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कसाब को फांसी के साथ दूसरे अभियुक्तों को भी दंड दें-हिंदी लेख


           मुंबई हमले में पकड़े गये एक अपराधी कसाब को फांसी की सजा सुप्रीम कोर्ट ने बहाल रखी है।  प्रचार माध्यमों में इसे प्रमुखता से इस तरह प्रचारित किया गया है जैसे कि इस कांड का असली अपराधी वह एक ही है।  एक बात तय है कि कसाब को मौत से कम सजा नहीं मिल सकती क्योंकि वह अपराध में प्रत्यक्ष  रूप् से शामिल है पर इसका एक दूसरा प़क्ष यह भी है कि वह इस अपराध मे एक अस्त्र शस्त्र के रूप में उपयोग लाया गया है।  जिन लोगों के हृदय में इस हमले को लेकर बहुत क्षोभ है उनके लिये कसाब को सजा देना एक मामूली बात है।  यह ऐसे ही जैसे कि किसी हत्या में प्रयुक्त चाकू, तलवार और पिस्तौल को जब्त कर लेना। जब्त हथियार किसी को फिर प्रयोग के लिये नहीं  देकर उसे नष्ट कर  दिया जाता।  कसाब की जिंदगी भी वापस नहीं होगी पर उसकी मौती की सजा किसी हथियार को नष्ट करने से अधिक नहीं है।
     एक प्राणहीन हथियार इंसान के निर्देश के अनुसार चलता है पर जिस इंसान की बुद्धि ही  हर ली जाये वह भी प्राणहीन हथियार की तरह अन्य व्यक्ति के इशारे पर  अपराध की राह पर चलता है। जिस तरह हम किसी हथियार को सजा न देकर उसे नष्ट करते हैं पर प्रयोग करने वाले इंसान को ही दंड देते हैं वैसे ही इस कांड कसाब को हथियार की तरह उपयोग करने वाले इंसानों का सजा दिये बिना इस कांड की सजा पूरी नहीं मानी जा सकती है।  जब किसी इंसान के हाथ के हथियार से किसी व्यक्ति की हत्या होती है तो हम यह नहीं कहते कि अमुक हथियार ने मारा है। तब उसका इस्तेमाल करने वाले इंसान को दंड देते हैं।  हथियार को नष्ट करते हैं यह अलग बात है।
       जब हम मुंबई के दर्दनाक हादसे को याद करते हैं तो कसाब प्रत्यक्ष रूप से दिखता है  पर उसे हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाले लोग अभी भी पाकिस्तान में घूम रहे हैं।
        अस्त्र वह है जो आदमी अपने हाथ में पकड़कर कर इस्तेमाल करता है-जैसे तलवार, चाकू , गदा और त्रिशूल। उसी तरह शस्त्र वह है जो फैंककर उपयोग में लाया जाता है जैसे तीर, भाला या पत्थर।  तीरकमान और गोली अस्त्रों शस्त्रों का संयुक्त रूप है।  यहां कसाब शस्त्र का रूप है जिसे भारत में फैंका गया है कि ताकि निर्दोष  लोग मारे जायें।
      भारतीय प्रचार माध्यम हर छोटे बड़े विषय को अपने हल्के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण बनाकर उस पर चर्चा करते हैं।  उसमें शामिल विद्वानों  के विचार भी अत्यंत हल्के होते हैं। कसाब एक युवक है जो गरीब परिवार का है पर लालच लोभ तथा क्रूरता के कारण वह इस अपराध में शामिल हुआ। जिन लोगों ने उसे इस अपराध में शामिल किया उन्होंने उसे तमाम तरह के प्रलोभन देकर जीवन की सुरक्षा वादा कर इसमें शामिल किया।  कसाब ने जिनको मारा उनसे उसकी प्रत्यक्ष शत्रुता नहीं थी।  वह तो भारत पर हमले के लिये दुश्मनों का हथियार बना। हम इस हथियार को समाप्त कर यह मान रहे हैं कि भारी जीत मिल गयी तो मुंबई अपराध से नाखुश लोगों को हैरानी होती है।
        जिन लोगों के दिमाग में 1971 के भारत पाक युद्ध की स्मृतियां हैं उन्हें स्मरण होगा कि अनेक जगह पाकिस्तानी सेना के हाथ से भारतीय सेना ने जो हथियार छीने थे उनकी प्रदर्शनी हुई थी। चूंकि भारत ने उस युद्ध में पाकिस्तान को परास्त किया था इसलिये रुचि के साथ यह हथियार देखे गये।  कसाब की मौत तो ऐसे युद्ध का हथियार दिखाना भर होगी जो अभी जीता नहीं गया है। कुछ लोगों ने कसाब नाम का यह शस्त्र फैंककर हमारे निर्दोष लोगों को मारा है हम उसे नष्ट कर जीत का जश्न नहीं मना सकते।  जब मुंबई के गुनाहगारों के पाकिस्तान में खुलेआम घूमते देखते हैं तो कसाब जैसे शस्त्र को नष्ट करना एक मामूली बात नज़र आती है।  हमारा मानना है कि कसाब को जल्द से जल्द सजा देने के साथ ही पाकिस्तान से असली गुनाहगारों लेने का प्रयास करना चाहिए।  कसाब के साथ कानूनी रूप से कोई रियायत नहीं होना चाहिए।  उसे खाने पीने मेंवह सब भी नहीं देना चाहिए जो वह मांगता है।  वह शस्त्र है पर मनुष्य भी है।  उसकी बुद्धि हर ली गयी और उसने ऐसा होने दिया यह भी उसका अपराध है इसलिये उसे मानसिक प्रताड़ना देना भी बुरा नहीं है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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महात्मा गांधी का दर्शन भी निरापद नहीं-गांधी जयंती पर विशेष हिन्दी लेख (mahatma gandhi ka darshan aur bharat-special article on gandhi jaynati)


         दो अक्टोबर देश में गांधी जयंती मनाई जायेगी। प्रसंगवश इस दिन भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री का भी जन्म दिन मनाया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इतिहास में किसी भी महापुरुष का नाम बिना किसी योग्यता, कठिन परिश्रम या त्याग के दर्ज नहीं होता पर यह भी सत्य है कि एतिहासिक पुरुषों के व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन समय समय पर अनेक लोग अपने ढंग से करते हैं। एतिहासिक पुरुषों के परमधाम गमन के तत्काल बाद सहानुभूति के चलते जहां उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन करने वाले अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाते हैं। उस समय कोई प्रतिकूल टिप्पणियां नहीं करता पर समय के साथ ही एतिहासिक पुरुषों के व्यक्तित्व का प्रभाव क्षीण होने लगता है तब विचारवान लोग प्रतिकूल टिप्पणियां भले न करें पर कुछ प्रश्न उठाने ही लगते हैं।
          गांधीजी के दर्शन  पर भी अनेक सवाल उठते हैं तो श्रीलाल बहादुर शास्त्री के बारे में भी यह पूछा जाता है कि पाकिस्तान से युद्ध जीतने के बाद भी उन्होंने मास्को जाकर सोवियत संघ की मध्यस्थता स्वीकार कर हारने जैसा काम क्यों किया? बहुत समय तक यह सवाल किसी ने नहीं पूछा था पर जब कारगिल युद्ध के बंद होने के बाद यह बात उठी थी तब शास्त्री जी की भूमिका सामने आयी थी भले ही उस समय सीधे किसी ने उनका नाम लेकर आक्षेप नहीं किया गया। फिर यह सवाल चर्चा में अधिक नहीं आया पर विचारवान लोगों के लिये इतना ही बहुत था। पाकिस्तान को परास्त करने के बाद विजेता भारत के प्रधानमंत्री का इस तरह मास्को जाकर पाकिस्तान के हुक्मरानों से समझौता करना वाकई देश के लिये कोई सम्मान की बात नहीं थी-यह बात आज अनेक लोग मानते हैं। इस समझौते में पाकिस्तान की जमीन बिना कुछ लिये दिये वापस कर दी गयी थी।
            गांधीजी को विश्व में महान सम्मान प्राप्त हुआ है पर भारतीय जनमानस में अब उनकी छवि क्षीण हो रही है फिर अब फिल्म, क्रिकेट और अन्य प्रतिष्ठित क्षेत्रों में सक्रिय नये नये महापुरुषों का भी प्रचार हो रहा है। सरकारी और गैर सरकारी तौर पर गांधी जयंती के समय खूब प्रचार होने के साथ ही अनेक कार्यक्रम भी होते हैं पर लगता नहीं कि आज के कठिन समय का सामना कर रहा भारतीय जनमानस उसमें बढ़चढ़कर हिस्सा लेता हो। गांधीजी को राजनीतक संत कहना उनके दर्शन को सीमित दायरे में रखना है। मूलतः गांधी जी एक सात्विक प्रवृत्ति के धार्मिक विचार वाले व्यक्ति थे। निच्छल हªदय और सहज स्वभाव की वजह से उनमें उच्च जीवन चरित्र निर्माण हुआ। एक बात तय है कि उन्होंने भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने का जब अभियान प्रारंभ किया होगा तब उनका लक्ष्य आत्मप्रचार पाना नहीं बल्कि देश के आम इंसान का उद्धार करना रहा होगा। अलबत्ता अपने आंदोलन के दौरान उन्होंने इस बात को अनुभव किया होगा कि उनके सभी सहयोग उनकी तरह निष्काम नहीं है। इसके बावजूद वह इस बात को लेकर आशावदी रहे होंगे कि समय के अनुसार बदलाव होगा और अपने ही देश के भले लोग राज्य अच्छी तरह चलायेंगे। कालांतर में जो हुआ वह हम सब जानते हैं। उनके सपनों का भारत कभी न बना न बनने की आशा है। स्थिति यह है कि अनेक अनुयायी अब दूसरे स्वाधीनता आंदोलन का बात करने लगे हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि गांधी जी का सपना पूरा नहीं हुआ और जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन प्रारंभ किया वह पूरा नहीं हुआ। दूसरे शब्दों में 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी केवल एक ऐसा प्रतीक है जिसकी स्मृतियां केवल उस दिन मनाये जाये वाले कार्यक्रमों में ही मिलती है। जमीन पर अभी गांधीजी के सपनों का पूरा होना बाकी है।
        यहां हम गांधीजी के व्यक्तित्व और कृतित्व की आलोचना नहीं कर रहे क्योंकि हम जैसा मामूली शख्स भला उन पर क्या लिख सकता है? अलबत्ता देश के हालात देखकर वैचारिक रूप से गांधी दर्शन अब निरापद नहीं माना जा सकता है। सबसे पहला सवाल तो यह है कि भारत का स्वाधीनता आंदोलन अंततः एक राजनीतिक प्रयास था जिसमें राजकाज भारतीयों के हाथ में होने का लक्ष्य तय किया गया था। दूसरी बात यह कि गांधीजी ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध आंदोलन किया था जिस पर भारतीयों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करने का आरोप था। इसके अलावा देश की समस्याओं के प्रति अंग्रेज सरकार की प्रतिबद्धता पर भी संदेह जताया गया था। इसका अर्थ सीधा है कि गांधीजी एक ऐसी सरकार चाहते थे जो देश के लोगों की होने के साथ ही जनहित का काम करे। ऐसे में राजकाज के पदों पर बैठने वाले महत्वपूर्ण लोगों की गतिविधियां महत्वपूर्ण होती हैं। तब गांधी जी ने राजकाज प्रत्यक्ष रूप से चलाने के लिये कोई पद लेने से इंकार क्यों किया? क्या वह इन पदों को भोग का विषय समझते थे या दायित्व निभाने के लिये अपने अंदर क्षमता का अभाव अनुभव करते थे। अगर यह दोनों बातें नहीं थी तो क्या उनको भरोसा था कि जो लोग राजकाज देखेंगे वह उनके रहते हुए अच्छा काम ही करेंगे? क्या उनको यकीन था कि जिन लोगों को वह राजकाज का जिम्म सौंपेंगे वह अच्छा ही काम करेंगे?
यकीनन सरकार का सैद्धांतिक रूप उनके सपनों में रहा हो पर व्यवहारिक  रूप से उनको इसका कोई अनुभव नहीं था। वह राजनीतिक के सैद्धांतिक पक्ष और व्यवहारिक स्थिति के अंतर को नहीं जानते थे। उन्होंने एक ऐसा राजनीतिक अभियान शुरु किया जो कालांतर में सीमित लक्ष्य प्राप्त कर समाप्त हो गया। आज उसी प्राप्त लक्ष्य को भी चुनौती मिल रही है। गांधी जी के अनुयायी और आज के महानायक अन्ना हजारे मानते हैं कि आज का शासन भी अंग्रेजों जैसा ही है। श्री अन्ना हजारे स्वयं भी कोई पद नहीं लेना चाहते पर देश के स्वच्छ और विकसित होने की का जिम्मा सरकार का ही मानते हैं। तब ऐसा लगता है कि एक राजनीति शास्त्र का ज्ञान न रखने वाला व्यक्ति भी राजनीति कर सकता है या राजकाज कोई पद संभाल सकता है। हमारा तो मानना है कि अंग्रेजों के विरुद्ध गांधीजी के आंदोलन के बारे में अब इतिहास पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं अन्ना जी का आंदोलन बता रहा है कि उस समय क्या क्या हुआ होगा?
        28 अगस्त को अन्ना साहिब का जनलोकपाल विधेयक लाने संबंधी आंदोलन समाप्त हुआ। हासिल कुछ नहीं हुआ पर उन्होंने कहा कि हमें आधी जीत मिली है। तब हम जैसे लोग सड़कों पर घूमते हुए उस आधी जीत को ढूंढते हुए सोच रहे थे कि 16 अगस्त को भी कोई हम जैसा शख्स रहा होगा जो उस आजादी को ढूंढ रहा होगा जिसका दावा उस समय किया जा रहा था। बहरहाल गांधीजी के आंदोलन के पीछे उस समय के धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, तथा आर्थिक शिखरों पर बैठे लोग रहे होंगे जो अपने हित साधन के लिये ही ऐसी आजादी चाहते होंगे ताकि वह देश के आम इंसान को गुलाम बनाये रख सके। पता नहीं गांधीजी यह देख पाये या नहीं पर इतना तय है कि वह जैसा भारत चाहते थे वैसा बन नहीं पाया। आखिरी बात यह है कि गांधीजी सात्विक प्रवृत्ति के थे और उनका आंदोलन राजस वृत्ति का था। बात अगर राजनीति की है तो उसमे सात्विक प्रवृत्ति की आशा करना व्यर्थ है। यह राजसी वृत्ति वाले लोगों का काम है। राजसी वृत्ति बुरी नहीं है बशर्त व्यक्ति अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिये उचित ढंग से कार्य करे। मुश्किल यह है कि तामसी वृत्ति वाले लोग अब राजकाज करने लगे हैं। भारत में दूसरी भी समस्या है। राजसी लोगों को स्वार्थी जानकर लोग हªदय से सम्मान नहीं करते जबकि सामूहिक नेतृत्व करना उन्हीं के बूते का होता है। सात्विक लोगों को समाज सम्मान देता है पर वह निष्काम होने के कारण राजकाज का काम नहीं करते। यही कारण है कि राजसी वृत्ति के लोग सात्विक लोगों को ढाल बनाकर आगे चलते हैं ताकि समाज उनका नेतृत्व और शासन स्वीकार करे। इसी कारण पूरे विश्व के राष्ट्राध्यक्ष अपने संपर्क धार्मिक नेताओं  से रखते हैं। गांधी को हमने देखा नहीं और अन्ना से कभी मिले नहीं पर प्रचार माध्यमों में देखकर हमने अनुभव किया वह लिख दिया। इस अवसर पर महात्मा गांधी जी और शास्त्री जी को हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि!
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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त्रावनकोर (त्रावणकोर) के स्वामी पद्मनाभ मंदिर का खजाना और भारत का आम आदमी-हिन्दी लेख (travancor ke swami padmanabh mandir ka khazana aur bharat ka aam aadmi-hindi lekh)


