धन का शिखर
हमेशा चमकदार दिखता है
मगर कोई चढ़ नहीं पाता।
एक रुपये की चाहत
करोड़ों तक पहुंचती
चढ़ते जाते फिर भी लोग शौक से
चाहे वह हमेशा दूर ही नज़र आता।
कहें दीपक बापू माया की दौड़ में
शामिल धावकों की कमी नहीं है,
कुछ औंधे मुंह गिरे
जो दौड़ते रहे
फिर भी उनको
सफलता जमी नहीं है,
यह माया का खेल है
किसी के हाथ आयी
किसी के हाथ से गयी
जीतकर भी कोई नहीं
सिर ऊंचा कर पाया
नाकाम धावक
प्राण भी दांव पर लगाता है।
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हर शहर में
ऊंचे और शानदार भवन
सीना तानकर खड़े हैं।
आंखें नीचे कर देखो
कहीं गड्ढे में सड़क हैं
कहीं सड़कों पर गड्ढे
पैबंद की तरह जड़े हैं।
कहें दीपक बापू खूबसूरत
शहर बहुत सारे कहलाते हैं,
कूड़े के मिलते ढेर भी
आंखों को दहलाते हैं,
विकास की दर ऊपर
जाती दिखती जरूर है
मुश्किल यह है कि
हमारी सोच स्वच्छ नहीं हो पाती
गंदी सांसों में फेर में जो पड़े हैं।
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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
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