा रहा हूं। कुछ जगह लड़के झुंड बनाकर खड़े हैं तो उनको देखता हूं कि कहंी वह किसी विवाद में तो नहीं लगे हैं। कुछ सड़कों पर बच्चे इधर से उधर बड़े आराम से जा रहे हैं जहां उनको वाहनों की कम आवाजाही के कारण भय नहीं रहता।
मेरा घर शहर से दूर है। सोचता हूं मेरे घर के आसपास ऐसा नहीं होगा। मगर जैसे ही अपने घर के पास पहुंचता हूं। सारी दुकाने बंद हैं। कहंी ठेले नहंी लगे। पूरा शहर भयाक्रांत लगता है? किसलिये? ऐसा लगता है कि जैसे सभी को डरा दिया गया है। इतिहास की पुनरावृत्ति की आशंकाऐं सभी को कंपित किये हुए हैं। लोग चिंतित हैं और मैने बड़ी बेफिक्री से अपना रास्ता तय किया है। अचानक मेरे मन में राम के प्रति भावनाओं का ज्वार उठने लगता है।
मैं सोच रहा हूं कि किस राम मंदिर पर फैसला आया है और मैं किस राम मंदिर में जाता हूं। वह राम कौनसे हैं और मेरे राम कौनसे हैं। मेरे राम ने मुझे इतनी बेफिक्री दी कि बिना बाधा के अपना मार्ग तय कर आया और कहीं भय नहीं लगा पर वह कौन से राम हैं जिन्होंने लोगों को फिक्र देकर घर में बंद कर दिया। जिस राम मंदिर पर फैसला आया उससे मेरे क्या लेना देना था और अपने शहर के जिस राम मंदिर में जाता हूं वह तो निर्विवाद खड़ा है। अंतर्मन दो राम मंदिरों में बंटता दिखाई देता है। मैं अंदर और बाहर स्थित राम के दोनों रूपों को मिलाने का प्रयास करता हूं। तब ऐसा लगता है कि मेरे राम और बाहर के राम अलग हैं। मेरे मन के बाहर स्थित राम के रूप के प्रति कोई आकर्षण क्यों नहीं है? मैं दिमाग पर जोर डालता हूं पर कोई उत्तर नहीं नज़र आता? तब सोचना बंद करता हूं। आखिर राम तो राम हैं! उनके अनेक रूप हैं! वह दिव्य है और मेरे अंदर और बाहर के चक्षु उतना ही देख सकते हैं जितना एक आम इंसान। मैं कोई सिद्ध नहीं हूं कि उनके चरित्र का वर्णन कर सकूं।
अपना स्कूटर लेकर मैं घर के अंदर प्रविष्ट हो जाता हूं जहां टीवी पर यही समाचार आ रहा है। उसमें भी दिलचस्पी नहंी रह जाती क्योंकि उसका सार मैं पहले ही सुन चुका हूं। मन ही मन कहता हूं कि‘-राम की लीला राम ही जाने। मेरे राम मेरे पास और उनका मंदिर भी दूर नहीं है चाहे जब जा सकता हूं फिर क्यों चिंता करूं।’
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://teradipak.blogspot.com

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भिखारी से साक्षात्कार-लघुकथा (intervew with bagger-hindi laghu kahani)


            वह लेखक मंदिर के अंदर गया और वहां से बाहर लौटा तो गेहूंआ कुर्ता और सफेद धोती पहले और माथे पर लाल तिलक लगाये एक भिखारी ने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया और बोला-‘बाबूजी जरा चाय के लिये दो रुपये दे दो।’
लेखक ने मंदिर के अंदर करते हुए देखा था कि कोई दानी व्यक्ति भिखारियों के बीच खाने का सामान बांट रहा था और उसे लेकर वही भिखारी भी खा रहा था।
          लेखक ने उसे घूर कर देखा तो वह बोला-‘‘आज खाना तो मिला नहीं। अब चाय पीकर ही काम चलाऊंगा।”

         वह हाथ फैलाये उसके सामने खड़ा होकर झूठ बोल रहा था। लेखक ने उससे कहा-“मैं तुम्हें दस रुपये दूंगा, पर इससे पहले तुम्हं साक्षात्कार देना होगा। आओ मेरे साथ!”

         थोड़ी दूर जाकर उस लेखक ने उससे पूछा-“तुम्हारे घर में क्या तुम अकेले हो?”

          भिखारी-“नही! मुझे दो लड़के हैं और दो लडकियां हैं। सबका ब्याह हो गया है?”