           केरल ट्रावनकोर में स्वामी पद्मनाभ मंदिर में खजाना मिलने की घटना इस विश्व का आठवां आश्चर्य मानना चाहिए। आमतौर से भारत में गढ़े खजाने होने की बात अक्सर कही जाती है। अनेक सिद्ध तो इसलिये ही माने जाते हैं कि वह गढ़े खजाने का पता बताते हैं। यह अलग बात है कि वह अपने चेलों से पैसा ऐंठकर गायब हो जाते हैं। इससे एक बात तो सिद्ध होती है कि धर्म और भगवान अंध श्रद्धा रखने वालों को गढ़े खजाने में बहुत दिलचस्पी होती है और ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है।
            ट्रावणकोर का खजाना पांच लाख करोड़ से ऊपर पहुंच जायेगा ऐसा कुछ आशावादी कह रहे हैं तो कुछ विचारक लोग इस बात से चिंतित हैं कि कहीं यह खजाना भी लुट न जाये। प्रचार माध्यमों में भले ही इस खबर की चर्चा हो रही है पर आम जनमानस की उदासीनता भी कम आश्चर्य का विषय नहीं है। मिल गया तो और लुट गया तो इसमें उनको अपना कोई हित या अहित नहीं दिखता। इससे एक बात निश्चित लग रही है कि देश के समाज, अर्थ और धर्म के शिखर पर बैठे लोग की तरह उनमें दिलचस्पी रखने का आदी बौद्धिक वर्ग के लोग भी आमजन के चिंताओं से दूर हो गया है। उसे पता ही नहीं कि जनमानस के मन में क्या चल रहा है? यह देश के लिये खतरनाक स्थिति है पर ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं है क्योंकि बाजार और प्रचार से प्रयोजित बौद्धिक समूह समाज से कट चुका है।
            दरअसल हमारे देश में आधुनिक लोकतंत्र ने जहां आम आदमी के लिये सत्ता में भागीदारी का दरवाजा खोला है वहीं ऊंचा पद पाने की उसकी लालसा को बढ़ाया भी है। जिन लोगों को यह मालुम है कि उच्च पद उनके भाग्य नहीं है वह उच्च पदस्थ लोगों के अनुयायी बनकर उनके प्रचारक बन जाते हैं। यही प्रचारक अपनी बात समाज की अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने का दावा करते हैं। शिखर पुरुषों का आपस में एक तयशुदा युद्ध चलता है और आम आदमी उसे मूकभाव से देखता है। फिर इधर धनवान, पदवान, कर्मवान, धर्मवान तथा अधर्मवान लोगों का एक समूह है जो पूरे विश्व पर शासन करने लगा है। उसने इस तरह का वातावरण बनाया है कि हर व्यक्ति और क्रिया का व्यवसायीकारण हो गया है। लिखने, पढ़ने, बोलने और देखने की क्रियाओं में स्वतंत्रता नहीं रही। न अभिव्यक्ति में मौलिकता है। विचाराधाराओं, धर्मो, जातियों और भाषाओं के क्षेत्र में सक्रिय लोग प्रायोजित हैं। उनकी अभिव्यक्ति स्वतंत्र नहीं प्रायोजित है। उनकी अभिव्यक्ति सतही है। बाज़ार जैसी प्रेरणा निर्मित करता है प्रचार में वैसी ही अभिव्यक्ति दिखाई देती है।
           ऐसे में नये आदमी और नये विचार को वैसे भी कोई स्थान नहीं मिलता फिर प्रायोजन की प्रवृत्ति ने आमजान को भी इतना संकीर्ण मानसिकता का बना दिया है कि उसे गूढ़ बात समझ में नहीं आती। भारत में अभी तक कहा जाता था कि आर्थिक संकट है पर किसी ने यह नहीं कहा कि बौद्धिकता का संकट है। कुछ दिन पहले स्विस बैंक में कथित रूप से भारतीयों के चार लाख करोड़ जमा होने की बात सामने रखकर कुछ लोग कह रहे थे कि यह पैसा अगर देश में आ जाये तो देश की तस्वीर बदल जाये। अगर त्रावणकोर के खजाने की बात कही जाये तो वह भी कम नहीं है तब क्या कोई उसके सही उपयोग की बात कोई नहीं कर रहा है। ढोल जब दूर हैं तो सुहावने बताये और पास आया तो कहने लगे कि हमें बजाना नहीं आता इसलिये इसे सजाकर रखना है। फिर एक सवाल यह भी है कि इसका उपयोग किया जाये तो क्या वाकई इस देश की स्थिति सुधर जायेगी। कतई नहीं क्योंकि हमारे देश की समस्या धन की कमी नहीं बल्कि मन की कमी है। मन यानि आत्मविश्वास की कमी ही देश का असली संकट है और यह विचारणीय विषय है। इस विषय पर वह लेख एक साथ प्रस्तुत हैं जो इस लेखक ने इंटरनेट पर लिखे और पाठकीय दृष्टि से फ्लाप रहे।
सोने के खजाने से बड़ा है आम आदमी का पसीना-हिन्दी लेख (sone ke khazane se bada hai aam admi ka pasina-hindi lekh)      
  त्रावणकोर के स्वामी पद्मनाभ मंदिर में सोने का खजाना मिलने को अनेक प्रकार की बहस चल रही है।  एक लेखक, एक योग साधक और एक विष्णु भक्त होने के कारण इस खजाने में इस लेखक दिलचस्पी बस इतनी ही है कि संसार इस खजाने के बारे में क्या सोच रहा है? क्या देख रहा है? सबसे बड़ा
सवाल इस खजाने का क्या होगा?        
          कुछ लोगों को यह लग रहा है कि इस खजाने का प्रचार अधिक नहीं होना चाहिए था
क्योंकि अब इसके लुट जाने का डर है।  इतिहासकार अपने अपने ढंग सेइतिहास का व्याख्या करते हैं पर अध्यात्मिक ज्ञानियों का अपना एक अलग नजरिया होता है। दोनों एक नाव पर सवारी नहीं करते भले ही एक घर में रहते हों। इस समय लोग स्विस बैंकों में कथित रूप से भारतीयों के जमा चार लाख
करोड़ के काले धन की बात भूल रहे हैं। इसके बारे में कहा जा रहा था कि यह रकम अगर भारत आ जाये तो देश के हालत सुधर जायें।  अब त्रावनकोर के पद्मनाभ मंदिर के खजाने की राशि पांच लाख करोड़ तक पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है। बहस अब स्विस बैंक से हटकर पद्मनाभ मंदिर में  पहुंच
गयी है।
    हमारी दिलचस्पी खजाने के संग्रह की प्रक्रिया में थी कि त्रावणकोर के राजाओं ने इतना सोना जुटाया कैसे? इससे पहले इतिहासकारों से यह भी पूछना चाहेंगे कि उनके इस कथन की अब क्या स्थिति है जिसमें वह कहते हैं कि भारत की स्वतंत्रता के समय देश के दो रियासतें सबसे अमीर थी एक हैदराबाद दूसरा ग्वालियर।  कहा जाता है कि उस समय हैदराबाद के निजाम तथा ग्वालियर के सिंधियावंश के पास सबसे अधिक  संपत्ति थी। त्रावणकोर के राजवंश का नाम नहीं आता पर अब लगता है कि इसकी संभावना अधिक है कि वह सबसे अमीर रहा होगा। मतलब यह कि इतिहास कभी झूठ भी बोल सकता है इसकी संभावना सामने आ रही है। बहरहाल त्रावणकोर के राजवंश विदेशी व्यापार करता था।  बताया जाता है कि इंग्लैंड के राजाओं के महल तक उनका सामान जाता था। हम सब जानते हैं कि केरल प्राकृतिक रूप से संपन्न राज्य रहा है।  फिर त्रावणकोर समुद्र के किनारे बसा है।  इसलियेविश्व में जल और नभ परिवहन के विकास के चलते उसे सबसे पहले लाभ होना ही था।  पूरे देश के लिये विदेशी सामान वहां के बंदरगाह पर आता होगा तो  यहां से जाता भी होगा।  पहले भारत का विश्व सेसंपर्क थल मार्ग से था। यहां के व्यापारी सामान लेकर मध्य एशिया के मार्ग से जाते थे। तमाम तरह के राजनीतिक और धार्मिक परिवर्तनों के चलते यह मार्ग दुरुह होता गया होगा तो जल मार्ग के साधनों के विकास का उपयोग तो बढ़ना ही था।  भारत में उत्तर और पश्चिम से मध्य एशियाई देशों से हमले हुएपर जल परिवहन के विकास के साथ ही  पश्चिमी देशों से भी लोग आये।पहले पुर्तगाली फिर फ्रांसिसी और फिर अंग्रेज।  ऐसे में भारत के दक्षिणी भाग में भी उथल पुथल हुई।  संभवत अपने काल के शक्तिशाली और धनी राज्य होने के कारण त्रावनकोर के तत्कालीन राजाओं को विदेशों से संपर्क बढ़ा ही होगा।  खजाने के इतिहास की जो जानकारी आरही है उसमें विदेशों से सोना उपहार में मिलने की भी चर्चा है।  यह उपहार फोकट में नहीं मिले होंगे।  यकीनन विदेशियों को अनेकप्रकार का लाभ हुआ होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इस मार्ग से भारत में आना सुविधाजनक रहा होगा।  विदेशियों ने सोना दिया तो उनको क्या मिला होगा? यकीनन भारत की प्रकृतिक संपदा मिली होगी जिसे हम कभी सोने जैसा नहीं मानते। बताया गया है कि त्रावणकोर का राजवंश चाय, कॉफी और काली मिर्च के व्यापार से जुड़ा रहा है।  मतलब यह कि चाय कॉफी और काली मिर्च हमारे लिये सोना नहीं है पर विदेशियों से उसे सोने के बदले लिया। सोना भारतीयों की कमजोरी रहा है तो भारत की प्राकृतिक और मानव संपदाविदेशियों के लिये बहुत लाभकारी रही है।  केवल त्रावणकोर का राजवंश ही नहीं भारत के अनेक बड़े व्यवसायी उस समय सोना लाते  और भारत की कृषि और हस्तकरघा से जुड़ी सामग्री बाहर ले जाते  थे।  सोने की खदानों में मजदूर काम करता है तो प्रकृतिक संपदा का दोहन भी मजदूर ही करता है। मतलब पसीना ही सोने का सृजन करता है।   
          अपने लेखों में शायद यह पचासवीं बार यह बात दोहरा रहे हैं कि विश्व के भूविशेषज्ञ भारत पर प्रकृति की बहुत कृपा मानते हैं।  यहां भारतका अर्थ व्यापक है जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान नेपाल, श्रीलंका,बंग्लादेश और भूटान भी शामिल है।  इस पूरे क्षेत्र को भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाता रहा है पर पाकिस्तान से मित्रता की मजबूरी के चलते इसे हम लोग आजकल दक्षिण एशिया कहते हैं।        
          कहा जाता है कि कुछ भारतीय राज्य तो ऐसे भी हुए हैं जिनका तिब्बत तक राज्य फैला हुआ था।  दरअसल उस समय के राजाओं में आत्मविश्वास था और इसका कारण था अपने गुरुओं से मिला  अध्यात्मिक ज्ञान! वह युद्ध और शांति में अपनी प्रजा का हित ही सोचते थे।  अक्सर
अनेक लोग कहते हैं कि केवल अध्यात्मिक ज्ञान में लिप्तता की वजह से यह देशविदेशी आक्राताओं का शिकार बना। यह उनका भ्रम है। दरअसल अध्यात्मिक शिक्षा से अधिक आर्थिक लोभ की वजह से हमें सदैव संकटों का सामना करना पड़ा।  समय के साथ अध्यात्म के नाम पर धार्मिक पांखड और उसकी आड़ में आमजन की भावनाओं से खिलवाड़ का ही यह परिणाम हुआ कि यहां के राजा,जमीदार, और साहुकार उखड़ते गये।   
          सोने से न पेट भरता है न प्यास बुझती है।  किसी समय सोने की मुद्रायें प्रचलन में थी पर उससे आवश्यकता की वस्तुऐं खरीदी बेची जाती थी। बाद में अन्य धातुओं की राज मुद्रायें बनी पर उनके पीछे उतने ही मूल्य  के सोने का भंडार रखने का सिद्धांत पालन में लाया जाता था। आधुनिक समय में पत्र मुद्रा प्रचलन में है पर उसके पास सिद्धातं यह बनाया गया कि राज्य जितनी मुद्रा बनाये उतने ही मूल्य का सोना अपने भंडार में रखे।  गड़बड़झाला यही से शुरु हुआ। कुछ देशों ने अपनी पत्र मुद्रा जारी करने के पीछे कुछ प्रतिशत सोना रखना शुरु किया।  पश्चिमी देशों का पता नहीं पर विकासशील देशों के गरीब होने कारण यही है कि जितनी मुद्रा प्रचलन में है उतना सोना नहीं है।  अनेक देशों की सरकारों पर आरोप है कि प्रचलित मुद्रा के पीछे सोने का प्रतिशत शून्य रखे हुए हैं। अगर हमारी मुद्रा के पीछे विकसित देशों की तरह ही अधिक प्रतिशत में सोना हो तो शायद उसका मूल्य विश्व में बहुत अच्छा रहे।विशेषज्ञ बहुत समय से कहते रहे हैं कि भारतीयों के पास अन्य देशों से अधिकअनुपात में सोना है।  मतलब यह सोना हमारी प्राकृतिक तथा मानव संपदा की वजह से है।  यह देश लुटा है फिर भी यहां इतना सोना कैसे रह जाता है? स्पष्टतः हमारी प्राकृतिक संपदा का दोहन आमजन अपने पसीने से करता है जिससे सोना ही   सोने में बदलता है।  सोना लुटने की घटनायें तो कभी कभार होती होंगी पर आमजन के पसीने से सोना बनाने की पक्रिया कभी थमी नहीं होगी।
             भारत में आमजन जानते हैं कि सोना केवल आपातकालीन मुद्रा है।  लोग कह रहे थे कि स्विस बैंकों से अगर काला धन वापस आ जाये तो देश विकासकरेगा मगर उतनी रकम तो हमारे यहां मौजूद है।  अगर ढूंढने निकलेंतो सोने के बहुत सारे खजाने सामने आयेंगे पर समस्या यह है कि हमारे यहां प्रबंध कौशल वाले लोग नहीं है।  अगर होते तो ऐसे एक नहीं हजारोंखजाने बन जाते। प्रचार माध्यम इस खजाने की चर्चा खूब कर रहे हैं पर आमजनउदासीन है। केवल इसलिये उसे पता है कि इस तरह के खजाने उसके काम नहीं आनेवाले। सुनते हैं कि त्रावणकोर के राजवंश ने अपनी प्रजा की विपत्ति में भीइसका उपयोग नहीं किया था।  इसका मतलब है कि उस समय भी वह अपनेसंघर्ष और परिश्रम से अपने को जिंदा रख सकी थी। बहरहाल यह विषय बौद्धिकविलासिता वाले लोगों के लिये बहुत रुचिकर है तो अध्यात्मिक साधकों के लिये अपना बौद्धिक ज्ञान बघारने का भी आया है।  जिनके सिर पर सोन का ताज था वही कटे जिनके पास खजाने हैं वही लुटे जो अपने पसीने से अपनी रोटी का सोना कमाता है वह हमेशा ही सुरक्षित रहा।  हमारे देश में पहले अमीरी और खजाने भी दिख रहे हैं पर इससे बेपरवाह समाज अधिक है क्योंकि उसके पास सोना के रूप में बस अपना पसीना है।  यह अलग बात है कि उसकी एक रोटी में से आधी छीनकर सोना बनाया जाता है।
हम प्रबंध योग सीख लें-हिन्दी व्यंग्य (hum prabandhyog seekh len-hindi
vyangya)
        
         देखा जाये तो अपना देश अब गरीबों का देश भले ही है पर गरीब नहीं है। सोने की चिड़िया पहले भी था अब भी है। यह अलग बात है कि अभी तक तो यह चिड़ियायें पैदा होकर विदेशों में घोंसला बना लेती और अपने यहां लोग हाथ मलते। कहने को तो यह भी कहा जाता है कि यहां कभी दूध की नदियां बहती थी अब भी बहती हैं पर उनमें दूघ कितना असली है और कितना नकली यह अन्वेषण का विषय है।    
             हम दरअसल स्विस बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन और केरल के पद्मनाभ
मंदिर में मिले खजाने की बात कर रहे हैं। इस खबर ने हमारे दिलोदिमाग के सारे तार हिला दिये हैं कि पदम्नाभ मंदिर में अभी तक एक लाख करोड़ के हीरेजवाहरात, कीमती सिक्के और सोने के आभूषण मिले हैं। अभी कुछ अन्य कमरे खोले जाने हैं और यकीनन यह राशि बढ़ने वाली है। हम मान लेते हैं कि वहां चार लाख करोड़ से कुछ कम ही होगी। यह आंकड़ा स्विस बैंक में जमा भारतीयों की रकम का भी बताया जाता है। वैसे इस पर विवाद है। कोई कहता है कि दो लाख करोड़ है तो कोई कहता तीन तो कोई कहता है कि चार लाख करोड़। हम मान लेते हैं कि स्विस बैंकों में जमा काला धन और मंदिर में मिला लगभग बराबर की राशि का होगा। न हो तो कम बढ़ भी हो सकता है।   
         हमें क्या? हम न स्विस बैंकों की प्रत्यक्ष जानकारी रखते हैं न ही पद्मनाभ मंदिर कभी गये हैं। सब अखबार और टीवी पता लगता है। जब लाख करोड़ की बात आती है तो लगता है कि दो अलग राशियां होंगी। तीन लाख करोड़ यानि तीन लाख और एक करोड़-यह राशियां मिलाकर पढ़ना कठिन लगता है। । अक्ल ज्यादा काम करती  करना चाहते भी नहीं क्योंकि अगर आंकड़ों में उलझे तो दिमाग काम करना बंद कर देगा ।
         इधर खबरों पर खबरें इस तरह आ रही हैं कि पिछली खबर फलाप लगती है। सबसे पहले टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले की बात सामने आयी। एक लाख 79 हजार करोड़ का घोटाला बताया गया। फिर स्विस बैंक के धन पर टीवी और अखबार में चले सार्वजनिक विवाद में चार लाख करोड़ के जमा होने की बात आई। विवाद और आंदोलनके चलते साधु संतों की संपत्ति की बात भी सामने आयी। हालांकि उनकी संपत्तियां हजार करोड़ में थी पर उनकी प्रसिद्धि के कारण राशियां महत्वपूर्णनहीं थी। फिर पुट्टापर्थी के सत्य सांई बाबा की संपत्ति की चर्चा भी हुई तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गयी। चालीस हजारे करोड़ का अनुमान कियागया। यह रकम बहुत छोटी थी इसलिये स्विस बैंकों की दो से चार लाख करोड़ का मसला लगातार चलता रहा। अब पद्मनाभ मंदिर के खजाने मिलने की खबर से उस पर पानी फिर गया लगता है।       
          पिछले कुछ दिनों से अनेक महानुभाव यह कह रहे हैं कि विदेशों में जमा भारत का धन वापस आ जाये तो देश का उद्धार हो जाये। अनेक लोग इस रकम का अर्थव्यवस्था के लिये अत्यंत महत्व बताते हुए अनेक तरह की विवेचना कर रहेहैं। अब पद्मनाभ मंदिर के नये खजाने की राशि के लिये भी यही कहा जा रहा है। ऐसे में हमारा कहना है कि जो महानुभाव विदेशों से काले धन को भारत लाने के लिये जूझ रहे हैं वह अपने प्रयास अब ऐसे उपलब्ध धन के सही उपयोग करने के लिये लगा दें। वैसे भी हमारे देश के सवौच्च न्यायालय ने विदेशों से काला धन लाने के लिये अपने संविधानिक प्रयास तेज कर दिये हैं इसलिये निज प्रयास अब महत्वहीन हो गये हैं। वैसे केरल के पद्मनाभ मंदिर का खजाना भी न्यायालीयन प्रयासों के कारण सामने आया है। यकीनन आगे यह देश के खजाने में जायेगा। उसके बाद न्यायालयीन प्रयासों की सीमा है। धन किस तरह कहां और कब खर्च हो यह तय करना अंततः देश के प्रबंधकों का है। ऐसे में उनकी कुशलता
ही उसका सही उपयोग में सहयोग कर सकती है।
          यहीं आकर ऐसी समस्या शुरु होती है जिसे अर्थशास्त्र में भारत में कुशल प्रबंध का अभाव कहा जाता है। अगर आप देश की आर्थिक स्थिति की बात करें तो भूतकाल और वर्तमान काल में धन की बहुतायात के प्रमाण हैं। प्रकृति की कृपा से यहां दुनियां के अन्य स्थानों से जलस्तर बेहतर है इसलिये खेती तथा पशुपालन अधिक होता है। असली सोना तो वह है जो श्रमिक पैदा करता है यह अलग बात है कि उसके शोषक उसे धातु के सोने के बदलकर अपने पास रख लेते हैं। जब तक हिमालाय है तब तब गंगा और यमुना बहेगी और विंध्याचल है तो नर्मदा की कृपा भी रहेगी। मतलब भविष्य में भी यहां सोना उगना है पर हमारे देश के लोगों का प्रेम तो उस धातु के सोने से है जो यहां पैदा ही नहीं होता। मुख्यसमस्या यह है कि हमारे देश में सामाजिक सामंजस्य कभी नहीं रहा दावे चाहे हम जितने भी करते रहें। जिसे कहीं धन, पद और बल मिला वह राज्य करना चाहता है। इससे भी वह संतुष्ट नहीं होता। मेरा राज्य है इसके प्रमाण के लिये शोषण और हिंसा करता है। राज्य का पद उपभोग के लिये माना जाता हैं जनहित करने के लिये नहीं। जनहित का काम तो भगवान के भरोसे है। किसी को एक रोटी की जगह दो देने की बजाय जिसके पास एक उसकी आधी भी छीनने का प्रयास किया जाता है यह सोचकर कि पेट भरना तो भगवान का काम है हमें तो अपना संसार निभाना है इसलिये किसी की रोटी छीने।
           भारतीय अध्यात्म में त्याग और दान की अत्यंत महिमा इसलिये ही बतायी गयी है कि धनिक, राजपदवान, तथा बाहबली आपने से कमजोर की रक्षा करें। भारतीय मनीषियों से पूर्वकाल में यह देखा होगा कि प्रकृति की कृपा के चलते यह देश संपन्न है पर यहां के लोग इसका महत्व न समझकर अपने अहंकार में डूबे हैं इसलिये उन्होंने समाज क सहज भाव से संचालन के सूत्र दिये। हुआ यह कि उनके इन्हीं सूत्रों को रटकर सुनाने वाले इसका व्यापार करते हैं। कहीं धर्म भाव तो कहीं कर्मकांड के नाम पर आम लोगों को भावनात्मक रूप से भ्रमित कर उसके पसीने से पैदा असली सोने को दलाल धातु के सोने में बदलकर अपनी तिजोरी भरने लगते हैं। वह अपने घर भरने में कुशल हैं पर प्रबंधन के नाम पर पैदल हैं।
अलबत्ता समाज चलाने का प्रबंधन हथिया जरूर लेते हैं। जाति, भाषा, धर्म, व्यापार, समाज सेवा और जनस्वास्थ्य के लिये बने अनेक संगठन और समूह है पर प्रबंधन के नाम पर बस सभी लूटना जानते हैं। जिम्मेदारी की बात सभी करते हैंपर जिम्मेदार कहीं नहीं मिलता ।
    हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि देश गरीब इसलिये नहीं है यहां धन नहीं है बल्कि उसका उपयेाग करना जिम्मेदार लोगों का उसका वितरण करना नहीं आता।भ्रष्टाचार आदत नहीं शौक है। मजबूरी नहीं जिम्मेदारी है। जिसके पास राजपद है अगर वह उपरी कमाई न करे तो उसका सम्मान कहीं नहीं रहता।
        स्विस बैंक हो या पद्मनाभ का मंदिर हमारे देश के खजाने की रकम बहुत बड़ी है। कुछ लोग तो कहते हैं कि ऐसे खजाने देश में अनेक जगह मिल सकते हैं। उनकी रकम इतनी होगी कि पूरे विश्व को पाल सकते हैं। यही कारण है कि विदेशों के अनेक राजा लुटेरे बनकर यहां आये। मुख्य सवाल यह है कि हमें पैसे का इस्तेमाल करना सीखना और सिखाना है। इसे हम प्रबंध योग भी कह सकते हैं।
पतंजलि योग में कहीं प्रबंध योग नहीं बताया जाता है पर अगर उसे कोई पढ़े और समझे तो वह अच्छा प्रबंध बन सकता है। मुख्य विषय संकल्प का है और वह यह कि पहले हम अपनी जिम्मेदारी निभाना सीखें। त्याग करना सीधें। संपत्ति संचय न करें। जब हम कोई आंदोलन और अभियान चलाते हैं तो स्पष्टतः यह बात हमारे मन में रहती है कि कोई दूसरा हमारा उद्देश्य पूरा करे। जबकि होना यह चाहिए कि हम आत्मनियंत्रित होकर काम करें।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep,
Gwalior

