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भगवान के भजन को व्यवसाय की तरह न करें-हिन्दू धर्म संदेश (bhagvan ke bhjan ko vyapar n samjhen)


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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कि वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रेर्महाविस्तजैः स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।
मुक्त्वैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानलं स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषाः वणिगवृत्तयं:।।

हिंदी में भावार्थ- वेद, स्मुतियों और पुराणों का पढ़ने और किसी स्वर्ग नाम के गांव में निवास पाने के लिए  कर्मकांडों को निर्वाह करने से भ्रम पैदा होता है। जो परमात्मा संसार के दुःख और तनाव से मुक्ति दिला सकता है उसका स्मरण और भजन करना ही एकमात्र उपाय है शेष तो मनुष्य की व्यापारी बुद्धि का परिचायक है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने जीवन यापन के लिये व्यापार करते हुए इतना व्यापारिक बुद्धि वाला हो जाता है कि वह भक्ति और भजन में भी सौदेबाजी करने लगता है और इसी कारण ही कर्मकांडों के मायाजाल में फंसता जाता है। कहा जाता है कि श्रीगीता चारों वेदों का सार संग्रह है और उसमें स्वर्ग में प्रीति उत्पन्न करने वाले वेद वाक्यों से दूर रहने का संदेश इसलिये ही दिया गया है कि लोग कर्मकांडों से लौकिक और परलौकिक सुख पाने के मोह में निष्काम भक्ति न भूल जायें।

वेद, पुराण और उपनिषद में विशाल ज्ञान संग्रह है और उनके अध्ययन करने से मतिभ्रम हो जाता है। यही कारण है कि सामान्य लोग अपने सांसरिक और परलौकिक हित के लिये एक नहीं अनेक उपाय करने लगते हंै। कथित ज्ञानी लोग उसकी कमजोर मानसिकता का लाभ उठाते हुए उससे अनेक प्रकार के यज्ञ और हवन कराने के साथ ही अपने लिये दान दक्षिणा वसूल करते हैं। दान के नाम किसी अन्य सुपात्र को देने की बजाय अपन ही हाथ उनके आगे बढ़ाते हैं। भक्त भी बौद्धिक भंवरजाल में फंसकर उनकी बात मानता चला जाता है। ऐसे कर्मकांडों का निर्वाह कर भक्त यह भ्रम पाल लेता है कि उसने अपना स्वर्ग के लिये टिकट आरक्षित करवा लिया।

यही कारण है कि कि सच्चे संत मनुष्य को निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया करने के लिये प्रेरित करते हैं। भ्रमजाल में फंसकर की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। इसके विपरीत तनाव बढ़ता है। जब किसी यज्ञ या हवन से सांसरिक काम नहीं बनता तो मन में निराशा और क्रोध का भाव पैदा होता है जो कि शरीर के लिये हानिकारक होता है। जिस तरह किसी व्यापारी को हानि होने पर गुस्सा आता है वैसे ही भक्त को कर्मकांडों से लाभ नहीं होता तो उसका मन भक्ति और भजन से विरक्त हो जाता है। इसलिये भक्ति, भजन और साधना में वणिक बुद्धि का त्याग कर देना चाहिये। भक्त  करते समय इस बात का विचार नहीं करना चाहिए कि कोई स्वर्ग का टिकट आरक्षित करवा रहे है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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भर्तृहरि शतक-बुरे संस्कार बुढ़ापे तक साथ रहते हैं


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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तानींद्रियाण्यविकलानि तदेव नाम सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव।
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः क्षपोन सोऽष्यन्य एव भवतीति विचित्रमेतत्।।

