Tag Archives: अध्यात्म

सत्य से लोग घबड़ाते हैं-हिन्दी व्यंग्य कविताये


कत्ल की खबर

प्रचार के बाज़ार में

महंगी बिक जाती है।

व्याभिचार का विषय हो तो

दिल दहलाने के साथ

 मनोरंजन के तवे पर विज्ञापन की

रोटी भी सिक जाती है।

कहें दीपक बापू साहित्य को

समाज बताया जाता था दर्पण,

शब्दों का अब नहीं किया जाता

पुण्य के लिये तर्पण,

अर्थहीन शब्द

चीख कर बोलने पर

प्रतिष्ठा पाता

जिसके भाव शांत हों

उसकी किसी के दिल पर स्मृति

टिक नहीं पाती है।

———————–

सत्य से सभी लोग

बहुत कतराते हैं,

झूठे अफसानों से

अपना दिल

इसलिये बहलाते हैं।

सड़क पर पसीने से

नहाये चेहरों से

फेरते अपनी नज़र

खूबसुरत तस्वीरों से

अपनी आंखें सहलाते हैं।

कहें दीपक बापू सोच का युद्ध

ज़माने में चलता रहा है,

घमंड में डूबे लोग

अक्ल का खून बहा है,

सौेदागर ख्वाब बेचकर

पैसा कमा रहे हैं,

ज़माने पर अपना

राज भी जमा रहे हैं,

बगवात रोकने वाले

सबसे बड़े चालाक कहलाते हैं।

—————–

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा के अनुसरण से ही विश्व शांति संभव-हिन्दी चिंत्तन लेख


            फ्रांस के पेरिस में लगातार आतंकवादी हमलों से वहां के वातावरण जो भावनात्मक विष मिश्रित हो रहा है उसे कोई समझ नहीं पा रहा है।  ऐसा लगता है कि विश्व में मध्य एशिया से निर्यातित आतंकवाद के मूल तत्व को कोई समझ नहीं पा रहा है। हमारे देश में कथित रूप से जो सर्व धर्म समभाव या धर्म निरपेक्ष का राजनीतिक सिद्धांत प्रचलित है वह विदेश से आयातित है और भारतीय दर्शन या समाज की मानसिकता का उससे कोई संबंध नहीं है। पहले तो सर्व धर्म शब्द ही भारतीय के लिये एक अजीब शब्द है।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन में कहीं भी हिन्दू धर्म का नाम नहीं है वरन् उसे आचरण और कर्म से जोड़ा गया है।  कभी कभी सर्व धर्म भाव या धर्मनिरपेक्ष शब्द कौतूहल पैदा करता है।  इस संसार में आचरण या कर्म के आशय से प्रथक अनेक कथित धर्म हो सकते हैं-यह बात भारतीय ज्ञान साधक के लिये सहजता से गेय नहीं हो पाती।

            जब हम यह दावा करते हैं कि हमारे देश में विभिन्नता में एकता रही है तो उसका आम जनमानस में  पूजा पद्धति के प्रथक प्रथक रूपों की स्वीकार्यता से है। हम जैसे अध्यात्मिक ज्ञान साधकों के लिये किसी की भी पूजा पद्धति या इष्ट के रूप पर प्रतिकूल टिप्पणी करना अधर्म करने वाला काम होता है। सर्वधर्म समभाव तथा धर्म निरपेक्ष शब्द अगेय लगते हैं पर इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी मूल भावना से कोई विरोध है।  इसके बावजूद विश्व में प्रचलित कथित धर्मों के नाम पर चल रही गतिविधियों का आंकलन करना जरूरी लगता है।  स्पष्टतः मानव में अदृश्य सर्वशक्तिमान के प्रति जिज्ञासा तथा सम्मान का भाव रहता है।  इसी का दोहन के करने के लिये अनेक प्रकार की पूजा पद्धतियां तथा इष्ट के रूप में निर्मित किये गये।  यहां तक सब ठीक है पर उससे आगे जाकर अज्ञात सर्वशक्तिमान  के आदेश के नाम पर मनुष्य जीवन के रहन सहन, खान पान तथा पहनावे तक के नियम भी बनाने की प्रक्रिया चतुर मनुष्यों की अपना स्थाई समूह बनाकर अपना वैचारिक सम्राज्य विस्तार की इच्छा का परिणाम लगता है।  वह इसमें सफल रहे हैं।  पूजा पद्धतियां और इष्ट के रूप अब मनुष्य के लिये धर्म की पहचान बन गये हैं।  उससे भी आगे रहन सहन, पहनावे और खान पान में अपने शीर्ष पुरुषों के सर्वशक्तिमान के संदेश के नाम पर बिना चिंत्तन किये अनुसरण इस आशा में करते हैं कि इस धरती पर इस नश्वर देह के बिखरने के बाद आकाश में भी बेहतर स्थान मिलेगा। पूजा पद्धतियां और सर्वशक्तिमान के रूप ही लोगों की पहचान अलग नहीं कर सकते क्योंकि इनके साथ मनुष्य एकांत में या कम जन समूह में संपर्क करता है जबकि खान पान, रहन सहन तथा पहनावे से ही असली धर्म की पहचान होती है।  हम एक तरह से कहें कि जिस तरह सर्व धर्म समभाव या धर्म निरपेक्षता राजनीतिक शब्दकोष से आये हैं उसी तरह विभिन्न धर्मों से जुड़े शब्द भी प्रकट हुए हैं।  हम सीधी बात कहें तो पूजा पद्धति और इष्ट के रूप से आगे निकली धर्म की पहचान उसके शिखर पुरुषों की राजनीतिक विस्तार करती है।  ऐसे में जब हम जैसे चिंत्तक विभिन्न नाम के धर्मों को देखते हैं तो सबसे पहला यह प्रश्न आता है कि उसकी सक्रियता से राजनीतिक लाभ किसे मिल रहा है?

            इतिहास बताता है कि मध्य एशिया में हमेशा ही संघर्ष होता रहा है। परिवहन के आधुनिक साधनों से पूर्व विश्व के मध्य में स्थित होने के कारण दोनों तरफ से आने जाने वाले लोगों को यहां से गुजरना होता था।  इसलिये यह मध्य एशिया पूरे विश्व के लिये चर्चा का विषय रहा है।  तेल उत्पादन की वजह से वहां माया मेहरबान है और ऐसे में इस क्षेत्र के प्रति विश्व के लोगों का आकर्षण होना स्वाभाविक रहा है।  ऐसे में मध्य एशिया ने अपनी पूजा पद्धति और इष्ट के रूप के साथ मनुष्य जीवन में हस्तक्षेप करने वाली प्रक्रियाओं को जोड़कर अपने धर्म का प्रचार कर अपना साम्राज्य सुरक्षित किया है।  इस क्षेत्र में अन्य पूजा पद्धतियों या इष्ट के रूप मानने वालों को स्वीकार नहीं किया जाता मगर इसके बावजूद उन पर सर्वधर्म समभाव या धर्मनिरपेक्ष भाव अपनाने का का दबाव कोई नहीं डाल सकता।  अलबत्ता इन्होंने अपने दबाव से भिन्न पूजा पद्धतियों और इष्ट के रूप मानने वालों को  सर्वधर्म समभाव या धर्मनिरपेक्ष भाव अपनाने का दबाव डाला।  इनके पास तेल और गैस के भंडार तथा उससे मिली आर्थिक संपन्नता से विश्व के मध्यवर्गीय समाज का वहां जाने के साथ  अपने क्षेत्र में ही प्रमुख धार्मिक स्थान होने की वजह से जो शक्ति मिली उससे मध्य एशिया के देशों की ताकत बढ़ी।  यह क्षेत्र आतंकवाद का निर्यातक इसलिये बना क्योंकि अपना भावनात्मक साम्राज्य विश्व में बदलाव से नष्ट होने की आशंका यहां के शिखर पुरुषों में हमेशा रही है।

            हमें इनकी गतिविधियों पर कोई आपत्ति नहीं है पर हम यह साफ कहना चाहते हैं कि पूजा पद्धति और इष्ट के रूप के आगे जाकर कथित रूप से अन्य परंपरायें शुद्ध रूप से राजसी विषय है-स्पष्टत । सात्विक भाव का इनसे कोई संबंध नहीं है। हमारा भारतीय अध्यात्मिक दर्शन जिसे सुविधा के लिये हम हिन्दू संस्कृति का आधार भी कह सकते हैं वह केवल पूजा पद्धति के इर्दगिर्द ही रहा है।  इतना ही नहीं जीवन को सहन बनाने के लिये योग साधना जैसी विधा इसमें रही है जिसमें आसन, प्राणायाम तथा ध्यान के माध्यम से समाधि का लक्ष्य पाकर व्यक्त्तिव में निखार लाया जा सकता है।  भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का आधार ग्रंथ श्रीमद्भागवत गीता स्वर्णिम शब्दों का भंडार है  सांसरिक विषय का रत्तीभर भी उल्लेख  नहीं है।  स्पटष्तः कहा गया है कि अध्यात्मिक ज्ञान होने पर मनुष्य राजसी विषय में भी सात्विकता से सक्रिय रह कर सहज जीवन बिता सकता है।  खान पान, पहनावे, तथा रहन सहन के साथ ही कोई ऐसा धार्मिक प्रतीक चिन्ह नहीं बताया गया जिससे अलग पहचान बनी रहे। हमारी पहचान दूसरे कथित धर्मों से अलग इसलिये दिखती है क्योंकि उनके मानने वाले अपनी विशिष्ट पहचान के लिये बाध्य किये गये दिखते हैं।

            जिस तरह पूरे विश्व में कथित धर्मों के बीच संघर्ष चल रहा है उसके आधार पर हमारी यही राय बनी है कि उनके आधार राजनीतिक ही हैं। हमारे देश के लोग यह कहते हैं कि धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिये तो उन्हें यह समझना होगा कि इस नियम का पालन केवल भारतीय अध्यात्मिक विचारधाराओं में ही होता है।  बाहर से आयातित सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा साहित्य विचाराधारायें शुद्ध रूप से राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली हैं। अगर ऐसा न होता तो रहन सहन, खान पान तथा पहनावा जो भौगोलिक आधारों पर तय होना चाहिये उसके लिये सर्वशक्तिमान के आदेश बताने की जरूरत नहीं होती।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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सफाई की जिम्मेदार दूसरे पर-2 अक्टूबर महात्मा गांधी जयंती पर भारत स्वच्छता अभियान पर विशेष हिन्दी कविता


पेट में डालकर दाना

कूड़ा वह राह पर

फैंक देते हैं

यह सोचकर कि

कोई दूसरा आकर उठायेगा।

सभी व्यस्त हैं काम में

फुर्सत नहीं किसी को

फालतू काम और बातों से

ख्याल यह है कि सफाई के लिये

कोई दूसरा आकर

अपना समय लुटायेगा।

कहें दीपक बापू आर्थिक दंड

अनिवार्य होना चाहिये

सार्वजनिक स्थान में

कचड़ा फैलाने पर

तब कोई सफाई के लिये समय

य पैसे स्वयं जुटायेगा।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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हिंदी भाषा और मनोरंजन -१४ सितम्बर हिंदी दिवस पर कविता


आकर्षक शब्द वाचन की

कला में जादू है

मगर सभी को नहीं आती।

लोग मधुर स्वर के

जाल में फंस ही जाते

अर्थ की अनुभूति

सभी  को नहीं आती।

बिना सृजन के

रचयिता  दिखने की छवि

सभी को नहीं बनानी आती।

मनोरंजन के पेशे में

नारा नया होना चाहिये

पुरानी अदाओं पर भी

भीड़ खिंची चली आती।

कहें दीपक सुविधा भोगी

मनुष्य समाज हो गया है,

उपभोग के शोर में खो गया है,

मायाजाल में फंसे सभी

चाहे जिसे बंधक बना लो

नया बुनने की नौबत ही

कभी नहीं आती है।

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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

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धर्म की पहचान-हिंदी व्यंग्य कविताएँ


धर्म की पहचान

अलग अलग रंग के

कपड़े और टोपी हो गयी है।

ठेकेदारों ने तय किये हैं

नैतिकता और आदर्श के पैमाने

आम इंसान की अक्ल

उनको नापने में खो गयी है।

जो हर काम में हारे हैं

वही धर्म के सहारे हैं

विदेशी आयातित नारे लगाते हुए

देशी भक्ति सो गयी है।

कहें दीपक बापू सहज राह

चलने की आदत नहीं रही

किसी समाज में

ठेकेदार दिखाते धर्म का मार्ग

रंगीन तस्वीरों में खोए लोग के लिये

ज्ञान की किताबों गूढ़ हो गयी हैं।

———————-

इंसानों की आदत है

अपनी नाकामी का बोझ

दूसरों पर डालते हैं।

अपनी जेब को भरने के लिये सभी तैयार

परमार्थ का काम

परमात्मा पर टालते हैं।

विलासिता का आनंद

कभी कष्टमय होता है

फिर भी लोग

अपने मन में पालते हैं।

कहें दीपक बापू कल्याण का काम

ठेके पर होने लगा है,

दाम चुकाओ तो ठीक

वरना वफा के नाम पर

हर जगह मिलता दगा है,

मजबूरों की मेहनत के दम पर

सभी ताकतवर अपने घर

सोने के सामानों ढालते हैं।

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 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

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अल्मारी में बंद किताब-हिन्दी कविताये


अमीरों के सिक्कों पर सारा संसार चल रहा है,

राजा का खजाना भरता उनकी भेंट से

तो गरीब का पेट उनकी चाकरी से पल रहा है।

कहें दीपक बापू अमीरों के कई इंसानी बुत प्रायोजित है

कोई उनके लिये बनता है पैसा लेकर खलनायक,

कोई उपहार लेकर बन जाता नायक,

जिसे कुछ नहीं मिलता

वह खाली बैठा हाथ मल रहा है

————-

स्वांत सुखाय शब्द रचना व्यर्थ हो जाती है,

सिक्के मिलें तो अर्थ खो जाती है।

कहें दीपक बापू अपना अपना नजरिया है

प्रायोजन से बाज़ार में सज गयी किताबें ढेर सारी,

अल्मारी में बंद है इस इंतजार में कि कब आयेगी

पाठक की नज़र में उसकी बारी,

इनमें कुछ ही पुरस्कारों का

बोझ भी ढो जाती हैं।

———–

 

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

 

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झगड़े से बचने के लिये अज्ञानी की छवि बनाये रखें-संत मलूक दास के दर्शन के आधार पर चिंत्तन लेख


         हमारे देश के लोगों की प्रकृति इस तरह की है उनकी अध्यात्मिक चेतना स्वतः जाग्रत रहती है। लोग पूजा करें या नहीं अथवा सत्संग में शामिल हों या नहीं मगर उनमें कहीं न कहीं अज्ञात शक्ति के प्रति सद्भाव रहता ही है। इसका लाभ धर्म के नाम पर व्यापार करने वाले उठाते हैं। स्थिति यह है कि लोग अंधविश्वास और विश्वास की बहस में इस तरह उलझ जाते हैं कि लगता ही नहीं कि किसी के पास कोई ज्ञान है। सभी धार्मिक विद्वान आत्मप्रचार के लिये टीवी चैनलों और समाचार पत्रों का मुख ताकते हैं। जिसे अवसर मिला वही अपने आपको बुद्धिमान साबित करता है।

            अगर हम श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों के संदर्भ में देखें तो कोई विरला ही ज्ञानी की कसौटी पर खरा उतरता है। यह अलग बात है कि लोगों को दिखाने के लिये पर्दे या कागज पर ऐसे ज्ञानी स्वयं को प्रकट नहीं करते। सामाजिक विद्वान कहते हैं कि हमारे भारतीय समाज एक बहुत बड़ा वर्ग धार्मिक अंधविश्वास के साथ जीता है पर तत्वज्ञानी तो यह मानते हैं कि विश्वास या अविश्वास केवल धार्मिक नहीं होता बल्कि जीवन केे अनेक विषयों में भी उसका प्रभाव देखा जाता है।

                  संत मलूक जी कहते हैं कि
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भेष फकीरी जे करै, मन नहिं आये हाथ।

दिल फकीरी जे हो रहे, साहेब तिनके साथ।

          ‘‘साधुओं का वेश धारण करने से कोई सिद्ध नहीं हो जाता क्योंकि मन को वश करने की कला हर कोई नहीं जानता। सच तो यह है कि जिसका हृदय फकीर है भगवान उसी के साथ हैं।’’
‘‘मलूक’ वाद न कीजिये, क्रोधे देय बहाय।
हार मानु अनजानते, बक बक मरै बलाय।।
‘‘किसी भी व्यक्ति से वाद विवाद न कीजिये। सभी जगह अज्ञानी बन जाओ और अपना क्रोध बहा दो। यदि कोई अज्ञानी बहस करता है तो तुम मौन हो जाओ तब बकवास करने वाला स्वयं ही खामोश हो जायेगा।’’

             हमारे यहां धार्मिक, सामाजिक, कला तथा राजनीतिक विषयों पर बहस की जाये तो सभी जगह अपने क्षेत्र के अनुसार वेशभूषा तो पहन लेते हैं पर उनको ज्ञान कौड़ी का नहीं रहता। यही कारण है कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों के शिखरों पर अक्षम और अयोग लोग पहुंच गये हैं। ऐसे में उनके कार्यों की प्रमाणिकता पर यकीन नहीं करना चाहिए। मूल बात यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान या धार्मिक विश्वास सार्वजनिक चर्चा का विषय कभी नहीं बनाना चाहिए। इस पर विवाद होते हैं और वैमनस्य बढ़ने के साथ ही मानसिक तनाव में वृद्धि होती है।

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हमदर्दी का दर्द से संबंध-हिंदी व्यंग्य कविता


दिखाते हैं हमदर्दी पर दर्द से उनका संबंध नहीं है,

रोज नये वादे करने के महाराथी पर वफा के पाबंद नहीं है।

वाक्पटुता के लिये मशहूर है वह पर शब्द सृजन नहीं करते,

इधर उधर से चुराकर कविता अपनी जुबान में  ही भरते।

रेतीली जमीन पर आम उगाने की हमेशा वह करेंगे बात,

दिन में लोगों के दर्दे पर बोलते पर  भुला देती उनको रात।

चलता रहेगा लोगों के जज़्बात से खेलने का सिलसिला,

लोग सौंप रहे शातिरों को दान पेटी किससे करेंगे गिला।

कहें दीपक बापू धोखे की आग के उनको कभी जलना ही होगा

टूटे इंसानों की आह से उनके स्वाह होने के रास्ते बंद नहीं है।

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वादों के महारथी-हिंदी व्यंग्य कविता


दिखाते हैं हमदर्दी पर दर्द से उनका संबंध नहीं है,

रोज नये वादे करने के महाराथी पर वफा के पाबंद नहीं है।

वाक्पटुता के लिये मशहूर है वह पर शब्द सृजन नहीं करते,

इधर उधर से चुराकर कविता अपनी जुबान में  ही भरते।

रेतीली जमीन पर आम उगाने की हमेशा वह करेंगे बात,

दिन में लोगों के दर्दे पर बोलते पर  भुला देती उनको रात।

चलता रहेगा लोगों के जज़्बात से खेलने का सिलसिला,

लोग सौंप रहे शातिरों को दान पेटी किससे करेंगे गिला।

कहें दीपक बापू धोखे की आग के उनको कभी जलना ही होगा

टूटे इंसानों की आह से उनके स्वाह होने के रास्ते बंद नहीं है।

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राजनीति में दावपेंच तो चलते ही रहेंगे-हिंदी चिंत्तन लेख


            हमारे देश राजतंत्र समाप्त होने के बाद लोकतांत्रिक प्रणाली अपनायी गयी जिसमें चुनाव के माध्यम से  जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं।  भारत एक बृहद होने के साथ भौगोलिक विविधता वाला देश है। लोकसभा राष्ट्रीय, विधानसभा प्रादेशिक, नगर परिषद तथा पंचायत स्थानीय स्तर पर प्रशासन की देखभाल करती हैं। देखा जाये तो राजतंत्र में राजा के चयन का आधार सीमित था इसलिये आम आदमी राजकीय कर्म में लिप्त होने की बात कम ही सोचता था। हालांकि इस संसार में अधिकतर लोग राजसी प्रवृत्ति के ही होते हैं पर राजतंत्र के दौरान क्षेत्र व्यापार, कला, धर्म तथा प्रचार के अन्य क्षेत्रों में स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने तक ही उनका प्रयास सीमित था। लोकतंत्र ने अब उनको आधुनिक राजा बनने की सुविधा प्रदान की है।  चुनावों में वही आदमी जीत सकता है जो आम मतदाता के दिल जीत सके।  बस यहीं से नाटकीयता की शुरुआत हो जाती है।  स्थिति यह है कि कला, पत्रकारिता, फिल्म, टीवी तथा धर्म के क्षेत्र में लोकप्रिय होता है वही चुनाव की राजनीति करने लगता है। वैसे राजनीति राजसी कर्म की नीति का परिचायक होती है जो अर्थोपार्जन की हर प्रक्रिया का भाग होता है।  राज्यकर्म तो इस प्रक्रिया का एक भाग होता है। राजनीति उस हर व्यक्ति को करना चाहिये जो नौकरी, व्यापार अथवा उद्योग चला रहा है।  केवल चुनाव ही राजनीति नहीं होती पर माना यही जाने लगा है।

            इससे हुआ यह है कि बिना राजनीति शास्त्र ज्ञान के लोग पदों पर पहुंच जाते हैं पर काम नहीं कर पाते। राजकीय कर्म की नीतियां हालांकि परिवार के विषय से अलग नहीं होती पर जहां परहित या जनहित का प्रश्न हो वहां शिखर पुरुषों को व्यापक दृष्टिकोण अपनाना पड़ता है।  इसलिये राजनीति शास्त्र का उनको आम इंसान से अधिक होना आवश्यक है।  भारत में आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं  से हमेशा ही लोगों में अंतर्द्वंद्व देखा गया है।  देखा यह गया है कि रचनात्मक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति लंबे समय तक अपना स्थान बनाये रखता है पर अनवरत अंतर्द्वंद्व की प्रक्रिया के बीच जब कोई विध्वंसक प्रवृत्ति का व्यक्ति खड़ा हो जाता है तो तनावग्रस्त समाज में उसकी छवि नायक की बन जाती है। दूसरी बात यह है कि जब लोग अपनी समस्याओं से जूझते हैं तब उनके बीच जोर से ऊंची आवाज में बगावत की बात कहने से लोकप्रियता मिलती है।  यही लोकप्रियता चुनाव जीतने का आधार बनती है।  इससे उन लोगों को जनप्रतिनिधि होने का अवसर भी  मिल जाता है जो बगावती तेवर के होते है पर उनमें रचनात्मकता का अभाव होता है।

मनु स्मृति में कहा गया है कि

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साम्रा दानेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक।

विजेतुः प्रयतेतारीन्न युद्धेन कदाचत्।।

            हिन्दी में भावार्थ-अपने राजनीतिक अभियान में सफलता की कामना रखने वाले पुरुष को साम, दाम तथा भेद नीतियों के माध्यम से पहले अपने अनुकूल बनाना चाहिये। जब यह संभव न हो तभी दंड का प्रयोग करना श्रेयस्कर है।

उपजप्यानुपजपेद् बुध्येतैव च तत्कृतम।

बुत्तों च दैवे बुध्यते जयप्रेप्सुरपीतभीः।।

            हिन्दी में भावार्थ-राजनीतिक अभियान में पहले अपने विरोधी पक्ष के लालची लोगों को अपने पक्ष में करना चाहिये। उनसे अपने विरोधी पक्ष की नीति तथा कमजोरी का पता लगाकर अपने अभियान को सफल बनाने का प्रयास करना चाहिये।

            हमारे देश में अनेक प्रकार के राजनीतिक परिदृश्य देखने को मिले हैं।  अनेक संगठन बने और बिगड़े पर देश की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति यथावत रही।  नारे लगाकर अनेक लोग सत्ता के शिखर पर पहुंचे राजनीति तथा प्रशासन का ज्ञान न होने की वजह से वह प्रजाहित की सोचते तो रहे पर आपने कार्यक्रम क्रियान्वित नहीं कर सके। साहित्य, कला, फिल्म तथा पत्रकारिता के साथ ही जन समस्याओं के लिये जनआंदोलन करने वाले लोग जनमानस में लोकप्रियता प्राप्त कर चुनाव जीत जाते हैं पर जहां प्रशासन चलाने की बात आये वहां उनकी योग्यता अधिक प्रमाणित नहीं हो पाती।

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जिसके मन में दया है उसे धार्मिक पाखंड करने की आवश्यकता नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख


            हमारे देश में धर्म के विषय पर दो धारायें हमेशा प्रचलित रही हैं-एक निराकार भक्ति तथा दूसरी साकार भक्ति।  जहां तक हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों में वर्णित सामग्री की बात है तो उसमें दोनों ही प्रकार की भक्ति को ही मान्य किया गया है।  वैसे हमारे प्राचीन ऋषियों, मुनियां तथा तपस्वियों ने सदैव ही परमात्मा के निराकार रूप को ही श्रेष्ठ माना है पर देखा यह गया है कि समाज के सामान्य जनों ने हमेशा ही साकार भक्ति करने में ही अपनी सिद्धि समझी है।  समाज ने ऋषियों, मुनियों तथा तपस्वियों को अपने हृदय में तो स्थान दिया पर उनकी निराकार भक्ति से कभी प्रेरणा नहीं ली।  यही कारण है कि साकार भक्ति के कारण पूरा समाज धीरे धीरे तार्किक गतिविधियों की तरफ बढ़ता चला गया।  दरअसल साकार भक्ति में हर मनुष्य अपनी दैहिक सक्रियता न केवल स्वयं देखता है बल्कि दूसरों को भी दिखाकर सुख उठाना चाहता है।

                        मंदिर में जाकर फल, फूल, दूध तथा तेल चढ़ाने की परंपरा साकार तथा सकाम भक्ति का ही प्रतीक हैं। इसके अलावा भी प्रसाद तथा वस्त्र भी मूर्तियों पर चढ़ाये जाते हैं।  इन सब वस्तुओं की आपूर्ति बाज़ार करता है। अनेक मंदिरों में विशेष अवसरों पर पूजा सामग्री, प्रसाद तथा मूर्तियों की दुकानें लगी देखी जा सकती है। कहने का अभिप्राय यह है कि सकाम तथा साकार भक्ति के कारण बाज़ार को लाभ होता है जैसा कि हम जानते हैं कि आर्थिक प्रबंधक सदैव ही अपनी वस्तुओं के प्रचार तथा उनके विक्रय के लिये सक्रिय रहते है।  कभी वह अपनी वस्तुओं का विक्रय करने के लिये किसी स्थान को सिद्ध प्रचारित करते हैं तो कभी अपनी वस्तु को सिद्ध बताकर भगवान के लिये अर्पण करने के लिये लोगों को प्रेरित करते है। इतना ही नहीं मनुष्य में जीवन के रहस्यों को जानने की जो जिज्ञासा होती है उसके लिये मोक्ष तथा स्वर्ग के भी रूप भिन्न भिन्न रूप तैयार किये गये हैं।  जिस धर्म के सिद्धांत अत्यंत सीमित और संक्षिप्त हैं उस पर ही लंबी लंबी बहसें होती हैं। यह बहसें तत्वज्ञान के नारों से शुरु तो होती हैं और समाज अज्ञान के अंधेरे में होती हैं।  दान और दया के रूप को कोई समझ हीं नहीं आया।  गुरु हमेशा ही अपने आश्रमों के लिये दान मांगते हैं तो दया के के नाम पर अपने व्यवसाय के लिये चंदा प्राप्त करने के लिये रसीदें काटते हैं।

महर्षि चाणक्य कहते हैं कि

——————–

यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु।

तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलैपनैः।।

                        हिन्दी में भावार्थ-जिसके चित्त में सभी प्राणियों के लिऐ दयाभाव है उसे शरीर पर भस्म लगाने, जटायें बढ़ाने, तत्वज्ञान प्राप्त करने तथा मोक्ष के लिये कोई प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।

                        जिस मनुष्य में जीवन के प्रति सहज भाव है उसे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। संत रविदास ने कहा है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। इसके विपरीत बाज़ार के आर्थिक स्वामी तथा प्रचार प्रबंधक अपने शोर से लोगों के मन को ही भटकाते हैं। जिस धर्म का सही ढंग से एकांत में हो सकता है उसे उन्होंने चौराहे पर चर्चा का विषय बना दिया है। भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्व में यही स्थिति है।  हर धर्म के ठेकेदार अपने निर्धारित विशिष्ट रंगों के वस्त्र पहनकर यह प्रमाणित करते हैं कि वह अपने समाज के माननीय है। यह अलग बात है कि किसी भी धर्म के मूल प्रवर्तक ने अपने समाज के लिये किसी खास रंग की पहचान नहीं बनायी।  इस तरह धर्म को लेकर एक तरह से भ्रम की स्थिति बन गयी है।

