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आजादी दिवस की छूट-स्वतंत्रता दिवस पर हिन्दी हास्य कविता (azadi divas par riyayat-hindi hasya kavita)


कुछ लोगों ने अपनों को
गुलाम रखने की
स्वतंत्रता पाई है,
वरना तो अपने आकाओं की
अभी भी बजा रहे हैं
बस!
केवल स्वतंत्रता दिवस
हर साल मनाने की छूट उन्होंने पाई है।
——-
कहते हैं कि अंग्रेज छोड़ गये
पर अपनी अंग्रेजियत छोड़ गये हैं,
यही कारण है कि
गुलामों के सरदार आज भी बंधक है
उनके ख्यालों के
पर उनके प्रजाजन भी
अंग्रेज बनने की होड़ में लग गये हैं।
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वह मुक्तिदाता कहलाये
वरना तो गुलाम आज भी रखते हैं।
अब तलवार और तोप से नहीं
बल्कि खज़ाना अपने यहां रखकर
ख्यालों से दिमाग को ढंककर
गुलामों में भी सरदार बनाकर,
स्वतंत्रता के भ्रमजाल को अधिक घना कर
अपना शासन बनाये हैं,
साथ ही देवता होने का स्वांग भी रचते हैं।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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लौकी का जूस और मूली-हास्य व्यंग्य


यही है बाज़ार और उससे प्रायोजित प्रचार माध्यमों को खेल कि लौकी भी अब विषैले पदार्थों में शामिल हो सकती है।
हमें याद है जब सात वर्ष पूर्व जब उच्च रक्तचाप की शिकायत होने पर आधुनिक चिकित्सकों के शरण लेनी पड़ी थी।
एक मित्र होम्योपैथी चिकित्सक ने रक्तचाप की नाप ली और कहा कि ‘तुम्हें उच्च रक्तचाप है।’
हमने कहा-‘ज्यादा झाड़ो नहीं! हम अपनी बीमारी स्वयं ही बता देते हैं। हमें शराब की बहुत खराब आदत है। फिर कल मंगलवार होने के कारण व्रत था इसलिये शाम को शादी में खाना देर से खाया। उससे पहले शराब का पैग लिया पर एक घूंट के बाद ही हमारी हालत बिगड़ गयी। बाद में खाना गया तो चैन आया पर रात को नींद आराम से आयी और अब चाय के बाद हालत बिगड़ी है। ऐसा लगता है कि गैस की समस्या है।’
चिकित्सक ने कहा‘-तुम अपनी बीमारी जानते हो तो मेरे पास क्यों आये।’
हमने कहा-‘कोई वायु विकार दूर करने वाली गोली बता दो।’
चिकित्सक ने कहा-‘ मित्र हो इसलिये अभी उच्च रक्तचाप की गोली देता हूं। वह भी आधी लेना और हां शराब और तंबाकू से पीछा छुड़ाओ। साथ ही यह चेकअप की कराओ।’
हमने गोली ली और घर आये। बीमारी की वजह स्वयं को पता थी। शराब से पीछा छुड़ाया। तंबाकू भी एकदम छोड़ दी-हालांकि वह अब भी है और योग साधना के कारण उसके दुष्परिणाम से बचे रहते हैं। उस समय इससे परहेज करने से शरीर के व्यसनों की वजह से सक्रिय अंग ढीले पड़ गये।
उसके बाद शुरु हुआ लोगों से चर्चा का सिलसिला। मधुमेह की समस्या थी पर अधिक नहीं। अब स्थिति यह थी कि हमें लगने लगा कि जीवन ऐसे ही संकट के साथ चलेगा। लोगों की सलाहें ली। एक ने कहा खाने के साथ सलाद लिया करो। हमने मूली खाना प्रारंभ किया। नियमित रूप से लेते और शाम को स्थिति बिगड़ती। मूली हम खाते थे खाना पचाने के लिये पर वह संकट की वजह बन रही है इसका पता चला तब जब किसी ने बताया कि मूली हर किसी को नहीं पचती। हमने दो दिन मूली छोड़ी तो समस्या से निजात मिली।
लोगों ने करेले और लौकी का जूस पीने की सलाह दी। हमने उसे अनसुना किया और अपना इलाज स्वयं ही शुरु किया। हमें पता था कि घरेलू समस्याओं की वजह से चार महीने तक साइकिल चलाना छोड़ने से शरीर में संकट पैदा हुआ है। साइकिल चलाना शुरु की। शराब एकदम कम कर दी पर तंबाकू छूटने नहीं छूटी।
सबकुछ सामान्य था पर मन में यह बात आ गयी कि हम उच्च रक्तचाप के शिकार है। उसी समय अखबार में पढ़ा कि देश के साठ प्रतिशत लोगों को पता ही नहीं कि वह मनोरोग का शिकार है और हमें लगने लगा कि हम उनमें से एक ही हैं। जिस चिकित्सक ने उच्च रक्तचाप के बाद तमाम तरह के चेकअप लिख कर दिये थे उसी ने ही एक अपने से बड़े होम्यापैथिक चिकित्सक के पास भेजा। उसने ही तमाम तरह के चेकअप किये और पर्चे पर लिखा हाईपर ऐसिडिटी। बात हमारी समझ में आ गयी क्योंकि वह हमारे पूर्वानुमान से मेल खाती थी। सब कुछ सामान्य होने के बावजूद मानसिक स्थिति खराब हो चली थी। इसी बीच एक योग शिविर कालोनी में लगा।
हम उन दिनों सुबह घूमने जाते थे। एक सज्जन ने हमसे कहा-‘अरे आप उस योग शिविर में आईये। इस तरह सैर करने से कोई अधिक लाभ नहीं होता।’
हमने शिविर में जाना किया। शिविर में जो शिक्षक आते थे। वह भले आदमी थे। पांचवें दिन योग साधना कर हम घर लौटे तो हालत बिगड़ गयी। तब हमने अपने ही फ्रिज में रखी बर्फी खाकर अपने पर नियंत्रण किया क्योंकि हमें पता था कि वायुविकार के हमले का प्रतिकार करने का यही एक उपाय है।
अगले दिन हमने योग शिक्षक को बताया तो उन्होंने अच्छी बात कहीं। वह बोले-‘एक बात बताईये कि अगर हमारे घर में अनेक किरायेदार हों और हम सबसे मकान खाली करने को कहें तो क्या वह प्रसन्न होंगे? कोई चुपचाप बद्दुआऐं देता जायेगा। कोई लड़ेगा, कोई केस भी कर सकता है। यह आपके अंदर वायु विकार है जो कर आपसे लड़ रहा था क्योंकि योग साधना उसको निकालने आयी थी।’
हमें उसके जवाब ने हतप्रभ कर दिया। सात वर्ष हो गये योग साधना करते हुए।  सच तो यह है कि ज़िन्दगी कि दूसरी पारी है जो योगढ़ना खेल रही है, न कि हम स्वयं!अब किसी चीज पर भरोसा नहीं। न लौकी न करेला। पपीता खाना पड़ता है क्योंकि तंबाकू की वजह से कब्जी का मुकाबला करने के वही काम आता है। तंबाकू न खायें तो खाना तरस जाये कि यह हमें खाता क्यों नहीं और पानी देखता रहे कि यह पीता क्यों नहीं!
जब तनाव के क्षण आते हैं तो हम तंबाकू का त्याग कर देते हैं क्योंकि हमें पता है कि वह मानसिक संतुलन बिगाड़ता है। साइकिल चलाकर दूर तक चले जाते हैं। घर लौटते हैं तो लगता ही नहीं कि साइकिल चलाकर आये हैं। तब सोचते हैं कि काश! यह योग साधना बचपन में किसी ने सिखाई होती।
इसी योग साधना को लेकर भी तमाम तरह के दुष्प्रचार होते रहते हैं जिसके बारे में हमारा दावा है कि खुश रहने के लिये इससे बेहतर कोई उपाय नहीं है। योग साधना से अमरत्व नहीं मिलता पर इंसानों की तरह जिंदा रहने की ताकत मिलती है। जहां तक पेट पालने का सवाल है तो पशु भी पल जाते हैं और इंसान ही केवल इस भ्रम में रहता है कि वह स्वयं को पाल रहा है।
टीवी चैनलों पर लौकी का जूस पीकर मरने वाले एक दंपत्ति की मौत होने के साथ ही एक अधेड़ के बीमार पड़ने की खबर जोरशोर से चल रही थी। इधर इंटरनेट पर पता चला कि जिन दंपत्ति की मौत हुई वह डिब्बा बंद था यानि किसी कंपनी के द्वारा पैक किया गया पर उसका नाम नहीं पता लगा। चैनल शायद इस बात को छिपा रहे हैं ताकि लोग स्वयं लोकी का रस बनाने से बचें और कंपनियों का खरीदें।
अनेक बार नकली दूध की खबरें आती हैं तब लगता है कि सारे देश में वही दूध बिक रहा है। तब मन खराब होता है। एक ब्लाग लेखक ने तो आरोप लगाया था कि कंपनियों के लिये दूध बेचने का मार्ग बनाने के लिये निजी असंगठित ंक्षेत्र को बदनाम करने के लिये ऐसा प्रचार किया जा रहा है। लौकी के बाद करेले पर निशाना लगेगा। योग साधना पर तो लगता ही रहता है। ऐसा क्यों?
कभी कभी सुबह योग साधना के पहले या बाद में पार्क जाना होता है। कभी कभी शाम को भी जाते हैं। वहां योग साधना, व्यायाम तथा सैर करने वालों की संख्या देखकर लगता है कि लोग अब अपने स्वास्थ्य को लेकर सजग हैं। हालांकि सुप्तावस्था में रहने वाले लोगों की संख्या कहंी अधिक है पर सजगता का बढ़ता दायरा दवा कंपनियों के लिये चिंता का विषय हो सकता है। अनेक जगह चिकित्सा शिविर लगते हैं जहां चिकित्सक अपने यहां चेकअप की सलाह लिखकर देते हैं।
प्रसंगवश कहते हैं कि देश में भुखमरी अधिक है पर आंकड़े बताते हैं कि खाकर मरने वालों की संख्या अधिक है भूख से मरने वालों की कम! सीधा मतलब है कि खाने पीने में सावधानी से बीमारी से बचा जा सकता है। कम से कम खाद्य पदार्थ अपने घर पर ही निर्माण किये जायें उतना ही अच्छा! प्रतिदिन योग साधना की जाये तो कहना ही क्या? बाज़ार और उसके प्रचार माध्यमों पर एकदम निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं। हमने मूली से तौबा की पर इसका मतलब यह नहीं कि वह सभी के लिये विषैली है। वैसे अगर कोई प्रायोजित लेख लिखने के लिये कहे तो हम उस पर बहुत कुछ नकारात्मक लिख सकते हैं।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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खतरा है जिनसे जमाने को, पहरा उनके घर सजा है-हिन्दी हास्य व्यंग्य कवितायें


इंसान कितना भी काला हो चेहरा
पर उस पर मेअकप की चमक हो,
चरित्र पर कितनी भी कालिख हो
पर उसके साथ दौलत की महक हो,
वह शौहरत के पहाड़ पर चढ़ जायेगा।
बाजार में बिकता हो बुत की तरह जो इंसान
लाचार हो अपनी आजाद सोच से भले
पर वह सिकंदर कहलायेगा।
खतरा है जिनसे जमाने को
उनके घर सुरक्षा के पहरे लगे हैं,
लोगों के दिन का चैन
और रात की नींद हराम हो जाती जिनके नाम से
उनके घर के दरवाजे पर पहरेदार, चौबीस घंटे सजे हैं।
कसूरवारों को सजा देने की मांग कौन करेगा
लोग बेकसूर ही सजा होने से डरने लगे हैं।
———–
बाजार में जो महंगे भाव बिक जायेगा,
वही जमाने में नायक कहलायेगा।
जब तक खुल न जाये राज
कसूरवार कोई नहीं कहलाता,
छिपायेगा जो अपनी गल्तियां
वही सूरमा कहलायेगा।
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ज़ज्बातों को कार समझ लिया-हास्य कविताएँ


एक दिल था जो
उन्होंने खिलौने की तरह तोड़ दिया,
मोहब्बत को समझा खेल
अपना रिश्ता दिल्लगी से जोड़ लिया।
जिंदगी के सुकून का मतलब नहीं समझे
जज़्बातों को समझा लोहे लंगर की तरह
अपना ख्याल कार की तरह मोड़ लिया।
———
एक दोस्त ने दूसरे को समझाया
‘‘यह ‘आई लव यू’ लिखकर
प्रेम पत्र भेजने से काम नहीं चलेगा,
इस तरह तो तू जिंदगी पर आहें भरेगा।
अपने पत्र में
तमाम तरह के तोहफों की पेशकश कर,
जज़्बातों से ज्यादा वादों के शब्द भर,
भले ही बाद में कार में न घुमाना
पहाड़ों पर हनीमून मनाने की बात भुलाना
मित्र, अब केवल दिल से दिल नहीं जीते जाते,
होटलों के बिल से ही इश्क के गीत लिखे जाते,
जो बताई मैंने तुझ राह
मंजिल तुझे तभी मिलेगी
जब आजकल के इश्क की राह चलेगा।’

———
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काली करतूतें सफेद कागज में ढंकते रहे-हिन्दी शायरी


सिर उठाकर आसमान में देखा तो लगा
जैसे हम उसे ढो रहे हैं,
जमीन पर गड़ायी आंख तो लगा कि
हम उसे अपने पांव तले रौंद रहे हैं।
ठोकर खाकर गिरे जब जमीन पर मुंह के बल
न आसमान गिरा
न जमीन कांपी
तब हुआ अहसास कि
हम कोई फरिश्ते नहीं
बस एक आम इंसान है
जो इस दुनियां को बस भोग रहे हैं।
———
अपने से ताकतवर देखा तो
सलाम ठोक दिया,
कमजोर मिला राह पर
उसे पांव तले रौंद दिया।
वह अपनी कारगुजारियों पर इतराते रहे
काली करतूतें
सफेद कागज में ढंकते रहे
पर ढूंढ रहे थे अपने खड़े रहने के लिये जमीन
जब समय ने उनके कारनामों को खोद दिया।

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प्रायोजित कहानियां-हिन्दी व्यंग्य कविता (sporsard story-hindi satire poem)


वस्त्रों के रंगों से चरित्र की पहचान
कभी नहीं होती है,
पद का नाम कुछ भी हो
इंसानों से निभाये बिना
उसकी कदर नहीं होती है।
जोगिया पहनकर करते जिस्म का व्यापार
जोगी धन जुटाने का कर रहे चमत्कार,
जब तक पोल सामने न आये
जयकारा बोलने वालों के मुख से भी
हाहाकार की आवाज बुलंद होती है।
कहें दीपक बापू
बाजार और प्रचार के हाथों में है
सारा खेल,
कब सजाये स्वयंवर
कब निकाल दें तेल,
खड़े किये हैं
फिल्म, खेल, और धर्म में बुत
जो दिखते इंसान हैं,
फैलायें जो भ्रम वह कहलाते महान
सनसनी बिकवा दें वही शैतान हैं,
लगता है कभी कभी
पहले जिनका पहले नायक बनाने के लिये
करते हैं प्रायोजन,
छिपकर पेश करते हैं
सुंदर देह और भोजन
करवाते हैं शुभ काम,
चमकाते हैं उसका नाम,
फिर पोल खोलकर
अपने लिये उनको खलनायक सजाते हैं,
जिन तस्वीरों पर सजवाये थे फूल
उन पर ही पत्थर बरसाते हैं,
कुछ कल्पित, कुछ सत्य कहानियां
प्रायोजित लगती हैं
जिन पर जनता कभी हंसती कभी रोती है।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हिन्दू धर्म संदेश-दोस्त और पत्नी एक ही होना चाहिए


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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एको देवः केशवो वा शिवो वा ह्येकं मित्रं भूपतिवां यतिवां।
एको वासः पत्तने वने वा ह्येकं भार्या सुन्दरी वा दरी वा।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य को अपना आराध्य देव एक ही रखना चाहिये भले ही वह केशव हो या शिव। मित्र भी एक ही हो तो अच्छा है भले ही वह राजा हो या साधु। घर भी एक ही होना चाहिये भले ही वह जंगल में हो या शहर में। स्त्री भी एक होना चाहिये भले ही वह वह सुंदरी हो या अंधेरी गुफा जैसी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में दुःख बहुत हैं पर सुख कम। भले लोग कम स्वार्थी अधिक हैं। इसलिये अपनी कामनाओं की सीमायें समझना चाहिये। हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो एक ही निरंकार का प्रवर्तन करता है पर हमारे ऋषियों, मुनियों तथा विद्वानों साकार रूपों की कल्पना इसलिये की है ताकि सामान्य मनुष्य सहजता से ध्यान कर सके। सामन्य मनुष्य के लिये यह संभव नहीं हो पाता कि वह एकदम निरंकार की उपासना करे। इसलिये भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिव तथा अन्य स्वरूपों की मूर्ति रूप में स्थापना की जाती है। मुख्य ध्येय तो ध्यान के द्वारा निरंकार से संपर्क करना होता है। ध्यान में पहले किसी एक स्वरूप को स्थापित कर निरंकार की तरफ जाना ही भक्ति की चरम सीमा है। अतः एक ही रूप को अपने मन में रखना चाहिये चाहे वह राम जी हो, कृष्ण जी हों या शिव जी।
उसी तरह मित्रों के संचय में भी लोभ नहीं करना चाहिये। दिखाने के लिये कई मित्र बन जाते हैं पर निभाने वाला कोई एक ही होता है। इसलिये अधिक मित्रता करने पर कोई भी भ्रम न पालें। अपने रहने के लिये घर भी एक होना चाहिये। वैसे अनेक लोग ऐसे हैं जो अधिक धन होने के कारण तीर्थो और पर्यटन स्थलों पर अपने मकान बनवाते हैं पर इससे वह अपने लिये मानसिक संकट ही मोल लेते हैं। आप जिस घर में रहते हैं उसे रोज देखकर चैन पा सकते हैं, पर अगर दूसरी जगह भी घर है तो वहां की चिंता हमेशा रहती है।
उसी तरह पत्नी भी एक होना चाहिये। हमारे अध्यात्मिक दर्शन की यही विशेषता है कि वह सांसरिक पदार्थों में अधिक मोह न पालने की बात कहता है। अधिक पत्नियां रखकर आदमी अपने लिये संकट मोल लेता है। कहीं तो लोग पत्नी के अलावा भी बाहर अपनी प्रेयसियां बनाते हैं पर ऐसे लोग कभी सुख नहीं पाते बल्कि अपनी चोरी पकड़े जाने का डर उन्हें हमेशा सताता है। अगर ऐसे लोग राजकीय कार्यों से जुड़े हैं तो विरोधी देश के लोग उनकी जानकारी एकत्रित कर उन्हें ब्लेकमेल भी कर सकते हैं। कहने का अभिप्राय यही है कि अपना इष्ट, घर, मित्र और भार्या एक ही होना चाहिये।

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मारते हैं अपने ही जज़्बात को लात-हिन्दी शायरी


प्यार मांगने की चीज होती तो

किसी से भी मांग लेते,

इज्जत छीनने की चीज होती तो

किसी से भी छीन लेते।

लोग नहीं सुनते अपने ही दिल की बात,

मारते हैं अपने ही जज़्बात को लात,

दिमाग को ही अपना मालिक समझते,

बड़े अक्लमंद दिखने को सभी हैं तैयार

पर लुटती होती कहीं अक्ल तो सभी लूट लेते।

———

कुछ पल का साथ मांगा था

वह सीना तानकर सामने खड़े हो गये।

गोया अपनी सांसे उधार दे रहे हों

हमें अपनी जिंदगी को ढोने के लिये

जो ऊपर वाले ने बख्शी है,

फरिश्ता होने के ख्याल में

वह फूलकर कुप्पा हो गये।

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ताली दोनों हाथ से बजती है,

दिल की बात दिल से ही  जमती है,

हाथ तो दो है

चाहे जब बजा लेंगे,

पर दिल तो एक है क्या करेंगे?


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महानायकों के झुंड के बीचआम आदमी-व्यंग्य कविता


महानायकों के झुंड के बीच
खड़ा है आम आदमी
हैरान होता  यह सोचकर कि
किसकी आरती वह पहले करे।
सुबह छाया पर्दे पर फिल्म का नायक
दोपहर को गा रहा है भजन गायक
शाम को नजर आ रहा है
आतंक का खलनायक
किसे करे प्रेम
किस पर दिखाये गुस्सा
पहले नज़रों में उसके चेहरा तो तो भरे।
मगर पर्दे पर हर पल
दृश्य बदल रहा है
कभी हंसी आती है तो
कभी दिल दहल रहा है
इतने नायक और खलनायकों को
देखने से तो पहले फुरसत तो मिले
तब वह कुछ वह सोचने की पहल करे।

इतिहास के झगड़े-व्यंग्य चिंत्तन (war of history-hindi satire article


इस देश में कई ऐसे लोग मिल जायेंगे जो इतिहास विषय को बहुत कोसते हैं क्योंकि उनको प्रश्नपत्रों को हल करते समय अनेक घटनाओं की तारीखें और सन् याद नहीं रहते और गलत सलत उत्तर हो जाने पर परीक्षा में उनके अंक कम हो जाते हैं। वैसे इतिहास पढ़ते समय हमें भी मजा नहीं आता था पर नंबर पाने के लिये रटना तो पढ़ता ही था। सन आदि की गलतियां कभी नहीं हुई पर उनकी आशंका हमेशा बनी रहती थी। उत्तर लिखने के बाद जब घर पहुंचते तो पहले इसकी पुष्टि अवश्य करते थे कि कहीं सन गलत तो नहीं लिख दिया।
उस समय इस बात पर यकीन नहीं होता था कि हम जो इतिहास पढ़ रहे हैं वह झूठ भी हो सकता है। मगर जैसे जैसे अखबार वगैरह पढ़ने लगे तक लगने लगा कि किसी भी इतिहासकार ने एक लेखक के रूप में अगर कुछ अनुमान कर लिखा होगा तो कल्पना भी सच बनाकर प्रस्तुत हो सकती है। जैसे जैसे समय बीता फिर हमने ऐसे लोगों को अपने सामने इतिहास बनते देखा जिनके बारे में हमें यकीन नहीं था कि इनका नाम भी कभी इतिहास में एक श्रेष्ठ मनुष्य में रूप में लिखा जा सकता है। एक दो घटनायें ऐसी भी देखी जिससे लगा कि अगर हम अपने घर में कहीं किसी पत्थर पर राज्य का राजा होने का जानकारी खुदवाकर गाढ़ दें तो कई वर्षों बाद उसकी खुदाई होने पर वह इतिहास हो जायेगा जो कि सच नहीं बल्कि कल्पना होगी। फिर कई ऐसे लोगों की भी अच्छी चर्चायें सुनी जिनके बारे में हमें यकीन था कि वह इतने उत्कृष्ट नहीं थे जितना अपने देहावसान के बाद बताये जा रहे हैं। इससे भी आगे बढ़े तो यह भी पाया कि कुछ लोगों की कभी खूब आलोचना हुआ करती थी जो कि सही भी थी पर समय के अनुसार जनमत ऐसा बदला लगा कि लोग उनको याद करते हुए कहते हैं कि ‘अगर वह होते तो ऐसा नहीं होता।’
कहने का तात्पर्य यह है कि लोग एक व्यक्ति के बारे में अपनी राय भी बदल सकते हैं और इस तरह इतिहास बदल जाता है। पूरी बात कहें तो यह कि एक झूठ हजार बार बोला जाये तो वह सच बन जाता है। इसी कारण इतिहास की अनेक बातें यकीन पर आधारित हो सकती हैं।
इधर अंतर्जाल पर सक्रिय हुए तो उसने तो हमारे एतिहासिक ज्ञान की न केवल धज्जियां उड़ा दी है कि बल्कि अनेक तरह के शक शुबहे भी पैदा कर दिये हैं। पहला शक तो हमें अपने इतिहास लिखने वालों की विश्वसनीयता और समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को ही लेकरहोता है पर उससे ज्यादा उनको अपनी राय के अनुसार प्रस्तुत करनें वाले प्रचार माध्यमों पर होता है। परस्पर विरोधाभासी तर्क देख सुनकर एक बार तो ऐसा लगता है कि दोनों में से कोई एक झूठ या भ्रमवश बोल रहा है पर फिर अपना सोचते हैं तो लगता है कि दोनों ही एक जैसे हैं। इधर कुछ लोग यह लिख रहे हैं कि ताज महल शाहजहां से अपनी बेगम मुम्ताज की याद में नहीं बनवाया बल्कि वहां पहले एक ‘शिव मंदिर’ था जिसे ‘तेजोमहालय’ कहा जाता था। किन्हीं इतिहासकार श्री ओक की खोज पर आधारित इस विचार ने हमें इतना दिग्भ्रमित कर दिया कि हमे लगने लगा कि हो सकता है वह सही हो। उनके तर्क वजनदार दिखे पर जब अपना सोचना शुरु किया तो लगने लगा कि शायद न तो यह ताजमहल होगा न यह तेजोमहालय बल्कि ताजा मोहल्ला भी हो सकता है जो शायद उस समय के साहूकार लोगों ने शायद अपनी विलासिता के लिये बनवाया हो। उनका इरादा से सामूहिक मनोरंजनालय बनाने का रहा हो जहां अनेक लोग बैठकर शतरंज या च ौपड़ खेले सकें। शायद इसमें सर्वशक्तिमान की मूर्ति भी लगवा सकते थे। उसमें जिस तरह परिक्रमा के लिये जगह बनी है उससे यह विश्वास होता है कि वह वहां कोई कलाकृति वगैरह लगाने वाले होंगे कि किसी राज कर्मचारी या अधिकारी ने बादशाह को खबर कर दी होगी कि अमुक जगह अपने नाम से करवाना बेहतर होगा।
हमें सबसे पहले ताजमहल पर हमारे मामा ले गये थे। दरअसल हमारी वहां जाने की इच्छा नहीं थी। इस अनिच्छा के पीछे इतिहास के ही पढ़ी यह बात जिम्मेदार थी कि ‘ताज महल बनाने वाले मजदूरों के हाथ इसलिये काट दिये गये थे ताकि वह दूसरी जगह ऐसी इमारत न बना सकें।’
जब पहली बार ताजमहल पर गये तब उसे देखकर अच्छा जरूर लगा पर यही बात हमारे मन में ऐसी रही कि उसका आकर्षण हमें बुरा लगा। हम न तो प्रगतिशील हैं न ही परंपरावादी पर श्रम की अवमानना करने वालों को कभी हम श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में नहीं स्वीकारते। इसके बाद भी अनेक बार ताजमहल गये पर वहां हमारे हृदय में कोई स्पंदन नहीं होता। फिर भी उसकी बनावट का अवलोकन तो हमेशा ही किया। हमें लगता है कि ताजमहल कभी एक काल खंड या राजा के राज्य में नहीं बना होगा। इसके बहुत से कारण है। सबसे बड़ी चीज यह कि हमें परिक्रमापथ कभी समझ में नहीं आया। वहां बताने वाले सारी बातें शाहजहां से जोड़कर बताते हैं कि वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करते थे इसलिये चारों तरफ घूमने के लिये उन्होंने बनवाया।
इतिहास में यह बात नहीं पढ़ाई गयी कि मुम्ताज की प्राणविहीन देह एक वर्ष तक बुरहानपुर शहर की एक कब्र में रही। यह हमें कई वर्षों बाद पता लगा। ताजमहल को आधुनिक प्रेम का प्रतीक बताकर जिस तरह फिल्में बनकर सफल रहीं और गीतों को जैसे लोकप्रियता मिली उससे भी यही लगा कि वाकई ऐसा हुआ होगा। इतना ही नहीं ताजमहल छाप साबुन, साड़ियां, बीड़ी तथा अन्य सामान भी बाजार में खूब बिकता देखा। इस पर उस समय विचार नहीं किया मगर अब जैसे बाजार और उसके सहायक प्रचार माध्यम जिस तरह इतिहास के महानायकों को गढ़ रहे हैं तब अपना ही पढ़ा इतिहास संदिग्ध लगता है।
कुछ उदाहरण तो सामने दिखते ही हैं। एक क्रिकेटर जिसने कभी इस देश को विश्वकप नहीं जितवाया उसे सर्वकालीन महान खिलाड़ी का दर्जा देते हुए यहां के प्रचार माध्यम थकते ही नहीं हैं। फिल्मों में काल्पनिक पात्रों का अभिनय करने वाले अभिनेता को देवपुरुष बना देते हैं। अगर इसी तरह चलता रहा तो यकीनन वह किसी समय इतिहास में ऐसे लोग महापुरुष की तरह अपना नाम दर्ज करवायेंगे जिन्होंने जमीनी तौर से कोई बड़ा काम नहीं किया हो।
अपनी इस हल्की सोच के साथ जीना आसान नहीं है। फिर इतिहास को समझें कैसे? क्योंकि उसके बिना आप आगे की व्याख्या भी तो नहीं कर सकते। ऐसे में हमने अपना ही सूत्र ढूंढ लिया है कि ‘‘पीछे देख आगे बढ़, आगे का देखकर पीछे का गढ़।’’
हमारे अपने तर्क हैं जो हल्के भी हो सकते हैं। हमारे महानपुरुषों ने अच्छे काम
करने को इसलिये कहा होगा क्योंकि उन्होंने अपने समय में ऐसे बुरे काम देखे होंगे। कहने का आशय यह है कि इस धरती पर धर्म और अधर्म दोनों ही रहते हैं और कम ज्यादा का कोई पैमाना नहीं है। अगर कबीर और तुलसी को पढ़ें तो यह साफ समझ में आता है कि दुष्ट प्रकृत्ति के लोग उनके समय में भी कम नहीं थे। ऐसे में बाजार और प्रचार की प्रकृत्तियां भी इसी तरह की रही होंगी। सामान्य ज्ञान की किताब में विश्व के जो सात आश्चर्य बताये गये थे उनमें ताजमहल नहीं आता था मगर पिछले साले एक प्रचार अभियान में इसे जबरदस्ती सातवें नंबर का बनाया गया। इतना ही नहीं अभियान के साथ देशप्रेम जैसे भाव भी जोड़ने के प्रयास हुए। उस समय बाजार का खेल देखकर तो ऐसा लगा था कि जैसे कि ताजमहल कोई नयी इमारत बन रही है। लोगों ने जमकर उस समय टेलीफोन पर संदेश भेजे जिसमें उनका पैसा खर्च हुआ और बाजार ने कमाया। हमने आज के बाजार और प्रचार को देखा तो लगा कि पहले भी ऐसा हो सकता है।
कहते हैैं कि ताजमहल का प्रेम प्रतीक है पर हम इसे विकट भ्रम का प्रतीक मानने लगे हैं। भारतीय अध्यात्म के अनुसार मृत्यु के कार्यक्रमों का विस्तार नहीं होना चाहिये। जिस तरह यह बताया गया कि मुम्ताज को एक साल बाद कब्र से निकालकर यहां दोबारा दफनाया गया, उस पर यकीन करना कठिन लगता है। संभव है बादशाह को इसके लिये रोकने का साहस किसी में नहीं था या लोग भी चाहते थे कि इस राजा का नाम अपने राज्य की वजह से तो लोकप्रिय नहीं होगा इसलिये इसे ताजमहल जैसी इमारत के सहारे बढ़ाया जाये। बादशाह को गद्दी पर बनाये रखना उस समय के पूंजीपतियों, जमीदारों और सेठों की बाध्यता रही होगी। इतना ही नहीं आगरा को विश्व के मानचित्र पर लाने के लिये ताजमहल के साथ प्रेम को जोड़ना आवश्यक लगा होगा इसलिये ऐसा किया गया। वरना सभी जानते हैं कि पंचतत्वों से बनी यह देह धीरे धीरे स्वतः मिट्टी होती जाती है। एक वर्ष कब्र में पड़ी देह में क्या बचा होगा यह देखने की कोशिश शायद इसलिये नहीं की गयी। जहां तक हमारी जानकारी है दुनियां में किसी भी धर्म के मतावलंबी मौत के शोक के विस्तार के रूप में इस तरह के नाटक मे नहीं करते ।
शाहजहां को इस देश का कोई अच्छा शासक नहीं माना जाता। ऐसे में लगता है कि उस समय के बाजार और प्रचार विशेषज्ञों ने उसे प्रेम का उपासक बताकर लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया होगा। उस समय आज जैसे शक्तिशाली प्रचार माध्यम नहीं थे इसलिये आपसी बातचीत के जरिये या फिर ढोल वालों से ऐसा प्रचार कराया होगा। हम किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हैं और न ही कोई ऐसी कसम खाई है कि दोबारा वहां नहीं जायेंगे-नहीं हमारा किसी के निष्कर्ष से सहमति या असहमति जताने का इरादा है। हम तो अपनी सोच को इधर उधर घुमाते ऐसे ही हैं। अलबत्ता इस बार जब जायेंगे तो उसके ताजमहल, तेजोमहालय या ताजा मोहल्ला होने के नजरिये से विचार जरूर करेंगे। इसका कारण यह है कि आजकल हम अपने सामने वर्तमान को इतिहास बनता देख रहे हैं उसने हमारे मन में ढेर सारे संशय खड़े कर दिये हैं।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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योगासन, प्राणायाम, ध्यान और धारणा-हिन्दी लेख (hindi lekh on yogasan)


                प्राचीन भारतीय योग साधना पद्धति की तरफ पूरे विश्व का रुझान बढ़ना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है। आज से दस वर्ष पूर्व तक अनेक लोग योगसाधना को अत्यंत गोपनीय या असाधारण बात समझते थे। ऐसी धारणा बनी हुई थी कि योग साधना सामान्य व्यक्ति के करने की चीज नहीं है। इसका कारण यह था कि शरीर के लिये विलासिता की वस्तुओं का उपभोग बहुत कम था और लोग शारीरिक श्रम के कारण बीमार कम पड़ते थे।
आज की नयी पीढ़ी के लोगों जहां भी वाहन का स्टैंड देखते हैं वहां पर पैट्रोल चालित वाहनों को अधिक संख्या में देखते हैं जबकि पुरानी पीढ़ी के लोगों के अनुभव इस बारे में अलग दिखाई देते हैं। पहले इन्हीं स्टैंडों पर साइकिलें खड़ी मिलती थीं। सरकारी कार्यालय, बैंक, सिनेमाघर तथा उद्यानों के बाहर साइकिलों की संख्या अधिक दिखती थी। फिर स्कूटरों की संख्या बढ़ी तो अब कारों के काफिले सभी जगह मिलते हैं। पहले जहां रिक्शाओं, बैलगाड़ियों तथा तांगों की वजह से जाम लगा देखकर मन में क्लेश होता था वहीं अब कारें यह काम करने लगी हैं-यह अलग बात है कि गरीब वाहन चालकों को लोग इसके लिये झिड़क देते थे पर अब किसी की हिम्मत नहीं है कार वाले से कुछ कह सके।

         योगसाधना की शिक्षा बड़े लोगों का शौक माना जाता था। यह सही भी लगता है क्योंकि परंपरागत वाहनों तथा साइकिल चलाने वालों का दिन भर व्यायाम चलता था। उनकी थकान उनको रात को चैन की नींद का उपहार प्रदान करती थी। उस समय ज्ञानी लोगों का इस तरफ ध्यान नहीं गया कि लोगों को योगासन से अलग प्राणायाम तथा ध्यान की तरफ प्रेरित किया जाये। संभवतः योगासाधना के आठों अंगों में से पृथक पृथक सिखाने का विचार किसी ने नहीं किया। अब जबकि विलासिता पूर्ण जीवन शैली है तब योगसाधना की आवश्यकता तीव्रता से अनुभव की जा रही है तो उसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। पहले जब लोग पैदल अधिक चलने के साथ ही परिश्रम करते थे इसलिये उनका स्वास्थ्य सदैव अच्छा रहता था । बाद में साइकिल युग के चलते भी लोगों के स्वास्थ्य में शुद्धता बनी रही। फिर योग साधना को केवल राजाओं, ऋषियों और धनिकों के लिये आवश्यक इसलिये भी माना गया क्योंकि वह शारीरिक श्रम कम करते थे जबकि बदलते समय के साथ इसे जनसाधारण में प्रचारित किया जाना चाहिये था। भले ही शारीरिक श्रम से लोगों का लाभ होता रहा है पर प्राणायाम से जो मानसिक लाभ की कल्पना किसी ने नहीं की। श्रमिक तथा गरीब वर्ग के लिये योगासन के साथ प्राणायाम और ध्यान का भी महत्व अलग अलग रूप से प्रचारित किया जाना जरूरी लगता है। यह बताना जरूरी है कि जो लोग शारीरिक श्रम के कारण रात की नींद आराम से लेते हैं उनको भी जीवन का आनंद उठाने के लिये प्राणायाम और ध्यान करना चाहिये।

             अब योग साधना के आठ भाग देखकर तो यही लगता है कि उसके आठ अंगों को -यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-एक पूरा कार्यक्रम मानकर देखा गया। सच तो यह है कि जो लोग परिश्रम करते हैं या सुबह सैर करके आते हैं उनको नियम, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि जैसे अन्य सात अंगों का भी अध्ययन करना चाहिये। योगासन या सुबह की सैर के बाद प्राणायम और ध्यान की आदत डालना श्रेयस्कर है। जो लोग गरीब, मजदूर तथा अन्य शारीरिक श्रम करते हैं उनके लिये भी प्राणायाम के साथ ध्यान बहुत लाभप्रद है। इस बात का प्रचार बहुत पहले ही होना चाहिये था इसलिये अब इस पर भी इस पर काम होना चाहिये। प्राणायाम से प्राणवायु तीव्र गति से अंदर जाकर शरीर और मन के विकारों को परे करती है। उसी तरह ध्यान भी योगासन और प्राणायाम के बाद प्राप्त शुद्धि को पूरी देह और मन में वितरित करने की एक प्रक्रिया है। जब कभी आप थक जायें और सोने की बजाय आंखें बंद कर केवल बैठें और अपने ध्यान को भृकुटि पर केंद्रित करके देखें। शुरुआत में आराम नहीं मिलेगा पर पांच दस मिनट बाद आप को अपने शरीर और मन में शांति अनुभव होगी। जैसे मान लीजिये आप किसी समस्या से परेशान हैं। वह उठते बैठते आपको परेशान करती है। आप ध्यान लगा कर बैठें। समस्या हल होना एक अलग मामला है पर ध्यान के बाद उससे उपजे तनाव से राहत अनुभव करेंगे। सच बात तो यह है कि हम अपने दिमाग और शरीर को बहुत खींचते हैं और उसको बिना ध्यान के विराम नहीं मिल सकता। यह को व्यायाम नहीं है एक तरह से पूर्णाहुति है उस यज्ञ की जो हम अपनी देह के लिये करते हैं। शेष फिर कभी। संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior http://terahdeep.blogspot.com …………………………..

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जब उनके पुतलों की पोल खुल जायेगी-हिंदी कविता (putlon ki pol-hindi hasya kavita)


पर्दे के पीछे वह खेल रहे हैं
सामने उनके पुतले डंड पेल रहे हैं।
आत्ममुग्धता हैं जैसे जमाना जीत लिया
समझते नहीं भीड़ के इशारे
अपनी उंगलियों से पकड़ी रस्सी से
मनचाहे दृश्य वह मंच पर ठेल रहे हैं।
भीड़ में बैठे हैं उनके किराये के टट्टू
जो वाह वाही करते हैं
तमाम लोग तो बस झेल रहे हैं।
खेल कभी लंबा नहीं होता
कभी तो खत्म होगा
सच्चाई तो सामने आयेगी
जब उनके पुतलों की पोल खुल जायेगी
तब जवाब मांगेंगे लोग
हम भी यही सोचकर झेल रहे हैं।

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खेल और हवा-हिंदी व्यंग्य लघुकथा (khel aur hava-hindu laghu katha)


उसने एक फुटबाल ली और उस पर लिख दिया धर्म। वह उस फुटबाल के साथ एक डंडा लेकर उस मैदान में पहुंच गया जहां गोल पोस्ट बना हुआ था। तमाम लोग वहां तफरी करने आते थे इसलिये वह पहले जोर से चिल्लाया और बोला-‘है कोई जो सामने आकर मुझे गोल करने से रोक सके।’
उसने अपनी आंखों पर चश्मा लगा लिया था। उसका डीलडौल और हाथ में डंडा देखकर लोग डर गये और फिर वह शुरु हो गया उसके गोल करने का सिलसिला। एक के बाद एक गोल कर वह चिल्लाता रहा-है कोई जो मेरा सामना कर सके। देखों धर्म को मैं कैसे लात मारकर गोल कर रहा हूं।’
लोग देखते और चुप रहते। कुछ बच्चे शोर बचाते तो कुछ बड़े कराहते हुए आपस में एक दूसरे का सांत्वना देते कि कोई तो माई का लाल आयेगा जो उसका गोल रोकेगा।’
उसी समय एक ज्ञानी वहां से निकला। उसने यह दृश्य देखा और फिर उसके पास जाकर बोला-‘क्या बात है? सामने कोई गोल पर तो है नहीं जो गोल किये जा रहे हो।’
वह बोला-‘तुम सामने आओ। मेरा गोल रोककर दिखाओ। यह फुटबाल मैंने एक कबाड़ी से खरीदी है और मैं चाहता हूं कि कोई मेरे से गोल गोल खेले।

ज्ञानी ने कहा-‘ यह होता ही है। अगर फुटबाल है तो खेलने का मन होगा। डंडा है तो उसे भी किसी को मारने का मन आयेगा। ऐसे में तुम्हारे साथ कोई नहीं खेलने आयेगा।’
उसने कहा-‘तुम ही खेल लो। दम है तो आ जाओ सामने।’
ज्ञानी ने उससे फुटबाल हाथ में ली और उसकी हवा भरने के मूंह पर जाकर उसका ढक्कन खोल दिया। वह पूरी हवा निकल गयी।
वह चिल्लाने लगा और बोला-‘अरे, डरपोक हवा निकाल दी। अभी डंडा मारता हूं।’
ज्ञानी ने कहा-‘फंस जाओगे। यहां बहुत सारे लोग हैं। फुटबाल पर तुमने धर्म लिखकर लोगों की भावनाओं को संशकित कर दिया था पर अब वह यहीं आयेंगे। देखो वह आ रहे हैं।’
उसने देखा कि लोग उसकी तरफ आ रहे हैं। ज्ञानी ने कहा-‘तुम अब घर जाओ। यह तुम नहीं फुटबाल थी जो तुमसे खेल रही थी। फुटबाल में हवा भरी थी जो उसके साथ तुम्हें भी उड़ा रही थी। वैसे तुम्हारी देह भी हवा से चल रही है पर यह हवा तुम्हारे दिमाग को भी चला रही थी। अब न यह फुटबाल चलेगी न डंडा।’
वह ज्ञानी ऐसा कहकर चल दिये तो तफरी करने आये एक सज्जन ने पूछा-‘पर आपने सब क्यों और कैसे किया?’
ज्ञानी ने कहा-‘मैंने कुछ नहीं किया। यह तो हवा ने किया है। उसे फुटबाल में भरी हवा ने बौखला दिया था। वह निकल गयी तो उसके लिये अपना यह नाटक जारी रखना कठिन था। मुझे करना ही क्या था? उसके कहने पर उसके साथ फुटबाल खेलने से अच्छा है कि उसकी हवा निकाल कर मामला ठंडा कर दो। फुटबाल खेलता तो वह गोल रोकने को लेकर विवाद करता। मेरे गोल पर आपत्तियां जताता। उसको छोड़ कर जाता तो वह यहां भीड़ के लोगों को बेकार में डराता। इससे अच्छा है कि धर्म नाम लिखकर झगड़ा बढ़ाने की उसकी योजना को फुटबाल में से हवा निकाल कर बेकार कर दिया जाये।’
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पसंद कि नापसंद-हास्य व्यंग (hindi comedy satire)


एक सज्जन ने मन्नत मांगी थी कि अगर उनको कभी कहीं से कोई सम्मान प्राप्त होगा तो वह किसी नये कवि का सम्मेलन करायेंगे। इससे तो उनका सम्मान का प्रचार तो होगा ही साहित्य में नयी पीढ़ी को आगे लाने के लिये भी प्रसिद्धि मिलेगी। दरअसल उन्होंने अपने बेकारी के दिनों में अनेक कवितायें लिखी थी जिनका एक किताब के रूप में प्रकाशन कराया। उन्होंने अपने मित्र को वह कविता दिखाई तो उसने कहा-‘‘चुपचाप इनको रख लो। यह कवितायें तुम्हारी मजाक बनवायेंगी। अलबत्ता जब तुम्हारे सपंर्क बन जायें तो इस किताब के सहारे कोई सम्मान वगैरह जुगाड़ लेना क्योंकि तुम जिस तरह अपने व्यवसाय में आगे जा रहे हो तुम्हारे लिये अच्छे अवसर हैं।’’
वह सज्जन अनेक तरह के ठेके लिया करते थे। ढेर सारी किताबें रखने के लिये उन्होंने एक अलमारी बनवायी थी जिस पर रोज अगरबत्ती जलाकर घुमाते।
इधर समय के साथ उनके व्यवसाय के साथ बड़े और प्रतिष्ठित लोगों से संपर्क बढ़ रहे थे। एक कारखाने में निर्माण का ठेका उनको मिला। वह कंपनी अवार्ड वगैरह भी बांटा करती थी। दरअसल उसका यह समाज कल्याण अभियान बड़े लोगों से संपर्क बढ़ाने के लिये था और वह अपने को फायदा देने वालों को सम्मानित भी कर चुकी थी। ठेकेदार सज्जन की उसी कंपनी के प्रबंधक से बातचीत हुई। ठेकेदार सज्जन को मालुम था कि यह कंपनी अवार्ड वगैरह बांटती है इसलिये वह प्रबंधक से अधिक प्रगाढ़ संबंध बनाने लगे। एक दिन उन्होंने प्रबंधक से कहा-‘आप हमें साहित्य के लिये अपना अवार्ड दिलवा दीजिये। आपका कमीशन दुगना कर देता हूं।’
प्रबंधक ने कहा-‘पहले वह किताब दिखाओ। नहीं दिखाना है तो कमीशन तीन गुना करो।’
ठेकेदार सज्जन बहुत खुश हो गये। मन ही मन कहने लगे कि‘यह बेवकूफ है, अगर चार गुना भी कहता तो देता।’
उन्होंने अपनी सहमति दी। इस तरह यह इनाम उनको मिल गया। वह भी साहित्यकार के रूप में। शहर भर के साहित्यकारों को तो मानो सांप सूंध गया। हरेक कोई एक दूसरे से पूछा रहा था कि ‘यह कौन महाकवि इस शहर में रहता है जो हमारी नजर से नहीं गुजरा। कभी किसी मंच पर नही देखा। उसका अखबार में नहीं पढ़ा।’
सम्मान मिलना तो सो मिल गया। एक दो आलोचक उनके घर पहुंच गये और कविता के शीर्षकों से ही समीक्षा अखबारों में लिखकर छाप दी। ठेकेदार सज्जन ने बकायदा आलोचकों की खातिर की। इधर उनके मन में बस एक ही बात थी कि किसी नये लेखक का एकल पाठ कराकर अपनी वह मिन्नत पूरी करूं जो किसी दिन मन में आ गयी थी। भले ही दस वर्ष बाद यह पूरी हुई पर मिन्नत का मान रखना भी जरूरी था। मुश्किल यह थी कि पहले उन्होंने नये कवि को अच्छी खासी रकम देने का विचार रखा था पर इधर खर्चा इतना हो गया कि वह सोच रहे थे कि सस्ते में निपट जाये। इसी चिंता में रहते थे। घर से बाहर एक दिन एक लड़का उनको मिल गया जिसके बारे में उनको पता लगा कि उसकी कोई कविता कहीं छपी थी-यह दावा वह मोहल्ले में करता फिर रहा था।

उन्होंने उससे पूछा-‘‘क्यों गंजू उस्ताद, कैसी चल रही है तुम्हारी कवितागिरी।’’
गंजू उस्ताद ने कहा-‘आपसे तो अच्छी नहीं चल रही। अब सोच रहा हूं कि मैं भी ठेकेदारी शुरु करूं। बहुत दिनों से काम तलाश रहा हूं। सोच रहा हूं कि आपको गुरु बना लूं। हो सकता है एक दो अवार्ड अपने किस्मत में भी आ जाये।’
ठेकेदार सज्जन ने कहा-‘अरे, कहां ठेकेदारी के चक्कर में पड़े हो। तुम तो अपनी कविता सविता के साथ आनंद करो।’
गंजू उस्ताद बीच में ही बोल पड़ा-‘‘छि…छि………चुप हो जाईये। अभी अभी तो मेरी शादी हुई है। किसी ने सुना लिया कि सविता से मेरा चक्कर था तो गड़बड़ हो जायेगी।’’
ठेकेदार ने कहा-‘‘कविता के साथ मैंने तो ऐसे ही सविता जोड़ दिया। इधर मैं सोच रहा हूं कि तुम्हारा काव्य पाठ करवा दूं। इससे तुम्हें प्रचार मिलेगा और मुझे भी तसल्ली होगी कि साहित्य की सेवा की।’’
गंजू उस्ताद बोला-‘‘हां, पर अब आप मुझे उस्ताद न कहकर कवि नाम से पुकारें। आप अवसर दे रहे हैं तो अच्छी बात है। आप तैयारी करिये मैं अपनी नयी नवेली पत्नी के पास जाकर उसे यह खबर देता हूं। वह मुझे निठल्ला कहने के साथ ही कवितायें जलाने की धमकी देती है। इधर पिताजी भी कह रहे हैं कि अब तेरी शादी हो गयी तो कुछ कमाई करो। आप कितना पैसे देंगे।’’
ठेकेदार ने कहा-‘‘अरे, तुम्हें एक कवि सम्मेलन मिल गया तो फिर रास्ता खुल जायेगा। यही क्या कम है?’’
गंजू उस्ताद मान गया। वह गया तो ठेकेदार सोचने लगा कि ‘कितना बेवकूफ है कि अगर पांच सात सौ रुपये भी मांगता तो मैं देता।’
एक पार्क में बने बनाये मंच पर गंजू उस्ताद का एकल कविता पाठ प्रारंभ हुआ। मगर वह नया था उसे क्या मालुम कि कवितायें ठेली जाती हैं श्रोताओं की परवाह किये बिना। वह हर कविता पर श्रोताओं से पूछता-‘‘आप बताईये कि यह कविता आपको पसंद आयी।’’
लोग चिल्लाये -‘‘नापसंद नापसंद’’।
इस तरह उसने दस कवितायें सुनायी। अब तो हर कविता की समाप्ति पर लोग चिल्लाते-‘‘नापसंद नापसंद।’’
गंजू उस्ताद के बारे में यह कहा जाता है कि जब वह घर में अपने माता पिता से नाराज होता तो अपने कपड़े फाड़ने और बाल नौचने लगता था। इतना ही नहीं फिर घर से बाहर आकर ऐसे ही पत्थर उड़ाने लगता। यह बचपन की बात थी पर जब लोगों ने उसे इस तरह प्रताड़ित किया तो खिसियाहट में अपने बाल्यकाल में चला गया। वह अपने कपड़े फाड़ने लगा। उधर से लोग चिल्लाये ‘‘पसंद पसंद’’।
वह बाल नौचने लगा। लोग चिल्लाये-‘‘पसंद पसंद’’।
वह मंच से उतर गया और पत्थर उछालने लगा। लोग चिल्लाने लगे ‘‘पसंद पसंद।’’
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे ठेकेदार सज्जन भाग निकले। उनके पीछे गंजू उस्ताद भी भाग निकला। पीछे से लोग भी चिल्लाते हुए भागे-‘पसंद पसंद’
बाद में वह ठेकेदार सज्जन से मिला-‘‘और कुछ नहीं तो मेरे कपड़े फट गये उसके पैसे दे दो। आपको पता है कि वह शादी में मुझे ससुराल से मिले थे। आपके कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये मैंने उनको फाड़ डाला। तभी तो लोग चिल्ला रहे थे ‘पसंद पसंद’। वरना तो ‘नापसंद नापसंद’ कर पूरा कार्यक्रम ही बरबाद किये दे रहे थे।’’
ठेकेदार सज्जन बोले-‘बेशरम आदमी! तुम्हारी वजह से मेरी बदनामी हुई है। मैंने तुम्हार काव्य पाठ सुनने के लिये कार्यक्रम करवाया था या लोगों की पसंद नापसंद जानने के लिये। अरे, यह भीड़ है इस पर चाहे जितना अपनी कवितायें या कहानी थोप दो चुपचाप झेलती है। अगर बोलने का अवसर दो तो फिर यही करती है जो तुम्हारे साथ किया।’
गंजू उस्ताद उदास होकर चला गया। इधर ठेकेदार सज्जन सोचने लगे कि‘अगर जिद्द करता तो एक दो हजार मैं दे ही देता। चलो अच्छा है चला गया। मुझे तो अपना प्रचार मिल ही गया न!
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अंतर्जाल पर कौन कितना सफल है यह तो कहना कठिन है क्योंकि यहां अनेक तरह के फर्जीवाड़े हैं जिनको समझना एक कठिन काम है। चाहे किसी भी भाषा के ब्लाग हैं उनको लेकर अनेक तरह के भ्रम बने ही रहते हैं। अनेक दिलचस्प बातें सामने आती हैं। लोग तमाम तरह की वेबसाईटों पर अपने ब्लाग की रेटिंग दिखाकर अपने को सबसे सफल ब्लाग या वेबसाईट लेखक होने का दावा भी करते हैं। अनेक लोगों को तो यह लगता है कि हम तो अच्छा लिख नहीं रहे इसलिये सफल नहीं है।
अनेक समझदार ब्लाग लेखक ऐसी बातें लिख जाते हैं उनके आशय कुछ भी लिये जा सकते हैं। अभी कुछ दिनों पहले एक समाचार था कि अंतर्जाल पर लिखे जा रहे ब्लागों को एक ही आदमी पढ़ता है। इसका आशय यह भी हो सकता है कि लेखक स्वयं ही पढ़ता है या यह भी हो सकता है कि जिन वेबसाईटों पर ब्लाग बने हैं वहीं से उनकी सामग्री देखी जा सकती है या कहीं उनके द्वारा कुछ लोग इसके लिये नियुक्त हैं जिन्हें रोज ब्लाग पर व्यूज भेजने के लिये रखा गया है।
एक कमाने वाले ब्लाग लेखक ने लिखा था कि ‘हजारों ऐसे पाठक लेकर क्या करूंगा जिनसे मुझे एक पैसा भी न मिले। मुझे तो दस ऐसे ही पाठक काफी हैं जो मेरे विज्ञापनों से मुझे आय अर्जित करायें।’
अब सच क्या है कोई नहीं जानता। अलबत्ता इतना तय है कि अनेक तरह के फर्जीवाड़े संभावित हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि कौन कितना सफल है? यह बात केवल ब्लाग लेखकों तक नहीं बड़ी बड़ी वेबसाईटों पर भी लागू होती है। अलबत्ता आॅनलाईन से जनता का काम करने वाली व्यवसायिक वेबसाईटें जरूर अधिक देखी जाती हैं पर वह सफलता और असफलता के दायरे से बाहर हैं। संभव है कोई ऐसा ब्लाग या वेबसाईट लेखक हो जिसको एक हजार पाठक रोज देखते हों और वह कमाता भी हो तो उसे सफल मान लिया जाये और जिसे सौ पाठक देखते हों और वह न कमाता हो उसे असफल मान लिया जाये। इसमें एक पैंच ही फंसता है कि जिसके पास सौ पाठक हों संभव है वह पूरी तरह से सौ हों और जिसके पास हजार हों उसके लिये केवल बीस ही सक्रिय हों। जो ब्लागर कमा रहे हैं उनकी इस बात के लिये प्रशंसा करना चाहिए कि वह आय अर्जित करने का गुर सीख गये हैं और नये लोगों को उनसे प्रेरणा भी लेना चाहिए। मुश्किल यह है कि जिनके लिये अंगूर खट्टे हैं वह कैसे संतोष करें। न पैसा मिले न प्रतिष्ठा उनके लिये क्या है यहां पर? ऐसे में उनके पास एक ही चारा है कि वह अपने पास ऐसे कांउटर लगायें जिससे पता लगे कि उनको कितने लोग पढ़ रहे हैं और कहीं मित्र लोग ही तो केवल फर्जी व्यूज नहीं दे रहे क्योंकि सफलता का भ्रम तो असफलता से भी अधिक बुरा होता है।
इधर हमने शिनी का स्टेट कांउटर लगाकर देखा। यह कांउटर केवल वर्डप्रेस के ब्लाग पर लगाया यह देखने के लिये कि आखिर देखें तो सही कि हमारे ब्लाग किस दिशा में जा रहे हैं। इस कांउटर के साथ अच्छी बात यह है कि इसने ब्लाग के वर्गीकरण कर दिये हैं। पंजीकृत समझ में अधिक नहीं आया पर जो उचित लगा वह वर्ग ले लिया। इसमें मनोरंजन और साहित्य के अलग अलग वर्ग लिये।
इसका अवलोकन करने के बाद करने पर पता चला कि अंग्रेजी के ब्लागों पर भी अब हिंदी ब्लाग की बढ़त बन सकती है। इतना ही नहीं यौन सामग्री से सुसंज्जित सामग्री के मुकाबले भी साहित्य का स्थान बन सकता है। इस कांउटर पर अभी अन्य ब्लाग अधिक पंजीकृत नहीं है इसलिये यह कहना कठिन है कि उनके मुकाबले इस लेखक के ब्लाग का क्या स्तर है? अलबत्ता प्रारंभ में ही हिंदी ब्लागों को पचास में 10 से 13 तक अंक और समाज में ई पत्रिका और दीपक बापू कहिन को साहित्य वर्ग मे 22, 23 स्थान मिलना अच्छा संकेत है। वैसे हिंदी पत्रिका को मनोरंजन के अन्य वर्ग में 82 वां स्थान मिला है पर वहां उसके सामने अंग्रेजी ब्लाग हैं जो शायद अधिक पढ़े जाते है। यह ब्लाग दो दिन पहले तक 92 वें स्थान पर था। यह आंकड़े ऊपर नीचे होंगे। यह कोई बड़ी सफलता का प्रमाण भी नहीं है पर इससे एक बात साफ है कि अंतर्जाल पर हिंदी की पाठक संख्या ठीक ठाक है और भविष्य में हिंदी ब्लाग अंग्रेजी को जरूर चुनौती देंगे। वैसे ब्लाग स्पाट के ब्लाग की सफलता का सबसे अच्छा आंकलन गूगल विश्लेषण प्रस्तुत करता है जिसका दावा है कि वह आपको फर्जी व्यूज से भ्रमित होने से बचाता है। इसके बावजूद अन्य वेबसाईटों पर भी ब्लाग की स्थिति देखी जा सकती है पर उनके साफ्टवेयरों पर अनेक लोग संदेह जाहिर करते हैं। अलबत्ता शिनी ने जो अलग वर्ग बनाये हैं वह एक अच्छी बात है। हमने यह कांउटर एक किसी हिंदी ब्लाग लेखक के ब्लाग से दो सप्ताह पहले ही लिया था पर यह पता नहीं वह किस श्रेणी में पंजीकृत हैं क्योंकि हमने अपनी श्रेणियों में उनको देखने का प्रयास किया था पर दिखाई नहीं दिया। यहां यह भी याद रखने लायक है कि अनेक वेबसाईटें ऐसी हैं जो वहां पंजीकरण कराने पर रैकिंग देती हैं इसलिये उनको लेकर अपना यह दावा करना ठीक नहीं लगता कि हम सफल हैं, क्योंकि संभव है कि अन्य अपंजीकृत ब्लाग हमसे भी श्रेष्ठ हो सकते हैं।

हां, एक मजेदार बात सामने आई। कहा जाता है कि अधिकतर ब्लाग को एक आदमी पढ़ता है। लेखक समेत हम दो मान लें तो सफलता का एक पैमाना यह भी होता है कि आपके ब्लाग को तीसरा आदमी भी पढ़ता दिखे। इस काउंटर पर हमने अपने ब्लाग पर आनलाईन पाठक की संख्या पांच से सात तक देखी है। इसका आशय यह है कि हमारे ब्लाग उस दायरे से तो बाहर निकल गये हैं जो उसे एक या दो पाठक तक ही सीमित रहते हैं।
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सविता भाभी ने किया सच का सामना-हिन्दी हास्य कविता (savita bhabhi ne kiya sach ka samana-hasya kavita)


नाम कुछ दूसरा था पर
नायिका सविता भाभी रखकर वह
सच का सामना प्रतियागिता में पहुंची
और एक करोड़ कमाया।
प्रतिबंधित वेबसाईट की कल्पित नायिका को
अपने में असली दर्शाया।
यह देखकर उसका रचयिता
छद्म नाम लेखक कसमसाया।
पीसने लगा दांत
भींचने लगा मुट्ठी और
गुस्से में आकर एक जाम बनाया।
पास में बैठे दूसरे
पियक्कड़ ब्लाग लेखक से बोला
‘‘यार, कैसी है यह अंतर्जाल की माया।
अपनी नायिका तो कल्पित थी
यह असल रूप किसने बनाया।
हम जितना कमाने की सोच न सके
उससे ज्यादा इसने कमाया।
हमने इतनी मेहनत की
पर टुकड़ों के अलावा कुछ हाथ नहीं आया।’

दूसरे पियक्कड़ ब्लाग लेखक ने
अपने मेहमान के पैग का हक
अदा करते हुए उसे समझाया
‘यार, अच्छा होता हम असल नाम से लिखते
अपने कल्पित पात्र के मालिक तो दिखते
हम तो सोचते थे कि
यौन विषय पर लिखना बुरा काम है
पर देखो हमारे से प्रेरणा ले गये
यह टीवी चैनल
कर दिया सच का सामना का प्रसारण
जिसमें ऐसी वैसी बातें होती खुलेआम हैं
हम तो हिंदी भाषा के लिये रास्ता बना रहे थे
यह हिंदी टीवी चैनल अंग्रेजी का खा रहे थे
हमारी हिंदी की कल्पित पात्र
सविता भाभी को असली बताकर
अपना कार्यक्रम उन्होंने सजाया,
पर हम भी कुछ नहीं कर सकते
क्योंकि अपना नाम छद्म बताया।
जब लग गया प्रतिबंध तो
हम ही नहीं गये उसे रोकने तो
कोई दूसरा भी साथ न आया।
हमारी कल्पित नायिका ने
हमको नहीं दिया कमाकर जितना
उससे ज्यादा टीवी चैनल वालों ने कमाया।
यह टीवी वाले उस्ताद है
ख्यालों को सच बनाते
और सच को छिपाते
नकली को असली बताने की
जानते हैं कला
इसलिये सविता भाभी का भी पकड़ लिया गला
अपने हाथ तो बस अपना छद्म नाम आया।

…………………………
नोट-यह हास्य कविता एक काल्पनिक रचना है और किसी भी घटना या व्यक्ति से इसका लेनादेना नहीं है। अगर संयोग से किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।
………………………….
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दिल का दिमाग से रिश्ता-हिंदी कविता (dil aur dimag-hindi sahityak kavita)


दिल में कुछ
दिमाग में कुछ
जुबां से दूसरे बोल ही निकल आते हैं।
दिल का दिमाग से
दिमाग का जुबां से रिश्ता
भला कितने लोग जान पाते हैं।
दूसरों से संवाद क्या करेंगे
अपने ही भाव नहीं पढ़ पाते हैं।
……………….
अर्थहीन शब्द
औपचारिक संवाद
सुनने की आदत हो गयी है।
दोस्ती और रिश्तों की भीड़ में
आत्मीयता ढूंढती थक चुकीं
मन की आंखें, अब सो गयी हैं।

…………………….

