Category Archives: कला

दिवाली(दीपावली) का शुभ दिन बीत गया-आलेख (hindi article on diwali festival


होश संभालने के बाद शायद जिंदगी में यह पहली दिवाली थी जिसमें मिठाई नहीं खाई। कभी इसलिये मिठाई नहीं खाते थे कि बस अब दिवाली आयेगी तो जमकर खायेंगे।  हमें मिठाई खाने का शौक शुरु से रहा है और कुछ लोग मानते हैं कि मिठाई के शौकीन झगड़ा कम करते हैं क्योंकि उनकी वाणी में मधुरता आ जाती है। हम भी इस बात को मानते हैं पर वजह दूसरी है। दरअसल अधिक मीठा खाने वाले मोटे हो जाते हैं इसलिये उनके झगड़ा करने की ताकत कम होती है।  अगर कहीं शारीरिक श्रम  की बात आ जाये तो हांफने लगते हैं। हमारे साथ भी यही होता रहा है, अलबत्ता हमने शारीरिक श्रम खूब किया है और साइकिल तो आज भी चलाते हैं।  हां, यह सच है कि मोटे अपने खाने की चिंता अधिक करते हैं क्योंकि उनके खाली पेट में जमा गैस उनको सताने लगती है जिसे हम भूख भी कहते हैं।  इसके बावजूद हम मानते हैं कि मोटे लोग शांतिप्रिय होते हैं-कहने वाले कहते रहें कि डरपोक होते हैं पर यह सच है कि कोई उन पर आसानी से हाथ डालने की भी कोई नहीं सोचता। 
दिवाली के अगली  सुबह बाजार में निकले तो देखा कि  बाजार में मिठाईयां बिक रही थीं। बिकने की जगह देखकर ही मन दुःखी हो रहा था।  इधर हम घर पर ही जब कभी खाने की कोई सामग्री देखने को मिलती है तो उसे हम स्वतः ही प्लेट से ढंकने लगते हैं।  मंगलवार हनुमान जी का प्रसाद ले आये और अगर कभी उसका लिफाफा खुला छूट गया तो फिर हम न तो खाते हैं न किसी को खाने देते हैं।  मालुम है कि आजकल पर्यावरण प्रदूषण की वजह से अनेक प्रकार की खतरनाक गैसें और कीड़े हवा में उड़कर उसे विषाक्त कर देते हैं।  ऐसे में बाजार में खुली जगह पर रखी चीज-जिसके बारे में हमें ही नहीं पता होता कि कितनी देर से खुले में पड़ी है-कैसे खा सकते हैं।  पिछले सात वर्षों से योग साधना करते हुए अब खान पान की तरह अधिक ही ध्यान देने लगे हैं तब जब तक किसी चीज की शुद्धता का विश्वास न हो उसे ग्रहण नहीं करते।  यही कारण है कि बीमार कम ही पड़ते हैं और जब पड़ते हैं तो दवाई नहीं लेते क्योंकि हमें पता होता है कि हम क्या खाने से बीमार हुए हैं? उसका प्रभाव कम होते ही फिर हमारी भी वापसी भी हो जाती है।
बाजार में सस्ती मिठाईयां गंदी जगहों के बिकते देखकर हम सोच रहे थे कि कैसे लोग इसे खा रहे होंगे।  कई जगह डाक्टरों की बंद दुकानें भी दिखीं तब तसल्ली हो जाती थी कि चलो आज इनका अवकाश है कल यह उन लोगों की मदद करेंगी जो इनसे परेशान होंगे।  वैसे मिठाई के भाव देखकर इस बात पर यकीन कम ही था कि वह पूरी तरह से शुद्ध होंगी।
ज्यादा मीठा खाना ठीक नहीं है अगर आप शारीरिक श्रम नहीं करते तो।  शारीरिक श्रम खाने वाले के लिये मीठा हजम करना संभव है मगर इसमें मुश्किल यह है कि उनकी आय अधिक नहीं होती और वह ऐसी सस्ती मिठाई खाने के लिये लालायित होते हैं।  संभवतः सभी बीमार इसलिये नहीं पड़ते क्योंकि उनमें कुछ अधिक परिश्रमी होते हैं और थोड़ा बहुत खराब पदार्थ पचा जाते हैं पर बाकी के लिये वह नुक्सानदेह होता है।  वैसे इस बार अनेक हलवाईयों ने तो खोये की मिठाई बनाई हीं नहीं क्योंकि वह नकली खोए के चक्कर में फंसना नहीं चाहते थे। इसलिये बेसन जैसे दूध न बनने वाले पदार्थ उन्होंने बनाये तो कुछ लोगों ने पहले से ही तय कर रखा था कि जिस प्रकार के मीठे में मिलावट की संभावना है उसे खरीदा ही न जाये।
पटाखों ने पूरी तरह से वातावरण को विषाक्त किया। अब इसका प्रभाव कुछ दिन तो रहेगा।  अलबत्ता एक बात है कि हमने इस बार घर पर पटाखों की दुर्गंध अनुभव नहीं की। कुछ लोगों ने शगुन के लिये पटाखे जलाये पर उनकी मात्रा इतनी नहीं रही कि वह आसपास का वातावरण अधिक प्रदूषित करते। महंगाई का जमाना है फिर अब आज की पीढ़ी-कहीं पुरानी भी- लोग टीवी और कंप्यूटर से चिपक जाती है इसलिये परंपरागत ढंग से दिवाली मनाने का तरीका अब बदल रहा है।
अपनी पुरानी आदत से हम  बाज नहीं आये। घर पर बनी मिठाई का सेवन तो किया साथ ही बाजार से आयी सोहन पपड़ी भी खायी।  अपने पुराने दिनों की याद कभी नहीं भूलते।  अगर हमसे पूछें तो हम एक ही संदेश देंगे कि शारीरिक श्रम को छोटा न समझो। दूसरा जो कर रहा है उसका ख्याल करो।  उपभोग करने से सुख की पूर्ण अनुभूति नहीं होती बल्कि उसे मिल बांटकर खाने में ही मजा है।  इस देश में गरीबी और बेबसी उन लोगों की समस्या तो है जो इसे झेल रहे हैं पर हमें भी उनकी मदद करने के साथ सम्मान करना चाहिए।  ‘समाजवाद’ तो एक नारा भर है हमारे पूरे अध्यात्मिक दर्शन में परोपकार और दया को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है ताकि समाज स्वतः नियंत्रित रहे। यह तभी संभव है जब अधिक धन वाले अल्प धन वालों की मदद बिना प्रचार के करें।  कहते हैं कि दान देते समय लेने वाले से आंखें तक नहीं मिलाना चाहिए।  इसके विपरीत हम देख रहे हैं कि हमारे यहां के नये बुद्धिजीवी डंडे और नियम कें जोर पर ऐसा करना चाहते हैं।  इसके लिये वह राज्य को मध्यस्थ की भूमिका निभाने का आग्रह करते हैं। इसका प्रभाव यह हुआ है कि समाज के धनी वर्ग ने सभी समाज कल्याण अब राज्य का जिम्मा मानकर गरीबों की मदद से मूंह फेर लिया है और हमारे सामाजिक विघटन का यही एक बड़ा कारण है।
खैर, इस दीपावली के निकल जाने पर मौसम में बदलाव आयेगा। सर्दी बढ़ेगी तो हो सकता है कि मौसम बदलने से भी बीमारी का प्रभाव बढ़े।  ऐसे में यह जरूरी है कि सतर्कता बरती जाये।  बदलते मौसम में सावधानी न बरतने से बुखार, खांसी तथा सर दर्द जैसी परेशानियां  आती हैं
इधर ब्लाग पर अनेक टिप्पणीकर्ता लिखते हैं कि आप अपना फोटो क्यों नहीं लगाते? या लिखते हैं कि आप अपना फोन नंबर दीजिये तो कभी आपके शहर आकर आपके दीदार कर ले। हम दोनों से इसलिये बच रहे हैं कि कंप्यूटर पर लिखने की वजह से हमारा पैदल चलने का कार्यक्रम कम हो गया है इसलिये पेट अधिक बाहरं निकल आया है। फोटो भी अच्छा नहीं खिंच रहा।  इसलिये सोचा है कि कल से योगासन का समय बढ़ाकर अपना चेहरा मोहरा ठीक करें तो फोटो खिंचवाकर लगायेंगे और नंबर भी ब्लाग पर लिखेंगे।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://dpkraj.blogspot.com
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उजड़े रिश्ते-हिन्दी शायरी (rishtey-hindi comic poem)


अपनी दर्द भरी बातें
किसी को क्या सुनायें,
रोते लोगों क्या रुलायें,
सभी अपने गम छिपाने के लिये
दूसरों के घावों पर हंसने का
मौका ढूंढ रहे हैं।
अपने साथ हुए हादसों के किस्से
किसको सुनायें,
आखिर लोग उनको मुफ्त में क्यों भुनायें,
अपनी जिंदगी में थके हारे लोग
जज़्बातों के सौदागर बनकर
दूसरों के घरों के उजड़े रिश्तों की कहानी
बेचने के लिये घूम रहे हैं।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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मुखौटे बाजार के-हिन्दी व्यंग्य शायरी कवितायें (mukhaute bazar ke-hindi hasya kavita)


आदर्श पुरुषों ने अपनी दरबार में
देशभक्ति का नारा बड़े तामझाम के साथ सजाया।
बाजार को बेचनी थी मोमबत्तियों
शहीदों के नाम पर,
इसलिये प्रचारकों से नारे को संगीत देने के लिये
शोक संगीत भी बजवाया।
भेजे आदर्श पुरुषों के नाम से
रुपयों से भरे लिफाफे
जिनकी समाज सेवा से आम इंसान हमेशा कांपे
दिल में न था भाव फिर भी
आदर्श पुरुषों के खौफ से
सभी ने देशभक्ति का गीत गाया।
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उनकी देशभक्ति की दुहाई,
कभी नहीं सुहाई,
मुखौटे हैं वह बाजार के सौदागरों के
जो जज़्बात बेचने आते हैं,
उनकी जुबां कभी बोलती नहीं
पर पर्दे के पीछे
वही संवाद लिखकर लाते हैं,

खरीदे देशभक्तों ने बस उनकी बात हमेशा दोहराई।
इंसान की हर दाद मिलती है,

पर सच बोलने पर कोई इनाम नहीं होता।

कितना भी हो जाये कोई अमीर,

पीछा नहीं छोड़ता उसका जमीर,

कैसे दे सकते हैं इनाम, उस शख्स को

बोलता है हमेशा सच जो,

खड़ी है दौलत की इमारत उनकी झूठ पर

चाटुकारों को लेते हैं, अपनी बाहों में भर

क्योंकि सच बोलने वालो से उनका काम नहीं होता।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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बेईमानी से बढ़ता कद-हिन्दी व्यंग्य शायरी (baimani aur kad-hindi comic poem)


कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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कान में लगाये मोबाइल पर

ऊंची आवाज में बतियाते

पांव उठाता सीना तानकर

आंखों से बहती कुटिल मुस्कराहट

वह अभिमान से चला जा रहा है।

लोगों ने बताया

‘अपनी बेईमानी से कभी लाचार

वह भाग रहा था जमाने से

गिड़गिड़ाता तथा छोटे इंसानों के सामने भी

अब मिल गया है उसे लोगों के भला करने का काम

उसकी कमाई से उसका कद बढ़ता जा रहा है।

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भगवान के भजन को व्यवसाय की तरह न करें-हिन्दू धर्म संदेश (bhagvan ke bhjan ko vyapar n samjhen)


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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कि वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रेर्महाविस्तजैः स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।
मुक्त्वैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानलं स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषाः वणिगवृत्तयं:।।

हिंदी में भावार्थ- वेद, स्मुतियों और पुराणों का पढ़ने और किसी स्वर्ग नाम के गांव में निवास पाने के लिए  कर्मकांडों को निर्वाह करने से भ्रम पैदा होता है। जो परमात्मा संसार के दुःख और तनाव से मुक्ति दिला सकता है उसका स्मरण और भजन करना ही एकमात्र उपाय है शेष तो मनुष्य की व्यापारी बुद्धि का परिचायक है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने जीवन यापन के लिये व्यापार करते हुए इतना व्यापारिक बुद्धि वाला हो जाता है कि वह भक्ति और भजन में भी सौदेबाजी करने लगता है और इसी कारण ही कर्मकांडों के मायाजाल में फंसता जाता है। कहा जाता है कि श्रीगीता चारों वेदों का सार संग्रह है और उसमें स्वर्ग में प्रीति उत्पन्न करने वाले वेद वाक्यों से दूर रहने का संदेश इसलिये ही दिया गया है कि लोग कर्मकांडों से लौकिक और परलौकिक सुख पाने के मोह में निष्काम भक्ति न भूल जायें।

वेद, पुराण और उपनिषद में विशाल ज्ञान संग्रह है और उनके अध्ययन करने से मतिभ्रम हो जाता है। यही कारण है कि सामान्य लोग अपने सांसरिक और परलौकिक हित के लिये एक नहीं अनेक उपाय करने लगते हंै। कथित ज्ञानी लोग उसकी कमजोर मानसिकता का लाभ उठाते हुए उससे अनेक प्रकार के यज्ञ और हवन कराने के साथ ही अपने लिये दान दक्षिणा वसूल करते हैं। दान के नाम किसी अन्य सुपात्र को देने की बजाय अपन ही हाथ उनके आगे बढ़ाते हैं। भक्त भी बौद्धिक भंवरजाल में फंसकर उनकी बात मानता चला जाता है। ऐसे कर्मकांडों का निर्वाह कर भक्त यह भ्रम पाल लेता है कि उसने अपना स्वर्ग के लिये टिकट आरक्षित करवा लिया।

यही कारण है कि कि सच्चे संत मनुष्य को निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया करने के लिये प्रेरित करते हैं। भ्रमजाल में फंसकर की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। इसके विपरीत तनाव बढ़ता है। जब किसी यज्ञ या हवन से सांसरिक काम नहीं बनता तो मन में निराशा और क्रोध का भाव पैदा होता है जो कि शरीर के लिये हानिकारक होता है। जिस तरह किसी व्यापारी को हानि होने पर गुस्सा आता है वैसे ही भक्त को कर्मकांडों से लाभ नहीं होता तो उसका मन भक्ति और भजन से विरक्त हो जाता है। इसलिये भक्ति, भजन और साधना में वणिक बुद्धि का त्याग कर देना चाहिये। भक्त  करते समय इस बात का विचार नहीं करना चाहिए कि कोई स्वर्ग का टिकट आरक्षित करवा रहे है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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मानवाधिकार-व्यंग्य आलेख (manvadhikar-vyanyga chittan)


वर्तमान भौतिकवादी युग में यह मानना ही बेवकूफी है कि कोई बिना मतलब के जनसेवा करता है। अगर लाभ न हो तो आदमी अपने रिश्तेदार को पानी के लिये भी नहीं पूछता। वैसे यह मानवीय प्रवृत्ति पुराने समय से है कि बिना मतलब के कोई किसी का काम नहीं करता पर आजकल के समय में कुछ कथित समाज सेवक देखकर यह साफ लगता है कि वह अप्रत्यक्ष रूप से लाभ लिये बिना काम नहीं कर रहे हैं । यही स्थिति मानवाधिकार के लिये काम करने वाले लोगों और उनके संगठनों के बारे में देखी जा सकती है। हम तो सीधी बात कहें कि जब हम किसी को जनकल्याण, मानवाधिकार या किसी अन्य सार्वजनिक अभियान चलाते हुए देखते हैं तो उसके उद्ददेश्य से अधिक इस बात को जानने का प्रयास करते हैं कि वह उसके पीछे कौनसा अपना हित साध कहा है।
आतंकवाद के बारे में कुछ विशेषज्ञों का स्पष्टतः मानना है कि यह एक उद्योग है जिसके सहारे अनेक दो नंबरी व्यवसाय चलते हैं। आंकड़े इस बात का प्रमाण है कि जहां आतंकवाद दृष्टिगोचर होता है वहीं दो नंबर का व्यापार अधिक रहता है। आतंकवाद को उद्योग इसलिये कहा क्योंकि किसी नवीन वस्तु का निर्माण करने वाला स्थान ही उद्योग कहा जाता है और आतंकवाद में एक इंसान को हैवान बनाने का काम होता है। इसी आतंकवाद या हिंसा का सहायक व्यापार मानवाधिकार कार्यक्रम लगता है। नित अखबार और समाचार पत्र पढ़ते हुए कई प्रश्न कुछ लोगों के दिमाग में घुमड़ते हैं। इसका जवाब इधर उधर ढूंढते हैं पर कहीं नहीं मिलता। जवाब तो तब मिले जब वैसे सवाल कोई उठाये। कहने का तात्पर्य यह है सवाल करने वालों का भी टोटा है।
बहरहाल एक बड़ा उद्योग या व्यवसाय अनेक सहायक व्यवसायों का भी पोषक होता है। मान लीजिये कहीं कपड़े के नये बाजार का निर्माण होता है तो उसके सहारे वहां चाय और नाश्ते की दुकानें खुल जाती हैं। वजह यह है कि कपड़े का बाजार है पर वहां रहने वाले दुकानदार और आगंतुकों के लिये खाने पीने की व्यवस्था जरूरी है। इस तरह कपड़े का मुख्य स्थान होते हुए भी वहां अन्य सहायक व्यवसाय स्थापित हो जाते हैं। कहीं अगर बुनकरी का काम होता है तो उसके पास ही दर्जी और रंगरेज की दुकानें भी खुल जाती हैं। यही स्थिति शायद आतंकवाद के उद्योग के साथ है। जहां इसका प्रभाव बढ़ता है वहीं मानवाधिकार कार्यकर्ता अधिक सक्रिय हो जाते हैं। उनकी यह बात हमें बकवाद लगती है कि वह केवल स्व प्रेरणा की वजह से यह काम कर रहे हैं। यह ऐसे ही जैसे कपड़े की बाजार के पास कोई चाय की दुकान खोले और कहे कि ‘मैं तो यहां आने वाले व्यापारियों की सेवा करने आया हूं।’
ऐसे अनेक निष्पक्ष विशेषज्ञ हैं जो भले ही साफ न कहते हों पर विश्व भर में फैले आतंकवाद के पीछे काम कर रहे आर्थिक तत्वों का रहस्ययोद्घाटन करते हैं पर वह समाचार पत्रों में अंदर के कालम में छपते हैं और फिर उन पर कोई अधिक नहीं लिखता क्योंकि विश्व भर में बुद्धिजीवियों को तो जाति, भाषा, धर्म, और क्षेत्र के नाम पर फैल रहे आतंकवाद की सच्चाई पर ध्यान देने की बजाय उसके कथित विषयों पर अनवरत बहस करनी होती है। अगर वह इस सच को एक बार मान लेंगे कि इसके पीछे दो नंबर का धंधा चलाने वाले किसी न किसी रूप से अपना आर्थिक सहयोग इसलिये देते हैं ताकि प्रशासन का ध्यान बंटे और उनका काम चलते रहे, तो फिर उनके लिये बहस की गुंजायश ही कहां बचेगी? फिर मानवाधिकार कार्यकताओं का काम भी कहां बचेगा, जिसके सहारे अनेक लोग मुफ्त का खाते हैं बल्कि प्रचार माध्यमों को अपने कार्यक्रमों की जगह भरने के लिये अपने शब्द और चेहरा भी प्रस्तुत करते हैं।
शक की पूरी गुंजायश है और यह टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में छपी सामग्री पर थोड़ा भी चिंतन करें तो वह पुख्ता भी हो जाता है। यहां यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। ऐसा कोई भी गांव या शहर नहीं है जो इससे मुक्त हो। अलबत्ता घटना केवल उन्हीं जगहों की सामने आती हैं जिनको प्रचार माध्यम इन्हीं मानवाधिकार कार्यकताओं के सहारे प्राप्त करते हैं।
आप जरा ध्यान से अखबार पढ़ें कि भारत के मध्य क्षेत्र में ऐसे अनेक एनकांउटर होते हैं जिनमें किसी कुख्यात अपराधी को मार दिया जाता है। उस पर उसके परिवार वाले विरोध भी जताते हैं पर वहां कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता या संगठन सक्रिय नहीं होता क्योंकि इसके लिये उनको कोई प्रायोजक नहीं मिलता। प्रायोजक तो वहीं मिलेगा जहां से आय अच्छी होती हो। सीमावर्ती क्षेत्रों से तस्करी और घुसपैठ को लेकर अनेक संगठन कमाई करते हैं और इसलिये वहां आतंकवादियों की सक्रियता भी रहती है। इसलिये वहां सुरक्षाबलों से उनकी मुठभेड भी होती है जिसमें लोग मारे जाते हैं। मानवाधिकर कार्यकर्ता वहां एकदम सक्रिय रहते हैं। उनकी सक्रियता पर कोई आपत्ति नहीं है पर मध्य क्षेत्र में उनकी निष्क्रियता संदेह पैदा करती है। पूर्वी क्षेत्र को लेकर इस समय हलचल मची हुई है। हिंसक तत्व वहां की प्राकृत्तिक संपदा का दोहन करने का आरोप लगाते हुए सक्रिय हैं। वह अनेक बार अनेक सामान्य सशस्त्र कर्मियों को मार देते हैं पर इन हिंसक तत्वों में कोई मरता है तो मानवाधिकार कार्यकर्ता उसका नाम लेकर चिल्लाते हैं। सवाल यह है कि क्या यह मानवाधिकार कार्यकर्ता यह मानते हैं कि सामान्य सुरक्षा अधिकारी या कर्मचारी का तो काम ही मरना है। उसका तो कोई परिवार ही नहीं है। उसके लिये यह कभी आंसु नहीं बहाते।
कुछ निष्पक्ष विशेषज्ञ साफ कहते हैं कि अगर कहीं संसाधनों के वितरण को लेकर हिंसा हो रही है तो वह इसलिये नहीं कि आम आदमी तक उसका हिस्सा नहीं पहुंच रहा बल्कि यह कि उसका कुछ हिस्सा हिंसक तत्व स्वयं अपने लिये चाहते हैं। इसके अलावा यह हिंसक तत्व आर्थिक क्षेत्र की आपसी प्रतिस्पर्धा में एक दूसरे को निपटाने के काम भी आते हैं
इसके बाद भी एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कुछ लोगों ने तो बड़ी बेशर्मी से खास जाति, भाषा और धर्म के समूह पकड़ कर उनके मानवाधिकारों के हनन का प्रचार कर रखा है। इसमें भी उनका स्वार्थ दिखाई देता है। इनमें अगर जातीय या भाषाई समूह हैं तो उनका धरती क्षेत्र ऐसा है जो धन की दृष्टि से उपजाऊ और धार्मिक है तो उसके लिये कहीं किसी संस्था से उनको अप्रत्यक्ष रूप से पैसा मिलता है-उनकी गतिविधियां यही संदेह पैदा करती हैं। इधर फिर कुछ ऐसे देश अधिक धनवान हैं जो धर्म पर आधारित शासन चलाते हैं और उनके शासनध्यक्षों से कृपा पाने के लिये कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता उनके धर्म की पूरे विश्व में बजा रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यह मानवाधिकार कार्यक्रम चलाने वाले जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र की दृष्टि से बंटे समाज में ऐसे छिद्र ढूंढते हैं जिनको बंद करने का प्रयास सुधारक करते हैं।
अखबार में एक नहीं अनेक ऐसी खबरें छपती हैं जिनमें मानवाधिकार हनन का मामला साफ बनता है पर वहां कार्यकर्ता लापता होते हैं। कल एक ब्लाग में पढ़ने को मिला जिसमें बताया कि सरकार ने धारा 498-ए के तहत मामले छानबीन के बाद दर्ज करने का आदेश जारी किया है क्योंकि पाया गया कि इसमें फर्जी मामले दर्ज हुए और शिकायत में ढेर सारे नाम थे पर छानबीन के बाद जांच एजेंसियों ने पैसा खाकर कुछ लोगों को छोड़ा। इतना ही नहीं कई में तो शिकायत ही झूठी पायी गयी। इससे अनेक लोगों को परेशानी हुई। इस तरह के कानून से हमारे भारतीय समाज के कितने लोगों को परेशानी झेलनी पड़ी है इस पर कथित रूप से कोई मानवाधिकार संगठन कभी कुछ नहीं बोला। सरकार ने स्वयं ही यह काम किया। यह कैसे मान लें कि सरकार समाज का दर्द नहीं जानती। मानवाधिकार कार्यकर्ता तो केवल चिल्लाते हैं पर सरकार अपना काम करती है,यह इसका प्रमाण है
सच तो हम नहीं जानते। अखबार और टीवी के समाचारों के पीछे अपने चिंत्तन के घोड़े दौड़ाते है-हमारे गुरु जी का भी यही संदेश है- तब यही सवाल हमारे दिमाग में आते हैं। दूसरा हमारा फार्मूला यह है कि आज कल कोई भी आदमी बिना स्वार्थ के समाज सेवा नहीं करता। फिर उनके चेहरे भी बताते हैं कि वह कितने निस्वार्थी होंगे। हम ब्रह्मा तो हैं नहीं कि सब जानते हों। हो सकता है कि हमारी सोच में ही कमी हो। एक आम लेखक के रूप में यही अभिव्यक्ति दिखी, व्यक्त कर दी।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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रावण ने राम का नाम जपा-हास्य व्यंग्य कविता (mukh men ram, pas me ravan-hasya vyangya kavita)


सुनते हैं मरते समय
रावण ने राम का नाम जपा
इसलिये पुण्य कमाने के साथ
स्वर्ग और अमरत्व का वरदान पाया।
उसके भक्त भी लेते
राम का नाम पुण्य कमाने के वास्ते,
हृदय में तो बसा है सभी के
सुंदर नारियों को पाने का सपना
चाहते सभी मायावी हो महल अपना
चलते दौलत के साथ शौहरत पाने के रास्ते,
मुख से लेते राम का नाम
हृदय में रावण का वैभव बसता
बगल में चलता उसका साया।
…………………….
गरीब और लाचार से
हमदर्दी तो सभी दिखाते हैं
इसलिये ही बनवासी राम भी
सभी को भाते हैं।
उनके नायक होने के गीत गाते हैं।
पर वैभव रावण जैसा हो
इसलिये उसकी राह पर भी जाते हैं।

………………………………
पूरा जमाना बस यही चाहे
दूसरे की बेटी सीता जैसी हो
जो राजपाट पति के साथ छोड़कर वन को जाये।
मगर अपनी बेटी कैकयी की तरह राज करे
चाहे दुनियां इधर से उधर हो जाये।
सीता का चरित्र सभी गाते
बहू ऐसी हो हर कोई यही समझाये
पर बेटी को राज करने के गुर भी
हर कोई बताये।
………………..