                        अगर हम प्राचीन ग्रंथों के आधार पर धर्म के सिद्धांत की पहचान करें तो वह आचरण के आधार पर बना हुआ होता है। उसको कोई निश्चित कर्मकांड नहीं है। यही कारण है कि धार्मिक रूप से हमारे यहां एकता है पर कर्मकांडों में स्थान और क्षेत्र के आधार पर भिन्नता पायी जाती है। जहां तक स्वयं घर्म के आधार पर चलने का प्रश्न है तो उस पर अवश्य विचार करना चाहिये। प्रातःकाल उठकर योगसाधना तथा पूजा आदि कर मन को स्वस्थ तथा प्रसन्न चित्त बनाना चाहिये। उससे पूरा दिन अच्छा निकलता है। धर्म को लेकर लोगों से अधिक चर्चा नहीं करना चाहिये क्योंकि अधिकतर लोग इस बारे में अपना ज्ञान बघारते हैं। हमारे आसपास धर्म के मार्ग  पर चलने वाले लोग उंगलियों पर गिनती करने लायक ही होते हैं।                       

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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आदमी और पाखंड-हिंदी कविता


दौलत के भंडार है उनके घर

पर जिस्म में ताकतवर जान नहीं है,

महापुरुषों की  तस्वीरों पर

चढ़ाते हैं दिखावे के लिये  माला

पर दिल में उनके लिये मान नहीं है,

सारे जहान में फैला है पाखंड

दिखना चाहते हैं शानदार वह लोग

जिनकी आंखों में किसी की शान नहीं है।

कहें दीपक बापू

मजदूर ने तराशा जिस पत्थर को

अपनी पसीने से तराशा

बन गया भगवान,

पड़ा रहा जो रास्ते पर

बना रहा दुनियां में अनजान,

जिनके पेट भरे हैं

उनकी चिंता सभी करते हैं

परिश्रम करने वालों को पूरी रोटी मिले

इससे आंखें फेरते है

स्वर्ग की चिंता में जिंदगी

दाव पर लगाते हैं लोग

जिसका किसी को ज्ञान नहीं है,

दिवंगतों की तस्वीर के  आगे सिर झुकाते लोग

शोकाकुल सुरत से श्रद्धा निभाते

भले ही उनकी बनती  शान नहीं है।

————–

 लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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समाज से पहले अपने को सुधारें-हिन्दी लेख


                        हम अपने समाज में रामराज्य की कल्पना कर सकते हैं पर उसे धरातल पर लाना लगभग असंभव है।  कम से कम श्रीमद्भागवत गीता के अध्ययन करने पर तो कोई साधक इस तरह का विचार व्यक्त कर सकता है। उसमें कहा गया है कि इस संसार में दैवीय तथा आसुरीय तो प्रकार के मनुष्य होते हैं। इससे हम यूं भी मान सकते हैं कि इस संसार में दोनों प्रकार के लोग सदैव उपस्थित रहेंगे ही चाहे कोई माने या माने।  इतना ही नहीं दैवीय प्रकृत्ति के लोगों में भी सात्विक, राजस तथा तामस प्रकृत्ति के लोग हमेशा ही अपने स्वभाव के अनुसार सक्रिय पाये जायेंगे।  इस आधार हम कह सकते हैं कि समूची मानव जाति एक ही रंग में रंगी जाये यह संभव नहीं है।

                        समाज में कथित लोग समाज में  सुधार लाने के प्रयासों में लगे बुद्धिमान लोग इस विचार को निराशाजनक विचार मान सकते हैं पर ज्ञान साधकों के लिये यही संसार का सत्य है। यह सत्य उनमें स्वयं को ही सुधारने के लिये प्रेरित करता है।  ज्ञान साधकों को जब यह आभास होने लगता है कि इस संसार का निर्माण जिस तरह परामात्मा के संकल्प के आधार पर हुआ है उसी तरह वह भी अपने देहकाल में संकल्प के आधार अपने आसपास शुद्ध वातावरण का निर्माण करें। वह संसार में दूसरे लोगों  को सुधार कर उन्हें अपने अनुकूल लाने की अपेक्षा अपने अंदर ऐसी शक्ति पैदा करते हैं कि प्रतिकूल व्यक्ति और स्थिति उनके अनुकूल हो जाये।  वह किसी के लिये मन में द्वेष, ईर्ष्या और घृणा का भाव नहीं पालते। कोई दूसरा उनके प्रति कुविचार रखता है तो उसे आसुरीय प्रवृत्तियों के वशीभूत मानकर क्षमा कर देते हैं।  किसी का परोपकार करें या नहीं पर किसी का अपकार करने का विचार हृदय में भी नहीं लाते।  किसी के कठोर वचनों के उत्तर में भी मधुर वचन में बात करते हैं।  प्रमाद या आलस्य से परे होकर सदैव सकारात्मक कार्यों में लगे रहते हैं।  इससे उनके व्यक्तित्व की धवल छवि का निर्माण होता है जिससे कालांतर में उनको सम्मान मिलता है।

                        इसके विपरीत जो अज्ञानी हैं वह बिना कुछ किए ही सम्मान पाना चाहते हैं। कुछ लोग धन, मित्र और सहायकों का समुदाय एकत्रित कर यह समझते हैं कि उनका तो स्वतः ही समाज में सम्मान होगा तो यह उनका भ्रम है।  ऐसे लोगों को सम्मान पाने की भावना अंध कर देती है और किसी से प्रतिकूल व्यवहार मिलने पर वह हिंसा पर उतर आते हैं। हम आज समाज में जो हिंसक वातावरण देख रहे हैं वह राजसी लोगों की आक्रामकता और तामसी प्रवृत्ति लोगों के बौद्धिक आलस्य का परिणाम है।  सात्विक लोगों की संख्या कम है पर आज के भौतिकतावादी युग में कोई उन्हें साथ रखना नहीं चाहता।  सात्विक लोगों का ध्येय वैसे भी समाज में हर विषय पर टांग फंसाकर प्रतिष्ठा अर्जित  करना नहीं होता। वह जानते हैं कि हमारे समाज में समस्या विचारों के संकट की नहीं वरन्् उसे धारण करने की प्रवृत्ति का अभाव है।  ज्ञान चर्चा बहुत होती है पर उसे धारण करने की न लोगों में शक्ति है न उनके पास ऐसा संकल्प है। निकट भविष्य में लोग ज्ञान के आचरण की तरफ प्रवृत्त होंगे इसकी संभावना लगती भी नहीं है। समाज अपने साथ विध्वसंक तत्व लेकर चल रहा है और हम मानते हैं कि आगे हालात अधिक खराब होने वाले हैं।  यह अलग बात है कि समाज में पेशेवर समाज सेवक के सुधार का  नाटक भी जमकर चल रहा है।  हमने देखा है कि अनेक कथित सुधारक समाज में व्याप्त अंधविश्वास का विरोध करते हैं पर मनुष्य में मन में कोई विश्वास का बीज कैसे बोया जाये इस विषय पर खामोश रहते हैं। 

                        बहरहाल समाज की समस्याओं को दूर करने की बजाय अपने सुधार पर अधिक ध्यान देना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि हमें अपने शुद्ध विचार रखने और  सुखद कल्पनायें करने के साथ ही अपने अंदर एक दृढ़ संकल्प स्थापित करना चाहिये। हम बाहर जैसा वातावरण देखना चाहते हैं उसे पहले अपने अंतर्मन में संकल्प कर स्थापित करना होगा।  आजकल के तनावपूर्ण वातावरण से प्रथक होकर एकांत में शुद्ध स्थान पर ध्यान करते हुए इस बात पर विचार करना चाहिये कि हम किस तरह अपना जीवन सफल करें।

 लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

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ज्ञान से बड़ा खज़ाना कौनसा हो सकता है-हिंदी चिंत्तन लेख


                        एक संत ने एक सपना देखा कि एक पुराने महल में पंद्रह फुट नीचे  एक हजार टन सोना-जो एक एक स्वर्गीय राजा का है जिसे अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था-दबा हुआ है।  उसने अपनी बात जैसे तैसे भारतीय पुरातत्व विभाग तक पहुंचायी।  पुरातत्व विभाग ने अपनी सांस्कृतिक खोज के तहत एक अभियान प्रारंभ किया।  पुरातत्वविद् मानते हैं कि उन्हें सोना नहीं मिलेगा। मिलेगा तो इतने बड़े पैमाने पर नहीं होगा।  अलबत्ता कोई प्राचीन खोज करने का लक्ष्य पूरा हो सकता है, यही सोचकर पुरातत्व विभाग का एक दल वहां खुदाई कर रहा है।

                        यही एक सामान्य कहानी अपने समझ में आयी पर सोना शब्द ही ऐसा है कि अच्छे खासे आदमी को बावला कर दे। सोने का खजाना ढूंढा जा रहा है, इस खबर ने प्रचार माध्यमों को अपने विज्ञापन प्रसारण के बीच सनसनीखेज सामग्री प्रसारण का वह  अवसर प्रदान किया है जिसकी तलाश उनको रहती है।  भारत में लोगों वेसे काम अधिक होने का बहाना करते हैं पर ऐसा कोई आदमी नहीं है जो टीवी पर खबरें देखने में वक्त खराब करते हुए  इस खबर में दिलचस्पी न ले रहा हो। व्यवसायिक निजी चैनलों ने भारतीय जनमानस में इस कदर अपनी पैठ बना ली है कि इसके माध्यम से कोई भी विषय सहजता से भारत के आम आदमी के लिये ज्ञेय बनाया जा सकता है।  इस पर खजाना वह भी सोने का, अनेक लोगों ने दांतों तले उंगली दबा रखी है। टीवी चैनलों ने लंबी चौड़ी बहसें चला रखी हैं।  सबसे बड़ी बात यह कि संत ने सपना देखा है तो तय बात है कि बात धर्म से जुड़नी है और कुछ लोगों की आस्थायें इससे विचलित भी होनी है।  सोना निकला तो संत की वाह वाह नहीं हुई तो, यह बात अनेक धर्मभीरुओं को डरा रही है कि इससे धर्म बदनाम होगा।

                        कहा जाता है कि संत त्यागी हैं। यकीनन होंगे। मुश्किल यह है कि वह स्वयं कोई वार्तालाप नहीं करते और उनका शिष्य ही सभी के सामने दावे प्रस्तुत करने के साथ ही विरोध का प्रतिकार भी कर रहा है। इस पर एक टीवी पर चल रही बहस में एक अध्यात्मिक रुचि वाली संतवेशधारी महिला अत्यंत चिंतित दिखाई दीं। उन्हें लग रहा था कि यह एक अध्यात्मिक विषय नहीं है और इससे देश के भक्तों पर धर्म को लेकर ढेर सारा भ्रम पैदा होगा।

                        एक योग तथा ज्ञान साधक के रूप में कम से कम हमें तो इससे कोई खतरा नहीं लगता।  सच बात तो यह है कि अगर आप किसी को निष्काम कर्म का उपदेश दें तो वह नहीं समझेगा पर आप अगर किसी को बिना या कम परिश्रम से अधिक धन पाने का मार्ग बताओ तो वह गौर से सुनेगा।  हमारे देश में अनेक लोग ऐसे हैं जिनके मन में यह विचार बचपन में पैदा होता है कि धर्म के सहारे समाज में सम्मान पाया जाये।  वह कुछ समय तक भारतीय ज्ञान ग्रंथों का पठन पाठन कर अपनी यात्रा पर निकल पड़ते हैं। थोड़े समय में उनको पता लग जाता है कि इससे बात बनेगी नहीं तब वह सांसरिक विषयों में भक्तों का मार्ग दर्शन करने लगते है। कुछ चमत्कार वगैरह कर शिष्यों को संग्रह करना शुरु करते हैं तो फिर उनका यह क्रम थमता नहीं।  अध्यात्मिक ज्ञान तो उनके लिये भूली भटकी बात हो जाती है।  लोग भी उसी संत के गुण गाते हैं जो सांसरिक विषयों में संकट पर उनकी सहायता करते हैं।  यहां हम एक अध्यात्मिक चिंतक के रूप में बता दें कि ऐसे संतों के प्रति हमारे मन में कोई दुर्भाव नहीं है। आखिर इस विश्व में आर्त और अर्थाथी भाव के भक्तों को संभालने वाला भी तो कोई चाहिये न! जिज्ञासुओं को कोई एक गुरु समझा नहीं सकता और ज्ञानियों के लिये श्रीमद्भागवत गीता से बड़ा कोई गुरु होता नहीं। आर्ती और अर्थार्थी भक्तों की संख्या इस संसार में सर्वाधिक होती है। केवल भारत ही नहीं वरन् पूरे विश्व में धर्म के ठेकेदारों का यही लक्ष्य होते है। केवल भारतीय धर्म हीं नहीं बल्कि विदेशों में पनपे धर्म भी इन ठेकेदारों के चमत्कारों से समर्थन पाते हैं। जब अंधविश्वास की बात करें तो भारत ही नहीं पूरे विश्व में ऐसी स्थिति है।  जिन्हें यकीन न हो वह हॉलीवुड की फिल्में देख लें। जिन्होंने भूतों और अंतरिक्ष प्राणियों पर ढेर सारी फिल्में बनायी हैं। दुनियां के बर्बाद होने के अनेक संकट उसमें दिखाये जाते हैं जिनसे नायक बचा लेता है। ऐसे संकट कभी प्रत्यक्ष में कभी आते दिखते नहीं।

                        हम संतों पर कोई आक्षेप नहीं करते पर सच बात यह है कि जब वह सांसरिक विषय में लिप्त होते हैं तो उनका कुछ पाने का स्वार्थ न भी हो पर मुफ्त के प्रचार का शिकार होने का आरोप तो उन पर लगता ही है। दूसरी बात यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान साधक स्पष्टतः उनकी छवि को संदेह की नजरों से देखने लगते है।  विदेशी लोग भारत के बारे में कह करते थे  कि यहां हर डाल पर सोने की चिड़िया रहती है।  जब हम मार्ग में गेेंहूं के खेत लहलहाते देखते हैं तो लगता है कि यहां खड़ी फसलें देखकर ही उन्होंने ऐसा कहा होगा।  हो सकता है यह हमारा पूर्वाग्रह हो क्योंकि हमें गेंहूं की रोटी ही ज्यादा पसंद है।  उससे भूख शांत होती है। दूसरी बात यह भी है कि सेोने से कोई अधिक लगाव नहीं रहा।  गेंहूं की रोटी लंबे समय तक पेट में रहती है और दिल में संतोष होता है। संतोषी आदमी को सोना नहीं सुहाता।  मुश्किल यह है कि सोना प्रत्यक्ष पेट नहीं भर पाता।

                        कहा जाता है कि दूर के ढोल सुहावने। भारत में सोने की कोई खदान हो इसकी जानकारी हमें नहीं है।  सोना दक्षिण अफ्रीका में पैदा होता है।  तय बात है कि सदियों से यह विदेश से आयातित होता रहा है।  सोना यहां से दूर रहा है इसलिये भारत के लोग उसके दीवाने रहे हैं।  जिस गेंहूं से पेट भरता है वह उनके लिये तुच्छ है।  एक हजार टन सोना कभी किसी राजा के पास रहा हो इस पर यकीन करना भी कठिन है। हीरे जवाहरात की बात समझ में आती है क्योंकि उनके उद्गम स्थल भारत में हैं।  अनेक प्राचीन ग्रंथों में स्वर्णमय हीरे जवाहरात जड़े मुकुटों तथा सिंहासन  की बात आती है पर उनके सोने की परत चढ़ी रही होती होगी या रंग ऐसा रहा होगा कि सोना लगे।  असली सोना यहां कभी इतना किसी व्यक्ति विशेष के पास रहा होगा यह यकीन करना कठिन है।

                        भारत में लोगों के अंदर संग्रह की प्रवृत्ति जबरदस्त है।  कुछ समझदार लोग कहते हैं कि अगर सोने का आभूषण तीन बार बनवाने के लिये किसी एक आदमी के पास ले जायें तो समझ लो पूरा सोना ही उसका हो गयां।  इसके बावजूद लोग हैं कि मानते नहीं। अनेक ढोंगी तांत्रिक तो केवल गढ़ा खजाना बताने के नाम पर धंधा कर रहे हैं। इतना ही नहीं अनेक ठग भी सोना दुगंना करने के नाम पर पूरे गहने ही महिलाओं के हाथ से छुड़ा लेते है।  बहरहाल खुदाई पूरी होने पर सोना मिलेगा या नहीं यह तो भविष्य ही बतायेगा पर टीवी चैनलों में विज्ञापन का समय समाचार तथा बहस के बीच खूब पास हो रहा है।

                        आखिर में हमारा हलकट सवाल-अरे, कोई हमें बतायेगा कि श्रीमद्भागवत गीता के बहुमूल्य ज्ञान के खजाने से अधिक बड़ा खजाना कहां मिलेगा।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

ऊँचाई से गिरते लोग-हिंदी व्यंग्य कविता


कुदरत की अपनी चाल है

इंसान की अपनी चालाकियां है,

कसूर करते समय

सजा से रहते अनजान

यह अलग बात है कि

सर्वशक्तिमान की सजा की भी बारीकियां हैं,

दौलत शौहरत और ओहदे की ऊंचाई पर

बैठकर इंसान घमंड में आ ही जाता है,

सर्वशक्तिमान के दरबार में हाजिरी देकर

बंदों में खबर बनकर इतराता है,

आकाश में बैठा सर्वशक्तिमान भी

गुब्बारे की तरह हवा भरता

इंसान के बढ़ते कसूरों पर

बस, मुस्कराता है

फोड़ता है जब पाप का घड़ा

तब आवाज भी नहीं लगाता है।

कहें दीपक बापू

अहंकार ज्ञान को खा जाता है,

मद बुद्धि को चबा जाता है,

अपने दुष्कर्म पर कितनी खुशफहमी होती लोगों को

किसी को कुछ दिख नहीं रहा है,

पता नहीं उनको कोई हिसाब लिख रहा है,

गिरते हैं झूठ की ऊंचाई से लोग,

किसी को होती कैद

किसी को घेर लेता रोग

उनकी हालत पर

जमीन पर खड़े इंसानों को तरस ही जाता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
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गणेश चतुर्थी पर विशेष हिंदी लेख-गणपति बप्पा मोरिया, अगली बार जल्दी आ


         आज पूरे देश में  श्रीगणेश चतुर्थी का पर्व उत्साह से मनाया जा रहा है। साकार रूप में  श्रीगणेश भगवान का चेहरा हाथी और सवारी वाहन चूहा दिखाया जाता है।  सकाम भक्त उनके इसी रूप पर आकर्षक होकर उनकी आराधना करते हैं। आमतौर से हिन्दू धर्म समाज के बारे में कहा जाता है कि वह संगठित नहीं है और भगवान के किसी एक स्वरूप के न होने के कारण उसमें अन्य धर्मों की तरह एकता नहीं हो पाती।  अनेक लोग भारतीय समाज के ढेर सारे भगवान होने के विषय की मजाक बनाते हैं। इनमें भी भगवान श्री हनुमान तथा गणेश जी के स्वरूप को अनेक लोग मजाक का विषय मानते हैं।  ऐसे अज्ञानी लोगों से बहस करना निरर्थक है।  दरअसल ऐसे बहसकर्ता अपने जीवन से कभी प्रसन्नता का रस ग्रहण नहीं कर पाते इसलिये दूसरों के सामने विषवमन करते हैं। यह भी देखा गया है कि गैर हिन्दू विचारधारा  के कुछ  लोगों में रूढ़ता का भाव इस तरह होता है कि उन्हें यह समझाना कठिन है कि हिन्दू अध्यात्मिक दर्शन निरंकार परमात्मा का उपासक है पर सुविधा के लिये उसने उनके विभिन्न मूर्तिमान स्वरूपों का सृजन किया है।  साकार से निराकार की तरफ जाने की कला हिन्दू बहुत अच्छी तरह जानते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि देह की इंद्रियां-आंख, नाक, कान, तथा मन बाह्य विषयों की तरफ सहजता से आकर्षित रहता है।  इसलिये ही बाह्य विषयों में दृढ़ अध्यात्मिक भाव स्थापित किया जाये तो बाद में निष्काम भक्ति का भाव सहजता से अंतर्मन में लाया जा सकता है।

                        भगवान के मूर्तिमान स्वरूपों से अमूर्त रूप की आराधना करने में सुविधा होती है।  दूसरे धर्मों के लोगों के बारे में क्या कहें कुद स्वधर्मी बंधु भी अपने भगवान के विभिन्न स्वरूपों के प्रति रूढ़ता का भाव दिखाते हुए कहते हैं कि हम तो अमुक भगवान के भक्त हैं अमुक के नहीं? इसके बावजूद गणेश जी के रूप के सभी उपासक होते हैं क्योंकि उनके नाम लिये बिना कोई भी शुभ काम प्रारंभ नहीं होता।

                        आमतौर से भगवान श्रीगणेश जी का स्मरण मातृपितृ भक्त के रूप में किया जाता है। बहुत कम लोग उस महाभारत की याद करते हैं जिसके गर्भ से श्रीमद्भागवत गीता जैसे अद्भुंत ग्रंथ  का जन्म हुआ, इसी महाभारत के रचयिता तो महर्षि वेदव्यास हैं पर भगवान श्रीगणेश जी ने हार्दिक भाव के साथ  अपनी कलम से उसे सजाया है।  आम भारतीय के लिये श्रीमद्भागवत गीता एक पवित्र ग्रंथ है पर इसके विषय में  कुछ ज्ञानी और साधक मानते हैं कि यह विश्व का अकेला एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें तत्व ज्ञान के साथ सांसरिक विषयों का विज्ञान भी विद्यमान है।  हाथी जैसे विशाल धड़ को धारण तथा चूहे की सवारी करने वाले भगवान श्रीगणेश जी ने श्रीमद्भागवत गीता की  रचना में अपना योगदान देकर भारतीय तत्वज्ञान को एक ऐसा आधारभूत ढांचा प्रदान किया जिससे भारत विश्व का अध्यात्मिक गुरु कहलाता है।  यही कारण है कि भगवान श्रीगणेश जी के उपासक जहां सकाम भक्त हैं तो निष्काम ज्ञानी और और साधक भी उनका स्मरण करते हुए उनके स्वरूप का आनंद उठाते हैं।

यहां प्रस्तुत है श्रीगणपत्यथर्वशीर्षम् के श्लोक आधार पर उनके स्मरण के लिये मंत्र।

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 ॐ (ओम) नमस्ते गणपतये। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि। त्वमेव केवलं कर्तासि। त्वमेव धर्तासि। त्वमेव केवलं हर्तासि। त्वमेव सर्व खल्विदं ब्रह्मासि। त्वं साक्षादात्मासि नित्यम्

                        हिन्दी में भावार्थ-गणपति जी आपको नमस्कार है। आप ही प्रत्यक्ष तत्व हो, केवल आप ही कर्ता, धारणकर्ता और संहारकर्ता हो। आप ही विश्वरूप ब्रह्म हो और आप ही साक्षात् नित्य आत्मा हो।

ऋतं वच्मिं। सत्यं  वच्मि।।

                        हिन्दी में भावार्थ-यथार्थ कहता हूं। सत्य कहता हूं।

                        हम जैसे योग तथा ज्ञान साधकों के लिये श्रीगणेश भगवान हृदय में धारण करने योग्य विषय हैं।  उन्हें कोटि कोटि नमन करते हैं।  सच बात तो यह है कि इस तरह उनके आकर्षक स्वरूप का स्मरण करने से मन में उल्लास तथा आत्मविश्वास का भाव पैदा होता है उसे शब्दों में व्यक्त करना एक दुष्कर कार्य है।

                        इस गणेशचतुर्थी के पावन पर्व पर सभी ब्लॉग लेखक मित्रों, पाठकों को हमारी तरफ से बधाई।  भगवान श्रीगणेश जी उनके हृदय में स्थापित होकर उनका जीवन मंगलमय करें। वही हर मनुष्य के  शुभ कमों के प्रारंभ में ही उत्तम फल का सृजन करते हैं जो समय आने पर उसे मिलता है। वही दुष्टों के  दंड का भी निर्धारण करते हैं जिसकी कल्पना अपना दुष्कृत्य करते हुए अपराधी सोच भी नहंी सकता। इसलिये मनुष्य को श्रीगणेश जी पर विश्वास करते हुए तनाव रहित होने का प्रयास करना चाहिये।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

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हिन्दी दिवस पर विशेष निबंध लेख-अध्यात्म की भाषा हिन्दी को चाटुकार संबल नहीं दे सकते


                        14 सितम्बर 2013 को एक बार फिर हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है।  इस अवसर पर सरकारी तथा अर्द्धसरकारी तथा निजी संस्थाओं में कहीं हिन्दी सप्ताह तो कही पखवाड़ा मनाया जायेगा।  इस अवसर पर सभी जगह जो कार्यक्रम आयोजित होंगे उसमें निबंध, कहानी तथा कविता लेखन के साथ ही वादविवाद प्रतियोगितायें होंगी। कहीं परिचर्चा आयोजित होगी।  अनेक लोग भारत में हिन्दी दिवस मनाये जाने पर व्यंग्य करते हैं। उनका मानना है कि यह देश के लिये दुःखद है कि राष्ट्रभाषा के लिये हमें एक दिन चुनना पड़ता है।  उनका यह भी मानना है कि हिन्दी भाषा अभी भी अंग्रेजी के सामने दोयम दर्जे की है।  कुछ लोग तो अब भी हिन्दी को देश में दयनीय स्थिति में मानते हैं। दरअसल ऐसे विद्वानों ने अपने अंदर पूर्वाग्रह पाल रखा है। टीवी चैनल, अखबार तथा पत्रिकाओं में उनके लिये छपना तो आसान है पर उनका चिंत्तन और दृष्टि आज से पच्चीस या तीस वर्ष पूर्व से आगे जाती ही नहीं है।  ऐसे विद्वानों को मंच भी सहज सुलभ है क्योंकि हिन्दी का प्रकाशन बाज़ार उनका प्रयोजक है। इनमें से कई तो ऐसे हैं जो हिन्दी लिखना ही नहीं जानते बल्कि उनके अंग्रेजी में लिखे लेख हिन्दी प्रकाशनों में अनुवाद के साथ आते हैं। उनका सरोकार केवल लिखने से है। एक लेखक का इससे ज्यादा मतलब नहीं होना चाहिये पर शर्त यह है कि वह समय के बदलाव के साथ अपना दृष्टिकोण भी बदले।

                        एक संगठित क्षेत्र का लेखक कभी असंगठित लेखक के साथ बैठ नहीं सकता।  सच तो यह है कि जब तक इंटरनेट नहीं था हमें दूसरे स्थापित लेखकों को देखकर निराशा होती थी पर जब इस पर लिखना प्रारंभ किया तो इससे बाहर प्रकाशन में दिलचस्पी लेना बंद कर दिया।  यहां लिखने से पहले हमने बहुत प्रयास किया कि भारतीय हिन्दी क्षितिज पर अपना नाम रोशन करें पर लिफाफे भेज भेजकर हम थक गये।  सरस्वती माता की ऐसी कृपा हुई कि हमने इंटरनेट पर लिखना प्रारंभ किया तो फिर बाहर छपने का मोह समाप्त हो गया।  यहंा स्वयंभू लेखक, संपादक, कवित तथा चिंत्तक बनकर हम अपना दिल यह सोचकर ठंडा करते हैं कि चलो कुछ लोग तो हमकों पढ़ ही रहे हैं।  कम से कम हिन्दी दिवस की अवधि में हमारे ब्लॉग जकर हिट लेते हैं।  दूसरे ब्लॉग  लेखकों का पता नहीं पर इतना तय है कि भारतीय अंतर्जाल पर हिन्दी की तलाश करने वालों का हमारे ब्लॉग से जमकर सामना होता है।  दरअसल निबंध, कहानी, कविता तथा टिप्पणी लिखने वालों को अपने लिये विषय चाहिये।  वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेने वाले युवाओं तथा परिचर्चाओं में बोलने वाले विद्वानों को हिन्दी विषय पर पठनीय सामग्रंी चाहिये और अब किताबों की बजाय ऐसे लोग इंटरनेट की तरफ आते हैं।  सर्च इंजिनों में उनकी तलाश करते हुए हमारे बलॉग उनके सामने आते हैं।  यही बीस ब्लॉग बीस  किताब की तरह हैं।  यही कारण है कि हम अब अपनी किताब छपवाने का इरादा छोड़ चुके हैं।  कोई प्रायोजक हमारी किताब छापेगा नहीं और हमने छपवा लिये तो हमारा अनुमान है कि हम हजार कॉपी बांट दें पर उसे पढ़ने वाले शायद उतने न हों जितना हमारी एक कविता यहां छपते ही एक दिन में लोग पढ़ते हैं।  इतना ही नहीं हमारे कुछ पाठ तो इतने हिट हैं कि लगता है कि उस ब्लॉग पर बस वही हैं।  अगर वह पाठ  हम किसी अखबार में छपवाते तो उसे शायद इतने लोग नहीं देखते जितना यहां अब देख चुके हैं। आत्ममुग्ध होना बुरा हेाता है पर हमेशा नहीं क्योंकि अपनी अंतर्जालीय यात्रा में हमने देख लिया कि हिन्दी के ठेकेदारों से अपनी कभी बननी नहीं थी।  यहां हमें पढ़ने वाले जानते हैं कि हम अपने लिखने के लिये बेताब जरूर रहते हैं पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि हमें कोई प्रचार की भूख है।  कम से कम इस बात से  हमें तसल्ली है कि अपने समकालीन हिन्दी लेखकों में स्वयं ही अपनी रचना टाईप कर लिखने की जो कृपा प्राकृतिक रूप से हुई है कि हम  उस पर स्वयं भी हतप्रभ रह जाते हैं क्योंकि जो अन्य लेखक हैं वह इंटरनेट पर छप तो रहे हैं पर इसके लिये उनको अपने शिष्यों पर निर्भर रहना पड़ता है।  दूसरी बात यह भी है कि टीवी चैनल ब्लॉग, फेसबुक और ट्विटर जैसे अंतर्जालीय प्रसारणों में वही सामग्री उठा रहे हैं जो प्रतिष्ठत राजनेता, अभिनेता या पत्रकार से संबंधित हैं।  यह सार्वजनिक अंतर्जालीय प्रसारण पूरी तरह से बड़े लोगों के लिये है यह भ्रम बन गया है।  अखबारों में भी लोग छप रहे हैं तो वह अंतर्जालीय प्रसारणों का मोह नहीं छोड़ पाते।  कुछ मित्र पाठक पूछते हैं कि आपके लेख किसी अखबार में क्या नहीं छपतें? हमारा जवाब है कि जब हमारे लिफाफोें मे भेजे गये लेख नहीं छपे तो यहां से उठाकर कौन छापेगा?  जिनके अंतर्जालीय प्रसारण अखबारों या टीवी में छप रहे हैं वह संगठित प्रकाशन जगत में पहले से ही सक्रिय हैं। यही कारण है कि अंतर्जाल पर सक्रिय किसी हिन्दी लेखक को राष्ट्रीय क्षितिज पर चमकने का भ्रम पालना भी नहीं चाहिये।  वह केवल इंटरनेट के प्रयोक्ता हैं। इससे ज्यादा उनको कोई मानने वाला नहीं है।