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बीस और पचास का खेल-हास्य व्यंग्य कविताएँ (play for twenty and fifty-hindi hasya vyangya kavitaen


उन्होंने तय किया है कि
एक दिन में पचास ओवर की
जगह बीस ओवर वाले मैच खेलेंगे।
देखने वाले तो देखेंगे
जो नहीं देखने वाले
वह तो व्यंग्य बाण ऐसे भी फैंकेंगे।

सच है जब बीस रुपये खर्च से भी
हजार रुपया कमाया जा सकता है तो
पचास रुपये खर्च करने से क्या फायदा
फिल्म हो या खेल
अब तो कमाने का ही हो गया है कायदा
पचास ओवर तक कौन इंतजार करेगा
जब बीस ओवर में पैसे से झोला भरेगा
मूर्खों की कमी नहीं है जमाने में
मैदान पर दिखता है जो खेल
उस पर ही बहल जाते हैं लोग
नहीं देखते कि खिलाड़ियों को
अभिनेता की तरह पर्दे के पीछे
कौन लगा है नचाने में
पैसा बरस रहा है खेल के नाम पर
फिल्म वाले भी लग गये उसमें काम पर
दाव खेलने वाले भी
जल्दी परिणाम के लिये करते हैं इंतजार
खिलाने वाले भी
अब हो रहे हैं बेकरार
पैसे का खेल हो गया है
खेलते हैं पैसे वाले
निकल चुके हैंे कई के दिवाले
खाली जेब जिनकी है
बन जाते समय बरबाद करने वाले
अभिनेताओं में भगवान
खिलाड़ियों में देवता देखेंगे।

कहें दीपक बापू
‘नकली शयों का शौकीन हो गया जमाना
चतुरों को इसी से ही होता कमाना
पर्दे के नकली फरिश्तों के जन्म दिन पर
प्रचार करने वाले नाचते हैं
मैदान पर बाहर की डोर पर
खेलने वालों के करतबों पर
तकनीकी ज्ञान फांकते हैं
जब हो सकती है दो घंटे में कमाई
तो क्यों पांच घंटे बरबाद करेंगे
बीस रुपये में काम चलेगा तो
पचास क्यों खर्च करेंगे
आम आदमी हो गया है
मन से खाली मनोरंजन का भूखा
जुआ खेलने को तैयार, चाहे हो पैसे का सूखा
जिनके पास दो नंबर का पैसा
वह खुद कहीं खर्च करें या
उनके बच्चे कहीं फैंकेंगे।
खेल हो या फिल्म
जज्बातों के सौदागर तो
बस! अपना भरता झोला ही देखेंगे।

…………………………..


पर्दे पर आंखों के सामने
चलते फिरते और नाचते
हांड़मांस के इंसान
बुत की तरह लगते हैं।
ऐसा लगता है कि
जैसे पीछे कोई पकड़े है डोर
खींचने पर कर रहे हैं शोर
डोर पकड़े नट भी
खुद खींचते हों डोर, यह नहीं लगता
किसी दूसरे के इशारे पर
वह भी अपने हाथ नचाते लगते हैं
………………………
चारो तरफ मुखौटे सजे हैं
पीछे के मुख पहचान में नहीं आते।
नये जमाने का यह चालचलन है
फरिश्तों का मुखौटा शैतान लगाते।

……………………

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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दूसरे की दौलत को धूल समझें-चाणक्य नीति (dusre ki daulat ko dhool samjhen-chankya niti


यो मोहन्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि कामिनी।
स तस्य वशगो मूढो भूत्वा नृत्येत् क्रीडा-शकुन्तवत्।।

       हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य के अनुसार कुछ पुरुषों में विवेक नहीं होता और वह सुंदर स्त्री से व्यवहार करते हुए यह भ्रम पाल लेते हैं कि वह वह उस पर मोहित है। वह भ्रमित पुरुष फिर उस स्त्री के लिये ऐसे ही हो जाता है जैसे कि मनोरंजन के लिये पाला गया पक्षी।
मातृवत् परदारांश्चय परद्रव्याणि लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स नरः।।

हिंदी में भावार्थ-दूसरों की पत्नी को माता तथा धन को मिट्टी के ढेले की भांति समझना चाहिये। इस संसार में वह यथार्थ रूप से मनुष्य है जो सारे प्राणियों को अपनी आत्मा की भांति देखने वाला मानता है।
       वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर व्यक्ति को अपने अंदर विवेक धारण करना चाहिये। कुछ लोग स्त्रियों के विषय में अत्यंत भ्रमित होते हैं। उनको लगता है कि कोई स्त्री उनसे अच्छी तरह बात कर रही है तो इसका आशय यह है कि वह उन पर मोहित है-यह उनका केवल एक भ्रम है। स्त्रियों का स्वभाव तथा वाणी कोमल होती है और इसी कारण वह हमेशा मृदभाषा से पुरुषों का मन मोह लेती हैं पर कुछ अज्ञानी और अविवेकी पुरुष यह भ्रम पाल कर अपने आपको ही कष्ट देते हैं कि वह उनके प्रति आकर्षित है।
       नीति विशारद चाणक्य ऐसे व्यक्तियों की तरफ संकेत करते हुए कहते हैं कि दूसरे की स्त्री को माता के समान समझना चाहिये। उसी तरह दूसरे के धन को मिट्टी का ढेला समझना चाहिये। वह यह भी कहते हैं कि इस संसार में वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो सभी लोगों को देह नहीं बल्कि इस संसार में दृष्टा की तरह उपस्थित आत्मा ही मानता है।
……………………………

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मिलावट और नकल का आतंक-हास्य व्यंग्य(nakal aur milavat par hindi vyangya)


आतंक कोई बाहर विचरने वाला पशु नहीं बल्कि मानव के मन में रहने वाला भाव है जो उसके सामने तब उपस्थित होता है जब वह अपने लिये कठिन हालत पाता है। पूरे विश्व के साथ भारत में भी आंतक फैले होने की बात की जाती है पर अन्य से हमारी स्थिति थोड़ी अलग है। दूसरे देश कुछ लोगों द्वारा उठायी गयी बंदूकों के कारण आतंक से ग्रसित हैं पर भारत में तो यह आतंक का एक हिस्सा भर है। यह अलग बात है कि हमारे देश के बुद्धिमान बस उसी बंदूक वाले आतंक पर ही लिखते हैं।
बहुत दिन से हम देख रहे हैं कि हम सारे जमाने के आतंक पर लिख रहे हैं पर अपने मन में जिनका आंतक है उसकी भी चर्चा कर लें। सच बात तो यह है हम नकली नोटों और मिलावटी सामान से बहुत आतंकित हैं।
बाजार में जब किसी को पांच सौ का नोट देते हैं तो वह ऐसे देखता है कि जैसे कि किसी अपराधी ने उसे अपने चरित्र का प्रमाणपत्र देखने के लिये दिया हो। जब तक वह दुकानदार लेकर अपनी पेटी में वह नोट डालकर सौदा और बचे हुए पैसे वापस नहीं करता तब तक मन में जो उथल पुथल होती है उसमें हम कितनी बार घायल होते हैं यह पता ही नहीं-याद रहे पश्चिमी चिकित्सा शास्त्र यह कहता है कि तनाव से जो मनुष्य के दिमाग को क्षति पहुंचती है उसका पता उसे तत्काल नही चलता।
हमने अनेक दुकानदारों के सामने ताल ठौंकी-अरे, भईया हम यह नोट ए.टी.एम से ताजा ताजा निकाल कर लाये हैं।’
वह कहते हैं कि ‘साहब, आजकल तो ए़.टी.एम. से भी नकली नोट निकल आते हैं और वह सभी ताजा ही होते हैं।’
उस समय सारा आत्मविश्वास ध्वस्त नजर आता है। ऐसा लगता है कि जैसे बम फटा हो और हम अपनी किस्मत से साबित निकल गये।
यही मिलावटी सामान का हाल है। बाजार में खाने के नाम पर दिन-ब-दिन डरपोक होते जा रहे हैं। इधर टीवी पर सुना कि मिलावटी दूध में ऐसा सामान मिलाया जा रहा है जिसमें एक फीसदी भी शरीर के लिये पाचक नहीं हैं। मतलब यह कि पूरा का पूरा कचड़ा है जो पेट में जमा होता है और समय आने पर अपना दुष्प्रभाव दिखाता है। अभी उस दिन समाचार सुना कि एक तेरहवीं में विषाक्त खोये की मिठाई खाकर 1200 लोग एक साथ बीमार पड़ गये। उस समय हमारी सांसें उखड़ रही थी। उसी दौरान एक मित्र का फोन आया और उसने पूछा-‘क्या हालचाल हैं? तुम्हारे ब्लाग हिट हुए कि नहीं। अगर हो गये हों तो मिठाई खिला देना। हम अंधेरे में बैठे हैं और आज तुम्हारा ब्लाग नहीं देख पा रहे।’
हमने कहा-‘अच्छा है बैठे रहो। अगर लाईट आ गयी तो तुम टीवी समाचार भी जरूर देखोगे। वहां जब मिठाई खाकर बीमार पड़ने वालों की खबर सुनोगे तो फिर मिठाई नहीं मांगोगे बल्कि मिठाई खाना ही भूल जाओगे।’
मित्र ने कहा-‘’तुम चिंता मत करो। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। तुम कभी हिट नहीं बनोगे इसलिये मिठाई भी नहीं मिलेगी सो खतरा कम है। पर यार, वाकई बाहर खाने में हम दिमाग तनाव मे आ जाता है कि कहीं गलत चीज तो नहीं खा ली। उस दिन एक जगह चाय पी और बीच में छोड़ कर दुकानदार को पैसे दिये और उससे कहा‘यह हमारी इंसानियत ही समझना कि हमने पैसे दिये वरना तुम्हारा दूध खराब है उसमें बदबू आ रही है।’ उसने भी हमसे पैसे ले लिये। हैरानी की बात यह है कि लोग उसी चाय को पी रहे थे किसी ने उससे कुछ कहा नहीं।’’
पिछली दो दीवाली हमने बिना खोये की मिठाई खाये बिना ही मनाई हैं। कहां हमें उस दिन मिठाई खाने का शौक रहता था पर मिलावट के आतंक ने उसे छीन लिया। वजह यह है कि इधर दीवाली के दिन शुरु हुए उधर टीवी पर मिलावटी दूध के समाचार शुरु हो जाते हैं कहते हैं कि
1-शहरों में खोवा आ कहां से रहा है जबकि उस क्षेत्र में इतनी भैंसे ही नहीं्र है।
2-खोये में तमाम ऐसे रसायन मिले होते हैं जो पेट की आंतों में भारी हानि पहुंचाते हैं।
3-घी भी पूरी तरह से नकली बन रहा है।’
ऐसे समाचार जो दिमाग में आंतक फैलाते हैं वह बारूद के आतंक से कहीं कम नहीं होते। आप ही बताईये खोय की विषाक्त मिठाई खाकर 1200 लोग एक साथ बीमार हों तो उसे भला छोटी घटना माना जा सकता है? क्या जरूरी है कि दुनियां के किसी हिस्से में बारूद से लोग मरे उसे ही आतंकवादी घटना माना जायेगा?
समस्या यह नहीं है कि दूध, घी या खोवा मिलावटी सामान बन रहा है बल्कि हल्दी, मिर्ची और शक्कर में मिलावट की बात भी सामने आती है। इतना ही नहीं अब तो यह भी कहने लगे है कि सब्जियों और फलों में भी दवाईयां मिलाकर उन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है और वह भी कम मनुष्य देह के लिये कम खतरनाक नहीं है।

जब बारूदी आतंक का समाचार चारों तरफ गूंज रहा होता है तब कुछ देर उस पर ध्यान अधिक रहता है पर जब अपने जीवन में कदम कदम पर नकली और खतरनाक सामान से सरोकार होने की आशंका है तो वह भी अब कम आतंकित नहीं करती। मतलब यह है कि चारों तरफ आंतक है पर हमारे देश के बुद्धिमान लोगों की आदत है कि विदेश के बताये रास्ते पर ही अपने विषय चुंनते हैं। हम इससे थोड़ा अलग हैं और हर विषय को एक आईना बनाकर अपने आसपास देखते हैं तब लगता है कि इस विश्व में बारूदी आतंक खत्म वैसे ही न होने वाला पर जो यह नकल और मिलावट का यह अप्रत्यक्ष आतंक है उसके परिणाम उससे कहीं अधिक गंभीर हैं। सोचने का अपना अपना तरीका है कोई सहमत न हो यह अलग बात है।
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शराबी ईमेल-हास्य व्यंग्य (hasya vyangya)


उस ईमेल में सबसे ऊपर लगे फोटो में शराब की बोतलें सजी थीं। नीचे संदेश में लिखा था कि ‘कृपया इस ईमेल को ध्वस्त न करें। इसे पढ़ें और अपने अन्य मित्रों को भेजें। इस ईमेल को पढ़कर एक आदमी ने इसे ध्वस्त कर दिया तो अगले दिन ही सुबह उसके घर में रखी शराब की बोतल अपने आप ही गिर कर टूट गयी।
एक आदमी ने यह ईमेल पांच लोगों को भेजा तो उसे सुबह ही मुफ्त पांच बोतलों का पार्सल मिला।
एक आदमी ने इसे दस लोगों को भेजा तो उसे उसके मित्र ने एक बढ़िया काकटेल पार्टी दी।
एक अधिकारी ने इसे पंद्रह लोगों को भेजा तो अगले दिन ही उसे प्रमोशन मिल गया।’
यह एक मित्र ने भेजा था और साथ में लिखा था कि इसे मजाक न समझें। हम बहुत गंभीर हो गये। इस बात को लेकर कि हम जैसे व्यक्ति के साथ इस तरह का मजाक करना खतरनाक भी हो सकता था। छहः वर्ष पहले छूटी लत वापस भी आ सकती थी पर लिखने का यह नशा जो बचपन से लगा है उसकी वजह से बचने की संभावना थी पर फ्री में शराब की बोतल का मोह छोड़ना मुश्किल था।
अगले दिन हम एक शराब की दुकान के पास से गुजर रहे थे तो ईमेल की याद आ गयी तो वहीं खड़े हो गये। दरअसल हमें उस फोटो की याद आ गयी। पीछे से एक मित्र ने टोककर कहा-‘चले जाओ, खरीद लो बोतल। डरते किसलिये हो। कोई नहीं देख रहा सिवाय हमारे। हां अगर घर बुलाकर एकाध पैग पिला दो तो हम किसी से नहीं कहेंगे। वैसे तुम कवि हो और इसका सेवन तुम्हारे लिये फायदेमंद है। अच्छी कवितायें लिख लोगे।
हमने कहा-‘क्या इस शराब वाले ने तुम्हें कोई कमीशन दिया है जो प्रचार कर रहे हो? हम तो बस बोतलें देख रहे थे। वैसे ही सजी थीं जैसे कि हमारे ईमेल पर। हमने पांच लोगों को ईमेल भेजा है और सोच रहे थे कि शायद यह शराब वाला हमें मुफ्त में दो चार शराब की बोतलें देगा। सुबह से कोई पार्सल तो मिला नहीं।’
वह मित्र घूरकर हमें देखने लगा और बोला-‘यह क्या कह रहे हो?’
हमने कहा-‘सच कह रहे हैं हमने पांच लोगों को ईमेल किया है। हमें एक ईमेल मिला था जिसमें लिखा था कि यही ईमेल अगर मित्रों को भेजोगे तो कुछ न कुछ मिलेगा। हमने सोचा कि ब्लाग तो हमारे हिट होने से रहे तो हो सकता है कि शराब की एकाध बोतल ही फ्री में मिल जाये।’
उसे हमने पूरी कथा सुनाई तो वह एकदम चीख पड़ा-‘क्या बात है शराब के नाम पर अभी भी तुम बहकने लगते हो। कहते हो कि छोड़ दी है फिर यह कैसा स्वांग रचा है। लगता है कि इंटरनेट ने तुम्हारे दिमाग के सारे बल्ब फ्यूज कर दिये हैं।’
हमने कहा-‘सच कह रहे हैं हमने पांच लोगों को ईमेल भेजा है।’
’’अच्छा-‘’वह घूरकर बोला-‘आज से बीस साल पहले हमने तुम्हें एक सर्वशक्तिमान की एक दरबार के लिये एक पर्चा दिया था कि इसे छपवाकर सौ लोगों को दो तो फायदा होगा तब तुमने कहा था कि यह सब ढकोसला है और आज ईमेल पर शराब का संदेश भेजने की बात आ गयी तो सब भूल गये। क्या जमाना आया गया। आदमी सर्वशक्तिमान के संदेश छपवाता नहीं है पर शराब के ईमेल भेजने को तैयार है।’
तब हमें याद आया कि इस तरह के पर्चे पहले छपते थे कि अमुक जगह सर्वशक्तिमान के अमुक रूप की तस्वीर प्रकट हुई है। उसके बारे में यह पर्चा छपवाकर सौ लोगों को भेजो तो सारी समस्या हल हो जायेगी। दरअसल यह सर्वशक्तिमानों के दरबारों का प्रचार होता था। उसमें यह भी बताया जाता था कि अमुक जगह अमुक तस्वीर मिली तो जिसने प्रचार किया उसको लाभ हुआ जिसने वह पर्चे छपवाने की बजाय फैंक दिया तो उसे हानि हुई। हमने सतर्कता से मित्र को जवाब दिया-‘वह पर्चे छपवाने में पैसे खर्च होते हैं जबकि हमारा इंटरनेट कनेक्शन ब्राडबैंड वाला है इसलिये कोई अलग से पैसा नहीं देना पड़ता। इसलिये प्रयास करने में क्या बुराई है।’
मित्र बोला-‘हां, इससे इंटरनेट के कनेक्शन बने रहेंगे यह क्या कम है? उनकी कमाई नहीं होगी। फिर यह पूरब और पश्चिम का मेल कैसे हो रहा है? कहां अध्यात्म की बातें करते हो और कहां यह शराब की दुकान पर झांक रहे हो। निकल लो। किसी चाहने वाले ने देख लिया तो उसके सामने तुम्हारी पोल खुल जायेगी।’
हम सहम गये। हमारे दिमाग से ईमेल वाली बात निकल ही नहीं रही थी। पांच लोगों को ईमेल किया था पर कहीं से कोई पार्सल आदि नहीं मिला। फिर सोचा कि-‘यार, यह इंटरनेट पर पूरब पश्चिम का मेल कुछ इस तरह ही होगा। प्रचार का तरीका पुराना पर इष्ट तो नया होगा। कहां सर्वशक्तिमान के स्वरूप आदमी को प्रिय थे अब तो यह शराब ही प्रिय है।’

हमने गलत नहीं सोचा। टीवी, कूलर,फ्रिज, और गाड़ियों का अविष्कार इस देश में नहीं हुआ पर उपलब्ध सभी को हैं। हां, उनके उपयोग का तरीका जरूर पश्चिमी देशों से नहीं मिलता। कारें तो एक से एक सुंदर आ रही हैं पर रोड पुरानी और खटारा है। फ्र्रिज है पर लाईट की उठक बैठक उसके साथ लगी हुई है। टीवी आया पर विदेश के लोग उसका आनंद उठाते हैं जबकि हम लोग चिपक जाते हैं। फिर यह सभी चीजें चाहिये पर दहेज के रूप में। मतलब यह कि हम अपने चलने फिरने का ढर्रा नहीं बदल सकते पर इस्तेमाल करने वाली चीजों का बदल देते हैं। यही हाल उस शराब की ईमेल का है। पहले सर्वशक्तिमान की दरबारें कमाई का जरिया होती थी तो अब शराब की दुकानें हो गयी हैं इसलिये प्रचार के लिये उनका ही तो फोटा लगेगा न!
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विदुर नीति-कम ताकत के होते गुस्सा करना तकलीफदेह


द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी कहते हैं कि जो अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। गृहस्थ होकर अकर्मण्यता और सन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है।

द्वाविमौ कपटकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणी।
यश्चाधनः कामयते पश्च कुप्यत्यनीश्वरः।।
हिंदी में भावार्थ-
अल्पमात्रा में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन होते हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और कांटों के समान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -किसी भी कार्य को प्रारंभ करने पहले यह आत्ममंथन करना चाहिए कि हम उसके लिये या वह हमारे लिये उपयुक्त है कि नहीं। अपनी शक्ति से अधिक का कार्य और कोई वस्तु पाने की कामना करना स्वयं के लिये ही कष्टदायी होता है।
न केवल अपनी शक्ति का बल्कि अपने स्वभाव का भी अवलोकन करना चाहिये। अनेक लोग क्रोध करने पर स्वतः ही कांपने लगते हैं तो अनेक लोग निराशा होने पर मानसिक संताप का शिकार होते हैं। अतः इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि हमारे जिस मानसिक भाव का बोझ हमारी यह देह नहीं उठा पाती उसे अपने मन में ही न आने दें।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब हम कोई काम या कामना करते हैं तो उस समय हमें अपनी आर्थिक, मानसिक और सामाजिक स्थिति का भी अवलोकन करना चाहिये। कभी कभी गुस्से या प्रसन्नता के कारण हमारा रक्त प्रवाह तीव्र हो जाता है और हम अपने मूल स्वभाव के विपरीत कोई कार्य करने के लिये तैयार हो जाते हैं और जिसका हमें बाद में दुःख भी होता है। अतः इसलिये विशेष अवसरों पर आत्ममुग्ध होने की बजाय आत्म चिंतन करते हुए कार्य करना चाहिए।
…………………………….

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ख़ुद भटके,द्रूसरे को देते रास्ते का पता-व्यंग्य कविता


अपनी मंजिल पर
कभी वह पहुंचे नहीं।
चले कहीं के लिये थे
पहुंचे गये कहीं।
भटकाव सोच का था
कभी रास्ते से वह उतर जाते
कभी खो जाता रास्ता कहीं।
……………………..
अपने रास्ते से वह भटके
अपने ही गम में वह लटके
कोई उपाय न देखकर
बूढ़े बरगद के नीचे धूनि रमाई।

दूसरे को रास्ता बताने लगे
यूं भीड़ का काफिला बढ़ता गया
जमाना ही उनके जाल में फंसता गया
फिर भी चल रहा है उनका धंधा
कभी आता नहीं मंदा
जब तक लोग भटकते रहेंगे
रास्ते पूछने की कीमत सहेंगे
मंजिल पर पहुंच जायेगा राही
बन नहीं हो जायेगी कमाई।
भ्रम वह सिंहासन है
जिसे सिर पर बिठाया तो
बन गये प्रजा
उस पर बैठे तो बने राजा
सच है सर्वशक्तिमान ने
खूब यह दुनियां बनाई

……………………………
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विदुर नीति-शक्ति से बड़ी इच्छा करना मूर्खता


द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी कहते हैं कि जो अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। गृहस्थ होकर अकर्मण्यता और सन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है।
द्वाविमौ कपटकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणी।
यश्चाधनः कामयते पश्च कुप्यत्यनीश्वरः।।
हिंदी में भावार्थ-
अल्पमात्रा में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन होते हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और कांटों के समान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -किसी भी कार्य को प्रारंभ करने पहले यह आत्ममंथन करना चाहिए कि हम उसके लिये या वह हमारे लिये उपयुक्त है कि नहीं। अपनी शक्ति से अधिक का कार्य और कोई वस्तु पाने की कामना करना स्वयं के लिये ही कष्टदायी होता है।
न केवल अपनी शक्ति का बल्कि अपने स्वभाव का भी अवलोकन करना चाहिये। अनेक लोग क्रोध करने पर स्वतः ही कांपने लगते हैं तो अनेक लोग निराशा होने पर मानसिक संताप का शिकार होते हैं। अतः इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि हमारे जिस मानसिक भाव का बोझ हमारी यह देह नहीं उठा पाती उसे अपने मन में ही न आने दें।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब हम कोई काम या कामना करते हैं तो उस समय हमें अपनी आर्थिक, मानसिक और सामाजिक स्थिति का भी अवलोकन करना चाहिये। कभी कभी गुस्से या प्रसन्नता के कारण हमारा रक्त प्रवाह तीव्र हो जाता है और हम अपने मूल स्वभाव के विपरीत कोई कार्य करने के लिये तैयार हो जाते हैं और जिसका हमें बाद में दुःख भी होता है। अतः इसलिये विशेष अवसरों पर आत्ममुग्ध होने की बजाय आत्म चिंतन करते हुए कार्य करना चाहिए।
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जहर और अमृत -लघुकथा


वह कोई गेहुंआ वस्त्र पहने साधु या संत नहीं बल्कि कोई शिक्षित और सज्जन पुरुष थे। कहीं बैठकर लोगों से ज्ञान चर्चा कर रहे थे। उनके सामने तीन लोग श्रोता के रूप में बैठ कर उनकी बातें सुन रहे थे। उन सज्जन ज्ञानी पुरुष ने पुराने शास्त्रों से अनेक उद्धरण देते हुए कुछ महापुरुषों के संदेश भी सुनाये।
उनके पीछे एक अन्य व्यक्ति भी बैठा यह सब सुन रहा था। उसे यह चर्चा बेकार की लग रही थी। अचानक वह उठा और उन सज्जन पुरुष के पास आकर उनसे बोला- तुम यह क्या बकवास कर रहे हो? इस ज्ञान चर्चा से क्या होगा,? तुम इतना सब सुना रहे हो वह सब मैंने भी किताबों में पढ़ा है पर तुम्हारी तरह इधर उधर ज्ञान नहीं बघारता। तुम इतना ज्ञान बघार रहे हो पर क्या उस पर चलते भी हो?‘
उस सज्जन ने कहा-‘कोशिश बहुत करता हूं कि उस राह पर चलूं। अब यह तो लोग ही बता सकते हैं कि मेरा व्यवहार किस तरह का है? बाकी रहा ज्ञान बघारने का सवाल तो भई, फालतू की बातें सोचने अैार कहने से अच्छा है तो इसी तरह की बातें की जाये। अच्छा, हम जब यह ज्ञान चर्चा कर रहे थे तब तुम्हारे मन में क्या विचार आ रहे थे।
उस आदमी ने कहा-‘मेरे को इस तरह की ज्ञान चर्चा पर गुस्सा आ रहा था। मैं तुम जैसे ढोंगियों को देखकर क्रोध में भर जाता हूं। पता नहीं यह तीनों तुम्हें कैसे झेल रहे थे?’
उन सज्जन ने कहा-‘मुझे बहुत दुःख है कि मेरी ज्ञान चर्चा से तुम्हें बहुत गुस्सा आया पर मैं भी अनेक ढोंगियों को देखता हूं पर गुस्सा बिल्कुल नहीं होता। उनकी ज्ञान की बातें सुनता हूं पर उनके आचरण पर ध्यान देकर अपना मन खराब नहीं करता। वैसे तुम इन श्रोताओं से पूछो कि आखिर हम दोनों में वह किसे पसंद करेंगे?’
उन्होंने तीनों श्रोताओं की तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा तब एक श्रोता उस बीच में बोलने वाले आदमी से बोला-‘हम इन सज्जन पुरुष की बातें सुन रहे थे तो मन को शांति मिल रही थी। हमें इससे क्या मतलब कि यह कहां से आये है और क्या करते हैं? बस इनकी बातें सुनकर आनंद आ रहा था। यह सब बातें हमने भी सुनी है पर इनके मुख से सुनकर भी अच्छा लगा रहा था। हां, तुम्हारे बीच में आने से जरूर हमें दुःख पहुंचा है।’
दूसरा श्रोता ने कहा-‘तुमने बताया कि तुमने यह सब पढ़ा है तो हमने भी सुना है। इन सज्जन की वाणी से हमें सुख मिल रहा था पर तुम्हारे आने से ऐसा लग रहा है कि जैसे यज्ञ में किसी राक्षस ने बाधा डाली हो!
तीसरे कहा-‘तुम्हारी अंतदृष्टि में यह सज्जन ढोंगी हैं पर हमारी नजर में ज्ञानी हैं क्योंकि इनकी बात से हमें आत्मिक सुख मिल रहा था भले ही यह पुरानी बातें दोहरा रहे हैं मगर तुम शिक्षित और ज्ञानी होते हुए भी भटक रहे हो क्योंकि ज्ञान धारण न भी किया हो पर उसकी चर्चा कर अच्छा वातावरण तो बनाया जा सकता है और तुमने इसे विषाक्त बना दिया।’
बीच में बोलने वाले सज्जन का मूंह उतर गया। वह पैर पटकता हुआ वहां से चला गया तो एक श्रोता ने उस सज्जन से कहा-‘आखिर यह आपकी बात पर गुस्सा क्यों हुआ?’
सज्जन ने कहा-‘भई, एक तो यह अपने घर से परेशान होगा दूसरे यह कि इस समाज में ज्ञान चर्चा केवल गेहूंए वस्त्र पहनने वाले ही कर सकते हैं। उन्होंने इतनी सामाजिक और राजनीतिक शक्ति एकत्रित कर ली होती है कि किसी की हिम्मत नहीं होती कि सामने जाकर कोई उनको ढोंगी कह सके इसलिये उनकी कुंठायें ऐसे लोगों के सामने निकालते हैं जो सादा वस्त्र पहनकर ज्ञान चर्चा करते हैं। सभी सुविधायें जुटाकर सन्यासी होने का ढोंग करने वालों से कहना कठिन है पर कोई सद्गृहस्थ ज्ञान चर्चा करे तो उस पर उंगली उठाकर अपनी कुंठा निकालना अधिक आसान है। शायद इसलिये उसने जमाने भर का गुस्सा यहां निकाल दिया। बहरहाल तुम उसकी बात भूल जाना क्योंकि इससे तुम्हारे अंदर उसका फैलाया विष असर दिखाने लगेगा और अगर मेरी बात से कुछ बूँद अमृत बना है तो वह भी दवा कर का नहीं कर पायेगा।
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पैसे के साथ इश्क में भी आ सकता है मंदी का दौर – हास्य व्यंग्य


क्वीसलैंड यूनिवर्सटी आफ टैक्लनालाजी के प्रोफेसर कि अनुसार इस मंदी के दौर में लोगों के दाम्पत्य जीवन पर कुप्रभाव पड़ रहा है। उनके अनुसार पैसा प्यार को मजबूत रखता है और उसकी कमी तनाव को जन्म देती है।
यह एक सच्चाई है। फिल्मों,साहित्यक कहानियों और हिंदी उर्दू शायरियों में जिस इश्क, प्यार या मोहब्बत का गुणगान किया जाता है वह केवल भौतिक साधनों के सहारे ही परवान चढ़ता है। फिल्मों की काल्पनिक कथायें देखते हुए हमारे देश के युवक युवतियां क्षणिक प्यार में जाने क्या क्या करने को तैयार हो जाते हैं और फिर न केवल अपने लिये संकट बुलाते हैं बल्कि परिवार को भी उसमें फंसाते हैं।

हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यही कहता है कि प्रेम केवल सर्वशक्तिमान से हो सकता है पर अपने देश में एसी भी विचारधारायें भी प्रचलन में हैं जिनके अनुसार प्रियतम अपनी प्रेयसी को तो कहीं प्रेयसी को उसकी जगह बिठाकर आदमी को प्यार और मोहब्बत के लिये प्रेरित करती हैं। आपने फिल्मों में ऐसे गीत देखे होंगे जिसमें काल्पनिक प्रियतम की याद प्रेयसी और उसकी याद में प्रियतम ऐसे गीत गा रहा होता है जैसे कि भजन गा रहा हो। हम न तो ऐसे प्रेम का विरोध कर रहे हैं न उसका गुणगान कर रहे हैं बल्कि यह बता रहे हैं कि प्रेमी जब गृहस्थ के रूप में बदल जाते हैं तक अपनी दैहिक आवश्यकताओं के लिये धन की जरूरत होती है और तभी तय होता है कि वह कथित प्रेम किस राह चलेगा।

वैसे हमने अपने जीवन में देखा है कि जब को लड़का किसी लडकी की तरफ आकर्षित होता है तो उसे प्रेम पत्र लिखकर या वाणी से बोलकर किसी ऐसी जगह ही आमंत्रित करता है जहां खाने पीने के लिये एकांत वाली जगह हो। वहां डोसा,सांभर बड़ा या समौसे कचैड़ी खाते हुए प्रेम परवान चढ़ता है। वैसे आजकल पब सिस्टम भी शुरु हो गया है। यह बात पहले पता नहीं थी पर आजकल कुछ घटनायें ऐसी हो गयी हैं उससे यह जानकारी मिली है।

यह स्त्री पुरुष का दैहिक प्रेम पश्चिमी विचारधारा पर आयातित है तो तय है कि उसके लिये मार्ग भी वैसे ही बनेंगे जैसे वहां बने हैं। वैसे इस दैहिक प्रेम का विरोध तो सदियों से हर जगह होता आया है पुराने समय में इक्का दुक्का घटनायें होती थीं और प्यार के विरोध में केवल परिवार और रिश्तेदार ही खलनायक की भूमिका अदा करते थे। अब तो सब लोग खुलेआम प्रेम करने लगे हैं और हालत यह है कि परिवार के लोग विरोध करें या नहीं पर बाहर के लोग सामूहिक रूप से इसका प्रतिकार कर उसे प्रचार देते हैं। यह भी होना ही था पहले प्यार एकांत में होता था अब भीड़ में होने लगा है तो फिर विरोध भी वैसा होता है। इस दैहिक प्यार की महिमा जितनी बखान की जाती है उतनी है नहीं पर जब कोई खास दिन होता है तो उसकी चर्चा सारे दिन सुनने को मिलती है।

वैसे तो देखा जाये कोई किससे प्यार करने या न करे उसका संबंध बाहर के लोगों से कतई नहीं है। पर रखने वाले रखते हैं और कहते हैं कि यह संस्कृति के खिलाफ है? आज तक हम उस संस्कृति का नाम नहीं जान पाये जो इसके खिलाफ है। हमारे अनेक सांस्कृतिक प्रतीक पुरुषों ने प्यार किया और अपनी प्रेयसियों से विवाह रचाया। अब यह जरूरी नहीं है कि उनकी विवाह पूर्व की प्रेमलीला कोई लंबी खिंचती या वह गाने गाते हुए इधर उधर फिरते। चूंकि यह व्यंग्य है इसलिये हम उनके नाम नहीं लिखेंगे पर जानते सभी हैं। सच बात तो यह है कि दैहिक प्रेम में आत्मिक भाव तभी ढूंढा जाता है दोनों प्रेमियो का मिलन सामाजिक नियमों के अनुसार हो जाता है। मगर आजकल हालत अजीब है कि कहीं विवाह पूर्व प्रेम ढूंढा जा रहा है तो कही विवाह के पश्चात् सनसनी के कारण से प्रेम पर चर्चा होती है।

बहरहाल हमारा मानना है कि चाहे जो भी हो जो लोग सावैजनिक जगहों पर प्रेम करने पर आमदा होते हैं उनकी तरफ अधिक ध्यान देना ही नहीं चाहिये। पिछले कुछ वर्षों से समाज में कामकाजी महिलाओंं की संख्या बढ़ती जा रही है-यह अलग बात है कि उसके बावजूद गृहस्थ महिलाओं की संख्या बहुत अधिक हैं। ऐसे में अगर वह अविवाहित हैं तो उनके संपर्क अपने कार्यस्थल पर काम कर रहे या कार्य के कारण पासं आने वाले युवकों से हो जाते हैं। लड़कियां क्योंकि कामाकाजी होती हैं इसलिये वह विवाह से पहले अपने मित्रों को पूरी तरह परखना चाहती हैं। ऐसे में कुंछ युवतियां अपने परिवार में संकोच के कारण नहीं बताती क्योंकि उनको लगता है कि इससे माता पिता और भाई नाराज हो जायेंगे। फिर क्या पता लड़का हमें ही न जमें। कुछ मामलों में तो देखा गया है कि कामकाजी लड़कियों के माता पिता पहले कहीं अपनी कामकाजी लड़की के रिश्ते की बात चलाते हैं फिर लड़की से कहा जाता है कि वह लड़का देख कर अपना विचार बताये-तय बात है कि यह मिलने लड़की और लड़के का अकेले ही होता है और उस समय कोई उनका परिचित देख ले तो यही कहेगा कि कोई चक्कर है।

बहरहाल संस्कृति और संस्कार के रक्षकों के सामने अपने विचारों का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता बस नारे लगाते हुए चले जाते हैं। उनको लगता है कि सार्वजनिक जगहों पर अविवाहित युवक युवतियों का उठना बैठना संस्कृति को नष्ट कर देगा। यह हास्यास्पद है। हम बात कर रहे थे मंदी से प्रेम के बाजार में मंदी आने की। इस समय रोजगार के अवसरों में कमी हो रही है और ऐसे में इस समय जो कामकाजी जोड़े हैं वह प्यार कर कभी न कभी विवाह में बंधन में बंध जायेंगे। नये जोड़ों के सामने तो केवल नौकरी ढूंढने का ही संकट बना रहने वाला है। उनको अपना वक्त नौकरी ढूंढने में ही नष्ट करना होगा तो प्यार क्या खाक करेंगे? यह संकट निम्न मध्यम वर्ग के लोगों में ही अधिक है और इस वर्ग के सामने रोजगार के नये अवसरों का संकट आता दिख रहा है। कुछ अर्थशास्त्रियेां का मानना है कि अगले चार साल तक यह मंदी रहने वाली है और इसमें ऐसे अनेक व्यवसायिक स्थान संकट में फंस सकते हैं जो जोड़ों को मिलने मिलाने के सुगम और एकांत अवसर प्रदान करते हैंं। फिर रोजगार के संकट के साथ कम वेतन भी एक कारण हो सकता है जो प्रेम के अवसर कम ही प्रदान करे।

अपने देश में देशी विद्वानों की बात तो मानी नहीं जाती। इसलिये यह स्पष्ट करना जरूरी है कि यह कथन एक विदेशी विद्वान का ही है कि पैसे से ही प्यार मजबूत होता है और मंदी का यही हाल रहा तो प्यार का असर कम हो जो जायेगा। यह अलग बात है कि प्रचार बनाये रखने के लिये कुछ प्रेम कहानियंा फिक्स कर दिखायी जायें पर जब मंदी की मार प्रचार माध्यमों पर पड़ेगी तो वह कितनी ऐसी कहानियां बनवायेंगे? सो संस्कार और संस्कृति रक्षकों को चादर तानकर सो जाना चाहिये। आज नहीं तो कल दैहिक प्रेम-जो कि पैसे के कारण ही परवान चढ़ता है-अपना अस्तित्व खो बैठेगा। तब उनके विचारों के कल्पित समाज अपनी राह पर फिर संस्कारों और संस्कृति के सााि चलेगा।
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संत कबीर के दोहे: भक्ति और ध्यान एकांत में करें


चर्चा करु तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय
ध्यान करो तब एकिला, और न दूजा कोय

संत श्री कबीरदास जी का कथन है जब ज्ञान चर्चा चौराहै पर करो पर जब उसका अध्ययन करना हो तो दो लोगों की बीच में ही ठीक है। ज्ञान के बारे में जब ध्यान, चिंतन और मनन करना हो तो उसे एकांत में ही रहे जहां कोई दूसरा व्यक्ति न हो।
अष्ट सिद्धि नव निधि लौं, सबही मोह की खान
त्याग मोह की वासना, कहैं कबीर सुजान

संत श्री कबीरदास का कथन है कि आठों सिद्धियां और नवों निधियां तो मोह की खान है। अतः इस मोह को त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम लोग अक्सर यह कहते हैं कि अमुक संत सिद्ध है और उसकी शरण लेना चाहिए या वह तो बहुत पहुंचे हुए हैं। कई कथित संत और साधु अपने लिये बकायदा विज्ञापन करते हैं जैसे कि बहुत बड़े सिद्ध हों। यह सब ढोंग हैं। अनेक लोग मंत्रों आदि के द्वारा काम सिद्ध करने का दावा करते हैं। यह सब मोह से उपजा भ्रम है। सिद्धियां और निधियों की आड़ में अनेक लोग धंधा कर रहे हैं। सिद्धि केवल मन की शांति के रूप में ही है बाकी तो दुनियां चलती है। माया का भंडार पास में हो पर अगर मन अशांत हो तो वह भी व्यर्थ नजर आता है। इस प्रकार की मानसिक शांति लिये तत्व ज्ञान होना चाहिये। वैसे तो इसके लिये गुरु का होना जरूरी है पर न मिले तो किसी समक+क्ष व्यक्ति के साथ बैठकर स्वाध्याय करना चाहिये। उसके बाद अकेले ध्यान में बैठकर अपने द्वारा ग्रहण तत्व पर विचार करना ही ठीक है। हां, उसकी चर्चा चार लोगों के करने में कोई बुराई नहीं है। इस चर्चा से न केवल अपने दिमाग में मौजूद ज्ञान का पूर्नस्मरण हो जाता है और वह पुष्ट भी होता है।

हम जो ज्ञान प्राप्त करें उससे अपने आपको सिद्ध मान लेना मूर्खता है क्योंकि तत्व ज्ञान का रूप अत्यंत सूक्ष्म है पर उसका विस्तार इतना दिया जाता है कि लोग उसका लाभ व्यवसायिक रूप से उठाते हैं। अनेक सिद्धियों और निधियों का प्रचार इस तरह किया जाता है जैसे वह दुनियां में रह मर्ज की दवा हैं। इनसे दूर होकर अपने स्वाध्याय, ध्यान और ज्ञान से अपने मन के विकार दूर करते रहना चाहिये।
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हादसों से सीखा, अफ़सानों ने समझाया-व्यंग्य कविता


कुछ हादसों से सीखा
कुछ अफसानों ने समझाया।
सभी जिंदगी दो चेहरों के साथ बिताते हैं
शैतान छिपाये अंदर
बाहर फरिश्ता दिखाते हैं
आगे बढ़ने के लिये
पीठ पर जिन्होंने हाथ फिराया।
जब बढ़ने लगे कदम तरक्की की तरफ
उन्होंने ही बीच में पांव फंसाकर गिराया।
इंसान तो मजबूरियों का पुतला
और अपने जज़्बातों का गुलाम है
कुदरत के करिश्मों ने यही बताया।
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कदम दर कदम भरोसा टूटता रहा
यार जो बना, वह फिर रूठता रहा।
मगर फिर भी ख्यालात नहीं बदलते
भले ही हमारे सपनों का घड़ा फूटता रहा
हमारे हाथ की लकीरों में नहीं था भरोसा पाना
कोई तो है जो निभाने के लिए जूझता रहा।
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चाणक्य नीति-बुरे संस्कार वालों के साथ बैठकर खाना भी न खाएं


नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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अर्थार्थीतांश्चय ये शूद्रन्नभोजिनः।
त द्विजः कि करिष्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः।।

हिंदी में भावार्थ- नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि अर्थोपासक विद्वान समाज के लिये किसी काम के नहीं है। वह विद्वान जो असंस्कारी लोगों के साथ भोजन करते हैं उनको यश नहीं मिल पता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- इस देश का अध्यात्मिक ज्ञान सदेशों के अनमोल खजाने से भरा पड़ा है। उसका कारण यह है कि प्राचीन विद्वान अर्थ के नहीं बल्कि ज्ञान के उपासक थे। उन्होंने अपनी तपस्या से सत्य के तत्व का पता लगाया और इस समाज में प्रचारित किया। आज भी विद्वानों की कमी नहीं है पर प्रचार में उन विद्वानों को ही नाम चमकता है जो कि अर्थोपासक हैं। यही कारण है कि हम कहीं भी जाते हैं तो सतही प्रवचन सुनने को मिलते हैं। कथित साधु संत सकाम भक्ति का प्रचार कर अपने भोले भक्तों को स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं। यह साधु लोग न केवल धन के लिये कार्य करते हैं बल्कि असंस्कारी लोगों से आर्थिक लेनदेने भी करते हैं। कई बार तो देखा गया है कि समाज के असंस्कारी लोग इनके स्वयं दर्शन करते हैं और उनके दर्शन करवाने का भक्तों से ठेका भी लेते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में अध्यात्मिक चर्चा तो बहुत होती है पर ज्ञान के मामले में हम सभी पैदल हैं।
समाज के लिये निष्काम भाव से कार्य करते हुए जो विद्वान सात्विक लोगों के उठते बैठते हैं वही ऐसी रचनायें कर पाते हैं जो समाज में बदलाव लाती हैं। असंस्कारी लोगों को ज्ञान दिया जाये तो उनमें अहंकार आ जाता है और वह अपने धन बल के सहारे भीड़ जुटाकर वहां अपनी शेखी बघारते हैं। इसलिये कहा जाता है कि अध्यात्म और ज्ञान चर्चा केवल ऐसे लोगों के बीच की जानी चाहिये जो सात्विक हों पर कथित साधु संत तो सार्वजनिक रूप से ज्ञान चर्चा कर व्यवसाय कर रहे हैं। वह अपने प्रवचनों में ही यह दावा करते नजर आते हैं कि हमने अमुक आदमी को ठीक कर दिया, अमुक को ज्ञानी बना दिया।
अतः हमेशा ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लये ऐसे लोगों को गुरु बनाना चाहिये जो एकांत साधना करते हों और अर्थोपासक न हों। उनका उद्देश्य निष्काम भाव से समाज में सामंजस्य स्थापित करना हो।
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मुस्कराहट का मुखौटा-व्यंग्य कविता


बेकद्रों की महफिल में मत जाना
बहस के नाम पर वहां बस कोहराम मचेगा
पर कौन, किसकी कद्र करेगा।
मुस्कराहट का मुखौटा लगाये सभी
हर शहर में घूम रहे हैं
जो मिल नहीं पाती खुशी उसे
ढूंढते हुए झूम रहे हैं
दूसरे के पसीने में तलाश रहे हैं
अपने लिये चैन की जिंदगी
उनके लिये अपना खून अमृत है
दूसरे का है गंदगी
तुम बेकद्रों को दूर से देखते रहकर
उनकी हंसी के पीछे के कड़वे सच को देखना
दिल से टूटे बिखरे लोग
अपने आपसे भागते नजर आते हैं
शोर मचाकर उसे छिपाते हैं
उनकी मजाक पर सहम मत जाना
अपने शरीर से बहते पसीने को सहलाना
दूसरा कोई इज्जत से उसकी कीमत
कभी तय नहीं करेगा।

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बाजार की आस्था या आस्था का बाजार-हास्य व्यंग्य


कहीं न्यूजीलैंड में इस बात को लेकर लोग नाराज है कि ‘हनुमान जी पर कंप्यूटर गेम बना दिया गया है और बच्चे उनकी गति को नियंत्रित करने का खेल कर रहे हैं।’ इससे उनकी धार्मिक आस्थायें आहत हो रही हैं। तमाम तरह के आक्षेप किये जा रहे हैं।
एक बात समझ में नहीं आती कि लोग अपने धार्मिक प्रतीकों को लेकर इस तरह के विवाद खड़ा कर आखिर स्वयं प्रचार में आना चाहते हैं या उनका उद्देश्य कंपनियों के उत्पाद का प्रचार करना होता है। कहीं किसी अभिनेत्री ने माता का मेकअप कर किसी रैंप में प्रस्तुति दी तो उस पर भी बवाल बचा दिया। टीवी चैनलों ने अपने यहां उसे दिखाया तो अखबारों ने भी इस समाचार का छापा। प्रचार किसे मिला? निश्चित रूप से अभिनेत्री को प्रचार मिला। अगर कथित धार्मिक आस्थावान ऐसा नहीं करते तो शायद उस अभिनेत्री का नाम कोई इस देश में नहीं सुन सकता था।
कई बार ऐसा हुआ कि अन्य धार्मिक विचाराधारा के लोगों ने अपने धार्मिक प्रतीकों के उपयोग पर बवाल मचाये हैं पर उनकी देखादेखी भारतीय आस्थाओं के मानने वाले भी ऐसा करने लगे तो समझ से परे है। कहने को भारतीय आस्थाओं के समर्थक कहते हैं कि ‘जब दूसरे लोगों के प्रतीकों पर कुछ ऐसा वैसा बनने पर बवाल मचता है तो हम क्यों खामोश रहे?’
यह तर्क समझ से परे है। इसका मतलब यह है कि भारतीय आस्थाओं को मानने वाले अपने अध्यात्मिक दर्शन का मतलब बिल्कुल नहीं समझते। नीति विशारद चाणक्य ने कहा है कि ‘हृदय में भक्ति हो तो पत्थर में भगवान हैं।’
यानि अगर हृदय में नहीं है तो वह पत्थर ही है जिसे दुनियां को दिखाने के लिये पूज लो-वैसे अधिकतर लोग अपने दिल को तसल्ली देने के लिये पत्थर की पूजा करते हैं कि हमने कर ली और हमारा काम पूरा हो गया। हमारा अध्यात्मिक दर्शन स्पष्ट कहता है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा का कोई रूप नहीं है। उसके स्वरूप की कल्पना दिमाग में स्थापित कर उसका स्मरण करने का संदेश है पर अंततः निराकार में जाने का आदेश भी है।
अब अगर कोई कंप्यूटर पर हनुमान जी पर गेम बनाता है या कोई अभिनेत्री माता का चेहरा बनाकर रैंप पर अपनी प्रस्तुति देती है तो उसमें क्या आप सर्वशक्तिमान परमात्मा का रूप देख रहे हैं जो ऐसी आपत्ति करते हैं। अनेक प्रकार की भौतिक चीजों से बना कंप्यूटर अगर खराब हो जाये तो उस कोई आकृति नहीं दिख सकती। मतलब यह आकृतियां तो पत्थर की मूर्ति से भी अधिक छलावा है। उसमें अपनी अपने आस्थाओं की मजाक उड़ते देखने का अहसास ही सबसे बड़ा अज्ञान है-बल्कि कहा जाये कि उसे मजाक कहकर हम अपनी भद्द पिटवा रहे हैं। आस्था या भक्ति एक भाव है जिनको भौतिक रूप से फुटबाल मैच की तरह नहीं खेला जाता कि वह हम पर गोल कर रहा है तो उसे हमें गोलकीपर बनकर रोकना होगा या दूसरे ने गोल कर दिया है तो वह हमें उसी तरह उतारना है।
फिर आजकल यह मुद्दे ज्यादा ही आ रहे हैं। जहां तक मजाक का सवाल है तो अनेक ऐसी हिंदी फिल्में बन चुकी हैं जिसमें भारतीय संस्कृति से जुड़े अनेक पात्रों पर व्यंग्यात्मक प्रस्तुति हो चुकी है और उस पर किसी ने आपत्ति नहीं की। अब इसका एक मतलब यह है कि हम अपने धार्मिक प्रतीकों का सम्मान करना दूसरों से सीख रहे हैं। यह एक भारी गलती है। होना तो यह चाहिये कि हम दूसरों को सिखायें कि इस तरह धार्मिक प्रतीकों पर जो कार्यक्रम बनते हैं या प्रस्तुतियां होती हैं उससे मूंह फेर कर उपेक्षासन करें क्योंकि सर्वशक्तिमान के स्वरूप का कोई आकार नहीं है। अगर हमारे हृदय में हमारी आस्था दृढ है तो उसका कोई मजाक उड़ा ही नहीं सकता। अगर धार्मिक भाव से आस्था दृढ़ नहीं होती और वह ऐसी जरा जरा सी बातों पर हिलने लगती हैं तो इसका मतलब यह है कि हमारे हृदय में स्वच्छता का अभाव है। धार्मिक आस्था अगर ज्ञान की जननी नहीं है तो फिर उसका कोई आधार नहीं है।

दूसरा मतलब यह है कि उस कंप्यूटर गेम को शायद भारतीय बाजार में प्रचार दिलाने के लिये यह एक तरीका है। इससे यह संदेह होता है कि विरोध करने वाले अपनी आस्था का दिखावा कर रहे हैं। अब अगर कंप्यूटर पर कोई आकृति हनुमान जी की तरह बनी है तो हनुमान जी मान लेने का मतलब यह है कि वह आपके आंखों में ही बसते हैं, दिल में नहीं। दिल में बसे होते तो चाहे कितने प्रकार की आकृतियां बनाओ आपको वह स्वीकार्य नहीं हो सकती। बात इससे भी आगे कि अगर वह आपके इष्ट है तो आप भी उनके गेम को खेलिए-इससे वह रुष्ट नहीं हो जायेंगे। बस जरूरत है कि वह गेम भी आस्था और विश्वास से खेलें। अगर अपने इष्ट के स्वरूप में हमारी अटूट श्रद्धा है तो वह कभी इस तरह खेलने में नाराज नहीं होंगे और फिर हमसे परे भी कितना होंगे? जो पास होता है उसी के साथ तो खेला जाता है न!
वाल्मीकी ऋषि का नाम तो सभी ने सुना होगा। ‘मरा’ ‘मरा’ कहते हुए राम को ऐसा पा गये कि उन पर इतना बड़ा ग्रंथ रच डाला कि उनके समकक्ष हो गये। ऐसा कौन है जो भगवान श्रीराम को जाने पर वाल्मीकि को भूल जाये? आशय यह है कि आस्था और भक्ति दिखावे की चीज नहीं होती और न भौतिक रूप से इस जमीन पर बसती है कि वह टूटें और बिखरें।
इस तरह जिनकी आस्था हिलती है या टूटती है उनके दिल लगता है कांच के कप की तरह ही होती है। एक कप टूट गया दूसरा ले आओ। एक इष्ट की मूर्ति से बात नहीं बनती दूसरे के पास जाओ। उसके बाद भी बात नहीं बनती तो किसी सिद्ध के पास जाओ। इससे भी बात न बने तो अपनी भक्ति का शोर मचाओ ताकि लोग देखें कि भक्त परेशान है उसकी मदद करो। एक तरह से प्रचार की भूख के अलावा ऐसी घटनायें कुछ नहीं है। उनके लिये आस्था का हिलने का मतलब है सनसनी फैलाने का अवसर मिलना।
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कबीर के दोहे-तारा मंडल की बैठक में चंद्रमा पाता है इज्जत


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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तारा मण्डल बैठि के, चांद बड़ाई खाय।
उदै भया जब सूर का, तब तारा छिपि जाय।।

आसमान में तारा मंडल में बैठकर चांद बढ़ाई प्राप्त करता है पर जैसे ही सूर्य नारायण का उदय होता है वैसे ही तारा मंडल और चंद्रमा छिप जाते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जहां अज्ञान होता है वह थोड़ा बहुत ज्ञान रट लेते हैं और उसी के सहारे प्रवचन कर अपने आपको विद्वान के रूप में प्रतिष्ठत करते हैं। आज के भौतिकतावादी युग में विज्ञापन की महिमा अपरंपार हो गयी है। इसने आदमी की चिंतन, मनन, अनुसंधान और अभिव्यक्ति क्षमता लगभग नष्ट कर दिया है। मनोरंजन के नाम पर लोग टीवी, अखबार तथा इंटरनेट पर सामग्री तलाशते हैं जो कि बाजार और विज्ञापन के सहारे ही हैं। इन विज्ञापनों में आदमी का सोच का अपहरण कर लिया है। उनकी सहायता करते हैं वह धार्मिक लोग जिनके पास रटा रटाया ज्ञान है और वह लोगों को तत्व ज्ञान से दूर रहकर केवल परमात्मा के स्वरूपों की कथायें मनोरंजन के रूप में सुनाकर भक्ति करवाते हैं।

सच बात तो यह है कि ज्ञान का सपूर्ण स्त्रोत है ‘श्रीमद्भागवत गीता’। पर हमारे कथित धार्मिक ज्ञानियों ने उसका केवल सन्यासियों के लिये अध्ययन करना उपयुक्त बताया है। यही कारण है कि काल्पनिक फिल्मों के नायक और नायिकाओं को देवता के रूप में प्रतिष्ठत कर दिया जाता है। लोग सत्संग की चर्चा की बजाय आपसी वार्तालाप में उनकी अदाओं और अभिनय की चर्चा करते हुए अपना खाली समय बिताना पसंद करते हैं। इन अभिनय को सितारा भी कहा जाता है-अब इन सितारों में कितनी अपनी रौशनी है यह समझा जा सकता है। वह लोग संवाद दूसरों को लिखे बोलते हैं। नाचते किसी दूसरे के इशारों पर हैं। हर दृश्य में उनके अभिनय के लिये कोई न कोई निर्देशक होता है।

उसी तरह ऐसे लोग भी समाज सेवी के रूप में प्रतिष्ठत हो जाते हैं जिनका उद्देश्य उसके नाम पर चंदा वसूल कर अपना धंधा करना होता है। इतना ही नहीं वह लोग महान लेखक बन जाते हैं जो भारतीय अध्यात्म के विपरीत लिखते हैं और जो उस पर निष्काम भाव से लिखते हैं उनको रूढि़वादी और पिछड़ा माना जाता है। कुल मिलाकर इस दुनियां में एक कृत्रिम दुनियां भी बना ली गयी है जो दिखती है पर होती नहीं है।
हमारे देश के लोगों को कथित आधुनिक विचारों के नाम पर ऐसे जाल में फंसाया गया है जिसमें चंद्रमा की तरह उधार की रौशनी लेकर अपनी शेखी स्वयं बघारने वाले ही सम्मान पाते हैं। इस जाल में वह लोग नहीं फंसते जो भारतीय अध्यात्म में वर्णित तत्व ज्ञान के पढ़, सुन और समझ कर धारण कर लेते हैं। भारतीय अध्यात्म ज्ञान तो सूर्य की तरह है जिसमें इस प्रथ्वी पर मौजूद हर चीज की सत्यता को समझा जा सकता है। यही कारण है कि व्यवसायिक कथित समाजसेवी, विद्वान, लेखक और संत उससे लोगों को परे रखने के लिये अपना सम्मान करने की अप्रत्यक्ष रूप से देते हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

वही नायक बनेगा-हास्य व्यंग्य कविताएँ


रीढ़हीन हो तो भी चलेगा।
चरित्र कैसा हो भी
पर चित्र में चमकदार दिखाई दे
ऐसा चेहरा ही नायक की तरह ढलेगा।

शब्द ज्ञान की उपाधि होते हुए भी
नहीं जानता हो दिमाग से सोचना
तब भी वह जमाने के लिये
लड़ता हुआ नायक बनेगा।
कोई और लिखेगा संवाद
बस वह जुबान से बोलेगा
तुतलाता हो तो भी कोई बात नहीं
कोई दूसरा उसकी आवाज भरेगा।

बाजार के सौदागर खेलते हैं
दौलत के सहारे
चंद सिक्के खर्च कर
नायक और खलनायक खरीद
रोज नाटक सजा लेते हैं
खुली आंख से देखते है लोग
पर अक्ल पर पड़ जाता है
उनकी अदाओं से ऐसा पर्दा पड़ जाता
कि ख्वाब को भी सच समझ पचा लेते हैं
धरती पर देखें तो
सौदागर नकली मोती के लिये लपका देते हैं
आकाश की तरफ नजर डालें
तो कोई फरिश्ता टपका देते हैं
अपनी नजरों की दायरे में कैद
इंसान सोच देखने बाहर नहीं आता
बाजार में इसलिये लुट जाता
ख्वाबों का सच
ख्यालों की हकीकत
और फकीरों की नसीहत के सहारे
जो नजरों के आगे भी देखता है
वही इंसान से ग्राहक होने से बचेगा।

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बादशाह बनने की चाहत-हिंदी शायरी
हीरे जवाहरात और रत्नों से सजा सिंहासन
और संगमरमर का महल देखकर
बादशाह बनने की चाहत मन में चली ही आती है।
पर जमीन पर बिछी चटाई के आसन
कोई क्या कम होता है
जिस पर बैठकर चैन की बंसी
बजाई जाती है।

देखने का अपना नजरिया है
चलने का अपना अपना अंदाज
पसीने में नहाकर भी मजे लेते रहते कुछ लोग
वह बैचेनी की कैद में टहलते हैं
जिनको मिला है राज
संतोष सबसे बड़ा धन है
यह बात किसी किसी को समझ में आती है।
लोहे, पत्थर और रंगीन कागज की मुद्रा में
अपने अरमान ढूंढने निकले आदमी को
उसकी ख्वाहिश ही बेचैन बनाती है।

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इन्टरनेट पर लिखते हुए कोई संकोच न करें-आलेख


नये लेखक लेखिकाओं को लिखते हुए इस बात की झिझक हो सकती है कि उनके लिखे पर कोई हंसे नहीं। वह समाचार पत्र पत्रिकाओं में तमाम प्रसिद्ध लेखकों की रचनायें पढ़कर यह सोचते होंगे कि वह उन जैसा नहीं लिख सकते। कई युवक युवतियां तो ऐसे हैं जो अपनी रचनायें लिखकर अपने पास ही रख लेते हैं कि कहीं कोई उस पर पढ़कर हंसे नहीं। संभव है ऐसे ही कुछ नये लेखकों के पास इंटरनेट की सुविधा के साथ ब्लाग लिखने की तकनीकी जानकारी भी हो पर वह इसलिये नहंी लिखते हों कि ‘कहीं कोई पढ़कर मजाक न उड़ाये।’

ऐसे नये लेखक अपने आप को भाग्यशाली समझें कि उनके पास अंतर्जाल पर ब्लाग लिखने के अवसर मौजूद हैं जो पुराने लेखकों के पास नहीं थे। हां, उन्हें लिखने को लेकर अपने अं्रदर कोई संकोच नहीं करना चाहिये। वह जिन पत्र पत्रिकाओं के प्रसिद्ध लेखकों की रचनाओं को लेकर अपने अंदर कुंठा पाल लेते हैं उनके बारे में अधिक भ्रम उन्हें नहीं रखना चाहिये। वैसे तो हर आदमी जन्मजात लेखक होता है पर अभ्यास के बाद वह समाज में लेखक का दर्जा प्राप्त करता है। अगर आप लिखना प्रारंभ करें तो धीरे धीरे आपको लगने लगेगा कि जिन बड़े लेखकों को पढ़कर आप कुंठा पाल रहे थे उनसे सार्थक तो आप लिख रहे है। सच बात तो यह है कि स्वतंत्रता के बाद देश में हर क्षेत्र में ठेकेदारी का प्रथा का प्रचलन शुरु हो गया जिसमें बाप जो काम करता है बेटा उसके लिये उतराधिकारी माना जाता है। यही हाल हिंदी लेखन का भी रहा है।

अनेक लोग ऐसे भी हैं जो हिंदी में बेहतर नाटक,कहानी या उपन्यास न लिखने की शिकायत करते हैं। दरअसल यह वही लोग हैं जो ठेकेदारी के चलते प्रसिद्धि प्राप्त कर गये हैं पर उनको हिंदी के सामान्य लेखक के मनोभाव का ज्ञान नहीं रहा। हिंदी में बहुत अच्छा लिखने वालों की कमी नहीं है पर उनको अवसर देने वाले तमाम तरह के बंधन लगा कर उन्हें अपनी मौलिकता छोड़ने को बाध्य करे देते हैं। यही कारण है कि पिछले पचास वर्षों से जातिवाद, क्षेत्रवाद,और भाषावाद के कारण हिंदी में बहुत कम साहित्य लिखा गया है। जिन लोगों ने इन वादों और नारों की पूंछ पकड़कर प्रसिद्धि की वैतरणी पार की है उनका सच आप तभी समझ पायेंगे जब अंतर्जाल पर स्वतंत्र लेखन करेंगे। अधिकतर लेखक या तो प्रतिबद्ध रहे या बंधूआ। दोनों ही परिस्थितियों में मौलिक भाव का दायरा संकुचित हो जाता है।

अगर आप कविता लिखना चाहते हैं तो लिखिये। अब वह कविता इस तरह भी हो तो चलेगी।
होटल में जाने को मचलने लगा हमारा दिल
खाया पीया जमकर, बैठ गया वह जब आया बिल
या
फिल्मी गाने सुनते ऐसे हुए, चेहरे परं चांद जैसा लगता तिल
जब भी आता है कोई ऐसा चेहरा, गाने लगता अपना दिल

आप यह मत सोचिये कि कोई हंसेगा। हो सकता है कुछ लोग हंसें पर यह सबसे आसान काम है। कोई भी किसी पर हंस सकता है। आप तो यह मानकर चलिये कि आपने अपने मन की बात लिख ली यही बहुत है।
अगर आपको गद्य लिखने का विचार आया तो यह भी लिख सकते हैं।
आज मैं सुबह नहाया, फिर नाश्ता किया और उसके बाद बाहर फिल्म लिखने गया और रात को घर आया और खाना खाया और सो गया। अब कल सोचूंगा कि क्या करना है?