हिंदी में भावार्थ-मनुष्य की इंद्रिया नाम,बुद्धि तथा अन्य सभी गुण वही होते हैं पर धन की उष्मा से रहित हो जाने पर पुरुष क्षणमात्र में क्या रह जाता है? धन की महिमा विचित्र है।
वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या- इस सृष्टि को परमात्मा ने बनाया है पर माया की भी अपनी लीला है जिस पर शायद किसी का भी बस नहीं है। माया या धन के पीछे सामान्य मनुष्य हमेशा पड़ा रहता है। चाहे कितना भी किसी के पास आध्यत्मिक ज्ञान या कोई दूसरा कौशल हो पर पंच तत्वों से बनी इस देह को पालने के लिये रोटी कपड़ा और मकान की आवश्यकता होती है। अब तो वैसे ही वस्तु विनिमय का समय नहीं रहा। सारा लेनदेन धन के रूप में ही होता है इसलिये साधु हो या गृहस्थ दोनों को ही धन तो चाहिये वरना किसी का काम नहीं चल सकता। हालांकि आदमी का गुणों की वजह से सम्मान होता है पर तब तक ही जब तक वह किसी से उसकी कीमत नहीं मांगता। वह सम्मान भी उसको तब तक ही मिलता है जब तक उसके पास अपनी रोजी रोटी होती है वरना अगर वह किसी से अपना पेट भरने के लिये धन भिक्षा या उधार के रूप में मांगे तो फिर वह समाप्त हो जाता है।
वैसे भी सामान्य लोग धनी आदमी का ही सम्मान करते है। कुछ धनी लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि वह अपने गुणों की वजह से पुज रहे हैं। इसी चक्कर में कुछ लोग दान और धर्म का दिखावा भी करते हैं। अगर धनी आदमी हो तो उसकी कला,लेखन तथा आध्यात्मिक ज्ञान-भले ही वह केवल सुनाने के लिये हो-की प्रशंसा सभी करते हैं। मगर जैसे ही उनके पास से धन चला जाये उनका सम्मान खत्म होते होते क्षीण हो जाता है।

इसके बावजूद यह नहीं समझना चाहिये कि धन ही सभी कुछ है। अगर अपने पास धन अल्प मात्रा में है तो अपने अंदर कुंठा नहीं पालना चाहिये। बस मन में शांति होना चाहिये। दूसरे लोगों का समाज में सम्मान देखकर अपने अंदर कोई कुंठा नहीं पालना चाहिये। यह स्वीकार करना चाहिये कि यह धन की महिमा है कि दूसरे को सम्मान मिल रहा है उसके गुणों के कारण नहीं। इसलिये अपने गुणों का संरक्षण करना चाहिये। वैसे यह सच है कि धन का कोई महत्व नहीं है पर वह इंसान में आत्मविश्वास बनाये रखने वाला एक बहुत बड़ा स्त्रोत है।
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चाणक्य नीति-बुरे संस्कार वालों के साथ बैठकर खाना भी न खाएं


नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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अर्थार्थीतांश्चय ये शूद्रन्नभोजिनः।
त द्विजः कि करिष्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः।।

हिंदी में भावार्थ- नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि अर्थोपासक विद्वान समाज के लिये किसी काम के नहीं है। वह विद्वान जो असंस्कारी लोगों के साथ भोजन करते हैं उनको यश नहीं मिल पता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- इस देश का अध्यात्मिक ज्ञान सदेशों के अनमोल खजाने से भरा पड़ा है। उसका कारण यह है कि प्राचीन विद्वान अर्थ के नहीं बल्कि ज्ञान के उपासक थे। उन्होंने अपनी तपस्या से सत्य के तत्व का पता लगाया और इस समाज में प्रचारित किया। आज भी विद्वानों की कमी नहीं है पर प्रचार में उन विद्वानों को ही नाम चमकता है जो कि अर्थोपासक हैं। यही कारण है कि हम कहीं भी जाते हैं तो सतही प्रवचन सुनने को मिलते हैं। कथित साधु संत सकाम भक्ति का प्रचार कर अपने भोले भक्तों को स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं। यह साधु लोग न केवल धन के लिये कार्य करते हैं बल्कि असंस्कारी लोगों से आर्थिक लेनदेने भी करते हैं। कई बार तो देखा गया है कि समाज के असंस्कारी लोग इनके स्वयं दर्शन करते हैं और उनके दर्शन करवाने का भक्तों से ठेका भी लेते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में अध्यात्मिक चर्चा तो बहुत होती है पर ज्ञान के मामले में हम सभी पैदल हैं।
समाज के लिये निष्काम भाव से कार्य करते हुए जो विद्वान सात्विक लोगों के उठते बैठते हैं वही ऐसी रचनायें कर पाते हैं जो समाज में बदलाव लाती हैं। असंस्कारी लोगों को ज्ञान दिया जाये तो उनमें अहंकार आ जाता है और वह अपने धन बल के सहारे भीड़ जुटाकर वहां अपनी शेखी बघारते हैं। इसलिये कहा जाता है कि अध्यात्म और ज्ञान चर्चा केवल ऐसे लोगों के बीच की जानी चाहिये जो सात्विक हों पर कथित साधु संत तो सार्वजनिक रूप से ज्ञान चर्चा कर व्यवसाय कर रहे हैं। वह अपने प्रवचनों में ही यह दावा करते नजर आते हैं कि हमने अमुक आदमी को ठीक कर दिया, अमुक को ज्ञानी बना दिया।
अतः हमेशा ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लये ऐसे लोगों को गुरु बनाना चाहिये जो एकांत साधना करते हों और अर्थोपासक न हों। उनका उद्देश्य निष्काम भाव से समाज में सामंजस्य स्थापित करना हो।
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मनुस्मृति- कठिन जगह पर जाने से बचें