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अंतर्जाल पर कौन कितना सफल है यह तो कहना कठिन है क्योंकि यहां अनेक तरह के फर्जीवाड़े हैं जिनको समझना एक कठिन काम है। चाहे किसी भी भाषा के ब्लाग हैं उनको लेकर अनेक तरह के भ्रम बने ही रहते हैं। अनेक दिलचस्प बातें सामने आती हैं। लोग तमाम तरह की वेबसाईटों पर अपने ब्लाग की रेटिंग दिखाकर अपने को सबसे सफल ब्लाग या वेबसाईट लेखक होने का दावा भी करते हैं। अनेक लोगों को तो यह लगता है कि हम तो अच्छा लिख नहीं रहे इसलिये सफल नहीं है।
अनेक समझदार ब्लाग लेखक ऐसी बातें लिख जाते हैं उनके आशय कुछ भी लिये जा सकते हैं। अभी कुछ दिनों पहले एक समाचार था कि अंतर्जाल पर लिखे जा रहे ब्लागों को एक ही आदमी पढ़ता है। इसका आशय यह भी हो सकता है कि लेखक स्वयं ही पढ़ता है या यह भी हो सकता है कि जिन वेबसाईटों पर ब्लाग बने हैं वहीं से उनकी सामग्री देखी जा सकती है या कहीं उनके द्वारा कुछ लोग इसके लिये नियुक्त हैं जिन्हें रोज ब्लाग पर व्यूज भेजने के लिये रखा गया है।
एक कमाने वाले ब्लाग लेखक ने लिखा था कि ‘हजारों ऐसे पाठक लेकर क्या करूंगा जिनसे मुझे एक पैसा भी न मिले। मुझे तो दस ऐसे ही पाठक काफी हैं जो मेरे विज्ञापनों से मुझे आय अर्जित करायें।’
अब सच क्या है कोई नहीं जानता। अलबत्ता इतना तय है कि अनेक तरह के फर्जीवाड़े संभावित हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि कौन कितना सफल है? यह बात केवल ब्लाग लेखकों तक नहीं बड़ी बड़ी वेबसाईटों पर भी लागू होती है। अलबत्ता आॅनलाईन से जनता का काम करने वाली व्यवसायिक वेबसाईटें जरूर अधिक देखी जाती हैं पर वह सफलता और असफलता के दायरे से बाहर हैं। संभव है कोई ऐसा ब्लाग या वेबसाईट लेखक हो जिसको एक हजार पाठक रोज देखते हों और वह कमाता भी हो तो उसे सफल मान लिया जाये और जिसे सौ पाठक देखते हों और वह न कमाता हो उसे असफल मान लिया जाये। इसमें एक पैंच ही फंसता है कि जिसके पास सौ पाठक हों संभव है वह पूरी तरह से सौ हों और जिसके पास हजार हों उसके लिये केवल बीस ही सक्रिय हों। जो ब्लागर कमा रहे हैं उनकी इस बात के लिये प्रशंसा करना चाहिए कि वह आय अर्जित करने का गुर सीख गये हैं और नये लोगों को उनसे प्रेरणा भी लेना चाहिए। मुश्किल यह है कि जिनके लिये अंगूर खट्टे हैं वह कैसे संतोष करें। न पैसा मिले न प्रतिष्ठा उनके लिये क्या है यहां पर? ऐसे में उनके पास एक ही चारा है कि वह अपने पास ऐसे कांउटर लगायें जिससे पता लगे कि उनको कितने लोग पढ़ रहे हैं और कहीं मित्र लोग ही तो केवल फर्जी व्यूज नहीं दे रहे क्योंकि सफलता का भ्रम तो असफलता से भी अधिक बुरा होता है।
इधर हमने शिनी का स्टेट कांउटर लगाकर देखा। यह कांउटर केवल वर्डप्रेस के ब्लाग पर लगाया यह देखने के लिये कि आखिर देखें तो सही कि हमारे ब्लाग किस दिशा में जा रहे हैं। इस कांउटर के साथ अच्छी बात यह है कि इसने ब्लाग के वर्गीकरण कर दिये हैं। पंजीकृत समझ में अधिक नहीं आया पर जो उचित लगा वह वर्ग ले लिया। इसमें मनोरंजन और साहित्य के अलग अलग वर्ग लिये।
इसका अवलोकन करने के बाद करने पर पता चला कि अंग्रेजी के ब्लागों पर भी अब हिंदी ब्लाग की बढ़त बन सकती है। इतना ही नहीं यौन सामग्री से सुसंज्जित सामग्री के मुकाबले भी साहित्य का स्थान बन सकता है। इस कांउटर पर अभी अन्य ब्लाग अधिक पंजीकृत नहीं है इसलिये यह कहना कठिन है कि उनके मुकाबले इस लेखक के ब्लाग का क्या स्तर है? अलबत्ता प्रारंभ में ही हिंदी ब्लागों को पचास में 10 से 13 तक अंक और समाज में ई पत्रिका और दीपक बापू कहिन को साहित्य वर्ग मे 22, 23 स्थान मिलना अच्छा संकेत है। वैसे हिंदी पत्रिका को मनोरंजन के अन्य वर्ग में 82 वां स्थान मिला है पर वहां उसके सामने अंग्रेजी ब्लाग हैं जो शायद अधिक पढ़े जाते है। यह ब्लाग दो दिन पहले तक 92 वें स्थान पर था। यह आंकड़े ऊपर नीचे होंगे। यह कोई बड़ी सफलता का प्रमाण भी नहीं है पर इससे एक बात साफ है कि अंतर्जाल पर हिंदी की पाठक संख्या ठीक ठाक है और भविष्य में हिंदी ब्लाग अंग्रेजी को जरूर चुनौती देंगे। वैसे ब्लाग स्पाट के ब्लाग की सफलता का सबसे अच्छा आंकलन गूगल विश्लेषण प्रस्तुत करता है जिसका दावा है कि वह आपको फर्जी व्यूज से भ्रमित होने से बचाता है। इसके बावजूद अन्य वेबसाईटों पर भी ब्लाग की स्थिति देखी जा सकती है पर उनके साफ्टवेयरों पर अनेक लोग संदेह जाहिर करते हैं। अलबत्ता शिनी ने जो अलग वर्ग बनाये हैं वह एक अच्छी बात है। हमने यह कांउटर एक किसी हिंदी ब्लाग लेखक के ब्लाग से दो सप्ताह पहले ही लिया था पर यह पता नहीं वह किस श्रेणी में पंजीकृत हैं क्योंकि हमने अपनी श्रेणियों में उनको देखने का प्रयास किया था पर दिखाई नहीं दिया। यहां यह भी याद रखने लायक है कि अनेक वेबसाईटें ऐसी हैं जो वहां पंजीकरण कराने पर रैकिंग देती हैं इसलिये उनको लेकर अपना यह दावा करना ठीक नहीं लगता कि हम सफल हैं, क्योंकि संभव है कि अन्य अपंजीकृत ब्लाग हमसे भी श्रेष्ठ हो सकते हैं।

हां, एक मजेदार बात सामने आई। कहा जाता है कि अधिकतर ब्लाग को एक आदमी पढ़ता है। लेखक समेत हम दो मान लें तो सफलता का एक पैमाना यह भी होता है कि आपके ब्लाग को तीसरा आदमी भी पढ़ता दिखे। इस काउंटर पर हमने अपने ब्लाग पर आनलाईन पाठक की संख्या पांच से सात तक देखी है। इसका आशय यह है कि हमारे ब्लाग उस दायरे से तो बाहर निकल गये हैं जो उसे एक या दो पाठक तक ही सीमित रहते हैं।
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दीवारों के पीछे से प्रहार-व्यंग्य कविताएं (deevar ke piche se prahar-vyangya kavitaen)


चेहरे पर रोज नया मुखौटा लगाकर
वह सामने चले आते
उनकी बहादुरी पर क्या भरोसा करें
जो अपने पहचाने जाने का खौफ
हमेशा अपने साथ लाते।
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दीवारों के पीछे छिपकर
वह पत्थर हम पर उछालते हैं
भीड़ हंसती है
हम भी बदले का इरादा पालते हैं।
दीवारों के पीछे हम नहीं जा सकते
अपनी पहचान छिपाते
डर के साये में जीते वह लोग
मर मर कर जीते होंगे
अपने ही प्रति प्रहार वापस हमारी तरफ लौट आयें
जमाने को मुफ्त में फिर क्यों हंसायें
यही सोचकर चुप रह जाते हैं।

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विदुर नीति- दुष्ट की सलाह पर व्यक्ति चले तो उससे दूर रहें (vidur niti-raja aur dusht ki salah)


न निह्यवं मन्त्र गचछेत संसृष्टमन्त्रस्य कुसंगतस्य।
न च ब्रूयात्रश्वसिमि त्वयीति संकारणं व्यपदेशं तु कुर्यात्
हिंदी में भावार्थ-
जब कहीं भरी सभा में राजा-वर्तमान संदर्भ में कहें तो अपने से शक्तिशाली व्यक्ति-दुष्ट सलाहकारों से सलाह ले रहा है तब उसकी किसी बात का खंडन नहीं करना चाहिये। साथ ही वहां उसके प्रति किसी प्रकार का अविश्वास भी नहीं प्रकाट करना चाहिये।

न विश्वासाज्जातु परस्य गेहे गच्छेन्नरश्चेतवानो विकालो।
न चत्वरे निशि तिष्ठिन्न्गिुडो राजकाययां योषितं प्रार्थचीत।।
हिंदी में भावार्थ-
सावधानी की दृष्टि से कभी भी किसी ऐसे व्यक्ति के घर सायंकाल नहीं जाना चाहिये जिस पर विश्वास न हो। रात में छिपकर चैराहे पर न खड़ा हो और राजा-वर्तमान संदर्भ में हम उसे अपने से शक्तिशाली व्यक्ति भी कह सकते हैं-जिस स्त्री को पाना चाहता है उसे पाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में सावधानी से चलना बहुत आवश्यक है। अगर हम अपने आसपास ऐसे लोगों को देखें जिन्होंने धोखा खाकर कष्ट उठाया या जीवन से हाथ धोया है तो उनकी स्वयं की असावधानी का परिणाम होता है। ऐसे में जीवन में कुछ सावधानी रखकर अगर आनंद उठाया जा सकता है तो उसमें कोई दोष नहीं है। जिस व्यक्ति के प्रति मन में अविश्वास हो उसके घर शाम को कतई नहीं जाना चाहिये। हमारे जीवन में कई ऐसे लोग हैं जिनके साथ हमारा सतत संपर्क रहता है पर हम उन पर विश्वास नहीं करते ऐसे लोगों के घर जाने पर ऐसी सावधानी जरूरी है।
उसी तरह कहीं ऐसी सभा हो रही हो जहां अपने से शक्तिशाली व्यक्ति मौजूद हो और वह मूर्ख तथा दुष्ट प्रकृत्ति के लोगों से सलाह ले रहा हो तो उसका प्रतिवाद नहीं करना चाहिये। शक्तिशाली व्यक्ति से तो हम वैसे ही लड़ सकते पर अगर दुष्ट अपने प्रतिवाद से उत्तेजित हो गया तो प्रहार भी कर सकता है और अपमान भी। शक्तिशाली व्यक्तियों को चाटुकारिता बहुत पंसद होती है और वह अपने चाटुकारों की रक्षा के लिये किसी भी सज्जन व्यक्ति पर शारीरिक या शाब्दिक आक्रमण कर सकते हैं।
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मुर्दाखानों में रौशनी की तलाश-हिंदी साहित्य कविता (The search of light of life in dead mines – Hindi literature, poetry)


जमींदौज या राख हो चुके इंसानों के
राहों पर छपे कदमों को चूम कर
उसके निशान जमाने को दिखाते हैं।
गुजरते समय के साथ
बदलते जमाने को अपने ही
नजरिये से चलाने की कोशिश करते
वह लोग
मुर्दाखानों में जिंदगी की रौशनी जलाते हैं।
जितनी जिंदगियां चलती हैं
उतनी ही कहानियां पलती हैं
इस रंगबिरंगी दुनियां में
बस एक सूरज की रौशनी ही जलती है
बाकी चिराग तो
उधार पर अपना काम निभाते हैं।
हर चैहरे पर नाक और कान अलग अलग
सभी के अलग हैं शरीर
सबकी अपनी तकदीर और तब्दीर
पैरों और हाथों के निशान एक नहीं होते
यह सच जानने और समझने वाले ही
जिंदगी में अमन से रह पाते हैं।

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सविता भाभी ने किया सच का सामना-हिन्दी हास्य कविता (savita bhabhi ne kiya sach ka samana-hasya kavita)


नाम कुछ दूसरा था पर
नायिका सविता भाभी रखकर वह
सच का सामना प्रतियागिता में पहुंची
और एक करोड़ कमाया।
प्रतिबंधित वेबसाईट की कल्पित नायिका को
अपने में असली दर्शाया।
यह देखकर उसका रचयिता
छद्म नाम लेखक कसमसाया।
पीसने लगा दांत
भींचने लगा मुट्ठी और
गुस्से में आकर एक जाम बनाया।
पास में बैठे दूसरे
पियक्कड़ ब्लाग लेखक से बोला
‘‘यार, कैसी है यह अंतर्जाल की माया।
अपनी नायिका तो कल्पित थी
यह असल रूप किसने बनाया।
हम जितना कमाने की सोच न सके
उससे ज्यादा इसने कमाया।
हमने इतनी मेहनत की
पर टुकड़ों के अलावा कुछ हाथ नहीं आया।’

दूसरे पियक्कड़ ब्लाग लेखक ने
अपने मेहमान के पैग का हक
अदा करते हुए उसे समझाया
‘यार, अच्छा होता हम असल नाम से लिखते
अपने कल्पित पात्र के मालिक तो दिखते
हम तो सोचते थे कि
यौन विषय पर लिखना बुरा काम है
पर देखो हमारे से प्रेरणा ले गये
यह टीवी चैनल
कर दिया सच का सामना का प्रसारण
जिसमें ऐसी वैसी बातें होती खुलेआम हैं
हम तो हिंदी भाषा के लिये रास्ता बना रहे थे
यह हिंदी टीवी चैनल अंग्रेजी का खा रहे थे
हमारी हिंदी की कल्पित पात्र
सविता भाभी को असली बताकर
अपना कार्यक्रम उन्होंने सजाया,
पर हम भी कुछ नहीं कर सकते
क्योंकि अपना नाम छद्म बताया।
जब लग गया प्रतिबंध तो
हम ही नहीं गये उसे रोकने तो
कोई दूसरा भी साथ न आया।
हमारी कल्पित नायिका ने
हमको नहीं दिया कमाकर जितना
उससे ज्यादा टीवी चैनल वालों ने कमाया।
यह टीवी वाले उस्ताद है
ख्यालों को सच बनाते
और सच को छिपाते
नकली को असली बताने की
जानते हैं कला
इसलिये सविता भाभी का भी पकड़ लिया गला
अपने हाथ तो बस अपना छद्म नाम आया।

…………………………
नोट-यह हास्य कविता एक काल्पनिक रचना है और किसी भी घटना या व्यक्ति से इसका लेनादेना नहीं है। अगर संयोग से किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।
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दिल का दिमाग से रिश्ता-हिंदी कविता (dil aur dimag-hindi sahityak kavita)


दिल में कुछ
दिमाग में कुछ
जुबां से दूसरे बोल ही निकल आते हैं।
दिल का दिमाग से
दिमाग का जुबां से रिश्ता
भला कितने लोग जान पाते हैं।
दूसरों से संवाद क्या करेंगे
अपने ही भाव नहीं पढ़ पाते हैं।
……………….
अर्थहीन शब्द
औपचारिक संवाद
सुनने की आदत हो गयी है।
दोस्ती और रिश्तों की भीड़ में
आत्मीयता ढूंढती थक चुकीं
मन की आंखें, अब सो गयी हैं।

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दोनों तूफान में फंसे थे-हिंदी कविता(rishton men tufan-hindi poem)


हम दोनों तूफान में फंसे थे
उनको सोने की दीवारों का
सहारा मिला
हम ताश के पतों की तरह ढह गये।

अब गुजरते हैं जब उस राह से
यादें सामने आ जाती हैं
कभी अपनो की तरह देखने वाली आंखें
परायों की तरह ताकती हैं
रिश्ते समय की धारा में यूं ही बह गये।
जुबां से निकलते नहीं शब्द उनके
पर इशारे हमेशा बहुत कुछ कह गये।

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नकली खून और डाक्टर-हास्य व्यंग्य (nakle khoon aur dactor-hindi hasya vyangya)


डाक्टर साहब बाहर ही मिल गये। उस समय वह एक किराने वाले से सामान खरीद रहे थे और हम पहले लेचुके सामान का पैसा उसे देने गये थे। दुपहिया से जैसे ही उतरे डाक्टर साहब से नमस्कार किया और पैसा देकर जैसे ही वापस मुड़े तो डाक्टर साहब ने पूछा-‘कहीं बाजार जा रहे हैं।’
हमने कहा-‘हां, आज अवकाश का दिन है सोच रहे हैं कि बाजार जाकर घूमे और सामान खरीद लायेें।’
डाक्टर साहब बोले-हां, सप्ताह में एक बार बाजार जाना स्वास्थ्य के लिये अच्छा होता है। आदमी रोज घर का खाना खाते हुए उकता जाता है, इसलिये कभी बाजार में खाना बुरा नहीं है।’
हम रुक गये और उनकी तरफ घूर कर देखा और कहा-‘पर एक बार जब हम बीमार पड़े थे तब आपने कहा था कि बाजार का खाना ठीक नहीं होता। तब से लगभग हमने यह कार्य बंद ही कर दिया है।’
वह बोले-‘हां, पर यह छह वर्ष पहले की बात है। वैसे आजकल आप सुबह योग कर लेते हैं इसलिये अब आपको इतनी परेशानी नहीं आयेगी। वैसे क्या आपने वाकई बाजार का खाना पूरी तरह बंद कर दिया है।’
हमने कहा-‘अधूरी तरह किया था पर अब तो टीवी वगैरह ने नकली घी, तेल, दूध, चाय तथा खोये का ऐसा खौफ भर दिया है कि बाजार में खाने के सामान की खुशबू नाक को कितना भी परेशान करे पर उस पर अपना ध्यान नहीं जाने देते।’
डाक्टर साहब बोल-‘हां, यह तो सही है पर सभी जगह थोड़े ही नकली सामान मिल रहा है।’
हमने कहा-‘आपकी बात सही है पर हम करें क्या? आधा आपने डराया और आधा इन टीवी वालोें ने। जैसे आपकी सलाह के बाद हमने योग साधना शुरु की वैसे ही बाहर का खाना भी बंद कर दिया है।’
डाक्टर साहब बोले-‘ आप अपने स्वास्थ्य के प्रति आप सजग है, यह अच्छी बात है। वैसे आप बहुत दिनों से घर नहीं आये।’
हमने हंसते हुए कहा-‘डाक्टर साहब, आपके घर आने से बचने के लिये तो रोज सुबह इतनी मेहनत करते हैं। पहले आपकी और अब टीवी वालों की चेतावनी को इसलिये ही याद रखते हैं क्योंकि हमें आपके घर आने से डर लगता है। अनेक बार तो बुखार और जुकान की बीमारियों से स्वतः ही निपटते हैं क्योंकि सोचते हैं कि हमने जो खराब खाना खाया है उसका दुष्प्रभाव कम होते ही सब ठीक हो जायेगा।’
डाक्टर साहब हंस पड़े-हां, वैसे भी हम छोटी मोटी बीमारियों का इलाज करते हैं पर बड़ी बीमारी के लिये तो बड़े डाक्टर के पास मरीज को भेजना ही पड़ता है।’
हमने बातों ही बातों में उनसे पूछा-‘डाक्टर साहब आप नकली खून की पहचान कर सकते हैं।’
वह एकदम बोले-‘हम तो होम्योपैथी के डाक्टर हैं। इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते अलबत्ता टीवी पर देखा तो हैरान रह गये।’
हमने कहा-‘मतलब यह है कि कभी किसी को बड़ी बीमारी हो और उसमें दूसरे का खून शरीर में देना जरूरी हो तो आपके पास न आयें। आपने तो हमारी उम्मीद ही तोड़ दी।’
डाक्टर साहब बोले-‘आपकी बात सुनकर मेरा ध्यान अपने चचेरे भाई की तरफ चला गया है। एक किडनी खराब होने के कारण वह एक अस्पताल में भर्ती है और उसे निकाला जाने वाला है। उसके लिये भी खून की जरूरत है। मैं अभी जाकर अपने दूसरे चचेरे भाई को फोन कर कहता हूं कि जरा देखभाल कर खून ले आये।’
डाक्टर साहब के चेहरे पर चिंता के भाव आ गये और वह शीघ्र वहां से चले गये। एक डाक्टर की आंखों में ऐसे चिंता के भाव देखकर हमें हैरानी हुई साथ ही यह चिंता भी होने लगी कि कहीं हमें अपने या किसी अन्य के लिये खून की जरूरत हुई तो क्या करेंगे? ऐसे में हमें सिवाय इसके कुछ नहीं सूझता तो फिर योग साधना का विचार आता है। सोचने लगे कि थोड़ी योग साधना से छोटी बीमारियों को ठीक कर लेते हैं तो क्यों न कल से अधिक अधिक कर बड़ी बीमारियों को अपने से दूर रखने का प्रयास करें। हालांकि कभी कभी लगता है कि इनसे अच्छा तो टीवी देखना ही बंद कर दें। वह बहुत सारी चिंतायें देने लगता है। कहा भी गया है कि ‘चिंता सम नास्ति शरीरं शोषणम्।’
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hindi aritcle, hindi laghu katha, hindi vyangya, खून, डाक्टर, बीमारी, मनोरंजन, हिंदी साहित्य

पर्दे के पीछे देखने की चाहत-हिंदी हास्य व्यंग्य (Behind the scenes-Hindi comedy satire)


पर्दे के पीछे से आशय फिल्म या नाटक से नहीं है बल्कि भीड़ के अलग हटकर किये जा रहे विरोधाभासी व्यवहार से है। दरअसल लोगों की आदत है कि वह भीड़ में बैठकर सामने किसी विशिष्ट व्यक्ति को देखते हैं तो उसे पास जानने की इच्छा प्रबल हो उठती है। कुछ लोग भीड़ में चमकने वाले अभिनेताओं और संतों को अपना इष्ट बना लेते हैं। उसका स्वरूप उनके हृदय में इस तरह स्थापित हो जाता है कि ऐसे समझने लगते हैं जैसे कि वह व्यक्ति उनका आत्मीय हो। भले ही वह उसके पास नहीं जा पाते पर उनके अंतर्मन में वह रचा बसा होता है।
समझदार लोग जानते हैं कि यह उनका भ्रम है इसलिये केवल विचारों को आता जाता देखकर काम चला लेते हैं पर कुछ संवेदनशील लोग विशिष्ट हस्तियों के निकट तक पहुंचना चाहते हैं। सच कहें तो वह पर्दे के पीछे जाकर उनसे मिलना चाहते हैं। यह एक खतरनाक काम है क्योंकि भीड़ के सामने और पर्दे के पीछे व्यवहार में बहुत अंतर होता है।
एक संत कथा कर रहे थे। उनके प्रवचनों में भी वही बातें थी-‘मोह माया छोड़ दो’, ’लोगों का भला करो’, वगैरह वगैरह। पैसे के प्रति उनका मोह सर्वज्ञात था पर फिर भी अपने देश के लोग तत्वज्ञान होने के बावजूद भ्रम में रहना पसंद करते हैं इसलिये उनको सुनने भीड़ आती थी। एक प्रवचन कार्यक्रम खत्म होते ही वह पर्दे के पीछे पहुंचे गये। वहां अपने शिष्य से बोलो-‘आज कितना चढ़ावा आया। कल तो बहुत कम आया था। ऐसा प्रतीत होता है कि लोग मु्फ्त में प्रवचन सुनना चाहते हैं।’
वह शिष्य बोला-‘बाबा, आज तो छुट्टी का दिन है। भीड़ ज्यादा है। आज बाहर चंदे की पेटियां भी बढ़ा दी हैं। इसलिये कल से अच्छा चढ़ावा आयेगा।’
महाराज खुश नहीं हुए और बोले-‘तुमने परले शहर फोन किया। वहां के आयोजक से कहो कि कथा करने के हम इतने कम पैसे नहीं लेंगे।’
वह शिष्य बोला-‘मैंने उससे कहा था। वह आज आपको फोन करेगा।’
कथित संत बोले-‘मुझे उसने सुबह फोन किया था। उस समय तुम मेरे पास नहीं थे। मैंने उससे कहा कि इतने कम पैसे में कथा करने नहीं आऊंगा। तुम फिर एक बार फिर फोन करना। देखो राजी हो जायेगा। यहां चढ़ावा बहुत कम आया है। मेरे लिये यह हैरानी की बात है।’
इस बातचीत को एक अन्य श्रद्धालु सुन रहा था। दरअसल प्रवचन खत्म होते ही वह संत जी के शिष्यों को चकमा देते हुए वहां उनके करीब से दर्शन करने पहुंच गया था। शिष्य की नजर उस पर गयी और वह बोला-‘कौन हो भई, यहां कैसे आये।’
तब तक वह श्रद्धालू संतजी के पास पहुंच गया था और चरण पकड़ कर बोला-‘महाराज आपके पास से दर्शन किये।जीवन धन्य हो गया।’
प्रवचन के दौरान बात बात पर हंसने वाले उन संत जी का मूंह सूझा हुआ था। वह आशीर्वाद देते हुए बोले-‘ठीक है भई, पर इस तरह मत आया करो। हम भी आखिर इंसान है थक जाते हैं और हमें भी विश्राम की आवश्यकता होती है। अब तुम जाओ।’
उसने अपनी जेब से सौ का नोट निकालकर उनके पांव पर रख दिया और बोला-‘महाराज, यह लीजिये इस तुच्छ प्राणी की यह तुच्छ भेंट।’
शिष्य ने कहा-‘उठाओ यह नोट! महाराज को क्या भिखारी समझ रखा है। बाहर जाकर पेटी में डाल दो।’
महाराज ने कहा-‘अब ले लो।’
उन्होंने वह नोट स्वयं ही उठा लिया और उससे कहा-‘अब जाओ! हमारी आज्ञा का पालन करो।’
वह जाते हुए कुछ शमियाने के बाहर दरवाजे पर रुक गया यह जानने के लिये कि पर्दे के पीछे महाराज दूसरी कौनसी बातें करते हैं। उसने महाराज को कहते हुए सुना-‘लक्ष्मी को मत ठुकराया करो। क्या पता, बाहर जाकर उसका विचार बदल जाता। वैसे इस सौ के नोट से क्या होता है पर कम चढ़ावा आ रहा है तो जहां से जितना आ रहा है ले लो।’
संत शिष्य की बात जो भी हुई उससे उस श्रद्धालू का मन टूट गया। वह इस बात पर नहीं पछता रहा था कि उसके इष्टदेव की असलियत सामने आयी बल्कि परेशान वह बात को लेकर था कि वह पर्दे के पीछे गया क्यों? कम से कम उसका भ्रम तो बना रहता। जब सच कड़वे हों तो भ्रम में रहना भी आदमी को अच्छा लगता है। यह भ्रम तभी तक सत्य लगता है कि जब तक आदमी अपने आदरणीय का पीछा करते हुए पर्दे के पीछे नहीं चला जाता।
सच तो यह है कि पर्दे के पीछे न जाना चाहिये। पर्दे के पीछे बड़े बड़े खेल होते हैं।
एक विवाह समारोह में एक सज्जन पर्दे के पीछे किसी काम से चले गये। वहां से लौटे तो एक मित्र ने पूछा-‘क्या पर्दे के पीछे शराब पीने गये थे?’
‘नहीं-’उन सज्जन ने कहा-‘पर यह तुम क्यों पूछ रहे हो।’
मित्र ने कहा-‘ऐसे ही! शादी विवाह में लोग पर्दे के पीछे ऐसे ही शराब पीने जाते हैं।’
ऐसा हो सकता है कि कई जगह आपको शराब या सिगरेट का सेवन न करने के लिये जागरुकता उत्पन्न करने वाले सेमीनार होते दिखें। उनकी समाप्ति पर उसमें शामिल लोगों को अगर पर्दे के पीछे उन्हीं वस्तुओं का सेवन करते देखें तो हैरान न हो। सामने और पर्दे के पीछे आचरण करने के लोगा इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि उनको अपने कथन और कर्म के विरोधाभास दिखाई नहीं देते। इन विरोधाभासों को देखकर दिलोदिमाग में तनाव पैदा न हो इसलिये पर्दे के पीछे जाने का प्रयास ही नहीं करना चाहिये।
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पहरेदार-हिंदी लघुकथा/ कहानी (paharedar-a short hindi story)


एक बेकार आदमी साक्षात्कार देने के लिये जा रहा था। रास्ते में उसका एक बेकार घूम रहा मित्र मिल गया। उसने उससे पूछा-‘कहां जा रहा है?
उसने जवाब दिया कि -‘साक्षात्कार के लिये जा रहा हूं। इतने सारे आवेदन भेजता हूं मुश्किल से ही बुलावा आया है।’
मित्र ने कहा-‘अरे, तू मेरी बात सुन!’
उसने जवाब दिया-‘यार, तुम फिर कभी बात करना। अभी मैं जल्दी में हूं!’
मित्र ने कहा-‘पर यह तो बता! किस पद के लिये साक्षात्कार देने जा रहा है।’
उसने कहा-‘‘पहरेदार की नौकरी है। कोई एक सेठ है जो पहरेदारों को नौकरी पर लगाता है।’
उसकी बात सुनकर मित्र ठठाकर हंस पड़ा। उसे अपने मित्र पर गुस्सा आया और पूछा-‘क्या बात है। हंस तो ऐसे रहे हो जैसे कि तुम कहीं के सेठ हो। अरे, तुम भी तो बेकार घूम रहे हो।’
मित्र ने कहा-‘मैं इस बात पर दिखाने के लिये नहीं हंस रहा कि तुम्हें नौकरी मिल जायेगी और मुझे नहीं! बल्कि तुम्हारी हालत पर हंसी आ रही है। अच्छा एक बात बताओ? क्या तम्हें कोई लूट करने का अभ्यास है?’
उसने कहा-‘नहीं!’
मित्र ने पूछा-‘कहीं लूट करवाने का अनुभव है?’
उसने कहा-‘नहीं!
मित्र ने कहा-‘इसलिये ही हंस रहा हूं। आजकल पहरेदार में यह गुण होना जरूरी है कि वह खुद लूटने का अपराध न कर अपने मालिक को लुटवा दे। लुटेरों के साथ अपनी सैटिंग इस तरह रखे कि किसी को आभास भी नहीं हो कि वह उनके साथ शामिल है।’
उसने कहा-‘अगर वह ऐसा न करे तो?’
मित्र ने कहा-‘तो शहीद हो जायेगा पर उसके परिवार के हाथ कुछ नहीं आयेगा। अलबत्ता मालिक उसे उसके मरने पर एक दिन के लिये याद कर लेगा!’
उसने कहा-‘यह क्या बकवास है?’
मित्र ने कहा’-‘शहीद हो जाओगे तब पता लगेगा। अरे, आजकल लूटने वाले गिरोह बहुत हैं। सबसे पहले पहरेदार के साथ सैटिंग करते हैं और वह न माने तो सबसे पहले उसे ही उड़ाते हैं। इसलिये ही कह रहा हूं कि जहां तुम्हारी पहरेदार की नौकरी लगेगी वहां ऐसा खतरा होगा। तुम जाओ! मुझे क्या परवाह? हां, जब शहीद हो जाओगे तब तुम्हारे नाम को मैं भी याद कर दो शब्द बोल दिया करूंगा।’
मित्र चला गया और वह भी अपने घर वापस लौट पड़ा।
…………………………

