कभी गम तो कभी खुशी
कभी दर्द तो कभी हँसी के साथ
कविता लिखने का ख्याल किया
तब भाषा सजाने के साथ
शब्द को जोर से बजाने का सोच नहीं आया.
कोशिश की रस के रंग दिखाने
और अलंकार से कविता सजाने की
मिले जिससे भाषा विद्वान की उपाधि
तब कविता को अपने दिल के भाव से दूर पाया..
____________________
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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सूखी मन गयी दिवाली
क्योंकि जेब थी खाली,
ज़माने में अपना रुआब दिखाने के
लिए सबसे कह रहे हैं”हैप्पी दीवाली”.
जेब खाली हो तो
अपना चेहरा आईने में देखते हुए भी
बहुत डर लगता है
अपने ही खालीपन का अक्स
सताने लगता है।
क्यों न इतरायें दौलतमंद
जब पूरा जमाना ही
आंख जमाये है उन पर
और अपने ही गरीब रिश्ते से
मूंह फेरे रहता है।
अपना हाथ ही जगन्नाथ
फिर भी लगाये हैं उन लोगों से आस
जिनके घरों मे रुपया उगा है जैसे घास
घोड़ों की तरह हिनहिना रहे सभी
शायद मिल जाये कुछ कभी
मिले हमेशा दुत्कार
फिर भी आशा रखे कि मिलेगा पुरस्कार
इसलिये दौलतमंदों के लिये
मुफ्त की इज्जत और शौहरत का दरिया
कमअक्लों की भीड़ के घेरे में ही बहता है।
……………………………
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शराब की बोतल से जिन्न निकला
और उस पियक्कड़ से बोला
-“हुकुम मेरे आका!
आप जो भी मुझसे मंगवाओगे
वह ले आउंगा
बस शराब की बोतल नहीं मंगवाना
वरना मुझसे हाथ धोकर पछताओगे.
सुनकर पियक्कड़ बोला
-“मेरे पास बाकी सब है
उनसे भागता हुआ ही शराब के नशे में
घुस जाता हूँ
दिल को छु ले, ऐसा कोई प्यार नहीं देता
देने से पहले प्यार, अपनी कीमत लेता
तुम भी दुनिया की तमाम चीजें लेकर
मेरा दिल बहलाओगे
मैं तो शराब ही मांगूंगा
मुझे मालूम है तुम छोड़ जाओगे.
जाओ जिन्न किसी जरूरतमंद के पास
मुझे नहीं खुश कर पाओगे..
————————-
रिश्ते और समय की धारा-हिंदी कविता
हम दोनों तूफान में फंसे थे
उनको सोने की दीवारों का
सहारा मिला
हम ताश के पतों की तरह ढह गये।
अब गुजरते हैं जब उस राह से
यादें सामने आ जाती हैं
कभी अपनो की तरह देखने वाली आंखें
परायों की तरह ताकती हैं
रिश्ते समय की धारा में यूं ही बह गये।
जुबां से निकलते नहीं शब्द उनके
पर इशारे हमेशा बहुत कुछ कह गये।
……………………………..
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स्वाईन फ्लू की बीमारी ने आते ही देश में प्रसिद्धि आई।
इतने इंतजार के बाद, आखिर शिकार ढूंढते विदेश से आई।।
ढेर सारी देसी बीमारियां पंक्तिबद्ध खड़ी होकर खड़ी थी
पर तब भी विदेश में बीमारी के नृत्य की खबरें यहां पर छाई।
देसी कुत्ता हो या बीमारी उसकी चर्चा में मजा नहीं आता
देसी खाने और दवा के स्वाद से नहीं होती उनको कमाई।।
महीनों से लेते रहे स्वाईन फ्लू का नाम बड़ी शिद्दत से
उससे तो फरिश्ता भी प्रकट हो जाता, यह तो बीमारी है भाई।।
करने लगे हैं लोग, देसी बीमारी का देसी दवा से इलाज
बड़ी मुश्किल से कोई बीमारी धंधा कराने विदेश से आई।।
कहैं दीपक बापू मजाक भी कितनी गंभीरता से होता है
चमड़ी हो या दमड़ी, सम्मान वही पायेगी जो विदेश से आई।।
…………………………….
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अपनी मंजिल पर
कभी वह पहुंचे नहीं।
चले कहीं के लिये थे
पहुंचे गये कहीं।
भटकाव सोच का था
कभी रास्ते से वह उतर जाते
कभी खो जाता रास्ता कहीं।
……………………..
अपने रास्ते से वह भटके
अपने ही गम में वह लटके
कोई उपाय न देखकर
बूढ़े बरगद के नीचे धूनि रमाई।
दूसरे को रास्ता बताने लगे
यूं भीड़ का काफिला बढ़ता गया
जमाना ही उनके जाल में फंसता गया
फिर भी चल रहा है उनका धंधा
कभी आता नहीं मंदा
जब तक लोग भटकते रहेंगे
रास्ते पूछने की कीमत सहेंगे
मंजिल पर पहुंच जायेगा राही
बन नहीं हो जायेगी कमाई।
भ्रम वह सिंहासन है
जिसे सिर पर बिठाया तो
बन गये प्रजा
उस पर बैठे तो बने राजा
सच है सर्वशक्तिमान ने
खूब यह दुनियां बनाई
……………………………
नोट-यह व्यंग्य काल्पनिक तथा इसका किसी व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है और किसी से इसका विषय मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।
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बेटे ने कहा बाप से
‘पापा मुझे पतंग उड़ाना सिखा दो
कैसे पैच लड़ाते हैं यह दिखा दो
तो बड़ा मजा आयेगा।’
बाप ने कहा बेटे से
‘पतंग उड़ाना है बेकार
इससे गेंद और बल्ला पकड़ ले
तो खेल का खेल
भविष्य का व्यापार हो जायेगा।
मैंने व्यापार में बहुत की तरक्की
पर पतंग उड़ाकर किया
बचपन का वक्त
यह हमेशा याद आयेगा।
बड़ा चोखा धंधा है यह
जीतने पर जमाना उठा लेता सिर पर
हार जाओ तो भी कोई बात नहीं
सम्मान भले न मिले
पर पैसा उससे ज्यादा आयेगा।
दुनियां के किसी देश के
खिलाड़ी को जीतने पर भी
नहीं कोई उसके देश में पूछता
यहां तो हारने पर भी
हर कोई गेंद बल्ले के खिलाड़ी को पूजता
विज्ञापनों के नायक बन जाओ
फिर चाहे कितना भी खराब खेल आओ
बिकता है जिस बाजार में खेल
वह अपने आप टीम में रहने का
बोझ उठायेगा।
हारने पर थकने का बहाना कर लो
फिर भी यह वह खेल है
जो हवाई यात्रा का टिकट दिलायेगा।
जीत हार की चिंता से मुक्त रहो
क्योंकि यह मैदान से बाहर तय हो जायेगा।
भला ऐसा दूसरा खेल कौनसा है
जो व्यापार जैसा मजा दिलायेगा।
…………………….
नोट-यह व्यंग्य काल्पनिक तथा इसका किसी व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है और किसी से इसका विषय मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।
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Tagged खेल, मनोरंजन, व्यंग्य, शायरी, शेर, हवाई यात्रा, हिंदी साहित्य, cricket match, hasya kavita, hindi poem
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सड़क से गुजर रहे वाहनों
और उद्यान में बच्चों का शोर
प्रेमिका हो गयी बोर
उसका चेहरा देखकर प्रेमी ने कहा
’क्या बात है प्रिया
तुम उदास क्यों हो?
कोई इच्छा हो तो बताओ
तुम कहो तो आकाश से
चंद्रमा जमीन पर उतार लाऊं।’
पहले तो गुस्से में प्रेमिका ने प्रेमी को देखा
फिर अचानक उसकी आंखें चमकने लगी
नासिका में जैसे ताजी हवा महकने लगी
वह बोली-
‘व्हाट इज आइडिया
जल्दी करो
पर चंद्रमा को धरती पर नहीं लाने की
बल्कि वहां मकान बनाने की
देखों यहां
बाग में बच्चों का भारी है शोर
उधर सड़क से गुजरते वाहनों का धुंआं
और उनके इंजिन की आवाज है घनघोर
चारों तरफ लाउडस्पीकरों पर जोर बजते हुए
सर्वशक्तिमान को प्रसन्न करने वाले गाने
कर देते हैं बोर
सुना है चंद्रमा पर भूखंड मिलने की तैयारी है
तुम भी एक जाकर पंजीयन करा लो
इस जहां में विषाक्त हो गया है वातावरण
क्या करेंगे यहां घर बसाकर
फंस जायेंगे गृहस्थी में, विवाह रचाकर
तुम उससे पहले भूखंड लेने की तैयारी शुरु करो
तो मैं सभी को जाकर समाचार बताऊं।’’
उसके जाने के बाद प्रेमी ने
आसमान की तरफ हाथ उठाये और बोला-
”क्या मुसीबत है
किसने बनाई थी
मोहब्बत में यह चंद्रमा और तारे तोड़कर
जमीन पर लाने की बात
शायद नहीं सोता होगा वह पूरी रात
जमाना बदल गया है
तो इश्क में बात करने का लहजा भी बदलना था
अब क्या यह आसान है कि
मैं चंद्रमा पर भूखंड पर लेकर मकान बनाऊं
इससे अच्छा तो यह होगा कि
इज्जत बचाने के लिये
अपनी प्रिया से मूंह छिपाऊं
किसी तरह उसे भुलाऊं।।”
……………………
यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग
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रीढ़हीन हो तो भी चलेगा।
चरित्र कैसा हो भी
पर चित्र में चमकदार दिखाई दे
ऐसा चेहरा ही नायक की तरह ढलेगा।
शब्द ज्ञान की उपाधि होते हुए भी
नहीं जानता हो दिमाग से सोचना
तब भी वह जमाने के लिये
लड़ता हुआ नायक बनेगा।
कोई और लिखेगा संवाद
बस वह जुबान से बोलेगा
तुतलाता हो तो भी कोई बात नहीं
कोई दूसरा उसकी आवाज भरेगा।
बाजार के सौदागर खेलते हैं
दौलत के सहारे
चंद सिक्के खर्च कर
नायक और खलनायक खरीद
रोज नाटक सजा लेते हैं
खुली आंख से देखते है लोग
पर अक्ल पर पड़ जाता है
उनकी अदाओं से ऐसा पर्दा पड़ जाता
कि ख्वाब को भी सच समझ पचा लेते हैं
धरती पर देखें तो
सौदागर नकली मोती के लिये लपका देते हैं
आकाश की तरफ नजर डालें
तो कोई फरिश्ता टपका देते हैं
अपनी नजरों की दायरे में कैद
इंसान सोच देखने बाहर नहीं आता
बाजार में इसलिये लुट जाता
ख्वाबों का सच
ख्यालों की हकीकत
और फकीरों की नसीहत के सहारे
जो नजरों के आगे भी देखता है
वही इंसान से ग्राहक होने से बचेगा।
…………………………….
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बादशाह बनने की चाहत-हिंदी शायरी
हीरे जवाहरात और रत्नों से सजा सिंहासन
और संगमरमर का महल देखकर
बादशाह बनने की चाहत मन में चली ही आती है।
पर जमीन पर बिछी चटाई के आसन
कोई क्या कम होता है
जिस पर बैठकर चैन की बंसी
बजाई जाती है।
देखने का अपना नजरिया है
चलने का अपना अपना अंदाज
पसीने में नहाकर भी मजे लेते रहते कुछ लोग
वह बैचेनी की कैद में टहलते हैं
जिनको मिला है राज
संतोष सबसे बड़ा धन है
यह बात किसी किसी को समझ में आती है।
लोहे, पत्थर और रंगीन कागज की मुद्रा में
अपने अरमान ढूंढने निकले आदमी को
उसकी ख्वाहिश ही बेचैन बनाती है।
…………………
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पीता जाए चुपचाप दर्द.
घर की नारी करें हैरान
ससुराल वाले धमकाकर करें परेशान
पर खामोश रहे वही है असली मर्द.
पसीना बहाकर कितना भी थक जाता हो
फिर भी नींद पर उसका हक़ नहीं हैं
अगर नारी का हक़ भूल जाता हो
घर में भीगी बिल्ली की तरह रहे
भले ही बाहर शेर नज़र आता हो
मुश्किलों में पानी पानी हो जाए
भले ही हवाएं चल रही हों सर्द.
तभी कहलाएगा मर्द.
———————–
मर्द को हैरान करे
पल पल परेशान करे
ऐसी हो युक्ति.
उसी से होती है नारी मुक्ति.
डंडे के सहारे ही चलेगा समाज
प्यार से घर चलते हैं
पड़ गयी हैं यह पुरानी उक्ति.
————————–
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अब खूब पीना शराब
नहीं कहेगा कोई खराब
क्योंकि वह आजादी का पैमाना बन गयी है
कदम बहकने की फिक्र मत करना
इंसानी हकों के के नाम पर लड़ने वाले
तुम्हें संभाल लेंगे
इंतजार में खड़े हैं मयखानों के बाहर
कोई लड़खड़ाता हुआ आये तो
उसे सजा सकें अपनी महफिल में
हमदर्दी के व्यापार के लिये
उनके ठिकानों पर दर्द लेकर आने वालों की
भीड़ कम हो गयी है
………………………….
अपनी अक्ल का इस्तेमाल करोगे
तो दुश्मन बहुत बन जायेंगे
क्योंकि दूसरों पर
अपनी समझ लादने वालों की भीड़ बढ़ गयी है
जो ढूंढते हैं कलम और तलवार
अपने हाथों में लेकर
जो सच में तुम आजाद दिखे तो
डर जायेंगे
आजादी की बात कर
वह तुम्हें गुलाम बनायेंगे
नहीं माने तो विरोधी बन जायेंगे
…………………………….
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नयी बहू कवियित्री है
जब सास को पता लगी
तो उसकी परीक्षा लेने की बात दिमाग में आयी
उसने उससे अपने ऊपर कविता लिखने को कहा
तो बहू ने बड़ी खुशी से सुनाई
‘मेरी सास दुनियां में सबसे अच्छी
जैसे मैंने अपनी मां पायी
बोलना है कोयल की तरह
चेहरा है लगता है किसी देवी जैसा
क्यों न सराहूं अपना भाग्य ऐसा
चरण धोकर पीयूं
ऐसी सास मैंने पायी’
सास खुश होकर बोली
‘अच्छी कविता करती हो
लिखती रहना
मेरी भाग्य जो ऐसी बहू पाई’
दो साल बाद जब वह
कवि सम्मेलन जाने को थी तैयार
सास जोर से चिल्लाई
‘क्या समझ रखा है
घर या धर्मशाला
मुझसे इजाजत लिये बिना
जब जाती और आती हो
भूल जाओं कवि सम्मेलन में जाना
हमें तुम्हारी यह आदत नहीं समझ मंें आयी’
गुस्से में बहू ने अपनी यह कविता सुनाई
‘कौन कहता है कि सास भी
मां की तरह होती है
चाहे कितनी भी शुरू में प्यारी लगे
बाद में कसाई जैसी होती है
हर बात में कांव कांव करेगी
खलनायिका जैसा रूप धरेगी
समझ लो यह मेरी आखिरी कविता
जो पहली सुनाई थी उसके ठीक उलट
अब मत रोकना कभी
वरना कैसिट बनाकर रोज
सुनाऊंगी सभी लोगों को
तुम भूल जाओ अपना रुतवा
मैं नहीं छोड़ सकती कविताई’
सास सिर पीटकर पछताई
‘वह कौनसा मुहूर्त था जो
इससे कविता सुनी थी
और आगे लिखने को कहा था
अब तो मेरी मुसीबत बन आई
अब कहना है इससे बेकार
कहीं सभी को न सुनाने लगे
क्या कहेगा जब सुनेगा जमाई
वैसे ही नाराज रहता है
करने न लगे कहीं वह ऐसी कविताई
…………………………………..
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जब हकीकतें होती बहुत कड़वी
वह मीठे सपनों के टूटने की
चिंता किसी को नहीं सताती
जहां आंखें देखती हैं
हादसे दर हादसे
वहां खूबसूरत ख्वाब देखने की
सोच भला दिमाग में कहा आती
दर्द से लड़ते आंसू सूख गये है जिसके
हादसों पर उसकी हंसी को मजाक नहीं कहना
उसकी बेरुखी को जज्बातों से परे नही समझना
कई लोग रोकर इतना थक जाते
कि हंसकर ही दर्द से दूर हो पाते
जिक्र नहीं करते वह लोग अपनी कहानी
क्योंकि वह हो जाती उनके लिये पुरानी
रोकर भी जमाना ने क्या पाता है
जो लोग जान जाते हैं
अपने दिल में बहने वाले आंसू वह छिपाते हैं
इसलिये उनकी कशकमश
शायरी बन जाती
शब्दों में खूबसूरती या दर्द न भी हो तो क्या
एक कड़वे सच का बयान तो बन जाती ……………………………………………
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डाइन भी सात घर छोड़कर
कहर बरपाती
अपने पडौस से निभाओ यह तो वह भी सिखाती
उसकी राह पर चलने वाले असली भक्त
आज भी अपने देश और पडौस को
कहर से बचाने के लिए
दूसरी जगह कहर बरपाते
पर खुद न जाकर
वहीँ के बाशिंदों को लगाते
जो पडौस नहीं अपने ही घर को ही
अपने हाथ से आग लगाकर कर देते राख
खुद को बहादुर समझने वाले
नहीं जानते कि
उनकी करतूत डाइन को भी लजाती
वह भी उनकी करतूत पर शर्माती
——————————-
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अमृत संदेश-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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हाड़मांस के पुतलों से
हो गये है नाउम्मीद इसलिये
पत्थर के बुत ही पूजना अच्छा लगता
कम से कम उम्मीद के टूटने का भय तो नहीं रहता
पत्थर बोलते नहीं है
पर जो बुत बोल रहे
स्वर उनके जरूर हैं पर
शब्द पराये होकर डोल रहे ं
आखों में जिनके जीवन है
देख रहे हैं दृश्य
पर उसे किसी का दृष्टिकोण उधार लेकर तोल रहे
उनकी किसी बात को
प्रमाणिक मानने को मन नहीं कहता
ऋषियों और मुनियों जैसे
बन नहीं सके
ऐसे पुरुषों ने अपने को पुजवाने के लिये
तमाम दिये नारे
इतिहास में किया नाम दर्ज
समाज के इलाज के नाम पर दिया
उसे भ्रमों में भटकने का मर्ज
भटक रहे हैं कई किताबी कीड़े
उतारने के लिये उनका कर्ज
मिटाने की चाहत थी पुराने इतिहास की
नया जो रचा उन्होंने
नीरस और बोझिल शब्दों से जो वाद और नारा
वह कभी हकीकत नहीं लगता
पर बिखरे पड़े हैं उनके शागिर्द चारों ओर
को साहसी भी सच नहीं उनसे नहीं कहता
पत्थर के बुतों से
अगर नहीं है कामयाबी की आशा
तो नहीं होती कभी
उनसे झूठ और भ्रम की वजह से निराशा
हाड़मांस के पुतलों को क्या
नाम दें
इसलिये तो जमाना पत्थर के बुतों को ही
अपना इष्ट कहता
पत्थरों से जंग लड़ी जाती है तभी
जब हाड़मांस के बुतों बातों पर होती जंग
उनके नारे लगाने वालों की
हो जाती है सोच तंग
पर पत्थर का कोई बुत
खुद तो किसी को जंग के लिये नहीं कहता
…………………………………….
