प्रकृति से दूर होकर आदमी अगर सुख या आनंद की अनुभूति करना चाहे तो यह उसका भ्रम है। प्रश्न यह है कि सुख या आनंद है क्या? आंनद वह है जब आप किसी वस्तु की सुगंध को नाक से , रूप का आंख से और अस्त्तिव को स्पर्श से अनुभव करें। यही आनंद है। न कि यह लगे कि हमें सुख अनुभव हो रहा है पर जिसका आभास अंदर नहीं पहुंचे। हम जबरदस्ती करें कि आनंद हमें मिल रहा है तो वह क्षणिक है। इसका पता कैसे लगे?
जब किसी चीज को देखें, स्पर्श करें या सूंघें तो उसके आनंद का आभास उससे दूर होने पर भी लगे। हम कोई आवाज सुने और जब वह बंद हो जाये तो भी अनुभूति होती रहें। हम कोई वस्तु मुख से ग्रहण करें तो पेट में जाकर उसका रस आनंद प्रदान करे न कि जुबान पर स्वाद के बाद उसका सुख जाता रहे। सच्चा आनंद वही है जो अपने उद्गम स्तोत्र से बाहर आने के बाद भी सुख देता रहे। यह सुख कृत्रिम वस्तुओं से नहीं मिल सकता। एक बात यह भी है कि इसके विपरीत यह आभास बुरा हो तो उससे दूर होते ही समाप्त हो जाये। जिनकी इंद्रियां सुख को गहराई तक ले जाने की आदी हैं वह दुःख को बाहर ही छोड़ देती हैं।
कभी पार्क में घुमने जायें। वहां पेड़ पत्तों से उठ रही शीतल हवा गर्मी में भी सुख प्रदान करती है। उद्यान में घास पर नंगे पांव घूमे। कहते हैं कि इससे आंखों की रौशन बढ़ती है तो जीवन में आत्मविश्वास भी आता है। इसका कारण यह है कि हमारे पांव या तो जूते पर सवारी करते हैं या पक्के फर्श पर चलते हैं। यह कठोरता उनके स्वभाव का मूल हिस्सा हो जाती है। इससे हमारे मस्तिष्क में भी लोचता का अभाव दिखाई देता है। यही कारण है कि आजकल लोग अहंकार, जिद्दी और अपनी शेखी बघारने वाले होते हैं। लोग बोलते हैं पर किसी की सुनते नहीं। सुनते हैं तो समझते नहीं। उद्यान में लोचदार घास पर घूमते हुए पांव न केवल परिवर्तन का आभास करते हैं बल्कि उनमें यह आत्मविश्वास भी आता है कि यह संसार एक जैसा रसहीन नहीं है। बल्कि कहंी ठोस धरातल है तो की घास का भी आनंद है।
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