ऐसे ही आप लिखना प्रारंभ कर दीजिये। अभ्यास के साथ आप के अंदर का लेखक परिपक्व होता चला जायेगा। वैसे इसके साथ ही दूसरों का लिखा पढ़ें जरूर! दूसरे का पढ़ने से न केवल विषय के चयन का तरीका मिलता है बल्कि उससे अपनी एक शैली स्वतः निर्मित होती जाती है। हम जैसे पढ़ते हैं वैसे ही लिखने का मन करता है और फिर अपनी एक नयी शैली अपने आप हमारी साथी बन जाती है।
आप लोग पत्र पत्रिकाओं में बड़ी कहानियां,व्यंग्य और निबंध पढ़ते हैं और वैसा ही लिखना चाहते हैं तो इस पर अधिक विचार मत करिये। अंतर्जाल पर संक्षिप्तता का बहुत महत्व है। सबसे बड़ी बात यह है कि यहां मौलिकता और स्वतंत्रता के साथ लिखने की जो सुविधा है उसका उपयोग करना जरूरी है। इस लेखक से अनेक लोग अपनी टिप्पणियों में सवाल करते हैं कि आप अपनी रचनायें पत्र पत्रिकाओं में क्यों नहीं भेजते?
इसका सीधा जवाब तो यही है कि भई, हम तो पांच रुपये की डाक टिकट लगाकर लिफाफे भेजते हुए थक गये। अपनी रचना अपने हिसाब से की पर वह उन पत्र पत्रिकाओं के अनुकूल नहीं होती । वैसे अधिकतर समाचार पत्र पत्रिकाओं के वैचारिक, साहित्यक और व्यवसायिक प्रारूप हैं जिनके ढांचे में हमारी रचनायें फिट नहीं बैठती। हां, यह सच है कि आप जो लिखते हैं उसका उस पत्र या पत्रिका के निर्धारित प्रारूप में फिट होना आवश्यक है। जो लेखक इन प्रारूपों की सीमा में लिखते हैं वही प्रसिद्ध हो पाते हैं-यह सफलता भी उन्हीं लेखकों को नसीब में आती है जिनके संबंध होते हैं। अधिकतर पत्र पत्रिकाओं के मुख्यालय बड़े शहरों में होते हैं और छोटे शहरों के लेखक वहां तक नहीं पहुंच पाते। वैसे वह उनके तय प्रारूप के अनुसार लिखें तो तो भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उनकी रचना छप ही जाये।
बहरहाल जिन नये लेखकों के अवसर मिल रहा है उनके लिये तो अच्छा ही है पर जिनको नहीं मिल रहा है वह यहां लिखें। उन्हें पत्र पत्रिकाओं वाले प्रारूपों का ध्यान नहीं करना चाहिये क्योंकि यहां संक्षिप्पता, मौलिकता और निष्पक्षता के साथ चला जा सकता है जबकि वहां कुछ न कुछ बंधन होता ही है। आपके ब्लाग एक जीवंत किताब की तरह हैं जो कहीं अलमारी में बंद नहीं होंगे और उन्हें पढ़ा ही जाता रहेगा। आप इस पर विचार मत करिये कि आज कितने लोगों ने इसे पढ़ा आप यह सोचिये कि आगे इसे बहुत लोग पढ़ने वाले हैं। मेरे ऐसे कई पाठ हैं जो प्रकाशित होने वाले दिन दस पाठक भी नहीं जुटा सके पर वह एक वर्ष कें अंदर पांच हजार की संख्या के निकट पहुंचने वाले हैं।
हिंदी लेखन में स्थिति यह हो गयी है कि लेखक की पारिवारिक, व्यवसायिक और सामाजिक परिस्थिति कें अनुसार उसकी रचना को देखा जाता है। यही कारण है कि पत्र पत्रिकाओं में लेखन से इतर कारणों से प्रसिद्धि हस्ती के लेखक प्रकाशित होते हैं या फिर उन अंग्रेजी लेखकों के लेख प्रकाशित होते हैं जो अंग्रेजी में आम पाठक की उपेक्षा से तंग आकर हिंदी की तरफ आकर्षित हुए-इस बारे में संदेह है कि वह स्वयं उनको लिखते होंगे क्योंकि उन्होंने ताउम्र अंग्रेजी में लिखा। संभवतः अपने लेखों को अंग्रेजी में लिखकर उसका हिंदी में अनुवाद कराते होंगे या बोलकर लिखवाते होंगे।

अगर कोई फिल्मी हीरो अपना ब्लाग बना ले तो उसे एक ही दिन में हजारों पाठक मिल जायेंगे पर आप अगर एक आप लेखक हैं तो फिर आपको अपने लिखे के सहारे ही धीरे धीरे आगे बढ़ना होगा। ऐसे में यही बेहतर है कि आप संकोच छोड़कर लिखे जायें। इस विषय में हमारे एक गुरुजी का कहना है कि तुम तो मन में आयी रचना लिख लिया करो। हो सकता है उस समय उसे कोई न पूछे पर जब तुम्हारा नाम हो जाये तो लोग उसी की प्रशंसा करें।

इसलिये जिन लोगों के पास ब्लाग लिखने की सुविधा है उन्हें अपना लेखक कार्य शुरु करने में संकोच नहीं करना चाहिये। हिंदी में गंभीर लेखन को कालांतर में बहुत महत्व मिलेगा। आपका लिखा हिंदी में पढ़ा जाये यह जरूरी नहीं है। अनुवाद टूलों ने भाषा और लिपि की दीवार ढहाने का काम शुरु कर दिया है यानि यहां लिखना शुरु करने का अर्थ है कि आप अंतर्राष्ट्रीय स्तर के लेखक बनने जा रहे हैं जो कि पूर्व के अनेक हिंदी लेखकों का एक सपना रहा है। हां इतना जरूरी है कि अपने लिखे पर आत्ममुग्ध न हों क्योंकि इससे रचनाकर्म प्रभावित होता है।
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लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
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मर्द की असलियत और नारी मुक्ति-व्यंग्य क्षणिकाएं


पीता जाए चुपचाप दर्द.
घर की नारी करें हैरान
ससुराल वाले धमकाकर करें परेशान
पर खामोश रहे वही है असली मर्द.

पसीना बहाकर कितना भी थक जाता हो
फिर भी नींद पर उसका हक़ नहीं हैं
अगर नारी का हक़ भूल जाता हो
घर में भीगी बिल्ली की तरह रहे
भले ही बाहर शेर नज़र आता हो
मुश्किलों में पानी पानी हो जाए
भले ही हवाएं चल रही हों सर्द.
तभी कहलाएगा मर्द.
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मर्द को हैरान करे
पल पल परेशान करे
ऐसी हो युक्ति.
उसी से होती है नारी मुक्ति.
डंडे के सहारे ही चलेगा समाज
प्यार से घर चलते हैं
पड़ गयी हैं यह पुरानी उक्ति.

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बंदर, चिंपौजी और इंसान का नैतिक आधार-व्यंग्य


अब यह भला क्या बात हुई कि बंदर तथा चिंपौजी में भी नैतिकता होती है। कुछ पश्चिमी विशेषज्ञों ने अपने प्रयोग से बात यह बात अब जाकर जानी है कि बंदर और चिंपौजी में भी वैसे ही नैतिक भावना होती है जैसे कि इंसानों (?) में होती है। बंदर और चिपौजी भी अपने साथ किये अच्छे व्यवहार की स्मृतियां संजोये रखते हैं और समय आने पर उसे निभाते है। वैसे देखा जाये तो बंदरों को हमारे देश में अब भी पशुओं की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। अनेक विशेषज्ञ तो बंदरों और चिंपौजी को मनुष्य की श्रेणी का ही मानते हैं।
पश्चिमी जीव विज्ञान के अनुसार आदमी भी पहले बंदर ही था पर कालांतर में वह मनुष्य बनता गया। आज भी जब बंदर या चिंपौजी को देखते हैं तो उनकी अदायें मनुष्य से ही मेल खाती हैं सिवाय बोलने के। जो बातें पश्चिमी विशेषज्ञ अब कह रहे हैं भारत में पहले से ही उसे जाना जाता है। क्योंकि यहां अपने प्राचीनतम ज्ञान और लोककथाओं से लोग अनभिज्ञ हैं इसलिये यहां अब पश्चिम के अनुसंधानों और प्रयोगों की जानकारी नये रूप में दिखाई देती हैं। सच बात तो यह है कि पश्चिमी ज्ञान एक तरह से नयी बोतल में पुरानी शराब की तरह है। हमारे यहां लोककथाओं में अनेक कहानियों में बंदरों को पात्र बनाकर बहुत पहले ही सुनाया जाता है। इतना ही नहीं इस देश मेें ऐसे अनेक लोग है जो बंदरों के निकट संपर्क में रहते हैं और वह उन्हें मनुष्यों से कम नहीं मानते।
वैसे अपने यहां रामायण कालीन समय में वानर जाति की चर्चा यहां बच्चे बच्चे की जुबान पर रही है। कहा जाता है कि बस्तर के आसपास उस समय ऐसे मनुष्य रहते थे जिनकी जाति का नाम वानर था। बहरहाल उस समय राक्षसों के विरुद्ध युद्ध में वानर जाति के योगदान की वजह से बंदरों को लेकर अनेक लोक कथायें और कहानियां प्रचलन में रहीं हैं। कुल मिलाकर उनको मनुष्य जातीय प्राणी ही माना जाता है।

जहां तक उनमें मनुष्यों जैसी नैतिक भावना होने का प्रश्न है उसमें संदेह नहीं है पर अब वह मनुष्यों में बची है कि नहीं कोई बात नहीं जानता। सच बात तो यह है कि मनुष्य को भ्रमित कर एक तरह से गुलाम बना लिया गया है। कहते हैं कि मनुष्य अब बंदरों जैसा इसलिये नहीं दिखता क्योंकि उसने धीरे धीरे कपड़े पहनना शुरू किया-नैतिकता का पहला पाठ भी यही है-और उससे उसके शरीर के बाल और पूंछ धीरे धीरे लुप्त हो गये। मतलब उसने जैसे सांसरिक नैतिकता की तरफ कदम बढ़ाये वह अपनी मूल नैतिकता को भूलता गया। जैसे शर्म आंखों में होती है, धूंघट में नहीं। प्रेंम तो स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है उसका प्रदर्शन करना संभव नहीं है। मगर जिन लोगों ने नैतिकता का पाठ पढ़ाया उन्होंने स्त्रियों पर बंधन लगाये तो पुरुषों को अपना गुलाम बनाने के लिये उसे स्वर्ग और दैहिक प्रेम का मार्ग बताया। बंदर किसी के गुलाम नहीं होते। वह आजादी से घूमते हैं। उनको किसी शिक्षा की आवश्कता नहीं होती। जहां तब परिवार का प्रश्न है कि बंदर भी परिवार के साथ ही विचरण करते हैं। उनकी पत्नियां अपने बच्चों को संभालने में कोई कम मेहनत नहीं करती। बस इतना कि वह किसी के गुलाम नहीं है।
मनुष्यों में भी कुछ मनुष्य ऐसे रहे हैं जिन्होंने नैतिकता स्थापित करने का ठेका लिया है। मनुष्यों में उनको उस्ताद ही कहा जाता है। यह उस्ताद लोग तमाम तरह की पुस्तकों को अपने साथ संभाल कर रखते हैंं और बताते हैं कि अमुक विचारधारा प्रेम और नैतिकता का उपदेश देती है। मनुष्य सिहर का हां हां करता जाता है। न करे तो साथ वाले टोकते हैं कि तू आस्तिक है कि नास्तिक! उस्तादों ने अपने आसपास झुंड बनाकर रखे हैं और कोई एक आदमी उनसे अलग होकर नहीं चल सकता। भक्ति और सत्संग पर किसी उस्ताद के दर पर जाना तथा कर्मकांड करना धार्मिक होने का प्रमाण माना जाता है। आदमी पूरी जिंदगी शादी,गमी,और प्रतिष्ठा के लिये अन्य कार्यक्रमों में अपना समय नष्ट कर देता है। बंदर इससे दूर हैं। बंदरों में शादी विवाह की परंपरा नहीं लगती। लिविंग टुगेदर के आधार पर उनके संबंध जीवन भर चलते है।

आदमी जैसे जैसे नैतिक होता जा रहा है बंदरों के जंगल खाता जा रहा है। जहां कहीं बंदरों का झुंड रहता था वहां अब आदमी के महल खड़े हैं। आदमी सहअस्तित्व के सिद्धांत को भूल गया है। इस सृष्टि के अन्य प्राणियोें की रक्षा करने का अपना दायित्व भूलकर वह उनको नष्ट करने लगा है। धर्म, जाति,भाषा और क्षेत्र के नाम पहले इन उस्तादों ने समाज को बांटा फिर एकता के नारे लगाते हैं-सभी उस्ताद अपनी पुस्तकें बगल में दबाये हुए कहते हैं कि ‘हमारी पुस्तक तो सभी इंसानों को एकसाथ रहना सिखाती है।’
इसका मतलब यह है कि उस्तादों के चंगुल में फंसकर बंदर पहले आदमी हो गया अब उसे बंदर बनने को कहा जा रहा है। बंदर अपने समाज के साथ बिना किसी पुस्तक पढ़े ही एकता बनाये रखते हैं।
हमें याद आ रहा एक किस्सा। हम कोटा गये थे। मंगलवार होने के कारण चंबल गार्डन के पास ही बने एक हनुमान जी के मंदिर गये। वहां प्रसाद चढ़ाने के बाद हम उसे हाथ में लेकर परिक्रमा करने लगे। वही एक बंदर आया और हमारे हाथ से प्रसाद ऐसे ले गया जैसे उसके लिये ही प्रसाद लाये थे। वह प्रसाद लेकर गया और बड़े आराम से थोड़ी दूर बैठे अपने साथियों के साथ उसे बांटकर खाने लगा। यह काम लगता तो इंसानी लुटेरों जैसा था पर फिर भी हमें उसकी अदा बहुत भायी। पांच रुपये के प्रसाद से अधिक उसने हमसे क्या लिया था? फिर उसने वह कर्तव्य पूरा किया जो हमें करना चाहिये था। उनको प्रसाद खाते देखकर हमें बहुत आनंद आया। सच बात तो यह है कि मनुष्यों से भी कोई श्रेष्ठ प्राणी है उस दिन हमने माना था।

बंदर और आदमी में फर्क है पर नैतिकता का सवाल थोड़ा पेचीदा हैं। बंदर न तो किसी उस्ताद की बात मानते हैं न वह पढ़ते हैं। मंदिरों आदि पर वह प्रसाद की लालच में आते हैं। फिर भी उनमें नैतिकता पूरी तरह से है पर आदमी को संचय की प्रवृति और स्वर्ग में जाकर स्थान बनाने के लिये कर्मकांडों की लिप्तता ने सब भूल जाता है। आपने सुना ही होगा ‘दुनियां में कोई धर्म नहीं सिखाता झगड़ा करना‘, या सभी धर्म प्रेम करना सिखाते हैं या फिर सभी नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं। सीधी सी बात है कि आदमी में कमी है इसलिये उसे नैतिकता सिखानी पढ़ती है। बंदरों में भी कुछ उस्ताद होते हैं पर वह अपनी जाति वालों को एैसी वैसी शिक्षा नहीं देते शायद कहीं वह इंसान न बना जाये। जो बंदर बचे हैं उनके उस्ताद शायद पहले ही इंसान बने जीवों की हालत जानते हैं इसलिये ही यह तय कर चुके हैं कि मिट जायेंगे पर इंसान नहीं बनेंगे। जो इंसान बन गये हैं वह भी भला क्या जाने? सदियों पहले ही उनके पूर्वजों ने इंसान बनने की राह पकड़ी। इसलिये अब तो सभी भूल गये है कि बंदर ही हमारे पूर्वज थे। आशय यह है कि जो आज भी बंदर हैं वह मूल रूप से ही नैतिक मार्ग पर चलने वाले हैं इसलिये शादी पर नाचते नहीं हैं और गमी पर रोने का स्वांग नहीं करते। अपने प्राकृतिक आशियानों में रहते हैं इसलिये मकान बनाने के लिये लोन लेने की न तो उनको आवश्यकता होती है न दूसरे दंदफंद करने की। इसलिये उनमें नैतिकता अधिक ही होगी कम नहीं । हां, इसकी जानकारी नहीं मिलती कि आदमी ने धर्म बदलकर इंसान बनना कब और कैसे शुरु किया जो उसे अब नैतिकता,प्रेम,अहिंसा और सदाचार की शिक्षा के लिये पुस्तकों पर निर्भर रहना पड़ता है।
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शराब पीना बन गयी है आज़ादी का पैमाना -हिंदी व्यंग्य कविता


अब खूब पीना शराब
नहीं कहेगा कोई खराब
क्योंकि वह आजादी का पैमाना बन गयी है
कदम बहकने की फिक्र मत करना
इंसानी हकों के के नाम पर लड़ने वाले
तुम्हें संभाल लेंगे
इंतजार में खड़े हैं मयखानों के बाहर
कोई लड़खड़ाता हुआ आये तो
उसे सजा सकें अपनी महफिल में
हमदर्दी के व्यापार के लिये
उनके ठिकानों पर दर्द लेकर आने वालों की
भीड़ कम हो गयी है
………………………….
अपनी अक्ल का इस्तेमाल करोगे
तो दुश्मन बहुत बन जायेंगे
क्योंकि दूसरों पर
अपनी समझ लादने वालों की भीड़ बढ़ गयी है
जो ढूंढते हैं कलम और तलवार
अपने हाथों में लेकर
जो सच में तुम आजाद दिखे तो
डर जायेंगे
आजादी की बात कर
वह तुम्हें गुलाम बनायेंगे
नहीं माने तो विरोधी बन जायेंगे

…………………………….

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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खाकपति से बने करोड़पति पर कहानी-हास्य व्यंग्य कविताएँ


फिल्मों की कहानी में
गंदी बस्ती का लड़का
करोड़पति बन जाता है
पर हकीकत में भला कहां
कोई ऐसा पात्र नजर आता है
यह तो है बाजार के प्रचार का खेल
जो पहले करोड़पति बनने वाले
सवाल जवाब का कार्यक्रम बनाता है
उठते हैं उसकी सच्चाई पर सवाल
पर भला झूठ और ख्वाब के सौदागर
पर उसका असर कहां आता है
फिर बाजार रचता है
गंदी बस्ती का एक काल्पनिक पात्र
जो करोड़पति का इनाम जीत जाता है
प्रचार फिर उस काल्पनिक पात्र पर जाता है
सच कहते हैं एक झूठ सच बोलो
तो वह सच नजर आता है
……………………………….
अमीरों में कभी भेद नहीं होता
पर गरीबों में बना दिये
जाति,भाषा और धर्म के कई भेद
करते हैं बाजार के सौदागर
समय पर अपना शासन चलाने के लिये
उसमें बहुत छेद
जिसका तूती बोलती है
उसी वर्ग के गरीब की तूती बजाते
भले ही उनके काम भी नहीं आते
पर दूसरे को तकलीफ पहुंचाते हुए
उनके मन में नहीं होता खेद
…………………..
एक गरीब ने कहा दूसरे से
चलता है करोड़पति देखने
सुना है फिल्म में बहुत मजा आता है’
दूसरे ने कहा
‘पहले पता करूंगा कि
उसमें नायक के फिल्मी नाम की जाति कौनसी है
फिर चलूंगा
अगर तेरी जाति का नाम हुआ तो
मुझे गुस्सा आ जायेगा
करोड़पति बने या रहे खाकपति
मुझे तो अपनी जाति के नायक के फिल्मी नाम पर बनी
फिल्म देखने में ही मजा आता है

………………………………………….

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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समाज, संस्कार और संस्कृति की रक्षा का प्रश्न-आलेख


हम अक्सर अपने संस्कार और संस्कृति के संपन्न होने की बात करते हैं। कई बार आधुनिकता से अपने संस्कार और संस्कृति पर संकट आने या उसके नष्ट होने का भय सताने लगता है। आखिर वह संस्कृति है क्या? वह कौनसे संस्कार है जिनके समाप्त होने का भय हमें सताता है? इतना ही नहीं धार्मिक आस्था या विश्वास के नाम पर भी बहस नहीं की जाती। कोई प्रतिकूल बात लगती है तो हाल आस्था और विश्वास पर चोट पहुंचने की बात कहकर लोग उत्तेजित हो जाते हैे।

कभी किसी ने इसका विश्लेषण नहीं किया। कहते हैं कि हमारे यहां आपसी संबंधों का बड़ा महत्व है, पर यह इसका तो विदेशी संस्कृतियों में भी पूरा स्थान प्राप्त है। छोटी आयु के लोगों को बड़े लोगों का सम्मान करना चाहिये। यह भी सभी जगह होता है। ऐसे बहुत विषय है जिनके बारे में हम कहते हैं कि यह सभी हमारे यहां है बाकी अन्य कहीं नहीं है-यह हमारा भ्रम या पाखंड ही कहा जा सकता है।

स्वतंत्रता के बाद कई विषय बहुत आकर्षक ढंग से केवल ‘शीर्षक’ देकर सजाये गये जिसमें देशभक्ति,आजादी,भाषा प्रेम,देश के संस्कार और आचार विचार संस्कृति शामिल हैं। धार्मिक आजादी के नाम पर तो किसी भी प्रकार की बहस करना ही कठिन लगता है क्योंकि धर्म पर चोट के नाम पर कोई भी पंगा ले सकता है। देश में एक समाज की बात की गयी पर जाति,भाषा,धर्म और क्षेत्र के आधार पर बने समाजों और समूहों के अस्तित्व की लड़ाई भी योजनापूर्वक शुरु की गयी। बोलने की आजादी दी गयी पर शर्तों के साथ। ऐसे में कहीं भी सोच और विचारों की गहराई नहीं दिखती।

कभी कभी यह देखकर ऊब होने लगती है कि लोगों सोच नहीं रहे बल्कि एक निश्चित किये मानचित्र में घूम कर अपने विचारक,दार्शनिक,लेखक और रचनाकार होने की औपचारिकता भर निभा रहे हैं। नये के नाम एक नारे या वाद का मुकाबला करने के लिये दूसरा नारा या वाद लाया जाता है। फिल्म, पत्रकारिता,समाजसेवा या अन्य आकर्षक और सार्वजनिक क्षेत्रों में नयी पीढ़ी के नाम पर पुराने लोगों के परिवार के युवा लोगा ही आगे बढ़ते आ रहे हैं। ऐसा लगता है कि समाज जड़ हो गया है। अमीर गरीब, पूंजीपति मजदूर और उच्च और निम्न खानदान के नाम पर स्थाई विभाजन हो गया है। परिवर्तन की सीमा अब उत्तराधिकार के दायरे में बंध गयी है। कार्ल माक्र्स से अनेक लोग सहमत नहीं होते पर कम से कम उनके इस सिद्धांत को कोईै चुनौती नहीं दे सकता कि इस दुनियां में दो ही जातियां शेष रह गयीं हैं अमीर गरीब या पूंजीपति और मजदूर।

भारतीय समाज वैसे ही विश्व में अपनी रूढ़ता के कारण बदनाम है पर देखा जाये तो अब समाज उससे अधिक रूढ़ दिखाई देता हैं। पहले कम से कम रूढ़ता के विरुद्ध संघर्ष करते कुछ लोग दिखाई देते थे पर अब तो सभी ं ने यह मान लिया है कि परिवर्तन या विकास केवल सरकार का काम है। यहा तक कि समाज का विकास और कल्याण भी सरकार के जिम्मे छोड़ दिया गया है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भगतसिंह,चंद्रशेखर आजाद और अशफाकुल्ला के प्रशंसक तो बहुत मिल जायेंगे पर कोई नहीं चाहेगा कि उनके घर का लाल इस तरह बने। यह सही है कि अब कोई आजादी की लड़ाई शेष नहीं है पर समाज के लिये अहिंसक और बौद्धिक प्रयास करने के लिये जिस साहस की आवश्यकता है वह कोई स्वतंत्रता संग्राम से कम नहीं है।
अब कभी यहां राज राममोहन राय,कबीर,विवेकानेद,रहीम और महर्षि दयानंद जैसे महापुरुष होंगे इसकी संभावना ही नहीं लगती क्योंकि अब लोग समाज में सुधार नहीं बल्कि उसका दोहन करना चाहते हैं। वह चाहे दहेज के रूप में हो या किसी धार्मिक कार्यक्रम के लिये चंदा लेना के।

कभी कभी निराशा लगती है पर जब अंतर्जाल पर लिखने वाले लोगों को देखते हैं तो लगता है कि ऐसा नहीं है कि सोचने वालों की कमी है पर हां समय लग सकता है। अभी तक तो संचार और प्रचार माध्यमों पर सशक्त और धनी लोगोंं का कब्जा इस तरह रहा है कि वह अपने हिसाब से बहस और विचार के मुद्दे तय करते हैं। अंतर्जाल पर यह वैचारिक गुलामी नहीं चलती दिख रही है। मुश्किल यह है कि रूढ़ हो चुके समाज में बौद्धिक वर्ग के अधिकतर सदस्य कंप्यूटर और इंटरनेट से कतरा रहे हैं। उनको अभी भी इसकी ताकत का अंदाजा नहीं है समय के साथ जब इसको लोकप्रियता प्राप्त होगी तो परिवर्तन की सोच को महत्व मिलेगा। वैसे जिन लोगों की समाज के विचारकों, चिंतकों और बुद्धिजीवियों को गुलाम बनाने की इच्छा है वह लगातार इस पर नजर रख रहे है कि कहीं यह आजाद माध्यम लोकप्रिय तो नहंी हो रहा है। जब यह लोकप्रिय हो जायेगा तो वह यहां भी अपना वर्चस्व कायम करने का प्रयास करेंगे।

मुख्य बात यह नहीं कि विषय क्या है? अब तो इस बात का प्रश्न है कि क्या लोगों की सोच नारे और वाद की सीमाओं से बाहर निकल पायेगी क्योंकि उसे दायरों में बांधे रखने का काम समाज के ताकतवर वर्ग ने ही किया है। जब हम किसी विषय पर सोचे तो उसक हर पहलू पर सोचें। नया सोचें। देश की कथित संस्कृति या सस्कारों पर भय की आशंकाओं से मुक्त होकर इस बात पर विचार करें कि लोगोंं के आचरण में जो दोहरापन उसे दूर करें। हमारे समाज की कथनी और करनी में अंतर साफ दिखाई देता है और इसी कारण समाज के संस्कार और संस्कृति की रक्षा करने का विषय उठाया जाता है वह अच्छा लगता है पर नीयत भी देखना होगी जो केवल उसका दोहन करने तक ही सीमित रह जाती है। इसी कथनी करनी के कारण भारतीय समाज के प्रति लोगों के मन में देश तथ विदेश दोनों ही जगह संशय की स्थिति है। शेष किसी अगले अंक में
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मौका पड़े तो अपने लिए शैतान खड़ा कर लो-व्यंग्य


शैतान कभी इस जहां में मर ही नहीं सकता। वजह! उसके मरने से फरिश्तों की कदर कम हो जायेगी। इसलिये जिसे अपने के फरिश्ता साबित करना होता है वह अपने लिये पहले एक शैतान जुटाता है। अगर कोई कालोनी का फरिश्ता बनना चाहता है तो पहले वह दूसरी कालोनी की जांच करेगा। वहां किसी व्यक्ति का-जिससे लोग डरते हैं- उसका भय अपनी कालोनी में पैदा करेगा। साथ ही बतायेगा कि वह उस पर नियंत्रण रख सकता है। शहर का फरिश्ता बनने वाला दूसरे शहर का और प्रदेश का है तो दूसरे प्रदेश का शैतान अपने लिये चुनता है। यह मजाक नहीं है। आप और हम सब यही करते हैं।

घर में किसी चीज की कमी है और अपने पास उसके लिये लाने का कोई उपाय नहीं है तो परिवार के सदस्यों को समझाने के लिये यह भी एक रास्ता है कि किसी ऐसे शैतान को खड़ा कर दो जिससे वह डर जायें। सबसे बड़ा शैतान हो सकता है वह जो हमारा रोजगार छीन सकता है। परिवार के लोग अधिक कमाने का दबाव डालें तो उनको बताओं कि उधर एक एसा आदमी है जिससे मूंह फेरा तो वह वर्तमान रोजगार भी तबाह कर देगा। नौकरी कर रहे हो तो बास का और निजी व्यवसाय कर रहे हों तो पड़ौसी व्यवसायी का भय पैदा करो। उनको समझाओं कि ‘अगर अधिक कमाने के चक्कर में पड़े तो इधर उधर दौड़ना पड़ा तो इस रोजी से भी जायेंगे। यह काल्पनिक शैतान हमको बचाता है।
नौकरी करने वालों के लिये तो आजकल वैसे भी बहुत तनाव हैं। एक तो लोग अब अपने काम के लिये झगड़ने लगे हैं दूसरी तरफ मीडिया स्टिंग आपरेशन करता है ऐसे में उपरी कमाई सोच समझ कर करनी पड़ती है। फिर सभी जगह उपरी कमाई नहीं होती। ऐसे में परिवार के लोग कहते हैं‘देखो वह भी नौकरी कर रहा है और तुम भी! उसके पास घर में सारा सामान है। तुम हो कि पूरा घर ही फटीचर घूम रहा है।
ऐसे में जबरदस्ती ईमानदारी का जीवन गुजार रहे नौकरपेशा आदमी को अपनी सफाई में यह बताना पड़ता है कि उससे कोई शैतान नाराज चल रहा है जो उसको ईमानदारी वाली जगह पर काम करना पड़ रहा है। जब कोई फरिश्ता आयेगा तब हो सकता है कि कमाई वाली जगह पर उसकी पोस्टिंग हो जायेगी।’
खिलाड़ी हारते हैं तो कभी मैदान को तो कभी मौसम को शैतान बताते हैं। किसी की फिल्म पिटती है तो वह दर्शकों की कम बुद्धि को शैताना मानता है जिसकी वजह से फिल्म उनको समझ में नहीं आयी। टीवी वालों को तो आजकल हर दिन किसी शैतान की जरूरत पड़ती है। पहले बाप को बेटी का कत्ल करने वाला शैतान बताते हैं। महीने भर बाद वह जब निर्दोष बाहर आता है तब उसे फरिश्ता बताते हैं। यानि अगर उसे पहले शैतान नहीं बनाते तो फिर दिखाने के लिये फरिश्ता आता कहां से? जादू, तंत्र और मंत्र वाले तो शैतान का रूप दिखाकर ही अपना धंध चलाते हैं। ‘अरे, अमुक व्यक्ति बीमारी में मर गया उस पर किसी शैतान का साया पड़ा था। किसी ने उस पर जादू कर दिया था।’‘उसका कोई काम नहीं बनता उस पर किसी ने जादू कर दिया है!’यही हाल सभी का है। अगर आपको कहीं अपने समूह में इमेज बनानी है तो किसी दूसरे समूह का भय पैदा कर दो और ऐसी हालत पैदा कर दो कि आपकी अनुपस्थिति बहुत खले और लोग भयभीत हो कि दूसरा समूह पूरा का पूरा या उसके लोग उन पर हमला न कर दें।’
अगर कहीं पेड़ लगाने के लिये चार लोग एकत्रित करना चाहो तो नहीं आयेंगे पर उनको सूचना दो कि अमुक संकट है और अगर नहीं मिले भविष्य में विकट हो जायेगता तो चार क्या चालीस चले आयेंगे। अपनी नाकामी और नकारापन छिपाने के लिये शैतान एक चादर का काम करता है। आप भले ही किसी व्यक्ति को प्यार करते हैं। उसके साथ उठते बैैठते हैं। पेैसे का लेनदेन करते हैं पर अगर वह आपके परिवार में आता जाता नहीं है मगर समय आने पर आप उसे अपने परिवार में शैतान बना सकते हैं कि उसने मेरा काम बिगाड़ दिया। इतिहास उठाकर देख लीजिये जितने भी पूज्यनीय लोग हुए हैं सबके सामने कोई शैतान था। अगर वह शैतान नहीं होता तो क्या वह पूज्यनीय बनते। वैसे इतिहास में सब सच है इस पर यकीन नहीं होता क्योंकि आज के आधुनिक युग में जब सब कुछ पास ही दिखता है तब भी लिखने वाले कुछ का कुछ लिख जाते हैं और उनकी समझ पर तरस आता है तब लगता है कि पहले भी लिखने वाले तो ऐसे ही रहे होंगे।
एक कवि लगातार फ्लाप हो रहा था। जब वह कविता करता तो कोई ताली नहीं बजाता। कई बार तो उसे कवि सम्मेलनों में बुलाया तक नहीं जाता। तब उसने चार चेले तैयार किये और एक कवि सम्मेलन में अपने काव्य पाठ के दौरान उसने अपने ऊपर ही सड़े अंडे और टमाटर फिंकवा दिये। बाद में उसने यह खबर अखबार में छपवाई जिसमें उसके द्वारा शरीर में खून का आखिरी कतरा होने तक कविता लिखने की शपथ भी शामिल थी । हो गया वह हिट। उसके वही चेले चपाटे भी उससे पुरस्कृत होते रहे।
जिन लड़कों को जुआ आदि खेलने की आदत होती है वह इस मामले में बहुत उस्ताद होते हैं। पैसे घर से चोरी कर सट्टा और जुआ में बरबाद करते हैं पर जब उसका अवसर नहीं मिलता या घर वाले चैकस हो जाते हैं तब वह घर पर आकर वह बताते हैं कि अमुक आदमी से कर्ज लिया है अगर नहीं चुकाया तो वह मार डालेंगे। उससे भी काम न बने तो चार मित्र ही कर्जदार बनाकर घर बुलवा लेंगे जो जान से मारने की धमकी दे जायेंगे। ऐसे में मां तो एक लाचार औरत होती है जो अपने लाल को पैसे निकाल कर देती है। जुआरी लोग तो एक तरह से हमेशा ही भले बने रहते हैं। उनका व्यवहार भी इतना अच्छा होता है कि लोग कहते हैं‘आदमी ठीक है एक तरह से फरिश्ता है, बस जुआ की आदत है।’
जुआरी हमेशा अपने लिये पैसे जुटाने के लिये शैतान का इंतजाम किये रहते हैं पर दिखाई देते हैं। उनका शैतान भी दिखाई देता है पर वह होता नहीं उनके अपने ही फरिश्ते मित्र होते हैं। वह अपने परिवार के लोगों से यह कहकर पैसा एंठते हैं कि उन पर ऐसे लोगों का कर्जा है जिनको वापस नहीं लौटाया तो मार डालेंगे। परिवार के लोगो को यकीन नहीं हो तो अपने मित्रों को ही वह शैतान बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है। आशय यह है कि शैतान अस्तित्व में होता नहीं है पर दिखाना पड़ता है। अगर आपको परिवार, समाज या अपने समूह में शासन करना है तो हमेशा कोई शैतान उसके सामने खड़ा करो। यह समस्या के रूप में भी हो सकता है और व्यक्ति के रूप में भी। समस्या न हो तो खड़ी करो और उसे ही शैतान जैसा ताकतवर बना दो। शैतान तो बिना देह का जीव है कहीं भी प्रकट कर लो। किसी भी भेष में शैतान हो वह आपके काम का है पर याद रखो कोई और खड़ा करे तो उसकी बातों में न आओ। यकीन करो इस दुनियां में शैतान है ही नहीं बल्कि वह आदमी के अंदर ही है जिसे शातिर लोग समय के हिसाब से बनाते और बिगाड़ते रहते हैं।
एक आदमी ने अपने सोफे के किनारे ही चाय का कप पीकर रखा और वह उसके हाथ से गिर गया। वह उठ कर दूसरी जगह बैठ गया पत्नी आयी तो उसने पूछा-‘यह कप कैसे टूटा?’उसी समय उस आदमी को एक चूहा दिखाई दिया।
उसने उसकी तरफ इशारा करते हुए कहा-‘उसने तोड़ा!
’पत्नी ने कहा-‘आजकल चूहे भी बहुत परेशान करने लगे हैं। देखो कितना ताकतवर है उसकी टक्कर से इतना बड़ा कप गिर गया। चूहा है कि उसके रूप में शेतान?”
वह चूहा बहुत मोटा था इसलिये उसकी पत्नी को लगा कि हो सकता है कि उसने गिराया हो और आदमी अपने मन में सर्वशक्तिमान का शुक्रिया अदा कर रहा कि उसने समय पर एक शैतान-भले ही चूहे के रूप में-भेज दिया।
’याद रखो कोई दूसरा व्यक्ति भी आपको शैतान बना सकता है। इसलिये सतर्क रहो। किसी प्रकार के वाद-विवाद में मत पड़ो। कम से कम ऐसी हरकत मत करो जिससे दूसरा आपको शैतान साबित करे। वैसे जीवन में दृढ़निश्चयी और स्पष्टवादी लोगों को कोई शैतान नहीं गढ़ना चाहिए, पर कोई अवसर दे तो उसे छोड़ना भी नहीं चाहिए। जैसे कोई आपको अनावश्यक रूप से अपमानित करे या काम बिगाड़े और आपको व्यापक जनसमर्थन मिल रहा हो तो उस आदमी के विरुद्ध अभियान छेड़ दो ताकि लोगों की दृष्टि में आपकी फरिश्ते की छबि बन जाये। सर्वतशक्तिमान की कृपा से फरिश्ते तो यहां कई मनुष्य बन ही जाते हैं पर शैतान इंसान का ही ईजाद किया हुआ है इसलिये वह बहुत चमकदार या भयावह हो सकता है पर ताकतवर नहीं। जो लोग नकारा, मतलबी और धोखेबाज हैं वही शैतान को खड़ा करते हैं क्योंकि अच्छे काम कर लोगों के दिल जीतने की उनकी औकात नहीं होती।
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आतंक के विरुद्ध कार्रवाई आवश्यक-आलेख


भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की प्रत्यक्ष रूप से युद्ध की संभावना नहीं है पर इस बात से इंकार करना भी कठिन है कि कोई सैन्य कार्यवाही नहीं होगी। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने स्पष्ट रूप से 20 आतंकवादी भारत को सौंपने से इंकार कर दिया पर उन्होंने यह नहीं कहा कि वह उनके यहां नहीं है। स्पष्टतः उन्होंने दोनों पक्षों के बीच अपने आप को बचा लिया या कहें कि एकदम बेईमानी वाली बात नहीं की। हालांकि इससे यह आशा करना बेकार है कि वह कोई भारत के साथ तत्काल अपना दोस्ताना निभाने वाले हैं जिसकी चर्चा वह हमेशा कर रहे हैंं।

जरदारी आतंकवादियों का वह दंश झेल चुके हैं जिसका दर्द वही जानते हैं। अगर वह सोचते हैं कि आतंकवादियों का कोई क्षेत्र या धर्म होता है तो गलती पर हैंं। भारत के आतंकवादी उनके मित्र हैं तो उन्हें यह भ्रम भी नहीं पालना चाहिये क्योंकि यही आतंकवादी उनके भी मित्र हैं जो पाकिस्तान के लिये आतंकवादी है। आशय यह है कि आतंकवादी उसी तरह की राजनीति भी कर रहे हैं जैसे कि सामान्य राजनीति करने वाले करते हैं। राजनीति करने वाले लोग समाज को धर्म, जाति,भाषा, और क्षेत्र के नाम बांटते हैं और यही काम आतंकी अपराध करने वाले समूह सरकारो में बैठे लोगों के साथ कर रहे हैं। वह उनको बांटकर यह भ्रम पैदा करते हैं कि वह तो सभी के मित्र हैं। अगर आम आदमी की तरह शीर्षस्थ वर्ग के लोग भी अगर इसी तरह आतंकी अपराध करने वाले समूहों की चाल में आ जायेंगे तो फिर फर्क ही क्या रह जायेगा? आसिफ जरदारी किस तरह के नेता हैं पता नहीं? वह परिवक्व हैं या अपरिपक्व इस बात के प्रमाण अब मिल जायेंगे। एक बात तय रही कि जब तक भारत का आतंकवाद समाप्त नहीं होगा तब तक पाकिस्तान में अमन चैन नहीं होगा यह बात जरदारी को समझ लेना चाहिये।

कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि बेनजीर के शासनकाल में ही भारत के विरुद्ध आतंकवाद की शुरुआत हुई थी। अगर जरदारी अपनी स्वर्गीय पत्नी को सच में श्रद्धांजलि देना चाहते हैं तो वह चुपचाप इन आतंकवादियों को भारत को सौंप दें पर अगर वह अभी ऐसा करने में असमर्थ अनुभव करते हैं तो फिर उन्हें राजनीतिक चालें चलनी पड़ेंगी। इसमें उनको अमेरिका और भारत से बौद्धिक सहायता की आवश्यकता है पर सवाल यह है कि क्या अमेरिका अभी भी ढुलमुल नीति अपनाएगा। हालांकि उसके लिये अब ऐसा करना कठिन होगा क्योंकि रक्षा विशेषज्ञ उसे हमेशा चेताते हैं कि आतंकवादी भारत में अभ्यास कर फिर उसे अमेरिका में अजमाते हैं। अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफ.बी.आई. ने ऐसे ही नहीं भारत में अपना पड़ाव डाला है। भारत की खुफिया ऐजेंसियेां के उनके संपर्क पुराने हैं और जिसके तहत एक दूसरे को सूचनाओं का आदान प्रदान होता है-यह बात अनेक बार प्रचार माध्यमों में आ चुकी है।

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव वान कहते हैं कि यह अकेले भारत पर नहीं बल्कि पूरे विश्व पर हमला है। इजरायल भी स्वयं अपने पर यह हमला बताता है। पाकिस्तान इस समय दुनियां में अकेला पड़ चुका है। ऐसे में अगर वहां लोकतांत्रिक सरकार नहीं होती तो शायद उसे और मुश्किल होती पर इस पर भी विशेषज्ञ एक अन्य राय रखते हैं वह यह कि जब वहां लोकतांत्रिक सरकार होती है तब वहां की सेना दूसरे देशों में आतंकवाद फैलाने के लिये बड़ी वारदात करती है पर जब वहां सैन्य शासन होता है तब वह कम स्तर पर यह प्रयास करती है। वह किसी तरह अपने लेाकतांत्रिक शासन का नकारा साबित कर अपना शासन स्थापित करना चाहती है।

अनेक विदेश और र+क्षा मामलों में विशेषज्ञ वहां किसी तरह सीधे आक्रमण करने के प+क्ष में हैंं। यह कूटनीति के अलावा सैन्य कार्यवाही के भी पक्षधर हैं। एक बात जो महत्वपूर्ण है। वह यह कि पाकिस्तान की सीमा अफगानिस्तान से लगी अपनी सीमा पर उन तालिबानों ने को तबाह करने में वहां की सेना अक्षम साबित हुई है और इसलिये वहां से भागना चाहती है और अब भारत के तनाव के चलते ही वह भारतीय सीमा पर भागती आ रही है। हो सकता है कि यह उसकी चाल हो। मुंबई में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. और सेना के हाथ होने के प्रमाण को विशेषज्ञ इसी बात का द्योतक मानते हैंं।

इस समय पाकिस्तान पूरे विश्व की नजरों में है और भारत जो भी कार्यवाही करेगा उसके लिये वह अन्य देशों को पहले विश्वास में लेगा तभी सफलता मिल पायेगी। भारत अकेला युद्ध करेगा पर उसके लिये उसे विश्व का समर्थन चाहिये। लोग सीधे कह रहे हैं कि अकेले ही तैश में आकर युद्ध करना ठीक नहीं होगा। पाकिस्तान की सेना का वहां अभी पूरी तरह नियंत्रण है और फिलहाल वहां के लोकतांत्रिक नेताओं का उनकी पकड़ से बाहर तत्काल निकलना संभव नहीं है। ऐसे में कुटनीतिक चालों के बाद ही कोई कार्यवाही होगी तब ही कोई परिणाम निकल पायेगा। अगर भारत ने कहीं विश्व की अनदेखी की तो उसके लिये भविष्य में परेशानी हो सकती है। जिन्होंने 1971 का युद्ध देखा है वह यह बता सकते हैं कि युद्ध कितनी बड़ी परेशानी का कारण बनता है। यही कारण है कि प्रबुद्ध वर्ग वैसी आक्रामक प्रतिक्रिया नहीं दे रहा जैसी कि प्रचार माध्यम चाहते हैं। यह प्रचार माध्यम अपनी व्यवसायिक प्रतिबद्धताओं के चलते देश भक्ति के जो नारे लगा रहे हैं वह इस बात का जवाब नहीं दे सकता कि क्या उसे इससे कोई आय नहीं हो रही है। एस.एम..एस. करने पर जनता का खर्च तो आता ही है।

पाकिस्तान के प्रचार माध्यम भी भारत के प्रचार माध्यमों की राह पर चलते हुए अपने देश में कथित रूप से भारत के बारे में दुष्प्रचार कर रहे हैं पर वह उस तरह का सच अपने लोगों का नहीं बता रहे जैसा कि भारतीय प्रचार माध्यम करते हैं। भले ही भारतीय प्रचार माध्यम अपने लिये ही कार्यक्रम बनाते हैं पर कभी कभार सच तो बता देते हैं पर पाकिस्तान के प्रचार माध्यम उससे अभी दूर हैंं। उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि यह आंतकी अपराधी उनके देश के ही दुश्मन हैं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी और प्रधानमंत्री गिलानी मोहरे हैं पर उन पर यह जिम्मेदारी आन पड़ी है जिस पर पाकिस्ताने के भविष्य का इतिहास निर्भर है। भारत के दुष्प्रचार में लगे पाक मीडिया को ऐसा करने की बजाय ऐसी सामग्री का प्रकाशन करना चाहिये जिससे कि वहां की जनता के मन में भारत के प्रति वैमनस्य न पैदा हो।
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दर्द से लड़ते आंसू सूख गये-हिंदी शायरी


जब हकीकतें होती बहुत कड़वी
वह मीठे सपनों के टूटने की
चिंता किसी को नहीं सताती
जहां आंखें देखती हैं
हादसे दर हादसे
वहां खूबसूरत ख्वाब देखने की
सोच भला दिमाग में कहा आती

दर्द से लड़ते आंसू सूख गये है जिसके
हादसों पर उसकी हंसी को मजाक नहीं कहना
उसकी बेरुखी को जज्बातों से परे नही समझना
कई लोग रोकर इतना थक जाते
कि हंसकर ही दर्द से दूर हो पाते
जिक्र नहीं करते वह लोग अपनी कहानी
क्योंकि वह हो जाती उनके लिये पुरानी
रोकर भी जमाना ने क्या पाता है
जो लोग जान जाते हैं
अपने दिल में बहने वाले आंसू वह छिपाते हैं
इसलिये उनकी कशकमश
शायरी बन जाती
शब्दों में खूबसूरती या दर्द न भी हो तो क्या
एक कड़वे सच का बयान तो बन जाती
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भलाई करने वाला फ़रिश्ता-लघु व्यंग्य


भरी दोपहर में वह इंसान सड़क पर जा रहा था। उसने देखा दूसरा इंसान बिजली के खंबे के नीचे अपने कुछ कागज उल्टे पुल्टे कर रहा था। अचानक वह बड़बड़ा उठा-‘यह बिजली वाले एकदम नकारा हैं। देखों बल्ब भी नहीं जलाकर रखा। खैर, कोई बात नहीं मैं अपने कागज ऐसे ही पढ़कर देखता हूं ताकि वक्त पड़ने पर इन्हें देखने में कोई समस्या न हो।’

पहला इंसान रुक गया और उसने दूसरे इंसान से पूछा-‘क्या बात है भई? भरी दोपहरियो में बल्ब न जलाने पर इन बिजली वालों को क्यों कोस रहे हो। अपने कागज तो तुम ऐसे ही पढ़ सकते हो। अभी तो सूरज की तेज रोशनी पड़ रही है जब रात हो जोयगी तब लाईट जल जायेगी।’

उस दूसरे इंसान ने कहा-‘ओए, तू भला कहां से आ टपका। तुझे पता नहीं मैं मोहब्बत और अमन का फरिश्ता हूं और जिनकों कागज कह रहा है इसमें मोहब्बत और अमन की कहानियां हैं। यह तेरे समझ के परे है क्योंकि तेरे साथ कभी को हादसा नहीं हुआ न! यह पीडि़त लोगों को सुनाने के लिये है इससे उनको राहत मिलती है। तू फूट यहां से।

फरिश्ते की बात सुनकर वहा इंसान आगे बढ़ने को हुआ तो अचानक एक लड़का चिल्लाता हुआ उसके पीछे आया और बोला-चाचा, जल्दी वापस चलो अपने चाय के ठेले में आग लग गयी है।’

वह इंसान भागने को हुआ तो पीछे से फरिश्ता चिल्लाया-‘रुक तेरे साथ हादसा हुआ है। अब सुन मेरे मोहब्बत और अमन का पैगाम। यह कहानी है और यह कविता!’

वह इंसान चिल्लाया-‘भाड़ में जाये तुम्हारी कविता और कहानी। मैं जा रहा हूं अपना ठेला बचाने।’

वह भागा तो फरिश्ता भी उसके पीछे ‘सुनो सुनो’ कहता हुआ भागा।

वह इंसान ठेले के पास पहुंचा तो उसने देखा कि कुछ लोग पास की टंकी से पानी लेकर आग बुझाने का प्रयास कर रहे हैं। वह स्वयं भी इसमें जुट गया। वह बाल्टी भरकर ठेले पर डालता तो इधर फरिश्ता कहता-‘सुन अगर यह आग गैस से लगी है तो कोई बात नहीं है। गैस वैसे तो हमेशा हमारे बहुत काम आती है पर अगर एक बार धोखा हो गया तो उस पर गुस्सा मत होना। इस संबंध में एक विद्वान का कहना है कि……………’’
वह इंसान चिल्लाया-‘तुम दूर हटो। मुझे तुम्हारी इस कहानी से कोई मतलब नहीं है।’

वह दूसरी बाल्टी भरकर लाया तो वह फरिश्ता बोला-‘अगर यह किसी माचिस की दियासलाई से लगी है तो कोई बात नहीं वह अगर सिगरेट जलाने के काम आती है तो सिगड़ी को प्रज्जवलित करने के काम भी आती है। यह कविता…………………’’

वह आदमी चिल्लाया-’दूर हटो। मुझे अपनी रोजी रोटी बचानी है।’

मगर फरिश्ता कुछ न कुछ सुनाता रहा। आखिर उस इंसान ने ठेले की आग बुझा ली। वह उसके ठेले के नीचे रखे कागजों में लगी थी और अभी ऊपर नहीं पहुंची थी। उसका कामकाज चल सकता था। आग बुझाकर उसने उस फरिश्ते से कहा-‘अब सुनाओं अपनी कहानियां और कवितायें। मेरे दिल को ठंडक हो गयी। कोई खास नुक्सान नहीं हुआ।’
फरिश्ते ने अपने कागज अपने बस्तें में डाल दिये और चलने लगा। उस इंसान ने कहा-‘जब मै सुनना नहीं चाहता तब सुनाते हो और जब सुनना चाहता हुं तो मूंह फेरे जाते हो।’

उस फरिश्ते ने कहा-‘आग खत्म तो मेरी कहानी खत्म। मेरी कहानी और कवितायें अमन और मोहब्बत की हैं जो केवल वारदात के बाद तब तक सुनायी जाती हैं जब तक उसका असर खत्म न हो। अब तुम्हें मेरी कहानी और कविता की जरूरत नहीं है।’
वह इंसान हैरानी से उसे देखने लगा
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इतिहास में सीखने लायक क्या है-हास्य व्यंग्य


लोग कहते हैं कि इतिहास से सीखना चाहिये। किसी को कोई नया काम सीखना होता है तो उससे कहा जाता है पीछे देख आगे बढ़। यह शायद अंग्रेजों द्वारा बताया गया कोई तर्क होगा वरना समझदार आदमी तो आज वर्तमान को देखकर न केवल भूतकाल का बल्कि भविष्य का भी अनुमान कर लेता है और जो पीछे देख आगे बढ़ के नियम पर चलते हैं वह जीवन में कोई नया काम नहीं कर सकता।

इतिहास किसी न किसी के द्वारा लिखा जाता और लिखने वाला निश्चित रूप से अपने पूर्वाग्रहों के साथ लिखता है। इसलिये जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है वह एक तरह का कूड़ेदान होता है। उससे सीखने का मतलब है कि अपनी बौद्धिक क्षमता से दुश्मनी करना। जिनकी चिंतन, मनन और अध्ययन की क्षमता कमजोर होती है पर वही इतिहास पढ़कर अपना विचार व्यक्त करते हैं। तय बात है जिसने अपनी शिक्षा के दौरान ही अपनी चिंतन,मनन और अध्ययन की जड़ें मजबूत कर ली तो फिर उसे इतिहास की आवश्यकता ही नहीं हैं। न ही उसे किसी दूसरे के लिखे पर आगे बढ़ने की जरूरत है।

आये दिन अनेक लेखक और विद्वान इतिहास की बातें उठाकर अपनी बातें लिखते हैंं। ऐसा हुआ था और वैसा हुआ था। एतिहासिक व्यक्तियों के चरित्र की मीमांसा ऐसा करेंगेे जैसे कि वह भोजन नहीं करते थे या और कपड़े कोई सामान्य नहीं बल्कि दैवीय प्रकार के पहनते थे। उनमें कोई दोष नहीं था या वह सर्वगुण संपन्न थे। कभी कभी लोग कहते हैं कि साहब पहले का जमाना सही था और हमारे शीर्षस्थ लोग बहुत सज्जन थे। अब तो सब स्वार्थी हो गये हैं। कुछ अनुमान और तो कुछ दूसरे को लिखे के आधार पर इतिहास की व्याख्या करने वाले लोग केवल कूड़ेदान से उठायी गयी चीजों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं जैसे वह अब भी नयी हों।

बात जमाने की करें। कबीर और रहीम को पढ़ने के बाद कौन कह सकता है कि पहले समाज ऐसा नहीं था। जब समाज ऐसा था तो तय है कि उसके नियंत्रणकर्ता भी ऐसे ही होंगे। फिर देश में विदेशी आक्रमणकारियों की होती है। कहा जाता है कि वह यहंा लूटने आये। सही बात है पर वह यहां सफल कैसे हुए? तत्कालीन शासकों, सामंतों और साहूकारों की कमियां गिनाने की बजाय विभक्त समाज और राष्ट्र की बात की जाती है। इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता कि आखिर विदेशी शासकों ने इतने वर्ष तक राज्य कैसे किया? यहां के आमजन क्यों उनके खिलाफ होकर लड़ने को तैयार नहीं हुए।

इतिहास से कोई बात उठायी जाये तो इस पर फिर अपनी राय भी रखी जाये। हम यहां उठाते हैं महात्मा गांधी द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध प्रारंभ किये आंदोलन की घटना। दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों को जमीन दिखाने के बाद जब वह भारत लौटे तो उनसे यहां स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व प्रारंभ करने का आग्रह किया गया। उन्होंने इस आंदोलन से पहले अपने देश को समझने की लिये दो वर्ष का समय मांगा और फिर शुरु की अपनी यात्रा। उसके बाद उन्होंने आंदोलन प्रारंभ किया। दरअसल वह जानते थे कि आम आदमी के समर्थन के बिना यह आंदोलन सफल नहीं होगा। अंग्रेजों की छत्रछाया में पल रही राजशाही और अफसरशाही का मुकाबला बिना आम आदमी के संभव नहीं था। आज भी भारत में गांधीजी को याद इसलिये किया जाता है कि उन्होंने आम आदमी की चिंता की। यह पता नहीं कि उन्होंने इतिहास पढ़ा था या नहीं पर यह तय है कि उन्होंनें इसकी परवाह नहीं की और इतिहास पुरुष बन गये। यह पूरा देश उनके पीछे खड़ा हुआ।

गांधीजी का नाम जपने वाले बहुत हैं और उनके चरित्र की चर्चा गाहे बगाहे उनके साथी करते हैं पर आम आदमी को संगठित करने के उनके तरीके के बारे में शायद ही कोई सोच पाता है। अपने अभियानों और आंदोलनों को जो सफल करना चाहते हैं उनको गांधीजी द्वारा कथनी और करनी के भेद को मिटा देने की रणनीति पर अमल करना चाहिये। हो रहा है इसका उल्टा।
गांधीजी के नारे सभी ने ले लिये पर कार्यशैली तो अंग्रेजों वाली ही रखी। इसलिये हालत यह है कि आम आदमी किसी अभियान या आंदोलन से नहीं जुड़ता।

बड़े बड़े सूरमाओं से इतिहास भरा पड़ा है पर वह हारे क्यों? सीधा जवाब है कि आम आदमी की परवाह नहीं की इसलिये युद्ध हारे। आखिर विदेशी आक्रमणकारी सफल कैसे हुए? क्या जरूरत है इसे पढ़ने की? आजकल के आम आदमी में व्याप्त निराशा और हताशा को देखकर ही समझा जा सकता है। पद, पैसे और प्रतिष्ठा में मदांध हो रहे समाज के शीर्षस्थ लोगों को भले ही कथित रूप से सम्मान अवश्य मिल रहा है पर समाज में उनके प्रति जो आक्रोश है उसको वह समझ नहीं पा रहे। महंगी गाड़ी को शराब पीकर चलाते हुए सड़क पर आदमी को रौंदने की घटना का कानून से प्रतिकार तो होता है पर इससे समाज में जो संदेश जाता है उसे पढ़ने का प्रयास कौन करता है। बड़े लोगों की यह मदांधता उन्हें समाज से मिलने वाली सहानुभूति खत्म किये दे रही है। देश की बड़ी अदालत ने शराब पीकर इस तरह गाड़ी चलाने वाले की तुलना आत्मघाती आतंकी से की तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिये। यह माननीय अदालतें इसी समाज का हिस्सा है और उनके संदेशों को व्यापक रूप में लेना चाहिये।

आखिर धन और वैभव से संपन्न लोग उसका प्रदर्शन कर साबित क्या करना चाहते हैं। शादी और विवाहों के अवसर पर बड़े आदमी और छोटे आदमी का यह भेद सरेआम दिखाई देता है। आजकल तो प्रचार माध्यम सशक्त हैं और जितना वह इन बड़े लोगों को प्रसन्न करने के लिये प्रचार करते हैं आम आदमी के मन में उनके प्रति उतना ही वैमनस्य बढ़ता हैं।

इतिहास में दर्ज अनेक घटनाओं के विश्लेषण की अब कोई आवश्यकता नहीं है। कई ऐसी घटनायें हो रही हैं जो इतिहास की पुनरावृति हैंं। एक मजे की बात है कि विदेशियों के विचारों की प्रशंसा करने वाले कहते हैं कि इस देश के लोग रूढि़वादी, अंधविश्वासी और अज्ञानी थे पर देखा जाये तो भले ही ऐसे लोगों ने विदेशी ज्ञान की किताबें पढ़ ली हों पर वह भी कोई उपयोगी नहीं रहा। कोई कार्ल माक्र्स की बात करता है तो कोई स्टालिन की बात करता और कोई माओ की बात करता जबकि उनके विचारों को उनके देश ही छोड़ चुके हैं। ऐसे विदेशी लोगों के संदेश यहां केवल आम आदमी को भरमाने के लिये लाये गये पर चला कोई नहीं। यही कारण है कि आम आदमी की आज किसी से सहानुभूति नहीं है। लोग नारे लगा रहे हैं पर सुनता कौन है? हर आदमी अपनी हालतों से जूझता हुआ जी रहा है पर किसी से आसरा नहीं करता। यह निराशा का चरम बिंदू देखना कोई नहीं चाहता और जो देखेगा वह कहेगा कि इतिहास तो कूड़ेदान की तरह है। टूटे बिखरे समाज की कहानी बताने की आवश्यकता क्या है? वहा तो सामने ही दिख रहा है।
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व्ही.आई.पी. कहलाने की चाहत-हास्य व्यंग्य


वैसे तो अपने देख के लोगों की यह पूरानी आदत है कि वह हर तरफ अपने को श्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं और अब एक नयी आदत और पाल ली है। वह यह कि कहीं भी अपने को व्ही.आई.पी साबित करो। भले ही झूठमूठ पर यह बताओ कि हमें अमुक स्थान पर हमें व्ही.आई.पी. ट्रीटमेंट मिला।
अपने जीवन के सफर में हमें प्रसिद्धि पाने का मोह तो कभी नहीं रहा पर कुछ हमारे काम ऐसे रहे हैं कि वह बदनाम जरूर करा देते हैं और तब लगता है कि यह मिली प्रसिद्धि के कारण हो रहा है। पढ़ने का मजा खूब लिया तो लिखने के मजे लेने का ख्याल भी आया। लिखते रहे। जो मन मेंे आया लिखा मगर भाषा की दृष्टि से कभी सराहे जायेंगे यह तो ख्याल नहीं किया पर अव्यवस्थित लेखन की वजह से बदनाम जरूर हुए। यही हाल हर क्षेत्र में रहा है।

अध्यात्म में झुकाव है पर भक्ति के नाम पर पाखंड कभी नहीं किया। कहीं कोई कहता है कि यहां मत्था टेको या अमुक गुरू के दर्शन करो तो हम मना कर देते हैं। कहते हैं कि भईया हम तो सीधे नारायण में मन लगाते हैं इन बिचैलियों से मार्ग का पता पूछें यह संभव नहीं हैं।

जिनके गुरु है वह अपने गुरु को मानने की प्रेरणा देते हैं। ना करते हैं तो वह लोग कहते हैं कि गुरु के बिना उद्धार नहीं होता। हम पूछते हैं कि ‘क्या गुरु पाकर आपका उद्धार हो गया है तो जवाब देते हैं कि ‘तुम्हें अहंकार है, अरे इतनी जल्दी थोड़ा उद्धार होता है।’

हम कहते हैं कि हमारा उद्धार तो हो गया है क्येांकि परमात्मा ने मनुष्य योनि देकर दुनिया को समझने का अवसर दिया क्या कम है?