यह आलेख ‘दीपक” भारतदीप की सिंधु केसरी-पत्रिका पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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पापी पेट का है सवाल
इसलिये रोटी पर मचा रहता है
इस दुनियां में हमेशा बवाल
थाली में रोटी सजती हैं
तो फिर चाहिये मक्खनी दाल
नाक तक रोटी भर जाये
फिर उठता है अगले वक्त की रोटी का सवाल
पेट भरकर फिर खाली हो जाता है
रोटी का थाल फिर सजकर आता है
पर रोटी से इंसान का दिल कभी नहीं भरा
यही है एक कमाल
………………………
रोटी का इंसान से
बहुत गहरा है रिश्ता
जीवन भर रोटी की जुगाड़ में
घर से काम
और काम से घर की
दौड़ में हमेशा पिसता
हर सांस में बसी है उसके ख्वाहिशों
से जकड़ जाता है
जैसे चुंबक की तरफ
लोहा खिंचता
…………………………………..
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बहुत दिन बाद प्रेमी आया
अपने शहर
और उसने अपनी प्रेमिका से की भेंट
मोटर साइकिल पर बैठाकर किक लगाई
चल पड़े दोनों सैर सपाटे पर
फिर बरसात के मौसम में सड़क
अपनी जगह से नदारत पाई
कभी ऊपर तो कभी नीचे
बल खाती हुई चल रही गाड़ी ने
दोनों से खूब ठुमके लगवाये
प्रेमिका की कमर में पीड़ा उभर आई
परेशान होते ही उसने
आगे चलने में असमर्थता अपने प्रेमी को जताई
कई दिन तक ऐसा होता रहा
रोज वह उसे ले जाता
कमर दर्द के कारण वापस ले आता
प्रेमिका की मां ने कहा दोनों से
‘क्यों परेशान होते हो
बहुत हो गया बहुत रोमांस
अब करो शादी की तैयारी
पहले कर लो सगाई
फिर एक ही घर में बैठकर
खूब प्रेम करना
बेटी के रोज के कमर दर्द से
मैं तो बाज आई’
प्रेमिका ने कहा
‘रहने दो अभी शादी की बात
पहले शहर की सड़के बन जायें
फिर सोचेंगे
इस शहर की नहीं सारे शहरों में यही हाल है
टीवी पर देखती हूं सब जगह सड़कें बदहाल हैं
शादी के हनीमून भी कहां मनायेंगे
सभी जगह कमर दर्द को सहलायेंगे
फिर शादी के बाद सड़क के खराब होने के बहाने
यह कहीं मुझे बाहर नहीं ले जायेगा
घर में ही बैठाकर बना देगा बाई
इसलिये पहले सड़कें बन जाने तो
फिर सोचना
अभी तो प्यार से करती हूं गुडबाई’
………………………….
दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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आज यह ब्लाग बीस हजार की पाठक संख्या पार कर गया। यह संख्या पार करने वाला यह चैथा ब्लाग है। अगर वर्डप्रेस के ब्लागों की कुल संख्या को ही देखा जाये तो वह 135000 के करीब है और मेरा मानना है कि ब्लाग स्पाट के ब्लाग भी करीब 40-50 हजार के पाठक तो जुटा ही चुके होंगे-उस पर मैंने काउंटर देर से ही लगाया था और वर्तमान में ही उन पर 30 हजार पाठक संख्या का आंकड़ा दर्ज है जो छहः महीने से अधिक का नहीं है।
एक बात तय है कि वर्डप्रेस के ब्लाग ब्लागस्पाट के ब्लागों से अधिक सक्रिय रहते हैं इसलिये यहां लिखते रहने को मन सदैव तत्पर रहता है। इस ब्लाग से जो आत्म विश्वास मिलता है वह नया लिखने को प्रेरित करता है।
हां, आज मुझे इस हिंदी ब्लाग जगत के एक मित्र उन्मुक्त जी का नाम लेने का मन है। अक्सर वह ऐसे मौके पर टिप्पणी करते हैं जब प्रसन्न्ता का अवसर होता है। अभी जब मैंने एक पाठ पर कुछ ब्लागरो द्वारा पैसे लेकर लिखने का मामला उठाया था तो उन्होंने बताया कि उनको कोई पैसा नहीं मिलता वह तो अपने विचार लोगों तक पहंुंचाने के लिये लिखते हैं।
उन्मुक्त जी के पाठ ही यह बता देते हैं कि उनका यह काम निष्काम भाव से किया जा रहा है और यही कारण है कि उनके लिये मेरे मन में मैत्रीभाव है वह यह भी कहते हैं कि आप तो लिखते रहें किसी की परवाह न करें। यह तो मैं करता हूं पर कुछ मामले ऐसे मेरे सामने आ रहे हैं जो मेरे अंदर ब्लाग लेखकों के हितों की रक्षा का प्रश्न उठा देते हैं।
आज ही एक वेबवाइट@ब्लाग प्रकट हुआ है जहां मेरा ब्लाग लिंक हो गया है। उसे चोरी कहें या चालाकी! चोरी कहना इसलिये ठीक नहीं होगा क्योकि
1.वहां ब्लाग में पाठ के नीचे जो मैं अपने लिंक लगाता हूं वह दिखाई दे रहे हैं।
2.ब्लाग का नाम दिखाई नहीं दे रहा पर लेखक के रूप में मेरा नाम दिखाई दे रहा है।
3.मैं एक टैग नहीं लगाता तो यह ब्लाग वहां नहीं जाता।
यह चालाकी है
1.उसने वर्डप्रेस के टैग को इस तरह सैट कर दिया है कि जिस ब्लाग पर वह टैग होगा वहां चला जायेगा।
2.उस पर विज्ञापन है और वहां किसी का मौलिक लेखन नहीं है।
3.वह आराम से बैठकर कमाने के लिये बनाया गया है।
एक प्रश्न मेरे दिमाग में आया था कि आखिर एक ब्लागर ने वर्डप्रेस के ब्लाग पर ही अंसबद्ध टैग लगाने का मामला क्यों उठाया? कुछ लोगों का अगर यह लग रहा है कि यह उनके और मेरी बीच का मामला है तो वह गलती कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि कोई दो व्यवसायिक गुट सक्रिय हैं और यह द्वंद्व उनके बीच का है। इन दोनों गुटों का नेतृत्व करने वाले लिखना नहीं जानते इसलिये ब्लागरों से ही लिखवा रहे हैं और यह द्वंद्व ब्लाग जगत का लग रहा है। इन गुटों को रहस्य इसलिये पूरी तरह यहां उजागर नहीं हो पा रहा क्योंकि वह एक दूसरे के विरुद्ध वहीं तक ही हमले करवा रहे हैं जहां तक उनका स्वयं का व्यवसायिक अस्तित्व समाप्त न हो । एक दूसरे के अस्तित्व की पोल वह नहीं खोल रहे।
जिस दिन मेरे ब्लाग पर असंबद्ध टैग लगाने की की आलोचना करता हुआ पाठ आया तो उसके प्रतिवाद स्वरूप मैंने भी लिखा। दोनों के पाठ हिट हो गये। उसी शाम एक ब्लागर का एक ब्लाग भी आया जिसमें इस बात का उल्लेख था कि वर्डप्रेस के टैगों के सहारे कुछ वेबसाइटें अपना काम चला रही हैं। उसने यह भी बताया कि ब्लागसपाट के लेबल उस तरह ब्लाग को नहीं ले जाते जैसे वर्डप्रेस के। पहले मुझे लगा कि वह मेरे आलोचक ब्लागर के समर्थन में लिखा गया है पर आज लग रहा है कि ऐसा लिखने वाला ब्लागर ऐसे किसी गुट का जानता है पर उसका रहस्य उसने नहीं खोला? पक्का नहीं कह सकता पर ऐसा लगता है कि वह दूसरे गुट के प्रतिनिधि के रूप में ही उसका पाठ लग रहा था।
मुख्य बात यह है कि हिंदी ब्लाग जगत का धणीसांईं कौन है? हिंदी ब्लाग जगत के कुछ लोग ऐसे हैं जो केवल हिंदी टैग लगाने की वकालत करते हैं और दूसरे वह हैं जो पाठक संख्या बढ़ाने के लिये अंग्रेजी टैग की वकालत करते हैं। सच कोई क्यों नही बताता? क्या इन व्यवसायिक गुटो के सदस्य ही ब्लाग लिख रहे हैं और हम जैसे कुछ शौकिया लोग उनके लिये भीड़ की भेड़ की तरह हैं।
मेरा लक्ष्य साफ है। मुझे पैसा मिले या नहीं यह महत्वपूर्ण नहीं हैं पर आम ब्लाग लेखक के हित और आत्मसम्मान की रक्षा होना चाहिये। मैं चाहता हूं कि यह कुछ लोगों के लिये रोजगार का अवसर बने। ऐसा न हो कि उन बिचारों को बुलाकर लिखवाया जाये और फिर वह बोर होकर छोड़ जायें तो दूसरे आयें। इस देश में लिखने वाले बहुत मिल जायेंगे और ऐसे में व्यवसायिक गुटों का काम चलता रहेगा। क्या व्यवसायिक कौशल ने अनजान लेखकों को ऐसे ही घसीट कर काम चलाया जायेगा। इससे लिखा जरूर जायेगा पर अंतर्जाल पर हिंदी को वह सम्मान नहीं मिल पायेगा जिसकी आशा कुछ लोग कर रहे हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि गूगल का एडसेंस खाता केवल डोमेन बिकवाने के लिये बनाया गया है। क्या ऐसे इंतजाम किये गये हैं कि जो डोमेन पर पैसा खर्च न करे उसे एक भी पैसा कमाने का अवसर न मिले। ‘डोमेन माफिया’वह शब्द है जो वर्डप्रेस पर लिखने वाले एक ब्लागर ने उपयोग किया था। क्या यह डोमेन माफिया और ब्लागर माफिया मिलकर यहां इसी तरह कमाने की योजना बना चुके हैं?’
सच बात तो यह है कि इस विषय में मैं जो पाठ लिखता हूं वह किसी को पढ़ाने के लिये नहीं बल्कि उन रहस्यों को पढ़ने के लिये करता हूं जो छिपाये जा रहे हैं। सच तो यह है कि बहुत मन करता है कि अच्छे पाठ लिखूं पर समयाभाव के कारण छोटी रचनायें लिखता हूं क्योंकि यहां चोरी चकारी के डर तो है ही दादागिरी से भी जूझना है। आखिर कोई मुझसे पूछे बगैर मेरे ब्लाग लिंक कर सकता है? यह डोमेन वालों के साथ क्यों नहीं है। लोग यह क्यों कहते हैं कि अपने ब्लाग की सुरक्षा के लिये डोमेन लो। अगर कोई ब्लाग लेखक नहीं चाहता कि उसका ब्लाग लिंक हो तो क्या कोई जबरदस्ती लिंक कर सकता है? इस दादागिरी से मुकाबला करने का कोई उपाय तो होगा? क्या अधिक टैगों का विरोध करने वाले अपने प्रतिद्वंदी गुट के हाथ मेरे पाठ जाने से बचाना चाहते हैं? ब्लागरों के हितों की रक्षा पर कानूनविदों को के विषय में अवश्य सोचना चाहिए।
जहां तक टैग विवाद पर मेरे द्वारा लिखे गये पाठों की बात है। मुझे आश्चर्य इस बात का है कि किसी ने मेरी बात का खंडन नहीं किया। इससे यह तो लगता है कि अंतर्जाल पर हिंदी के लेखकों के शोषण की पूरी तैयारी की है और लिखने से अधिक चाटुकारिता में ही आर्थिक फायदा मिलता नजर आ रहा है। ऐसे में उन्मुक्त जी जैसे ब्लाग लेखकों से सहारे की आशा की जा सकती है। डोमेन और ब्लाग माफिया मेरे द्वारा लिये जा रहे शब्द नहीं है यह उन्हीं ब्लागरों ने लिखे हैं जो शायद अपने से हुई किसी बेईमानी से क्षुब्ध थे। यह अलग बात है कि उन्होंने अपने नाम छिपाये। अभी तक छद्म नाम से ही लोग लिखते जा रहे हैं। ऐसे में असली नाम से लिखने वालों को भ्रम तो रहता ही है। कभी कभी रौद्र रूप से लिखने के लिये मुझे इसलिये भी तैयार रहना पड़ता है क्योंकि लोग अपने को सम्मनित कराने के लिये मेरे ब्लाग को नीचा दिखाना चाहते हैं। दीपक भारतदीप को दो कुछ नहीं पर उसे ऐसे खेल में पराजित दिखाओं जो वह खेला ही नहीं। उनके इन्हीं प्रयासोंं को नाकाम करने की ताकत मेरे शब्दों में है जो मैंने अपने गुरूओं से प्राप्त की है और अब उन्मुक्त जी जैसे मित्रों के विश्वास के सहारे लिख रहा हूं।
अभी बस इतना ही। ऐसे अवसर पर अपने साथ ब्लाग मित्रों और पाठकों का आभारी हूं। आशा करता हूं कि आम ब्लाग लेखकों के हितों की रक्षा में उनका यही प्यार काम आयेगा। वही मेरे धणीसांईं हैं।
क्या सामान्य ब्लाग लेखकों का कोई धणीसांईं नहीं हैं-संपादकीय
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मैं अंतर्जाल को एक मायाजाल ही मानता हूं। इसमें मेरे अनुभव अजीब तरह के हैं। अनेक लोग मुझसे मेरे बारे में जानना चाहते हैं पर मेरी दिलचस्पी केवल अपने शब्द लेखन तक ही सीमित है। कल मेरा यह ब्लाग बीस हजार की पाठक संख्या पार कर सकता है। दरअसल लोगों का प्यार इतना है कि मैं लिखता चला जाता हूं। कभी कभी मैं हिंदी ब्लाग जगत के विषय पर लिखता हूं तो पाठक कहते हैं कि आप तो अपनी बात लिखते रहें। जिस गति से यह ब्लाग बढ़ रहा है मुझे लगता है कि यह हिंदी पत्रिका की तरह हिट हो जायेगा। यह दोनों ब्लाग मैं बहुत लापरवाह होकर मनमर्जी से लिखता हूं। कमाल है जिन ब्लाग पर मैंने परवाह कर लिखा वह उतने हिट नहीं ले पाये जितना इन दोनों ने लिया। आज दरअसल इस पर मैं एक व्यंग्य लिखना चाहता था पर उसे शब्द ज्ञान पत्रिका पर प्रयोग के लिये डाल दिया।
वर्डप्रेस के ब्लाग पर अधिक टैग और श्रेणियां बनाने की सुविधा है इसलिये यहां पाठक के पास पहुंचने का व्यापक दायरा हो जाता है। एक तरह से इस पर लिखना अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर होना है, पर अंततः आपको लिखना तो अच्छा पड़ता ही है। आज पूर्व संध्या पर पंक्तियां लिखने का मन है।
—————
जब सूरज डूब जाता है
तब रौशनी करता है चिराग
जहां चिंगारी काम करती हो
वहां क्या करेगी आग
चलें हैं हम इस पथ पर
मंजिल का पता नहीं
चले जा रहे हैं आगे रास्ता
जाता तो होगा कहीं
कहीं तो मिलेगा उम्मीद का बाग
सुनते है सबकी
करते हैं मन की
न काहू से दोस्ती न काहू से बैर
सबकी मांगें भगवान सै खैर
तारीफ तो करते हैं दोस्तों की
आलोचकों से भी नहीं है नफरत
अपनी जिंदगी है अपना राग
………………………………………………………….
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शहर-दर-शहर घूमता रहा
इंसानों में इंसान का रूप ढूंढता रहा
चेहरे और पहनावे एक जैसे
पर करते हैं फर्क एक दूसरे को देखते
आपस में ही एक दूसरे से
अपने बदन को रबड़ की तरह खींचते
हर पल अपनी मुट्ठियां भींचते
अपने फायदे के लिये सब जागते मिले
नहीं तो हर शख्स ऊंघता रहा
अपनी दौलत और शौहरत का
नशा है
इतराते भी उस बहुत
पर भी अपने चैन और अमन के लिये
दूसरे के दर्द से मिले सुगंध तो हो दिल को तसल्ली
हर इंसान इसलिये अपनी
नाक इधर उधर घुमाकर सूंघता रहा
……………………………
दीपक भारतदीप
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सागर की लहरे कितनी पास हों
किसी की प्यास नहीं बुझती
गागर की बूंदें ही काम आयें
दस दिशाऐं हैं धरती पर
जब चलें पांव एक ही दिशा में जायें
हाथी बड़ा बहुत है
महावत उस पर अंकुश की नौक से काबू पायें
बड़ा होने से क्या होता है
अगर कोई जमाने के का काम का न हो
छोटा है मजदूर तो क्या
उसी हाथ से बड़े-बड़े महल बन जायें
इतिहास में दर्ज है
बड़ों-बड़ों के पतन की कहानी
पढ़कर लोग भूल जाते
पर कवियों की छोटी छोटी
दिल को सहलाने वाले शब्द
कभी लोग भूल न पायें
बड़े बड़े ग्रंथ लिखकर भी
अगर जमाने को खुश न कर सके तो क्या फायदा
लिखे का असर दूर तो हो यही है कायदा
किलो की किताब लिखने से अच्छा है
आओ लिखें छटांक भर कवितायें
लोगों के दिमाग से उतरकर वापस न लौटें
उनके दिल में उतर जायें
बड़ी न हो, भले छोटी हो रचनायें
………………………………
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जिंदगी जीने का उनको बिल्कुल सलीका नहीं है
उनके पास वफा बेचने का कोई एक तरीका नहीं है
भीड़ में मचायें शोर अपनी जिंदगी के तजूर्बे का
पर उससे कभी कुछ खुद सीखा नही है
ख्वाहिश है कि जमाना उनको सलाम करे
आवाजें हैं उनकी बहुत तेज,पर शब्द तीखा नहीं है
बेअसर बोलते हैं पर जमाना फिर भी मानता है
उनको परखने का खांका किसी ने खींचा नहीं है
ईमानदार के ईमान को ही देते हैं चुनौती
खुद कभी उसका इस्तेमाल करना सीखा नही है
फिर भी नाम चमक रहा है इसलिये आकाश में
जमीन पर लोगों ने अपनी अक्ल से चलना सीख नहीं है
………………………………….
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मोहब्बत में साथ चलते हुए
सफर हो जाते आसान
नहीं होता पांव में पड़े
छालों के दर्द का भान
पर समय भी होता है बलवान
दिल के मचे तूफानों का
कौन पता लगा सकता है
जो वहां रखी हमदर्द की तस्वीर भी
उड़ा ले जाते हैं
खाली पड़ी जगह पर जवाब नहीं होते
जो सवालों को दिये जायें
वहां रह जाते हैं बस जख्मों के निशान
……………………………
जब तक प्यार नहीं था
उनसे हम अनजान थे
जो किया तो जाना
वह कई दर्द साथ लेकर आये
जो अब हमारी बने पहचान थे
…………………………..