                        दूसरी बात है कि मध्यप्रदेश के छोटे शहर का होने के कारण हम जैसे लेखको यह आशा नहीं करना चाहिये कि जिन शहरों या प्रदेशों के लेखक पहले से ही प्रकाशन जगत में जगह बनाये बैठे हैंे वह अपनी लॉबी से बाहर के आदमी को चमकने देंगे।  देखा जाये तो क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्म तथा विचारवाद पहले से ही देश में मौजूद हैं अंतर्जाल पर हिन्दी में सक्रिय लेाग उससे अपने को अलग रख नहीं पाये हैं।  अनेक लोगों से मित्र बनने का नाटक किया, प्रशंसायें की और आत्मीय बनने का दिखावा किया ताकि हम मुफ्त में यहां लिखते रहें।  यकीनन उन्हें कहीं से पैसा मिलता रहा होगा।  वह व्यवसायिक थे हमें इसका पता था पर हमारा यह स्वभाव है कि किसी के रोजगार पर नज़र नहीं डालते।  अब वह सब दूर हो गये हैं।  कई लोग तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर को होने का दावा भी करने लगे हैं पर उनका मन जानता है कि वह इस लेखक के मुकाबले कहां हैं? वह सम्मान बांट रहे हैं, आपस में एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे हैं। कभी हमारे प्रशंसक थे अब उनको दूसरे मिल गये हैं। चल वही रहा है अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह चीन्ह कर दें।  दरअसल वह इंटरनेट पर हिन्दी फैलाने से अधिक अपना हित साधने में लगे हैं। यह बुरा नहीं है पर अपने दायित्व को पूरा करते समय अपना तथा पराया सभी का हित ध्यान में न रखना अव्यवसायिकता है। पैसा कमाते सभी है पर सभी व्यवसायी नहीं हो जाते। चोर, डाकू, ठग भी पैसा कमाते हैं।  दूसरी बात यह कि कहीं एक ही आदमी केले बेचने वाला है तो उसे व्यवसायिक कौशल की आवश्यकता नहीं होती। उसके केले बिक रहे हैं तो वह भले ही अपने व्यवसायिक कौशल का दावा करे पर ग्राहक जानता है कि वह केवल लाभ कमा रहा है।  अंतर्जाल पर हिन्दी का यही हाल है कि कथित रूप से अनेक पुरस्कार बंट जाते हैं पर देने वाला कौन है यह पता नहीं लगता।  आठ दस लोग हर साल आपस में ही पुरस्कार बांट लेते हैं।  हमें इनका मोह नहीं है पर अफसोस इस बात का है कि यह सब देखते हुए हम किसी दूसरे लेखक को यहां लिखने के लिये प्रोत्साहित नहीं कर पाते।  हमारे ब्लॉगों की पाठक संख्या चालीस लाख पार कर गयी है। यह सूचना हम देना चाहते हैं। इस पर बस इतना ही।  हिन्दी दिवस पर कोई दूसरा तो हमें पूछेगा नहंी इसलिये अपना स्म्मान स्वयं ही कर दिल बहला रहे हैं। 

 

 लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

 

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

 

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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चित्त पर नियंत्रण करना ही वास्तविक योग-पतंजलि योग साहित्य


      भारतीय योग साधना शब्द ही अपने आप में स्वर्णिम लगता है।  जब भी कहीं योग की बात आती है तो भारतीय जनमानस उसके प्रति अपना सदाशय दिखाने में चूकता नहीं है। महर्षि पतंजलि योग विज्ञान के जनक है तो उसके महत्व को भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में प्रतिपादित किया है।  हम यह भी देखते रहे हैं कि जिस तरह भारतीय अध्यात्म ग्रंथों के सत्य से संबंधित विषय सामग्री का उपयोग पेशेवर धार्मिक कथाकार अपने व्यवसायिक हित की साधना के लिये करते हैं वैसे ही योग पद्धति का भी करना शुरु कर दिया है। हालांकि लंबे समय तक योग  साधना केवल सन्यासियों और सिद्धों के लिये स्वाभाविक कर्म माना जाता था पर जैसे जैसे भौतिकवाद ने मनुष्य के तन, मन और विचारों को विकृत किया वैसे वैसे ही विश्व के अनेक समाज, स्वास्थ्य तथा शिक्षा विशेषज्ञों ने उसका प्रतिकार भारतीय योग साधना को मानने का अभियान प्रारंभ किया।

   जैसा कि हम भारतीयों की आदत है जब तक कोई फैशन विदेश से न आये हम उसे स्वीकार नहीं करते वैसे ही योग साधना के मामले में भी रहा। विदेशी विशेषज्ञों ने जब भारतीय योग को एक वैज्ञानिक पद्धति माना तो देश में उसकी शिक्षा का व्यवसायिक अभियान प्रारंभ हो गया।  आज स्थिति यह है कि राजयोग, ज्ञान योग, अध्यात्मिक योग तथा  चमत्कृत शब्दों से अनेक कथित धार्मिक संस्थान अपनी दुकान चला रहे हैं तो अनेक बड़े छोटे पर्दे के कलाकार भी योग को योगा बनाकर अपनी छवि चमत्कृत कर रहे हैं। हमें  उनसे कोई शिकायत नहीं  है।  समस्या यह है कि उपभोग की तरह योग विषय का विज्ञापन करने का प्रभाव यह हुआ है कि पतंजलि योग का मूल स्तोत्र उससे मेल नहीं खाता जिससे इस विषय को लेकर अनेक लोग  भ्रमित हो रहे हैं।  सच बात तो यह है कि योग साधना के प्राणायाम तथा आसनों तक ही सीमित रखा जा रहा है।  अनेक पेशेवर धार्मिक फिल्मी कलाकारों की तरह दैहिक सक्रियता तक ही सीमित रखकर ज्ञान दे रहे हैं।  हाथ पांव हिलाने से आदमी न केवल स्वयं को देखता है बल्कि दूसरे भी उसे देखते हैं।  उसी तरह  सांसों को तेज करने से ध्वनि का बोध होता है।  इस तरह दृश्य और स्वरों के मेल से जो सक्रियता हो वह दिखती है इसलिये उनसे मनुष्य की दो इंद्रियां आंख और कान चमत्कृत होती हैं। इन्हीं दो इंद्रियों के आधार पर  मनोरंजनक व्यवसायियों के अर्थ का महल बनता है।  अगर धार्मिक पेशेवर भी इसी पर काम रहे हैं तो कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि उनका लक्ष्य भी समाज कल्याण के नाम पर अपना प्रचार करना ही है।

         आमतौर से पतंजलि योग साहित्य और श्रीमद्भागवत गीता को अनेक कथित धार्मिक प्रवचनकार गूढ अर्थों वाला मानते हैं।  उनका मानना है कि आम आदमी उसका स्वतः ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। यह प्रचार उन्हें स्वयं को गुरु पद पर प्रतिष्ठित करने के प्रयासों के  अलावा कुछ नहीं है।  सच बात तो यह है कि नित्य योग साधना तथा गीता का अध्ययन करने वाले लोग जब ज्ञान के सागर में गोता लगाने के आदी हो जाते हैं तब उनको यही गहराई कम लगती है।  इतना ही नहीं प्रचलित योग तथा उसके मूल स्तोत्र में उनको अंतर का पता चलता है।  योग मूलतः अंतर्मुखी होने की कला है जबकि योग प्रचारक उसे दैहिक सक्रियता तक सीमित रखकर उसके बहिर्मुखी होना प्रमाणित करते हैं। इसलिये इस बात की अनेक विद्वान आवश्यकता अनुभव करते हैं कि योग का मूल अर्थ समाज में बताते रहना चाहिये। इस विषय पर अनेक निष्काम कर्मी प्रयास कर रहे हैं जो प्रशंसनीय है।

पतंजलि योग में कहा गया है कि

——————-

योगनिश्चत्तवृत्तिनिरोधः।।

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।

वृत्तिसारूप्यमिततरत्र।।

   हिन्दी में भावार्थ-चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।  उस समय दृष्टा की  स्थिति अपने वास्तविक स्वरूप से जुड़ जाती है। दूसरे समय या यानि सामान्य समय में वह वृत्ति के सदृश होता है।

            हम योग का केवल शाब्दिक  अर्थ लें तो उसका मतलब जोड़ना।  मूल रूप से मनुष्य का संचालक उसका मन है।  मन हमेशा बहिर्मुखी विषयों की तरफ आकर्षित रहता है।  ऐसे में दृष्टा भी मन की बतायी राह पर चलता है। यह असहज योग की स्थिति है।  मनुष्य का मन या चित्त उसकी बुद्धि को इधर से उधर दौड़ाता है।  जब देह थक जाती है तो मनुष्य टूटने लगता है।  हम अगर मूल योग की बात करें तो वह चित्त की अवस्था पर नियंत्रण की विधा है।  जिस तरह दैहिक कार्य करने के बाद विराम लिया जाता है उसी तरह मन को भी विराम देना चाहिये पर यह केवल योग साधक ही कर सकते हैं।  हम दिन भर सांसरिक विषयों में रत रहें। रात को सो जायें फिर सुबह उठकर इन्हीं सांसरिक विषयों का चिंत्तन करें ऐसे में हमारे अध्यात्म का तो कोई अभ्यास होता ही नहीं हैं। अध्यात्म यानि वह शक्ति जो  इस शरीर को धारण करती है पर वह उसकी उपभोक्ता नहीं है। उपभोक्ता तो चित्त या मन है।  सांसरिक विषयों में डूबा मन कभी विरत नहीं होता। एक विषय से भरता है तो दूसरा ढूंढ लेता है।   उधर अध्यात्म का घर खाली लगता है।  इन दोनों को मिलाना ही योग है।  अध्यात्म और चित्त मिलकर एक स्वस्थ मनुष्य का निर्माण करते हैं।

               हमें इस मेल के लिये त्याग की आवश्यकता होती है।  यह त्याग धन का नहीं मन का होता है। प्रातःकाल उठकर पहले शरीर, मन और विचारों के विकारों को  योगासन, प्राणायाम और प्रत्याहार  से ध्वस्त करें फिर धारणा, ध्यान के साथ  समाधि की प्रक्रिया  से अपने चित्त को नवीन स्वरूप मे स्थापित करें। सांसरिक विषयों में लिप्त मन को प्रतिदिन उनसे विराम देने के लिये अध्यात्मिक साधना करें।  योग साधना की प्रक्रिया में लिप्त होने पर मनुष्य स्वाभाविक रूप से सांसरिक विषयों से परे हो जाता है जिसे हम त्याग कह सकते हैं। 

    आप अगर सर्वेक्षण करें तो पायेंगे कि अनेक लोग यह कहते हैं कि हम योग साधना करना चाहते हैं पर समय नहीं मिलता या फिर हमारी कुछ घरेलु समस्यायें जिनके हल तक यह करना संभव नहीं है। दरअसल ऐसे लोग सांसरिक विषयों के प्रति अपने भाव को त्याग नहीं करना चाहते हैं। चित्त में चिंतायें जमाये रखने की उनको ऐसी आदत होती है कि उससे परे रहना उन्हें उसी तरह तकलीफदेह लगता है जैसे कि किसी शराबी को शराब न मिलने पर लगता है।

      एक बात सभी जानते हैं कि सबका दाता राम है फिर लोग कभी अपनी  तो कभी अपने परिवार की समस्याओं को लेकर अपने अंदर चिंता की आग जलाये क्यों रखते हैं। वह भगवान के समक्ष  आर्त भाव से इस तरह प्रस्तुत क्यों होते हैं कि उनका काम बन जाये तो वह योग साधना करेंगे?   दरअसल चिंता की अग्नि में  जलने की आम लोगों को आदत है। एक तरह से कहें कि चिंतायें पालना भी एक तरह का नशा हो गया है। सब ज्ञान है पर धारण कोई नहीं करता।  चिंता के नशे में रहने आदी लोगों को योग साधना के दौरान अंतर्मुखी होने पर बाहरी विषयों से परे होने का भय उसको डरा देता है।  जबकि  मन और शरीर स्वस्थ होने के साथ ही  विचारों की शुद्धता मनुष्य को संबल प्रदान करती है पर सांसरिक विषयों से  विराम की आवश्यकता है उसे कोई लेना नहीं चाहता। हम इसे यह भी कह सकते हैं कि सांसरिक विषयों के चिंत्तन का त्याग कर योग साधना का लाभ अधिकतर लोग लेना नहीं चाहते। कहने का अभिप्राय यही है कि योग अपने चित्त पर नियंत्रण के लिये आवश्यक है।  जब तक चित्त पर नियंत्रण नहीं आता तब तक योग का कोई महत्व नहीं है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
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पतंजलि योग विज्ञान-मन पर नियंत्रण करना ही सच्चा योग


       भारतीय योग साधना शब्द ही अपने आप में स्वर्णिम लगता है।  जब भी कहीं योग की बात आती है तो भारतीय जनमानस उसके प्रति अपना सदाशय दिखाने में चूकता नहीं है। महर्षि पतंजलि योग विज्ञान के जनक है तो उसके महत्व को भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में प्रतिपादित किया है।  हम यह भी देखते रहे हैं कि जिस तरह भारतीय अध्यात्म ग्रंथों के सत्य से संबंधित विषय सामग्री का उपयोग पेशेवर धार्मिक कथाकार अपने व्यवसायिक हित की साधना के लिये करते हैं वैसे ही योग पद्धति का भी करना शुरु कर दिया है। हालांकि लंबे समय तक योग  साधना केवल सन्यासियों और सिद्धों के लिये स्वाभाविक कर्म माना जाता था पर जैसे जैसे भौतिकवाद ने मनुष्य के तन, मन और विचारों को विकृत किया वैसे वैसे ही विश्व के अनेक समाज, स्वास्थ्य तथा शिक्षा विशेषज्ञों ने उसका प्रतिकार भारतीय योग साधना को मानने का अभियान प्रारंभ किया।

   जैसा कि हम भारतीयों की आदत है जब तक कोई फैशन विदेश से न आये हम उसे स्वीकार नहीं करते वैसे ही योग साधना के मामले में भी रहा। विदेशी विशेषज्ञों ने जब भारतीय योग को एक वैज्ञानिक पद्धति माना तो देश में उसकी शिक्षा का व्यवसायिक अभियान प्रारंभ हो गया।  आज स्थिति यह है कि राजयोग, ज्ञान योग, अध्यात्मिक योग तथा  चमत्कृत शब्दों से अनेक कथित धार्मिक संस्थान अपनी दुकान चला रहे हैं तो अनेक बड़े छोटे पर्दे के कलाकार भी योग को योगा बनाकर अपनी छवि चमत्कृत कर रहे हैं। हमें  उनसे कोई शिकायत नहीं  है।  समस्या यह है कि उपभोग की तरह योग विषय का विज्ञापन करने का प्रभाव यह हुआ है कि पतंजलि योग का मूल स्तोत्र उससे मेल नहीं खाता जिससे इस विषय को लेकर अनेक लोग  भ्रमित हो रहे हैं।  सच बात तो यह है कि योग साधना के प्राणायाम तथा आसनों तक ही सीमित रखा जा रहा है।  अनेक पेशेवर धार्मिक फिल्मी कलाकारों की तरह दैहिक सक्रियता तक ही सीमित रखकर ज्ञान दे रहे हैं।  हाथ पांव हिलाने से आदमी न केवल स्वयं को देखता है बल्कि दूसरे भी उसे देखते हैं।  उसी तरह  सांसों को तेज करने से ध्वनि का बोध होता है।  इस तरह दृश्य और स्वरों के मेल से जो सक्रियता हो वह दिखती है इसलिये उनसे मनुष्य की दो इंद्रियां आंख और कान चमत्कृत होती हैं। इन्हीं दो इंद्रियों के आधार पर  मनोरंजनक व्यवसायियों के अर्थ का महल बनता है।  अगर धार्मिक पेशेवर भी इसी पर काम रहे हैं तो कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि उनका लक्ष्य भी समाज कल्याण के नाम पर अपना प्रचार करना ही है।

         आमतौर से पतंजलि योग साहित्य और श्रीमद्भागवत गीता को अनेक कथित धार्मिक प्रवचनकार गूढ अर्थों वाला मानते हैं।  उनका मानना है कि आम आदमी उसका स्वतः ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। यह प्रचार उन्हें स्वयं को गुरु पद पर प्रतिष्ठित करने के प्रयासों के  अलावा कुछ नहीं है।  सच बात तो यह है कि नित्य योग साधना तथा गीता का अध्ययन करने वाले लोग जब ज्ञान के सागर में गोता लगाने के आदी हो जाते हैं तब उनको यही गहराई कम लगती है।  इतना ही नहीं प्रचलित योग तथा उसके मूल स्तोत्र में उनको अंतर का पता चलता है।  योग मूलतः अंतर्मुखी होने की कला है जबकि योग प्रचारक उसे दैहिक सक्रियता तक सीमित रखकर उसके बहिर्मुखी होना प्रमाणित करते हैं। इसलिये इस बात की अनेक विद्वान आवश्यकता अनुभव करते हैं कि योग का मूल अर्थ समाज में बताते रहना चाहिये। इस विषय पर अनेक निष्काम कर्मी प्रयास कर रहे हैं जो प्रशंसनीय है।

पतंजलि योग में कहा गया है कि

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योगनिश्चत्तवृत्तिनिरोधः।।

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।

वृत्तिसारूप्यमिततरत्र।।

   हिन्दी में भावार्थ-चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।  उस समय दृष्टा की  स्थिति अपने वास्तविक स्वरूप से जुड़ जाती है। दूसरे समय या यानि सामान्य समय में वह वृत्ति के सदृश होता है।

            हम योग का केवल शाब्दिक  अर्थ लें तो उसका मतलब जोड़ना।  मूल रूप से मनुष्य का संचालक उसका मन है।  मन हमेशा बहिर्मुखी विषयों की तरफ आकर्षित रहता है।  ऐसे में दृष्टा भी मन की बतायी राह पर चलता है। यह असहज योग की स्थिति है।  मनुष्य का मन या चित्त उसकी बुद्धि को इधर से उधर दौड़ाता है।  जब देह थक जाती है तो मनुष्य टूटने लगता है।  हम अगर मूल योग की बात करें तो वह चित्त की अवस्था पर नियंत्रण की विधा है।  जिस तरह दैहिक कार्य करने के बाद विराम लिया जाता है उसी तरह मन को भी विराम देना चाहिये पर यह केवल योग साधक ही कर सकते हैं।  हम दिन भर सांसरिक विषयों में रत रहें। रात को सो जायें फिर सुबह उठकर इन्हीं सांसरिक विषयों का चिंत्तन करें ऐसे में हमारे अध्यात्म का तो कोई अभ्यास होता ही नहीं हैं। अध्यात्म यानि वह शक्ति जो  इस शरीर को धारण करती है पर वह उसकी उपभोक्ता नहीं है। उपभोक्ता तो चित्त या मन है।  सांसरिक विषयों में डूबा मन कभी विरत नहीं होता। एक विषय से भरता है तो दूसरा ढूंढ लेता है।   उधर अध्यात्म का घर खाली लगता है।  इन दोनों को मिलाना ही योग है।  अध्यात्म और चित्त मिलकर एक स्वस्थ मनुष्य का निर्माण करते हैं।

               हमें इस मेल के लिये त्याग की आवश्यकता होती है।  यह त्याग धन का नहीं मन का होता है। प्रातःकाल उठकर पहले शरीर, मन और विचारों के विकारों को  योगासन, प्राणायाम और प्रत्याहार  से ध्वस्त करें फिर धारणा, ध्यान के साथ  समाधि की प्रक्रिया  से अपने चित्त को नवीन स्वरूप मे स्थापित करें। सांसरिक विषयों में लिप्त मन को प्रतिदिन उनसे विराम देने के लिये अध्यात्मिक साधना करें।  योग साधना की प्रक्रिया में लिप्त होने पर मनुष्य स्वाभाविक रूप से सांसरिक विषयों से परे हो जाता है जिसे हम त्याग कह सकते हैं। 

    आप अगर सर्वेक्षण करें तो पायेंगे कि अनेक लोग यह कहते हैं कि हम योग साधना करना चाहते हैं पर समय नहीं मिलता या फिर हमारी कुछ घरेलु समस्यायें जिनके हल तक यह करना संभव नहीं है। दरअसल ऐसे लोग सांसरिक विषयों के प्रति अपने भाव को त्याग नहीं करना चाहते हैं। चित्त में चिंतायें जमाये रखने की उनको ऐसी आदत होती है कि उससे परे रहना उन्हें उसी तरह तकलीफदेह लगता है जैसे कि किसी शराबी को शराब न मिलने पर लगता है।

      एक बात सभी जानते हैं कि सबका दाता राम है फिर लोग कभी अपनी  तो कभी अपने परिवार की समस्याओं को लेकर अपने अंदर चिंता की आग जलाये क्यों रखते हैं। वह भगवान के समक्ष  आर्त भाव से इस तरह प्रस्तुत क्यों होते हैं कि उनका काम बन जाये तो वह योग साधना करेंगे?   दरअसल चिंता की अग्नि में  जलने की आम लोगों को आदत है। एक तरह से कहें कि चिंतायें पालना भी एक तरह का नशा हो गया है। सब ज्ञान है पर धारण कोई नहीं करता।  चिंता के नशे में रहने आदी लोगों को योग साधना के दौरान अंतर्मुखी होने पर बाहरी विषयों से परे होने का भय ं को डरा देता है।  जबकि  मन और शरीर स्वस्थ होने के साथ ही  विचारों की शुद्धता मनुष्य को संबल प्रदान करती है पर सांसरिक विषयों से  विराम की आवश्यकता है उसे कोई लेना नहीं चाहता। हम इसे यह भी कह सकते हैं कि सांसरिक विषयों के चिंत्तन का त्याग कर योग साधना का लाभ अधिकतर लोग लेना नहीं चाहते। कहने का अभिप्राय यही है कि योग अपने चित्त पर नियंत्रण के लिये आवश्यक है।  जब तक चित्त पर नियंत्रण नहीं आता तब तक योग का कोई महत्व नहीं है।

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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कभी दिल का हाल जाना नहीं-हिंदी कविता


 जिनको नहीं चलने का तरीका

दौड़ने में मजा वही बताते हैं,

कभी दिल का हाल जाना नहीं

इश्क के गीत वही गाते हैं।

कहें दीपक बापू

ज़माने की समझदारी,

बन गयी  है एक बीमारी,

खाने का सामान लेकर

पहुचंते उद्यानों में

जीभ के स्वाद में लोग डूबते,

पेट भरकर जल्दी ऊबते,

गंदगी छोड़कर चल देते अपने घर,

शीतल हवाओं में विष घोलते उसके दर,

सुख के लिये इधर उधर दौड़ते हुए

ऐसे लोग मरे जाते हैं,

दूसरों की आंखों और सांसों में

करते हैं दर्द पैदा

स्वयं भी तनावों से नहीं परे रह पाते हैं।

……………………………………..

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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क्रिकेट मैच में फिक्सिंग-जब नायक ही खलनायक बन जाते हैं


          कभी भारतीय जनमानस के नायक रहे श्रीसंत ने अपने आचरण ने स्वयं को खलनायक के पद पर प्रतिष्ठत कर लिया है।  लोगों की याद्दाश्त कमजोर होती है पर लेखकों को अपने दिमाग में अनेक यादें संजोकर  रखनी पड़ती हैं ताकि कभी उनका उपयोग किया जा सके।  2009 में बीसीसीआई की क्रिकेट टीम ने इंग्लैंड में बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता जीती थी। फाइनल में श्रीसंत ने पाकिस्तान के आखिरी खिलाड़ी मिसबा उल हक की चार रन के लिये उड़ती जा रही गेंद लपककर मैच जितवा दिया था। गेंद अगर बाहर जाती तो पाकिस्तान जीत जाता।  उस समय तक क्रिकेट मैचों का बीस ओवरीय प्रारूप भारत में लोकप्रिय नहीं था। इतना ही नहीं भारत में क्रिकेट खेल की प्रतिष्ठा भी कम होती जा रही थी।  उस कैच ने न केवल बीस ओवरीय प्रारूप को भारत में लोकप्रिय बनाया वरन् क्रिकेट खेल की प्रतिष्ठा भी वापस दिलवाई।  हमारे यहंा लोकप्रियता का पैमाना लोगों की आंखों में सम्मान से कम उनके खर्च करने वाले पैसों के आधार पर तय की जाती है।  फिल्म का नायक ज्यादा पैसा लेता तो वह नंबर वन होता है।  खिलाड़ी की  लोकप्रियता इस आधार पर तय होती है कि उसे प्रदर्शन पर  पैसा कितना मिलता है?  खेल की लोकप्रियता इस आधार पर तय होती है कि उस दाव कितना लोग लगाते हैं!

        बहरहाल श्रीसंत चेहरे से जहां सुंदर थे वहीं उनकी गेंदबाजी भी गजब की थी।  पता नहीं लोकप्रियता का मतलब उनकी नज़र मे क्या था?  उन्हें पता ही नहंी भारतीय जनमानस में उनकी प्रतिष्ठा कितनी थी?  अगर इसका विचार होता तो वह कभी उन आरोपों के शिकार नहीं होते जो उन पर लगे हैं।  श्रीसंत का खेल निरंतर गिरता जा रहा था।  फिर वह अनेक बार जब बीसीसीआई की टीम में नहीं दिखते तो हैरानी होती थी। कहा जाता था कि उनको चोटें परेशान कर रही हैं!  उनके प्रशंसकों  को लगता था कि उनके साथ अन्याय हो रहा है।  यह अब पता चला है कि वह अपनी प्रतिष्ठा का नकदीकरण करने लग गये थे। क्रिकेट में पाने के लिये अब उनके पास कुछ नहीं था!  विश्व कप जीतने वाले खिलाड़ी के लिये बाकी सारे मैच छोटे हो जाते हैं।  श्रीसंत निरंतर अच्छा खेलते तो उनके लिये कोई उपलब्धि विश्व कप से बड़ी नहीं होती।  शायद यही कारण है कि उनके लिये अब धन अधिक महत्वपूर्ण हो गया होगा।   पार्टियों में सुंदरियों के साथ नाचते हुए उनके फोटो इस बात का प्रमाण है कि उनका लक्ष्य केवल अपनी  विश्व कप विजेता की छवि भुनाना भर था।  सच बात तो यह है कि एक खिलाड़ी के रूप में अब उनके सामने अपने अस्तित्व का संकट है पर उनके प्रशंसकों के लिये तो दिल टूटने वाली स्थिति है। बीस ओवरीय प्रतियोगिता के फायनल में मिसबा उल हक का कैच लेकर उन्होंने जो प्रतिष्ठा कमाई थी वह इस तरह मिट्टी में मिल जायेगी यह कल्पना कौन कर सकता था?