मनु महाराज कहते हैं कि
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अधितिष्ठेन केशांस्तु न भस्मास्थिक पालिकाः।
न कार्पासास्थि न तुषादीर्धमायुजिजीविषुः।।

हिंदी में भावार्थ- जिस व्यक्ति के हृदय में लंबी आयु पाने की इच्छा है उसे कभी बालों, भस्म, हड्डी, खप्पर, कपास की गुठली तथा भूसे के ढेर पर नहीं बैठना चाहिये।
अचक्षुविंषयं दुर्ग न प्रपद्येत कहिंचित्।
न विणुमूत्रमुदीक्षेत न बाहुभ्यां नदीं तरेत्।।

हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य कहा कहना है कि जो दुर्गम स्थान आंखों से देखने में कठिन हों वहां कतई नहीं जाना चाहिये। अपनी देह से बाहर निकले मलमूत्र को नहीं देखना चाहिये। किसी नदी को अपने बाहुबल से पार करने का प्रयास नहीं करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक बार पर्यटन के दौरान ऐसे स्थान सामने आते हैं जो बहुत दुर्गम होते हैं। उनको पेड़ पौद्यों ने घेर रखा होता है। वहां की हरियाली का सौंदर्य देखते ही बनता है पर अगर वह दुर्गम और अगम्य हैं तो वहां जाना खतरनाक हो सकता है। पिकनिक और पर्यटन के दौरान ऐसी अनेक दुर्घटनायें होती हैं जो लोगों के दुस्साहस और अज्ञान के कारण होती है। वैसे भी कहा जाता है कि आग, पान, और हवा से कभी नहीं खेलना चाहिये। आदमी कितना भी अच्छा तैराक क्यों न हो उसे नदी के पार जाने के लिये जल वाहनों का प्रयोग करना चाहिये। अनावश्यक दुस्साहस जीवन के लिये कष्टकारक होता है।
इन संदेशों का जीवन के संदर्भ में भी बहुत महत्व है। हमें अपने लक्ष्य और उद्देश्य हमेशा ही ऐसे तय करना चाहिये जिनकी प्राप्ति सहज हो। अपनी शक्ति और साधनों से अधिक महत्वाकांक्षी उद्देश्य और लक्ष्य संकट का कारण हो सकते हैं। इतना ही नहीं ऐसे स्थानों पर निवास करने का विचार भी नहीं करना चाहिये जहां के लोगों की प्रवृत्ति दुर्गम और क्रूर हो। इस विश्व में अनेक संस्कृतियां और समाज हैं। उनके परस्पर इतिहास, भूगोल, संस्कार, शिक्षा और ज्ञान की दृष्टि से ढेर सारे विरोधाभास हैं। यही विरोधाभास लोगों के आपसी संबंध को प्रगाढ़ बनाने में बाधक हैं। अतः जहां अपने समाज से विरोधी संस्कार वाला समाज हो वहां रहने का आशय यही है कि स्वयं ही दुर्गम स्थान पर जाना जो भारी कष्ट का कारण बन जाता है। जो व्यक्ति अपना समाज, शहर या अपना देश छोड़कर दूसरी जगह जाते हैं और वहां उनको सामाजिक और वैचारिक दृष्टि से आपसी मेलमिलाप वाले लोग नहीं मिलते तब उनके लिये जीवन दुरुह हो जाता है।
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संत कबीर के दोहे-ह्रदय साफ नहीं तो माला फेरने से क्या लाभ