दीपक भारतदीप
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दीपक भारतदीप द्धारा
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कुछ लोग कुछ दिखाने के लिये बन जाते लाचार
अपनी वेदना का प्रदर्शन करते हैं सरेआम
लुटते हैं लोगों की संवेदना और प्यार
छद्म आंसू बहाते
कभी कभी दर्द से दिखते मुस्कराते
डाल दे झोली में कोई तोहफा
तो पलट कर फिर नहीं देखते
उनके लिये जज्बात ही होते व्यापार
घर हो या बाहर
अपनी ताकत और पराक्रम पर
इस जहां में जीने से कतराते
सजा लेते हैं आंखों में आंसु
और चेहरे पर झूठी उदासी
जैसे अपनी जिंदगी से आती हो उबासी
खाली झोला लेकर आते हैं बाजार
लौटते लेकर घर दानों भरा अनार
गम तो यहां सभी को होते हैं
पर बाजार में बेचकर खुशी खरीद लें
इस फन में होता नहीं हर कोई माहिर
कामयाबी आती है उनके चेहरे पर
जो दिल में गम न हो फिर भी कर लेते हैं
सबके सामने खुद को गमगीन जाहिर
कदम पर झेलते हैं लोग वेदना
पर बाहर कहने की सोच नहीं पाते
जिनको चाहिए लोगों से संवेदना
वह नाम की ही वेदना पैदा कर जाते
कोई वास्ता नहीं किसी के दर्द से जिनका
वही बाजार में करते वेदना बेचने और
संवेदना खरीदने का व्यापार
…………………………………………………
दीपक भारतदीप द्धारा
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अपने साथ भतीजे को भी
फंदेबाज घर लाया और बोला
‘दीपक बापू, इसकी सगाई हुई है
मंगेतर से रोज होती मोबाइल पर बात
पर अब बात लगी है बिगड़ने
उसने कहा है इससे कि एक ‘प्रेमपत्र लिख कर भेजो
तो जानूं कि तुम पढ़े लिखे
नहीं भेजा तो समझूंगी गंवार हो
तो पर सकता है रिश्ते में खटास’
अब आप ही से हम लोगों को आस
इसे लिखवा दो कोई प्रेम पत्र
जिसमें हिंदी के साथ उर्दू के भी शब्द हों
यह बिचारा सो नहीं पाया पूरी रात
मैं खूब घूमा इधर उधर
किसी हिट लेखक के पास फुरसत नहीं है
फिर मुझे ध्यान आया तुम्हारा
सोचा जरूर बन जायेगी बात’
सुनकर बोले दीपक बापू
‘कमबख्त यह कौनसी शर्त लगा दी
कि उर्दू में भी शब्द हों जरूरी
हमारे समझ में नहीं आयी बात
वैसे ही हम भाषा के झगड़े में
फंसा देते हैं अपनी टांग ऐसी कि
निकालना मुश्किल हो जाता
चाहे कितना भी जज्बात हो अंदर
नुक्ता लगाना भूल जाता
या कंप्यूटर घात कर जाता
फिर हम हैं तो आजाद ख्याल के
तय कर लिया है कि नुक्ता लगे या न लगे
लिखते जायेंगे
हिंदी वालों को क्या मतलब वह तो पढ़ते जायेंगे
उर्दू वाले चिल्लाते रहें
हम जो शब्द बोले उसे
हिंदी की संपत्ति बतायेंगे
पर देख लो भईया
कहीं नुक्ते के चक्कर में कहीं यह
फंस न जाये
इसके मंगेतर के पास कोई
उर्दू वाला न पहूंच जाये
हो सकता है गड़बड़
हिंदी वाले सहजता से नहीं लिखें
इसलिये जिन्हें फारसी लिपि नहीं आती
वह उर्दू वाले ही करते हैं
नुक्ताचीनी और बड़बड़
प्रेम से आजकल कोई प्यार की भाषा नहीं समझता
इश्क पर लिखते हैं
पब्लिक में हिट दिखते हैं
इसलिये मुश्क कसते हैं शायर
फारसी का देवनागरी लिपि से जोड़ते हैं वायर
इसलिये हमें माफ करो
कोई और ढूंढ लो
नहीं बनेगी हम से तुम्हारी बात
……………………………………………………………….
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Tagged उर्दू, देवनागरी, नुक्ताचीनी, प्यार, फारसी, भाषा, devnagari, FAMILY, farsi, love, nakutachini
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उसने घर में घुसते ही
अपने चारों मोबाइल का स्विच आफ कर
अल्मारी में रख दिये
फिर अपनी टांगें सोफे पर फैलाई
पास ही बैठा देख रहा था छोटा भाई
उसने बड़े भाई से पूछा
‘यह क्या किया
जान से प्यारे
मोबाइलों का स्विच आफ किया
सभी को अल्मारी की कैद में डाल दिया
अब वह चारों जानूं जानूं कहकर
किसे पुकारेंगी
बैठे तुम्हारे नंबरों को निहारेंगी
क्या उन सबसे बोर हो गये हो
यह इश्क से परेशान घोर हो गये हो
या कोई पांचवीं पर दिल आ गया है
तुम मोबाइल भी साथ रखकर सोते हो
उसकी घंटी और तुम्हारी आवाजें सुनकर
तो लगता नहीं कि कभी नींद तुम्हें आई
ऐसा क्या हो गया
कहीं तुमने इश्क से सन्यास की कसम तो नहीं खाई’
बड़ा भाई बोला
‘आज तो था आजादी की दिन
खूब जमकर बनाया
मैं तो निकला था घर से खरीदने का किराना
वह भी चारों अलग अलग आई
कोई निकली थी कालिज में फंक्शन का
कोई सहेली के साथ पिकनिक का
कोई निकली थी स्पेशल क्लास का बनाकर बहाना
लक्ष्य एक ही था इश्क करते हुए
मोटर सायकिल पर घूमते हुए
इस बरसात में नहाना
सभी के परिवार वाले घर में बंद थे
अपने कामों के पाबंद थे
इसलिये कहीं किसी का डर नहीं था
सचमुच हमने आजादी मनाई
पर कमबख्त यह राखी भी कल आई
भाईयों को राखी बांधकर वह
फिर मोबाइल पर देंगी आवाज
हो जायेगा में मेरे लिये मुसीबत का आगाज
फिर तो मुझे जाना पड़ेगा
नहीं तो पछताना पड़ेगा
कल अगर गया तो फिर
आज जैसे ही घुमाना पड़ेगा
मेरे दोस्त भी बहुत है
किसी कि बहिन है इधर
तो किसी की उधर
सभी कल चहलकदमी सड़कों पर करेंगे
मेरे साथ किसी को देख लिया तो
माशुका की जगह बहिन समझेंगे
चारों में से किसी के साथ तो
परमानेंट टांका भिड़ेगा
पर बाद में दोस्तों की फब्तियों से
कौन घिरेगा
आज तो सभी की आंख
वैसे ही पवित्र देखने लग जाती हैं
अक्ल माशुका को भी बहिन समझ पाती है
ऐसे में अच्छा है बाद के लफड़ों से
एक दिन के लिये इश्क से दूर हो जाऊं
क्यों मैं किसी के भाई की उपाधि पाऊं
किसी को जिंदगी का हमसफर तो बनाना है
भला कहां हमें कच्चे धागों का बंधन निभाना है
इसलिये मैंने राखी के दिन को ही
पूर्ण आजादी की तरह मनाने की अक्ल पाई
………………………………………..
नोट-यह कविता पूरी तरह काल्पनिक है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा
भला कहां कच्चे धागों का बंधन निभाना है-हास्य कविता
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Tagged azadi, आजादी, इश्क, टांका, मोबाइल, रक्षाबंधन, राखी, लफड़ा, हमसफर, FAMILY, friends, hindi shayri, ishkm, lafda, love, rakhi, rakshabandhan, tanka
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किताब में लिखे शब्दों की पंक्तियां
सलाखों की तरह नजर आ रही हैं
कुछ चेहरे छिपे हैं उसके पीछे
जिनकी आंखें बुझी जा रही हैं
पाठ है आजादी का
जिसमें कई कहानियां हैं
लोग उन्हें सुनाये जा रहे हैं
पर उससे आगे नहीं जा पा रहे ं
क्योंकि किताब एक कैद की तरह हो गयी है
कोई दूसरी मिल जाये तो
शायद वह उससे निकल पायें
पर वह भी एक दूसरी कैद होगी
जिसमें वह फिर बंद हो जायें
संभव है उसी में लिखा पढ़कर सभी को सुनायें
अपनी सोच बंद है आलस्य के पिंजरे में कैद
दूसरों के ख्याल पर जली मोमबत्तियों पर
पढ़ने वाले कैदी रौशनी पा रहे हैं
आजादी के गीत गा रहे हैं
पुरानी कहानियों के दायरों से बाहर
कौन बाहर आयेगा
शब्दों का पहरेदार फिर
उनको अंदर भगायेगा
शहीदों के समाधि पर लगाकर
हर वर्ष मेले
नयी सूरतें अपना मूंह छिपा रहीं हैं
किताब में लिखी शब्दों की पंक्तियों
उनके पांव बेड़ी की तरह तरह नजर आ रही हैं
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सपने सजाता है
उनको बिखरता देख
टूट जाता है मन
कहीं लगाने के लिये ढूंढो जगह
वहीं शोर बच जाता है
जैसे जल रहा हो चमन
भला आस्तीन में सांप कहां पलते हैं
इंसानों करते हैं धोखा
नाम लेकर का खुद ही जलते हैं
क्या दोष दें आग को
जब अपने चिराग से घर जलते हैं
वही सिर पर चढ़ आता है
जिसे करो पहले नमन
जब बोलने को मचलती है जुबान
हालातों अंदाज का नहीं करती
चंद प्यार भरे अल्फाज भी
नहीं दिला पाते वह कामयाबी
जो खामोशी दिला देती है
सपनों में जीना अच्छा लगता है
पर हकीकत वैसी नहीं होती अमूनन
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Tagged alfaz, अल्फाज, कामयाबी, खामोशी, जज्बात, दिल, हकीकत, haqiqat, hindi shayri, jazbat, khamoshi
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हमने देखा था उगता सूरज
उन्होने देखा डूबता हुआ
वह कर रहे थे चंद्रमा की रौशनी में
जश्न मनाने की तैयारी
पर हमने बिताया था पूरा दिन
सूरज की तपती किरणों में
अपने पसीने में नहाते
हमारा मन भी था डूबा हुआ
वह आसमान में टिमटिमाते तारों की
बात करते रहे
उनकी रात
खुशियों की कहानी कह रही थी
जबकि हमारे बदन से पसीने की
बदबू बह रही थी
सबकी जमीन और आसमान
अलग-अलग होते हैं
किसी को रात डराती है तो किसी को दिन
किसी को भूख नहीं लगती किसी को सताती है
इसलिए सब होते हैं अकेले
क्योंकि कोई किसी का नहीं हुआ
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Tagged आसमान, खुशियां, जमीन, दिन, पसीना, बदन, बदबू, भूख, रात, bhookh, body, chandrama, happynes, hapyy, hindi shayri, roshni
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आँख के अंधे अगर हाथी को
पकड कर उसके अंगों को
अंगों का देखें अपनी अंतदृष्टि से
अपनी बुद्धि के अनुसार
करें उसके अंगों का बयान
कुछ का कुछ कर लें
तो चल भी सकता है
पर अगर अक्ल के अंधे
रबड़ के हाथी को पकड़ कर
असल समझने लगें तो
कैसे हजम हो सकता है
कभी सोचा भी नहीं था कि
नकल इतना असल हो जायेगा
आदमी की अक्ल पर
विज्ञापन का राज हो जायेगा
हीरा तो हो जायेगा नजरों से दूर
पत्थर उसके भाव में बिकता नजर आएगा
कौन कहता है कि
झूठ से सच हमेशा जीत सकता है
छिपा हो परदे में तो ठीक
यहाँ तो भीड़ भरे बाजार में
सच तन्हाँ लगता है
इस रंग-बिरंगी दुनिया का हर रंग भी
नकली हो गया है
काले रंग से भी काला हो गया सौदागरों का मन
अपनी खुली आंखों से देखने से
कतराता आदमी उनके
चश्में से दुनियां देखने लगता है
………………………………………………..
आंखें से देखता है दृश्य आदमी
पर हर शय की पहचान के लिये
होता है उसे किसी के इशारे का इंतजार
अक्ल पर परदा किसी एक पर पड़ा हो तो
कोई गम नहीं होता
यहां तो जमाना ही गूंगा हो गया लगता है
सच कौन बताये और करे इजहार
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कई किताबें पढ़कर बेचते है ज्ञान
अपने व्यापार को नाम देते अभियान
चार दिशाओं के चौराहे पर खड़े होकर
देते हैं हांका
समाज की भीड़ भागती है भेड़ों की तरह
नाम लेते हैं शांति का
पहले कराते हैं सिद्धांतों के नाम पर झगड़ा
बह जाता है खून सड़कों पर
उनका नहीं होता बाल बांका
कोई तनाव से कट जाता
कोई गोली से उड़ जाता
पर किसी ने उनके घर में नहीं झांका
कहीं नहीं मिलते उनकी करतूतों के निशान
…………………………………………….
हमें मंजिल का पता बताकर
खुद वह जंगल में अटके हैं
कहने वाले सच कह गये
जो सबको बताते हैं
नदिया के पार जाने का रास्ता
वह स्वयं कभी पार नहीं हुए हैं
कहैं महाकवि दीपक बापू
उन्मुक्त भाव से जीते हैं जो लोग
मुक्त कहां हो पाते हैं स्वयं
दुनियां भर के झंझट उनके मन के बाहर लटके हैं
………………………………………….
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जो सरल और सहज हैं
जिन के दिल में हैं नेकनीयति
करते हैं वही रचना का सृजन
जिन पर खुद की ख्वाहिशों और
अरमानों को पूरा करने का बोझ है
समाज में तनाव का करते हैं वही विसर्जन
दूसरे के दर्द को अपने दिल की
आंखों से देखकर जो करते हैं विचार
सृजक वही बन पाते हैं
जो सतह पर तैरते हुए केवल
दिखाने के लिए बनते हैं हमदर्द
वह तो शब्द के सौदागर हैं
बेच लें बाजार में ढेर सारी रचनाएं
पर फिर भी सृजक नहीं कहलाते हैं
प्रसिद्धि और प्रशंसा के ढेर सारे शब्द
अपने खजाने में जमा करते लेते
पर सृजन की उपाधि का नहीं कर पाते अर्जन
कहने से कोई सृजक नहीं हो जाता
चंद शब्द लिखने से कोई सृजन नहीं हो पाता
आखों से पढ़कर
कानों से सुनकर
हाथों से स्पर्श कर
जब तक अपनी अनुभूतियों को
दिल में डुबोया न जाए
तब तक रस और श्रृंगार के बिना
अधूरा है अभिव्यक्ति का सृजन
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Tagged उपाधि, पढना, रस, श्रृंगार, सुनना, सृजक, स्पर्श, dil, prashansa, ras, shabd, srujak, upadhi
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एक पड़ौसन ने दूसरी से कहा
‘तुम्हें बधाई हो बधाई
तुम्हारे पतिदेव जहां करते हैं
मदद का काम
वहां आई जमकर भारी बाढ़
वहां बरसात हुई है जाम
अब तो तुम्हारे घर लक्ष्मी बरसेगी
सारी दुनियां तुम्हें देखकर
अपने अच्छे भाग्य को तरसेगी
यह खबर आज अखबार में आई
तुम हमें खिलाना अब अच्छी मिठाई‘
सुनकर दूसरी पड़ौसन भड़की और बोली
‘मैं क्यों खिलाऊं तुम्हें मिठाई
तुम्हारे जहां करते हैं
लोगों की सेवा का काम
वहां भी तो पड़ा था भारी सूखा
तुम्हारे घर में यहां बन रहे थे पकवान
वहां खाने को तरसे थे लोग रूखा सूखा
तब तो तुमने किसी को यह
खबर तक नहीं बताई
मिठाई मांगने के लिये तो
बिना टिकट चली आई
पर जब आ रहा था सूखे के समय
रोज घर में नया सामान
तब तुमने एक टुकड़ा बरफी भी नहीं भिजवाई
इसलिये तुम भूल जाओ मिठाई
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भीड़ में सबको भेड़ की तरह
हांकने कि कोशिश में हैं सब
चलते जाते हैं आगे ही आगे
सीना तानकर अपना चलते
पर कोई शेर आ जाये सामने
तो कायरता का भाव उनमें जागे
भेड़ों की तरह भीड़ में चलते
अब में थक गया हूँ
सोचता हूँ कि अब बची जिन्दगी
शेरों की तरह लड़ते हुए गुजारूं
कर देते हैं वह शिकार होने के लिए भेड़ों को आगे
सियारों का ही खेल चल रहा है सब जगह
जो कभी सामने नहीं आते
भेडो को शिकार के लिए सामने लाते
खुद चढ़ जाते अट्टालिकाओं पर भागे-भागे
मन नहीं चाहता किसी को
अपने पंजों से आहत करूं
पर फिर सोचता हूँ कि
मैं किसी की भेड़ भी क्यों बनूँ
चल पडा हूँ
जिन्दगी की उस दौर में
जहाँ शेर ही चल सकते हैं आगे
——————————————
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एक धनी परिवार के लोगों ने अपने मुखिया की स्मृति में कार्यक्रम आयोजन करना चाहते थे। आमंत्रण पर कविता छपवानेे के लिये उन्होंने एक हास्य कवि से संपर्क किया और उसे अपने मुखिया के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए एक कविता लिखने का आग्रह किया। बदले में कार्यक्रम के दौरानं उसको सम्मानित करने का लोभ भी दिया। वह कवि तैयार हो गया। उसने कविता लिखी और देने पहुंच गया। उस कविता मे कुछ इस तरह भी था।
पहले उन्होंने गरीबों के पुराने
घरों के येनकेन प्रकरेण हथियाया
जो नहीं हट रहे थे उनको
अपनी ताकत से हटवाया
अपना निजी बुलडोजर चलाया
जमकर बरपाया कहर
पर लगन से किसी भी तरह
अपनी कल्पानाओं का नया शहर बसाया
इतने महान थे वह कि
एक गरीब जो अपने मकान से
निकलने के बाद बीमारी में मर गया
उसके नाम पर नये शहर का
नामकरण करवाया
शहर के लिये देखा था जो सपना
उन्होंने पूरा कर दिखाया
उसकी कविता पढ़कर परिवार वाले हास्य कवि पर बहुत बिफरे और उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया। जब उसके प्रतिद्वंद्वी कवि को यह पता लगी तो उनके पास अपनी कविता बेचने को पहुंच गया। उसने जो कविता लिखी उसमे कुछ सामग्री इस तरह थी।
शहर से गरीबी हटाने का
उनका एक ख्वाब था
जो उन्होंने पूरा कर बताया
कैसे अपनी सोच को जमीन पर
लायें यह उन्होंने बताया
कभी यहां फटेहाल और कंगाल लोगों की
बस्ती हुआ करती थी
चारों तरफ गंदगी और बीमारी
बसेरा करती थी
उस पर जो डाली उन्होंने अपनी तीक्ष्ण दृष्टि
सब साफ हो गयी
उनके तेज का यह परिणाम था कि
गरीबी की रेखा यहां आफ हो गयी
आज खड़े हैं यहां महल और कारखाने
पेड़ पौधो के थे यहां कभी जमाने
आज पत्थरों और ईंट के बुत खड़े हैं
उनके विकास की धारा का परिणाम है
अब यहां आदमी नहीं मिलता
लोग देते हैं घर के नौकरों के लिये विज्ञापन
देखो अब यहां कितना काम है
उन्होंने इस तरह गरीबी को भगाकर
अमीरी का यहां बसेरा बसाया
उसकी कविता से उस धनी परिवार के सदस्य प्रसन्न हो गये और उसे स्मृति कार्यक्रम में सर्वश्रेष्ठ कवि का सम्मान दिया।
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यह पाठ/कविता इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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दीपक भारतदीप द्धारा
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एक श्रोता ने कवि से कहा
‘अपने को बहुत बड़ा कवि समझते हो तो
कौवे पर कोई व्यंग्य कविता लिख कर दिखा दो’
कवि ने उदास होते हुए कहा
‘कौवे पर कविता लिख सकता हूं
पर वीभत्स रस से सराबोर हो जायेगी
सुन लोगे तो तुम्हें रात भर
नींद नहीं आयेगी
कौवे की तस्वीर भी तुम्हें सतायेगी
जिसकी नस्ल ही लुप्त हो रही हो
अब पहले की तरह कांव-कांव कर
कहां नजर आते
दिख जायें तो इंसानों की
बुरी नजर का शिकार हो जाते
उस पर व्यंग्य कविता कैसे लिखें
तुम कहीं चलकर पहले एक कौवा दिखा दो’
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ख्यालों के बंधन में फंसकर
उनके इशारों पर नाचते रहे
जिंदगी मेंं इसलिये हर कदम पर हारते रहे
जो आजाद होकर सोचा
तो सामने हमारे यह बात आई
क्यों हमने उनको अपना सबकुछ माना
जब हमेशा की उन्होंने बेवफाई
दिल की गुलामी से
अच्छा है आजाद ख्याल से जीना
हम क्यों अपना जिस्म
इतने समये से अपने हाथों ही मारते रहे
……………………….