           क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिताओं में फिक्सिंग होती है यह चर्चा आम रही है।  लोग कह रहे हैं कि श्रीसंत की वजह से क्रिकेट कलंकित हुई है तो थोड़ा आश्चर्यजनक भी लगता है।  जो लोग इस पर सट्टा लगाकर अपनी मूर्खता का प्रदर्शन करते हैं उनके बारे में भी तो कुछ कहना ही चाहिये।  ऐसा दिखाया जा रहा है कि सट्टा लगाने वाले आम लोग कोई मासूम हों! हैरानी होती है यह सब सुनकर! एक नहीं दस बार यही प्रचार माध्यम कह चुके हैं कि वहां फिक्सिंग वगैरह होती है।  इसके बावजूद क्या लोगों की अक्ल मारी गयी है? कहा जाता है कि भारत में क्रिकेट एक धर्म की तरह है! यह केवल कोरी बकवास है। हमने बरसों से क्रिकेट देखी है। बीसीसीआई को टीम से कभी बहुत लगाव रहा पर अब पता लगा कि वह तो एक निजी संस्था है।  फिर भी अनेक बार समय मिलने पर क्रिकेट मैच देखते हैं। किसी खिलाड़ी के प्रति लगाव होता है तो उसकी सफलता पर खुश होते हैं।  किसी खिलाड़ी से लगाव नहीं है तो फिल्म की तरह देखते हैं।  सट्टा लगाकर स्वयं खिलाड़ी बनेंगे तो फिर खेल का मजा क्या खाक लेंगे? सीधी बात कहें तो सट्टा लगाने वाले अपने लिये खेलते हैं।  वह दर्शक नहीं खिलाड़ी होते हैं। एक खिलाड़ी जब स्वयं खेलता है तो वह दूसरे का खेल नहीं देख पाता। खेल देखने के लिये दर्शक बनकर बैठना जरूरी है।  शायद क्रिकेट में बढ़ता सट्टा ही उसे धर्म के नाम से पुकारने के लिये प्रचार माध्यमों को मजबूर कर रहा है।  जैसे हर धर्म में कर्मकांड होता है वैसे ही क्रिकेट धर्म का कर्मकांड शायद मैच फिक्सिंग है।  क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में छक्के चौके पर नर्तकिंया नृत्य करती हैं। नर्तकियों के भी दो झुंड होते हैं जो अपनी अपनी टीम की सफलता पर त्वरित नृत्य करती हैं।  हमने क्लब सुने हैं, बार सुने हैं जहां नर्तकिंया नृत्य कर आगंतुकों का मन बहलाती हैं पर उनकी स्थापना के लिये सरकारी लायसेंस जरूरी माना गया है।  क्लब स्तरीय प्रतियोगिताओं के नृत्य के लिये लायसेंस अनिवार्य नहीं है यह देखकर हैरानी होती है।

    अभी तो जांच एजेंसियों  ने मैच फिक्सिंग को लेकर कार्यवाही की है। कल को वह इस नृत्य कार्यक्रम के लिये लायसेंस न होने की बात कहकर भी कार्यवाही कर सकती है।  मगर ऐसा होगा नहीं क्योंकि क्रिकेट एक धर्म बनाकर प्रचारित किया जा रहा है। अगर उसमें नृत्य पर पुलिस कार्यवाही करती है तो कहा जायेगा कि सर्वशक्तिमान के अनेक रूप  के दरबार में भी तो नृत्य होते हैं तब वहां कार्यवाही क्यों नहीं करते? तय बात है कि धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दी जायेगी।  देश का चालीस से पचास हजार करोड़ रुपये इस सट्टे की भेंट चढ़ता है।  ऐसे में मन में एक प्रश्न होता है कि क्या क्या गायों, भैंसों या बकरियों के पास पैसा है जो यह धन लगाती हैं। तय बात है कि मनुष्य ही सट्टा लगाते हैं।  जब क्रिकेट को धर्म बताने वाले प्रचार माध्यम ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता में सट्टा और मैच फिक्सिंग की बात कहते रहे हैं तो क्या हमारे देश के मनुष्य जातीय समाज को यह बात समझ में नहीं आ रही।

संत कबीर दास जी कह गये है कि

सांई इतना दीजिये, जा में कुटुंब समाय

आप भी भूखा न रहूं, अतिथि भी भूखा न जाये।

       शायद उन्होंने यह याचना इसलिये की थी कि अधिक धन आने पर मति मारी जाती है।  जिनकी मति मारी जाती है वह मनुष्य पशु समान होता है।  तब क्रिकेट मैचों पर सट्टा लगाकर बरबाद होने वाले मनुष्य के हमदर्दी समाप्त हो जाती है।  बहरहाल हम क्रिकेट मैचों के साथ ही उन पर बाहर हो रही चर्चा देखकर यह सोचते हैं कि हम किसमें दिलचस्पी दिखायें। मैचों पर या बहस में!  इधर मैच चल रहा है तो उधर बहस चल रही है।  बार बार टीवी का चैनल बदलते हैं।  न इधर के रहते हैं न उधर के!  तब हमें एक ही मार्ग बेहतर लगता है कि स्वयं ही कुछ लिख डालेें। यह लेख उसी विचार का परिणाम है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
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जब मन में उष्णता हो तब मौन की बरफ से ठंडक पैदा करें-ग्रीष्म ऋतु पर लेख


    उत्तर भारत में अब गर्मी तेजी से बढ़ती जा रही है। जब पूरा विश्व ही गर्म हो रहा हो तब नियमित रूप से गर्मी में रहने वाले लोगों को  पहले से अधिक संकट झेलने के लिये मानसिक रूप से तैयार होना ही चाहिये।  ऐसा नहीं है कि हमने गर्मी पहले नहीं झेली है या अब आयु की बजह से गर्मी झेलना कठिन हो रहा है अलबत्ता इतना अनुभव जरूर हो रहा है कि गर्मी अब भयानक प्रहार करने वाली साबित हो रही है।  मौसम की दूसरी विचित्रता यह है कि प्रातः थोड़ा ठंडा रहता है जबकि पहले गर्मियों में निरंतर ही आग का सामना होता था।  प्रातःकाल का यह मौसम कब तक साथ निभायेगा यह कहना कठिन है।

   मौसम वैज्ञानिक बरसों से इस बढ़ती गर्मी की चेतावनी देते आ रहे हैं।  दरअसल इस धरती और अंतरिक्ष के बीच एक ओजोन परत होती है  जो सूर्य की किरणों को सीधे जमीन पर आने से रोकती है।  अब उसमे छेद होने की बात बहुत पहले सामने आयी थी।  इस छेद से निकली सीधी किरणें देश को गर्म करेंगी यह चेतावनी पहुत पहले से वैज्ञानिक देते आ रहे हैं।  लगातार वैज्ञानिक यह बताते आ रहे हैं कि वह छेद बढ़ता ही जा रहा है। अब कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि विश्व में विकास के मंदिर कारखाने ऐसी गैसें उत्सजर्तित कर रहे हैं जो उसमें छेद किये दे रही हैं तो कुछ कहते हैं कि यह गैसे वायुमंडल में घुलकर गर्मी बढ़ा रही हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि ओजोन पर्त के बढ़ते छेद की वजह से गर्मी बढ़ रही है या फिर गैसों का उपयोग असली संकट का कारण है या फिर दोनों ही कारण इसके लिये तर्कसंगत माने,ं यह हम जैसे अवैज्ञानिकों के लिये तय करना कठिन है ।  बहरहाल विश्व में पर्यावरण असंतुलन दूर करने के लिये अनेक सम्मेलन हो चुके हैं। अमेरिका समेत विश्व के अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्ष उनमें शािमल होने की रस्म अदायगी करते हैं। फिर गैस उत्सर्जन के लिये विकासशील देशों को जिम्मेदार बताकर विकसित राष्ट्रों के प्रमुख अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। यह अलग बात है कि अब इस असंतुलन के दुष्प्रभाव विकसित राष्ट्रों को भी झेलनी पड़ रहे है।

        एक बात तय है कि आधुनिक कथित राजकीय व्यवस्थाओं वाली विचाराधारायें केवल रुदन तक ही सभ्यता को ले जाती हैं।  लोकतंत्र हो या तानाशाही या राजतंत्र कोई व्यवस्था लोगों की समस्या का निराकरण करने के लिये राज्यकर्म में लिप्त लोगों को प्रेरित करते नहीं लगती। दरअसल विश्व में पूंजीपतियों का वर्चस्प बढ़ा है। यह नये पूंजीपति केवल लाभ की भाषा जानते हैं। समाज कल्याण उनके लिये निजी नहीं बल्कि शासन तंत्र का विषय  है। वह शासनतंत्र जिसके अनेक सूत्र इन्हीं पूंजीपतियों के हाथ में है।  यह पूंजीपति यह तो चाहते है कि विश्व का शासनतंत्र उनके लाभ के लिये काम करता रहे। यह वर्ग तो यह भी चाहता है कि  शासनतंत्र आम आदमी तथा पर्यावरण की चिंता करता तो दिखे, चाहे तो समस्या हल के लिये दिखावटी कदम भी उठाये पर उनके हितों पर कुठाराघात बिल्कुल न हो। जबकि सच यह है कि यही इन्हीं पूंजीपतियों  के विकास मंदिर अब वैश्विक संकट का कारण भी बन रहे हैं। सच बात तो यह है कि वैश्विक उदारीकरण ने कई विषयों को  अंधरे में ढकेल दिया है।  आर्थिक विकास की पटरी पर पूरा विश्व दौड़ रहा है पर धार्मिक, सामाजिक तथा कलात्मक क्षेत्र में विकास के मुद्दे में नवसृजन का मुद्दा अब गौण हो गया है।  पूंजीपति इस क्षेत्र में अपना पैसा लगाते हैं पर उनका लक्ष्य व्यक्तिगत प्रचार बढ़ाना रहता है। उसमें भी वह चाटुकारों के साथ ही ऐसे शिखर पुरुषों को प्रोत्साहित करते हैं जो उनकी पूंजी वृद्धि में गुणात्मक योगदान दे सकें।  अब वातानुकूलित भवनों, कारों, रेलों तथा वायुयानों की उपलब्धता ने ऐसे पूंजीपतियों को समाज के आम आदमी सोच से दूर ही कर दिया है।

          बहरहाल अगले दो महीने उत्तरभारत के लिये अत्यंत कष्टकारक रहेंगे।  जब तक बरसात नहीं आती तब तक सूखे से दुर्गति के समाचार आते रहेंगे।  यह अलग बात है कि बरसात के बाद की उमस भी अब गर्मी का ही हिस्सा हो गयी है।  इसका मतलब है कि आगामी अक्टुबर तक यह गर्म मौसम अपना उग्र रूप दिखाता रहेगा।  कुछ मनोविशेषज्ञ मानते हैं कि गर्मी का मौसम सामाजिक तथा पारिवारिक रूप से भी तनाव का जनक होता है। यही सबसे बड़ी समस्या हेाती है। सच बात तो यह है कि कहा भी जाता है कि तन की अग्नि से अधिक मन की अग्नि जलाती हैं संकट तब आता है जब आप शांत रहना चाहते हैं पर सामने वाला आपके मन की अग्नि भड़काने के लिये तत्पर रहता है।  ऐसे में हम जैसे लोगों के लिये ध्यान ही वह विधा है जो ब्रह्मास्त्र का काम करती है।  जब कोई गर्मी के दिनों में हमारे दिमाग में गर्मी लाने का प्रयास करे ध्यान में घुस जायें।  वैसे भी गर्मी के मार से लोग जल्दी थकते  लोग अपनी उकताहट दूसरे की तरफ धकेलने का प्रयास करते हैं।  उनसे मौन होकर ही लड़ा जा सकता है।  वहां मौन ही बरफ का काम कर सकता है       

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
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रामनवमी पर अध्ययन और चिंत्तन जरूरी-हिंदी लेख


      आज रामनवमी का पर्व पूरे देश में बड़े उल्लास के साथ मनाया जा रहा है।  इस अवसर पर अनेक धर्मभीरु लोग मंदिरों में जाकर आरती, भजन तथा वहां मूर्तियों के अभिषेक आदि कार्यक्रमों में भाग लेकर आनंद उठाते हैं।  अनेक मंदिरों में लंगर आदि का कार्यक्रम भी होता है।  हम जैसे योग तथा ज्ञानसाधकों को ऐसे अवसर नये नये अनुभवों को अपने साथ जोड़ने का होता है। सच बात तो यह है कि योगविद्या के साथ ही श्रीमद्भागवत गीता के साथ जुड़ने पर इस संसार को देखने का हमारा ही दृष्टिकोण ही बदल गया है।  नित नयी अनुभूतियां होती हैं।  अनेक सुखद प्रसंग सामने इस तरह आते हैं कि कहना पड़ता है कि परमात्मा के खेल निराले हैं।

      पिछले दस बारह वर्षों से भारत में योग विद्या का प्रचार बढ़ा है। अनेक लोग मिलजुलकर योग साधना करते हैं।  इस दौरान आसन, प्राणायाम, ध्यान और मंत्रजाप करते करते वह एक दूसरे के सत्संगी बन जाते हैं।  भारतीय योग संस्थान और पतंजलि योग संस्थान के बैनरों के साथ होने वाले इन योग शिविरों ने सत्संगियों का एक नया समूह बनाया है।  हमने देखा है कि हमारे देश में पूजा पद्धतियों को लेकर अनेक पंथ बन चुके हैं। उनके पंथ प्रमुख अपने भक्तों के लिये पूज्यनीय माने जाते हैं।  उनके परमधाम गमन के पद उनका विश्राम आसन या कहें कुर्सी पर बैठने वाला दूसरा मनुष्य भी वहां प्रतिष्ठत होकर उनका  संचालन करता है।  इस तरह  पेशेवर ढंग से हमारे धार्मिक पंथ भी अपनी अध्यात्मिक विरासात संभाले रहते हैं।  आमतौर से अनेक धार्मिक विशेषज्ञ इन पंथों में बंटे समाज के विरोधी है पर योग शिविरों के आधार पर इन समूहों को वैसा नहीं माना जा सकता।

          पिछले कुछ वर्षों से रामनवमी, मकर सक्रांति, होली, जन्माष्टमी तथा अन्य धार्मिक पर्वों के अवसर पर हमारा संपर्क ऐसे ही योग शिविर से जुड़े लोगों से बढ़ता जा रहा है।  ऐसे अवसरों पर उनके साथ मिलकर बैठने में आनंद आता है।  यह आनंद रक्तशिराओं में जिस तरह के अमृत का संचालन करता है वह केवल योग से जुड़ी देह के लिये ही संभव है।

    आज रामनवमी के अवसर पर ऐसे ही एक योग सत्संगी के साथ हम अपने ही शहर के उन मंदिरों में गये जहां पहले भी जाते रहे हैं। इन मंदिरों का समय के साथ साथ आकर्षण बढ़ता ही गया है।  वह सत्संगी इन मंदिरों में हमारे साथ पहली बार चले।  वह बहुत प्रसन्न हुए।  कहने लगे ‘आपके साथ इतना घूमने में आज आनंद आ गया।’

 हमने हंसकर कहा कि‘‘जब भी ऐसे धार्मिक पर्व आते हैं हम अपने ही शहर के मंदिरों में जाकर आंनद उठाते हैं। सच बात तो यह है कि लोगों को बाहर दूसरे शहर में जाकर आंनद उठाने की बात मन में इसलिये आती है क्योंकि वह अपने शहर में घूमते नहीं।  उनका आदत ही नहीं। अगर अपने शहर में ही आनंद उठाने का अभ्यास हो तो फिर मन तृप्त हो जाता है तब कहीं बाहर जाकर भटकने का विचार नहीं आता है।’’

    वह हमारी बात से  सहमत हुए। सांई बाबा, वैष्णो देवी, राम मंदिर, और गोवर्धन के मंदिर हमारे शहर में भी हैं।  इन स्थानों में जाकर ध्यान लगाने के बाद मन तृप्त हो जाता है।  ऐसे में कोई व्यक्ति दूसरे शहर में प्रसिद्ध मंदिरों जाकर वहां दर्शन के लिये प्रेरित करता है तब उसे ना करना पड़ता है।  नाराज लोग कहते हैं कि‘‘यार, कहीं बाहर जाकर घूमा करो। क्या हमेशा यहीं पड़े रहते हो?’’

    उनके ताने पर मुस्कराकर चुप रहना ही पड़ता है। श्रीमद्भागवत गीता के  संदेशों की बात उनसे करना व्यर्थ है।  हमने देखा है कि ऐसे महान दर्शन के बाद घर लौटे लोग अपने साथ थकावट लाते हैं। यह थकावट उनके दर्शन के आनंद को सुखा देती है।  रेल की यात्रा करने के बाद भीड़ में जूझते हुए जिन मंदिरों के वह दर्शन करते हैं इसके लिये उनकी प्रशंसा ही करना चाहिये। मगर घर लौटकर सभी के सामने उसका प्रचार करने की बात कुछ जमती नहीं है।  फिर जब हमारा दर्शन कहता है कि परमात्मा सभी जगह मौजूद है तब ऐसे प्रयास करना अजीब लगता है।  एक बात तय रही कि ऐसे लोग अपने ही शहरों में घूमते नहीं है।  उनके लिये दूर के ढोल ही सुहावने हैं। हमारी यह अनुभूति है कि  पास के ढोल का आनंद उठाने के लिये योग वि़द्या के साथ जुड़ना ही एकमात्र विकल्प है।  सच बात तो यह है कि योग तो सभी करते हैं। अंतर इतना है कि योग विद्या से जुड़ा साधक सहज योग करता है और न करने वाला असहज योगी हो जाता है। देह में स्थित मन इधर उधर दौड़ाकर असहज करता है। जबकि योग साधक अपने मन को जोड़ने के लिये विकल्प स्वयं चुनता है।  कुछ धार्मिक प्रवचनकर्ता कहते हैं कि काम, क्रोध, मोह, लोभ तथा अहंकार छोड़ दो।  यह संभव नहीं है। योग विद्या से उन पर नियंत्रित किया जा सकता है।

               आज रामनवमी का पर्व हमारे लिये अध्यात्मिक सक्रियता का दिन रहता है।  मंदिरों में जाकर ध्यान लगाते हैं।  वहां अन्य भक्तों के श्रद्धामय प्रयास सुखद अनुभूति देते हैं।  इस आंनद को व्यक्त करने के लिये शब्द नहीं होते। किसी पर हंसते नहीं है वरन् उनकी सक्रियता देखकर उनके चेहरे पर आये सहज भाव को पढ़ते हैं।  सच बात तो यह है कि जब कोई आदमी पूजा, आरती या भजन कार्यक्रम में शामिल होता है तब उसके हृदय का भाव सात्विक हो जाता है।  यही चेहरे पर प्रकट होता है।

      इस रामनवमी पर सभी ब्लॉग लेखक मित्रों तथा पाठकों के इस आशा के साथ बधाई। साथ ही इस बात की शुभकामनायें कि उनके हृदय का अध्यात्मिक विकास हो।

 

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

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समाज में चेतना की कोशिश-हिंदी व्यंग्य कविता



समाज में चेतना अभियान
कहां से प्रारंभ करें
यहां कोई दुआ
कोई दवा
और कोई दारु के लिये बेकरार है,
अपने शब्दों से किसे  खुश करे
कोई रोटी
कोई कपड़ा
कोई छत पाने के लिये
जंग लड़ने को खड़ा तैयार है।
कहें दीपक बापू
अपनी समस्याओं पर सोचते हुए लोग रोते,
हर पल  चिंताओं में होते,
दिल उठा रहा है
लाचारियों का बोझ
दिमाग में बसा है वही इंसान
जो उनके मतलब का यार है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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सुख का योग दु:ख से है-पतंजलि योग साहित्य


         पंचतत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार प्रकृति स्वतः विराजती हैं। मनुष्य का मन तो अत्यंत चंचल माना जाता है। यही मन मनुष्य का स्वामी बन जाता है और जीवात्मा का ज्ञान नहीं होने देता। अध्यात्म के ज्ञान के अभाव में सांसरिक क्रियाओं के अनुकूल मनुष्य प्रसन्न होता है तो प्रतिकूल होने पर भारी तनाव में घिर जाता है। मकान नहीं है तो दुःख है और है उसके होने पर सुख होने के बावजूद उसके रखरखाव की चिंता भी होती है। धन अधिक है तो उसके लुटने का भय और कम है नहीं है या कम है, तो भी सांसरिक क्रियाओं को करने में परेशानी आती है मनुष्य सारा जीवन इन्हीं  अपनी कार्यकलापों के अंतद्वंद्वों में गुजार देता है। विरले ज्ञानी ही इस संसार में रहकर हर स्थिति में आनंद लेते हुए परमात्मा की इस संसार रचना को देखा करते हैं। अगर किसी वस्तु का सुख है तो उसके प्रति मन में राग है और यह उसके छिन जाने पर क्लेश पैदा होता है। कोई वस्तु नहीं है तो उसका दुःख इसलिये है कि वह दूसरे के पास है। यह द्वेष भाव है जिसे पहचानना सरल नहीं है। मृत्यु का भय तो समस्त प्राणियों को रहता है चाहे वह ज्ञानी ही क्यों न हो। मनुष्य का पक्षु पक्षियों में भी यह भय देखा जाता है।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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सुखानुशयी रागः।
‘‘सुख के अनुभव के पीछे रहने वाला क्लेश राग है।’’
‘‘दुःखानुशयी द्वेषः।
‘‘दुःख के अनुभव पीछे रहने वाला क्लेश द्वेष है।’’
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रूडोऽभिनिवेशः।।
‘‘मनुष्य जाति में परंपरागत रूप से स्वाभाविक रूप से जो चला आ रहा है वह मृत्यु का क्लेश ज्ञानियों में भी देखा जाता है। उसे अभिनिवेश कहा जाता है।’’
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।
‘‘ये सभी सूक्ष्मावस्था से प्राप्त क्लेश चित्त को अपने कारण में विलीन करने के साधन से नष्ट करने योग्य हैं।’’
ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः।।
‘‘उन क्लेशों की वृत्तियां ध्यान से नष्ट करने योग्य हैं।’’

       इस तरह अंतद्वंद्वों में फंसी अपनी मनस्थिति से बचने का उपाय बस ध्यान ही है। ध्यान में जो शक्ति है उसका बहुत कम प्रचार होता है। योगासन, प्राणायाम और मंत्रजाप से लाभ होते हैं पर उनकी अनुभूति के लिये ध्यान का अभ्यास होना आवश्यक है। दरअसल योग साधना भी एक तरह का यज्ञ है। इससे कोई भौतिक अमृत प्रकट नहीं होता। इससे अन्तर्मन   में जो शुद्ध होती है उसकी अमृत की तरह अनुभूति केवल ध्यान से ही की जा सकती है। इसी ध्यान से ही ज्ञान के प्रति धारणा पुष्ट होती है। हमें जो सुख या दुःख प्राप्त होता है वह मन के सूक्ष्म में ही अनुभव होते हैं और उनका निष्पादन ध्यान से ही करना संभव है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

विदुर नीति-कटु वाणी बोलने वाला निंदा का पात्र बनता है


      मनुष्य में पूज्यता का भाव स्वाभाविक रूप से रहता है।  दूसरे लोग उसे देखें और सराहें यह मोह विरले ही छोड़ पाते हैं।  हमारे देश में जैसे जैसे  समाज अध्यात्मिक ज्ञान से परे होता गया है वैसे वैसे ही हल्के विषयों ने अपना प्रभाव लोगों पर जमा लिया है।  फिल्म और टीवी के माध्यम से लोगों की बुद्धि हर ली गयी है।  स्थिति यह है कि अब तो छोटे छोटे बच्चे भी क्रिकेट खिलाड़ी, फिल्म या टीवी अभिनेता अभिनेत्री और गायक कलाकर बनने के लिये जूझ रहे हैं।  आचरण, विचार और व्यवहार में उच्च आदर्श कायम करने की बजाय बाह्य प्रदर्शन से समाज में प्रतिष्ठा पाने के साथ ही धन कमाने का स्वप्न लियेे अनेक लोग विचित्र विचित्र पोशाकें पहनते हैं जिनको देखकर हंसी आती है।  ऐसे लोग  अन्मयस्क व्यवहार करने के इतने आदी हो गये हैं कि देश अब सभ्रांत और रूढ़िवादी दो भागों के बंटा दिखता है।  जो सामान्य जीवन जीना चाहते हैं उनको रूढ़िवादी और जो असामान्य दिखने के लिये व्यर्थ प्रयास कर रहे हैें उनको सभ्रांत और उद्यमी कहा जाने लगा है।  यह समझने का कोई प्रयास कोई नहीं करता कि बाह्य प्रदर्शन से कुछ देर के लिये वाह वाही जरूर मिल जाये पर समाज में कोई स्थाई छवि नहीं बन पाती।
   विदुर नीति में कहा गया है कि
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यो नोद्भुत कुरुते जातु वेषं न पौकषेणापि विकत्वत्तेऽयान्।

न मूचर््िछत्रः कटुकान्याह किंचित् प्रियं सदा तं कुरुते जनेहि।।

हिन्दी में भावार्थ-सभी लोग उस मनुष्य की प्रशंसा करते हैं जो कभी अद्भुत वेश धारण करने से परे रहने के साथ कभी  आत्मप्रवंचना नहीं  करता और क्रोध में आने पर भी कटु वाणी के उपयोग बचते हैं। 

न वैरमुद्दीययाति प्रशांतं न दर्पभाराहृति नास्तमेसि।

न दुर्गतोऽस्पीति करोत्यकार्य समार्यशीलं परमाहुरायांः।।
हिन्दी में भावार्थ- सभी लोग उत्तम आचरण वाले उस पुरुष को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं जो कभी एक बार बैर शांत होने पर फिर उसे याद नहीं करता, कभी अहंकार में आकर किसी को त्रास नहीं देता और न ही कभी अपनी हीनता का प्रदर्शन सार्वजनिक रूप  करता है।
     इस विश्व में बाज़ार के धनपति स्वामियों और प्रचार प्रबंधकों ने सभी क्षेत्रों में अपने बुत इस तरह स्थापित कर दिये हैं कि उनके बिना कहीं एक पत्ता भी नहीं हिल सकता।  इनकी चाटुकारिता के बिना खेल, फिल्म या कला के क्षेत्र कहीं भी श्रेष्ठ पद प्राप्त नहीं हो सकता।   क्रिकेट, फिल्म और कला के शिखरों पर सभी नहीं पहुंच सकते पर जो पहुंच जाते हैं-यह भी कह सकते हैं कि बाज़ार और प्रचार समूह अपने स्वार्थों के लिये कुछ ऐसे लोगों को अपना लेते हैं जो पुराने बुतों के घर में ही उगे हों और मगर भीड़ को नये चेहरे लगें-मगर सभी को ऐसा सौभाग्य नहीं मिलता।  ऐसे में अनेक आम लोग निराश हो जाते हैं।  अलबत्ता अपने प्रयासों की नाकामी उन्हे समाज में बदनामी अलग दिलाती है।  ऐसे में अनेक लोग हीन भावना से ग्रसित रहते हैं।  पहले अहंकार फिर हीनता का प्रदर्शन आदमी की अज्ञानता का प्रमाण है।  इससे बचना चाहिए।
  हमें यह बात समझना चाहिए कि व्यक्तिगत व्यवहार और छवि समाज में लंबे समय तक प्रतिष्ठा दिलाती है। यह स्थिति गाना गाकर या नाचकर बाह्य प्रदर्शन की बजाय आंतरिक शुद्धता से व्यवहार करने पर मिलती है। खिलाड़ी या अभिनेता होने से समाज का मनोरंजन तो किया जा सकता है।  बाज़ार और प्रचार समूह भले ही वैभव के आधार पर समाज के मार्गदर्शके रूप में चाहे कितने भी नायक नायिकायें प्रस्तुत करें पर कालांतर में उनकी छवि मंद होही जाती है।
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”
ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर

jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior

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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-वस्तु छिन जाने का दुःख ज्ञान से ही शांत होता है (kautilya ka arthshastra-vastu aur Gyan)


       क्रोध के दुर्गुण से निपटने का उपाय अपने अंदर सहनशीलता का गुण पैदा करना ही है। जहां दो लोग आपस में क्रोध करते हैं उनका मन और बुद्धि संतप्त हो जाती है। अंततः वह स्वयं को ही ही हानि पहुंचाते हैं। अगर हम हिंसक घटनाओं को देखें तो लोगों पर तरस आता है। छोटी छोटी बातों पर लोग आपस में लड़ पड़ते हैं। यहां तक कि उनको अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं।
          कबीर दास जी ने एक जगह कहा भी है कि ‘न सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा’। जब हम अपने समाज की सांस्कृतिक विरासत की बात करते हैं तो इस बात को भूल जाते हैं कि हमारे यहां परिवार तथा समाज में जरा जरा बात पर लोग आपस में लड़ पड़ते हैं। कई बार तो यह होता है कि लोग एक दूसरे की जान ले लेते हैं और बाद में जब उनके विवाद के विषय का पता चलता है तो लगता है कि वह तो एकदम महत्वहीन था और उसमें सार तो कुछ था ही नहीं। यह सब क्रोध के दुर्गुण का परिणाम था।
                          कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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                       अमर्षोप्रृहीतानां मन्युसन्तप्तचेतसाम्।
                     परस्परपकारेण पुंसां भवति विग्रह।।
           ‘‘दोनों और क्रोध होने पर परस्पर संतप्त चित्त वाले मनुष्य अपकार को प्राप्त होते हैं। पुरुषों में यह विग्रह सदैव उपस्थित होता है।
                    यानापहारस्मभूते ज्ञानशक्तिविधातजे
                     समस्तदर्थश्वांगन क्षान्त्या चोपेक्षणेन च।।
         “ज्ञान या ज्ञान शक्ति के अभाव में वस्तु के हरण का विग्रह प्राप्त होता है वह ज्ञान शक्ति के उपयोग से ही शांत होता है या फिर अपने अंदर सहनशीलता लाने पर ही शांति मिलती है।”
          यह जीवन तो नश्वर है और संसार के अनेक पदार्थ तो प्राणहीन हैं पर उनका आकर्षण मनुष्य के मन को बांधता है। सोना, चांदी, हीरा और जवाहरात टके के मोल नहीं है पर मनुष्य के मोह ने उनको कीमती बना दिया है। इन पदार्थों का वह संचय करता है और अगर कहीं उनसे विग्रह हो तो उसे पीड़ा होती है। इनको लेकर लोगों में आपसी विवाद होते हैं। लूटपाट तक हो जाती है। अपनी वस्तु के छिन जाने पर आदमी खिन्न हो जाता है यह जानते हुए कि यह मायारूपी लक्ष्मी तो चंचला है। अपनी वस्तु खोने या छिन जाने पर आदमी को निराशा से बचने के लिये अपने अंदर सहनशीलता के गुण की तरफ देखना चाहिए। ऐसे विग्रह होने पर जब हम अपने अंदर सहनशीलता के तत्वा को निहारेंगे तो मन शांत हो जायेगा।