बात दरअसल यह कहना चाहते थे कि हम भारत के लोगों की मनोवृत्ति बहुत खराब है। हर मामले में व्ही.आई.पी. ट्रीटमेंट चाहते हैं और इसके लिये हम कुछ भी करना चाहते हैं। उनमें यह भी एक बात शामिल है कि जिस भगवान या गूुरु को हम माने उसे दूसरे भी माने। इसलिये अपने गुरुओंं और भगवानों को लेकर दूसरे पर दबाव बनाने लगते हैं। इसके अलावा कहीं अगर आश्रम या मंदिर जाते हैं तो वहां भी अपने को व्ही. आई.पी. के रूप में देखना चाहते हैं।

उस दिन एक आश्रम में गये तो पता लगा कि उनके गुरु आये हैं। हमने दूर से गुरुजी को देखा और वहीं उनके प्रवचन प्रारंभ हो गये। इसी दौरान पंक्ति लगाकर उनके दर्शन करने का सिलसिला भी चला। वहां कुछ लोग पंक्ति से अलग दूसरी पंक्ति लगाकर उनके दर्शन कर रहे थे जो यकीनन खास भक्तों के खास भक्त थे।

सत्संग समाप्त हुआ पर दर्शन करने वालों का तांता अभी लगा हुआ था। हम बाहर निकल आये तो एक परिचित मिल गये। हमसे पूछा कि‘क्या गुरु महाराज के दर्शन किये।’
हमने न में सिर हिलाया तो वह कहने लगे कि‘हमने तो व्ही.आई.पी. लाईन में जाकर उनके दर्शन किये। उनका एक खास भक्त मेरी दुकान पर सामान खरीदने आता है।’

हमने समझ लिया कि वह व्ही.आई.पी. भक्त साबित करने का प्रयास कर रहा है।

एक अन्य आश्रम में गये तो वहां देखा कि बरसों पहले खुला रहने वाला ध्यान केंद्र अब बंद कर दिया गया है। वहां सामान्य भक्तों का प्रवेश बंद कर दिया गया है केवल चंदा की रसीद कटाने और सामान लेकर जाने वालों को वहां ध्यान करने की इजाजत है।

हमने वहां मंदिर में दर्शन किये और उसके साथ लगे परिसर के पार्क में जाने लगे तो पता लगा कि वहां से आने वाला कम दूरी वाला रास्ता भी बंद कर दिया गया है। घूमकर फिर वहां पार्क में गये। पार्क के साथ ही धर्मशाला भी लगी हुई है। बाहर से आये भक्तजन वहां रहते हैं और ध्यानादि कार्यक्रम में शामिल होते हैं। वहां पार्क में अन्य लोग भी बैठे थे कोई अपने साथ भोजनादि लाया था तो को वहीं बैठे ध्यान लगा रहा था तो कोई अपनी चादर बिछाकर आराम कर रहा था। हमने देखा कि ध्यान केंद्र से कम दूरी वाले मार्ग का दरवाजा जो बंद था वह बार बार खुलता और बंद हो जाता। कुछ व्ही.आई.पी वहीं से ध्यान कक्ष से आते जाते। जब वह आते तो खुल जाता और फिर बंद। हमने देखा कि वहां खड़ा एक लड़का इस दरवाजे को खोल और बंद कर रहा था।

एक महिला धर्मशाला से निकलकर अपने दो बच्चों के साथ उसी रास्ते ध्यान कक्ष की तरफ जा रही थी । उसके आगे एक व्ही.आई.पी. भक्त तो निकल गया पर उस लड़के ने उस महिला और उसके बच्चों को नहीं जाने दिया। कारण बताया ‘सुरक्षा’। अब सुरक्षा के नाम आश्रम और मंदिरों में हो रहा है उस तो कहना ही क्या? देखा जाये तो व्ही.आई.पी भक्तों और उनको दर्शन कराने वालों को अवसर मिल गया है।

उस महिला ने लंबे रास्ते से निकलने के लिये मूंह फेरा तो एक व्ही.आई.पी. भक्त वहां से लौट रहा था उसके लिये दरवाजा खुला तो वह पलट कर फिर जाने को तत्पर हुई पर उस लड़के ने मना कर दिया। यह एकदम अपमानजनक था क्योंकि उस दरवाजे के उस पार तक तो मैं भी होकर आया था। मतलब वहां से अगर कोई आये जाये तो कोई दिक्कत नहीं थी सिवाय इसके कि किसी को विशिष्ट भक्त प्रमाणित नहीं किया जा सकता था।

यह प्रकरण हमसे कुछ दूर बैठे दंपत्ति भी देख रहे थे। महिला ने पति से कहा-‘आप देखो। कैसे उस बिचारी के साथ उस लड़के ने बदतमीजी की। धार्मिक स्थानों पर यह बदतमीजी करना ठीक नहीं है।’

पति ने कहा-‘अरे, इन चीजों को मत देखा करो। हम तो भगवान में अपनी भक्ति रखते हैं। यह तो बीच के लोग हैं न इनके मन में न भक्ति है न सेवा भाव। यह सब विशिष्ट दिखने के लिये ही ऐसा करते हैं। देखा हमारे साथ यहां कितने लोग बैठे हैं उनको इनकी परवाह नहीं है। पर यह जो विशिष्ट दिखने और दिखाने का मोह जो लोग पाल बैठते हैं उनको कोई समझा नहीं सकता। यह मान कर चलो कि जहां भगवान है तो वहां शैतान भी होगा।’
हमने देखा कि वहां अनेक लोग बैठे थे। सब दूर दूर से आये थे और उनको इन घटनाओं से केाई लेना देना नहीं था।

सच तो यह है कि धर्म के नाम पर जो लोग व्ही.आई.पी. दिखना चाहते हैं उनको ही धर्म संकट में दिखता है क्योंकि ऐसा कर ही वह अपने को धार्मिक साबित करना चाहते हैं। मंदिरों और आश्रमों में जो भ्रष्टाचार है उस पर कोई प्रहार होता है तो धर्म पर संकट बताकर आम भक्त को पुकारा जाता है जबकि इन्हीं आश्रमों में उसकी कोई कदर नहीं है वहां तो को केवल विशिष्ट लोगों का ही सम्मान है। हालांकि हम जानते हैं कि यह सब होता है पर जब कहीं ध्यान लगाने जाते हैं तो इस बात की परवाह नहीं करते कि भगवान के मध्यस्थ क्या व्यवहार करते हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि उसके हृदय में भगवान नहीं विशिष्ट मेहमान बसे हुऐ हैं सो उनसे कोई अपेक्षा भी नहीं करते।
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मन की उदासी कहने में डर लगता है-हिंदी शायरी


अपने मन की उदासी
किसी से कहने में डर लगता है
जमाने में फंसा हर आदमी
अपनी हालातों से है खफा
नहीं जानता क्या होती वफा
अपने मन की उदासी को दूर
करने के लिये
दूसरे के दर्द में अपनी
हंसी ढूंढने लगता है
एक बार नहीं हजार बार आजमाया
अपने ही गम पर
जमाने को हंसता पाया
जिन्हें दिया अपने हाथों से
बड़े प्यार से सामान
उन्होंने जमाने को जाकर लूट का बताया
जिनको दिया शब्द के रूप में ज्ञान
उन्होंने भी दिया पीठ पीछे अपमान
बना लेते हैं सबसे रिश्ता कोई न कोई
पर किसी को दोस्त कहने में डर लगता है

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खुद सज जाते हैं हमेशा दूल्हों की तरह-व्यंग्य कविता


लोगों को आपस में
मिलाने के लिये किया हुआ है
उन्होंने शामियानों का इंतजाम
बताते हैं जमाने के लिये उसे
भलाई का काम
खुद सज जाते हैं हमेशा दूल्हों की तरह
अपना नाम लेकर
पढ़वाते हैं कसीदे
उनके मातहत बन जाते सिपहसालार
वह बन जाते बादशाह
बाहर से आया हर इंसान हो जाता आम

जिनको प्यारी है अपनी इज्जत
करते नहीं वहा हुज्जत
जो करते वहां विरोध, हो जाते बदनाम
मजलिसों के शिरकत का ख्याल
उनको इसलिये नहीं भाता
जिनको भरोसा है अपनी शख्यिसत पर
शायद इसलिये ही बदलाव का बीज
पनपता है कहीं एक जगह दुबक कर
मजलिसों में तो बस शोर ही नजर आता
ओ! अपने ख्याल और शायरी पर
भरोसा करने वालोंे
मजलिसों और महफिलों में नहीं तुम्हारा काम
बेतुके और बेहूदों क्यों न हो
इंतजाम करने वाले ही मालिक
सजते हैं वहां शायरों की तरह
बाहर निकल कर फीकी पड़ जायेगी चमक
इसलिये दुबके अपने शामियानों के पीछे
कायरों की तरह
वहां नहीं असली शायर का काम

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रोटी का इंसान से बहुत गहरा है रिश्ता-हिंदी शायरी


पापी पेट का है सवाल
इसलिये रोटी पर मचा रहता है
इस दुनियां में हमेशा बवाल
थाली में रोटी सजती हैं
तो फिर चाहिये मक्खनी दाल
नाक तक रोटी भर जाये
फिर उठता है अगले वक्त की रोटी का सवाल
पेट भरकर फिर खाली हो जाता है
रोटी का थाल फिर सजकर आता है
पर रोटी से इंसान का दिल कभी नहीं भरा
यही है एक कमाल
………………………
रोटी का इंसान से
बहुत गहरा है रिश्ता
जीवन भर रोटी की जुगाड़ में
घर से काम
और काम से घर की
दौड़ में हमेशा पिसता
हर सांस में बसी है उसके ख्वाहिशों
से जकड़ जाता है
जैसे चुंबक की तरफ
लोहा खिंचता

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सड़क ने प्यार से जुदा करा दिया-हास्य व्यंग्य कविता


बहुत दिन बाद प्रेमी आया
अपने शहर
और उसने अपनी प्रेमिका से की भेंट
मोटर साइकिल पर बैठाकर किक लगाई
चल पड़े दोनों सैर सपाटे पर
फिर बरसात के मौसम में सड़क
अपनी जगह से नदारत पाई

कभी ऊपर तो कभी नीचे
बल खाती हुई चल रही गाड़ी ने
दोनों से खूब ठुमके लगवाये
प्रेमिका की कमर में पीड़ा उभर आई
परेशान होते ही उसने
आगे चलने में असमर्थता अपने प्रेमी को जताई

कई दिन तक ऐसा होता रहा
रोज वह उसे ले जाता
कमर दर्द के कारण वापस ले आता
प्रेमिका की मां ने कहा दोनों से
‘क्यों परेशान होते हो
बहुत हो गया बहुत रोमांस
अब करो शादी की तैयारी
पहले कर लो सगाई
फिर एक ही घर में बैठकर
खूब प्रेम करना
बेटी के रोज के कमर दर्द से
मैं तो बाज आई’

प्रेमिका ने कहा
‘रहने दो अभी शादी की बात
पहले शहर की सड़के बन जायें
फिर सोचेंगे
इस शहर की नहीं सारे शहरों में यही हाल है
टीवी पर देखती हूं सब जगह सड़कें बदहाल हैं
शादी के हनीमून भी कहां मनायेंगे
सभी जगह कमर दर्द को सहलायेंगे
फिर शादी के बाद सड़क के खराब होने के बहाने
यह कहीं मुझे बाहर नहीं ले जायेगा
घर में ही बैठाकर बना देगा बाई
इसलिये पहले सड़कें बन जाने तो
फिर सोचना
अभी तो प्यार से करती हूं गुडबाई’

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

पाठक संख्या बीस हजार पार करने की पूर्व संध्या पर कविता


मैं अंतर्जाल को एक मायाजाल ही मानता हूं। इसमें मेरे अनुभव अजीब तरह के हैं। अनेक लोग मुझसे मेरे बारे में जानना चाहते हैं पर मेरी दिलचस्पी केवल अपने शब्द लेखन तक ही सीमित है। कल मेरा यह ब्लाग बीस हजार की पाठक संख्या पार कर सकता है। दरअसल लोगों का प्यार इतना है कि मैं लिखता चला जाता हूं। कभी कभी मैं हिंदी ब्लाग जगत के विषय पर लिखता हूं तो पाठक कहते हैं कि आप तो अपनी बात लिखते रहें। जिस गति से यह ब्लाग बढ़ रहा है मुझे लगता है कि यह हिंदी पत्रिका की तरह हिट हो जायेगा। यह दोनों ब्लाग मैं बहुत लापरवाह होकर मनमर्जी से लिखता हूं। कमाल है जिन ब्लाग पर मैंने परवाह कर लिखा वह उतने हिट नहीं ले पाये जितना इन दोनों ने लिया। आज दरअसल इस पर मैं एक व्यंग्य लिखना चाहता था पर उसे शब्द ज्ञान पत्रिका पर प्रयोग के लिये डाल दिया।

वर्डप्रेस के ब्लाग पर अधिक टैग और श्रेणियां बनाने की सुविधा है इसलिये यहां पाठक के पास पहुंचने का व्यापक दायरा हो जाता है। एक तरह से इस पर लिखना अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर होना है, पर अंततः आपको लिखना तो अच्छा पड़ता ही है। आज पूर्व संध्या पर पंक्तियां लिखने का मन है।
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जब सूरज डूब जाता है
तब रौशनी करता है चिराग
जहां चिंगारी काम करती हो
वहां क्या करेगी आग
चलें हैं हम इस पथ पर
मंजिल का पता नहीं
चले जा रहे हैं आगे रास्ता
जाता तो होगा कहीं
कहीं तो मिलेगा उम्मीद का बाग

सुनते है सबकी
करते हैं मन की
न काहू से दोस्ती न काहू से बैर
सबकी मांगें भगवान सै खैर
तारीफ तो करते हैं दोस्तों की
आलोचकों से भी नहीं है नफरत
अपनी जिंदगी है अपना राग

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दूसरे के दर्द में अपनी तसल्ली ढूंढता आदमी-हिंदी शायरी


शहर-दर-शहर घूमता रहा

इंसानों में इंसान का रूप ढूंढता रहा
चेहरे और पहनावे एक जैसे

पर करते हैं फर्क एक दूसरे को देखते

आपस में ही एक दूसरे से

अपने बदन को रबड़ की तरह खींचते

हर पल अपनी मुट्ठियां भींचते

अपने फायदे के लिये सब जागते मिले

नहीं तो हर शख्स ऊंघता रहा

अपनी दौलत और शौहरत का

नशा है

इतराते भी उस बहुत

पर भी अपने चैन और अमन के लिये

दूसरे के दर्द से मिले सुगंध तो हो दिल को तसल्ली

हर इंसान इसलिये अपनी

नाक इधर उधर घुमाकर सूंघता रहा
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आओ लिखें-छटांक भर कविता


सागर की लहरे कितनी पास हों
किसी की प्यास नहीं बुझती
गागर की बूंदें ही काम आयें
दस दिशाऐं हैं धरती पर
जब चलें पांव एक ही दिशा में जायें
हाथी बड़ा बहुत है
महावत उस पर अंकुश की नौक से काबू पायें
बड़ा होने से क्या होता है
अगर कोई जमाने के का काम का न हो
छोटा है मजदूर तो क्या
उसी हाथ से बड़े-बड़े महल बन जायें
इतिहास में दर्ज है
बड़ों-बड़ों के पतन की कहानी
पढ़कर लोग भूल जाते
पर कवियों की छोटी छोटी
दिल को सहलाने वाले शब्द
कभी लोग भूल न पायें
बड़े बड़े ग्रंथ लिखकर भी
अगर जमाने को खुश न कर सके तो क्या फायदा
लिखे का असर दूर तो हो यही है कायदा
किलो की किताब लिखने से अच्छा है
आओ लिखें छटांक भर कवितायें
लोगों के दिमाग से उतरकर वापस न लौटें
उनके दिल में उतर जायें
बड़ी न हो, भले छोटी हो रचनायें

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ख्वाहिश है कि जमाना उनको सलाम करे- हिन्दी शायरी


जिंदगी जीने का उनको बिल्कुल सलीका नहीं है
उनके पास वफा बेचने का कोई एक तरीका नहीं है
भीड़ में मचायें शोर अपनी जिंदगी के तजूर्बे का
पर उससे कभी कुछ खुद सीखा नही है
ख्वाहिश है कि जमाना उनको सलाम करे
आवाजें हैं उनकी बहुत तेज,पर शब्द तीखा नहीं है
बेअसर बोलते हैं पर जमाना फिर भी मानता है
उनको परखने का खांका किसी ने खींचा नहीं है
ईमानदार के ईमान को ही देते हैं चुनौती
खुद कभी उसका इस्तेमाल करना सीखा नही है
फिर भी नाम चमक रहा है इसलिये आकाश में
जमीन पर लोगों ने अपनी अक्ल से चलना सीख नहीं है
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दिल के मचे तूफानों का कौन पता लगा सकता ह-हिन्दी शायरी



मोहब्बत में साथ चलते हुए
सफर हो जाते आसान
नहीं होता पांव में पड़े
छालों के दर्द का भान
पर समय भी होता है बलवान
दिल के मचे तूफानों का
कौन पता लगा सकता है
जो वहां रखी हमदर्द की तस्वीर भी
उड़ा ले जाते हैं
खाली पड़ी जगह पर जवाब नहीं होते
जो सवालों को दिये जायें
वहां रह जाते हैं बस जख्मों के निशान
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जब तक प्यार नहीं था
उनसे हम अनजान थे
जो किया तो जाना
वह कई दर्द साथ लेकर आये
जो अब हमारी बने पहचान थे
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दीपक भारतदीप

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हिट की परवाह की तो ब्लाग पर लिखना कठिन होगा-संपादकीय


अंतर्जाल वाकई एक बहुत बड़ा मायाजाल है। हिंदी के समस्त ब्लाग एक जगह दिखाये जाने वाले फोरमों पर आपस में संपर्क रखने की जो सुविधा है वह एक अनूठी है। जिन लोगोंे ने नारद फोरम के साथ अपने ब्लाग जीवन की शुरुआत की है वह उसे भूल नहीं सकते। वहां पर दूसरों को हिट और स्वयं को फ्लाप ब्लागर देखकर कुछ लेखकों को अपनी तौहीन लगती थी क्योंकि ऐसा लगता कि हिंदी के अंतर्जाल की दुनियां यहीं सिमटी हुई है। अनेक लोग यहां हिट प्राप्त करते रहे इसी कारण उन विषयों पर लिखने के आदी हो गये जिससे ब्लाग लेखकों में हिट मिलें। इनमें तो कई गजब के लेखक हैं और आज भी उनको जमकर हिट मिलते हैं। उनको पढ़ना बुरा नहीं है क्योंकि उनसे ही यही सीखा जा सकता है कि आपको क्या पसंद नहीं है और जो आपको पंसद नहीं है वह आम पाठक को भी पसंद नहीं आयेगा। ऐसे में अपने अंदर कुछ अलग लिखने के प्रेरणा पैदा होती है।
पहले ब्लाग लेखकों को यह पता ही नहीं था कि आखिर उनके ब्लाग की पहुंच कहां तक है? धीरेधीरे यह स्पष्ट हो गया है कि एच.टी.एम.एल से लिखी गयी सामग्री ही ब्लाग की ताकत होती है। इन फोरमों पर फ्लाप रहने के बावजूद कई लोग लिख रहे हैं क्योंकि वह जानते हैं कि अंततः उनके लिखे पाठों का महत्व ही उनको प्रचार दिला सकता है। सच तो यह है कि ब्लाग लेखकों में हिट दिलाने वाली सामग्री केवल उसी दिन के लिये महत्वपूर्ण है जिस दिन लिखी गयी है। उसके बाद उसका कोई महत्व नहीं रह जाता। ब्लाग लेखकों से लेखक ब्लागरों का सामंजस्य बैठ पाना कठिन है। मेरे कई ब्लाग लेखक मित्र है और उनकी सदाशयता ने मुझे प्रेरित किया है उनकी हिंदी ब्लाग जगत के प्रति निष्ठा भी असंदिग्ध है पर यहां कुछ ऐ से लोग भी हैं जो लिखने के बावजूद गंभीर नहीं हैं। बंदरों की तरह उछलकूद कर वह यह जताते हैं कि वह यहां के श्रेष्ठ ब्लागर हैं पर उनका लेखन एक ब्लागर लेखक के रूप में मुझे पसंद आता है पाठक के रूप में नहीं। इन फोरमों पर हिट और फ्लाप का खेल नकली है इस बात को समझ लेना चाहिए। कभी तो ऐसा लगता है कि यहां कुछ लोगों को हिट इतने न मिलें तो वह लिखना ही बंद कर देंगे। संभवतः यही कारण है ऐसे लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है पर दूसरे लोग हतोत्साहित न हों इसलिये मैं प्रतिवाद स्वरूप अपने कुछ पाठ लिख देता हूं जो मेरे मित्र ब्लागरों को पसंद नहीं आते। जिन लोगों को गंभीर और सोद्देश्य लेखक करना है उन्हें यहंा हिट का मोह त्यागना होगा। यहां अपनी सुविधा और विचार से पसंद और हिट हैं पर किसी भी तरह से आम पाठक का प्रतिनिधित्व यहां नहीं है। यहां कुछ ऐसे ब्लाग लेखक जबरदस्त हिट पा रहे हैं जिनके लेखन को आम पाठक के लिये तो कभी भी मतलब का नहीं माना जा सकता। जिन लोगों ने अपने आपको यहां का नेता समझा है वह बड़े शहरों रहते हैं और प्रचार माध्यमों में अपनी पहुंच का लाभ उठाकर कर अपने ऐसे ब्लाग लेखकों को प्रचार दिलवाते हैं जिनका लेखक आम पाठक के रूप में प्रभावित नहीं करता। हालांकि मैं उनको स्वयं बहुत दिलचस्पी से पढ़ता हूं। एक दिलचस्प बात यह है कि जिन ब्लाग लेखकों को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया जा रहा है उनमें अधिकांशतः ब्लाग स्पाट पर ही लिखते हैं जिनको प्रोत्साहित करने की आवश्यकता होती है। ब्लागस्पाट के ब्लाग तकनीकी कारणों से अधिक पाठक नहीं जुटा पाते। जिस दिन पाठ लिखो उस दिन हिट आते हैं पर फिर शांति छा जाती है। इसके विपरीत वर्डप्रेस के ब्लाग अधिक पाठक जुटाते हैं। यही कारण है कि यहां लिखते हुए कभी ऐसा नहीं लगता कि किसी की परवाह की जाये। ब्लाग स्पाट पर लिखते हुए मुझे ऐसा लगता है कि जैसे अपनी डायरी में लिख रहा हूं। यहां से उठाकर वर्डप्रेस पर रखे गयी कम से कम दस पाठ ऐसे हैं जो पांच सौ से अधिक बार पढ़े जा चुके हैं जबकि यहां उनको बीस से अधिक लोग नहीं पढ़ पाये। ऐसे में मेरा हौसला बढ़ता है। इसके पीछे तकनीकी कारण है जिसका अनुसंधान मैं कर उसका निष्कर्ष भी प्रस्तुत करूंगा। वैसे जिस तरह ब्लाग स्पाट तेजी से अपने स्वरूप में बदलाव ला रहा है उससे अनेक लाभ भी होना है।

ब्लाग लेखकों का एक समूह हिंदी ब्लाग जगत को अपनी जागीर समझ रहा है। यह लोग अपने को मिली सुविधाओं का उपयोग इस तरह कर रहे हैं जैसे कि वह बहुत बड़े लेखक हैं। अगर उनके हिट की लेखक ब्लागर परवाह करेंगे तो फिर वह उस भीड़ में खो जायेंगे जिसकी पहचान कभी नहीं बनती। मैं उन कवि और लेखक ब्लागरों की तारीफ करूंगा जो इन ब्लाग लेखकों के हिट की परवाह किये बिना लिख रहे हैं। सच तो यह है कि लेखक ब्लागरों में ही वह ताकत है जो वह अंतर्जाल में प्रतिष्ठा प्राप्त करेंगे। पिछले कई दिनों से वर्डप्रेस पर लिखी गयी हास्य और गंभीर कविताओं, चिंतन और आलेखों की बढ़ते पाठकों की संख्या देखकर मुझे ऐसा लगता है कि उनमें और अधिक वृद्धि होगी। यह एक दिलचस्प तथ्य है कि ब्लाग के विषय में लिखे गये विषयों को इन फोरमों पर ठीकठाक हिट मिले पर फिर बाद में उनका कोई पाठक नहीं मिला। कई हास्य गंभीर कवितायें तो इतने हिट जुटा लेती हैं कि मुझे स्वयं पर ही यकीन नहीं होता जबकि कहा जाता है कि लोग कविताएं पढ़ना नहीं चाहते। ईपत्रिका ने एक दिन में 253 पाठक जुटाये जो जबकि मेरे एक दूसरे ब्लाग पर सर्वाधिक 215 पाठकों की संख्या थी।
एक बात तय है कि अंतर्जाल पर बेहतर साहित्य लिखने वालों का भविष्य उज्जवल है पर उसके लिये उनको धैर्य धारण करना होगा। इन फोरमों पर अपने ब्लाग अवश्य पंजीकृत करवायें पर हिट के लिये आम पाठक की दृष्टि से ही लिखने का विचार करें। ब्लाग लेखकों से संपर्क रखना आवश्यक है क्योंकि इनमें कई लोग तकनीकी रूप से बहुत कुछ सीख गये हैं और उनके ब्लाग पढ़ते रहना चाहिए। अभी मैंने एक ब्लाग लेखक का पाठ पढ़कर ही अपने ब्लागस्पाट के पाठ में सुधार किया और उससे वह आकर्षक बन गया। इसके बावजूद इन ब्लाग लेखकों के हिट की परवाह की तो आम पाठक के लिये लिखना कठिन हो जायेगा। इस ब्लाग के एक दिन में 250 से अधिक पाठक जुटाने पर बस इतना ही। यह ब्लाग बीस हजार की संख्या की तरफ बढ़ रहा है और उस समय शेष बात लिखी जायेगी।

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इश्क पर लिखते हैं, मुश्क कसते हैं शायर-हास्य व्यंग्य कविता


अपने साथ भतीजे को भी
फंदेबाज घर लाया और बोला
‘दीपक बापू, इसकी सगाई हुई है
मंगेतर से रोज होती मोबाइल पर बात
पर अब बात लगी है बिगड़ने
उसने कहा है इससे कि एक ‘प्रेमपत्र लिख कर भेजो
तो जानूं कि तुम पढ़े लिखे
नहीं भेजा तो समझूंगी गंवार हो
तो पर सकता है रिश्ते में खटास’
अब आप ही से हम लोगों को आस
इसे लिखवा दो कोई प्रेम पत्र
जिसमें हिंदी के साथ उर्दू के भी शब्द हों
यह बिचारा सो नहीं पाया पूरी रात
मैं खूब घूमा इधर उधर
किसी हिट लेखक के पास फुरसत नहीं है
फिर मुझे ध्यान आया तुम्हारा
सोचा जरूर बन जायेगी बात’

सुनकर बोले दीपक बापू
‘कमबख्त यह कौनसी शर्त लगा दी
कि उर्दू में भी शब्द हों जरूरी
हमारे समझ में नहीं आयी बात
वैसे ही हम भाषा के झगड़े में
फंसा देते हैं अपनी टांग ऐसी कि
निकालना मुश्किल हो जाता
चाहे कितना भी जज्बात हो अंदर
नुक्ता लगाना भूल जाता
या कंप्यूटर घात कर जाता
फिर हम हैं तो आजाद ख्याल के
तय कर लिया है कि नुक्ता लगे या न लगे
लिखते जायेंगे
हिंदी वालों को क्या मतलब वह तो पढ़ते जायेंगे
उर्दू वाले चिल्लाते रहें
हम जो शब्द बोले उसे
हिंदी की संपत्ति बतायेंगे
पर देख लो भईया
कहीं नुक्ते के चक्कर में कहीं यह
फंस न जाये
इसके मंगेतर के पास कोई
उर्दू वाला न पहूंच जाये
हो सकता है गड़बड़
हिंदी वाले सहजता से नहीं लिखें
इसलिये जिन्हें फारसी लिपि नहीं आती
वह उर्दू वाले ही करते हैं
नुक्ताचीनी और बड़बड़
प्रेम से आजकल कोई प्यार की भाषा नहीं समझता
इश्क पर लिखते हैं
पब्लिक में हिट दिखते हैं
इसलिये मुश्क कसते हैं शायर
फारसी का देवनागरी लिपि से जोड़ते हैं वायर
इसलिये हमें माफ करो
कोई और ढूंढ लो
नहीं बनेगी हम से तुम्हारी बात
……………………………………………………………….

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भला कहां हमें कच्चे धागों का बंधन निभाना है-हास्य कविता


उसने घर में घुसते ही
अपने चारों मोबाइल का स्विच आफ कर
अल्मारी में रख दिये
फिर अपनी टांगें सोफे पर फैलाई
पास ही बैठा देख रहा था छोटा भाई

उसने बड़े भाई से पूछा
‘यह क्या किया
जान से प्यारे
मोबाइलों का स्विच आफ किया
सभी को अल्मारी की कैद में डाल दिया
अब वह चारों जानूं जानूं कहकर
किसे पुकारेंगी
बैठे तुम्हारे नंबरों को निहारेंगी
क्या उन सबसे बोर हो गये हो
यह इश्क से परेशान घोर हो गये हो
या कोई पांचवीं पर दिल आ गया है
तुम मोबाइल भी साथ रखकर सोते हो
उसकी घंटी और तुम्हारी आवाजें सुनकर
तो लगता नहीं कि कभी नींद तुम्हें आई
ऐसा क्या हो गया
कहीं तुमने इश्क से सन्यास की कसम तो नहीं खाई’

बड़ा भाई बोला
‘आज तो था आजादी की दिन
खूब जमकर बनाया
मैं तो निकला था घर से खरीदने का किराना
वह भी चारों अलग अलग आई
कोई निकली थी कालिज में फंक्शन का
कोई सहेली के साथ पिकनिक का
कोई निकली थी स्पेशल क्लास का बनाकर बहाना
लक्ष्य एक ही था इश्क करते हुए
मोटर सायकिल पर घूमते हुए
इस बरसात में नहाना
सभी के परिवार वाले घर में बंद थे
अपने कामों के पाबंद थे
इसलिये कहीं किसी का डर नहीं था
सचमुच हमने आजादी मनाई
पर कमबख्त यह राखी भी कल आई
भाईयों को राखी बांधकर वह
फिर मोबाइल पर देंगी आवाज
हो जायेगा में मेरे लिये मुसीबत का आगाज
फिर तो मुझे जाना पड़ेगा
नहीं तो पछताना पड़ेगा
कल अगर गया तो फिर
आज जैसे ही घुमाना पड़ेगा
मेरे दोस्त भी बहुत है
किसी कि बहिन है इधर
तो किसी की उधर
सभी कल चहलकदमी सड़कों पर करेंगे
मेरे साथ किसी को देख लिया तो
माशुका की जगह बहिन समझेंगे
चारों में से किसी के साथ तो
परमानेंट टांका भिड़ेगा
पर बाद में दोस्तों की फब्तियों से
कौन घिरेगा
आज तो सभी की आंख
वैसे ही पवित्र देखने लग जाती हैं
अक्ल माशुका को भी बहिन समझ पाती है
ऐसे में अच्छा है बाद के लफड़ों से
एक दिन के लिये इश्क से दूर हो जाऊं
क्यों मैं किसी के भाई की उपाधि पाऊं
किसी को जिंदगी का हमसफर तो बनाना है
भला कहां हमें कच्चे धागों का बंधन निभाना है
इसलिये मैंने राखी के दिन को ही
पूर्ण आजादी की तरह मनाने की अक्ल पाई
………………………………………..
नोट-यह कविता पूरी तरह काल्पनिक है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा
भला कहां कच्चे धागों का बंधन निभाना है-हास्य कविता

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किताबों में लिखे शब्दों की पंक्तियां उनके पांव में बेड़ियाँ नजर आ रही हैं-हिंदी शायरी


किताब में लिखे शब्दों की पंक्तियां
सलाखों की तरह नजर आ रही हैं
कुछ चेहरे छिपे हैं उसके पीछे
जिनकी आंखें बुझी जा रही हैं

पाठ है आजादी का
जिसमें कई कहानियां हैं
लोग उन्हें सुनाये जा रहे हैं
पर उससे आगे नहीं जा पा रहे ं
क्योंकि किताब एक कैद की तरह हो गयी है
कोई दूसरी मिल जाये तो
शायद वह उससे निकल पायें
पर वह भी एक दूसरी कैद होगी
जिसमें वह फिर बंद हो जायें
संभव है उसी में लिखा पढ़कर सभी को सुनायें
अपनी सोच बंद है आलस्य के पिंजरे में कैद
दूसरों के ख्याल पर जली मोमबत्तियों पर
पढ़ने वाले कैदी रौशनी पा रहे हैं
आजादी के गीत गा रहे हैं
पुरानी कहानियों के दायरों से बाहर
कौन बाहर आयेगा
शब्दों का पहरेदार फिर
उनको अंदर भगायेगा
शहीदों के समाधि पर लगाकर
हर वर्ष मेले
नयी सूरतें अपना मूंह छिपा रहीं हैं
किताब में लिखी शब्दों की पंक्तियों
उनके पांव बेड़ी की तरह तरह नजर आ रही हैं
…………………………………………………….
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जुबान अंदाज हालातों का नहीं करती-हिंदी शायरी


सपने सजाता है
उनको बिखरता देख
टूट जाता है मन
कहीं लगाने के लिये ढूंढो जगह
वहीं शोर बच जाता है
जैसे जल रहा हो चमन

भला आस्तीन में सांप कहां पलते हैं
इंसानों करते हैं धोखा
नाम लेकर का खुद ही जलते हैं
क्या दोष दें आग को
जब अपने चिराग से घर जलते हैं
वही सिर पर चढ़ आता है
जिसे करो पहले नमन
जब बोलने को मचलती है जुबान
हालातों अंदाज का नहीं करती
चंद प्यार भरे अल्फाज भी
नहीं दिला पाते वह कामयाबी
जो खामोशी दिला देती है
सपनों में जीना अच्छा लगता है
पर हकीकत वैसी नहीं होती अमूनन
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क्योंकि कोई किसी का नहीं हुआ-हिंदी शायरी


हमने देखा था उगता सूरज
उन्होने देखा डूबता हुआ
वह कर रहे थे चंद्रमा की रौशनी में
जश्न मनाने की तैयारी
पर हमने बिताया था पूरा दिन
सूरज की तपती किरणों में
अपने पसीने में नहाते
हमारा मन भी था डूबा हुआ

वह आसमान में टिमटिमाते तारों की
बात करते रहे
उनकी रात
खुशियों की कहानी कह रही थी
जबकि हमारे बदन से पसीने की
बदबू बह रही थी
सबकी जमीन और आसमान
अलग-अलग होते हैं
किसी को रात डराती है तो किसी को दिन
किसी को भूख नहीं लगती किसी को सताती है
इसलिए सब होते हैं अकेले
क्योंकि कोई किसी का नहीं हुआ
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चमन की बागडोर है जिसके हाथ वही दुश्मन हो जाता-हिंदी शायरी


लुट जाने का खतरा अब
गैरो से नहीं सताता
अपनों को ही यह काम
अच्छी तरह अब करना आता

पहरेदारी अपने घर की किसे सौेपे
यकीन किसी पर नहीं आता
जहां भी देखा है लुटते हुए लोगों को
अपनों का हाथ नजर आता
कई बाग उजड़ गये हैं
माली के हाथों जब
जोअब फूल नहीं लगाता
इंतजार रहता है उसे
कोई आकर लगा जाये पेड़ तो
वह उसे बेच आये बाजार में
इस तरह अपना घर सजाता
नाम के लिये करते हैं मोहब्बत
बेईमानी से उनकी है सोहबत
जमाने के भलाई का लगाते जो लोग नारा
लूट में उनको ही मजा आता
कहें महाकवि दीपक बापू
मन में है उथलपुथल तो
अमन कहां से आयेगा यहां
जिनके हाथ में बागडोर होती चमन की
किसी और से क्या खतरा होगा
वही उसका दुश्मन हो जाता

…………………………….

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कौन करे सच का इजहार-हिंदी शायरी


आँख के अंधे अगर हाथी को
पकड कर उसके अंगों को
अंगों का देखें अपनी अंतदृष्टि से
अपनी बुद्धि के अनुसार
करें उसके अंगों का बयान
कुछ का कुछ कर लें
तो चल भी सकता है
पर अगर अक्ल के अंधे
रबड़ के हाथी को पकड़ कर
असल समझने लगें तो
कैसे हजम हो सकता है

कभी सोचा भी नहीं था कि
नकल इतना असल हो जायेगा
आदमी की अक्ल पर
विज्ञापन का राज हो जायेगा
हीरा तो हो जायेगा नजरों से दूर
पत्थर उसके भाव में बिकता नजर आएगा
कौन कहता है कि
झूठ से सच हमेशा जीत सकता है
छिपा हो परदे में तो ठीक
यहाँ तो भीड़ भरे बाजार में
सच तन्हाँ लगता है
इस रंग-बिरंगी दुनिया का हर रंग भी
नकली हो गया है
काले रंग से भी काला हो गया सौदागरों का मन
अपनी खुली आंखों से देखने से
कतराता आदमी उनके
चश्में से दुनियां देखने लगता है
………………………………………………..

आंखें से देखता है दृश्य आदमी
पर हर शय की पहचान के लिये
होता है उसे किसी के इशारे का इंतजार
अक्ल पर परदा किसी एक पर पड़ा हो तो
कोई गम नहीं होता
यहां तो जमाना ही गूंगा हो गया लगता है
सच कौन बताये और करे इजहार

…………………………………………………………

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नहीं मिलते उनकी करतूतों के निशान-हिंदी शायरी


कई किताबें पढ़कर बेचते है ज्ञान
अपने व्यापार को नाम देते अभियान
चार दिशाओं के चौराहे पर खड़े होकर
देते हैं हांका
समाज की भीड़ भागती है भेड़ों की तरह
नाम लेते हैं शांति का
पहले कराते हैं सिद्धांतों के नाम पर झगड़ा
बह जाता है खून सड़कों पर
उनका नहीं होता बाल बांका
कोई तनाव से कट जाता
कोई गोली से उड़ जाता
पर किसी ने उनके घर में नहीं झांका
कहीं नहीं मिलते उनकी करतूतों के निशान
…………………………………………….

हमें मंजिल का पता बताकर
खुद वह जंगल में अटके हैं
कहने वाले सच कह गये
जो सबको बताते हैं
नदिया के पार जाने का रास्ता
वह स्वयं कभी पार नहीं हुए हैं
कहैं महाकवि दीपक बापू
उन्मुक्त भाव से जीते हैं जो लोग
मुक्त कहां हो पाते हैं स्वयं
दुनियां भर के झंझट उनके मन के बाहर लटके हैं
………………………………………….

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तब तक अधूरा है अभिव्यक्ति का सृजन-हिंदी शायरी


जो सरल और सहज हैं
जिन के दिल में हैं नेकनीयति
करते हैं वही रचना का सृजन
जिन पर खुद की ख्वाहिशों और
अरमानों को पूरा करने का बोझ है
समाज में तनाव का करते हैं वही विसर्जन

दूसरे के दर्द को अपने दिल की
आंखों से देखकर जो करते हैं विचार
सृजक वही बन पाते हैं
जो सतह पर तैरते हुए केवल
दिखाने के लिए बनते हैं हमदर्द
वह तो शब्द के सौदागर हैं
बेच लें बाजार में ढेर सारी रचनाएं
पर फिर भी सृजक नहीं कहलाते हैं
प्रसिद्धि और प्रशंसा के ढेर सारे शब्द
अपने खजाने में जमा करते लेते
पर सृजन की उपाधि का नहीं कर पाते अर्जन

कहने से कोई सृजक नहीं हो जाता
चंद शब्द लिखने से कोई सृजन नहीं हो पाता
आखों से पढ़कर
कानों से सुनकर
हाथों से स्पर्श कर
जब तक अपनी अनुभूतियों को
दिल में डुबोया न जाए
तब तक रस और श्रृंगार के बिना
अधूरा है अभिव्यक्ति का सृजन
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भिखारी से साक्षात्कार-लघुकथा (intervew with bagger-hindi laghu kahani)


            वह लेखक मंदिर के अंदर गया और वहां से बाहर लौटा तो गेहूंआ कुर्ता और सफेद धोती पहले और माथे पर लाल तिलक लगाये एक भिखारी ने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया और बोला-‘बाबूजी जरा चाय के लिये दो रुपये दे दो।’
लेखक ने मंदिर के अंदर करते हुए देखा था कि कोई दानी व्यक्ति भिखारियों के बीच खाने का सामान बांट रहा था और उसे लेकर वही भिखारी भी खा रहा था।
          लेखक ने उसे घूर कर देखा तो वह बोला-‘‘आज खाना तो मिला नहीं। अब चाय पीकर ही काम चलाऊंगा।”

         वह हाथ फैलाये उसके सामने खड़ा होकर झूठ बोल रहा था। लेखक ने उससे कहा-“मैं तुम्हें दस रुपये दूंगा, पर इससे पहले तुम्हं साक्षात्कार देना होगा। आओ मेरे साथ!”

         थोड़ी दूर जाकर उस लेखक ने उससे पूछा-“तुम्हारे घर में क्या तुम अकेले हो?”

          भिखारी-“नही! मुझे दो लड़के हैं और दो लडकियां हैं। सबका ब्याह हो गया है?”

           लेखक-“फिर तुम भीख क्यों मांगते हो? क्या तुम्हारे लड़के कमाते नहीं हैं या फिर तुम्हें पालनेको तैयार नहीं है?।”

           भिखारी-“बहुत अच्छा कमाते हैं, पर आजकल बाप को कौन पूछता है? वैसे वह मेरे को घर पर मेरे को सूखी रोटी देते हैं क्योंकि उनको लगता है कि मैं बीमार न हो जाऊँ। मैं चिकनी चुपड़ी और माल खाने वाला आदमी हूं,इसलिए भीख मांगकर मजे ही करता हूँ।”

        लेखक-“इस उमर में वैसे भी कम चिकनाई खाना चाहिए। गरिष्ठ भोजन नहीं करने से अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं। डाक्टर लोग यही कहते हैं।”

         भिखारी-“यह काड़ा तो वह तो सेठों के लिये कहते हैं जो सारा दिन एक जगह बैठे रहते हैं। हम भिखारियों के लिये नहीं जो सारा दिन यहाँ से वहाँ चलते रहते हैं।”

         लेखक-“मंदिर में अंदर जाते हो।”

भिखारी-“मंदिर के अंदर हमें आने भी नहीं देते और न हम जाते। हम तो बाहर भक्तों के दर्शन ही कर लेते हैं। भगवान ने कहा भी है कि मेरे से बड़े तो मेरे भक्त हैं। भक्तों का दान हमारे लिए भगवान का प्रसाद है भले ही लोग इसे भीख कहते हैं।”

    लेखक-“रहते कहां हो?”

       भिखारी-“एक दयालू सज्जन ने हम भिखारियों के लिये एक मकान किराये पर ले रखा है। उसमें वही किराया भरता है।”

        लेखक-“तुम्हारे लड़के तुम्हें अपने घर नहीं रखते या तुम उनके साथ रहना नहीं चाहते?”

यह लघुकथा इस ब्लाग दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका पर मूल रूप से प्रकाशित है। इसके प्रकाशन के लिये अन्य कहीं अनुमति प्रदान नहीं की गयी है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

         भिखारी-“वह तो मिन्नतें करते हैं पर इसलिए नहीं कि मुझसे  कोई उनको प्रेम करते हैं बल्कि इसलिए कि उनको मारे भीख मांगने से इज्ज़त खराब होती दिखती है इसलिए अपने यहाँ रहने के लिए कहते हैं।   वहां कौन उनकी चिकचिक सुनेगा इसलिए भीख मांगना अच्छा लगता है।  मैं तो बचपन से ही आजाद रहने वाला आदमी हूं। पूरी ज़िंदगी भीख के सहारे गुजर दी, अब क्या पवाह करना? वह बच्चा मुझे  क्या खिलायेंगे मैंने ही अपनी भीख से उनको बड़ा किया है।  मैंने खाने के मामले में बाप की परवाह नहीं की। वह भी सूखी खिलाता था पर बाहर मुझे भीख मांगने पर जो खाने का मिलता था वह बहुत अच्छा होता था।”

         लेखक-“बचपन से भीख मांग रहे हो। बच्चों की शादी भी भीख मांगते हुए करवाई होगी?”

        भिखारी-“नहीं! पहले तो मेरा बाप ही मेरे परिवार को पालता रहा। उसने मेरी  बीबी  को किराने  कि दुकान खुलवा दी कुछ दिन उससे काम चला  फिर बच्चे थोड़े बड़े हो गये तो नौकरी कर वही काम चलाते रहे। मैं अपनी बीबी के लिये ही कुछ सामान घर ले जाता हूं। वह बच्चों के पास ही रहती है। आजकल की औलादें ऐसी हैं उसकी बिल्कुल इज्जत नहीं करतीं। मैं सहन नहीं कर सकता।’

       लेखक-तुम्हें भीख मांगते हुए शर्म नहीं आती।’

         भिखारी ने कहा-‘जिसने की शर्म उसकी फूटे कर्म।’

        लेखक उसको घूर कर देख रहा था! अचानक उसने पीछे से आवाज आई-‘बाबूजी, इससे क्या बहस कर रहे हो। भीख मांगना एक आदत है जिसे लग जाये तो फिर नहीं छूटती। कोई मजबूरी में भीख नहीं मांगता। जुबान का चस्का ही भिखारी बना देता है।’

       लेखक ने देखा कि थोड़ी दूर ही एक बुढ़िया  भिखारिन पुरानी चादर बिछाये बैठी थी। उसके पास एक लाठी रखी थी और सामने एक कटोरी । उसके पास रखी पन्नी में कुछ खाने का सामान रखा हुआ था जो शायद दानी भक्त दे गये थे और वह अभी खा नहीं रही थी।

         लेखक ने उस भिखारी को दस रुपये दिये और फिर जाने लगा तो वह भिखारिन बोली-‘बाबूजी! कुछ हमको भी दे जाओ। भगवान के नाम पर हमें भी कुछ दे जाओ।’

          लेखक ने पांच रुपये उसके हाथ में दे दिये और अपने होठों में बुदबुदाने लगा-‘भीख मांगना मजबूरी नहीं आदत होती हैं।

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
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मौसम अच्छा हो तो घर पर ही मन जाती है पिकनिक -व्यंग्य


अपने जीवन में मैं अनेक बार पिकनिक गया हूं पर कहीं से भी प्रसन्न मन के साथ नहीं लौटा। वजह यह कि बरसात का मौसम चाहे कितना भी सुहाना क्यों न हो अगर दोपहर में पानी नहीं बरस रहा तो विकट गर्मी और उमस अच्छे खासे आदमी को बीमार बना देती है।
वैसे अधिकतर पिकनिक के कार्यक्रम पूर्वनिर्धारित होते हैं और उनको उस समय बनाया जाता है जब बरसात हो रही होती है। जिस दिन पिकनिक होती है पता लगा कि बरसात ने मूंह फेर लिया और सूर्य नारायण भी धरती के लालों को पिकनिक बनाते हुए देखने के लिये विराट रूप में प्रकट हो जाते हैं। वह कितने भी स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखें पर उनका स्परूप दोपहर में विकट होता है। ऐसे में पसीने से तरबतर होते हुए जबरन खुश होने का प्रयास करना बहुत कठिन होता है।

आखिर मैं क्यों इन पिकनिकों पर क्या जाता हूं? होता यह है कि कई लोग तो ऐसे हैं जो वर्ष में एक बार इस बहाने मिल जाते हैं। दूसरा यह कि कई संगठनों और समूहों में मै। इस तरह सदस्य हूं कि हमारा पिकनिक का पैसा स्वतः ही जमा हो जाता है और भरना हो हमें होता ही है। सो चले जाते हैं
अब उस दिन भाई लोग भी जबरन पिकनिक मनाते हैं। वहां साथी और मित्र नहायेंगें, शराब पियेंगे और कभी कभार जुआ खेलेंगे। कहते यही हैं कि ‘ऐसे ही एंजोय(यही शब्द उपयोग वह करते हैं) किया जाता है।’
नाश्ता और खाना होता है। नाश्ता दोपहर में तो भोजन शाम को होता है। हम तो बातचीत करते हैं पर लगता है कि ऐसी जगहों पर शराब और नहाने से परहेज होने के कारण हम अकेले पड़ जाते हैं और फिर वहां अपने जैसे ही लोगों के साथ बतियाते हैं। खाना खाकर शाम को घर लौटते हैं तो ऐसा लगता है कि स्वर्ग में लौट कर आये। आखिर अपने आपसे ही पूछते हैं कि‘ फिर हम पिकनिक मनाने गये ही क्यों थे?’

एक बार नहीं कई बार ऐसा हुआ हैं। इन्हीं दिनों में कई लोगों के जलाशयों में डूब जाने के समाचार आते हैं और कहीं कहीं तो चार-चार लोगों के समूह जलसमाधि ले लेते हैं और फिर उनके परिवारों का विलाप कष्टकारक होता ही। अभी तक मैं जिन पिकनिक में गया हूं वहां कहीं ऐसा हादसा नहीं हुआ पर अपने चार मित्रों की ऐसी ही हृदय विदारक घटना में जान जा चुकी है। उनको याद कर मन में खिन्नता का भाव आ जाता है।

यह मौसम पिकनिक का मुझे कतई नहीं लगता पर लोग बरसात होते ही जलाशयों की तरफ देखना शूरू कर देते हैं। अक्सर सोचता हूं कि यह पिकनिक की परंपरा शूरू हुई कैसे? अगर हम अपने पुराने विद्वानों की बात माने तो उन्होंने इस मौसम में अपने मूल स्थान से की अन्यत्र जाना निषिद्ध माना है। इस नियम का पालन सामान्य आदमी ही नहीं बल्कि राजा, महाराजा और साधू संत तक करते थे। व्यापारी दूर देश में व्यापार, राजा किसी दूसरे देश पर आक्रमण और साधु संत कहीं धर्मप्रचार के लिये नहीं जाते थे। कहते हैं कि उस समय सड़कें नहीं थी इसलिये ऐसा किया जाता था पर मुझे लगता है कि यह अकेला कारण नहीं था जिसकी वजह से पारगमन को निषिद्ध किया गया।

इस समय आदमी मनस्थिति भी बहुत खराब होती है और सड़क कितनी भी साफ सुथरी हो उमस के माहौल में एक अजीबोगरीब बैचेनी शरीर में रहती है। बहुत पहले एक बार एक पिकनिक में मुझे एक दोस्त ने एक पैग शराब पीने को प्रेरित किया तो मैंने सोचा चलो लेते हैं। उस दिन मैंे नहाने की जलाशय में उतरा। मुझे तो बिल्कुल मजा नहीं आया। जब बाहर निकला तो तुरंत पसीना निकलने लगा। घर लौटते हुए ऐसा लग रहा था कि बीमार हो गया हूं।
जलाशयों में उतरने पर एक तो ऊपर की गर्मी और फिर पानी के थपेड़े किसी भी स्वस्थ आदमी को विचलित कर सकते हैं यह मेरा अनुभव है पर लोगों में अति आत्मविश्वास होता है और फिर कुछ लोगों को इसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है।
आजकल बरसात जमकर हो रही है तो शायद कई लोगों को ऐसा नहीं लगता होगा पर अगर ठंडी हवाओं का आनंद तो कहीं भी लिया जा सकता है। उस दिन सुबह मैं योग साधना कर रहा था तो कड़े आसनो के बाद भी मुझे पसीना नहीं आया तब मुझे आभास हुआ कि मौसम अच्छा है। प्राणायम करते हुए नाक के द्वारा अंदर जाती शीतल हवा ऐसा सुखद आभास देती थी कि उसके भाव को व्यक्त करने के लिये मेरे पास शब्द ही नहीं है। वैसे भी योगसाधना के समय मौसम के अच्छे बुरे होने की तरफ मेरा ध्यान कम ही जाता है।

वहां से निवृत होकर मैं नहाया और फिर अपने नियमित अध्यात्मिक कार्यक्रम के बाद मैंने चाय पी। उस समय घर में बिजली नहीं थी। इसलिये मैं बाहर निकला। बाहर आते ही मैंने देखा कि आसमान में बादल थे और शीतल हवा बह रही थी। उस सुखद अनुभूति से मेरा मन खिल उठाा और शरीर में एक प्रसन्नता के भाव का संचार हुआ। तब मैं सोच रहा था कि ‘क्या पिकनिक के लिये इससे कोई बढि़या जगह हो सकती है।’
मैने साइकिल उठाई और अपने घर से थोड़ी देर एक मंदिर में पहुंच कर ध्यान लगाने लगा। मंदिर के आसपास पेड़ और पौघों की हरियाली और शीतल पवन का जो अहसास हुआ तो मुझे नहीं लगा कि कभी किसी पिकनिक में ऐसा हुआ होगा। उसी दिन एक मित्र का फोन आया कि‘पिकनिक चलोगे?’
उसने पांच दिन आगे की तारीख बताई तो मैंने उससे कहा-‘अगर मौसम अच्छा रहा तो मेरे आसपास अनेक पिकनिक मनाने वाली जगह हंै वहीं जाकर मना लूंगा और अगर उस दिन खराब रहा तो कहीं भी सुखद अहसास नहीं हो सकता। इसलिये मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकता।’

हमारे अनेक कवियों ने वर्षा पर श्रृंगाार रस से भरपूर रचनाएं कीं पर किसी ने पिकनिक का बखान नहीं किया। सच भी है कि अगर ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ ऐसे ही नहीं कहा जाता। ऐसी पिकनिक मनाने से क्या फायदा जो बाद में मानसिक संताप में बदलती हो। घर आकर यह सोचते हों कि‘आज का समय व्यर्थ ही गंवाया’।

गीत संगीत की महफिल की बजाय महायुद्ध सजाते-हास्य कविता


गीत और संगीत से
दिल मिल जाते हैं पर
अब तो उसकी परख के लिये
प्रतियोगितायें को अब वह
महायुद्ध कहकर जमकर प्रचार कराते
वाद्ययंत्र हथियारों की तरह सजाये जाते
जिन सुरों से खिलना चाहिये मन
उससे हमले कराये जाते
मद्धिम संगीत और गीत से
तन्मय होने की चाहत है जिनके ख्याल में
उन पर शोर के बादल बरसाये जाते

कहें महाकवि दीपक बापू
‘अब गीत और संगीत
में लयताल कहां ढूंढे
बाजार में तो ताल ठोंककर बजाये जाते
महफिलें तो बस नाम है
श्रोता तो वहां भाड़े के सैनिक की
तरह सजाये जाते
जो हर लय पर तालियों का शोर मचाते
देखने वाले भी कान बंद कर
आंखों से देखने की बजाय
उससे लेते हैं सुनने का काम
गायकों को सैनिक की तरह लड़ते देख
फिल्म का आनंद उठाये जाते
किसे समझायें कि
भक्ति हो या संगीत
एकांत में ही देते हैं आनंद
शोर में तो अपने लिये ही
जुटाते हैं तनाव
जिनसे बचने के लिये संगीत का जन्म हुआ
क्या उठाओगे गीत और संगीत का आंनद
जैसे हम उठाते
लगाकर रेडियो पर विविध भारती पर
अपनी अंतर्जाल की पत्रिका पर लिखते जाते
यारों, संगीत सुनने की शय है देखने की नहीं
गीत वह जिसके शब्द दिल को भाते हैं
सुरों के महायुद्ध में जीत हार होते ही
सब कुछ खत्म हो जाता है
पर तन्हाई में लेते जब आनंद तब
वह दिल में बस जाते
बाजार में दिल के मजे नहीं बिकते
अकेले में ही उसके सुर पैदा किये जाते
……………………………

दीपक भारतदीप

चिंतन शिविर-हास्य कविता


अपने संगठन का चिंतन शिविर
उन्होंने किसी मैदान की बजाय
अब एक होटल में लगाया
जहां सभी ने मिलकर
अपना समय अपने संगठन के लिये
धन जुटाने की योजनायें बनाने में बिताया
खत्म होने पर एक समाज को सुधारने का
एक आदर्श बयान आया
तब एक सदस्य ने कहा
-‘कितना आराम है यहां
खुले में बैठकर
खाली पीली सिद्धांतों की बात करनी पड़ती थी
कभी सर्दी तो गर्मी हमला करती थी
यहां केवल मतलब की बात पर विचार हुआ
सिर्फ अपने बारे में चिंतन कर समय बिताया’
……………………………

दीपक भारतदीप

हर रोज जंग का माडल, हर समय होता-व्यंग्य कविता


हर इंसान के दिल की पसंद अमन है
पर दुनियां के सौदागरों के लिये
इंसान भी एक शय होता
जिसके जज्बातों पर कब्जा
होने पर ही सौदा कोई तय होता
बिकता है इंसान तभी बाजार में
जब उसके ख्याल दफन होते
अपने ही दिमाग की मजार में
जब खुश होता तो भला कौन किसको पूछता
सब होते ताकतवर तो कौन किसको लूटता
ढूंढता है आदमी तभी कोई सहारा
जब उसके दिल में कभी भय होता
उसके जज्बातों पर कब्जो करने का यही समय होता

चाहते हैं अपने लिये सभी अमन
पर जंग देखकर मन बहलाते हैं
इसलिये ही सौदागर रोज
किसी भी नाम पर जंग का नया माडल
बेचने बाजार आते हैं
खौफ में आदमी हो जाये उनके साथ
कर दे जिंदगी का सौदा उनके हाथ
सब जगह खुशहाली होती
तो सौदागरों की बदहाली होती
इसलिये जंग बेचने के लिये बाजार में
हमेशा खौफ का समय होता

बंद कर दो जंग पर बहलना
शुरू कर दो अमन की पगडंडी पर टहलना
मत देखो उनके जंग के माडलों की तरफ
वह भी बाकी चीजों की तरह
पुराने हो जायेंगे
नहीं तो तमाम तरह की सोचों के नाम पर
रोज चले आयेंगे
पर ऐसा सभी नहीं कर सकते
आदमी में हर आदमी से बड़े बनने की ख्वाहिश
जो कभी उसे जंग से दूर नहीं रहने देगी
क्योंकि उसे हमेशा अपने छोटे होने का भय होता
सदियां गुजर गयी, जंगों के इतिहास लिखे गये
अमन का वास्ता देने वाले हाशिये पर दिखे गये
इसलिये यहां हर रोज जंग का माडल हर समय होता
………………………………..

ख्याल तो हैं जलचर की तरह-हिंदी शायरी



मन का समंदर है गहरा
जहां ख्याल तैरते हैं जलचर की तरह
कुछ मछलियां सुंदर लगती हैं
कुछ लगते हैं खौफनाक मगरमच्छ की तरह

देखने का अपना अपना नजरिया है
मोहब्बत हर शय को खूबसूरत बना देती है
नफरत से फूल भी चुभते हैं कांटे की तरह
इस चमन में बहती है कभी ठंडी तो कभी गर्म हवा
मन जैसा चाहे नाचे या चीखे
नहीं उसके दर्द की दवा
न एक जगह ठहरते
न एक जैसा रूप धरते
ख्याल तो हैं बहते जलचर की तरह
…………………………..