दीपक भारतदीप द्धारा
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आया फंदेबाज और एक
किताब हाथ में थमाते हुए बोला
‘दीपक बापू, लो पकड़ लो यह किताब
‘लिखने के नुस्खें सीखें’
एक दोस्त के घर से उठायी
इसे देखकर तुम्हारी याद आयी
हमारा तो न पढ़ने से वास्ता
न लिखने का जाने रास्ता
तुम ही अंतर्जाल पर लिखते
थक गये लगते हो
फ्लाप की जमात में बैठे
हिट होने की जगह तकते हो
तुम पर तरस आया
इसलिये ले आया
इसे पढ़कर कुछ सीख लो
शायद लेखक की सलाह काम कर जाये
तुम्हारा नाम भी चमक जाये
यही इच्छा हमारी अभी पूरी नहीं हो पायी’
आपनी टोपी उतारकर गंजी खोपड़ी पर
हाथ फेरते हुए
कुछ देर किताब देखी
फिर उठाकर जोर से फैंकी और
कहैं महाकवि दीपक बापू
‘कमबख्त तुम हमारी अक्ल भी हर लेते हो
कभी कभी करारा झटका देते हो
हमने थोड़ी पढ़ी तो
लेखक का नाम पढ़ने का विचार आया
यह कभी हमारे सुनने में नहीं आया
यहां जो कुछ नहीं सीखता वही
दूसरों को सिखाने में जुट जाता है
जो पड़े उनके चक्कर में
कुछ मिलना तो दूर
गांठ से और लुट जाता है
यह लिखता है ऐसा मत लिखो
और ऐसे मत दिखो
खुद ही अभी लिखना शुरू किया लगता है
अगर इसका लिखा देखें तो
अभी पढ़ना शुरू किया ऐसा भी लगता है
यहां जमाने का उसूल है
कुछ सीखे बिना ही
दूसरों को सिखाना शुरू कर दो
शिष्य हुए बिना गुरू का आवेदन कर दो
लिखना हो जिंदगी में
या दिखना हो
हर विषय पर वही लोग
बोलते हैं पहले
जो कुछ सीखने से पहले ही दहले
कोई उनकी अक्ल पर शक न करे
प्रसिद्धि के शिखर पर पहला हक न करे
तमाम गुर उठाकर बाजार में बेचने आ जाते हैं
शक्ल के हों आकर्षक
ख्याल से हों ढीठ
चाल मस्त और मतवाली हों
अदायें दिल बहलाने वाली हों
अपनी तरफ खींचते हैं पहले लोगों का ध्यान
फिर शब्दों का बघारते हैं ज्ञान
ऐसे लोग लिखना सिखाते हैं
भीड़ में दिखने के बहाने जिनको आते हैं
कई लोगों को पढ़ते हैं हम भी
पर वह कुछ पढ़ते हैं भी कि नहीं
हमें यह बात समझ में नहीं आयी
हिट और फ्लाप का खेल तो है निराला
अपने गुरु के आदेश पर हमने कभी मोह नहीं पाला
अब कोई दूसरा गुरु कुछ सिखा दे
ऐसा नजर नहीं आता भ्
उठा लो किताब यह हमें नहीं चाहिये
जो सीखा है वह भी भूल जायेंगे भाई’
…………………………………
दीपक भारतदीप द्धारा
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अपने संगठन का चिंतन शिविर
उन्होंने किसी मैदान की बजाय
अब एक होटल में लगाया
जहां सभी ने मिलकर
अपना समय अपने संगठन के लिये
धन जुटाने की योजनायें बनाने में बिताया
खत्म होने पर एक समाज को सुधारने का
एक आदर्श बयान आया
तब एक सदस्य ने कहा
-‘कितना आराम है यहां
खुले में बैठकर
खाली पीली सिद्धांतों की बात करनी पड़ती थी
कभी सर्दी तो गर्मी हमला करती थी
यहां केवल मतलब की बात पर विचार हुआ
सिर्फ अपने बारे में चिंतन कर समय बिताया’
……………………………
दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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मन का समंदर है गहरा
जहां ख्याल तैरते हैं जलचर की तरह
कुछ मछलियां सुंदर लगती हैं
कुछ लगते हैं खौफनाक मगरमच्छ की तरह
देखने का अपना अपना नजरिया है
मोहब्बत हर शय को खूबसूरत बना देती है
नफरत से फूल भी चुभते हैं कांटे की तरह
इस चमन में बहती है कभी ठंडी तो कभी गर्म हवा
मन जैसा चाहे नाचे या चीखे
नहीं उसके दर्द की दवा
न एक जगह ठहरते
न एक जैसा रूप धरते
ख्याल तो हैं बहते जलचर की तरह
…………………………..
दीपक भारतदीप
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दीपक भारतदीप द्धारा
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किसे मित्र कहें किसे शत्रू
आदमी बंटा हुआ है अपने अंदर
सिमट जाता है अपने ख्यालों में
एक तालाब की तरह
जब मिलती है जिंदगी जीने के लिये जैसे एक समंदर
दोस्ती के लिये फैले हैं इतने लोग
पर दायरों मेंे ही वह निभाता
जिनको जानता है उनसे करता सलाम
अजनबियों से मूंह फेर जाता
दोस्तों में भी अपने और गैर का करता भेद
कीड़े की तरह बहुत से नाम वाले समूह में
अपने लिये ढूंढता छेद
नाचता ऐसे है जैसे बंदर
देखा है अकेले में लोगों को अपना कहते हुए
अपने मिलते ही दूर होते हुए
फिर अपनी हालातों पर अपनों की
बेवफाई पर रोते हुए
फिर भी निकल नहीं पाते दायरों से
लगते हैं कायरों से
फिर भी नहीं तोड़ता भरोसा उनका
वह तोड़ जायें अलग बात है
मजबूर और लाचार हैं
दायरों में कैद रहने की आदत है उनकी
भला मैं उनको कैसे निकाल पाऊंगा
जो जन्म से उनको बांधे हैं
मैं नहीं हूं कोई सिकंदर
……………………………………………
दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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यूं तो चमकता चाँद देखकर
अपना दिल बहला लेते
पर जब आकाश में नहीं दिखता वह
छोटा चिराग जला लेते हैं
जिन्दगी में अपने
रौशनी के लिए क्यों
किसी एक के आसरे रहें
इसलिए कई इंतजाम कर लेते हैं
इंसानों का भी क्या भरोसा
उजियाले में करते हैं
हमेशा साथ निभाने का
अँधेरा ही होते मुहँ फेर लेते हैं
—————————————
मांगी थी उनसे कुछ पल के लिए रौशनी उधार
उन्होंने अपना चिराग ही बुझा दिया
हमारा रौशनी में रहना
उनको कबूल नहीं था
अँधेरे को अपने पास इसलिए बुला लिया
इंसान कभी चिराग नहीं हो सकते यह बता दिया
————————
दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू तुम्हारे हिट होने का
एक नुस्खा लाया हूं
सफलता बतलाने वाले डाक्टर से
सलाह कर आया हूंं
लोग कर रहे हैं अंतर्जाल पर
अपनी जिंदगी नीलाम
बेच रहे अपनी संपत्ति
तुम भी अपने ब्लाग के साथ
यही करो अनोखा काम
एक बार लोगों से टेंडर (निविदा) मंगवा लो
अपने ब्लाग की बोली लगवा लो
जब हो जायेंगे सब नीलाम
हो जायेगा तुम्हारा भी नाम
लोग अपनी संपत्ति बेचकर
हवा में उड़ जाने का प्लान बना रहे हैं
तुम तो वैसे ही रहते हो हवा में
कोई छद्म नाम से ब्लाग बना लेना
नहीं बिकते तो कोई बात नहीं
हो जाओगे तुम भी हिट
जब पढ़ेंगे सब तुम्हारा नाम
यह सोच विचार कर प्रस्ताव लाया हूं’
कंप्यूटर पर टंकित करने से
हाथ रोकते हुए
अपनी टोपी को सिर पर ढोते हुए
पलट कर गुस्से में लालपीले होकर देखा
फिर बोले महाकवि दीपक बापू
‘कम्बख्त तुम्हारी हर बात
हमारे ब्लाग पर ही क्यों चली आती है
हम लिखते और पढ़ते हैं
पर तुम्हारी नजर कभी नहीं जाती है
होना चाहिए पागल हमें पर
तुम होते नजर आ रहे हो
जिंदगी की नीलामी तो आसान है
उसमें मकान, फ्रिज, ऐसी, कार और
शानौशौकत का सामान है
भला कोई जिंदा चीज थोड़े ही उसमें शामिल है
लोग आजकल इसी को ही जिंदगी कहते हैं
इसलिये ही इनकी नीलामी को
जिंदगी की नीलामी कहते हैं
ब्लाग में बसते हैं हमारे जिंदा जज्बात
जब चाहे लिखते हैं दिन हो या रात
अंग्रेजी का होता तो सोचते
हिंदी ब्लाग तो
लोग अभी देखना भी पंसद नहीं करते
अंग्रेजी पढ़ने में न आये तो
फोटो देखकर काम चला लेंगे
जिंदगी का सच हिंदी में पढ़ने से लोग डरते
अगर होते भी हैं ब्लाग नीलाम तो समझो
कोई छद्म ताकत कर रही है काम
इसलिये इतना चिंतित न हो
फ्लाप होकर भी हम विचलित नहीं
तुम क्यों डरते हो
ब्लाग कोई जिंदगी नहीं है
भले ही उसके जज्बात हम इसमें लिखते हैं
कभी गंभीर तो कभी हंसते दिखते हैं
नीलामी पर हिट लेकर क्या करेंगे
फ्लाप होकर कुछ तो लिख लेते हैं
बेजान चीजों को जिंदगी मानने वाले लोगों में
जिंदादिल होकर लिखना ही ठीक है
कम से कम फ्लाप होने पर कोई सवाल तो
नहीं उठाता
मैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुंच पाया हूं
…………………………
दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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मेरे इस ब्लाग/पत्रिका पर संत शिरोमणि कबीरदास के दोहों वाला एक पाठ आज एक हजार की पाठक संख्या पार गया। इसको मैं पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं और मूल पाठ को पढ़ने के लिये यहां क्लिक भी कर कर सकते हैं। जिस समय में इस पाठ को लिख रहा हूं तब उस पर पाठक संख्या 1029 है।
मुझे जैसे अस्त पस्त लेखक के लिये यह बहुत महत्वपूर्ण बात है क्योंकि कोई काम व्यवस्थित ढंग से न करने की वजह से मुझे अधिकतर सफलता इतनी आसानी से नहीं मिल जाती। इस पाठ के एक हजार पाठक संख्या पार करने में कोई विशेष बात नहीं है पर इस छोटे पाठ की इस सफलता में जो संदेश मेरे को मिलते हैं उसकी चर्चा करना जरूरी लगता है। इस हिंदी ब्लाग जगत पर तमाम तरह के विश्लेषण करने वाले लोग उसमें रुचि लेंगे इसकी मुझे पूरी जानकारी है और जो संदेश मिल रहे हैं वह कई धारणाओं का बदलाव का संकेत हैं वह समाज शास्त्र के विद्वानों के लिये भी दिलचस्पी का विषय हो सकते हैं कि आखिर अंतर्जाल पर भी आधुनिक युग में लोग कबीर साहित्य के रुचि ले रहे हैं।
सबसे पहली बात तो यह कि दो दोहों और उनका भावार्थ प्रस्तुत करना मेरे लिये इस समय आसान है क्योंकि मैं अब पहले देवनागरी फोंट कृतिदेव में टाइप कर उस पर अपनी कभी छोटी तो कभी बड़ी व्याख्या भी प्रस्तुत करता हूं पर जब यह पाठ लिखा गया था तब मुझे अंग्रेजी टाईप से यूनिकोड में टाईप करना पड़ता था। यह काम मेरे लिये कठिन ही नहीं अस्वाभाविक भी था। सुबह इतना संक्षिप्त पाठ लिखना ही बहुत बड़ी उपलब्धि होता था-आज भले ही मुझे भी लगता है कि इतने छोटे पाठ- जिसमें मेरा टंकक से अधिक योगदान नहीं है- की सफलता पर क्या इतना बड़ा आलेख लिखना।
कुछ पाठक कहते थे कि आप अपनी व्याख्या भी दीजिये क्योंकि उन्होंने कुछ जगह मेरी ऐसी व्याख्यायें देखीं थीं जो मैं एक दिन पहले ही टाईप कर रखता था। संत शिरोमणि कबीरदास के दोहे वैसे अपने आप ही कई गूढ रहस्यों को प्रकट कर देते हैं पर लोग यह भी चाहते हैं कि जो इनको प्रस्तुत कर रहा है वह भी अपनी बात कहे। इस ब्लाग को मैंने पहले अध्यात्मिक विषयों के रखा था पर बाद में ब्लागस्पाट पर अंतर्जाल पत्रिका पर यही विषय लिखने के कारण मैंने इसे अन्य विषयों के लिये सुरक्षित कर दिया। वर्डप्रेस का शब्दलेख पत्रिका इस समय अध्यात्म विषयों के लिये है और उसी पर ही लिख रहा हूं। इसके अलावा ब्लागस्पाट का शब्दलेख सारथी है जो अध्यात्मिक विषयों से संबंधित है। अब सोच रहा हूं कि इस ब्लाग को भी अध्यात्मिक विषयों के लिये रख दूं।
सभी ब्लाग एक जैसे दिखते हैं पर मेरे लिये सभी के परिणाम एक जैसे नहीं हैं। वर्डप्रेस में विविध श्रेणियां पाठ के लिए अधिक पाठक जुटातीं हैं इसलिये अब मैं ब्लागस्पाट के अच्छे पाठ यहां लाने वाला हूं। मुझे ब्लाग स्पाट और वर्डप्रेस के ब्लाग दो अलग अलग स्थान दिखते हैं। हिंदी के सभी ब्लाग एक जगह दिखाने वाले फोरमो पर उनको एक जैसा देखा जाता है पर मेरे लिये स्थिति वैसी नहीं है।
मैंने शुरूआती दिनों में कई लोगों को ब्लाग लिखने के बारे में अनेक भ्रांत धारणायें फैलाते देखा था जिसमें यह बताया गया था कि आप ढाई सौ अक्षर अवश्य लिखें वरना लोग आपके बारे में यह कहेंगे कि यह लिख नहीं रहा बल्कि मेहनत बचा रहा है। इसके प्रत्युत्तर में मैंने हमेशा ही लिखा है कि मुख्य विषय है आपका कथ्य न कि शब्दों की संख्या। हालांकि मैने हमेशा बड़े ही पाठ लिखे हैं पर दूसरों को इस बात के लिये प्रेरित किया है कि वह अपने मन के अनुसार लिखें पर प्रभावी विषय और शब्दों का चयन इस तरह करें कि गागर में सागर भर जाये। संत कबीरदास और रहीम के दोहों पर तो ऐसी कोई शर्त लागू हो भी नहीं सकती।
एक जो महत्वपूर्ण बात कि आज भी संत कबीर और रहीम इतने प्रासंगिक हैं कि उनका लिखा अपने आप पाठक जुटा लेता है-यह बात मुझे बहुत अचंभित कर देती है। हिंदी के भक्ति काल को स्वर्णिम काल कहा जाता है जिसे वर्तमान में अनेक कथित संत आज भी भुना रहे हैं और मैं अनजाने मेंे ही वह कर बैठा जिसके लिये में उन पर आरोप लगाता हूं कि वह ज्ञान का व्यापार कर रहे हैं। हां, इतना अंतर है कि वह लोग अपने भक्तों को कथित ज्ञान देकर दान-दक्षिणा वसूल करते हैं और मैं इंटरनेट के साढ़े छहः सौ रुपये व्यय करने के साथ ही अपना पसीना भी लिखने में बहाता हूं। इसमें कोई संशय नहीं है कि ऐसे प्रयासों से मेरी लोकप्रियता बनी होगी। लोग कह नहीं पाते पर जिस तरह पाठक अध्यात्मिक विषयों को पढ़ रहे हैं वह मुझे अचंम्भित कर देता है। सुबह लिखते समय मेरे मन में कोई भाव नहीं होता। न तो मुझे पाठ के हिट या फ्लाप होने की चिंता होती है और न कमेंट की परवाह। मैंने आध्यात्मिक विषय पर तो पहले ही दिन से लिखना आरंभ किया और हिंदी में दिखाये जाने वाले फोरमों पर तो मेरे ब्लाग बाद में दिखने के लिये आये अगर उन्मुक्त और सागरचंद नाहर मुझे प्रेरित नहीं करते तो ब्लाग लेखक मेरे मित्र नहीं बनते और आज की तारीख में जिस तरह मेरे ब्लाग कुछ वेबसाईट लिंक कर रहीं हैं उस पर झगड़ा और कर बैठता। नारद फोरम पर मैं उन दिनों भी प्रतिदिन जाता था पर मुझे अपना ब्लाग पंजीकृत कराना नहीं आ रहा था। मतलब यह है कि मैंने कई चीजें अपने ब्लाग मित्रों से सीखीं हैं और वह नहीं सीखता तो अल्पज्ञानी रहता और सब जानते हैं कि जिस विषय में कम जानता है वहां उसमें अहंकार आ जाता है। प्रसंगवश इस पोस्ट को इतने पाठक इसलिये भी मिले कि मैंने ब्लाग पर नवीनतम पाठों और पाठकों की पसंद के स्तंभ स्थापित किये और वहां यह पाठ लंबे समय से बना हुआ है और इतने सारे पाठक मिलने के पीछे यह भी एक वजह हो सकती है। इसका श्रेय श्री सागरचंद नाहर जी को जाता है जिनकी एक पाठ से मैंने यह बात सीखी थी। मैं अगर किसी से कुछ सीखता हूं तो उसका दस बार नाम लेता हूं क्योंकि ऐसा न करने वाला कृतघ्न होता है।
इस पाठ पर किसी ब्लाग लेखक की कमेंट नहीं है और किसी पाठक ने कल ही इस पर अपनी टिप्पणी लिखी। 18 जनवरी 2008 को यह पोस्ट उस समय लिखी गयी थी जब हिंदी ब्लाग जगत में मैं हास्य कविताओं की बरसात कर रहा था और उस समय लोगों ने शायद इस पर कम ही ध्यान दिया कि मैं प्रातः अध्यात्मिक विषयों पर लिखने के बाद चला जाता हूं और शाम को होता है वह समय जब मैं अन्य विषयों पर लिखता हूं। इसलिये लोग सुबह के लिखे इस पाठ पर ध्यान नहीं दे पाये और उनको इंतजार करते होंगे उस दिन शाम को मेरी हास्य कविताओं का जो आज किसी भी मतलब की नहीं है। एक बात मैंने अनुभव की है कि अब मैं पिछले कई दिनों से शाम को भी लिखते समय संयम बरतने का विचार करता हूं क्योकि अध्यात्मिक विषय पर लिखने से लोग थोड़ा सम्मान की दृष्टि से देखते हैं और मुझे यह सोचना चाहिये कि इस कारण कोई मेरी गुस्से में कही बात का प्रतिकार न करते हों। वैसे सच यह है कि मैंने अपने महापुरुषों का संदेश लिखते समय कुछ भी विचार नहीं किया और न मेरे को ऐसा लगता था कि इससे मेरे ब्लाग@पत्रिकाओं को लोकप्रियता मिलेगी। अन्य विषयों में हास्य कविता भी मेरे लिये कोई प्रिय विषय नहीं रही पर ताज्जुब है कि उससे भी अनेक पाठकों तक पहुंचने में सहायता की। सुबह लिखते समय मैं अपने को लेखक नहीं बल्कि एक टंकक की तरह देखता हूं पर कहते हैं कि आप आपके परिश्रम का कोई न कोई अच्छा परिणाम निकलता है।
कुल मिलाकर साफ संदेश यही है कि आम पाठकों के लिये रुचिकर लिखकर ही उन्हें अपने ब्लाग पर आने के लिये बाध्य किया जा सकता है। इसके लिये त्वरित हिट और टिप्पणियों का मोह तो त्यागना ही होता है किसी सम्मान आदि से वंचित होने की आशंका भी साथ लेकर चलनी पड़ती है और मुझे अधिक से अधिक आम पाठकों तक पहुंचना है इसलिये ऐसे विषयों पर लिखने का प्रयास करता हूं जो सार्वजनिक महत्व के हों। फोरमों पर अपने चार-पांच हिट देखकर अगर विचलित हो जाता तो शायद इतना नहीं लिख पाता। मेरी स्मृति में यह बात आज तक है कि उस दिन इस पाठ पर सभी तरफ से केवल 19 हिट थे जिसमें वर्डप्रेस के डेशबोडे से ही अधिक थे। विभिन्न फोरमों से संभवतः 8 हिट थे। वहां अधिक हिट न लेने वाला यह पाठ 1000 से अधिक पाठकों तक पहुंच गया क्या यह विश्लेषण करने का विषय नहीं है। कबीर साहित्य पर एक अन्य ब्लाग एक अन्य पाठ भी हजार की संख्या के पास पहुंच रहा है और यह जानकारी चर्चा का विषय हो सकती है।
आज मुझे भी लगता है कि मैंने कोई मेहनत नहीं की है पर उस समय इतनी पोस्ट लिखने में ही मुझे बहुत समय लग जाता था। इसलिये मैं अपने उन सभी ब्लाग लेखक मित्रों का आभारी हूं जिन्होंने हमेशा मुझे नये नयी जानकारियां और टूल देकर आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया है और इस पाठ की सफलता के लिये उनको श्रेय देने में मुझे कोई संकोच भी नहीं है। हां, मुझे अपने को श्रेय लेने में संकोच बना हुआ है।
दीपक भारतदीप द्धारा
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भीड़ में हमेशा खोते रहे
अपने से न मिलने के गम में रोते रहे
नहीं ढूंढा अपने को अंदर
आदमी होकर भी रहा बंदर
लोगों के शोर को सुनकर ही बहलाया दिल
अपनी अक्ल की आंख बंद कर सोते रहे
जमाने भर का बेजान सामान
जुटाते हुए सभी पल गंवा दिये
दिल का चैन फिर नहीं मिला
जो आज आया था घर में
उसी से ही कल हो गया गिला
उठाये रहे अपने ऊपर भ्रम का बोझ
सच समझ कर उसे ढोते रहे
कब आराम मिले इस पर रोते रहे
झांका नहीं अपने अंदर
मिले नहीं अपने अंदर बैठे शख्स से
अकेले होने के गम में इसलिये रोते रहे
………………………….
दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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वर्षा ऋतु का की पहली फुहार
प्रेमी को मिली मोबाइल पर प्रेमिका की पुकार
‘चले आओ,
घर पर अकेली हूं
चंद लम्हे सुनाओ अपनी बात
आज से शुरू हो गयी बरसात
मन में जल रही है तन्हाई की ज्वाला
आओ अपने मन भावन शब्दों से
इस मौसम में बैठकर करें कुछ अच्छी बात
अगर वक्त निकल गया तो
तुम्हें दिल से निकालते हुए दूंगी दुत्कार’
प्रेमी पहुंचा मोटर सायकिल पर
दनादनाता हुआ उसके घर के बाहर
चंद लोग खड़े थे वहां
बरसात से बचने के लिये
प्रेमिका के घर की छत का छाता बनाकर
जिसमें था उसका चाचा भी था शामिल
जिसने भतीजे को रुकते देखकर कहा
‘तुम हो लायक भतीजे जो
चाचा को देखकर रुक गये
लेकर चलना मुझे अपने साथ
जब थम जाये बरसात
आजकल इस कलियुग में ऐसे भतीजे
कहां मिलते हैं
मुझे आ रहा है तुम पर दुलार’
प्रेमी का दिल बैठ गया
अब नहीं हो सकता था प्यार
जिसने उकसाया था वही बाधक बनी
पहली बरसात की फुहार
उधर से मोबाइल पर आई प्रेमिका की फिर पुकार
प्रेमी बोला
‘भले ही मौसम सुहाना हो गया
पर इस तरह मिलने का फैशन भी पुराना हो गया है
करेंगे अब नया सिलसिला शुरू
तुम होटल में पहुंच जाओ यार
इस समय तो तुम तो घर में हो
मैं नीचे छत को ही छाता बनाकर
अपने चाचा के साथ खड़ा हूं
बीच धारा में अड़ा हूूं
जब होगी बरसात मुझे भी जाना होगा
फिर लौटकर आना होगा
करना होगा तुम्हें इंतजार’
प्रेमिका इशारे में समझ गयी और बोली
‘जब तक चाचा को छोड़कर आओगे
मुझे अपने से दूर पाओगे
कहीं मेरे परिवार वाले भी इसी तरह फंसे है
करती हूं मैं अपने वेटिंग में पड़े
नंबर एक को पुकार
तुम मत करना अब मेरे को दुलार’
थोड़ी देर में देखा प्रेमी ने
वेटिंग में नंबर वन पर खड़ा उसका विरोधी
कंफर्म होने की खुशी में कार पर आया
और सीना तानकर दरवाजे से प्रवेश पाया
उदास प्रेमी ने चाचा को देखकर कहा
‘आप भी कहां आकर खड़े हुए
नहीं ले सकते थे भीगने का मजा
इस छत के नीचे खड़े होने पर
ऐसा लग रहा है जैसे पा रहे हों सजा
झेलना चाहिए थी आपको
बरसात की पहली फुहार’
चाचा ने कहा
‘ठीक है दोनों ही चलते हैं
मोटर सायकिल पर जल्दी पहुंच जायेंगे
कुछ भीगने का मजा भी उठायेंगे
आखिर है बरसात की पहली फुहार’
प्रेमी भतीजे ने मोटर साइकिल
चालू करते हुए आसमान में देखा
और कहा-
‘ऊपर वाले बरसात बनानी तो
मकानों की छत बड़ी नहीं बनाना था
जो बनती हैं किसी का छाता
तो किसी की छाती पर आग बरसाती हैं
चाहे होती हो बरसात की पहली फुहार
……………………….
दीपक भारतदीप द्धारा
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सूरज की गर्मी में झुलसते हुए
पानी में नहा गया था बदन
जलती हवाओं में
गर्म मोम की तरह पिघल रहा था मन
चारों तरफ फैला था क्रंदन
ऐसे में जो आये आकाश पर बादल
बिछ गयी पानी की चादर
जैसे स्वर्ग का अनुभव हुआ जमीन पर
लहराने लगा जलती धूप से त्रस्त लोगों का बदन
कहैं महाकवि दीपक बापू
तुम सभी जगह बरसते जाना
जल से जीवन बहाते जाना
किसी के भरोसे मत छोड़ना
इस धरती पर विचरने वाले जीवों को
बड़े बांध बनवाये या तालाब
पर किसी की प्यास बुझाये
यह विचार इंसान नहीं करता
ढूंढता है अपनी चाहत के लिये
सोने, चांदी और संगमरमर के पत्थर जैसे निर्जीवों को
अमीरों के आसरे तो बहुत हैं
एक ढूंढें हजार पानी पिलाने वाले जायेंगे
पर गरीब का आसरा हो तुम बादल
शायद इसलिये कहलाते हो पागल
फिर भी तुम बरसते रहना
नहीं तो हमें रहेगा पानी के लिये तरसते रहना
तुम हो आत्मा इस धरा के
जो है हम सबका बदन
………………..
दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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मन में प्यास थी प्यार की
एक बूंद भी मिल जाती तो
अमृत पीने जैसा आनंद आता
पर लोग खुद ही तरसे हैं
तो हमें कौन पिलाता
स्वार्थों की वजह से सूख गयी है
लोगों के हृदय में बहने वाली
प्यार की नदी
जज्बातों से परे होती सोच में
मतलब की रेत बसे बीत गईं कई सदी
कहानियों और किस्सों में
प्यार की बहती है काल्पनिक नदी
कई गीत और शायरी कही जातीं
कई नाठकों का मंचन किया जाता
पर जमीन पर प्यार का अस्तित्व नजर नहीं आता
गागर भर कर कभी हमने नहीं चाहा प्यार
एक बूंद प्यार की ख्वाहिश लिये
चलते रहे जीवन पथ पर
पर कहीं मन भर नहीं पाता
जमीन से आकाश भी फतह
कर लिया इंसान
प्यार के लिये लिख दिये कही
कुछ पवित्र और कुछ अपवित्र किताबों
जिनका करते उनको पढ़ने वाले बखान
पर पढ़ने सुनने में सब है मग्न
पर सच्चे प्यार की मूर्ति सभी जगह भग्न
लेकर प्यार का नाम सब झूमते
सूखी आंखों से ढूंढते
पर उनकी प्यास का अंत नजर नहीं आता
प्यार कोई जमीन पर उगने वाली फसल नहीं
कारखाने में बन जाये वह चीज भी नहीं
मन में ख्यालों से बनते हैं प्यार के जज्बात
बना सके तो एक बूंद क्या सागर बन जाता
पर किसी को खुश कोई नहीं कर सकता
इसलिये हर कोई प्यार की एक बूंद के
हर कोई तरसता नजर नहीं आता
………………………………..
दीपक भारतदीप द्धारा
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आसमान से जो देखा धरती पर
तो इंसान चींटियों की तरह
सड़क पर रेंगता नजर आया
वैसे भी धरती पर इंसान
कब इंसान की तरह चल पाया
चींटियों की रानी लेती है
अपनी प्रजा से सेवा
पर इंसान ढूंढता है
अपने आराम से रहने के लिये कोई राजा
जो उसे खिलाये मुफ्त में मेवा
दौड़ सकता है अपनी टांगो के सहारे
पर फिर भी रैंगना उसे पसंद है
करता है पहाड़ जैसी बातें पर
इंसान का चरित्र हमेशा बौना नजर आया
…………………………………………..
शिखर पर पहुंचे हैं वह लोग
जिनके चरित्र बौने हैं
बांस की टांगों के सहारे
वह दिखते हैं बहुत लंबे
पर जब हट जाती हैं वह
तो लगते वह रोने हैं
बांसों के सहारे हो रहा है शासन
बांस भी रूप बदलता है
कहीं पद तो कहीं बनता है आसन
एक बार लग जाये तो
फिर आदमी सलामत हो जाता
हर कोई उसे सलाम ठोकने द्वार पर आता
मिल जाये एक बांस
तो मिल जाती है प्रसिद्धि की सांस
जिसके हाथ में आया, वह तो हो गया राजा
अपना लिखा हुक्म ही समझ में न आये
पर बांस के जोर पर
उसके पाप तो प्रजा को ढोने हैं
……………………………………
दीपक भारतदीप द्धारा
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किसी को खुश देखकर ही
जब मजा आता हो तब
कही तारीफें झूठ में भी
लोग कर जाते हैं
सच से फरेब करने में नहीं सकुचाते हैं
…………………….
सांप से नेवले से पूछा
‘क्या तुम मुझसे दोस्ती करोगे?’
नेवले ने कहा
‘हां, क्यों नहीं
हम दोनों ही जंगली हैं
जंग का मैदान बन चुके
शहर में अपने लिए
कोई जगह बची नहीं
कुछ जगह मालिक अड़े
तो कहीं मजदूर खड़े
दोनों में दोस्ती कभी संभव नहीं
पर हम दोनों में कोई
शोषक या शोषित नहीं
इसलिये खूब जमेगी जब
मिलकर बैठेंगे दो यार
करेंगे एक दूसरे के लिए शिकार
फिर तुमसे क्यों घबड़ाऊंगा
तुम मुझसे क्यों डरोगे‘
………………….
संवेदनहीन हो चुके समाज में
अपनी जिंदगी किसी
दूसरे की दया पर मत छोड़ना
अवसर पाते ही सांप छोड़ दे
पर इंसान नहीं चाहते डसना छोड़ना
……………………..
दीपक भारतदीप द्धारा
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आदमी से ही डरा आदमी
अपने लिये एक झुंड बना लेता है
जिसे समाज कहते हैं
अकेले होने की सोच से घबड़ाया आदमी
उस झुंड के कायदे कानून
अक्ल के दरवाजे बंद कर
मानता इस उम्मीद में
कभी संकट में उसके काम आयेगा
पर संकट में जो हंसता है आदमी पर
उसे भी समाज कहते हैं
…………………………………………..
समाज के शिखर पर बैठे लोग
हांकते हैं ऐसे आदमी को
जैसे भेड़-बकरी हों
जो न बोले
न कहे
न देखे
उनके काले कारनामें दिन के उजाले में भी
अपने डंडे के जोर पर चलता उनका फरमान
टूट जाये चाहे किसी का भी अरमान
उन पर कोई नहीं उठाता उंगली
फिर भी समाज की गलियों में
गोल-गोल घूमता है
चाहे वह कितनी भी संकरी हों
………………………….
दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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कुछ नहीं कह सकते तो कविता ही कह दो
कुछ नहीं लिख सकते तो कविता ही लिख दो
कुछ पढ़ नहीं सकते तो कविता ही पढ़ लो
कुछ और करने से अच्छा अपने कवित्व का जगा लो
पूजे जाते हैं यहां बैमौसम राग अलापने वाले भी
क्योंकि सुनने वालों को शऊर नहीं होता
कुछ कहना है पर कह नहीं पाते
अपनी अभिव्यक्ति को बाहर लाने में
सकपकाते लोग
अपने दर्द को हटाने शोर की महफिल में चले जाते
जो सुन लिया
उसे समझने का अहसास दिलाने के लिये ही
तालियां जोर-जोर से बजाते
बाहर से हंसते पर
अंदर से रोते दिल ही वापस लाते
तुम ऐसे रास्तों पर जाने से बचना
जहां बेदिल लोग चलते हों
समझ से परे चीजों पर भी
दिखाने के लिए मचलते हों
खड़े होकर भीड़ में देखो
कैसे गूंगे चिल्ला रहे हैं
दृष्टिहीन देखे जा रहे हैं
बहरे गीत सुनते जा रहे है
साबुत आदमी दिखता जरूर है
पर अपने अंगों से काम नहीं ले पाता
सभी लाचारी में वाह-वाह किये जा रहे हैं
सत्य से परे होते लोगों पर
लिखने के लिए बहुत कुछ है
कुछ न लिखो तो कविता ही लिख दो
कोई सुने नहीं
पढ़े नहीं
दाद दे नहीं
इससे बेपरवाह होकर
अपने ददे को बाहर आने दो
और एक कविता लिख दो
……………………………………………….
समीर लाल जी, आपकी कविताएं पढ़ी। अच्छा लगा। मेरे मन में भी कुछ शब्द आये जो कह डाले।
दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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धूप में पसीने से नहाते हुए
जब देखता हूं अपना साया
दिल भर आता है
वह जमीन पर गिरा होता है
मैं ढोकर चल रहा हूं आग में अपनी काया
कहीं राह में फूल की खुशबू आती है
मैं देखता हूं सड़क किनारे
कहीं फूलो का पेड़ है
जो बिखेर रहा है सुगंध की माया
रात में चांद की रोशनी में भी मेरे साथ
चलता आ रहा है मेरा साया
मैं उसे देख रहा हूं वह अब भी
जमीन पर गिरा हुआ है
शीतल पवन छू रही मेरे बदन को
पर उठ कर खड़ा नहीं होता मेरा साया
उसे कभी कभी ही देख पाता हूं
अपने ख्यालों में ही गुम हो जाता हूं
खामोश रहता है मेरा साया
कई लोग मिले इस राह पर
बिछड़ गये अपनी मंजिल आते ही
दिल में बसा रहा उनका साया
चंद मुलाकातों में रिश्ता गहरा होता लगा
पर जो बिछड़े तो फिर
उनका चेहरा कभी नजर नहीं आया
तन्हाई में जब खड़ा होकर
इधर-उधर देखता हूं
बस नजर आता है अपना साया
………………………
दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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अपने घर पर रखे गमलों में
पौधों को लगाते हुए देखकर माली को
बहुत खुश होता हूं
उनमें कुछ मुरझा जाते हैं
कुछ खिलकर फूलों के झुंड बन जाते है
फिर वह भी मुरझा जाते हैं
अपना जीवन जीते हैं
फिर साथ छोड़ जाते हैं
फिर लगवाता हूं नये पौधे
इस तरह वह मेरे जीवन को
कभी महकाते हैं
तो कभी मुरझाकर दर्द दे जाते हैं
घर के बाहर खड़ा पेड़
जिसे पशुओं से बचाने के लिये
लगा गया था एक मजदूर बबूल के कांटे चारो ओर
खड़ा है दस बरस से
कई बार वही मजदूर काटकर
उसकी बड़ी डालियां ले जाता है
मैं उससे पेड़ को जीवन बनाये
रखने का आग्रह करता हूं
तो वह मुस्कराता है
कुछ दिन पेड़ उतना ही बड़ा हो जाता है
इस तरह प्रकृति का यह खेल देखकर
कई बार मैं मंद मंद मुस्कराता हूं
कभी खिलता हूं कभी मुरझा जाता हूं
…………………………………..
दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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एक सपना लेकर
सभी लोग आते हैं सामने
दूर कहीं दिखाते हैं सोने-चांदी से बना सिंहासन
कहते हैं
‘तुम उस पर बैठ सकते हो
और कर सकते हो दुनियां पर शासन
उठाकर देखता हूं दृष्टि
दिखती है सुनसार सारी सृष्टि
न कहीं सिंहासन दिखता है
न शासन होने के आसार
कहने वाले का कहना ही है व्यापार
वह दिखाते हैं एक सपना
‘तुम हमारी बात मान लो
हमार उद्देश्य पूरा करने का ठान लो
देखो वह जगह जहां हम तुम्हें बिठायेंगे
वह बना है सोने चांदी का सिंहासन’
उनको देता हूं अपने पसीने का दान
उनके दिखाये भ्रमों का नहीं
रहने देता अपने मन में निशान
मतलब निकल जाने के बाद
वह मुझसे नजरें फेरें
मैं पहले ही पीठ दिखा देता हूं
मुझे पता है
अब नहीं दिखाई देगा भ्रम का सिंहासन
जिस पर बैठा हूं वही रहेगा मेरा आसन
दीपक भारतदीप द्धारा
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कोई लिखकर कहे या
अपनी जुबां से बोले
कोई ऐसे शब्द कान में अमृत घोले
मन में छा जाये प्रसन्नता की सरिता
इसी चाहत में उम्र गुजार दी
पर प्यासे रहे हमेशा
कोई नहीं बोल पाया
नहीं लिख पाया कुछ मीठे शब्द
हमने बोले कुछ प्यार के
तो लिखे भी बहुत
पर जमाना ही है लाचार और बेबस
जूझता है अपने दर्द और गमों से
कोई नहीं समझता
प्यार के शब्दों की असलियत
सभी ढूंढते हैं खुशी उधार की
………………………..
मैं कहां तलाश करूं प्यार से
सराबोर शब्दों की
सभी दरवाजे बंद हैं
अपने दिल के दर्द से टूटे लोग
ढूंढ रहे हैं खुशियां
रौशनी के पीछे अंधेरे में
अपने शब्दों से जला सकें
किसी के दिल में उम्मीद का चिराग
कोई ख्याल में भी नहीं लाता
सभी की सोच
अपने मतलब के घर में बंद है
………………………..
दीपक भारतदीप द्धारा
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राह पर चलते हुए जो
मैंने देखी जोर से चिल्लाते लोगों की भीड़
वहां एक खड़े एक आदमी से पूछा
‘यहां क्या हो रहा है’
उसने कहा-‘झगड़ा हो रहा है’
मैं कुछ दूर चला तो जोर जोर से
लोगों को स्तुतिगान गाते सुना
मैंने एक आदमी से पूछा
‘यह इतना शोर क्यों हो रहा है’
उसने गुस्से से कहा
‘
दीपक भारतदीप द्धारा
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आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू, गर्मी में हो रही बरसात
जहां रुलाता पसीना, वहां करती बहार अपनी बात
लिखो कोई जोरदार कविता
बहने लगे श्रृंगार रस की सरिता
शायद तुम्हारे नाम से फ्लाप का लेबल हट जाये
हिट होकर तुम्हारा नाम आकाश पर चमक जाये
कोई कुछ भी कहे तुम करो
अपनी पत्रिका पर मौसम पर कविता की बरसात’
जाने को तैयार खड़े थे
बांध रहे थे धोती
सिर पर रख रहे टोपी
सुनकर पहले देखा फंदेबाज को घूरकर
फिर कहैं दीपक बापू
‘दो दिन पहले गर्मी पर
लिखने को कह रहे थे हास्य कविता
अब प्रवाहित करवाना चाहते हो
श्रृंगार रस की सरिता
बहुत लिख चुके तुम्हारे विषयों पर
नहीं बनी हमारी पत्रिका के हिट होने की बात
मौसम का कोई भरोसा नहीं
सर्दी के मौसम में सुबह लिख रहे थे
कंपाकंपाते हुए उस पर गर्म कविता
दोपहर तक निकलने लगा गर्मी में पसीना
गर्मी में लिखने बैठते हैं शाम को
रात तक पानी बरसता है बनकर नगीना
हवा बंद पर लिखने बैठते हैं तो
आंधी चली आती है
मौसम का कोई भरोसा नहीं
यह अंतर्जाल है मेरे मित्र
सारी दुनियां में एक जैसा मौसम नहीं रहता
कहीं कोई बहार में नहाता
तो कोई धूप में गर्मी में सहता
अब पहले जैसा माहौल नहीं है
जो लिखेंगे यहीं पढ़ा जायेगा
अब तो लिखो अपने शहर में
वह विदेश में भी दिखने में आयेगा
इसलिये समझ में नहीं आती
मौसम पर लिखकर हिट होने की बात
यहां हमेशा ही होने लगी है
बेमौसम गर्मी, सर्दी, और बरसात
हमें नहीं जमी तुम्हारी मौसम पर
हास्य कविता लिखने की बात
…………………………….
दीपक भारतदीप द्धारा
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प्रसिद्ध होने के लिए
चले जाते है उस राह पर
जहां बुरे नाम वाले हो जाते हैं
अगर नाम चमका आकाश में तो
जमीन पर गिरकर चकनाचूर
होने के खतरे भी बढ़ जाते हैं
पत्थरों पर नाम लिखवाने से
लोगों के हृदय में जगह नहीं मिल जाती
हंसी की करतूतों पर लोगों के ताली बजाने से
कुछ पल अच्छा लगता है
पर कोई इज्जत नहीं बढ़ जाती
कुछ पलों की प्रशंसा से
क्यों फूल कर कुप्पा हो जाते हैं
आकाश में उड़ने की ख्वाहिश रखने वालों
पहले जमीन पर चलना सीख लो
जहां खड़े रहने से ही
तुम्हारे पांव लड़खड़ने लग जाते हैं
दूसरे की आंखों में पहचान ढूंढने की
निरर्थक कोशिश में
अपनी असली पहचान खोते चले जाते हैं
………………………..
दीपक भारतदीप द्धारा
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हंसते चेहरे देखकर हंसता हूं
दिल बहलाने के लिये दूसरों की
हंसी भी सहारा बन जाती है
किसी के दर्द पर हंसने वाले बहुत हैं
दूसरों को हंसा दें ऐसी सूरतें
कभी कभी नजर आती हैं
नहीं मिलता तो देख लेता हूं
हंसते हुए लोगों तस्वीरें
दर्द से परे जो ले जातीं हैं
………………………………………………
आंखों से देखने का उम्र से
कभी कोई वास्ता नहीं
अगर बहलता हो मन तस्वीरों से
तो कोई हर्ज नहीं
अपनी उम्र देखकर शर्माने से
भला समय कट पाता है
राह चलते किसी का सौंदर्य देखने पर
अगर घबड़ाते हो तो
देख लो सुंदर तस्वीरें कहीं
…………………………………..
दीपक भारतदीप द्धारा
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आज महक जी के ब्लाग पर एक फोटो और अच्छी गजल देखी। ऐसे में मेरा कवित्व मन जाग उठा। कुछ पंक्तियां मेरे हृदय में इस तरह आईं-
समंदर किनारे खड़े होकर
चंद्रमा को देखते हुए मत बहक जाना
अपने हृदय का समंदर भी कम गहरा नहीं
उसमें ही डूब कर आनंद उठाओ
वहां से फिर भी निकल सकते हो
अपनी सोच के दायरे से निकलकर
आगे चलते-चलते कहीं समंदर में डूब न जाना
अभी कई गीतों और गजलों के फूल
इस इस जहां* में तुम्हें है महकाना
वहां मैंने “अंतर्जाल” लिखा था पर जहां लिख दिया
कभी कभी अंतर्जाल पर ऐसे पाठ आ जाते हैं जिन पर लिखने का मन करता है। तब वहां लिखने के विचार से जब अपना विंडो खोलता हूं और सहजता पूर्वक जो विचार आते हैं लिखता हूं। मैं हमेशा यही सोचता हूं कि अंतर्जाल पर अब मनोरंजक और ज्ञानवद्र्धक मिल जाता है तब उसके लिये कहीं और हाथ पांव क्यों मारे जायें?
इसी कविता पर एक फिर कुछ और विचार आये
समंदर के किनारे
चमकता चांद पुकारे
ऊपर निहारते हुए
एक कदम उठाए खड़े हो
जैसे तुम उसे पकड़ लोगे
पर अपना दूसरा कदम
तुम आगे मत बढ़ाना
सदियों से धोखा देता आया है चांद
किसी के हाथ नहीं आया
इसने कई प्रेमियों को ललचाया
शायरों को रिझाया
पर कोई उसे छू नहीं पाया
उसकी चमक एक भ्रम है
जो पाता है वह सूर्य से
यह हमारी बात पहले सुनते जाना
महक जी अपने ब्लाग पर कई बार ऐसा पाठ प्रकाशित करतीं है कि मन प्रसन्न हो जाता है। हां, मुझे याद आया एक बार उन्होंने अपने पाठ चोरी होने की शिकायत की थी और मुझे तब बहुत गुस्सा आया और उनके बताये पते जब गया था तो वहां उन्होंने अपनी प्यार भरी टिप्पणी रखी थी जिसमें कहीं गुस्सा नहीं बल्कि स्नेहपूर्ण उलाहना थी। तब लगा कि वह बहुत भावुक होकर लिखतीं हैं। यही कारण है कि उनके लिखे से जहां आनंद प्राप्त होता है वही लिखने की भी प्रेरणा मिलती है।
……………………………………….
दीपक भारतदीप द्धारा
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मैने कई ब्लाग पर हाइकु के रूप में कविताएं पढ़ीं, पर मेरे समझ में नही आता था कि वह होता क्या है। आज मीनाक्षी जी के ब्लाग पर पढ़ा कि उसे त्रिपदम कहा जाता है। हिंदी में इस विधा के बारे में कहीं लिख गया है तो मुझे पता नहीं पर मुझे लगा कि यह एक मुक्त कविता की तरह ही है। शायद इस विधा को अंग्रेजी से लिया गया होगा और मैं इस आधार पर कोई विरोध करने वाला नहीं हूं। मुख्य बात है कि हम अपनी बात कहना चाहते है और उसके लिये हम गद्य या पद्य किसी में भी लिख सकते हैं।
त्रिपदम(हाइकु) पढ़कर मेरे मन में विचार आया कि आज अपने कुछ विचारों को इस विधा में लिख कर देखें। कभी-कभी मुझे लगता है कि लोग अपने मन की हलचल को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाते या कभी वह कुछ कहना चाहते है पर कुछ और कह जाते है। हमारा मन बहुत गहरा होता है और हम उसमें डुबकी तो सभी लगा लेते हैं पर वहां से कितने मोती उठा पाते हैं यह एक विचार का विषय है। हम कई बार कहते हैं कि अमुक व्यक्ति बहुत गहराई से लिखता या विचार करता है। इसका यह आशय यह कदापि नहीं हैं कि कि हम ऐसा नहीं कर सकते हैं। दरअसल जो लोग लिखने या विचार करने मेंे गहराई का संकेत देते हैं वह अपने अंदर से बाहर आ रहे विचार और शब्दों को रोकने का प्रयास नहीं करते। दृष्टा की तरह उनको बाहर लोगों के पास जाते देखते हैं। हां, यह मुझे लगता है। कई बार मेरे साथ ऐसा होता है। जब शब्द और और विचारों के बाह्य प्रवाह के बीच मैं स्वयं खड़ा होने का प्रयास करता हूं तो लगता है कि वह अवरुद्ध हो गया।
मुझे पता नहीं कि मैं अच्छा लिखता हूं कि बुरा? पर कुछ मित्र मेरी कुछ रचनाओं पर फिदा हो जाते हैं और कुछ पर कह देते हैं कि यह क्या लिखा है हमारे समझ में नहीं आया।’ तब मुझे इस बात की अनुभुति होती है कि मैंने खराब कही जा रही रचनाओं के समय अपने विचारों और शब्दों के प्रवाह में अपनी टांग अड़ाई थी। आज जब मेरे मन में हाइकू (त्रिपदम) लिखने का विचार आया तो मैं अपने अ्र्रंर्तमन पर दृष्टिपात कर रहा हूं कि क्या वहां कोई विचार या शब्द हैं जो बाहर आना चाहते है।
मन में उठती कुछ उमंगें
विचारों की बहती तरंगें
आशाओं की उड़ती पतंगें
मौसम के खुशनुमा होने का अहसास
किसी का हमदर्द बनने का विश्वास
प्यार में वफादारी की आस
अनुभूतियों से भरा तन
अभिव्यक्त होना चाहता मन
शब्द चहक रहे खिलाने को चमन
जब तलाशता हूं उनका रास्ता
संदर्भों से जोड़ता हूं उनका वास्ता
सोचता हूं परोसूं जैसे नाश्ता
तब असहज हो जाता हूं
अपने को भटका पाता हूं
नयी तलाश में पुराना भूल जाता हूं
जब हट जाता हूं उनके पास से
रचना होने की आस से
अपने अस्तित्व के आभास से
तब वह कोई कविता बन जाते हैं
या कोई कहानी सजाते हैं
शब्द अपनी दुनिया स्वयं बसाते है
यह मेरा त्रिपदम(हाइकु) लिखने का एक प्रयास है। मुझे इसे लिखना बहुत अच्छा लगा। यह अलग बात है कि पढ़ने वाले इस पर क्या सोचते है। मेरा प्रयास अपने को अभिव्यक्त करना होता है और प्रयास यही करता हूं कि अपने आपसे दिखावा नहीं करूं। हमेशा ऐसा नहीं कर पाता यह अलग बात है।
दीपक भारतदीप द्धारा
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आदमी के पंख नहीं होते
जो वह आसमान में उड़ सके
पर उसका मन बिना पंख के ही
उड़ता चला जाता है
उसके पांव आदमी की काबू में होते नहीं
पंरिदे बनाते हैं लोगों के घर में भी घरोंदे
पर उनके बिस्तर पर सोते नहीं
खुशी में झूमकर नाचता इंसान
दुःख में अपने ही आंखो से बहती
अश्रुधारा में करता स्नान
पर परिंदे कभी रोते नहीं
अपने मन के इशारे पर
कठपुतली की तरह नाचता
कितने भी दावे करे कि
खुद ही चल रहा है इस जीवन पथ पर
अपनी अक्ल पर है उसका काबू
कराती है इंसान की जुबान दावे आजाद होने के
पर कभी वह सच्चे होते नहीं
अपनी जरूरतों से आगे नहीं उड़ते
इसलिये परिंदे कठपुतली नहीं होते
यह सच है
अपनी ख्वाहिशों के हमेशा गुलाम
रहने वाले इंसानों के लिये
साबित करना बहुत मुश्किल है कि
वह कठपुतली होते नहीं
……………………………………………………..
कठपुतली ने चिडि़या से कहा
‘देखो, मैं नाच और गा सकती हूं
पर तुम ऐसा नहीं कर सकती
मुझे तुम पर तरस आता है’
चिडि़या ने उसकी डोर पकड़ने वाल नट की
गर्दन पर चांेच मारी तो वह चिल्लाया
छूट गयी उसके हाथ से डोर
उसने कठपुतली को इस तरह नीचे गिराया
चिडि़या ने लौटकर चिड़े से कहा
‘आदमी कठपुतली को आगे कर बोलता
अपने मन के इशारे पर डोलता
बोलने से पहले कभी शब्द नहीं तोलता
दावे करता है आकाश में उड़ने का
कभी ऐसा नहीं करता तब मचा रहा है शोर
उड़ता तो क्या हाल करता
सर्वशक्तिमान ने इसलिये इसको पंख नहीं लगाया
उड़ने के ख्वाब देखता रहे इसलिये
इंसान को मन की कठपुतली बनाया
……………………………………………………..
दीपक भारतदीप
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दीपक भारतदीप द्धारा
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प्रेमी ने प्रेमिका के मोबाइल की
घंटी बड़ी उम्मीद से बजाई
जा रही थी वह गाड़ी पर
चलते चलते ही उसने
अपने मार्ग में होने की बात उसे बताई
फिर भी वह बातें करता रहा
वह भी सुनती रही
सफर गाड़ी पर उसका चलता रहा
अचानक वह कार से टकराई
प्रेमी को भी फोन पर आवाज आई
प्रेमी ने पूछा
‘क्या हुआ प्रिये
यह कैसी आवाज आई
कोई ऐसी बात हो तो मोटर साइकिल पर
चढ़कर वहीं आ जाऊं
मुझे बहुत चिंता घिर आई’
प्रेमिका ने कहा
‘घबड़ाओ नहीं कार से
मेरी गाड़ी यूं ही टकराई
अपनी मरहम पट्टी कराकर अभी आई
करा देगा यह कार वाला उसकी भरपाई+’
प्रेमी करता रहा इंतजार
फिर नहीं प्रेमिका की कोई खबर आई
एक दिन भेजा संदेश
‘जिससे मेरी गाड़ी टकराई
उसी कार वाले से हो गयी मेरी सगाई
बहुत हैंडसम और स्मार्ट है
उसने मुझ पर बहुत दया दिखाई
इन दो पहियों की गाड़ी से
तो अब हो गयी ऊब
चार पहियों वाली गाड़ी में ही
अब घूमने की इच्छा आई’
प्रेमी सुनकर चीखा
‘यह कैसा मोबाइल है
जिसने मोहब्बत को भी बनाया
अपने जैसा
कितना बुरा किया मैंने जो
उस दिन मोबाइल की घंटी बजाइ
……………………………………….
नोट-यह हास्य कविता काल्पनिक है तथा इसका किसी घटना या व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।
दीपक भारतदीप द्धारा
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हर शाख पर उल्लू बिठा दो
जब बिजली चली जायेगी
वह तरक्की-तरक्की के नारे लगायेगा
लोग समझेंगे सब ठीक-ठाक है
अंधेरे में भला किसे तरक्की नजर आयेगी
………………………………………………………………………..
तरक्की हो रही चारों तरफ
भ्रमित लोग चले जा रहे यह सोचकर कि
कहीं हमें भी मिल जायेगी
जमीन में धंसता जा रहा है पानी
आदमी में कहां रहेगा
घर में बढ़ते कबाड़ में खोया
जब गला तरसेगा पानी को
तब उसे समझ आयेगी
पर तब तक बहुत देर हो जायेगी
…………………………………………………………..