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‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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यूँ हुआ सच का सामना-हास्य व्यंग्य (yoon hua sach ka samna-hindi satire)


कविराज अपने घर से दूर उस पार्क में पहुंच गये। घर में बिजली नहीं थी और बरसात की वजह से सारी सड़कें सराबोर हो गयी थीं। पिछली बार एक बरसात में कविराज एक गड्ढे में गिर चुके थे। उस समय आसपास खड़े लोग भी उन पर हंस रहे थे। एक जानपहचान वाले ने हंसने वालों से कहा-तरस खाओ। हंस रहे हो! शर्म नहीं आती। एक कवि जो तुम्हारे लिये हमेशा सरस, समधुर और हास्य कवितायें ढूंढता हुआ सड़कों पर घूमता है अगर इस गड्ढे में गिर गया और तुम हंस रहे हो।’
एक ने कहा-‘इसलिये तो खुशी हो रही है। यह कवि लोग बेकार की कवितायें लिखते हैं।’
इतने में कविराज उठकर खड़े हो गये और बोले-‘आप लोग हंसे तो मुझे भी हंसने का अवसर मिलना चाहिये। आज इस गड्ढे में गिरने के विषय पर हास्य कविता लिखूंगा। आप लोग जरा अपना परिचय दीजिये।’
उन्होंने अपनी जेब से कागज और पेन निकाली जो अभी पानी से बची हुई थी और इधर वह लोग भाग निकले। जानपहचान वाले ने कहा-‘क्या मूर्ख कवि हो। हास्य कविता लिखने की बात करते हुए उनसे परिचय मांग रहे थे। हास्य मेें उनका सच लिख दोगे तो उनकी तो हालत खराब हो जायेगी।
कविराज ने कहा-‘पर मैं उनका पूरा परिचय तो नहीं मांग रहा था। भला उनका सच हास्य कविता में कैसे लिख सकता था?’
जानपहचान वाले ने कहा-‘तुम पूरा परिचय नहीं मांग रहे थे पर उनके दिमाग में तो अपना परिचय आ गया न! अपने सच पर कोई नजर नहीं डाले इसलिये वह भाग गये। सच से समाज भागता है।’
बात आयी गयी मगर कविराज ने उस दिन जब सड़कों पर लबालब पानी भरा देखा तो एक पार्क में चले गये। वहां भी भला बैठने की जगह कहां थी। उसी समय उन्हें एक पेड़ के नीच चबूतरा दिखाई दिया। वह उस पर बैठ गये। सोचा आज कुछ बरसात पर लिख लें। मगर कमबख्त वहां भी चैन कहां। पार्क के ठीक बाहर बाहर सड़क के किनारे एक चाय वाले का ठेला लगता था। अनेक बार लोग उस पार्क में खड़े होकर उसी चबूतरे पर बैठकर चाय पीते थे। आज बरसात की वजह से उसके पास लोग अधिक नहीं थे। इधर कविराज बैठे उधर से चाय वाले ने बाहर से चिल्ला कर पूछा-‘साहब, चाय दूं क्या?
कविराज ने कहा-‘नहीं भई, हम तो घर से पीकर आये हैं।’
उस ठेले वाले ने कहा-‘हमें क्या पता कि आपको चाय नहीं चाहिये। इस पार्क में इस पेड़ के नीचे तो हमसे चाय पीने वाले ही बैठते हैं।’
कविराज ने कहा-‘यह चबूतरा तुमने खरीदा है कि या पूरा पार्क ही तुम्हारे नाम पर लिख दिया गया है। हम यहां बैठकर कवितायें लिखेंगे।
कविराज ने अपनी जेब से डायरी निकाली और उस पर कुछ लिखने लगे। इधर बरसात बंद होने के बाद चाय के आशिक भी वहां आने लगे। एक साथ चार लोग आये और उसी चबूतरे पर बैठ गये एक तो कविराज के पास ही बैठ गया। उसने चाय वाले को चार चाय बनाने का आदेश दिया और कविराज के पास बैठकर उनका लिखा देखने लगा।
कविराज ने चश्में से उसे झांक कर देखा और पूछा-‘क्या देख रहे हो?’
उसने कहा-‘बस ऐसे ही नजर पड़ गयी, पर लगता है जैसे कि आप कविता सविता लिख रहे हैं।’
कविराज ने पूछा-‘यह कविता तो समझ में आ गया पर यह सविता क्या है? कहीं तुम इंटरनेट पर वह वेबसाईट तो नहीं देखते जो बदनाम हो गयी है।’
वह आदमी बोला-‘नहीं, पर मेरा छोटा भाई शायद देखता है। मैंने तो ऐसे ही कह दिया। अलबत्ता आपकी कविता बहुत अच्छी है। इसका शीर्षक क्या लिखेंगे?’
कविराज ने पूछा-‘तुमने यह कविता पढ़ ली जो कह रहे हो अच्छी है!’
उसने जवाब दिया-‘नहीं, ऐसे ही कह दिया।’
कविराज ने कहा-‘यही इसमें लिख रहा हूं कि लोग बिना देखे प्रशंसा या निंदा करते हैं। इसका शीर्षक होगा ‘सच का सामना’। बहरहाल आप अपना परिचय दें तो अच्छा रहेगा।’
वह घबड़ा गया और बोला-‘अरे, मुझे एक काम याद आ गया। फिर आता हूं।’
उसने अपने तीनों साथियों को भी इशारा किया और चाय वाले से कहा-‘अभी चाय मत लाना। हम अपना एक काम कर आ रहे हैं।’
चाय वाले का मूंह सूख गया पर वह कह कुछ नहीं पा रहा था। इधर उस आदमी के साथ आये तीन आदमियों ने भी यह वार्तालाप सुना और उसे अपने अनुकूल न पाकर अपने साथी की बात मानकर चले गये।
इतने में एक अन्य सज्जन आये। वह सिगरेट का धूंआ छोड़ते हुए कविराज के पास बैठ गये और चाय वाले से बोले-‘जरा, एक चाय बनाना।’
इधर कविराज अपनी कविता लिखने में लगे हुए थे। वह आदमी उनको लिखते देख पास में आ गया।
कविराज ने उसकी तरफ मूंह कर पूछा-‘क्या देख रहे हो।’
उन सज्जन ने कहा-‘यही कि आप क्या लिख रहे हैं?’
कविराज ने कहा-‘यह तो सच का सामना लिख रहा हूं। अच्छा हुआ आप मिल गये। बहुत देर से एक सिगरेट पीने वाला देख रहा था क्योंकि इससे कौन कौनसी बीमारियां होती है उसे बताना था और यह भी पूछना था कि इसे पीने में मजा क्या आता है? आप अपना परिचय दीजिये।ं’
उस आदमी ने एकदम सिगरेट फैंक दी और बोला-‘अरे, यह तो मैं पहली बार पीकर देख रहा हूं। अभी सामने से सामान लाता हूं फिर आपको परिचय दूंगा।’
उसने भी चाय वाले को चाय के लिये मना किया और खिसक गया। अब तो चाय वाले का धैर्य जवाब दे गया और बोला-‘साहब, यह हो क्या रहा है? यह मेरे ग्राहक क्यों भाग रहे हैं? महाराज, अगर आप नाराज हैं तो मुफ्त चाय पी लीजिये। कम से कम मेरा धंधा बर्बाद मत करिये। वैसे आपने उन लोगों से बात क्या की थी? जो चले गये।’
कविराज ने कहा-‘मैंने तो बस यही कहा था कि आजकल दूध भी साबुन वाले सामान से बनने लगा है। वैसे कुछ दिल पहले एक आदमी तुम्हारी चाय की शिकायत कर रहा था। उसने बताया कि तुम नकली दूध से चाय बनाते हो।’
चाय वाला घबड़ा गया और बोला-‘अब, दूध तो मेरे घर पर बनता नहीं है। जैसा आता है उससे चाय बनाता हूं। दूध की वैसे मुझे पहचान अधिक नहीं है। सच कहता हूं कि इसमें मेरी गलती नहीं है।’
कविराज ने उसकी तरफ घूरकर देखा और कहा-‘तुम्हें अच्छी तरह पता है कि दूध में मिलावट है।’
चाय वाला बोला-‘पर साहब, यह बात कहीं आप लिख मत देना। मैं गरीब आदमी हूं बर्बाद हो जाऊंगा। आप कौनसी अखबार के पत्रकार हैं?’
पता नहीं कविराज को क्या सूझा बोले-‘नहीं, हम तो मामूली कवि हैं। वैसे भी हम यहां बैठकर अपने पैसे का हिसाब कर रहे थे।’
चाय वाले का रुख एकदम बदल गया और बोला-‘उंह! फूटो यहां से! तुम जैसे छत्तीस कवि देखे हैं। चुपचाप यहां से चले जाओ। वरना बुलाता हूं इस सड़क के ठेकेदार से जो हमसे हर रोज पचास रुपये सुरक्षा कर वसूल करता है। वह बहुत खतरनाक आदमी है। ख्वामख्वाह में हमें और हमारे ग्राहकों को डरा रहे हो।’
कविराज हंसते हुए उठ गये। वह पीछे से बोला-‘फिर दिखना नहीं!
वह तेजी से चले जा रहे थे तो एक परिचित बोला-‘क्या बात है कविराज, भागे जा रहे हो। जरा बात तो कर लो।’
कविराज बोले-‘अभी नहीं। एक काम से जा रहा हूं।
उन परिचित ने पूछा-‘काम से जा रहे हो यह तो बता दिया। अब यह भी बता दो आ कहां से रहे हो?’
कविराज ने कहा-‘सच का सामना करके आ रहा हूं। अखबार में पढ़ना तो समझ में आ जायेगा।’
उन परिचित ने कहा-‘हां, अगर छप गया तो! वैसे मैंने सुना है कि आजकल तुम्हारी रचनायें अनेक अखबारों के कूड़ेदान की शोभा बढ़ा रही हैं।’
कविराज ने अपने कदम पीछे खींचे और उसके पास जाकर कहा-‘हां, यह भी सच है। एक दिन में दो बार सच से सामना हुआ है। अब यह भी लिखना पड़ेगा।’
वह सज्जन बोले-‘नहीं यार, तुम तो बुरा मान गये। कहीं हमारा नाम मत लिख देना। कहीं अखबार वालों ने छाप दिया तो बदनामी होगी। यकीनन तुम उसमें हमारे लिये कुछ अच्छा तो लिखने से रहे। अगर यह सच का सामना करके कहीं लिख दिया तो हो सकता है कि कोई सनसनी फैलने की उम्मीद में छाप दे। देखो इससे तुम्हारी और हमारी दोस्ती में फर्क पड़ सकता है!
कविराज धीरे धीरे बुदबुदाये-‘तीसरी बार!’ फिर अपने रास्ते चले गये।
……………………………………….

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

दिखावे की दोस्ती -हिंदी शायरी (dikhave ki dosti-hindi shayri)



बेसुरा वह गाने लगे।
किसी के समझ न आये
ऐसे शब्द गुनगनाने लगे।
फिर भी बजी जोरदार तालियां
मन में लोग बक रहे थे गालियां
आकाओं ने जुटाई थी किराये की भीड़
अपनी महफिल सजाने के लिये
इसलिये लोगों ने अपने मूंह सिल लिये
पहले हाथों से चुकाई ताली बजाकर कीमत
दाम में पाया खाना फिर खाने लगे।
………………………
कमअक्ल दोस्त से
अक्लमंद दुश्मन भला
ऐसे ही नहीं कहा जाता है।
दुश्मन पर रहती है नजर हमेशा
दोस्त का पीठ पर वार करना
ऐसे ही नहीं सहा जाता है।
जमाने में खंजर लिये घूम रहा है हर कोई
अकेले भी तो रहा नहीं जाता है
इसलिये दिखाने के लिये
बहुत से लोगों को दोस्त कहा जाता है।

……………………………..

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कल्पित भाभी, कामयाबी की चाभी,-व्यंग्य कविता kalpit bhabhi, kamyabi ki chabhi-vyangya kavita


कवि देवर ने लिखी
अपनी प्यारी भाभी पर कविता
‘बहुत सुंदर और सुशील हैं मेरी भाभी
मेरी कामयाबी की है चाभी।
जब कहीं जाता था साक्षात्कार के लिये
वही मेरा सामान बनाती
अटैची में कपड़े सजाती
मेरी कामयाबी के लिये
सर्वशक्तिमान की मूर्ति के सामने
दिल लगाकर आरती गाती
भाई के साथ फेरे लगाकर आई
जैसे मैने नई मां पाई
दिल करता है मां संबोधित करूं न कि भाभी।’
लेकर पहुंचा वह मित्र के पास
राय मांगने तो उसने कहा
‘किस जमाने को कवि हो
उगते नहीं जैसे डूबते रवि हो
भला आज के जमाने में ऐसी
पुरातनपंथी कवितायें को लिखता है
इसलिये तू फ्लाप दिखता है
अगर जमाने में वाह वाह चाहिये
तो पात्र बना अपनी कविता में
असली नहीं बल्कि कल्पित भाभी।
उसे रोज होटलों में भेज
जहां सजे उसकी अय्याशी की सेज
नाम देशी रखना
पर लगाना अंग्रेजी टखना
हो जायेगी हिट, तेरी भी भाभी।
कामयाबी की इमारत में
घुसने के लिये यही है तेरे लिए चाभी।’
…………………………………….

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बरसात के साथ धार्मिक चालाकी-हिंदी व्यंग्य (hindi vyangya)


अध्यात्म नितांत एक निजी विषय है पर जब उसकी चौराहे पर चर्चा होने लगे तो समझ लो कि कहीं न कहीं उसकी आड़ में कोई अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ा रहा है तो कोई अपना व्यवसाय कर रहा है। जब कहीं सार्वजनिक रूप से प्रार्थनायें सभायें होती हैं तब यह लगता है कि लोग दिखावा अधिक कर रहे हैं। आज के संचार युग में तो यह कहना कठिन है कि धर्म का बाजार लग रहा है या बाजार ही धर्म बना रहा है। ऐसा लगता है कि पहले लोगों के पास मनोरंजन के अधिक साधन नहीं थे इसलिये धार्मिक पात्रों की व्याख्या करना ही धर्म प्रचार मान लिया गया। इस आड़ में तमाम तरह के कर्मकांड और अंधविश्वास सृजित किये गये ताकि उनकी आड़ में धरती पर उत्पन्न अनावश्यक भौतिक साधान बिक सकें जिसके माध्यम से आदमी की जेब से पैसा निकाला जाये।
अब तो प्रचार युग आ गया है और लोग अध्यात्मिक आधार पर इसलिये अपना अस्तित्व बनाये रखना चाहते है ताकि सामाजिक, आर्थिक तथा वैचारिक संगठनों में अपनी छबि बनाकर पुजते रहें। वह आधुनिक बाजार में आधुनिक अध्यात्मिक व्यापारी बनकर चलना चाहते हैं पर उनकी दुकान सामान उनका बरसो पुराना ही है जिसमें केवल धार्मिक प्रतीक और कर्मकांड ही हैं। जब कहीं हिंसा हो तो वहां लोग शांति के लिये सामूहिक प्रार्थनायें करने के लिये एकत्रित होते हैं। उनको प्रचार माध्यमों में बहुत दिखाया जाता है। जब यह कहना कठिन हो जाता है कि बाजार को ऐसी खबरें चाहिये इसलिये यह सब हो रहा है या सभी विचारधारा के ज्ञानियों को प्रचार चाहिये इसलिये वह इस तरह की सामूहिक प्रार्थनायें करते हैं।
हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि पूजा, भक्ति या साधना तो एकांत में ही परिणाम देने वाली होती है।’ इसलिये जब इस तरह के सामूहिक कार्यक्रम होते हैं तो वह दिखावा लगते हैं। आजकल अनेक स्थानों पर बरसात बुलाने के लिये प्रार्थना सभायें हो रही हैं। हर तरह की धार्मिक विचाराधारा के स्वयंभू ज्ञानी लोगों से बरसात के लिये सामूहिक प्रार्थनाऐं आयोजित कर रहे हैं। प्रचार भी उनको खूब मिल रहा है। हमें इस पर आपत्ति नहीं है पर अपने जैसे लोगों से अपनी बात करने का एक अलग ही मजा है। कुछ लोग है जो इसमें हो रही चालाकियों को देखते हैं।
हम जरा इस बरसात के मौसम पर विचार करें तो लगेगा कि उसका आना तय है। देश के कुछ इलाकों में उसका प्रवेश हो चुका है और अन्य तरफ मानसून बढ़ रहा है।

उस दिन मई की एक शाम बाजार में तेज बरसात से बचने के लिये हम एक मंदिर में बैठ गये। उस समय तेज अंाधी के साथ बरसात हो रही थी। हालांकि गर्मी कम नहीं थी और बरसात से राहत मिली पर एक शंका मन में थी कि यह मानसून के लिये संकट का कारण बन सकता है। प्रकृत्ति का अपना खेल है और उस पर किसी का नियंत्रण नहीं है। मनुष्य यह चाहता है कि प्रकृति उसके अनुरूप चले पर पर उसके साथ खिलवाड़ भी करता है। मई में उस दिन हुई बरसात के अगले कुछ दिनों में ही अखबारों में हमने पढ़ा कि बरसात देर से आयेगी। विशेषज्ञों ने बरसात कम होने की भविष्यवाणी की है-औसत से सात प्रतिशत कम यानि 93 प्रतिशत होने का अनुमान है।

ऐसा नहीं है कि बरसात हमेशा समय पर आती हो-कभी विलंब से तो कभी जल्दी भी आती है-पिछली बार कीर्तिमान भंजक वर्षा हुई थी। बरसात जब तक नहीं आती तब आदमी व्यग्र रहता है। ऐसे में उसके जज्बातों से खेलना बहुत सहज होता है। उसका ध्यान गर्मी पर है तो उसे भुनाओ। कहने के लिये तो कह रहे हैं कि हम सर्वशक्तिमान को बरसात भेजने के लिये पुकार रहे हैं। पर उसका समय पर चर्चा नहीं करते। जब बरसात आने के संकेत हो चुके हैं तब ऐसी प्रार्थनाओं के समाचार खूब आ रहे हैं। वैसे तो फरवरी के आसपास भी ऐसे समाचार आ गये थे कि इस बार बरसात देर से आयेगी और कम होगी। तब ऐसी प्रार्थना सभायें क्यों नहीं की गयी। उस समय नहीं तो मई में ही कर लेते।
सर्वशक्तिमान के सभी रूपों के चेले चालाक हैं। उस समय करते तो कौन लोग उनको याद रखते। जब एक दो दिन या सप्ताह में बरसात आने वाली तब ऐसी प्रार्थना सभायें इसलिये कर रहे हैं ताकि जब हों तो लोग माने कि उनके ‘ज्ञानियों’ को कितनी सिद्धि प्राप्त है। बहरहाल हम देख रहे हैं कि बाजार के प्रबंधक और सर्वशक्तिमान के यह आधुनिक दूत एक जैसे चालाक हैं। टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकाऐं तो व्यवसायिक हैं पर सर्वशक्तिमान के सभी रूपों के यह ज्ञानी चेले भी क्या व्यवसायी है? उनकी इस तरह की चालाकियों से तो यही लगता है?
प्रसंगवश याद आया एक पाठक ने अपनी टिप्पणी में पूछा था कि ‘आपके लेखों से यह पता ही नहीं लगता कि आप किस धर्म या भगवान की बात कर रहे हैं?
दरअसल इसका कारण यह है कि हम सभी तरह की विचारधाराओं पर अपने विचार रखते हैं। किसी एक का तयशुदा नाम लेने पर लोग कहते हैं कि तुम उनके नाम पर लिखो तो जाने। जहां तक हमारी जानकारी सर्वशक्तिमान शब्द किसी भी खास विचारधारा से नहीं जुड़ा यही स्थिति उसके ठेकेदार शब्द ं की भी है। इसलिये कोई यह नहीं कह सकता कि हमारी बात करते हो उनकी करके देखो तो जानो।
अगर सभी विरोध करने लगें तो हम भी कह सकते हैं कि तुम सर्वशक्तिमान और ठेकेदार शब्द से अपने को क्यों जोड़ते हो? दरअसल हमने देखा कि यह समाजों के ठेकेदारो का काम ही चालाकी पर चल रहा है और लोगों को जज्बात से भड़काने और बहलाने के काम में यह सब सक्षम होते हैं। हम इसलिये अपनी बात व्यंजना विधा में कहते हैं। हां, बरसात की पहली बूंदों का इंतजार हमें भी है। अब यह गर्मी सहना कठिन हो गया है। कभी कभी आकाश में बिना बरसते बादल देखते हैं तो भी गुस्सा आता है कि यह हमारी धरती की गर्मी नष्ट कर रहे हैं जो कि बरसात को खींचती है।
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विदुर नीति-कम ताकत के होते गुस्सा करना तकलीफदेह


द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी कहते हैं कि जो अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। गृहस्थ होकर अकर्मण्यता और सन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है।

द्वाविमौ कपटकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणी।
यश्चाधनः कामयते पश्च कुप्यत्यनीश्वरः।।
हिंदी में भावार्थ-
अल्पमात्रा में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन होते हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और कांटों के समान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -किसी भी कार्य को प्रारंभ करने पहले यह आत्ममंथन करना चाहिए कि हम उसके लिये या वह हमारे लिये उपयुक्त है कि नहीं। अपनी शक्ति से अधिक का कार्य और कोई वस्तु पाने की कामना करना स्वयं के लिये ही कष्टदायी होता है।
न केवल अपनी शक्ति का बल्कि अपने स्वभाव का भी अवलोकन करना चाहिये। अनेक लोग क्रोध करने पर स्वतः ही कांपने लगते हैं तो अनेक लोग निराशा होने पर मानसिक संताप का शिकार होते हैं। अतः इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि हमारे जिस मानसिक भाव का बोझ हमारी यह देह नहीं उठा पाती उसे अपने मन में ही न आने दें।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब हम कोई काम या कामना करते हैं तो उस समय हमें अपनी आर्थिक, मानसिक और सामाजिक स्थिति का भी अवलोकन करना चाहिये। कभी कभी गुस्से या प्रसन्नता के कारण हमारा रक्त प्रवाह तीव्र हो जाता है और हम अपने मूल स्वभाव के विपरीत कोई कार्य करने के लिये तैयार हो जाते हैं और जिसका हमें बाद में दुःख भी होता है। अतः इसलिये विशेष अवसरों पर आत्ममुग्ध होने की बजाय आत्म चिंतन करते हुए कार्य करना चाहिए।
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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बरसात के लिये प्रार्थना-हिंदी व्यंग्य (hindi vyangya)


अध्यात्म नितांत एक निजी विषय है पर जब उसकी चौराहे पर चर्चा होने लगे तो समझ लो कि कहीं न कहीं उसकी आड़ में कोई अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ा रहा है तो कोई अपना व्यवसाय कर रहा है। जब कहीं सार्वजनिक रूप से प्रार्थनायें सभायें होती हैं तब यह लगता है कि लोग दिखावा अधिक कर रहे हैं। आज के संचार युग में तो यह कहना कठिन है कि धर्म का बाजार लग रहा है या बाजार ही धर्म बना रहा है। ऐसा लगता है कि पहले लोगों के पास मनोरंजन के अधिक साधन नहीं थे इसलिये धार्मिक पात्रों की व्याख्या करना ही धर्म प्रचार मान लिया गया। इस आड़ में तमाम तरह के कर्मकांड और अंधविश्वास सृजित किये गये ताकि उनकी आड़ में धरती पर उत्पन्न अनावश्यक भौतिक साधान बिक सकें जिसके माध्यम से आदमी की जेब से पैसा निकाला जाये।
अब तो प्रचार युग आ गया है और लोग अध्यात्मिक आधार पर इसलिये अपना अस्तित्व बनाये रखना चाहते है ताकि सामाजिक, आर्थिक तथा वैचारिक संगठनों में अपनी छबि बनाकर पुजते रहें। वह आधुनिक बाजार में आधुनिक अध्यात्मिक व्यापारी बनकर चलना चाहते हैं पर उनकी दुकान सामान उनका बरसो पुराना ही है जिसमें केवल धार्मिक प्रतीक और कर्मकांड ही हैं। जब कहीं हिंसा हो तो वहां लोग शांति के लिये सामूहिक प्रार्थनायें करने के लिये एकत्रित होते हैं। उनको प्रचार माध्यमों में बहुत दिखाया जाता है। जब यह कहना कठिन हो जाता है कि बाजार को ऐसी खबरें चाहिये इसलिये यह सब हो रहा है या सभी विचारधारा के ज्ञानियों को प्रचार चाहिये इसलिये वह इस तरह की सामूहिक प्रार्थनायें करते हैं।
हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि पूजा, भक्ति या साधना तो एकांत में ही परिणाम देने वाली होती है।’ इसलिये जब इस तरह के सामूहिक कार्यक्रम होते हैं तो वह दिखावा लगते हैं। आजकल अनेक स्थानों पर बरसात बुलाने के लिये प्रार्थना सभायें हो रही हैं। हर तरह की धार्मिक विचाराधारा के स्वयंभू ज्ञानी लोगों से बरसात के लिये सामूहिक प्रार्थनाऐं आयोजित कर रहे हैं। प्रचार भी उनको खूब मिल रहा है। हमें इस पर आपत्ति नहीं है पर अपने जैसे लोगों से अपनी बात करने का एक अलग ही मजा है। कुछ लोग है जो इसमें हो रही चालाकियों को देखते हैं।
हम जरा इस बरसात के मौसम पर विचार करें तो लगेगा कि उसका आना तय है। देश के कुछ इलाकों में उसका प्रवेश हो चुका है और अन्य तरफ मानसून बढ़ रहा है।

उस दिन मई की एक शाम बाजार में तेज बरसात से बचने के लिये हम एक मंदिर में बैठ गये। उस समय तेज अंाधी के साथ बरसात हो रही थी। हालांकि गर्मी कम नहीं थी और बरसात से राहत मिली पर एक शंका मन में थी कि यह मानसून के लिये संकट का कारण बन सकता है। प्रकृत्ति का अपना खेल है और उस पर किसी का नियंत्रण नहीं है। मनुष्य यह चाहता है कि प्रकृति उसके अनुरूप चले पर पर उसके साथ खिलवाड़ भी करता है। मई में उस दिन हुई बरसात के अगले कुछ दिनों में ही अखबारों में हमने पढ़ा कि बरसात देर से आयेगी। विशेषज्ञों ने बरसात कम होने की भविष्यवाणी की है-औसत से सात प्रतिशत कम यानि 93 प्रतिशत होने का अनुमान है।

