उपदेश देते हुए उनकी
जुबान बहुत सुहाती हैं,
और बंद कमरे में उनकी हर उंगली
चढ़ावे के हिसाब में लग जाती है।
किताबों में लिखे शब्द उन्होंने पढ़े हैं बहुत
सुनाते हैं जमाने को कहानी की तरह
पर अकेले में करते दौलत का गणित से हिसाब
लिखने में कलम केवल गुणा भाग में चल पाती है।
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अपनी भाषा छोड़कर
कब तक कहां जाओगे,
किसी कौम या देश का अस्त्तिव
कभी भी मिट सकता है
परायी भाषा के सहारे
कहां कहां पांव जमाओगे।
दूसरों के घर में रोटी पाने के लिये
वैसी ही भाषा बोलने की चाहत बुरी नहीं है
दूसरा घर अकाल या तबाही में जाल में फंसा
तो फिर तुम कहां जाओगे।
अपनी भाषा तो नहीं आयेगी तब भी जुबां पर
फिर दूसरे घर की तलाश में कैसे जाओगे।
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मशहूर हो जाने पर
वही बताओ दूसरों को रास्ते,
जो चुने नहीं तुमने अपने वास्ते।
कुछ नया कहने के लिये
चारों तरफ तुम्हें तारीफ भी मिलेगी,
तुम्हारे चाहने वालों के चेहरे
पर हंसी भी खिलेगी,
सोचने का शऊर न हो
पर दिखना तो चाहिये,
भले ही लफ्ज़ खुद न समझो
पर लिखना तो चाहिये,
कोई नया आकर तुम्हारी जगह न ले
इसलिये रास्ता बंद कर दो
आहिस्ते आहिस्ते।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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