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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’, Gwalior
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योग गुरु बाबा श्री रामदेव और विवादों का चोली दामन का साथ-हिन्दी आलेख (baba ramde aur vivad-hindi article)


बाबा रामदेव को योग शिक्षा सिखाते हुए बहुत समय हुआ होगा पर उनको चर्चा में आये पांच छह वर्ष से अधिक नहीं हुआ है, जबकि इस देश में भारत में योग साधना की अनिवार्यता पिछले पंद्रह वर्षों से बहुत तेजी से की जा रही थी। इसका कारण यह था कि जैसे जैसे आधुनिक विलासिता साधनों का प्रयोग बढ़ा वैसे ही लोगों में राजरोग का प्रचलन बढ़ा तो समाज में मानसिक तनाव की स्थिति भी बढ़ती देखी गयी। दूसरी बात यह रही कि मधुमेह, उच्च रक्तचाप, गैसीय विकार तथा हृदय का रोगी होना आम बात हो गयी। एक मजे की बात यह रही कि अंग्रेजी चिकित्सा में इनका इलाज किया गया पर यह भी बताया कि अंततः इन पर परहेज से ही नियंत्रण पाया जा सकता। साथ ही यह भी बताया गया कि मधुमेह, उच्च रक्तचाप तथा अन्य बीमारियों से होने वाली तत्कालिक पीड़ा से मुक्ति का उपाय तो है पर उनको समाप्त करने वाली कोई दवा नहीं है। ऐसे में समाज विशेषज्ञों का ध्यान देशी चिकित्सा पद्धतियों की तरफ गया तो धार्मिक संतों ने इन बीमारियों को जड़ से मिटाने के लिये भारतीय योग साधना का उपाय बड़े जोरदार ढंग से बताना प्रारंभ किया।
अनेक पुराने संत इसकी चर्चा करते थे पर वह अध्यात्मिक प्रवचनों में अन्य विषयों के साथ योग साधना का भी उपदेश देते थे। इधर समाज बीमार हो रहा था और जरूरत थी इसके लिये इलाज की। जिस तरह हृदय की पीड़ा से जूझ रहे आदमी के नाक में आक्सीजन का सिलैंडर लगाया जाता है न कि उसके पास ज्ञानी बढ़ाने के लिये श्रीमद्भागवत गीता पढी जाती हैं क्योंकि यह उस समय की आवश्यकता नहीं होती। उसी तरह समाज में विकारों के बढ़ते प्रकोप से बचने के लिये जरूरत थी केवल योग साधना के प्रचार की और ऐसे में अन्य विषयों की चर्चा अनावश्यक लगने लगी। उस समय योग गुरु बाबा रामदेव का प्रचार शिखर पर अवतरण हुआ। लोग उनके साथ तेजी से जुड़ने लगे। स्थिति यह हो गयी कि अंग्रेजी चिकित्सा के चिकित्सक लोगों को योग साधना करने के लिये प्रेरणा देने लगे।
इस देश में ऐसे अनेक लोग हैं जो उनसे भी पहले योग साधना करने के साथ ही सिखाते रहे हैं मगर व्यवसायिक न होने की वजह से उनको प्रचार माध्यमों में महत्व नहीं मिला। अनेक बुद्धिजीवी ऐसे हैं जो स्वयं योग साधना करते हैं पर सिखाने का उनके पास समय नहीं मिलता। ऐसे लोगों ने बाबा रामदेव को खुला समर्थन दिया।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि बाबा रामदेव का योग का प्रचार बढ़ाना उस हर व्यक्ति के लिये प्रसन्नता का विषय है जो निष्काम भाव से समाज का हित सोचते हैं। स्वस्थ, मजबूत और चिंतन क्षमता वाला समाज अंततः बुद्धिजीवियों को ही संरक्षण देता है यह सर्वमान्य तथ्य है। ऐसे में इस लेखक ने भी बाबा रामदेव के समर्थन में जमकर लेख लिखे हैं। चूंकि हम चार वर्ष से इंटरनेट पर लिख रहे हैं और योग तथा श्रीमद्भागवत इस लेखक के प्रिय विषय हैं तो स्वाभाविक रूप से स्वामी रामदेव पर सदैव कुछ न कुछ लिखने में मजा आया। अब पुराने लेखों पर यह टिप्पणियां मिल रही हैं कि आप जैसे लोगों ने बाबा रामदेव का भाव बढ़ाया है तो यह बात भी लिखनी पड़ रही है कि अगर बात केवल योग शिक्षा की है तो यह तथ्य तो उनके आलोचकों को भी मानना चाहिये कि भारतीय समाज में चेतना लाने में बाबा रामदेव की महत्वपूर्ण भूमिका है। अलबत्ता योग शिक्षा से इतर विषयों पर उनसे सहमति और असहमति की हमारे पास पूरी गुंजायश है और हमने तो इस विषय पर अनेक पाठ लिखे हैं।
बाबा रामदेव योग शिक्षा में मिली सफलता से उत्साहित होकर राष्ट्रीय स्वाभिमान अभियान प्रारंभ किया है। सैद्धांतिक रूप से यह अच्छा है पर जैसे जैसे बाबा रामदेव अपने इस अभियान के दौरान कुछ व्यक्तियों या संगठनों पर शाब्दिक प्रहार करेंगे तब इसमें विवाद भी होंगे। एक पुराने समर्थक होने के बावजूद अनेक बुद्धिजीवी योग शिक्षा से इतर उनकी सक्रियता पर सवाल उठायेंगे। यह समाज मंथन का दौर है और इसमें द्वंद्व ढूंढने की बजाय सामजंस्य बढ़ाना चाहिये। हालांकि बहसों से द्वंद्व बढ़ता है पर यह बात सामान्य लोगों पर लागू होती है पर जहां ज्ञानी बहस करते हैं वहां निष्कर्ष निकलता है और समाज में सामंजस्य तथा आपसी सहयोग बढ़ता है। बाबा रामदेव अब एक शिखर पुरुष हैं और हम जैसा आम लेखक उनके पास न जा सकता है न मिल सकता है। अपने अभ्यास से वह योग रूप हो गये हैं इसलिये उन पर अपना ज्ञान भी नहीं झाड़ा जा सकता। इसके बावजूद यह सच है कि एक आम योग साधक और लेखक होने के कारण उनकी योग शिक्षा के साथ ही अन्य विषयों पर भी उनके वक्तव्यों पर दृष्टिपात करते हैं। उनको टीवी पर देखकर और उनके वक्तव्य समाचार पत्रों में पढ़कर योग साधना के कुछ रहस्य तो वैसे ही प्रकट हो जाते हैं।
आखिर में उनकी गतिविधियों से मिले रहस्यों की चर्चा करते हैं। एक रहस्य तो यह कि योग साधकों को उसके आठों अंगों की शिक्षा के अलावा कुछ अन्य नहीं देना चाहिये। अगर वह योग शिक्षा में पारंगत हो गया तो सारे विषय उसके पीछे चलेंगे। यदि आप योग साधक हैं तो अपने भविष्य की योजना के बारे में सार्वजनिक घोषणा बिल्कुल न करें क्योंकि आप नहीं जानते कि योग माता आपकों कहां ले जायेगी? बाबा श्रीरामदेव ने घोषणा की थी कि वह कभी राजनीति नहंी करेंगे। उनका यह वक्तव्य इस लेखक ने टीवी पर सुना था। तब ही यह अनुमान किया था कि एक न एक दिन इनको अपनी राष्ट्रवादी संकल्प के कारण इस चुनावी राजनीति में भी आना पड़ेगा। वजह यह कि योग साधना बरसों से कर रहे हैं। नित प्रतिदिन देह में पवित्र रक्त का प्रवाह तथा उच्च विचारों का निर्माण उनके अंदर होता होगा। जब योग का चरम शिखर पा लेंगे तो फिर उनके देह में मौजूद पवित्र गुण उनको समाज तथा राष्ट्र के नवनिर्माण के प्रेरित करेंगे। ऐसे में वह पुराने समय की तरह कोई युद्ध तो लड़ना संभव नहीं है इसलिये वह प्रत्यक्ष चुनावी राजनीति में आयेंगे जो कि आजकल युद्ध की तरह ही होती है। इसका सीधा मतलब यह कि हम उनके चुनावी राजनीति में न आने के संकल्प की याद करना पसंद नहीं करते।
आगे क्या होगा, यह तो हम देखेंगे। यह पाठ हमने एक पाठक की उस टिप्पणी पर ही लिखा है जिसका हमने जिक्र किया है। उसी ने यह याद दिलाया था कि योग गुरु रामदेव ने पहले राजनीति में न आने की घोषणा की थी पर अब आ गये। इसका मतलब यह कि वह भी दूसरे लोगों की तरह हैं। हम इसके जवाब में यही कहते हैं कि योग साधना बहुत जरूरी है पर श्रीमद्भागवत का अध्ययन उसके साथ होना चाहिये। जब गीता संदेश पढ़ने लगेंगे तक यह समझ जायेंगे कि गुण ही गुणों को बरतते हैं। सहज योगी हो या असहज योगी अपने गुण के वश में होकर ही काम करता है। दूसरी बात यह कि महाभारत युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने हथियार न उठाने की घोषणा की थी पर वीरवर भीष्म पितामह ने उनको इस प्रतिज्ञा से विचलित कर दिया था। हम यहां बाबा रामदेव की तुलना भगवान श्रीकृष्ण से नहीं कर रहे बल्कि यह बता रहे हैं कि योगियों की लीला खुद योग भी नहीं जानते। इसलिये उनको ऐसी घोषणाओं से बचना चाहिये। अगर योगी अपनी राह बदल कर आ भी जायें तो उस भी आपत्ति नहीं करना चाहिए।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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राम के रूप इंसान क्या जाने (ram ke roop insan kya jane)


घर से बाहर निकलकर जैसे ही स्कूटर पर सवार हुआ, वैसे ही पास से गुजरते दो आदमियों का वार्तालाप कानों में सुनाई दिया। एक दूसरे से कह रहा था कि ‘आज तो शहर में धारा 144 लागू है। अयोध्या के राम मंदिर पर फैसला आने वाला है।’
दूसरा बोला-हां, अयोध्या के राम मंदिर पर अदालत का फैसला साढ़े तीन बजे आयेगा। आज बच्चे भी स्कूल नहंी गये हैं। बता रहे हैं कि टैम्पो और ऑटो भी साढ़े तीन बजे के बंद हो जायेंगेे। एक तरह से शहर में सन्नाटा छा जायेगा।’’
मैं सोच रहा हूं कि मेरा इस विषय से संबंध नहीं है क्योंकि घर तो अपने ही वाहन से मुझे वापस आना है। राम मंदिर पर फैसला! याद आया, पिछले कई बरसों से मेरे जेहन में बसा है राम मंदिर! मन में तो राम भी बसे हैं पर मंदिर एक अलग विषय है। राम पर चर्चा करने में मज़ा आता है पर अयोध्या का राम मंदिर अब गुजरे ज़माने की बात लगता है। ऐसा लगता है कि मेरी बुद्धि समय दूसरों के विषय पर काम करती थी जब इस विषय पर लोगों से चर्चा करता था। अब स्वतंत्र रूप से सोचता हूं तो लगता है कि राम मंदिर तो मेरे पास ही है। अपने कार्यस्थल से आते जाते दोनेां की बार ही मार्ग में पड़ता है जहां समय मिलने पर अवश्य जाता हूं। एक विष्णु जी का भी मंदिर है जहां परिवार के साथ जाना होता है। मोहल्ले से थोड़ी दूरी पर ही हनुमानजी और शिवजी के मंदिर हैं और वहां ध्यान लगाने में बहुत मज़ा आता है। जिन मंदिरों में जाता हूं मुझे वही सिद्ध लगते हैं जहां नहीं गया उनको हृदय में अब स्थान नहीं दे पाता। पता नहीं कभी अयोध्या जाना होगा या नहंी, पर अभी तक अनेक बार वृंदावन और उज्जैन में जाकर ही मुझे आनंद प्राप्त करने का अवसर मिला है।
एक राम मेरे अंदर है जहां उनकी अयोध्या उनकेसाथ है तो दूसरी अयोध्या मुझसे बहुत दूर है। मेरी आस्था मेरे घर के आसपास ही सिमटती जाती है और अपना स्कूटर लेकर चल पड़ता हूं। सोचता हूं-‘शाम को आकर टीवी पर समाचार सुनूंगा।’
शाम को चार बजे हैं। एक मित्र से फोन पर पूछता हूं कि-‘क्या अयोध्या के राम मंदिर पर फैसले का कोई समाचार आया?’’
वह बताता है कि ‘अभी नहीं आया! साढ़े चार बजे तक आने की संभावना है।’
मैं घर चलने की तैयारी में हूं। एक मित्र रास्ते में मिल जाता है। उससे बात करता हूं तो वह कहता है कि चलो, थोड़ी दूर चलकर चाय पीते हैं।
मैं उसे बिठाकर बाज़ार मंे आता हूं। दुकानें बंद हैं! मैंने कहा-‘पता नहीं आज यह बाज़ार क्यों बंद है! वह होटल वाला भी बंद कर गया, सुबह तो खुला था!
मित्र ने कहा-‘अरे यार, याद आया आज तो अयोध्या में राम मंदिर पर फैसला आना था। इसलिये उपद्रव होने की आशंका में बाज़ार बंद हो गया है। चलो फिर कल मिलेंगे।’
वह स्कूटर से उतरता ही है कि एक अन्य मित्र वहां से कहीं से निकलकर आया। मैने उत्सुकतावश पूछा-‘तुमने राम मंदिर के फैसले पर समाचार सुना है।’
वह बोला-‘हां, पूरा तो सुन नहीं पाया पर विवादित ज़मीन को तीनों पक्षों में एक समान बांटने का निर्णय सुनाया गया है। बाकी पूरा सुनने ही घर जा रहा हूं। मुख्य बात यह है कि रामलला की मूर्तियां वहां से नहीं हटेंगी।’
पहला वाला मित्र जो अभी वहीं खड़ा था‘-यार आपकी पूरी बात समझ में नहीं आयी। अभी जाकर समाचार सुनते हैं।’
मैंने कहा-‘अभी तो पूरे समाचार आने हैं। घर जाकर देखते हूं कि क्या फैसला और कैसा है।’’
मैं चल पड़ता हूं। रास्ते भर सन्नाटा छाया लगता है। बाज़ार में कुछ ही दुकाने खुली हुईं हैं। आवागमन भी अत्यंत कम है। यह दृश्य या तो एकदम सुबह दिखता है या रात को दस बजे के बाद! जिन मार्गों पर जाम लगते हैं वहां पर आसानी से चला जा रहा हूं। कुछ जगह लड़के झुंड बनाकर खड़े हैं तो उनको देखता हूं कि कहंी वह किसी विवाद में तो नहीं लगे हैं। कुछ सड़कों पर बच्चे इधर से उधर बड़े आराम से जा रहे हैं जहां उनको वाहनों की कम आवाजाही के कारण भय नहीं रहता।
मेरा घर शहर से दूर है। सोचता हूं मेरे घर के आसपास ऐसा नहीं होगा। मगर जैसे ही अपने घर के पास पहुंचता हूं। सारी दुकाने बंद हैं। कहंी ठेले नहंी लगे। पूरा शहर भयाक्रांत लगता है? किसलिये? ऐसा लगता है कि जैसे सभी को डरा दिया गया है। इतिहास की पुनरावृत्ति की आशंकाऐं सभी को कंपित किये हुए हैं। लोग चिंतित हैं और मैने बड़ी बेफिक्री से अपना रास्ता तय किया है। अचानक मेरे मन में राम के प्रति भावनाओं का ज्वार उठने लगता है।
मैं सोच रहा हूं कि किस राम मंदिर पर फैसला आया है और मैं किस राम मंदिर में जाता हूं। वह राम कौनसे हैं और मेरे राम कौनसे हैं। मेरे राम ने मुझे इतनी बेफिक्री दी कि बिना बाधा के अपना मार्ग तय कर आया और कहीं भय नहीं लगा पर वह कौन से राम हैं जिन्होंने लोगों को फिक्र देकर घर में बंद कर दिया। जिस राम मंदिर पर फैसला आया उससे मेरे क्या लेना देना था और अपने शहर के जिस राम मंदिर में जाता हूं वह तो निर्विवाद खड़ा है। अंतर्मन दो राम मंदिरों में बंटता दिखाई देता है। मैं अंदर और बाहर स्थित राम के दोनों रूपों को मिलाने का प्रयास करता हूं। तब ऐसा लगता है कि मेरे राम और बाहर के राम अलग हैं। मेरे मन के बाहर स्थित राम के रूप के प्रति कोई आकर्षण क्यों नहीं है? मैं दिमाग पर जोर डालता हूं पर कोई उत्तर नहीं नज़र आता? तब सोचना बंद करता हूं। आखिर राम तो राम हैं! उनके अनेक रूप हैं! वह दिव्य है और मेरे अंदर और बाहर के चक्षु उतना ही देख सकते हैं जितना एक आम इंसान। मैं कोई सिद्ध नहीं हूं कि उनके चरित्र का वर्णन कर सकूं।
अपना स्कूटर लेकर मैं घर के अंदर प्रविष्ट हो जाता हूं जहां टीवी पर यही समाचार आ रहा है। उसमें भी दिलचस्पी नहंी रह जाती क्योंकि उसका सार मैं पहले ही सुन चुका हूं। मन ही मन कहता हूं कि‘-राम की लीला राम ही जाने। मेरे राम मेरे पास और उनका मंदिर भी दूर नहीं है चाहे जब जा सकता हूं फिर क्यों चिंता करूं।’
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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ॐ (ओम) शब्द और गायत्री मंत्र जपने से लाभ होता है-हिन्दू धर्म संदेश (OM SHABD AUR GAYTRI MANTRA JAPNE SE LABH-HINDU DHARM SANDESH)


अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः।
वेदत्रयान्निरदुहभ्दूर्भूवः स्वारितीतिच।।
     हिन्दी में भावार्थ-
प्रजापित ब्रह्माजी ने वेदों से उनके सार तत्व के रूप में निकले अ, उ तथा म् से ओम शब्द की उत्पति की है। ये तीनों भूः, भुवः तथा स्वः लोकों के वाचक हैं। ‘अ‘ प्रथ्वी, ‘उ‘ भूवः लोक और ‘म् स्वर्ग लोग का भाव प्रदर्शित करता है।
एतदक्षरमेतां च जपन् व्याहृतिपूर्विकाम्।
सन्ध्ययोर्वेदविविद्वप्रो वेदपुण्येन युज्यते।।
     हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य ओंकार मंत्र के साथ गायत्री मंत्र का जाप करता है वह वेदों के अध्ययन का पुण्य प्राप्त करता है।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीगीता में गायत्री मंत्र के जाप को अत्यंत्र महत्वपूर्ण बताया गया है। उसी तरह शब्दों का स्वामी ओम को बताया गया है। ओम, तत् और सत् को परमात्मा के नाम का ही पर्याय माना गया है। श्रीगायत्री मंत्र के जाप करने से अनेक लाभ होते हैं। मनु महाराज के अनुसार ओम के साथ गायत्री मंत्र का जाप कर लेने से ही वेदाध्ययन का लाभ प्राप्त हो जाता है। हमारे यहां अनेक प्रकार के धार्मिक ग्रंथ रचे गये हैं। उनको लेकर अनेक विद्वान आपस में बहस करते हैं। अनेक कथावाचक अपनी सुविधा के अनुसार उनका वाचन करते हैं। अनेक संत कहते हैं कि कथा सुनने से लाभ होता है। इस विचारधारा के अलावा एक अन्य विचाराधारा भी जो परमात्मा के नाम स्मरण में ही मानव कल्याण का भाव देखती है। मगर नाम और स्वरूप के लेकर विविधता है जो कालांतर में विवाद का विषय बन जाती है। अगर श्रीमद्भागवत गीता के संदेश पर विचार करें तो फिर विवाद की गुंजायश नहीं रह जाती। श्रीगीता में चारों वेदों का सार तत्व है। उसमें ओम शब्द और गायत्री मंत्र को अत्यधिक महत्वपूर्ण बताया गया है।
     आजकल के संघर्षपूण जीवन में अधिकतर लोगों के पास समय की कमी है। इसलिये लोगों को व्यापक विषयों से सुसज्ज्ति ग्रंथ पढ़ने और समझने का समय नहीं मिलता पर मन की शांति के लिये अध्यात्मिक विषयों में कुछ समय व्यतीत करना आवश्यक है। ऐसे में ओम शब्द के साथ गायत्री मंत्र का जाप कर अपने मन के विकार दूर करने का प्रयास किया जा सकता है। ओम शब्द और श्रीगायत्री मंत्र के उच्चारण के समय अपना ध्यान केवल उन पर ही रखना चाहिये-उनके लाभ के लिये ऐसा करना आवश्यक है।

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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भगवान श्रीराम मूलतः अहिंसक प्रवृत्ति के थे-रामनवमी पर विशेष लेख (ramnavami par vishesh lekh)


आज रामनवमी है। भगवान श्रीराम के चरित्र को अगर हम अवतार के दृष्टिकोण से परे होकर सामान्य मनुष्य के रूप में विचार करें तो यह तथ्य सामने आता है कि वह एक अहिंसक प्रवृत्ति के एकाकी स्वभाव के थे। उन जैसे सौम्य व्यक्तित्व के स्वामी बहुत कम मनुष्य होते हैं। दरअसल वह स्वयं कभी किसी से नहीं लड़े बल्कि हथियार उठाने के लिये उनको बाध्य किया गया। ऐसे हालत बने कि उन्हें बाध्य होकर युद्ध के मार्ग पर जाना पड़ा।
भगवान श्रीराम बाल्यकाल से ही अत्यंत संकोची, विनम्र तथा अनुशासन प्रिय थे। इसके साथ ही पिता के सबसे बड़े पुत्र होने की अनुभूति ने उन्हें एक जिम्मेदार व्यक्ति बना दिया था। उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठ जी से शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी अपना समय घर पर विराम देकर नहीं बिताया बल्कि महर्षि विश्वमित्र के यज्ञ की रक्षा के लिये शस्त्र लेकर निकले तो फिर उनका राक्षसों से ऐसा बैर बंधा कि उनको रावण वध के लिये लंका तक ले गया।
हिन्दू धर्म के आलोचक भगवान श्रीराम को लेकर तमाम तरह की प्रतिकूल टिप्पणियां करते हैं पर उसमें उनका दोष नहीं है क्योंकि श्रीराम के भक्त भी बहुत उनके चरित्र का विश्लेषण कर उसे प्रस्तुत नहीं कर पाते।
सच बात तो यह है कि भगवान श्रीराम अहिंसक तथा सौम्य प्रवृत्ति का प्रतीक हैं। इसी कारण वह श्रीसीता को पहली ही नज़र में भा गये थे। भगवान श्रीराम की एक प्रकृति दूसरी भी थी वह यह कि वह दूसरे लोगों का उपकार करने के लिये हमेशा तत्पर रहते थे। यही कारण है कि उनकी लोकप्रियता बाल्यकाल से बढ़ने लगी थी।
सच बात तो यह है कि अगर राम राक्षसों का संहार नहीं करते तो भी अपनी स्वभाव तथा वीरता की वजह से उतने प्रसिद्ध होते जितने रावण को मारने के बाद हुए। उनका राक्षसों से प्रत्यक्ष बैर नहीं था पर रावण के बढ़ते अनाचारों से देवता, गंधर्व और मनुष्य बहुत परेशान थे। देवराज इंद्र तो हर संभव यह प्रयास कर रहे थे कि रावण का वध हो और भगवान श्रीराम की धीरता और वीरता देखकर उन्हें यह लगा कि वही राक्षसों का समूल नाश कर सकते हैं। भगवान श्रीराम के चरित्र पर भारत के महान साहित्यकार श्री नरेंद्र कोहली द्वारा एक उपन्यास भी लिखा गया है और उसमें उनके तार्किक विश्लेषण बहुत प्रभावी हैं। उन्होंने तो अपने उपन्यास में कैकयी को कुशल राजनीतिज्ञ बताया है। श्री नरेद्र कोहली के उपन्यास के अनुसार कैकयी जानती थी रावण के अनाचार बढ़ रहे हैं और एक दिन वह अयोध्या पर हमला कर सकता है। वह श्रीराम की वीरता से भी परिचित थी। उसे लगा कि एक दिन दोनों में युद्ध होगा। यह युद्ध अयोध्या से दूर हो इसलिये ही उसने श्रीराम को वनवास दिलाया ताकि वहां रहने वाले तपस्पियों पर आक्रमण करने वाले राक्षसों का वह संहार करते रहें और फिर रावण से उनका युद्ध हो। श्रीकोहली का यह उपन्यास बहुत पहले पढ़ा था और उसमें दिये गये तर्क बहुत प्रभावशाली लगे। बहरहाल भगवान श्रीराम के चरित्र की चर्चा जिनको प्रिय है वह उनके बारे में किसी भी सकारात्मक तर्क से सहमत न हों पर असहमति भी व्यक्त नहीं कर सकते।
रावण के समकालीनों में उसके समान बल्कि उससे भी शक्तिशाली अनेक महायोद्धा थे जिसमें वानरराज बलि का का नाम भी आता है पर इनमें से अधिकतर या तो उसके मित्र थे या फिर उससे बिना कारण बैर नहीं बांधना चाहते थे। कुछ तो उसकी परवाह भी नहीं करते थे। ऐसे में श्रीराम जो कि अपने यौवन काल में होने के साथ ही धीरता और वीरता के प्रतीक थे उस समय के रणनीतिकारों के लिये एक ऐसे प्रिय नायक थे जो रावण को समाप्त कर सकते थे। भगवान श्रीराम अगर वन न जाकर अयोध्या में ही रहते तो संभवतः रावण से उनका युद्ध नहीं होता परंतु देवताओं के आग्रह पर बुद्धि की देवी सरस्वती ने कैकयी और मंथरा में ऐसे भाव पैदा किये वह भगवान श्रीराम को वन भिजवा कर ही मानी। कैकयी तो राम को बहुत चाहती थी पर देवताओं ने उसके साथ ऐसा दाव खेला कि वह नायिका से खलनायिका बन गयी।
श्री नरेंद्र कोहली अपने उपन्यास में उस समय के रणनीतिकारों का कौशल मानते हैं। ऐसा लगता है कि उस समय देवराज इंद्र अप्रत्यक्ष रूप से अपनी रणनीति पर अमल कर रहे थे। इतना ही नहीं जब वन में भगवान श्रीराम अगस्त्य ऋषि से मिलने गये तो देवराज इंद्र वहां पहले से मौजूद थे। उनके आग्रह पर ही अगस्त्य ऋषि ने एक दिव्य धनुष भगवान श्रीराम को दिया जिससे कि वह समय आने पर रावण का वध कर सकें। कहने का तात्पर्य यह है कि जब हम रामायण का अध्ययन करते हैं तो केवल अध्यात्मिक, वैचारिक तथा भक्ति संबंधी तत्वों के साथ अगर राजनीतिक तत्व का अवलोकन करें तो यह बात सिद्ध होती है कि राम और रावण के बीच युद्ध अवश्यंभावी नहीं था पर उस काल में हालत ऐसे बने कि भगवान श्रीराम को रावण से युद्ध करना ही पड़ा। मूलतः भगवान श्रीराम सुकोमल तथा अहिंसक प्रवृत्ति के थे।
जब रावण ने सीता का हरण किया तब भी देवराज इंद्र अशोक वाटिका में जाकर अप्रत्यक्ष रूप उनको सहायता की। इसका आशय यही है कि उस समय देवराज इंद्र राक्षसों से मानवों और देवताओं की रक्षा के लिये रावण का वध श्रीराम के हाथों से ही होते देखना चाहते थे। अगर सीता का हरण रावण नहीं करता तो शायद ही श्रीराम जी उसे मारने के लिये तत्पर होते पर देवताओं, गंधर्वों तथा राक्षसों में ही रावण के बैरी शिखर पुरुषों ने उसकी बुद्धि का ऐसा हरण किया कि वह श्रीसीता के साथ अपनी मौत का वरण कर बैठा। ऐसे में जो लोग भगवान श्रीराम द्वारा किये युद्ध पर ही दृष्टिपात कर उनकी निंदा या प्रशंसा करते हैं वह अज्ञानी हैं और उनको भगवान श्रीराम की सौम्यता, धीरता, वीरता तथा अहिंसक होने के प्रमाण नहीं दिखाई दे सकते। उस समय ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों, देवताओं, और मनुष्यों की रक्षा के लिये ऐसा संकट उपस्थित हुआ था कि भगवान श्रीराम को अस्त्र शस्त्र एक बार धारण करने के बाद उन्हें छोड़ने का अवसर ही नहीं मिला। यही कारण है कि वह निरंतर युद्ध में उलझे रहे। श्रीसीता ने उनको ऐसा करने से रोका भी था। प्रसंगवश श्रीसीता जी ने उनसे कहा था कि अस्त्र शस्त्रों का संयोग करने से मनुष्य के मन में हिंसा का भाव पैदा होता है इसलिये वह उनको त्याग दें, मगर श्रीराम ने इससे यह कहते हुए इंकार किया इसका अवसर अभी नहीं आया है।
उस समय श्रीसीता ने एक कथा भी सुनाई थी कि देवराज इंद्र ने एक तपस्वी की तपस्या भंग करने के लिये उसे अपना हथियार रखने का जिम्मा सौंप दिया। सौजन्यता वश उस तपस्वी ने रख लिया। वह उसे प्रतिदिन देखते थे और एक दिन ऐसा आया कि वह स्वयं ही हिंसक प्रवृत्ति में लीन हो गये और उनकी तपस्या मिट्टी में मिल गयी।
भगवान श्रीराम की सौम्यता, धीरता और वीरता से परिचित उस समय के चतुर पुरुषों ने ऐसे हालत बनाये और बनवाये कि उनका अस्त्र शस्त्र छोड़ने का अवसर ही न मिले। भगवान श्रीराम सब जानते थे पर उन्होंने अपने परोपकार करने का व्रत नहीं छोड़ा और अंततः जाकर रावण का वध किया। ऐसे भगवान श्रीराम को हमारा नमन।
रामनवमी के इस पावन पर्व पर पाठकों, ब्लाग लेखक मित्रों तथा देशभर के श्रद्धालुओं को ढेर सारी बधाई।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चाणक्य नीति-दुष्ट व्यक्ति कितना भी तीर्थ करे, पवित्र नहीं हो सकता