ऐसा नहीं है कि बरसात हमेशा समय पर आती हो-कभी विलंब से तो कभी जल्दी भी आती है-पिछली बार कीर्तिमान भंजक वर्षा हुई थी। बरसात जब तक नहीं आती तब आदमी व्यग्र रहता है। ऐसे में उसके जज्बातों से खेलना बहुत सहज होता है। उसका ध्यान गर्मी पर है तो उसे भुनाओ। कहने के लिये तो कह रहे हैं कि हम सर्वशक्तिमान को बरसात भेजने के लिये पुकार रहे हैं। पर उसका समय पर चर्चा नहीं करते। जब बरसात आने के संकेत हो चुके हैं तब ऐसी प्रार्थनाओं के समाचार खूब आ रहे हैं। वैसे तो फरवरी के आसपास भी ऐसे समाचार आ गये थे कि इस बार बरसात देर से आयेगी और कम होगी। तब ऐसी प्रार्थना सभायें क्यों नहीं की गयी। उस समय नहीं तो मई में ही कर लेते।
सर्वशक्तिमान के सभी रूपों के चेले चालाक हैं। उस समय करते तो कौन लोग उनको याद रखते। जब एक दो दिन या सप्ताह में बरसात आने वाली तब ऐसी प्रार्थना सभायें इसलिये कर रहे हैं ताकि जब हों तो लोग माने कि उनके ‘ज्ञानियों’ को कितनी सिद्धि प्राप्त है। बहरहाल हम देख रहे हैं कि बाजार के प्रबंधक और सर्वशक्तिमान के यह आधुनिक दूत एक जैसे चालाक हैं। टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकाऐं तो व्यवसायिक हैं पर सर्वशक्तिमान के सभी रूपों के यह ज्ञानी चेले भी क्या व्यवसायी है? उनकी इस तरह की चालाकियों से तो यही लगता है?
प्रसंगवश याद आया एक पाठक ने अपनी टिप्पणी में पूछा था कि ‘आपके लेखों से यह पता ही नहीं लगता कि आप किस धर्म या भगवान की बात कर रहे हैं?
दरअसल इसका कारण यह है कि हम सभी तरह की विचारधाराओं पर अपने विचार रखते हैं। किसी एक का तयशुदा नाम लेने पर लोग कहते हैं कि तुम उनके नाम पर लिखो तो जाने। जहां तक हमारी जानकारी सर्वशक्तिमान शब्द किसी भी खास विचारधारा से नहीं जुड़ा यही स्थिति उसके ठेकेदार शब्द ं की भी है। इसलिये कोई यह नहीं कह सकता कि हमारी बात करते हो उनकी करके देखो तो जानो।
अगर सभी विरोध करने लगें तो हम भी कह सकते हैं कि तुम सर्वशक्तिमान और ठेकेदार शब्द से अपने को क्यों जोड़ते हो? दरअसल हमने देखा कि यह समाजों के ठेकेदारो का काम ही चालाकी पर चल रहा है और लोगों को जज्बात से भड़काने और बहलाने के काम में यह सब सक्षम होते हैं। हम इसलिये अपनी बात व्यंजना विधा में कहते हैं। हां, बरसात की पहली बूंदों का इंतजार हमें भी है। अब यह गर्मी सहना कठिन हो गया है। कभी कभी आकाश में बिना बरसते बादल देखते हैं तो भी गुस्सा आता है कि यह हमारी धरती की गर्मी नष्ट कर रहे हैं जो कि बरसात को खींचती है।
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मनुस्मृतिः युवती को पति स्वयं चुनने का अधिकार


देवदतां पतिर्भार्यां विन्दते नेच्छत्यात्मनः।
तां साध्वीं बिभृयान्नित्यं दीनां प्रियमाचरन्।।
हिंदी में भावार्थ-
पुरुष स्वयं की इच्छा ने नहीं वरन् देवताओं द्वारा पूर्व निर्धारित स्त्री को ही पत्नी के रूप में प्राप्त करता है। उन्हीं देवताओं के प्रसन्न करने तथा उनके प्रति आस्था प्रदर्शित करने के लिये पुरुष का कर्तव्य है कि वह अपनी आश्रिता पत्नी का भरण भोषण करे।
अलंकारं नाददीत पित्र्यं कन्या स्वयंवरा।
मातृकभ्रातृदतं वा स्तेना स्वाद्यदि तं हरेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
कोई युवती अपने लिये वर स्वयं ही चुनकर विवाह कर सकती है पर उसे अपने माता पिता तथा भाई द्वारा दिये गये आभूषणों को ले जाने का अधिकार नहीं है। स्वयं वर चुनकर विवाह करने पर अगर वह आभूषण ले जाती है तो उसे अनुचित ही कहा जायेगा।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कहते हैं कि भारतीय समाज में कन्या को स्वयं अपना वर चुनने या विवाह करने का अधिकार नहीं है-यह आरोप पूरी तरह से मिथ्या है। मनु महाराज के समय में यह अधिकार था शायद इसी कारण उन्होंने इसकी चर्चा की है पर इतना अवश्य है कि उस पर उन्होंने यह विचार व्यक्त किया है कि जो कन्या युवती ऐसा करती है अपने माता, पिता तथा भाई द्वारा समस समय पर उपहार रूप में प्रदान आभूषण ले जाने का अधिकार नहीं है। यह स्वाभाविक भी है। जब माता पिता तथा भाई अपने कर्तव्य का निर्वाह करने के लिये अपनी कन्या युवती के लिये वर का चयन करते हैं तो वह अपनी प्रतिष्ठा के लिये उपहार स्वरूप दहेज भी देते हैं पर जहां उनको ऐसा अधिकार नहीं मिलता वहां वह अपने उपहार देने के कर्तव्य से विमुख भी हो सकते हैं। अगर किसी युवती ने अपनी इच्छा से वर चुनकर विवाह करने का निर्णय किया है तो उसे अपने माता पिता तथा भाई द्वारा दिये गये आभूषण लौटा देना चाहिये वरना उसके इस कृत्य को अनुचित कहा जायेगा। हां अगर माता पिता और भाई अगर उन आभूषणों को वापस नहीं चाहते तो फिर कन्या पर कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता है। आजकल की परिस्थतियों में प्रेम विवाह का प्रचलन बढ़ रहा है और कोई जगह तो माता पिता और भाई न केवल उसे स्वीकृति देते हैं पर अपनी क्षमतानुसार उपहार भी देते हैं।
हालांकि इस तरह का प्रतिबंध मनु महाराज ने लगाया जरूर है पर उन्होंने कन्या युवती के स्वयं वर चुनने के अधिकार को स्वीकार भी किया है।

इसके अलावा प्रत्येक पुरुष को यह समझना चाहिये कि उसे जो युवती पत्नी के रूप में प्राप्त हुई है वह देवताओं द्वारा तय किये भाग्य के कारण प्राप्त हुई है। इसलिये उसका यह कर्तव्य है कि वह अपनी पत्नी का भरण भोषण का कर्तव्य पूरा करे। उसे यह कर्तव्य देवताओं के प्रति आस्था प्रदर्शित करते हुए उनको प्रसन्न करने के लिये करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि जो लोग अपनी पत्नी का भरण भोषण अच्छी तरह नहीं करते देवता उनसे रुष्ट हो जाते हैं।
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पतंग और क्रिकेट-हास्य कविता hindi vyangya kavita


बेटे ने कहा बाप से
‘पापा मुझे पतंग उड़ाना सिखा दो
कैसे पैच लड़ाते हैं यह दिखा दो
तो बड़ा मजा आयेगा।’

बाप ने कहा बेटे से
‘पतंग उड़ाना है बेकार
इससे गेंद और बल्ला पकड़ ले
तो खेल का खेल
भविष्य का व्यापार हो जायेगा।
मैंने व्यापार में बहुत की तरक्की
पर पतंग उड़ाकर किया
बचपन का वक्त
यह हमेशा याद आयेगा।
बड़ा चोखा धंधा है यह
जीतने पर जमाना उठा लेता सिर पर
हार जाओ तो भी कोई बात नहीं
सम्मान भले न मिले
पर पैसा उससे ज्यादा आयेगा।
दुनियां के किसी देश के
खिलाड़ी को जीतने पर भी
नहीं कोई उसके देश में पूछता
यहां तो हारने पर भी
हर कोई गेंद बल्ले के खिलाड़ी को पूजता
विज्ञापनों के नायक बन जाओ
फिर चाहे कितना भी खराब खेल आओ
बिकता है जिस बाजार में खेल
वह अपने आप टीम में रहने का
बोझ उठायेगा।
हारने पर थकने का बहाना कर लो
फिर भी यह वह खेल है
जो हवाई यात्रा का टिकट दिलायेगा।
जीत हार की चिंता से मुक्त रहो
क्योंकि यह मैदान से बाहर तय हो जायेगा।
भला ऐसा दूसरा खेल कौनसा है
जो व्यापार जैसा मजा दिलायेगा।

…………………….
नोट-यह व्यंग्य काल्पनिक तथा इसका किसी व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है और किसी से इसका विषय मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।

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क्रिकेट में हार-मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र


बीसीसीआई की क्रिकेट टीम बीस ओवरीय एक दिवसीय प्रतियोगिता में हार गयी और अब पता लगा कि उसमें पांच खिलाड़ी अनफिट थे। टीम जिस तरह अपने मैच खेल रही थी उससे लग तो नहीं रहा था कि वह कप जीत पायेगी पर इस कदर पिटेगी यह आभास भी नहीं था। इससे पहले एक क्लब स्तर की प्रतियोगिता हुई थी। उसमें बीसीसीआई के यह सभी खिलाड़ी बड़े शहरों के नाम पर बनी टीमों के लिये खेले।

कहने वाले तो शुरुआती दौर में ही कह रहे थे कि खिलाड़ी थक गये होंगे इसलिये शायद उनका प्रदर्शन प्रभावित होगा। हुआ भी यही पर इस दलील का विरोध करने वाले कहते हैं कि अन्य देशों के खिलाड़ी भी तो इसमें खेले थे फिर उनका प्रदर्शन प्रभावित क्यों नहीं हुआ? यानि हर तरह से इस हार को स्वाभाविक बताने का प्रयास किया जा रहा है। क्रिकेट अनिश्चताओं का खेल है पर इस आड़ में ऐसी हार के कारण छिप नहीं सकते। हारना एक अलग बात है और खराब खेलना अलग। यहां मुद्दा यह नहीं है कि बीसीसीआई की टीम बीस ओवरीय प्रतियोगता में हारी बल्कि उसका प्रदर्शन इतना खराब रहा कि लोग को रहे हैं कि भारत के किसी भी शहर से कोई टीम उठाकर भेज देते तो वह भी इनसे अच्छा खेलते। नये होने के कारण वह उत्साह से खेलते तो पता लगता कि बीस ओवरीय प्रतियोगता का विश्व कप ही जीत लाये। भारत में खिलाड़ियों की कमी नहीं है। फिर बीस ओवरीय प्रतियोगता तो ऐसी है जिसमें अनुभव वगैरह की तो जरूरत ही नहीं है-इसे तो केवल मनोबल के आधार पर ही जीता जा सकता है।
एक पुराने खिलाड़ी ने बढ़िया टिप्पणी की। उसने कहा कि हम भारतीयों में पैसा पचाने की क्षमता बहुत कम हैं। वर्तमान भारतीय खिलाड़ी इतना पैसा कमा चुके हैं कि वह फिर भूल गये कि वह इसी खेल की दम पर हैं।
वह खिलाड़ी चूंकि पेशवर है इसलिये अन्य सच नहीं कह पाया। जिन खिलाड़ियों को बीस ओवरीय मैचों का स्टार माना जाता था वह इस तरह खेले जैसे कि पचास ओवरों वाला मैच खेल रहे हैं। कहने को तो सभी कह रहे हैं कि हम चुस्त दुरस्त थे और क्लब स्तर की प्रतियोगिता में खेलने की वजह से हमारा खेल प्रभावित नहीं हुआ। दरअसल यह उसी क्लब स्तरीय प्रतियोगिता के दोबारा आयोजन में बाधा न पड़े इसलिये ही कहा जा रहा है। फिर वह उसी प्रतियोगिता में अपनी सदस्यता बनाये रखना चाह रहे हैं। यह खिलाड़ी सभी तरह की गेंदें खेलने में माहिर हैं चाहे शार्टपिच हो या स्पिन पर अब बिचारे शार्टपिच गेंदों का तोड़ ढूंढ रहे हैं। सच बात तो यह है कि चाहे खेल कोई भी हो अगर खिलाड़ी का मन नहीं है तो विपक्षी के दांव पैंच उसके लिये पहाड़ हो जाते हैं। भारतीय खिलाड़ी इतना पैसा कमा चुके थे कि अब उनको अपने परिवारों के लिये समय चाहिये था। इंकार इसलिये नहीं कर सकते थे कि कहीं उनकी जगह शामिल नया खिलाड़ी उसमें छा गया तो इससे भी जायेंगे। खेलना है इसलिये खेले। कह सकते हैं कि हाजिरी देने के लिये खेले। जीतने की खुशी या हारने के गम से परे होकर वह निर्विकार भाव से खेलते दिख रहे थे। मगर यह कोई उच्च स्थिति नहीं थी बल्कि उनके चेहरे पर खेलने की बाध्यता के भाव भी थे जो इस बात को दर्शा रहे थे कि वह न खुश हैं न उत्साहित बल्कि टालू खेल दिखा रहे हैं।
अन्य देशों के खिलाड़ी क्लब स्तर में खेलने के बावजूद यहां भी खेले तो इसलिये कि उनको इतना पैसा नहीं मिलता जितना भारत के खिलाड़ियों को मिलता है। भारतीय खिलाड़ी विज्ञापनों और रैम्पों पर इतना पैसा कमा चुके हैं कि उनका बोझ उठाना अब संभव नहीं था। वह खेल की थकवाट से नहीं बल्कि अपनी आर्थिक परिलब्धियेां का उपयोग न कर पाने की गम का बोझ उठाये हुए थे। सच कहें तो ऐसा लगता है कि इस विश्व में शायद उनके लिये मिलने वाली धनराशि इतनी उपयोगी नहीं थी जितनी क्लब स्तर की प्रतियोगिता से मिली होगी। अन्य देशों के खिलाड़ियों के लिये यह रकम भी बहुत बड़ी होगी इसलिये खेल रहे हैं।
क्रिकेट से देश के लोगों ने अपने जज्बात ख्वामख्वाह जोड़ रखे हैं पर उसके लिये यहां कोई जवाबदेह नहीं है। हार गये तो क्या कर लोगे? हां, लोगों का गुस्सा कम करने के लिये तमाम तरह की सफाई दी जा रही है वह इसलिये कि कहीं वह लोग फिर विरक्त न हो जायें और क्रिकेट का व्यापार कहीं ठप न हो जाये।
अगर खिलाड़ी अनफिट हैं तो फिर अभी बाहर जाने वाली टीम के के लिये उनको कैसे चुन लिया गया। वही कप्तान वही खिलाड़ी!
प्रबंधन के मामले में हमारा देश अप्रतिभाशाली माना जाता है। यह हमारी कमजोरी है। कोई नया बदलाव कहीं करना ही नहीं चाहता। दरअसल क्रिकेट अब बाजार का खेल है-कम से कम भारत में तो यही लगता है। खिलाड़ियों ने विज्ञापन कर रखे होते हैं जो ऐसी प्रतियोगिताओं में समय अधिक दिखाई देते हैं। इसलिये उसमें अभिनय करने वाले खिलाड़ियों का होना जरूरी है अतः अप्रत्यक्ष रूप से कहीं न कहीं यह बात भी देखी जाती है कि बाजार का ध्यान अधिक रखा जाता है फोकटिया दर्शक का कम। एक खिलाड़ी इस टीम में शामिल नहीं हुआ तो वह दर्शक दीर्घा में अन्य खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने पहुंच गया। दरअसल उसके विज्ञापन भी दिख रहे थे और वह यकीनन उनकी वजह से ही अपनी सूरत दिखाने वहां पहुंचा होगा ताकि विज्ञापन दाता उससे खुश रहें। टीवी कैमरा हर मैच में उसका चेहरा अनेक बार दिखाता था। कितनी अच्छी बात लगती है यह बात सुनकर कि इतना बड़ा खिलाड़ी मनोबल बढ़ाने पहुंचा मगर इसके पीछे का सच कौन पढ़ पाता है। यह सब बुरा नहीं है क्योंकि सभी को कमाने का हक है पर आम लोगों को यही सच समझते हुए यह देखना चाहिये। क्रिकेट टीम का खेलना एक व्यवसाय है और उसे बाजार प्रभावित कर सकता है-इससे मान लेना चाहिये। किसी को क्या दोष देना? क्रिकेट वालों को पूरा पैसा मिल रहा है टीम हारे या जीते-तब उनसे यह आशा करना बेकार है कि वह नये और तरोताजा खिलाड़ी भेजकर प्रतियोगिता जीतने का प्रयास कर अपने प्रबंध कौशल का प्रमाण दें। अपने देश में पैसा कमाना महत्वपूर्ण है कि प्रबंध कौशल!
सो टीम हार गयी तो कोई बात नहीं। जिस कप्तान को सिर पर उठाये रखा है उसने कहा है कि कुछ महीने बाद फिर प्रतियोगिता है। उसमें दमखम दिखायेंगे। वहां यह आश्वासन देना ठीक है क्योंकि अगली बार तक लोग इंतजार कर अपना पैसा खर्च कर सकते हैं।
पिछली बीस ओवरीय प्रतियोगिता बीसीसीआई की टीम ने जीती थी। उससे पहले विश्व में हारने की वजह से पूरी टीम की जो किरकिरी हुई वह लोग भूल गये। बीस ओवरीय प्रतियोगिता में बीसीसीआई टीम की पिछली जीत की दो वजहें थी एक तो दूसरी टीमें गंभीरता से नहीं खेली दूसरा भारतीयों पर जीत का कोई दबाव नहीं था। कुछ लोग तो उस समय मान रहे थे कि इस आड़ में भारत में क्रिकेट को दोबारा प्रतिष्ठा दिलाने का योजनाबद्ध प्रयास किया गया है। यह योजना वैसे ही सफल हुई जैसे कि 1983 में एक दिवसीय विश्व क्रिकेट कप में बीसीसीआई की टीम के जीतने पर क्रिकेट का वह प्रारूप भारत में लोकप्रिय हो गया। मतलब पच्चीस साल तक बाजार उस जीत को भुनाता रहा। अब हमारे लिये यह देखने का विषय है कि पिछली बीस ओवरीय प्रतियोगता की जीत को बाजार कब तक भुनाता रहेगा। इस बात तो टीम पिट गयी इसलिये निश्चित रूप से क्रिकेट के इस व्यापर पर बुरा प्रभाव पड़ेगा-चाहे वह एक नंबर को हो या दो नंबर का। देखना है कि इस हार का मनौवैज्ञानिक और आर्थिक रूप से बाजार पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है?
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कबीर के दोहे: मधुमक्खी की तरह सुगंध ग्रहण करें


जो तूं सेवा गुरुन का, निंदा की तज बान
निंदक नेरे आय जब कर आदर सनमान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर सद्गुरु के सच्चे भक्त हो तो निंदा को त्याग दो और कोई अपना निंदा करता है तो निकट आने पर उसका भी सम्मान करो।
माखी गहै कुबास को, फूल बास नहिं लेय
मधुमाखी है साधुजन, गुनहि बास चित देय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मक्खी हमेशा दुर्गंध ग्रहण करती है कि न फूलों की सुगंध, परंतु मधुमक्खी साधुजनों की तरह है जो कि सद्गण रूपी सुगंध का ही अपने चित्त में स्थान देती है।

तिनका कबहूं न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़ै, पीर धनेरी होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कभी पांव के नीच आने वाले तिनके की भी उपेक्षा नहीं करना चाहिए पता नहीं कब हवा के सहारे उड़कर आंखों में घुसकर पीड़ा देने लगे।

जो तूं सेवा गुरुन का, निंदा की तज बान
निंदक नेरे आय जब कर आदर सनमान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर सद्गुरु के सच्चे भक्त हो तो निंदा को त्याग दो और कोई अपना निंदा करता है तो निकट आने पर उसका भी सम्मान करो।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-यह सच्चे भक्त की पहचान है कि वह किसी की निंदा नहीं करते न ही किसी में दोष देखते हैं। जो नित प्रतिदिन भक्ति करते हैं और फिर परनिंदा में लग जाते हैं उनकी भक्ति में दोष है यही समझना चाहिये। वैसे आम आदमी की बात ही क्या कथित संत और साधु भी एक दूसरे की निंदा करते हैं। निंदा करना आदमी के अंदर मौजूद नकारात्मक सोच का परिणाम है। जिनके मन में परमात्मा के प्रति सत्य में भक्ति का भाव है उनका सोच सकारात्मक रहता है और वह दूसरों की अच्छाईयों पर ही विचार कर उनको ग्रहण करते हैंं।

दूसरों के दोष देखकर उसकी चर्चा करने से वह दोष हमारे अंदर स्वतः आ जाता है। कहते हैं कि आलोचक को अपने से दूर नहीं रखना चाहिये क्योंकि उसके श्रीमुख से अपने दोष सुनने से हमें वह अपने अंदर से निकालने का अवसर मिल जाता है। यह दोष निकलकर उसके अंदर से जाता कहां है? तय बात है कि वह आलोचक के अंदर ही जाता है। जिस तरह भगवान की भक्ति करने से उनका सानिध्य मिलता है उसी तरह दूसरे की निंदा करना या दोष देखने से वह भी हमें प्राप्त होता है। यह दुनियां वैसी ही जैसी हमारी नीयत है अतः अच्छा देखें तो वह अच्छी लगेगी और अगर खराब देखेंगे तो वैसा ही बुरा भी लगेगा।
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ज्ञान का चिराग-लघुकथा


डूबता हुआ सूरज रोज अट्टहास के साथ अपने से ही सवाल करता था कि ‘इस दुनियां में सबसे बड़ा कौन?’
फिर दोबारा अट्टहास करते हुए स्वयं ही जवाब देता था कि ‘मैं’! मेरी रौशनी के बिना इस संसार के उस हिस्से में अंधेरा छा जाता है जहां से मैं विदा लेता हूं।’
एक दिन डूबने से पहले उसने कुछ देर पहले धरती पर झांक कर देखा तो उसे एक औरत अपने घर के बाहर बने छोटे चबूतरे पर एक जलता चिराग रखते हुए दिखाई दी। पड़ौसन ने उससे कहा-‘यह चिराग तुम क्यों जलाकर रखती हो। अपने कमरे में ही चिराग जलते है, फिर यहां रखने से क्या लाभ? बेकार में तेल का अपव्यय करना भला कहां की अक्लमंदी है?’
उस महिला ने कहा-‘यहां गली में रात को अंधेरा रहता है। अनेक राहगीर यहां से गुजरते हैं। इस चिराग से उनको सहायता मिलती है। अपने लिये तो सभी रौशनी करते हैं पर दूसरे के लिये करने पर एक अलग प्रकार का ही आनंद आता है।’

सूरज वहां से विदा हो गया पर उस महिला की बात उसके मन में घर कर गयी। उसने अपने आप से कहा-’मैं भी तो यही करता हूं पर अपने अहंकार की वजह से कभी उस आनंद का अनुभव नहीं कर पाया जो वह महिला करती है। एक छोटा चिराग भी वही कर लेता है जो मैं करता हूं। मतलब न इस दुनियां में रौशनी करने वाला मै अकेला हूं, दूसरों को रौशनी देने की सोचने वाला’
यह सोचकर सूरज मौन हो गया। फिर कभी डूबते समय उसने अट्टहास नहीं किया। उस चिराग और महिला ने ज्ञान का प्रकाश दिखाकर उसके अहंकार को परे कर दिया।

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शराब पीना बन गयी है आज़ादी का पैमाना -हिंदी व्यंग्य कविता


अब खूब पीना शराब
नहीं कहेगा कोई खराब
क्योंकि वह आजादी का पैमाना बन गयी है
कदम बहकने की फिक्र मत करना
इंसानी हकों के के नाम पर लड़ने वाले
तुम्हें संभाल लेंगे
इंतजार में खड़े हैं मयखानों के बाहर
कोई लड़खड़ाता हुआ आये तो
उसे सजा सकें अपनी महफिल में
हमदर्दी के व्यापार के लिये
उनके ठिकानों पर दर्द लेकर आने वालों की
भीड़ कम हो गयी है
………………………….
अपनी अक्ल का इस्तेमाल करोगे
तो दुश्मन बहुत बन जायेंगे
क्योंकि दूसरों पर
अपनी समझ लादने वालों की भीड़ बढ़ गयी है
जो ढूंढते हैं कलम और तलवार
अपने हाथों में लेकर
जो सच में तुम आजाद दिखे तो
डर जायेंगे
आजादी की बात कर
वह तुम्हें गुलाम बनायेंगे
नहीं माने तो विरोधी बन जायेंगे

…………………………….

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बहु ने लिखी कविताएँ-व्यंग्य शायरी


नयी बहू कवियित्री है
जब सास को पता लगी
तो उसकी परीक्षा लेने की बात दिमाग में आयी
उसने उससे अपने ऊपर कविता लिखने को कहा
तो बहू ने बड़ी खुशी से सुनाई
‘मेरी सास दुनियां में सबसे अच्छी
जैसे मैंने अपनी मां पायी
बोलना है कोयल की तरह
चेहरा है लगता है किसी देवी जैसा
क्यों न सराहूं अपना भाग्य ऐसा
चरण धोकर पीयूं
ऐसी सास मैंने पायी’

सास खुश होकर बोली
‘अच्छी कविता करती हो
लिखती रहना
मेरी भाग्य जो ऐसी बहू पाई’

दो साल बाद जब वह
कवि सम्मेलन जाने को थी तैयार
सास जोर से चिल्लाई
‘क्या समझ रखा है
घर या धर्मशाला
मुझसे इजाजत लिये बिना
जब जाती और आती हो
भूल जाओं कवि सम्मेलन में जाना
हमें तुम्हारी यह आदत नहीं समझ मंें आयी’

गुस्से में बहू ने अपनी यह कविता सुनाई
‘कौन कहता है कि सास भी
मां की तरह होती है
चाहे कितनी भी शुरू में प्यारी लगे
बाद में कसाई जैसी होती है
हर बात में कांव कांव करेगी
खलनायिका जैसा रूप धरेगी
समझ लो यह मेरी आखिरी कविता
जो पहली सुनाई थी उसके ठीक उलट
अब मत रोकना कभी
वरना कैसिट बनाकर रोज
सुनाऊंगी सभी लोगों को
तुम भूल जाओ अपना रुतवा
मैं नहीं छोड़ सकती कविताई’

सास सिर पीटकर पछताई
‘वह कौनसा मुहूर्त था जो
इससे कविता सुनी थी
और आगे लिखने को कहा था
अब तो मेरी मुसीबत बन आई
अब कहना है इससे बेकार
कहीं सभी को न सुनाने लगे
क्या कहेगा जब सुनेगा जमाई
वैसे ही नाराज रहता है
करने न लगे कहीं वह ऐसी कविताई

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बाजार से धर्म बना या धर्म से बाजार-आलेख


धर्म यानि क्या? आप भारतीय पौराणिक ग्रंथों को अगर पढ़ते हैं तो उसका सीधा आशय आचरण से है पर उनमें किसी का नाम नहीं है। ‘हिंदू’ शब्द हमारे धर्म से जुड़ा है पर जिन पौराणिक ग्रंथों को हम अपना पूज्यनीय मानते हैें उनमें इसी शब्द की चर्चा कहीं नहीं हैं। भक्ति काल-जिसे हिंदी भाषा का स्वर्णकाल भी कहा जाता है-कहीं हिंदू शब्द का उपयोग हुआ हो कम से हम इस लेखक को तो पता नहीं। रहीम,कबीर,मीरा,सूर,और तुलसी ने हिंदू शब्द का उपयोग धर्म के रूप में किया हो यह जानकारी भी इस लेखक को नहीं है।

आजकल हिंदू धर्म को लेकर जब बहस होती है तो ऐसा लगता है कि जैसे वह बहस कहीं सतही विचारों पर केंद्रित है और उसमें गहन सोच नहीं है। बहरहाल जब सभी धर्मों को हम देखें तो ऐसा लगता है कि उनका अध्यात्म से कम बाजार से अधिक संबंध है। बाजार यानि उन लोगों का समूह जो व्यापार आदि कर अपना जीवन यापन करता है और जो इसके लिये भाषा,जाति,क्षेत्र और वर्ण के साथ ही सर्वशक्तिमान के स्वरूप का उसके मानने वाले समाजों और समूहों के हिसाब से ख्याल रखते हें। आखिर मूर्तियां,स्टीकर,छल्ले,कापियां, और पैन बेचने वाले व्यापारी होते हैं और उनकी दिलचस्पी इस बात में होती है कि उनके पास आने वाला ग्राहक किस बात से प्रभावित होगा।’

वही दावपैंच आजमा कर अपनी वस्तूओं को बेचते हैं और गरीब उत्पादक को इस बात के लिये बाध्य या प्रेरित करते हैं कि अपने उत्पाद को बाजार में बेचने के लिये उन प्रतीकों का उपयोग करे जिससे ग्राहक उसकी वस्तु की तरफ आकर्षित करे। अगर हम थोड़ा विश्लेषण करें तो यह साफ हो जायेगा कि बाजार ने ही धर्म बनाये है और जिन महापुरुषों को इनका प्रतिपादक बताया जाता है उनका नाम केवल विज्ञापन के लिये उपयोग किया जाता है। सच तो यह है कि दुनियां के सभी धर्म बाजार के बनाये लगते हैं। याद रखने वाली बात यह है सौदागर और पूंजीपति हर युग में रहे और उनका प्रभाव राज्य पर भी पड़ता है-इस मामले में अपने पुराने धार्मिक ग्रंथ भी प्रमाण देते हैं जहां राजतिलक के अवसर पर राज्य के साहूकारों,जमीदारों और सामंतों द्वारा राजा को उपहार वगैरह देने की परंपराओं की चर्चा है। जब यह धनी लोग राजा को उपहार देते होंगे तो उसका लाभ न लेते हों यह संभव नहीं है।
एक मित्र ब्लाग लेखक ने लिखा था कि बाजार नववर्ष के अवसर एक दिन के लिये धर्मपरिवर्तन करा देता है। प्रसंगवश यह बात ‘हिदू धर्म’ के बारे में कही गयी थी। यह लिखा गया था कि किस तरह ईस्वी नववर्ष पर प्रसिद्ध मंदिरों में लोग विशेष पूजा के लिये जाते हैं। उन्होंने यह सवाल भी उठाया था कि ‘किसी हिंदू पर्व पर क्या किसी अन्य धर्म के स्थान में भी ऐसी पूजा होती है। फिर उन्होंने यह भी लिखा था कि ईसाई नवसंवत् के आगमन पर जिस तरह लोगों द्वारा व्यय किया जाता है उतना भारतीय संवत् पर नहीं किया जाता है।

हमेशा आक्रामक और विचारोत्तेजक लिखने वाले उस मित्र ब्लागर ने हमेशा सभी लोगों प्रभावित किया है और उनका लेख पढ़ते हुए अगर किसी पाठक या लेखक के मन में केाई विचार नहीं आये तो समझिये कि वह आलेख पढ़ नहीं रहा बल्कि देख रहा है। ऐसे ही कुछ विचार उठे और लगा कि हमारे दिमाग में पड़ी कुछ चीजें हैं जिनको बाहर आना चाहियै। जो बात कई बरसों से दिमाग में बात घूम रही थी कि आखिर कही बाजार ने ही तो धर्म नहीं बनाया। वह धर्म जो सार्वजनिक रूप से बिकता है। दरअसल धर्म का संबंध हमेशा अध्यात्म से बताया जाता है पर है नहीं । जिसे अध्यात्म ज्ञान प्राप्त हो जाये वह दिखावे से परे रहते हुए अच्छे आचरण की राह पर चलता है जो कि स्वाभाविक रूप से धर्म है। जो लोग बिना ज्ञान के धर्म की बात करता हैं उनको यह पता ही नहीं कि धर्म होता क्या है?