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आधुनिक तथा प्राचीन व्यवस्थाओं का संघर्ष-हिन्दी लेख


टुयूनिशिया तथा मिस्त्र की घटनाओं में जनआंदोलनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका दिखाई जरूर देती है पर शक की पूरी यह गुंजायश है कि विश्व में अप्रत्यक्ष रूप से शासन कर रहे पूंजीपतियों की इसमें कोई न कोई योगदान हो सकता है। संभव है कि यह वर्ग महसूस कर रहा हो कि तेल क्षेत्रों में उसका काम चलता रहे इसलिये जनता में फैले विद्रोह को हवा देकर अपने नये मुखौटे खाड़ी तथा अरब क्षेत्रों में लाये जायें। इससे उनको दो लाभ होंगे कि एक तो नये मुखोटे जनता को ताजा लगेंगे कि दूसरा यह कि पुराने मुखोटे इन पूंजीपतियों को अभी भी केवल एक प्रयोजक मानकर राजकाज के काम में उपेक्षा करते होंगे इसलिये नये मुखौटे लाकर उनको अपना सीधा वर्चस्प स्थापित किया जाये क्योंकि वह औकात से अधिक पद मिल जाने के कारण हमेशा दबे रहेंगे।
संभव ऐसा न हो। वाकई जनविद्रोह हो रहा हो, पर भारतीय प्रचार माध्यम जिस तरह दुनियां के पचास तानाशाहों के लिये खतरा बता रहे हैं वह कहीं न कहंी दुनियां के पूंजीपति और अपराधियों के गिरोह में व्याप्त एक सोच का प्रतिबिंब भी हो सकते हैं जो प्रजा तथा राज्य को भरमाये रखने के लिये हमेशा नये मुखौटे तलाशता है। यह तानाशाह अफ्रीकी तथा खाड़ी देशों में हैं। इनमें अधिकतर धार्मिक राज्य हैं और उन पर अपने धर्म के आधार पर आतंकवाद को शह देने का संदेह भी किया जाता है। मुख्य बात यह है कि प्रत्यक्ष भले ही इन राष्ट्रों के वर्तमान प्रमुख भ अमेरिका का पिछलग्गू होने का दावा न करें या संभव है इनमें से कुछ अमेरिका का विरोधी होने का नाटक करते हों पर कमोबेश सभी उसके बंधक हैं। यह सभी तेल उत्पादक राष्ट्र हैं जहां अमेरिकी कंपनियों का प्रभुत्व हैं जो कि अपने व्यापार के लिये राजनीति संस्थाओं को अपने कब्जे में लेकर काम करती हैं। कई जगह तो अमेरिकी सेना अपना डेरा डाले बैठी है। अधिकतर तेल उत्पादक राष्ट्र तानाशाही का शिकार हैं भले ही कई जगह लोकतंत्र का दिखावा किया जाता है। मुख्य बात यह है कि यह सभी धर्म पर आधारित संवैधानिक व्यवस्था वाले राष्ट्र हैं। मगर जिस लोकतंत्र के लिये वहां जनआंदोलन हो रहे हैं कहीं न कहंी उसके पीछे वहां के धार्मिक तत्वों की सक्रियता दिखाई दे रही है उससे नहीं लगता कि अगर वहां तख्ता पलट हुआ भी तो सही मायने में लोकतंत्र आयेगा। ईरान इसका एक उदाहरण है जहां राजशाही पलटकर लोकतंत्र के लिये आंदोलन एक मौलवी ने किया और बाद में वहां का धार्मिक तानाशाह बन बैठा।
मिस्र में जनविद्रोह के लिये धार्मिक स्थलों का उपयोग हुआ। दिन भी शुक्रवार का चुना गया। एशियाई देशों में धर्म की महत्ता है पर मुश्किल यह है कि जब इसकी आड़ लेकर कोई आंदोलन होता है तो वह धार्मिक ठेकेदारों के नेतृत्व में ही होता है। वैसे भारतीय प्रचार माध्यमों ने सीधे नाम नहीं लिया पर सऊदी अरब की तरफ बदलाव के उनके संकेत कोई व्यवाहारिक नहीं लगते। वहां के शासक धार्मिक आधार पर सबसे ज्यादा मज़बूती से टिके हैं। दुनियां के एक सौ बीस करोड़ से अधिक लोगों का पवित्र स्थान वहंीं है। तानाशाही का अंत अगर वहां होता है तो वह संसार का नक्श पलट सकता है। वहां जन आंदोलन की आहट तो है पर वह गुर्राहट नहीं है। वैश्विक आतंकवाद में गैर अमेरिकी विरोधी संगठनों को उसका खुला प्रश्रय मिलता है। भारत के अनेक वांछित लोग वहां जाते हैं। मज़े की बात यह है कि भारतीय रणनीतिकार कभी उसका नाम नहीं लेकर पाकिस्तान तक ही अपना लक्ष्य रखते हैं। सऊदी अरब में ऐसा कोई जनआंदोलन होता है तो उसके एतिहासिक परिणाम होंगे क्योंकि तब वहां जो दौर चलेगा वह पूरे विश्व को प्रभावित करेगा।
पश्चिमी देशों में धर्म की नाम पर ही तानाशाही है और राष्ट्र प्रमुख अपनी जनता का ध्यान अपनी समस्याओं से हटाकर दूसरी जगह धर्म की जंग कराकर इसलिये लगाते हैं ताकि वह अंधविश्वास में पड़ी रहे। वहां के शेखों का धर्म केवल पैसा बनाना तथा उसके लिये चाहे जैसी जुगाड़ करना है। वह अपरे देशों के सबसे बड़े अमीर हैं तो वहां शासन भी करते हैं। दुनियां भर में लोकतंत्र का हामी अमेरिका ही इन तानाशाह शेखों पर अपना हाथ रखे हुए है। ऐसे में अगर कहीं आंदोलन हो रहा है तो अमेरिका रणीनीतिकार आंखें मूंदें नहीं बैठे होंगे। संभव है कि वह कोई नया मुखोटा ट्यूनिशिया और मिस्र में लाना चाहते हों। यह भी हो सकता है कि आंदोलन के चलते वह कोई नया मुखोटा वहां लाने की योजना बना रहे हों। मिस्र में स्थिति खराब है पर उसमें जल्दी सुधार आयेगा यह संभव नहीं लगता। वह एक तेल उत्पादक राष्ट्र और वहां सक्रिय पूंजीपतियों का समूह कहीं न कहीं अपनी भूमिका निभा रहा होगा और यह यकीन करना कठिन है कि तख्ता पलट से उनके हितों पर कोई आंच आयेगी।
इन दोनों जगहों पर हो रहे जनआंदोलनों का अन्य देशों में विस्तार लेने की अभी कोई संभावना नहीं दिखती जैसा कि भारतीय प्रचार माध्यम बता रहे हैं। इसका कारण यह है कि पूंजीपतियों, अपराधियों तथा उनके पाले बुद्धिजीवी समूहों ने विश्व को इस तरह टुकड़ों में बांट दिया है कहीं भी सामान्य जनों में एकता संभव नहीं है-किसी राष्ट्रप्रमुख को हटाने के लिये आंदोलन चलाने के लिये कतई नहीं। ऐसे में वहां जो आंदोलन चल रहे हैं वहां व्यवस्थापक तो बदल सकते हैं पर व्यवस्था नहीं। इन आंदोलनों को विश्व में किसी नयी आशा का संकेत भी नहीं माना जा सकता क्योंकि कहीं न कहीं इन देशों में धर्म आधारित व्यवस्था रहनी है जो आंतकवाद का मार्ग प्रशस्त करती है। धार्मिक स्थलों पर अवकाश के दिन एकत्रित होकर लोगों के आंदोलन करने से तो यही निष्कर्ष निकलता है। आगे क्या होगा यह देखने वाली बात होगी।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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यही तो क्रिकेट है-हिन्दी व्यंग्य लेख


उफ! यह क्रिकेट है! इस समय क्रिकेट खेल को देखकर जो विवाद चल रहा है उसे देखते हुए दिल में बस यही बात आती है कि ‘उफ! यह क्रिकेट है!
इस खेल को देखते हुए अपनी जिंदगी के 25 साल बर्बाद कर दिये-शायद कुछ कम होंगे क्योंकि इसमें फिक्सिंग के आरोप समाचार पत्र पत्रिकाओं में छपने के बाद मन खट्टा हो गया था पर फिर भी कभी कभार देखते थे। इधर जब चार वर्ष पूर्व इंटरनेट का कनेक्शन लगाया तो फिर इससे छूटकारा पा लिया।
2006 के प्रारंभ में जब बीसीसीआई की टीम-तब तक हम इसे भारत की राष्ट्रीय टीम जैसा दर्जा देते हुए राष्ट्रप्रेम े जज्बे के साथ जुड़े रहते थे-विश्व कप खेलने जा रही थी तो सबसे पहला व्यंग्य इसी पर देव फोंट में लिखकर ब्लाग पर प्रकाशित किया था अलबता यूनिकोड में होने के कारण लोग उसे नहीं पढ़ नहीं पाये। शीर्षक उसका था ‘क्रिकेट में सब कुछ चलता है यार!’
टीम की हालत देखकर नहंी लग रहा था कि वह जीत पायेगी पर वह तो बंग्लादेश से भी हारकर लीग मैच से ही बाहर आ गयी। भारत के प्रचार माध्यम पूरी प्रतियोगिता में कमाने की तैयारी कर चुके थे पर उन पर पानी फिर गया। हालत यह हो गयी कि उसकी टीम के खिलाड़ियों द्वारा अभिनीत विज्ञापन दिखना ही बंद हो गये। जिन तीन खिलाड़ियों को महान माना जाता था वह खलनायक बन गये। उसी साल बीस ओवरीय विश्व कप में भारतीय टीम को नंबर एक बनवाया गया-अब जो हालत दिखते हैं उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है क्योंकि क्रिकेट के सबसे अधिक ग्राहक (प्रेमी कहना मजाक लगता है) भारत में ही हैं और यहां बाजार बचाने के लिये यही किया गया होगा। उस टीम में तीनों कथित महान खिलाड़ी नहीं थे पर वह बाजार के विज्ञापनों के नायक तो वही थे। एक बड़ी जीत मिल गयी आम लोग भूल गये। कहा जाता है कि आम लोगों की याद्दाश्त कम होती है और क्रिकेट कंपनी के प्रबंधकों ने इसका लाभ उठाया और अपने तीन कथित नायकों को वापसी दिलवाई। इनमें दो तो सन्यास ले गये पर वह अब उस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में खेलते हैं। अब पता चला है कि यह प्रतियोगिता तो ‘समाज सेवा’ के लिये आयोजित की जाती है। शुद्ध रूप से मनोरंजन कर पैसा बटोरने के धंधा और समाज सेवा वह भी क्रिकेट खेल में! हैरानी होती है यह सब देखकर!
आज इस बात का पछतावा होता है कि जितना समय क्रिकेट खेलने में बिताया उससे तो अच्छा था कि लिखने पढ़ने में लगाते। अब तो हालत यह है कि कोई भी क्रिकेट मैच नहीं देखते। इस विषय पर देशप्रेम जैसी हमारे मन में भी नहीं आती। हम मूर्खों की तरह क्रिकेट देखकर देशप्रेम जोड़े रहे और आज क्रिकेट की संस्थायें हमें समझा रही हैं कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। यह अलग बात है कि टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकाओं जब भारत का किसी दूसरे देश से मैच होता है तो इस बात का प्रयास करते हैं कि लोगों के अंदर देशप्रेम जागे पर सच यह है कि पुराने क्रिकेट प्रेमी अब इससे दूर हो चुके हैं। क्रिकेट कंपनियों की इसकी परवाह नहीं है वह अब क्लब स्तरीय प्रतियोगिता की आड़ में राष्ट्रनिरपेक्ष भाव के दर्शक ढूंढ रहे हैं। इसलिये अनेक जगह मुफ्त टिकटें तथा अन्य इनाम देने के नाम कुछ छिटपुट प्रतियोगितायें होने की बातें भी सामने आ रही है। बहुत कम लोग इस बात को समझ पायेंगे कि इसमें जितनी बड़ी राशि का खेल है वह कई अन्य खेलों का जन्म दाता है जिसमें राष्टप्रेम की जगह राष्ट्रनिरपेक्ष भाव उत्पन्न करना भी शामिल है।
कभी कभी हंसी आती है यह देखकर कि जिस क्रिकेट को खेल की तरह देखा वह खेलेत्तर गतिविधियों की वजह से सामने आ रहा है। यह क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में ऊपर क्या चल रहा है यह तो सभी देख रहे हैं पर जिस तरह आज के युवा राष्ट्रनिरपेक्ष भाव से इसे देख रहे हैं वह चिंता की बात है। दूसरी बात जो सबसे बड़ी परेशान करने वाली है वह यह कि इन मैचों पर सट्टे लगने के समाचार भी आते हैं और इस खेल में राष्ट्रनिरपेक्ष भाव पैदा करने वाले प्रचार माध्यम यही बताने से भी नहीं चूकते कि इसमें फिक्सिंग की संभावना है। सब होता रहे पर दाव लगाने वाले युवकों को बर्बाद होने से बचना चाहिेए। इसे मनोंरजन की तरह देखें पर दाव कतई न लगायें। राष्ट्रप्र्रेम न दिखायें तो राष्ट्रनिरपेक्ष भी न रहे। हम तो अब भी यही दोहराते हैं कि ‘क्रिकेट में सब चलता है यार।’

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क्रिकेट का बदला साइकिल में- व्यंग्य (cycle and cricket match-hindi vyangya)