           लेखक-“फिर तुम भीख क्यों मांगते हो? क्या तुम्हारे लड़के कमाते नहीं हैं या फिर तुम्हें पालनेको तैयार नहीं है?।”

           भिखारी-“बहुत अच्छा कमाते हैं, पर आजकल बाप को कौन पूछता है? वैसे वह मेरे को घर पर मेरे को सूखी रोटी देते हैं क्योंकि उनको लगता है कि मैं बीमार न हो जाऊँ। मैं चिकनी चुपड़ी और माल खाने वाला आदमी हूं,इसलिए भीख मांगकर मजे ही करता हूँ।”

        लेखक-“इस उमर में वैसे भी कम चिकनाई खाना चाहिए। गरिष्ठ भोजन नहीं करने से अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं। डाक्टर लोग यही कहते हैं।”

         भिखारी-“यह काड़ा तो वह तो सेठों के लिये कहते हैं जो सारा दिन एक जगह बैठे रहते हैं। हम भिखारियों के लिये नहीं जो सारा दिन यहाँ से वहाँ चलते रहते हैं।”

         लेखक-“मंदिर में अंदर जाते हो।”

भिखारी-“मंदिर के अंदर हमें आने भी नहीं देते और न हम जाते। हम तो बाहर भक्तों के दर्शन ही कर लेते हैं। भगवान ने कहा भी है कि मेरे से बड़े तो मेरे भक्त हैं। भक्तों का दान हमारे लिए भगवान का प्रसाद है भले ही लोग इसे भीख कहते हैं।”

    लेखक-“रहते कहां हो?”

       भिखारी-“एक दयालू सज्जन ने हम भिखारियों के लिये एक मकान किराये पर ले रखा है। उसमें वही किराया भरता है।”

        लेखक-“तुम्हारे लड़के तुम्हें अपने घर नहीं रखते या तुम उनके साथ रहना नहीं चाहते?”

यह लघुकथा इस ब्लाग दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका पर मूल रूप से प्रकाशित है। इसके प्रकाशन के लिये अन्य कहीं अनुमति प्रदान नहीं की गयी है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

         भिखारी-“वह तो मिन्नतें करते हैं पर इसलिए नहीं कि मुझसे  कोई उनको प्रेम करते हैं बल्कि इसलिए कि उनको मारे भीख मांगने से इज्ज़त खराब होती दिखती है इसलिए अपने यहाँ रहने के लिए कहते हैं।   वहां कौन उनकी चिकचिक सुनेगा इसलिए भीख मांगना अच्छा लगता है।  मैं तो बचपन से ही आजाद रहने वाला आदमी हूं। पूरी ज़िंदगी भीख के सहारे गुजर दी, अब क्या पवाह करना? वह बच्चा मुझे  क्या खिलायेंगे मैंने ही अपनी भीख से उनको बड़ा किया है।  मैंने खाने के मामले में बाप की परवाह नहीं की। वह भी सूखी खिलाता था पर बाहर मुझे भीख मांगने पर जो खाने का मिलता था वह बहुत अच्छा होता था।”

         लेखक-“बचपन से भीख मांग रहे हो। बच्चों की शादी भी भीख मांगते हुए करवाई होगी?”

        भिखारी-“नहीं! पहले तो मेरा बाप ही मेरे परिवार को पालता रहा। उसने मेरी  बीबी  को किराने  कि दुकान खुलवा दी कुछ दिन उससे काम चला  फिर बच्चे थोड़े बड़े हो गये तो नौकरी कर वही काम चलाते रहे। मैं अपनी बीबी के लिये ही कुछ सामान घर ले जाता हूं। वह बच्चों के पास ही रहती है। आजकल की औलादें ऐसी हैं उसकी बिल्कुल इज्जत नहीं करतीं। मैं सहन नहीं कर सकता।’

       लेखक-तुम्हें भीख मांगते हुए शर्म नहीं आती।’

         भिखारी ने कहा-‘जिसने की शर्म उसकी फूटे कर्म।’

        लेखक उसको घूर कर देख रहा था! अचानक उसने पीछे से आवाज आई-‘बाबूजी, इससे क्या बहस कर रहे हो। भीख मांगना एक आदत है जिसे लग जाये तो फिर नहीं छूटती। कोई मजबूरी में भीख नहीं मांगता। जुबान का चस्का ही भिखारी बना देता है।’

       लेखक ने देखा कि थोड़ी दूर ही एक बुढ़िया  भिखारिन पुरानी चादर बिछाये बैठी थी। उसके पास एक लाठी रखी थी और सामने एक कटोरी । उसके पास रखी पन्नी में कुछ खाने का सामान रखा हुआ था जो शायद दानी भक्त दे गये थे और वह अभी खा नहीं रही थी।

         लेखक ने उस भिखारी को दस रुपये दिये और फिर जाने लगा तो वह भिखारिन बोली-‘बाबूजी! कुछ हमको भी दे जाओ। भगवान के नाम पर हमें भी कुछ दे जाओ।’

          लेखक ने पांच रुपये उसके हाथ में दे दिये और अपने होठों में बुदबुदाने लगा-‘भीख मांगना मजबूरी नहीं आदत होती हैं।

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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