पांच तत्वों से बनी देह में हर जीव के उसके गुणों के अनुसार मन,बुद्धि और अहंकार अपनी सीमा के अनुसार रहता है। मनुष्य में कुछ अधिक ही सीमा होती है और चतुर व्यक्ति व्यापारी बनकर उसका दोहन अपने ग्राहक के रूप में करता है। वह सौदागर होता है और उनका समूह और स्थान बाजार कहलाता है। शादी हो या श्राद्ध उसके लिये सामान तो बाजार से ही आता है न! अपने बुजुर्गों की मौत पर अपने देश में अनेक लोग तेरहवीं धूमधाम से करते हैं और उसके लिये खर्च कर अपना सम्मान बचाते हैं। अगर आप भारत की कुरीतियों को देखें तो वह किसी अन्य देश या धर्म से अधिक खर्चीली हैं। तय बात है कि बाजार ने धर्म बनाया। जब बाजार ने धर्म बनाया है तो वह बिकेगा भी और बदलेगा भी। हमारे यहां धर्म का जो महत्व है वह अन्यत्र कहीं नहीं है। जिस तरह हम किसी लेखक या वैज्ञानिक को तब तक महत्व नहीं देते जब तक पश्चिम से मान्यता प्राप्त नहीं कर पाता वैसे ही पश्चिम में तब तक कोई धर्म श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता जब तक उसके मानने ने वाले पूरी तरह उसे नहीं माने। कम से कम चार धर्म ऐसे हैं जिनका उद्भव स्थल भारत नहीं है। यहीं से होता हो संघर्ष का सिलसिला। विदेशी धर्मो के आचार्य यहां अपने लोगों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं ताकि वह भी हिंदू धार्मिक संतों की तरह पुज सकें।

भारत के लोग धार्मिक अधिक हैं व्यवसायिक कम ओर पश्चिम में व्यवसायिक अधिक हैं और धार्मिक कम हैं। भारत में धर्म के आधार पर तमाम तरह का व्यापार तो बहुत पहले ही चल रहा था क्योंकि सकाम भक्ति उत्तरोतर बढ़ती गयी है। अगर आप पुराना इतिहास उठाकर कर देखें तो गुरुकुलों की चर्चा तो होती है पर मंदिरों में देवताओं के दिनवार मानकर उनकी पूजा होने की चर्चा नहीं है। हमारा दर्शन हमेशा निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया पर आधारित है जबकि समाज चल रहा है सकाम भक्ति और प्रयोजन सहित कार्य की राह पर। कहीं आपने सुना है कि प्राचीन समय में कार,फ्रिज,कार,टीवी और कंप्यूटर वगैरह लडकी को दहेज में दिया जाता था पर आजकल सभी चल रहा हैं। यह भारतीय बाजार ने ही बोया है जो इस तरह समाज को अपने नियंत्रण में रखता है। इसी का परिणाम है कि अनेक लोग तो केवल इसलिये कोई नया सामान नहीं खरीदते कि लड़के के दहेज में मिलेगा। गरीब से गरीब आदमी कुछ न कुछ लडकी को देता है वरना समाज क्या कहेगा?

बहरहाल बाजार अपने पुराने स्वरूप में रहा हो या आधुनिक दोनों में ही वह केवल क्रय विक्रय तक अपना काम सीमित नहीं रखता बल्कि सौदागरों की इच्छा उस पर नियंत्रण करने की भी रहती है और इसके लिये धर्म उनका सहारा बनता है। हमारा दर्शन द्रव्य यज्ञ की बजाय ज्ञान यज्ञ को श्रेष्ठ मानता हैं पर लोग बिना पैसे खर्च किये कोई यज्ञ होता है यह बात जानते तक नहीं है। कहीं कोई धार्मिक यज्ञ हो तो बस शुरु हो जाता है चंदे का दौर। ंचंदा लेने वाले कितना सामान बाजार से लाये और कितना जेब में रख लिया कभी कौन देखता है? मजे की बात यह है कि धनाढ्य सेठ ही तमाम तरह के धार्मिक कार्यक्रम कराते हैं जो कि सकाम भक्ति का प्रमाण है और इस तरह वह धर्म का प्रचार करते हैंं

हिंदू धर्म को आखिर एक झंडे तले कैसे लाया गया यह तो पता नहीं पर ऐसा लगता है कि आजादी से पूर्व जो नये पूंजीपति थे वह अपने लिये एक ऐसा समाज चाहते रहे होंगे जिसका दोहन किया जा सके। उच्च और मध्यम वर्ग के लिये धर्म तो दिखावे की चीज है पर गरीब तबका उसका हृदय से सम्मान करता है। इस देश में गरीब अधिक हैं और उनकी कमाई भी भले ही व्यक्ति के हिसाब से कम हो पर कुल में वह कम नहीं होते-आंकड़े क्या कहते हैं यह अलग बात है-और उससे पैसा धर्म के आधार पर ही खींचा जा सकता है। यहां कई बार ऐसे समाचार आते हैं कि अमुक कारण से समूह विशेष ने धर्म परिवर्तन कर लिया। भारत में यह अधिक इसलिये है क्योंकि बाजार कहीं न कहीं इस खेल में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल होता है-कम से कम प्रचार के रूप में तो होता ही है। वजह यह है कि चाहे आदमी कोई भी धर्म अपनाये उसके कर्मकांडों के निर्वहन के लिये तो बाजार ही जायेगा।

हमारे एक लेखक मित्र से एक जागरूक आदमी ने बहुत पहले कहा था कि ‘तुम स्वदेशी आंदोलन के बारे में लिखो।’
उसने लेखक मित्र को एक पर्चा दिया जिसमें विदेशी कंपनियों और देशी कंपनियों के नाम थे। हमारे लेंखक मित्र ने उसे देखा और उससे कहा-‘मैं नहीं लिख सकता। कारण मेरा पैसा तो जेब से जाना है अब वह देशी उद्योगपति के जेब में जाये या विदेशी के पास। मुझे क्या फर्क पड़ता है? हां, अगर इन देशी कंपनियों से कुछ दिलवाओं तो लिखता हूं।’
उसका जागरुक मित्र नाराज हो गया। लेखक की बात बहुत जोरदार थी और आज के संदर्भ में देखें तो अनेक लोग बात से सहमत हो सकते हैंं। विदशों से जो हमलावर भारत में आये उन्होंने यहां की इस कमजोरी को देखा और वह अपने संत अपने धर्मों के कुछ कथित आचार्य भी लाये। उन आचार्यों ने भारतीय अध्यात्म से ही सकाम भक्ति के शब्द लेकर उन पर चिपका दिये और आज उनमें से कई बरसो बाद भी पुज रहे हैं। प्रेतों की पूजा केा हमारा दर्शन विरोध करता है जिसका सीधा आशय समाधियों से हैं। आप देखिये तो अपने यहां अनेक संतों और साधुओं की समाधियां बन गयी हैं जहां उनके भक्त जाते हैं। हमारे दर्शन में जन्म तिथि और पुण्य तिथियां मनाने का कोई जिक्र नहीं आता क्योंकि आत्मा को अजन्मा और अविनाशी माना गया है। यह बाजार का खेल है। देश में स्वतंत्रता से पहले और बाद में सक्रिय आर्थिक शक्तियों का अवलोकन किया जाये तो पता लगेगा कि वह अंग्रेजों के बाद समाज पर अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहती थीं।
इस बाजार का खेल अभी बहुत कम हो रहा है। वजह भारत से बाहर बने धर्मों की संख्या चार या पांच से अधिक नहीं है। अगर पच्चीस होते तो वह उनका प्रचार भी यहां लाता। अगर बिक सकते तो वह वर्ष में पंद्रह नर्ववर्ष बेचता। याद रहे कि नववर्ष की परंपरा का जिक्र भी कहीं हमारे प्राचीन ग्रंथों में नहीं आता। फिर भारतीय नववर्ष के अवसर पर कम खर्च की बात है तो वह भी थोड़ा विवाद का विषय है। ईसवी संवत् पर सारा शोराशराब अविवाहित युवक युवतियां होटलों में अपना कार्यक्रम करते हैं और उनकी संख्या कम होती हैं। सभी टीवी चैनलों और अखबारों को देखकर ऐसा लगता है कि बहुत खर्च हो रहा है या बहुत लोग है पर ऐसा है नहीं। भारतीय नव संवत् आम आदमी मनाता है। यह बात अलग बात है कि गुड़ी पड़वा, तो कही वैशाखी या चेटीचंड में रूप में सामूहिक रूप से मनता है। कई जगह बहुत बड़े मेंले लगते हैं। रहा धर्म परिवर्तन का सवाल है तो भारत में बाजार ने इसे एक शय बनाया है जिसका अध्यात्म से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। जहां तक बाजार का सवाल है तो अपने देश के सौदागर कुछ धन की खातिर तो कुछ डंडे के डर से कहीं न कहीं सभी धर्मों के प्रति अपना झुकाव दिखाते हैं क्योंकि जब तक वह जीवित हैं वह समाज का दोहन करेंगे ओर बाद में उनकी पीढि़या। उनका तो एक ही नियम है जिस धर्म से पैसा कमा सकते हैं या जिससे सुरक्षा मिलती है उसी का ही प्रचार करो। इस लेख में लिखे गये विचार कोई अंतिम नहीं है क्योकि भारत में बाजार धर्म बनाता है या धर्म बाजार को यह बात चर्चा का विषय है।
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दर्द से लड़ते आंसू सूख गये-हिंदी शायरी


जब हकीकतें होती बहुत कड़वी
वह मीठे सपनों के टूटने की
चिंता किसी को नहीं सताती
जहां आंखें देखती हैं
हादसे दर हादसे
वहां खूबसूरत ख्वाब देखने की
सोच भला दिमाग में कहा आती

दर्द से लड़ते आंसू सूख गये है जिसके
हादसों पर उसकी हंसी को मजाक नहीं कहना
उसकी बेरुखी को जज्बातों से परे नही समझना
कई लोग रोकर इतना थक जाते
कि हंसकर ही दर्द से दूर हो पाते
जिक्र नहीं करते वह लोग अपनी कहानी
क्योंकि वह हो जाती उनके लिये पुरानी
रोकर भी जमाना ने क्या पाता है
जो लोग जान जाते हैं
अपने दिल में बहने वाले आंसू वह छिपाते हैं
इसलिये उनकी कशकमश
शायरी बन जाती
शब्दों में खूबसूरती या दर्द न भी हो तो क्या
एक कड़वे सच का बयान तो बन जाती
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पड़ौस पर हमला न करो यह तो डाइन भी सिखाती-व्यंग्य कविता


डाइन भी सात घर छोड़कर
कहर बरपाती
अपने पडौस से निभाओ यह तो वह भी सिखाती

उसकी राह पर चलने वाले असली भक्त
आज भी अपने देश और पडौस को
कहर से बचाने के लिए
दूसरी जगह कहर बरपाते
पर खुद न जाकर
वहीँ के बाशिंदों को लगाते
जो पडौस नहीं अपने ही घर को ही
अपने हाथ से आग लगाकर कर देते राख
खुद को बहादुर समझने वाले
नहीं जानते कि
उनकी करतूत डाइन को भी लजाती
वह भी उनकी करतूत पर शर्माती
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सहमा शब्द -हिन्दी शायरी


जब बमों की आवाज से
शहर काँप जाते हैं
बाज़ार में सड़कों पर
फैले खून के दृश्य
आखों के सामने आते हैं
तब बैठने लगता है दिल
लड़खडाने लगती है जुबान
हाथ रुक जाते हैं
तब अपने शब्द लडखडाते नजर आते हैं

लगता है कि कोई
मुस्करा रहा है यह बेबसी देखकर
क्योंकि बुलंद आवाज और
बोलते शब्द उसे पसंद नहीं आते हैं
उसके चेहरे पर है कुटिलता का भाव
लगता है उसी ने दिया है घाव
आजादी देने के बहाने
अपने पास बुलाकर
मन में खौफ भरकर
लोगों को गुलाम बनाने के बहाने उसे खूब आते हैं

क्या बाँटें दर्द अपना
किससे कहें हाल दिल का
लोगों के खून के साथ होली खेलने वाले
चुपके से निकल जाते हैं
अपना उदास चेहरा किसे दिखाएँ
कही अपने कदम न लडखडायें
यहाँ खंजर लिए है कौन
पता नहीं चलता
पीठ में घोंपने के लिए सब तैयार नजर आते हैं

ज़माने में अमन और चैन बेचने का भी
व्यापार होता है
भले ही मिल नहीं पाते हैं
पर दहशत के सौदागर फलते हैं इसलिए
क्योंकि दाम लेकर खून का
सौदा हाथों हाथ किये जाते हैं
इंसानी रिश्तों को वह क्या समझेंगे
जो इसका मोल नहीं जान पाते हैं
बुलंद आवाज़ और शब्दों की ताकत क्या समझेंगे
वह बम धमाकों में ही
अपने को कामयाब समझ पाते हैं
उनकी आवाज से खून बहता है सड़क पर
तकलीफों के कारवाँ
लोगों के घर पहुँच जाते हैं
पर सहमा शब्द
लडखडाते हुए चलते हुए भी
लम्बी दूरी तय कर जाते हैं
मिटते नहीं कभी
समय की मार से मरने वाले बचे ही कहाँ
पर मारने वाले भी कब बच पाते हैं
दहशत से शब्द कभी न कभी तो उबार आते हैं
भले ही धमाको से शब्द उदास हो जाते हैं

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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दिवाली की मिठाई के बारे में लोगों को बताएंगे-हास्य कवित


दीपावली मेले में दुकान से
घर सजाने के लिये मिट्टी के बने
कुछ खिलौने खरीदने पर
उनका मिठाई का ध्यान आया तो बोले
‘भईया, तुम्हारे मिट्टी के फल तो
असली लगते हैं
हम इसे अपने ड्रांइग रूम में सजायेंगे
ऐसे ही मिठाई के भी दिखाओ
आजकल विषैले खोये की वजह
से मिठाई खरीदने की हिम्मत नहीं होती
अगर मिल जायें मिठाई के खिलौने तो बहुत अच्छा
उसे भी इनके साथ सजायेंगे
हमने भी दीपावली पर जमकर
मिठाई खाई लोगों को बतायेंगे

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भलाई करने वाला फ़रिश्ता-लघु व्यंग्य


भरी दोपहर में वह इंसान सड़क पर जा रहा था। उसने देखा दूसरा इंसान बिजली के खंबे के नीचे अपने कुछ कागज उल्टे पुल्टे कर रहा था। अचानक वह बड़बड़ा उठा-‘यह बिजली वाले एकदम नकारा हैं। देखों बल्ब भी नहीं जलाकर रखा। खैर, कोई बात नहीं मैं अपने कागज ऐसे ही पढ़कर देखता हूं ताकि वक्त पड़ने पर इन्हें देखने में कोई समस्या न हो।’

पहला इंसान रुक गया और उसने दूसरे इंसान से पूछा-‘क्या बात है भई? भरी दोपहरियो में बल्ब न जलाने पर इन बिजली वालों को क्यों कोस रहे हो। अपने कागज तो तुम ऐसे ही पढ़ सकते हो। अभी तो सूरज की तेज रोशनी पड़ रही है जब रात हो जोयगी तब लाईट जल जायेगी।’

उस दूसरे इंसान ने कहा-‘ओए, तू भला कहां से आ टपका। तुझे पता नहीं मैं मोहब्बत और अमन का फरिश्ता हूं और जिनकों कागज कह रहा है इसमें मोहब्बत और अमन की कहानियां हैं। यह तेरे समझ के परे है क्योंकि तेरे साथ कभी को हादसा नहीं हुआ न! यह पीडि़त लोगों को सुनाने के लिये है इससे उनको राहत मिलती है। तू फूट यहां से।

फरिश्ते की बात सुनकर वहा इंसान आगे बढ़ने को हुआ तो अचानक एक लड़का चिल्लाता हुआ उसके पीछे आया और बोला-चाचा, जल्दी वापस चलो अपने चाय के ठेले में आग लग गयी है।’

वह इंसान भागने को हुआ तो पीछे से फरिश्ता चिल्लाया-‘रुक तेरे साथ हादसा हुआ है। अब सुन मेरे मोहब्बत और अमन का पैगाम। यह कहानी है और यह कविता!’

वह इंसान चिल्लाया-‘भाड़ में जाये तुम्हारी कविता और कहानी। मैं जा रहा हूं अपना ठेला बचाने।’

वह भागा तो फरिश्ता भी उसके पीछे ‘सुनो सुनो’ कहता हुआ भागा।

वह इंसान ठेले के पास पहुंचा तो उसने देखा कि कुछ लोग पास की टंकी से पानी लेकर आग बुझाने का प्रयास कर रहे हैं। वह स्वयं भी इसमें जुट गया। वह बाल्टी भरकर ठेले पर डालता तो इधर फरिश्ता कहता-‘सुन अगर यह आग गैस से लगी है तो कोई बात नहीं है। गैस वैसे तो हमेशा हमारे बहुत काम आती है पर अगर एक बार धोखा हो गया तो उस पर गुस्सा मत होना। इस संबंध में एक विद्वान का कहना है कि……………’’
वह इंसान चिल्लाया-‘तुम दूर हटो। मुझे तुम्हारी इस कहानी से कोई मतलब नहीं है।’

वह दूसरी बाल्टी भरकर लाया तो वह फरिश्ता बोला-‘अगर यह किसी माचिस की दियासलाई से लगी है तो कोई बात नहीं वह अगर सिगरेट जलाने के काम आती है तो सिगड़ी को प्रज्जवलित करने के काम भी आती है। यह कविता…………………’’

वह आदमी चिल्लाया-’दूर हटो। मुझे अपनी रोजी रोटी बचानी है।’

मगर फरिश्ता कुछ न कुछ सुनाता रहा। आखिर उस इंसान ने ठेले की आग बुझा ली। वह उसके ठेले के नीचे रखे कागजों में लगी थी और अभी ऊपर नहीं पहुंची थी। उसका कामकाज चल सकता था। आग बुझाकर उसने उस फरिश्ते से कहा-‘अब सुनाओं अपनी कहानियां और कवितायें। मेरे दिल को ठंडक हो गयी। कोई खास नुक्सान नहीं हुआ।’
फरिश्ते ने अपने कागज अपने बस्तें में डाल दिये और चलने लगा। उस इंसान ने कहा-‘जब मै सुनना नहीं चाहता तब सुनाते हो और जब सुनना चाहता हुं तो मूंह फेरे जाते हो।’

उस फरिश्ते ने कहा-‘आग खत्म तो मेरी कहानी खत्म। मेरी कहानी और कवितायें अमन और मोहब्बत की हैं जो केवल वारदात के बाद तब तक सुनायी जाती हैं जब तक उसका असर खत्म न हो। अब तुम्हें मेरी कहानी और कविता की जरूरत नहीं है।’
वह इंसान हैरानी से उसे देखने लगा
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व्ही.आई.पी. कहलाने की चाहत-हास्य व्यंग्य


वैसे तो अपने देख के लोगों की यह पूरानी आदत है कि वह हर तरफ अपने को श्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं और अब एक नयी आदत और पाल ली है। वह यह कि कहीं भी अपने को व्ही.आई.पी साबित करो। भले ही झूठमूठ पर यह बताओ कि हमें अमुक स्थान पर हमें व्ही.आई.पी. ट्रीटमेंट मिला।
अपने जीवन के सफर में हमें प्रसिद्धि पाने का मोह तो कभी नहीं रहा पर कुछ हमारे काम ऐसे रहे हैं कि वह बदनाम जरूर करा देते हैं और तब लगता है कि यह मिली प्रसिद्धि के कारण हो रहा है। पढ़ने का मजा खूब लिया तो लिखने के मजे लेने का ख्याल भी आया। लिखते रहे। जो मन मेंे आया लिखा मगर भाषा की दृष्टि से कभी सराहे जायेंगे यह तो ख्याल नहीं किया पर अव्यवस्थित लेखन की वजह से बदनाम जरूर हुए। यही हाल हर क्षेत्र में रहा है।

अध्यात्म में झुकाव है पर भक्ति के नाम पर पाखंड कभी नहीं किया। कहीं कोई कहता है कि यहां मत्था टेको या अमुक गुरू के दर्शन करो तो हम मना कर देते हैं। कहते हैं कि भईया हम तो सीधे नारायण में मन लगाते हैं इन बिचैलियों से मार्ग का पता पूछें यह संभव नहीं हैं।

जिनके गुरु है वह अपने गुरु को मानने की प्रेरणा देते हैं। ना करते हैं तो वह लोग कहते हैं कि गुरु के बिना उद्धार नहीं होता। हम पूछते हैं कि ‘क्या गुरु पाकर आपका उद्धार हो गया है तो जवाब देते हैं कि ‘तुम्हें अहंकार है, अरे इतनी जल्दी थोड़ा उद्धार होता है।’

हम कहते हैं कि हमारा उद्धार तो हो गया है क्येांकि परमात्मा ने मनुष्य योनि देकर दुनिया को समझने का अवसर दिया क्या कम है?

बात दरअसल यह कहना चाहते थे कि हम भारत के लोगों की मनोवृत्ति बहुत खराब है। हर मामले में व्ही.आई.पी. ट्रीटमेंट चाहते हैं और इसके लिये हम कुछ भी करना चाहते हैं। उनमें यह भी एक बात शामिल है कि जिस भगवान या गूुरु को हम माने उसे दूसरे भी माने। इसलिये अपने गुरुओंं और भगवानों को लेकर दूसरे पर दबाव बनाने लगते हैं। इसके अलावा कहीं अगर आश्रम या मंदिर जाते हैं तो वहां भी अपने को व्ही. आई.पी. के रूप में देखना चाहते हैं।

उस दिन एक आश्रम में गये तो पता लगा कि उनके गुरु आये हैं। हमने दूर से गुरुजी को देखा और वहीं उनके प्रवचन प्रारंभ हो गये। इसी दौरान पंक्ति लगाकर उनके दर्शन करने का सिलसिला भी चला। वहां कुछ लोग पंक्ति से अलग दूसरी पंक्ति लगाकर उनके दर्शन कर रहे थे जो यकीनन खास भक्तों के खास भक्त थे।

सत्संग समाप्त हुआ पर दर्शन करने वालों का तांता अभी लगा हुआ था। हम बाहर निकल आये तो एक परिचित मिल गये। हमसे पूछा कि‘क्या गुरु महाराज के दर्शन किये।’
हमने न में सिर हिलाया तो वह कहने लगे कि‘हमने तो व्ही.आई.पी. लाईन में जाकर उनके दर्शन किये। उनका एक खास भक्त मेरी दुकान पर सामान खरीदने आता है।’

हमने समझ लिया कि वह व्ही.आई.पी. भक्त साबित करने का प्रयास कर रहा है।

एक अन्य आश्रम में गये तो वहां देखा कि बरसों पहले खुला रहने वाला ध्यान केंद्र अब बंद कर दिया गया है। वहां सामान्य भक्तों का प्रवेश बंद कर दिया गया है केवल चंदा की रसीद कटाने और सामान लेकर जाने वालों को वहां ध्यान करने की इजाजत है।

हमने वहां मंदिर में दर्शन किये और उसके साथ लगे परिसर के पार्क में जाने लगे तो पता लगा कि वहां से आने वाला कम दूरी वाला रास्ता भी बंद कर दिया गया है। घूमकर फिर वहां पार्क में गये। पार्क के साथ ही धर्मशाला भी लगी हुई है। बाहर से आये भक्तजन वहां रहते हैं और ध्यानादि कार्यक्रम में शामिल होते हैं। वहां पार्क में अन्य लोग भी बैठे थे कोई अपने साथ भोजनादि लाया था तो को वहीं बैठे ध्यान लगा रहा था तो कोई अपनी चादर बिछाकर आराम कर रहा था। हमने देखा कि ध्यान केंद्र से कम दूरी वाले मार्ग का दरवाजा जो बंद था वह बार बार खुलता और बंद हो जाता। कुछ व्ही.आई.पी वहीं से ध्यान कक्ष से आते जाते। जब वह आते तो खुल जाता और फिर बंद। हमने देखा कि वहां खड़ा एक लड़का इस दरवाजे को खोल और बंद कर रहा था।

एक महिला धर्मशाला से निकलकर अपने दो बच्चों के साथ उसी रास्ते ध्यान कक्ष की तरफ जा रही थी । उसके आगे एक व्ही.आई.पी. भक्त तो निकल गया पर उस लड़के ने उस महिला और उसके बच्चों को नहीं जाने दिया। कारण बताया ‘सुरक्षा’। अब सुरक्षा के नाम आश्रम और मंदिरों में हो रहा है उस तो कहना ही क्या? देखा जाये तो व्ही.आई.पी भक्तों और उनको दर्शन कराने वालों को अवसर मिल गया है।

उस महिला ने लंबे रास्ते से निकलने के लिये मूंह फेरा तो एक व्ही.आई.पी. भक्त वहां से लौट रहा था उसके लिये दरवाजा खुला तो वह पलट कर फिर जाने को तत्पर हुई पर उस लड़के ने मना कर दिया। यह एकदम अपमानजनक था क्योंकि उस दरवाजे के उस पार तक तो मैं भी होकर आया था। मतलब वहां से अगर कोई आये जाये तो कोई दिक्कत नहीं थी सिवाय इसके कि किसी को विशिष्ट भक्त प्रमाणित नहीं किया जा सकता था।

यह प्रकरण हमसे कुछ दूर बैठे दंपत्ति भी देख रहे थे। महिला ने पति से कहा-‘आप देखो। कैसे उस बिचारी के साथ उस लड़के ने बदतमीजी की। धार्मिक स्थानों पर यह बदतमीजी करना ठीक नहीं है।’

पति ने कहा-‘अरे, इन चीजों को मत देखा करो। हम तो भगवान में अपनी भक्ति रखते हैं। यह तो बीच के लोग हैं न इनके मन में न भक्ति है न सेवा भाव। यह सब विशिष्ट दिखने के लिये ही ऐसा करते हैं। देखा हमारे साथ यहां कितने लोग बैठे हैं उनको इनकी परवाह नहीं है। पर यह जो विशिष्ट दिखने और दिखाने का मोह जो लोग पाल बैठते हैं उनको कोई समझा नहीं सकता। यह मान कर चलो कि जहां भगवान है तो वहां शैतान भी होगा।’
हमने देखा कि वहां अनेक लोग बैठे थे। सब दूर दूर से आये थे और उनको इन घटनाओं से केाई लेना देना नहीं था।

सच तो यह है कि धर्म के नाम पर जो लोग व्ही.आई.पी. दिखना चाहते हैं उनको ही धर्म संकट में दिखता है क्योंकि ऐसा कर ही वह अपने को धार्मिक साबित करना चाहते हैं। मंदिरों और आश्रमों में जो भ्रष्टाचार है उस पर कोई प्रहार होता है तो धर्म पर संकट बताकर आम भक्त को पुकारा जाता है जबकि इन्हीं आश्रमों में उसकी कोई कदर नहीं है वहां तो को केवल विशिष्ट लोगों का ही सम्मान है। हालांकि हम जानते हैं कि यह सब होता है पर जब कहीं ध्यान लगाने जाते हैं तो इस बात की परवाह नहीं करते कि भगवान के मध्यस्थ क्या व्यवहार करते हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि उसके हृदय में भगवान नहीं विशिष्ट मेहमान बसे हुऐ हैं सो उनसे कोई अपेक्षा भी नहीं करते।
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मन की उदासी कहने में डर लगता है-हिंदी शायरी