माला फेरै कह भयो, हिंरदा गाठि न खोय।
गुरु चरनन चित राखिये, तो अमरापुर जोय।।

माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि।
मनवा तो दहु दिशि फिरै, यह तो सुमिरन मांहि।।

संत शिरोमण कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य हाथ में माला फेरते हुए जीभ से परमात्मा का नाम लेता है पर उसका मन दसों दिशाओं में भागता है। यह कोई भक्ति नहीं है।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि हाथ में पकड़कर माला फेरने से कोई लाभ तब तक नहीं होता जब नाम स्मरण हृदय से नहीं किया जाये। यह तभी संभव है जब तब गुरु के चरणों में सिर झुकाकर आदर के साथ उनकी सेवा की जाये तभी अज्ञान और दोष मिट सकते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सत्संग में जाना हो या मंदिर में दर्शन करने, जब तक हम परमात्मा का ध्यान हृदय में स्थित नहीं करेंगे तब तक कोई लाभ नहीं होता। देखा जाये तो भक्ति और ज्ञान साधना अपने लौकिक और परलौकिक जीवन को सुखमय करने के लिये करते हैं पर हृदय में केवल भौतिक विषयों का ही ध्यान बना रहता है। भले ही हाथ में माला फेरते हुए परमात्मा का नाम लें या सत्संग में जाकर संतों के प्रवचन सुने पर मन का भटकाव को केवल सांसरिक विषयों में ही बना रहता है। हम वही चिंतायें दुःख और अवसाद हमेशा मस्तिष्क बने रहते हैं जिनसे परेशान होकर हम अध्यात्मिक शांति के लिये उन स्थानों पर जाते हैं जहां सत्संग होता है। इसलिये जब कहीं प्रवचन सुनने जायें या मंदिर में दर्शन करें तब अपने सांसरिक विषयों का विचार मस्तिष्क में नहीं आने देना चाहिये।
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चाणक्य नीति-भंवरे को कमल का महत्व विदेश में पता लगता है


अलिरय नलिनीदलमध्यगः मलिनीमकरंदमदालसः।
विधिवशात्परदेशमुपागतः कुटजपुष्परसं बहु मन्यते।।

हिन्दी में भावार्थ-भंवरा जब तक कमलिनी के बीचों बीच रहकर उसके रस का सेवन करता तब उसके नशे में आलस्य उसे घेरे रहता है मगर जब समय और भाग्यवश परदेस में जाना पड़ता है तब कुटज के फूल के रस को भी बहुत महत्वपूर्ण मानता है जिसमें किसी प्रकार की गंध नहीं होती।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- जिन लोगों का जन्म ही सुविधा संपन्न परिवारों में होता है वह अभावों का अर्थ नहीं जानते। तब वह लोग अपनी सुविधाओं के बारे में यह सोचते हैं कि यह तो उनको जन्मजात विरासत में मिली है। इसके अलावा अपने लिये उपलब्ध धन तथा भौतिक उपलब्ध साधनों का महत्व नहीं समझते। ऐसे में जब किसी कारण वश जब उनको उन सुविधाओं से वंचित हो पड़ता है तब पता लगता है कि वास्तव में उनका क्या मोल है?
इस संदेश में भारत में उपलब्ध जल संपदा का उदाहरण ले सकते हैं। विश्व के अनेक वैज्ञानिकों के अनुसार भारत में भू जल स्तर किसी भी अन्य देश से अधिक है। प्रकृत्ति की इस कृपा का महत्व हम कम वर्षा काल में भी नहीं कर पाते क्योंकि भूजल स्तर इतना तो उपलब्ध हो ही जाता है कि हमारा काम चल जाये। जिन देशों में यह उपलब्ध नहीं है वहां एक वर्ष की अल्प वर्षा में ही अकाल का महान प्रकोप उपस्थित हो जाता है। भारत में वह लोग जो पानी का अपव्यय करते हैं और उनका विदेश में-खासतौर से मध्य एशिया में-प्रवास होता है तब उनको वहां पता लगता है कि पानी कितना महत्वपूर्ण है। इतना ही नहीं भारत के ही कुछ रेगिस्तानी भागों में जाने पर भी उनको पता लगता है कि पानी का कितना महत्त है? कहने का तात्पर्य यह है कि जो वस्तु उपलब्ध है उसका महत्व तब पता लगता है जब वह हाथ से निकल जाती है।
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भर्तृहरि नीति शतक- सच्चे भक्त बने व्यापारी नहीं


