विचारों की धारा-कविता


विचारों की धारा मस्तिष्क में
बहती चली जाती है
जब तक बहती है
अच्छा लगता है
जब एक विचार अटक जाता है
रुकी धारा से दुर्गंध आती है
प्रसन्न्ता का समय
बहता जाता हे
पर दुःख के पल में
घड़ी बंद नजर आती है

एकांत से हटकर भीड़ में जाकर
भला कहां मिलती है शांति
अकेले में भी अपनों के दर्द की
याद आकर सताती है

मन में जगह होती है बहुत
देते हैं किराये पर देते चिंताओं को
खौफ लगता है जमाने का
जो खुद लंगड़ाते चल रहा है
किताबों में लिखी लकीरों को
अपनी लाठी बनाकर
उसमें बदनाम होने का भय
अपने अंदर  लाकर
भला कैसे करते हैं उन चिंताओं से
चैन की आशा
जो अपने साथ बैचेनी ले आती है

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टिप्पणियाँ

  • sameerlal  On 19/05/2008 at 19:07

    बढ़िया है.

  • ghughutibasuti  On 19/05/2008 at 20:45

    बहुत सुन्दर व सही कविता है। ‘विचारों की धारा’ ,क्या सही परिभाषा दी है आपने !
    घुघूती बासूती

  • पर दुःख के पल में
    घड़ी बंद नजर आती है

    गहरी बात । अच्छी बात ।

  • anandita  On 20/05/2008 at 06:33

    bhut sunder hai

  • mehhekk  On 20/05/2008 at 17:25

    एकांत से हटकर भीड़ में जाकर
    भला कहां मिलती है शांति
    अकेले में भी अपनों के दर्द की
    याद आकर सताती है
    ye baat 100percent humpar bhi lagu hai,bahut hi sundar,sahi jab tak vichar behte hai,nadiya se chanchal rehte hai,jab ruk ke unka dabka ban jata hai,durgand aati hai,ek sashakt abhivyakti ke liye bahut badhai.

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