अंतर्गतमलो दृष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि।
न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिसके मन में मैल भरा है ऐसा दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी बार भी तीर्थ पर जाकर स्नान कर लें पर पवित्र नहीं हो पाता जैस मदिरा का पात्र आग में तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता।
न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः।
आमूलसिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरात्वमेति।।
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट व्यक्ति को कितना भी सिखाया या समझाया जाये पर वह अपना अभद्रता व्यवहार नहीं छोड़कर सज्जन नहीं बन सकता जैसे नीम का वृक्ष, दूध और घी से सींचा जाये तो भी उसमें मधुरता नहीं आती।
अंतर्गतमलो दृष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि।
न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिसके मन में मैल भरा है ऐसा दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी बार भी तीर्थ पर जाकर स्नान कर लें पर पवित्र नहीं हो पाता जैस मदिरा का पात्र आग में तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की प्रकृत्ति का निर्माण बचपन काल में ही हो जाता है। मनुष्य के माता पिता, दादा दादी तथा अन्य वरिष्ठ परिवारजन जिस तरह का आचार विचार तथा व्यवहार करते हैं उसी से ही उसमें संस्कार और विचार का निर्माण होता है। इसके अलावा बचपन के दौरान ही जैसा खानपान होता है वैसे ही स्थाई गुणों का भी निर्माण होता है जो जीवन पर्यंत अपना कार्य करते हैं। एक बार जैसी प्रकृत्ति मनुष्य की बन गयी तो फिर उसमें बदलाव बहुत कठिन होता है।
इसलिये जिनमें दुष्टता का भाव आ गया है उनके साथ संपर्क कम ही रखें तो अच्छा है। चाहे जितना प्रयास कर लें दुष्ट अपना रवैया नहीं बदलता और अगर उसने किसी व्यक्ति विशेष को अपने दुव्र्यवहार का शिकार बनने का विचार कर लिया है तो फिर उससे बाज नहीं आता। ऐसे में सज्जन व्यक्ति को चाहिये कि वह खामोशी से दुष्ट के व्यवहार को नजरअंदाज करे क्योंकि उनकी प्रकृत्ति ऐसी होती है कि बिना किसी को तकलीफ दिये उनको चैन नहीं पड़ता। ऐसे दुष्ट किसी की मजाक उड़ाकर तो किसी के साथ अभद्र व्यवहार कर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। सज्जन के लिये दो ही उपाय है कि वह चुपचाप अपने रास्ते चले या अगर उसे नियंत्रण करने के लिये शारीरिक या आर्थिक बल है तो उस पर प्रहार करे पर इसके बावजूद भी यह संभावना कम ही होती है कि वह नालायक आदमी सुधर जाये। ऐसे दुष्ट लोग चाहे जितनी बार तीर्थ स्थान पर जाकर स्नान करें पर उनका उद्धार नहीं होता। तीर्थ पर जाने से शरीर का मल निकल सकता है पर मन का तो कोई योगी ही निकाल पाता है।

अभिप्राय यह है कि सत्संग और तीर्थस्थानों पर जाकर मन का मैल नहीं निकलता बल्कि उसके लिये अंतमुर्खी होकर आत्म चिंतन करना चाहिये। इतना ही नहीं अपने को ही सुधारने का प्रयास करना चाहिये। दूसरे से यह अपेक्षा न करें कि वह आपके समझाने से समझ जायेगा। कुछ लोगों में कुसंस्कार ऐसे भरे होते हैं कि उन्हें उपदेश देने से अपना ही अपमान होता है। अतः उससे दूर होकर ही अपना काम करें।

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हिंदू धर्मं सन्देश-समान दृष्टि रखना ही धर्मं की सच्ची पहचान


दुषितोऽपि चरेद्धर्म यत्रतत्राश्रमे रतः।
समः सर्वेषु भूतेशु न लिंगे धर्मकारणम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे घर में हो या आश्रम में शास्त्रों के ज्ञाता को चाहिए कि सामान्य प्राणियों के दोषों से ग्रसित होने पर भी सभी को समान दृष्टि से देखे। वह धर्म का अनुसरण करते हुए अपना व्यवहार हमेशा शुद्ध रखे पर उसका प्रदर्शन न करे-अभिप्राय यह है कि धर्म का वह पालन करे पर और उसका दिखावा करने से दूर रहे।
फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम्।
न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति।।
हिन्दी में भावार्थ-
निर्मली का वृक्ष जल को शुद्ध करता है भले ही उसकी जानकारी सभी को नहीं है। उसका नाम लेने से जल शुद्ध नहीं होता बल्कि वह स्वयं उपस्थित होकर जल शुद्ध करता है। उसी प्रकार धर्म की जानकारी होना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उसे अन्य जीवों का कल्याण कर प्रमाणित करना चाहिए। नाम लेने से आदमी धार्मिक नहीं हो जाता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे समाज में धर्म का दिखावा करने वालों की संख्या बहुत है पर उस अमल कितने लोग करते हैं यह केवल ज्ञानी लोग ही देख पाते हैं। अगर समूचे भारतीय समाज पर दृष्टिपात करें
तो पूजा, पाठ, तीर्थयात्रा, सत्संग तथा दान करने वाले लोगों की संख्या बहुत दिखाई देती है पर फिर नैतिक और सामाजिक आचरण में निरंतर गिरावट होती दिख रही है। लोग धार्मिक पुस्तकों के ज्ञान की चर्चा करते हुए एक दूसरे को सिखाते खूब हैं पर सीखता कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। लोग दान करते हैं पर कामना के भाव से-उनका उद्देश्य समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करना होता है या फिर प्राप्तकर्ता के कथित आशीर्वाद की चाहत उनके मन में होती है और इसी कारण कारण कुपात्र को भी दान देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म का दिखावा कोई धार्मिक व्यक्ति होने का प्रमाण नहीं है।
उसी तरह धर्म के रक्षा के नाम पर विश्व में अनेक लोग तथा संगठन बन गये हैं-उनका उद्देश्य केवल अपने लिये धन तथा प्रतिष्ठा अर्जित करना होता है न कि वास्तव में सामाजिक कल्याण करना। धर्म नितांत एक निजी विषय है न कि अपने मुंह से कहकर सुनाने का। जिस व्यक्ति को यह प्रमाणित करना है कि वह धार्मिक प्रवृत्ति का है उसे चाहिये कि वह दूसरों की सहायता कर उसे प्रमाण करे। कुछ लोग धर्म के नाम हिंसा को उचित ठहराने का प्रयास करते हैं। अपने घर की रक्षा करने की कर्तव्य क्षमता तक उनमें होती नहीं और धर्म के नाम पर धन और अस्त्र शस्त्र के संचय में लगकर वह हिंसा के व्यापारी बन जाते हैं- राम तथा बगल में छुरी रखने वालों की पहचान इसी तरह की जा सकती है कि कौन आदमी वास्तव में किसका भला करता है और कौन कितना उसकी आड़ में अपना व्यापार करता है। वैसे एक समझ लें कि जो जितनी धर्म की बात करे तो यह माने कि वह उसका अर्थ नहीं जानता या केवल उसने किताबें ही रटी है। जो वास्तव में धर्म का मर्म समझते हैं वह ज्ञानी होने के कारण खामोश रहते हैं और जब तक उनसे चर्चा न की जाये वह अपनी बात नहीं कहते। 

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हिन्दू धर्म संदेश-शिव हो या केशव, इष्ट एक ही होना चाहिए


एको देवः केशवो वा शिवो वा ह्येकं मित्रं भूपतिवां यतिवां।
एको वासः पत्तने वने वा ह्येकं भार्या सुन्दरी वा दरी वा।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य को अपना आराध्य देव एक ही रखना चाहिये भले ही वह केशव हो या शिव। मित्र भी एक ही हो तो अच्छा है भले ही वह राजा हो या साधु। घर भी एक ही होना चाहिये भले ही वह जंगल में हो या शहर में। स्त्री भी एक होना चाहिये भले ही वह वह सुंदरी हो या अंधेरी गुफा जैसी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में दुःख बहुत हैं पर सुख कम। भले लोग कम स्वार्थी अधिक हैं। इसलिये अपनी कामनाओं की सीमायें समझना चाहिये। हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो एक ही निरंकार का प्रवर्तन करता है पर हमारे ऋषियों, मुनियों तथा विद्वानों साकार रूपों की कल्पना इसलिये की है ताकि सामान्य मनुष्य सहजता से ध्यान कर सके। सामन्य मनुष्य के लिये यह संभव नहीं हो पाता कि वह एकदम निरंकार की उपासना करे। इसलिये भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिव तथा अन्य स्वरूपों की मूर्ति रूप में स्थापना की जाती है। मुख्य ध्येय तो ध्यान के द्वारा निरंकार से संपर्क करना होता है। ध्यान में पहले किसी एक स्वरूप को स्थापित कर निरंकार की तरफ जाना ही भक्ति की चरम सीमा है। अतः एक ही रूप को अपने मन में रखना चाहिये चाहे वह राम जी हो, कृष्ण जी हों या शिव जी।
उसी तरह मित्रों के संचय में भी लोभ नहीं करना चाहिये। दिखाने के लिये कई मित्र बन जाते हैं पर निभाने वाला कोई एक ही होता है। इसलिये अधिक मित्रता करने पर कोई भी भ्रम न पालें। अपने रहने के लिये घर भी एक होना चाहिये। वैसे अनेक लोग ऐसे हैं जो अधिक धन होने के कारण तीर्थो और पर्यटन स्थलों पर अपने मकान बनवाते हैं पर इससे वह अपने लिये मानसिक संकट ही मोल लेते हैं। आप जिस घर में रहते हैं उसे रोज देखकर चैन पा सकते हैं, पर अगर दूसरी जगह भी घर है तो वहां की चिंता हमेशा रहती है।
उसी तरह पत्नी भी एक होना चाहिये। हमारे अध्यात्मिक दर्शन की यही विशेषता है कि वह सांसरिक पदार्थों में अधिक मोह न पालने की बात कहता है। अधिक पत्नियां रखकर आदमी अपने लिये संकट मोल लेता है। कहीं तो लोग पत्नी के अलावा भी बाहर अपनी प्रेयसियां बनाते हैं पर ऐसे लोग कभी सुख नहीं पाते बल्कि अपनी चोरी पकड़े जाने का डर उन्हें हमेशा सताता है। अगर ऐसे लोग राजकीय कार्यों से जुड़े हैं तो विरोधी देश के लोग उनकी जानकारी एकत्रित कर उन्हें ब्लेकमेल भी कर सकते हैं। कहने का अभिप्राय यही है कि अपना इष्ट, घर, मित्र और भार्या एक ही होना चाहिये। अनेक बार हम दूसरों की प्रेरणा लेकर जीवन में भ्रम के मार्ग पर चलकर कष्ट उठाते हैं। अतः हर समय अपने घर तथा कार्य का ध्यान रखते हुए एक ही इष्ट के स्मरण में रत रहना चाहिये। किसी प्रकार का बदलाव न करते हुए अपनी अपेक्षायें कम करना चाहिये ताकि कभी निराशा हाथ न लगे।

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हिन्दू धर्म संदेश-दोस्त और पत्नी एक ही होना चाहिए


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एको देवः केशवो वा शिवो वा ह्येकं मित्रं भूपतिवां यतिवां।
एको वासः पत्तने वने वा ह्येकं भार्या सुन्दरी वा दरी वा।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य को अपना आराध्य देव एक ही रखना चाहिये भले ही वह केशव हो या शिव। मित्र भी एक ही हो तो अच्छा है भले ही वह राजा हो या साधु। घर भी एक ही होना चाहिये भले ही वह जंगल में हो या शहर में। स्त्री भी एक होना चाहिये भले ही वह वह सुंदरी हो या अंधेरी गुफा जैसी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में दुःख बहुत हैं पर सुख कम। भले लोग कम स्वार्थी अधिक हैं। इसलिये अपनी कामनाओं की सीमायें समझना चाहिये। हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो एक ही निरंकार का प्रवर्तन करता है पर हमारे ऋषियों, मुनियों तथा विद्वानों साकार रूपों की कल्पना इसलिये की है ताकि सामान्य मनुष्य सहजता से ध्यान कर सके। सामन्य मनुष्य के लिये यह संभव नहीं हो पाता कि वह एकदम निरंकार की उपासना करे। इसलिये भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिव तथा अन्य स्वरूपों की मूर्ति रूप में स्थापना की जाती है। मुख्य ध्येय तो ध्यान के द्वारा निरंकार से संपर्क करना होता है। ध्यान में पहले किसी एक स्वरूप को स्थापित कर निरंकार की तरफ जाना ही भक्ति की चरम सीमा है। अतः एक ही रूप को अपने मन में रखना चाहिये चाहे वह राम जी हो, कृष्ण जी हों या शिव जी।
उसी तरह मित्रों के संचय में भी लोभ नहीं करना चाहिये। दिखाने के लिये कई मित्र बन जाते हैं पर निभाने वाला कोई एक ही होता है। इसलिये अधिक मित्रता करने पर कोई भी भ्रम न पालें। अपने रहने के लिये घर भी एक होना चाहिये। वैसे अनेक लोग ऐसे हैं जो अधिक धन होने के कारण तीर्थो और पर्यटन स्थलों पर अपने मकान बनवाते हैं पर इससे वह अपने लिये मानसिक संकट ही मोल लेते हैं। आप जिस घर में रहते हैं उसे रोज देखकर चैन पा सकते हैं, पर अगर दूसरी जगह भी घर है तो वहां की चिंता हमेशा रहती है।
उसी तरह पत्नी भी एक होना चाहिये। हमारे अध्यात्मिक दर्शन की यही विशेषता है कि वह सांसरिक पदार्थों में अधिक मोह न पालने की बात कहता है। अधिक पत्नियां रखकर आदमी अपने लिये संकट मोल लेता है। कहीं तो लोग पत्नी के अलावा भी बाहर अपनी प्रेयसियां बनाते हैं पर ऐसे लोग कभी सुख नहीं पाते बल्कि अपनी चोरी पकड़े जाने का डर उन्हें हमेशा सताता है। अगर ऐसे लोग राजकीय कार्यों से जुड़े हैं तो विरोधी देश के लोग उनकी जानकारी एकत्रित कर उन्हें ब्लेकमेल भी कर सकते हैं। कहने का अभिप्राय यही है कि अपना इष्ट, घर, मित्र और भार्या एक ही होना चाहिये।

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योगासन, प्राणायाम, ध्यान और धारणा-हिन्दी लेख (hindi lekh on yogasan)


                प्राचीन भारतीय योग साधना पद्धति की तरफ पूरे विश्व का रुझान बढ़ना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है। आज से दस वर्ष पूर्व तक अनेक लोग योगसाधना को अत्यंत गोपनीय या असाधारण बात समझते थे। ऐसी धारणा बनी हुई थी कि योग साधना सामान्य व्यक्ति के करने की चीज नहीं है। इसका कारण यह था कि शरीर के लिये विलासिता की वस्तुओं का उपभोग बहुत कम था और लोग शारीरिक श्रम के कारण बीमार कम पड़ते थे।
आज की नयी पीढ़ी के लोगों जहां भी वाहन का स्टैंड देखते हैं वहां पर पैट्रोल चालित वाहनों को अधिक संख्या में देखते हैं जबकि पुरानी पीढ़ी के लोगों के अनुभव इस बारे में अलग दिखाई देते हैं। पहले इन्हीं स्टैंडों पर साइकिलें खड़ी मिलती थीं। सरकारी कार्यालय, बैंक, सिनेमाघर तथा उद्यानों के बाहर साइकिलों की संख्या अधिक दिखती थी। फिर स्कूटरों की संख्या बढ़ी तो अब कारों के काफिले सभी जगह मिलते हैं। पहले जहां रिक्शाओं, बैलगाड़ियों तथा तांगों की वजह से जाम लगा देखकर मन में क्लेश होता था वहीं अब कारें यह काम करने लगी हैं-यह अलग बात है कि गरीब वाहन चालकों को लोग इसके लिये झिड़क देते थे पर अब किसी की हिम्मत नहीं है कार वाले से कुछ कह सके।

         योगसाधना की शिक्षा बड़े लोगों का शौक माना जाता था। यह सही भी लगता है क्योंकि परंपरागत वाहनों तथा साइकिल चलाने वालों का दिन भर व्यायाम चलता था। उनकी थकान उनको रात को चैन की नींद का उपहार प्रदान करती थी। उस समय ज्ञानी लोगों का इस तरफ ध्यान नहीं गया कि लोगों को योगासन से अलग प्राणायाम तथा ध्यान की तरफ प्रेरित किया जाये। संभवतः योगासाधना के आठों अंगों में से पृथक पृथक सिखाने का विचार किसी ने नहीं किया। अब जबकि विलासिता पूर्ण जीवन शैली है तब योगसाधना की आवश्यकता तीव्रता से अनुभव की जा रही है तो उसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। पहले जब लोग पैदल अधिक चलने के साथ ही परिश्रम करते थे इसलिये उनका स्वास्थ्य सदैव अच्छा रहता था । बाद में साइकिल युग के चलते भी लोगों के स्वास्थ्य में शुद्धता बनी रही। फिर योग साधना को केवल राजाओं, ऋषियों और धनिकों के लिये आवश्यक इसलिये भी माना गया क्योंकि वह शारीरिक श्रम कम करते थे जबकि बदलते समय के साथ इसे जनसाधारण में प्रचारित किया जाना चाहिये था। भले ही शारीरिक श्रम से लोगों का लाभ होता रहा है पर प्राणायाम से जो मानसिक लाभ की कल्पना किसी ने नहीं की। श्रमिक तथा गरीब वर्ग के लिये योगासन के साथ प्राणायाम और ध्यान का भी महत्व अलग अलग रूप से प्रचारित किया जाना जरूरी लगता है। यह बताना जरूरी है कि जो लोग शारीरिक श्रम के कारण रात की नींद आराम से लेते हैं उनको भी जीवन का आनंद उठाने के लिये प्राणायाम और ध्यान करना चाहिये।

             अब योग साधना के आठ भाग देखकर तो यही लगता है कि उसके आठ अंगों को -यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-एक पूरा कार्यक्रम मानकर देखा गया। सच तो यह है कि जो लोग परिश्रम करते हैं या सुबह सैर करके आते हैं उनको नियम, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि जैसे अन्य सात अंगों का भी अध्ययन करना चाहिये। योगासन या सुबह की सैर के बाद प्राणायम और ध्यान की आदत डालना श्रेयस्कर है। जो लोग गरीब, मजदूर तथा अन्य शारीरिक श्रम करते हैं उनके लिये भी प्राणायाम के साथ ध्यान बहुत लाभप्रद है। इस बात का प्रचार बहुत पहले ही होना चाहिये था इसलिये अब इस पर भी इस पर काम होना चाहिये। प्राणायाम से प्राणवायु तीव्र गति से अंदर जाकर शरीर और मन के विकारों को परे करती है। उसी तरह ध्यान भी योगासन और प्राणायाम के बाद प्राप्त शुद्धि को पूरी देह और मन में वितरित करने की एक प्रक्रिया है। जब कभी आप थक जायें और सोने की बजाय आंखें बंद कर केवल बैठें और अपने ध्यान को भृकुटि पर केंद्रित करके देखें। शुरुआत में आराम नहीं मिलेगा पर पांच दस मिनट बाद आप को अपने शरीर और मन में शांति अनुभव होगी। जैसे मान लीजिये आप किसी समस्या से परेशान हैं। वह उठते बैठते आपको परेशान करती है। आप ध्यान लगा कर बैठें। समस्या हल होना एक अलग मामला है पर ध्यान के बाद उससे उपजे तनाव से राहत अनुभव करेंगे। सच बात तो यह है कि हम अपने दिमाग और शरीर को बहुत खींचते हैं और उसको बिना ध्यान के विराम नहीं मिल सकता। यह को व्यायाम नहीं है एक तरह से पूर्णाहुति है उस यज्ञ की जो हम अपनी देह के लिये करते हैं। शेष फिर कभी। संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior http://terahdeep.blogspot.com …………………………..

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विदुर नीति- दुष्ट की सलाह पर व्यक्ति चले तो उससे दूर रहें (vidur niti-raja aur dusht ki salah)


न निह्यवं मन्त्र गचछेत संसृष्टमन्त्रस्य कुसंगतस्य।
न च ब्रूयात्रश्वसिमि त्वयीति संकारणं व्यपदेशं तु कुर्यात्
हिंदी में भावार्थ-
जब कहीं भरी सभा में राजा-वर्तमान संदर्भ में कहें तो अपने से शक्तिशाली व्यक्ति-दुष्ट सलाहकारों से सलाह ले रहा है तब उसकी किसी बात का खंडन नहीं करना चाहिये। साथ ही वहां उसके प्रति किसी प्रकार का अविश्वास भी नहीं प्रकाट करना चाहिये।

न विश्वासाज्जातु परस्य गेहे गच्छेन्नरश्चेतवानो विकालो।
न चत्वरे निशि तिष्ठिन्न्गिुडो राजकाययां योषितं प्रार्थचीत।।
हिंदी में भावार्थ-
सावधानी की दृष्टि से कभी भी किसी ऐसे व्यक्ति के घर सायंकाल नहीं जाना चाहिये जिस पर विश्वास न हो। रात में छिपकर चैराहे पर न खड़ा हो और राजा-वर्तमान संदर्भ में हम उसे अपने से शक्तिशाली व्यक्ति भी कह सकते हैं-जिस स्त्री को पाना चाहता है उसे पाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में सावधानी से चलना बहुत आवश्यक है। अगर हम अपने आसपास ऐसे लोगों को देखें जिन्होंने धोखा खाकर कष्ट उठाया या जीवन से हाथ धोया है तो उनकी स्वयं की असावधानी का परिणाम होता है। ऐसे में जीवन में कुछ सावधानी रखकर अगर आनंद उठाया जा सकता है तो उसमें कोई दोष नहीं है। जिस व्यक्ति के प्रति मन में अविश्वास हो उसके घर शाम को कतई नहीं जाना चाहिये। हमारे जीवन में कई ऐसे लोग हैं जिनके साथ हमारा सतत संपर्क रहता है पर हम उन पर विश्वास नहीं करते ऐसे लोगों के घर जाने पर ऐसी सावधानी जरूरी है।
उसी तरह कहीं ऐसी सभा हो रही हो जहां अपने से शक्तिशाली व्यक्ति मौजूद हो और वह मूर्ख तथा दुष्ट प्रकृत्ति के लोगों से सलाह ले रहा हो तो उसका प्रतिवाद नहीं करना चाहिये। शक्तिशाली व्यक्ति से तो हम वैसे ही लड़ सकते पर अगर दुष्ट अपने प्रतिवाद से उत्तेजित हो गया तो प्रहार भी कर सकता है और अपमान भी। शक्तिशाली व्यक्तियों को चाटुकारिता बहुत पंसद होती है और वह अपने चाटुकारों की रक्षा के लिये किसी भी सज्जन व्यक्ति पर शारीरिक या शाब्दिक आक्रमण कर सकते हैं।
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कुछ भ्रम, कुछ सत्य- हिन्दी हास्य व्यंग्य ( Some confusion, some truth – Hindi comedy satire)


इस देश में भ्रम भी सच की तरह बिकता है यह तो बहुत समय से देखते आ रहे है पर इस कदर विवेकवान और पढ़े लिखे लोग भी वाद और नारों की बाढ़ में बह सकते हैं यह कभी सोचा नहीं था। टीवी चैनल,अखबार और अंतर्जाल पर कई ऐसी घटनाओं की विवेचना देखता हूं जो यथार्थ से परे केवल कल्पना या झूठ पर आधारित होती हैं।

बात शुरु करें ‘चक दे इंडिया फिल्म से’। उसका गाना बहुत हिट हुआ और जहां देखों वही गाना बज रहा है। फिल्म में दिखाया गया था कि भारत की महिला टीम विश्व कप विजेता बन जाती है। ऐसा कभी नहीं हुंआ पर फिल्म पर ऐसी बहस हो रही थी जैसे कि कोई वास्तविक घटना हो। सच बात तो यह है कि भारत ने पिछले पच्चीस वर्ष में किसी भी खेल में विश्व कप नहीं जीता था पर लोग ऐसे झूम रहे थे कि गोया कि वास्तव में भारत ने विश्व कप जीत लिया हो। उस दौरान कहीं भारतीय क्रिकेट टीम कोई मैच जीत लेती थी तो बस यही गाना बजता था। भारतीय क्रिकेट टीम 1906 में जब विश्व खेलने जा रही थी तब उसके ऐसे प्रचार हुआ कि जैसे वह विश्व कप जीत कर लाई हो।

अभी हाल ही में स्लमडाग मिलेनियर फिल्म बनी है। वह एक काल्पनिक कथा है-और गरीब लड़के के अमीर बनने की अनेक कहानियों पर हमारे देश में फिल्म बनी है- पर इस फिल्म पर ऐसे बहस हो रही है जैसे कि वास्तव में कोई गंदी बस्ती का लड़का अमीर बन गया हो।
हमारे देश में ‘फिल्मों’’ और उर्दू शायरों ने इश्क को ऐसी आराधना के रूप में स्थापित किया है जिसमें एक स्त्री पुरुष का प्रेम ही इस सृष्टि का अंतिम बताया जाता है। इसमें स्त्री को तो जीवन में एक बार वह भी युवावस्था में ही प्रेम करने की इजाजत है पर पुरुष को बाल बच्चे और पत्नी जीवित रहते हुए दूसरा विवाह करने की इजाजत है। उमर का पुरुष के लिये कोई बंधन नहीं है।
वैसे तो दुनियां कोई भी धर्म अपनी स्त्री को एक विवाह करने की इजाजत देता है पर पुरुष के लिये कोई बंधन नहीं है। हां, कुछ देशों ने ऐसे कानून बनाये हैं जिसमें किसी धर्म विशेष के पुरुषों को एक ही विवाह करने की इजाजत है। अपने देश में ही केवल एक ही धर्म के लोगों को चार विवाह करने की छूट है पर बाकी धर्म वालों की इसकी इजाजत नहीं है। ऐसे में हुआ यह है कि फिल्मों के एक दो अभिनेताओं ने धर्म बदल कर पहली पत्नी को तलाक दिये बिना ही दूसरा विवाह कर लिया। बस उससे देश में ऐसी परंपरा शुरु हुई। प्रचार माध्यमों में सक्रिय लोग स्त्रियों के कल्याण के लिये बहुत सक्रिय रहते हैं पर इश्क ही है इबादत के नारे में वह ऐसे लोगों का समर्थन करते हैं जो अपनी पत्नी को बेसहारा छोड़कर दूसरी के साथ हो जाते हैं। तब इन प्रचार माध्यमों को बस इश्क दिखाई देता है। आदमी की पहली पत्नी तो उनके लिये परिदृश्य मे रहने वाली एक निर्जीव वस्तु की तरह हो जाती है।

अभी कुछ दिनों पहले ही एक घटना हुई थी जिसमें आदमी ने धर्म बदलकर दूसरा विवाह कर लिया। उसकी पत्नी और युवा बच्चे भी हैं पर प्रचार माध्यम और बुद्धिजीवियों ने इस इश्क की कथित दास्तान पर खूब लिखा। समाज को हजारों गालियां दी। उस आदमी के पूरे परिवार को इश्क का दुश्मन बताया तब यह भी विचार नहीं किया कि उसकी पहली पत्नी और बच्चों के मन पर ऐसे प्रचार से क्या गुजरेगी? अब सुनने में आया कि उस आदमी की दूसरी पत्नी ने आत्महत्या का प्रयास किया। ऐसे में कुछ बुद्धिजीवी और लेखक -जिसमें महिलायें भी शामिल हैं-फिर इस बात पर बहस कर रहे हैं कि किस तरह एक स्त्री पूरे समाज से संघर्ष कर रही है-वह उनके लिये लिये नायिक बन गयी है। सभी उसे क्रांतिकारी साबित करने में लगे हैं पर पहली पत्नी और बच्चों के जीवन पर प्रकाश उालने के लिये न तो उनके पास शब्द हैं और न ही समय। गनीमत है किसी ने उनको खलनायक बनाने का प्रयास नहीं किया। अगर इस तरह प्रकरण चला तो हो सकता है कि प्रचार माध्यम इश्क को पवित्र बनाने के लिये पहली पत्नी और बच्चों को खलनायक ही घोषित करने वाली कहानियां बनाने लगें।