दीपक भारतदीप

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पाठ का इतना हिट होना मेरे लिये विस्मय का विषय-आलेख


मुझे विस्मय इस बात का है कि कबीरदास जी के मात्र दोहे और उनका अनुवाद प्रस्तुत करने वाले उस पाठ पर पाठकों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। कल उस पर चालीस व्यूज थे। मैंने पाठकों के आने का मार्ग देखा तो पाया कि गूगल के अनुवाद टूल पर अंग्रेजी में पढ़ी गयी थी। दोहे उसमें सही नहीं आ रहे थे। यह पाठ मात्र चार दिनों में ही ढाई सौ से अधिक व्यूज जुटा चुका है।

मैंने कबीरदास के इतने दोहे अनुवाद कर प्रकाशित किये कुछ पर अपनी सीमित बुद्धि से व्याख्याएं लिखी हैं कि उनकी संख्या का अनुमान मुझे भी नहीं है। यह पाठ मैंने उन दिनों लिखा था जब मैं यूनिकोड में रोमन लिपि में लिखता था और इस कारण सुबह अपनी व्याख्या लिखने का मेरे पास समय नहीं होता था। इस बात का उल्लेख करना ठीक रहेगा कि आजकल इस ब्लाग/पत्रिका पर मैं सामान्य आलेख और कवितायें ही लिखता हूं पर यह पाठ जिस तरह पढ़ा जा रहा है उससे मुझे हैरानी है। एक ने तो नारे में रूप में लिखा है कि हम तो कबीर के दोहे पढ़ना चाहते हैं। हालत यह है कि मेरे नये पाठ जितने व्यूज जुटाते हैं उससे तीन गुना तो यही पाठक जुटा रहा है।

लगता है कि कहीं हिंदी अंग्रेजी टूल के प्रयोग के लिये इसका चयन तो नहीं किया गया कि जिससे सभी प्रकार के दोहे भी अंग्रेजी में अनुवाद हो सकें और इसे देखा जा रहा हो। वैसे इस बीच मुझे यह लग रहा है कि शायद हिंदी अंग्रेजी टूल हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद करने में थोड़ा सुधार लिया गया है। आजकल वर्डप्रेस के शीर्षक में अंग्रेजी टूल से अनुवाद कर देखता हूं तो ठीकठाक दिखते हैं। मैंने एक अंग्रेजी के जानकार से इसकी पुष्टि भी करवाई थी। हां, अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद ठीक नहीं लगा रहा पर एक बार अगर हिंदी अनुवाद देखकर अंग्रेजी को पढ़ा जाये तो समझने में सुविधा तो होती है।
जिस पाठ की मैं चर्चा कर रहा हूं एक सामान्य पाठ है और कबीरदास जी के दोहों से तो मेरे अनेक ब्लाग भरे पड़े हैं। ऐसे में इस पाठ के लिये इतना आकर्षण क्यों दिखाई दे रहा है? हालांकि यह दोनों दोहे जीवन के रहस्य को समेटे हुए हैं पर कबीरदास जी के तो अनेक दोहे इसी प्रकार के हैं। कभी कभी तो लगता है कि अब मुझे अन्य कुछ लिखने की आवश्यकता ही नहीं या दोहे ही शायद मुझे वह ख्याति दिलवा देंगे जिसकी कल्पना मैंने नहीं की है। हालांकि यह मजाक लगता है पर जिस तरह यह पाठ पढ़ा जा रहा है उससे देखकर कोई भी यह कह सकता है। यह क्रम चल रहा है देखना है कब तक चलता है और इसका रहस्य क्या है? यह मेरे लिये दिलचस्पी का विषय बना हुआ है। यह पाठ अभी तक 1115 बार पढ़ा जा चुका है

इंसान कभी चिराग नहीं हो सकते-हिन्दी शायरी


यूं तो चमकता चाँद देखकर
अपना दिल बहला लेते
पर जब आकाश में नहीं दिखता वह
छोटा चिराग जला लेते हैं
जिन्दगी में अपने
रौशनी के लिए क्यों
किसी एक के आसरे रहें
इसलिए कई इंतजाम कर लेते हैं
इंसानों का भी क्या भरोसा
उजियाले में करते हैं
हमेशा साथ निभाने का
अँधेरा ही होते मुहँ फेर लेते हैं
—————————————
मांगी थी उनसे कुछ पल के लिए रौशनी उधार
उन्होंने अपना चिराग ही बुझा दिया
हमारा रौशनी में रहना
उनको कबूल नहीं था
अँधेरे को अपने पास इसलिए बुला लिया
इंसान कभी चिराग नहीं हो सकते यह बता दिया
————————
दीपक भारतदीप

बेजान चीजों की नीलामी, जिंदगी की नीलामी नहीं होती-हास्य कविता


आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू तुम्हारे हिट होने का
एक नुस्खा लाया हूं
सफलता बतलाने वाले डाक्टर से
सलाह कर आया हूंं
लोग कर रहे हैं अंतर्जाल पर
अपनी जिंदगी नीलाम
बेच रहे अपनी संपत्ति
तुम भी अपने ब्लाग के साथ
यही करो अनोखा काम
एक बार लोगों से टेंडर (निविदा) मंगवा लो
अपने ब्लाग की बोली लगवा लो
जब हो जायेंगे सब नीलाम
हो जायेगा तुम्हारा भी नाम
लोग अपनी संपत्ति बेचकर
हवा में उड़ जाने का प्लान बना रहे हैं
तुम तो वैसे ही रहते हो हवा में
कोई छद्म नाम से ब्लाग बना लेना
नहीं बिकते तो कोई बात नहीं
हो जाओगे तुम भी हिट
जब पढ़ेंगे सब तुम्हारा नाम
यह सोच विचार कर प्रस्ताव लाया हूं’

कंप्यूटर पर टंकित करने से
हाथ रोकते हुए
अपनी टोपी को सिर पर ढोते हुए
पलट कर गुस्से में लालपीले होकर देखा
फिर बोले महाकवि दीपक बापू
‘कम्बख्त तुम्हारी हर बात
हमारे ब्लाग पर ही क्यों चली आती है
हम लिखते और पढ़ते हैं
पर तुम्हारी नजर कभी नहीं जाती है
होना चाहिए पागल हमें पर
तुम होते नजर आ रहे हो
जिंदगी की नीलामी तो आसान है
उसमें मकान, फ्रिज, ऐसी, कार और
शानौशौकत का सामान है
भला कोई जिंदा चीज थोड़े ही उसमें शामिल है
लोग आजकल इसी को ही जिंदगी कहते हैं
इसलिये ही इनकी नीलामी को
जिंदगी की नीलामी कहते हैं
ब्लाग में बसते हैं हमारे जिंदा जज्बात
जब चाहे लिखते हैं दिन हो या रात
अंग्रेजी का होता तो सोचते
हिंदी ब्लाग तो
लोग अभी देखना भी पंसद नहीं करते
अंग्रेजी पढ़ने में न आये तो
फोटो देखकर काम चला लेंगे
जिंदगी का सच हिंदी में पढ़ने से लोग डरते
अगर होते भी हैं ब्लाग नीलाम तो समझो
कोई छद्म ताकत कर रही है काम
इसलिये इतना चिंतित न हो
फ्लाप होकर भी हम विचलित नहीं
तुम क्यों डरते हो
ब्लाग कोई जिंदगी नहीं है
भले ही उसके जज्बात हम इसमें लिखते हैं
कभी गंभीर तो कभी हंसते दिखते हैं
नीलामी पर हिट लेकर क्या करेंगे
फ्लाप होकर कुछ तो लिख लेते हैं
बेजान चीजों को जिंदगी मानने वाले लोगों में
जिंदादिल होकर लिखना ही ठीक है
कम से कम फ्लाप होने पर कोई सवाल तो
नहीं उठाता
मैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुंच पाया हूं
…………………………
दीपक भारतदीप

अकेले होने के गम में इसलिये रोते रहे-कविता


भीड़ में हमेशा खोते रहे
अपने से न मिलने के गम में रोते रहे
नहीं ढूंढा अपने को अंदर
आदमी होकर भी रहा बंदर
लोगों के शोर को सुनकर ही बहलाया दिल
अपनी अक्ल की आंख बंद कर सोते रहे

जमाने भर का बेजान सामान
जुटाते हुए सभी पल गंवा दिये
दिल का चैन फिर नहीं मिला
जो आज आया था घर में
उसी से ही कल हो गया गिला
उठाये रहे अपने ऊपर भ्रम का बोझ
सच समझ कर उसे ढोते रहे
कब आराम मिले इस पर रोते रहे
झांका नहीं अपने अंदर
मिले नहीं अपने अंदर बैठे शख्स से
अकेले होने के गम में इसलिये रोते रहे
………………………….
दीपक भारतदीप

कभी कभी आंखों में आंसू आ जाते हैं-हिन्दी शायरी


अपने दर्द से भला कहां
हमारे आंखों में आसू आते हैं
दूसरों के दर्द से ही जलता है मन
उसी में सब सूख जाते हैं

अगर दर्द अपना हो तो
बदन का जर्रा जरौ
जंग में लड् जाता है
तब भला आंखों से आंसु बहाने का
ख्याल भी कब आता है
जो बहते भी हैं आंखों के कभी तो
वह दूसरों के दर्द का इलाज न कर पाने की
मजबूरी के कारण बह आते हैं

कोई नहीं आया इस पर
कभी रोना नहीं आता
कोई नापसंद शख्स भी आया
तो भी कोई बुरा ख्याल नहीं आता
कोइ वादा कर मुकर गया
इसकी कब की हमने परवाह
हम वादा पूरा नहीं कर पाये
कभी कभी इस पर आंखों से आंसू आ जाते हैं
…………………………….
दीपक भारतदीप

फिर भी तुम बरसते रहना-कविता


सूरज की गर्मी में झुलसते हुए
पानी में नहा गया था बदन
जलती हवाओं में
गर्म मोम की तरह पिघल रहा था मन
चारों तरफ फैला था क्रंदन
ऐसे में जो आये आकाश पर बादल
बिछ गयी पानी की चादर
जैसे स्वर्ग का अनुभव हुआ जमीन पर
लहराने लगा जलती धूप से त्रस्त लोगों का बदन

कहैं महाकवि दीपक बापू
तुम सभी जगह बरसते जाना
जल से जीवन बहाते जाना
किसी के भरोसे मत छोड़ना
इस धरती पर विचरने वाले जीवों को
बड़े बांध बनवाये या तालाब
पर किसी की प्यास बुझाये
यह विचार इंसान नहीं करता
ढूंढता है अपनी चाहत के लिये
सोने, चांदी और संगमरमर के पत्थर जैसे निर्जीवों को
अमीरों के आसरे तो बहुत हैं
एक ढूंढें हजार पानी पिलाने वाले जायेंगे
पर गरीब का आसरा हो तुम बादल
शायद इसलिये कहलाते हो पागल
फिर भी तुम बरसते रहना
नहीं तो हमें रहेगा पानी के लिये तरसते रहना
तुम हो आत्मा इस धरा के
जो है हम सबका बदन
………………..

दीपक भारतदीप

बिना पूछे रास्ता बताने लगे-कविता


लिखे उन्होंने चंद शब्द
और दूसरों को लिखना सिखाने लगे
मुश्किल है कि बिना समझे लिखा था
पर दूसरों में समझ के दीप जलाने लगे

खरीद ली चंद किताबें और रट लिये कुछ शब्द
अब दूसरों को पढ़ाने लगे
खुद कुछ नहीं समझा था अर्थ
दूसरों का जीवन का मार्ग बताने लगे

जो भटके हैं अपने रास्ते
अपने लक्ष्य का पता नहीं
पर चले जा रहे सीना तानकर
सूरज की रोशनी में मशाल वह जलाने लगे
ज्ञानी रहते हैं खामोश
इसलिये अल्पज्ञानी
शब्दों का मायाजाल बनाने लगे

कहें दीपक बापू
समझदार भटक जाता है
तो पूछते पूछते लक्ष्य तक
पहुंच ही जाता है
पर नासमझ भटके तो
पूछने की बजाय रास्ता बताने लग जाता है
अपनी समझदारी दिखाने के लिये
तमाम नाम लेता है रास्तों का
शायद कोई बिना पूछे रास्ता बताने लगे
नहीं भी बताया तो
अपने जैसा ही रास्ता वह भी भटकने लगे
………………………….

hasya kavita-प्यार कोई कारखाने में बनने वाली चीज नहीं है-कविता


मन में प्यास थी प्यार की
एक बूंद भी मिल जाती तो
अमृत पीने जैसा आनंद आता
पर लोग खुद ही तरसे हैं
तो हमें कौन पिलाता

स्वार्थों की वजह से सूख गयी है
लोगों के हृदय में बहने वाली
प्यार की नदी
जज्बातों से परे होती सोच में
मतलब की रेत बसे बीत गईं कई सदी
कहानियों और किस्सों में
प्यार की बहती है काल्पनिक नदी
कई गीत और शायरी कही जातीं
कई नाठकों का मंचन किया जाता
पर जमीन पर प्यार का अस्तित्व नजर नहीं आता

गागर भर कर कभी हमने नहीं चाहा प्यार
एक बूंद प्यार की ख्वाहिश लिये
चलते रहे जीवन पथ पर
पर कहीं मन भर नहीं पाता

जमीन से आकाश भी फतह
कर लिया इंसान
प्यार के लिये लिख दिये कही
कुछ पवित्र और कुछ अपवित्र किताबों
जिनका करते उनको पढ़ने वाले बखान
पर पढ़ने सुनने में सब है मग्न
पर सच्चे प्यार की मूर्ति सभी जगह भग्न
लेकर प्यार का नाम सब झूमते
सूखी आंखों से ढूंढते
पर उनकी प्यास का अंत नजर नहीं आता
प्यार कोई जमीन पर उगने वाली फसल नहीं
कारखाने में बन जाये वह चीज भी नहीं
मन में ख्यालों से बनते हैं प्यार के जज्बात
बना सके तो एक बूंद क्या सागर बन जाता
पर किसी को खुश कोई नहीं कर सकता
इसलिये हर कोई प्यार की एक बूंद के
हर कोई तरसता नजर नहीं आता
………………………………..

तीन क्षणिकाऐं



किसी को खुश देखकर ही
जब मजा आता हो तब
कही तारीफें झूठ में भी
लोग कर जाते हैं
सच से फरेब करने में नहीं सकुचाते हैं
…………………….

सांप से नेवले से पूछा
‘क्या तुम मुझसे दोस्ती करोगे?’
नेवले ने कहा
‘हां, क्यों नहीं
हम दोनों ही जंगली हैं
जंग का मैदान बन चुके
शहर में अपने लिए
कोई जगह बची नहीं
कुछ जगह मालिक अड़े
तो कहीं मजदूर खड़े
दोनों में दोस्ती कभी संभव नहीं
पर हम दोनों में कोई
शोषक या शोषित नहीं
इसलिये खूब जमेगी जब
मिलकर बैठेंगे दो यार
करेंगे एक दूसरे के लिए शिकार
फिर तुमसे क्यों घबड़ाऊंगा
तुम मुझसे क्यों डरोगे‘
………………….

संवेदनहीन हो चुके समाज में
अपनी जिंदगी किसी
दूसरे की दया पर मत छोड़ना
अवसर पाते ही सांप छोड़ दे
पर इंसान नहीं चाहते डसना छोड़ना
……………………..

अपने ददे को बाहर आने दो-कविता


कुछ नहीं कह सकते तो कविता ही कह दो
कुछ नहीं लिख सकते तो कविता ही लिख दो
कुछ पढ़ नहीं सकते तो कविता ही पढ़ लो
कुछ और करने से अच्छा अपने कवित्व का जगा लो
पूजे जाते हैं यहां बैमौसम राग अलापने वाले भी
क्योंकि सुनने वालों को शऊर नहीं होता
कुछ कहना है पर कह नहीं पाते
अपनी अभिव्यक्ति को बाहर लाने में
सकपकाते लोग
अपने दर्द को हटाने शोर की महफिल में चले जाते
जो सुन लिया
उसे समझने का अहसास दिलाने के लिये ही
तालियां जोर-जोर से बजाते
बाहर से हंसते पर
अंदर से रोते दिल ही वापस लाते
तुम ऐसे रास्तों पर जाने से बचना
जहां बेदिल लोग चलते हों
समझ से परे चीजों पर भी
दिखाने के लिए मचलते हों
खड़े होकर भीड़ में देखो
कैसे गूंगे चिल्ला रहे हैं
दृष्टिहीन देखे जा रहे हैं
बहरे गीत सुनते जा रहे है
साबुत आदमी दिखता जरूर है
पर अपने अंगों से काम नहीं ले पाता
सभी लाचारी में वाह-वाह किये जा रहे हैं
सत्य से परे होते लोगों पर
लिखने के लिए बहुत कुछ है
कुछ न लिखो तो कविता ही लिख दो
कोई सुने नहीं
पढ़े नहीं
दाद दे नहीं
इससे बेपरवाह होकर
अपने ददे को बाहर आने दो
और एक कविता लिख दो
……………………………………………….

समीर लाल जी, आपकी कविताएं पढ़ी। अच्छा लगा। मेरे मन में भी कुछ शब्द आये जो कह डाले।
दीपक भारतदीप

बस नजर आता है अपना साया-कविता


धूप में पसीने से नहाते हुए
जब देखता हूं अपना साया
दिल भर आता है
वह जमीन पर गिरा होता है
मैं ढोकर चल रहा हूं आग में अपनी काया
कहीं राह में फूल की खुशबू आती है
मैं देखता हूं सड़क किनारे
कहीं फूलो का पेड़ है
जो बिखेर रहा है सुगंध की माया

रात में चांद की रोशनी में भी मेरे साथ
चलता आ रहा है मेरा साया
मैं उसे देख रहा हूं वह अब भी
जमीन पर गिरा हुआ है
शीतल पवन छू रही मेरे बदन को
पर उठ कर खड़ा नहीं होता मेरा साया
उसे कभी कभी ही देख पाता हूं
अपने ख्यालों में ही गुम हो जाता हूं
खामोश रहता है मेरा साया

कई लोग मिले इस राह पर
बिछड़ गये अपनी मंजिल आते ही
दिल में बसा रहा उनका साया
चंद मुलाकातों में रिश्ता गहरा होता लगा
पर जो बिछड़े तो फिर
उनका चेहरा कभी नजर नहीं आया
तन्हाई में जब खड़ा होकर
इधर-उधर देखता हूं
बस नजर आता है अपना साया
………………………
दीपक भारतदीप

पाठक रूपी सारथि ही बनाता है लेखक महारथी-आलेख


सभी पाठक लेखक हों यह आवश्यक नहीं है पर सभी लेखकों को पाठक अवश्य होना चाहिए। एक लेखक को कभी किसी अन्य की रचना एक लेखक के रूप में नही बल्कि एक पाठके के रूप में पढ़ना चाहिए। एक लेखक में बैठा उसका पाठक ही उसकी रचना रूपी रथ का सारथि हो सकता है। कभी कभी किसी का पाठक ऐसा अमरत्व भी प्राप्त कर लेता है जब वह किसी अन्य लेखक का की रचना को पढ़ने के बाद फिर उसे अपने रचनाकर्म के लिये किसी अन्य की पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं पढ़ती। हमारे धर्मग्रंथ कुछ इसी प्रकार की अमर सामग्री से परिपूर्ण हैं जिनको पढ़ने वाले फिर कोई अन्य पुस्तक या रचना न भी पढ़ें तो भी अच्छे लेखक हो सकते हैं।

पाठक की दृष्टि से पढ़ते हुए हर व्यक्ति विषय सामग्री को पढ़ता है और उसके अंतर्मन में उतार चढ़ाव आते हैं और उनके साथ एक धारणा उसके मस्तिष्क में स्थापित होती है। जो लेखक होते हैं उन धारणाओं के आधार पर अपनी रचनाआंें का सृजन हुए अपनी एक अलग पहचान बनाते हैं। कुछ तो लेखक महानता की श्रेणी में आ जाते हैं। जिस तरह सारथि समरांगण में अपने रथ पर बैठे महाराथी के लिए वहां स्थितियों को देखते हुए रथ का संचालन करता है। समरांगण में सारथि वहां की स्थितियों का अवलोकर संचालन करते हैं कि ‘कहां उसकी युद्ध में किस स्थान पर आवश्यकता है जहां वह अपने महाराथी को ले जाये’, ‘कहां उसके महाराथी के लिए प्रतिकूल स्थितियां है और वहां से वह उसे हटा ले और ‘ कहीं उसका महारथी कहीं युद्ध लडते लड़ते घायल तो नहीं हो गया ताकि उसे वहां से दूर ले जाये।’ ऐसे अनेक निर्णय होते हैं जब सारथि अपने महारथी की रक्षा करने के उद्देश्य से अपने विवेक के अनुसार लेते हैं। महारथी का कार्य केवल युद्ध में अपना ध्यान रणनीतिक कौशल के साथ अपने अस्त्रों शस्त्रों का उपयोग करते हुए युद्ध जीतना होता है। यही स्थिति लेखक के अर्तमन में पाठक की है।

एक लेखक को किसी अन्य लेखक की रचना पढ़ते हुए अपने पाठक को एक सारथि की तरह विचरण करने देना चाहिए। एक पाठक के रूप में ही रचना का प्रभाव को ग्रहण किया जा सकता हैं। अगर किसी अन्य लेखक की कहानी पढ़ें तो उसके पात्रों के साथ जुड़ जायें और किसी की कविता पढ़े तो उसके भावों को सहजता से अंदर जाने दें। कोई आलेख या निबंध पढ़े तो उसकी विषय वस्तु को आत्मसात करना उसके लिए बेहद आवश्यक है।

एक महारथी को आक्रामक होना पड़ता है तभी वह युद्ध जीत सकता है। वैसे ही लेखक को अपनी रचना लिखते समय अपने अंदर आत्मविश्वास स्थापित करना चाहिए कि वह अच्छा लिख रहा है। यह तभी संभव है जब उसके अंदर अपने विचार और विषय सामग्री में प्रति दृढ़ता और प्रतिबद्धता होने के साथ अपना मौलिक भाव होगा। यह तभी संभव है जब उसने उस विषय का गहन अध्ययन किया हो जो कि दूसरे लेखकों की रचनाओं से प्राप्त होता है। यह तभी संभव होता है जब उन रचनाओं को एक पाठक की तरह पढ़ा होगा।

अक

मौसम पर कविता नहीं लिखेंगे-हास्य कविता


आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू, गर्मी में हो रही बरसात
जहां रुलाता पसीना, वहां करती बहार अपनी बात
लिखो कोई जोरदार कविता
बहने लगे श्रृंगार रस की सरिता
शायद तुम्हारे नाम से फ्लाप का लेबल हट जाये
हिट होकर तुम्हारा नाम आकाश पर चमक जाये
कोई कुछ भी कहे तुम करो
अपनी पत्रिका पर मौसम पर कविता की बरसात’

जाने को तैयार खड़े थे
बांध रहे थे धोती
सिर पर रख रहे टोपी
सुनकर पहले देखा फंदेबाज को घूरकर
फिर कहैं दीपक बापू
‘दो दिन पहले गर्मी पर
लिखने को कह रहे थे हास्य कविता
अब प्रवाहित करवाना चाहते हो
श्रृंगार रस की सरिता
बहुत लिख चुके तुम्हारे विषयों पर
नहीं बनी हमारी पत्रिका के हिट होने की बात
मौसम का कोई भरोसा नहीं
सर्दी के मौसम में सुबह लिख रहे थे
कंपाकंपाते हुए उस पर गर्म कविता
दोपहर तक निकलने लगा गर्मी में पसीना
गर्मी में लिखने बैठते हैं शाम को
रात तक पानी बरसता है बनकर नगीना
हवा बंद पर लिखने बैठते हैं तो
आंधी चली आती है
मौसम का कोई भरोसा नहीं
यह अंतर्जाल है मेरे मित्र
सारी दुनियां में एक जैसा मौसम नहीं रहता
कहीं कोई बहार में नहाता
तो कोई धूप में गर्मी में सहता
अब पहले जैसा माहौल नहीं है
जो लिखेंगे यहीं पढ़ा जायेगा
अब तो लिखो अपने शहर में
वह विदेश में भी दिखने में आयेगा
इसलिये समझ में नहीं आती
मौसम पर लिखकर हिट होने की बात
यहां हमेशा ही होने लगी है
बेमौसम गर्मी, सर्दी, और बरसात
हमें नहीं जमी तुम्हारी मौसम पर
हास्य कविता लिखने की बात
…………………………….

दिल बहलाने के लिए देख लो सुंदर तस्वीरें कहीं-कविता


हंसते चेहरे देखकर हंसता हूं
दिल बहलाने के लिये दूसरों की
हंसी भी सहारा बन जाती है
किसी के दर्द पर हंसने वाले बहुत हैं
दूसरों को हंसा दें ऐसी सूरतें
कभी कभी नजर आती हैं
नहीं मिलता तो देख लेता हूं
हंसते हुए लोगों तस्वीरें
दर्द से परे जो ले जातीं हैं
………………………………………………

आंखों से देखने का उम्र से
कभी कोई वास्ता नहीं
अगर बहलता हो मन तस्वीरों से
तो कोई हर्ज नहीं
अपनी उम्र देखकर शर्माने से
भला समय कट पाता है
राह चलते किसी का सौंदर्य देखने पर
अगर घबड़ाते हो तो
देख लो सुंदर तस्वीरें कहीं
…………………………………..

सदियों से धोखा देता आया चांद-कविता


 

आज महक जी  के ब्लाग पर एक फोटो और अच्छी गजल देखी। ऐसे में मेरा कवित्व मन जाग उठा। कुछ पंक्तियां मेरे हृदय में इस तरह आईं-

समंदर किनारे खड़े होकर
चंद्रमा को देखते हुए मत बहक जाना
अपने हृदय का समंदर भी कम गहरा नहीं
उसमें ही डूब कर आनंद उठाओ
वहां  से फिर भी निकल सकते हो
अपनी सोच के दायरे से निकलकर
आगे  चलते-चलते कहीं समंदर में डूब न जाना
अभी कई गीतों और गजलों के फूल
इस इस जहां* में  तुम्हें है महकाना

वहां मैंने “अंतर्जाल” लिखा था पर जहां लिख दिया

कभी कभी अंतर्जाल पर ऐसे पाठ आ जाते हैं जिन पर लिखने का मन करता है। तब वहां लिखने के विचार से जब अपना विंडो खोलता हूं और सहजता पूर्वक जो विचार आते हैं लिखता हूं। मैं हमेशा यही सोचता हूं कि अंतर्जाल पर अब मनोरंजक और ज्ञानवद्र्धक मिल जाता है तब उसके लिये कहीं और हाथ पांव क्यों मारे जायें?

इसी कविता पर एक फिर कुछ और विचार आये

समंदर के किनारे
चमकता चांद पुकारे
ऊपर निहारते हुए
एक कदम उठाए खड़े हो
जैसे तुम उसे पकड़ लोगे
पर अपना दूसरा कदम
तुम आगे मत बढ़ाना
सदियों से धोखा देता आया है चांद
किसी के हाथ नहीं आया
इसने कई प्रेमियों को ललचाया
शायरों को रिझाया
पर कोई उसे छू नहीं पाया
उसकी चमक एक भ्रम है
जो पाता है वह सूर्य से
यह हमारी बात पहले सुनते जाना

महक जी अपने ब्लाग पर कई बार ऐसा पाठ प्रकाशित करतीं है कि मन प्रसन्न हो जाता है। हां, मुझे याद आया एक बार उन्होंने अपने पाठ चोरी होने की शिकायत की थी और मुझे तब बहुत गुस्सा आया और उनके बताये पते जब गया था तो वहां उन्होंने अपनी प्यार भरी टिप्पणी रखी थी जिसमें कहीं गुस्सा नहीं बल्कि स्नेहपूर्ण उलाहना थी। तब लगा कि वह बहुत भावुक होकर लिखतीं हैं। यही कारण है कि उनके लिखे से जहां आनंद प्राप्त होता है वही लिखने की भी प्रेरणा मिलती है।
……………………………………….

 

 

शब्द अपनी दुनियां स्वयं बसाते है-आलेख और कविता


मैने कई ब्लाग पर हाइकु के रूप में कविताएं पढ़ीं, पर मेरे समझ में नही आता था कि वह होता क्या है। आज मीनाक्षी जी  के ब्लाग पर पढ़ा कि उसे त्रिपदम कहा जाता है। हिंदी में इस विधा के बारे में कहीं लिख गया है तो मुझे पता नहीं पर मुझे लगा कि यह एक मुक्त कविता की तरह ही है। शायद इस विधा को अंग्रेजी से लिया गया होगा और मैं इस आधार पर कोई विरोध करने वाला नहीं हूं। मुख्य बात है कि हम अपनी बात कहना चाहते है और उसके लिये हम गद्य या पद्य किसी में भी लिख सकते हैं।

त्रिपदम(हाइकु) पढ़कर मेरे मन में विचार आया कि आज अपने कुछ विचारों को इस विधा में  लिख कर देखें। कभी-कभी मुझे लगता है कि लोग अपने मन की हलचल को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाते या कभी वह कुछ कहना चाहते है पर कुछ और कह जाते है। हमारा मन बहुत गहरा होता है और हम उसमें डुबकी तो सभी लगा लेते हैं पर वहां से कितने मोती उठा पाते हैं यह एक विचार का विषय है। हम कई बार कहते हैं कि अमुक व्यक्ति बहुत गहराई से लिखता या विचार करता है। इसका यह आशय  यह कदापि नहीं हैं कि कि हम ऐसा नहीं कर सकते हैं। दरअसल जो लोग लिखने या विचार करने मेंे गहराई का संकेत देते हैं वह अपने अंदर से बाहर आ रहे विचार और शब्दों को रोकने का प्रयास नहीं करते। दृष्टा की तरह उनको बाहर लोगों के पास जाते देखते हैं। हां, यह मुझे लगता है। कई बार मेरे साथ ऐसा होता है। जब शब्द और और विचारों के बाह्य प्रवाह के बीच मैं स्वयं खड़ा होने का प्रयास करता हूं तो लगता है कि वह अवरुद्ध हो गया।

मुझे पता नहीं कि मैं अच्छा लिखता हूं कि बुरा? पर कुछ मित्र मेरी कुछ रचनाओं पर फिदा हो जाते हैं और कुछ पर कह देते हैं कि यह क्या लिखा है हमारे समझ में नहीं आया।’ तब मुझे इस बात की अनुभुति होती है कि मैंने खराब कही जा रही रचनाओं के समय अपने विचारों और शब्दों के प्रवाह में अपनी टांग अड़ाई थी। आज जब मेरे मन में हाइकू (त्रिपदम) लिखने का विचार आया तो मैं अपने अ्र्रंर्तमन पर दृष्टिपात कर रहा हूं कि क्या वहां कोई विचार या शब्द हैं जो बाहर आना चाहते है।

मन में उठती कुछ उमंगें
विचारों की बहती तरंगें
आशाओं की उड़ती पतंगें

मौसम के खुशनुमा होने का अहसास
किसी का हमदर्द बनने का विश्वास
प्यार में वफादारी की आस

अनुभूतियों से भरा तन
अभिव्यक्त होना चाहता मन
शब्द चहक रहे खिलाने को चमन

जब तलाशता हूं उनका रास्ता
संदर्भों से जोड़ता हूं उनका वास्ता
सोचता हूं परोसूं जैसे नाश्ता

तब असहज हो जाता हूं
अपने को भटका पाता हूं
नयी तलाश में पुराना भूल जाता हूं

जब हट जाता हूं उनके पास से
रचना होने की आस से
अपने अस्तित्व के आभास से

तब वह कोई कविता बन जाते हैं
या कोई कहानी सजाते हैं
शब्द अपनी दुनिया स्वयं बसाते है

यह मेरा त्रिपदम(हाइकु) लिखने का एक प्रयास है। मुझे इसे लिखना बहुत अच्छा लगा। यह अलग बात है कि पढ़ने वाले इस पर क्या सोचते है। मेरा प्रयास अपने को अभिव्यक्त करना होता है और प्रयास यही करता हूं कि अपने आपसे दिखावा नहीं करूं। हमेशा ऐसा नहीं कर पाता यह अलग बात है।

कभी किसी का कड़वा सच उसके सामने नहीं कहना चाहिए-आलेख


सच बहुत कड़वा होता है और अगर आप किसी के बारे में कोई विचार अपने मस्तिष्क में  हैं और आपको लगता है कि उसमें कड़वाहट का अश है तो वह उसके समक्ष कभी व्यक्त मत करिये। ऐसा कर आप न  केवल उसे बल्कि उसके चाहने वालों को भी अपना विरोधी बना लेते हैं। हां, मैं इसी नीति पर चलता रहा हूं। केवल एक बार मैंने ऐसी गलती की और उसका आज तक मुझे पछतावा होता है।

कई वर्ष पहले की बात है तब मेरा विवाह हुए अधिक समय नहीं हुआ था। ससुराल पक्ष का एक युवक मेरे घर आया। उसके बारे में तमाम तरह के किस्से मैंने सुने थे। वह अपने परिवार के लिये ही आये दिन संकट खड़े करता था। वह सट्टा आदि में अपने पैसे बर्बाद करता था। उसने अपनी युवावस्था में कदम रखते ही ऐसे काम शुरू किये जो उसके माता पिता  के लिए संकट का कारण बनते थे। एक बार उसने सभी लोगों के बिजली और पानी के बिल भरने का जिम्मा लिया। वह सबसे पैसे ले गया और फिर नकली सील लगाकर उसने सबको बिल थमा दिये और उनका पूरा पैसा उसने ऐसे जुआ और सट्टे के  कामों में बर्बाद कर दिया। उसके जेल जाने की नौबत आ सकती थी पर उसके पिताजी ने सबको पैसा देकर उसे बचा लिया। उसके पिताजी के कुछ लोगों पर उधार हुआ करते और वह उनको वसूल कर लाता और घर पर कुछ नहीं बताता। ऐसे बहुत सारे किस्से मुझे पता थे पर उसका मेरे और मेरी पत्नी के प्रति ठीक था।

घर पर खाने के दौरान मैंने पता नहीं किस संदर्भ में कहा था-‘पिताजी के पैसो पर सब मजे करते हैं। जब अपना पैसा होता है तब पता चलता है कि कैसे कमाया और व्यय किया जाता है। मैंने  भी पिताजी के पैसे पर खूब मजे किये  और अब पता लग रहा है। अभी तुम कर रहे हो और तुम्हें भी अपना कमाने और विवाह करने के बाद पता लग जायेगां’।

मेरी पत्नी ने भी यह बात सुनी थी और यह एक   सामान्य बात  थी। इसमेें कोई नयी चीज नहीं थी। जब वह अपने घर गया तब उसकी प्रतिक्रिया ने मुझे और मेरी पत्नी को हैरान कर दिया। उसकी मां ने मेरी पत्नी की मां से कहा-‘‘मेरा लड़का अपने पिताजी के पैसे पर मजे कर रहा है कोई उसे दे थोड़े ही जाता है।’

लड़के के बाप की भी ऐसी टिप्पणी हम तक पहुंची। हमें बहुत अफसोस हुआ। वह अफसोस  आज तक है क्योंकि हमारे उनसे अब भी रिश्ते हैं उस लड़के के माता पिता दोनों ही उसी की चिंता मेंं स्वर्ग सिधार गये। लड़का आज भी वैसा ही है जैसे पहले था। चालीस की उम्र पार कर चुकने के बाद उसका विवाह हुआ और पत्नी ने विवाह के छह माह बाद ही उसको छोड़ दिया। कहते हैं कि उसके हाथ में जो रकम आती है वह सट्टे में लगा आता है। उसके जेब में कभी दस रुपये भी नहीं होते। हां, उसके बाप ने जो पैसा छोड़ा उस पर बहुत दिनों तक उसका काम चला। उसका बड़ा भाई जैसे तैसे कर अभी तक उसे बचाये हुए है।
मेरा उसका कई बार आमना सामना होता है पर मैं बहुत सतर्क रहता हूं कि कोई ऐसी बात न निकल जाये जो उसे गलत लगे।

उसके माता पिता की याद आती है तब लगता है कि लोग दूसरों की कड़वी सच्चाई देखकर उसे बोलना चाहते हैं पर अपनी सच्चाई से मूंह फेर लेते हैं। मेरी बात उसने घर पर इस तरह बताई ताकि उसे वहां पर लोगों की सहानुभूति मिल सके। वह उसमें सफल रहा पर अब वह इस हालत में है कि कोई उसका अपने घर आना भी पसंद नहीं करता। उसकी गलत आदतें अब भी बनीं हुईं हैं। कहने वाले तो यह भी  कहते हैं कि वह जब वह अपना वेतन ले आता है तो उसे एक दिन में ही उड़ा देता है।

पिताजी के पैसे पर मजे करने के मुझे ं भी ऐसे ताने मिलते थे पर  विचलित नहीं होता था पर चूंकि किसी गलत काम में अपव्यय नहीं करता था इसलिये कोई गुस्सा नहीं आता था। फिर वह विचलित क्यों हुआ? मेरा विचार है कि वह अपने पिता के पैसे जिस तरह पापकर्म पर खर्च कर रहा था वही उस समय उसके हृदय में घाव करने  लगे, जब मैने यह बात उसके सामने कही थी।
लोग अपने बच्चों को किस तरह बिगाड़ देते हैं यह उसे देखकर समझा जा सकता है। घर में  अपने बच्चों द्वारा पैसे के गबन के मामले  को अक्सर लोग ढंक लेते हैं-जो कि स्वाभाविक भी है-पर बाहर अगर कोई ऐसा करता है तो उसे छिपाना कठिन होता है। अगर अन्य लोगों की बात पर यकीन करें तो उनका कहना है कि ‘आपने जब उससे कहा था तब अगर उसके माता पिता उसे समर्थन नहीं देते तो वह शायद सुधर जाता। क्योंकि आपकी बात सुनने के बाद चार पांच दिन तक वह गलत आदतों से दूर रहा पर जब माता पिता से समर्थन मिला तो वह फिर उसी कुमार्ग पर चला पड़ा।’

हमारे अंतर्मन में अपनी छवि एक स्वच्छ व्यक्ति की होती है पर बाहर हमें लोग इसी दृष्टि से देख रहे हैं यह सोचना मूर्खतापूर्ण है। हर आदमी में गुण दोष होते हैं और दूसरे को दिखाई देते हैं। कोई आदमी  सामने ही हमारा दोष प्रकट करता है तो हम उतेजित होते हैं जबकि उस समय हमें आत्ममंथन करना चाहिए। खासतौर से बच्चों के मामले में लोग संवेदनशील होते हैं। अगर कोई कहता है कि आपका लड़का या लड़की कुमार्ग पर जा रहे हैं तो उतेजित हो जाते हैं और अपने अपने लड़के और लड़की के झूठे स्पष्टीकरण पर संतुष्ट होकर कहने वाले की निंदा करते हैं। एक बार उन्हें अपने बच्चे की गतिविधि पर निरीक्षण करना चाहिए। जिस व्यक्ति ने कहा है उसका आपके बच्चे से कोई लाभ नहीं है पर आपका पूरा जीवन उससे जुड़ा है। हां, संभव है कुछ लोग आपके बच्चे की निंदा कर आपको मानसिक रूप से आहत करना चाहते हों और उसमें झूठ भी हो सकता है पर इसके बावजूद आपको सतर्क होना चाहिए। 

तंबाकू, एकता और योगसाधना-आलेख


 

पिछले वर्ष जुलाई में वृंदावन से हम दोनों पति-पत्नी अपने शहर  के लिये चले। हमने मथुरा के मार्ग पर पड़ने वाले मंदिरों को देखने का फैसला किया। हम जब बिड़ला मंदिर पहुंचे तो उस समय उमस बहुत थी। हम दोनों अंदर गये और कुछ देर ध्यान लगाने के बाद बाहर निकले। मैंने वहां पानी पिया और फिर अपनी जेब से तंबाकू की डिब्बी निकाली और हाथ में घिसकर उसे मूंह में रख लिया। वहां भीषण उमस से भरी दोपहर में हमने अब अन्य मंदिर देखने की बजाय मथुरा रेल्वे स्टेशन का रुख किया।

पता चला कि गाड़ी आने में आधा घंटा देर है तब हमने वहां अपने साथ लाये खाने के सामान से कुछ नमकीन निकाला और खा लिया। फिर पानी लेकर पिया और हाथ पौंछने के लिए रुमाल निकाला तो तंबाकू की डिब्बी भी मेरे हाथ में आ गयी। मैं उसे रखना चाहता था कि एक तिलक धारी सज्जन आये और बोले-‘जरा तंबाकू की डिब्बी दीजिए। मैंने आपके पास बिड़ला मंदिर में देखी थी पर उस समय खाने का विचार नहीं था। मैं अपनी डिब्बी घर भूल कर आया और यहां कोई दुकान नहीं मिली।’

मैंने उसके हाथ में डिब्बी दी। उसने कहा-‘चूना तो सूखा हुआ हैं। मैं पानी डाल दूं।’

मेरी स्वीकृति के बाद वह पास ही नल पर गया और उसमंे पानी डालकर तंबाकू बनाने लगा। उसी समय वहां से एक कुली गुजर रहा था और बोला-‘साहब, थोड़ी मेरे लिये भी बना लीजिए।’
उन सज्जन ने हंसते हुए कुछ तंबाकू और चूना और निकाला और घिसना शूरू किया। तंबाकू बनते ही जैसे उसने उस कुली को देने के लिए हाथ बढ़ाया तो कोई अन्य एक सज्जन जो खाकी कपड़े पहने हुए थे आये और बिना कुछ कहे ही उनके हाथ से थोड़ी तंबाकू लेकर चलते बने।
सबने अपना अपना हिस्सा ले लिया और डिब्बी मेरी जेब में पहुंच गयी। तंबाकू खाने वालों के लिए ऐसी घटनाएं कोई मायने नहीं रखतीं। यह घटना भी ऐसी ही थी अगर मेरी पत्नी इस सब पर गौर नहीं कर रही होती। इतने में हमारी गाड़ी आ गयी। हमारे से पहले चूंकि तीन गाडि़यां जा चुकीं थीं इसलिये हमें सामान्य डिब्बे में  बैठने के लिये जगह मिल गयी।
आगरा तक हम आराम से आये और वहां भी गाड़ी से लोग उतरने लगे। खिड़की से एक युवती ने हमसे पूछा-‘यहां क्या कोई बैठा है। अगर नहीं! तो प्लीज हमारे लिए जगह घेर लीजिए।’
मेरी पत्नी ने कहा-‘‘घेरने की कोई जरूरत नहीं है आप इन सबको निकल जाने दीजिए और आराम से अंदर आयें। यह जगह खाली पड़ी रहेगी। अभी इस समय कोई इसमें अंदर आता नहीं दिख रहा।’

वह युवती अंदर आयी तो उसके साथ उसकी माता पिता और भाई भी थे। चारों को आराम से जगह मिल गयी। वह मुस्लिम परिवार था। हम दोनो खिड़की के आमने सामने बैठे थे। मेरी पत्नी मेरे पास में आकर बैठ गयी लड़की सामने की जगह ली।
उसके थोड़ा समय बाद ही हमने चाय लेकर पीना भी शुरू कर दी। उसके बाद मैंने अपने जेब से तंबाकू निकाली और उसे हाथ में घिसने लगा। उस लड़की की पिता ने कहा-‘‘थोड़ा तंबाकू आप देंगे। मेरे दांत में दर्द है।’

लड़की ने कहा-‘‘पापा, आपको तंबाकू खाना है तो  फिर दंात के दर्द का बहाना क्यों कर रहे हैं? कहीं तंबाकू देखी नहीं कि खाने का मन करने लगता है।’

फिर वह हमारी पत्नी की तरफ देखकर हंसते हुए बोली-‘सब आदतें छूट जायें पर तंबाकू की आदत नहीं जाती।’ 
हमारी पत्नी ने उससे कहा-‘‘हां, हमारे यह योगसाधना शुरू करने के बाद शराब तो छोड़ चुके हैं पर इससे इनका भी पीछा नहीं छूटता।’
लड़की ने एकदम पूछा-‘‘रोज करते हैं? वही बाबा रामदेव वाली न!
हमारी पत्नी ने कहा-‘‘हां पिछले पांच वर्ष से कर रहे हैं, और यह इन्होंने तब शुरू की जब बाबा रामदेव का नाम इतना प्रसिद्ध नहीं था।
मैने बीच में हस्तक्षेप किया-‘‘मैंने भारतीय योग ंसंस्थान के शिविर में योग साधना सीखी थी। हां, अब यह सच है कि भारतीय योग के प्रचार में उनका बहुत योगदान है।’
फिर तो वह कहने लगी-‘हां, हमारे यहां एक औरत को कैंसर हो गया था वह टीवी पर देखकर योग साधना करने लगी और वह ठीक हो गयी। एक आदमी  की तो दोनों किडनी खराब थी वह भी ठीक हो गयीं। कई लोगोंं को इससे लाभ हुआ है।’
उसका भाई बताने लगा-‘उससे कई लोगों का फायदा हुआ है।’
मैंने कहा-‘‘खुश रहने के लिए इसके अलावा कोई और उपाय है इस पर मैं यकीन नहीं करता।’

उसकी मां ने कहा-‘‘है तो बहुत काम की चीज, पर लोग करते नहीं है। आलस्य होता है।’
उसके पिताजी ने कहा-‘हां, हमारे यहां कई लोगों की फायदे की बात सुनी है।
लड़की कहने लगी-‘आप कौनसे आसन करते हैं?
मैने उसे थोड़ा इस बारे में बताया। हमारा गंतव्य स्थान आ गया तो फिर हमने उनसे विदा ली।
बाहर निकलकर मेरी पत्नी ने कहा-‘‘हमसे कहा कि एक बात जो मैने वहां नहीं कही कि तंबाकू खाने वाले व्यसनी कोई जातपात या धर्म नहीं देखते। उनके लिए तो तंबाकू  खाने वाले आत्मीय बंधु हो जाते हैं और कभी अधिकार से तो कभी आग्रह से तंबाकू मांग कर खाते है।’
मैने कहा-‘‘हां, पर यह कई बार मैं भी करता हूं। एक विषय और है आजकल जो लोगों में  बंधुत्व की भावना जाग्रत कर रहा है। वह है योग साधना और ध्यान। हां तंबाकू से तो केवल क्षणिक रूप से बंधुत्व का भाव होता है पर देखो मैंने जिनके साथ योग साधना प्रारंभ की उनसे आजतक मेरी मित्रता है। फिर अभी गाडी में  उनसे तंबाकू पर कितनी क्षणिक बातचीत  हुई पर योग साधना पर कितनी देर तक चर्चा हुई।’
 
हमारे देश में एकता और और प्रेम के नारे बहुत लगते है। इनसे कोई मतलब नहीं निकलता। सच तो यह है कि स्वार्थ की वजह से एकता स्वयं ही बन जाती है। अगर आप यह चाहते है कि कोई आपसे एकता करे तो उसके स्वार्थ अपने में फंसाये रहो। आप अगर किसी समूह के नेता है तो केवल एकता करने या उनको अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रेरित कर उसे संगठित नहीं रख सकते। उनके आपस में इस तरह स्वार्थ जोडि़ये। मैं अपने साथ स्वार्थ की वजह से जुड़ने वाले व्यक्तियों पर भी कोई आक्षेप नहीं करता क्योंकि मुझे मालुम है कि समाज में एक दूसरे के स्वार्थ सिद्धि  के लिये कार्य नहीं करेंगे तो फिर उसका औचित्य क्या रह जायेगा? आप चाहते हैं कि आपके बच्चे आपस में जुड़े रहे तो उनके अपने स्वार्थ इस जुड़वा कर रखें ताकि उनका प्रेम बना रहे। हम सब अपने स्वार्थ पूर्ति करने वालों के साथ ही एकता स्थापित करते हैं तब दूसरों से निस्वार्थ एकता की बात करना व्यर्थ है। सभी धर्मों, जातियों, विचारों और वर्गों के लोग आपस में अपने स्वार्थों से मिलते और बिछुड़ते है। जिनको आपस में स्वार्थ नहीं है उसे किसी से मिलने की जरूरत क्या है? हम उस परिवार के साथ अच्छे विषयों पर चर्चा में इतना व्यस्त रहे कि दोनों ने एक दूसरे का परिचय तक नहीं पूछा जबकि  डेढ़ घंटे तक सहयात्री के रूप में एकता और सौहार्द बनाये  रहे।

जरूरत है उन विषयों को प्रोत्साहन देने की जिनसे लोगों में एकता कायम हो सकती है। यहां मैंने तंबाकू का विषय इसलिये उठाया कि लिखते लिखते अब मैं ज्ञानी होता जा रहा हूं-ऐसा आज मेरे एक मित्र ने कहा। मैं सोचता हूं हो सकता है कि लिखने से मेरी यह आदत छूट जाये। तंबाकू खाना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है यह तो सभी जानते है। सोच रहा हूं हो सकता है लिखने से वह छूट जाये।    

स्टार्ट अप को समोसा मान लेते हैं-व्यंग्य चिंतन


 

गूगल के अंग्रेजी हिंदी टूल आने का भारत के अनेक क्षेत्रों के प्रतीक्षा थी। भारत मेें भी हिंदी ब्लाग जगत पर इसकी चर्चा कुछ समय से हो रही  थी।मेरे एक ब्लाग पर एक  अंग्रेजी ब्लाग लेखक ने अपनी टिप्पणी में लिखा था कि एसा टूल आ रहा है इससे भाषा की दीवार समाप्त हो जायेगी।  अब इस टूल के प्रयोग ने कई लोगों को निराश कर दिया है। हिंदी में अंतर्जाल पर लिखने वाले हिंदी ब्लाग ही नहीं वरन् अनेक वह पाठक भी निराश हुए हैं जिनको अंग्रेजी भाषा का ज्ञान नहीं है पर उसके विषयों को पढ़ने का बहुत आकर्षण है। उन्हें लगता है कि अंग्रेजी में शायद हिंदी से बेहतर लिखा जाता है। इससे पहले भी अनेक लोग इंटरनेट पर अंग्रेजी वेब साईटों के सामने आंखें लगाकर  अपने को विश्वास दिलाते हैं कि वह उसे पढ़ रहे हैं और फिर अपने मित्रों को बताते हैं। जब उन्होंने अनुवाद टूल  के बारे में सुना तो चेहरे खिल उठे होंगे पर अब तमाम स्त्रोतों से पता चलता है कि वह निराश है।

हिंदी ब्लाग जगत के नियमित सदस्य होने के कारण मेरे पास इस टूल का बहुत शीघ्र पहुंचना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी और मैंने भी इसके हाथ लगते ही उसके आजमाने का प्रयास किया। मैंने इस टूल को खोला और अग्रेजी के एक ब्लाग की विषय सामग्री की प्रतिलिपि उठाकर अपने ब्लाग पर चिपका दी। फिर परिवर्तित बटन दबाया। कुछ ही सेकण्ड में ही हिंदी में पूरी विषय सामग्री कुछ अस्वीकृत शब्दों साथ  मेरे सामने थी। उसे मैं पढ़ सक पर समझ नहीं सकता था। इसलिये सामने ही अंग्रेजी की सामग्री को पढ़ता और फिर हिंदी को देखता। इस काम में मेहनत कुछ अधिक है पर अंग्रेजी को पूरी तरह नहीं पढ़ने आने की  यह सजा कोई बुरी भी नहीं लगी। मैं अंग्रेजी का पढ़ा समझ पा रहा था इसी से मैं संतुष्ट था। अंग्रेजी व्याकरण की अच्छी जानकारी है इसलिये मुझे पढ़ने और समझने में आ रहा था। हां, शतप्रतिशत नहीं कह सकता पर यह तो अंग्रेजी वाले भी नहीं कह सकते। अंग्रेजी क्या किसी भी भाषा में पढ़ने वाला व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता।

वह ब्लाग शायद किसी ब्रिटेन या अमेरिकी ब्लाग लेखक का होगा। वह कहीं इजरायल अपने व्यवसायिक कार्य से गया था और स्टार्ट अप(start up) खाने की बात लिख रहा था। अंग्रेजी में तो स्टार्ट अप (start up) जैसा था उसे परिवर्तित टूल ने देवनागरी में करने से मना कर दिया। वह कोई खाने की वस्तु होगी ऐसा मेरा अनुमान है। वह अपने मित्र और उसके परिवार साथ कहीं पिकनिक मनाने गया और वहां के दृश्यों के बारे में लिखा। उसके बारे में लिखते हुए भी स्टार्ट अप (start up)खाने की बात कर रहा था। अनुवाद टूल अगर उसे हिंदी में बता देता तो कोई बात नहीं पर हम अभी मान लेते हैं कि स्टार्ट अप कोई समोसे जैसी चीज होगी। समोसा भी तो खाने के काम आता हैं। अब खाने की कोई भी चीज है चाहे जो नाम दे दो। क्या अंतर पड़ता है? बहरहाल उसका पाठ ठीकठाक और दिलचस्प लगा। उसके ब्लाग पर आठ लाख व्यूज थे और तय बात है कि हम अगल दस वर्ष तक तो इतनी पाठक संख्या में सोच भी नहीं सकते।

फिर एक दूसरे ब्लाग की सामग्री लाया। वह पूर्वी एशिया-चीन, जापान या किसी अन्य देश-की किसी महिला ब्लाग लेखक की थी। उसने भारतीय गेहूं के आटे पर वह पोस्ट लिखी थी और उसमें भारतीय आटे के गेहूं की बोरी का फोटो भी था। उसने ऐसा करना अपने मां से सीखा था और उसने अपनी मां के प्रति बहुत भावुक होकर वैसे ही प्रेम व्यक्त किया था जैसे अपने देश की महिलायें व्यक्त करतीं हैं। हां, अंग्रेजी में कुछ कठिनाई से पढ़ते हुए यह जरूर लगा कि इससे तो हमारे हिंदी ब्लाग जगत की महिला लेखिकाएं बहुत अच्छा लिख लेतीं हैं। उनके विषयों में भी व्यापकता होती है।

फिर एक तीसरा ब्लाग बिना सोचे समझे उठा लाये। पता लगा कि वह तो खाद्य पदार्थ बनाने की विधियों से ही भरा पड़ा था। वह किसी भारतीय का नहीं लगा पर उसमें भारतीय खाद्य पदार्थ बनाने के विधियां ही थीं।

उस समय भारत के लोगों द्वारा अधिक मात्रा में भोजन खाने की बात सब जगह चर्चा का विषय थी और हम सोच रहे थे कि जो आदमी जिस विषय के अधिक अपना दिमाग निकट रखता है उसी पर ही वह लिख सकता है। हिंदी ब्लाग लेखक इस तरह कहां खाने पर अपना पाठ लिखते हैं? इसकी आशय तो  यह कि कि सभी सादा और कम खाने वाले हैं तभी तो इतना इस विषय पर नहीं लिखते। व्यंग्य, कहानी, कविता और आलेख हर विषय पर लिखे जाते हैं। 

हम आजकल भी अंग्रेजी ब्लोग देखते हैं पर कोई ऐसा विषय उन पर नहीं दिखता कि उसे पढ़ें। राजनीतिक विषयों कह भरमार है पर वह अपने देश से संबंधित नहीं होते। अब किसे पड़ी है कि अमेरिकी के राष्ट्रपति चुनाव में क्या चल रहा है? इस पर बहुंत आलेख देखे। ऐसा भी हो सकता है कि जब हम जाते हों ऐसे विषय न मिलते हों जिनको हम पढ़ना चाहते हैं। 

हिंदी के लेखक-चाहे वह अंतर्जाल पर हों या बाहर-उन्हें इस बात से दुःखी नहीं होना चाहिए कि हिंदी अंग्रेजी का टूल शतप्रतिशत परिणाम नहीं दे रहा। दरअसल यह अभी तक जो चर्चा हमने सुनी वह अग्रेजी से हिंदी अनुवाद पर सुनी। हिंदी से अंग्रेजी के अनुवाद पर अभी हम प्रतीक्षा कर रहे हैं-जिसके बारे में मेरा मानना है कि हम अपने पाठों में हिंदी से अंग्रेजी में  अधिकतम शुद्धता के प्रयास हम कर सकते है।  जिस तरह चारों तरफ उसकी निराशा की बात सुन रहे हैं उससे तो यही लगता है कि अगर यह टूल अंग्रेजी का हिंदी में शुद्धता से अनुवाद कर देता है तो फिर इतने पाठक भी नहीं मिलेंगे जितने अब मिल रहे हैं। कभी अपने आसपास मैंने इस बात से लोगों को प्रसन्न होते नहीं देखा कि अंतर्जाल पर हिंदी में भी लिखा जा रहा है इस पर किसी को प्रसन्न होते नहीं देखा पर इस टूल के निरुपयोगी होने से दुःख व्यक्त करते हुए  कुछ लोगों को देखा है। हां, देश की पत्र-पत्रिकाओं के संपादक अवश्य निराश हुए होंगे कि अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद की गयी सीधी सामग्री मिलना अभी मुश्किल है। कुछ ब्लाग लेखक भी दुःखी हो सकते हैं कि अगर यह सफल होता तो वहां से सीधे सामग्री उठाकर ब्लाग पर रख देते देखो अमुक  अमेरिकी ब्लाग लेखक का शानदार पाठ।

 वैसे भी हिंदी के कम प्रसिद्ध (मैं लेखक को छोटा बड़ा नहीं मानता) लेखकों को प्रसिद्धि देने के उद्देश्य से कोई भी उनको प्रकाशित नहीं करता। यहां प्रकाशन के लिए जरूरी है कि आप कभी फिल्मी पटकथा लेखक, अभिनेता, निर्देशक, किसी पत्र-पत्रिका के संपादक या कोई स्तंभकार रह चुके हों। फिर भी कभी किसी को महत्वहीन कालमों में छपने का अवसर मिल ही जाता है। अगर यह टूल शत प्रतिशत सफल हो जाता तो शायद इससे भी जाते।

हां, मैं प्रयोगजीवी आदमी हूं और ऐसा  प्रयास करूंगा कि मेरा हिंदी में लिखा अंग्रेजी में इस तरह अनुवाद हो कि वह कुछ पढ़ने और समझने योग्य हो। इसके लिये हम प्रयास कर सकते हैं। इसके लिये अपने कुछ पाठ मैं वहां जाकर अनुवाद कर देखता हूं। कुछ वैकल्पिक शब्दों के साथ वहां शतप्रतिशत परिणाम प्रतीत होता है और वाक्य भी समझ में आते  है- कुछ पोस्टें रखीं हैं पर परिणाम से स्वयं भी अनभिज्ञ हूं। अगर कुछ ब्लाग लेखकों ने कहीं ऐसा प्रयास किया तो हो सकता है कि उनको अंग्रेजी में भी सफलता मिले। हां,  तब भी  यह जरूर हो सकता है कि यहां हिंदी में लिखने के लिये इनाम और सम्मान कोई पा रहा है और अमेरिका और ब्रिटेन में नाम किसी और का हो रहा है। हिंदी के कल्याण से जुड़े शीर्षस्थ लोगों को वही लोग इनाम और सम्मान के लिये उपयुक्त लगते हैं जिससे उनका स्वयं का प्रचार होता हो। हिंदी के लेखकों को भूखा रखकर उससे लिखवाने की प्रवृत्ति रखने वाले लोगों को आगे चुनौती भी मिल सकती है और अगर शतप्रतिशत परिणाम वाला टूल आया तो हिंदी के लेखक भी संकट में आ सकते हैं। 
 

लिखने और प्रयोग करने में क्या हर्ज है- व्यंग्य


बहुत दिन से लोगों ने ऐसी हिंदी लिखी नहीं होगी जैसी उसे अंग्रेजी में अनुवाद टूल देखने का इच्छुक है। मैने गूगल के हिंदी टूल से समझौता करने का निर्णय किया तो मुझे जितना आसान लग रहा था उतना है नहीं।

पिछले कई वर्षों से मन में हिंदी का विख्यात लेखक बनने की इच्छा रही जो कभी पूर्ण नहीं हो सकी। विषय सामग्री की प्रशंसा तो अनेक लोगों से मिली पर ख्याति फिर भी नहीं मिली। भटकते हुए इस अंतर्जाल (अनुवाद वाला टूल इसे  इंटरनेट नहीं करता) पर आ गये। वर्डप्रेस का ब्लाग लिखने बैठ गये तो अपने देव और कृतिदेव में टाईप कर रख दिया। दो दिन तक इस बात   प्रतीक्षा की कि  यह उसको हिंदी के कर देगा। उसने नहीं किया तो हम हैरान रह गये। आखिर दूसरे लोग किस तरह लिख रहे हैं यह सोचकर हैरानी होती थी। पता नहीं कैसे हमने वर्डप्रेस में  हिंदी श्रेणी में अपना ब्लाग घुसेड दिया। इससे वहां सक्रिय अन्य ब्लाग लेखकों की उस पर वक्रदृष्टि पड़ गयी। हिंदी के सब ब्लाग एक जगह दिखाने वाले नारद फोरम के ब्लाग लेखक आखें तरेर रहे थे। ‘यह कौनसी भाषा है’, ‘इसे यूनिकोड में करो’, वगैरह….वगैरह।
हमने समझा कि यह लोग जल रहे हैं पर आगे घटनाक्रम ऐसा हुआ कि हम यूनिकोड में ही लिखने लगे। एक मित्र ने इंडिक का हिंदी टूल दिया जो रोमन लिपि में लिखी हिंदी को देवनागरी रूप देता था। देखा जाये तो एक तरह से यूनिकोड में लिखने की वजह से हम भी ब्लाग लेखक बन गये। यह तो बाद में पता लगा कि हम तो इतने बड़े साहित्यक लेखक से ब्लाग लेखक बनकर रह गये। 

इधर ब्लाग लेखक ऐसा टूल बता गये जिससे कृतिदेव बता गये जो उसे यूनिकोड में परिवर्तित करता  था। हम उस टूल को उठा तो लाये पर यकीन नहीं था कि सफल होगा। वह हुआ और हम अब ब्लाग लेखक नहीं रहे थे। जिन मित्रों ने हमें ब्लाग लेखक बनाने की गलती की थी यह टूल बताकर उसका प्रायश्चित कर दिया। कहें तो हमसे तंग होकर ब्लाग जगत से बाहर का मार्ग दिखा दिया।  अब हो गये लेखक।

एक महीना भी नहीं बीता कि एक और टूल का पता फिर यह ब्लाग मित्र ले आये-हिंदी को अंग्रेजी भाषा में बदलने का। कई पाठक अभी शायद इस बात पर यकीन नहीं करे पर यह सत्य है कि ऐसा टूल आ गया है। हमें एक लेखक की तरह हिंदी ब्लाग जगत में लिखते हुए अधिक समय नही बीता पर पुराने धाव कभी कभी हरे हो ही जाते हैं।

हमें कई वर्षों से इस बात का अनुभव रहा है कि  हम हिंदी में लिखकर विख्यात नहीं हो सकते। उल्टे कई बार विख्यात होने के चक्कर में हमारे झगड़े और हो जाते हैं जिसमें सिवाय कुख्यात होने के हमारे हाथ कुछ भी नहीं आता। ऐसे में इस टूल के जरिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात होने का विचार आया और अपनी कुछ पाठ-मित्रों की इस चेतावनी के बावजूद कि इसके परिणाम की संभावना का प्रतिशत बहुत कम है-हमने इस टूल का प्रयोग आरंभ किया। पहले पाठ  में कम से कम उसने बीस अक्षर परिवर्तित करने की बजाय वैसे के वैसे ही रखकर यह बता दिया कि यह काम आसान नहीं है।मैने एक-एक कर वैकल्पिक अक्षरों का इस्तेमाल किया और अपना पाठ  तैयार की और चिपका दिया। जब पढ़ने बैठा तो दंग रह गया। ‘मैं खाना खाता हूं’ में वह खाता को एकांउट कर देता है। साइकिल उसके समझ में आता है पर सायकल को मानने से मना कर देता है। पोस्ट नहीं पाठ लिखो तो समझता है। हिंदी के अधिकतर व्यंग्यकारों की यह आदत होती है कि वह ‘मैं’ की बजाय ‘हम’ शब्द का प्रयोग करते है पर इस अनुवाद के टूल से मत पढ़ कर अंग्रेजी पढ़ने वाले भ्रमित हो जायेंगे। यह टूल इतना हिंदी प्रेमी है कि उर्दू या अंगेजी शब्द को स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

अभी लोगों ने इसका उपयोग किया नहीं है पर जितना मैंने किया है उसके अनुसार अगर शुद्ध हिंदी में लिखा जाये तो बहुत हद तक इस टूल से अपना पाठ इस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है जिससे अंग्रेजी भाषा के पाठक भी पढ़ सकें। हिंदी में लेखक रहे या ब्लाग लेखक कोई सम्मान नहीं मिला। पहले भी मैं बहुत प्रयास करता था कि अंग्रेजी में अपनी रचनाएं लिखूं पर लिख नहीं पाया। अब विचार मेरे मस्तिष्क में आ रहा है कि क्यों न इस टूल से अंग्रेजी में घुसपैठ  की जाये। जब अंग्रेजी वाले हमारे हिंदी में हमारे अनुवादकों की सहायता से घुस सकते हैं तो फिर उनके इस टूल से उन्हींे की क्षेत्र में उसी तरह प्रवेश किया जाये।

आने वाला समय बहुत दिलचस्प है। सबसे बड़ी बात यह है कि जिस तरह अंतर्जाल पर भाषा की दीवार टूट रही है तो साथ ही कई भ्रम भी टूटने वाले हैं। अभी तक हिंदी के ठेकेदार  और मालिक  हिंदी के लेखकों को अपनी जागीर समझते थे। जिसे कोई पुरस्कार या सम्मान मिला वही प्रसिद्ध हुआ। लिखने के साथ किसी बड़े संगठन या व्यक्ति की चाटुकारिता करना आवश्यक है। हिंदी पढ़ने वाले पाठकों की कमी है पर अब यह विषय नहीं रहने वाला कि किस भाषा में लिखा गया बल्कि क्या लिख गया यह महत्वपूर्ण होने वाला है।

पिछले बहुत समय से मुझे अपने ब्लाग पर अंग्रेजी भाषा के ब्लाग लेखकों की उपस्थिति के संकेत देखे थे पर मैंने उनकी उपेक्षा की यह सोचकर कि भला उनके साथ क्या संपर्क बन पायेगा? अब संभव है कि अंतर्भाषीय ब्लाग संपर्क बनने लगें। जिस गति परिवर्तन आ रहे हैं उससे मुझे लगता है कि एक वर्ष में बहुत सारे ऐसे दृश्य हमारे समक्ष प्रस्तुत होंगे जिसकी कल्पना भी हम अभी नहीं कर सकते। मेरी दिलचस्पी अब इस ब्लाग जगत में लेखक की तरह कम एक दृष्टा की तरह अधिक है-लेखक होने के कारण मुझे भी सुखद अनुभूतियां होंगी, यह एक अलग से उपहार होगा।

अभी इस टूल के प्रयोग को सीखा जाना है और जो लेखक नये हैं और वह इस पर अपनी पोस्टों का अनुवाद जरूर कर देखें कि वह अंग्रेजी में कैसे आ रहीं हैं। हालांकि लोग उछल रहे हैं कि ‘हिंदी अंग्रेजी अनुवाद टूल‘ आ गया तो हमें अंग्रेजी में भी पढ़ा जायेगा तो उन्हें पहले यह भी तो देखना चाहिए कि उनके पाठ अनुवाद होकर अंग्रेजी में पढ़ने योग्य हैं कि नहीं। इसके साथ अभ्यास करने से हो सकता कि कुछ लोग अपने पाठ इस तरह बना लें कि अंग्रेजी के पाठक उनको आसानी से पढ़ सकें। महत्वपूर्ण बात यह है कि जो शायद हिंदी के लेखक कभी अंग्रेजी और उर्दू शब्दों के प्रयोग करने की आदत से पीछा नहीं छुड़ा सके वही काम यह टूल उनसे करा लेगा, अगर वह यह चाहते हैं कि अंग्रेजी के पाठक भी उन्हें पढ़ें। कुल मिलाकर आने वाला समय बहुत दिलचस्प रहने वाला है। हम तो लिखते रहेंगे जब तक अवसर मिल रहा है। आखिर हमें लिखने और प्रयोग करने में क्या हर्ज है?  