भारत में आयोजित एक निजी क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता में पाकिस्तानियों को नहीं खरीदा गया। पाकिस्तान इसका बदला लेने की फिराक में था और उसने लिया भी, भारत की साइकिलिंग टीम को अपने यहां न बुलाकर। एक अखबार में कोने में छपी इस खबर ने दिल को हैरान कर दिया। न देशभक्ति के जज़्बात जागे न अपने साइकिल चलाने को लेकर अफसोस हुआ। भारत में इसकी कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी। अनेक्र लोगों को तो यह खबर ही समझ में नहीं आयी होगी कि साइकिल की भी प्रतियोगिता होती है और इसे ओलम्पिक में एक खेल का दर्जा प्राप्त है। मामला साइकिल से जुड़ा तो अनेक बुद्धिजीवियों को इस टिप्पणी करते हुए शर्म भी आयेगी यह सोचकर कि ‘साइकिल वालों का क्या पक्ष लेना?’
हमारी नज़र और दिमाग में यह खबर फंस गयी और अपने भाव व्यंग्य के रूप में ही अभिव्यक्त होने थे। सच तो यह है कि जिसे चिंतन और व्यंग्य में महारत हासिल करना है उसे साइकिल जरूर चलाना चाहिये। जहां तक हमारी जानकारी है हिन्दी में उन्हीं आधुनिक काल के लेखकों ने जोरदार लिखा जिन्होंने रिक्शा, पैदल या साइकिल की सवारी की। पाकिस्तान द्वारा साइकिलिंग टीम को रोकने पर ऐसी हंसी आयी जिसे हम खुद भी नहीं समझ पाये कि वह दुःख की थी या व्यंग्य से उपजी थी। ऐसे में तय किया इस पर शाम को लिखेंगे।
शाम को लिखने का विचार आया तो लगा कि पहले साइकिल चला कर आयें। इसलिये दस दिन बाद फिर साइकिल निकाली-ब्लाग लिखने के बाद साइकिल चलाना कम हो गयी है पर जारी फिर भी है। हमें पता था कि केवल कोई साइकिल चालक ही इस पर अच्छा सोच सकता है। जहां तक रही देशभक्ति की बात तो एक किस्सा हम लिख चुके हैं, उसका संक्षिप्त में वर्णन कर देते हैं।
एक बार स्कूटर पा जा रहे थे कि रेल की वजह से फाटक बंद हो गया। हम एक तरफ स्कूटर खड़ा कर उस पर ही विराजमान थे। उसी समय एक कार आकर रुकी। कार के पीछे एक गैस मैकनिक साइकिल पर आ रहा था। उसने बहुत कोशिश की पर वह कार को छू गयी।
वह गरीब मैकनिक चुपचाप हमारे आगे साइकिल खड़ी कर वहीं ठहर गया। उधर कार से एक सज्जन निकले-जो वस्त्रों से नेता लग रहे थे-और उस कार वाले को बुलाया। वह उनके पास गया और उन्होंने बड़े आराम से उसके गाल पर जोरदार थप्पड़ दिया। वह मासूम सहम गया। फिर वह उससे बोले-‘भाग साले यहां से!’
जब से स्कूटरों, कारों और मोटर साइकिलों का प्रचलन बढ़ा है साइकिल चालकों के लिये रास्ते पर चलना दुर्घटना से ज्यादा अपमान की आशंकाओं से ग्र्रसित रहता है। हमने भी अनेक बार झेला है। इसलिये जब साइकिल पर होते हैं तो हर तरह का अपमान सहने को तैयार रहते हैं। ऐसे में पाकिस्तान के द्वारा किया गया यह व्यवहार अपमाजनकर हमें अधिक दुःखदायी नहीं लगा। हमारे लिये उसके खिलाड़ियों को नहीं खिलाना साइकिल द्वारा कार को छूने जैसी घटना है और उसके व्यवहार थप्पड़ मारने जैसा तो नहीं चिकोटी काटने जैसा है। दरअसल दोस्ती और दुश्मनी अब दोनों देशों के खास वर्ग के लिये एक फैशन बन गया है। यह खास वर्ग अपने हिसाब से दोनों तरफ के आम इंसानों को कभी आपस में प्रेम रखना तो कभी दुश्मनी करने का संदेश देता है।
पाकिस्तान खिसिया गया है और खिसियाया गया आदमी कुछ भी कर सकता है। ऐसे में वह दूसरे को थप्पड़ मारते हुए अपना हाथ ही कटवा बैठता है। भारत के धनपतियों ने तो उससे गुलाम नहीं खरीदे थे पर उसने तो खिलाड़ियों को रोका है। याद रहे क्रिकेट को ओलम्पिक में खेल ही नहीं माना जाता। फिर इधर क्रिकेट और फिल्म तो संयुक्त व्यवसाय हो गये हैं। क्रिकेट खिलाड़ी रैम्प पर अभिनेत्रियों के साथ नाचते हैं तो फिल्म अभिनेत्रियां और अभिनेता उनकी टीमों के मालिक बन गये हैं। ऐसे ही एक अभिनेता मालिक ने पाकिस्तान से गुलाम न खरीदने पर अफसोस जताया! इस पर देश में एक सीमित वर्ग ने बेकार बावेला मचाया! दरअसल उसके प्रचार प्रबंधक चाहते यही थे इसलिये एक अभिनेत्री मालकिन से कहलवाया गया कि ‘चंद लोगों की धमकी के चलते ऐसा हुआ।’
जहां तक हमारी जानकारी पाकिस्तान के गुलामों को खरीदने को लेकर बयान से पहले कुछ कहा नहीं था। मगर अभिनेता मालिक ने जब बयान दिया तो उस पर हल्ला मचा। आखिर प्रचार प्रबंधकों ने ऐसा क्यों किया? अभिनेता की वह फिल्म पाकिस्तान के दर्शकों के बीच भी जानी थी। दूसरी बात यह कि उसमें उस जाति सूचक शब्द को शीर्षक में शामिल किया गया जो पाकिस्तानियों का सिर गर्व से ऊंचा कर देता है। सच तो यह है कि क्रिकेट के उस बयान को भारत में अनदेखा कर देना चाहिये था क्योंकि यह फिल्म के पाकिस्तानी प्रसारण को रोकने से बचाने के लिये दिया गया था। शायद भारत में कम ही लोग जानते हैं कि पाकिस्तान में अब भारतीय फिल्मों का प्रसारण सार्वजनिक रूप से किया जाने लगा है। कहीं पाकिस्तान के लोग चिढ़कर फिल्म का बहिष्कार न कर दें इसलिये उसे यहां रोकने का अभियान चलाया गया जिससे वहां के आम आदमी को यह अनुभव हो कि भारत के लोग इसे देखने पर चिढेंगे। इधर भारत में फिल्म रोकने के प्रयास को अभिव्यक्ति से जोड़ा गया।
होना तो यह चाहिये था कि पाकिस्तान उस अभिनेता की फिल्म को रोकता मगर विवाद इस तरह फंस गया कि उसके प्रसारण में वहां के प्रबंधकों ने अपना हित देखा। ऐसे में वह बदला कैसे ले! साइकिल वालों को रोक लो!
उसने सही पहचाना! दरअसल साइकिल वाले ऐसे सतही विवादों में नहीं पड़ते। यह कार, स्कूटर, और मोटर साइकिल वाले क्या लड़ेंगे! एक मील पैदल चलने में हंफनी आ जाती है। मामला दूसरा भी है। साइकिल वाले पेट्रोल के दुश्मन हैं यह अलग बात है कि भारत में अभी भी इस देश में कुछ लोग इस पर चल ही रहे हैं। पेट्रोल बेचने वाले देश पाकिस्तान के खैरख्वाह हैं। इस तरह उसने उनको भी बताया कि देखो कैसे भारत के साइकिल वालों को आने से रोका। कहीं यह प्रतियोगिता भारत के खिलाड़ी जीतते तो संभव है कि जिस तरह 1983 की विजय के बाद क्रिकेट का खेल यहां लेाकप्रिय हुआ था, अब कहीं साइकिल भी वहां लोकप्रिय न हो जाये।
एक टीवी पर विज्ञापन आता है। जिसमें स्वयं बच्चा साइकिल पंचर की दुकान खोलकर बाप को पेट्रोल बचाने का उपदेश देते हुए कहता है कि ‘इस तरह तो आपको साइकिल चलानी पड़ेगी, तब पंचर कौन जोड़ेगा।’
तब हंसी आती है क्योंकि पेट्रोल खत्म होने पर न बाप साइकिल चलाने वाला लगता है न लड़का ही कभी पंचर जोड़ने वाला बनते नज़र आता है। वैसे बड़े शहरों का पता नहीं पर छोटे शहरों में साइकिल पंचर जोड़ने वालों की कमी हमें नज़र नहीं आती। पेट्रोल कल खत्म हो जाता है, आज खत्म हो जाये, हमारी बला से! यह देश पानी से चल रहा है पेट्रोल से नहीं। यह भी विचित्र है कि जो पानी हमारे यहां बिखरा पड़ा है उसे बचाने का संदेश कोई नहीं देता बल्कि उस पेट्रोल को बचाने की बात है जिसका अपने देश में उत्पादन बहुत कम है।
हमें तो ऐसा लगता है कि जैसे जैसे साइकिल लोगों ने चलाना कम कर दिया वैसे ही उनकी विचार शक्ति भी क्षीण होती गयी है। कथित सभ्रांत वर्ग के युवाओं के लिये तो साइकिल अब एक अजूबा है। उनके पास समय पास करने के लिये पर्दे पर फिल्में देखना या क्रिकेट में आंखें झौंकने के अलावा अन्य कोई साधन नहीं है। जहां पहुंचना है फट से पहुंच जाते हैं। साइकिल पर जायें तो थोड़ा समय अधिक पास हो। हमारा तो यह अनुभव है कि घुटने घूमते हैं तो दिमाग भी घूमता है। उसमें नित नये विचार आते हैं। कल्पनाशक्ति तीव्र होती है। जब दिमाग विकार रहित होता है तो दूसरा उसका दोहन नहीं कर सकता। आजकल का बाजार जिन लोगों का दोहन कर रहा है उनके पास पैसा है और दिमाग के जड़ होने के कारण वह मनोरंजन का इंतजार करते रहते हैं। बाजार घर में उठाकर उठकार मनोरंजन फैंक रहा है। साइकिल पर चलते फिरते मनोरंजन करने वाले उसके दायरे से बाहर हैं। यही बाजार पूरे विश्व में फैल रहा है और पाकिस्तान ने भारत की साइकिलिंग टीम को रोककर साबित किया कि वह भी उसके दबाव में है। वह फिल्म अभिनेताओं और क्रिकेट खिलाड़ियों का आगमन तो रोक हीं नहीं सकता न!

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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इस ब्लाग ने पाठक संख्या एक लाख पार की-संपादकीय (vews of it blog-hindi editorial)


 आज यह ब्लाग एक लाख की संख्या पार गया।  देश में हिन्दी भाषी क्षेत्रों में इंटरनेट  कनेक्शनों की संख्या को देखते हुए किसी हिन्दी भाषी ब्लाग पर दो वर्ष में यह संख्या अधिक नहीं है, मगर दूसरा पक्ष यह है कि आम हिन्दी भाषी लोगों में इंटरनेट पर हिन्दी लिखे जाने का ज्ञान और उसके पढ़ने के संबंध में होने वाली तकनीकी जानकारी के अभाव के चलते यह संख्या ठीक ही कही जा सकती है।
आज भी ऐसे अनेक लोग हैं जिनको इस बात का पता नहीं है कि इंटरनेट पर हिन्दी भाषा में न केवल साहित्य बल्कि समसामयिक विषयों पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। फिर जिनको पढ़ने का शौक है उनको यह पता ही नहीं कि हिन्दी में लिखा सर्च इंजिन में कैसे ढूंढा जाये।  जिनको तकनीकी ज्ञान है उनमें फिर यह अहंकार है कि हिन्दी में तो सभी कचड़ा है असली तो अंग्रेजी में लिखा जा रहा है।  दूसरा यह है कि लोग इंटरनेट का उपयोग टीवी के विकल्प के रूप में कर रहे हैं, जिस दिन वह अखबार या किताब के  रूप में इसे पढ़ना चाहेंगे तब शायद हिन्दी का अंतर्जाल पर बोलबाला होगा।  वैसे बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि इस ब्लाग लेखक के विदेशों में अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद टूलों के माध्यम से पढ़ा जा रहा है। मतलब यह है कि अंतर्जाल पर आप किसी भाषा में न लिखकर वरन् अपने अंदर चल रही हलचल या भाव को अभिव्यक्त कर रहे हैं उसे अपनी भाषा में पढ़ने की पाठक को बहुत सुविधा है।  सच तो यह है कि जो लोग सोच रहे हैं कि हिन्दी में लिखने से कोई लाभ नहीं है वह संकीर्णता के भाव मन में लिये हुए हैं-यही ब्लाग एक रैकिंग बताने वाल वेबसाईट पर अंग्रेजी के ब्लागों पर बढ़त बनाये हुए है।  गूगल पेज रैंक में भी इसे चार का अंक प्राप्त है जो अंग्रेजी ब्लागों की तुलना में किसी तरह कम नहीं है। अधिकतर लोगों को यह लगता है कि  अंग्र्रेजी ब्लाग आगे हैं तो उनकी गलतफहमी है।  दूसरी बात यह है कि अंतर्जाल पर सामग्री की गुणवता तथा भावनात्मकता के साथ उसके व्यापक प्रभाव का बहुत महत्व है। अगर यह शर्तें कोई हिन्दी ब्लाग पूरी करता है तो उसे दुनियां भर में लोकप्रियता मिल सकती है।
आखिरी बात यह है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से सराबोर भारत के हिन्दी समाज में से ही भावनात्मक, आदर्श तथा अध्यात्मिक संदेश से भरी रचनायें आनी अपेक्षित हैं इसलिये हिन्दी को भविष्य में इंटरनेट पर एक आकर्षक रूप प्राप्त होगा इसकी पूरी संभावना है। इस अवसर पर पाठकों, ब्लाग लेखक मित्रों तथा तकनीकी रूप से इस ब्लाग को अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग कर रहे लोगों का आभार। भविष्य में भी ऐसे ही सहयोग की आशा है।

लेखक तथा संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर 
 
 

हास्य पैदा करने वाला शोक-हिन्दी व्यंग्य (hasya aur shok-hindi vyangya


आप कितने भी ज्ञानी ध्यानी क्यों न हों, एक समय ऐसा आता है जब आपको कहना भी पड़ता है कि ‘भगवान ही जानता है’। जब किसी विषय पर तर्क रखना आपकी शक्ति से बाहर हो जाये या आपको लगे कि तर्क देना ही बेकार है तब यह कहकर ही जान छुड़ाना पड़ती है कि ‘भगवान ही जानता है।’

अब कल कुछ लोगों ने छ दिसंबर पर काला दिवस मनाया। दरअसल यह किसी शहर में कोई विवादित ढांचा गिरने की याद में था। अब यह ढांचा कितना पुराना था और सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में इसका नाम क्या था, ऐसे प्रश्न विवादों में फंसे है और उनका निष्कर्ष निकालना हमारे बूते का नहीं है।
दरअसल इस तरह के सामूहिक विवाद खड़े इसलिये किये जाते हैं जिससे समाज के बुद्धिमान लोगों को उन पर बहस कर व्यस्त रखा जा सकें। इससे बाजार समाज में चल रही हेराफेरी पर उनका ध्यान न जाये। कभी कभी तो लगता है कि इस पूरे विश्व में धरती पर कोई एक ऐसा समूह है जो बाजार का अनेक तरह से प्रबंध करता है जिसमें लोगों को दिमागी रूप से व्यस्त रखने के लिये हादसे और समागम दोनों ही कराता है। इतना ही नहीं वह बहसें चलाने के लिये बकायदा प्रचार माध्यमों में भी अपने लोग सक्रिय रखता है। जब वह ढांचा गिरा था तब प्रकाशन से जुड़े प्रचार माध्यमों का बोलाबाला था और दृष्यव्य और श्रवण माध्यमों की उपस्थिति नगण्य थी । अब तो टीवी चैनल और एफ. एम. रेडियो भी जबरदस्त रूप से सक्रिय है। उनमें इस तरह की बहसे चल रही थीं जैसे कि कोई बड़ी घटना हुई हो।
अब तो पांच दिसंबर को ही यह अनुमान लग जाता है कि कल किसको सुनेंगे और देखेंगे। अखबारों में क्या पढ़ने को मिलेगा। उंगलियों पर गिनने लायक कुछ विद्वान हैं जो इस अवसर नये मेकअप के साथ दिखते हैं। विवादित ढांचा गिराने की घटना इस तरह 17 वर्ष तक प्रचारित हो सकती है यह अपने आप में आश्चर्य की बात है। बाजार और प्रचार का रिश्ता सभी जानते हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि ऐसे प्रचार का कोई आर्थिक लाभ न हो। उत्पादकों को अपनी चीजें बेचने के लिये विज्ञापन देने हैं। केवल विज्ञापन के नाम पर न तो कोई अखबार छप सकता है और न ही टीवी चैनल चल सकता है सो कोई कार्यक्रम होना चाहये। वह भी सनसनीखेज और जज़्बातों से भरा हुआ। इसके लिये विषय चाहिये। इसलिये कोई अज्ञात समूह शायद ऐसे विषयों की रचना करने के लिये सक्रिय रहता होगा कि बाजार और प्रचार दोनों का काम चले।
बहरहाल काला दिवस अधिक शोर के साथ मना। कुछ लोगों ने इसे शौर्य दिवस के रूप में भी मनाया पर उनकी संख्या अधिक नहीं थी। वैसे भी शौर्य दिवस मनाने जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि वह तो किसी नवीन निर्माण या उपलब्धि पर मनता है और ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता काला दिवस वालों का स्यापा बहुत देखने लायक था। हम इसका सामाजिक पक्ष देखें तो जिन समूहों को इस विवाद में घसीटा जाता है उनके सामान्य सदस्यों को अपनी दाल रोटी और शादी विवाह की फिक्र से ही फुरसत नहीं है पर वह अंततः एक उपभोक्ता है और उसका मनोरंजन कर उसका ध्यान भटकाना जरूरी है इसलिये बकायदा इस पर बहसें हुईं।
राजनीतिक लोगों ने क्या किया यह अलग विषय है पर समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों पर हिन्दी के लेखकों और चिंतकों को इस अवसर पर सुनकर हैरानी होती है। खासतौर से उन लेखको और चिंतकों की बातें सुनकर दिमाग में अनेक प्रश्न खड़े होते हैं जो साम्प्रदायिक एकता की बात करते हैं। उनकी बात पर गुस्सा कम हंसी आती है और अगर आप थोड़ा भी अध्यात्मिक ज्ञान रखते हैं तो केवल हंसिये। गुस्सा कर अपना खूना जलाना ठीक नहीं है।
वैसे ऐसे विकासवादी लेखक और चिंतक भारतीय अध्यात्मिक की एक छोटी पर संपूर्ण ज्ञान से युक्त ‘श्रीमद्भागवत गीता’ पढ़ें तो शायद स्यापा कभी न करें। कहने को तो भारतीय अध्यात्मिक ग्रथों से नारियों को दोयम दर्जे के बताने तथा जातिवाद से संबंधित सूत्र उठाकर यह बताते हैं कि भारतीय धर्म ही साम्प्रदायिक और नारी विरोधी है। जब भी अवसर मिलता है वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान पर वह उंगली उठाते है। हम उनसे यह आग्रह नहीं कर रहे कि वह ऐसा न करें क्योंकि फिर हम कहां से उनकी बातों का जवाब देते हुए अपनी बात कह पायेंगे। अलबत्ता उन्हें यह बताना चाहते हैं कि वह कभी कभी आत्ममंथन भी कर लिया करें।
पहली बात तो यह कि यह जन्मतिथि तथा पुण्यतिथि उसी पश्चिम की देन है जिसका वह विरोध करते हैं। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि न आत्मा पैदा होता न मरता है। यहां तक कि कुछ धार्मिक विद्वान तो श्राद्ध तक की परंपरा का भी विरोध करते हैं। अतः भारतीय अध्यात्मिक को प्राचीन मानकर अवहेलना तो की ही नहीं जा सकती। फिर यह विकासवादी तो हर प्रकार की रूढ़िवादिता का विरोध करते हैं कभी पुण्यतिथि तो कभी काला दिवस क्यों मनाते हैं?