भई, हम तो कहते हैं कि अगर इतना ही इश्क का मोह है तो क्यों नहीं यह मांग करते हो कि सभी धर्मो में स्त्री पुरुषों को चाहे जब शादी और तलाक लेने के लिये आसान या बिना तलाक लिये दोनों प्रकार के जीवों-मनुष्यों में स्त्री पुरुष के लिये ही कानून बनते हैं- को ही चाहे जितने विवाह करने का कानून बनाया जाये। अगर स्त्री को अधिक अधिकार नहीं देना तो सभी धर्मों के पुरुषों को ही अधिक विवाह की आजादी देने की मांग तो की ही जा सकती है। इश्क को इबादते मानने वाले ऐसे कानून का विरोध यह कहकर करेंगे कि इससे तो दूसरा विवाह करने वाले पुरुष की स्त्रियां असहाय हो जायेंगी? तुब उनके इश्क का नारा छोड़कर वह प्रगतिवाद का विषय पकड़ने लगते हैं मगर जिस आदमी ने धर्म बदल कर दूसरा विवाह किया है उसकी पहली पत्नी का क्या? तब वह फिर इश्क तो इश्क है के नारे लगाने लगेंगे।
मजे की बात यह है कि पुरुष बुद्धिजीवी और लेखक ही नहीं महिलायें भी दूसरी बीबी के समर्थन में खड़ी हैंं। उन्हें उस क्रांतिकारी दूसरी पत्नी से हमदर्दी है। ऐसे में जो पहली पत्नी और बच्चों की बात करेगा तो वह उनके गुस्से का शिकार हो जायेगा। सभी पुरुषों को इश्क पर चलने की आजादी दिलाने की बात करो तो यही सब लोग बवाल मचा देंगे। ऐसे में सोचते सोचते दिमाग में भ्रम हो जाता है कि आखिर सही रास्ता क्या है? पहली पत्नी जिसने अपना पूरा जीवन एक आदमी के लिये गुजार दिया। उसके बच्चों को जन्म दिया। जब वह बच्चे बड़े हुए और पिता के सहारे आगे बढ़ने के उनको आवश्यकता हुई तब वह दूसरा विवाह कर बैठ गया। उस पर कोई नहीं लिखता।
इन सब बातों को देखकर यह कहना ही पड़ता है कि हमारा आध्यात्मिक ज्ञान वाकई संपूर्ण है और उसको प्रमाणित करने के लिये और बहर बेकार है क्योंकि े सारे विश्व में उसकी मान्यता है। जैसे कमल कीचड़ में और गुलाब कांटों में खिलता है वैसे ही सच की खोज वहीं होती है जहां भ्रम होता है। हमारे मनीषियों ने जीवन के रहस्यों को जानकर जिस सत्य को इस अध्यात्मिक ज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया उसके लिये उनका आभारी नहीं होना चाहिये क्योंकि उनको यहां हमेशा ही भ्रम मेंे रहने वाला एक बड़ा समाज मिल गया जिससे सीखकर वह अनुसंधान और प्रयोग कर सके। बल्कि उन ऋषियों,मुनियों और तपस्वियों को इस समाज का आभार मानना चाहिये जिन्होंने उनको अपने भ्रम के कारण सत्य की खोज करने के के लिये प्रेरित किया। यह ज्ञान निरंतर बृहद रूप लेता गया पर इसका कारण भी यहां के लोग हैं क्योंकि भ्रम में रहने की उनकी आदत ही इसके लिये जिम्मेदार है। गनीमत है कि उन महान ऋषियों और तपस्वियों द्वारा प्रदाय अध्यात्मिक ज्ञान की वजह से अनेक लोग उसके अध्ययन के कारण भ्रम में आने से बचे रहते हैं वरना तो पूरे देश का हाल यही होता कि सूर्य की बजाय चंद्रमा की रौशनी को वास्तविक मान लिया जाता। इस भ्रम का निवारण कोई आसान नहीं होता। बहरहाल देश में इतना बड़ा भ्रम भी चलता है यह आश्चर्य की बात है। टीवी चैनल, समाचार पत्र पत्रिकायें और अंतर्जाल पर पढ़ते हुए तो कई बार अपने आप पर भी संदेह होता है कि हम ही तो कहीं गलत नहीं कह रहे? कहीं हम तो गलत सवाल नहीं उठा रहे? अतर्जाल पर यही सोचकर लिख रहे हैं कि हम तो फ्लाप है और पढ़ने वाले अधिकतर ब्लाग लेखक अपने मित्र हैं इसलिये अगर वाकई हम भ्रम में है तो इसे हमारी मूर्खता मानकर चुप्पी साघ लेंगे। जो अन्य पाठक हैं वह भी इसे मूर्खतापूर्ण बात कहकर भूल जायेंगे। वैसे पाठकों से कभी कोई किसी पाठ पर प्रतिकूल टिप्पणी नहीं मिली इसलिये यह लिखने का साहस कर सके। अब तो इस बात की आशंका है कि इश्क की इबादत को संपूर्णता प्रदान करने वाली दूसरी शादी करने वाली कहानियों में बिचारी पहली पत्नी और बच्चों को खलनायक साबित करने की परंपरा न बन जाये।
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दूसरे की दौलत को धूल समझें-चाणक्य नीति (dusre ki daulat ko dhool samjhen-chankya niti


यो मोहन्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि कामिनी।
स तस्य वशगो मूढो भूत्वा नृत्येत् क्रीडा-शकुन्तवत्।।

       हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य के अनुसार कुछ पुरुषों में विवेक नहीं होता और वह सुंदर स्त्री से व्यवहार करते हुए यह भ्रम पाल लेते हैं कि वह वह उस पर मोहित है। वह भ्रमित पुरुष फिर उस स्त्री के लिये ऐसे ही हो जाता है जैसे कि मनोरंजन के लिये पाला गया पक्षी।
मातृवत् परदारांश्चय परद्रव्याणि लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स नरः।।

हिंदी में भावार्थ-दूसरों की पत्नी को माता तथा धन को मिट्टी के ढेले की भांति समझना चाहिये। इस संसार में वह यथार्थ रूप से मनुष्य है जो सारे प्राणियों को अपनी आत्मा की भांति देखने वाला मानता है।
       वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर व्यक्ति को अपने अंदर विवेक धारण करना चाहिये। कुछ लोग स्त्रियों के विषय में अत्यंत भ्रमित होते हैं। उनको लगता है कि कोई स्त्री उनसे अच्छी तरह बात कर रही है तो इसका आशय यह है कि वह उन पर मोहित है-यह उनका केवल एक भ्रम है। स्त्रियों का स्वभाव तथा वाणी कोमल होती है और इसी कारण वह हमेशा मृदभाषा से पुरुषों का मन मोह लेती हैं पर कुछ अज्ञानी और अविवेकी पुरुष यह भ्रम पाल कर अपने आपको ही कष्ट देते हैं कि वह उनके प्रति आकर्षित है।
       नीति विशारद चाणक्य ऐसे व्यक्तियों की तरफ संकेत करते हुए कहते हैं कि दूसरे की स्त्री को माता के समान समझना चाहिये। उसी तरह दूसरे के धन को मिट्टी का ढेला समझना चाहिये। वह यह भी कहते हैं कि इस संसार में वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो सभी लोगों को देह नहीं बल्कि इस संसार में दृष्टा की तरह उपस्थित आत्मा ही मानता है।
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विदुर नीति-कम ताकत के होते गुस्सा करना तकलीफदेह


द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी कहते हैं कि जो अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। गृहस्थ होकर अकर्मण्यता और सन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है।

द्वाविमौ कपटकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणी।
यश्चाधनः कामयते पश्च कुप्यत्यनीश्वरः।।
हिंदी में भावार्थ-
अल्पमात्रा में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन होते हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और कांटों के समान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -किसी भी कार्य को प्रारंभ करने पहले यह आत्ममंथन करना चाहिए कि हम उसके लिये या वह हमारे लिये उपयुक्त है कि नहीं। अपनी शक्ति से अधिक का कार्य और कोई वस्तु पाने की कामना करना स्वयं के लिये ही कष्टदायी होता है।
न केवल अपनी शक्ति का बल्कि अपने स्वभाव का भी अवलोकन करना चाहिये। अनेक लोग क्रोध करने पर स्वतः ही कांपने लगते हैं तो अनेक लोग निराशा होने पर मानसिक संताप का शिकार होते हैं। अतः इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि हमारे जिस मानसिक भाव का बोझ हमारी यह देह नहीं उठा पाती उसे अपने मन में ही न आने दें।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब हम कोई काम या कामना करते हैं तो उस समय हमें अपनी आर्थिक, मानसिक और सामाजिक स्थिति का भी अवलोकन करना चाहिये। कभी कभी गुस्से या प्रसन्नता के कारण हमारा रक्त प्रवाह तीव्र हो जाता है और हम अपने मूल स्वभाव के विपरीत कोई कार्य करने के लिये तैयार हो जाते हैं और जिसका हमें बाद में दुःख भी होता है। अतः इसलिये विशेष अवसरों पर आत्ममुग्ध होने की बजाय आत्म चिंतन करते हुए कार्य करना चाहिए।
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विदुर नीति-शक्ति से बड़ी इच्छा करना मूर्खता


द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी कहते हैं कि जो अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। गृहस्थ होकर अकर्मण्यता और सन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है।
द्वाविमौ कपटकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणी।
यश्चाधनः कामयते पश्च कुप्यत्यनीश्वरः।।
हिंदी में भावार्थ-
अल्पमात्रा में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन होते हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और कांटों के समान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -किसी भी कार्य को प्रारंभ करने पहले यह आत्ममंथन करना चाहिए कि हम उसके लिये या वह हमारे लिये उपयुक्त है कि नहीं। अपनी शक्ति से अधिक का कार्य और कोई वस्तु पाने की कामना करना स्वयं के लिये ही कष्टदायी होता है।
न केवल अपनी शक्ति का बल्कि अपने स्वभाव का भी अवलोकन करना चाहिये। अनेक लोग क्रोध करने पर स्वतः ही कांपने लगते हैं तो अनेक लोग निराशा होने पर मानसिक संताप का शिकार होते हैं। अतः इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि हमारे जिस मानसिक भाव का बोझ हमारी यह देह नहीं उठा पाती उसे अपने मन में ही न आने दें।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब हम कोई काम या कामना करते हैं तो उस समय हमें अपनी आर्थिक, मानसिक और सामाजिक स्थिति का भी अवलोकन करना चाहिये। कभी कभी गुस्से या प्रसन्नता के कारण हमारा रक्त प्रवाह तीव्र हो जाता है और हम अपने मूल स्वभाव के विपरीत कोई कार्य करने के लिये तैयार हो जाते हैं और जिसका हमें बाद में दुःख भी होता है। अतः इसलिये विशेष अवसरों पर आत्ममुग्ध होने की बजाय आत्म चिंतन करते हुए कार्य करना चाहिए।
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जहर और अमृत -लघुकथा


वह कोई गेहुंआ वस्त्र पहने साधु या संत नहीं बल्कि कोई शिक्षित और सज्जन पुरुष थे। कहीं बैठकर लोगों से ज्ञान चर्चा कर रहे थे। उनके सामने तीन लोग श्रोता के रूप में बैठ कर उनकी बातें सुन रहे थे। उन सज्जन ज्ञानी पुरुष ने पुराने शास्त्रों से अनेक उद्धरण देते हुए कुछ महापुरुषों के संदेश भी सुनाये।
उनके पीछे एक अन्य व्यक्ति भी बैठा यह सब सुन रहा था। उसे यह चर्चा बेकार की लग रही थी। अचानक वह उठा और उन सज्जन पुरुष के पास आकर उनसे बोला- तुम यह क्या बकवास कर रहे हो? इस ज्ञान चर्चा से क्या होगा,? तुम इतना सब सुना रहे हो वह सब मैंने भी किताबों में पढ़ा है पर तुम्हारी तरह इधर उधर ज्ञान नहीं बघारता। तुम इतना ज्ञान बघार रहे हो पर क्या उस पर चलते भी हो?‘
उस सज्जन ने कहा-‘कोशिश बहुत करता हूं कि उस राह पर चलूं। अब यह तो लोग ही बता सकते हैं कि मेरा व्यवहार किस तरह का है? बाकी रहा ज्ञान बघारने का सवाल तो भई, फालतू की बातें सोचने अैार कहने से अच्छा है तो इसी तरह की बातें की जाये। अच्छा, हम जब यह ज्ञान चर्चा कर रहे थे तब तुम्हारे मन में क्या विचार आ रहे थे।
उस आदमी ने कहा-‘मेरे को इस तरह की ज्ञान चर्चा पर गुस्सा आ रहा था। मैं तुम जैसे ढोंगियों को देखकर क्रोध में भर जाता हूं। पता नहीं यह तीनों तुम्हें कैसे झेल रहे थे?’
उन सज्जन ने कहा-‘मुझे बहुत दुःख है कि मेरी ज्ञान चर्चा से तुम्हें बहुत गुस्सा आया पर मैं भी अनेक ढोंगियों को देखता हूं पर गुस्सा बिल्कुल नहीं होता। उनकी ज्ञान की बातें सुनता हूं पर उनके आचरण पर ध्यान देकर अपना मन खराब नहीं करता। वैसे तुम इन श्रोताओं से पूछो कि आखिर हम दोनों में वह किसे पसंद करेंगे?’
उन्होंने तीनों श्रोताओं की तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा तब एक श्रोता उस बीच में बोलने वाले आदमी से बोला-‘हम इन सज्जन पुरुष की बातें सुन रहे थे तो मन को शांति मिल रही थी। हमें इससे क्या मतलब कि यह कहां से आये है और क्या करते हैं? बस इनकी बातें सुनकर आनंद आ रहा था। यह सब बातें हमने भी सुनी है पर इनके मुख से सुनकर भी अच्छा लगा रहा था। हां, तुम्हारे बीच में आने से जरूर हमें दुःख पहुंचा है।’
दूसरा श्रोता ने कहा-‘तुमने बताया कि तुमने यह सब पढ़ा है तो हमने भी सुना है। इन सज्जन की वाणी से हमें सुख मिल रहा था पर तुम्हारे आने से ऐसा लग रहा है कि जैसे यज्ञ में किसी राक्षस ने बाधा डाली हो!
तीसरे कहा-‘तुम्हारी अंतदृष्टि में यह सज्जन ढोंगी हैं पर हमारी नजर में ज्ञानी हैं क्योंकि इनकी बात से हमें आत्मिक सुख मिल रहा था भले ही यह पुरानी बातें दोहरा रहे हैं मगर तुम शिक्षित और ज्ञानी होते हुए भी भटक रहे हो क्योंकि ज्ञान धारण न भी किया हो पर उसकी चर्चा कर अच्छा वातावरण तो बनाया जा सकता है और तुमने इसे विषाक्त बना दिया।’
बीच में बोलने वाले सज्जन का मूंह उतर गया। वह पैर पटकता हुआ वहां से चला गया तो एक श्रोता ने उस सज्जन से कहा-‘आखिर यह आपकी बात पर गुस्सा क्यों हुआ?’
सज्जन ने कहा-‘भई, एक तो यह अपने घर से परेशान होगा दूसरे यह कि इस समाज में ज्ञान चर्चा केवल गेहूंए वस्त्र पहनने वाले ही कर सकते हैं। उन्होंने इतनी सामाजिक और राजनीतिक शक्ति एकत्रित कर ली होती है कि किसी की हिम्मत नहीं होती कि सामने जाकर कोई उनको ढोंगी कह सके इसलिये उनकी कुंठायें ऐसे लोगों के सामने निकालते हैं जो सादा वस्त्र पहनकर ज्ञान चर्चा करते हैं। सभी सुविधायें जुटाकर सन्यासी होने का ढोंग करने वालों से कहना कठिन है पर कोई सद्गृहस्थ ज्ञान चर्चा करे तो उस पर उंगली उठाकर अपनी कुंठा निकालना अधिक आसान है। शायद इसलिये उसने जमाने भर का गुस्सा यहां निकाल दिया। बहरहाल तुम उसकी बात भूल जाना क्योंकि इससे तुम्हारे अंदर उसका फैलाया विष असर दिखाने लगेगा और अगर मेरी बात से कुछ बूँद अमृत बना है तो वह भी दवा कर का नहीं कर पायेगा।
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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भर्तृहरि शतक-बुरे संस्कार बुढ़ापे तक साथ रहते हैं


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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तानींद्रियाण्यविकलानि तदेव नाम सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव।
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः क्षपोन सोऽष्यन्य एव भवतीति विचित्रमेतत्।।

हिंदी में भावार्थ-मनुष्य की इंद्रिया नाम,बुद्धि तथा अन्य सभी गुण वही होते हैं पर धन की उष्मा से रहित हो जाने पर पुरुष क्षणमात्र में क्या रह जाता है? धन की महिमा विचित्र है।
वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या- इस सृष्टि को परमात्मा ने बनाया है पर माया की भी अपनी लीला है जिस पर शायद किसी का भी बस नहीं है। माया या धन के पीछे सामान्य मनुष्य हमेशा पड़ा रहता है। चाहे कितना भी किसी के पास आध्यत्मिक ज्ञान या कोई दूसरा कौशल हो पर पंच तत्वों से बनी इस देह को पालने के लिये रोटी कपड़ा और मकान की आवश्यकता होती है। अब तो वैसे ही वस्तु विनिमय का समय नहीं रहा। सारा लेनदेन धन के रूप में ही होता है इसलिये साधु हो या गृहस्थ दोनों को ही धन तो चाहिये वरना किसी का काम नहीं चल सकता। हालांकि आदमी का गुणों की वजह से सम्मान होता है पर तब तक ही जब तक वह किसी से उसकी कीमत नहीं मांगता। वह सम्मान भी उसको तब तक ही मिलता है जब तक उसके पास अपनी रोजी रोटी होती है वरना अगर वह किसी से अपना पेट भरने के लिये धन भिक्षा या उधार के रूप में मांगे तो फिर वह समाप्त हो जाता है।
वैसे भी सामान्य लोग धनी आदमी का ही सम्मान करते है। कुछ धनी लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि वह अपने गुणों की वजह से पुज रहे हैं। इसी चक्कर में कुछ लोग दान और धर्म का दिखावा भी करते हैं। अगर धनी आदमी हो तो उसकी कला,लेखन तथा आध्यात्मिक ज्ञान-भले ही वह केवल सुनाने के लिये हो-की प्रशंसा सभी करते हैं। मगर जैसे ही उनके पास से धन चला जाये उनका सम्मान खत्म होते होते क्षीण हो जाता है।

इसके बावजूद यह नहीं समझना चाहिये कि धन ही सभी कुछ है। अगर अपने पास धन अल्प मात्रा में है तो अपने अंदर कुंठा नहीं पालना चाहिये। बस मन में शांति होना चाहिये। दूसरे लोगों का समाज में सम्मान देखकर अपने अंदर कोई कुंठा नहीं पालना चाहिये। यह स्वीकार करना चाहिये कि यह धन की महिमा है कि दूसरे को सम्मान मिल रहा है उसके गुणों के कारण नहीं। इसलिये अपने गुणों का संरक्षण करना चाहिये। वैसे यह सच है कि धन का कोई महत्व नहीं है पर वह इंसान में आत्मविश्वास बनाये रखने वाला एक बहुत बड़ा स्त्रोत है।
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संत कबीर के दोहे: भक्ति और ध्यान एकांत में करें


चर्चा करु तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय
ध्यान करो तब एकिला, और न दूजा कोय

संत श्री कबीरदास जी का कथन है जब ज्ञान चर्चा चौराहै पर करो पर जब उसका अध्ययन करना हो तो दो लोगों की बीच में ही ठीक है। ज्ञान के बारे में जब ध्यान, चिंतन और मनन करना हो तो उसे एकांत में ही रहे जहां कोई दूसरा व्यक्ति न हो।
अष्ट सिद्धि नव निधि लौं, सबही मोह की खान
त्याग मोह की वासना, कहैं कबीर सुजान

संत श्री कबीरदास का कथन है कि आठों सिद्धियां और नवों निधियां तो मोह की खान है। अतः इस मोह को त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम लोग अक्सर यह कहते हैं कि अमुक संत सिद्ध है और उसकी शरण लेना चाहिए या वह तो बहुत पहुंचे हुए हैं। कई कथित संत और साधु अपने लिये बकायदा विज्ञापन करते हैं जैसे कि बहुत बड़े सिद्ध हों। यह सब ढोंग हैं। अनेक लोग मंत्रों आदि के द्वारा काम सिद्ध करने का दावा करते हैं। यह सब मोह से उपजा भ्रम है। सिद्धियां और निधियों की आड़ में अनेक लोग धंधा कर रहे हैं। सिद्धि केवल मन की शांति के रूप में ही है बाकी तो दुनियां चलती है। माया का भंडार पास में हो पर अगर मन अशांत हो तो वह भी व्यर्थ नजर आता है। इस प्रकार की मानसिक शांति लिये तत्व ज्ञान होना चाहिये। वैसे तो इसके लिये गुरु का होना जरूरी है पर न मिले तो किसी समक+क्ष व्यक्ति के साथ बैठकर स्वाध्याय करना चाहिये। उसके बाद अकेले ध्यान में बैठकर अपने द्वारा ग्रहण तत्व पर विचार करना ही ठीक है। हां, उसकी चर्चा चार लोगों के करने में कोई बुराई नहीं है। इस चर्चा से न केवल अपने दिमाग में मौजूद ज्ञान का पूर्नस्मरण हो जाता है और वह पुष्ट भी होता है।

हम जो ज्ञान प्राप्त करें उससे अपने आपको सिद्ध मान लेना मूर्खता है क्योंकि तत्व ज्ञान का रूप अत्यंत सूक्ष्म है पर उसका विस्तार इतना दिया जाता है कि लोग उसका लाभ व्यवसायिक रूप से उठाते हैं। अनेक सिद्धियों और निधियों का प्रचार इस तरह किया जाता है जैसे वह दुनियां में रह मर्ज की दवा हैं। इनसे दूर होकर अपने स्वाध्याय, ध्यान और ज्ञान से अपने मन के विकार दूर करते रहना चाहिये।
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मनु स्मृति-दूध से बनी चावल की खीर और रबड़ी हानिकारक


वृथाकृसरसंयावं पायसायूपमेव च।
अनुपाकृतमासानि देवान्नानि हर्वषि च।।
हिंदी में भावार्थ
-तिल, चावल की दूध में बनी खीर,दूध की रबड़ी,मालपुआ आदि स्वास्थ्य के हानिकाकाकर हैं अतः उनके सेवन से बचना चाहिये।
आरण्यानां च सर्वेषां मृगानणां माहिषां बिना।
स्त्रीक्षीरं चैव वन्र्यानि सर्वशक्तुनि चैव हि।।
हिंदी में भावार्थ-
भैंस के अतिरिक्त सभी वनैले पशुओं तथा स्त्री का दूध पीने योग्य नहीं होता। सभी सड़े गले या बहुत खट्टे पदार्थ खाने योग्य नहीं होते। इस सभी के सेवन से बचना चाहिये।
दधिभक्ष्यं च शुक्तेषु सर्वे च दधिसम्भवम्।
यानि चैवाभियूशयन्ते पुष्पमूलफलैः शुभैः।।
हिंदी में भावार्थ-
शुक्तों में दही तथा उससने वाले पदार्थ-मट्ठा तथा छाछ आदि-तथा शुभ नशा न करने वाले फूल, जड़ तथा फल से निर्मित पदार्थ-अचार,चटनी तथा मुरब्बा आदि-भक्षण करने योग्य है।
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चाणक्य नीति-बुरे संस्कार वालों के साथ बैठकर खाना भी न खाएं


नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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अर्थार्थीतांश्चय ये शूद्रन्नभोजिनः।
त द्विजः कि करिष्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः।।

हिंदी में भावार्थ- नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि अर्थोपासक विद्वान समाज के लिये किसी काम के नहीं है। वह विद्वान जो असंस्कारी लोगों के साथ भोजन करते हैं उनको यश नहीं मिल पता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- इस देश का अध्यात्मिक ज्ञान सदेशों के अनमोल खजाने से भरा पड़ा है। उसका कारण यह है कि प्राचीन विद्वान अर्थ के नहीं बल्कि ज्ञान के उपासक थे। उन्होंने अपनी तपस्या से सत्य के तत्व का पता लगाया और इस समाज में प्रचारित किया। आज भी विद्वानों की कमी नहीं है पर प्रचार में उन विद्वानों को ही नाम चमकता है जो कि अर्थोपासक हैं। यही कारण है कि हम कहीं भी जाते हैं तो सतही प्रवचन सुनने को मिलते हैं। कथित साधु संत सकाम भक्ति का प्रचार कर अपने भोले भक्तों को स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं। यह साधु लोग न केवल धन के लिये कार्य करते हैं बल्कि असंस्कारी लोगों से आर्थिक लेनदेने भी करते हैं। कई बार तो देखा गया है कि समाज के असंस्कारी लोग इनके स्वयं दर्शन करते हैं और उनके दर्शन करवाने का भक्तों से ठेका भी लेते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में अध्यात्मिक चर्चा तो बहुत होती है पर ज्ञान के मामले में हम सभी पैदल हैं।
समाज के लिये निष्काम भाव से कार्य करते हुए जो विद्वान सात्विक लोगों के उठते बैठते हैं वही ऐसी रचनायें कर पाते हैं जो समाज में बदलाव लाती हैं। असंस्कारी लोगों को ज्ञान दिया जाये तो उनमें अहंकार आ जाता है और वह अपने धन बल के सहारे भीड़ जुटाकर वहां अपनी शेखी बघारते हैं। इसलिये कहा जाता है कि अध्यात्म और ज्ञान चर्चा केवल ऐसे लोगों के बीच की जानी चाहिये जो सात्विक हों पर कथित साधु संत तो सार्वजनिक रूप से ज्ञान चर्चा कर व्यवसाय कर रहे हैं। वह अपने प्रवचनों में ही यह दावा करते नजर आते हैं कि हमने अमुक आदमी को ठीक कर दिया, अमुक को ज्ञानी बना दिया।
अतः हमेशा ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लये ऐसे लोगों को गुरु बनाना चाहिये जो एकांत साधना करते हों और अर्थोपासक न हों। उनका उद्देश्य निष्काम भाव से समाज में सामंजस्य स्थापित करना हो।
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चाणक्य नीति-कुसंस्कार बुढ़ापे तक पीछा नहीं छोड़ते


वयसः परिणामेऽपि यः खलः खलः एव सः।
सुपक्वमपि माधुर्य नोपयातीद्रवारुणाम्।।

हिंदी में भावार्थ-आयु में बड़ा हो जाने पर भी दुष्ट की दुष्टता का भाव नहीं जाता। जैसे किसी फल का स्वाद स्वाभाविक रूप कड़वा होता है और उसे अधिक देर तक इसलिये पकाया जाये कि उसमें मीठे का स्वाद आ जाये तो वह संभव नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य में संस्कार और आस्थायें स्थापित होने के लिये दस या बारह वर्ष तक की आयु मानी जाती है। कुछ संस्कार तो अगर पांच वर्ष तक पड़ जायें तो ठीक नहीं तो उनका फिर आना मुश्किल होता है। कहने का तात्पर्य है छोटी आयु में ही बच्चों में संस्कार डालने का प्रयास करना चाहिये। कुछ माता पिता यह सोचकर बच्चों की परवाह नहीं करते कि ‘अभी तो छोटा है बड़ा होकर सीख जायेगा‘। इतना ही नहीं वह अपने बच्चों के सामने ही लड़ाई झ्रगड़ा और अपने रिश्तेदारों की निंदा करते हैं-सोचते हैं कि यह छोटा है भला क्या समझेगा? और समझ भी ले तो क्या? माता पिता के व्यवहार, आचरण और कार्य से बच्चे बहुत कुछ सीखते हैं। कई चीजें उनको बताई नहीं जाती बस देखकर ही सीख जाते हैं।

संस्कार और आस्थायें स्थापित करने की आयु में अगर माता पिता ने उचित प्रयास नहीं किया या लापरवाही दिखाई तो बाद में उसका परिणाम उनको भोगना पड़ता है। आजकल समाज में लोगों का अपराध, व्यसन और समाज के प्रति उपेक्षा का जो भाव दिख रहा है वह उनके ही पूर्वजों की लापरवाही का परिणाम है। एक अन्य बात यह है कि माता पिता अपने बच्चे को बस यही सिखाते हैं कि अधिक से अधिक कमाओ, प्रतिष्ठत पद प्राप्त करो और जिंदगी मं केवल अपने स्वार्थ ही पूरे करो। बाद में जब बच्चे उनकी ही उपेक्षा करने लगते हैं तब अपने बुढ़ापे को कोसते हैं। जो माता पिता अपने बच्चों की उपेक्षा की शिकायत करते हैं अगर उनसे कहा जाये कि ‘आपने ही यह संस्कार दिये होंगे।’ तब वह जवाब नहीं दे पायेंगे। आप अपने बच्चे के सामने अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिये अपने माता पिता, भाई बहिन तथा अन्य रिश्तेदारों की निंदा कर बड़े होने पर उससे किसी प्रकार की उदारता की आशा नहीं कर सकते।
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मनुस्मृति- कठिन जगह पर जाने से बचें


मनु महाराज कहते हैं कि
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अधितिष्ठेन केशांस्तु न भस्मास्थिक पालिकाः।
न कार्पासास्थि न तुषादीर्धमायुजिजीविषुः।।