महाराज भर्तृहरि कहते है किकि वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रेर्महाविस्तजैः स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।
मुक्त्वैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानलं स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषाः वणिगवृत्तयं:।।

हिंदी में भावार्थ- वेद, स्मुतियों और पुराणों का पढ़ने और किसी स्वर्ग नाम के गांव में निवास पाने के लये कर्मकांडों को निर्वाह करने से भ्रम पैदा होता है। जो परमात्मा संसार के दुःख और तनाव से मुक्ति दिला सकता है उसका स्मरण और भजन करना ही एकमात्र उपाय है शेष तो मनुष्य की व्यापारी बुद्धि का परिचायक है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने जीवन यापन के लिये व्यापार करते हुए इतना व्यापारिक बुद्धि वाला हो जाता है कि वह भक्ति और भजन में भी सौदेबाजी करने लगता है और इसी कारण ही कर्मकांडों के मायाजाल में फंसता जाता है। कहा जाता है कि श्रीगीता चारों वेदों का सार संग्रह है और उसमें स्वर्ग में प्रीति उत्पन्न करने वाले वेद वाक्यों से दूर रहने का संदेश इसलिये ही दिया गया है कि लोग कर्मकांडों से लौकिक और परलौकिक सुख पाने के मोह में निष्काम भक्ति न भूल जायें।

वेद, पुराण और उपनिषद में विशाल ज्ञान संग्रह है और उनके अध्ययन करने से मतिभ्रम हो जाता है। यही कारण है कि सामान्य लोग अपने सांसरिक और परलौकिक हित के लिये एक नहीं अनेक उपाय करने लगते हंै। कथित ज्ञानी लोग उसकी कमजोर मानसिकता का लाभ उठाते हुए उससे अनेक प्रकार के यज्ञ और हवन कराने के साथ ही अपने लिये दान दक्षिणा वसूल करते हैं। दान के नाम किसी अन्य सुपात्र को देने की बजाय अपन ही हाथ उनके आगे बढ़ाते हैं। भक्त भी बौद्धिक भंवरजाल में फंसकर उनकी बात मानता चला जाता है। ऐसे कर्मकांडों का निर्वाह कर भक्त यह भ्रम पाल लेता है कि उसने अपना स्वर्ग के लिये टिकट आरक्षित करवा लिया।

यही कारण है कि कि सच्चे संत मनुष्य को निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया करने के लिये प्रेरित करते हैं। भ्रमजाल में फंसकर की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। इसके विपरीत तनाव बढ़ता है। जब किसी यज्ञ या हवन से सांसरिक काम नहीं बनता तो मन में निराशा और क्रोध का भाव पैदा होता है जो कि शरीर के लिये हानिकारक होता है। जिस तरह किसी व्यापारी को हानि होने पर गुस्सा आता है वैसे ही भक्त को कर्मकांडों से लाभ नहीं होता तो उसका मन भक्ति और भजन से विरक्त हो जाता है। इसलिये भक्ति, भजन और साधना में वणिक बुद्धि का त्याग कर देना चाहिये।
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चाणक्य नीतिः अपने घर के अन्दर की बात बाहर न कहें


