कुछ भ्रम, कुछ सत्य- हिन्दी हास्य व्यंग्य ( Some confusion, some truth – Hindi comedy satire)


इस देश में भ्रम भी सच की तरह बिकता है यह तो बहुत समय से देखते आ रहे है पर इस कदर विवेकवान और पढ़े लिखे लोग भी वाद और नारों की बाढ़ में बह सकते हैं यह कभी सोचा नहीं था। टीवी चैनल,अखबार और अंतर्जाल पर कई ऐसी घटनाओं की विवेचना देखता हूं जो यथार्थ से परे केवल कल्पना या झूठ पर आधारित होती हैं।

बात शुरु करें ‘चक दे इंडिया फिल्म से’। उसका गाना बहुत हिट हुआ और जहां देखों वही गाना बज रहा है। फिल्म में दिखाया गया था कि भारत की महिला टीम विश्व कप विजेता बन जाती है। ऐसा कभी नहीं हुंआ पर फिल्म पर ऐसी बहस हो रही थी जैसे कि कोई वास्तविक घटना हो। सच बात तो यह है कि भारत ने पिछले पच्चीस वर्ष में किसी भी खेल में विश्व कप नहीं जीता था पर लोग ऐसे झूम रहे थे कि गोया कि वास्तव में भारत ने विश्व कप जीत लिया हो। उस दौरान कहीं भारतीय क्रिकेट टीम कोई मैच जीत लेती थी तो बस यही गाना बजता था। भारतीय क्रिकेट टीम 1906 में जब विश्व खेलने जा रही थी तब उसके ऐसे प्रचार हुआ कि जैसे वह विश्व कप जीत कर लाई हो।

अभी हाल ही में स्लमडाग मिलेनियर फिल्म बनी है। वह एक काल्पनिक कथा है-और गरीब लड़के के अमीर बनने की अनेक कहानियों पर हमारे देश में फिल्म बनी है- पर इस फिल्म पर ऐसे बहस हो रही है जैसे कि वास्तव में कोई गंदी बस्ती का लड़का अमीर बन गया हो।
हमारे देश में ‘फिल्मों’’ और उर्दू शायरों ने इश्क को ऐसी आराधना के रूप में स्थापित किया है जिसमें एक स्त्री पुरुष का प्रेम ही इस सृष्टि का अंतिम बताया जाता है। इसमें स्त्री को तो जीवन में एक बार वह भी युवावस्था में ही प्रेम करने की इजाजत है पर पुरुष को बाल बच्चे और पत्नी जीवित रहते हुए दूसरा विवाह करने की इजाजत है। उमर का पुरुष के लिये कोई बंधन नहीं है।
वैसे तो दुनियां कोई भी धर्म अपनी स्त्री को एक विवाह करने की इजाजत देता है पर पुरुष के लिये कोई बंधन नहीं है। हां, कुछ देशों ने ऐसे कानून बनाये हैं जिसमें किसी धर्म विशेष के पुरुषों को एक ही विवाह करने की इजाजत है। अपने देश में ही केवल एक ही धर्म के लोगों को चार विवाह करने की छूट है पर बाकी धर्म वालों की इसकी इजाजत नहीं है। ऐसे में हुआ यह है कि फिल्मों के एक दो अभिनेताओं ने धर्म बदल कर पहली पत्नी को तलाक दिये बिना ही दूसरा विवाह कर लिया। बस उससे देश में ऐसी परंपरा शुरु हुई। प्रचार माध्यमों में सक्रिय लोग स्त्रियों के कल्याण के लिये बहुत सक्रिय रहते हैं पर इश्क ही है इबादत के नारे में वह ऐसे लोगों का समर्थन करते हैं जो अपनी पत्नी को बेसहारा छोड़कर दूसरी के साथ हो जाते हैं। तब इन प्रचार माध्यमों को बस इश्क दिखाई देता है। आदमी की पहली पत्नी तो उनके लिये परिदृश्य मे रहने वाली एक निर्जीव वस्तु की तरह हो जाती है।

अभी कुछ दिनों पहले ही एक घटना हुई थी जिसमें आदमी ने धर्म बदलकर दूसरा विवाह कर लिया। उसकी पत्नी और युवा बच्चे भी हैं पर प्रचार माध्यम और बुद्धिजीवियों ने इस इश्क की कथित दास्तान पर खूब लिखा। समाज को हजारों गालियां दी। उस आदमी के पूरे परिवार को इश्क का दुश्मन बताया तब यह भी विचार नहीं किया कि उसकी पहली पत्नी और बच्चों के मन पर ऐसे प्रचार से क्या गुजरेगी? अब सुनने में आया कि उस आदमी की दूसरी पत्नी ने आत्महत्या का प्रयास किया। ऐसे में कुछ बुद्धिजीवी और लेखक -जिसमें महिलायें भी शामिल हैं-फिर इस बात पर बहस कर रहे हैं कि किस तरह एक स्त्री पूरे समाज से संघर्ष कर रही है-वह उनके लिये लिये नायिक बन गयी है। सभी उसे क्रांतिकारी साबित करने में लगे हैं पर पहली पत्नी और बच्चों के जीवन पर प्रकाश उालने के लिये न तो उनके पास शब्द हैं और न ही समय। गनीमत है किसी ने उनको खलनायक बनाने का प्रयास नहीं किया। अगर इस तरह प्रकरण चला तो हो सकता है कि प्रचार माध्यम इश्क को पवित्र बनाने के लिये पहली पत्नी और बच्चों को खलनायक ही घोषित करने वाली कहानियां बनाने लगें।