उसने कहा
‘मैं तरक्की करूंगा
आकाश में तारे की तरह
लोगों के बीच चमकूंगा
मेरी ख्याति चारों और फैल जायेगी’
बरसों हो गये वह घूमता रहा
रोटी से अधिक कुछ हाथ नहीं आया
अब कहता है
‘‘इतनी कट गयी जिंदगी
जो बची है वह भी कट जायेगी’
पढना जारी रखे →
दीपक भारतदीप द्धारा
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गुरु ने शिष्य को विदा
करने से पहले पूछा
”तुम अब जाओगे
जीवन के पथ पर
चल्रते जाओगे प्रगति पथ पर
सेवा करोगे या चाहोगे सम्मान
शिष्य ने कहा
”गुरु आपने कहा था
ज्ञान कभी पूरा किसी का हो नहीं सकता
मैं तो अभी भी चाहूंगा ज्ञान”
गुरु ने खुश होकर कहा
”तब तो तुम सेवा से स्वत: बडे हो जाओगे
हर सम्मान से परे पाओगे
नहीं होगा अभिमान
हमेशा तुम्हारी रक्षा करेगा ज्ञान’
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दीपक भारतदीप द्धारा
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अगर अकेले चल सकते हो
जिन्दगी की राह पर
तो सत्य बोलो जो
हमेशा कड़वा होता
अगर अपने इर्द-गिर्द जुटाना चाहते हो
लोगों की भीड़ तो
झूठ बड़ी सफाई से बोलो
जो हमेशा मीठा होता
यहाँ सब सच से घबडाए
भ्रम की छाया तले
जिंदा रहने के आदी हैं लोग
सर्वशक्तिमान के नाम पर
बताये संदेशों की दवा बनाकर
किया जाता है उसका दूर रोग
पर सच यह कि
भ्रम का कोई इलाज नहीं होता
जिसने जीवन दिया
उसी सर्वशक्तिमान के क्रुद्ध होने का भय
दिखाते कई सयाने
तंत्र-मन्त्र से लगते दर्द भगाने
उनको ढोंगियों के चंगुल से
कभी कोई बचा नहीं सकता
जाली धंधे का जाल भी
इतना कमजोर नहीं होता
मन का अँधेरा आदमी को
खुशी की खातिर कहाँ-कहाँ ले जाता
मिलता रौशन चिराग का पता
वहाँ अपनी देह खींच ले जाता
जिन पर हैं जमाने के दिल को रौशन
करने का ठेका
वह भी नकली चिराग बेच रहे हैं
पुरानी किताबों के संदेशों पर
चुटकुलों के पैबंद लगाकर
लोगों से पैसे अपनी और खींच रहे हैं
सच कह पाना लोगों से कठिन है
क्योंकि उसमें आदमी अकेला होता
सच का भला कौन साथी होता
दीपक भारतदीप द्धारा
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दिल में हो कड़वाहट तो मीठा कैसे लिखें
उदासी हो दिल में, चेहरे से हँसते कैसे दिखें
कितना कठिन अपने को छिपाना मन की आँखों से
जैसे अपने को लगें वैसे ही दूसरों को भी दिखें
जमाने के साथ कब तक चल सकती है चालाकी
कब तक अपने दिल का हाल छिपा कर लिखें
कहीं कोई आस नहीं, फिर भी दिल निराश नहीं
जब तक चल रही सांस, कैसे जिन्दगी से हारते दिखें
कभी अपने कागज़ पर लिखे शब्द थके हुए लगते हैं
हम रुक जाते, पर फिर वह शेर की तरह दौड़ते दिखे
कहाँ ले जाएं इस जमाने से आहत अपना मन
रुकने की सोचें, अगले ही पल उसके कहे पर चलते दिखें
दीपक भारतदीप द्धारा
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प्रदूषण पर आयोजित कार्यक्रम में वह विद्वान
बोल रहे थे
”घर से कितना भी सजकर
सड़क पर खुले में जाएं
तो गाड़ियों के धुएं में
सबके चेहरे काले हो जाएं
अगर जाएं बंद गाडी में
करें अपना सफर पूरा तो
लोगों को अपनी सुन्दरता पर
ध्यान कैसे दिलाएं
दुनिया में फैले प्रदूषण से
महिलाओं को खास परेशानी है
हम चाहते हैं कि इस समस्या को सब
मिलकर सुलझाएं”
कार्यक्रम की समाप्ति पर
वह आयोजकों से बोले
देखो मैं महिलाओं की समस्याओं को ही
उठाता हूँ और अब मेरा नाम
महिला जागृति के लिए
जहाँ भी पुरस्कार मिलता हो
वहाँ जरूर भिजवाएं’
————————–
दीपक भारतदीप द्धारा
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वह एक गृह स्वामी की तरह अपने पोर्च के नीचे खडा था . कालोनी का चौकीदार पैसे मांगने आया और बोला-”बाबूजी नमस्कार.
उसने अपने पहले दोनों हाथ जोड़े और अपना एक हाथ मांगने के लिए बढाया.
उसके जेब में दस, बीस, पचास और सौ के नोट थे, पर उसे तीस रूपये देने का मन नहीं हुआ और बोला-”यार, अभी हमें वेतन नहीं मिला. जब मिलेगा तो ले जाना.
वह चला गया. घर पर काम करने वाले बाई आई और काम कर जब जाने वाली थी तब बोली-”बाबूजी, आज हमें अपने दो सौ रूपये दे दीजिये.हमें अपने बेटे के लिए फीस भरनी है.”
यह उसके जेब में रखी रकम से कोई कम नहीं थी फिर भी उसने कहा-”अभी वेतन नहीं मिला. जब मिल जायेगा तो दे दूंगा.
वह चली गयी. कुछ देर बाद सड़क पर झाडू लगाने वाला आया और उसने नमस्कार की. उसे हर महीने बीस रूपये देने होते थे. उसे भी उसने वही जवाब दिया.
पत्नी ने कहा-”इतना पैसा तो अपने पास होता है, फिर आपने दिया क्यों नहीं? मुझसे ही लेकर देते.”
उसने कहा-”ठीक है. कल दे देंगे. क्या जाता है. कौनसा पहाड़ टूट पड़ रहा है. सुबह-सुबह सब भिखारियों की तरह मांगने चले जाते हैं. मुझे तो उनकी शक्ल देखकर ही नफरत होती है.
शाम को उसने अपना काम समाप्त किया और अपना वेतन मांगने के लिए प्रबंधक के पास गया. उसका जवाब था-”
कल ले लेना.”
”आज क्यों नहीं?आपके यहाँ तो पैसा हमेशा रहता है.”
प्रबंधक ने कहा-”हाँ, पर आज मुझे जल्दी जाना है, फिर आज मेरा असिस्टेंट भी नहीं है. अपनी तनख्वाह लेकर चला गया. उसे खरीददारी करनी थी.”
उसे बहुत गुस्सा आ गया और बोला-”क्या हम मेहनत नहीं करते? उस क्लर्क को जल्दी खरीददारी करनी थी पर हम क्या करेंगे?”
प्रबंधक ने कहा-”चिल्लाओ नहीं. वह मालिकों का रिश्तेदार है, अगर किसी ने सुन लिया तो इस नौकरी से भी जाओगे.
वह गुस्से में घर आया और अपनी पत्नी के सामने प्रबंधक और क्लर्क को गाली देना लगा गो वह बोली-”सुबह हमने क्या किया था? वही उन्होने हमारे साथ किया. अगर वह छोटे लोग कल तक इन्तजार कर सकते हैं तो फिर हम क्यों नहीं?”
वह हतप्रभ खडा था. देर रात तक सोते समय सुबह और शाम के दृश्य उसके सामने घूम रहे थे.
दीपक भारतदीप द्धारा
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आकर फंदेबाज बोला
”दीपक बापू
इस ठंड में क्या
कीबोर्ड पर उंगली नचा रहे हो
लो लाया हूँ बोतल
तुम तो अब हो गए हो काईयाँ
शराब का नशा छोड़
ब्लोग पर पोस्ट पर लगे कमेन्ट के
पैग पीकर
जेब के पैसे बचा रहे हो’
सुनकर उखड़े दीपक बापू पहले
फिर सिर पर रखी टोपी घुमाते बोले
‘कह गए बुजुर्ग
अधिक नशा करना ठीक नहीं
साथ ही यह भी कहा है कि
अधिक खर्च करना ठीक नहीं
ब्लोग पर पोस्ट लिखने का नशा भी
सिर पर चढा हो
तो फिर शराब क्या काम करेगी
डबल हो गया नशा तो हैरान करेगी
तुमने बताया है तो देखो ठंड के मारे
हमारे हाथ काँप रहे हैं
वरना हमें क्या पता कि
कल पारा जीरों पर जायेगा
तुम घर में ही घुसे रहना
यहाँ आकर हमें खबर न करना
वरना पोस्ट लिखने का नशा उतर जायेगा
यह बोतल भी ले जाओ
ठंड से यह क्या बचायेगी
एकाध कमेन्ट टपक पडी तो
उसकी गर्मी ही रजाई का काम कर जायेगी
अगर कमेन्ट नहीं आयी तो
चौपालों पर जाकर ढूंढेंगे
अंतर्जाल का कोई गरम पोस्ट वाला ब्लोग उसी पर
फड़कती कमेन्ट लगाकर
लिखेंगे कोई हास्य कविता
जो हमारी क्या सब साथियों को
सर्दी में भी गर्मी का अहसास कराएगी
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दीपक भारतदीप द्धारा
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एक पडोसन दूसरी पडोसन के पास पहुँची
और बोली
‘बहिन तुम्हारे छोरे के लिए
एक रिश्ता मैं हूँ लाई
जल्दी करो सगाई
तुमने कहा था मोटर साइकिल चाहिए
दहेज़ में
वह तुम्हें मिल जायेगी
अगले महीने तक ही मुहूर्त हैं
कर लोग जल्दी-जल्दी
फिर न शादी होगी न सगाई’
दूसरी बोली
‘मुझे अब जल्दी नहीं है
अब आ रही है कुछ महीने में
सस्ती कार
उसके आने पर ही करूंगी
अपने लड़के की शादी का विचार
मोटर साइकिल का चला जायेगा ज़माना
अब तो है मेरे लड़को को कार चलाना
मेरे पति मुझसे कह गए
तब तक मुद्रा स्फीति भी बढ़ जायेगी
इसलिए मैंने तय किया है कि
सस्ती कार आने पर ही करूंगी
अपने लाडले की सगाई.’
दीपक भारतदीप द्धारा
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फिल्म चल रही कि क्रिकेट
हो रहा है मतिभ्रम
बैट-बाल का खेल होते-होते
एक्शन सीन आ जाता है कि
फिल्म वालों को भी आये शर्म
जिसे फिल्म से परहेज जो
वह भी अपने खिलाड़ी को पिटते देख
हो जाता गर्म
कहैं दीपक बापू
विश्वास तो पहले भी नहीं था
अब भी नहीं होता
फिल्म वालों की संगत जब से
क्रिकेट वालों से हुई है
पटकथा लेखकों के सहारे
मैच में एक्शन चलता लग रहा है
एक्शन की वजह से
फिल्में देखना बंद कर दीं
पर क्रिकेट में भी उसका रंग
चढ़ता लग रहा है
कोई पटकथा लिख रहा है
पीछे बैठकर
जो जानता है मैच और कहानी का मर्म
वरना ऐसे कैसे हो जाता है
जब लगता है कि बस अब होगा
इस श्रंखला का दुखांत अंत
पर हो जाता है सुखांत
जो गरम होकर प्रहार करने की
मुद्रा दिखाता है
अचानक हो जाता है नरम
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दीपक भारतदीप द्धारा
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कितने दिनों के बाद
प्राचीनतम बल्लेबाज सह्बाग ने
बना शतक और अब
कगारुओं पर पर बरस रहे
तब तक मुहँ पर ताला जब
बल्ला खामोश
लोग अभी बडे मैच में उनके रनों को तरस रहे
कहै दीपक बापू
नाम ने उनका कंगारू
उनके लिए एक बकनर क्या
कई अंपायर उस जैसा बनने के लिए तरस रहे
पर अभी भी तुम्हारा इम्तहान बाकी है
छोटे मैच का शतक तुम्हें हीरो नहीं बनाता
बडे मैच में महीनों हो गए
रन बनाने में तुम्हारा नाम नहीं आता
जुबान से गर्जना होता आसान
बाल खेलने के लिए
हाथों और पांवों कर जोर काम आता
तुम्हारे ‘फुटवर्क’ में अभी ढेर दोष नजर आता
कहीं फिर न हो जाओ टाँय-टाँय फिस्स
अपना मुहँ चलाते रहो
पर अभी बाकी है
तुम्हारे लिए रन बनाने का काम
पुराने रिकार्ड के सहारे अब नहीं चलेगा नाम
दीपक भारतदीप द्धारा
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हिन्दी का परचम फहराने का
उनका तो बहाना है
बस उनको अपनी दुकान ज़माना है
बोलने में शब्द तो बह जाते
पर लिखते हुए हाथ काँप जाते
पर अपने लेखक होने का अहसास कराना
कहीं अखबारों से कटिंग ढूंढ कर लाते
कही उठा लाते किसी का छपा अफ़साना
जब कहीं हिन्दी के नाम पर
बनते पुरस्कार तो मुहँ में लार आ जाती
जब मिलते नहीं देखते तो
निर्णायक की कुर्सी पर बुरी नजर जाती
कहीं न कहीं तो ढूंढना है उनको ठिकाना
लोगों को किसी तरह होता है भरमाना
अखबार और पत्रिकाओं से
चलकर अंतर्जाल पा भी लाये वह जमाना
दुनिया भर के वाद और नारे
उनके भी खून में हैं
चाहते हैं किसी तरह उसे छिपाना
हिन्दी को अंतर्जाल पर बढ़ाने के नाम पर
सर्वश्रेष्ट ब्लोगर के लिए
चुन लेंगे अपने-अपने लोग
पुरस्कार वजनदार लगे इसलिए
हिट ब्लोगरों को भी होगा जरूरी फ्लॉप दिखाना
कहैं दीपक बापू
अंतर्जाल पर लिखने वाले ब्लोगरों में भी
भेड़ की खाल में भेडिया
न हो यह कैसे हो सकता है
छल-कपट के लिए
गढ़ लेते हैं तर्कों का बहाना
सो डरना या विचलित नहीं होना
बंटवाने दो अपनों-अपनों को पुरस्कार
अपना मन मैला मत करो
हमें तो हिन्दी का है परचम फहराना
जिन्होंने छेडा है हमारे ब्लॉग का डंडा
उनके ब्लॉग तो वैसे ही हैं अंडा
हमें तो चलते जाना है
माँ सरस्वती ने सौंपा है
शब्दों का खजाना
उसे अपने दोस्तों पर बरसाते जायेंगे
उनकी करनी पर ही
अब हास्य कविता लिखते जायेंगे
उन्हें पुरस्कार मिलते रहेंगे
हमें मिलेगा हास्य कविता लिखने का बहाना
नोट-यह काल्पनिक हास्य रचना है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका लेना-देना नहीं है अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाए तो वही इसके लिए जिम्मेदार होगा.
दीपक भारतदीप द्धारा
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आसमान से अब फ़रिश्ते नहीं आते
विचार खुले होना अच्छा है
पर आंख्ने भी खुली रखना
यकीन करना अच्छा है
पर कदम-कदम पर है
धोखे भीं हजार हैं
अपना हर कदम
सतर्कता से रखना
सुन्दर शब्दों का जाल
फैलाया जाता है चहूं ओर
अर्थहीन लाभ दिखाए जाते है
जिनका नहीं होता कहीं ठौर
शिकारी अब ऐसा जाल बिछाते हैं
पंक्षी बिना दाना डाले फंस जाते हैं
तुम शिकार होने से बचना
कहीं एक के साथ एक फ्री का नारा
कहीं भारी भरकम गिफ्ट का नज़ारा
कोई करता हैं भारी छूट का वादा
कोई बताता अपने ही लुटने का aaj
खरीदने निकलो बाजार में तो तुम भी
एक सौदागर बन जाना
अपनी नज़र पैनी रखना
कहैं दीपक बापू
अब आसमान से नहीं आते
ऐसे फ़रिश्ते
जो दूसरे को मालामाल कर दें
लोगों के झुंड के झुंड जुटे हैं
अमीर बनने के लिए
वह ऐसे नही है
किसी दूसरे के लिए कमाल कर दें
तुम अपना ईमान नहीं छोड़ना
अपने ख्वाबों को सच करने की
जंग खुद ही जीतने की बाट जोहना
किसी दूसरे के दिखाए सपने में
अपनी जिन्दगी फंसाने से बचना
यहां कोई ख़्याल से फ्री दिखता है
किसी का माल फ्री बिकता है
कोई फ्री में लिखता है
पर यहां कुछ फ्री नहीं है
सिवाय तुम्हारी जिन्दगी के
इसे फ्री में बेकार करने से बचना
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दीपक भारतदीप द्धारा
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मैदान पर खेलते हुए
बोलर ने बैट्समैन से कहा ‘बन्दर’
बैट्समैन ने कहा-”तू होगा बन्दर”
दोनों में झगडा हो गया
साथियों ने सुलझाने की कोशिश
पर नहीं रहा उनके बस के अन्दर
अचानक एक खिलाड़ी चिल्लाया
”भागो, देखो आ रहे हैं झुंड बनाकर
जब हम खेल रहे थे
तब कुछ देख रहे थे बन्दर
और अब झुंड बनाकर लड़ने आ रहे हैं
अब हमें नहीं छोडेंगे बन्दर
सब भाग गए वहाँ से
सब बंदरों ने जमा लिया अपना खेल
बेट-बल्ला लेकर खेलने लगे
एक बन्दर ने कहा
”क्या किसी आदमी को अंपायर बना लें
दूसरा बोला
”हमें आदमी की तरह क्रिकेट नहीं खेलना
बेईमानी तो कभी देखी भी नहीं
और वह करता है खूब
उसमें भी कुछ को दिखता नहीं
अंपायरिंग क्या कर पायेंगे
भला क्या हम उनके लिए पहले
आंखों का डाक्टर जुटा पायेंगे
फिर कब खेल पायेंगे
अभी तो मौका मिला है तो खेल लो
हम आदमी नहीं बनेंगे
रहेंगे तो बन्दर”
दीपक भारतदीप द्धारा
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दुनिया से ऊबकर लोग
धर्म के रास्ते जाते
ढूंढते ठिकाने वही
जहाँ तख्तियाँ लगी होती
सर्वशक्तिमान के नाम की
पीछे अधर्म के होते अहाते
अपने अन्दर बैठे शख्स को देख पाते
तो शायद जान पाते
जिन्दगी केवल पाते रहने का नाम नहीं
जिस पर अपने जीवन के सभी पल लुटाते
————————————-
शांति लाने का दावा
——————–
बारूद के ढेर चारों और लगाकर
हर समस्या के इलाज के लिए
नये-नयी चीजें बनाकर
आदमी में लालच का भूत जगाकर
वह करते हैं दुनिया में शांति लाने का दावा
बंद कमरों में मिलते अपने देश की
कुर्सियों पर सजे बुत
चर्चाओं के दौर चलते
प्रस्ताव पारित होते बहुत
पर जंग का कारवाँ भी
चल रहा है फिर भी हर जगह
होती कुछ और
बताते और कुछ वजह
जब सब चीज बिकाऊ है
तो कैसे मिल सकता है
कहीं से मुफ्त में शांति का वादा
बहाने तो बहुत मिल जाते हैं
पर कुछ लोग का व्यवसाय ही है
देना अशांति को बढावा
एक दुकान से खरीदेंगे शांति
दूसरा अपनी बेचने के लिए
जोर-जोर से चिल्लाएगा
फैलेगी फिर अशांति
जब फूल अब मुफ्त नहीं मिलते
तो बंदूक और गोली कैसे
उनके हाथ आते हैं
जहाँ से चूहा भी नहीं निकल सकता आजादी से
वहाँ कोहराम मचाकर
वह कैसे निकल जाते हैं
विकास के लिए बहता दौलत का दरिया
कुछ बूँदें वहाँ भी पहुंचा देता है
जहाँ कहीं शांति का ठेकेदार
कुछ समेट लेता है
जानते सब हैं पर
दुनिया को देते हैं भुलावा
न दें तो कैसे करेंगे शांति लाने का दावा