इंसान तो कठपुतली है-हास्य कविता


आदमी के पंख नहीं होते
जो वह आसमान में उड़ सके
पर उसका मन बिना पंख के ही
उड़ता चला जाता है
उसके पांव आदमी की काबू में होते नहीं
पंरिदे बनाते हैं लोगों के घर में भी घरोंदे
पर उनके बिस्तर पर सोते नहीं
खुशी में झूमकर नाचता इंसान
दुःख  में अपने ही आंखो से बहती
अश्रुधारा में करता स्नान
पर परिंदे कभी रोते नहीं
अपने मन के इशारे पर
कठपुतली की तरह नाचता
कितने भी दावे करे कि
खुद ही चल रहा है इस जीवन पथ पर
अपनी अक्ल पर है उसका काबू
कराती है इंसान की  जुबान दावे आजाद होने के
पर कभी वह सच्चे होते नहीं
अपनी जरूरतों से आगे नहीं उड़ते
इसलिये परिंदे कठपुतली नहीं होते
यह सच है
अपनी ख्वाहिशों के हमेशा गुलाम
रहने वाले  इंसानों के लिये
साबित करना बहुत मुश्किल है कि
वह कठपुतली होते नहीं
……………………………………………………..

कठपुतली ने चिडि़या से कहा
‘देखो, मैं नाच  और गा सकती हूं
पर तुम ऐसा नहीं कर सकती
मुझे तुम पर तरस आता है’

चिडि़या ने उसकी डोर पकड़ने वाल  नट की
गर्दन पर चांेच मारी तो वह चिल्लाया
छूट गयी उसके हाथ से  डोर
उसने कठपुतली को इस तरह नीचे गिराया
चिडि़या ने लौटकर चिड़े से कहा
‘आदमी कठपुतली को आगे कर बोलता
अपने मन के इशारे पर डोलता 
बोलने से पहले कभी शब्द नहीं तोलता 
दावे करता है आकाश में उड़ने का
कभी ऐसा नहीं करता तब  मचा रहा है शोर
उड़ता तो क्या हाल करता
सर्वशक्तिमान ने इसलिये इसको पंख नहीं लगाया
उड़ने के ख्वाब देखता रहे इसलिये
इंसान को मन की कठपुतली बनाया
……………………………………………………..

दीपक भारतदीप

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महिला बुद्धिजीवी सम्मेलन-हास्य व्यंग्य


सम्मेलनों के आयोजने करने के आदी लोगों की संस्था के पदाधिकारियों के  दिमाग  में ‘बुद्धिजीवी महिला सम्मेलन’ करवाने का विचार आया। कुछ लोगों ने इसका विरोध किया और कुछ लोगों ने समझाया। एक समझदार ने कहा-‘‘इस देश की शिक्षा पद्धति ने लोगों को गहरे ज्ञान से वंचित किया है और सभी प्रकार के बुद्धिजीवी चाहे वह  महिला हो या पुरुष केवल वाद का नाम और नारे लगाकर ही चलते हैं और फिर आपस में झगड़ा करते हैं। सामान्य आदमी तो बैठक आदि में जाता नहीं और जाता है तो खामोशी से चला जाता है और चार बुद्धिजीवी पूरुष जहां मिलते है लड़ पड़ते है, उनको हाथ पकड़ कर या धमकी देकर समझाया जा सकता है  कहीं महिला बुद्धिजीवी कहीं झगड़ा कर बैठीं  तो उनको समझाना कठिन हो जायेगा।’

   मगर संस्था के लोग नहीं माने। सम्मेलन कराने का नशा उन पर सवार था। उनका विचार था कि इस बहाने संस्था का नाम पुनः चमकेगा जो पहले ही डूब रहा है।

सम्मेलन घोषित हो गया। ढूंढ-ढूंढकर बुद्धिजीवी महिलाओं को आमंत्रण भेजा गया और फिर विषय रखा गया ‘सास-बहु और ननद-भाभी  के मधुर संबंध कैसे हों’?

संस्था के सभी लोग आयोजन कर चंदा वसूलने और फिर आत्मप्रचार के काम में महारात हासिल किये हुए थे पर फिर भी उनमें से कुछ कच्चे पड़ गये और उन्होंने फैसला किया कि वह इस आयोजन से दूर रहेंगे। वजह यह थी कि उनके घर की महिलायें भी इन आयोजनों में आतीं थीं और उनको लगा कि इस तरह के आयोजन से उनके घरेलू विवाद सबके सामने आयेंगे।

हालांकि संस्था के लोगों ने इस बात का पुख्ता इंतजाम किया कि उनके घर की महिला सदस्य इनमें शामिल न हों और वह बुद्धिजीवी भी हों तो उनको सूचना नहीं भेजी जाये। इसलिये जिसका नाम भी आमंत्रण पत्र पर लिखा जाता था पहले इस बात की तस्दीक कर ली जाती थीं कि वह संस्थो के सदस्यों की घर से संबद्ध न हों।

सम्मेलन का दिन आया तमाम महिलायें कार्यक्रम में पहुंची। कुछ को भाषण देना था तो कुछ को केवल सुनकर तालियां बजानीं थीं। तालियां बजाने के लिये भी बकायदा पैसे देने का आश्वासन दिया गया था। आयोजक जानते थे कि बोलने के लिये बुद्धिजीवी महिलायें तो मिल जायेंगी पर ताली बजाने के लिये उनकी उपलब्धता संदिग्ध है। इसलिये कुछ पुरुंष भी किराये पर बुलाये गये और उनको महिला अधिकारों के लिये लड़ने वाले जुझारू कार्यकर्ता कर प्रचारित किया गया।

तमाम सावधानियों के बावजूद आयोजक आमंत्रण पत्र भेजने में गल्तियां कर गये। उन्होने कई ऐसी बुद्धिजीवी महिलाओं को बोलने के लिये आमंत्रण भेज दिया जिनके आपस में सास बहु और ननद-भाभी के रिश्ते थे। उनको इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि बुद्धिजीवी घरों में ‘बुद्धिजीवी’ बहु की मांग ही होती है यह अलग बात है कि कोई भी बुद्धिजीवी सास दहेज की राशि को लेकर वैसे ही कोई समझौता नहीं करती जैसे कि कोई सामान्य सास।

सम्मेलन शूरू कराने के लिये एक पुरुष सदस्य माइक पर आया और बोला-‘‘आज हम अपने पहले बुद्धिजीवी सम्मेलन…………………….’’

उसकी बात पूरी होने से पहले ही एक महिला कुर्सी से उठ कर खड़ी हो गयी और बोली-‘क्या इस काम के लिये कोई महिला नहीं थी। हटो मैं संचालन करती हूं।’

वह मंच पर चढ़कर आ गयी और उससे माइक लेकर स्वयं डट गयी।उस संचालक पर तो जैसे वज्रपात हुआ क्योंकि वह उस संस्था का अध्यक्ष था और उसी ने ही इस सम्मेलन के प्रस्ताव को रखा था और पास कराया था। उसका मूंह उतर गया तो संस्था में उसके वह प्रतिद्वंद्वी खुश हो गये जो इस सम्मेलन को कराने के विरोधी थे।

उस महिला ने अखबारों की कटिंग दिखाकर  कुछ ऐसी खबरें जिनमें महिलाओं के खिलाफ अपराध किये गये थे उनको पढ़ना और उसके लिये पुरुष प्रधान समाज को जिम्मेदार ठहराने का सिलसिला शुरू किया। 

तब एक दूसरी महिला खड़ी होकर बोली-‘‘यहां हमें  बताया गया है कि आज की चर्चा का विषय है ‘सास-बहु और ननद-भाभी  के मधुर संबंध कैसे हों’? आप तो विषय से हटकर बोल रहीं हैं।’

उसके पास ही उसकी बहु भी बैठी थी वह अपनी सास से बोली-‘‘अत्याचार तो अत्याचार है। खबर बतायेंगी तभी तो यह पता लगेगा कि कहां-कहां बहुओं पर अत्याचार हुए।’

तब दूसरी बुद्धिजीवी महिला भी माइक पर पहुंच गयी और उससे छीनकर बोली-‘हम पुरुषों द्वारा तय किये गये विषय पर नहीं बोलेंगे। हमें अपना विषय तय स्वयं करना चाहिए।’

अब तो वहां हलचल मच गयी। बहुएं और भाभियां चाहतीं थीं कि उनके साथ जो दुव्र्यवहार घर में होता है उस पर चर्चा की जाये और सास और ननदें चाहतीं थीं कि इसमें बहुओं द्वारा अपने अधिकारों के दुरुपयोग पर विचार किया  जाये।

माहौल गर्मा गया था और आयोजकों की घिग्घी बंध गयी थी। संस्था के एक सदस्य ने कहा-‘आज का किसी के मरने की खबर देकर स्थगित करते हैं और अगली तारीख पर आयोजित करेंगे। अभी जो नाश्ते का समय घोषित करते हैं फिर इसे स्थगित कर देते हैं।’

संस्था का अध्यक्ष बोला-‘‘पर वहां यह घोषित करने के लिये भी तो कोई महिला चाहिए। देखा नहीं मुझे किस तरह वहां से भगा दिया।

माहौल तनाव से भरा था। अब आयोजकों के समझ में नही आ रहा था कि क्या करें? किसकी मदद लें? सब बुद्धिजीवी महिलायें तो जोर-जोर से बोल रहीं थीं। अचानक उनकी नजर एक व्यंग्यकार महिला पर पड़ गयी। उस सभा में वही एक खामोश बैठी थी और मंद-मंद मुस्करा रही थी। मजे की बात यह कि उसे नहीं बुलाया गया था वह तो कहीं से सुनकर वहां आयी थी। अध्यक्ष उसके पास गया और बोला-‘‘आप हमारी कुछ मदद करे। पहले सबके लिये नाश्ते की घोषणा करें थोड़ी देर बाद किसी बहाने इस स्थगित कर दें।’

व्यंग्यकार महिला ने कहा-‘‘पर मैं तो यहां बिना बुलाये आयी हूं।  वैसे भी मैं केाई बुद्धिजीवी नहीं हूं बल्कि व्यंग्यकार हूं। नहीं…..नहीं…………तुम क्या समझते हो कि मेरा कोई सम्मान नहीं है।’

उसने जब अधिक याचना की तो वह तैयार हो गयी। उसने मंच संभाला और पहले नाश्ते की घोषणा कर माहौल को ठंडा किया फिर थोड़ी देर बाद माइक पर आयी और बोली-‘‘ अब हम सब लोगों ने नाश्ता कर लिया है पर हमारा विषय तय नहीं है इसलिये अगली तारीख पर विषय तय कर लेंगे तब आपको सूचना दी जायेगी। हम फिर मिलेंगे।’

सब महिलायें  थोड़ा बहुत विरोध कर वहां से चलीं गयीं। थोड़ी देर बाद वह व्यंग्यकार महिला बाहर निकली तो देखा एक खाकी पेंट, सफेद शर्ट और सिर पर टोपी पहने एक आदमी खड़ा उसे देख रहा था और जैसे ही नजरें मिलीं तो वह खिसकने को हुआ तो वह पीछे से चिल्लाकर  बोली-‘अरे, तुम व्यंग्यकार होकर इस तरह यहां क्यों खड़े हो। अच्छा अपने लिये विषय तलाशने चपरासी की भूमिका में आये हो। अगर मुझे पता होता तो सब महिलाओं को बता देती और तुम्हारी धुलाई करवाती। तुम्हारे व्यंग्य वैसे ही मेरे समझ में नहीं आते पर तुम हो कि लिखना बंद नहीं करते।

वह अपनी साइकिल उठाकर बोला-‘‘अब हम दोनों ही यहां से निकल लें तो अच्छा रहेगा। मै इस वेश में इसलिये आया था कि चपरासी तो चपरासी होता है उसकी उपस्थिति पर भला कौन आपत्ति करता है पर अगर सूटबूट पहनकर आता तो हो सकता है कि बाहर भी कोई खड़ा नहीं रहने देता। यहां दोनों ही बिना बुलाये आये हैं अगर मैं इस पर व्यंग्य लिख दूं और महिलाओं का तुम्हारे बिना आमंत्रण के यहां आगमन की बात बता दू तो कैसा रहेगा? और बुद्धिजीवी और व्यंग्यकार में अंतर होता है ऐसा मैंने तुम्हारे व्यंग्यों में ही पढ़ा है।

महिला व्यंग्यकार ने कहा-‘ महिलायें अभी भी दूर नहीं हैं बुलवा लूं। खैर छोड़ो…………..फिर उनको भी यह पता चल जायेगा कि मैं भी यहां बिना बुलाये आयी हूं और आयोजकों कहने से उनका सम्मेलन खत्म कराया गया है।’’

अगले दिन अखबार में सम्मेलन के उल्लास से संपन्न होने का समाचार था और व्यंग्यकार महिला का नाम तक उसमें नहीं था। 
यह हास्य व्यंग्य काल्पनिक रचना है और किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोई लेना देना नहीं हैं अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा। इन पंक्तियों को लेखक किसी भी महिला व्यंग्यकार से कभी नहीं मिला

अंग्रेजी नाम, हिंदी नाम-आलेख


अंतर्र्जाल पर हिंदी लिखते हुए मुझे एक बात अनुभव हो रही है कि यहां रूढ़ता का भाव अपने हृदय में रखने को कोई मायने नहीं है। अंतर्जाल पर अनेक वेब साइटों और ब्लाग पर निकल रही हिंदी  पत्र-पत्रिकाओं के नाम हिंदी में है तो अंग्रेजी में नहीं और अंग्रेजी में है तो हिंदी में नहीं। मैं दोनों से संबंध रखता हूं और मेरी रुचि इस बात में है कि किस तरह अंतर्जाल पर हिंदी के पाठक अधिक से अधिक सक्रिय हों। मेरी कुछ पत्रिकाएं ब्लाग पर हैं और कुछ वेब साईटों की पत्रिकाओं पर मैं लिखता हूं। मैंरे अपने वेब पृष्ठों (ब्लाग) पर बनी पत्रिकाओं के नाम हिंदी में रखे हैं। बीच में मैंने अपनी इन पत्रिकाओं का अंग्रेजी नाम भी रखा था पर हिंदी एग्रीगेटरों से उनके जुड़ने  के बाद अंग्रेजी नाम हटा लिये। इसका पछतावा मुझे आज तक है।

एक बात तय है कि विश्व में भाषा की दूरियां अब कम हो रही हैं और ऐसे में वेब साइटों और वेब पृष्ठोंं पर बनी पत्र-पत्रिकाओं को किसी भाषाई रूढ़ता से उबरना होगा तो साथ ही अपनी मौलिकता से निर्वाह करना होगा। मैं बात कर रहा हूं उनके वेब साईटों और वेब पृष्ठों पर बने पत्र-पत्रिकाओं के शीर्षक और  नाम की। कई जगह पत्र-पत्रिकाओं का नाम अंग्रेजी है पर हिंदी में न होने के कारण उसके शब्द सर्च इंजिन में डालने पर वह उसके सामने नहीं आती तो अंग्रेजी मेें न होने के कारण उसका भी यही हश्र होता है। अब अनुवाद  टूल आने से हमें अब इस संभावना पर भी विचार करना चाहिए कि देश विदेश के अन्य भाषी लोग हिंदी के लेखकों और संपादकों से अपना संपर्क रखना चाहेंगे और यकीन मानिए वह हिंदी शब्द सर्च इंजिन में डालकर तलाश नहीं करेंगे। ऐसे में कोई हिंदी भाषी पत्र-पत्रिका (जो वेब साईट या वेब पृष्ठों   पर हैं) अगर अपना नाम अंग्रेजी में रखती है तो उस पर आपत्ति नहीं है पर अगर वह हिंदी में भी रखें तो अच्छी बात है। वैसे यह आवश्यक नहीं है कि अंग्रेजी के पाठक हिंदी की अंतर्जाल पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना चाहें पर यह एक संभावना है जो हाल ही में बनी है। वैसे  अंग्रेजी नाम की वजह से कई पत्र-पत्रिकाएं  अन्य भाषियों में ही क्या अपनी भाषा वालों मे भी पैठ भी नहीं बना पाईं।

एक बात और है कि हिंदी भाषी पत्र-पत्रिकाओं के अंग्रेजी शीर्षक या नाम रखने वालों को यह समझना चाहिए कि ‘हिंदी’ में नाम होने से ही उनकी मौलिकता प्रकट होगी न कि अंग्रेजी से। अगर कोई विदेशी पाठक हिंदी सामग्री  को पढ़ना चाहेगा तो उसकी दृष्टि में सम्मान तभी बढ़ेगा जब हिंदी में शीर्षक होगा भले ही वह सर्च इंजिन में अंग्रेजी शब्द डालकर वहां तक आया हो। इसलिये अंतर्जाल पर वेब साईटों और वेब पृष्ठों (ब्लाग) पर चल रहीं पत्र-पत्रिकाओं को अपने नाम अंग्रेजी नाम के साथ हिंदी में रखना चाहिए, जिनके शीर्षक हिंदी में है वह अगर सोचते हैं कि अन्य भाषियों तक उनके लिए पहुंचना संभव है तो वह उसमें अंग्रेजी नाम भी जोड़ सकते हैं। वैसे श्रेणियों और टैग लगाकर भी यह काम हो ही रहा है। 

मोबाइल मोहब्बत हो गई-हास्य कविता


प्रेमी ने प्रेमिका के मोबाइल की
घंटी बड़ी उम्मीद से बजाई
जा रही थी वह गाड़ी पर
चलते चलते ही उसने
अपने मार्ग में होने की बात उसे बताई
फिर भी वह बातें करता रहा
वह भी सुनती रही
सफर गाड़ी पर उसका चलता रहा
अचानक वह कार  से टकराई
प्रेमी को भी फोन पर आवाज आई
प्रेमी ने पूछा
‘क्या हुआ प्रिये
यह कैसी आवाज आई
कोई ऐसी बात हो तो मोटर साइकिल पर
चढ़कर वहीं आ जाऊं
मुझे बहुत चिंता घिर आई’
प्रेमिका ने कहा
‘घबड़ाओ नहीं कार से
मेरी गाड़ी यूं ही टकराई
अपनी मरहम पट्टी कराकर अभी आई
करा देगा यह कार वाला उसकी भरपाई+’

प्रेमी करता रहा इंतजार
फिर नहीं प्रेमिका की कोई खबर आई
एक दिन भेजा संदेश
‘जिससे मेरी गाड़ी टकराई
उसी कार वाले से हो गयी  मेरी सगाई
बहुत हैंडसम और स्मार्ट है
उसने मुझ पर बहुत दया दिखाई
इन दो पहियों की गाड़ी से
तो अब हो गयी ऊब
चार पहियों वाली गाड़ी में ही
अब घूमने की इच्छा आई’

प्रेमी सुनकर चीखा
‘यह कैसा मोबाइल है
जिसने मोहब्बत को भी बनाया
अपने जैसा
कितना बुरा किया मैंने जो
उस दिन मोबाइल की घंटी बजाइ
……………………………………….

नोट-यह हास्य कविता काल्पनिक है तथा इसका किसी घटना या व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।

गरीबों का खाना सहता कौन है? हास्य व्यंग्य


अमेरिका के राष्ट्रपति जार्जबुश ने कहा है कि विश्व में खाद्यान्न संकट के लिये भारत के लोग ही जिम्मेदार हैं क्योंकि वह ज्यादा खाते हैं। उनके इस बयान पर यहां बवाल बचेगा यह तय बात है और यह भी  कि अमेरिका में रहने वाले भारतीय भी अब वहां संदेह की दृष्टि से देखें जायेंगे। अगर कहीं अकाल यह बाढ़ की वजह से  अमेरिका में कभी खाद्याान्न का संकट आया तो उसके लिये भारतीयों पर ही निशाना साधा जायेगा। वैसे तो वहां पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोग भी हैं पर अब वह बच जायेंगे और कभी ऐसा अवसर आया तो वह भी भारतीयों पर चढ़ दौड़ेंगे कि यही लोग सब जगह ज्यादा खाकर संकट खड़ा करते हैं।

ऐसा लगता है कि लोकतंत्र बहाल होने के बाद अमेरिका अब पाकिस्तान पर मेहरबान हो रहा है और उसे किसी तरह अपने कैंप में रखना चाहता है इसलिये उसे अब विश्व का संकट वहां पनप रहा आतंकवाद नहीं बल्कि भारतीयों द्वारा अधिक खाने के कारण खाद्यान्न संकट  दिख रहा है। ऐसा भी हो सकता है कि भारत और पाकिस्तान के लोगों का  करीब आना अमेरिका को सहन नहीं हो रहा है और परोक्ष रूप से पाकिस्तान के लोगों को यह संदेश दिया जा रहा हो कि इन भारत के लोगों से बचने का प्रयास करें क्योंकि अधिक खाते हैं और तुम्हारा अनाज भी खा जायेंगे।

अमेरिका की स्थिति अब डांवाडोल होती जा रही है क्योंकि इराक और अफगानिस्तान उसका बहुत बड़ा सिरदर्द साबित होने वाले हैं। अमेरिका भारत से जैसी  अपेक्षा कर रहा है वह पूरी नहीं हो रहीं हैं क्योंकि यहां की आंतरिक स्थिति भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। जार्जबुश का यह बयान किसी ऐसे ही तनाव  का  परिणाम प्रतीत  होती  है क्योंकि उनको अपने राष्ट्रपति  चुनाव से पहले यह भी पता नहीं था कि भारत है किस दिशा में। उनकी विदेशमंत्री कोंडला राइस भारत आती रहतीं है और फिर चली जातीं हैं। भारत की विविधताओं और विशेषताओं का उनको पता हो इस पर संदेह है। उनके बयान के बाद ही उसके समर्थन में जार्जबुश का यह कथन सामने आया है।

जार्जबुश के इस कथन में हमें इसमे कोई दोष नहीं देखना चाहिए क्योंकि वह एक अमीर राष्ट्र के प्रधान हैं। अमीरों की यह मनोवृत्ति होती है कि उनको गरीब का खाना, पीना और चैन से सोना  पसंद नहीं है-क्योंकि उनके नसीब से  यह चीजें चलीं जातीं हैं जब धन उनके पास आता है। मेरी नहीं तो कविवर रहीम के बात तो आप मानेंगे ही जो कह गये हैं कि अमीरों की पाचन शक्ति कम होती है। अब यह तो सब जानते हैं कि इस देह का सारा खेल भोजन की पाचन शक्ति पर निर्भर करता है। अगर वह नहीं है तो नींद अच्छी नहीं आयेगी और उसकी वजह से तनाव रहेगा।  अमेरिका के लोग भारतीय अध्यात्म इतने फिदा क्यों हैं? भारत के योग का प्रचार वहां क्यों बढ़ा है? क्योंकि अमेरिका में सुख-सुविधाओं के चलते शारीरिक परिश्रम का प्रचलन कम होता जा रहा है। हालत यह है के ढोंगी और पाखंडी बाबा भी वहां अपने चेले बनाकर अपना काम चला रहे हैंं।  मतलब यह कि भारतीयों के खाने पर यह की गयी टिप्पणी उनके ऐसे ही किसी तनाव का परिणाम लगती है जो इस समय उनके दिमाग में है।
इस देश में कई बार ऐसे भी दृश्य देखने को मिल जाते हैं कि सड़क पर लोग अपने ट्रकों और ट्रालियो के नीचे गर्मियों की दोपहर में मजदूर लोग खाना खाकर ऐसी नींद लेते हैं कि अमीरों को एसी में भी वह नसीब नहीं होती।

अमीरों को इस बात से सुख नहीं मिलता कि उनके पास संपत्ति, वैभव और प्रतिष्ठा है उनको यह दुःख सताता है कि उनके सामने रहने वाले गरीब उसके बिना कैसे जिंदा है? वह इतने आराम की नींद कैसे लेते है जबकि उनको इसके लिये गोलियां लेनी पड़ती है। हम जार्ज बुश का क्या कहें अपने देश के अमीर लोग भी क्या इससे अलग सोचते हैं और अब तो ऐसे राष्ट्राध्यक्ष का बयान आया है जिसको यहां का धनवान वर्ग बहुत मानता है और अब यहां गरीबों के खाने पर आक्षेप होंगे। अब यह भला कौन समझाए कि मेहनत करने से भूख अच्छी लगती है तो खाना भी आदमी खाएगा और खाएगा तो मेहनत भी करेगा। अच्छी भूख लगना और ईमानदारी से आय अर्जित करना  प्रत्येक व्यक्ति के भाग्य में नहीं होता। 

अमेरिका द्वारा सुझाये गये आर्थिक मार्ग पर यह देश चलता जा रहा है पर अभी भी किसानों की मेहनत पर ही इस देश की अर्थव्यवस्था जिंदा है। उद्योग की चमक जो शहरों में दिख रही है वह केवल कृत्रिम है यह सत्य तो कोई भी देख सकता है। अमीरों के पास राज है तो रोग भी हैं और उसके इलाज के लिये धन भी है पर गरीब के पास सिवाय अपनी देह के और क्या होता है और वह अगर उसे भी न बचाने तो जाये कहां। जिस औद्योगिक और तकनीकी विकास की बात कर रहे हैं उसमें गैर तकनीकी श्रमिकों और कर्मचारियों के लिये कोई जगह दिखती भी नहीं है और ऐसे संघर्ष में जो आदमी अगर रोटी कमा कर अपना चला रहा है उसके पास इतना समय भी नहीं होता कि अपने मन का दर्द किसी को सुना सके-वह तो उसके पसीने की बूंदों के साथ बाहर निकल जाता है। ऐसे में कई अमीर भी आक्षेप करते हैं कि गरीब अधिक खाते हैं इसलिये गरीब हैं ऐसे में अगर बुश साहब ने भी यह कह दिया तो उस पर अधिक परेशान होने की जरूरत नहीं है।

संत कबीर वाणीःभक्ति के लिये हृदय में शुद्ध भावना जरूरी


पाहन पानी पूजि से, पचि मुआ संसार
भेद अलहदा रहि गयो, भेदवंत सो पार
 
संत शिरोमणि कबीदासजी कहते हैं कि पत्थर और पानी को पूज कर सारे संसार के लोग नष्ट हो गये पर अपने तत्व ज्ञान को नहीं जान पाये। वह ज्ञान तो एकदम अलग है। अगर कोई ज्ञानी गुरु मिल जाये तो उसे प्राप्त कर इस दुनियां से पार हुआ जा सकता है।

पाहन ही का देहरा, पाहन ही का देव
पूजनहारा आंधरा, क्यौं करि मानै सेव

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मूर्ति  पत्थर की होती है और उसको घर में रखा जाता है वह भी पत्थर का है और लोग उसकी पूजा कर रहे हैं। जिसे खुद कुछ नहीं दिखाई देता वह भला आदमी की सेवा और भक्ति को कैसे स्वीकार कर सकता है।
आज के संदर्भ में व्याख्या-सच तो यह है कि पत्थरों की प्रतिमाएं या मकान बनाकर उसमेें लोगों को अपनी आस्था और भक्ति व्यक्त करने के परंपरा इस संसार में शूरू हुई है तब से इस संसार में लोगों के मन में तत्वज्ञान के प्रति जिज्ञासा कम हो गयी है। लोग पत्थरों की प्रतिमाओं या स्थानों के जाकर अपने दिल को तसल्ली देते है कि हमने भक्ति कर ली और दुनियां के साथ भगवान ने भी देख लिया।  मन में जो विकास है वह जस के  तस रहते है जबकि सच्ची भक्ति के लिये उसका शुद्ध होना जरूरी है। इस तरह भक्ति या सेवा करने का कोई लाभ नहीं है। पत्थर की पूजा करते हुए मन भी पत्थर हो जाता है और उसकी मलिनता के कारण ं शुद्ध भक्ति और सेवा का  भाव नहीं बन पाता और  आध्यात्मिक शांति पाने के लिये किये गये प्रयास भी कोई लाभ नहीं देते। अगर हम चाहते हैं कि हमारे अंदर सात्विक भाव सदैव रहे तो ओंकार की भक्ति करें या निरंकार की भावना शुद्ध रखना चाहिए। 

 

चाणक्य नीतिःधन कमाने वाले धर्म की स्थापना नहीं कर सकते


अर्थाधीतांश्च  यैवे ये शुद्रान्नभोजिनः
मं द्विज किं करिध्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः

जिस प्रकार विषहीन सर्प किसी को हानि नहीं पहुंचा सकता, उसी प्रकार जिस विद्वान ने धन कमाने के लिए वेदों का अध्ययन किया है वह कोई उपयोगी कार्य नहीं कर सकता क्योंकि वेदों का माया से कोई संबंध नहीं है। जो विद्वान प्रकृति के लोग असंस्कार लोगों के साथ भोजन करते हैं उन्हें भी समाज में समान नहीं मिलता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- आजकल अगर हम देखें तो अधिकतर वह लोग जो ज्ञान बांटते फिर रहे हैं उन्होंने भारतीय अध्यात्म के धर्मग्रंथों को अध्ययन किया इसलिये है कि वह अर्थोपार्जन कर सकें। यही वजह है कि वह एक तरफ माया और मोह को छोड़ने का संदेश देते हैं वही अपने लिये गुरूदक्षिणा के नाम भारी वसूली करते हैं। यही कारण है कि इतने सारे साधु और संत इस देश में होते भी अज्ञानता, निरक्षरता और अनैतिकता का बोलाबाला है क्योंकि  उनके काम में निष्काम भाव का अभाव है। अनेक संत और उनके करोड़ों शिष्य होते हुए भी इस देश में ज्ञान और आदर्श संस्कारों का अभाव इस बात को दर्शाता है कि धर्मग्रंथों का अर्थोपार्जन करने वाले धर्म की स्थापना नही कर सकते।

सच तो यह है कि व्यक्ति को गुरू से शिक्षा लेकर धर्मग्रंथों का अध्ययन स्वयं ही करना चाहिए तभी उसमें ज्ञान उत्पन्न होता है पर यहंा तो गुरू पूरा ग्रंथ सुनाते जाते और लोग श्रवण कर घर चले जाते। बाबआों की झोली उनके पैसो से भर जाती। प्रवचन समाप्त कर वह हिसाब लगाने बैठते कि क्या आया और फिर अपनी मायावी दुनियां के विस्तार में लग जाते हैं। जिन लोगों को सच में ज्ञान और भक्ति की प्यास है वह अब अपने स्कूली शिक्षकों को ही मन में गुरू धारण करें और फिर वेदों और अन्य धर्मग्रंथों का अध्ययन शुरू करें क्योंकि जिन अध्यात्म गुरूओं के पास वह जाते हैं वह बात सत्य की करते हैं पर उनके मन में माया का मोह होता है और वह न तो उनको ज्ञान दे सकते हैं न ही भक्ति की तरफ प्रेरित कर सकते हैं। वह करेंगे भी तो उसका प्रभाव नहीं होगा क्योंकि जिस भाव से वह दूर है वह हममें कैसे हो सकता है।

क्रिकेट में अब देशप्रेम का सुख नहीं उठाते-हास्य कविता


आया फंदेबाज और बोला
‘क्या दीपक बापू किक्रेट भूल गये देखना
पता नहीं तुम्हें अब यहां
क्रिकेट मैच चल रहे हैं
तुम्हारे नेत्र उनका आनंद उठाने की बजाय
कंप्यूटर में जल रहे हैं
क्यों नहीं कुछ मजा उठाते’

सुन कर पहले उदास हुए
फिर टोपी लहराते हुए कहें दीपक बापू
‘जजबातों में बहकर देख लिया
जिनकी जीत पर हंसे
और हारने पर रोए
उनके खिलवाड़ को सहकर देख लिया
कमबख्तों ने  पहले राष्ट्रप्रेम जगाने के लिये
आजादी के गाने सुनवाये
और हमारे जजबातों से खूब पैसे बनाये
अब क्रिकेट हो गया बाकी सब जगह कंगाल
विदेशी खिलाड़ी हो रहे बेहाल
किसी भी तरह इस देश में ही कमाना है
पर बाहर ही तो रखना अपना खजाना है
इसलिये देश में अंदर ही बंटने के लिये
देश की बजाय टीमों के नाम की भक्ति के लिये
नये-नये मनोरंजक तराने बनवाये
अब तो देशप्रेम उनको सांप की तरह
डसने लगता है
क्योंकि विदेशी नाराज न हो जायें
इससे शरीर उनका कंपता है
हमें तो लगने लगा है कि
इतिहास में ही आडम्बर भरा पड़ा है
गुलामी का दैत्य तो अब भी यहीं खड़ा है
कभी इस देश को एक करने के लिये
सब जगह नारे लगे
अब बांटने के लिये सितारे लगे
पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में
मनोरंजन के नाम पर बांटा जा रहा है
देशप्रेम से शायद व्यापार नहीं होता
विश्व के सबसे उपभोक्ता यहीं हैं
उनको बांटने से ही कई लोगों का
बेड़ा पार यहीं होता
देशप्रेम हम नहीं छोड़ पाते
उसके नाम के बिना क्रिकेट में सुख नहीं पाते
लोग उसे भुलाने के लिये
बन  रहे हैं बैट बाल के खेल में
पेश कर रहे हैं नृत्य और गाने
उसे देखेंगे शोर के दीवाने
हास्य कविता लिखेंगे हम जैसे सयाने
अब हम क्रिकेट से मनोरंजन नहीं उठाते
……………………………………

आठ साल की बच्ची का हाथ कैसे कुचला जा सकता है-आलेख


आज श्री सुरेश चिपलूनकर जी ने कुछ फोटो की श्रृंखला भेजी जिसने मेरा मन विचलित कर दिया। वह अकेले ऐसे ब्लागर हैं जिनसे मैं व्यक्तिगत रूप से मिल चुका हूं। मुलाकात के बाद वह अपने ब्लाग और ऐसे फोटो ईमेल से भेज देते हैं। उनका लेखन कितना प्रभावी है यह बताने की आवश्यकता नहीं है पर उनके द्वारा प्रेषित फोटो भी बहुत संदेश देते हैं।

उनके बारे में विस्तार से कभी समीक्षा लिखूंगा पर आज उनके द्वारा भेजे गये फोटो ने तत्काल  कुछ लिखने को मजबूर कर दिया। उनके कथानुसार यह फोटो ईरान से लिया गया है। वहां एक आठ वर्षीय लड़की पर ब्रेड चुराने का आरोप लगाया गया और फिर उसका हाथ कार के नीचे कुचला गया। उसके पास एक पेंटशर्ट पहने आदमी बकायदा इसकी घोषणा माइक पर करते दिखाया गया है। उसके आसपास भारी भीड़ खड़ी है।  मुझे यह फोटो देखकर बहुत तकलीफ हुई।

हमारे देश में भी अंधविश्वासों के कारण कई ऐसी घटनाएं होतीं हैं पर एक तो वह अशिक्षित लोगों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में की जातीं है और अगर उसकी जानकारी प्रशासन पर आये तो वह कार्रवाई भी करता है, दूसरे ऐसे कुकृत्यों को कोई सामूहिक सामाजिक समर्थन प्राप्त नहीं होता। मैं ऐसी घटनाओं पर बहुत लिख चुका हूं और एक बात तय है कि ऐसी घटनाओं को कानून की दृष्टि से कोई समर्थन नहीं मिलता। हम ईरान की बात कर रहे हैं वहां के धार्मिक कानून के अनुसार चोरी की सजा हाथ काट देने या कुचलना ही है। मतलब वहां उसे कानूनी संरक्षण प्राप्त है।

अपराध की दृष्टि से देखें तो चोरी सबसे छोटा अपराध है पर हम उसको बड़ा कहते हैं क्योंकि वह कमजोर लोगों द्वारा अपनी  भूख मिटाने के लिये किया जाता है। मैंने तो एक व्यंग्य भी लिखा है ‘‘चोरी करना पाप है’ यह एक नारे की तरह पढ़ाया जाता है। कहीं यह नहीं पढ़ाया जाता कि ‘रिश्वत लेना पाप है’ या अपहरण करना पाप है। अगर कोई स्कूल यह पढ़ाना शुरू कर दे तो उसके यहां लोग अपने बच्चों को भेजना ही बंद कर देंगे। आखिर वह बच्चों को इसलिये नहीं पढ़ाते कि उनका बच्चा पढ़लिखकर उच्च पद पर तो पहुंचे और ऊपरी कमाई न करे।

पर मैं इन फोटो पर कोई व्यंग्य नहीं लिख सकता। यह मेरे मन को विचलित करने वाली फोटों है। वह तो बच्ची है मैं तो बड़ी आयु के आदमी पर भी ऐसा करने के  विरुद्ध हूं। खासतौर से तब यह वह डबलरोटी चोरी करने के आरोप में दी गयी है। एक समय की भूख के लिये उस बच्ची का जिंदगी भर का हाथ नष्ट करना एक जघन्य अपराध है। होना तो चह चाहिए था कि उस बच्ची की व्यथा सुनकर उसके लिये कोई उपाय किया जाता पर उल्टे उसका हाथा कुचला गया। मैं उन फोटो को अपने ब्लाग पर लाने में सफल नहीं हो पाया और वैसे भी मैने अपने शब्दों में ही जो चित्र खींचा उसे आप पढ़कर समझें तो ठीक रहेगा। वैसे मैंने चिपलूनकर जी सच ईमेल किया है कि वह ऐसी फोटो के लिये एक अलग ब्लाग शुरू करें क्योंकि कई बार चित्र भी बहुत कुछ कह जाते हैं।  आखिर एक गरीब आठ साल की बच्ची का हाथ केवल इसलिये जिंदगी भर के लिये कैसे नष्ट किया जा सकता है जिसने एक समय के खाने के लिये डबलरोटी चुराई हो। यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि मैंने जो भी  कुछ लिखा है वह चिपलूनकर जी के उसी फोटो को देखकर ही लिखा है।

बंधे सबके अपनी मजबूरी से हाथ-हिन्दी शायरी (hand of men-hindi shayri)


यूं दर्द बांटने चले थे जमाने के साथ
शायद बढे मदद के लिए अपनी तरफ हाथ
हम खड़े देखते रहे
लोग हंसते रहे
जो हमने पूछी वजह तो
बताया‘यहां सब सुनाने आते हैं दर्द
कोई नहीं बनता  किसी का हमदर्द
मूंहजुबानी बहुत वादे करने की
होड़ सभी लोग करते
पर देता कोई नहीं साथ
बंधे सबके  अपनी मजबूरी से हाथ

हमने भी कुछ खोया नहीं-हिन्दी शायरी


अपनी राह चलते जाना है
कहीं फूल बरसेंगे
तो कहीं लोग ताने कसेंगे
थोड़ी खुशी के लिये
बहुत दूर तक ढूंढते बहाने
निराश होने पर
भागने लगते हैं गम भुलाने
ऐसे लोगों के इशारे पर
अगर चले जिंदगी की राह पर
तो ताउम्र अपनी मंजिल को तरसेंगे
……………………………………………….

उनके इशारे पर लड़ते रहे जमाने से
वह तो रहे पर्दे में, मतलब रख कमाने से
जो वक्त आया तो फेर लीं नजरें हमसे
जब मिलने गये तो लगे अनजाने से
उन्होंने बहुत कुछ पा लिया
पर हमने भी कुछ खोया नहीं
हमें भी मतलब था
कुछ जिंदगी के सच देखने से
अपना मकसद पूरा किया
अपनी जिंदगी को आजमाने से

एक ढूंढो हजार मूर्ख मिलते हैं-आलेख


कल बिहार में एक स्थान पर एक महिला को जादूटोना करने के आरोप जिस बहशी ढंग से अपमानित किया गया हैं वह देश के लिये शर्म की बात है। यह कोई पहली घटना नहीं है जो ऐसा हुआ है और न शायद यह आखिरी अवसर है। पहले भी ऐसी घटनाएं हो चुकी है। यह कोई अभी नहीं हो रहीं है बल्कि सदियो से हो रहीं हैं यह अलग बात है कि अब सूचना माध्यम के शक्तिशाली होने की वह राष्ट्रीय पटल पर आ जातीं है। ऐसी घटनाओं को देख कर अपने इस समाज के बारे में क्या कहें?

एक तरफ प्रचार माध्यम यह बताते हुए थकते नहीं हैं कि भारतीय संस्कृति को विदेशी लोग अपना रहे है- कहीं कोई विदेशी जोडा+ भारतीय पद्धति से विवाह कर रहा है तो कहीं कोई विदेशी दुल्हन देशी दूल्हे से विवाह कर देशी संस्कृति अपना रही है तो कहीं विदेशी दूल्हा देशी दुल्हन के साथ सात फेरे लेकर भारत की संस्कृति आत्मसात रहा है। एसी खबरें पढ़कर लोग खुश होते है कि हमारी संस्कृति महान है।

ऐसे प्रसंग केवल विवाह तक ही सीमित रहते है और हम मान लेते हैं कि हमारी संस्कृति और संस्कार महान है। मगर क्या हमारी संस्कृति विवाह तक ही सीमित है या हमारी सोच ही संकीर्ण हो गयी है। हिंदी फिल्मो में एक प्रेम कहानी जरूर होती है जो तमाम तरह के घुमाव फिराव के बाद विवाह पर समाप्त हो जाती है। फिल्म के लेखक विवाह के आगे इसलिये नहीं सोच पाते कि वह भारतीय समाज से जुड़े है या इन फिल्मों को देखते-देखते हमारे समाज की सोच विवाह के संस्कार तक ही सिमट गयी है यह अलग विचार का विषय है। हां, समाज पर फिल्म का प्रभाव देखकर तो यही लगता है कि अब लोग इससे आगे सोच नहीं पाते।

मैंने जब यह दृश्य देखा तो बहुत क्रोध आ गया। वजह! मेरा मानना है कि महिला चाहे कितनी भी बुरी हो वह क्रूर नहीं होती। उसे गांव का एक बुड्ढा आदमी मार रहा था और अन्य औरतें भी उसे मार रहीं थीं। उसके बाल काटे गये। इस बेरहमी पर उसे बचाने वाला कोई नहीं था। मुझे तो उन गंवारों पर बहुत गुस्सा आ रहा था मेरा तो यह कहना है कि उनमें जो महिलाएं थी उन सबसे खिलाफ भी कड़ी कार्यवाही होना चाहिए।

ऐसी घटनाऐं देखकर मन में अमर्ष भर जाता है। हम जिस कथित संस्कृति की बात करते हैं उसका स्वरूप क्या है? आज तक कोई स्पष्ट नहीं कर सका। यहां मैं बता दूं कि अध्यात्म अलग मामला है और उसका जबरदस्ती संस्कारों और संस्कृति से जोड्ने की जरूरत नहीं है क्यांकि कोई भी विवाह श्रीगीता का पाठ पढ़कर संपन्न नहीं कराया जाता जो कि हमारे अध्यात्म का मुख्य आधार है। उसे कई लोग अपनी जिन्दगी में नहीं पढ़ते और अपनी औलादों को भी नहीं पढ़ने देते कि कहीं उसे पढ़कर वह विरक्त न हो जायें और बुढ़ापे में हमारी सेवा न करें। अंधविश्वास और रूढियों के कारण इस देश का समाज पूरे विश्व में बदनाम है और हम जबरन कहते हैं कि बदनाम किया जा रहा है। गाव में अनपढ़ तो क्या शहर के पढ़े लोग भी अपनी समस्याओं के लिये जादूटोना करने वाले ओझाओं और पीरों के पास जाते है।
खानपान और रहन-सहन में कमी की वजह से बच्चा बीमार हो गया तो कहते हैं कि किसी की नजर लग गयी। मां.-बाप की लापरवाही की वजह से बच्चा बहुंत समय ठीक नहीं हो रहा है तो लगाते है आरोप लगाते कि किसी ने जादूटोना किया होगा।

कमअक्ली के कारण किसी भी काम में सफल नहीं हो रहे तो दूसरों को दोष देते हैं। गांव और शहर एक बहुंत बड़ा तबका अपने आलस्य और व्यसनों की आदतों की वजह से हमेशा संकट में रहता है। आदमी दारू पीते हैं अपने घर में खर्चा नहीं देते पर घर की महिलांए किसी को अपनी पीड़ा नहीं बतातीं और फिर अपना मन हल्का करने के लिए शुरू होता है जादूटोना वाले ओझाओं के पास जाने को दौर।
वह बताते हैं कि उपरी चक्कर है किसी ने जादूटोना किया है। कभी ‘अ’ से नाम बतायेंगे तो कभी ‘ब’ से। ऐसे में कोई निरीह औरत अगर उनके गांव में हो तो उसकी आफत। गांव में एक.दूसरे के प्रति अंदर ही अंदर दुश्मनी रखने वाले लोग मौके का फायदा उठाते हैं और अगर उस औरत को कोई नहीं है और गांव के बूढ़े जो बाहर से भक्त बनते है और अंदर के राक्षस हैं अपना मौका देखते है। ऐसे में कहना पड़ता हैं कि ‘रावण मरा कहां है’। एक निरीह औरत को मारती हुई औरतें क्या भली कहीं जा सकतीं है। आखिर ऐसी समस्या किसी पुरुष के साथ क्यों नहीं आती?

एक प्रश्न अक्सर समझदार और जागरुक लोग उठाते है कि ं हमारे देश में आजकल अनेक साधु संत हैं जिनका प्रचार पूरे देश में है पर इनमें से कोई भी इन चमत्कारों के खिलाफ नहीं बोलता बल्कि ईश्वरीय चमत्कारों की कथा सुनाकर वाहवाही लूटते है। भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम का नाम तो केवल लोग दिखावे के लिये लेते हैं। यह सही हैं कि यज्ञ, हवन, मंत्रजाप और मूर्ति पूजा से मानसिक लाभ होता है क्योंकि इससे आदमी के मन में विश्वास पैदा होता है और वह सात्विक कर्म करने के लिये प्रेरित होता है। इसका लाभ भी उसी का होता है जो स्वयं करता है। अगर एसा न होता तो ऋषि विश्वामित्र भगवान श्रीराम को अपने यज्ञ और हवन की रक्षा के लिये नहीं ले जाते और श्रीराम जी बाणों से राक्षसों का वध नहीं करते बल्कि खुद भी मंत्रजाप और यज्ञ-हवन करते। हमारें मनीषियों ने हमेशा ही जादूटोनों और चमत्कारों का विरोध करते हुए सत्कर्म को प्रधानता दी है। जबकि हमारें देश का एक बहंुत बड़ा वर्ग जो उनको मानने और उनके बताये रास्ते पर चलने के जोरशोर से चलने को दावा तो करता है पर वह ढोंगी अधिक है। आत्ममंथन तो कोई करना नहीं चाहता। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय अध्यात्म हमारे देश की अनमोल निधि है पर अपने देश में जिस तरह जादूटोना ओर चमत्कारों का प्रचार होते देखते है तो यह कहने में भी संकोच नही होता कि दुनियां के सबसे अधिक बेवकूफ हमारे देश में ही बसते है एक ढूंढो हजार मिलते है।

देशी कुत्तों की तस्करी की खबर सुनकर आयी मुझे अपने कुत्ते की याद-आलेख


देशी कुतों की तस्करी भी हो सकती है कि यह कभी हमें सोचा भी नहीं था। आज टीवी में यह खबर सुनकर हम हैरान हो गए, पर खबर तो खबर है। बाकायदा नागालेंड भेजने के लिए उनको तैयार किया गया था। वहां उसके मांस से खाद्य सामग्री बनायी जाती है जिसे बडे शौक से खाया जाता है।

हमने सबके मांस खाने की खबर पढी है पर देशी कुत्तों का भी मांस खाया जाता है यह हमने पहली बार सुना है। कुत्ता बहुत वफादार जानवर है और जिसका खाता है उसकी बजाता है। आवारा कुत्ता भी हम जिसे कहते हैं वह किसी गली या मोहल्ले का पालतू होता है जो वहां के निवासियों द्वारा फैंकी गयी खाद्य सामग्री खाकर काम चलाता है।

हमारे आध्यात्म/दर्शन के अनुसार गृहस्वामिनी को घर के भोजन पकाते समय पहली रोटी गाय के लिए और आखिरी रोटी कुते के लिए पकाना चाहिऐ। बृहद होते समाज में तमाम तरह के परिवर्तन आते गए और कुछ लोगों को याद रहा और कुछ को नहीं। गाय को तो पालतू बताया गया है कुत्ते को पालने का जिक्र नहीं किया गया पर उसका मनुष्य के साथ सह-अस्तित्त्व स्वीकार किया गया। उसकी जगह घर के बाहर मानी गयी और एक तरह से उसे सामूहिक रूप से पालतू पशु का दर्जा दिया गया है। गावों में कभी बच्चों के पत्थर खाते और कभी रोटी खाते यह देशी कुत्ते और कुछ करें या नहीं पर रात को उनकी आसपास उपस्थिति एक आत्मविश्वास जरूर देती है।

भारत में घर में निजी रूप से कुत्ते पालने का काम मुझे लगता है कि अंग्रेजों के समय में ही शुरू हुआ होगा। फिर शहरी सभ्यता में चूंकि पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव रहा है इसलिए बडे लोगों के साथ अब मध्यम वर्ग के लोग भी कुत्ते को पालने लगे हैं। हाँ इसमें भी लोगों ने देशी कुत्तो के नस्लों से अपने परहेज दिखाई है। खिलोना टाईप के पामोलियन के कुत्ते अधिक पाले जाते हैं। जब हम अपना मकान बना रहे थे तो हम जहाँ किराए पर रहते थे उसके मालिक देशी कुत्ते का बच्चा ले आये। उनकी माँ, पत्नी और बच्चों ने इसका विरोध किया। उस समय हम अपना मकान बनाने के लिए शुरू करने वाले थे तो उन्होने हमसे कहा-”यह कुत्ता आप रख लो। नये मकान में काम आएगा।”
मकान मालिक की बात का हमने प्रतिवाद किया पर हमारी श्रीमतीजी ने उसे स्वीकार कर लिया। हमें डेढ़ वर्ष मकान बनाने में लगा और फिर उसे अपने साथ ले आये। दस वर्ष तक हमारे साथ वह रहा और पिछले वर्ष उसका निधन हो गया। बिलकुल बच्चों की तरह रहा और उसकी मौत पर हमें बहुत दुख हुआ और खुशी भी क्योंकि उसका अंत हमसे देखा नहीं जा रहा था। बहरहाल देशी कुत्तों को कई लोग विदेशी कुत्तों के मुकाबले श्रेष्ठ मानते हैं और अपने स्वर्गीय कुत्ते के प्रति मेरे मन में इतना सम्मान है कि मैं उनकी नस्ल पर कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं करता।
पहले देशी कुत्तों को भोजन-पानी वगैरह बहुत आसानी से मिल जाता था पर बदलते परिवेश ने उनको भी प्रभावित किया है अब वह एक गली-मोहल्ले से दूसरे में अपना भोजन पानी उनको ढूढने जाना पड़ता है। हमारे देश में देशी आवारा कुत्तों की बहुत बड़ी संख्या में है और इस तरह उनके मांस की तस्करी की संख्या बड़ी तो हो सकता है कि एक दिन इसकी नस्ल बचाने के लिए सोचने लगें। हमेशा साथ रहने वाले इन देशी कुत्तों को वही आदमी देखते हैं जो सभी जीवों के प्रति एक जैसा दृष्टिकोण एक जैसा है। मैं अपने कुत्ते की याद करता हूँ तो लगता है कि शुरूआती दिनों में मेरा ध्यान उस पर नहीं जाता था पर वह मुझे हर पल देखता था। शाम को जब मैं घर लौटता था तो वह भले ही पामोलियन की तरह लहराता हुआ नहीं आता था पर उसकी आखों के भाव बताते थे कि वह कुछ सोच रहा है। आदमी अपने देहाभिमान में किसी तरफ नहीं देखता पर अन्य जीव उसे देखते हैं, इसकी अनुभूति अपने उसी पालतू कुत्ते से हुई। इंसान को इस धरती पर केवल अपना अस्तित्व ध्यान में रखता है जबकि अन्य जीव अपनी जीविका के लिए उस पर निर्भर हैं और उसकी जीविका का आधार भी हैं। इस मामले में भारतीय दर्शन में सबसे अग्रणी है कि उसमें जीव और जीवात्मा की प्रधानता है न कि केवल मनुष्य देह की।

संत कबीर वाणी:मुहँ में डाले तेल से आंखों देखा घी भला


आंखों देखा घी भला, ना सुख मेला तेल
साधू सों झगडा भला, ना साकट सों मेल

आंखों से देखा घी का दर्शन भी अच्छा है और तेल तो मुख में डाला हुआ भी अच्छा नहीं है। साधू-संतो से झगडा भी अच्छा है परन्तु निगुरा (जिसका कोई गुरू नहीं है) से मेल-मिलाप कदापि अच्छा नहीं है, क्योंकि साधू से झगडा होने पर निर्णय अच्छा हो सकता है पर निगुरे से मेल-मिलाप कभी भी फलदायी नहीं हो सकता।

सीखै सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय
बिना समझै शब्द गहै, कछु न लोहा लेय

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति सत्य और न्याय के शब्दों को अच्छी तरह से ग्रहण करता है उसके लिए ही फलदायी होता है। परंतु जो बिना समझे, बिना सोचे-विचारे शब्द को ग्रहण करता है तथा रटता फिरता है उसे कोई लाभ नहीं मिलता ।

रहीम के दोहे:कलारी वाले के हाथ में दूध भी मदिरा लगता है


रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि
दूध कलारी कर गाहे, मद समुझै सब ताहि

कविवर रहीम का कथन है कि नीच व्यक्ति के संपर्क में रहने से सबको कलंक ही लगता है। मद्य बेचने वाले व्यक्ति के हाथ में दूध होने पर भी लोग उसे मदिरा ही समझते हैं।

रहिमन निज संपत्ति बिना, कोउ न विपति सहाय
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय

कविवर रहीम कहते हैं कि अपने धन के अतिरिक्त आपत्ति आने पर अन्य कोई सहायता नहीं करता जैसे बिना जल के कमल के मुरझाने पर सूर्य भी उसको जीवन प्रदान नहीं कर पाता।

अपने मुहँ से अपनी तारीफ़-हास्य व्यंग्य


अब दो फिल्म अभिनेताओं में झगडा शुरू हो गया है कि वह नंबर वन हैं। आज जब मैंने यह खबर एक टीवी चैनल पर सुनी तो मुझे हैरानी नहीं हुई क्योंकि हमारे बुजुर्ग कहते रहे हैं कि चूहे को मिली हल्दी की गाँठ तो गाने लगा कि ”मैं भी पंसारी, मैं भी पंसारी”। ऐसा भाव आदमी में स्वाभाविक रूप से होता भी है थोडा बहुत नाच-गा लेता है या लिख लेता तो उसके दिमाग में नंबर वन का कीडा कुलबुलाने लगता है। थोडे ठुमके लगा लिए और कुछ इधर-उधर टीप कर लिख लिया। और फिर सोचने लगता है कि अब कोई कहेगा कि अब तुम नंबर वन हो। जब कोई नहीं कहता तो खुद ही कहने लगता है कि ‘मैं नंबर वन हूँ’। उसकी बात कोई न सुने तो वह और अधिक चीखने और चिल्लाने लगता है कि जैसे कि उसका मानसिक संतुलन गड़बड़ होता दिखता है।

कम से कम इस मामले में मैं बहुत भाग्यशाली हूँ कि खराब लेखनी की वजह से मेरे अन्दर एक कुंठा हमेशा के लिए भर गयी कि लिखने के मामले में मुझे कहीं भी नंबर नहीं मिलेगा। निबंध लिखता था तो टीचर कहते थे तुम्हारी राईटिंग खराब है इसलिए नंबर कम मिलेंगे पर पास होने लायक जरूर मिलेंगे क्योंकि लिखा अच्छा है। इस कुंठा को साथ लेकर साथ चले तो फिर नंबर वन की कभी चिंता नहीं की। अंतर्जाल पर लिखते समय यह तो मालुम था कि कोई नंबर वन का शिखर हमारे लिए नहीं है इसलिए अपने शिखर को साथ लेकर उतरे और वह था सतत संघर्ष की भावना और आत्मविश्वास जिसके बारे में हमारे गुरु ने कह दिया कि वह तुम में खूब है और कहीं अगर किसी क्षेत्र में कोई नंबर वन का शिखर खाली हुआ तो तुम जरूर पहुंचोगे। हम उनकी बात सुनकर खुश हुए पर आगे उन्होने कहा पर इसकी आशा मत करना क्योंकि इसके लिए तुम्हें विदेश जाना होगा भारत में तो इसके लिए सभी जगह सिर-फुटटोबल होती मिलेंगी। इस देश में लोग हर जगह नंबर वन के लड़ते मिलेंगे और तुम यह काम नहीं करो पाओगे।

हमने देखा तो बिलकुल सही लगा। घर-परिवार, मोहल्ला-कालोनी, नाटक–फिल्म और गीत-संगीत, साहित्य और व्यापार में सब जगह जोरदार द्वंद्व नजर आता है। हम भी कई जगह सक्रिय हैं और जब लोगों को नंबर वन के लिए लड़ते देखते हैं तो हँसते हैं। एक बात मजे की है कि कोई हमें नंबर वन के लिए आफर भी नहीं करता और हमें भी अफ़सोस भी नहीं होता। एक बार एक संस्था के अध्यक्ष पद पर भाई लोगों ने खडा कर दिया और मैंने अन्तिम समय में अपना नाम वापस ले लिया, क्योंकि मुझे लगा कि पूरे साल मैं अपनी आजादी खो बैठूंगा पर कार्यकारिणी के सदस्य पर लड़ा और जीता। सात सौ सदस्यों वाली उस समिति में सात कार्यकारिणी सदस्यों में नंबर वन पर आया। तब मुझे हैरानी हुई पर यह सम्मान मुझे अपने लेखक होने के प्रताप से मिला था और फिर आगे कई संस्थाओं से जुडे होने के बावजूद मैंने कहीं चुनाव नहीं लड़ा क्योंकि अगर मुझे अपने लिखे से ही लोगों का प्यार मिलना है तो मुझे कुछ और क्या करने की जरूरत है।

हिन्दी फिल्मों में अभिनेता करोडों रुपये कमा रहे हैं पर उनका मन भटकता हैं नंबर वन के लिए। उसका आधार क्या है? फिल्मी समीक्षक फिल्म के परिश्रम को मानते हैं। आजादी देते समय अंग्रेज जाते समय हमारे अक्ल भी ले गए और हम सारे आधार पैसे के अनुसार ही करते हैं। आजकल क्रिकेट के व्यापार में उतरे फिल्मी हीरो और चाकलेटी हीरो में नंबर वन का मुकाबला प्रचार माध्यम चला रहे हैं एक हीरों खुद ही दावा कर दिया कि वह नम्बर वन हैं। सच कहूं तो आजकल प्रचार माध्यम में कुंठित लोगों का जमावडा है और उनको खुद पता नहीं क्या कह रहे हैं? किसी समय मिथुन चक्रवर्ती को गरीबों का अमिताभ बच्चन कहा जाता था और इसलिए उनको नंबर वन फिर भी किसी ने नहीं कहा क्योंकि उनका पारिश्रमिक अमिताभ बच्चन जितना नहीं था।मैं अमिताभ बच्चन का कभी प्रशंसक नहीं रहा पर आज मैं मानता हूँ अपने दूसरी पारी में अमिताभ एक नंबर से नौ नंबर तक हैं और दसवें पर कोई है तो अक्षय कुमार। बाकी जो खुद को नंबर वन के लिए प्रोजेक्ट कर रहे हैं या मीडिया प्रचार कर रहा हैं वह किसी अन्य व्यवसायिक कारणों से कर रहे हैं।
जिनकी मुझे आलोचना करनी होती है मैं उनके नाम नहीं देता क्योंकि उसे इस बहाने व्यर्थ प्रचार देना है और जिनकी मुझे प्रशंसा करनी होती है उनका नाम लेने में मुझे कोई हिचक नहीं होती। अक्सर मेरी हर वर्ग और आयु के लोगों से चर्चा होती है और उनसे मुझे बात कर यही लगता है कि कुछ लोगों को मीडिया जबरन लोगों पर थोप रहा है। अगर अभिनय की बात करें तो ओमपुरी और नसीरुद्दीन शाह, सदाशिव अमरापुरकर और अमरीशपुरी जैसे अभिनेताओं को तो फिल्म समीक्षकों और प्रचार माध्यमों द्वारा कभी गिना ही नहीं जाता जबकि लोग आज भी इनके कायल हैं। वैसे भी अमिताभ बच्चन अभी सक्रिय है और नंबर वन का सिंहासन अभी उनके नाम है और उनके बाद अक्षय कुमार की छवि लोगों में अच्छी है।
अगर इस लेख को लिखते हुए हमें अपनी प्रशंसा कर डाली हो तो अनदेखा कर दें आखिर जब इस बीमारी सब ग्रस्त हैं तो हम कैसे बच सकते हैं. हमें कोई नहीं कह रहा कि तुन नबर वन ब्लोगर है इसलिए कभी ऐसा दावा करें तो मजाक समझना. माफी वगैरह तो हम मांगेंगे नहीं फिर व्यंग्य कैसे लिखेंगे.