अपने मन की उदासी
किसी से कहने में डर लगता है
जमाने में फंसा हर आदमी
अपनी हालातों से है खफा
नहीं जानता क्या होती वफा
अपने मन की उदासी को दूर
करने के लिये
दूसरे के दर्द में अपनी
हंसी ढूंढने लगता है
एक बार नहीं हजार बार आजमाया
अपने ही गम पर
जमाने को हंसता पाया
जिन्हें दिया अपने हाथों से
बड़े प्यार से सामान
उन्होंने जमाने को जाकर लूट का बताया
जिनको दिया शब्द के रूप में ज्ञान
उन्होंने भी दिया पीठ पीछे अपमान
बना लेते हैं सबसे रिश्ता कोई न कोई
पर किसी को दोस्त कहने में डर लगता है

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खुद सज जाते हैं हमेशा दूल्हों की तरह-व्यंग्य कविता


लोगों को आपस में
मिलाने के लिये किया हुआ है
उन्होंने शामियानों का इंतजाम
बताते हैं जमाने के लिये उसे
भलाई का काम
खुद सज जाते हैं हमेशा दूल्हों की तरह
अपना नाम लेकर
पढ़वाते हैं कसीदे
उनके मातहत बन जाते सिपहसालार
वह बन जाते बादशाह
बाहर से आया हर इंसान हो जाता आम

जिनको प्यारी है अपनी इज्जत
करते नहीं वहा हुज्जत
जो करते वहां विरोध, हो जाते बदनाम
मजलिसों के शिरकत का ख्याल
उनको इसलिये नहीं भाता
जिनको भरोसा है अपनी शख्यिसत पर
शायद इसलिये ही बदलाव का बीज
पनपता है कहीं एक जगह दुबक कर
मजलिसों में तो बस शोर ही नजर आता
ओ! अपने ख्याल और शायरी पर
भरोसा करने वालोंे
मजलिसों और महफिलों में नहीं तुम्हारा काम
बेतुके और बेहूदों क्यों न हो
इंतजाम करने वाले ही मालिक
सजते हैं वहां शायरों की तरह
बाहर निकल कर फीकी पड़ जायेगी चमक
इसलिये दुबके अपने शामियानों के पीछे
कायरों की तरह
वहां नहीं असली शायर का काम

…………………………

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जो बुत बोल रहे, पराये शब्द और स्वर लेकर डोल रहे-व्यंग्य कविता


हाड़मांस के पुतलों से
हो गये है नाउम्मीद इसलिये
पत्थर के बुत ही पूजना अच्छा लगता
कम से कम उम्मीद के टूटने का भय तो नहीं रहता

पत्थर बोलते नहीं है
पर जो बुत बोल रहे
स्वर उनके जरूर हैं पर
शब्द पराये होकर डोल रहे ं
आखों में जिनके जीवन है
देख रहे हैं दृश्य
पर उसे किसी का दृष्टिकोण उधार लेकर तोल रहे
उनकी किसी बात को
प्रमाणिक मानने को मन नहीं कहता

ऋषियों और मुनियों जैसे
बन नहीं सके
ऐसे पुरुषों ने अपने को पुजवाने के लिये
तमाम दिये नारे
इतिहास में किया नाम दर्ज
समाज के इलाज के नाम पर दिया
उसे भ्रमों में भटकने का मर्ज
भटक रहे हैं कई किताबी कीड़े
उतारने के लिये उनका कर्ज
मिटाने की चाहत थी पुराने इतिहास की
नया जो रचा उन्होंने
नीरस और बोझिल शब्दों से जो वाद और नारा
वह कभी हकीकत नहीं लगता
पर बिखरे पड़े हैं उनके शागिर्द चारों ओर
को साहसी भी सच नहीं उनसे नहीं कहता

पत्थर के बुतों से
अगर नहीं है कामयाबी की आशा
तो नहीं होती कभी
उनसे झूठ और भ्रम की वजह से निराशा
हाड़मांस के पुतलों को क्या
नाम दें
इसलिये तो जमाना पत्थर के बुतों को ही
अपना इष्ट कहता
पत्थरों से जंग लड़ी जाती है तभी
जब हाड़मांस के बुतों बातों पर होती जंग
उनके नारे लगाने वालों की
हो जाती है सोच तंग
पर पत्थर का कोई बुत
खुद तो किसी को जंग के लिये नहीं कहता

…………………………………….

यह आलेख ‘दीपक” भारतदीप की सिंधु केसरी-पत्रिका पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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कहीं शय तो कहीं आदमी बिक जाता है-व्यंग्य कविता


दिन के उजाले में

लगता है बाजार

कहीं शय तो कहीं आदमी

बिक जाता है

पैसा हो जेब में तो

आदमी ही खरीददार हो जाता है

चारों तरफ फैला शोर

कोई किसकी सुन पाता है

कोई खड़ा बाजार में खरीददार बनकर

कोई बिकने के इंतजार में बेसब्र हो जाता है

भीड़ में आदमी ढूंढता है सुख

सौदे में अपना देखता अस्त्तिव

भ्रम से भला कौन मुक्त हो पाता है

रात की खामोशी में भी डरता है

वह आदमी जो

दिन में बिकता है

या खरीदकर आता है सौदे में किसी का ईमान

दिन के दृश्य रात को भी सताते हैं

अपने पाप से रंगे हाथ

अंधेरे में भी चमकते नजर आते है

मयस्सर होती है जिंदगी उन्हीं को

जो न खरीददार हैं न बिकाऊ

सौदे से पर आजाद होकर जीना

जिसके नसीब में है

वह जिंदगी का मतलब समझ पाता है
…………………………..
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रोटी का इंसान से बहुत गहरा है रिश्ता-हिंदी शायरी


पापी पेट का है सवाल
इसलिये रोटी पर मचा रहता है
इस दुनियां में हमेशा बवाल
थाली में रोटी सजती हैं
तो फिर चाहिये मक्खनी दाल
नाक तक रोटी भर जाये
फिर उठता है अगले वक्त की रोटी का सवाल
पेट भरकर फिर खाली हो जाता है
रोटी का थाल फिर सजकर आता है
पर रोटी से इंसान का दिल कभी नहीं भरा
यही है एक कमाल
………………………
रोटी का इंसान से
बहुत गहरा है रिश्ता
जीवन भर रोटी की जुगाड़ में
घर से काम
और काम से घर की
दौड़ में हमेशा पिसता
हर सांस में बसी है उसके ख्वाहिशों
से जकड़ जाता है
जैसे चुंबक की तरफ
लोहा खिंचता

…………………………………..

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सौदा होता है सब जगह-व्यंग्य कविता


दिन के उजाले में

लगता है बाजार

कहीं शय तो कहीं आदमी

बिक जाता है

पैसा हो जेब में तो

आदमी ही खरीददार हो जाता है

चारों तरफ फैला शोर

कोई किसकी सुन पाता है

कोई खड़ा बाजार में खरीददार बनकर

कोई बिकने के इंतजार में बेसब्र हो जाता है

भीड़ में आदमी ढूंढता है सुख

सौदे में अपना देखता अपना अस्त्तिव

भ्रम से भला कौन मुक्त हो पाता है

रात की खामोशी में भी डरता है

वह आदमी जो

दिन में बिकता है

या खरीदकर आता है सौदे में किसी का ईमान

दिन के दृश्य रात को भी सताते हैं

अपने पाप से रंगे हाथ

अंधेरे में भी चमकते नजर आते है

मयस्सर होती है जिंदगी उन्हीं को

जो न खरीददार हैं न बिकाऊ

सौदे से पर आजाद होकर जीना

जिसके नसीब में है

वह जिंदगी का मतलब समझ पाता है
…………………………..
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क्या सामान्य ब्लाग लेखकों का कोई धणीसांईं नहीं हैं-संपादकीय


आज यह ब्लाग बीस हजार की पाठक संख्या पार कर गया। यह संख्या पार करने वाला यह चैथा ब्लाग है। अगर वर्डप्रेस के ब्लागों की कुल संख्या को ही देखा जाये तो वह 135000 के करीब है और मेरा मानना है कि ब्लाग स्पाट के ब्लाग भी करीब 40-50 हजार के पाठक तो जुटा ही चुके होंगे-उस पर मैंने काउंटर देर से ही लगाया था और वर्तमान में ही उन पर 30 हजार पाठक संख्या का आंकड़ा दर्ज है जो छहः महीने से अधिक का नहीं है।

एक बात तय है कि वर्डप्रेस के ब्लाग ब्लागस्पाट के ब्लागों से अधिक सक्रिय रहते हैं इसलिये यहां लिखते रहने को मन सदैव तत्पर रहता है। इस ब्लाग से जो आत्म विश्वास मिलता है वह नया लिखने को प्रेरित करता है।
हां, आज मुझे इस हिंदी ब्लाग जगत के एक मित्र उन्मुक्त जी का नाम लेने का मन है। अक्सर वह ऐसे मौके पर टिप्पणी करते हैं जब प्रसन्न्ता का अवसर होता है। अभी जब मैंने एक पाठ पर कुछ ब्लागरो द्वारा पैसे लेकर लिखने का मामला उठाया था तो उन्होंने बताया कि उनको कोई पैसा नहीं मिलता वह तो अपने विचार लोगों तक पहंुंचाने के लिये लिखते हैं।

उन्मुक्त जी के पाठ ही यह बता देते हैं कि उनका यह काम निष्काम भाव से किया जा रहा है और यही कारण है कि उनके लिये मेरे मन में मैत्रीभाव है वह यह भी कहते हैं कि आप तो लिखते रहें किसी की परवाह न करें। यह तो मैं करता हूं पर कुछ मामले ऐसे मेरे सामने आ रहे हैं जो मेरे अंदर ब्लाग लेखकों के हितों की रक्षा का प्रश्न उठा देते हैं।
आज ही एक वेबवाइट@ब्लाग प्रकट हुआ है जहां मेरा ब्लाग लिंक हो गया है। उसे चोरी कहें या चालाकी! चोरी कहना इसलिये ठीक नहीं होगा क्योकि
1.वहां ब्लाग में पाठ के नीचे जो मैं अपने लिंक लगाता हूं वह दिखाई दे रहे हैं।
2.ब्लाग का नाम दिखाई नहीं दे रहा पर लेखक के रूप में मेरा नाम दिखाई दे रहा है।
3.मैं एक टैग नहीं लगाता तो यह ब्लाग वहां नहीं जाता।
यह चालाकी है
1.उसने वर्डप्रेस के टैग को इस तरह सैट कर दिया है कि जिस ब्लाग पर वह टैग होगा वहां चला जायेगा।
2.उस पर विज्ञापन है और वहां किसी का मौलिक लेखन नहीं है।
3.वह आराम से बैठकर कमाने के लिये बनाया गया है।

एक प्रश्न मेरे दिमाग में आया था कि आखिर एक ब्लागर ने वर्डप्रेस के ब्लाग पर ही अंसबद्ध टैग लगाने का मामला क्यों उठाया? कुछ लोगों का अगर यह लग रहा है कि यह उनके और मेरी बीच का मामला है तो वह गलती कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि कोई दो व्यवसायिक गुट सक्रिय हैं और यह द्वंद्व उनके बीच का है। इन दोनों गुटों का नेतृत्व करने वाले लिखना नहीं जानते इसलिये ब्लागरों से ही लिखवा रहे हैं और यह द्वंद्व ब्लाग जगत का लग रहा है। इन गुटों को रहस्य इसलिये पूरी तरह यहां उजागर नहीं हो पा रहा क्योंकि वह एक दूसरे के विरुद्ध वहीं तक ही हमले करवा रहे हैं जहां तक उनका स्वयं का व्यवसायिक अस्तित्व समाप्त न हो । एक दूसरे के अस्तित्व की पोल वह नहीं खोल रहे।
जिस दिन मेरे ब्लाग पर असंबद्ध टैग लगाने की की आलोचना करता हुआ पाठ आया तो उसके प्रतिवाद स्वरूप मैंने भी लिखा। दोनों के पाठ हिट हो गये। उसी शाम एक ब्लागर का एक ब्लाग भी आया जिसमें इस बात का उल्लेख था कि वर्डप्रेस के टैगों के सहारे कुछ वेबसाइटें अपना काम चला रही हैं। उसने यह भी बताया कि ब्लागसपाट के लेबल उस तरह ब्लाग को नहीं ले जाते जैसे वर्डप्रेस के। पहले मुझे लगा कि वह मेरे आलोचक ब्लागर के समर्थन में लिखा गया है पर आज लग रहा है कि ऐसा लिखने वाला ब्लागर ऐसे किसी गुट का जानता है पर उसका रहस्य उसने नहीं खोला? पक्का नहीं कह सकता पर ऐसा लगता है कि वह दूसरे गुट के प्रतिनिधि के रूप में ही उसका पाठ लग रहा था।

मुख्य बात यह है कि हिंदी ब्लाग जगत का धणीसांईं कौन है? हिंदी ब्लाग जगत के कुछ लोग ऐसे हैं जो केवल हिंदी टैग लगाने की वकालत करते हैं और दूसरे वह हैं जो पाठक संख्या बढ़ाने के लिये अंग्रेजी टैग की वकालत करते हैं। सच कोई क्यों नही बताता? क्या इन व्यवसायिक गुटो के सदस्य ही ब्लाग लिख रहे हैं और हम जैसे कुछ शौकिया लोग उनके लिये भीड़ की भेड़ की तरह हैं।

मेरा लक्ष्य साफ है। मुझे पैसा मिले या नहीं यह महत्वपूर्ण नहीं हैं पर आम ब्लाग लेखक के हित और आत्मसम्मान की रक्षा होना चाहिये। मैं चाहता हूं कि यह कुछ लोगों के लिये रोजगार का अवसर बने। ऐसा न हो कि उन बिचारों को बुलाकर लिखवाया जाये और फिर वह बोर होकर छोड़ जायें तो दूसरे आयें। इस देश में लिखने वाले बहुत मिल जायेंगे और ऐसे में व्यवसायिक गुटों का काम चलता रहेगा। क्या व्यवसायिक कौशल ने अनजान लेखकों को ऐसे ही घसीट कर काम चलाया जायेगा। इससे लिखा जरूर जायेगा पर अंतर्जाल पर हिंदी को वह सम्मान नहीं मिल पायेगा जिसकी आशा कुछ लोग कर रहे हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि गूगल का एडसेंस खाता केवल डोमेन बिकवाने के लिये बनाया गया है। क्या ऐसे इंतजाम किये गये हैं कि जो डोमेन पर पैसा खर्च न करे उसे एक भी पैसा कमाने का अवसर न मिले। ‘डोमेन माफिया’वह शब्द है जो वर्डप्रेस पर लिखने वाले एक ब्लागर ने उपयोग किया था। क्या यह डोमेन माफिया और ब्लागर माफिया मिलकर यहां इसी तरह कमाने की योजना बना चुके हैं?’
सच बात तो यह है कि इस विषय में मैं जो पाठ लिखता हूं वह किसी को पढ़ाने के लिये नहीं बल्कि उन रहस्यों को पढ़ने के लिये करता हूं जो छिपाये जा रहे हैं। सच तो यह है कि बहुत मन करता है कि अच्छे पाठ लिखूं पर समयाभाव के कारण छोटी रचनायें लिखता हूं क्योंकि यहां चोरी चकारी के डर तो है ही दादागिरी से भी जूझना है। आखिर कोई मुझसे पूछे बगैर मेरे ब्लाग लिंक कर सकता है? यह डोमेन वालों के साथ क्यों नहीं है। लोग यह क्यों कहते हैं कि अपने ब्लाग की सुरक्षा के लिये डोमेन लो। अगर कोई ब्लाग लेखक नहीं चाहता कि उसका ब्लाग लिंक हो तो क्या कोई जबरदस्ती लिंक कर सकता है? इस दादागिरी से मुकाबला करने का कोई उपाय तो होगा? क्या अधिक टैगों का विरोध करने वाले अपने प्रतिद्वंदी गुट के हाथ मेरे पाठ जाने से बचाना चाहते हैं? ब्लागरों के हितों की रक्षा पर कानूनविदों को के विषय में अवश्य सोचना चाहिए।

जहां तक टैग विवाद पर मेरे द्वारा लिखे गये पाठों की बात है। मुझे आश्चर्य इस बात का है कि किसी ने मेरी बात का खंडन नहीं किया। इससे यह तो लगता है कि अंतर्जाल पर हिंदी के लेखकों के शोषण की पूरी तैयारी की है और लिखने से अधिक चाटुकारिता में ही आर्थिक फायदा मिलता नजर आ रहा है। ऐसे में उन्मुक्त जी जैसे ब्लाग लेखकों से सहारे की आशा की जा सकती है। डोमेन और ब्लाग माफिया मेरे द्वारा लिये जा रहे शब्द नहीं है यह उन्हीं ब्लागरों ने लिखे हैं जो शायद अपने से हुई किसी बेईमानी से क्षुब्ध थे। यह अलग बात है कि उन्होंने अपने नाम छिपाये। अभी तक छद्म नाम से ही लोग लिखते जा रहे हैं। ऐसे में असली नाम से लिखने वालों को भ्रम तो रहता ही है। कभी कभी रौद्र रूप से लिखने के लिये मुझे इसलिये भी तैयार रहना पड़ता है क्योंकि लोग अपने को सम्मनित कराने के लिये मेरे ब्लाग को नीचा दिखाना चाहते हैं। दीपक भारतदीप को दो कुछ नहीं पर उसे ऐसे खेल में पराजित दिखाओं जो वह खेला ही नहीं। उनके इन्हीं प्रयासोंं को नाकाम करने की ताकत मेरे शब्दों में है जो मैंने अपने गुरूओं से प्राप्त की है और अब उन्मुक्त जी जैसे मित्रों के विश्वास के सहारे लिख रहा हूं।
अभी बस इतना ही। ऐसे अवसर पर अपने साथ ब्लाग मित्रों और पाठकों का आभारी हूं। आशा करता हूं कि आम ब्लाग लेखकों के हितों की रक्षा में उनका यही प्यार काम आयेगा। वही मेरे धणीसांईं हैं।

क्या सामान्य ब्लाग लेखकों का कोई धणीसांईं नहीं हैं-संपादकीय

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पाठक संख्या बीस हजार पार करने की पूर्व संध्या पर कविता


मैं अंतर्जाल को एक मायाजाल ही मानता हूं। इसमें मेरे अनुभव अजीब तरह के हैं। अनेक लोग मुझसे मेरे बारे में जानना चाहते हैं पर मेरी दिलचस्पी केवल अपने शब्द लेखन तक ही सीमित है। कल मेरा यह ब्लाग बीस हजार की पाठक संख्या पार कर सकता है। दरअसल लोगों का प्यार इतना है कि मैं लिखता चला जाता हूं। कभी कभी मैं हिंदी ब्लाग जगत के विषय पर लिखता हूं तो पाठक कहते हैं कि आप तो अपनी बात लिखते रहें। जिस गति से यह ब्लाग बढ़ रहा है मुझे लगता है कि यह हिंदी पत्रिका की तरह हिट हो जायेगा। यह दोनों ब्लाग मैं बहुत लापरवाह होकर मनमर्जी से लिखता हूं। कमाल है जिन ब्लाग पर मैंने परवाह कर लिखा वह उतने हिट नहीं ले पाये जितना इन दोनों ने लिया। आज दरअसल इस पर मैं एक व्यंग्य लिखना चाहता था पर उसे शब्द ज्ञान पत्रिका पर प्रयोग के लिये डाल दिया।

वर्डप्रेस के ब्लाग पर अधिक टैग और श्रेणियां बनाने की सुविधा है इसलिये यहां पाठक के पास पहुंचने का व्यापक दायरा हो जाता है। एक तरह से इस पर लिखना अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर होना है, पर अंततः आपको लिखना तो अच्छा पड़ता ही है। आज पूर्व संध्या पर पंक्तियां लिखने का मन है।
—————
जब सूरज डूब जाता है
तब रौशनी करता है चिराग
जहां चिंगारी काम करती हो
वहां क्या करेगी आग
चलें हैं हम इस पथ पर
मंजिल का पता नहीं
चले जा रहे हैं आगे रास्ता
जाता तो होगा कहीं
कहीं तो मिलेगा उम्मीद का बाग

सुनते है सबकी
करते हैं मन की
न काहू से दोस्ती न काहू से बैर
सबकी मांगें भगवान सै खैर
तारीफ तो करते हैं दोस्तों की
आलोचकों से भी नहीं है नफरत
अपनी जिंदगी है अपना राग

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अकेलापन-हिंदी शायरी


जब याद आती है अकेले में किसी की
खत्म हो जाता है एकांत
जिन्हें भूलने की कोशिश करो
उतना ही मन होता क्लांत
धीमे-धीमे चलती शीतल पवन
लहराते हुए पेड़ के पतों से खिलता चमन
पर अकेलेपन की चाहत में
बैठे होते उसका आनंद
जब किसी का चेहरा मन में घुमड़ता
हो जाता अशांत

अकेले में मौसम का मजा लेने के लिये
मन ही मन किलकारियां भरने के लिये
आंखे बंद कर लेता हूं
बहुत कोशिश करता हूं
मन की आंखें बंद करने की
पर खुली रहतीं हैं वह हमेशा
कोई साथ होता तो अकेले होने की चाहत पैदा
अकेले में भी यादें खत्म कर देतीं एकांत
……………………………
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शब्दों के फूल कभी नहीं मुरझाये-हिंदी शायरी


कुछ पाने के लिये

दौड़ता है आदमी इधर से उधर

देने का ख्याल कभी उसके

अंदर नहीं आता

भरता है जमाने का सामान अपने घर में

पर दिल से खाली हो जाता

दूसरे के दिलों में ढूंढता प्यार

अपना तो खाली कर आता

कोई बताये कौन लायेगा

इस धरती पर हमदर्दी का दरिया

नहाने को सभी तैयार खड़े हैं

दिल से बहने वाली गंगा में

पर किसी को खुद भागीरथ
बनने का ख्याल नहीं आता
……………………………….
अपने नाम खुदवाते हुए

कितने इंसानों ने पत्थर लगवाये

पर फिर भी अमर नहीं बन पाये

जिन्होंने रचे शब्द

बहते रहे वह समय के दरिया में

गाते हैं लोग आज भी उनका नाम

कुछ पत्थरों पर धूल जमी

कुछ टूट कर कंकड़ हो गये

पर


……………………….

दीपक भारतदीप

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दूसरे के दर्द में अपनी तसल्ली ढूंढता आदमी-हिंदी शायरी


शहर-दर-शहर घूमता रहा

इंसानों में इंसान का रूप ढूंढता रहा
चेहरे और पहनावे एक जैसे

पर करते हैं फर्क एक दूसरे को देखते

आपस में ही एक दूसरे से

अपने बदन को रबड़ की तरह खींचते

हर पल अपनी मुट्ठियां भींचते

अपने फायदे के लिये सब जागते मिले

नहीं तो हर शख्स ऊंघता रहा

अपनी दौलत और शौहरत का

नशा है

इतराते भी उस बहुत

पर भी अपने चैन और अमन के लिये

दूसरे के दर्द से मिले सुगंध तो हो दिल को तसल्ली

हर इंसान इसलिये अपनी

नाक इधर उधर घुमाकर सूंघता रहा
……………………………
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आओ लिखें-छटांक भर कविता


सागर की लहरे कितनी पास हों
किसी की प्यास नहीं बुझती
गागर की बूंदें ही काम आयें
दस दिशाऐं हैं धरती पर
जब चलें पांव एक ही दिशा में जायें
हाथी बड़ा बहुत है
महावत उस पर अंकुश की नौक से काबू पायें
बड़ा होने से क्या होता है
अगर कोई जमाने के का काम का न हो
छोटा है मजदूर तो क्या
उसी हाथ से बड़े-बड़े महल बन जायें
इतिहास में दर्ज है
बड़ों-बड़ों के पतन की कहानी
पढ़कर लोग भूल जाते
पर कवियों की छोटी छोटी
दिल को सहलाने वाले शब्द
कभी लोग भूल न पायें
बड़े बड़े ग्रंथ लिखकर भी
अगर जमाने को खुश न कर सके तो क्या फायदा
लिखे का असर दूर तो हो यही है कायदा
किलो की किताब लिखने से अच्छा है
आओ लिखें छटांक भर कवितायें
लोगों के दिमाग से उतरकर वापस न लौटें
उनके दिल में उतर जायें
बड़ी न हो, भले छोटी हो रचनायें

………………………………

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ख्वाहिश है कि जमाना उनको सलाम करे- हिन्दी शायरी


जिंदगी जीने का उनको बिल्कुल सलीका नहीं है
उनके पास वफा बेचने का कोई एक तरीका नहीं है
भीड़ में मचायें शोर अपनी जिंदगी के तजूर्बे का
पर उससे कभी कुछ खुद सीखा नही है
ख्वाहिश है कि जमाना उनको सलाम करे
आवाजें हैं उनकी बहुत तेज,पर शब्द तीखा नहीं है
बेअसर बोलते हैं पर जमाना फिर भी मानता है
उनको परखने का खांका किसी ने खींचा नहीं है
ईमानदार के ईमान को ही देते हैं चुनौती
खुद कभी उसका इस्तेमाल करना सीखा नही है
फिर भी नाम चमक रहा है इसलिये आकाश में
जमीन पर लोगों ने अपनी अक्ल से चलना सीख नहीं है
………………………………….