नीति विशारद चाणक्य महाराज कहते हैं कि
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धन-धान्यप्रयोगेषु विद्य-संग्रहणेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्।

हिंदी में भावार्थ-धन धान्य के व्यवहार, ज्ञान विद्या के संग्रह और खाने पीने में जो व्यक्ति संकोच या लज्जा नहीं करते वही जीवन में सुखी रहते हैं।

अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च।
वंचनं चाऽपमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत्।।

हिंदी में भावार्थ-अपने धन का नाश, मन का दुःख, स्त्री की चरित्रहीनता और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा वचनों के द्वारा कष्ट देने की बात सभी के सामने प्रकाशित नहीं करना चाहियै
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कुछ बातों सभी से कहना चाहिये और कुछ नहीं। अक्सर हम व्यग्र होने पर ऐसी बातें लोगों से कह जाते हैं जो नहीं कहना चाहिये। कभी व्यग्रता इतनी बढ़ जाती है कि कह ही नहीं पाते। नीति विशारद चाणक्य के अनुसार जिस बात से अपना अपमान होता हो या अपमान हो चुका हो वह बात किसी को नहीं बताना चाहिये। खासतौर से जब हमारे धन का नाश हमारी गलती से हो गया हो।
इसके अलावा कुछ बातें छिपानी भी नहीं चाहिये। अगर हमारे पास धन या खाद्यान्न नहीं है तो स्पष्टतः उस आदमी को बता देना चाहिये जिससे हमें मदद अपेक्षित है। किसी से कोई बात सीखने के लिये उसके सामने अपने अज्ञान को छिपाना ठीक नहीं है। अगर पेट में भूख हो कहीं अपने खाने का जुगाड़ नहीं हो पाता और कोई अन्य हमें भोजन का आग्रह करता है तो उसे अस्वीकार करना मूर्खता का काम है। कहने का तात्पर्य है कि जहां सम्मान की बात है तो ऐसी बात लोगों को नहीं बताना चाहिये जिससे हमारे अपमान का विस्तार हो साथ ही अपनी दैहिक और मानसिक आवश्यकताओं को दूसरों से छिपाना भी नहीं चाहिये।
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कबीर के दोहे: मधुमक्खी की तरह सुगंध ग्रहण करें


जो तूं सेवा गुरुन का, निंदा की तज बान
निंदक नेरे आय जब कर आदर सनमान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर सद्गुरु के सच्चे भक्त हो तो निंदा को त्याग दो और कोई अपना निंदा करता है तो निकट आने पर उसका भी सम्मान करो।
माखी गहै कुबास को, फूल बास नहिं लेय
मधुमाखी है साधुजन, गुनहि बास चित देय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मक्खी हमेशा दुर्गंध ग्रहण करती है कि न फूलों की सुगंध, परंतु मधुमक्खी साधुजनों की तरह है जो कि सद्गण रूपी सुगंध का ही अपने चित्त में स्थान देती है।

तिनका कबहूं न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़ै, पीर धनेरी होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कभी पांव के नीच आने वाले तिनके की भी उपेक्षा नहीं करना चाहिए पता नहीं कब हवा के सहारे उड़कर आंखों में घुसकर पीड़ा देने लगे।

जो तूं सेवा गुरुन का, निंदा की तज बान
निंदक नेरे आय जब कर आदर सनमान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर सद्गुरु के सच्चे भक्त हो तो निंदा को त्याग दो और कोई अपना निंदा करता है तो निकट आने पर उसका भी सम्मान करो।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-यह सच्चे भक्त की पहचान है कि वह किसी की निंदा नहीं करते न ही किसी में दोष देखते हैं। जो नित प्रतिदिन भक्ति करते हैं और फिर परनिंदा में लग जाते हैं उनकी भक्ति में दोष है यही समझना चाहिये। वैसे आम आदमी की बात ही क्या कथित संत और साधु भी एक दूसरे की निंदा करते हैं। निंदा करना आदमी के अंदर मौजूद नकारात्मक सोच का परिणाम है। जिनके मन में परमात्मा के प्रति सत्य में भक्ति का भाव है उनका सोच सकारात्मक रहता है और वह दूसरों की अच्छाईयों पर ही विचार कर उनको ग्रहण करते हैंं।

