अपने मन की उदासी
किसी से कहने में डर लगता है
जमाने में फंसा हर आदमी
अपनी हालातों से है खफा
नहीं जानता क्या होती वफा
अपने मन की उदासी को दूर
करने के लिये
दूसरे के दर्द में अपनी
हंसी ढूंढने लगता है
एक बार नहीं हजार बार आजमाया
अपने ही गम पर
जमाने को हंसता पाया
जिन्हें दिया अपने हाथों से
बड़े प्यार से सामान
उन्होंने जमाने को जाकर लूट का बताया
जिनको दिया शब्द के रूप में ज्ञान
उन्होंने भी दिया पीठ पीछे अपमान
बना लेते हैं सबसे रिश्ता कोई न कोई
पर किसी को दोस्त कहने में डर लगता है
…………………………………….
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
|
अनुभूति, अभिव्यक्ति, कला, मस्तराम, व्यंग्य, शायरी, शेर, समाज, साहित्य, हिन्दी, हिन्दी पत्रिका, हिन्दी शायरी, हिन्दी शेर, Blogroll, deepak bharatdeep, E-patrika, hindi bhasakar, hindi culture, hindi epatrika, hindi friends, hindi internet, hindi journlism, hindi litreture, hindi megzine, hindi web, mastram, web bhaskar, web dunia, web duniya, web panjab kesri, web patrika में प्रकाशित किया गया
|
Also tagged कविता, ज्ञान, दोस्ती, व्यंग्य, हिंदी साहित्य, friend, hindi poem, kavita, sahitya, shayri, sher, vyangya
|
कभी तृष्णा तो कभी वितृष्णा
मन चला जाता है वहीं इंसान जाता
जब सिमटता है दायरों में ख्याल
अपनों पर ही होता है मन निहाल
इतनी बड़ी दुनिया के होने बोध नहीं रह जाता
किसी नये की तरह नजर नहीं जाती
पुरानों के आसपास घूमते ही
छोटी कैद में ही रह जाता
अपने पास आते लोगों में
प्यार पाने के ख्वाब देखता
वक्त और काम निकलते ही
सब छोड़ जाते हैं
उम्मीदों का चिराग ऐसे ही बुझ जाता
कई बार जुड़कर फिर टूटकर
अपने अरमानों को यूं हमने बिखरते देखा
चलते है रास्ते पर
मिल जाता है जो
उसे सलाम कहे जाते
बन पड़ता है तो काम करे जाते
अपनी उम्मीदों का चिराग
अपने ही आसरे जलाते हैं जब से
तब से जिंदगी में रौशनी देखी है
बांट लेते हैं उसे भी
कोई अंधेरे से भटकते अगर पास आ जाता
………………………………
दीपक भारतदीप द्धारा
|
साहित्य, हिन्दी, Blogroll, deepak bharatdeep, E-patrika, hindi epatrika, hindi megzine, hindi nai duinia, web dunia, web duniya, web panjab kesri में प्रकाशित किया गया
|
Also tagged मस्तराम, शेर, समाज, साहित्य, हास्य-व्यंग्य, kavita, mastram, sahbd, sahitya
|
शहर-दर-शहर घूमता रहा
इंसानों में इंसान का रूप ढूंढता रहा
चेहरे और पहनावे एक जैसे
पर करते हैं फर्क एक दूसरे को देखते
आपस में ही एक दूसरे से
अपने बदन को रबड़ की तरह खींचते
हर पल अपनी मुट्ठियां भींचते
अपने फायदे के लिये सब जागते मिले
नहीं तो हर शख्स ऊंघता रहा
अपनी दौलत और शौहरत का
नशा है
इतराते भी उस बहुत
पर भी अपने चैन और अमन के लिये
दूसरे के दर्द से मिले सुगंध तो हो दिल को तसल्ली
हर इंसान इसलिये अपनी
नाक इधर उधर घुमाकर सूंघता रहा
……………………………
दीपक भारतदीप
यह आलेख ‘दीपक भारतदीप की ई-पत्रिकापर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
|
अनुभूति, अभिव्यक्ति, कला, कविता, मस्तराम, व्यंग्य, समाज, साहित्य, हास्य कविता, हिन्दी, हिन्दी पत्रिका, हिन्दी शायरी, blogging, Blogroll, deepak bharatdeep, E-patrika, FAMILY, friends, hindi bhasakar, hindi epatrika, hindi internet, hindi jagran, hindi kavita, hindi litreture, hindi megzine, hindi nai duinia, hindi poem, hindi web, inglish, internet, kavita, mastram, Uncategorized, vyangya, web bhaskar, web dunia, web duniya, web panjab kesri, web patrika में प्रकाशित किया गया
|
Also tagged मस्तराम, मस्ती, शेर, हास्य-व्यंग्य, hasya kavita, mastram, sahbd, sahitya, shayri
|