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दिल के मचे तूफानों का कौन पता लगा सकता ह-हिन्दी शायरी



मोहब्बत में साथ चलते हुए
सफर हो जाते आसान
नहीं होता पांव में पड़े
छालों के दर्द का भान
पर समय भी होता है बलवान
दिल के मचे तूफानों का
कौन पता लगा सकता है
जो वहां रखी हमदर्द की तस्वीर भी
उड़ा ले जाते हैं
खाली पड़ी जगह पर जवाब नहीं होते
जो सवालों को दिये जायें
वहां रह जाते हैं बस जख्मों के निशान
……………………………
जब तक प्यार नहीं था
उनसे हम अनजान थे
जो किया तो जाना
वह कई दर्द साथ लेकर आये
जो अब हमारी बने पहचान थे
…………………………..
दीपक भारतदीप

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उनके लिये जज्बात ही होते व्यापार-हिन्दी शायरी


कुछ लोग कुछ दिखाने के लिये बन जाते लाचार
अपनी वेदना का प्रदर्शन करते हैं सरेआम
लुटते हैं लोगों की संवेदना और प्यार
छद्म आंसू बहाते
कभी कभी दर्द से दिखते मुस्कराते
डाल दे झोली में कोई तोहफा
तो पलट कर फिर नहीं देखते
उनके लिये जज्बात ही होते व्यापार

घर हो या बाहर
अपनी ताकत और पराक्रम पर
इस जहां में जीने से कतराते
सजा लेते हैं आंखों में आंसु
और चेहरे पर झूठी उदासी
जैसे अपनी जिंदगी से आती हो उबासी
खाली झोला लेकर आते हैं बाजार
लौटते लेकर घर दानों भरा अनार

गम तो यहां सभी को होते हैं
पर बाजार में बेचकर खुशी खरीद लें
इस फन में होता नहीं हर कोई माहिर
कामयाबी आती है उनके चेहरे पर
जो दिल में गम न हो फिर भी कर लेते हैं
सबके सामने खुद को गमगीन जाहिर
कदम पर झेलते हैं लोग वेदना
पर बाहर कहने की सोच नहीं पाते
जिनको चाहिए लोगों से संवेदना
वह नाम की ही वेदना पैदा कर जाते
कोई वास्ता नहीं किसी के दर्द से जिनका
वही बाजार में करते वेदना बेचने और
संवेदना खरीदने का व्यापार
…………………………………………………

हिट की परवाह की तो ब्लाग पर लिखना कठिन होगा-संपादकीय


अंतर्जाल वाकई एक बहुत बड़ा मायाजाल है। हिंदी के समस्त ब्लाग एक जगह दिखाये जाने वाले फोरमों पर आपस में संपर्क रखने की जो सुविधा है वह एक अनूठी है। जिन लोगोंे ने नारद फोरम के साथ अपने ब्लाग जीवन की शुरुआत की है वह उसे भूल नहीं सकते। वहां पर दूसरों को हिट और स्वयं को फ्लाप ब्लागर देखकर कुछ लेखकों को अपनी तौहीन लगती थी क्योंकि ऐसा लगता कि हिंदी के अंतर्जाल की दुनियां यहीं सिमटी हुई है। अनेक लोग यहां हिट प्राप्त करते रहे इसी कारण उन विषयों पर लिखने के आदी हो गये जिससे ब्लाग लेखकों में हिट मिलें। इनमें तो कई गजब के लेखक हैं और आज भी उनको जमकर हिट मिलते हैं। उनको पढ़ना बुरा नहीं है क्योंकि उनसे ही यही सीखा जा सकता है कि आपको क्या पसंद नहीं है और जो आपको पंसद नहीं है वह आम पाठक को भी पसंद नहीं आयेगा। ऐसे में अपने अंदर कुछ अलग लिखने के प्रेरणा पैदा होती है।
पहले ब्लाग लेखकों को यह पता ही नहीं था कि आखिर उनके ब्लाग की पहुंच कहां तक है? धीरेधीरे यह स्पष्ट हो गया है कि एच.टी.एम.एल से लिखी गयी सामग्री ही ब्लाग की ताकत होती है। इन फोरमों पर फ्लाप रहने के बावजूद कई लोग लिख रहे हैं क्योंकि वह जानते हैं कि अंततः उनके लिखे पाठों का महत्व ही उनको प्रचार दिला सकता है। सच तो यह है कि ब्लाग लेखकों में हिट दिलाने वाली सामग्री केवल उसी दिन के लिये महत्वपूर्ण है जिस दिन लिखी गयी है। उसके बाद उसका कोई महत्व नहीं रह जाता। ब्लाग लेखकों से लेखक ब्लागरों का सामंजस्य बैठ पाना कठिन है। मेरे कई ब्लाग लेखक मित्र है और उनकी सदाशयता ने मुझे प्रेरित किया है उनकी हिंदी ब्लाग जगत के प्रति निष्ठा भी असंदिग्ध है पर यहां कुछ ऐ से लोग भी हैं जो लिखने के बावजूद गंभीर नहीं हैं। बंदरों की तरह उछलकूद कर वह यह जताते हैं कि वह यहां के श्रेष्ठ ब्लागर हैं पर उनका लेखन एक ब्लागर लेखक के रूप में मुझे पसंद आता है पाठक के रूप में नहीं। इन फोरमों पर हिट और फ्लाप का खेल नकली है इस बात को समझ लेना चाहिए। कभी तो ऐसा लगता है कि यहां कुछ लोगों को हिट इतने न मिलें तो वह लिखना ही बंद कर देंगे। संभवतः यही कारण है ऐसे लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है पर दूसरे लोग हतोत्साहित न हों इसलिये मैं प्रतिवाद स्वरूप अपने कुछ पाठ लिख देता हूं जो मेरे मित्र ब्लागरों को पसंद नहीं आते। जिन लोगों को गंभीर और सोद्देश्य लेखक करना है उन्हें यहंा हिट का मोह त्यागना होगा। यहां अपनी सुविधा और विचार से पसंद और हिट हैं पर किसी भी तरह से आम पाठक का प्रतिनिधित्व यहां नहीं है। यहां कुछ ऐसे ब्लाग लेखक जबरदस्त हिट पा रहे हैं जिनके लेखन को आम पाठक के लिये तो कभी भी मतलब का नहीं माना जा सकता। जिन लोगों ने अपने आपको यहां का नेता समझा है वह बड़े शहरों रहते हैं और प्रचार माध्यमों में अपनी पहुंच का लाभ उठाकर कर अपने ऐसे ब्लाग लेखकों को प्रचार दिलवाते हैं जिनका लेखक आम पाठक के रूप में प्रभावित नहीं करता। हालांकि मैं उनको स्वयं बहुत दिलचस्पी से पढ़ता हूं। एक दिलचस्प बात यह है कि जिन ब्लाग लेखकों को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया जा रहा है उनमें अधिकांशतः ब्लाग स्पाट पर ही लिखते हैं जिनको प्रोत्साहित करने की आवश्यकता होती है। ब्लागस्पाट के ब्लाग तकनीकी कारणों से अधिक पाठक नहीं जुटा पाते। जिस दिन पाठ लिखो उस दिन हिट आते हैं पर फिर शांति छा जाती है। इसके विपरीत वर्डप्रेस के ब्लाग अधिक पाठक जुटाते हैं। यही कारण है कि यहां लिखते हुए कभी ऐसा नहीं लगता कि किसी की परवाह की जाये। ब्लाग स्पाट पर लिखते हुए मुझे ऐसा लगता है कि जैसे अपनी डायरी में लिख रहा हूं। यहां से उठाकर वर्डप्रेस पर रखे गयी कम से कम दस पाठ ऐसे हैं जो पांच सौ से अधिक बार पढ़े जा चुके हैं जबकि यहां उनको बीस से अधिक लोग नहीं पढ़ पाये। ऐसे में मेरा हौसला बढ़ता है। इसके पीछे तकनीकी कारण है जिसका अनुसंधान मैं कर उसका निष्कर्ष भी प्रस्तुत करूंगा। वैसे जिस तरह ब्लाग स्पाट तेजी से अपने स्वरूप में बदलाव ला रहा है उससे अनेक लाभ भी होना है।

ब्लाग लेखकों का एक समूह हिंदी ब्लाग जगत को अपनी जागीर समझ रहा है। यह लोग अपने को मिली सुविधाओं का उपयोग इस तरह कर रहे हैं जैसे कि वह बहुत बड़े लेखक हैं। अगर उनके हिट की लेखक ब्लागर परवाह करेंगे तो फिर वह उस भीड़ में खो जायेंगे जिसकी पहचान कभी नहीं बनती। मैं उन कवि और लेखक ब्लागरों की तारीफ करूंगा जो इन ब्लाग लेखकों के हिट की परवाह किये बिना लिख रहे हैं। सच तो यह है कि लेखक ब्लागरों में ही वह ताकत है जो वह अंतर्जाल में प्रतिष्ठा प्राप्त करेंगे। पिछले कई दिनों से वर्डप्रेस पर लिखी गयी हास्य और गंभीर कविताओं, चिंतन और आलेखों की बढ़ते पाठकों की संख्या देखकर मुझे ऐसा लगता है कि उनमें और अधिक वृद्धि होगी। यह एक दिलचस्प तथ्य है कि ब्लाग के विषय में लिखे गये विषयों को इन फोरमों पर ठीकठाक हिट मिले पर फिर बाद में उनका कोई पाठक नहीं मिला। कई हास्य गंभीर कवितायें तो इतने हिट जुटा लेती हैं कि मुझे स्वयं पर ही यकीन नहीं होता जबकि कहा जाता है कि लोग कविताएं पढ़ना नहीं चाहते। ईपत्रिका ने एक दिन में 253 पाठक जुटाये जो जबकि मेरे एक दूसरे ब्लाग पर सर्वाधिक 215 पाठकों की संख्या थी।
एक बात तय है कि अंतर्जाल पर बेहतर साहित्य लिखने वालों का भविष्य उज्जवल है पर उसके लिये उनको धैर्य धारण करना होगा। इन फोरमों पर अपने ब्लाग अवश्य पंजीकृत करवायें पर हिट के लिये आम पाठक की दृष्टि से ही लिखने का विचार करें। ब्लाग लेखकों से संपर्क रखना आवश्यक है क्योंकि इनमें कई लोग तकनीकी रूप से बहुत कुछ सीख गये हैं और उनके ब्लाग पढ़ते रहना चाहिए। अभी मैंने एक ब्लाग लेखक का पाठ पढ़कर ही अपने ब्लागस्पाट के पाठ में सुधार किया और उससे वह आकर्षक बन गया। इसके बावजूद इन ब्लाग लेखकों के हिट की परवाह की तो आम पाठक के लिये लिखना कठिन हो जायेगा। इस ब्लाग के एक दिन में 250 से अधिक पाठक जुटाने पर बस इतना ही। यह ब्लाग बीस हजार की संख्या की तरफ बढ़ रहा है और उस समय शेष बात लिखी जायेगी।

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इश्क पर लिखते हैं, मुश्क कसते हैं शायर-हास्य व्यंग्य कविता


अपने साथ भतीजे को भी
फंदेबाज घर लाया और बोला
‘दीपक बापू, इसकी सगाई हुई है
मंगेतर से रोज होती मोबाइल पर बात
पर अब बात लगी है बिगड़ने
उसने कहा है इससे कि एक ‘प्रेमपत्र लिख कर भेजो
तो जानूं कि तुम पढ़े लिखे
नहीं भेजा तो समझूंगी गंवार हो
तो पर सकता है रिश्ते में खटास’
अब आप ही से हम लोगों को आस
इसे लिखवा दो कोई प्रेम पत्र
जिसमें हिंदी के साथ उर्दू के भी शब्द हों
यह बिचारा सो नहीं पाया पूरी रात
मैं खूब घूमा इधर उधर
किसी हिट लेखक के पास फुरसत नहीं है
फिर मुझे ध्यान आया तुम्हारा
सोचा जरूर बन जायेगी बात’

सुनकर बोले दीपक बापू
‘कमबख्त यह कौनसी शर्त लगा दी
कि उर्दू में भी शब्द हों जरूरी
हमारे समझ में नहीं आयी बात
वैसे ही हम भाषा के झगड़े में
फंसा देते हैं अपनी टांग ऐसी कि
निकालना मुश्किल हो जाता
चाहे कितना भी जज्बात हो अंदर
नुक्ता लगाना भूल जाता
या कंप्यूटर घात कर जाता
फिर हम हैं तो आजाद ख्याल के
तय कर लिया है कि नुक्ता लगे या न लगे
लिखते जायेंगे
हिंदी वालों को क्या मतलब वह तो पढ़ते जायेंगे
उर्दू वाले चिल्लाते रहें
हम जो शब्द बोले उसे
हिंदी की संपत्ति बतायेंगे
पर देख लो भईया
कहीं नुक्ते के चक्कर में कहीं यह
फंस न जाये
इसके मंगेतर के पास कोई
उर्दू वाला न पहूंच जाये
हो सकता है गड़बड़
हिंदी वाले सहजता से नहीं लिखें
इसलिये जिन्हें फारसी लिपि नहीं आती
वह उर्दू वाले ही करते हैं
नुक्ताचीनी और बड़बड़
प्रेम से आजकल कोई प्यार की भाषा नहीं समझता
इश्क पर लिखते हैं
पब्लिक में हिट दिखते हैं
इसलिये मुश्क कसते हैं शायर
फारसी का देवनागरी लिपि से जोड़ते हैं वायर
इसलिये हमें माफ करो
कोई और ढूंढ लो
नहीं बनेगी हम से तुम्हारी बात
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भला कहां हमें कच्चे धागों का बंधन निभाना है-हास्य कविता


उसने घर में घुसते ही
अपने चारों मोबाइल का स्विच आफ कर
अल्मारी में रख दिये
फिर अपनी टांगें सोफे पर फैलाई
पास ही बैठा देख रहा था छोटा भाई

उसने बड़े भाई से पूछा
‘यह क्या किया
जान से प्यारे
मोबाइलों का स्विच आफ किया
सभी को अल्मारी की कैद में डाल दिया
अब वह चारों जानूं जानूं कहकर
किसे पुकारेंगी
बैठे तुम्हारे नंबरों को निहारेंगी
क्या उन सबसे बोर हो गये हो
यह इश्क से परेशान घोर हो गये हो
या कोई पांचवीं पर दिल आ गया है
तुम मोबाइल भी साथ रखकर सोते हो
उसकी घंटी और तुम्हारी आवाजें सुनकर
तो लगता नहीं कि कभी नींद तुम्हें आई
ऐसा क्या हो गया
कहीं तुमने इश्क से सन्यास की कसम तो नहीं खाई’

बड़ा भाई बोला
‘आज तो था आजादी की दिन
खूब जमकर बनाया
मैं तो निकला था घर से खरीदने का किराना
वह भी चारों अलग अलग आई
कोई निकली थी कालिज में फंक्शन का
कोई सहेली के साथ पिकनिक का
कोई निकली थी स्पेशल क्लास का बनाकर बहाना
लक्ष्य एक ही था इश्क करते हुए
मोटर सायकिल पर घूमते हुए
इस बरसात में नहाना
सभी के परिवार वाले घर में बंद थे
अपने कामों के पाबंद थे
इसलिये कहीं किसी का डर नहीं था
सचमुच हमने आजादी मनाई
पर कमबख्त यह राखी भी कल आई
भाईयों को राखी बांधकर वह
फिर मोबाइल पर देंगी आवाज
हो जायेगा में मेरे लिये मुसीबत का आगाज
फिर तो मुझे जाना पड़ेगा
नहीं तो पछताना पड़ेगा
कल अगर गया तो फिर
आज जैसे ही घुमाना पड़ेगा
मेरे दोस्त भी बहुत है
किसी कि बहिन है इधर
तो किसी की उधर
सभी कल चहलकदमी सड़कों पर करेंगे
मेरे साथ किसी को देख लिया तो
माशुका की जगह बहिन समझेंगे
चारों में से किसी के साथ तो
परमानेंट टांका भिड़ेगा
पर बाद में दोस्तों की फब्तियों से
कौन घिरेगा
आज तो सभी की आंख
वैसे ही पवित्र देखने लग जाती हैं
अक्ल माशुका को भी बहिन समझ पाती है
ऐसे में अच्छा है बाद के लफड़ों से
एक दिन के लिये इश्क से दूर हो जाऊं
क्यों मैं किसी के भाई की उपाधि पाऊं
किसी को जिंदगी का हमसफर तो बनाना है
भला कहां हमें कच्चे धागों का बंधन निभाना है
इसलिये मैंने राखी के दिन को ही
पूर्ण आजादी की तरह मनाने की अक्ल पाई
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नोट-यह कविता पूरी तरह काल्पनिक है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा
भला कहां कच्चे धागों का बंधन निभाना है-हास्य कविता

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किताबों में लिखे शब्दों की पंक्तियां उनके पांव में बेड़ियाँ नजर आ रही हैं-हिंदी शायरी


किताब में लिखे शब्दों की पंक्तियां
सलाखों की तरह नजर आ रही हैं
कुछ चेहरे छिपे हैं उसके पीछे
जिनकी आंखें बुझी जा रही हैं

पाठ है आजादी का
जिसमें कई कहानियां हैं
लोग उन्हें सुनाये जा रहे हैं
पर उससे आगे नहीं जा पा रहे ं
क्योंकि किताब एक कैद की तरह हो गयी है
कोई दूसरी मिल जाये तो
शायद वह उससे निकल पायें
पर वह भी एक दूसरी कैद होगी
जिसमें वह फिर बंद हो जायें
संभव है उसी में लिखा पढ़कर सभी को सुनायें
अपनी सोच बंद है आलस्य के पिंजरे में कैद
दूसरों के ख्याल पर जली मोमबत्तियों पर
पढ़ने वाले कैदी रौशनी पा रहे हैं
आजादी के गीत गा रहे हैं
पुरानी कहानियों के दायरों से बाहर
कौन बाहर आयेगा
शब्दों का पहरेदार फिर
उनको अंदर भगायेगा
शहीदों के समाधि पर लगाकर
हर वर्ष मेले
नयी सूरतें अपना मूंह छिपा रहीं हैं
किताब में लिखी शब्दों की पंक्तियों
उनके पांव बेड़ी की तरह तरह नजर आ रही हैं
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जुबान अंदाज हालातों का नहीं करती-हिंदी शायरी


सपने सजाता है
उनको बिखरता देख
टूट जाता है मन
कहीं लगाने के लिये ढूंढो जगह
वहीं शोर बच जाता है
जैसे जल रहा हो चमन

भला आस्तीन में सांप कहां पलते हैं
इंसानों करते हैं धोखा
नाम लेकर का खुद ही जलते हैं
क्या दोष दें आग को
जब अपने चिराग से घर जलते हैं
वही सिर पर चढ़ आता है
जिसे करो पहले नमन
जब बोलने को मचलती है जुबान
हालातों अंदाज का नहीं करती
चंद प्यार भरे अल्फाज भी
नहीं दिला पाते वह कामयाबी
जो खामोशी दिला देती है
सपनों में जीना अच्छा लगता है
पर हकीकत वैसी नहीं होती अमूनन
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क्योंकि कोई किसी का नहीं हुआ-हिंदी शायरी


हमने देखा था उगता सूरज
उन्होने देखा डूबता हुआ
वह कर रहे थे चंद्रमा की रौशनी में
जश्न मनाने की तैयारी
पर हमने बिताया था पूरा दिन
सूरज की तपती किरणों में
अपने पसीने में नहाते
हमारा मन भी था डूबा हुआ

वह आसमान में टिमटिमाते तारों की
बात करते रहे
उनकी रात
खुशियों की कहानी कह रही थी
जबकि हमारे बदन से पसीने की
बदबू बह रही थी
सबकी जमीन और आसमान
अलग-अलग होते हैं
किसी को रात डराती है तो किसी को दिन
किसी को भूख नहीं लगती किसी को सताती है
इसलिए सब होते हैं अकेले
क्योंकि कोई किसी का नहीं हुआ
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कौन करे सच का इजहार-हिंदी शायरी


आँख के अंधे अगर हाथी को
पकड कर उसके अंगों को
अंगों का देखें अपनी अंतदृष्टि से
अपनी बुद्धि के अनुसार
करें उसके अंगों का बयान
कुछ का कुछ कर लें
तो चल भी सकता है
पर अगर अक्ल के अंधे
रबड़ के हाथी को पकड़ कर
असल समझने लगें तो
कैसे हजम हो सकता है

कभी सोचा भी नहीं था कि
नकल इतना असल हो जायेगा
आदमी की अक्ल पर
विज्ञापन का राज हो जायेगा
हीरा तो हो जायेगा नजरों से दूर
पत्थर उसके भाव में बिकता नजर आएगा
कौन कहता है कि
झूठ से सच हमेशा जीत सकता है
छिपा हो परदे में तो ठीक
यहाँ तो भीड़ भरे बाजार में
सच तन्हाँ लगता है
इस रंग-बिरंगी दुनिया का हर रंग भी
नकली हो गया है
काले रंग से भी काला हो गया सौदागरों का मन
अपनी खुली आंखों से देखने से
कतराता आदमी उनके
चश्में से दुनियां देखने लगता है
………………………………………………..

आंखें से देखता है दृश्य आदमी
पर हर शय की पहचान के लिये
होता है उसे किसी के इशारे का इंतजार
अक्ल पर परदा किसी एक पर पड़ा हो तो
कोई गम नहीं होता
यहां तो जमाना ही गूंगा हो गया लगता है
सच कौन बताये और करे इजहार

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नहीं मिलते उनकी करतूतों के निशान-हिंदी शायरी


कई किताबें पढ़कर बेचते है ज्ञान
अपने व्यापार को नाम देते अभियान
चार दिशाओं के चौराहे पर खड़े होकर
देते हैं हांका
समाज की भीड़ भागती है भेड़ों की तरह
नाम लेते हैं शांति का
पहले कराते हैं सिद्धांतों के नाम पर झगड़ा
बह जाता है खून सड़कों पर
उनका नहीं होता बाल बांका
कोई तनाव से कट जाता
कोई गोली से उड़ जाता
पर किसी ने उनके घर में नहीं झांका
कहीं नहीं मिलते उनकी करतूतों के निशान
…………………………………………….

हमें मंजिल का पता बताकर
खुद वह जंगल में अटके हैं
कहने वाले सच कह गये
जो सबको बताते हैं
नदिया के पार जाने का रास्ता
वह स्वयं कभी पार नहीं हुए हैं
कहैं महाकवि दीपक बापू
उन्मुक्त भाव से जीते हैं जो लोग
मुक्त कहां हो पाते हैं स्वयं
दुनियां भर के झंझट उनके मन के बाहर लटके हैं
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तब तक अधूरा है अभिव्यक्ति का सृजन-हिंदी शायरी


जो सरल और सहज हैं
जिन के दिल में हैं नेकनीयति
करते हैं वही रचना का सृजन
जिन पर खुद की ख्वाहिशों और
अरमानों को पूरा करने का बोझ है
समाज में तनाव का करते हैं वही विसर्जन

दूसरे के दर्द को अपने दिल की
आंखों से देखकर जो करते हैं विचार
सृजक वही बन पाते हैं
जो सतह पर तैरते हुए केवल
दिखाने के लिए बनते हैं हमदर्द
वह तो शब्द के सौदागर हैं
बेच लें बाजार में ढेर सारी रचनाएं
पर फिर भी सृजक नहीं कहलाते हैं
प्रसिद्धि और प्रशंसा के ढेर सारे शब्द
अपने खजाने में जमा करते लेते
पर सृजन की उपाधि का नहीं कर पाते अर्जन

कहने से कोई सृजक नहीं हो जाता
चंद शब्द लिखने से कोई सृजन नहीं हो पाता
आखों से पढ़कर
कानों से सुनकर
हाथों से स्पर्श कर
जब तक अपनी अनुभूतियों को
दिल में डुबोया न जाए
तब तक रस और श्रृंगार के बिना
अधूरा है अभिव्यक्ति का सृजन
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एक टुकड़ा बरफी-हास्य कविता


एक पड़ौसन ने दूसरी से कहा
‘तुम्हें बधाई हो बधाई
तुम्हारे पतिदेव जहां करते हैं
मदद का काम
वहां आई जमकर भारी बाढ़
वहां बरसात हुई है जाम
अब तो तुम्हारे घर लक्ष्मी बरसेगी
सारी दुनियां तुम्हें देखकर
अपने अच्छे भाग्य को तरसेगी
यह खबर आज अखबार में आई
तुम हमें खिलाना अब अच्छी मिठाई‘

सुनकर दूसरी पड़ौसन भड़की और बोली
‘मैं क्यों खिलाऊं तुम्हें मिठाई
तुम्हारे जहां करते हैं
लोगों की सेवा का काम
वहां भी तो पड़ा था भारी सूखा
तुम्हारे घर में यहां बन रहे थे पकवान
वहां खाने को तरसे थे लोग रूखा सूखा
तब तो तुमने किसी को यह
खबर तक नहीं बताई
मिठाई मांगने के लिये तो
बिना टिकट चली आई
पर जब आ रहा था सूखे के समय
रोज घर में नया सामान
तब तुमने एक टुकड़ा बरफी भी नहीं भिजवाई
इसलिये तुम भूल जाओ मिठाई
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भीड़ की भेड़ नहीं शेर बनो-हिदी शायरी


भीड़ में सबको भेड़ की तरह
हांकने कि कोशिश में हैं सब
चलते जाते हैं आगे ही आगे
सीना तानकर अपना चलते
पर कोई शेर आ जाये सामने
तो कायरता का भाव उनमें जागे

भेड़ों की तरह भीड़ में चलते
अब में थक गया हूँ
सोचता हूँ कि अब बची जिन्दगी
शेरों की तरह लड़ते हुए गुजारूं
कर देते हैं वह शिकार होने के लिए भेड़ों को आगे
सियारों का ही खेल चल रहा है सब जगह
जो कभी सामने नहीं आते
भेडो को शिकार के लिए सामने लाते
खुद चढ़ जाते अट्टालिकाओं पर भागे-भागे

मन नहीं चाहता किसी को
अपने पंजों से आहत करूं
पर फिर सोचता हूँ कि
मैं किसी की भेड़ भी क्यों बनूँ
चल पडा हूँ
जिन्दगी की उस दौर में
जहाँ शेर ही चल सकते हैं आगे
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अमीरी का यहां बसेरा बसाया-लघुकथा


एक धनी परिवार के लोगों ने अपने मुखिया की स्मृति में कार्यक्रम आयोजन करना चाहते थे। आमंत्रण पर कविता छपवानेे के लिये उन्होंने एक हास्य कवि से संपर्क किया और उसे अपने मुखिया के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए एक कविता लिखने का आग्रह किया। बदले में कार्यक्रम के दौरानं उसको सम्मानित करने का लोभ भी दिया। वह कवि तैयार हो गया। उसने कविता लिखी और देने पहुंच गया। उस कविता मे कुछ इस तरह भी था।

पहले उन्होंने गरीबों के पुराने
घरों के येनकेन प्रकरेण हथियाया
जो नहीं हट रहे थे उनको
अपनी ताकत से हटवाया
अपना निजी बुलडोजर चलाया
जमकर बरपाया कहर
पर लगन से किसी भी तरह
अपनी कल्पानाओं का नया शहर बसाया
इतने महान थे वह कि
एक गरीब जो अपने मकान से
निकलने के बाद बीमारी में मर गया
उसके नाम पर नये शहर का
नामकरण करवाया
शहर के लिये देखा था जो सपना
उन्होंने पूरा कर दिखाया

उसकी कविता पढ़कर परिवार वाले हास्य कवि पर बहुत बिफरे और उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया। जब उसके प्रतिद्वंद्वी कवि को यह पता लगी तो उनके पास अपनी कविता बेचने को पहुंच गया। उसने जो कविता लिखी उसमे कुछ सामग्री इस तरह थी।

शहर से गरीबी हटाने का
उनका एक ख्वाब था
जो उन्होंने पूरा कर बताया
कैसे अपनी सोच को जमीन पर
लायें यह उन्होंने बताया
कभी यहां फटेहाल और कंगाल लोगों की
बस्ती हुआ करती थी
चारों तरफ गंदगी और बीमारी
बसेरा करती थी
उस पर जो डाली उन्होंने अपनी तीक्ष्ण दृष्टि
सब साफ हो गयी
उनके तेज का यह परिणाम था कि
गरीबी की रेखा यहां आफ हो गयी
आज खड़े हैं यहां महल और कारखाने
पेड़ पौधो के थे यहां कभी जमाने
आज पत्थरों और ईंट के बुत खड़े हैं
उनके विकास की धारा का परिणाम है
अब यहां आदमी नहीं मिलता
लोग देते हैं घर के नौकरों के लिये विज्ञापन
देखो अब यहां कितना काम है
उन्होंने इस तरह गरीबी को भगाकर
अमीरी का यहां बसेरा बसाया

उसकी कविता से उस धनी परिवार के सदस्य प्रसन्न हो गये और उसे स्मृति कार्यक्रम में सर्वश्रेष्ठ कवि का सम्मान दिया।
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वफा मुफ्त में नहीं मिलती-हिंदी शायरी


वफा अब मुफ्त में नहीं मिलती
अगर दाम देने की ताकत हो पास तो
बेचने वाले सौदागरो की भीड़ दिखती
ओ बाजार में खड़े इंसान
अपने मन में कोई खुशफहमी में आकर
किसी से बिना मतलब वफा की
उम्मीद कभी न करना
वफा के सौदागर तरक्की में लगे हैं
उन्हें भी यह कभी मुफ्त में नहीं मिलती
कौड़ी के भाव भले ही खरीद लें वह
पर आम इंसान को सोने के भाव मिलती
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पहले एक कौवा दिखा दो-व्यंग्य कविता


एक श्रोता ने कवि से कहा
‘अपने को बहुत बड़ा कवि समझते हो तो
कौवे पर कोई व्यंग्य कविता लिख कर दिखा दो’
कवि ने उदास होते हुए कहा
‘कौवे पर कविता लिख सकता हूं
पर वीभत्स रस से सराबोर हो जायेगी
सुन लोगे तो तुम्हें रात भर
नींद नहीं आयेगी
कौवे की तस्वीर भी तुम्हें सतायेगी
जिसकी नस्ल ही लुप्त हो रही हो
अब पहले की तरह कांव-कांव कर
कहां नजर आते
दिख जायें तो इंसानों की
बुरी नजर का शिकार हो जाते
उस पर व्यंग्य कविता कैसे लिखें
तुम कहीं चलकर पहले एक कौवा दिखा दो’
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भिखारी से साक्षात्कार-लघुकथा (intervew with bagger-hindi laghu kahani)


            वह लेखक मंदिर के अंदर गया और वहां से बाहर लौटा तो गेहूंआ कुर्ता और सफेद धोती पहले और माथे पर लाल तिलक लगाये एक भिखारी ने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया और बोला-‘बाबूजी जरा चाय के लिये दो रुपये दे दो।’
लेखक ने मंदिर के अंदर करते हुए देखा था कि कोई दानी व्यक्ति भिखारियों के बीच खाने का सामान बांट रहा था और उसे लेकर वही भिखारी भी खा रहा था।
          लेखक ने उसे घूर कर देखा तो वह बोला-‘‘आज खाना तो मिला नहीं। अब चाय पीकर ही काम चलाऊंगा।”

         वह हाथ फैलाये उसके सामने खड़ा होकर झूठ बोल रहा था। लेखक ने उससे कहा-“मैं तुम्हें दस रुपये दूंगा, पर इससे पहले तुम्हं साक्षात्कार देना होगा। आओ मेरे साथ!”

         थोड़ी दूर जाकर उस लेखक ने उससे पूछा-“तुम्हारे घर में क्या तुम अकेले हो?”

          भिखारी-“नही! मुझे दो लड़के हैं और दो लडकियां हैं। सबका ब्याह हो गया है?”