सांप्रदायिक एकता लाने का तो उनका ढोंग तो उनके बयानों से ही सामने आ जाता है। उस विवादित ढांचे को दो संप्रदाय अपनी अपनी भाषा में सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में अलग अलग नाम से जानते हैं पर विकासवादियों ने उसका नाम क्या रखा? तय बात है कि भारतीय अध्यात्म से जुड़ा नाम तो वह रख ही नहीं सकते थे क्योंकि उसके विरोध का ही तो उनका रास्ता है। अपने आपको निष्पक्ष कहने वाले लोग एक तरफ साफ झुके हुए हैं और इसको लेकर उनका तर्क भी हास्यप्रद है कि वह अल्प संख्या वाले लोगों का पक्ष ले रहे है क्योंकि बहुसंख्या वालों ने आक्रामक कार्य किया है। एक मजे की बात यह है कि अधिकतर ऐसा करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के ही हैं।
इस संसार में जितने भी धर्म हैं उनके लोग किसी की मौत का गम कुछ दिन ही मनाते हैं। जितने भी धर्मो के आचार्य हैं वह मौत के कार्यक्रमों का विस्तार करने के पक्षधर नहीं होते। कोई एक मर जाता है तो उसका शोक एक ही जगह मनाया जाता है भले ही उसके सगे कितने भी हों। आप कभी यह नहीं सुनेंगे कि किसी की उठावनी या तेरहवीं अलग अलग जगह पर रखी जाती हो। कम से कम इतना तो तय है कि सभी धर्मों के आम लोग इतने तो समझदार हैं कि मौत का विस्तार नहीं करते। मगर उनको संचालित करने वाले यह लेखक और चिंतक देश और शहरों में हुए हादसों का विस्तार कर अपने अज्ञान का ही परिचय ही देते हैं। । इससे यह साफ लगता है कि उनका उद्देश्य केवल आत्मप्रचार होता है।
आखिरी बात ऐसे ही बुद्धिजीवियों के लिये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से दूर होकर लिखने में शान समझते हैं। उनको यह जानकर कष्ट होगा कि श्रीगीता में अदृश्य परमात्मा और आत्मा को ही अमर बताया गया है पर शेष सभी भौतिक वस्तुऐं नष्ट होती हैं। उनके लिये शोक कैसा? यह प्रथ्वी भी कभी नष्ट होगी तो सूर्य भी नहीं बचेगा। आज जहां रेगिस्तान था वहां कभी हरियाली थी और जहां आज जल है वहां कभी पत्थर था। यह ताजमहल, कुतुबमीनार, लालाकिला और इंडिया गेट सदियों तक बने रहेंगे पर हमेशा नहीं। यह प्रथवी करोड़ों साल से जीवन जी रही है और कोई नहीं जानता कि कितने कुतुबमीनार और ताज महल बने और बिखर गये। अरे, तुमने मोहनजो दड़ो का नाम सुना है कि नहीं। पता नहीं कितनी सभ्यतायें समय लील गया और आगे भी यही करेगा। अरे लोग तो नश्वर देह का इतना शोक रहीं करते आप लोग तो पत्थर के ढांचे का शोक ढो रहे हो। यह धरती करोड़ों साल से जीवन की सांसें ले रही है और पता नहीं सर्वशक्तिमान के नाम पर पता नहीं कितने दरबादर बने और ढह गये पर उसका नाम कभी नहीं टूटा। बाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि भगवान श्रीरामचंद्र जी के पहले भी अनेक राम हुए और आगे भी होंगे। मतलब यह कि राम का नाम तो आदमी के हृदय में हमेशा से था और रहेगा। उनके समकालीनों में परशुराम का नाम भी राम था पर फरसे के उपयोग के कारण उनको परशुराम कहा गया। भारत का आध्यात्मिक ज्ञान किसी की धरोहर नहीं है। लोग उसकी समय समय पर अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। जो ठीक है समाज उनको आत्मसात कर लेता है। यही कारण है कि शोक के कुछ समय बाद आदमी अपने काम पर लग जाता है। यह हर साल काला दिवस या बरसी मनाना आम आदमी को भी सहज नहीं ल्रगता। मुश्किल यह है कि उसकी अभिव्यक्ति को शब्दों का रूप देने के लिये कोई बुद्धिजीवी नहीं मिलता। जहां तक सहजयोगियों का प्रश्न है उनके लिये तो यह व्यंग्य का ही विषय होता है क्योंकि जब चिंतन अधिक गंभीर हो जाये तो दिमाग के लिये ऐसा होना स्वाभाविक ही है
सबसे बड़ी खुशी तो अपने देश के आम लोगों को देखकर होती है जो अब इस तरह के प्रचार पर अधिक ध्यान नहीं देते भले ही टीवी चैनल, अखबार और रेडियो कितना भी इस पर बहस कर लें। यह सभी समझ गये हैं कि देश, समाज, तथा अन्य ऐसे मुद्दों से उनका ध्यान हटाया जा रहा है जिनका हल करना किसी के बूते का नहीं है। यही कारण है कि लोग इससे परे होकर आपस में सौहार्द बनाये रखते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि इसी में ही उनका हित है। वैसे तो यह कथित बुद्धिजीवी जिन अशिक्षितों पर तरस खाते हैं वह इनसे अधिक समझदार है जो देह को नश्वर जानकर उस पर कुछ दिन शोक मनाकर चुप हो जाते हैं। ऐसे में उनसे यही कहना पड़ता है कि ‘भई, नश्वर निर्जीव वस्तु के लिये इतना शोक क्यों? वह भी 17 साल तक!
हां, चाहें तो कुछ लोग उनकी हमदर्दी जताने की अक्षुण्ण क्षमता की प्रशंसा भी कर सकते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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ब्लागर सरकार पर एसा वैसा मत लिख देना-हास्य व्यंग्य (hasya vyangya on blogger sarkar)


सर्दी की सुबह चाय पीने के बाद ब्लागर कोहरे में घर से बाहर निकला। उसका शरीर ठंड से कांप रहा था पर चाय पीने से जो पेट मं गैस बनती है उससे निपटने का ब्लागर के पास यही एक नुस्खा था कि वह बाहर टहल आये। वह थोड़ा दूर चला होगा तो उसे कालोनी के नोटिस बोर्ड पर एक पर्चा चिपका दिखाई दिया। वह उसे देखकर कर अनेदखा कर निकल जाता पर उसे लगा कि कहीं ब्लागर शब्द लिखा हुआ है। वह सोच में पड़ गया कि यह आखों का वहम होगा। भला यहां कौन जानता है ब्लागर के बारे में। फिर वह रुककर उस पर्चे के पास गया और उसे पढ़ने लगा। उस पर लिखा था कि

‘आज ब्लागर सरकार की दरबार पर विशेष कार्यक्रम होगा। सभी इंटरनेट धार्मिक बंधुओं से निवेदन है कि वहां पहुंचकर लाभ उठावें । इस अवसर पर ब्लागर सरकार की विशेष आरती होगी उसके बाद समस्त धार्मिक बंधुओं को ज्योतिष,विज्ञान,तकनीकी तथा वैवाहिक ब्लाग तथा वेबसाईटों की जानकारी दी जायेगी। ब्लागर सरकार की पूजा से अनेक लोगों ने इंटरनेट पर हिट पाये हैं और उनके प्रवचन भी इस अवसर पर आयोजित किये जायेंगे। स्थान-नीली छतरी, दो पुलों के बीच, घाटी के बगल में। निवेदक ब्लागर स्वामी।

ब्लागर का माथा ठनका। वह भागा हुआ घर लौटा। गृहस्वामिनी ने कहा-‘क्या बात है इतनी जल्दी लौट आये। क्या सर्दी सहन नहीं हुई। मैंने पहले ही कहा था कि बाहर मत जाओ।’
ब्लागर ने कहा-‘यह बात नहीं हैं। मैं साइकिल पर जा रहा हूं थोड़ा दूर जाना होगा। वह जो दूसरा ब्लागर है न! उसने शायद कोई ब्लागर सरकार का दरबार के नाम से कुछ बनाया है। इतने दिन से आया नहीं हैं। मैं समझ गया था कि वह कुछ न कुछ करता होगा।
गृहस्वामिनी ने कहा-‘वह क्यों ब्लागर सरकार का दरबार बनायेगा। उसके सामने तो वैसे ही सर्वशक्तिमान का पुराना बना बनाया दरबार है जहां उसकी महफिल जमती है।’
ब्लागर ने कहा-‘पर ठिकाना वही है। जरूर वह कुछ गड़बड़ कर रहा है। मैं जाता हूं। यह दरबार उसी का होना चाहिये। उसने कोई नया बखेड़ा खड़ा किया होगा। वह बहुत दिनों से उस दरबार में भक्तों के जमावड़े और चढ़ावा बढ़ाने की योजनायें बन रहा है।
गृहस्वामिनी ने कहा-‘तो फिर स्कूटर ले जाओ।’
ब्लागर अपने पुराने स्कूटर की तरफ झपटा तो गृहस्वामिनी ने कहा-‘अब इस पुराने स्कूटर को मत ले जाओ। नया स्कूटर ले जाओ। वैसे ही वहां भीड़ होगी और वह मजाक बनायेगा। उसके नये दरबार में अपनी भद्द मत पिटवाओ।
ब्लागर ने अपना नया स्कूटर लिया। रास्ते में उसका कालोनी का एक मित्र टिप्पणी स्वामी मिल गया। उसे जब ब्लागर ने अपनी बात बताई तो वह भी उसके साथ हो लिया। स्कूटर पर बैठते हुए वह बोला-‘वैसे तो वह तुम और वह दोनों फालतू हो पर क्योंकि स्कूटर तुम्हारा है और पेट्रोल भी तो साथ चलता हूं। मेरा घूमना फ्री में हो जायेगा इसलिये साथ चल रहा हूं।’
दोनों स्कूटर पर सवाल होकर साढ़े तीन मिनट में-टिप्पणी स्वामी की वहां पहुंचते ही दी गयी टिप्पणी के अनुसार-वहां पहुंच गये। ब्लागर का संदेह ठीक था। दूसरे ब्लागर ने अपने सामने बने पुराने दरबार पर पहले ही कब्जा कर रखा था और उसके आंगन में खाली पड़ी जमीन पर बना दिया था ‘ब्लागर सरकार का दरबार’।
ब्लागर अपना स्कूटर सीधे अंदर ले गया। वहां एक आदमी तौलिया पहने दांतुन कर रहा था। उसने सिर से ठोढ़ी तक टोपा तथा शरीर पर भारीभरकम पुराना स्वेटर पहनकर रखा था। मूंह में दातुन रखे ही उसने ब्लागर की तरफ उंगली उठाकर कहा-‘उधर रखो। इधर स्कूटर कहां रख रहे हो। यह ब्लागर सरकार का दरबार है।’
ब्लागर उसे घूर कर देख रहा था। टिप्पणी स्वामी ने उससे कहा-‘अरे, भाई यह ब्लागर सरकार का दरबार है और हमारे यह मित्र ब्लागर हैं। इस दरबार का जो स्वामी है वह इनका खास मित्र है। जाओ उसे बुलाओ। ब्लागरों का स्कूटर भी खास होता है।’

जानता हूं। जानता हूं। इसका नया स्कूटर तो क्या पुरानी साइकिल भी खास होती है।’ यह कहकर वह आदमी कुल्ला करने गया। इधर पहले ब्लागर ने टिप्पणी स्वामी से कहा-‘अरे, तुमने पहचाना नहीं यही है वह ब्लागर स्वामी। अब लौटते ही शाब्दिक आक्रमण करेगा।’
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘अरे, यार मैंने उसे एक बार ही देखा है। तुम तो अक्सर उससे मिलते हो।’

उधर से दूसरा ब्लागर लौटा और पहले ब्लागर से बोला-‘यह कौन कबूतर पकड़ लाये? जो मुझे बता रहा है कि तुम्हारा स्कूटर खास है?
पहले ब्लागर ने कहा-‘यह टिप्पणी स्वामी है। कभी कभार टिप्पणी देता है। हालांकि जबसे इसके मकान की उपरी मंजिल बनना शुरू हुई तब से इसकी पत्नी इसे इंटरनेट पर काम नहीं करने देती इसलिये वह भी अब बंद है। बहरहाल यह ब्लागर सरकार के दरबार का क्या चक्कर है।’

दूसरे ब्लागर ने कहा-‘चक्कर क्या है? अधार्मिक कहीं के। तुम अपनी टांग क्यों फंसाने आ गये? तुम तो अध्यात्मिक ज्ञान और धर्म को अलग अलग मानते हो न! क्या जानो धर्म के बारे में। चक्कर नहीं है। यह मेरीे श्रद्धा और आस्था है। उस दिन रात को सपने में ब्लागर सरकार के दर्शन हुए और उन्होंने बताया कि उनकी स्थापना करूं! आजकल इंटरनेट के समय लोग सर्वशक्तिमान के सभी नाम और स्वरूपों को पुराना समझते हैं इसलिये उन्होंने मुझे इस नये स्वरूप की स्थापना का संदेश दिया। वैसे तुम यहां निकल लो क्योंकि तुम अपने ब्लाग पर मूर्तिपूजा के विरुद्ध लिखते रहते हो जबकि चाहे जिस दरबार में मूंह उठाये पहुंच जाते हो। हमारा चरित्र तुम्हारी तरह दोहरा नहीं है।’
टिप्पणी स्वामी ने पहले ब्लागर से कहा-‘यार, यह तो तुम्हें काटने दौड़ रहा है। इसे मालुम नहीं कि तुम अध्यात्म के विषय पर लिखते हो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘कोई बात नहीं। इस बिचारे का दोष नहीं है। बहुत व्यस्त आदमी है इसलिये इसे पढ़ने का अवसर नहीं मिलता।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-वैसे तुम पढ़ने लायक लिखते क्या हो जिसे मैं पढ़ूं। वैसे इस नये स्कूटर का मुहूर्त करने यहां आये हो क्या? यह केवल खाली हाथ मुझे दिखाकर क्या दिखाना चाहते होे। वैसे मैंने तुम्हें उस दिन नये स्कूटर पर देख लिया था। अब बताओ यहां किसलिये आये हो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘तुम्हारे इस दरबार का पर्चा अपनी कालोनी में पढ़ा। मुझे लगा कि यह तुम्हारा कोई नया स्वांग है जिसे देखने चला आया।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘हां, तुमसे यही उम्मीद थी। तुम मेरी धार्मिक भावनाओं को आहत कर रहे हो। वैसे तुम चाहे कितना भी लिखो जब तक ब्लाग स्वामी की कृपा नहीं होगी तब तक तुम हिट नहीं हो सकते।’
पहला ब्लागर-‘ठीक है पहले तुम्हारे ब्लागर सरकार की मूर्ति अंदर चलकर देख लें।’
दूसरा ब्लागर बोला-नहीं। तुम जैसे नास्तिकों का अंदर प्रवेश वर्जित है।’
टिप्पणीकार बोला-‘मैं तो अस्तिक हूं। अंदर जाकर देख सकता हूं न!
दूसरा ब्लागर बोला-‘नहीं! तुम इसके साथी हो। नास्तिक का साथी भी नास्तिक ही होता है मेरे सामने तुम्हारा यह पाखंड नहीं चल सकता।’
पहला ब्लागर बोला-‘ठीक है। अंदर क्या जाना? यहीं से पूरी तस्वीर दिख रही है। यह पत्थर की है न!
दूसरा ब्लागर-‘नहीं प्लास्टिक की है। आर्डर देकर बनवाई है।
पहला ब्लागर बोला-‘यार, फिर तुम मुझसे नाराज क्यों होते हो? मैंने तो कभी प्लास्टिक की मूर्तियों की पूजा करने से तो रोका नहीं है। वैसे यह डिजाइन तो ठीक है।’
दूसरा ब्लागर-‘‘हां, डिजाइन पर अधिक पैसा खर्च हुआ है जो भक्तों के चंदे से मिले हैं। जैसे सपने में डिजाईन जैसी देखी थी वैसी ही बनवाई है।’
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘यह डिजाईन तो शायद मैंने किसी पत्रिका में देखा था। फिर पैसे किस पर खर्च हुए। लगता है किसी ने ठग लिया।’
दूसरा ब्लागर-टिप्पणी स्वामी! तुम अपनी बेतुकी टिप्पणियां करने बाज आओ। कहीं ब्लागर सरकार नाराज हो गये तो तुम्हारा इस दोस्त को एकाध टिप्पणी मिलती है उससे भी तरस जायेगा। मकान बनने के बाद भी तुम्हारी पत्नी तुम्हें इंटरनेट पर काम करने नहंी देगी।
दोनों मूर्तियां देखने लगे। कंप्युटर के उपर रखे कीबोर्ड पर अपने दोनों हाथों की उंगलियां रख ेएक चूहा बैठा मुस्कराने की मुस्कराने की मुद्रा में था। कंप्यूटर से जुड़ी हर सामग्री को वहां दिखाया गया था। कंप्यूटर की स्क्रीन पर लिखा था ब्लागर सरकार।