हिंदी में भावार्थ- जिस व्यक्ति के हृदय में लंबी आयु पाने की इच्छा है उसे कभी बालों, भस्म, हड्डी, खप्पर, कपास की गुठली तथा भूसे के ढेर पर नहीं बैठना चाहिये।
अचक्षुविंषयं दुर्ग न प्रपद्येत कहिंचित्।
न विणुमूत्रमुदीक्षेत न बाहुभ्यां नदीं तरेत्।।

हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य कहा कहना है कि जो दुर्गम स्थान आंखों से देखने में कठिन हों वहां कतई नहीं जाना चाहिये। अपनी देह से बाहर निकले मलमूत्र को नहीं देखना चाहिये। किसी नदी को अपने बाहुबल से पार करने का प्रयास नहीं करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक बार पर्यटन के दौरान ऐसे स्थान सामने आते हैं जो बहुत दुर्गम होते हैं। उनको पेड़ पौद्यों ने घेर रखा होता है। वहां की हरियाली का सौंदर्य देखते ही बनता है पर अगर वह दुर्गम और अगम्य हैं तो वहां जाना खतरनाक हो सकता है। पिकनिक और पर्यटन के दौरान ऐसी अनेक दुर्घटनायें होती हैं जो लोगों के दुस्साहस और अज्ञान के कारण होती है। वैसे भी कहा जाता है कि आग, पान, और हवा से कभी नहीं खेलना चाहिये। आदमी कितना भी अच्छा तैराक क्यों न हो उसे नदी के पार जाने के लिये जल वाहनों का प्रयोग करना चाहिये। अनावश्यक दुस्साहस जीवन के लिये कष्टकारक होता है।
इन संदेशों का जीवन के संदर्भ में भी बहुत महत्व है। हमें अपने लक्ष्य और उद्देश्य हमेशा ही ऐसे तय करना चाहिये जिनकी प्राप्ति सहज हो। अपनी शक्ति और साधनों से अधिक महत्वाकांक्षी उद्देश्य और लक्ष्य संकट का कारण हो सकते हैं। इतना ही नहीं ऐसे स्थानों पर निवास करने का विचार भी नहीं करना चाहिये जहां के लोगों की प्रवृत्ति दुर्गम और क्रूर हो। इस विश्व में अनेक संस्कृतियां और समाज हैं। उनके परस्पर इतिहास, भूगोल, संस्कार, शिक्षा और ज्ञान की दृष्टि से ढेर सारे विरोधाभास हैं। यही विरोधाभास लोगों के आपसी संबंध को प्रगाढ़ बनाने में बाधक हैं। अतः जहां अपने समाज से विरोधी संस्कार वाला समाज हो वहां रहने का आशय यही है कि स्वयं ही दुर्गम स्थान पर जाना जो भारी कष्ट का कारण बन जाता है। जो व्यक्ति अपना समाज, शहर या अपना देश छोड़कर दूसरी जगह जाते हैं और वहां उनको सामाजिक और वैचारिक दृष्टि से आपसी मेलमिलाप वाले लोग नहीं मिलते तब उनके लिये जीवन दुरुह हो जाता है।
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श्री गुरुवाणी-मन से भक्ति करें तो चिंता से मुक्ति संभव


देइ किवाड़ अनिक पड़दे महि, परदारा संग फाकै।
चित्रगुप्तु जब लेखा मागहि, तब कउण पड़दा तेरा ढाकै।
(सरल गुरु ग्रंथ साहिब के पृष्ठ 147 से साभार)
हिंदी में भावार्थ-
श्री गुरु ग्रंथ साहिब के मतानुसार चाहे कितने भी दरवाजे बंद कर और ढेर सारे परदे लगाकर कोई भी अनैतिक काम कर लें पर जब चित्र गुप्त महाराज के यहां जाना होगा तब कोई भी परदा उसे नहीं छिपा सकता।
‘चित्रगुप्त सभ लिखते लेखा।
भगत जना कउ दुस्टि न देखा।।
(सरल गुरु ग्रंथ साहिब के पृष्ठ 148 से साभार)
हिंदी में भावार्थ-
श्रीगुरु ग्रंथ साहिब के मतानुसार अगर मनुष्य सच्चे मन से भगवान की भक्ति करे तो उसके मन में चित्रगुप्त के लिखे की चिंता नहीं रहती।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-श्रीगुरुनानक देव ने अपने जीवन काल में देश में धर्म के नाम पर व्याप्त अंधविश्वासों का जमकर विरोध किया और उनकी वाणी का प्रभाव ही है कि इस देश में अंधविश्वासों के विरुद्ध एक लहर चल पड़ी। धर्म के नाम पर पाखंड को लोग अच्छी तरह समझने लगे।
वर्तमान समय में तो धर्म के नाम पर पाखंड की चरमपरकाष्ठा हो गयी है। लोग दिखावे के लिए परमात्मा का नाम लेते हैं पर पाप उनके मन में रहता है। महाराज चित्रगुप्त को सभी मनुष्यों के पाप पुण्यों का लेखा रखने वाला माना जाता है। कुछ लोग बाहर से धर्म की मर्यादा का पालन करने का संदेश देते हुए बंद दरवाजों के पीछे तमाम तरह के अवैध व्यापार और अनैतिक काम करते हैं। सोचते हैं कोई नहीं देख रहा पर ऐसे लोगों की पोल कभी न क्भी खुल ही जाती है। यहां न भी खुले पर महाराज चित्रगुप्त की दरबार में उनके पापों को छिपाने के लिये कोई परदा नहीं होता।
वही श्री गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी के अनुसार वैसे तो भक्त स्वयं कोई आचार विचार मे गलती नहीं करते पर अनजाने में हो भी जाये तो भक्ति के कारण वह क्षमा योग्य हैं। इसका सीधा आशय यही है कि अपने नियमित कर्म करते हुए भगवान की भक्ति करनी चाहिये ताकि अनजाने में हुए पापों का प्रायश्चित यहीं हो जाये।
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संत कबीर के दोहे-ह्रदय साफ नहीं तो माला फेरने से क्या लाभ



माला फेरै कह भयो, हिंरदा गाठि न खोय।
गुरु चरनन चित राखिये, तो अमरापुर जोय।।

माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि।
मनवा तो दहु दिशि फिरै, यह तो सुमिरन मांहि।।

संत शिरोमण कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य हाथ में माला फेरते हुए जीभ से परमात्मा का नाम लेता है पर उसका मन दसों दिशाओं में भागता है। यह कोई भक्ति नहीं है।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि हाथ में पकड़कर माला फेरने से कोई लाभ तब तक नहीं होता जब नाम स्मरण हृदय से नहीं किया जाये। यह तभी संभव है जब तब गुरु के चरणों में सिर झुकाकर आदर के साथ उनकी सेवा की जाये तभी अज्ञान और दोष मिट सकते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सत्संग में जाना हो या मंदिर में दर्शन करने, जब तक हम परमात्मा का ध्यान हृदय में स्थित नहीं करेंगे तब तक कोई लाभ नहीं होता। देखा जाये तो भक्ति और ज्ञान साधना अपने लौकिक और परलौकिक जीवन को सुखमय करने के लिये करते हैं पर हृदय में केवल भौतिक विषयों का ही ध्यान बना रहता है। भले ही हाथ में माला फेरते हुए परमात्मा का नाम लें या सत्संग में जाकर संतों के प्रवचन सुने पर मन का भटकाव को केवल सांसरिक विषयों में ही बना रहता है। हम वही चिंतायें दुःख और अवसाद हमेशा मस्तिष्क बने रहते हैं जिनसे परेशान होकर हम अध्यात्मिक शांति के लिये उन स्थानों पर जाते हैं जहां सत्संग होता है। इसलिये जब कहीं प्रवचन सुनने जायें या मंदिर में दर्शन करें तब अपने सांसरिक विषयों का विचार मस्तिष्क में नहीं आने देना चाहिये।
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चाणक्य नीति-भंवरे को कमल का महत्व विदेश में पता लगता है


अलिरय नलिनीदलमध्यगः मलिनीमकरंदमदालसः।
विधिवशात्परदेशमुपागतः कुटजपुष्परसं बहु मन्यते।।

हिन्दी में भावार्थ-भंवरा जब तक कमलिनी के बीचों बीच रहकर उसके रस का सेवन करता तब उसके नशे में आलस्य उसे घेरे रहता है मगर जब समय और भाग्यवश परदेस में जाना पड़ता है तब कुटज के फूल के रस को भी बहुत महत्वपूर्ण मानता है जिसमें किसी प्रकार की गंध नहीं होती।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- जिन लोगों का जन्म ही सुविधा संपन्न परिवारों में होता है वह अभावों का अर्थ नहीं जानते। तब वह लोग अपनी सुविधाओं के बारे में यह सोचते हैं कि यह तो उनको जन्मजात विरासत में मिली है। इसके अलावा अपने लिये उपलब्ध धन तथा भौतिक उपलब्ध साधनों का महत्व नहीं समझते। ऐसे में जब किसी कारण वश जब उनको उन सुविधाओं से वंचित हो पड़ता है तब पता लगता है कि वास्तव में उनका क्या मोल है?
इस संदेश में भारत में उपलब्ध जल संपदा का उदाहरण ले सकते हैं। विश्व के अनेक वैज्ञानिकों के अनुसार भारत में भू जल स्तर किसी भी अन्य देश से अधिक है। प्रकृत्ति की इस कृपा का महत्व हम कम वर्षा काल में भी नहीं कर पाते क्योंकि भूजल स्तर इतना तो उपलब्ध हो ही जाता है कि हमारा काम चल जाये। जिन देशों में यह उपलब्ध नहीं है वहां एक वर्ष की अल्प वर्षा में ही अकाल का महान प्रकोप उपस्थित हो जाता है। भारत में वह लोग जो पानी का अपव्यय करते हैं और उनका विदेश में-खासतौर से मध्य एशिया में-प्रवास होता है तब उनको वहां पता लगता है कि पानी कितना महत्वपूर्ण है। इतना ही नहीं भारत के ही कुछ रेगिस्तानी भागों में जाने पर भी उनको पता लगता है कि पानी का कितना महत्त है? कहने का तात्पर्य यह है कि जो वस्तु उपलब्ध है उसका महत्व तब पता लगता है जब वह हाथ से निकल जाती है।
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भर्तृहरि नीति शतक- सच्चे भक्त बने व्यापारी नहीं


महाराज भर्तृहरि कहते है किकि वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रेर्महाविस्तजैः स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।
मुक्त्वैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानलं स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषाः वणिगवृत्तयं:।।

हिंदी में भावार्थ- वेद, स्मुतियों और पुराणों का पढ़ने और किसी स्वर्ग नाम के गांव में निवास पाने के लये कर्मकांडों को निर्वाह करने से भ्रम पैदा होता है। जो परमात्मा संसार के दुःख और तनाव से मुक्ति दिला सकता है उसका स्मरण और भजन करना ही एकमात्र उपाय है शेष तो मनुष्य की व्यापारी बुद्धि का परिचायक है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने जीवन यापन के लिये व्यापार करते हुए इतना व्यापारिक बुद्धि वाला हो जाता है कि वह भक्ति और भजन में भी सौदेबाजी करने लगता है और इसी कारण ही कर्मकांडों के मायाजाल में फंसता जाता है। कहा जाता है कि श्रीगीता चारों वेदों का सार संग्रह है और उसमें स्वर्ग में प्रीति उत्पन्न करने वाले वेद वाक्यों से दूर रहने का संदेश इसलिये ही दिया गया है कि लोग कर्मकांडों से लौकिक और परलौकिक सुख पाने के मोह में निष्काम भक्ति न भूल जायें।

वेद, पुराण और उपनिषद में विशाल ज्ञान संग्रह है और उनके अध्ययन करने से मतिभ्रम हो जाता है। यही कारण है कि सामान्य लोग अपने सांसरिक और परलौकिक हित के लिये एक नहीं अनेक उपाय करने लगते हंै। कथित ज्ञानी लोग उसकी कमजोर मानसिकता का लाभ उठाते हुए उससे अनेक प्रकार के यज्ञ और हवन कराने के साथ ही अपने लिये दान दक्षिणा वसूल करते हैं। दान के नाम किसी अन्य सुपात्र को देने की बजाय अपन ही हाथ उनके आगे बढ़ाते हैं। भक्त भी बौद्धिक भंवरजाल में फंसकर उनकी बात मानता चला जाता है। ऐसे कर्मकांडों का निर्वाह कर भक्त यह भ्रम पाल लेता है कि उसने अपना स्वर्ग के लिये टिकट आरक्षित करवा लिया।

यही कारण है कि कि सच्चे संत मनुष्य को निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया करने के लिये प्रेरित करते हैं। भ्रमजाल में फंसकर की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। इसके विपरीत तनाव बढ़ता है। जब किसी यज्ञ या हवन से सांसरिक काम नहीं बनता तो मन में निराशा और क्रोध का भाव पैदा होता है जो कि शरीर के लिये हानिकारक होता है। जिस तरह किसी व्यापारी को हानि होने पर गुस्सा आता है वैसे ही भक्त को कर्मकांडों से लाभ नहीं होता तो उसका मन भक्ति और भजन से विरक्त हो जाता है। इसलिये भक्ति, भजन और साधना में वणिक बुद्धि का त्याग कर देना चाहिये।
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कबीर के दोहे: मधुमक्खी की तरह सुगंध ग्रहण करें


जो तूं सेवा गुरुन का, निंदा की तज बान
निंदक नेरे आय जब कर आदर सनमान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर सद्गुरु के सच्चे भक्त हो तो निंदा को त्याग दो और कोई अपना निंदा करता है तो निकट आने पर उसका भी सम्मान करो।
माखी गहै कुबास को, फूल बास नहिं लेय
मधुमाखी है साधुजन, गुनहि बास चित देय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मक्खी हमेशा दुर्गंध ग्रहण करती है कि न फूलों की सुगंध, परंतु मधुमक्खी साधुजनों की तरह है जो कि सद्गण रूपी सुगंध का ही अपने चित्त में स्थान देती है।

तिनका कबहूं न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़ै, पीर धनेरी होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कभी पांव के नीच आने वाले तिनके की भी उपेक्षा नहीं करना चाहिए पता नहीं कब हवा के सहारे उड़कर आंखों में घुसकर पीड़ा देने लगे।

जो तूं सेवा गुरुन का, निंदा की तज बान
निंदक नेरे आय जब कर आदर सनमान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर सद्गुरु के सच्चे भक्त हो तो निंदा को त्याग दो और कोई अपना निंदा करता है तो निकट आने पर उसका भी सम्मान करो।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-यह सच्चे भक्त की पहचान है कि वह किसी की निंदा नहीं करते न ही किसी में दोष देखते हैं। जो नित प्रतिदिन भक्ति करते हैं और फिर परनिंदा में लग जाते हैं उनकी भक्ति में दोष है यही समझना चाहिये। वैसे आम आदमी की बात ही क्या कथित संत और साधु भी एक दूसरे की निंदा करते हैं। निंदा करना आदमी के अंदर मौजूद नकारात्मक सोच का परिणाम है। जिनके मन में परमात्मा के प्रति सत्य में भक्ति का भाव है उनका सोच सकारात्मक रहता है और वह दूसरों की अच्छाईयों पर ही विचार कर उनको ग्रहण करते हैंं।

दूसरों के दोष देखकर उसकी चर्चा करने से वह दोष हमारे अंदर स्वतः आ जाता है। कहते हैं कि आलोचक को अपने से दूर नहीं रखना चाहिये क्योंकि उसके श्रीमुख से अपने दोष सुनने से हमें वह अपने अंदर से निकालने का अवसर मिल जाता है। यह दोष निकलकर उसके अंदर से जाता कहां है? तय बात है कि वह आलोचक के अंदर ही जाता है। जिस तरह भगवान की भक्ति करने से उनका सानिध्य मिलता है उसी तरह दूसरे की निंदा करना या दोष देखने से वह भी हमें प्राप्त होता है। यह दुनियां वैसी ही जैसी हमारी नीयत है अतः अच्छा देखें तो वह अच्छी लगेगी और अगर खराब देखेंगे तो वैसा ही बुरा भी लगेगा।
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चाणक्य नीतिः ‘जस के साथ तस’ नीति में दोष नहीं


संसार विषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे।
सुभाषितं च सुस्वादु संगतिः सुजने जनै।।

हिन्दी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य जी कहते हैं कि इस विषरूपी संसार में दो तरह के फल अमृत की तरह लगते हैं। एक तो सज्जन लोगों की संगत और दूसरा अच्छी वाणी सुनना।
कृते प्रतिकृतं कुर्याद् हिंसने प्रतिहिसंनम्।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टे सामचरेत्
हिंदी में भावार्थ-
अपने प्रति अपराध और हिंसा करने वाले के विरुद्ध प्रतिकार और प्रतिहिंसा का भाव रखने में कोई दोष नहीं है। उसी तरह दुष्ट व्यक्ति के साथ वैसे ही व्यवहार करना कोई अपराध नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में वैसे तो दुःख और विष के अलावा अन्य कुछ नहीं दिखता पर दो तरह के फल अवश्य हैं जिनका मनुष्य अगर सेवन करे तो उसका जीवन संतोष के साथ व्यतीत किया जा सकता है। इसमें एक तो है ऐसे स्थानो पर जाना जहां भगवत्चर्चा होती हो। दूसरा है सज्जन और गुणी लोगों से संगत करना। दरअसल इस स्वार्थी दुनियां में निष्काम भाव से कुछ समय व्यतीत करने पर ही शांति मिलती है और यह तभी संभव है जब हम स्वार्थ की वजह से बने रिश्तों से अलग ऐसे संतों और सत्पुरुषों की संगत करें जिनका हम में और हमारा उनमें स्वार्थ न हो। इसके अलावा आत्मा को प्रसन्न करने वाली कहीं कोई बात सुनने को मिले तो वह अवश्य सुनना चाहिये।
कहते हैं कि मन में बुरा भाव नहीं रखना चाहिये पर अगर कोई हमारे साथ बुरा बर्ताव करता है तो उससे चिढ़ हो ही जाती है। पंच तत्व से बनी इस देह में बुद्धि, मन और अहंकार ऐसी प्रकृतियां हैं जिन पर चाहे जितना प्रयास करो पर नियंत्रण हो नहीं पाता। सज्जन लोग किसी अन्य द्वारा बुरा बर्ताव करने पर उससे मन में चिढ़ जाते हैं पर बाद में वह इस बात से पछताते हैं कि उनके मन में बुरी बात आई क्यों? अगर किसी बुरे व्यक्ति के बर्ताव से गुस्सा आता है तो उससे विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। वैसे जीवन में सतर्कता और सक्रियता आवश्यक है। कोई व्यक्ति हमारे अहित के लिये तत्पर है तो उसका वैसा ही प्रतिकार करने में कोई बुराई नहीं है। बस! इतना ध्यान रखना चाहिये कि उससे हम बाद में स्वयं मानसिक रूप से स्वयं प्रताड़ित न हों।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र:अग्नि के समान असहनशील भी होना चाहिये


१.कछुए के समान अंग संकोचकर शत्रु का प्रहार भी सहन करे और बुद्धिमान फिर समय देखकर क्रूर सर्प के समान डटकर लडे.
२.समय पर पर्वत के समान सहनशील हो और अग्नि के समान असहनशील हो और समय पर प्रिय वचन कहता हुआ कंधे पर भी शत्रु को उठावे.
३.मत्त और प्रमत्त के समान बाहरी दिखावे से स्थित बुद्धिमान आक्रमण करे, जैसे कि सिंह ऐसा कूदकर प्रहार करता है वह खाले वार नहीं जाता.
४.प्रसन्नता की वृत्ति से लोक की हितकारी वृत्ति से शत्रु के हृदय में निरन्तर प्रवेश का समय पर नीति के हाथों से प्रहार कर उसकी लक्ष्मी के केश ग्रहण करें.

५.विद्वान् को उचित है कि प्राप्त हुए उपायों से विग्रह को शांत करे. विजय की प्राप्ति अचल नहीं है. एकाएक किसी प्रकार पर प्रहार न करे.
६.बुद्धिमान को कोई भी वस्तु असाध्य नहीं है, लोहा अभेद्य होता है पर लोहार बुद्धिमानी से उसे गला डालता है.

कौटिल्य का अर्थशास्त्र:अब तो उपेक्षासन भी सीख लें


१.शत्रु को अपने से अधिक जानकर उसके बल के कारण उपेक्षा कर स्थिर ही रहता है उसको उपेक्षासन कहते हैं। जैसे भगवान् श्री कृष्ण ने सत्यभामा के लिए स्वर्ग से कल्पवृक्ष उठा लिया तब देवराज इन्द्र ने अपनी पूरी शक्ति का प्रदर्शन न कर उपेक्षा की-अर्थात उनसे युद्ध नहीं किया।
२.दूसरों से उपेक्षित होने से रुक्मी ने भी उपेक्षासन किया। जब कृष्ण से युद्ध करने के उपरांत रुक्मी को किसी ने सहायता नहीं दी तो वह उपेक्षासन कर बैठ गया।

कौटिल्य के इन गूढ़ रहस्यों को समझे तो उनमें बहुत सारे अर्थ निहित हैं। आज एक सभ्य समाज निर्मित हो चुका है और बाहुबल के उपयोग के अवसर बहुत कम रह गए हैं। ऐसे में उनकी नीतियों का अनुसरण और अधिक आवश्यक हो गया है। हम देखते हैं कि हमें उत्तेजित करने के लिए कई विषय उपस्थित किये जाते हैं ताकि हम अपना विवेक खो दें और दूसरे इसका लाभ उठा सकें।

त्योहारों के मौके पर ही देखें। उनका व्यवसायीकरण इस तरह किया गया है कि लगता है कि पैसे खर्च करना ही त्यौहार है और भक्ति, ध्यान और एकांत चिंतन का उनसे कोई संबंध नहीं है। एक से बढ़कर एक विज्ञापन टीवी और अखबारों में आते हैं-यह खरीदो, वह खरीदो और अपना त्यौहार मनाओ। लोग इनको देखकर बहक जाते हैं और अपना पैसा खर्च करते हैं। और तो और इस अवसर पर कर्जों की भी आफर होती है। जिनके पास पैसा नहीं है वह कर्ज लेकर कीमती सामान खरीदने लगते हैं-यह सोचकर के उसे चुका देंगे पर ऐसा होता नहीं है और कर्ज जिसे मर्ज भी कहा जाता है एक दिन लाइलाज हो जाता है। हम दूसरों का आकर्षण देखकर उसको अपने मन में धारण कर लेते हैं और वही हमारे तनाम का कारण बन जाता है अगर हम उनकी उपेक्षा कर अपनी मस्ती में मस्त रहें तो लगेगा की इस दुनिया में बहुत सी चीजें दिखावे के लिए संग्रहित की जातीं है उनसे कोई सुख मिलता हो यह जरूरी नहीं है और जिनके पास सब कुछ है वह भी शांति नहीं है वरना वह भगवान् के घर मत्था टेकने क्यों जाते हैं?

यहाँ एक बात याद रखना होगी कि विज्ञापन में काम करने वाले अपने कार्य को ”एड केंपैन”यानि विज्ञापन अभियान या युद्ध भी कहते हैं और इसे इस तरह बनाया जाता है कि समझदार से समझदार व्यक्ति अपनी बुद्धि हार जाये। इस समय हर क्षेत्र में तमाम तरह के प्रचार युद्ध छद्म रूप से हम पर थोपे गए हैं और हम उनसे हार राहे हैं, केवल वस्तुओं को खरीदने तक ही यह प्रचार युद्ध सीमित नहीं है बल्कि अन्य विषयों -जैसे आध्यात्मिक, साँस्कृतिक एवं सामाजिक- पर विचार न कर केवल मीडिया द्वारा सुझाए गए विषयों पर ही सोचें, इस तरह हम पर थोपे गए हैं।

हम चूंकि बाजार उदारीकरण के पक्ष में हैं इसलिए उनको रोक नहीं सकते पर उनके प्रति उपेक्षासन का भाव अपनाना चाहिए। यह अब हमारे लिए चुनौती है। इसलिए मैं हमेशा कहता हूँ कि हमारे प्राचीन मनीषियों ने जो सोच इस समाज को दिया था उसकी परवाह तत्कालीन समाज ने इसलिए नहीं की क्योंकि उस समय इसकी अधिक आवश्यकता नहीं थी, और वह अब अधिक प्रासंगिक है क्योंकि ऐसे प्रसंग आ रहे हैं जिनमें उनके नियम और सिद्धांत बहुत नये लगते हैं। यह देखकर आश्चर्य होता है कि हमारे प्राचीन मनीषी और विद्वान कितने दूरदर्शी थे।दरअसल हमारे समाज की वास्तविक परीक्षा का समय अब आ गया है और हमें अपने अन्दर ऐसे विचार और नियम स्थापित करना चाहिए जिससे विजय पा सकें।
हमारे सामने किसी विज्ञापन में कोई वस्तु या कोई विषय होता है तो उस पर गहराई से विचार करना चाहिए, और अगर उसमें अपना और समाज का लाभ न दिखे तो उपेक्षा का भाव बरतना चाहिऐ. हमें किसी विषय, वस्तु या व्यक्ति पसंद नहीं है तो उसे बुरा कहने की बजाय उपेक्षासन करना चाहिए. अगर हम उसे बुरा कहेंगे तो चार लोग उसे अच्छा भी कहेंगे-उसका विज्ञापन स्वत: होगा. हम उपेक्षा करेंगे तो हमारे चित को शांति मिलेगी.

चाणक्य नीति:हिंसक पशु,नदी और राजपरिवार सदैव विश्वसनीय नहीं


१.केवल मनुष्य योनि में जन्म लेने से सब मनुष्य एक समान नहीं हो जाते. एक ही माँ के गर्भ से उत्पन्न एक ही राशि-नक्षत्र में जन्म लेने वाले दो जुड़वां भाई भी बिलकुल अलग कर्म करने वाले और भिन्न गुण और स्वभाव वाले होते है. शायद पुराने कर्म फल के कारण सभी में ऐसी विभिन्नता आती है.
२.जिस प्रकार मछली देख-देखकर संतान का पालन करती है,कछुई केवल ध्यान द्वारा ही संतान की देखभाल करती है और मादा पक्षी अपने अण्डों को सेकर या छूकर अपनी संतान का पालन करती हैं उसी परकार सज्जन की संगती अपने संपर्क में आने वालों को भगवान् के दर्शन, ध्यान और चरण-स्पर्श आदि का आभास कराकर कल्याण करती है.
३.संसार में सुख की अपेक्षा दु:खों का अस्तित्व अधिक माना जता है, तीन प्रकार के संताप ऐसे हैं जिनसे मनुष्य घिरा रहता है. मन, स्थिति और दुर्भाग्य के कष्टों का निवारण भी तीन प्रकार के उपायों से होता है- गुणवान पुत्र मधुर भाषिणी पत्नी और श्रेष्ठ पुत्र की संगति.

४.लंबे नाखून धारण करने वाले हिंसक पशु, नदिया एवं राजपरिवार हमेशा विश्वसनीय नहीं होते क्योंकि इनके स्वभाव में परिवर्तन आते रहते हैं.

रहीम के दोहे:प्रेम की गली संकरी होती है


रहिमन गली है सांकरी, दूजो न ठहराहिं
आपु अहैं तो हरि नहीं, हरि आपुन नाहि

संत शिरोमणि रहीम कहते हैं की प्रेम की गली बहुत पतली होती है उसमें दूसरा व्यक्ति नहीं ठहर सकता, यदि मन में अहंकार है तो भगवान् का निवास नहीं होगा और यदि दृदय में ईश्वर का वास है तो अहंकार का अस्तित्व नहीं होगा.
रहिमन घरिया रहंट को त्यों ओछे की डीठ
रीतिही सन्मुख होत है, भरी दिखावे पीठ

कविवर रहीम कहते हैं की कुएँ में लगी रहंट की छोटी-छोटी घडेईयाँ तुच्छ व्यक्ति की दृष्टि के समान होती हैं. सामने तो खाली होती किन्तु पीछे भरे हुई होतीं हैं.

चाणक्य नीति:धन मिले तो भी बैरी के पास न जाएं


1.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही वाचों द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।

2.समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं।
3.मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।

4.ऐसा धन जो अत्यंत पीडा, धर्म त्यागने और बैरियों के शरण में जाने से मिलता है, वह स्वीकार नहीं करना चाहिए। धर्म, धन, अन्न, गुरू का वचन, औषधि हमेशा संग्रहित रखना चाहिए, जो इनको भलीभांति सहेज कर रखता है वह हेमेशा सुखी रहता है।बिना पढी पुस्तक की विद्या और अपना कमाया धन दूसरों के हाथ में देने से समय पर न विद्या काम आती है न धनं.

5.जो बात बीत गयी उसका सोच नहीं करना चाहिए। समझदार लोग भविष्य की भी चिंता नहीं करते और केवल वर्तमान पर ही विचार करते हैं।हृदय में प्रीति रखने वाले लोगों को ही दुःख झेलने पड़ते हैं।
6.प्रीति सुख का कारण है तो भय का भी। अतएव प्रीति में चालाकी रखने वाले लोग ही सुखी होते हैं.
7.जो व्यक्ति आने वाले संकट का सामना करने के लिए पहले से ही तैयारी कर रहे होते हैं वह उसके आने पर तत्काल उसका उपाय खोज लेते हैं। जो यह सोचता है कि भाग्य में लिखा है वही होगा वह जल्द खत्म हो जाता है। मन को विषय में लगाना बंधन है और विषयों से मन को हटाना मुक्ति है.