भई, हम तो कहते हैं कि अगर इतना ही इश्क का मोह है तो क्यों नहीं यह मांग करते हो कि सभी धर्मो में स्त्री पुरुषों को चाहे जब शादी और तलाक लेने के लिये आसान या बिना तलाक लिये दोनों प्रकार के जीवों-मनुष्यों में स्त्री पुरुष के लिये ही कानून बनते हैं- को ही चाहे जितने विवाह करने का कानून बनाया जाये। अगर स्त्री को अधिक अधिकार नहीं देना तो सभी धर्मों के पुरुषों को ही अधिक विवाह की आजादी देने की मांग तो की ही जा सकती है। इश्क को इबादते मानने वाले ऐसे कानून का विरोध यह कहकर करेंगे कि इससे तो दूसरा विवाह करने वाले पुरुष की स्त्रियां असहाय हो जायेंगी? तुब उनके इश्क का नारा छोड़कर वह प्रगतिवाद का विषय पकड़ने लगते हैं मगर जिस आदमी ने धर्म बदल कर दूसरा विवाह किया है उसकी पहली पत्नी का क्या? तब वह फिर इश्क तो इश्क है के नारे लगाने लगेंगे।
मजे की बात यह है कि पुरुष बुद्धिजीवी और लेखक ही नहीं महिलायें भी दूसरी बीबी के समर्थन में खड़ी हैंं। उन्हें उस क्रांतिकारी दूसरी पत्नी से हमदर्दी है। ऐसे में जो पहली पत्नी और बच्चों की बात करेगा तो वह उनके गुस्से का शिकार हो जायेगा। सभी पुरुषों को इश्क पर चलने की आजादी दिलाने की बात करो तो यही सब लोग बवाल मचा देंगे। ऐसे में सोचते सोचते दिमाग में भ्रम हो जाता है कि आखिर सही रास्ता क्या है? पहली पत्नी जिसने अपना पूरा जीवन एक आदमी के लिये गुजार दिया। उसके बच्चों को जन्म दिया। जब वह बच्चे बड़े हुए और पिता के सहारे आगे बढ़ने के उनको आवश्यकता हुई तब वह दूसरा विवाह कर बैठ गया। उस पर कोई नहीं लिखता।
इन सब बातों को देखकर यह कहना ही पड़ता है कि हमारा आध्यात्मिक ज्ञान वाकई संपूर्ण है और उसको प्रमाणित करने के लिये और बहर बेकार है क्योंकि े सारे विश्व में उसकी मान्यता है। जैसे कमल कीचड़ में और गुलाब कांटों में खिलता है वैसे ही सच की खोज वहीं होती है जहां भ्रम होता है। हमारे मनीषियों ने जीवन के रहस्यों को जानकर जिस सत्य को इस अध्यात्मिक ज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया उसके लिये उनका आभारी नहीं होना चाहिये क्योंकि उनको यहां हमेशा ही भ्रम मेंे रहने वाला एक बड़ा समाज मिल गया जिससे सीखकर वह अनुसंधान और प्रयोग कर सके। बल्कि उन ऋषियों,मुनियों और तपस्वियों को इस समाज का आभार मानना चाहिये जिन्होंने उनको अपने भ्रम के कारण सत्य की खोज करने के के लिये प्रेरित किया। यह ज्ञान निरंतर बृहद रूप लेता गया पर इसका कारण भी यहां के लोग हैं क्योंकि भ्रम में रहने की उनकी आदत ही इसके लिये जिम्मेदार है। गनीमत है कि उन महान ऋषियों और तपस्वियों द्वारा प्रदाय अध्यात्मिक ज्ञान की वजह से अनेक लोग उसके अध्ययन के कारण भ्रम में आने से बचे रहते हैं वरना तो पूरे देश का हाल यही होता कि सूर्य की बजाय चंद्रमा की रौशनी को वास्तविक मान लिया जाता। इस भ्रम का निवारण कोई आसान नहीं होता। बहरहाल देश में इतना बड़ा भ्रम भी चलता है यह आश्चर्य की बात है। टीवी चैनल, समाचार पत्र पत्रिकायें और अंतर्जाल पर पढ़ते हुए तो कई बार अपने आप पर भी संदेह होता है कि हम ही तो कहीं गलत नहीं कह रहे? कहीं हम तो गलत सवाल नहीं उठा रहे? अतर्जाल पर यही सोचकर लिख रहे हैं कि हम तो फ्लाप है और पढ़ने वाले अधिकतर ब्लाग लेखक अपने मित्र हैं इसलिये अगर वाकई हम भ्रम में है तो इसे हमारी मूर्खता मानकर चुप्पी साघ लेंगे। जो अन्य पाठक हैं वह भी इसे मूर्खतापूर्ण बात कहकर भूल जायेंगे। वैसे पाठकों से कभी कोई किसी पाठ पर प्रतिकूल टिप्पणी नहीं मिली इसलिये यह लिखने का साहस कर सके। अब तो इस बात की आशंका है कि इश्क की इबादत को संपूर्णता प्रदान करने वाली दूसरी शादी करने वाली कहानियों में बिचारी पहली पत्नी और बच्चों को खलनायक साबित करने की परंपरा न बन जाये।
………………………………………..
………………………………………..

यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

Post a comment or leave a trackback: Trackback URL.

एक उत्तर दें

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s

%d bloggers like this: