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अंतहीन सिलसिला -व्यंग्य कविता


एक तलाश पूरी होते ही
आदमी दूसरी में जुट जाता
अंतहीन सिलसिला है
अपने मकसद रोज नये बनाता
पूरे होते ही दूसरे में जुट जाता
भरता जाता अपना घर
पर कीमती समय का जो मिला है खजाना
नहीं देखता उसकी तरफ
जो हर पल लुट जाता

धरती के सामानो से जब उकता जाता
तब घेर लेती बैचेनी
तब चैन पाने के लिये आसमान
की तरफ अपने हाथ बढ़ता
दिल को खुश कर सके
ऐसा सामान भला वहां से कब टपक कर आता
हाथ उठाये सर्वशक्तिमान का नाम पुकारता
कभी नीली छतरी के नीचे
कभी पत्थर की छत को टिकाये
दीवारों के पीछे
पर फिर भी उसे तसल्ली का एक पल नहीं मिल पाता

हर पल दौड़ते रहने की आदत ऐसी
कि रुक कर सोचने का ख्याल कभी नहीं आता
जिंदगी में लोहे, लकड़ी और प्लास्टिक के सामान
जुटाता रहा
पर फिर उनका घर कबाड़ बन जाता
जिनके आने पर मनाता है जश्न
फिर उनके पुराने होने पर घबड़ाता
आदमी दिमाग के सोचने से परे होने का आदी होता
जब आये सोच की बारी वह हार जाता
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जो बुत बोल रहे, पराये शब्द और स्वर लेकर डोल रहे-व्यंग्य कविता


हाड़मांस के पुतलों से
हो गये है नाउम्मीद इसलिये
पत्थर के बुत ही पूजना अच्छा लगता
कम से कम उम्मीद के टूटने का भय तो नहीं रहता

पत्थर बोलते नहीं है
पर जो बुत बोल रहे
स्वर उनके जरूर हैं पर
शब्द पराये होकर डोल रहे ं
आखों में जिनके जीवन है
देख रहे हैं दृश्य
पर उसे किसी का दृष्टिकोण उधार लेकर तोल रहे
उनकी किसी बात को
प्रमाणिक मानने को मन नहीं कहता

ऋषियों और मुनियों जैसे
बन नहीं सके
ऐसे पुरुषों ने अपने को पुजवाने के लिये
तमाम दिये नारे
इतिहास में किया नाम दर्ज
समाज के इलाज के नाम पर दिया
उसे भ्रमों में भटकने का मर्ज
भटक रहे हैं कई किताबी कीड़े
उतारने के लिये उनका कर्ज
मिटाने की चाहत थी पुराने इतिहास की
नया जो रचा उन्होंने
नीरस और बोझिल शब्दों से जो वाद और नारा
वह कभी हकीकत नहीं लगता
पर बिखरे पड़े हैं उनके शागिर्द चारों ओर
को साहसी भी सच नहीं उनसे नहीं कहता

पत्थर के बुतों से
अगर नहीं है कामयाबी की आशा
तो नहीं होती कभी
उनसे झूठ और भ्रम की वजह से निराशा
हाड़मांस के पुतलों को क्या
नाम दें
इसलिये तो जमाना पत्थर के बुतों को ही
अपना इष्ट कहता
पत्थरों से जंग लड़ी जाती है तभी
जब हाड़मांस के बुतों बातों पर होती जंग
उनके नारे लगाने वालों की
हो जाती है सोच तंग
पर पत्थर का कोई बुत
खुद तो किसी को जंग के लिये नहीं कहता

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