हॉकी में ओलंपिक से बाहर होने के मायने-आलेख


ओलंपिक में भारत की हॉकी टीम नहीं होगी। टीम ओलंपिक जाती थी तो कौनसे तीर मारती थी कहने वाले तो कह सकते हैं। ओलंपिक दुनिया का सबसे बड़ा महाकुंभ है और उसमें भारत की पहचान केवल हॉकी से ही है और किसी खेल में भारत का नाम इतना नहीं है। जब ओलंपिक में सारे खिलाड़ी हार कर वापस लौटते हैं पर हॉकी टीम आखिर तक खेलती है और समापन कार्यक्रम में उसके खिलाड़ी भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। अब कौन बचेगा। यह भूमिका निभाने के लिए? तय बात है इसके लिए अब विचार होगा।

हमारी स्थिति अच्छी नहीं है यह सब जानते थे। चक डे इंडिया फिल्म महिला हॉकी पर बनी जिसमें भारत को काल्पनिक विजेता बना दिया। लोग फूले नहीं समाये। जिधर देखो चक दे इंडिया का गाना बज रहा था। ट्वंटी-ट्वंटी क्रिकेट विश्व कप में जब भारत जीता तो सारे अख़बार और टीवी चैनल इसे बजा रहे थे। मगर जिस हॉकी की पृष्ठ भूमि पर यह काल्पनिक कथानक गढा गया वह खेल सिसक रहा था। मैंने उस समय एक ब्लोग पर इस फिल्म के कथानक की तारीफ पढी तो मुझे हँसी आयी और मैंने उस पर खूब लिखा। जिस क्रिकेट खेल पर इस देश के प्रचार माध्यम कमा रहे है उसमें विश्व कप में बंगलादेश से हारा था यह भूलने वाली बात नहीं है। यह इतिहास में दर्ज रहेगा कि २००७ में भारत की क्रिकेट टीम अपमानित रूप से हार कर विश्वकप क्रिकेट से बाहर हुआ और इसे कोई बदल नहीं सकता।

मजे की बात यह है कि हॉकी की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में हीरो की भूमिका निभाने वाला हीरो आज क्रिकेट के बाजार में प्रवेश कर गया है और हॉकी कान तो नाम भी उसकी जुबान पर नहीं था। आखिर सवाल यह है कि चक दे इंडिया को हॉकी की पृष्ठभूमि पर क्यों बनाया गया क्रिकेट की क्यों नहीं? मेरा अनुमान है कि भारत के लोग क्रिकेट देखते हैं पर हॉकी को चूंकि राष्ट्रीय खेल के रूप में प्रचारित किया जाता है इसलिए लोगों का उससे आत्मिक लगाव है और इसी कारण उनकी भावनाओं का दोहन करना आसान है।फिल्म बनाना एक व्यवसाय है और इसमें कोई बुराई भी नहीं है पर हमारे देश के लोग बहकावे में आ जाते हैं तब उस पर विचार तो करना ही होता है। बहुत दिन तक गूंजा चके दे इंडिया का नारा पर अब क्या?
हॉकी से पूरे विश्व में हमारी पहचान थी। अब चीन में होने वाले ओलंपिक में भारत हॉकी नहीं खेल सकेगा। इस समय मुझे कोई ऐसा कोई खिलाड़ी दिखाई भी नहीं देता जिसके वहाँ कोई ओलंपिक में पदक पा सकेगा। टेनिस के कुछ नाम चर्चित हैं पर उनकी विश्व में रेकिंग भी देख लेना जरूरी है। हाँ एक जो मजेदार बात मुझे लगती है और हंसी भी आती है कि भारत में एशियाड, कॉमनवेल्थ और ओलंपिक में कराने के प्रयास किये जाते हैं तो किस बूते पर?केवल पैसे के दम पर न! फिर हाकी पर पैसा खर्च क्यों नहीं करते? हम खेलों के मेले लगाने की बात करते हैं तो पर खिलाडियों को प्रोत्साहन देने के नाम पर सांप सूंघ जाता है।
क्रिकेट हो या टेनिस बहुत लोकप्रिय हैं पर हाकी भारत के खेलों का प्रतीक और आत्मा है। यह ठीक है कि वहाँ बहुत समय से कोई पदक नहीं जीता पर फिर भी एक संतोष था कि चलो अपना प्रतीक बना हुआ है। अब वहाँ से बाहर होने पर जो वास्तव में खेल प्रेमी हैं वह बहुत आहत हुए हैं और जो केवल आकर्षण के भाव से देखने वाले दर्शक हैं उनको इसका अहसास भी नहीं हो सकता कि भारत ने क्या खोया है? हॉकी हमारे आत्सम्मान का प्रतीक है जो हमने खो दिया है।

हम अपने आर्थिक विकास और सामरिक मजबूती का दावा कितना भी कर लें पर हमारे पडोसी देश चीन की जनता को अगले ओलंपिक में इस पर हंसने का खूब अवसर मिलेगा। आखिरी बात खेलों के किसी भी राष्ट्र के विकास का प्रमाण माना जाता है और जो ऐसे विकास के दावे करते हैं उन्हें हॉकी में भारत की हार एक आईने की तरह दिखाई जा सकती है। हॉकी खेल में विश्व के मानचित्र में बने रहना ही हमारे लिए ताज था और अब चाहे कितना भी कर लो अब वह आसानी से वापस आने वाला नहीं है अगर ऐसा करने वाले लोग होते तो इतने साल से गर्त में जा रहे इस खेल को बचाने की कोशिश नहीं करते।

दुआएं ही कर सकते हैं कि हाकी का अस्तित्व बचे-आलेख


अगले ओलंपिक में भारत की हाकी टीम नहीं खेलेगी। देश के नये खेल प्रेमियों को शायद ही इससे मतलब हो पर फिर भी पुराने खेल प्रेमियों को लिए यह खबर सदमें से कम नहीं है। इस देश के अधिकतर खेल प्रेमियों को क्रिकेट पसंद हैं पर सभी को नहीं वरना हाकी खेलने के लिए नये लड़के कहाँ से आते हैं? स्पष्टत: कुछ जगह अभी भी यह खेल खेलने वाले लड़के हैं और खासतौर से पंजाब में अभी भी यह लोकप्रिय है-हालंकि देश के अनेक भागों में लड़के आज भी हाकी खेलते हैं और उनकी संख्या इतनी है कि अगर सावधानी, ईमानदारी और कुशलता से प्रशिक्षण और चयन हो तो अभी भी हमारी विश्व में बादशाहत कायम हो सकती हैं।

क्रिकेट की लोकप्रियता को हॉकी के विकास में बाधा मानना बेकार का तर्क है। आस्ट्रेलिया, इंग्लेंड और दक्षिण अफ्रीका की हॉकी टीमें अच्छा खेलतीं है और क्रिकेट में भी उनकी बादशाहत है। एक श्रंखला में आस्ट्रेलिया पर जीत क्या हुई हमारे देश के प्रचार माध्यम सीना फुलाने लगे थे और अब हॉकी की दुर्दशा पर एक दिन रोकर सब बैठ जायेंगे। हाकी को राष्ट्रीय खेल (इसके लिए कोइ आधिकारिक दस्तावेज है इसकी जानकारी मेरे पास नहीं है) भी कहा जाता है और इसी खेल में हमारा अस्तित्व ही ख़त्म हो गया। अभी तक अनेक लड़के ओलंपिक और विश्व कप में जाने का ख्वाब यह सोचकर पालते थे कि क्रिकेट में सबको जगह तो मिल नहीं सकती तो क्यों न इसमें हाथ आजमाया जाये। कई नये लड़के राष्ट्रीय खेल में इसलिए भी आते हैं कि हो सकता है अच्छा खेलने पर कैरियर बन जाये। उनके लिए यह खबर बहुत दुखद: है।

जिस तरह हाकी में सब चल रहा है उससे तो नहीं लग रहा है कि अब इसमें इतनी आसानी से वापसी होगी। क्रिकेट जिसमें इतना पैसा है उसमें अभी भी वापसी कहाँ हुई है? एक दिवसीय मैचों में जब विश्व कप के दूसरे दौर में टीम पहुंचे तब कहना कि हाँ टीम में दम है। इक्का-दुक्का एक दिवसीय श्रंखला तो टीम जीत जाती है पर विश्व में हार कर बाहर आ जाती है। बात हाकी की हो रही है। इसमें हालत बहुत खराब है सबको मालुम था पर एकदम इसका अस्तित्व ही खतरे में आ जायेगा ऐसा सोचा नहीं था।

मैं थोडा कभी दार्शनिक भी हो जाता हूँ और इधर-उधर की बात भी कर ही जाता हूँ। हमारे देश में आजकल लोग कहते हैं कि सारे काम पैसे से होते हैं तो यहाँ बता दें अपने देश में ओलंपिक, एशियाड, और कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन कराने के लिए बहुत उत्साह जताया जाता है और वह बिना पैसे के नहीं होते और इसका मतलब तो यह है कि हमारे देश में पैसा तो है फिर हमारे खिलाडी बाकी खेलों में फिसड्डी क्यों है? मतलब पैसे से सब काम नहीं होते। सच तो क्रिकेट के विश्व कप में भारत की टीम की हार पर मुझे कोई अफ़सोस नहीं हुआ था क्योंकि मुझे पहले ही लग रहा था कि वह एक असंतुलित टीम है। हॉकी को कम देखता हूँ पर उसमें मेरी बहुत दिलचस्पी है और इस हर से मुझे वाकई दुख पहुंचा। सिवाय दुआ करने के अलावा क्या किया जा सकता है कि हाकी का खेल फिर वापस लोकप्रिय हो।

आंकडों का खेल भी इन्द्रजाल जैसा -आलेख


आज एक ब्लोग पर हमने वह वेब साईट देखी जिसमें सभी ब्लोग की कीमत का मूल्यांकन किया जा सकता है. उत्सुकतावश हमें उसे खोल कर देखा और अपने सभी ब्लोग की रेट लिस्ट ले आये. देखकर हैरान रह गए कि हमारे सभी ब्लोग फ्लॉप श्रेणी में हैं पर कुल जमा हम फ्लॉप नहीं हैं. आईये ज़रा इन ब्लोग की रेट लिस्ट पर नजर डालें. यह सही है की हमें अभी तक एक धेला भी पैसा नहीं मिला और आगे भी इसके आसार नहीं है पर अगर इसी तरह चलते रहे तो कोई न कोई ब्लोग अधिक कीमत पर आकर सबको चौंका देगा. अब यह वेब साईट विश्वास योग्य है या नहीं हमको नहीं पता. इधर हम अंतर्जाल पर अब किसी भी प्रकार का यकीन नहीं करते जबकि उसका कोई प्रत्यक्ष लाभ हमको नहीं हो फिर यह कंप्यूटर है इसमें आंकडों का हेरफेर तो आसानी से दिया जा सकता है.
ब्लोग का नाम और पता ——————– राशि डालरों में
१.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका——————— १५२४२.५८
२.दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका ——————– १२९८४.४२
३.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका ——————— १२४१९.८८
४.दीपक बापू कहिन ——————– ११८५५.३४
५.दीपक भारतदीप का चिंतन——————— १०१६१.७२
६.अनंत शब्दयोग——————– ९०३२.६४
७.शब्दलेख सारथी——————— ८४६८.१०
८.शब्दलेख पत्रिका——————– ६७७४.४८
९.शब्दज्ञान पत्रिका——————— ५६४५.४०
१० अंतर्जाल पत्रिका——————– ५०८०.८६
११.शब्द योग पत्रिका——————– २८२८.७०
१२. राजलेख की हिन्दी पत्रिका ——————— ००.००

कुल योग ——————– १००५३५.१२

१२ वें नंबर का ब्लोग क्यों नहीं आ रहा यह समझ में नहीं आया क्योंकि यह मेरा सबसे पहला ब्लोग है और इस पर ८० करीब पोस्टें हैं और उसका न आना आश्चर्य की बात है.
हमने अवलोकन किया तो उस ब्लोग पर ७३ हजार से ऊपर के ब्लोग था. अब यह पता नहीं है कि हिन्दी का सबसे महंगा ब्लोग कौनसा है पर जो नाम उनमें थे उससे अगर काल्पनिक रूप से सही माना जाये तो हमारे ब्लोग के कुल योग के आधार पर हम तो ठीकठाक हैं. भौतिक रूप से कुल राशि हमारे लिए वहाँ तभी हो सकती है अगर सब ब्लोग बिकने लगें. अगर हमारे सब ब्लोग को एक इकाई माना जाये तो कुल उनका मूल्य १००५३५.१२ डालर दिखाया गया है. अपने आप में मुझे यह एक रोचक हास्य लग रहा था. अगर कोई एक ब्लोगर एक ब्लोग के साथ ७५ हजार मूल्य के साथ हैं तो वह महंगा लगता है पर अगर एक ब्लोगर १२ ब्लोग के साथ उससे अधिक है तो क्या कहा जा सकता है? वाणिज्य का विधार्थी होने के नाते मुझे सांख्यिकी में बहुत दिलचस्पी रही है और इन आंकडों में अधिक माथा पच्ची करना मुझे ठीक नहीं लगा. भारत के हिन्दी ब्लोगर बहुत उत्साही हैं और वह नित-प्रतिदिन कुछ न कुछ ढूंढते रहते हैं. आज जब वह वेब साईट देखी तो मुझे आश्चर्य हुआ. हालांकि उसके सॉफ्ट वेयर की प्रमाणिकता के बारे में कुछ कहना मुशिकल है और हो सकता है उस पर काम चल रहा हो.

मैं हिट हूँ या फ्लॉप इस मसले पर माथापची करने की बजाय कोई फालतू कविता लिखना पसंद करता हूँ. भारत के उत्साही ब्लोगर किस तरह क्या करते हैं इस पर मेरी नजर रहती है. हाँ आंकडों के इस खेल में मैं यह सोच रहा था कि यार, मुझे भी एक या दो ब्लोग रखना था तो सब मिलाकर मेरा रेट कितना अधिक दिखता. सांख्यिकी किताब में ही मैंने पढा था कि आंकडे धोखा देने के लिए योजनाबद्ध ढंग से बनाए भी जाते हैं जो लोगों को गुमराह भी कर देते हैं पर एक लेखक होने के नाते यह भी जानता हूँ कि लोग इनमें रूचि भी बहुत लेते हैं. अगर आप रेट के हिसाब से देखेंगे तो मेरे ब्लोग बहुत पीछे होंगे पर कुल जमा में मेरा स्थान कोई कम रहने वाला नहीं है. हाँ आंकडों के खेल में हार जीत भी इसी तरह होती है.

इस समय हिन्दी ब्लोगर तेजी से बढ़ते जा रहे हैं और उन पर बाजार की नजर है. इस समय अभिव्यक्ति के सब माध्यम बहुत तेजी से अपनी आभा खो रहे हैं और अंतर्जाल पर ब्लोग अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बनाने वाले हैं. मेरा स्थान तो मेरी रचनाएं तय करेंगी पर कई ऐसे अन्य ब्लोगर यहाँ आयेंगे जो चमकेंगे. हाँ इसके लिए उनको आम पाठक के लिए लिखना होगा और उनको फोरमों पर मिलने वाले त्वरित टिप्पणी का मोह छोड़ना होगा. मेरे इस तर्क को चुनौती नहीं दे सकते क्योंकि मैं भी उनकी तरह अपने ब्लोगों पर ऐसे प्रयोग कर रहा हूँ. जिन रचनाओं को ब्लोगरों में सम्मान मिलता है वह आम पाठक के लिए कोई महत्त्व नहीं रखतीं और जो आम पाठक के लिए लिखी जाती हैं ब्लोगर उसे अधिक नहीं पढ़ते.

अंतर्जाल पर काम करना बहुत अच्छा है पर उसके साथ यह मानना कि कंप्यूटर पर रचे गए प्रमाणिक हैं तब तक ठीक नहीं होगा जब तक उसका कोई भौतिक पैमाना हमारे पास न हो. तमाम तरह के ईमेल मुझे आते हैं और अगर उनको सच मान लिया जाये तो मुझे अभी करोड़पति हो जाना चाहिऐ. जो रेट लगे हैं इसकी आधी कीमत पर भी कोई मेरा ब्लोग नहीं खरीदेगा. इसलिए आजकल के युवक-युवतियां इंटरनेट पर व्यवहार के दौरान किसी पर तब तक यकीन न करें जब तक उसका भौतिक सत्यापन न कर लें. इसी तरह अगर उनके सामने कोई आंकडे रखे जाते हैं तो उसका सत्यापन वह स्वयं करें. जब आदमी प्रत्यक्ष सामने खडा होकर झूठ बोल सकता है तो इस कंप्यूटर पर बिना सामने आये तो वह उसे भी बड़ा झूठ बोल सकता है. याद रखने वाली बात यह है कि कड़ी मेहनत करने से ही सफलता मिलती है और अगर असफल होते हैं तो इसका मतलब यह है कि हमारी नीयत में ही कोई खोट है. मैंने अपने जीवन में बहुत देखा है पर मैंने कोई ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जिसने ईमानदारी से मेहनत की हो और सफल नहीं हुआ हो. अगर में कहीं असफल हुआ हूँ तो उसमें मैंने अपने अन्दर ही खोट पाया है. यही कारण है कि इतने आत्मविश्वास से अंतर्जाल पर लिख रहा हूँ. मैं अपनी बात पूरे भारत में पहुंचाना चाहता हूँ और जानता हूँ इसमें कड़ी मेहनत ही एक उपाय है और अब बिना किसी की परवाह किये लिखे जा रहा हूँ और कई लोग ऐसे भी हैं जो बहुत विश्वास योग्य और मेरे मित्र हैं पर मेरा लक्ष्य है आम पाठक तक पहुंचना. मैं अपने मुहँ से अपना नाम नहीं लेना चाहता मैं चाहता हूँ कि लोग मेरा नाम लें और मैं अपने कानों से सुनूं. शेष फिर कभी

जो आम पाठक मेरे ब्लोग पढ़ना चाहते हैं वह मेरे इस ब्लोग का पता लिख लें.

https://dpkraj.wordpress.com

अप्रवासी और प्रवासी हिन्दी लेखक-आलेख


अप्रवासी ब्लोगरों को लेकर मेरे मन में बहुत जिज्ञासा रहती है क्योंकि उनके लिखे पर उस देश के परिवेश और संस्कृति की जानकारी मिल जाती है जो अन्य कहीं नहीं मिल पाती. हांलांकि समाचार पत्र-पत्रिकाओं में इस बारे में अक्सर छपता है पर वह अधिकतर सारे देश को इकाई मानकर लिखा जाता है और जो लिखते हैं वह अधिकतर विदेशी फोबिया से ग्रसित होते हैं. वहाँ रह रहे लोगों की मानसिक उतार-चढाव पर उनका नजरिया अधिक नहीं रहता है. हिन्दी के अप्रवासी भारतीयों से ही विदेशों में रह रहे अपने लोगों की बहुत अच्छी जानकारी मिल जाती है. इस बारे में ब्लोग तथा ई-पत्रिकाओं में सक्रिय लेखकों की रचनाओं से मैंने बहुत कुछ सीखा है.

शुरुआत में ई-पत्रिकाओं में मैंने कुछ कहानियां देखीं तो मुझे आश्चर्य हुआ यह देखकर कि अगर कुछ अच्छे लोग अपने साथ अच्छी बातें ले गए हैं तो कुछ बुरे भी हैं जो बुरी बातें ले गए हैं और यह भी कि सभी विदेशों में रह रहे लोग भले नहीं है. उनमें अपने देश के लोगों के साथ धोखा देने के प्रुवृतियाँ वैसी हैं जैसे यहाँ. कुछ कहानियां तो आँखें खोल देने वाली भी होतीं हैं. ब्लोग जगत में सक्रिय अप्रवासी भारतीयों के लिए ब्लोग अपने लोगों से भावनात्मक रूप से जुडे रहने का साधन भी है यह मैं मानता हूँ. चौपालों पर ब्लोगर भीड़ की तरह हैं और भीड़ में कौन क्या है यह समझ पाना मुश्किल होता है पर एक लेखक का काम यही है कि वह भी में न केवल अपनी पहचान बनाए बल्कि उसमें अपने लिए विषय के साथ अपने मित्र और साथी सही ढंग से तलाशने के साथ उसमें हर व्यक्ति को अलग-अलग कर पहचानने का प्रयास करे. अप्रवासी भारतीयों का लेखन के विषय भी हम प्रवासी भारतीयों की तरह हैं पर उनमें एक पृथक भाव अवश्य होता है और वह अपनी जन्मभूमि और लोगों से दूर रहने का भाव.
हम प्रवासी ब्लोगर यहाँ बैठकर जिन कठिनाईयों में-जैसी लाईट, यातायात, अपने कार्य और अपने सामाजिक तनाव- लिखते हैं वह अप्रवासियों को नहीं छूते पर उनके सामने और समस्याएं तो रहतीं हैं. उनके कार्यस्थल निवास स्थान से बहुत दूर होते हैं और सबसे बड़ी चीज जो मेरी नजर में आई हैं अपने देश के लोगों से उपेक्षा का भाव उन्हें वहाँ भी सालता है. एक जो सबसे अच्छी बात यह लगती है कि वह रुचिकर लिखने का प्रयास वह लोग करते हैं और नई जानकारियाँ भी उनसे मिलती हैं. शायद मेरे जैसे प्रवासी भारतीय ब्लोगर सोच रहे होंगे कि आखिर यह मैं सब कुछ लिख क्यों रहा हूँ? इसका जवाब यह है कि हम सब अपने देश के बारे में बहुत कुछ लिखते हैं पर रहन-सहन की हालातों को देखने तो सभी जगह कमोबेश एक जैसे हैं और इसलिए सतत पढ़ते रहने के बाद जब कुछ नया पढ़ने की इच्छा होती है तो इन्हीं अप्रवासी भारतीयों का लिखा मददगार होता है. ईपत्रिकाओं में मैंने कुछ ऐसी कहानियां भी पढी हैं जिनसे पता लगता है कि सब कुछ वैसा विदेशों में नहीं है जैसा यहाँ प्रचारित किया जाता है.
अप्रवासी ब्लोगर आमतौर से फोरमों पर चल रहे विवादों से दूर रहते हैं क्योंकि इससे उन्हें अपने सहृदय ब्लोगरों से दूरी होने की आशंका रहती हैं. इसके विपरीत हम प्रवासी इस खतरे से डरते नहीं क्योंकि यहाँ एक नहीं तो दूसरा मित्र बहुत सहजता से मिल जायेगा-शहर-प्रदेश, जाति, भाषा, कार्य की प्रकृति, विचारधारा और अन्य आधारों पर हमारे पास संपर्क बनाने के बहुत आधार हैं जिन पर देश में रहते हुए हमें कभी परेशानी नहीं आती और कुछ नहीं तो जिससे विवाद किया उससे समझौता करने में भी आसानी होती है. एक बात आपने देखी होगी कि समाज में विदेशों में नौकरी पाने और जाने का बहुत आकर्षण है पर प्रवासी ब्लोगर कभी इसके लिए ऐसा लालायित नहीं दिखाई देते क्योंकि इन्हीं अप्रवासी ब्लोगरों की पोस्टों से उन्होने वहाँ के हाल समझ लिए हैं. इसलिए अनेक पोस्टों पर ऐसी टिप्पणियाँ दिखाईं देतीं है कि’हम तो सोचते थे कि यहीं होता है वहाँ भी ऐसा होता है जानकार आश्चर्य होता है’.

संत कबीर वाणी:ज्ञान रुपी हाथी की सवारी कीजिए, भौंकने पर ध्यान न दीजिये


हस्ती चढ़िए ज्ञान की, सहज दुलीचा डार
श्वान रूप संसार है, भूंकन दे झकमार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं की ज्ञान रूपी हाथी पर सहज भाव से दुलीचा डालकर उस पर सवारी कीजिए और संसार के दुष्ट पुरुषों को कुत्ते की तरह भोंकने दीजिये, उनकी पवाह मत करिये.

कहते को कहि जान दे, गुरु की सीख तू लेय
साकट जन और स्वान को, फेरि जवाब न देय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दुनिया के लोग आलोचना और निंदा करते हैं और उनकी परवाह नहीं करना चाहिऐ. अपने गुरु की शिक्षा लेकर उस पर चलना चाहिऐ और कुछ दुष्ट लोग अगर निंदा करते हैं तो उनके भोंकने पर जवाब नहीं देना चाहिऐ.

चाणक्य नीति:देवता तो बस भावना में बसते हैं


1.जिस प्रकार फूल में गंध, तिल में तेल, लकडी में आग, दूध में घी और ईख में गुड होता है वैसे ही शरीर में आत्मा होती है यह विचार करना चाहिऐ।
2.देवता न कंठ में, न मिटटी की मूर्ति में होते हैं। वह तो केवल भावना में बसते हैं। इसलिए ही भावना ही सब कुछ है।
3.धातु, काष्ट और पाषाण की मूर्ति को भावनानुसार पूजन करने से ही भगवान की कृपा की सिद्धि होती है।
4. जो इंसान मुक्ति की इच्छा रखते हों तो उसे विषय रुपी विष को त्याग देना चाहिऐ। सरलता, पवित्रता और सत्य का अमृत की तरह पान करना चाहिए।
5.सोने में महक, ईख में फल, चन्दन में फूल, धनी-विज्ञान , दीर्घजीवी राजा क्या विधाता ने इनको नहीं बनाया। क्या ब्रह्मा की तरह कोई बुद्धि दाता न था। *
*इसका आशय यह है कि भला कहीं सोने में सुगंध होती है। ईख में फल और चन्दन में फूल नहीं होते। विज्ञान कभी धनी नहीं होता और राजा कभी दीर्घजीवी नहीं होता। विधाता ने ऐसा नहीं किया। क्या विधाता को ऐसी बुद्धि देने वाला कोई नहीं मिला था। सीधा आशय यह है की विधाता ने सब सोच समझकर बनाया है। उसकी महिमा इसलिए अपरंपार मानी जाती है।

विदुर नीति:अकेले वृक्ष के बलवान होने पर भी आंधी उसे गिरा देती है


*जलती लकडियाँ अलग-अलग होने पर धुआं और एक साथ होने पर अग्नि को प्रज्जवलित करतीं हैं इसी प्रकार फ़ुट होने पर लोग कष्ट उठाते हैं और एक होने पर सुखी होते हैं।
*यदि वृक्ष अकेला है तो बलवान, दृढ़ और बृहद होने पर भी एक ही क्षण में आंधी के द्वारा बलपूर्वक शाखाओं सहित धराशायी किया जा सकता है।
*जो बहुत बडे वृक्ष एक साथ रहकर समूह में खडे रहते हैं वह एक दूसरे को सहारा देकर बहुत शक्तिशाली तूफ़ान का भी सामना करते हैं
*समस्त गुणों से संपन्न होने पर भी शत्रु अपनी ताकत के अन्दर समझते हैं जैसे अकेले वृक्ष को वायु किन्तु परस्पर मेल होने से एक दूसरे के साथ रहने वाले लोग ऐसी ही शोभा प्राप्त करते हैं जैसे तालाब में कमल।

रहीम के दोहे:सज्जन सौ बार रूठे तो भी मनाएं


जैसी जाकी बुद्धि है, तैसे कहैं बनाय
ताकौं बुरो न मानी, लें कहाँ सो जाय

कविवर रहीम जी कहते हैं कि जिस मनुष्य की जैसी बुद्धि है वह उसके अनुरूप ही तो काम करता है। उस मनुष्य का बुरा मत मानिए क्योंकि वह और बुद्धि कहाँ लेने जायेगा।

टूटे सुजन मनाइये, जौ टूटे सौ बार
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार
कविवर रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार सच्चे मोतियों का हार टूट जाने पर बार-बार पिरोया जाता है, उसी प्रकार यदि सज्जन सौ बार भी नाराज हो जाएं तो भी उन्हें सौ बार ही मना लेना चाहिऐ क्योंकि वह मोतियों की तरह मूल्यवान होते हैं।

सच का भला कौन साथी होता-कविता


अगर अकेले चल सकते हो
जिन्दगी की राह पर
तो सत्य बोलो जो
हमेशा कड़वा होता
अगर अपने इर्द-गिर्द जुटाना चाहते हो
लोगों की भीड़ तो
झूठ बड़ी सफाई से बोलो
जो हमेशा मीठा होता

यहाँ सब सच से घबडाए
भ्रम की छाया तले
जिंदा रहने के आदी हैं लोग
सर्वशक्तिमान के नाम पर
बताये संदेशों की दवा बनाकर
किया जाता है उसका दूर रोग
पर सच यह कि
भ्रम का कोई इलाज नहीं होता
जिसने जीवन दिया
उसी सर्वशक्तिमान के क्रुद्ध होने का भय
दिखाते कई सयाने
तंत्र-मन्त्र से लगते दर्द भगाने
उनको ढोंगियों के चंगुल से
कभी कोई बचा नहीं सकता
जाली धंधे का जाल भी
इतना कमजोर नहीं होता

मन का अँधेरा आदमी को
खुशी की खातिर कहाँ-कहाँ ले जाता
मिलता रौशन चिराग का पता
वहाँ अपनी देह खींच ले जाता
जिन पर हैं जमाने के दिल को रौशन
करने का ठेका
वह भी नकली चिराग बेच रहे हैं
पुरानी किताबों के संदेशों पर
चुटकुलों के पैबंद लगाकर
लोगों से पैसे अपनी और खींच रहे हैं
सच कह पाना लोगों से कठिन है
क्योंकि उसमें आदमी अकेला होता
सच का भला कौन साथी होता

महिला जाग्रति के लिए-हास्य कविता


प्रदूषण पर आयोजित कार्यक्रम में वह विद्वान
बोल रहे थे
”घर से कितना भी सजकर
सड़क पर खुले में जाएं
तो गाड़ियों के धुएं में
सबके चेहरे काले हो जाएं
अगर जाएं बंद गाडी में
करें अपना सफर पूरा तो
लोगों को अपनी सुन्दरता पर
ध्यान कैसे दिलाएं
दुनिया में फैले प्रदूषण से
महिलाओं को खास परेशानी है
हम चाहते हैं कि इस समस्या को सब
मिलकर सुलझाएं”

कार्यक्रम की समाप्ति पर
वह आयोजकों से बोले
देखो मैं महिलाओं की समस्याओं को ही
उठाता हूँ और अब मेरा नाम
महिला जागृति के लिए
जहाँ भी पुरस्कार मिलता हो
वहाँ जरूर भिजवाएं’
————————–

रहीम के दोहे:जहाँ ईर्ष्या की गाँठ है वहाँ आनंद रस नहीं


जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग होय
मंड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय

कविवर रहीम कहते हैं कि यह संसार खोजकर देख लिया है, जहाँ परस्पर ईर्ष्या आदि की गाँठ है, वहाँ आनंद नहीं है. महुए के पेड़ की प्रत्येक गाँठ में रस ही रस होता है वे परस्पर जुडी होतीं हैं.

जलहिं मिले रहीम ज्यों, कियो आपु सम छीर
अंगवहि आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर

कविवर रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार जल दूध में मिलकर दूध बन जाता है, उसी प्रकार जीव का शरीर अग्नि में मिलकर अग्नि हो जाता है.

सुबह और शाम का दृश्य-लघुकथा


वह एक गृह स्वामी की तरह अपने पोर्च के नीचे खडा था . कालोनी का चौकीदार पैसे मांगने आया और बोला-”बाबूजी नमस्कार.
उसने अपने पहले दोनों हाथ जोड़े और अपना एक हाथ मांगने के लिए बढाया.
उसके जेब में दस, बीस, पचास और सौ के नोट थे, पर उसे तीस रूपये देने का मन नहीं हुआ और बोला-”यार, अभी हमें वेतन नहीं मिला. जब मिलेगा तो ले जाना.
वह चला गया. घर पर काम करने वाले बाई आई और काम कर जब जाने वाली थी तब बोली-”बाबूजी, आज हमें अपने दो सौ रूपये दे दीजिये.हमें अपने बेटे के लिए फीस भरनी है.”
यह उसके जेब में रखी रकम से कोई कम नहीं थी फिर भी उसने कहा-”अभी वेतन नहीं मिला. जब मिल जायेगा तो दे दूंगा.
वह चली गयी. कुछ देर बाद सड़क पर झाडू लगाने वाला आया और उसने नमस्कार की. उसे हर महीने बीस रूपये देने होते थे. उसे भी उसने वही जवाब दिया.
पत्नी ने कहा-”इतना पैसा तो अपने पास होता है, फिर आपने दिया क्यों नहीं? मुझसे ही लेकर देते.”
उसने कहा-”ठीक है. कल दे देंगे. क्या जाता है. कौनसा पहाड़ टूट पड़ रहा है. सुबह-सुबह सब भिखारियों की तरह मांगने चले जाते हैं. मुझे तो उनकी शक्ल देखकर ही नफरत होती है.

शाम को उसने अपना काम समाप्त किया और अपना वेतन मांगने के लिए प्रबंधक के पास गया. उसका जवाब था-”
कल ले लेना.”
”आज क्यों नहीं?आपके यहाँ तो पैसा हमेशा रहता है.”
प्रबंधक ने कहा-”हाँ, पर आज मुझे जल्दी जाना है, फिर आज मेरा असिस्टेंट भी नहीं है. अपनी तनख्वाह लेकर चला गया. उसे खरीददारी करनी थी.”

उसे बहुत गुस्सा आ गया और बोला-”क्या हम मेहनत नहीं करते? उस क्लर्क को जल्दी खरीददारी करनी थी पर हम क्या करेंगे?”
प्रबंधक ने कहा-”चिल्लाओ नहीं. वह मालिकों का रिश्तेदार है, अगर किसी ने सुन लिया तो इस नौकरी से भी जाओगे.
वह गुस्से में घर आया और अपनी पत्नी के सामने प्रबंधक और क्लर्क को गाली देना लगा गो वह बोली-”सुबह हमने क्या किया था? वही उन्होने हमारे साथ किया. अगर वह छोटे लोग कल तक इन्तजार कर सकते हैं तो फिर हम क्यों नहीं?”

वह हतप्रभ खडा था. देर रात तक सोते समय सुबह और शाम के दृश्य उसके सामने घूम रहे थे.

जल्दी टीवी बनवा लेना-हास्य कविता


घर में घुसते ही बाप ने बेटे से कहा
”बेटा तुम्हारी मां के कमरे में रखा टीवी
खराब हो गया है
अगर तुम बचना चाहते हो
गृहयुद्ध से तो आज
अपने कमरे में रखे टीवी के
प्लग में गडबडी कर देना
ताकि सास के मन को भी हो जाये तसल्ली
आज खामोश रहे
कल छुट्टी के दिन मां का टीवी
किसी भी तरह बनवा लेना
वैसे भी सास-बहु के सीरियल की
भयानक आवाजे सुनते
और बीभत्स दृश्य देखते
बोर हो गया हूँ
पर फिर भी टीवी जल्दी बनवा लेना
नहीं तो जो अभी तक
सीरियल में चल रहा है
उसे अपने घर के परदे पर
देखने का मन बना लेना
———————————-

एक सामान्य पहल से अधिक कुछ नहीं-आलेख


भारत में हिन्दी ब्लोग अभी शैशव काल में है और ब्लोगरों की संख्या देखें तो अपने देश के विशाल क्षेत्र को देखते हुए अभी भी नगण्य है, और जैसे जैसे इसका प्रचार होगा वैसे-वैसे ही इसमें बदलाव आयेंगे और उस समय जो स्वरूप होगा जिसकी कल्पना कोई इस समय तो नहीं कर सकता
किसी समय नारद हिन्दी ब्लोग का एकमात्र ऐसा फोरम था जिस पर सब ब्लोग एकत्रित होते थे, और दूसरे फोरम बनाने के बावजूद लोग उस पर नहीं जा रहे थे. एक बार नारद के तीन दिन तक खराब रहने के बाद भी लोग उस पर नहीं जा रहे थे तब मैंने एक पोस्ट डाली थी ”नारद का मोह न छोडें पर दूसरी चौपालों पर भी जाएं”. इसका असर हुआ और लोग दूसरी चौपालों पर जाना शुरू हुए. आज भी मेरे तरह कुछ लोग हैं जिनको नारद से मोह है पर उसकी ब्लोगवाणी से प्रतिस्पर्धा है जिसे मेरे लेख के बाद पाठक मिले तो ऐसे कि वह इस समय ब्लोगरों का पसंदीदा फोरम है.

अगर यह चौपाल वाले दूसरों की खबर रखते हैं तो दूसरों को भी इनकी खबर रखनी चाहिए. नारद और चिटठा जगत आपसे में जुड़ें फोरम हैं. आप कोई नया ब्लोग बनाएं और उसे चिटठा जगत पर पंजीकृत करें तो वह उसके अलावा नारद और हिन्दी ब्लोग्स पर अपने आप आ जायेगा पर ब्लोग वाणी पर आपको पंजीकृत कराना पडेगा. जो लोग चिट्ठाजगत के परिवर्तनों से चिंतित हैं उन्हें बता दूं कि इस तरह की कोई बात नहीं है. नारद अपने ऐसे बदलाव नहीं करेगा क्योंकि वह जानते हैं कि वह किसी काम का नहीं है. ब्लोगवाणी के संचालक कभी भी ऐसे परिवर्तन नहीं करेंगे क्योंकि इसका सीधा मतलब है नारद के पास अपने ब्लोगर भेजना.
नारद के कर्णधार इस समय अपने पास पाठक खींचने के लिए जूझ रहे हैं, वह चिट्ठाजगत के परिवर्तनों का प्रचार कर रहे हैं पर ब्लोगवाणी शायद ही इसमें आयें.

कल सर्वश्रेष्ठ चिट्ठाकार २००७ के लिए किया गया एलान इसी का हिस्सा है. नारद के फोरम से ही चलाया गया है-ऐसा मुझे लगता है. उसका एक कर्णधार ही इससे सीधा जुडा हुआ है. हालांकि इसके एक कर्णधार का मत रहा है कि वेब साईट को ब्लोग नहीं माना जा सकता है, पर इस राय से हटने के अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं है. उन्होने कुछ पुराने ब्लोगरों के साथ ऐसे नये ब्लोगर जोड़े हैं जो उनके साथ एक मित्र की तरह पहले से ही हैं .

बहरहाल ऐसे बहुत से पुरस्कार बनेंगे और बटेंगे, इनसे विचलित होने की बजाय नये ब्लोगर अपने कौशल का प्रदर्शन करते हुए आगे बढ़ें. हमें इन फोरमों के आपसी द्वंद में नहीं जाना है क्योंकि इसके लोग बडे शहरों में रहते हैं और आपस में मित्रों की तरह ही हैं. इनकी लाबियाँ है और इसमें तो निकट के लोग ही हो सकते हैं. अभी पिछले पुरस्कार के समय भी विवाद उठे थे और इसमें भी उठेंगे पर इतने प्रभावशाली ढंग से नहीं क्योंकि इसमें कई ऐसी चीजों का ध्यान रखा गया है जो विवाद उठाने वाले लोग हैं वह डरेंगे-दबे स्वर में तो कल ही कुछ पोस्ट और कमेन्ट देखी थी. अगर आप इनके नामों और उनके सक्रियता को देखें तो नारद अब भी वहीं हैं जहाँ पहले था. वरिष्ठ वेब साईट धारकों को आगे कर वह ऐसा समझ रहे हैं कि कोई इस चालाकी को नही पकडेगा और पकडेगा तो कहेगा नहीं. मैं भी लिख रहा हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि कोई मुझसे सवाल नहीं करेगा क्योंकि मेरे पास और भी सवाल हैं. एक धुर विरोधी नाम के ब्लोगर थे और कहते हैं कि वह गुस्से में ब्लोग जगत से चले गए पर मेरे के मित्र ब्लोगर से जब भेंट हुई (वह अकेले ऐसे ब्लोगर हैं जिनसे मैं मिला हूँ) तो पता लगा कि वह एक छद्म नाम था और वह असली नाम से कोई वेब साईट चला रहे हैं-और मेरा मानना है कि कई लोग ऐसे होते है कि लगता है अब झांसे में आये पर आते नहीं है. इन फोरम वालों का द्वंद है चलता रहेगा. इसमें रूचि लें पर अपने लक्ष्य से नहीं भटकें. यह इस सम्मान का खूब प्रचार करेंगे और ऐसा दिखाएँगे कि जैसे कोई बहुत बड़ी उपाधि है पर उस पर ध्यान देना चाहे तो वोट डाल देना पर कोई टेंशन मत लेना. यह भी बता दूं इनकी यह योजना हाल ही में बनी हैं क्योंकि कुछ नये नाम लोगों की जुबान पर चढ़ते जा रहे हैं तो इन लोगों ने सोचा कि अपने पुराने लोगों को पुन: सक्रिय किया जाये ताकि वह उनके चौपाल पर आयें, और हम जैसे लोग तो वैसे ही जाते है और ऐसे पुरस्कारों में रूचि नहीं है जो अपने ही ब्लोगर वर्ग के लोगों से मिले क्योंकि बड़ा तो बाहर सिद्ध होना है यहाँ क्या? कुल मिलाकर एक दम सामान्य पहल है. आज मेरा इस पर हास्य कविता लिखने का मन था पर उसे अब मैंने स्थगित कर दिया क्योंकि इसमें दम नजर नहीं आया.

कबीर के दोहे:मन की कल्पना माया के विस्तार तक


गुरु कुम्हार शीश कुंभ है, गढ़िं-गढ़िं काढेँ खोट
अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहि चोट

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु कुम्हार के समान है और शिष्य मिट्टी के समान है। जैसे कुम्हार घडे या बर्तन को सुन्दर व सही आकार प्रदान कर अपने जीवन के प्रगति पथ पर चलने के लिए प्रस्तुत करता है।

जो गोचर जहिं लगि मन जाई
तहँ लगि माया जानेहु भाई

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इन्द्रियाँ और उसके विषय जहाँ तक मन की कल्पना की पहुंच है वहाँ तक केवल माया का विस्तार ही जानना चाहिऐ।

क्रिकेट में फिल्म जैसा एक्शन


फिल्म चल रही कि क्रिकेट
हो रहा है मतिभ्रम
बैट-बाल का खेल होते-होते
एक्शन सीन आ जाता है कि
फिल्म वालों को भी आये शर्म
जिसे फिल्म से परहेज जो
वह भी अपने खिलाड़ी को पिटते देख
हो जाता गर्म

कहैं दीपक बापू
विश्वास तो पहले भी नहीं था
अब भी नहीं होता
फिल्म वालों की संगत जब से
क्रिकेट वालों से हुई है
पटकथा लेखकों के सहारे
मैच में एक्शन चलता लग रहा है
एक्शन की वजह से
फिल्में देखना बंद कर दीं
पर क्रिकेट में भी उसका रंग
चढ़ता लग रहा है
कोई पटकथा लिख रहा है
पीछे बैठकर
जो जानता है मैच और कहानी का मर्म
वरना ऐसे कैसे हो जाता है
जब लगता है कि बस अब होगा
इस श्रंखला का दुखांत अंत
पर हो जाता है सुखांत
जो गरम होकर प्रहार करने की
मुद्रा दिखाता है
अचानक हो जाता है नरम
———————————-

चिंता का रोग


टूटते-बिखरते समाज को
बचाने के लिए जूझते लोग
रिवाजों और रीतियों को निभाकर
अपने लिए सम्मान ढूंढते लोग
चिंताओं में पाल रहे हैं रोग
——————————-

चिंता देती है कई रोगों को जन्म
पर उनसे क्या कहेंगे
जिनको चिंता के साथ जीने की
आदत हो गयी
ज्ञान सब बघारते हैं सभी
‘करने वाला तो करतार है’
पर फिर आ जाता है ख्याल
तो कहते हैं कि
”चिंता तो करनी पड़ती है
वरना हमारे काम कैसे होंगे
हमारी जिन्दगी तो हराम हो गयी’

संत कबीर वाणी:संतों की निंदा करना ठीक नहीं


सीखै सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय
बिना समझै शब्द गहै, कछु न लोहा लेय

 

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति सत्य और न्याय के शब्दों को अच्छी तरह से ग्रहण करता है उसके लिए ही फलदायी होता है। परंतु जो बिना समझे, बिना सोचे-विचारे शब्द को ग्रहण करता है तथा रटता फिरता है उसे कोई लाभ नहीं मिलता ।

जो कोय निन्दै साधू को, संकट आवै सोय

नरक जाय जन्मै मरै, मुक्ति कबहु नहिं होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो भी साधू और संतजनों की निंदा करता है, उसके अनुसार अवश्य ही संकट आता है। वह निम्न कोटि का व्यक्ति नरक-योनि के अनेक दु:खों को भोगता हुआ जन्मता और मरता रहता है। उसके मुक्ति कभी भी नहीं हो सकती और वह हमेशा आवागमन के चक्कर में फंसा रहेगा।

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छोटा आदमी-बड़ा आदमी


आदमी बड़ा या उसकी माया
दौलत बड़ी की आदमी की काया
हर पल बदलती इस दुनिया में
रूप बदलती है माया
पर ढहती जाती है काया
कभी साइकिल थी अमीर की सवारी
आज हो गई है कार
कभी पैडल मार कर चलते हुए बडे आदमी को
देख रास्ता छोड़ देते थे कि
कहीं टक्कर न मारे साथ में
जड़ दे गाल पर दो हाथ
आज घर से निकलते हैं
भय खाते हुए कि कार चढाकर
न निकल जाये और बना जाये लाश
उन पर तो है काली दौलत की छाया
पर हादसे किसका पीछा छोड़ते हैं
छोटा आदमी तो जमीन का
जमीन पर ही गिरता है
बडों को ऊपर भी नहीं छोड़ती
हादसों की छाया
आदमी करता माया के
चक्कर में छोटे-बडे का भेद
जिन्दगी और मौत ने कभी
यह भेद नहीं दिखाया
———————

जिन्होंने अमीरी के पलने में
आँख खोली है
उन्हें गरीबी में भी सौदर्य का
बोध होता है
और ईर्ष्या होती है
उन्हें बिना सुविधाओं के जिंदा देखकर
जिन्होंने गरीबी ने पाला है
उन्हें शायद इस बात का आभास नहीं होता
कि दौलतमंद के दिल में
उसके दुख के लिए कोई दर्द नहीं
वरन सह नहीं पाते अमीर
उसकी चलती साँसें भी देखकर
———————————————

अपने मन में है बस व्यापार


जो हाथ मांगने के लिए उठते हैं
उनके हाथ कुछ तो आ जाता है
पर सम्मान पाने की आशा
उनको नहीं करना चाहिए
जिनकी जुबान का हर शब्द
मांगने में खर्च हो जाता है
———————————–

अपने मन में है बस व्यापार
बाहर ढूंढते हैं प्यार
मन में ख्वाहिश
सोने, चांदी और धन
के हों भण्डार
पर दूसरा करे प्यार
मन की भाषा में हैं लाखों शब्द
पर बोलते हुए जुबान कांपती है
कोई सुनकर खुश हो जाये
अपनी नीयत पहले यह भांपती है
हम पर हो न्यौछावर
पर खुद किसी को न दें सहारा
बस यही होता है विचार
इसलिए वक्त ठहरा लगता है
छोटी मुसीबत बहुत बड़ा कहर लगता है
पहल करना सीख लें
प्यार का पहला शब्द
पहले कहना सीख लें
तो जिन्दगी में आ जाये बहार
—————–

मनुस्मृति:अपराधियों को अनदेखा न करे राज्य



चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

१.अपनी क्षीण वृति, अर्थात आय की कमी से तंग होकर जो व्यक्ति रास्ते में पड़ने वाले खेत से कुछ कंद-मूल अथवा गन्ना ले लेता हैं उस पर दंड नहीं लगाना चाहिए.

२.जो व्यक्ति दुसरे के पशुओं को बांधता है, बंधे हुए पशुओं को खोल देता है तथा दासों, घोडों और रथों को हर लेता है, वह निश्चय ही दंडनीय है.

३.इस प्रकार जो राज्य प्रमुख चोरों को दण्डित कर चोरी का निग्रह करता है वह इस लोक में यश प्राप्त करता है तथा परलोक में दिव्य सुखों को भोगता है.

४.जो राज्य प्रमुख इस लोक में अक्षय यश व मृत्यु के बाद दिव्य लोक चाहता है उसे चोरों और डकैतों के अपराध को कभी अनदेखा नहीं करना चाहिए.

५. वह व्यक्ति जो अप्रिय वचन बोलता है, चोरी करता है और हिंसा में लिप्त होता है. उसे महापापी मानना चाहिए.

६.यदि राज्य दुस्साहस करने वाले व्यक्ति को क्षमा कर देता है या उसके कृत्य को अनदेखा कर देता है तो अतिशीघ्र उसका विनाश हो जाता है क्योंकि लोगों को उसके प्रति विद्वेष की भावना पैदा हो जाती है.

७.राज्य प्रमुख को चाहिए के वह स्नेह वश अथवा लालच वश भी प्रजाजन में डर उत्पन्न करने वाले अपराधियों को बन्धन मुक्त न करे.

८.यदि गुरु, बालक,वृद्ध व विद्वान भी किसी पर अत्याचार करता है तो उसे बिना विचार किये उपयुक्त दंड दिया जाना चाहिए.

९.अपने आत्म रक्षार्थ तथा किसी स्त्री और विद्वान पर संकट आने पर उसकी रक्षा के लिए जो व्यक्ति किसी दुष्ट व्यक्ति का संहार करता है उसे हत्या के पाप का भागीदार नहीं माना जाता.

जब ब्लोगर कार के मुहूर्त से बिना कमेन्ट के लौटा


ब्लोगर पहुंचा सर्वशक्तिमान के घर
ध्यान लगाने
कुछ पल का चैन पाने
निकला जब बाहर तो देखा
उसका मित्र अपनी नयी कार लेकर
खडा था
उस घर के सेवक से पुजवाने
ब्लोगर को देखकर मित्र खुश हो गया
और इशारा कर बुलाया और बोला
”यार, आज ही खरीदी है
लाया हूँ इसे इसकी नजर उतरवाने
तुम भी रुक जाओ
और प्रसाद पाओ
फिर कभी ले चलूँगा तुम्हें घुमाने’

ब्लोगर रुक गया
विश्वास बहुत था उसका सर्वशक्तिमान में
पर अंधविश्वास से परे था
पर मित्र के आगे वह झुक गया
मित्र ने फूल दिए और कहा
जब हो जाये सब
तक यह हैं कार पर बरसाने’
जब हो गयी कार की पूजा
तब ब्लोगर ने भी फूल बरसाए
और दूर हो गया पानी पीने के बहाने
उधर मिठाई बंटी
ख़त्म हो गया मिठाई का डिब्बा
ब्लोगर पहुंचा मित्र के सामने
हिस्से का हक़ जमाने
मित्र ने खाली डिब्बा दिखाया और
दिया आश्वासन कल उसका
हिस्सा घर पहुँचाने के लिए
ब्लोगर बोला
”यार, क्या मेरे लिए
एक टुकडा नहीं बचा सके
मैंने तुम्हारी कार पर
फूल पोस्ट किये थे
पर कमेन्ट की बात आयी
तो लगे टरकाने
हमें तो मजा तब आता है
जब पोस्ट रखते ही कमेन्ट आये
वह बहुत ताजा लगती है
कल-परसों वाली बासी लगती है
तुम कल भी कुछ मत लाना
अरे, हमें हर पोस्ट पर कमेन्ट नहीं मिलती
मैं यही समझ लूंगा
यह पोस्ट भी औंधे-मुहँ गिरी
चित हो गयी चारों खाने
—————————————-
नोट-यह काल्पनिक हास्य-व्यंग्य रचना है और इसका किसी घटना से कोई लेना देना नहीं है और किसी की कारिस्तानी इससे मेल खा जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार होगा.

कंप्यूटर के बाहर ब्लोगर नजरबंद


बिजली बंद तो पानी बंद
ब्लोग फिर भी चल रहा है
भले ही उसकी गति हो मंद
पर ब्लोगर खुद बैठा है
कंप्यूटर के बाहर नजरबंद
उसे इन्तजार है कब लाईट आये
तो वह अपने ब्लोग पर जाये
घड़ी चल रही है
पर ब्लोगर की सांस थम रही है
अक्ल काम कर रही है
पर सोच का सिलसिला है बंद
कलम हाथ में
कोरा कागज़ सामने है
पर लिखना फिर भी है बंद
ब्लोगर खुद ही किये बैठा अपनी नजर बंद
————————————-

समस्याएं वैसे भी कम नहीं है
पर बिजली फिर भी निभाती है
कुछ अल्फाज दिल से बाहर
निकल आते हैं
डैने बनकर ब्लोग को कबूतर
की तरह उडा ले जाते हैं
तसल्ली होती हैं कि
हमने भी एक कबूतर उडाया
सब शून्य में घिर जाता है
जब बिजली चली जाती है
————————————

चाणक्य नीति:मन का लगाव न हो तो आत्मीयता नहीं बन पाती


1.जिसके प्रति लगाव(सच्चा प्यार) वह दूर होते हुए भी पास रहता है। इसके विपरीत जिसके प्रति लगाव नहीं है वह प्राणी समीप होते हुए भी दूर रहता है। मन का लगाव न होने पर आत्मीयता बन ही नहीं पाती और किसी प्रकार का संबंध बन ही नहीं पाता।
2.जिस किसी प्राणी से मनुष्य को किसी भी प्रकार के लाभ मिलने की आशा है उससे सदैव और प्रिय व्यवहार करना चाहिए। मृग का शिकार करने की इच्छा रखने वाला चालाक शिकारी उसे मोहित करने के लिए उसके पास रहकर मधुर स्वर में गीत गाता रहता है।
3.विद्वान व्यक्ति वही है जो अपने व्यक्तित्व के अनुकूल ऎसी बात करता हो जो प्रसंग के भी अनुकूल हो। अच्छी से अच्छी बात अप्रान्सगिक होकर प्रभावहीन हो जाती है। यदि वह बात अप्रिय हो और उसमें क्रोध की अभिव्यक्ति आवश्यक हो तो वह भी उतना ही प्रदर्शित करना चाहिए जितना निभा सकें।

संत कबीर वाणी:एक राम को जानिए


आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक
कहैं कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक

संत कबीर जी का कहना है की गाली आते हुए एक होती है, परन्तु उसके प्रत्युतर में जब दूसरा भी गाली देता है, तो वह एक की अनेक रूप होती जातीं हैं। अगर कोई गाली देता है तो उसे सह जाओ क्योंकि अगर पलट कर गाली दोगे तो झगडा बढ़ता जायेगा-और गाली पर गाली से उसकी संख्या बढ़ती जायेगी।

जैसा भोजन खाईये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिए, तैसी बानी होय संत

कबीर कहते हैं जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है उसका जीवन वैसा ही बन जाता है।

एक राम को जानि करि, दूजा देह बहाय
तीरथ व्रत जप तप नहिं, सतगुरु चरण समाय

संत कबीर कहते हैं की जो सबके भीतर रमा हुआ एक राम है, उसे जानकर दूसरों को भुला दो, अन्य सब भ्रम है। तीर्थ-व्रत-जप-तप आदि सब झंझटों से मुक्त हो जाओ और सद्गुरु-स्वामी के श्रीचरणों में ध्यान लगाए रखो। उनकी सेवा और भक्ति करो

शीतल चांदनी का आनंद उठाए कौन


रात्रि में चन्दा बिखेरता
अब भी पहले की तरह
शीतल चांदनी
पर उसका आनन्द उठाएँ कौन
दूरदर्शन और कम्प्यूटर से
अपनी आखें लेकर जूझता आदमी
बाहर है प्राकृतिक सौन्दर्य
खङा है मौन

प्रथम किरणों के साथ
जीवन का संदेश देता सूर्य
रात को देर तक सोकर
सुबह देर बिस्तर छोड़ें आदमी
प्रात:काल नमन करे कौन
शीतल और शुद्ध पवन
आवारा फिरती है
वातानुकूलित कमरों में
उसका है प्रवेश वर्जित
सुखद अनुभूति पाए कौन
कई सदियों से शहर के बीच
बहती है नदी की धारा
नालियों से बहकर आती गंदिगी ने
उसकी शुद्ध आत्मा को मारा
अपने शहर में ही हो गया
आदमी अब परदेशी
उसका हमसफ़र बने कौन

प्राणवायु का सर्जन कर
उसे चारों और  बिखेर  रहा है
बरगद का पेड
जीवंत ह्रदय की प्रतीक्षा में
खड़ा है मौन
जीने की चाह है सभी को
सुख और आनन्द भी मांगें
पर इनका मतलब
समझा पाता कौन
——————-
हरियाली को बेघर कर
पत्थरों के जंगल खडे कर रहा है
जिसे देखो  वही
आत्मघाती हमले कर रहा है
हवाओं में खुद ही डालता
विषैली गैसें आदमी
हर कोई जीवन को मौत का
सन्देश दे रहा है

पानी पिलायें ऐसा नही अवसर


भाषण करते हुए वह बोले
”हम अब प्रगति के पथ पर
अग्रसर हैं
सारी दुनिया हमारी प्रशंसक है
हमारे शेयर बाजार का आंकडा
अब दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है
विकास डर आसमान छू रही है
हमारे लिए अब आगे बढ़ने का अवसर है

भाषण के बाद आए मिलने लोग
उनसे अपने-अपने इलाके की
बिजली, पानी और सड़कों की
खस्ता हालत के मुद्दे उठाने लगे
तो वह बोले
‘इस समय देश विकास कर रहा है
और तुम अभी भी वहीं अटके हो
अपने रास्ते से भटके हो
हम तरक्की करते हुए
अन्तरिक्ष की तरह बढे हैं
और तुम लोग अभी भी
सड़क, बिजली और पानी पर अटके हो
भला अब यह भी ऐसी बातों का अवसर है’

उनके डर के मारे सब खामोश रहे
फ़िर बोले
‘बहुत बोल लिया अब तो
मुझे पिलाने के लिए पानी लाओ
मुझे फ़िर आगे जाकर बोलना है
मेरी तो बस विकास पर नजर है’

वहाँ कोई पानी नहीं लाया
तो चीखने लगे तब एक आदमी ने कहा
‘यहाँ पानी बिजली कुछ नही है
आपका भाषण सुनने के लिए नहीं
हम अपनी व्यथा कहने आए थे
पानी की बोतलें अपने साथ लाये थे
सब पी गए आपकी बात सुनते हुए
जो बचा है वह इस ऊबड़ खाबड़
सड़क पर चलते हुए पीते जायेंगे
हम तो पहुचेंगे गिरते -पड़ते अपने घर
आप तो हेलिकॉप्टर में उड़ जायेंगे
आकाश में पानी पी लीजिये
आपकी है तो विकास पर नजर
पर हमारी तो है घर पर नजर
इन बोतलों में बंद पानी ही
अब हमारे रास्ते का सहारा है
आपके भाषण से हम बहुत खुश
पर पानी पिलायें ऐसा नहीं अवसर

चाणक्य नीति:बुद्धिमान अपने आहार की चिंता नहीं करते


१.बुद्धिमान पुरुष को आहार जुटाने के चिंता नहीं करना चाहिए, उसे तो केवल अपने धर्म और अनुष्ठान में लगना चाहिए क्योंकि उसका आहार तो उसके मनुष्य जन्म लेते ही उत्पन्न हो जाता है.