टिप्पणीकार ने धीरे से कहा-‘यह चूहा और कीबोर्ड कंप्यूटर के ऊपर क्यों रखा हुआ है।’
दूसरा ब्लागर चीखा-‘चूहा! अरे, यही तो हैं ब्लागर स्वामी! तुम कुछ तो सोचकर बोला करो। अपने इस दोस्त के चक्कर में तुम भी वैसी ही बेहूदा टिप्पणियां कर रहे हो जैसे यह पाठ लिखता है।’
पहला ब्लागर अभी प्लास्टिक की मूर्ति को घूर रहा था। फिर बोला-‘मैंने अपनी कालोनी में एक पहचान वाले के यहां ऐसी ही मूर्ति देखी थी। वह बता रहे थे कि उन्होंने यह कबाडी को बेची थी।’
दूसरा ब्लागर’-‘तुम क्या कहना चाहते हो कि मैंने यह कबाड़ी से खरीदी थी। अब तुम जाओ। यार, तुम मेरा समय खोटी कर रहे हो। अब यहां भक्तों के आने का समय हो गया है। यहां पर मैंने लोगों को ज्योतिष,चैट,विवाह तथा नौकरी में मदद देने के लिये असली कंप्यूटर लगा रखे हैं। वह भक्त आते होंगे।
पहले ब्लागर ने देखा कि टीन शेड से बने केबिन थे जहां कंप्यूटर रखे दिख रहे थे। दूसरा ब्लागर बोला-‘जैसे जैसे भक्तों के कमेंट आते जायेंगे वैसे वैसे दरबार का विकास होता जायेगा।’
ब्लागर और टिप्पणी स्वामी ने आश्चर्य से पूछा-‘कमेंट!
दूसरा ब्लागर बोला-‘कमेंट यानि चढ़ावा। अरे, इतने दिन से ब्लागिंग कर रहे हो तुम्हें मालुम नहीं कि कमेंट भी चढ़ावे की तरह होता है और प्रसाद भी! वैसे तुम क्या समझोगे? तुम्हारे पाठ पढ़ता कौन है? जो कमेंट लगायेगा।’
दूसरा ब्लागर मूर्ति तक गया और वहां से लड्ड्ओं की थाली ले आया। उस एक लड्ड् के दो भाग किये। एक भाग अपने मूंह में रख गया। फिर दूसरे भाग के दो भाग कर उसका एक भाग अपने मूंह में रख लिया और बाकी के दो भागों में एक पहले ब्लागर को दूसरा टिप्पणी स्वामी को देते हुए बोला-तुम दोनों तो हो नास्तिक। फिर भी यह थोड़ा थोड़ा प्रसाद खा लो। कल हमारे यहां एक लड़के को इंटरनेट पर चैट करते समय अपनी गर्लफ्रैंड का पहला ईमेल मिला तो उसने मन्नत पूरी होने पर यह लड्डूओं की कमेेंट चढ़ा गया।’
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘इसकी क्या जरूरत थी। हम तो ब्लागर सरकार के दर्शन कर वैसे ही बहुत खुश हो गये।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘चुपचाप खालो टिप्पणी स्वामी! वरना इससे भी जाओगे।
फिर उसने दूसरे ब्लागर से पूछा-‘वह तुम्हारा विशेष कार्यक्रम कब है?’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘परसों हो गया। क्या तुमने उस पर्चे में तारीख नहीं पढ़ी थी।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘यार, जोश में होश नहीं रहा। अच्छा हम दोनों चलते हैं।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘बहुत मेहरबानी! अब मैं ब्लाग सरकार की विशेष आरती करूंगा। ब्लाग सरकार की मेहरबानी हो तो अच्छा अच्छे कमेंट आयेंगे तो तुम दोनों की शक्लें देखने से जो बुरा टोटका हो गया उसको मिटाने के लिये यह जरूरी है। और हां! ब्लागर सरकार पर कुछ एैसा-वैसा मत लिख देना।’

पहला ब्लागर और टिप्पणी स्वामी स्कूटर से वापस लौटने लगे। टिप्पणी स्वामी ने पहले ब्लागर से पूछा-‘तुम इस पर कुछ लिखोगे।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘हां, हास्य व्यंग्य!
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘पर उसने मना किया था न! कहा था कि ब्लागर सरकार पर कुछ एैसा-वैसा मत लिख देना।’
पहले ब्लागर ने स्कूटर रोक दिया और बोला-‘यार, उसने हास्य व्यंग्य लिखने से मना तो नहीं किया था! चलो लौटकर फिर भी पूछ लेते हैं।’
टिप्पणीकार हैरान होकर उसकी तरफ देखने लगा। फिर पहले ब्लागर ने कहा-‘अगली बार पूछ लूंगा।
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यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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इस ब्लाग/पत्रिका ने पार की पाठक संख्या पचास हजार-संपादकीय


पाठ पठन/पाठक संख्या पचास हजार पार करने वाला ईपत्रिका इस लेखक का तीसरा ब्लाग/पत्रिका है। इसने हाल ही मैं गूगल के पैज रैंक में चौथा स्थान प्राप्त किया-जो कि इसकी बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसे लेखक के पचास हजार की पाठ पठन/पाठक संख्या पार करने वाले अब तीन ब्लाग हैं-
1. हिंदी पत्रिका
2.शब्द पत्रिका
3.ईपत्रिका
गूगल के पैज रैंक में चार अंक प्राप्त करने वाले अब चार ब्लाग/पत्रिका इस प्रकार हैं-
1. शब्दलेख सारथी
2. हिंदी पत्रिका
3. शब्दलेख पत्रिका
4. ईपत्रिका
आंकड़ों का खेल हमेशा ही दिलचस्प होता है। शब्द पत्रिका ने भी पचास हजार पाठ पठन/पाठक संख्या पार की है पर उसे गूगल की पैज रैंक में तीन अंक प्राप्त हैं जबकि शब्दलेख पत्रिका ने गूगल पैज रैंक में दस में से चार अंक प्राप्त किये हैं पर उसकी संख्या अभी पचास हजार से दूर है। गूगल का पैज रैंक किसी भी ब्लाग की लोकप्रियता को प्रमाणित करने वाला अकेला प्रमाणिक टूल है। हालांकि अन्य कुछ वेबसाईट भी ब्लाग की लोकप्रियता का आंकलन करती हैं पर अनेक ब्लाग लेखक मानते हैं कि उनके साफ्टवेयर अधिक प्रमाणिक नहीं है।
जब ब्लाग लेखन की यात्रा प्रारंभ की थी तब यह लेखक अकेला था पर अंतर्जाल पर बहुत सारे मित्र मिले और जो पहले ही मित्र थे वह अब पाठक भी हो गये हैं। वर्डप्रेस की पाठक संख्या पर वह हमेशा नजर लगाये रहते हैं और यह बताते हैं कि तुम्हारा वह ब्लाग आज पचास हजार पार सकता है। आज तो अच्छा संपादकीय लिखना। मना करने पर कहते हैं कि-नहीं, आजकल वह समय नहीं है कि चुपचाप बैठकर लिखते जाओ। लोगों को यह बताना जरूरी है कि हम भी है नंबर वन की दौड़ में।’
तब बरबस हंसी आती है। सच तो हम जानते हैं कि हिंदी में लेखन कभी आसान नहीं रहा। अपने काम की व्यसततओं से समय निकालकर लिखने में मजा आता है पर समस्या उसके प्रकाशन की आती है।
प्रसंगवश आज एक लेख पर नजर पड़ गयी। उस लेख में बताया गया कि अनेक लेखकों द्वारा अपना पैसा लगाकर पुस्तकें प्रकाशित कराने की प्रवृत्ति से अनेक प्रकाशक जमकर पैसा कमा रहे है।
उस लेख में कहा गया कि आज हिंदी के लेखक की वह छबि नहीं है कि वह रद्दी दिखता हो या गरीब हो। उस पाठ में लिखा गया था कि अनेक अप्रवासी भारतीय भारत आते हैं और अपने पैसे से किताब छपवाकर आकर्षक कार्यक्रम में उसका विमोचन करते हुए चले जाते हैं। उस पाठ के लेखक का मानना था कि ऐसी किताबों की विषय सामग्री कूड़ा हो यह जरूरी नहीं है। आखिर धनी मानी लोगों को भी लिखने का अधिकार है। उसने कुछ पुराने लेखकों के नाम भी गिनाये जो अमीर परिवारों से आये। इसलिये यह जरूरी नहीं कि हिंदी लेखक गरीब हो या जो गरीब है वही अच्छा लिख सकता है।
उस लेखक की बात ठीक थी पर कुछ सवाल हमारे सामने थे। जिन धनी मानी परिवारों में पैदा पुराने हिंदी लेखकों की उसने बात की उन्होंने अपने पैसे से किताब छपवाकर विमोचन नहीं किया। दूसरा यह है कि जो धनीमानी लोग किताबें छपवाते हैं उनमें होता क्या है? उनके जीवन के अनुभव जिनमें झूठ के अलावा कुछ भी नहीं होता। उनमें वह यह साबित करने का प्रयास किया जाता है वह वह धनी, उच्च पदस्थ और प्रसिद्ध होने के साथ संवेदनशील लेखक भी हैं। फिर सवाल यह नहीं है कि अमीर आदमी को लिखने या छपने का अधिकार नहीं हैं। हां, उनमें भी बहुत अच्छे लेखक हो सकते हैं। पर अनवरत चलने वाली बहस का निष्कर्ष यह है कि अपना पैसा खर्च किये बिना कोई लेखक प्रसिद्ध नहीं हो सकता। इसे हम यह भी कह सकते हैं कोई भी आदमी अपने लिखने के दम पर प्रसिद्ध नहीं हो सकता।
दूसरा यह है कि जो धनीमानी हैं उनका समय अधिकतर अपने व्यवसायों पर ही रहता है। समाज के उतार चढ़ाव में वह बहते हैं पर वह किस तरह आते हैं और इसके लिये कौनसी प्रवृत्तियां जिम्मेदार हैं यह देखने के पास उनके पास इतना समय नहीं होता जितना अल्प धनिक के पास रहता है। अल्प धनिक के पास ही वह समय होता है कि वह जमीन पर चलते हुए अनेक यथार्थ घटनाओं को एक स्वपनदृष्टा की तरह प्रस्तुत करता है। मुख्य बात यह है कि हिंदी में लिखने की बात आज वही सोच सकता है जिसके पास अपने रोजगार का कोई साधन हो। इससे रोटी पाने की कोई आशा नहीं कर सकता। हिंदी भाषी समाज की यह प्रवृत्ति है कि वह शुद्ध लेखक को पाल नहीं सकता।
ऐसे में यह अंतर्जाल ही एक आशा की किरण है। उसमें भी शर्त यही है कि इंटरनेट कनेक्शन व्यय करने की शक्ति होना चाहिए। इस लेखक ने लिखना तब शुरु किया था जब वह कमाने की सोच भी नहीं सकता था। जीवन संघर्ष के दौरान लिखते हुए कभी यह नहीं लगा कि उसक सहारे धन या प्रतिष्ठा मिलेगी। बस, एक आनंद आता है। इंटरनेट कनेक्शन लेते समय यह विचार भी था कि जब अवसर मिलेगा अपनी रचनायें प्रतिष्ठत समाचार पत्रों में भेज दिया जायेगा। कुछ समय बाद अध्ययन किया तो इस बात का आभास हो गया कि हर क्षेत्र में शिखर पर बैठे लोग कंप्यूटर पर काम करने से इसलिये कतराते हैं क्योंकि उनको लगता है कि यह काम टाईपिस्ट या लिपिक’ का है। इंटरनेट से भेजी गयी रचनाओं का भी वही हाल रहा जो डाक से भेजी गयी रचनाओं का था। ऐसे में स्वतंत्र लेखन के लिये ब्लाग मिला तो लिखना शुरु किया। इस लेखक की कवितायें, व्यंग्य, आलेख और कहानियां अच्छी है या बुरी इस स्वयं कभी नहीं सोचता। लिखते समय इस बात का ध्यान रहता है कि उसका सामाजिक सरोकार और संबंध जरूर होना चाहिये। अपनी कहानी लिखना आसान है पर वह तभी प्रभावी होती है जब उसकी प्रस्तुति ऐसी होना चाहिये कि वह सभी को अपनी लगे।
इधर इंटरनेट पर अच्छे लेखक भी आ गये हैं। उनका पढ़कर आनंद आता है और उनसे भी लिखने की प्रेरणा मिलती है। सच बात तो यह है कि कई ऐसे स्तरीय पाठ भी सामने आये जो व्यवसायिक पत्र पत्रिकाओं में नहीं दिखते। साहित्य, फिल्म, व्यापार, कला तथा प्रचार माध्यमों में एक परंपरागत ढांचा है जो परिवार, जाति, भाषा और धर्म में ही अपने रचनाकार तथा पात्र ढूंढता है। नयी व्यवस्था के आने की आशंका से यथास्थितिवादी खौफ खाते हैं और इसलिये वह ऐसी योजना बनाते हैं कि वह बदलाव आये ही नहीं और आये तो उसमें उसके मोहरे ही फिट हों। इसका पता तो पहले से ही था पर अंतर्जाल लिखते हुए इसका आभास अच्छी तरह होता जा रहा है।
एक ब्लाग मित्र-उसकी और इस लेखक की मित्रता ब्लाग लिखने के पहले से ही है- से उसी दिन बात हो रही थी। उसकी इंटरनेट पर अनेक ब्लाग लेखकों से चर्चा भी होती है। उसने कहा-’‘वह लोग तुम्हें पंसद करें या नहीं पर जानते सभी हैं। यह तय बात है। वह लोग कहते हैं कि ‘उसके कुछ ब्लाग बहुत अच्छे हैं और कुछ ऐसे ही हैं। मतलब यह कि तुम्हारी पहचान है और इसे कोई मिटा नहीं सकता। सबसे बड़ी बात यह है कि मुझे भी तुम्हारा वह ब्लाग पसंद हैं जो सभी की पसंद है।’
इशारा समझ में आया। मगर यह यात्रा बहुत लंबी है। कोई जल्दी नहीं है। आशा से अधिक जिज्ञासा है कि देखें यथास्थितिवादी किस तरह बदलाव लाने के लिये जूझ रहे लेखकों के सामने प्रतिरोध कर रहे हैं। जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र और परिवार के दायरों से मुक्त रहने का संदेश वाले छद्म लोग वास्तव में यथास्थितिवादी है और बदलाव लाने वाले तो केवल अपने कर्म में लिप्त रहते हैं। इसमें एक दृष्टा की तरह शामिल होकर देखने का अलग ही मजा है। खुद मैदान में उतरने का अर्थ है अपने लिये अधिक से अधिक विरोधी बनाना। ऐसे अवसरों पर लिखने का केवल एक ही मतलब होता है कि जिन लोगों की हिंदी ब्लाग का विश्लेषण करने वाले ब्लाग लेखकों के लिये अगर कुछ हो तो वह समझ लें। पूर्व में ऐसे ही आलेखों का प्रभाव क्या हुआ है यह इस लेखक ने देखा है। ब्लाग लेखक मित्रों से जो पाया है उनको ही कुछ लौटाया जा सकता है तो वह इसी तरह ताकि वह अगर इससे कोई लाभ उठा सकें तो ठीक, नहीं भी तो पाठकों में यह प्रेरणा तो आ ही सकती है कि अंतर्जाल पर हिंदी में लिखना उतना बुरा नहीं है जितना लगता है।
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1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

मनुस्मृति- कठिन जगह पर जाने से बचें


मनु महाराज कहते हैं कि
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अधितिष्ठेन केशांस्तु न भस्मास्थिक पालिकाः।
न कार्पासास्थि न तुषादीर्धमायुजिजीविषुः।।

हिंदी में भावार्थ- जिस व्यक्ति के हृदय में लंबी आयु पाने की इच्छा है उसे कभी बालों, भस्म, हड्डी, खप्पर, कपास की गुठली तथा भूसे के ढेर पर नहीं बैठना चाहिये।
अचक्षुविंषयं दुर्ग न प्रपद्येत कहिंचित्।
न विणुमूत्रमुदीक्षेत न बाहुभ्यां नदीं तरेत्।।

हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य कहा कहना है कि जो दुर्गम स्थान आंखों से देखने में कठिन हों वहां कतई नहीं जाना चाहिये। अपनी देह से बाहर निकले मलमूत्र को नहीं देखना चाहिये। किसी नदी को अपने बाहुबल से पार करने का प्रयास नहीं करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक बार पर्यटन के दौरान ऐसे स्थान सामने आते हैं जो बहुत दुर्गम होते हैं। उनको पेड़ पौद्यों ने घेर रखा होता है। वहां की हरियाली का सौंदर्य देखते ही बनता है पर अगर वह दुर्गम और अगम्य हैं तो वहां जाना खतरनाक हो सकता है। पिकनिक और पर्यटन के दौरान ऐसी अनेक दुर्घटनायें होती हैं जो लोगों के दुस्साहस और अज्ञान के कारण होती है। वैसे भी कहा जाता है कि आग, पान, और हवा से कभी नहीं खेलना चाहिये। आदमी कितना भी अच्छा तैराक क्यों न हो उसे नदी के पार जाने के लिये जल वाहनों का प्रयोग करना चाहिये। अनावश्यक दुस्साहस जीवन के लिये कष्टकारक होता है।
इन संदेशों का जीवन के संदर्भ में भी बहुत महत्व है। हमें अपने लक्ष्य और उद्देश्य हमेशा ही ऐसे तय करना चाहिये जिनकी प्राप्ति सहज हो। अपनी शक्ति और साधनों से अधिक महत्वाकांक्षी उद्देश्य और लक्ष्य संकट का कारण हो सकते हैं। इतना ही नहीं ऐसे स्थानों पर निवास करने का विचार भी नहीं करना चाहिये जहां के लोगों की प्रवृत्ति दुर्गम और क्रूर हो। इस विश्व में अनेक संस्कृतियां और समाज हैं। उनके परस्पर इतिहास, भूगोल, संस्कार, शिक्षा और ज्ञान की दृष्टि से ढेर सारे विरोधाभास हैं। यही विरोधाभास लोगों के आपसी संबंध को प्रगाढ़ बनाने में बाधक हैं। अतः जहां अपने समाज से विरोधी संस्कार वाला समाज हो वहां रहने का आशय यही है कि स्वयं ही दुर्गम स्थान पर जाना जो भारी कष्ट का कारण बन जाता है। जो व्यक्ति अपना समाज, शहर या अपना देश छोड़कर दूसरी जगह जाते हैं और वहां उनको सामाजिक और वैचारिक दृष्टि से आपसी मेलमिलाप वाले लोग नहीं मिलते तब उनके लिये जीवन दुरुह हो जाता है।
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संत कबीर के दोहे-ह्रदय साफ नहीं तो माला फेरने से क्या लाभ



माला फेरै कह भयो, हिंरदा गाठि न खोय।
गुरु चरनन चित राखिये, तो अमरापुर जोय।।

माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि।
मनवा तो दहु दिशि फिरै, यह तो सुमिरन मांहि।।