           लेखक-“फिर तुम भीख क्यों मांगते हो? क्या तुम्हारे लड़के कमाते नहीं हैं या फिर तुम्हें पालनेको तैयार नहीं है?।”

           भिखारी-“बहुत अच्छा कमाते हैं, पर आजकल बाप को कौन पूछता है? वैसे वह मेरे को घर पर मेरे को सूखी रोटी देते हैं क्योंकि उनको लगता है कि मैं बीमार न हो जाऊँ। मैं चिकनी चुपड़ी और माल खाने वाला आदमी हूं,इसलिए भीख मांगकर मजे ही करता हूँ।”

        लेखक-“इस उमर में वैसे भी कम चिकनाई खाना चाहिए। गरिष्ठ भोजन नहीं करने से अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं। डाक्टर लोग यही कहते हैं।”

         भिखारी-“यह काड़ा तो वह तो सेठों के लिये कहते हैं जो सारा दिन एक जगह बैठे रहते हैं। हम भिखारियों के लिये नहीं जो सारा दिन यहाँ से वहाँ चलते रहते हैं।”

         लेखक-“मंदिर में अंदर जाते हो।”

भिखारी-“मंदिर के अंदर हमें आने भी नहीं देते और न हम जाते। हम तो बाहर भक्तों के दर्शन ही कर लेते हैं। भगवान ने कहा भी है कि मेरे से बड़े तो मेरे भक्त हैं। भक्तों का दान हमारे लिए भगवान का प्रसाद है भले ही लोग इसे भीख कहते हैं।”

    लेखक-“रहते कहां हो?”

       भिखारी-“एक दयालू सज्जन ने हम भिखारियों के लिये एक मकान किराये पर ले रखा है। उसमें वही किराया भरता है।”

        लेखक-“तुम्हारे लड़के तुम्हें अपने घर नहीं रखते या तुम उनके साथ रहना नहीं चाहते?”

यह लघुकथा इस ब्लाग दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका पर मूल रूप से प्रकाशित है। इसके प्रकाशन के लिये अन्य कहीं अनुमति प्रदान नहीं की गयी है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

         भिखारी-“वह तो मिन्नतें करते हैं पर इसलिए नहीं कि मुझसे  कोई उनको प्रेम करते हैं बल्कि इसलिए कि उनको मारे भीख मांगने से इज्ज़त खराब होती दिखती है इसलिए अपने यहाँ रहने के लिए कहते हैं।   वहां कौन उनकी चिकचिक सुनेगा इसलिए भीख मांगना अच्छा लगता है।  मैं तो बचपन से ही आजाद रहने वाला आदमी हूं। पूरी ज़िंदगी भीख के सहारे गुजर दी, अब क्या पवाह करना? वह बच्चा मुझे  क्या खिलायेंगे मैंने ही अपनी भीख से उनको बड़ा किया है।  मैंने खाने के मामले में बाप की परवाह नहीं की। वह भी सूखी खिलाता था पर बाहर मुझे भीख मांगने पर जो खाने का मिलता था वह बहुत अच्छा होता था।”

         लेखक-“बचपन से भीख मांग रहे हो। बच्चों की शादी भी भीख मांगते हुए करवाई होगी?”

        भिखारी-“नहीं! पहले तो मेरा बाप ही मेरे परिवार को पालता रहा। उसने मेरी  बीबी  को किराने  कि दुकान खुलवा दी कुछ दिन उससे काम चला  फिर बच्चे थोड़े बड़े हो गये तो नौकरी कर वही काम चलाते रहे। मैं अपनी बीबी के लिये ही कुछ सामान घर ले जाता हूं। वह बच्चों के पास ही रहती है। आजकल की औलादें ऐसी हैं उसकी बिल्कुल इज्जत नहीं करतीं। मैं सहन नहीं कर सकता।’

       लेखक-तुम्हें भीख मांगते हुए शर्म नहीं आती।’

         भिखारी ने कहा-‘जिसने की शर्म उसकी फूटे कर्म।’

        लेखक उसको घूर कर देख रहा था! अचानक उसने पीछे से आवाज आई-‘बाबूजी, इससे क्या बहस कर रहे हो। भीख मांगना एक आदत है जिसे लग जाये तो फिर नहीं छूटती। कोई मजबूरी में भीख नहीं मांगता। जुबान का चस्का ही भिखारी बना देता है।’

       लेखक ने देखा कि थोड़ी दूर ही एक बुढ़िया  भिखारिन पुरानी चादर बिछाये बैठी थी। उसके पास एक लाठी रखी थी और सामने एक कटोरी । उसके पास रखी पन्नी में कुछ खाने का सामान रखा हुआ था जो शायद दानी भक्त दे गये थे और वह अभी खा नहीं रही थी।

         लेखक ने उस भिखारी को दस रुपये दिये और फिर जाने लगा तो वह भिखारिन बोली-‘बाबूजी! कुछ हमको भी दे जाओ। भगवान के नाम पर हमें भी कुछ दे जाओ।’

          लेखक ने पांच रुपये उसके हाथ में दे दिये और अपने होठों में बुदबुदाने लगा-‘भीख मांगना मजबूरी नहीं आदत होती हैं।

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
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ख्यालों का बंधन-हिंदी शायरी


ख्यालों के बंधन में फंसकर
उनके इशारों पर नाचते रहे
जिंदगी मेंं इसलिये हर कदम पर हारते रहे
जो आजाद होकर सोचा
तो सामने हमारे यह बात आई
क्यों हमने उनको अपना सबकुछ माना
जब हमेशा की उन्होंने बेवफाई
दिल की गुलामी से
अच्छा है आजाद ख्याल से जीना
हम क्यों अपना जिस्म
इतने समये से अपने हाथों ही मारते रहे
……………………….

स्वयं पढ़ा कुछ नहीं, दूसरों को लिखना सिखाते हैं-हास्य कविता


आया फंदेबाज और एक
किताब हाथ में थमाते हुए बोला
‘दीपक बापू, लो पकड़ लो यह किताब
‘लिखने के नुस्खें सीखें’
एक दोस्त के घर से उठायी
इसे देखकर तुम्हारी याद आयी
हमारा तो न पढ़ने से वास्ता
न लिखने का जाने रास्ता
तुम ही अंतर्जाल पर लिखते
थक गये लगते हो
फ्लाप की जमात में बैठे
हिट होने की जगह तकते हो
तुम पर तरस आया
इसलिये ले आया
इसे पढ़कर कुछ सीख लो
शायद लेखक की सलाह काम कर जाये
तुम्हारा नाम भी चमक जाये
यही इच्छा हमारी अभी पूरी नहीं हो पायी’

आपनी टोपी उतारकर गंजी खोपड़ी पर
हाथ फेरते हुए
कुछ देर किताब देखी
फिर उठाकर जोर से फैंकी और
कहैं महाकवि दीपक बापू
‘कमबख्त तुम हमारी अक्ल भी हर लेते हो
कभी कभी करारा झटका देते हो
हमने थोड़ी पढ़ी तो
लेखक का नाम पढ़ने का विचार आया
यह कभी हमारे सुनने में नहीं आया
यहां जो कुछ नहीं सीखता वही
दूसरों को सिखाने में जुट जाता है
जो पड़े उनके चक्कर में
कुछ मिलना तो दूर
गांठ से और लुट जाता है
यह लिखता है ऐसा मत लिखो
और ऐसे मत दिखो
खुद ही अभी लिखना शुरू किया लगता है
अगर इसका लिखा देखें तो
अभी पढ़ना शुरू किया ऐसा भी लगता है
यहां जमाने का उसूल है
कुछ सीखे बिना ही
दूसरों को सिखाना शुरू कर दो
शिष्य हुए बिना गुरू का आवेदन कर दो
लिखना हो जिंदगी में
या दिखना हो
हर विषय पर वही लोग
बोलते हैं पहले
जो कुछ सीखने से पहले ही दहले
कोई उनकी अक्ल पर शक न करे
प्रसिद्धि के शिखर पर पहला हक न करे
तमाम गुर उठाकर बाजार में बेचने आ जाते हैं
शक्ल के हों आकर्षक
ख्याल से हों ढीठ
चाल मस्त और मतवाली हों
अदायें दिल बहलाने वाली हों
अपनी तरफ खींचते हैं पहले लोगों का ध्यान
फिर शब्दों का बघारते हैं ज्ञान
ऐसे लोग लिखना सिखाते हैं
भीड़ में दिखने के बहाने जिनको आते हैं
कई लोगों को पढ़ते हैं हम भी
पर वह कुछ पढ़ते हैं भी कि नहीं
हमें यह बात समझ में नहीं आयी
हिट और फ्लाप का खेल तो है निराला
अपने गुरु के आदेश पर हमने कभी मोह नहीं पाला
अब कोई दूसरा गुरु कुछ सिखा दे
ऐसा नजर नहीं आता भ्
उठा लो किताब यह हमें नहीं चाहिये
जो सीखा है वह भी भूल जायेंगे भाई’
…………………………………

अब रास्ते से निकलने के लिये तरसे-हास्य कविता


बरसों से कभी ऐसे मेघ नहीं बरसे
हमेशा रहा जल का अकाल
हम पानी की बूंद बूंद को तरसे
बहुत सारी शायरी प्यास पर लिखी
तो कई कवितायें गर्र्मी पर रच डाली
पसीने में नहाते हुए मेघों पर
अपने व्यंग्य शब्दों से हम अधिक बरसे

इस बार राशन पानी लेकर आसमान में मेघ आये
लगता है ढूंढ रहे थे हमको
अपनी बरसात से नहलाने को
घर लौटने से ऐसे बरस जाते हैं
कि तालाब बनी सड़कों से
घर पहुंचने का रास्ता निकालने के लिये
अब तो रोज तरसे

उस दिन साइकिल समेत
मझधार में फंसे थे
आगे कार तो पीछे टूसीटर अड़े थे
आसमान से बरसते मेघों को देखकर
हमें अपने पर ही रहम आया
एक मेघ अपना कोटा पूरा कर
हमारे सामने आया
और बोला
‘और गर्मी पर कविता लिख
हमारी मजाक उड़ाता दिख
जब भी देख गर्मी में नहाते हुए ही
अपनी कविता लिखता है
सारे जमाने को कार की बजाय
साइकिल पर चलता दिखता है
भला! इसमे हमारा क्या दोष
जो हम पर दिखाता है रोष
कार और पैट्रोल का खर्च बचाता है
इसलिये साइकिल में तेरा तेल निकल जाता है
पिछली बार गर्मी पर कविता लिखकर
अपने ब्लाग पर हिट हुआ था
हास्य कविता के रूप में फिट हुआ था
अब हम पर हास्य कविता लिख
पर हमारे संदेश के साथ खड़ा दिख
सुन हम क्यों नहीं बरसों से, जो अब ऐसे बरसे
सारे नाले और नालियां बंद कर
हमारे जल का मार्ग अवरुद्ध कर दिया
तुम इंसानों ने
धरती पुत्र पेड़ पौद्यों का कत्ल किया
तुम्हारे बीच बरसे शैतानों ने
एक तरफ बरसी दौलत तो
दूसरी और हरियाली को लोग तरसे
अपने विनाश का खुद ही किया इंतजाम
इसलिये कई बरसों ऐसे नहीं बरसे

इस बार जमकर बरस कर बता दिया
जमकर बरसते हुए पग-पग पर
सड़कों और पंगडंडियों को
जलमग्न बना दिया
प्रकृति से छेडछाड़ का नतीजा दिखा दिया
अगर चाहते हो कि हर बरस बरसें तो
हास्य कविता पर हम लिख
प्रकृति को प्यार करने का
इंसानों को संदेश देता दिख
लोगों को बता दे कि
अपने ही भूलों से जो किया विनाश इस धरती का
इसलिये ही पहले पानी को
अब रास्ते से निकलने के लिये तरसे
…………………………………………..

खबरों की खबर देने वाले-व्यंग्य कविता


खबरों की खबर वह रखते हैं
अपनी खबर हमेशा ढंकते हैं
दुनियां भर के दर्द को अपनी
खबर बनाने वाले
अपने वास्ते बेदर्द होते हैं

आंखों पर चश्मा चढ़ाये
कमीज की जेब पर पेन लटकाये
कभी कभी हाथों में माइक थमाये
चहूं ओर देखते हैं अपने लिये खबर
स्वयं से होते बेखबर
कभी खाने को तो कभी पानी को तरसे
कभी जलाती धूप तो कभी पानी बरसे
दूसरों की खबर पर फिर लपक जाते हैं
मुश्किल से अपना छिपाते दर्द होते हैं

लाख चाहे कहो
आदमी से जमाना होता है
खबरची भी होता है आदमी
जिसे पेट के लिये कमाना होता है
दूसरों के दर्द की खबर देने के लिये
खुद का पी जाना होता है
भले ही वह एक क्यों न हो
उसका पिया दर्द भी
जमाने के लिए गरल होता
खबरों से अपने महल सजाने वाले
बादशाह चाहे
अपनी खबरों से जमाने को
जगाने की बात भले ही करते हों
पर बेखबर अपने मातहतों के दर्द से होते हैं

कभी कभी अपना खून पसीना बहाने वाले खबरची
खोलते हैं धीमी आवाज में अपने बादशाहों की पोल
पर फिर भी नहीं देते खबर
अपने प्रति वह बेदर्द होते हैं
—————————-
दीपक भारतदीप

मौसम अच्छा हो तो घर पर ही मन जाती है पिकनिक -व्यंग्य


अपने जीवन में मैं अनेक बार पिकनिक गया हूं पर कहीं से भी प्रसन्न मन के साथ नहीं लौटा। वजह यह कि बरसात का मौसम चाहे कितना भी सुहाना क्यों न हो अगर दोपहर में पानी नहीं बरस रहा तो विकट गर्मी और उमस अच्छे खासे आदमी को बीमार बना देती है।
वैसे अधिकतर पिकनिक के कार्यक्रम पूर्वनिर्धारित होते हैं और उनको उस समय बनाया जाता है जब बरसात हो रही होती है। जिस दिन पिकनिक होती है पता लगा कि बरसात ने मूंह फेर लिया और सूर्य नारायण भी धरती के लालों को पिकनिक बनाते हुए देखने के लिये विराट रूप में प्रकट हो जाते हैं। वह कितने भी स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखें पर उनका स्परूप दोपहर में विकट होता है। ऐसे में पसीने से तरबतर होते हुए जबरन खुश होने का प्रयास करना बहुत कठिन होता है।

आखिर मैं क्यों इन पिकनिकों पर क्या जाता हूं? होता यह है कि कई लोग तो ऐसे हैं जो वर्ष में एक बार इस बहाने मिल जाते हैं। दूसरा यह कि कई संगठनों और समूहों में मै। इस तरह सदस्य हूं कि हमारा पिकनिक का पैसा स्वतः ही जमा हो जाता है और भरना हो हमें होता ही है। सो चले जाते हैं
अब उस दिन भाई लोग भी जबरन पिकनिक मनाते हैं। वहां साथी और मित्र नहायेंगें, शराब पियेंगे और कभी कभार जुआ खेलेंगे। कहते यही हैं कि ‘ऐसे ही एंजोय(यही शब्द उपयोग वह करते हैं) किया जाता है।’
नाश्ता और खाना होता है। नाश्ता दोपहर में तो भोजन शाम को होता है। हम तो बातचीत करते हैं पर लगता है कि ऐसी जगहों पर शराब और नहाने से परहेज होने के कारण हम अकेले पड़ जाते हैं और फिर वहां अपने जैसे ही लोगों के साथ बतियाते हैं। खाना खाकर शाम को घर लौटते हैं तो ऐसा लगता है कि स्वर्ग में लौट कर आये। आखिर अपने आपसे ही पूछते हैं कि‘ फिर हम पिकनिक मनाने गये ही क्यों थे?’

एक बार नहीं कई बार ऐसा हुआ हैं। इन्हीं दिनों में कई लोगों के जलाशयों में डूब जाने के समाचार आते हैं और कहीं कहीं तो चार-चार लोगों के समूह जलसमाधि ले लेते हैं और फिर उनके परिवारों का विलाप कष्टकारक होता ही। अभी तक मैं जिन पिकनिक में गया हूं वहां कहीं ऐसा हादसा नहीं हुआ पर अपने चार मित्रों की ऐसी ही हृदय विदारक घटना में जान जा चुकी है। उनको याद कर मन में खिन्नता का भाव आ जाता है।

यह मौसम पिकनिक का मुझे कतई नहीं लगता पर लोग बरसात होते ही जलाशयों की तरफ देखना शूरू कर देते हैं। अक्सर सोचता हूं कि यह पिकनिक की परंपरा शूरू हुई कैसे? अगर हम अपने पुराने विद्वानों की बात माने तो उन्होंने इस मौसम में अपने मूल स्थान से की अन्यत्र जाना निषिद्ध माना है। इस नियम का पालन सामान्य आदमी ही नहीं बल्कि राजा, महाराजा और साधू संत तक करते थे। व्यापारी दूर देश में व्यापार, राजा किसी दूसरे देश पर आक्रमण और साधु संत कहीं धर्मप्रचार के लिये नहीं जाते थे। कहते हैं कि उस समय सड़कें नहीं थी इसलिये ऐसा किया जाता था पर मुझे लगता है कि यह अकेला कारण नहीं था जिसकी वजह से पारगमन को निषिद्ध किया गया।

इस समय आदमी मनस्थिति भी बहुत खराब होती है और सड़क कितनी भी साफ सुथरी हो उमस के माहौल में एक अजीबोगरीब बैचेनी शरीर में रहती है। बहुत पहले एक बार एक पिकनिक में मुझे एक दोस्त ने एक पैग शराब पीने को प्रेरित किया तो मैंने सोचा चलो लेते हैं। उस दिन मैंे नहाने की जलाशय में उतरा। मुझे तो बिल्कुल मजा नहीं आया। जब बाहर निकला तो तुरंत पसीना निकलने लगा। घर लौटते हुए ऐसा लग रहा था कि बीमार हो गया हूं।
जलाशयों में उतरने पर एक तो ऊपर की गर्मी और फिर पानी के थपेड़े किसी भी स्वस्थ आदमी को विचलित कर सकते हैं यह मेरा अनुभव है पर लोगों में अति आत्मविश्वास होता है और फिर कुछ लोगों को इसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है।
आजकल बरसात जमकर हो रही है तो शायद कई लोगों को ऐसा नहीं लगता होगा पर अगर ठंडी हवाओं का आनंद तो कहीं भी लिया जा सकता है। उस दिन सुबह मैं योग साधना कर रहा था तो कड़े आसनो के बाद भी मुझे पसीना नहीं आया तब मुझे आभास हुआ कि मौसम अच्छा है। प्राणायम करते हुए नाक के द्वारा अंदर जाती शीतल हवा ऐसा सुखद आभास देती थी कि उसके भाव को व्यक्त करने के लिये मेरे पास शब्द ही नहीं है। वैसे भी योगसाधना के समय मौसम के अच्छे बुरे होने की तरफ मेरा ध्यान कम ही जाता है।

वहां से निवृत होकर मैं नहाया और फिर अपने नियमित अध्यात्मिक कार्यक्रम के बाद मैंने चाय पी। उस समय घर में बिजली नहीं थी। इसलिये मैं बाहर निकला। बाहर आते ही मैंने देखा कि आसमान में बादल थे और शीतल हवा बह रही थी। उस सुखद अनुभूति से मेरा मन खिल उठाा और शरीर में एक प्रसन्नता के भाव का संचार हुआ। तब मैं सोच रहा था कि ‘क्या पिकनिक के लिये इससे कोई बढि़या जगह हो सकती है।’
मैने साइकिल उठाई और अपने घर से थोड़ी देर एक मंदिर में पहुंच कर ध्यान लगाने लगा। मंदिर के आसपास पेड़ और पौघों की हरियाली और शीतल पवन का जो अहसास हुआ तो मुझे नहीं लगा कि कभी किसी पिकनिक में ऐसा हुआ होगा। उसी दिन एक मित्र का फोन आया कि‘पिकनिक चलोगे?’
उसने पांच दिन आगे की तारीख बताई तो मैंने उससे कहा-‘अगर मौसम अच्छा रहा तो मेरे आसपास अनेक पिकनिक मनाने वाली जगह हंै वहीं जाकर मना लूंगा और अगर उस दिन खराब रहा तो कहीं भी सुखद अहसास नहीं हो सकता। इसलिये मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकता।’

हमारे अनेक कवियों ने वर्षा पर श्रृंगाार रस से भरपूर रचनाएं कीं पर किसी ने पिकनिक का बखान नहीं किया। सच भी है कि अगर ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ ऐसे ही नहीं कहा जाता। ऐसी पिकनिक मनाने से क्या फायदा जो बाद में मानसिक संताप में बदलती हो। घर आकर यह सोचते हों कि‘आज का समय व्यर्थ ही गंवाया’।

चिंतन शिविर-हास्य कविता


अपने संगठन का चिंतन शिविर
उन्होंने किसी मैदान की बजाय
अब एक होटल में लगाया
जहां सभी ने मिलकर
अपना समय अपने संगठन के लिये
धन जुटाने की योजनायें बनाने में बिताया
खत्म होने पर एक समाज को सुधारने का
एक आदर्श बयान आया
तब एक सदस्य ने कहा
-‘कितना आराम है यहां
खुले में बैठकर
खाली पीली सिद्धांतों की बात करनी पड़ती थी
कभी सर्दी तो गर्मी हमला करती थी
यहां केवल मतलब की बात पर विचार हुआ
सिर्फ अपने बारे में चिंतन कर समय बिताया’
……………………………

दीपक भारतदीप

हर रोज जंग का माडल, हर समय होता-व्यंग्य कविता


हर इंसान के दिल की पसंद अमन है
पर दुनियां के सौदागरों के लिये
इंसान भी एक शय होता
जिसके जज्बातों पर कब्जा
होने पर ही सौदा कोई तय होता
बिकता है इंसान तभी बाजार में
जब उसके ख्याल दफन होते
अपने ही दिमाग की मजार में
जब खुश होता तो भला कौन किसको पूछता
सब होते ताकतवर तो कौन किसको लूटता
ढूंढता है आदमी तभी कोई सहारा
जब उसके दिल में कभी भय होता
उसके जज्बातों पर कब्जो करने का यही समय होता

चाहते हैं अपने लिये सभी अमन
पर जंग देखकर मन बहलाते हैं
इसलिये ही सौदागर रोज
किसी भी नाम पर जंग का नया माडल
बेचने बाजार आते हैं
खौफ में आदमी हो जाये उनके साथ
कर दे जिंदगी का सौदा उनके हाथ
सब जगह खुशहाली होती
तो सौदागरों की बदहाली होती
इसलिये जंग बेचने के लिये बाजार में
हमेशा खौफ का समय होता

बंद कर दो जंग पर बहलना
शुरू कर दो अमन की पगडंडी पर टहलना
मत देखो उनके जंग के माडलों की तरफ
वह भी बाकी चीजों की तरह
पुराने हो जायेंगे
नहीं तो तमाम तरह की सोचों के नाम पर
रोज चले आयेंगे
पर ऐसा सभी नहीं कर सकते
आदमी में हर आदमी से बड़े बनने की ख्वाहिश
जो कभी उसे जंग से दूर नहीं रहने देगी
क्योंकि उसे हमेशा अपने छोटे होने का भय होता
सदियां गुजर गयी, जंगों के इतिहास लिखे गये
अमन का वास्ता देने वाले हाशिये पर दिखे गये
इसलिये यहां हर रोज जंग का माडल हर समय होता
………………………………..

ख्याल तो हैं जलचर की तरह-हिंदी शायरी



मन का समंदर है गहरा
जहां ख्याल तैरते हैं जलचर की तरह
कुछ मछलियां सुंदर लगती हैं
कुछ लगते हैं खौफनाक मगरमच्छ की तरह

देखने का अपना अपना नजरिया है
मोहब्बत हर शय को खूबसूरत बना देती है
नफरत से फूल भी चुभते हैं कांटे की तरह
इस चमन में बहती है कभी ठंडी तो कभी गर्म हवा
मन जैसा चाहे नाचे या चीखे
नहीं उसके दर्द की दवा
न एक जगह ठहरते
न एक जैसा रूप धरते
ख्याल तो हैं बहते जलचर की तरह
…………………………..

दीपक भारतदीप

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मैं नहीं हूं कोई सिकंदर-हिंदी शायरी


किसे मित्र कहें किसे शत्रू
आदमी बंटा हुआ है अपने अंदर
सिमट जाता है अपने ख्यालों में
एक तालाब की तरह
जब मिलती है जिंदगी जीने के लिये जैसे एक समंदर

दोस्ती के लिये फैले हैं इतने लोग
पर दायरों मेंे ही वह निभाता
जिनको जानता है उनसे करता सलाम
अजनबियों से मूंह फेर जाता
दोस्तों में भी अपने और गैर का करता भेद
कीड़े की तरह बहुत से नाम वाले समूह में
अपने लिये ढूंढता छेद
नाचता ऐसे है जैसे बंदर

देखा है अकेले में लोगों को अपना कहते हुए
अपने मिलते ही दूर होते हुए
फिर अपनी हालातों पर अपनों की
बेवफाई पर रोते हुए
फिर भी निकल नहीं पाते दायरों से
लगते हैं कायरों से
फिर भी नहीं तोड़ता भरोसा उनका
वह तोड़ जायें अलग बात है
मजबूर और लाचार हैं
दायरों में कैद रहने की आदत है उनकी
भला मैं उनको कैसे निकाल पाऊंगा
जो जन्म से उनको बांधे हैं
मैं नहीं हूं कोई सिकंदर
……………………………………………
दीपक भारतदीप

पाठ का इतना हिट होना मेरे लिये विस्मय का विषय-आलेख


मुझे विस्मय इस बात का है कि कबीरदास जी के मात्र दोहे और उनका अनुवाद प्रस्तुत करने वाले उस पाठ पर पाठकों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। कल उस पर चालीस व्यूज थे। मैंने पाठकों के आने का मार्ग देखा तो पाया कि गूगल के अनुवाद टूल पर अंग्रेजी में पढ़ी गयी थी। दोहे उसमें सही नहीं आ रहे थे। यह पाठ मात्र चार दिनों में ही ढाई सौ से अधिक व्यूज जुटा चुका है।

मैंने कबीरदास के इतने दोहे अनुवाद कर प्रकाशित किये कुछ पर अपनी सीमित बुद्धि से व्याख्याएं लिखी हैं कि उनकी संख्या का अनुमान मुझे भी नहीं है। यह पाठ मैंने उन दिनों लिखा था जब मैं यूनिकोड में रोमन लिपि में लिखता था और इस कारण सुबह अपनी व्याख्या लिखने का मेरे पास समय नहीं होता था। इस बात का उल्लेख करना ठीक रहेगा कि आजकल इस ब्लाग/पत्रिका पर मैं सामान्य आलेख और कवितायें ही लिखता हूं पर यह पाठ जिस तरह पढ़ा जा रहा है उससे मुझे हैरानी है। एक ने तो नारे में रूप में लिखा है कि हम तो कबीर के दोहे पढ़ना चाहते हैं। हालत यह है कि मेरे नये पाठ जितने व्यूज जुटाते हैं उससे तीन गुना तो यही पाठक जुटा रहा है।

लगता है कि कहीं हिंदी अंग्रेजी टूल के प्रयोग के लिये इसका चयन तो नहीं किया गया कि जिससे सभी प्रकार के दोहे भी अंग्रेजी में अनुवाद हो सकें और इसे देखा जा रहा हो। वैसे इस बीच मुझे यह लग रहा है कि शायद हिंदी अंग्रेजी टूल हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद करने में थोड़ा सुधार लिया गया है। आजकल वर्डप्रेस के शीर्षक में अंग्रेजी टूल से अनुवाद कर देखता हूं तो ठीकठाक दिखते हैं। मैंने एक अंग्रेजी के जानकार से इसकी पुष्टि भी करवाई थी। हां, अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद ठीक नहीं लगा रहा पर एक बार अगर हिंदी अनुवाद देखकर अंग्रेजी को पढ़ा जाये तो समझने में सुविधा तो होती है।
जिस पाठ की मैं चर्चा कर रहा हूं एक सामान्य पाठ है और कबीरदास जी के दोहों से तो मेरे अनेक ब्लाग भरे पड़े हैं। ऐसे में इस पाठ के लिये इतना आकर्षण क्यों दिखाई दे रहा है? हालांकि यह दोनों दोहे जीवन के रहस्य को समेटे हुए हैं पर कबीरदास जी के तो अनेक दोहे इसी प्रकार के हैं। कभी कभी तो लगता है कि अब मुझे अन्य कुछ लिखने की आवश्यकता ही नहीं या दोहे ही शायद मुझे वह ख्याति दिलवा देंगे जिसकी कल्पना मैंने नहीं की है। हालांकि यह मजाक लगता है पर जिस तरह यह पाठ पढ़ा जा रहा है उससे देखकर कोई भी यह कह सकता है। यह क्रम चल रहा है देखना है कब तक चलता है और इसका रहस्य क्या है? यह मेरे लिये दिलचस्पी का विषय बना हुआ है। यह पाठ अभी तक 1115 बार पढ़ा जा चुका है