अभिप्राय-इसका अभिप्राय यह है कि परमपिता परमात्मा ने जिसे जन्म दिया है उसके लिए आहार का इंतजाम तो उसके भाग्य में लिख दिया है, कहा भी जाता है कि दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम. आदमी में यह अहंकार रहता है कि में खुद अर्जित कर रहा हूँ जबकि वह तो उसके भाग्य में लिखा है.

लोगों से जब कहा जाता है कि ‘भाई,. धर्म कर्म और भगवान् की भक्ति कर लो.’ तो वह कहते हैं कि समय ही कहाँ मिल पाता. परिवार के लिए रोटी कमाने से फुरसत ही कहाँ है?

ऐसा कहकर अपने को धोखा देते हैं. यहाँ कोई किसी को नहीं पाल सकता. सब अपने लिए नियत भाग्य का खा रहे हैं. आपने देखा होगा कि कोइ व्यक्ति जब मार जाता है तो उसके पीछे कोई और मरने नहीं जाता कि अब तो अमुक मर गया है और अब में कहाँ से रोटी खाऊंगा. अब जिंदा लोग यह खुशफहमी पालें के में किसी को भोजन और वस्त्र और अन्य वस्तुएं उपलब्ध करा रहा हूँ तो उसे भ्रमित नहीं तो क्या कहा जायेगा. यह भ्रम नहीं तो और क्या है कि लोग अपना पूरा जीवन अपने जिस परिवार को अर्पित करते हुए धर्म-कर्म और अनुष्टान से दूर रहकर गुजार देते हैं और वह उनके बाद भी यथावत चलता है.

डर की कोख में ही क्रूरता का शैतान जन्म लेता है


कभी बनते थे हथियारों के खिलौने
अब हथियार ही खिलौने बनने लगे हैं
अपनी देह को बचाने के लिए
लोग रखने लगे हैं हथियार
इस इलेक्ट्रोनिक युग में
कौन रिवाल्वर को खरीद कर
बच्चों को देता है
अपने लिए ही हथियार को खिलौना समझ लेता है
क्या गलती उस बच्चे की जो
हथियार को खिलौना समझ लेता है

किस-किस से शिकायत करें
सबने अपनी जिन्दगी को ही खेल
समझ लिया है
क्या सिखाएंगे वह अपने बच्चों को
जिन्होंने खुद कुछ नहीं सीखा
क्या जियेगा वह जिन्दगी जो
पत्थर की दीवारों के पीछे
हथियार रखकर
भय को अपना मित्र बनाकर
अपनी सुरक्षा का किला समझ लेता है

हथियार रखने से लोग
बहादुर नहीं हो जाते
जो बहादुर होते वह होते दयालू
इसलिए किसी सी नहीं डरते
जिनके मन में खौफ है
वही क्रूर हो जाते
ओ हथियारों पर भरोसा रखने वालों
तुम खुद भी डरपोक हो और
अपने बच्चों को भी वही विरासत सौंप रहे हो
समझ लो इस बात को कि
डर की कोख में ही ईर्ष्या और क्रूरता का
शैतान जन्म लेता है

हवा और पानी को शुद्ध नहीं कर सकते


जिन रास्तों पर चलते हुए
कई बरस बीत गये
पता ही नही लगा कि
कैसे उनके रूप बदलते गए
जहाँ कभी छायादार पेड़ हुआ करते थे
वहाँ लहराता है सिगरेट का धुआं
जहाँ रखीं थीं गुम्टियाँ
वहाँ ऊंची इमारतों के
पाँव जमते गए
जहाँ हुआ करता था उद्यान
वहाँ कचरे के ढेर बढ़ते गये
कहते हैं दुनिया में तरक्की हो रही है
सच यह है कि पतन की तरफ
हम कदम-दर कदम बढ़ते गए
हवा में लटकी
खातों में अटकी
गरीब से दूर भटकी
दौलत अगर तरक्की का प्रतीक है तो
सोचना होगा कि हम पढे-लिखे हैं कि
किताब पढ़ने वाले अनपढ़ बन गए
आंकडों के मायाजाल में
कितनी भी तरक्की दिखा लो
हवाओं को तुम ताजा नहीं कर सकते
पानी को साफ नहीं कर सकते
इलाज के लिए कितनी भी दवाएं बना लो
मरे हुए को जिंदा नही कर सकते
आकाश में खडे होकर तरक्की की
सोचने वाले जमीन के दुश्मन बन गए

चाणक्य नीति:संतान को शिक्षा न देने वाले माता-पिता शत्रु के समान


१.इस संसार में कुछ प्राणियों के किसी विशेष अंग में विष होता है-जैसे सर्प के दांतों में मक्खी के मस्तिष्क में और बिच्छू की पुँछ में-पर इन सबसे अलग दुर्जन और कपटी मनुष्य के हर अंग में विष होता है. उसके मन में विद्वेष,वाणी में कटुता और कर्म में नीचता का व्यवहार जहर बुझे तीर की तरह दूसरे को त्रास देते हैं.

२.जो माता-पिता अपने पुत्र को शिक्षित नहीं करते वह उसके शत्रु के समान हैं.
संपादकीय अभिव्यक्ति-चाणक्य के काल में पूरा समाज स्त्री को घरेलू शिक्षा तक ही सीमित था पर आज के आधुनिक समाज में यह कथन पुत्री की शिक्षा पर भी लागू होता है.

३.हर मनुष्य को सभी विधाओं में निपुण होना चाहिऐ. बडे लोगों से विनम्रता, विद्वानों से श्रेष्ठ और मधुर ढंग से वार्तालाप का तरीक सीखना चाहिए. जुआरियों से झूठ बोलना और कुशल स्त्रियों से चालाकी का गुण सीखना चाहिए.
४.मनुष्य को ऐसे कर्म करना जिससे उसकी कीर्ति सब और फैले. विद्या, दान, तपस्या, सत्य भाषण और धनोपार्जन के उचित तरीकों से कीर्ति दसों दिशाओं में फैलती है.

५.अपना जीवन शांतिपूर्वक बिताने के लिए हर मनुष्य को धर्म-कर्म का अनुष्ठान करते रहना चाहिऐ. वह घर मुर्दाघर के समान हैं जहाँ धर्म-कर्म या यज्ञ-हवन नहीं होता. जहाँ वेद शास्त्रों का उच्चारण नहीं होता, विद्वानों का सम्मान नहीं होता और यज्ञ-हवन से देवताओं का पूजन नहीं होता ऐसे घर, घर न रहकर शमशान के समान होता है.

भ्रम का जाल


सामने कुछ कहैं
पीठ पीछे कुछ और
ऐसे लोगों की बातों पर क्या करें गौर
बात काम करें मचाएँ ज्यादा शोर
बोले और पीछे पछ्ताएं
जैसे नाचने के बाद रोए मोर
जिनके मन में नही सदभाव
उनकी वाणी में होता है कटुता का भाव
अपनी पीठ आप थपथपापाएं
अपने दिल का मैल छिपाएं
क्या पायेंगे ऐसे लोगों को बनाकर सिरमौर
उनकी भीड़ में शामिल होने से बेहतर है
अकेले में समय गुजारें
उनके झुंड में रहने से अच्छा है
भले लोगों का तलाश करें ठौर
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सुबह से शाम तक
पसीन बहाते हुए लोग
बड़ी मुश्किल से रोटी जुटा पाते
फिर भी समाज में तिरस्कार पाते
जिन्हें मिली है दौलत की गाडी
वह फिर भी गरीब से इतना खौफ खाते कि
जिन्हें खुद न माने
उसी जाति,भाषा, और धर्म के नाम पर
भ्रम का जाल बुनकर उसे फंसाते

चाणक्य नीति:जिस देश में मूर्खों का सम्मान नहीं होता वहाँ समृद्धि आती है


१.जिस देश में मूर्खों का सम्मान नहीं होता, अन्न संचित रहता है तथा पति-पत्नी में झगडा नहीं होता वहाँ लक्ष्मी बिना बुलाए निवास करती है.
अभिप्राय-इस कथन का आशय यह है की यदि किसी देश में सुख और समृद्धि आयेगी तो गुणवानों के समान से आयेगी.इसके अलावा जहाँ खाद्यान के भण्डार एवं परिवारों में शांति होती है वही खुशहाली होती है.

2.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही वाचों द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।
३.समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं। मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बुद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।
4.जो बात बीत गयी उसका सोच नहीं करना चाहिए। समझदार लोग भविष्य की भी चिंता नहीं करते और केवल वर्तमान पर ही विचार करते हैं।हृदय में प्रीति रखने वाले लोगों को ही दुःख झेलने पड़ते हैं। प्रीति सुख का कारण है तो भय का भी। अतएव प्रीति में चालाकी रखने वाले लोग ही सुखी होते है.
५. व्यक्ति आने वाले संकट का सामना करने के लिए पहले से ही तैयारी कर रहे होते हैं वह उसके आने पर तत्काल उसका उपाय खोज लेते हैं। जो यह सोचता है कि भाग्य में लिखा है वही होगा वह जल्द खत्म हो जाता है। मन को विषय में लगाना बंधन है और विषयों से मन को हटाना मुक्ति है.

चाणक्य नीति:परिवार का सुख उसके स्वरूप पर निर्भर


१.सुखद गृहस्थी और परिवार की सुख समृद्धि इस बात पर निर्भर करती है की परिवार का स्वरूप कैसा है. जहाँ परिवार के सदस्य एक दूसरे के मनोभावों को समझते और सम्मान करे हैं वहीं शांति रह पाती है और शांति से ही सुख समृद्धि आती है.
2. यह मनुष्य का स्वभाव है की यदि वह दूसरे के गुण और श्रेष्ठता को नहीं जानता तो वह हमेशा उसकी निंदा करता रहता है. इस बात से ज़रा भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

उदाहरण- यदि किसी भीलनी को गजमुक्ता (हाथी के कपाल में पाया जाने वाला काले रंग का मूल्यवान मोती) मिल जाये तो उसका मूल्य न जानने के कारण वह उसे साधारण मानकर माला में पिरो देती है और गले में पहनती है.

3.बसंत ऋतू में फलने वाले आम्रमंजरी के स्वाद से प्राणी को पुलकित करने वाले कोयल की वाणी जब तक मधु और कर्ण प्रिय नहीं हो जाती तबतक मौन रहकर ही अपना जीवन व्यतीत करती है.
इसका आशय यह है हर मनुष्य को किसी भी कार्य को करने के लिए उचित समय की प्रतीक्षा करना चाहिए अन्यथा असफलता का भय बना रहता है.
4.राजा , अग्नि, गुरु और स्त्री इन चारों से न अधिक दूर रहना चाहिऐ न अधिक पास अर्थात इनकी अत्यधिक समीपता विनाश का कारण बनती है और इनसे दूर रहने पर भी कोई लाभ नहीं होता. अत: विनाश से बचने के लिए बीच का रास्ता अपनाना चाहिऐ.
५.अधिक लाड प्यार बच्चे में में दोष उत्पन्न करता है और प्रताड़ना से ही उसमें सुधार आता है.

चाणक्य नीति: इस कड़वे संसार में दो मीठे फल भी लगते हैं


१.इस संसार की तुलना एक कड़वे वृक्ष से की जाती है जिस पर पर अमृत के समान दो फल भी लगेते हैं-मधुर वचन और सद्पुरुषों की संगति. ये दोनों अत्यंत गुणकारी होते हैं. इन्हें खाकर आदमी अपने जीवन को सुखद बना सकता है. अत हर मनुष्य को मधुर वचन और सत्संग का फल ग्रहण करना चाहिए

2.जिसके कार्य में स्थिरता नहीं है, वह समाज में सुख नहीं पाता न ही उसे जंगल में सुख मिलता है. समाज के बीच वह परेशान रहता है और किसी का साथ पाने के लिए तरस जाता है.
3.गंदे पड़ोस में रहना, नीच कुल की सेवा, खराब भोजन करना, और मूर्ख पुत्र बिना आग के ही जला देते हैं.
4.कांसे का बर्तन राख से, तांबे का बर्तन इमले से,स्त्री रजस्वला कृत्य से और नदी पानी की तेज धारा से पवित्र होती है.
5.मनुष्य में अंधापन कई प्रकार का होता है. एक तो जन्म के अंधे होते हैं और आंखों से बिलकुल नहीं देख पाते और कुछ आँख के रहते हुए भी हो जाते हैं जिनकी अक्ल को कुछ सूझता नहीं है.
6.काम वासना के अंधे के कुछ नहीं सूझता और मदौन्मत को भी कुछ नहीं सूझता. लोभी भी अपने दोष के कारण वस्तु में दोष नहीं देख पाता. कामांध और मदांध इसी श्रेणी में आते हैं.
7.कुछ लोगों की प्रवृतियों को ध्यान में रखते हुए उनको वश में किया जा सकता है, और उनको वश में किया जा सकता है, लोभी को धन से, अहंकारी को हाथ जोड़कर, मूर्ख को मनमानी करने देने से और सत्य बोलकर विद्वान को खुश किया जा सकता है.

चाणक्य नीति:धर्म का नियम ही शाश्वत


१.शास्त्रों की संख्या अनन्त, ज्योतिष,आयुर्वेद तथा धनुर्वेद की विद्याओं की भी गणना भी नहीं की जा सकती है, इसके विपरीत मनुष्य का जीवन अल्प है और उस अल्पकाल के जीवन में रोग,शोक, कष्ट आदि अनेक प्रकार की बाधाएं उपस्थित होती रहती हैं। इस स्थिति में मनुष्य को शास्त्रों का सार ग्रहण करना चाहिए।

२.मन की शुद्ध भावना से यदि लकड़ी, पत्थर या किसी धातु से बनी मूर्ति की पूजा की जायेगी तो सब में व्याप्त परमात्मा वहां भी भक्त पर प्रसन्न होंगें। अगर भावना है तो जड़ वस्तु में भी भगवान का निवास होता है । इस क्षण-भंगुर संसार में धन-वैभव का आना-जाना सदैव लगा रहेगा। लक्ष्मी चंचल स्वभाव की है। घर-परिवार भी नश्वर है। बाल्यकाल, युवावस्था और बुढ़ापा भी आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी मनुष्य उन्हें सदा ही उन्हें अपने बन्धन में नहीं बाँध सकता। इस अस्थिर संसार में केवल धर्म ही अपना है। धर्म का नियम ही शाश्वत है और उसकी रक्षा करना ही सच्चा कर्तव्य है।सच्ची भावना से कोई भी कल्याणकारी काम किया जाये तो परमात्मा की कृपा से उसमें अवश्य सफलता मिलेगी। मनुष्य की भावना ही प्रतिमा को भगवान बनाती है। भावना का अभाव प्रतिमा को भी जड़ बना देता है।
३.जिस प्रकार सोने की चार विधियों-घिसना, काटना, तपाना तथा पीटने-से जांच की जाती है, उसी प्रकार मनुष्य की श्रेष्ठता की जांच भी चार विधियों-त्यागवृति, शील, गुण तथा सतकर्मो -से की जाती है।

४.अज्ञानी व्यक्ति को कोई भी बात समझायी जा सकती है क्योंकि उसे किसी बात का ज्ञान तो है नहीं। अत: उसे जो कुछ समझाया जाएगा वह समझ सकता है, ज्ञानी को तो कोई बात बिल्कुल सही तौर पर समझायी जा सकते है। परन्तु अल्पज्ञानी को कोई भी बात नही समझायी क्योंकि अल्पज्ञान के रुप में अधकचरे ज्ञान का समावेश होता है जो किसी भी बात को उसके मस्तिष्क तक पहुंचने ही नहीं देता।

*संकलनकर्ता का मत है कि अल्पज्ञानी को अपने ज्ञान का अहंकार हो जाता है इसलिये वह कुछ सीखना ही नहीं चाहता, वह केवल अपने प्रदर्शन में ही लगा रहता है।
नोट-रहीम, चाणक्य, कबीर और कौटिल्य की त्वरित पोस्टें नारद और ब्लोगवाणी पर अभी उपलब्ध हैं, अत: वहाँ देखने का प्रयास करें.

चाणक्य नीति:आलस्य मनुष्य का स्वाभाविक दुर्गुण


1.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही वाचों द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।
2.समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं। मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।
3.ऐसा धन जो अत्यंत पीडा, धर्म त्यागने और बैरियों के शरण में जाने से मिलता है, वह स्वीकार नहीं करना चाहिए। धर्म, धन, अन्न, गुरू का वचन, औषधि हमेशा संग्रहित रखना चाहिए, जो इनको भलीभांति सहेज कर रखता है वह हेमेशा सुखी रहता है।बिना पढी पुस्तक की विद्या और अपना कमाया धन दूसरों के हाथ में देने से समय पर न विद्या काम आती है न धनं.

4.जो बात बीत गयी उसका सोच नहीं करना चाहिए। समझदार लोग भविष्य की भी चिंता नहीं करते और केवल वर्तमान पर ही विचार करते हैं।हृदय में प्रीति रखने वाले लोगों को ही दुःख झेलने पड़ते हैं। प्रीति सुख का कारण है तो भय का भी। अतएव प्रीति में चालाकी रखने वाले लोग ही सुखी होते हैंजो व्यक्ति आने वाले संकट का सामना करने के लिए पहले से ही तैयारी कर रहे होते हैं वह उसके आने पर तत्काल उसका उपाय खोज लेते हैं। जो यह सोचता है कि भाग्य में लिखा है वही होगा वह जल्द खत्म हो जाता है। मन को विषय में लगाना बंधन है और विषयों से मन को हटाना मुक्ति है.
5.आलस्य मनुष्य के स्वभाव का बहुत बड़ा दुर्गुण है। आलस्य के कारण प्राप्त की गयी विद्या भी नष्ट हो जाती है दुसरे के हाथ में गया धन कभी वापस नहीं आता।बीज अच्छा न हो तो फसल भी अच्छी नहीं होती और थोडा बीज डालने से भी खेत उजड़ जाते हैंसेनापति कुशल न हो तो सेना भी नष्ट हो जाती है। शील के संरक्षण में कुल का नाम उज्जवल होता है।
6.बुरे राजा के राज में भला जनता कैसे सुखी रह सकती है। बुरे मित्र से भला क्या सुख मिल सकता है। वह और भी गले की फांसी सिद्ध हो सकता है। बुरी स्त्री से भला घर में सुख शांति और प्रेम का भाव कैसे हो सकता है। बुरे शिष्य को गुरू लाख पढाये पर ऐसे शिष्य पर किसी भी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ सकता है।

विकास यानि वाहनों की चौडाई बढना सड़क की कम होना


बहुत समय से देश के विकास होने के प्रचार का मैं टीवी चैनलों और अख़बारों में सुनता आ रहा हूँ. तमाम तरह के आंकडे भी दिए जाते हैं पर जब मैं रास्तों से उन रास्तों से गुजरता हूँ-जहाँ चलते हुए वर्षों हो गयी है-तो उनकी हालत देखकर यह ख्याल आता है कि आखिर वह विकास हुआ कहाँ है. अगर इसे विकास कहते हैं तो वह इंसान के लिए बहुत तकलीफ देह होने वाला है.

पेट्रोल, धुएं और रेत से पटे पड़े रास्ते राहगीरों की साँसों में जो विष घोल रहे हैं उससे अनेक बार तो सांस बंद करना पड़ती हैं कि यह थोडा आगे चलकर यह विष भरा धुआं और गंध कम हो तो फिर लें. टेलीफोन, जल और सीवर की लाईने डालने और उनको सुधारने के लिए खुदाई हो जाती है पर सड़क को पहले वाली शक्ल-जो पहले भी कम बुरी नहीं थी-फिर वैसी नहीं हो पाती. अपने टीवी चैनल और अखबार चीन के विकास की खबरें दिखाते हुए चमचमाती सड़कें और ऊंची-ऊंची गगनचुंबी इमारतें दिखा कर यह बताते हैं कि हम उससे बहुत पीछे हैं-पर यह मानते हैं कि अपने देश में विकास हो रहा है पर धीमी गति से. मैं जब वास्तविक धरातल पह देखता हूँ तो पानी और पैसे के लिए देश का बहुत बड़ा वर्ग अब भी जूझ रहा है. कमबख्त विकास कहीं तो नजर आये.

आज एक अखबार में पढ़ रहा था कि भारत में पुरुषों से मोबाइल अधिक महिलाओं के पास बहुत हैं. मोबाइल से औरतें अधिक लाभप्रद स्थिति में दिखतीं हैं क्योंकि अब किसी से बात करना है तो उसके घर जाने की जरूरत ही नहीं है मोबाइल पर ही बात कर ली, पर पुरुषों की समस्या यह है कि उनको अपने कार्यस्थल तक घर से सड़क मार्ग से ही जाना है और उनके लिए यह रास्ते कोई सरल नहीं रहे. साथ में मोबाइल लेकर उनके लिए चलना वैसे भी ठीक नहीं है. रास्ते में मोबाइल की घंटी मस्तिष्क में कितनी बाधा पहुचाती है यह मैं जानता हूँ. उस दिन बीच सड़क पर स्कूटर पर घंटी बजी और मेरे इर्द-गिर्द वाहनों की गति बहुत तेज थी कि एक तरफ रूकने के लिए मुझे समय लग गया. जब एक तरफ रुका तो जेब से मोबाइल निकाला तो देखा कि ‘विज्ञापन’ था. उस समय झल्लाहट हुई पर मैं क्या कर सकता था? फिर मैंने स्कूटर भी सड़क से ढलान से उतरकर ऐसी जगह रोका था जहाँ सड़क पर लाने के लिए शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन करना पडा.

आपने देखा होगा कि जो आंकडे विकास के रूप में दिए जाते हैं उनमें देशों में मोबाइल, कंप्यूटर और टीवी के उपभोक्ता की संख्या शामिल रहती है. अब विकास का अर्थ प्रति व्यक्ति की आय-व्यय की जगह धन की बर्बादी से है. यह नहीं देखते कि उनका उपयोग क्या है? मैं तो आज तक समझ नहीं पाया कि लोग मोबाइल पर इतनी लंबी बात करते क्या हैं. फालतू, एकदम फालतू? फिर तमाम ऍफ़ एम् रेडियो, और टीवी पर ऐसे सवाल करते है ( उस पर एस.एम्.एस करने के लिए कहा जाता है) जो एक दम साधारण होते हैं. लोग जानते हैं कि यह सब उनका धन खींचने के लिए किया जा रहा है पर अपने को रोक नहीं पाते क्योंकि उन्हें क्षेत्र, धर्म, और भाषा के नाम पर बौद्धिक रूप से गुलाम बना दिया गया है कि वह उससे मुक्त नहीं हो पाता.

अगर मुझसे पूछें तो विकास का मतलब है कि वाहनों की चौडाई बढना और सड़क की कम होना. जब भी कहीं जाम में फंसता हूँ तो मुझे नहीं लगता कि वह लोगों और उनके वाहनों की संख्या की वजह से है. दो सौ मीटर के दायरे में सौ लोग और पच्चीस वाहन भी नहीं होंगे पर जाम फिर भी लग जाता है. वहाँ कारें, ट्रेक्टर और मोटर साइकलों पर एक-एक व्यक्ति सवार हैं पर सड़क तंग है तो रास्ता जाम हो जाता है. सड़कें भी जो पहले चौड़ी थी वहाँ इस तरह निर्माण किये गए हैं कि पता नहीं कि कब यह हो गए. जहाँ पहले पेड़ थे वहाँ गुमटियाँ, ठेले और कहीं पक्के निर्माण हो गए हैं और सड़क छोटी हो गयी और वाहन जहाँ साइकिल और स्कूटर थे वहाँ आजकल कारों का झुंड हो गया है. यह विकास और उत्थान है तो फिर विनाश और पतन किसे कहते हैं यह मेरे लिए अभी भी एक पहेली है.

चाणक्य नीति:जहाँ धनी, ज्ञानी और निपुण राजा न हो वह स्थान छोड़ दें


1.किसी भी व्यक्ति का जहाँ सम्मान न हो उसे त्याग देना चाहिए. क्योंकि बिना सम्मान के मनुष्य जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं है.
2.किसी भी व्यक्ति को वह स्थान भी त्याग देना चाहिए जहाँ आजीविका न हो क्योंकि आजीविका रहित मनुष्य समाज में किसी सम्मान के योग्य नहीं रह जाता.

3.इसी प्रकार वह देश और क्षेत्र भी त्याज्य है जहाः अपने मित्र व संबंधी न रहते हों क्योंकि इनके अभाव में व्यक्ति कभी भी असहाय हो सकता है.
4.वेद के ज्ञान की गहराई न समझकर वैद की निंदा करने वाले वेद की महानता कम नहीं कर सकते.शास्त्र निहित आचार-व्यवहार को व्यर्थ बताने वाले अल्प ज्ञानी उसकी विषय सामग्री की उपयोगिता को नष्ट नहीं कर सकते

5.जिस स्थान पर धनी-व्यापारी, ज्ञानीजन, शासन व्यवस्था में निपुण राजा, सिंचाई अथवा जल आपूर्ति की व्यवस्था न हो उस स्थान का भी त्याग कर देना चाहिऐ. क्योंकि धनि से श्री वृद्धि ज्ञानी से विवेक , निपुण राजा से मनुष्य की सुरक्षा और जल से जीवन के रक्षा होती है.

6.शास्त्रों की संख्या अनन्त, ज्योतिष,आयुर्वेद तथा धनुर्वेद की विद्याओं की भी गणना भी नहीं की जा सकती है, इसके विपरीत मनुष्य का जीवन अल्प है और उस अल्पकाल के जीवन में रोग,शोक, कष्ट आदि अनेक प्रकार की बाधाएं उपस्थित होती रहती हैं। इस स्थिति में मनुष्य को शास्त्रों का सार ग्रहण करना चाहिए।

चाणक्य नीति:जहाँ यज्ञ-हवन न हो वह घर मुर्दाघर समान


१.इस संसार में कुछ प्राणियों के किसी विशेष अंग में विष होता है-जैसे सर्प के दांतों में मक्खी के मस्तिष्क में और बिच्छू की पुँछ में-पर इन सबसे अलग दुर्जन और कपटी मनुष्य के हर अंग में विष होता है. उसके मन में विद्वेष,वाणी में कटुता और कर्म में नीचता का व्यवहार जहर बुझे तीर की तरह दूसरे को त्रास देते हैं.

२.किसी भी व्यक्ति को वह स्थान भी त्याग देना चाहिए जहाँ आजीविका न हो क्योंकि आजीविका रहित मनुष्य समाज में किसी सम्मान के योग्य नहीं रह जाता.

३.हर मनुष्य को सभी विधाओं में निपुण होना चाहिऐ. बडे लोगों से विनम्रता, विद्वानों से श्रेष्ठ और मधुर ढंग से वार्तालाप का तरीक सीखना चाहिए. जुआरियों से झूठ बोलना और कुशल स्त्रियों से चालाकी का गुण सीखना चाहिए.
४.मनुष्य को ऐसे कर्म करना जिससे उसकी कीर्ति सब और फैले. विद्या, दान, तपस्या, सत्य भाषण और धनोपार्जन के उचित तरीकों से कीर्ति दसों दिशाओं में फैलती है.

५.अपना जीवन शांतिपूर्वक बिताने के लिए हर मनुष्य को धर्म-कर्म का अनुष्ठान करते रहना चाहिऐ. वह घर मुर्दाघर के समान हैं जहाँ धर्म-कर्म या यज्ञ-हवन नहीं होता. जहाँ वेद शास्त्रों का उच्चारण नहीं होता, विद्वानों का सम्मान नहीं होता और यज्ञ-हवन से देवताओं का पूजन नहीं होता ऐसे घर, घर न रहकर शमशान के समान होता है.

चीखकर करना पङता है इजहार


चारों और मचती चीख पुकार
कोई खुशी में चिल्ला रहा है
कोई तकलीफ में कर रहा है चीत्कार
सुखों की खोज में बढ़ता आदमी
दुख जुटा रहा है
अपना चैन गँवा रहा है
दिल का दर्द इतना बढ जाता है
चिल्ला कर ही हो पाता है इजहार
कानों से किसी का दर्द
सुनने की आदत भी कहाँ रही
किसी को सुनाना है तो
इतनी शक्ति लगानी जरूरी हैं
की कान के के खुलें द्वार
इसलिए ही मची है
चारों और मची है चीख पुकार

संत कबीर वाणी:जादू-टोना व्यर्थ है


जो कोय निन्दै साधू को, संकट आवै सोय
नरक जाय जन्मै मरै, मुक्ति कबहु नहिं होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो भी साधू और संतजनों की निंदा करता है, उसके अनुसार अवश्य ही संकट आता है। वह निम्न कोटि का व्यक्ति नरक-योनि के अनेक दु:खों को भोगता हुआ जन्मता और मरता रहता है। उसके मुक्ति कभी भी नहीं हो सकती और वह हमेशा आवागमन के चक्कर में फंसा रहेगा।

बोलै बोल विचारि के, बैठे ठौर संभारि
कहैं कबीर ता दास को, कबहु न आवै हारि

इसका आशय यह है कि जो आदमी वाणी के महत्त्व को जानता है,, समय देखकर उसके अनुसार सोच और विचार कर बोलता है और अपने लिए उचित स्थान देखकर बैठता है वह कभी भी कहीं भी पराजित नहीं हो सकता।

जंत्र मन्त्र सब झूठ है, मति भरमो जग कोय
सार शब्द जाने बिना, कागा हंस न होय

संत शिरोमणि कबीरदास जीं का यह आशय है कि यन्त्र-मन्त्र एवं टोना-टोटका आदि सब मिथ्या हैं। इनके भ्रम में मत कभी मत आओ। परम सत्य के ठोस शब्द-ज्ञान के बिना, कौवा कभी भी हंस नहीं हो सकता अर्थात दुर्गुनी-अज्ञानी लोग कभी सदगुनी और ज्ञानवान नही हो सकते

सच किसे समझाएं


सदियों से चले आ रही
लोगों के समूहों की परिभाषाएँ
बाहर से मजबूत किले की तरह लगते
अन्दर रिवाजों में एक दूसरे को ठगते
बाहर से आदर्श लगते
पर एक शब्द से हिलते नजर आएं
वक्त देखें तो पहचान छिपाएं
फायदा देखें सीना तानकर सामने आयें
सभ्य समाज हो रहा है दिशाहीन
अक्षरज्ञान जितना बढ़ता जा रहा है
अक्षरों से बने शब्दार्थ पर हो रही है जंग
लोगों के दिमाग हो रहे हैं तंग
अभिव्यक्ति का मतलब चिल्लाना हो गया है
ऐसे में सच किसे समझाएं
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रहीम के दोहे:अति कदापि न कीजिए


रहिमन अति न कीजिए, गहि रहिये निज कानि
सैजन अति फूले तऊ, दार पात की हानि

अर्थ-कवि रहीम कहते हैं कि किसी चीज की भी अति कदापि न कीजिए, हमेशा अपनी मर्यादा को पकडे रही. जैसे सहिजन वृक्ष के अत्यधिक विकसित होने से उसकी शाखाओं और पत्तों को हानि होती है और वह झड़ जाते हैं.

रन, बन, व्याधि, विपत्ति में रहिमन मरै न रोय
जो रच्छक जननी जठर, सौ हरि गए कि सोय

अर्थ-कवि रहीम कहते हैं कि रणक्षेत्र में, वन में, बीमारी में और आपति आने पर जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है उसके रोना नहीं चाहिए, जो माता के गर्भ का रक्षक है वह परमात्मा कभी सोता नहीं है.

अभिप्राय- जो ईश्वर जन्म देता है वही मृत्यु भी. ईश्वर की मर्जी होती हैं तो जन्म होता है और उसकी मर्जी होती है तभी वह किसी जीव को अपने पास बुला लेता है. जिसके उसके द्वारा प्रदत्त आयु पूर्ण नहीं हुई है उसे मृत्यं भी नहीं मार सकती.

कौटिल्य का अर्थशास्त्र: कायर की संगति भी बुरी


  • 1. दूर्भिक्ष और आपत्तिग्रस्त स्वयं ही नष्ट होता है और सेना का व्यसन को प्राप्त हुआ राज प्रमुख युद्ध की शक्ति नहीं रखता।
    2. विदेश में स्थित राज प्रमुख छोटे शत्रु से भी परास्त हो जाता है। थोड़े जल में स्थित ग्राह हाथी को खींचकर चला जाता है।
    3. बहुत शत्रुओं से भयभीत हुआ राजा गिद्धों के मध्य में कबूतर के समान जिस मार्ग में गमन करता है, उसी में वह शीघ्र नष्ट हो जाता है।
    4.सत्य धर्म से रहित व्यक्ति के साथ कभी संधि न करें। दुष्ट व्यक्ति संधि करने पर भी अपनी प्रवृति के कारण हमला करता ही है।
    5.डरपोक युद्ध के त्याग से स्वयं ही नष्ट होता है। वीर पुरुष भी कायर पुरुषों के साथ हौं तो संग्राम में वह भी उनके समान हो जाता है।अत: वीर पुरुषों को कायरों की संगत नहीं करना चाहिऐ।
    6.धर्मात्मा राजप्रमुख पर आपत्ति आने पर सभी उसके लिए युद्ध करते हैं। जिसे प्रजा प्यार करती है वह राजप्रमुख बहुत मुश्किल से परास्त होता है।
    7.संधि कर भी बुद्धिमान किसी का विश्वास न करे। ‘मैं वैर नहीं करूंगा’ यह कहकर भी इंद्र ने वृत्रासुर को मार डाला।
    8.समय आने पर पराक्रम प्रकट करने वाले तथा नम्र होने वाले बलवान पुरुष की संपत्ति कभी नहीं जाती। जैसे ढलान के ओर बहने वाली नदियां कभी नीचे जाना नहीं छोडती।
  • दिल के चिराग जलाते नहीं-hindi shayri


    जिनका हम करते हैं इन्तजार
    वह हमसे मिलने आते नहीं
    जो हमारे लिए बिछाये बैठे हैं पलकें
    उनके यहां हम जाते नहीं
    अपने दिल के आगे क्यों हो जाते हैं मजबूर
    क्यों होता है हमको अपने पर गरूर
    जो आसानी से मिल सकता है
    उससे आँखें फेर जाते हैं
    जिसे ढूँढने के लिए बरसों
    बरबाद हो जाते हैं
    उसे कभी पाते नहीं
    तकलीफों पर रोते हैं
    पर अपनी मुश्किलें
    खुद ही बोते हैं
    अमन और चैन से लगती हैं बोरियत
    और जज्बातों से परे अंधेरी गली में
    दिल के चिराग के लिए
    रौशनी ढूँढने निकल जाते हैं
    ——————–

    दुर्घटनाएं अब अँधेरे में नहीं
    तेज रौशनी में ही होतीं है
    रास्ते पर चलते वाहनों से
    रौशनी की जगह बरसती है आग
    आंखों को कर देती हैं अंधा
    जागते हुए भी सोती हैं
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    हमें तेज रौशनी चाहिए
    इतनी तेज चले जा रहे हैं
    उन्हें पता ही नहीं आगे
    और अँधेरे आ रहे हैं
    दिल के चिराग जलाते नहीं
    बाहर रौशनी ढूँढने जा रहे हैं

    झूठ की सता ही लोगों में इज्जत पाती है


    अपनी महफिलों में शराब की
    बोतलें टेबलों पर सजाते हैं
    बात करते हैं इंसानियत की
    पर नशे में मदहोश होने की
    तैयारी में जुट जाते हैं
    हर जाम पर ज़माने के
    बिगड़ जाने का रोना
    चर्चा का विषय होता है
    सोने का महंगा होना
    नजर कहीं और दिमाग कहीं
    ख्याल कहीं और जुबान कहीं
    शराब का हर घूँट
    गले के नीचे उतारे जाते हैं
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    आदमी की संवेदना हैं कि
    रुई की गठरी
    किसी लेखक के लिखे
    चंद शब्दों से ही पिचक जाती हैं
    लगता हैं कभी-कभी
    सच बोलना और लिखना
    अब अपराध हो गया है
    क्योंकि झूठ और दिखावे की सत्ता ही
    अब लोगों में इज्जत पाती है

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    संत कबीर वाणी:फ़टे दिल को कौन सिल सकता है


    बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जानिए राम
    कहा काज संसार से, तुझे घनी से काम

    संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि बाहर दिखाकर भगवान् का स्मरण करने से क्या लाभ, राम का स्मरण तो अपने ह्रदय में करना चाहिए। जब भगवान् के भक्ती करनी है फिर इस संसार से क्या काम ।

    *लेखक का मत है कि अगर हमें भगवान् की पूजा या भक्ती करनी है तो उसका दिखावा करने कई जरूरत नहीं है। कई लोग अपने इष्ट और उसकी भक्ती के दावा लोगों के सामने करते हैं, ऐसे लोग ढोंगी होते हैं। प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय चाहे घर में बात कर, चाहे बन को जाय इसका आशय यह है कि अगर भगवान की भक्ती करनी है तो घर-गृहस्थी में रहते हुए भी की जा सकती है उसके लिए वेशभूषा बदलने की कोई जरूरत नहीं है और न वन जाने की। बस मन में प्रेमभाव होना चाहिए।

    दिल का मरहम कोई न मिला, जो मिला मर्जी
    कहे कबीर बादल फटा, क्यों कर सीवे दर्जी

    कबीर दास जीं कहते हैं कि इस संसार में ऐसा कोई नहीं मिला जो मेरे हृदय को शांति प्रदान कर सके। जो भी मिले सब अपने मतलब से मिले । स्वार्थियों को देखकर मन जब बादल की तरह फट गया तो उसे दरजी क्यों सीयेगा।

    तकिये का सहारा


    हमें पूछा था अपने दिल को
    बहलाने के लिए किसे जगह का पता
    उन्होने बाजार का रास्ता बता दिया
    जहां बिकती है दिल की खुशी
    दौलत के सिक्कों से
    जहाँ पहुंचे तो सौदागरों ने
    मोलभाव में उलझा दिया
    अगर बाजार में मिलती दिल की खुशी
    और दिमाग का चैन
    तो इस दुनिया में रहता
    हर आदमी क्यों इतना बैचैन
    हम घर पहुंचे और सांस ली
    आँखें बंद की और सिर तकिये पर रखा
    आखिर उसने ही जिसे हम
    ढूढ़ते हुए थक गये थे
    उसका पता दिया
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    सांप के पास जहर है
    पर डसने किसी को खुद नहीं जाता
    कुता काट सकता है
    पर अकारण नहीं काटने आता
    निरीह गाय नुकीले सींग होते
    हुए भी खामोश सहती हैं अनाचार
    किसी को अनजाने में लग जाये अलग बात
    पर उसके मन में किसी को मरने का
    विचार में नहीं आता
    भूखा न हो तो शेर भी
    कभी शिकार पर नहीं जाता
    हर इंसान एक दूसरे को
    सिखाता हैं इंसानियत का पाठ
    भूल जाता हां जब खुद का वक्त आता
    एक पल की रोटी अभी पेट मह होती है
    दूसरी की जुगाड़ में लग जाता
    पीछे से वार करते हुए इंसान
    जहरीले शिकारी के भेष में होता है जब
    किसी और जीव का नाम
    उसके साथ शोभा नहीं पाता
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    रहीम के दोहे:संसार के बड़प्पन को कोई नहीं देख सकता


    रहिमन जगत बडाई की, कूकुर की पहिचानि
    प्रीती करे मुख छाती, बैर करे तन हानि

    कविवर रहीम कहते हैं की अपनी बडाई सुनकर फूलना और आलोचना से गुस्सा हो जाना कोई अच्छी बात नहीं है क्योंकि यह कुत्ते का गुण है. उसे थोडा प्यार करो तो मालिक को चाटने लगता है और फटकारने पर उसे काट भी लेता है.
    भावार्थ-संसार में कई प्रकार के लोग हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जो चापलूसी कर काम निकालते हैं ऐसे लोगों से बचने का प्रयास करना चाहिए. उनकी प्रशंसा पर फूल जाना मूर्खता है क्योंकि उन्हें तो काम निकलना होता है और बाद में हमें मूर्ख भी समझते हैं कि देखो कैसे काम निकलवाया.

    रहिमन जंग जीवन बडे, काहू न देखे नैन
    जाय दशानन अछत ही,कापी लागे काठ लेन

    कवि रहीम कहते हैं कि संसार के बड़प्पन को कोई व्यक्ति अपनी आँखों से नहीं देख सकता. रावण को अक्षत जाना जाता था, परन्तु वानरों ने उसके गढ़ को नष्ट कर दिया.

    भावार्थ-अक्सर यह भ्रम होता है यहाँ सब कुछ कई बरसों तक स्थिर रहने वाला है पर यहाँ सब एक दिन बिखर जाता है. इसलिए अपने अन्दर किसी प्रकार का अहंकार नहीं पालना चाहिए. न ही यह भ्रम पालना चाहिए कि कोई हमसे छोटा है और यह कुंठा भी मन में नहीं लाना चाहिऐ कि कोई हमसे बड़ा है.

    कौटिल्य का अर्थशास्त्र:अब तो उपेक्षासन भी सीख लें


    १.शत्रु को अपने से अधिक जानकर उसके बल के कारण उपेक्षा कर स्थिर ही रहता है उसको उपेक्षासन कहते हैं। जैसे भगवान् श्री कृष्ण ने सत्यभामा के लिए स्वर्ग से कल्पवृक्ष उठा लिया तब देवराज इन्द्र ने अपनी पूरी शक्ति का प्रदर्शन न कर उपेक्षा की-अर्थात उनसे युद्ध नहीं किया।
    २.दूसरों से उपेक्षित होने से रुक्मी ने भी उपेक्षासन किया। जब कृष्ण से युद्ध करने के उपरांत रुक्मी को किसी ने सहायता नहीं दी तो वह उपेक्षासन कर बैठ गया।

    कौटिल्य के इन गूढ़ रहस्यों को समझे तो उनमें बहुत सारे अर्थ निहित हैं। आज एक सभ्य समाज निर्मित हो चुका है और बाहुबल के उपयोग के अवसर बहुत कम रह गए हैं। ऐसे में उनकी नीतियों का अनुसरण और अधिक आवश्यक हो गया है। हम देखते हैं कि हमें उत्तेजित करने के लिए कई विषय उपस्थित किये जाते हैं ताकि हम अपना विवेक खो दें और दूसरे इसका लाभ उठा सकें।

    त्योहारों के मौके पर ही देखें। उनका व्यवसायीकरण इस तरह किया गया है कि लगता है कि पैसे खर्च करना ही त्यौहार है और भक्ति, ध्यान और एकांत चिंतन का उनसे कोई संबंध नहीं है। एक से बढ़कर एक विज्ञापन टीवी और अखबारों में आते हैं-यह खरीदो, वह खरीदो और अपना त्यौहार मनाओ। लोग इनको देखकर बहक जाते हैं और अपना पैसा खर्च करते हैं। और तो और इस अवसर पर कर्जों की भी आफर होती है। जिनके पास पैसा नहीं है वह कर्ज लेकर कीमती सामान खरीदने लगते हैं-यह सोचकर के उसे चुका देंगे पर ऐसा होता नहीं है और कर्ज जिसे मर्ज भी कहा जाता है एक दिन लाइलाज हो जाता है। हम दूसरों का आकर्षण देखकर उसको अपने मन में धारण कर लेते हैं और वही हमारे तनाम का कारण बन जाता है अगर हम उनकी उपेक्षा कर अपनी मस्ती में मस्त रहें तो लगेगा की इस दुनिया में बहुत सी चीजें दिखावे के लिए संग्रहित की जातीं है उनसे कोई सुख मिलता हो यह जरूरी नहीं है और जिनके पास सब कुछ है वह भी शांति नहीं है वरना वह भगवान् के घर मत्था टेकने क्यों जाते हैं?

    यहाँ एक बात याद रखना होगी कि विज्ञापन में काम करने वाले अपने कार्य को ”एड केंपैन”यानि विज्ञापन अभियान या युद्ध भी कहते हैं और इसे इस तरह बनाया जाता है कि समझदार से समझदार व्यक्ति अपनी बुद्धि हार जाये। इस समय हर क्षेत्र में तमाम तरह के प्रचार युद्ध छद्म रूप से हम पर थोपे गए हैं और हम उनसे हार राहे हैं, केवल वस्तुओं को खरीदने तक ही यह प्रचार युद्ध सीमित नहीं है बल्कि अन्य विषयों -जैसे आध्यात्मिक, साँस्कृतिक एवं सामाजिक- पर विचार न कर केवल मीडिया द्वारा सुझाए गए विषयों पर ही सोचें, इस तरह हम पर थोपे गए हैं।

    हम चूंकि बाजार उदारीकरण के पक्ष में हैं इसलिए उनको रोक नहीं सकते पर उनके प्रति उपेक्षासन का भाव अपनाना चाहिए। यह अब हमारे लिए चुनौती है। इसलिए मैं हमेशा कहता हूँ कि हमारे प्राचीन मनीषियों ने जो सोच इस समाज को दिया था उसकी परवाह तत्कालीन समाज ने इसलिए नहीं की क्योंकि उस समय इसकी अधिक आवश्यकता नहीं थी, और वह अब अधिक प्रासंगिक है क्योंकि ऐसे प्रसंग आ रहे हैं जिनमें उनके नियम और सिद्धांत बहुत नये लगते हैं। यह देखकर आश्चर्य होता है कि हमारे प्राचीन मनीषी और विद्वान कितने दूरदर्शी थे।दरअसल हमारे समाज की वास्तविक परीक्षा का समय अब आ गया है और हमें अपने अन्दर ऐसे विचार और नियम स्थापित करना चाहिए जिससे विजय पा सकें।
    हमारे सामने किसी विज्ञापन में कोई वस्तु या कोई विषय होता है तो उस पर गहराई से विचार करना चाहिए, और अगर उसमें अपना और समाज का लाभ न दिखे तो उपेक्षा का भाव बरतना चाहिऐ. हमें किसी विषय, वस्तु या व्यक्ति पसंद नहीं है तो उसे बुरा कहने की बजाय उपेक्षासन करना चाहिए. अगर हम उसे बुरा कहेंगे तो चार लोग उसे अच्छा भी कहेंगे-उसका विज्ञापन स्वत: होगा. हम उपेक्षा करेंगे तो हमारे चित को शांति मिलेगी.

    भीड़ से नहीं निकलेंगे शेर जब तक


    जब किसी के लिखने से
    शांति भंग होती है
    तो उससे कहें बंद कर दे लिखना
    जो बिना पढे ही
    चंद शब्दों को समझे बिना ही
    जमाने पर फैंकते हैं पत्थर
    गैरों के इशारे पर
    अपनों पर ही चुभोते हैं नश्तर
    कह देते हैं लिखने वाले से
    अब कभी लिखते नहीं दिखना

    बोलने की आजादी पर
    जोर-जोर से सुबह शाम चिल्लाने वाले
    अपनी ताकत पर खौफ का
    माहोल बनाने वालों का
    रास्ता हमेशा आसान होते दिखता
    लिखने की आजादी उनको मंजूर नहीं
    क्योंकि कोई शब्द उनके
    ख्यालों से नहीं मिलता
    उनकी दिमाग में किसी के साथ चलने का
    इरादा नहीं टिकता
    उनके खौफ से ही ताकत बनती
    जमाने के मिट जाने का डर जतातीं तकरीरें
    बेबस भीड़ भी होती है उनके साथ
    बढ़ते रहेंगे उनके पंजे तब तक
    भीड़ से नहीं निकलेंगे शेर जब तक
    दिल में हिम्मत जुटाकर लड़ना तो जरूरी है
    काफी नहीं अब लड़ते दिखना

    डूबते को तिनके का सहारा :एक नारा


    डूबते को तिनके का सहारा
    देने में वह नाम कमाते हैं
    पहले आदमी को डूबने की लिए छोड़
    फिर तिनके एकत्रित करने के लिए
    अभियान चलते हैं
    जब भर जाते हैं चारों और तिनके
    तब अपना आशियाना बनाते हैं
    और डूबते को भूल जाते हैं
    फिर भी उनका नाम है बुलंदियों पर
    भला डूबे लोग कब उनकी पोल खाते हैं

    ———————————————
    जब तक जवान थे
    अपने नारे और वाद के सहारे
    बहुत से आन्दोलन और अभियान चलाते रहे
    अब बुढापे में मिल गया
    आधुनिक साधनों का मिल गया सहारा
    वीडियो और टीवी पर ही
    चला रहे हैं पुरानी दुकान
    अब भी चल रहा है उनका जन कल्याण
    पेंतरे हैं नये पर शब्द वही जो बरसों से कहे

    रहीम के दोहे:अपशब्द बोले जीभ, मार खाए सिर


    रहिमन जिह्म बावरी, कही गइ सरग पाताल
    आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल

    कविवर रहीम कहते हैं कि इस मनुष्य के बुद्धि बहुत वाचाल है. वह स्वर्ग से पाताल तक का अनाप-शनाप बककर अन्दर चली जाती है पर अगर उससे लोग गुस्सा होते हैं तो बिचारे सिर को जूते खाने पड़ते हैं.

    भावार्थ-यहाँ संत रहीम चेता रहे हैं कि जब भी बोलो सोच समझ कर बोलो. कटु वचन बोलना या दूसरे का अपमान करने पर मार खाने की भी नौबत आती है. इसलिए किसी को बुरा-भला कहकर लांछित नहीं करना चाहिए.

    रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि
    गाँठ युक्ति की खुलि गयी, अंत धूरि को धूरि

    संत रहीम कहते हैं ठहरी हुई धूल हवा चलने से स्थिर नहीं रहती, जैसे व्यक्ति की नीति का रहस्य यदि खुल जाये तो अंतत: सिर पर धूल ही पड़ती है.

    भावार्थ-श्रेष्ठ पुरुष अपने अपने हृदय के विचारों को आसानी से किसी के सामने प्रकट नहीं करते. यदि उनके नीति सबंधी विचार पहले से खुल जाएं तो उनका प्रभाव कम हो जाता है और उन्हें अपमानित होना पड़ता है.

    सिगरेट का धुआं छोड़ते हुए (sigret ka dhuan-hindi vyangya kavita)


    मुख से सिगरेट का धुँआ
    चहुँ और फैलाते हुए करते हैं
    शहर में फैले
    पर्यावरण प्रदूषण की शिकायत
    शराब के कई जाम पीने के बाद
    करते हैं मर्यादा की वकालत
    व्यसनों को पालना सहज है
    उससे पीछा छुड़ाने में
    होती है बहुत मुश्किल
    पर नैतिकता की बात कहने में
    शब्द खर्च करने हुए क्यों करो किफायत
    कहैं दीपक बापू देते हैं
    दूसरों को बड़ी आसानी से देते हैं
    नैतिकता का उपदेश लोग
    जबकि अपने ही आचरण में
    होते हैं ढ़ेर सारे खोट
    दूसरे को दें निष्काम भाव का संदेश
    और दान- धर्म की सलाह
    अपने लिए जोड़ रहे हैं नॉट
    समाज और जमाने के बिगड़ जाने की
    बात तो सभी करते हैं
    आदमी को सुधारने की
    कोई नहीं करता कवायद
    ————————

    सुबह से शाम तक
    छोड़ते हैं सिगरेट का धुआं
    अपने दिल में खोदते  मौत का कुआँ
    और लोगों को सुनाते हैं
    जमाने के खराब होने के किस्से
    अपना सीना तानकर कहते हैं
    बिगडा जो है प्रकृति का हिसाब
    उस पर पढ़ते हैं किताब
    पर कभी जानना नहीं चाहते
    हवाओं को तबाह करने में
    कितने हैं उनके हिस्से

    इससे अच्छा तो बुतों पर यकीन कर लें


    अपने लिए बनाते हैं ऐसे
    सपनों के महल
    जो रेत के घर से भी
    कमजोर बन जाते हैं
    तेज रोशनी को जब देखते देखते
    आंखों को थका देते हैं
    फिर अँधेरे में ही रोशनी
    तलाशने निकल जाते हैं
    इधर-उधर भटकते हुए
    अनजान जगहों के नाम
    मंजिल के रूप में लिखते हैं
    दर्द के सौदागरों के हाथ
    पकड़ कर चलने लग जाते हैं
    जब दौलत के अंबार लगे हों तो
    गरीबी में सुख आता है नजर
    जब हों गरीब होते हैं
    तो बीतता समय रोटी की जंग में
    अमीरों का झेलते हैं कहर
    नहीं होता दिल पर काबू
    बस इधर से उधर जाते हैं
    जिंदा लोगों को बुत समझने की
    गलती करते हैं कदम-कदम पर
    इसलिए हमेशा धोखा खाते हैं
    इससे अच्छा तो यही होगा कि
    बुतों को ही रंग-बिरंगा कर
    उनमें अपना यकीन जमा लें
    हम कुछ भी कह लें
    कम से कम वह बोलने तो नहीं आते हैं
    ——————————–

    जब अपने मन का सच बोलता है


    जब खामोशी हो चारों तरह तब भी
    कोई बोलता हैं
    हम सुनते नही उसकी आवाज
    हम उसे नहीं देखते
    पर वह हमें बैठा तोलता है
    भीड़ में घूमने की आदत
    हो जाती है जिनको
    उन्हें अकेलापन डराता है
    क्योंकि जिसकी सुनने से कतराते हैं
    वही अपने मन में बैठा सच
    दबने की वजह से बोलता है

    दूसरे से अपना सच छिपा लें
    पर अपने से कैसे छिपाये
    अकेले होते तो बच पाते
    भीड़ में रहते हुए
    लोगों के बीच में टहलते हुए
    महफिलों में अपने घमंड के
    नशे में बहकते हुए
    सहज होने की कोशिश भी
    हो जाती है जब वह
    अपने मन का सच बोलता है

    गीत-संगीत और मोबाइल


    मोबाइल का भला संगीत और गाने और बजाने से क्या संबंध हो सकता है? कभी यह प्रश्न हमने अपने आपसे ही नहीं पूछा तो किसी और से क्या पूछते? अपने आप में यह प्रश्न है भी बेतुका। पर जब बातें सामने ही बेतुकी आयेंगी तो ऐसे प्रश्न भी आएंगे।

    हुआ यूँ कि उस दिन हम अपने एक मित्र के साथ एक होटल में चाय पीने के लिए गये, वहाँ पर कई लोग अपने मोबाइल फोन हाथ में पकड़े और कान में इयरफोन डालकर समाधिस्थ अवस्था में बैठे और खडे थे। हमने चाय वाले को चाय लाने का आदेश दिया तो वह बोला-” महाराज, आप लोग भी अपने साथ मोबाइल लाए हो कि नहीं?’

    हमने चौंककर पूछा कि-”तुम क्या आज से केवल मोबाइल वालों को ही चाय देने का निर्णय किये बैठे हो। अगर ऐसा है तो हम चले जाते हैं हालांकि हम दोनों की जेब में मोबाइल है पर तुम्हारे यहाँ चाय नहीं पियेंगे। आत्म सम्मान भी कोई चीज होती है।”

    वह बोला-”नहीं महाराज! आज से शहर में एफ.ऍम.बेंड रेडिओ शुरू हो गया है न! उसे सब लोग मोबाइल पर सुन रहे हैं। अब तो ख़ूब मिलेगा गाना-बजाना सुनने को। आप देखो सब लोग वही सुन रहे हैं। आप ठहरे हमारे रोज के ग्राहक और गानों के शौक़ीन तो सोचा बता दें कि शहर में भी ऍफ़।एम्.बेंड ” चैनल शुरू हो गये हैं।”

    ” अरे वाह!”हमने खुश होकर कहा-” मजा आ गया!”

    “क्या ख़ाक मजा आ गया?” हमारे मित्र ने हमारी तरफ देखकर कहा और फिर उससे बोले-”गाने बजाने का मोबाइल से क्या संबंध है? वह तो हम दोनों बरसों से सुन रहे हैं । यह तो अब इन नन्हें-मुन्नों के लिए ठीक है यह बताने के लिए कि गाना दिखता ही नहीं बल्कि बजता भी है। इन लोगों नी टीवी पर गानों को देखा है सुना कहॉ है, अब सुनेंगे तो समझ पायेंगे कि गीत-संगीत सुनने के लिए होते हैं न कि देखने के लिए। “

    हमारे मित्र ने ऐसा कहते हुए अपने पास खडे जान-पहचाने के ऐक लड़के की तरफ इशारा किया था। उसकी बात सुनाकर वह लड़का तो मुस्करा दिया पर वहां कुछ ऐसे लोगों को यह बात नागवार गुजरी जो उन मोबाइल वालों के साथ खडे कौतुक भाव से देख और सुन रहे थे। उनमें एक सज्जन जिनके कुछ बाल सफ़ेद और कुछ काले थे और उनके केवल एक ही कान में इयरफोन लगा था उन्होने अपने दूसरे कान से भी इयर फोन खींच लिया और बोले -”ऐसा नहीं है गाने को कहीं भी और कभी भी कान में सुनने का अलग ही मजा है। आप शायद नहीं जानते।”

    हमारे मित्र इस प्रतिक्रिया के लिए तैयार नहीं था पर फिर थोडा आक्रामक होकर बोला-” महाशय! यह आपका विचार है, हमारे लिए तो गीत-संगीत कान में सुनने के लिए नहीं बल्कि कान से सुनने के लिए है। हम तो सुबह शाम रेडियों पर गाने सुनने वाले लोग हैं। अगर अब ही सुनना होगा तो छोटा ट्रांजिस्टर लेकर जेब में रख लेंगे। ऎसी बेवकूफी नहीं करेंगे कि जिससे बात करनी है उस मोबाइल को हाथ में पकड़कर उसका इयरफोन कान में डाले बैठे रहें । हम तो गाना सुनते हुए तो अपना काम भी बहुत अच्छी तरह कर लेते हैं।”

    वह सज्जन भी कम नहीं थे और बोले-”रेडियो और ट्रांजिस्टर का जमाना गया और अब तो मोबाइल का जमाना है। आदमी को जमाने के साथ ही चलना चाहिए।”

    हमारा मित्र भी कम नहीं था और कंधे उचकाता हुआ बोला-”हमारे घर में तो अभी भी रेडियो और ट्रांजिस्टर दोनों का ज़माना बना हुआ है।अभी तो हम उसके साथ ही चलेंगे।
    बात बढ न जाये इसलिये उसे हमने होटल के अन्दर खींचते हुए कहा-”ठीक है! अब बहुत हो गया। चल अन्दर और अपनी चाय पीते हैं।”

    हमने अन्दर भी बाहर जैसा ही दृश्य देखा और मेरा मित्र अब और कोई बात इस विषय पर न करे विषय बदलकर हमने बातचीत शुरू कर दीं। मेरा मित्र इस बात को समझ गया और इस विषय पर उसने वहाँ कोई बात भी नहीं की । बाद में बाहर निकला कर बोला-” एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही कि यह लोग गीत-संगीत के शौक़ीन है या मोबाइल से सुनने के। देखना यह कुछ दिनों का हे शौक़ है फिर कोई नहीं सुनेगा हम जैसे शौकीनों के अलावा।”

    हमने कहा-” यह न तो गीत-संगीत के शौक़ीन है और न ही मोबाइल के! यह तो दिखावे के लिए ही सब कर रहे हैं। देख-सुन समझ सब रहे हैं पर आनंद कितना ले रहे हैं यह पता नहीं।”

    हमारे शहर में एक या दो नहीं बल्कि चार एफ।ऍम.बेंड रेडियो शुरू हो रहे है और इस समय उनका ट्रायल चल रहा है। जिसे देखो इसी विषय पर ही बात कर रहा है। मैं खुद बचपन से गाने सुनने का आदी हूँ और दूरदर्शन और अन्य टीवी चैनलों के दौर में भी मेरे पास एक नहीं बल्कि तीन रेडियो-ट्रांजिस्टर चलती-फिरती हालत में है और शायद हम जैसे ही लोग उनका सही आनद ले पायेंगे और अन्य लोग बहुत जल्दी इससे बोर हो जायेंगे। हम और मित्र इस बात पर सहमत थे कि संगीत का आनंद केवल सुनकर एकाग्रता के साथ ही लिया जा सकता है और सामने अगर दृश्य हौं तो आप अपना दिमाग वहां भी लगाएंगे और पूरा लुत्फ़ नहीं उठा पायेंगे।

    गीत-संगीत के बारे में तो मेरा मानना है कि जो लोग इससे नहीं सुनते या सुनकर उससे सुख की अनुभूति नहीं करते वह अपने जीवन में कभी सुख की अनुभूति ही नहीं कर सकते। गीतों को लेकर में कभी फूहड़ता और शालीनता के चक्कर में भी नही पड़ता बस वह श्रवण योग्य और हृदयंगम होना चाहिए। गीत-संगीत से आदमी की कार्यक्षमता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार अधिक टीवी देखने के बुरे प्रभाव होते हैं जबकि रेडियो से ऐसा नहीं होता। मैं और मेरा मित्र समय मिलने पर रेडियो से गाने जरूर सुनते है इसलिये हमें तो इस खबर से ही ख़ुशी हुई । जहाँ तक कानों में इयर फोन लगाकर सुनने का प्रश्न है तो मेरे मित्र ने मजाक में कहा था पर मैंने उसे गंभीरता से लिया था कि ‘ गीत-संगीत कानों में नहीं बल्कि कानों से सुना जाता है।’

    बहरहाल जिन लोगों के पास मोबाइल है उनका नया-नया संगीत प्रेम मेरे लिए कौतुक का विषय था। घर पहुंचते ही हमने भी अपने ट्रांजिस्टर को खोला और देखा तो चारों चैनल सुनाई दे रहे थे। गाने सुनते हुए हम भी सोच रहे थे-’गीत संगीत का मोबाइल से क्या संबंध ?

    दृष्टा बनकर जो रहेगा


    अगर मन में व्यग्रता का भाव हो तो
    सुहाना मौसम भी क्या भायेगा
    अंतर्दृष्टि में हो दोष तो
    प्राकृतिक सौन्दर्य का बोध
    कौन कर पायेगा
    मन की अग्नि में पकते
    विद्वेष, लालच, लोभ, अहंकार और
    चिन्ता जैसे अभक्ष्य भोजन
    गल जाता है देह का रक्त जिनसे
    तब सूर्य की तीक्ष्ण अग्नि को
    कौन सह पायेगा
    अपने ही ओढ़े गये दर्द और पीडा का
    इलाज कौन कर पायेगा
    कहाँ तक जुटाएगा संपत्ति का अंबार
    कहाँ तक करेगा अपनी प्रसिद्धि का विस्तार
    आदमी कभी न कभी तो थक जाएगा
    जो दृष्टा बनाकर जीवन गुजारेगा
    खेल में खेलते भी मन से दूर रहेगा
    वही अमन से जीवन में रह पायेगा
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