संत शिरोमण कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य हाथ में माला फेरते हुए जीभ से परमात्मा का नाम लेता है पर उसका मन दसों दिशाओं में भागता है। यह कोई भक्ति नहीं है।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि हाथ में पकड़कर माला फेरने से कोई लाभ तब तक नहीं होता जब नाम स्मरण हृदय से नहीं किया जाये। यह तभी संभव है जब तब गुरु के चरणों में सिर झुकाकर आदर के साथ उनकी सेवा की जाये तभी अज्ञान और दोष मिट सकते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सत्संग में जाना हो या मंदिर में दर्शन करने, जब तक हम परमात्मा का ध्यान हृदय में स्थित नहीं करेंगे तब तक कोई लाभ नहीं होता। देखा जाये तो भक्ति और ज्ञान साधना अपने लौकिक और परलौकिक जीवन को सुखमय करने के लिये करते हैं पर हृदय में केवल भौतिक विषयों का ही ध्यान बना रहता है। भले ही हाथ में माला फेरते हुए परमात्मा का नाम लें या सत्संग में जाकर संतों के प्रवचन सुने पर मन का भटकाव को केवल सांसरिक विषयों में ही बना रहता है। हम वही चिंतायें दुःख और अवसाद हमेशा मस्तिष्क बने रहते हैं जिनसे परेशान होकर हम अध्यात्मिक शांति के लिये उन स्थानों पर जाते हैं जहां सत्संग होता है। इसलिये जब कहीं प्रवचन सुनने जायें या मंदिर में दर्शन करें तब अपने सांसरिक विषयों का विचार मस्तिष्क में नहीं आने देना चाहिये।
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बाजार की आस्था या आस्था का बाजार-हास्य व्यंग्य


कहीं न्यूजीलैंड में इस बात को लेकर लोग नाराज है कि ‘हनुमान जी पर कंप्यूटर गेम बना दिया गया है और बच्चे उनकी गति को नियंत्रित करने का खेल कर रहे हैं।’ इससे उनकी धार्मिक आस्थायें आहत हो रही हैं। तमाम तरह के आक्षेप किये जा रहे हैं।
एक बात समझ में नहीं आती कि लोग अपने धार्मिक प्रतीकों को लेकर इस तरह के विवाद खड़ा कर आखिर स्वयं प्रचार में आना चाहते हैं या उनका उद्देश्य कंपनियों के उत्पाद का प्रचार करना होता है। कहीं किसी अभिनेत्री ने माता का मेकअप कर किसी रैंप में प्रस्तुति दी तो उस पर भी बवाल बचा दिया। टीवी चैनलों ने अपने यहां उसे दिखाया तो अखबारों ने भी इस समाचार का छापा। प्रचार किसे मिला? निश्चित रूप से अभिनेत्री को प्रचार मिला। अगर कथित धार्मिक आस्थावान ऐसा नहीं करते तो शायद उस अभिनेत्री का नाम कोई इस देश में नहीं सुन सकता था।
कई बार ऐसा हुआ कि अन्य धार्मिक विचाराधारा के लोगों ने अपने धार्मिक प्रतीकों के उपयोग पर बवाल मचाये हैं पर उनकी देखादेखी भारतीय आस्थाओं के मानने वाले भी ऐसा करने लगे तो समझ से परे है। कहने को भारतीय आस्थाओं के समर्थक कहते हैं कि ‘जब दूसरे लोगों के प्रतीकों पर कुछ ऐसा वैसा बनने पर बवाल मचता है तो हम क्यों खामोश रहे?’
यह तर्क समझ से परे है। इसका मतलब यह है कि भारतीय आस्थाओं को मानने वाले अपने अध्यात्मिक दर्शन का मतलब बिल्कुल नहीं समझते। नीति विशारद चाणक्य ने कहा है कि ‘हृदय में भक्ति हो तो पत्थर में भगवान हैं।’
यानि अगर हृदय में नहीं है तो वह पत्थर ही है जिसे दुनियां को दिखाने के लिये पूज लो-वैसे अधिकतर लोग अपने दिल को तसल्ली देने के लिये पत्थर की पूजा करते हैं कि हमने कर ली और हमारा काम पूरा हो गया। हमारा अध्यात्मिक दर्शन स्पष्ट कहता है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा का कोई रूप नहीं है। उसके स्वरूप की कल्पना दिमाग में स्थापित कर उसका स्मरण करने का संदेश है पर अंततः निराकार में जाने का आदेश भी है।
अब अगर कोई कंप्यूटर पर हनुमान जी पर गेम बनाता है या कोई अभिनेत्री माता का चेहरा बनाकर रैंप पर अपनी प्रस्तुति देती है तो उसमें क्या आप सर्वशक्तिमान परमात्मा का रूप देख रहे हैं जो ऐसी आपत्ति करते हैं। अनेक प्रकार की भौतिक चीजों से बना कंप्यूटर अगर खराब हो जाये तो उस कोई आकृति नहीं दिख सकती। मतलब यह आकृतियां तो पत्थर की मूर्ति से भी अधिक छलावा है। उसमें अपनी अपने आस्थाओं की मजाक उड़ते देखने का अहसास ही सबसे बड़ा अज्ञान है-बल्कि कहा जाये कि उसे मजाक कहकर हम अपनी भद्द पिटवा रहे हैं। आस्था या भक्ति एक भाव है जिनको भौतिक रूप से फुटबाल मैच की तरह नहीं खेला जाता कि वह हम पर गोल कर रहा है तो उसे हमें गोलकीपर बनकर रोकना होगा या दूसरे ने गोल कर दिया है तो वह हमें उसी तरह उतारना है।
फिर आजकल यह मुद्दे ज्यादा ही आ रहे हैं। जहां तक मजाक का सवाल है तो अनेक ऐसी हिंदी फिल्में बन चुकी हैं जिसमें भारतीय संस्कृति से जुड़े अनेक पात्रों पर व्यंग्यात्मक प्रस्तुति हो चुकी है और उस पर किसी ने आपत्ति नहीं की। अब इसका एक मतलब यह है कि हम अपने धार्मिक प्रतीकों का सम्मान करना दूसरों से सीख रहे हैं। यह एक भारी गलती है। होना तो यह चाहिये कि हम दूसरों को सिखायें कि इस तरह धार्मिक प्रतीकों पर जो कार्यक्रम बनते हैं या प्रस्तुतियां होती हैं उससे मूंह फेर कर उपेक्षासन करें क्योंकि सर्वशक्तिमान के स्वरूप का कोई आकार नहीं है। अगर हमारे हृदय में हमारी आस्था दृढ है तो उसका कोई मजाक उड़ा ही नहीं सकता। अगर धार्मिक भाव से आस्था दृढ़ नहीं होती और वह ऐसी जरा जरा सी बातों पर हिलने लगती हैं तो इसका मतलब यह है कि हमारे हृदय में स्वच्छता का अभाव है। धार्मिक आस्था अगर ज्ञान की जननी नहीं है तो फिर उसका कोई आधार नहीं है।

दूसरा मतलब यह है कि उस कंप्यूटर गेम को शायद भारतीय बाजार में प्रचार दिलाने के लिये यह एक तरीका है। इससे यह संदेह होता है कि विरोध करने वाले अपनी आस्था का दिखावा कर रहे हैं। अब अगर कंप्यूटर पर कोई आकृति हनुमान जी की तरह बनी है तो हनुमान जी मान लेने का मतलब यह है कि वह आपके आंखों में ही बसते हैं, दिल में नहीं। दिल में बसे होते तो चाहे कितने प्रकार की आकृतियां बनाओ आपको वह स्वीकार्य नहीं हो सकती। बात इससे भी आगे कि अगर वह आपके इष्ट है तो आप भी उनके गेम को खेलिए-इससे वह रुष्ट नहीं हो जायेंगे। बस जरूरत है कि वह गेम भी आस्था और विश्वास से खेलें। अगर अपने इष्ट के स्वरूप में हमारी अटूट श्रद्धा है तो वह कभी इस तरह खेलने में नाराज नहीं होंगे और फिर हमसे परे भी कितना होंगे? जो पास होता है उसी के साथ तो खेला जाता है न!
वाल्मीकी ऋषि का नाम तो सभी ने सुना होगा। ‘मरा’ ‘मरा’ कहते हुए राम को ऐसा पा गये कि उन पर इतना बड़ा ग्रंथ रच डाला कि उनके समकक्ष हो गये। ऐसा कौन है जो भगवान श्रीराम को जाने पर वाल्मीकि को भूल जाये? आशय यह है कि आस्था और भक्ति दिखावे की चीज नहीं होती और न भौतिक रूप से इस जमीन पर बसती है कि वह टूटें और बिखरें।
इस तरह जिनकी आस्था हिलती है या टूटती है उनके दिल लगता है कांच के कप की तरह ही होती है। एक कप टूट गया दूसरा ले आओ। एक इष्ट की मूर्ति से बात नहीं बनती दूसरे के पास जाओ। उसके बाद भी बात नहीं बनती तो किसी सिद्ध के पास जाओ। इससे भी बात न बने तो अपनी भक्ति का शोर मचाओ ताकि लोग देखें कि भक्त परेशान है उसकी मदद करो। एक तरह से प्रचार की भूख के अलावा ऐसी घटनायें कुछ नहीं है। उनके लिये आस्था का हिलने का मतलब है सनसनी फैलाने का अवसर मिलना।
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बंदर, चिंपौजी और इंसान का नैतिक आधार-व्यंग्य


अब यह भला क्या बात हुई कि बंदर तथा चिंपौजी में भी नैतिकता होती है। कुछ पश्चिमी विशेषज्ञों ने अपने प्रयोग से बात यह बात अब जाकर जानी है कि बंदर और चिंपौजी में भी वैसे ही नैतिक भावना होती है जैसे कि इंसानों (?) में होती है। बंदर और चिपौजी भी अपने साथ किये अच्छे व्यवहार की स्मृतियां संजोये रखते हैं और समय आने पर उसे निभाते है। वैसे देखा जाये तो बंदरों को हमारे देश में अब भी पशुओं की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। अनेक विशेषज्ञ तो बंदरों और चिंपौजी को मनुष्य की श्रेणी का ही मानते हैं।
पश्चिमी जीव विज्ञान के अनुसार आदमी भी पहले बंदर ही था पर कालांतर में वह मनुष्य बनता गया। आज भी जब बंदर या चिंपौजी को देखते हैं तो उनकी अदायें मनुष्य से ही मेल खाती हैं सिवाय बोलने के। जो बातें पश्चिमी विशेषज्ञ अब कह रहे हैं भारत में पहले से ही उसे जाना जाता है। क्योंकि यहां अपने प्राचीनतम ज्ञान और लोककथाओं से लोग अनभिज्ञ हैं इसलिये यहां अब पश्चिम के अनुसंधानों और प्रयोगों की जानकारी नये रूप में दिखाई देती हैं। सच बात तो यह है कि पश्चिमी ज्ञान एक तरह से नयी बोतल में पुरानी शराब की तरह है। हमारे यहां लोककथाओं में अनेक कहानियों में बंदरों को पात्र बनाकर बहुत पहले ही सुनाया जाता है। इतना ही नहीं इस देश मेें ऐसे अनेक लोग है जो बंदरों के निकट संपर्क में रहते हैं और वह उन्हें मनुष्यों से कम नहीं मानते।
वैसे अपने यहां रामायण कालीन समय में वानर जाति की चर्चा यहां बच्चे बच्चे की जुबान पर रही है। कहा जाता है कि बस्तर के आसपास उस समय ऐसे मनुष्य रहते थे जिनकी जाति का नाम वानर था। बहरहाल उस समय राक्षसों के विरुद्ध युद्ध में वानर जाति के योगदान की वजह से बंदरों को लेकर अनेक लोक कथायें और कहानियां प्रचलन में रहीं हैं। कुल मिलाकर उनको मनुष्य जातीय प्राणी ही माना जाता है।

जहां तक उनमें मनुष्यों जैसी नैतिक भावना होने का प्रश्न है उसमें संदेह नहीं है पर अब वह मनुष्यों में बची है कि नहीं कोई बात नहीं जानता। सच बात तो यह है कि मनुष्य को भ्रमित कर एक तरह से गुलाम बना लिया गया है। कहते हैं कि मनुष्य अब बंदरों जैसा इसलिये नहीं दिखता क्योंकि उसने धीरे धीरे कपड़े पहनना शुरू किया-नैतिकता का पहला पाठ भी यही है-और उससे उसके शरीर के बाल और पूंछ धीरे धीरे लुप्त हो गये। मतलब उसने जैसे सांसरिक नैतिकता की तरफ कदम बढ़ाये वह अपनी मूल नैतिकता को भूलता गया। जैसे शर्म आंखों में होती है, धूंघट में नहीं। प्रेंम तो स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है उसका प्रदर्शन करना संभव नहीं है। मगर जिन लोगों ने नैतिकता का पाठ पढ़ाया उन्होंने स्त्रियों पर बंधन लगाये तो पुरुषों को अपना गुलाम बनाने के लिये उसे स्वर्ग और दैहिक प्रेम का मार्ग बताया। बंदर किसी के गुलाम नहीं होते। वह आजादी से घूमते हैं। उनको किसी शिक्षा की आवश्कता नहीं होती। जहां तब परिवार का प्रश्न है कि बंदर भी परिवार के साथ ही विचरण करते हैं। उनकी पत्नियां अपने बच्चों को संभालने में कोई कम मेहनत नहीं करती। बस इतना कि वह किसी के गुलाम नहीं है।
मनुष्यों में भी कुछ मनुष्य ऐसे रहे हैं जिन्होंने नैतिकता स्थापित करने का ठेका लिया है। मनुष्यों में उनको उस्ताद ही कहा जाता है। यह उस्ताद लोग तमाम तरह की पुस्तकों को अपने साथ संभाल कर रखते हैंं और बताते हैं कि अमुक विचारधारा प्रेम और नैतिकता का उपदेश देती है। मनुष्य सिहर का हां हां करता जाता है। न करे तो साथ वाले टोकते हैं कि तू आस्तिक है कि नास्तिक! उस्तादों ने अपने आसपास झुंड बनाकर रखे हैं और कोई एक आदमी उनसे अलग होकर नहीं चल सकता। भक्ति और सत्संग पर किसी उस्ताद के दर पर जाना तथा कर्मकांड करना धार्मिक होने का प्रमाण माना जाता है। आदमी पूरी जिंदगी शादी,गमी,और प्रतिष्ठा के लिये अन्य कार्यक्रमों में अपना समय नष्ट कर देता है। बंदर इससे दूर हैं। बंदरों में शादी विवाह की परंपरा नहीं लगती। लिविंग टुगेदर के आधार पर उनके संबंध जीवन भर चलते है।

आदमी जैसे जैसे नैतिक होता जा रहा है बंदरों के जंगल खाता जा रहा है। जहां कहीं बंदरों का झुंड रहता था वहां अब आदमी के महल खड़े हैं। आदमी सहअस्तित्व के सिद्धांत को भूल गया है। इस सृष्टि के अन्य प्राणियोें की रक्षा करने का अपना दायित्व भूलकर वह उनको नष्ट करने लगा है। धर्म, जाति,भाषा और क्षेत्र के नाम पहले इन उस्तादों ने समाज को बांटा फिर एकता के नारे लगाते हैं-सभी उस्ताद अपनी पुस्तकें बगल में दबाये हुए कहते हैं कि ‘हमारी पुस्तक तो सभी इंसानों को एकसाथ रहना सिखाती है।’
इसका मतलब यह है कि उस्तादों के चंगुल में फंसकर बंदर पहले आदमी हो गया अब उसे बंदर बनने को कहा जा रहा है। बंदर अपने समाज के साथ बिना किसी पुस्तक पढ़े ही एकता बनाये रखते हैं।
हमें याद आ रहा एक किस्सा। हम कोटा गये थे। मंगलवार होने के कारण चंबल गार्डन के पास ही बने एक हनुमान जी के मंदिर गये। वहां प्रसाद चढ़ाने के बाद हम उसे हाथ में लेकर परिक्रमा करने लगे। वही एक बंदर आया और हमारे हाथ से प्रसाद ऐसे ले गया जैसे उसके लिये ही प्रसाद लाये थे। वह प्रसाद लेकर गया और बड़े आराम से थोड़ी दूर बैठे अपने साथियों के साथ उसे बांटकर खाने लगा। यह काम लगता तो इंसानी लुटेरों जैसा था पर फिर भी हमें उसकी अदा बहुत भायी। पांच रुपये के प्रसाद से अधिक उसने हमसे क्या लिया था? फिर उसने वह कर्तव्य पूरा किया जो हमें करना चाहिये था। उनको प्रसाद खाते देखकर हमें बहुत आनंद आया। सच बात तो यह है कि मनुष्यों से भी कोई श्रेष्ठ प्राणी है उस दिन हमने माना था।

बंदर और आदमी में फर्क है पर नैतिकता का सवाल थोड़ा पेचीदा हैं। बंदर न तो किसी उस्ताद की बात मानते हैं न वह पढ़ते हैं। मंदिरों आदि पर वह प्रसाद की लालच में आते हैं। फिर भी उनमें नैतिकता पूरी तरह से है पर आदमी को संचय की प्रवृति और स्वर्ग में जाकर स्थान बनाने के लिये कर्मकांडों की लिप्तता ने सब भूल जाता है। आपने सुना ही होगा ‘दुनियां में कोई धर्म नहीं सिखाता झगड़ा करना‘, या सभी धर्म प्रेम करना सिखाते हैं या फिर सभी नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं। सीधी सी बात है कि आदमी में कमी है इसलिये उसे नैतिकता सिखानी पढ़ती है। बंदरों में भी कुछ उस्ताद होते हैं पर वह अपनी जाति वालों को एैसी वैसी शिक्षा नहीं देते शायद कहीं वह इंसान न बना जाये। जो बंदर बचे हैं उनके उस्ताद शायद पहले ही इंसान बने जीवों की हालत जानते हैं इसलिये ही यह तय कर चुके हैं कि मिट जायेंगे पर इंसान नहीं बनेंगे। जो इंसान बन गये हैं वह भी भला क्या जाने? सदियों पहले ही उनके पूर्वजों ने इंसान बनने की राह पकड़ी। इसलिये अब तो सभी भूल गये है कि बंदर ही हमारे पूर्वज थे। आशय यह है कि जो आज भी बंदर हैं वह मूल रूप से ही नैतिक मार्ग पर चलने वाले हैं इसलिये शादी पर नाचते नहीं हैं और गमी पर रोने का स्वांग नहीं करते। अपने प्राकृतिक आशियानों में रहते हैं इसलिये मकान बनाने के लिये लोन लेने की न तो उनको आवश्यकता होती है न दूसरे दंदफंद करने की। इसलिये उनमें नैतिकता अधिक ही होगी कम नहीं । हां, इसकी जानकारी नहीं मिलती कि आदमी ने धर्म बदलकर इंसान बनना कब और कैसे शुरु किया जो उसे अब नैतिकता,प्रेम,अहिंसा और सदाचार की शिक्षा के लिये पुस्तकों पर निर्भर रहना पड़ता है।
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डुप्लीकेट खाने के आतंक के साये में-हास्य व्यंग्य


देश में आतंकवाद को लेकर तमाम तरह की चर्चा चल रही है। अनेक तरह की संस्थायें शपथ लेने के लिये कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। अनेक जगह छात्र और शिक्षक सामूहिक रूप से शपथ ले रहे हैं तो कई कलाकार और लेखक भी इसी तरह ही योगदान कर रहे हैं। सवाल यह है कि क्या आतंकवाद से आशय केवल बम रखकर या बंदूक चलाकर सामूहिक हिंसा करने तक ही सीमित है? टीवी पर ऐसे डरावने समाचार आते हैं भले ही वह उसमें आंतक जैसा कोई रंग नहीं देखते पर आदमी के दिमाग में वैसे ही खौफ छा जाता है जैसे कि कहीं बम या बंदूक की घटना से होता है। उस समय बम और बंदूक की हिंसा का परिदृश्य भी फीका नजर आता है।
हुआ यूं कि उस दिन कविराज बहुत सहमे हुए से एक डाक्टर के पास जा रहे थे। अपने सिर पर उन्होंने टोपी पहन ली और मुंह में नाक तक रुमाल बांध लिया। हुआ यूं कि उनकी कुछ कवितायें किसी पत्रिका में छपी थीं। जो संभवतः फ्लाप हो गयी क्योंकि जिन लोगों ने उसे पढ़ा वह उसके कविता के रचयिता कवि से उनका अर्थ पूछने के लिये ढूंढ रहे थे। पत्रिका कोई मशहूर नहीं थी इसलिये कुछ लोगों को फ्री में भी भेजी जाती थी। उनमें कविराज की कवितायें कई लोगों को समझ में नही आयी और फिर वह उनसे वैसे ही असंतुष्ट थे और अब बेतुकी कविता ने उनका दिमाग खराब कर दिया था। वह कवि से वाक्युद्ध करने का अवसर ढूंढ रहे थे। कविराज उस दिन घर से इलाज के लिये यह सोचकर ही निकले कि कहीं किसी से सामना न हो जाये और इसलिये अपना चेहरा छिपा लिया था।

मन में भगवान का नाम लेते हुए वह आगे बढ़ते जा रहे थे डाक्टर का अस्पताल कुछ ही कदम की दूरी पर था तब उन्होंने चैन की सांस ली कि चल अब अपनी मंजिल तक आ गये। पर यह क्या? डाक्टर के अस्पताल से आलोचक महाराज निकल रहे थे। वह उनके घोर विरोधी थै। वैसे उन्होंने कविराज की कविताओं पर कभी कोई आलोचना नहीं लिखी थी क्योंकि वह उनको थर्ड क्लास का कवि मानते थे। दोनों एक ही बाजार में रहते थे इसलिये जब दोनेां का जब भी आमना सामना होता तब बहस हो जाती थी।

दोनों की आंखें चार हुईं। आलोचक महाराज शायद कविराज को नहीं पहचान पाते पर चूंकि वह घूर कर देख रहे थे तो पहचान लिये गये। आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम कविराज हो न! हां, पहचान लिया। देख ली तुम्हारी सूरत अब तो वापस डाक्टर के पास जाता हूं कि कोई ऐसी गोली दे जिससे किसी नापसंद आदमी की शक्ल देखने पर जो तनाव होता है वह कम हो जाये।’

कविराज के लिये यह मुलाकात हादसे से कम नहीं थी। अपनी छपी कविताओं की चर्चा न हो इसलिये कविराज ने सहमते हुए कहा-‘क्या यार, बीमारी में भी तुम बाज नहीं आते।
आलोचक महाराज ने कहा-‘हां, यही तो मैं कह राह हूं। मैं जुकाम की वजह से परेशान हूं और तुम अपना थोबड़ा सामने लेकर आ गये। शर्म नहीं आती। यहां क्यों आये हो?’
कविराज ने बड़ी धीमी आवाज में कहा-‘ डाक्टर के पास कोई आदमी क्यों जाता हैं? यकीनन कोई कविता सुनाने तो जाता नहीं।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘मगर हुआ क्या? बुखार,जुकाम,खांसी या सिरदर्द? कोई बडी बीमार तो हुई नहीं हुई क्योंकि खुद ही चलकर आये हो।’
कविराज ने कहा-‘तुम्हें क्यों अपनी बीमारी बताऊं? तुम मेरी कविता पर तो आलोचना लिखोगे नहीं पर बीमारी पर कुछ ऐसा वैसा लिखकर मजाक उड़ाओगे।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘मैं तुम्हारी तरह नहीं हूं जो इस बीमारी में भी मेरे को शक्ल दिखाने आ गये। बताने में क्या जाता है? हो सकता है कि मैं इससे कोई अच्छा डाक्टर बता दूं। यह डाक्टर अपना दोस्त है पर इतना जानकार नहीं है।’
कविराज ने कहा-‘बीमारी तो नहीं है पर हो सकती है। मैं सावधानी के तौर पर दवाई लेने आया हूं।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘ कर दी अपने बेतुकी कविता जैसी बात। मैं तो सोचता था कि बेतुकी कविता ही लिखते हो पर तुम बेतुके ढंग से बीमार भी होते हो यह पहली बात पता लगा।’

कविराज ने कहा-‘‘ बात यह हुई कि आज मैंने घर पर देशी घी से बना खाना बना था। पत्नी के मायके वाले आये तो उसने जमकर देशी धी का उपयोग किया। जब टीवी देख रहे थे तो उसमें ‘देशी धी के जहरीले होने के संबंध में कार्यक्रम आ रहा था। पता लगा कि उसमें तो साबुन में डाले जाने वाला तेल भी डाला जाता है। वह बहुत जहरीला होता है। उसमें उस ब्रांड का नाम भी था जिसका इस्तेमाल हमारे घर पर होता है। यार, मेरे मन में तो आतंक छा गया। मैंने सोचा कि बाकी लोग तो मेरा मजाक उड़ायेंगे क्योंकि वह तो उस खबर को देखना ही नहीं चाहते थे। इसलिये अकेला ही चला आया।’

आलोचक महाराज ने कहा-‘डरपोक कहीं के! तुम्हारा चेहरा तो ऐसा लग रहा है कि जैसे कि गोली खाकर आये हो। अरे, यार घी खाया है तो अब मत खाना! ऐसा कोई धी नहीं है जो गोली या बम की तरह एक साथ चित कर दे।’

कविराज ने कहा-‘पर आदमी टीन लेकर रखेगा तो यह जहर धीरे धीरे अपने पेट में जाकर अपना काम तो करेगा न! गोली या बम की मार तो दिखती है पर इसकी कौन देखता है। यह जहर कितनों को मार रहा है कौन देख रहा है? सच तो यह है कि मुझे इसका भी आतंक कम दिखाई नहीं देता। यार उस दिन एक मित्र बता रहा था कि हर खाने वाली चीज की डुप्लीकेट बन सकती है। तब से लेकर मैं तो आतंकित रहता हूं। जो चीज भी खाता हूं उसके डुप्लीकेट होने का डर लगता है।’

आलोचक महाराज ने कहा-‘तो क्या डर का इलाज कराने आये हो?’
कविराज ने कहा -‘‘नहीं डाक्टर से ऐसी गोली लिखवाने आया हूं जो रोज ऐसा जहर निकाल सके। जिंदा रहने के लिये खाना तो जरूरी है पर असली या नकली है इसका पता लगता नहीं है इसलिये कोई ऐसी गोली मिल जाये तो कुछ सहारा हो जायेगा। गोली से भले ही रोज का जहर नहीं निकले पर अपने को तसल्ली तो हो जायेगी कि हमने गोली ली है कुछ नहीं होगा। नकली खाने के आतंक में तो नहीं जिंदा रहना पड़ेगा।

दोनों की बात उनका डाक्टर मित्र सुन रहा था और वह बाहर आया और कविराज से बोला-‘इस नकली खाने के आतंक से बचने का कोई इलाज नहीं है। वह जो बीमारियां पैदा करता है उनका इलाज तो संभव है पर उसके आतंक से बचने का कोई इलाज नहीं है। वह तो जब बीमारी सामने आये तभी मेरे पास आना।’

कविराज का मूंह उतर गया। वह बोले-ठीक है यार, कम से कम यह तसल्ली तो हो गयी कि ऐसी कोई गोली नहीं है जो नकली खाने के आतंक का इलाज कर सके। तसल्ली हो गयी वरना सोचा कि कहीं हम पीछे न रह जायें इसलिये चला आया।’

कविराज वापस जाने लगे तो आलोचक महाराज ने कहा-‘इस पर कोई कविता मत लिख देना क्योंकि मैं तब लिख दूंगा कि तुम कितने डरपोक हो। कितनी बेतुकी बात की है‘नकली खाने का आतंक’। कहीं लिख मत देना वरना लोग हंसेंगे और मैं तो तुम्हें अपना दोसत कहना ही बंद कर दूंगा। मेरी सलाह है कि तुम टीवी कम देखा करो क्योंकि तुम अब आतंक के कई चेहरे बना डालोगे जैसे चैनल वाले रोज बनाते हैं।’
कविराज ने कहा-‘‘यार, मैं तो नकली खाने के आतंक ने इतना डरा दिया है कि इस पर कविता लिखने के नाम से ही मेरे होश फाख्ता हो जाते हैं।
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व्ही.आई.पी. कहलाने की चाहत-हास्य व्यंग्य


वैसे तो अपने देख के लोगों की यह पूरानी आदत है कि वह हर तरफ अपने को श्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं और अब एक नयी आदत और पाल ली है। वह यह कि कहीं भी अपने को व्ही.आई.पी साबित करो। भले ही झूठमूठ पर यह बताओ कि हमें अमुक स्थान पर हमें व्ही.आई.पी. ट्रीटमेंट मिला।
अपने जीवन के सफर में हमें प्रसिद्धि पाने का मोह तो कभी नहीं रहा पर कुछ हमारे काम ऐसे रहे हैं कि वह बदनाम जरूर करा देते हैं और तब लगता है कि यह मिली प्रसिद्धि के कारण हो रहा है। पढ़ने का मजा खूब लिया तो लिखने के मजे लेने का ख्याल भी आया। लिखते रहे। जो मन मेंे आया लिखा मगर भाषा की दृष्टि से कभी सराहे जायेंगे यह तो ख्याल नहीं किया पर अव्यवस्थित लेखन की वजह से बदनाम जरूर हुए। यही हाल हर क्षेत्र में रहा है।

अध्यात्म में झुकाव है पर भक्ति के नाम पर पाखंड कभी नहीं किया। कहीं कोई कहता है कि यहां मत्था टेको या अमुक गुरू के दर्शन करो तो हम मना कर देते हैं। कहते हैं कि भईया हम तो सीधे नारायण में मन लगाते हैं इन बिचैलियों से मार्ग का पता पूछें यह संभव नहीं हैं।

जिनके गुरु है वह अपने गुरु को मानने की प्रेरणा देते हैं। ना करते हैं तो वह लोग कहते हैं कि गुरु के बिना उद्धार नहीं होता। हम पूछते हैं कि ‘क्या गुरु पाकर आपका उद्धार हो गया है तो जवाब देते हैं कि ‘तुम्हें अहंकार है, अरे इतनी जल्दी थोड़ा उद्धार होता है।’

हम कहते हैं कि हमारा उद्धार तो हो गया है क्येांकि परमात्मा ने मनुष्य योनि देकर दुनिया को समझने का अवसर दिया क्या कम है?

बात दरअसल यह कहना चाहते थे कि हम भारत के लोगों की मनोवृत्ति बहुत खराब है। हर मामले में व्ही.आई.पी. ट्रीटमेंट चाहते हैं और इसके लिये हम कुछ भी करना चाहते हैं। उनमें यह भी एक बात शामिल है कि जिस भगवान या गूुरु को हम माने उसे दूसरे भी माने। इसलिये अपने गुरुओंं और भगवानों को लेकर दूसरे पर दबाव बनाने लगते हैं। इसके अलावा कहीं अगर आश्रम या मंदिर जाते हैं तो वहां भी अपने को व्ही. आई.पी. के रूप में देखना चाहते हैं।

उस दिन एक आश्रम में गये तो पता लगा कि उनके गुरु आये हैं। हमने दूर से गुरुजी को देखा और वहीं उनके प्रवचन प्रारंभ हो गये। इसी दौरान पंक्ति लगाकर उनके दर्शन करने का सिलसिला भी चला। वहां कुछ लोग पंक्ति से अलग दूसरी पंक्ति लगाकर उनके दर्शन कर रहे थे जो यकीनन खास भक्तों के खास भक्त थे।

सत्संग समाप्त हुआ पर दर्शन करने वालों का तांता अभी लगा हुआ था। हम बाहर निकल आये तो एक परिचित मिल गये। हमसे पूछा कि‘क्या गुरु महाराज के दर्शन किये।’
हमने न में सिर हिलाया तो वह कहने लगे कि‘हमने तो व्ही.आई.पी. लाईन में जाकर उनके दर्शन किये। उनका एक खास भक्त मेरी दुकान पर सामान खरीदने आता है।’

हमने समझ लिया कि वह व्ही.आई.पी. भक्त साबित करने का प्रयास कर रहा है।

एक अन्य आश्रम में गये तो वहां देखा कि बरसों पहले खुला रहने वाला ध्यान केंद्र अब बंद कर दिया गया है। वहां सामान्य भक्तों का प्रवेश बंद कर दिया गया है केवल चंदा की रसीद कटाने और सामान लेकर जाने वालों को वहां ध्यान करने की इजाजत है।

हमने वहां मंदिर में दर्शन किये और उसके साथ लगे परिसर के पार्क में जाने लगे तो पता लगा कि वहां से आने वाला कम दूरी वाला रास्ता भी बंद कर दिया गया है। घूमकर फिर वहां पार्क में गये। पार्क के साथ ही धर्मशाला भी लगी हुई है। बाहर से आये भक्तजन वहां रहते हैं और ध्यानादि कार्यक्रम में शामिल होते हैं। वहां पार्क में अन्य लोग भी बैठे थे कोई अपने साथ भोजनादि लाया था तो को वहीं बैठे ध्यान लगा रहा था तो कोई अपनी चादर बिछाकर आराम कर रहा था। हमने देखा कि ध्यान केंद्र से कम दूरी वाले मार्ग का दरवाजा जो बंद था वह बार बार खुलता और बंद हो जाता। कुछ व्ही.आई.पी वहीं से ध्यान कक्ष से आते जाते। जब वह आते तो खुल जाता और फिर बंद। हमने देखा कि वहां खड़ा एक लड़का इस दरवाजे को खोल और बंद कर रहा था।

एक महिला धर्मशाला से निकलकर अपने दो बच्चों के साथ उसी रास्ते ध्यान कक्ष की तरफ जा रही थी । उसके आगे एक व्ही.आई.पी. भक्त तो निकल गया पर उस लड़के ने उस महिला और उसके बच्चों को नहीं जाने दिया। कारण बताया ‘सुरक्षा’। अब सुरक्षा के नाम आश्रम और मंदिरों में हो रहा है उस तो कहना ही क्या? देखा जाये तो व्ही.आई.पी भक्तों और उनको दर्शन कराने वालों को अवसर मिल गया है।

उस महिला ने लंबे रास्ते से निकलने के लिये मूंह फेरा तो एक व्ही.आई.पी. भक्त वहां से लौट रहा था उसके लिये दरवाजा खुला तो वह पलट कर फिर जाने को तत्पर हुई पर उस लड़के ने मना कर दिया। यह एकदम अपमानजनक था क्योंकि उस दरवाजे के उस पार तक तो मैं भी होकर आया था। मतलब वहां से अगर कोई आये जाये तो कोई दिक्कत नहीं थी सिवाय इसके कि किसी को विशिष्ट भक्त प्रमाणित नहीं किया जा सकता था।

यह प्रकरण हमसे कुछ दूर बैठे दंपत्ति भी देख रहे थे। महिला ने पति से कहा-‘आप देखो। कैसे उस बिचारी के साथ उस लड़के ने बदतमीजी की। धार्मिक स्थानों पर यह बदतमीजी करना ठीक नहीं है।’

पति ने कहा-‘अरे, इन चीजों को मत देखा करो। हम तो भगवान में अपनी भक्ति रखते हैं। यह तो बीच के लोग हैं न इनके मन में न भक्ति है न सेवा भाव। यह सब विशिष्ट दिखने के लिये ही ऐसा करते हैं। देखा हमारे साथ यहां कितने लोग बैठे हैं उनको इनकी परवाह नहीं है। पर यह जो विशिष्ट दिखने और दिखाने का मोह जो लोग पाल बैठते हैं उनको कोई समझा नहीं सकता। यह मान कर चलो कि जहां भगवान है तो वहां शैतान भी होगा।’
हमने देखा कि वहां अनेक लोग बैठे थे। सब दूर दूर से आये थे और उनको इन घटनाओं से केाई लेना देना नहीं था।

सच तो यह है कि धर्म के नाम पर जो लोग व्ही.आई.पी. दिखना चाहते हैं उनको ही धर्म संकट में दिखता है क्योंकि ऐसा कर ही वह अपने को धार्मिक साबित करना चाहते हैं। मंदिरों और आश्रमों में जो भ्रष्टाचार है उस पर कोई प्रहार होता है तो धर्म पर संकट बताकर आम भक्त को पुकारा जाता है जबकि इन्हीं आश्रमों में उसकी कोई कदर नहीं है वहां तो को केवल विशिष्ट लोगों का ही सम्मान है। हालांकि हम जानते हैं कि यह सब होता है पर जब कहीं ध्यान लगाने जाते हैं तो इस बात की परवाह नहीं करते कि भगवान के मध्यस्थ क्या व्यवहार करते हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि उसके हृदय में भगवान नहीं विशिष्ट मेहमान बसे हुऐ हैं सो उनसे कोई अपेक्षा भी नहीं करते।
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