कई किताबें पढ़कर बेचते है ज्ञान
अपने व्यापार को नाम देते अभियान
चार दिशाओं के चौराहे पर खड़े होकर
देते हैं हांका
समाज की भीड़ भागती है भेड़ों की तरह
नाम लेते हैं शांति का
पहले कराते हैं सिद्धांतों के नाम पर झगड़ा
बह जाता है खून सड़कों पर
उनका नहीं होता बाल बांका
कोई तनाव से कट जाता
कोई गोली से उड़ जाता
पर किसी ने उनके घर में नहीं झांका
कहीं नहीं मिलते उनकी करतूतों के निशान
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हमें मंजिल का पता बताकर
खुद वह जंगल में अटके हैं
कहने वाले सच कह गये
जो सबको बताते हैं
नदिया के पार जाने का रास्ता
वह स्वयं कभी पार नहीं हुए हैं
कहैं महाकवि दीपक बापू
उन्मुक्त भाव से जीते हैं जो लोग
मुक्त कहां हो पाते हैं स्वयं
दुनियां भर के झंझट उनके मन के बाहर लटके हैं
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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1.निरंतर सोच-विचार भी मनुष्य को क्षति पहुंचाता है. अगर आप हमेशा अपने शरीर में रोग के लक्षणों पर ही उधेड़ बुन करते रहें तो आप निश्चित रूप से रोग ग्रस्त जो जायेंगे. आप वहमी कहे जाने लगेंगे.
2.बहुत से लोग रोग ग्रस्त होते हुए भी अपने को रोगी नहीं मानते. अत: वे जल्दी ही रोग मुक्त हो जाते हैं. उनका आत्मविश्वास उन्हें निरोगी बना देता है.
3.प्राय: यह देखा जाता है की लोग अपने रोग के लक्षणों और अपनी दुर्बलताओं को बढा-चढाकर बताते हैं. शायद वे समझते हैं हों की इससे उन्हें लाभ मिलेगा. मगर नहीं, इससे उनके रोग एवं क्षीणता में वृद्धि होती है. वे और ज्यादा दुर्बल हो जाते हैं. निरंतर सोच-विचार व्यक्ति को विक्षिप्त कर देता है.