दीपक भारतदीप द्धारा
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टूटते-बिखरते समाज को
बचाने के लिए जूझते लोग
रिवाजों और रीतियों को निभाकर
अपने लिए सम्मान ढूंढते लोग
चिंताओं में पाल रहे हैं रोग
——————————-
चिंता देती है कई रोगों को जन्म
पर उनसे क्या कहेंगे
जिनको चिंता के साथ जीने की
आदत हो गयी
ज्ञान सब बघारते हैं सभी
‘करने वाला तो करतार है’
पर फिर आ जाता है ख्याल
तो कहते हैं कि
”चिंता तो करनी पड़ती है
वरना हमारे काम कैसे होंगे
हमारी जिन्दगी तो हराम हो गयी’
दीपक भारतदीप द्धारा
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पुराना अभी गया नहीं
और अभी दूर हैं नया साल
सजने लगे हैं लोगों के लिए
पहले से ही काकटेल के थाल
इतनी भी क्या जल्दी है
समझ में नहीं आती
शौकीन लोगों का
समय मुश्किल से निकल रहा है
पुराना भी क्या बुरा, जो चल रहा है
कैलेंडर की बदलती तारीखें
देखने से कोई तसल्ली नहीं होती
अगर दिमाग है अपने से बेहाल
आ रहा है और जा रहा है साल
बरसों से सुनते और देखते रहे
कैलेंडर बदले और बदली तारीखें
पर हालत वही रहे
झूठे आनंद में लोग बहते रहे
नैतिक चरित्र होता गया बदहाल
जब तक दिल में नहीं खुशी
कहीं से नहीं आ सकती
सुख का कोई कुआं नहीं हैं
जहाँ से बाल्टी भरी जा सकती
अगर तेज रोशनी में
शराब पीकर नाचते हुए
असली खुशी मिल जाती
तो दुनिया में भारत की संस्कृति की
तारीफ नहीं हो पाती
इतने गुजर गए साल
अब भी लोग हैं, इस पर निहाल
दीपक भारतदीप द्धारा
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सुन्दर चेहरा
समुन्दर जैसे गहरी ऑंखें
खुशदिल और शिक्षित व्यक्तित्व
की मल्लिका बेनजीर को
किसकी नजर लग गयी
५४ वर्ष में खिला एक
फूल पल भर में मसल डाला
दानव नहीं लगा सकते एक फूल भी
पर बाग़-बाग़ के उजाड़ डालते हैं
इंसानों के भेष में सब इंसान नहीं होते
भला क्या सब यह जानते हैं
भोली भाली एक औरत
मर्दों की राजनीति की बलि चढ़ गयी
हिंसा का खेल कौन रचता है
अपने लिए रखता है आजादी
औरत को गुलाम बनाने के लिए
कई किताबें लिख बचता है
लिखी जायेगी कोई किताब उस पर
फिर कभी किसी आदमी द्वारा
बेनजीर किताब का एक पन्ना बन गई
उसने किया उन लोगों पर भरोसा
जिनके घर के चिराग
भले लोगों के खून से रौशन होते हैं
अपने कफ़न बेचने के लिए
बाजार में कत्लेआम बेचते हैं
धोखे तो हर पल होते हैं यहाँ
बेनजीर भी एक नजीर बन गयी
दीपक भारतदीप द्धारा
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आदमी बड़ा या उसकी माया
दौलत बड़ी की आदमी की काया
हर पल बदलती इस दुनिया में
रूप बदलती है माया
पर ढहती जाती है काया
कभी साइकिल थी अमीर की सवारी
आज हो गई है कार
कभी पैडल मार कर चलते हुए बडे आदमी को
देख रास्ता छोड़ देते थे कि
कहीं टक्कर न मारे साथ में
जड़ दे गाल पर दो हाथ
आज घर से निकलते हैं
भय खाते हुए कि कार चढाकर
न निकल जाये और बना जाये लाश
उन पर तो है काली दौलत की छाया
पर हादसे किसका पीछा छोड़ते हैं
छोटा आदमी तो जमीन का
जमीन पर ही गिरता है
बडों को ऊपर भी नहीं छोड़ती
हादसों की छाया
आदमी करता माया के
चक्कर में छोटे-बडे का भेद
जिन्दगी और मौत ने कभी
यह भेद नहीं दिखाया
———————
जिन्होंने अमीरी के पलने में
आँख खोली है
उन्हें गरीबी में भी सौदर्य का
बोध होता है
और ईर्ष्या होती है
उन्हें बिना सुविधाओं के जिंदा देखकर
जिन्होंने गरीबी ने पाला है
उन्हें शायद इस बात का आभास नहीं होता
कि दौलतमंद के दिल में
उसके दुख के लिए कोई दर्द नहीं
वरन सह नहीं पाते अमीर
उसकी चलती साँसें भी देखकर
———————————————
दीपक भारतदीप द्धारा
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जो हाथ मांगने के लिए उठते हैं
उनके हाथ कुछ तो आ जाता है
पर सम्मान पाने की आशा
उनको नहीं करना चाहिए
जिनकी जुबान का हर शब्द
मांगने में खर्च हो जाता है
———————————–
अपने मन में है बस व्यापार
बाहर ढूंढते हैं प्यार
मन में ख्वाहिश
सोने, चांदी और धन
के हों भण्डार
पर दूसरा करे प्यार
मन की भाषा में हैं लाखों शब्द
पर बोलते हुए जुबान कांपती है
कोई सुनकर खुश हो जाये
अपनी नीयत पहले यह भांपती है
हम पर हो न्यौछावर
पर खुद किसी को न दें सहारा
बस यही होता है विचार
इसलिए वक्त ठहरा लगता है
छोटी मुसीबत बहुत बड़ा कहर लगता है
पहल करना सीख लें
प्यार का पहला शब्द
पहले कहना सीख लें
तो जिन्दगी में आ जाये बहार
—————–
दीपक भारतदीप द्धारा
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बाबू ने एक हाथ में फाईल पकडी
और ब्लोगर की तरफ हाथ बढाया
पहले तो वह समझा नहीं और
जब समझा तो गुस्सा आया
उसने कहा
”तुम मेरी फाइल दो
मैं तुम्हें रिश्वत नहीं दे सकता
मैंने अपनी जिन्दगी में
कभी किसी को रिश्वत न देने का व्रत उठाया’
बाबू ने मूहं से पान की पीक थूकते हुए कहा
‘क्या पगला गए हो
यहाँ क्या धर्मादा खाता खोले बैठें है
नही देते तो जाओ फाईल नहीं है
मैंने भी बिना कुछ लिए
काम न करने का फास्ट उठाया”
दोनों में मूहंवाद हो गया
आसपास के लोगों का झुंड दोनों के
इर्द-गिर्द सिमट आया
उसमें था एक ब्लोगर का एक दोस्त
उसने जब पूरा माजरा समझा
तो ब्लोगर को समझाया
”यार, जब तुम ब्लोग पर कोई
पोस्ट लिखते तो कमेन्ट आती हैं कि नहीं
कोई लिखता है तो तुम उसे देते कि नहीं
ऐसे ही समझ लो
इसकी पोस्ट पर एक कमेन्ट रख दो
पांच सौ का पता ही दे दो
इतने बडे ब्लोगर होकर तुम्हें
लेनदेन का रिवाज समझ में नहीं आया’
ब्लोगर ने दिया पांच सौ का नोट
और फाईल हाथ में लेकर बाबू से हाथ मिलाया
और मोबाइल दिखाते हुए कहा
”धन्यवाद आपका
आपने एक के साथ दूसरा काम भी बनाया
इसम मोबाइल में सब रिकार्ड है
आज पोस्ट कर दूंगा
आपको दी है एक कमेन्ट
सब शाम तक वसूल कर लूंगा
वाह क्या आईडिया अपने आप बन आया’
वह चल पडा तो
दोस्त और वह बाबू पीछे दौडे
बाबू हाथ पांव जोड़ने लगा और पैसे
वापस करते हुए बोला
मैं मर जाऊंगा
आप ऐसा मत करना
यह आपका दोस्त ही दलाल है
इसके कहने पर चलने का मलाल है
आप कुछ मत करना
अपने बच्चों पर है मेरा ही साया’
दोस्त भी तन कर बोला
”नहीं यह धोखा है
तुम ब्लोग लिखते हो कोई
स्टिंग आपरेशन करने का कोई हक़ नहीं है
यार, अगर तुम मुझसे पहले मिलते तो
यह परेशानी नहीं आती.
मेरी दोस्ती की कसम
ऐसा कुछ मत करना
यह प्रपंच तुमने ठीक नहीं रचाया’
ब्लोगर हंस पडा
”चलो तुम्हें माफ़ किया
क्योंकि ब्लोग पर स्टिंग आपरेशन भी
कभी हो सकता है
यह आईडिया तुमने ही दिया”
वहाँ से चल कर उसने मोबाइल को देखा
और कहा
‘पर इसमें फोटो का तो कोई प्रोविजन नहीं है
अड़ जाये तो ब्लोगर भी कम नहीं है
कैसा दोनों का उल्लू बनाया
कैसा जोरदार ख्याल आया’
नोट-यह एक हास्य-व्यंग्य रचना है और किसी घटना या व्यक्ति से इक्सा कोई लेना देना नहीं है और अगर किसे से मेल खा जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार होगा
दीपक भारतदीप द्धारा
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बिजली बंद तो पानी बंद
ब्लोग फिर भी चल रहा है
भले ही उसकी गति हो मंद
पर ब्लोगर खुद बैठा है
कंप्यूटर के बाहर नजरबंद
उसे इन्तजार है कब लाईट आये
तो वह अपने ब्लोग पर जाये
घड़ी चल रही है
पर ब्लोगर की सांस थम रही है
अक्ल काम कर रही है
पर सोच का सिलसिला है बंद
कलम हाथ में
कोरा कागज़ सामने है
पर लिखना फिर भी है बंद
ब्लोगर खुद ही किये बैठा अपनी नजर बंद
————————————-
समस्याएं वैसे भी कम नहीं है
पर बिजली फिर भी निभाती है
कुछ अल्फाज दिल से बाहर
निकल आते हैं
डैने बनकर ब्लोग को कबूतर
की तरह उडा ले जाते हैं
तसल्ली होती हैं कि
हमने भी एक कबूतर उडाया
सब शून्य में घिर जाता है
जब बिजली चली जाती है
————————————
दीपक भारतदीप द्धारा
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प्रेयसी ने प्रियतमा को सुझाया
जब तक मेरा कोर्स पूरा न हो
तब तक ब्लोग बनाकर मजे कर लें
इसमें जब मशहूर हो जायेंगे
तब प्रियतम के माँ-बाप भी
मशहूर बहू को बिना दहेज़ के
लाने को तैयार हो जायेंगे
प्रियतम सोच में पड़ गया
और शहर के एक फ्लॉप ब्लोगर के
घर पहुंचा राय मांगने
सुनते ही उसने कहा
‘पगला गए हो जो ऐसा सोचते हो
क्या इश्क ने तुम्हें बिल्ली बना दिया है
जो ब्लोग का खंभा नोचते हो
तुम नहीं जानते ब्लोग चीज क्या है
कैसे हैं डाक्टर और मरीज क्या हैं
पहले तो चौपालों के लोग
पंजीकरण के लिए तुम्हें
पकड़ कर अपना मेहमान बनायेंगे
खूब लगाएंगे कमेन्ट
फिर भूल जायेंगे
वहाँ पर करते हैं कई बार
शब्दों की लड़ाई में दो-दो हाथ
फिर हो जाते हैं साथ-साथ
मेरी नहीं मानते तो
मेरे दोस्त नारद जी से पूछो
वह तुमेह ब्लोगवाणी सुनाएंगे
चिट्ठाजगत की धक्कमपेल और खींचतान के
किस्से सुनायेगे
हिन्दी ब्लोग भी है अजीब
दोनों को अगर नशा चढ़ गया तो
गजब हो जायेगा
ब्लोग के चक्कर में पड़ गए तो
जो झगडे मियाँ-बीबी में शादी के
बाद होते हैं वह पहले ही शुरू हो जायेंगे
दोस्त अपने माँ-बाप को
समझा लो
लड़कियों की संख्या कम होती जा रही है
कई कुंवारे बिना ब्याह रह जायेंगे
अपने प्रेयसी को भी मना लो
ब्लोगरी की तो तुम्हारे प्रेम प्रसंग के
सारे अध्याय बंद हो जायेंगे
———————————–
नोट-यह काल्पनिक हास्य रचना है किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोई संबंध नहीं है और किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार होंगे.
दीपक भारतदीप द्धारा
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एक ब्लोगर* ने दूसरे से कहा
”यार, तुम उम्मीद करते हो कि
कभी हमारे लिए भी पुरस्कार
घोषित किये जायेंगे’
दूसरे ने कहा
‘ख्याल तो अच्छा है पर
यह भी सोच लो
जब ऐसी संभावना बनी भी
तो अपुन तो बाहर हो जायेंगे
ढेर सारे छद्म ब्लोग आसमान से
जमीन पर उतर आयेंगे
औरों का तो छोडो
अपने ब्लोग के नाम भी हम भूल जायेंगे
और जो इनाम देने वाले होंगे
वह पहले अपने ब्लोगर मैदान में लायेंगे
पढ़ना-पढाना तो हो जायेगा दूर
अभी तो पुरस्कार की संभावना नहीं है
तब यह हाल है और अगर बनी भी तो
ब्लोगर एक दूसरे पर बरसते नजर आयेंगे
————————————————–
*इंटरनेट पर लिखने वाले
नोट-यह एक काल्पनिक हास्य-व्यंग्य रचना है और इसका किसी घटना से कोई लेना देना नहीं है और अगर किसी से मेल खा जाये तो वही उसके लिए जिम्मेदार होगा
दीपक भारतदीप द्धारा
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पेट भरते ही भले लोग
चूल्हे की बुझा देते आग
पर जिनके मन में है
दौलत और शौहरत की आग
वह कभी नहीं बुझती
वह कभी शहर तो कभी ग्राम में
गली और मुहल्ले में भड़काते हैं आग
हर गरीब को खिलाते ख्याली पुलाव
ऐसे रास्ते का पता देते
जिसकी मंजिल कहीं नहीं
बस है इधर से उधर घुमाव
दिन में गाली देते अमीर को
रात को करते हैं जुडाव
चारों और से रंगे हैं
पर उजियाले में नहीं दिखता दाग
अनपढ़ को देते सपनों की किताब
कंगाल को समझाते अमीरी का हिसाब
अपनी ताकत के नशे में झूमते
किसी से नहीं मिलता मिजाज
बाद में बुझाने के लिए जूझते नजर आते
पहले लगाते आग
यह कभी यहाँ जलेगी
कभी वहाँ लगेगी
जब तक आम आदमी में नही जागेगी
चेतना और जागरूकता की आग
तब तक जलती रहेगी यह नफरत की आग
दीपक भारतदीप द्धारा
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रात्रि में चन्दा बिखेरता
अब भी पहले की तरह
शीतल चांदनी
पर उसका आनन्द उठाएँ कौन
दूरदर्शन और कम्प्यूटर से
अपनी आखें लेकर जूझता आदमी
बाहर है प्राकृतिक सौन्दर्य
खङा है मौन
प्रथम किरणों के साथ
जीवन का संदेश देता सूर्य
रात को देर तक सोकर
सुबह देर बिस्तर छोड़ें आदमी
प्रात:काल नमन करे कौन
शीतल और शुद्ध पवन
आवारा फिरती है
वातानुकूलित कमरों में
उसका है प्रवेश वर्जित
सुखद अनुभूति पाए कौन
कई सदियों से शहर के बीच
बहती है नदी की धारा
नालियों से बहकर आती गंदिगी ने
उसकी शुद्ध आत्मा को मारा
अपने शहर में ही हो गया
आदमी अब परदेशी
उसका हमसफ़र बने कौन
प्राणवायु का सर्जन कर
उसे चारों और बिखेर रहा है
बरगद का पेड
जीवंत ह्रदय की प्रतीक्षा में
खड़ा है मौन
जीने की चाह है सभी को
सुख और आनन्द भी मांगें
पर इनका मतलब
समझा पाता कौन
——————-
हरियाली को बेघर कर
पत्थरों के जंगल खडे कर रहा है
जिसे देखो वही
आत्मघाती हमले कर रहा है
हवाओं में खुद ही डालता
विषैली गैसें आदमी
हर कोई जीवन को मौत का
सन्देश दे रहा है
दीपक भारतदीप द्धारा
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जजबातों के साथ जीना अच्छी बात है
पर उन्हें कोई बांधकर
हमारी अक्ल को भी कोई साथ ले जाये
यह मंजूर नहीं करना
अब उस्ताद वैसे नहीं है जो
शागिर्द को सिखा सब दाव सिखा दें
फिक्सिंग का खेल सभी जगह हैं
क्या पता कौन चेला
उस्ताद को स्टिंग आपरेशन में फंसा दे
इसलिए जहाँ तक विज्ञापन में बिक सके
उतना ही नाच नचवाये
तुम दिमाग से देखना
दिल में कुछ मत बसाना
जजबात से शेर-ओ-शायरी करना
पर किसी ड्रामे के सीन पर
न हँसना और न रोना
आदमी के जजबात अब वह शय है
जो बाजार में बिकती है
और उसे पता भी न चल पाए
खुले में होता है व्यापार
पर दिखता नहीं है
क्योंकि जजबात ही हैं जो
आदमी को अक्ल पर ताला लगाए
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दीपक भारतदीप द्धारा
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कभी बनते थे हथियारों के खिलौने
अब हथियार ही खिलौने बनने लगे हैं
अपनी देह को बचाने के लिए
लोग रखने लगे हैं हथियार
इस इलेक्ट्रोनिक युग में
कौन रिवाल्वर को खरीद कर
बच्चों को देता है
अपने लिए ही हथियार को खिलौना समझ लेता है
क्या गलती उस बच्चे की जो
हथियार को खिलौना समझ लेता है
किस-किस से शिकायत करें
सबने अपनी जिन्दगी को ही खेल
समझ लिया है
क्या सिखाएंगे वह अपने बच्चों को
जिन्होंने खुद कुछ नहीं सीखा
क्या जियेगा वह जिन्दगी जो
पत्थर की दीवारों के पीछे
हथियार रखकर
भय को अपना मित्र बनाकर
अपनी सुरक्षा का किला समझ लेता है
हथियार रखने से लोग
बहादुर नहीं हो जाते
जो बहादुर होते वह होते दयालू
इसलिए किसी सी नहीं डरते
जिनके मन में खौफ है
वही क्रूर हो जाते
ओ हथियारों पर भरोसा रखने वालों
तुम खुद भी डरपोक हो और
अपने बच्चों को भी वही विरासत सौंप रहे हो
समझ लो इस बात को कि
डर की कोख में ही ईर्ष्या और क्रूरता का
शैतान जन्म लेता है
दीपक भारतदीप द्धारा
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जिन रास्तों पर चलते हुए
कई बरस बीत गये
पता ही नही लगा कि
कैसे उनके रूप बदलते गए
जहाँ कभी छायादार पेड़ हुआ करते थे
वहाँ लहराता है सिगरेट का धुआं
जहाँ रखीं थीं गुम्टियाँ
वहाँ ऊंची इमारतों के
पाँव जमते गए
जहाँ हुआ करता था उद्यान
वहाँ कचरे के ढेर बढ़ते गये
कहते हैं दुनिया में तरक्की हो रही है
सच यह है कि पतन की तरफ
हम कदम-दर कदम बढ़ते गए
हवा में लटकी
खातों में अटकी
गरीब से दूर भटकी
दौलत अगर तरक्की का प्रतीक है तो
सोचना होगा कि हम पढे-लिखे हैं कि
किताब पढ़ने वाले अनपढ़ बन गए
आंकडों के मायाजाल में
कितनी भी तरक्की दिखा लो
हवाओं को तुम ताजा नहीं कर सकते
पानी को साफ नहीं कर सकते
इलाज के लिए कितनी भी दवाएं बना लो
मरे हुए को जिंदा नही कर सकते
आकाश में खडे होकर तरक्की की
सोचने वाले जमीन के दुश्मन बन गए
दीपक भारतदीप द्धारा
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