दूसरों के दोष देखकर उसकी चर्चा करने से वह दोष हमारे अंदर स्वतः आ जाता है। कहते हैं कि आलोचक को अपने से दूर नहीं रखना चाहिये क्योंकि उसके श्रीमुख से अपने दोष सुनने से हमें वह अपने अंदर से निकालने का अवसर मिल जाता है। यह दोष निकलकर उसके अंदर से जाता कहां है? तय बात है कि वह आलोचक के अंदर ही जाता है। जिस तरह भगवान की भक्ति करने से उनका सानिध्य मिलता है उसी तरह दूसरे की निंदा करना या दोष देखने से वह भी हमें प्राप्त होता है। यह दुनियां वैसी ही जैसी हमारी नीयत है अतः अच्छा देखें तो वह अच्छी लगेगी और अगर खराब देखेंगे तो वैसा ही बुरा भी लगेगा।
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चाणक्य नीतिः ‘जस के साथ तस’ नीति में दोष नहीं


संसार विषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे।
सुभाषितं च सुस्वादु संगतिः सुजने जनै।।

हिन्दी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य जी कहते हैं कि इस विषरूपी संसार में दो तरह के फल अमृत की तरह लगते हैं। एक तो सज्जन लोगों की संगत और दूसरा अच्छी वाणी सुनना।
कृते प्रतिकृतं कुर्याद् हिंसने प्रतिहिसंनम्।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टे सामचरेत्
हिंदी में भावार्थ-
अपने प्रति अपराध और हिंसा करने वाले के विरुद्ध प्रतिकार और प्रतिहिंसा का भाव रखने में कोई दोष नहीं है। उसी तरह दुष्ट व्यक्ति के साथ वैसे ही व्यवहार करना कोई अपराध नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में वैसे तो दुःख और विष के अलावा अन्य कुछ नहीं दिखता पर दो तरह के फल अवश्य हैं जिनका मनुष्य अगर सेवन करे तो उसका जीवन संतोष के साथ व्यतीत किया जा सकता है। इसमें एक तो है ऐसे स्थानो पर जाना जहां भगवत्चर्चा होती हो। दूसरा है सज्जन और गुणी लोगों से संगत करना। दरअसल इस स्वार्थी दुनियां में निष्काम भाव से कुछ समय व्यतीत करने पर ही शांति मिलती है और यह तभी संभव है जब हम स्वार्थ की वजह से बने रिश्तों से अलग ऐसे संतों और सत्पुरुषों की संगत करें जिनका हम में और हमारा उनमें स्वार्थ न हो। इसके अलावा आत्मा को प्रसन्न करने वाली कहीं कोई बात सुनने को मिले तो वह अवश्य सुनना चाहिये।
कहते हैं कि मन में बुरा भाव नहीं रखना चाहिये पर अगर कोई हमारे साथ बुरा बर्ताव करता है तो उससे चिढ़ हो ही जाती है। पंच तत्व से बनी इस देह में बुद्धि, मन और अहंकार ऐसी प्रकृतियां हैं जिन पर चाहे जितना प्रयास करो पर नियंत्रण हो नहीं पाता। सज्जन लोग किसी अन्य द्वारा बुरा बर्ताव करने पर उससे मन में चिढ़ जाते हैं पर बाद में वह इस बात से पछताते हैं कि उनके मन में बुरी बात आई क्यों? अगर किसी बुरे व्यक्ति के बर्ताव से गुस्सा आता है तो उससे विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। वैसे जीवन में सतर्कता और सक्रियता आवश्यक है। कोई व्यक्ति हमारे अहित के लिये तत्पर है तो उसका वैसा ही प्रतिकार करने में कोई बुराई नहीं है। बस! इतना ध्यान रखना चाहिये कि उससे हम बाद में स्वयं मानसिक रूप से स्वयं प्रताड़ित न हों।
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